कोराईन डूबा : ज्योति लकड़ा

Koraeen Dooba : Jyoti Lakra

नदी पहाड़ की गोद में पलकर करियो धीरे-धीरे बड़ी हुई। नदी पहाड़ से जो जीवन झरता है, उसी झरते हुए जीवन में उसने उठना-बैठना, नाचना-गाना और जीना सीखा। उसके लिए नदीपहाड़ की कल-कल, सन-सन आवाज संगीत है और उस पर की दरख्ने जीवंत रूप में हरियाली ओढ़े आशियाने का मूर्त रूप हैं।

गूं...गूं...गूंम ।
हाँ...हाँ...हाँय

किल...किल...किलकिल ।
ढम...ढम...ढमढम ।

गेडों...गेडों...गेडोंगेडों।
झझ...झझ...झझझझ ।

यही गूंज, यही आवाज करियो के लिए संगीत है, जो नैसर्गिक रूप से रात-दिन चलता रहता है। कोराइन डूबा दह का एक गीत, एक प्रीत, एक रीत मानो इस दह की समृद्ध परंपरा है, जो इसे अपनी धार में युगों से समेटे बहती चली आ रही है और कोराइन डूबा अपने आप ही एक कहानी बन गई।

करियो अपने नृत्य, अपने गीत में रमी (समाहित) हुई युवा जीवन में लोक-गीतों के धरोहर को समेटे हुए, महान् कलात्मकता का रियाज करते-करते कुरबान हो गई, एक महान् परंपरा को जन्म देकर। करियो का प्रेम नैसर्गिक था। उसका प्रेमी सहजू कुँवर निश्छल प्रेम का जीवंत रूप था। उसके संगी-साथी स्वर्ग की अप्सराओं जैसे धरती में स्वर्ग उतार लाए थे ।

कनहर नदी झारखंड और छत्तीसगढ़ का सीमांकन करती हुई कई इलाकों से होते हुए जब 'सालो बढ़नी' गाँव पहुँचती है तो गरिमा की प्रतीक यहाँ की ऊँची-ऊँची विशाल शिला से टकरा जाती है और इस टक्कर से अनायास ही संगीत की एक धारा फूट निकलती है। यही करियो और सहजू कुँवर के प्रेम का आशियाना है। 'सालो बढ़नी' गाँव घने जंगलों से घिरा है। यहाँ साल, महुआ, केंदू, पियार, सानन, गंभार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष हैं, तो धरती पर बेंदो, केंवटी, जैसी असंख्य लताएँ पेड़ों की डालियों को झुकाती, हवा से बातें करती रहती हैं। सहजू बहेरा पेड़ की ऊँची डालियों में लटके बेंदो लताओं से झूले बनाता तो करियो बेंदो पत्तियों से इसे सजाती और आरामदायक बनाती। दोनों झूले पर बैठ दूर दूसरे पेड़ पर लटकी हुई लता को जोर लगाकर अपनी ओर खींचते व ढील दे देते, इससे झूले को गति मिलती, झूला हवा से बातें करने लगता। घंटों झूला झूलते कई सपने बुनते। सहजू से करियो ने घाघ की ओर इशारा करते हुए कहा-

"अगर ई हामिन कर घर होतक तो एहे घरे हमिन दुइयो रहती।"
( यदि ये हमारा घर होता इस घर में हम दोनों रहते।)

सहजू ठठाकर हँस दिया और कहा-

"अरे तोंय करियो तोर घर, ई तोर घर राईत दिन गाते रहेला।"
(अरे तुम करियो, तेरा घर, यह घर तो दिन-रात गाते रहता है।)

सहजू को इस कदर हँसते देख करियो रूठ गई।

"तोंय मजाक करत आहीस आउर मोंय सचे कहत आहों।"
( तुम मजाक कर रहे हो और मैं सच कह रही हूँ।)

फिर सहजू हँसने लगा।

"अरे तोंय करियो... । तोर घर...गावेला...गाते रहेल"...हा...हा...हा...।"
(अरे तुम करियो...तुम्हारा घर...गाता है...गाते रहता है।...हा...हा...हा...।)

करियो गुस्सा गई और बोली-

"का भेलक? गावेला। तोंहों गावीसल आउर मोहों गावील इ तो सचे बात हय, तब ई मोर घर कइसे नी होवी? देइख लेबे इके मोय आपन घर बनाबे करबूं। मोर घर गावेला अउर गाते रही जनम जुगा तोर मोर गीत।"

