लजवन्ती (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्जी'
Lajwanti (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'
किसी एक वक़्त की ढलान पर, क़ुदरत की गोद में एक गाँव बसा हुआ था। गाँव, गाँव के साँचे में ढला हुआ था। वे ही नयी-पुरानी झोपड़ियाँ। वे ही गोबर से लीपी दीवारें। वे ही उखड़ते पलस्तर। घर-घर वे ही मिट्टी के चूल्हे। वो ही फ़िरोज़ी घुआँ। मर्दों के सर पर वे ही बाँके साफ़े। वो ही तारों से गुँथी लाठियाँ। औरतों के जाति माफ़िक अलग-अलग लहँगे। वे ही छाती तक घूँघट। वही भेड़ों की में-में और वही खुरों से उड़ती खेह। वही तेरी-मेरी दाँताकसी। वो ही अपने-अपने झमेले। वे ही ज़ंजीरें, वे ही पगहे और वे ही खूँटे। वे ही ठाँव, वो ही घास-फूस और वही गोबर। वे ही कुएँ और वो ही पानी। वे ही ठाकुर और वही ठकुरानी।
अपनी मर्यादा लायक़ वो गाँव एक मगरे पर काफ़ी ऊपर बसा हुआ था। डेढ़ेक कोस दूर एक तालाब था। पानी फ़क़त दीवाली तक ही टिकता था। तालाब के सूखने पर कुएँ चालू हो जाते थे। फिर तो वे ही गड़गिड़ियाँ, वे ही डोलियाँ और वे ही रस्सियाँ। वे ही पनिहारियाँ और वे ही घड़े। रिम-झिम की झंकार से राह कुछ ऊपर उठ जाती थी। गीत गाती उन टोलियों के इर्द-गिर्द हवा तरसती-सी डोलती रहती थी। सूरज की किरणें उनके रूप-जोबन का परस करती थीं। पेड़-पौधे झुक-झुककर मुजरे लेते थे।
बस्ती से बाहर निकलते ही उन पनिहारियों के मानो पंख निकल आते थे। पंख गले के। पंख हृदय के। लेकिन एक पनिहारिन तो गोया लज्जा की ही पुतली हो। सहेलियों के साथ सुनसान जंगल में भी घूँघट नहीं हटाती थी। न मज़ाक़ व चुहलबाज़ी की कुछ परवाह करती और न ही पलटकर कोई तेज़ जवाब देती। बीस बार बतलाने पर भी बड़ी मुश्किल से बोलती थी। गुलाबी कलाई और पीली ओढ़नी। गोया इन्द्रधनुष के दो रंगों ने गगन का मुक़ाम छोड़कर उसकी देह में शरण ली हो। सुरंगी ईढूँनी पर पीतल का चमचमाता घड़ा और दमकता कलश, गोया ठठेरे को चाँद का टुकड़ा हाथ लग गया हो। सहेलियाँ हर तरह की मज़ाक़ कर-कर थक गयीं, पर उसका बेवड़ा छलका हो तो वह छलके। घूँघट के भीतर फिन मुस्कराती रहती।
एक मर्तबा एक हमउम्र सहेली ने नाक तक आजिज़ आकर आख़िर ताना मारा, “अगर घूँघट ही औरतों के शील की सही कसौटी है तो हम सभी बेहया व छिनाल औरतें हैं।”
ताने की उस मार से भी उसके होंठ नहीं खुले। एक बार सहेली की ओर देखकर वापस मुँह मोड़ लिया। तब साथ चल रही दूसरी सहेली ने कहा, “देख, तू घूँघट कभी उघाड़ना ही मत। मनचला सूरज तुझे चूमने के लिए टूटकर नीचे गिर पड़ा तो सारी दुनिया में हमेशा-हमेशा के लिए अँधेरा हो जाएगा।”
एक बोली, “अगर कोई मरद परिन्दा गाल नोच डाले तो!”
दूसरी बोली, “मरदों की बनिस्बत इसे औरतों का डर ज़्यादा लगता है। बचपन में ज़रूर कोई ज़बरदस्त चोट हुई होगी।”
बाज़ू में चलती एक सहेली धकियाती हुई कहने लगी, “किसी ने कहा था कि इसके तो जनमते समय भी नाभि तक घूँघट खिंचा हुआ था। सोलह सिंगार किया हुआ था।”
एक प्रौढ़ पनिहारी बोली, “ताने मार-मारकर तुम चाहे जितना थूक उछालो, चिकने घड़े पर बूँद नहीं ठहरती। मैं इसके हाथ पकड़ती हूँ, कोई घूँघट हटाने की हिम्मत करे तो आँखों की प्यास बुझे।”
“अगर आँखें भेंगी हुईं तो!”
