खटकरम (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्‍जी'

Khatkarma (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'

हिन्दू धर्म की महिमा न्यारी। मरे मानुस का खर्चा भारी। धर्म-कर्म की बातें झीनी। जीवित काया माटी से हीनी। मृत्यु उपरांत अनगिनत मोल। ढोल के भीतर पोलम-पोल। सुनो सुन पड़ता है डंके की चोट। धर्म की पेढ़ी में पूरी खोट। तो भगवान भले दिन दे कि एक था ठाकुर। जागीर तो ठीक-ठाक ही थी। पर ठकुराई बड़ी थी। पुरखों की संचित पूँजी। अकूत गहने। चाँदी के थाल। चाँदी के चमड़पोस हुक्के। अफीम गलाने के लिए चाँदी गलनी, चाँदी का टेर्या और चाँदी का गट्ठा। चाँदी के पात की चार-पाँच चिलमें। सारे ठाट-बाट के बीच कमी बस यही थी कि ठकुरानी की गोद हरी नहीं हुई। तब गद्दी सँभालने के लिए भाइयों के एक लायक कुँवर को गोद लिया। ठाकुर की खुशी के लिए ठकुरानी ने जैसे-तैसे अपने मन को समझाया। कुँअर भी माँ-बाप का भरसक मान रखता था। फकत मान-सम्मान से ही ऐसी संचित जागीर हाथ लगेगी।
आस का अमर सुहाग। ठकुरानी के कहे-कहे ठाकुर ने कुँअर का पच्चीस बरस हो जाने पर भी ब्याह नहीं किया। माँ दुर्गा की दया हो तो अब भी गोद भर सकती है। पर आस फली नहीं। आखिर मोतबरों के कहने से ठाकुर को कुँअर के ब्याह के लिए बेमन से हामी भरनी पड़ी। गाँव-चौधरी का बेटा कुँअर का घनिष्ट मित्र था। दोनों में गाढ़ी छनती थी। कुँअर के ब्याह के लिए उसी ने सबसे ज्यादा जल्दी मचाई थी। उसके बिना तो बारात बेजान थी। उछाह से दो बार भोज दिया। न बारात की रवानगी के बखत निछरावल में कोई कमी रखी और न बहुभोज में। ठाकुर-ठकुरानी मन-ही-मन खुश हुए कि जितना खर्च बचा उतना ही अच्छा। कुँअर ऐसा मित्र पाकर फूला नहीं समाता था।

पर ठिकाने का व्यास सबका गुरु था। उसके सिखाए-सिखाए ही ठकुरानी ने कुँअर के ब्याह में इतनी देर की थी। ठकुरानी व्यास को बहुत मानती थी। टोने-टोटके, जप-जाप, हवन-पूजा और गृहदशा के बहाने वह बखूबी अपना काम निकाल लेता था। व्यास को धर्म-कर्म के बजाय अपने कौशल पर ज्यादा भरोसा था। कंजूस ठाकुर का भी व्यास के आगे बस नहीं चलता था। बाँभन-भोज में देखते-देखते आधी दक्षिणा हड़प गया।
कुँअरानी का आगमन बहुत शुभ रहा। मनचाही बरसात हुई। भरपूर फसल। ठिकाने के तमाम-कोठार-गोदाम अनाज से भर गए। बाजार में चारे के ढेर लग गए। पर बड़ी अजीब बात कि जागीर के फलने-फूलने के साथ-साथ ठाकुर की कंजूसी भी दिनों-दिन बढ़ती गई। यह व्यास के लिए जरूर चिन्ता की बात थी। शास्त्रों का हवाला देकर वह रोज ठाकुर को समझाता कि फकत दान ही साथ चलता है। पुण्य की जड़ पाताल से भी गहरी होती है। धर्म की बेल सदा हरी। धर्मध्वजा बिना हवा के भी फहराती है। आपात्-घड़ी में पुण्य ही काम आता है। पर चिकने घड़े पर बूँद ठहरती ही न थी। ठकुरानी तो जब-तब व्यास के झाँसे में आ जाती थी, पर ठाकुर से छुपाकर अधिक दान-धर्म सम्भव नहीं था। सात बेशी साठ बरस की उम्र में भी ठाकुर की चौकस नजर में कोई कमी नहीं थी।