(क्या हुआ? गाता है, तुम भी गाते हो और मैं भी गाती हूँ। यह तो सच है। तब मेरा घर सच क्यों नहीं हो सकता? देख लेना, इसे मैं एक दिन सच बनाकर रहूँगी। मेरा घर गाता है, गाते रहेगा युगों-युगों तक तेरा मेरा गीत।)

करियो को क्या पता था कि भविष्य किधर मुड़ेगा और अतीत कहाँ दर्द में डूबा कराहता रहेगा!

15-16 वर्ष की चंचल चित्त कोरवा सुंदरी। अंग-प्रत्यंग गोदना से अलंकृत। मोटे-चौड़े होंठ, कजरी आँखें, गले में लाल काले धागों से बँधे चाँदी के सिक्कों की माला, बागे लारछा केश, बीच माँग तथा दोनों कनपटी के ठीक ऊपर दर्जनों 'किलिप' गुँथे हुए। कानों में बिड़यो, हाथों में लाल-लाल चूड़ियाँ। घुटनों तक नीली मंजूर पाड़ साड़ी। जब वह हँसती, तो गदराए मकई के दानों जैसे कतारबद्ध दाँत दूर से ही दिखाई देते।

करियो कनहर नदी के उस पार अपने नानी के घर में रहती थी। इसी गाँव में सहजू कुँवर भी रहता था और वह अपने ढेर सारे ढोर-डाँगर की दिनभर चरवाही करता और सँझिया पहर सबको कनहर में पानी पिलाने के बाद हाँकते हुए बथान ले जाता, क्योंकि 'जोरी' (ढोर-डाँगरों को बाँधने की रस्सी)भी तो उसे ही 'जोरना' (दो गायों के एक-एक पाँव एक ही रस्सी से बाँधना) था। भला उसके सिवा किसे पता था, किसके संग किसको 'खूटना' (बँधना) है। जोरी जोरने के बाद घर घुसते सहजू 'घड़सरी' (पानी से भरे घड़े को रखने की ऊँची जगह) में रखे भरे घड़े के मुखा को पकड़ जैसे ही झुकाता, भरे घड़े से भभके हुए पानी की धार फूटती और पानी हच्चाक से नीचे गिरने लगता। गिरते पानी की आवाज पहचान माँ 'बियारी' (रात्रि का खाना) निकालने लगती और जैसे ही सहजू दलान पर बिछी चटाई पर बैठता, माँ जौ घाठा मछरी 'तियन' (सब्जी) के साथ बियारी परोसती। इधर दूर से मांदर की धुन सुनाई पड़ती थी-

‘‘भूख दिन जौ घाठा...भूख दिन जौ...’’ तो नगाड़े से,
‘‘देबैं होले खाबूं जून...देबैं होले खाबूं जून...’’

और यह आवाज खूँटी में टँगे सहजू के मांदर से टकराकर गूँजने लगती, तो ऐसा लगता मानो यह आवाज खूँटी में टँगे मांदर से ही निकल रही हो। सहजू झटपट खाकर अखड़ा जाने की तैयारी करने लगता। सबसे पहले वह धोती कसता, इसके बाद कमर में डड़खर बाँधने के लिए बड़े वाले घुँघुरों से गुँथे चमड़े के पट्टे लेकर पूरे पुठे को ढक उसी रस्सी से कमर कसता। इसके बाद डांग से आधा दर्जन पईजन उतार चटाई पर बैठ दोनों पैरों में तीन-तीन पैइजन पहन, दोनों पाँव में घुँघुर बाँधकर उठता और दीवार पर टँगे मोर पंखों से बने झाल पेटी को अपनी पीठ पर सजाकर उसकी रस्सी को छाती से नीचे बाँधता और बाकी दो छोरों को दोनों हाथों की उँगलियों में फँसाकर झांपी से नया पच गजा धोती निकाल सर में लहरदार मुरेठा बाँधता। कमर में नगाड़ा और गले में मांदर टाँग अपनी मुरली और बठेना को मांदर में खोंसते हुए अखड़ा डहरता है। रास्ते में उसे खजूरी गाँव के गुना लोहरा, अमीरवा भुइंहर और गोठानी गाँव के चिलगु महतो मिल जाते। चारों मांदर में थाप देते।

‘‘माँग जून, माँग जून, देबैं होले माँग जून’’

बजाते हुए गाने लगते—

‘‘काना कोतर महुवा, खइबे कि खेले चलबे’’
(ब्यारी के खाने में निम्न कोटि का उबला महुआ है, हे मेरे प्रिय, इसे खाओगे या खेलने चलोगे?)

