खेत की सिंचाई (कहानी) : गोनू झा

Khet Ki Sinchai (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

शातिर चोरों को हवालात की सैर करवाने के कारण गोनू झा पूरे मिथिलांचल के चोरों की आँखों की किरकिरी बन गए। मिथिला में ठग और चोर गोनू झा से बदला लेने की ताक में रहने लगे। ठगों और चोरों की नाक में नकेल डालने के कारण मिथिला नरेश की दृष्टि में गोनू झा का सम्मान और बढ़ गया ।

लंगडू उस्ताद के गिरोह के कुछ लोग कारावास से सजा काटकर बाहर आए। कारावास से छूटने से पहले उन्होंने लंगडू उस्ताद के सामने शपथ ली कि जब तक गोनू झा से बदला नहीं ले लेंगे तब तक चैन से नहीं बैठेंगे।

गोनू झा इस स्थिति का अनुमान उस दिन ही लगा चुके थे जिस दिन उनके दरवाजे पर लंगडू उस्ताद का गिरोह गिरफ्त में आया था इसलिए उन्होंने कोतवाल को कुछ आवश्यक निर्देश दिए थे।

कोतवाल गोनू झा का अहसानमंद था क्योंकि चोर गिरोह की गिरफ्तारी के बाद गोनू झा की अनुशंसा पर महाराज ने उसकी पगार बढ़ा दी थी । एक तरह से पूरी मिथिला से अपराधियों का सफाया हो चुका था जिसके कारण कोतवाल भी निश्चिन्त था । रसिक प्रवृत्ति का कोतवाल मौज-मस्ती में डूबा रहने लगा ।

उन दिनों मिथिला में भाँग और ताड़ी का नशा प्रचलन में था लेकिन रसिक कोतवाल अपने लिए पश्चिम बंगाल से मदिरा मँगाया करता था । उसके कुछ आसामी उसके लिए खास मनोरंजन की व्यवस्था करते थे जिसमें पीना -पिलाना तो होता ही था रास -रंग के भी अवसर थे। मखाना और मछली के व्यापारी कोतवाल को प्रसन्न रखने के लिए वह सब व्यवस्था करते जिसकी ललक एक रसिक व्यक्ति को रहती है ।

कोतवाल अपने आवास के बाहरी कमरे में बैठा था । उसके हाथ में मदिरा थी । सामने थाल में भूनी हुई मछलियाँ रखी थीं । एक मांसल शरीर की बाला ठुमका लगा-लगाकर कुछ गा रही थी ।

तभी किसी ने द्वार पर दस्तक दी । कोतवाल ने बुरा-सा मुँह बनाया और झल्लाते हुए उठा । उसने नर्तकी को इशारा किया । नर्तकी पर्दे की ओट में चली गई । कोतवाल कक्ष से बाहर आया । द्वार पर उसका मुख्य मुखबीर खड़ा था । उसने कोतवाल को फुसफुसाते हुए कुछ कहा और वहाँ से वापस चला गया ।

कोतवाल वापस अपने कमरे में आया । उसने नर्तकी की ओर हसरत-भरी निगाहों से देखा-थोड़ी देर तक उस रूपसी को निहारने के बाद कोतवाल ने कहा -" मुझे अभी निकलना पड़ेगा प्रिये ! अभी, और इसी समय ..."

नर्तकी ने आँखों की भंगिमा बदली, मानो पूछ रही हो -ऐसी भी क्या जल्दी है? लेकिन कोतवाल ने सिर पर पगड़ी डाली और नर्तकी को कुछ मुद्राएँ थमाते हुए कहा -"जल्दी ही मिलेंगे... इस प्यासी शाम की कसम ! अभी तुम्हें जाना ही पड़ेगा।" कहकर कोतवाल कमरे से बाहर निकल गया ।

नर्तकी भी मुद्राएँ अपने बटुए में डालते हुए ठुमकती हुई कमरे से निकल गयी ।

कोतवाल तेज गति से कहीं जाने लगा । उसकी मुखमुद्रा गम्भीर थी ।

गोनू झा अपने दरवाजे पर टहल रहे थे। शाम ढल चुकी थी लेकिन हल्का उजाला फैला हुआ था । तभी गोनू झा को घोड़े की टापों की आवाज सुनाई पड़ी । उन्होंने मन ही मन सोचा कि इस समय भड़ौरा जैसे गाँव से कौन घुड़सवार गुजर सकता है ?