कुँअर और चौधरी को व्यास फूटी आँख नहीं सुहाता था। पर ठकुरानी की मेहर के आगे वे विवश थे। ठकुरानी बिलकुल भली थी। उसका ज्यादा बखत धर्म-कर्म और पूजा-पाठ में ही बीतता था। अगले जन्म में गोद सूनी न रहे इसके लिए चुपके-चुपके व्यास का खड्डा भरती थी।
ठाकुर हजारों बरस जिए इसके लिए व्याज रोज बासी मुँह आशीर्वाद देता था। जप-जाप करता था। पर मौत न तो आशीर्वाद से विचलित होती है और न जप-जाप से। उसे तो जब आना होता है आकर ही रहती है। न पहले चेतावनी न संकेत। और न बदनामी का सेहरा अपने सर लेती है। उसे तो आने के लिए कोई बहाना चाहिए। खरबूजों में ठाकुर की जान बसती थी। नाम लेते ही मुँह में पानी भर आता था। एक बार खाने लगा सो सात-आठ खरबूजे खा गया। दुपहरी को जी मितलाने लगा। इधर दासी ने परोसा हुआ थाल चौकी पर रखा और उधर ठाकुर को उलटी हुई। फिर तो उलटी-पर-उलटी। घबराई हुई ठकुरानी आई तब तक ठाकुर पूरा पस्त हो गया। न उठा जाए न बोला जाए। पड़ा हुआ उलटियों पर उलटियाँ करता रहा। पेट के पानी का अन्त ही नहीं ! साँस लेना दूभर हो गया। नाड़ी वेद ने नाड़ी देखी तो नाड़ी टूटती हुई लगी। पलकें उघाड़कर देखा तो पुतलियाँ फिरी हुईं।

ठकुरानी ने व्यास के चरण छूकर कहा, ‘‘पण्डितजी, अब आपका ही आसरा है। एकबार इन्हें मुँह बुलवाओ ! कोई जुगत करो ! जप-जाप करो !’’
पण्डित दूसरे ही विचारों में खोया हुआ था। अचकचाकर बोला, ‘‘टूटी की बूटी भगवान के पास भी नहीं। मुझे रात को सपना आया कि हुजूर को देवलोक में इससे चौगुनी जागीर मिली है। संकोच से मैंने सबेरे कहा नहीं। अब उस ठिकाने का आसन सँभालना ही होगा।’’

चौगुने ठिकाने की बात सुनकर ठकुरानी एक पल के लिए अपने सुहाग को भूल गई । उछाह से पूछा, "चौगुनी जागीर ?"

पण्डित ने हाथ जोड़कर कहा, "नहीं तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूँ!”

पति के सौभाग्य की खुशी से छलकते हुए ठकुरानी ने ठाकुर की ओर देखा । ठाकुर ने बड़ी मुश्किल से आधी पलकें उघाड़ीं मानो मनों बोझ आ पड़ा हो। बोलने के लिए कोशिश तो बहुत की, पर गले से एक आखर भी नहीं निकला। पण्डित की ओर देखते हुए बाएँ हाथ की अँगुली चार-पाँच बार हिलाई । चतुर पण्डित बिना कहे ही सब समझ गया। उस बखत मूँजी ठाकुर की आँखों की रंगत बिलकुल स्पष्ट थी । पर भोली ठकुरानी के कुछ पल्ले नहीं पड़ा। और न पास खड़े कुँअर, चौधरी और दूसरे लोग ही ठाकुर के मन की बात समझ सके । अचीती आफत से सबके होशोहवास गुम गए । पर पूजापाठ के नितनेमी पंडित को आगे-पीछे का सब ध्यान था। डबडबायी आँखों से ठकुरानी की ओर देखते हुए बोला, “अन्नदाता खुद यहाँ मृत्युलोक में अब एक पल भी रुकना नहीं चाहते। देवलोक की अखण्ड जागीर की चाह किसे नहीं होगी भला ! अन्नदाता बरजते नहीं तो मैं जरूर कोई उपाय करता । अब तो जो दान-पुण्य करें वह अपना है ।"

ठाकुर ने एक बार फिर अँगुली हिलाने की चेष्टा की, पर अकारथ हाथ नीचे गिर गया। मुँह खुला का खुला रह गया। आँखें पथरा गईं। हंस पिंजरा छोड़कर उड़ गया।