इधर गाना सुनकर जोगनी, मोहनी, सुखनी, रीझनी, करियो, फूलो, झानो, रनियाँ आदि अखड़ा पहुँच जातीं। शाम होते ही मुरली, ढोल, मांदर, नगाड़ा, डफली और गीतों की लय-ताल में गुंजायमान होता गाँव का अखड़ा। रसिका-रसकीन जुड़ते जाते और अखड़ा जमने लगता। जैसे-जैसे रात्रि की पहर बीतती जाती, वैसे ही हर पहर के आधार पर नाच-गाने बदलते जाते। यह रात्रि का चौथा पहर था, मार्मिक गानों के साथ रसिका-रसकीनों के बीच छेड़छाड़ चल रही थी—

‘‘कहाँ कर हकी राउरे ? कोन बोली, बोली ला ? कहाँ कर हकी राउरे ?...
राउर मधुर बोली सुनी मनो नी भरेला सोना... मनो नी भरेला...।’’
(आप कहाँ के हैं, कौन सी बोली बोलते हैं आप? आपकी मधुर बोली सुनकर मन नहीं अघाता है।)

गीतों के लय में ताल देते वक्त रसिका की उँगलियों में फँसे झाल पेटी की रस्सी तन जाती, जिससे मोर पंख रसिका की पीठ पर पंख फैलाए मोर जैसे फैल जाते। रसिका खड़े हो ‘डंड़खर झोरते’ (कमर हिलाते) तो मोर पंख वैसे ही हिलने लगता, जैसे मोर नाचते वक्त अपने पंखों में थिरकन पैदा करता है। रसिका दो कदम आगेबढ़ अपने चहेते रसकीनों के करीब जाकर रस-रसकर नाचते-गाते तो रसकीनें झुक-झुककर ऐसे नाचने-गाने लगतीं, मानो मोरनी मोर के शुक्राणु चुग लेना चाहती हों। नगाड़ा बजानेवाले चउवे में बैठ उचक-उचककर नगाड़ा ठोंकते और रसकीनों को रिझाने की कोशिश करते। सतरंगे स्वर में सवार रसिका-रसीकन के थिरकते पाँव ‘अलबत नजारा’ (अद्भुत दृश्य) पेश करते और नाचते-गाते, बजाते चौथा पहर बीतने लगता। पूरब में ‘भुरका तारा’ (भोर का तारा) उग आया है। सभी को पूर्ववत् आभास है कि अब यही गीत आखिरी गीत है। गयारों को गाय खोलना है तो भइसवारों को भैंस, क्योंकि यह सीजन गाय-बैलों को जंगल में छुट्टा छोड़ने का नहीं है। रसिका-रसकीन आपस में बातें करते हैं और एक-दूसरे से विदा हो घर के लिए डहर जाते।

घर पहुँचकर करियो ‘तुंबा’ (पके कद्दू के खोल से बनाए गए पानी रखने वाला पात्र) में पानी भरती और कंधे में टाँग टोकी नाचू बिछनी बासन उठाती और ‘मकई लाटा’ (भुने मक्के एवं भुने महुए से बना एक प्रकार का खाद्य पदार्थ, जिसे कई दिनों तक रखा औरखाया जाता है) ‘खोंयचा’ (पहने हुए साड़ी के आँचल से सामने थैलानुमा बनाना) में रख अपनी नानी संग महुआ बिनने जाने के लिए पड़ोसियों को हाँक लगाते जंगल की राह जाती थी। इधर पीछे से फूलों, झानो, रिझनी, सुखनी, उनकी भाभियाँ और माएँ भी साथ हो लेतीं। चिड़ियों की चहक, कोयल की कूक के साथ सलोनी सुबह की आगाज होती। वे कनहर की तराई पार कर जैसे-जैसे खैरा पहाड़ की ओर बढ़ते, मोर के केंहो-केंहो और हनुमानों के हुप-हुप की आवाजें निकट आती जातीं। सनसीहार और महुआ फूलों की मादक महक वातावरण में मादक रंग घोलने लगती और उस रंग में रँगी करियो और उसकी सखियाँ मधुर तान छेड़तीं थीं—