“अगर चेहरे पर चेचक के दाग हुए तो!”
“अगर होंठ रावणखण्डा हुआ तो!”
“अगर दाँत…!”
आगे के बोल होंठों से बाहर निकलने वाले ही थे कि उसके चेहरे पर नज़र पड़ते ही जीभ की नोक दाँतों के बीच थोड़ी कट गयी। ऐसा रूप न सुना, न देखा। वाक़ई यह रूप तो ढका ही ठीक है। एक साथ सभी सहेलियों के चेहरे उतर गए। सूर्योदय के बाद पूनम के चाँद की क्या बिसात! लाख भला हो बेचारी का जो तमाम औरतों की इज़्ज़त रख ली, वरना सात फेरे के शौहर भी मुँह मोड़ लेते। ऐसा रूप तो सात तालों के भीतर ही छुपा रहना चाहिए।
उन बोलों के साथ ही घूँघट उघाड़ने वाली सहेली ने फ़ौरन वापस घूँघट नीचे क्या डाला, गोया चाँद के आगे झीनी बदरिया छा गयी हो। एक गहरी आह भरकर बोली, “जब यह चाँद दिन को भी ऐसा चमकता है तो फिर राम जाने रात को कैसा दमकता होगा?”
“राम से ज़्यादा तो इसका पति जानता है।”
तमाम सहेलियों के पाँव मानो चिपक गए हों। हाथ पकड़ने वाली प्रौढ़ औरत बमुश्किल अटकते-अटकते बोली, “फ़क़त ऐसा रूप होने पर ही रस के लोभी भँवरे सपने में भी दूसरे फूलों पर नहीं मण्डराते।”
एक ने कहा, “इस मरद जात का तो मुझे मरकर भी एतबार नहीं होता। इन्हें तो मिश्री की बजाय अफ़ीम मीठा लगता है।”
“लगता होगा, पर एक बात तो हमने सोची ही नहीं। अगर तमाम भँवरे दूसरे फूलों से मुँह फेरकर एक फूल पर ही मण्डराने लगे तो अपनी कैसी दुर्गति होगी?”
एक सहेली व्यंग्य से हँसते कहने लगी, “पर साथ-ही-साथ उस फूल की दुर्गति भी कम नहीं होगी।”
कि सहसा पनिहारियों की नज़र सामने से आते एक आदमी पर पड़ी। पर वो तो अपनी धुन में ही मगन था। उसके दोनों हाथों में दो सफ़ेद कबूतर थे, जिनसे बतियाते हुए उसने एक दफ़ा आँख उठाकर देखा तो उसे भी मार्ग पर कुछ औरतें नज़र आयीं। गोया पेड़-पौधों के झुण्ड पर नज़र पड़ी हो। अनघड़ पत्थरों से अधिक उसने उनकी परवाह नहीं की। राह से ज़रा हटकर दूर-दूर चलने लगा। सफ़ेद साफ़ा। सफ़ेद अंगरखी और सफ़ेद ही धोती। आबनूसी दाढ़ी। चेहरा तो ठीक से नहीं दिखा पर फबती निरोगी क़द-काठी। हाथों में थामे कबूतरों को देखते वो काफ़ी आगे निकल गया। एक दफ़ा पीछे मुड़कर देखना तो दूर रहा, उसके मन में वैसी चाह भी शायद नहीं जगी हो।
तमाम सहेलियाँ चुपचाप एक-दूसरे का मुँह जोहने लगीं कि अचानक राह के सन्नाटे को तोड़ती वह हाथ पकड़ने वाली प्रौढ़ औरत उसके घूँघट की ओर देखते बोली, “अगर इस भँवरे को नचा सके तो तेरे रूप को मानूँ!”
घूँघट उघाड़ने वाली सहेली बोली, “यह तो आँखें रहते भी अन्धा है। मन की आँखें भी मुँदी हुई हैं। न जाने यह कैसा मर्द है!”
एक सहेली गर्दन हिलाती कहने लगी, “मुझे तो इसके मर्दपने में ही कमी लगती है।”
साथ वाली सहेली ने शंका की, “पर तुझे इस जाँच का मौक़ा कब मिला?”
