लालच बुरी बला है भाई ! (कहानी) : गोनू झा

Lalach Buri Bala Hai Bhai ! (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

गोनू झा गद्गद मन से मिथिला नरेश के दरबार से अपने घर की ओर जा रहे थे। महाराज ने उन्हें एक भैंस भेंट की थी । भैंस बड़ी मस्त, मोटी ताजी थी । दूध भी खूब देती थी । गोनू झा अपने हाथ में भैंस के गले की रस्सी थामे मस्त चाल में चले जा रहे थे। रास्ते में उन्हें रूपलाल मिल गया । रूपलाल उनके बचपन का दोस्त और पड़ोसी था । जब से गोन झा मिथिला नरेश के दरबार में नौकरी करने लगे थे तब से उनका रूपलाल से मिलना-जुलना नहीं हो पाता था । रूपलाल गोनू झा की दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगति देखकर उनसे मन ही मन जलने लगा था और पीठ पीछे उनकी शिकायत करने से भी नहीं चुकता था । जब भी मौका मिलता तो कह बैठता-अरे गोनुआ कल तक रोटी के लिए मारा -मारा फिरता था । दो जून रोटी नसीब नहीं होती थी । कई बार तो मैं उसे अपने घर ले जाकर खिला दिया करता था ... आखिर वो मेरा बाल सखा जो ठहरा ! गोनू झा को जब इस तरह की बातों का पता चलता तो उन्हें कभी बुरा नहीं लगता क्योंकि तीनों बातें सही थीं । वे गरीबी में पले थे। कई बार भूखे रहकर दिन गुजारा था । रूपलाल उनका बाल सखा था और प्रायः अपने घर ले जाकर, अपने साथ बैठाकर उन्हें भोजन करा चुका था ।

रूपलाल को देखकर गोनू झा प्रसन्न हो गए और रूपलाल का कुशल-क्षेम पूछने लगे । रूपलाल ने औपचारिकतावश उनकी बातों का जवाब दिया लेकिन उसकी आँखें इस शानदार भैंस पर टिकी रहीं । रूपलाल ने उनसे पूछा -" क्यों भाई गोनू! यह भैंस कितने में ली ?"

गोनू झा ने सहजता से जवाब दिया-“अरे भइया रूपलाल । अभी गोनू झा के पास इतने पैसे नहीं हुए कि भैंस खरीदे। यह तो आज मिथिला नरेश ने मेरी एक बात पर खुश होकर मुझे भेंट में दी है । अब मुझे भी तुम्हारी तरह घर में दूध-दही, घी -मक्खन का मजा मिलेगा।"

रूपलाल के साथ ही गोनू झा अपने घर आए और भैंस के लिए बँटा गाड़ने के काम में लग गए। रूपलाल को लगा कि गोनू झा उसकी उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए वह गोनू झा से यह कहकर विदा हो गया कि घर में कुछ काम है, जिसे अभी ही कर लेना जरूरी है ।

गोनू झा ने सहज होकर कहा-“हाँ भइया, जरूरी काम है तो उसे पहले निपटा लो, हमारा मिलना -जुलना तो होता ही रहेगा ।”

रूपलाल ने इसे भी अपनी उपेक्षा ही समझा। उसने मन ही मन सोचा-ई गोनू झा एक भैंस क्या पा गया कि इतराने लगा । इतने दिनों के बाद मैं इसके दरवाजे पर आया-पानी के लिए पूछना तो दूर, बैठने तक के लिए नहीं कहा। वह मन ही मन कुढ़ते हुए अपने घर चला गया ।

गोनू झा से जला- भुना रूपलाल जब भी अवसर मिलता तो लोगों से गोनू झा की मगरूरियत के किस्से नमक -मिर्च लगाकर बताता रहता ।

घर में भैंस आ जाने से गोनू झा की जिम्मेदारी बढ़ गई थी । वे राजदरबार जाने से पहले भैंस की कुट्टी- सानी लगाते, पानी पिलाते और शाम को दरबार से निकलते ही सीधे घर आते और भैंस को नहलाने-धुलाने और उसकी कुट्टी-सानी करने में लग जाते । दिन ऐसे ही गुजर रहे थे।