‘‘इसन सुंदर धरती के
के तो बनालयं हायरे?
इसन सुंदर धरती के
साइयो तो बनालयं’’

(ऐसी सुंदर धरती को किसने बनाई?
ऐसी सुंदर धरती सिंगबोंगा ने बनाई)

गीत गाते, गुनगुनाते सब अपनी-अपनी पाँत में महुआ चुनते। गड़हा डीपा लोरंगा (ऊँचा-नीचा छोटी-छोटी पहाड़ीनुमा टीला) सबको एक करते करियो और उसकी सखियाँ पूरे जंगल में फैल जातीं और कुहकी मार अपने साखियों से संवाद करती रहतीं। बिछनी बासन भरते, केंद पियार भेलवां खाते सब अमझरिया पहुँचकर लाटा, सातु, महुआ, खाकर कुछ पल सुस्तातीं और सुस्ताकर अपना-अपना नाचू बासन ‘मूड़’ (सिर) में ‘बोह’ (ढो) रास्ता नापतीं। तपते रेत से बचने के लिए लकड़ी और चोप रस्सी से बना ‘खरपा’ (चप्पल) इस वक्त बड़ा काम आता। सूरज जब ठीक माथे पर होता और सब घर घुसते।

करियो कुछ महुआ फूलों को पकाने के लिए छोड़ बाकी को आँगन में पसार देती थी। वह हाथ-मुँह धो रात का पानी बोथा भात, कोयनार साग, तेतर चटनी के साथ केलवा खा, भर दोपहर आराम करती, फिर दिन ढलते ही बटुवा बासन लेकर कनहर नदी जाती। बटुवा बासन को खूब रगड़-रगड़कर चमकाती। कपड़ा काँचती- धोती, मुड़मिसनी माटी (बाल धोने के काम मेंलाई जानेवाली चिकनी तेलयुक्त मिट्टी) से नहाती, फिर अपने हाथों से चुवां बनाती, पानी छींटती और साफ पानी घड़ा और बटुवे में भरती और मुड़ में बटुवा, बटुवे के ऊपर बासन-बरतन, कंधे पर कपड़े, काँख में घड़ा लेकर घर पहुँची तो घर से अपरिचित आवाज आ रही थी। दरवाजे के बाहर काला झबरा कुत्ते को बैठा देख करियो ने ताड़ लिया कि घर में कोई नया मेहमान आया है। कपड़ा लत्ता सँभालकर दरवाजे के अंदर गई और सबके गोड़ लगकर अभिवादन किया। फिर चूल्हा-चौका के कामों में जुट गई। घर में दो नए मेहमान और पड़ोस के मामा, नाना भी थे। दलान पर हो रही बातें करियो को भी सुनाई पड़ रही थीं। करियो के नाना पूछ रहे थे—

‘‘कइसे आली गोय?’ (कैसे आना हुआ ?)

जवाब अगुवा बूढ़ा ने दिया, ‘‘इहे डगर बेड़ाते-बेड़ाते कनहर नदी के सोते सोत आली गोय। नदी कर मछरी कनहों नी बेड़ाय से डहुरा पतई डाबे- ढाँके के बिचार से आली। राउरे मनका सोचील?’’
(ऐसे ही रास्ते ढूँढ़ते कनहर नदी के किनारे-किनारे होते हुए यहाँ तक पहुँचे, नदी के दह की मछली अन्यत्रन चली जाए, तो डहुरा-पतई डालने के विचार से आए। आप लोगों की क्या राय है?)