पण्डित ने जी कड़ा करके एक बार फिर निवेदन किया कि पुण्य बोलने से अन्नदाता देवलोक की बड़ी जागीर में इसी तरह राज करेंगे।

फिर ठकुरानी क्यों कोताही करती ! पाँच गाएँ, पचास बीघे का कुआँ और पति के पहने हुए गहनों का दान बोला। सोने के कड़े, साँकलियों और गले के डोरे के लिए कुँअर और चौधरी को दुःख तो बहुत हुआ पर मन मसोसकर रह गए। लोकरीत को निभाना बहुत दूभर होता है। लोग क्या सोचेंगे कि अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए पिता की मुक्ति में रोड़ा अटकाया। इस वेला माँ को टोकने से बड़ा अधर्म और क्या होगा !

ठकुरानी के मुँह से दान का बोल सुनते ही पण्डित बुक्का फाड़कर विलाप करने लगा। फिर दूसरे क्यों पीछे रहते! गढ़ में कोहराम मच गया।

रोने और छाती - माथा कूटने के साथ-साथ पण्डित दान का महातम भी गाता जाता था कि दिया सो दान, भजा सो राम । गुस्से को पीकर कुँअर और चौधरी को भी दान बोलना पड़ा। बाकी लोगों ने भी अपनी-अपनी सरधा अनुसार दान बोला। ठाकुर ने जीते-जी जितना निहाल नहीं किया उसके हजार गुना ज्यादा एक घड़ी में हथिया लिया। मौत के तो ठाट ही न्यारे ।

पण्डित के सुरसुरी छोड़ने से ठकुरानी ने बैकुण्ठी1 का हठ किया तो ठाकुर की हैसियत माफिक ठाट से बैकुण्ठी निकली। निछरावलों के लिए बस्ती के याचकों और कमीन- कारुओं ने बहुत एहसान माना । हिस्से अनुसार बाँटकर खाए बिना पण्डित को अकेले कौन हड़पने देता!

बैकुण्ठी के कायदे से चन्दन की लकड़ियों और घी - नारियल से ठाकुर का दाह-संस्कार हुआ, तब तक पण्डित के आँसू नहीं सूखे। लोक- दिखावे के लिए हँसना मुश्किल है, पर रोना आसान है। झूठ-मूठ के रोने से बड़ा कोई हुनर नहीं। पण्डित की देखादेख कुँअर और चौधरी को भी लोकरीत की मर्यादा के लिए जबरन रोना पड़ा। लोग क्या सोचेंगे और क्या कहेंगे इसका डर जब्बर था। दोनों मित्र पण्डित के करतब देखकर भीतर-ही-भीतर खौल रहे थे, पर उस बखत होठ सीने में ही कुशल समझी।

धू-धू जलती चिता की लपटों को निरखते हुए पण्डित सोचने लगा कि समय आने पर ये लपटें भी बुझेंगी। अंगारे भी कुम्हलाएँगे। ठकुरानी के सोग की जलन भी ठण्डी होगी। समय से बड़ा कोई वैद्य नहीं। समय से बड़ी कोई दवा नहीं । समय से बड़ी कोई सांत्वना नहीं । सो ढील छोड़ना ठीक नहीं। महीने के 'घड़े ' तक जितना मालमत्ता हथिया सके हथिया लेना चाहिए। फिर तो गढ़ के आँगन को देखने के ही लाले पड़ जाएँगे। कुँअर और चौधरी की अधम और कसैली नजर बाज नहीं आएगी। दुनिया में दुर्जनों का अकाल थोड़े ही है! फकत भली और दयावान ठकुरानी का आसरा है। भगवान इसे लम्बी उम्र दे। छोटे दिल का जजमान किस काम का ! जजमान तो दातार ही भला ! चिता की लपटें घी होमने से धू-धू लपलपा रही थीं। नारियल के जलने से चरड़-चरड़ की आवाज हो रही थी । दाह-संस्कार में आए लोग मुँह लटकाए हुए बैठे थे ।