मुस्कराहट दबाते बोली, “सपने में।”
इर्द-गिर्द चल रही तीन-चार सहेलियाँ बोलीं, “फिर भी तू नसीबवाली है। तेरा सुहाग बड़ा है।”
इस बार लजवन्ती नार के होंठ खुले। कोयल से सवाई मीठी वाणी में कहने लगी, “पतियों की पीठ पीछे भी तुम्हें ऐसी बातें करते शर्म नहीं आती?”
एक सहेली के मुँह से बरबस जवाब निकला, “तूने शर्म और रूप को एक पल भी छोड़ा हो तो हमारे हिस्से में आए?”
सहेलियों से बहस करने में कोई फ़ायदा नहीं। वैसे भी वह बहुत कम बोलती थी पर उस दिन के बाद तो एकदम मौन ही साध लिया। सचमुच विवाह की वेदी पर उसे ऐसा ही कुछ लगा था, गोया आकाश और ज़मीन का परस्पर पाणिग्रहण हुआ हो। अग्नि देवता की ज्वालाओं की वह अटूट साक्षी कैसे बिसरायी जा सकती है?
दोनों हाथों में उसी तरह दो सफ़ेद-झक कबूतर लिए उस आदमी से राह में सामना होना और उसका ज़रा दूर हटकर जाना उसी तरह जारी था। वह लजवन्ती नार झीने घूँघट से उसका सफ़ेद लिबास और सफ़ेद कबूतर निरखती रहती। एक दिन एक सहेली ने कहा, “अगर यह बावला वचन दे तो मैं औरत की योनि छोड़कर कबूतरी बनने को तैयार हूँ। फिर तो पीछा करके अपने हाथों से मुझे पकड़ेगा ही।”
दूसरी सहेली ने तपाक से जवाब दिया, “अगर उसके कानों में यह भनक पड़ गयी तो वो कबूतर पकड़ना ही छोड़ देगा।”
राम जाने क्या सोचकर एक सहेली ने लजवन्ती नार की ओर मुख़ातिब होकर पूछा, “क्यूँ, तेरा मन कबूतरी बनने को होता है या नहीं?”
तब वह लजवन्ती नार धीमे से बोली, “इंसान की ज़िन्दगी का ऐसा सुख छोड़कर मैं कबूतरी बनने की कामना क्यूँ करने लगी? इस इलाक़े में मेरे पति से सुन्दर और समझदार कितने चेहरे हैं?”
वह प्रौढ़ सहेली एक गहरे राज की बात बतलाते कहने लगी, “हाथ लगे सोने की बजाय औरों का जस्ता ज़्यादा सुहाना लगता है। मन की इस बान पर कौन अंकुश रख सका है?”
उसके बाद तमाम सहेलियों ने बढ़-चढ़कर यह बात कही कि उस लजवन्ती नार के शरीर में मन या हृदय नाम की कोई चीज़ है ही नहीं। वह फ़क़त पत्थर की ख़ूबसूरत मूरत की मानिन्द है। फ़क़त हिलने-डुलने, चलने, बोलने व साँस लेने की ख़ासियत है। फिर तो हर रोज़ वे ही मज़ाक़ें। वही चुहलबाज़ी। राह चलते समय। पानी खींचते समय। पानी छानते समय। सर पर रखे घड़े ख़ाली हों या भरे, वही गुफ़्तगू। गोया दुनिया की दूसरी तमाम बातें चुक गयी हों।
आख़िर बेहद आजिज़ आकर एक दिन उस लजवन्ती नार ने अपने चिपके होंठ खोले। बोली, “अब तो तुम्हारे साथ एक पल भी रहने का धर्म नहीं है।”
सहेलियों को यह बात बुरी लगी। कहा, “जैसे तेरा मन माने, अपना अलग धर्म निभा, पर औरत-जात होकर इस बेजोड़ रूप और यौवन के साथ नितान्त अकेली इस सुनसान जंगल में अपना पानी कैसे रख सकेगी? हम तो इतनी औरतें एक झुण्ड में होते हुए भी भीतर-ही-भीतर डरती हैं।”
तब लजवन्ती नार निस्संकोच बोली, “जिसके मन में चोरी की चाह नहीं, उसे रोशनी से क्या भय! मेरे मर्द को मुझ पर पूरा भरोसा है। मेरे ससुराल वालों को मुझ पर किसी तरह का वहम नहीं है। फिर कैसा डर? किसका डर? मैंने तो डर का नाम ही आज तुम्हारे मुँह से सुना है।”