उन दिनों जमींदार, राजा -महाराजा या राजदरबार का कोई ऊँचा ओहदेदार ही घोड़े की सवारी करता था । नगर कोतवाल, सेनापति और रंगरूट प्रमुख को राज्य की ओर से घोड़े मिले हुए थे जिनका उपयोग वे विशेष परिस्थितियों में करते थे।

गोनू झा कुछ सोच पाते, तभी दूर से आते घुड़सवार पर उनकी नजर पड़ गई। शाम ढल चुकने के कारण नीम-अँधेरे में घुड़सवार की आकृति तो समझ में आ रही थी किन्तु वे उसे पहचान नहीं पा रहे थे। उत्सुकता बनी हुई थी कि घुड़सवार कौन है इसलिए वे उधर ही देखते रहे । थोड़ी ही देर में घुड़सवार उनके पास ही आकर रुक गया । वह कोई और नहीं नगर कोतवाल था । गोनू झा का अभिवादन करने के बाद कोतवाल ने लंगडू उस्ताद के गिरोह के कुछ चोरों के कारावास से मुक्त होने की खबर दी ।

गोनू झा ने कोतवाल से कहा -" तीन साल तक तुमने खूब मौज-मस्ती कर ली, अब कर्त्तव्य के प्रति सतर्क और तत्पर हो जाओ। आगे तुम जानते हो कि तुम्हें क्या करना है ।" कोतवाल वहाँ से चला गया । गोनू झा अपने घर की ओर चल दिए।

इस घटना को कई दिन बीत गए। फिर महीने और साल भी बीता । मिथिलांचल में अमन चैन रहा। कहीं कोई चोरी की घटना नहीं घटित हुई। एक शाम गोनू झा दरबार से वापस आ रहे थे कि अचानक उनकी नजर चार -पाँच लोगों पर पड़ी । वे सभी हट्टे- कट्टे थे-घुटने के ऊपर धोती समेटकर बाँधे हुए और नंगे बदन । उनके नंगे बदन पर अजीब-सी चमक थी, जैसे तेल चुपड़ा हुआ हो !

गोनू झा इस तरह की अस्वाभाविक बातों को नजरअन्दाज नहीं करते थे। उनका दिमाग तुरन्त सक्रिय हो गया । वे एक पेड़ की ओट में खड़े हो गए और उन लोगों पर नजर रखने लगे।

वे चारों गोनू झा के घर के आस -पास ही चहल-कदमी करते रहे फिर उनमें से तीन उनके बगान की ओर चले गए । एक आदमी उनके घर के आस- पास बना रहा ।

गोनू झा को इन चारों का व्यवहार बहुत असामान्य लगा। अन्ततः कुछ सोचकर गोनू झा सामान्य चाल से चलते हुए अपने घर पहुँच गए। थोड़ी देर बाद हाथ में मशाल लिए वे बाहर निकले और मशाल की रोशनी में घर के दरवाजे से लेकर घर तक आने की राह तक वह झुक-झुककर कुछ तलाशते रहे । थोड़ी-थोड़ी देर पर वे कमर सीधी करने के लिए खड़े होते और फिर कुछ खोजने लगते ।

थोड़ी देर के बाद एक व्यक्ति उनके पास आया और पूछने लगा, “क्या खोज रहे हैं पंडित जी ?"

“अरे, क्या बताएं भाई ! आज ही महाराज ने मुझे सौ स्वर्ण- मुद्राएँ उपहारस्वरूप प्रदान की थीं । उनमें से पाँच स्वर्ण-मुद्राएँ कहीं गिर गईं । मेरी पत्नी इससे इतनी कुपित है कि क्या कहूँ ! कहती है, जब तक पाँचों स्वर्ण-मुद्राएँ मिल न जाएँ तब तक मुँह मत दिखाना।"

स्वर्ण- मुद्राओं की बात सुनकर वह व्यक्ति उत्सुक हुआ और गोनू झा के साथ झुककर स्वर्ण मुद्राएँ खोजने में उनकी मदद करने लगा ।

अचानक एक स्थान पर गोनू झा जल्दी से लपके, झुककर एक मुद्रा जमीन से उठाई और बोले-“चलो भाई! एक तो मिला।"

उस व्यक्ति ने देखा, गोनू झा की दो अंगुलियों के बीच एक स्वर्ण -मुद्रा चमचमा रही थी । इसी तरह गोनू झा इधर-उधर मशाल लिए मुद्राएँ तलाशते रहे और एक-एक कर पाँच स्वर्ण -मुद्राएँ उन्हें अपने घर के आस- पास ही मिल गईं। उन्होंने राहत की साँस लेते हुए उस आदमी से कहा-“अरे भाई! तुम्हारा आना बहुत शुभ रहा। मेरी पाँचों स्वर्ण- मुद्राएँ मिल गईं । अब जाकर अपनी पत्नी के सामने इन्हें पटक दूंगा और कहूँगा लो, गिन लो, पूरी सौ स्वर्ण- मुद्राएँ । जाओ भाई, तुम भी अपनी राह लो ।" इतना कहकर वे अपने घर की ओर चल दिए।

वह व्यक्ति गोनू झा के जाने के बाद उनके बगान में घुस गया जहाँ उसके चार साथी इन्तजार कर रहे थे। गोनू झा के हाथों में चमचमाते सिक्के उसने देखे थे और उसे विश्वास हो गया था कि गोनू झा के घर में अभी सौ सोने के सिक्के हैं । चारों थोड़ी देर तक गुपचुप मंत्रणा करते रहे । फिर उन्होंने देखा कि गोनू झा कहीं जा रहे हैं शायद बाजार । घंटे भर बाद गोनू झा लौटे ।