गमछे से घड़ी-घड़ी आँखें पोंछते हुए कुँअर चिता में घी - नारियल गेरता जा रहा था और सोचता जा रहा था कि इतने बरस तो गोद का नाम ही था। कोई सुख देखा नहीं । दाल-रोटी और कपड़ों की कमी तो सगे माँ-बाप के यहाँ भी नहीं थी। संचित जागीर की आस बड़ी थी। कंजूस ठाकुर की चिता की लपटें देखकर कुँअर के हृदय में शीतलता व्याप गई। अब आएगा जीने का मजा ! ठाकुर ने सारी उम्र कंजूसी की, पर एक कौड़ी भी साथ नहीं चली। फिर वह मौज उड़ाने में पीछे क्यों रहे ! माँ के मन माफिक चले बिना मनचाही नहीं होगी। पर दुष्ट पण्डित दान-दक्षिणा के बहाने काफी कुछ हड़प जाएगा। इससे कैसे बचे? वह टोका-टोकी करे तो लोग निन्दा करेंगे। चौधरी से सलाह मशविरा करने में कदाच कोई रास्ता निकले।

कामदार और 'बाकी अमले को भी ठाकुर के मरने का दुःख कम नहीं था । गमछे से बार-बार आँसू पोंछने से आँखों के आसपास की चमड़ी लाल हो गई थी। आँसू पोंछते जाते थे और सोचते जाते थे कि देखें, नए ठाकुर का पोत कैसा कर उघड़ता है! खास दातार तो दिखते नहीं । चौधरी की संगत से ठौर-ठौर अड़चनें आएँगी। इसका साथ छुड़ाए बिना किसी की दाल नहीं गलेगी ।

चिता हवा के जोर से आप ही धू-धू जल रही थी। नारियल और मुरदे की माटी चरड़-चरड़ कर रही थी। चन्दन और घी जलने की सौरभ श्मशान में दूर-दूर तक फैल गई थी। दाह-संस्कार से निपटकर सब वापस रवाना हुए। कुँअर और चौधरी जान-बूझकर काफी पीछे रह गए। चारों ओर देखभाल कर कुँअर ने धीमे-से कहा, "इस बाँभन के बच्चे का कुछ इलाज करना होगा। नहीं तो काफी पूँजी डकार जाएगा। धरम-करम की अमरबेल का ताँता अब तोड़ना ही होगा।"

चौधरी ने कहा, “इतनी देर से मैं भी इसी उधेड़बुन में था। ठाकुर तो बेचारा काफी धन जोड़कर अपनी राह लगा, पर भोली ठकुरानी के आगे बस नहीं चलता । बैकुण्ठीका गहना और निछरावल पानी में गई। ससुरे बाँभन ने जब्बर लूट मचाई ! हम तो पूरे बरस माटी से कुश्ती लड़ते हैं तब कहीं जैसे-तैसे पेट भरता है । पर करें भी तो क्या ? जल्दी का काम शैतान का। आप तसल्ली रखें, मैं कोई-न-कोई रास्ता निकालूँगा । धरम-करम की जड़ बहुत गहरी होती है। मुश्किल से खुदेगी।”

कुँअर गहरा निःश्वास छोड़कर बोला, “अब तेरा ही आसरा है।"

चौधरी मुस्कराया, "धीरज का फल मीठा होता है । मरे हुए ढोर-डंगर में सबका हिस्सा होता है। चील कंवली का । गिद्ध कव्वे का। सियार - लकड़बग्घे का । जिस का जितना बस चलता है, नोचने से बाज नहीं आता। बाँभन- बाँभन के हिसाब से नोचेगा । हम अपना उपाय करेंगे। पर आप सपने में भी माँ जी को टोकना मत ।"

कुँअर ने यह बात गाँठ बाँध ली। माँजी को टोकना-बरजना तो दूर, माथे पर शिकन तक नहीं आने दी। जो कहतीं तुरन्त मान जाता । पण्डित की पाँचों अँगुलियाँ घी में थीं।

काइयाँपन में पण्डित का दूर-दूर तक कोई सानी नहीं था । गँवार चौधरी की मोटी बुद्धि उसका मुकाबला कैसे करती भला । गढ़ के चबूतरे पर औंधी जाजमें बिछीं। सोग में बैठने के लिए लोगों की भीड़ लग गई। पर दूसरे दिन घड़ी दिन चढ़ने पर भी पण्डित की छाया तक नहीं दिखी तो माँजी को दुःख के साथ-साथ अचरज भी कम नहीं हुआ। कल ही तो गहनों की पोटली ले गया और आज कहीं अता-पता ही नहीं ! किसने सोचा था कि बूढ़ा व्यास इतना नुगरा निकलेगा ! लच्छन तो ऐसे हैं कि सारे गहने और कुआँ वापस छीन ले पर लोग चकचक करेंगे। माँजी के गुस्से का पार न था ।