उस दिन और उस घड़ी से ही तमाम सहेलियों ने उसे छिटका दिया। तब भी उसके मन में भय नहीं हुआ और न ही किसी के संग-साथ की उसने कोई दूसरी जुगत सोची। सर पर बेवड़ा लिए बेहिचक पानी लेने ठेठ कुइयों तक जाती और भरा बेवड़ा लेकर वापस बेहिचक अकेली आती। सर पर सूरज भगवान की निगहदारी, फिर बेचारे इंसान से क्या भय! कबूतरों वाला आदमी सामने मिलता हो तो मिले, वो तो उल्टा राह छोड़कर काफ़ी दूर से निकल जाता है। कभी आँख उठाकर भी उसकी ओर नहीं देखता। अगर अपने मन में कोई पाप नहीं है तो फिर वो कबूतरों के बदले नंगी तलवार लेकर उसके पास से निकले तो भी उसका क्या बिगाड़ लेगा! पर बस्ती के दूसरे मर्द तो एकदम टुच्चे हैं। शादीशुदा होते हुए भी ऐसे बदनीयत हैं, मानो आज दिन तक किसी औरत-जात की शक्ल देखना तो दूर उसका नाम तक न सुना हो। ख़ूबसूरत औरत का पका हुआ माँस तक खाने के लिए भी इन लफ़ंगों को मनाही नहीं है।
गाँव के घर-घर में उस ख़ब्ती आदमी की चर्चा वक़्त-बेवक़्त चलती ही रहती थी। ऐसा पागल व्यक्ति तो बैरन की कोख में भी पैदा न हो। राम जाने अकेले रहने में ही इसे क्या सुख मिलता है! देखते-देखते अपनी सारी बपौती फूँक दी—फ़क़त इन कबूतरों की ख़ातिर। पिछले जन्म में ज़रूर यह बावला कबूतरों की बिरादरी का सरदार रहा होगा। हज़ार सफ़ेद कबूतर इकट्ठे करने की सनक पाल रखी है। न आज तक किसी का कहना माना है, न आगे भी मानेगा। कबूतरों के सिवाय उसे दूसरी किसी बात का शौक़ नहीं। न मवेशियों का, न खेत-खलिहानों का, न ज़मीन-जायदाद का, न धन-दौलत का और न ही घर-गृहस्थी का। इंसान की योनि में आकर कबूतरों के साथ ज़िन्दगी काट रहा है।
हर रोज़ दो नये कबूतर पकड़ने का प्रण पूरा किए बग़ैर वो मुँह में पानी तक नहीं डालता था। राम जाने किस जंगल के किस कोने से वो सफ़ेद कबूतर पकड़कर लाता था? कबूतर हाथ लगने पर उसे ऐसा लगता गोया चाँद-सूरज उसकी पकड़ में आ गए हों। एक बार बाड़े में पहुँचने के बाद भोले कबूतर उस ठौर को छोड़ना ही नहीं चाहते थे। मानो जन्म देने वाले माँ-बाप के घोंसले में आ गए हों। उससे नज़रें चार होते ही कबूतर तो कबूतर, बाज़, गिद्ध, कौवे और साँप तक उस पर एतबार कर लेते थे। पर उसने अपनी प्रीत का प्रसाद कबूतरों के सिवाय किसी को नहीं बाँटा। हाथों से दाना चुगाता। हाथों से पानी पिलाता। एक-एक कबूतर को प्यार से सहलाता।
एक दफ़ा उस लजवन्ती नार को राम जाने कैसा अन्देशा हुआ कि अपनी छोटी ननद से साथ चलने को कहा। सारी बात ध्यान से सुनकर ननद ने फ़ौरन उसके वहम का निबटारा कर दिया। कहने लगी, “कबूतर वाले इस पागल आदमी से तो ज़रा भी डरने की ज़रूरत नहीं है। यह तो सपने में भी किसी को कोई नुक़सान नहीं पहुँचाता। निरीह कबूतर तक जब उसका भरोसा कर लेते हैं तो फिर तुम्हें काहे का डर!”