इस पर करियो के नाना ने कहा, ‘‘बेसे करली, नी डाबले- ढाँकले मछरी थोरे बसी।’’ [आप लोगों ने अच्छा किया। दह में ‘डहुरा’ (पेड़ की डाली) नहीं डालने पर मछली थोड़े ही बसेगी।] करियो के नाना भी मान जाते हैं और बात पक्की हो जाती है।

करियो अपने मन की बात किसी से कह नहीं पाई। हाँ! आजकल उसके गीतों में उसकी आह महसूस की जा सकती थी। देखते-देखते समय बीत गया और करियो की शादी माघ महीने में हो गई। करियो का घर, अखड़ा, नानी-नाना सब छूट गए। उसके लिए अब फागू ही उसका सबकुछ था। अब, वह ‘मुरली मंगराही’ गाँव की नई पुतोह थी। करियो दिनभर फागू के संग उसके कामों में हाथ बँटाती, जंगल जाती। बाँस चुन-छाँट, सेंट-तुन कर सूप, दउरा, नाचू, बिछनी, बासन बनाती। खाना-पानी-पतर सब करती। पर जाने क्यों शाम होते ही करियो किसी घोर संताप में घिर जाती! मुरली, ढोल, मांदर, नगाड़ा, डफली की आवाज जैसेही उसके कानों में सुनाई पड़ती, वह घबराने लगती। उसका दिल धक-धक करने लगता। करियो विकल हो जाती। रोपा ढोभा खत्म होते ही लोग करमा पर्व की तैयारी करने लगते। करियो और फागू भी अपनी नानी के घर करमा मनाने गए। सहजू ढोर-डाँगरों को जंगल में खभा कर (चरने में मग्न कर) मुरली बजाते हुए घर लौट रहा था। अपना पसंदीदा धुन सुन करियो दातून पत्ता तोड़ना छोड़ उसी ओर ‘हुलक’ (झाँक) कर देखने लगी। दोनों की आँखें मिल चमक उठीं। दोनों एक-दूसरे की ओर बढ़े और एक दूजे की आँखों में निःशब्द खो गए।

चुप्पी तोड़ते हुए सहजू ने पूछा ‘‘कइसन आहीस कहिया आले?’’
(कैसी हो, कब आई?)

‘‘ठीक आहों, काइल सांझ बेरा’’ करियो बोली।
(ठीक हूँ, कल शाम को)

‘‘तोयं कइसन हिस?’’ करियो ने पूछा।
(तुम कैसे हो?)

‘‘ठीक आहों।’’ सहजू बोला।
(ठीक हूँ।)

‘‘कोई छोंड़ी खुशाले कि नहीं?’’ करियो पूछी।
(कोई लड़की पसंद की कि नहीं?)

‘‘खुशाय आहों नी।’’ सहजू बोला।
(पसंद किया हूँ न!)

‘‘कहाँ?’’ करियो पूछी।

‘‘इहंइ’’ सहजू बोला।
(यहीं!)

‘‘इहंइ!’’ करियो को आश्चर्य हुआ।

‘‘हाँ इहंइ, भेंटाबे उकर से’’ मुसकराते हुए सहजू बोला।
(हाँ, यहीं, मिलोगी उससे?)

‘‘हाँ भेटाबूं, कखंन भेंटवाबे?’’ उत्सुक्ता से करियो बोली।
(हाँ मिलूँगी, कब मिलाओगे?)

‘‘अधरिए, ऐहे घरी’’ और सहजू हँस दिया।
(अभी, इसी वक्त)

करियो इशारा समझ शरमा गई और धत् बोल, नजरें जमीन पर गड़ा, पैर के अँगूठे से मिट्टी कुरेदने लगी।सहजू मुसकराता रहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद सहज होते हुए करियो ने ही बात की शुरुआत की।

‘‘तब आइज काइल अखड़ा कइसन जमेल? राती करमा खेले आबूं।’’
(तब आजकल अखड़ा कैसा जमता है? रात में करमा नाचने आऊँगी) करियो बोली।

‘‘आब अखड़ा में पहीले तरी रस कहाँ! तोहींन सब छोंड़ी हामिन के छोइड़ के चइल गेला तो हामीन टुरा होय गेली और अखड़ा हों सुना होय जाय हे’’ सहजू बोला।
(अब अखड़ा में पहले जैसा रस कहाँ? तुम सब लड़कियाँ हमें छोड़कर चली गईं। हम लोग अनाथ हो गए और अखड़ा भी सूना हो गया)

‘‘अखड़ा कइसे सून होय सकेला? अखड़ा में तो एक से एक नावां पीढ़ी जुटते रहयंन आउर। असल रसिका-रसकीन त सत-सत गाँव एक राइत में नाचेयंन,’’ करियो बोली।
(अखड़ा कैसे सूना हो सकता है? अखड़ा में तो एक-से-एक नई पीढ़ी जुड़ती जाती हैं और असल रसिका-रसकीन तो सात-सात गाँव एक रात में ही नाचते हैं)

‘‘तोयं संग देबे तो मोयं रोजे अखड़ा सोहान करबूं। कह देबे नी?’’ सहजू बोला।
(तुम्हारा साथ मिले तो मैं रोज ही अखड़ा सोहान करता रहूँगा? बोलो साथ दोगी?)