एक दिन गाँव में मवेशियों का मेला लगा । मेले में गाँव के मवेशियों के स्वास्थ्य परीक्षण की भी व्यवस्था थी तथा अच्छे रख -रखाव वाले मवेशियों की एक प्रतियोगिता भी थी । प्रतियोगिता और स्वास्थ्य परीक्षण में मिथिला नरेश की भैंसें भी शामिल हुईं और रूपलाल की भैंसें भी लेकिन गोनू झा की भैंस को स्वास्थ्य और रख-रखाव दोनों ही दृष्टि से अव्वल घोषित किया गया । इस बात से रूपलाल क्षुब्ध हो गया और उसने एक कुटिल चाल चल दी । रूपलाल ने मिथिला नरेश की भैंसों के साथ प्रतियोगिता में आए मवेशी अधिकारी के कान भरते हुए कहा कि इस पुरस्कार से गोनू झा इतराने लगा है और अपने को महाराज से भी ज्यादा समझदार समझने लगा है। कह रहा था कि भैंस पालना सबके बूते की बात नहीं। देख लिया न, महाराज की भैंस भी मेरी भैंस का मुकाबला नहीं कर पाई । रूपलाल ने ग्रामीणों के कान में भी यह बात दुहराई और मेले से अपनी भैंस लेकर अपने घर लौट आया ।

गाँव में बात फैलते देर नहीं लगती । जंगल की आग की तरह पूरे गाँव में गोनू झा की भैंस के अव्वल आने की खबर फैली तो उतनी ही तेजी से यह बात भी फैली कि गोनू झा कहते हैं कि भैंस पालने की ताकत तो महाराज में भी नहीं है ।

यह चर्चा फैली तो महाराज तक भी पहँची। मिथिला नरेश को इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ कि गोनू झा उनके बारे में ऐसी बात भी कहीं बोल सकते हैं लेकिन जब उन्होंने अपने राज्य के पशु अधिकारी से पशु मेले के बारे में जानकारियाँ हासिल की तब उस अधिकारी ने भी गोनू झा की भैंस के अव्वल आने और गोनू झा द्वारा अकड़ में आकर महाराज के विरुद्ध टिप्पणी करने की बात बताई ।

अब मिथिला नरेश को अपने अधिकारी की बात पर विश्वास नहीं करने का कोई कारण नहीं रहा। गुप्तचरों से तो उन्हें पहले ही गोनू झा के गाँव में फैली चर्चा के बाबत जानकारी हो चुकी थी । क्रोध में आकर मिथिला नरेश ने गोनू झा की भैंस को मरवा देने का आदेश अपने खास प्रहरियों को दे दिया ।

इस बीच गोनू झा को भी गाँव में उड़ी अफवाह का पता चल चुका था । वे इस अफवाह के बारे में महाराज को सफाई देते, उससे पहले ही उनकी भैंस मरवा दी गई। गोनू झा सकते में आ गए। उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा। महाराज से भी नहीं। चमार को बुलाकर उन्होंने भैंस की खाल उतरवा ली और भैंस के शव को खेत में गड़वा दिया । भैंस की खाल को लेकर गोनू झा गाँव के सरहद के पार पहुँचे और वहाँ एक बरगद के पेड़ पर चढ़कर भैंस की खाल को पेड़ की डालों पर पसार दिया । वे रोज रात को उस पेड़ के पास पहुँचते और पेड़ पर चढ़कर भैंस की खाल को छूकर संकल्प लेते कि जब तक इस भैंस को मरवाने वालों से वे बदला नहीं लेंगे तब तक रात को चैन की नींद नहीं सोएँगे ।

इसी तरह सात दिन बीत गए । आठवें दिन अमावस की रात आई। गोनू झा पेड़ पर चढ़े हुए थे कि कुछ चोर पेड़ के नीचे आकर बैठ गए । गोनू झा ने ऊपर से ही अनुमान लगाया कम से कम चार चोर होंगे। चोरों में से एक ने ढिबरी जला ली और ढिबरी की हल्की रोशनी में वे चोरी का माल आपस में बाँटने लगे। गोनू झा भैंस की खाल थामे थोड़ा सा झुककर यह देखने की कोशिश करने लगे कि चोर आपस में क्या बाँट रहे हैं ? गोनू झा के झुकते ही चोरों ने एक थैली पलटी और थैली से अशर्फियाँ गिरने लगीं-छन-छन-छनाक, छनन-छनन ! अशर्फियों की दमक से गोनू झा विस्मित हो गए और डाल से उनका पाँव फिसल गया । पेड़ से गिरने से बचने की कोशिश में शरीर का सन्तुलन बनाए रखने के लिए उन्होंने भैंस की खाल छोड़ दी और पेड़ की एक डाल पकड़ ली । यह सब इतनी तेजी से घटित हुआ कि गोनू झा को भी समझ में नहीं आया कि क्या कुछ घटित हो गया । भैंस की खाल पेड़ पर धूप में सूखकर कड़ी हो चुकी थी । गोनू झा के हाथ से छूटते ही यह खाल पेड़ की डाल पर पत्तों से टकराती, अजीब आवाज पैदा करती हुई चोरों पर गिरी । चोर इसे प्रेत लीला समझकर वहाँ से डरकर सिर पर पैर रखकर भागे।