उसके बाद दूसरे-तीसरे दिन बीच राह उस आदमी से सामना हो जाता। झीने घूँघट से उसकी छवि ठीक से नहीं दिखती, तब वह कभी-कभी पीछे मुड़कर, घूँघट हटाकर उसे देखती। पर वो आदमी अपनी धुन के सिवाय किधर भी आड़ा-टेढ़ा नहीं झाँकता था। वह मुँह मसोसकर, निरुपाय आगे चल पड़ती। होंठों-ही-होंठों में कुनमुनाती—बावला कहीं का! माँ की कोख ने नाहक नौ महीने बोझ ढोया। पर मर्द जात होकर वह राह से दूर क्यूँ हट जाता है? औरतों का डरना तो वाजिब है, पर इसके मन में ऐसा क्या डर है? बिलकुल उलटी खोपड़ी का है।
एक दफ़ा पानी भरने के बाद वह रस्सी समेट रही थी कि वो सामने से आता दिखायी दिया। पानी सूखने पर कुएँ से सटकर सीधा रास्ता था। कोई दूसरा आदमी होता तो प्यास के बहाने ज़रूर पानी पीने आता। पर इसे तो कबूतरों के अलावा कुछ दिखता ही नहीं। कुएँ के क़रीब से जब वो आगे निकलने लगा तो उसने टिचकारी देकर हाथ से बुलाया। उसने मुँह फिराकर उसकी ओर देखा। तब उसने बेवड़ा उठवाने का इशारा किया, पर वो तो अपनी जगह से हिला ही नहीं। खड़े-खड़े ही अबूझ बच्चे की तरह बोला, “मेरे तो दोनों हाथों में कबूतर हैं। छोड़ूँगा तो उड़ जाएँगे।”
फ़क़त इतनी बात जतलाकर, वो आगे अपनी राह चल दिया। और वह लजवन्ती नार पाषाण-पुतली के उनमान एक ठौर रुप गयी। कुछ देर बाद होश आने पर ऐसा लगा मानो किसी अदीठ आग में उसका रूप-यौवन धू-धू जल रहा हो। इससे तो मौत आ जाए तो बेहतर। बेमन हाथों बेवड़ा क्या उठाया मानो दो अनघड़ पत्थर सर पर रखे हों।
दूसरे दिन राम जाने क्या सोचकर वह घर से बड़ा घड़ा और बड़ा कलश लेकर पानी लेने रवाना हुई। हमेशा से घड़ी-सवा-घड़ी पहले।
संयोग की बात कि रस्सी समेटने के बाद उसने इधर-उधर देखा ही था कि वो गाँव से आता दिखायी दिया। कुएँ से दो-एक खेतवा दूर। शायद कबूतरों की खोज में जा रहा है। ज्यों-ज्यों वो नज़दीक आने लगा, त्यों-त्यों वह दाहिने हाथ से पीठ पीछे का ओढ़ना इस तरह नीचे सरकाने लगी, मानो उसे इस हरकत का कोई ध्यान ही न हो। मानो वो हाथ और वो जिस्म, उसका न होकर किसी और का हो।
क़रीब आते ही उसे बतलाते कहने लगी, “अब तो तुम्हारे दोनों हाथ ख़ाली हैं। फिर क्या बहाना लेकर मना करोगे?”
उस अमृतवाणी से चौंककर वो लजवन्ती के चेहरे की ओर देखकर होंठों-ही-होंठों में बड़बड़ाया, “अब तो फ़क़त इक्कीस कबूतरों की कमी है।”
तब वह लजवन्ती नार मुस्कराती-सी बोली, “कम हैं तो पूरे कर लेना, पहले मुझे बेवड़ा तो उठवा दो।”
“कल किसने उठवाया था?”
“कल तुमने मना कर दिया तो ग़ुस्से के ज़ोर से मैंने आप ही उठा लिया।”
“अब वो ग़ुस्सा कहाँ गया?”
“पर आज तो ग़ुस्सा करने पर भी यह बेवड़ा उठने का नहीं है।”
“क्यूँ, आज ऐसी क्या नयी बात हो गयी?”
“दिखता नहीं, यह बेवड़ा उससे कितना बड़ा है?”
“तब यह बड़ा बेवड़ा किसके भरोसे लायी?”