करियो असमंजस में पड़ गई। क्या कहे?

सहजू फिर कहा, ‘‘तोयं आबे चाहे नहीं, मैं रोज मुरली, ढोल, मांदर, नगाड़ा बजाय के तोके बोलाबूं।’’
(तुम आओगी या नहीं, पर मैं रोज तुम्हें मुरली, ढोल, मांदर, नगाड़ा, डफली, बजाकर बुलाऊँगा।)

‘‘ठीक हय आइज अखड़ा में बताबूं।’’
(ठीक है, आज अखड़ा में बताऊँगी।)

यह कह करियो घर जाने के लिए अपना कदम बढ़ाने लगी। दोनों ने अपने-अपने घर की राह पकड़ी।

शाम को सहजू घर से जल्दी ही अखड़ा पहुँच गया। करियो के वापस आ जाने से सहजू की तड़प व बेकरारी चरम पर पहुँच गई। वह मांदर में थाप देने लगा और ऐसा समाँ बाँधा कि सब रसिका-रसकीन उसी सुर-ताल का अनुसरण करने लगे। अखड़ा से बहनेवाला सुर-ताल चारों दिशाओं में गुँजार मारने लगा। लोग अखड़ा की ओर खिंचे चले आए। करियो भी अखड़ा जाने के लिए व्याकुल हो गई और फागू को मनाने लगी—

‘‘चल नी अखड़ा जाब।’’
( चलो न, अखड़ा जाएँगे)

‘‘तोंय जा मोंय नखों जात,’’ फागू बोला।
(तुम जाओ, मैं नहीं जाऊँगा)

‘‘तोंय नी जाबे होले मोयं एकले का लखे? जाबूं सब तोरे के खोजयं’’ करियो ने कहा।
(तुम नहीं जाओगे तो मैं अकेले कैसे जाऊँगी? सब तुम्हें ही खोजेंगे)

‘‘मोयं मांदर बजायक आउर नाचे नी जानोन अखड़ा जाय के का करबूं? तोयं चइल जा,’’ फागू बहाना बनाने लगा।
(मैं मांदर बजाना और नाचना भी नहीं जानता हूँ। अखड़ा जाकर क्या करूँगा? तुम चली जाओ।) फागू बहाना बनाने लगा।

पर करियो नहीं मानी। उसके जिद के आगे फागू को झुकना पड़ा और दोनों अखड़ा गए। अखड़ा में करियो और फागू सबसे जोहार मोंजरा अभिवादन के बाद औपचारिक बातें कर ही रहे थे कि गुना ने फागू के गले में मांदर टाँग दिया। फागू के मन में अखड़ा के गीत-संगीत हिलोरें मारने लगे। मुसकराते हुए फागू मांदर में थाप देकर अपनी जगह बना लिया। फागू को नाचता देख करियो भी उसी धारा में शामिल हो गई। फागू ने महसूस किया कि वह तो आना नहीं चाहता था और अब इसी में डूब गया। रात्रि समय नाचने-गाने में सब इतने रीझे (मगन) कि किसी को आभास ही नहीं कि किसकी बगल में कौन था। एक-दूसरे के हाथों में गुँथे हाथ, सब एक ही रंग में रँगे थे। अहम मुक्त और समय शून्य हो गया। आदमी देवता, देवता आदमी बन गया। ठीक इसी वक्त गाँव की देवी नाचने आ गई। एक से बढ़कर एक गीत, गीतों के राग, व लय-तालबद्ध नाच चल रहा था। इस वक्त जो जहाँ जैसे नाच रहा था, वैसे ही अविरल अनुरक्त नाचता रहा। पकड़ इतनी मजबूत हो गई, जैसे मूठ बँध गई। इनसान के अंदर अच्छाई जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है, तो उसके अंदर देवता का रूप आ जाता है। इसकी सहज अभिव्यक्ति अखड़ा है। जहाँ नाचते वक्त ग्रामदेवी, करियो, सहजू और उसके संगी-साथी एक हो जाते हैं। तो फर्क करना मुश्किल होजाता है कि कौन देवता, कौन आदमी है? नाचते-नाचते सुबह हो जाती। करियो अखड़ा से घर वापस आकर कामों में जुट गई। अखड़ा में दिनभर नाच-गान चलता रहा। शाम को करम देवता को कनहर नदी में विसर्जित किया गया। करम देवता पधारे और झमा-झम बारिश, भरपूर फसल, स्वस्थ पशुधन और खुशहाल जन-जीवन का आशीर्वाद देकर वापस चले गए।