गोनू झा ने देखा, चोर बिना पीछे मुड़े भागते जा रहे हैं और अन्ततः घने अन्धकार में विलीन हो गए। काफी देर तक गोनू झा पेड़ की डाल पर बैठे अपने को संयत करते रहे । जब उन्हें भरोसा हो गया कि चोर अब वापस नहीं आएँगे तब उन्होंने चोरों का असबाब देखा जिसके बँटवारे के लिए पेड़ के नीचे एकत्रित हुए थे।

गोनू झा की खुशी का ठिकाना नहीं था । उनके सामने स्वर्ण -मुद्राओं की ढेर सी लगी थी और जेवरों की थैलियाँ पड़ी थीं । गोनू झा के सामने समस्या थी कि यह धन वे कैसे लेकर अपने घर जाएँ । अन्ततः उन्होंने अपना कुर्ता उतारा और उसके गले वाले भाग को बाँधकर उसमें सारा धन समेट लिया और फिर अच्छी तरह गाँठ लगाकर सिर पर रख लिया और अपने घर वापस आ गए।

घर पहुँचते-पहुँचते सबेरा होने लगा । पेड़ों पर चिङियों का कलरव शुरू हो गया । घर पहुँचने पर गोनू झा ने संतोष की साँस ली कि उन्हें रास्ते में किसी ने देखा नहीं। गोनू झा ने मन ही मन सोचा कि यह ईश्वरीय कृपा ही है कि उन्हें इतना धन प्राप्त हो गया है । अनायास ही अब उनके मन में यह जिज्ञासा पनपी कि उनके पास स्वर्ण -मुद्राएँ कितनी हैं, यह जान लें । जेवरों की एक पोटली बनाकर उन्होंने सन्दूक में रख लिया और स्वर्ण -मुद्राओं का परिमाण देखकर उन्हें लगा कि यदि इन्हें वे गिनने में लग जाएँगे तो दिन ढल जाएगा तब भी शायद गिनती पूरी न हो । यदि इन स्वर्ण-मुद्राओं को तौल लिया जाए तो काम चल जाएगा। यह विचार मन में आते ही उनके सामने समस्या आई कि तौलें तो कैसे तौलें ? घर में तो तराजू ही नहीं है। फिर उन्होंने सोचा कि चलो, रूपलाल के घर से तराजू ले आते हैं । उसके पास तराजू जरूर होगा । लहना-पसारी का उसका काम है-पुस्तैनी । तरह- तरह के तराजू हैं उसके पास। रूपलाल का खयाल उनके मन में दो कारणों से आया । एक तो रूपलाल उनका बाल-सखा है, दूसरा यह कि उसका घर उनके घर से महज एक फर्लांग की दूरी पर है। मन में तराजू का खयाल आते ही गोनू झा रूपलाल के घर की ओर चल दिए ।

रूपलाल उस समय अपनी भैंसों के लिए चारा तैयार करने में लगा था । गोनू झा को अपने घर आया देखकर वह कुछ चकित सा हुआ और आगे बढ़कर पूछा -" क्यों भाई गोनू, इतने सबेरे कैसे आना हुआ ? तुम्हारी आँखें चढ़ी हुई हैं ! रात भर सोए नहीं क्या ?"

गोनू झा ने कहा -"रूपलाल, तुमने ठीक कहा, रात को सोया नहीं। अभी तुम मुझे तराजू और बाट दे दो । जरा जल्दी में हूँ। चैन से बैठूँगा तो बातें करूँगा।"

रूपलाल तराजू लेने के लिए अपने घर के अन्दर गया । वह शंकालु तो था ही । मन ही मन सोचने लगा, आखिर क्या बात है ? गोनू झा रात भर सोया नहीं और सबेरे- सबेरे तराजू लेने आ गया ? आखिर वह रात में जगा क्यों ? तराजू पर इतने सबरे क्या तौलेगा ? अपने संदेह की प्यास बुझाने के लिए उसने थोड़ी-सी लेई तराजू की पेंदी में यह सोचकर लगा दिया कि गोनू झा इस तराजू से जो कुछ भी तौलेंगे उसका कुछ अंश उसमें जरूर चिपक जाएगा । उसने गोनू झा को तराजू और बाट दे दिए।