“किसी भले आदमी के भरोसे, जिसके हाथों में अभी कबूतर नहीं हैं।”
तब वो गर्दन लचकाता कहने लगा, “जब तुमने इतना भरोसा किया है तो ज़रूर पूरा करूँगा।”
और वाक़ई वो नीमपागल आदमी उसे बेवड़ा उठवाकर झट रवाना हो गया। न आगे बात बढ़ायी और न एक बार भी पीछे मुड़कर देखा। इसके बनिस्बत घूँघट का भरम बना रहता तो बेहतर था। सृष्टि-रचना से आज तक किसी ख़ूबसूरत औरत के यौवन की इतनी तौहीन नहीं हुई होगी। राह का फ़ासला तय करना मुश्किल हो गया।
दूसरे दिन वह ननद को साथ लेकर कबूतरों के बाड़े में गयी। वह छाती तक घूँघट डाले बाड़े का फलसा उघाड़कर भीतर घुसी। अजीब और अनूठा नज़ारा था। अनगिनत सफ़ेद कबूतर-ही-कबूतर उसके इर्द-गिर्द दाना चुग रहे थे। गुटरगूँ-गुटरगूँ की अमृतवाणी घोलते, पंख फड़फड़ा रहे थे। बारी-बारी उमंग से उस आदमी के सर और कन्धे पर चढ़-उतर रहे थे। दोनों बिलकुल पास चली गयीं, तब भी कबूतरों तक ने कोई तवज्जुह नहीं दी। न डरे और न ही उड़े। उस आदमी की आँखों के सामने फ़क़त कबूतर-ही-कबूतर नाच रहे थे। फिर वो क्यूँ किसी का ध्यान रखे।
ननद ज़ोर से पुकारकर बोली, “मेरी भाभी कबूतरों का मेला निरखने के लिए आयी है।”
तब वो कबूतरों को दाना चुगाते हुए कहने लगा, “पहले ही आना चाहिए था। कबूतरों से बढ़कर इस दुनिया में है ही क्या! पर घूँघट में यह नज़ारा ठीक से नज़र नहीं आएगा। इन भोले कबूतरों से कैसी शर्म!”
पर तब भी लजवन्ती नार ने घूँघट नहीं हटाया। ननद बोली, “मेरी भाभी ने तो घूँघट न हटाने की मानो क़सम खा रखी हो। मैंने भी अभी तक इसका मुँह नहीं देखा।”
कुछ देर घूँघट के भीतर से ही वो नज़ारा देखकर वह जैसे आयी थी, वैसे ही वापस चल दी। अपनी धुन में मगन वो कबूतरों को दाना चुगाता रहा।
लजवन्ती नार घर आयी तब भी उसकी आँखों के आगे वो ही नज़ारा पंख फड़फड़ा रहा था। मीठी गुटरगूँ। वे ही सफ़ेद कबूतर समूची मेड़ी में फड़फड़ाने लगे सो रुके ही नहीं। बेइख़्तियार पति के गालों पर हाथ फिराते कहने लगी, “तुम दाढ़ी रखो तो तुम्हें भी ख़ूब फबेगी।”
और उस सुझाव के साथ ही वह आँखें मूँदकर पति के बहाने उस कबूतर वाले आदमी की बाँहों में समा गयी और काली भुजंग दाढ़ी के परस से अपनी सुध-बुध ही भूल गयी। फिर तो कितनी रात और कितना सपना!
दूसरे दिन पनघट की आधी राह तय करने पर उसे सपने वाला आदमी सामने से आता दिखायी दिया। दोनों आमने-सामने राह चल रहे थे। औरत के सर पर ख़ाली बेवड़ा और आदमी के दोनों हाथों में दो कबूतर। पर आज यह आदमी रास्ते से अलग क्यूँ नहीं हटा? लजवन्ती के रोम-रोम में झुरझुरी दौड़ गयी। निगोड़े के मन में खोट दिखती है! यह सुनसान जंगल! कोई आवाज़ सुनने वाला भी आसपास नहीं है। अब करे तो क्या करे?
पर उसे कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। बीस क़दम दूर से ही वो आँय-आँय बोलते कहने लगा, “फ़क़त दो कबूतर कम हैं। कल मेरा प्रण पूरा होगा। इस ख़ुशी में राह से हटना भूल गया। पर मुझसे डरने की क़तई ज़रूरत नहीं है। इतने बरस कबूतरों की सोहबत यों ही नहीं की!”
मन का खटका मिटते ही वह घूँघट के भीतर से बोली, “कबूतरों की सोहबत से तुम कंकर खाना तो नहीं सीखे!”