सहसा बाँभन की कुँआरी बेटी रोते हुए गढ़ में आई । विलाप करते हुए कहने लगी कि अन्नदाता की मौत का बापू को ऐसा सदमा लगा कि उन्होंने आज तड़के शरीर छोड़ दिया। ठाकुर के बिना जीने में धिक्कार है। नाता हो तो ऐसा ! पाँच-सात मोतबर पण्डित के यहाँ पता करने गए। बात सोलहों आना सच्ची ! बूढ़ी पण्डिताइन छाती माथा कूट-कूटकर अधमरी हो गई थी। माथा पटकने से खून रिसने लगा था। कुटुम कबीले वालों ने रो-रोकर आसमान सर पर उठा लिया था। बेटे धाड़ें मारकर रो रहे थे । पोते रो-रोकर हलकान हो गए थे। बहुएँ अपने बाल नोच रही थीं। इस हाय - त्राय के बीच पड़ोसियों ने अर्थी तैयार की।

अर्थी उठी तो पण्डिताइन अचेत होकर गिर पड़ी। कुँअर और चौधरी ने पण्डित को कन्धा दिया। उसकी मौत का समाचार सुनकर दोनों बहुत खुश हुए। क्लेश कटा ! भाग्य बली हो तभी ऐसा अचीता सुयोग होता है ।

श्मशान का आधा रास्ता पार किया होगा कि अर्थी पर से खँखारना सुन पड़ा। पर कन्धा देनेवालों ने कान नहीं दिया। कुछ पल बाद बूढ़े पण्डित की आवाज सुनायी दी, “भले आदमियो, जरा रुको तो!”

काँधियों ने चौंककर अर्थी जमीन पर रखी। यह कैसी लीला ! पंडित ने पूछा, "मुझे कहाँ लिये जा रहे हो?"

काँधिए डरते-डरते बोले, “श्मशान।""

"क्यों श्मशान क्यों? जिन्दा जलाने का इरादा है क्या? मैं तो देवलोक अन्नदाता से मिलने गया था। घड़ी डेढ़ घड़ी देर से आता तो तुम मुझे सचमुच जला देते। मेरा मुँह क्या देख रहे हो, अब तो खोलो !”

पण्डित के बेटों ने झटपट मूँज की गाँठें खोलीं। पण्डित आलस मरोड़कर खड़ा हुआ। घरवालों के हर्ष का अन्त नहीं था । कुँअर चौधरी का मुँह जोहने लगा और चौधरी कुँअर का । ऐसा तमाशा तो कभी नहीं सुना ! वे असमंजस में पड़ गए। भला मिलनी की बात झूठ कैसे हो सकती है !

हवा के साथ पूरे गाँव में खबर फैल गई कि पण्डितजी देवलोक में अन्नदाता से मिलनी जाकर वापस आए हैं। आन-की-आन में गढ़ में लोगों का जमघट लग गया। माँजी के आनन्द की न कोई थाह और न पार। माँजी ने हाथ जोड़कर अरदास की तो पण्डित खड़ा होकर आँखों देखा हाल सुनाने लगा, “अब आप लोगों से क्या कहूँ! इतने बरस तो देवलोक का नाम ही सुना था । अन्नदाता हमें छोड़कर चले गए तो मैं व्याकुल हो गया। आखिर मिलनी के बहाने उनका ठाट-बाट देखा तो मन को शान्ति मिली। अन्नदाता की जोड़ का वहाँ एक भी जागीरदार नहीं है। इस जागीर से चौगुनी जागीर पर उसके ठाट-बाट अलग पानी का गढ़ ! फूलों के वस्त्र । केसर के थाल। मंजरी की कटोरियाँ। हवा की गद्दियाँ । बादलों का छत्र । बिजलियों के निसान-नगारे । कुमकुम के घोड़े । अमरफल का भोजन । पीने के लिए अमृत पर हजूर का अभी वहाँ मन नहीं लगा। रात-दिन यहाँ की याद सताती है। मन लगते-लगते लगेगा। कइयों को चितारते हैं। ठकुरानी को, कुँअर को, कामदार को और सारे अमले को । वी-देवता बारी-बारी से समझाते हैं कि देवलोक के आनन्द का मुकाबला नहीं हो सकता। पर अन्नदाता इस ठिकाने की याद में बहुत उदास रहते हैं। सन्तोष और सुख की बात फकत यही है कि यहाँ जो दान किया वह वहाँ दूना मिला।"