वे चारों कोई और नहीं, साल भर पहले कारावास से मुक्त हुए लंगडू उस्ताद के गिरोह के सदस्य थे। गोनू झा के घर चोरी करके उनसे बदला लेने का संकल्प पूरा करने आए थे। चूंकि चोर पहले भी गोनू झा से गच्चा खा चुके थे इसलिए इस बार वे फूंक-फूंककर कदम रखना चाहते थे। उनके बीच फुसफुसाहटों में ही बात हुई । कोई मानने को तैयार नहीं था कि जिसके पास स्वर्ण- मुद्राएँ होंगी, वह उसकी चर्चा सरेआम किसी अजनबी के साथ करता फिरेगा ।

जब गोनू झा बाजार से लौटकर आए तब वे चारों चोर गोनू झा की खिड़की के पास पहुँचे और भीतर क्या हो रहा है, उसका आहट से लेने लगे । भीतर गोनू झा अपनी पत्नी से कह रहे थे – “अरे भाग्यवान, समझा करो। ये स्वर्ण-मुद्राएँ घर में रखना ठीक नहीं है। मुझ पर विश्वास करो मैं इन्हें ऐसी जगह रख दूँगा जहाँ से चोर तो क्या, चोर का बाप भी इन्हें नहीं चुरा सकता । जमाना खराब है। कब किसकी नीयत बदल जाए, कौन जानता है-लाओ, थैली मुझे दे दो, मैं इन्हें कुएँ में डाल आता हूँ।"

फिर पंडिताइन की आवाज उभरी -" और जब जरूरत होगी तब आप इसे निकालेंगे कैसे ?"

“तुम भी बच्चों जैसी बातें कर रही हो ? कुआँ अपने दरवाजे पर है। कोई बाहर का आदमी इससे पानी लेने आता नहीं है । जब जरूरत होगी तो कुएँ का पानी बाहर निकाल लेंगे। कितना समय लगेगा ? दो घड़ी, न चार घड़ी। एक पहर, न दोपहर... और क्या ? कितने जन लगेंगे? दो जन नहीं, तो चार जन । चलो, बाल्टी अभी ही निकालकर रस्सी समेत कुएँ पर रख देता हूँ । जब तेरी इच्छा हो मैं रहूँ न रहूँ-तुम भी चाहो तो जन-मजदूर लगाकर कुएँ का पानी निकलवा लेना...लाओ, अब स्वर्ण-मुद्राओं की थैली मुझे दे दो ।"

थोड़ी देर बाद एक आवाज उभरी-छपाक! जैसे कोई भारी वस्तु पानी में फेंकी गई हो ! चोरों ने आवाज सुनी । अब वे गोनू झा और उनकी पत्नी के सोने का इन्तजार करने लगे ।

रात गहरा रही थी । चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था । कभी -कभी सियार की आवाज इस सन्नाटे को तोड़ती थी । जब चोरों को विश्वास हो गया कि गोनू झा सपत्नीक सो चुके हैं वे पाँव दबाए कुएँ तक आए। यह देखकर उनकी बाँछे खिल गईं कि सचमुच कुएँ पर चार बाल्टियाँ रस्सी सहित रखी हुई हैं । वे पानी खींचने में लग गए। कोई कुछ बोल नहीं रहा था । कुएँ में बाल्टी भी इतनी धीमी गति से डाली जाती कि कोई आवाज नहीं उभरे ।

सबेरा होने को आया । चारों चोर तन्मयता से अपने काम में लगे थे। अचानक उनमें से एक ने कहा -"कुएँ में अब पानी कम ही बचा है । हममें से एक आदमी कुएँ में रस्सी के सहारे उतरकर पानी से वह थैली निकाल सकता है।"

यह विचार आते ही वे इस बहस में पड़ गए कि पानी में कौन उतरेगा। तभी एक साथ कई लोग बागान से निकले और उन चोरों पर झपट पड़े।

बाहर से उठा-पटक की आवाज आने से गोनू झा की नींद खुल गई। उन्होंने पत्नी को जगाया । दोनों उठकर बाहर आए। सामने देखा-कुएँ के पास चारों चोर बँधे पड़े थे। नगर कोतवाल अपने जवानों को कुछ समझा रहा था । गोनू झा पर नजर पड़ते ही उसने उनका अभिवादन किया ।

इस बार गोनू झा से पहले उनकी पत्नी बोली-" अरे ! इन लोगों को बाँध क्यों दिया ? रात भर इन लोगों ने हमारे बगान में पानी पटाया है । ऐसी सिंचाई तो हम पैसा देकर भी नहीं करा पाते । पेड़ों की प्यास बुझानेवालों के साथ ऐसा व्यवहार ठीक नहीं। इन लोगों को ले जाइए और इतनी आवभगत कीजिए कि इनका मेहनताना वसूल हो जाए।"

दरअसल, रात को ही गोनू झा को सन्देह हो गया था कि चोर उनके घर धावा बोल सकते हैं इसलिए बाजार जाकर एक सुरक्षाकर्मी के मार्फत उन्होंने कोतवाल को खबर कर दी थी । सुरक्षाकर्मी उन्हें पकड़कर ले गए।

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