वो आदमी कुछ धीमा पड़कर कहने लगा, “उनकी देखा-देख कंकर खाने की कोशिश तो बहुत की, पर कामयाबी नहीं मिली। पेट फूलकर ढोल हो गया। बड़ी मुश्किल से मरते-मरते बचा।”
अपने ही मन का चोर लुप्त होने पर उस लजवन्ती नार को काफ़ी-कुछ इत्मिनान हो गया। घूँघट के भीतर मुस्कराती-सी बोली, “कबूतर तो एक पल की ख़ातिर भी कबूतरी का पीछा नहीं छोड़ते, पर तुमने तो अभी तक ब्याह ही नहीं किया। औरतजात से ही किनारा करते हो।”
काली भुजंग दाढ़ी के भीतर दूधिया हँसी छितराता वो कहने लगा, “कल प्रण पूरा होने पर यह बात सोचूँगा। पर सपने के लायक़ कबूतरी मिलना वश में थोड़े ही है! सपने की उस कबूतरी की ख़ातिर ही तो यह प्रण पाला है। बाईस बरस पहले मुझे ऐसा ही एक अनहोना सपना आया था। तभी से मैंने उस सपने का पीछा नहीं छोड़ा।”
तब वह अकेली पनिहारी खिल-खिल हँसती बोली, “पागल के सर पर सींग थोड़े ही होते हैं! उस सपने के भरोसे सारी ज़िन्दगी गँवा बैठोगे।”
किसी अदीठ ख़ुशी के ज़ोर से वो आदमी उत्साह से कहने लगा, “हज़ार कबूतरों की आसीस से क्या मुझे एक भी वैसी कबूतरी नहीं मिलेगी?”
उस सवाल का कोई पुख़्ता जवाब न देकर, वह आगे रवाना होते हुए बोली, “तुम जानो और तुम्हारा सपना जाने। मुझे तो पानी को देर हो रही है।”
फिर तो उसने पीछे मुड़कर ही नहीं देखा। पर चोटी की सुरंगी लड़ियों में उलझी उस आदमी की निगाहों ने काफ़ी दूर तक उसका पीछा नहीं छोड़ा।
दूसरे दिन फिर उसी जगह सामना हुआ। दोनों हाथों के कबूतरों को लजवन्ती के घूँघट के सामने करते वो बेइन्तहा ख़ुशी से बोला, “आज मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई। भोले कबूतर ज़रूर मेरे सपने की लाज रखेंगे।”
यह बात कहकर उसने बावले की तरह ख़ाली कलश की ओर ऊपर देखा ही था कि यकायक वह लजवन्ती एक फटकार के साथ घूँघट हटाकर तेज़ सुर में बोली, “भोले कबूतरों की सोहबत से ही तुमने ये बिल्ली वाले छल-कपट सीखे हैं? तुम्हारी आँखों का मैल मुझे साफ़ नज़र आ रहा है। इस सुनसान जंगल में मेरे साथ ज़बरदस्ती करना चाहते हो?”
“पर मेरे दोनों हाथों में तो कबूतर हैं।”
“तो क्या हुआ? कबूतर ख़ाली घड़े में डालकर ऊपर से कलश का ढक्कन नहीं दिया जा सकता?”
लजवन्ती के उन बोलों के साथ वो आदमी ख़ुशी से नाचता बोला, “हू-ब-हू वो ही सपना! मुझे कल की तरह याद है। मेरे सपने की कबूतरी, तूने मुझे बाईस बरसों के बाद दरसन दिए। शायद उसी रात तेरा जन्म हुआ होगा। अब ये कबूतर उड़ते हैं तो उड़ने दो। सारा आकाश सामने पड़ा है।”
तब शर्म से दुहरी हुई लजवन्ती के कानों को मनचाही फुसफुसाहट सुनायी दी, “मेरे सपनों की कबूतरी! अब तो एक पल की जुदाई भी मेरे वश में नहीं है।”
दाढ़ी के वास्तविक परस से उसने होश-हवास बिसराते पूछा, “तब इतने बरस यह जुदाई कैसे बर्दाश्त की?”
“पर मेरा सपना तो आज ही सच हुआ है! फिर जुदाई कैसी?”
हाथों की बन्दिश से छूटते ही दोनों कबूतर सफ़ेद पंख फड़फड़ाते उड़े, सो उड़ते ही गए। अछोर आसमान जाने और उनके पर जानें।