गोनू झा तराजू और बाट लेकर अपने घर आ गए। स्वर्ण- मुद्राएँ तौलकर उन्होंने उन्हें एक छोटी बोरी में भरकर संदूक में रखा तथा तराजू वापस करने के लिए चले तो देखा कि तराजू के पेंदे में एक स्वर्ण- मुद्रा चिपक गई है । उन्होंने समझ लिया था कि रूपलाल ने तराजू के पेंदे में लेई लगाई है। शायद वह यह जानने को उत्सुक था कि मैं क्या तौलूँगा । गोनू झा के होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान तैर गई और उन्होंने तराजू के पेंदे में स्वर्ण मुद्रा को ठीक से चिपकाया और तराजू रूपलाल को लौटा आए। गोनू झा को विश्वास था कि अब स्वर्ण-मुद्राएँ तौले जाने की खबर पूरे गाँव में फैल जाएगी क्योंकि वे जानते थे कि बचपन से ही रूपलाल के पेट में कोई बात पचती नहीं है । उसके पास जो भी नई सूचना होती है उसे बढ़ा-चढ़ाकर लोगों को बताने में उसे आनंद आता है। और गोनू झा चाहते थे कि गाँव वालों को जानकारी मिले कि गोनू झा के पास हजारों स्वर्ण- मुद्राएँ हैं ।

हुआ भी यही। दिन चढ़ते ही गोनू झा के पास बधाई देने के लिए लोग आने लगे । उनका मकसद बधाई देना कम, यह जानना जरूरी था कि आखिर गोनू झा के पास इतना धन आया तो आया कहाँ से कि स्वर्ण- मुद्राएँ गिनने की जगह उन्हें तौलना पड़ा ? रूपलाल भी उन जिज्ञासुओं में था ।

गोनू झा ने अपने दरवाजे पर खड़े ग्रामीणों को देखा तो मन ही मन सोचने लगे-ये वही लोग हैं जिनके द्वारा उड़ाई गई अफवाह के चलते उनकी प्यारी भैंस को महाराज ने मरवा दिया ।

अन्ततः रूपलाल ने जब उनसे बचपन की दोस्ती का वास्ता देकर धन का रहस्य जानना चाहा, तब गोनू झा बोले-“भाई रूपलाल, तुमसे क्या छुपाना ? भैंस के मरने के बाद मैंने उसकी खाल उतरवा ली थी क्योंकि मुझे मालूम था कि गाँव के बाहर बरगद के पेड़ पर एक पिशाच रहता है । उसे भैंस की खाल बहुत भाती है और वह भैंस की खाल के लिए जितना चाहो उतना धन देता है। मैं रोज रात को बरगद के पेड़ के पास भैंस की खाल लेकर जाता था । कल अमावस की रात को वह पिशाच मुझे मिल ही गया और उसके बाद उसने मुझसे भैंस की खाल लेकर मुझे स्वर्ण-मुद्राएँ दीं । उस पिशाच ने मुझसे और भी भैंसों की खालें देने को कहा क्योंकि उस पिशाच की बेटी की शादी है तथा वह प्रत्येक बाराती को एक-एक खाल देने का फैसला कर चुका है। पिशाच ने मुझसे कहा कि धन की चिन्ता मत करो, भैंस की खालों के लिए वह मुझे मुँहमाँगी कीमत देने को तैयार है लेकिन मेरे पास अब कोई भैंस तो है नहीं, कि उन्हें मारकर पिशाच को बेच आऊँ इसलिए जो मिल गया, उसी से संतोष कर रहा हूँ । वैसे भी कहते हैं कि लालच बुरी बला है !"