ठकुरानी के कलेजे के तीर पार हो गया। बमुश्किल अटकते- अटकते बोली, "उन्होंने और भी कुछ मँगवाया हो तो संकोच मत करना। उनसे बढ़कर ठिकाना थोड़े ही है।"

"मँगवाया तो बहुत कुछ है। मिलनी नहीं जाता तो पता ही नहीं चलता कि हजूर को क्या-क्या चाहिए। देवलोक के आचार-व्यवहार के आदी नहीं हो जाते तब तक झंझट है। फिर कोई तकलीफ नहीं ।"

चौधरी ने ताईद की, “पर आदी होने तक तो सरकार को तकलीफ ही तकलीफ है । आप फरमाएँ तो बैलों की जोड़ी लेकर मैं वहीं चला जाता हूँ। अन्नदाता के बिना मेरा भी जी नहीं लगता।"

पण्डित ने सर धुनते हुए कहा, "वहाँ हल से खेती नहीं होती। न धान-बाजरा पैदा होता है न चारा । वहाँ की कुदरत और रहन-सहन अलग है। मुझे तो देखकर भी विश्वास नहीं होता।"

माँ ने अधीरता से कहा, "तुम्हें विश्वास नहीं होता, मुझे होता है। तुम्हारे ऐसा दरद ही क्या है ! मेरा कलेजा तो सुनते ही छलनी हो गया। एक की ठौर इक्कीस चीजें हाजिर कर दूँ। चमड़पोस हुक्के के बिना वे एक पल भी नहीं रह सकते। जाने इतनी देर कैसे रहे होंगे।"

पण्डित की आँखें भर आईं। कहने लगा, "वहाँ की हालत मैं आँखों से देखकर आया हूँ । फूलों के वस्त्र, केसर के थाल और मंजरी की कटोरियाँ मुझे तो अच्छी नहीं लगीं ।"

पति के अभाव की इतनी बातें सुनने के बाद माँजी के कैसी ढील! खुद अपने हाथ से सारी चीजें पण्डित को सँभला दीं - चाँदी का चमड़पोस हुक्का, चाँदी का थाल, चाँदी की कटोरियाँ, चाँदी का टेर्या, चाँदी का गट्टा और चाँदी की चिलम । भोली माँजी को इस पर भी तसल्ली नहीं हुई। खुद अफीम लाकर दिया। चौबारे के दारू का इमरतबाण देते हुए पूछा, "उनके चढ़ने के लिए वहाँ घोड़ा तो है न?"

चौधरी ने हाथ जोड़कर कहा, “अन्नदाता, वहाँ घोड़े कहाँ से आएँगे! सवारी के लिए उम्दा घोड़ा भिजवाए बिना मन नहीं मानता। सोने की छड़ी, रातबदाना और काठी भी भेजनी होगी।"

चौधरी की बात सुनकर कुँअर का मन खट्टा हो गया। अब इस ठिकाने में कोई उसका तरफदार नहीं । भोली माँजी सब लुटा देंगी। और क्या मालूम मिलनी की बात सच ही हो? मना किया तो ठाकुर देवलोक में बैठे-बैठे ही उसका गला घोंट देंगे। पर चौधरी को यों खुलेआम पण्डित की हाँ में हाँ नहीं मिलानी चाहिए। ठिकाने के कमजोर होने में ही लोगों को अपनी भलाई दिखती है ।

फिर तो ज्यों-ज्यों याद आता गया त्यों-त्यों माँजी ठाकुर के सुख की चीजें जबरन देती गईं। दूध-दही के लिए भैंस, सारे कपड़े, तोशक रजाई और पलंग । एक गाड़ी ज्वार का उम्दा चारा । सरदियों की रात में पेशाब करने का तसला भी पीछे नहीं छोड़ा।