करियो और फागू भी वापस मुरली मंगराही गाँव लौट गए थे। शाम हुई। मुरली, ढोल, मांदर, नगाड़े की आवाज सुन करियो बड़ी साहस कर फागू को मनाती—‘‘चल नी नाचे जाब।’’ (चलो न, नाचने जाएँगे।) हमेशा की तरह फागू करियो की बात मान लेता है।

पर रोज-रोज कभी इस गाँव तो कभी उस गाँव करमा नाचने जाना। फागू के वश की बात नहीं थी। सो करियो अकेले नाचने जाने लगी। करियो का रोज-रोज नाचने जाना कुछ लोगों के गले नहीं उतरने लगा। उन्होंने फागू को उकसाना शुरू किया, ‘‘तोंय का के मरद हकीस, ना जे जनी के नी सम्हराय पारत हिस? अगर तोर से नखे संभरत तो कह।’’
(तुम कैसे मर्द हो, जो तुमसे पत्नी नहीं सँभल पा रही? अगर नहीं सँभाल पा रहे हो तो हमें बोलो)!

ऐसा सुनते ही फागू को लगा कि किसी ने उसके कानों में गरम तेल डाल दिया हो। फागू बौखला गया। उस शाम पहली बार अपनी रानी को डाँट लगाई। उसने करियो से कहा कि—

‘‘आब तोयं नाचे-गावेक छोड़ आउर घरे सलतंत रह।’’
(अब तुम नाचना-गाना छोड़ो और घर में शांति से रहो।)

करियो आश्चर्य से भर गई। थोड़ी झिझकी, किंतु साहस कर बोली, ‘‘आइज तोके का भेलक जे तोयं इसन कहत आहीस?’’
(आज तुम्हें क्या हो गया है कि तुम ऐसी बातें कर रहे हो?)

‘‘मोयं कइह देलों से कइह देलों।’’ फागू ने पत्थर की लकीर खींच दी।
(मैंने कह दिया, सो कह दिया। )

‘‘तोयं काले इसन उसन सोचत आहीस?’’ पूरे शांत भाव से करियो बोली।
(तुम क्यों ऐसी-वैसी बातें सोचते हो?)

फागू आवेश में आ गया, ‘‘इसन उसन, तोयं काले अखरा जाइसला बताव?’’
(ऐसी-वैसी? तुम क्यों अखड़ा जाती हो, बताओ?)

उसने करियो को धिक्कारते हुए चेतावनी दी— ‘‘अगर आइज से अखरा गेले त देइख लेबे, हाँ।’’
(अगर आज से अखरा गई तो समझ लेना।)

करियो भी जिदिया गई और बोली, ‘‘अखरा त गोटे दुनिया जायला, मोहों जाबूं।’’
(अखड़ा तो सभी जाते हैं, मैं भी जाऊँगी।)

‘‘अगर तोंय अखरा गेले तो देइख लेबे।’’
(अगर तुम अखरा गई तो देख लेना।)

गुस्से से चीखते हुए फागू उठ खड़ा हुआ। शाम होते ही गदरा मकई खाने के लिए सियार गाँव चढ़ जाते और भरपेट खा लेने के बाद हुँआ-हुँआ करने लगते। पर जाने क्यों आज सियार हुँआ-हुँआ की जगह पूरे गाँव में उछल-उछलकर फें, फें, फें कर रहे हैं। सियारों का एक साथ इस तरह करना किसी अपशकुन की ओर संकेत कर रहा था।