ग्रामीणों को तो मानो खजाने की चाबी मिल गई । सभी खुश-खुश लौटे। गोनू झा को ग्रामीणों की चाल देखकर समझ में आ गया कि वे जो चाहते थे वह हो गया ।

दूसरे दिन पूरे गाँव में दूध के लिए हाहाकार मच गया । गाँव की जितनी भैंसें थीं, मारी जा चुकी थीं । खालें उतारकर इन भैंसों को खेतों में दफना दिया गया था । गोनू झा तक बात पहुँची तो वह बुदबुदाए – जैसी करनी वैसी भरनी । फिर गुनगुनाने लगे- “लालच बुरी बला रे भैया ... लालच बुरी बला।” गोनू झा ने देखा, ग्रामीणों का झुण्ड रोज रात को गाँव के बाहर वाले बरगद के पेड़ के पास हाथ में भैंसों की खाल लेकर जाता और सुबह तक इंतजार करने के बाद लौट आता । इनमें रूपलाल भी था । गोनू झा उन्हें देखकर मन ही मन खूब हँसते और मस्ती में आकर गुनगुनाने लगते – लालच बुरी बला रे भइया, लालच बुरी बला ।

अन्ततः अमावस की रात भी आकर गुजर गई। ग्रामीणों की भैंस की खाल खरीदने के लिए कोई पिशाच नहीं आया । बरगद के पेड़ के पास जो सन्नाटा पसरा था पसरा ही रहा । एक के बाद दूसरी अमावस की रात जब यूँ ही गुजर गई तब ग्रामीणों ने खुद को ठगा हुआ महसूस करना शुरू कर दिया । दूध के अभाव में गाँव में त्राहि-त्राहि मची थी और प्रायः सभी गाँव वालों के खेतों से भैंस के शवों के सड़ने के कारण सडाँध की भभक पैदा होने लगी थी । हारे और क्रोध से उफनते गामीणों का जत्था अब और प्रतीक्षा करने की स्थिति में नहीं था । उनके सब्र का बाँध टूट चुका था । वे सब गोलबंद होकर मिथिला नरेश के दरबार में अपनी फरियाद लेकर गए। महाराज से उन्होंने कहा महाराज ! गोनू झा के कारण आज गाँव में एक भी भैंस जीवित नहीं है । हमने उसके बहकावे में आकर अपनी भैंसें मार डालीं । दूध के लिए तरस रहे हैं और गोद के बच्चे ‘दूध कट्टू' हो रहे हैं । मवेशियों के शवों के सड़ने से पूरे गाँव में संक्रामक रोग फैलने का खतरा पैदा हो गया है।"

महाराज को गोनू झा पर बहुत गुस्सा आया । प्रहरी को भेजकर उन्होंने गोनू झा को दरबार में हाजिर होने को कहा ।

गोनू झा मानसिक तौर पर इस स्थिति के लिए तैयार थे। वे महाराज के दरबार में हाजिर महाराज ने ग्रामीणों द्वारा उनके ऊपर लगाए गए अभियोग के बारे में उनसे जवाब- तलब किया तो गोनू झा ने मुस्कुराते हुए अपनी सहज भंगिमा में कहा– महाराज ! इनसे आप यह पूछे कि क्या मैंने इन्हें भैंसों को मारने की सलाह दी ? ये मुझसे यह पूछने आए थे कि मेरे पास अकूत धन कहाँ से आया ? चूंकि इनका प्रश्न कपोल कल्पित था इसलिए मैंने इन्हें भैंस की खाल की कथा सुना दी यानी कपोल कल्पित प्रश्न का कपोल कल्पित उत्तर दे दिया । और महाराज, इन्हें कथा सुनाने के बाद मैंने यह नीति वाक्य कई बार दुहराया कि लालच बुरी बला है भाई- लालच बुरी बला । मगर इन्हें भूत प्रेतों पर विश्वास है, पिशाचों और वेतालों के अस्तित्व को ये स्वीकारते और पूजते हैं इसलिए इन अन्धविश्वास वाले मस्तिष्क में लालच नहीं करने की सलाह का भी कोई अर्थ नहीं पनपा । अब आप ही कहें महाराज कि क्या मैं इनकी करनी का दोषी हूँ ? यदि आपको मैं दोषी लगूँ तो आप जो चाहे सजा दे लें मुझको।

महाराज ने ग्रामीणों के जत्थे की ओर देखा-सभी चुप थे। आँखें नीची किए खड़े। महाराज समझ गए कि ग्रामीणों ने अपनी लालच में भैंस गँवायी है । उन्होंने गोनू झा को ससम्मान वापस भेज दिया जबकि ग्रामीणों को उनकी मूर्खता के लिए फटकार लगाई। ग्रामीण महाराज के पास से अपना-सा मुँह लेकर लौटे । महाराज ने राज्य की ओर से गाँव के बच्चों के लिए दूध की व्यवस्था करा दी क्योंकि यह उनका राजधर्म था और गोनू झा मस्ती में गुनगुनाते हुए अपने घर की ओर जा रहे थे – लालच बुरी भला है भइया, लालच बुरी बला।

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