ठाकुर को मांस का बहुत शौक था। इस खातिर पण्डित को दस तगड़े बकरे दिए । पण्डित का दिल बल्लियों उछलने लगा, फिर भी लोक-दिखावे के लिए मुँह लटकाए खड़ा रहा। ठिकाने के चाकर सब चीजें लेकर पण्डित की हवेली की ओर रवाना हुए तब पण्डित ने नम्रता से कहा, "देवलोक से आते बखत अन्नदाता ने मुझे खास हिदायत दी कि मैं खुद अपने हाथ से तीसरे से बारहवें तक सरड़ा सींचूँ । कच्चे सूत की तन्नियाँ बाँधकर घड़ा भरूँ । श्मशान में भस्म के चारों ओर कच्चे दूध की धार दूँ। मैं खुद गरुड़ पुराण बाँचूँ । गढ़ के आँगन में बाणगंगा का पानी छिड़कूँ। मेरे सिवा अन्नदाता को किसी पर भरोसा नहीं। सब खटकरमों की मुझे पूरी हिदायत दी । काम सब मैं करूँगा। दक्षिणा आप जिसे चाहे दें। लालची आदमी तो मुझे फूटी आँख नहीं सुहाता।"

इतना कहकर वह जार-जार रोने लगा। माँजी के घड़ी-घड़ी ढाढस बँधाने से वह बड़ी मुश्किल से चुप हुआ ।

भीड़ जैसे इकट्ठी हुई वैसे ही बिखर गई । हरेक की जबान पर पण्डित के ठाकुर से मिलनी जाने के बखान थे। सिद्ध पुरुष हो तो ऐसा !

दूसरे दिन पण्डित फिर मिलनी गया। परियों पर निछावर करने के लिए एक सौ एक मोहरें अपने साथ ले गया ।

अपनी मेड़ी में चौधरी को बुलाकर कुँअर बुझी हुई आवाज में कहने लगा, “भाई, जब तू भी पण्डित के सुर में सुर मिलाने लगा तो मैं किसकी आस करूँ ! पीढ़ियों से संचित धन छह महीने मुश्किल से चलेगा। मैं गोद आया न आया बराबर !"

पूरी तरह हताश हुआ चौधरी बोला, "पण्डित की मिलनी के आगे तो मेरी अकल भी जवाब दे गई। यह तो मुझे भी सच लगता है। पर सच हो या झूठ, जब माँजी खुद पण्डित से दो कदम आगे चलती हैं तो हम कर ही क्या सकते हैं? नहीं तो कब का इस मँगते को पछाड़ देता।”

कुँअर की रही-सही आस भी हवा हो गई। माँजी से कुछ कहना-सुनना तो और भी बुरा होगा। अब तो सब होनी के हाथ है।

दूसरे दिन घड़ी रात रहते गाँव - चौधरी विलाप करता हुआ गढ़ में आया । माँजी और कुँअर घबराए हुए उसके पास गए तो उसने छाती - माथा कूटते हुए कहा कि उसका बेटा रामशरण हो गया। सुनकर कुँअर की साँस जहाँ की तहाँ रह गयी । बड़ा हितैषी चला गया। अब इस ठिकाने में उसका कोई हिमायती नहीं रहां । पण्डित उसकी देह के कपड़े भी नहीं छोड़ेगा। गाँव- चौधरी के साथ कुँअर भी रोने लगा। चाकर को संग लेकर सीधे मित्र के घर गया। माँ और बहू बेतरह रो रही थीं। कुँअर को लगा जैसे उसका कलेजा फट जाएगा ।

घर वाले रोते रहे और काँधिए अर्थी उठाकर श्मशान की ओर चले। कुँअर ने इस काँध को तो सपने में भी नहीं सोचा था । ठेठ श्मशान तक फूट-फूटकर रोता रहा।

बूढ़ा पण्डित पहले ही श्मशान पहुँच गया था। लोक- दिखावे के लिए घड़ी-घड़ी आँखें पोंछता । उसके आदेश से फटाफट चिता सजी अर्थी को भाँग-तोड़कर चौधरी की लोथ को चिता पर लिटाया। माटी सरीखी माटी। लक्कड़ सरीखा लक्कड़ । पण्डित का खटका दूर हो गया। अभी जल कर भस्म हो जाएगा। पूरे ठिकाने में फकत यही काँटे की तरह खटकता था। जैसे लच्छन थे वैसी ही अकाल मौत हुई।