सलेटी शाम की सुरमई रंग के पीछे करिया अँधरिया झाँक रहा था, करियो को इसका अंदाजा नहीं था। हमेशा की तरह वह अपने कामों को जल्दी-जल्दी निपटाने की कोशिश में थी। मगर आज उससे सब उलट-पुलट हो जा रहा था, उसके भीतर एक द्वंद्वयुद्ध चल रहा था। अखड़ा जाए या न जाए? पर उन्मुक्त प्रेम की सरिता सारे तटबंधों को तोड़ बह निकलती है। भला इसे कोई कब तक बाँधे रख सकता है। भादों की चाँदनी रात, चाँद बादलों के साथ लुका-छिपी खेल रहा है और इधर फागू भी करियो के साथ यही खेल-खेल रहा है।

करियो नदी तट चली जाती है। भादों की गहरी कनहर नदी में उतरना संभव नहीं होता है। इसलिए करियो नदी पार करने के लिए अपने चिर-परिचित घाघ की ओर बढ़ जाती है। यह वही जगह है, जहाँ उसने सहजू के साथ मिलकर कई सपने बुने थे। करियो बहेरा पेड़ के पास गई और उस पर लटके बेंदो लताओं को स्पर्श करती हुई पहचानने की कोशिश करने लगी कि एक चिकनी मोटी लता उसके हाथों में आ जाती है। वह झूम उठी और लता को पकड़ चूम लिया। फिर उस लतासे अपने ऊपर दोनों बाँहों के नीचे एक फंदा डाला। फिर लता को पकड़ पीछे की ओर चलती गई, तब तक पीछे चलती गई, जब तक कि लता में खिंचाव नहीं आ गया। अधिक खिंचाव की वजह से बहेरा की डाली झुक गई और लता करियो को खिंचने लगी। करियो पीछे हटने में पूरी शक्ति लगा रही थी। पर अब और पीछे नहीं हटा जा सकता था। तब करियो लता में झूल जाती और करियो लता संग हवा की रफ्तार से एक पल में नदी के उस पार पहुँच जाती। उस पार पहुँचते ही करियो रस्सी को झट ढील दे देती। रस्सी को महुवे पेड़ की डाली में बाँध देती और वह सीधे अखड़ा नाचने पहुँच जाती।

इधर फागू ने छुपकर देख लिया कि उसकी रानी कैसे नदी पार होती है। गुस्से में उसने सोचा कि न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी और लता को अधकट्टा कर छोड़ दिया। करियो इन सब से बेखबर खूब नाचती-गाती रही। भिनसरे अपने ससुराल गाँव वापस आने के लिए वह अखड़ा से निकल पड़ी। रास्ते चलते गीत गुनगुनाती चली—

‘‘जे मोके पार करीसेके देबूं मूँगा मोती जे मोके पार करी-करी आउरो देबूं हाइ रे सोना मुहाँ के जबान।’’
(जो मुझे पार लगाएगा, उसे मूँगा-मोती दूँगी और दूँगी उसे, मुँह की जबान।)

नदी पार करने के लिए जैसे ही करियो खिंची हुई बेंदो लता का फंदा अपने ऊपर डाल उस पर झूली, बिजली की रफ्तार के साथ लता बीच नदी में पहुँचते ही दो भागों में बँट गई। नदी के बीच ‘झाउह’ की आवाज नदी में पसर गई। नदी की गति निरंतर अपनी स्वाभाविकता में बढ़ती चली—कल-कल-कल-कल हचाक...। इसी आवाज में करियो समाहित हो गई।

नदी के अथाह जल में करियो को डूबते देख फागू को मानो होश आ गया और वह पश्चात्ताप में बड़बड़ाया। यह क्या किया मैंने? करियो...करियो...करियो...उसके अंदर जैसे गूँजता है। फिर अचानक वह चिल्लाता है, ‘‘करियो! जंगल-झाड़, नदी-नाला, खेत-टांड़, गाँव-डहर तक यह आवाज जाकर टकराती है।’’

फागू के दुःख से गाँववाले भी अफसोस करते हैं।किसी की आँखों में आँसू छलकता है, तो किसी को यह दृश्य बेचैन करता है। कहाँ चली गई करियो? क्या हो गया? करियो नदी के संग हो गई। आज भी जब कनहर नदी भरती है, तब कोराइन डूबा से करियो और सहजू के अनहद वियोग का गीत-संगीत गूँजता रहता है—

गूं...गूं...गूंम किल...किल...किलकिल गेडों...गेंडों...गेंडों...!

साभार : वंदना टेटे