कुछ देर बाद पण्डित के आग देने का कहते ही चिता में से सुन पड़ा, “क्या जिन्दा जलाने का इरादा है? मैं भी आप की तरह देवलोक मिलनी गया था। अन्नदाता के दरसन करके अभी-अभी वापस आया हूँ। अब ये लक्कड़ जल्दी हटाओ, मेरा दम घुट रहा है।"

इतना सुनने के बाद गाँव- चौधरी और कुँअर के कैसी ढील! फटाफट लक्कड़ दूर फेंके। कुँअर का मित्र आलस मरोड़कर खड़ा हुआ । पण्डित के देवता कूच कर गए। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। पर चौधरी की नम्रता का क्या कहना ! पण्डित के चरणों में सर नवाकर कहने लगा, “आपकी हर बात सच निकली। देवलोक का नजारा देखकर मेरा तो सर घूम गया। मैं तो आना ही नहीं चाहता था, पर अन्नदाता के कहने पर आना पड़ा। माँजी को बधाई की सारी बातें बताए बिना मुझे कल नहीं पड़ेगी ।”

फिर लोकाचार में आए सब लोगों से कहा, “अब मेरा मुँह क्या देख रहे हो! फटाफट गढ़ में चलो !”

फिर कैसी कोताही! आन की आन में पूरे गाँव में खबर फैल गई कि गाँव - चौधरी का बेटा और कुँअर का अंतरंग मित्र देवलोक मिलनी जाकर आया है। गढ़ में पहले से दुगने लोग इकट्ठे हुए। माँजी के हर्ष की सीमा न थी । और न चौधरी की सज्जनता का ही पार था। पण्डित के चरणों में सात बार सर नवाकर कहने लगा, “अब अन्नदाता के ठाट-बाट का क्या कहना! वास्तव में पण्डितजी को दिया दान वहाँ दूना फला। अगल-बगल दो-दो चमड़पोस हुक्के । रात-दिन गुड़गुड़ की मीठी गूँज । देवता तक तरसते हैं। कहाँ वैसे चाँदी के थाल ! कहाँ वैसे टेर्ये और गट्टे ! कहाँ वैसा अफीम ! आठों पहर गलनियाँ टप -टप झरती रहती हैं। देवलोक के वासी हथेलियाँ भर-भरकर अफीम सुड़कते हैं। दो भैंसें । अन्नदाता सब को दूध पिलाते हैं। चौबारे के दारू की मनुहार पर मनुहार !”

माँजी का हिया खुशी - से छलकने लगा। पर कुँअर का मन बुझ गया। जब ऐसा गाढ़ा मित्र भी पण्डित के साथ मिलकर ठगाई करने लगा तो पीछे क्या रहा । किस पर भरोसा करे ! अब तो सूरज का भी पतियारा नहीं कि वह सबेरे बखतसर उगेगा कि नहीं।

पण्डित सोचने लगा कि चौधरी नीयत बिगाड़कर उसकी लूट में हिस्सा बँटाना चाहता है तो बँटाने दो। बात छुपी रही तो सब भला ही होगा ।

चौधरी आगे कहने लगा, “अभी देवलोक का नजारा बहुत बाकी है। असली मरम की बात तो अब बताऊँगा । तब तक चाकरों से मेरी अरज है कि वे भट्ठी चेताकर दो सलाखें गरम करें।"

माँजी के आदेश से तीन-चार चाकर भट्ठी चेताने में जुट गए। चौधरी फिर देवलोक के हाल-चाल बताने लगा, “बाकी सब तो ठीक है, पर एक गड़बड़ हो गई। कल अन्नदाता चौबारे के दारू के नशे में घोड़ा दौड़ा रहे थे कि घोड़े से गिर गए। ज्यादा चोट तो नहीं आई, पर दोनों घुटनों में बहुत दरद है। न उठा जाता है न बैठा जाता है ! हर घड़ी कराहते रहते हैं। घुटनों के इलाज के लिए ही उन्होंने मुझे उलटे पाँव लौटा दिया। नहीं तो मैं वहीं अन्नदाता की सेवा में रहना चाहता था। अधघड़ी देर से आता तो पीछे राख ही बचती । पण्डितजी से भी अन्नदाता ने ज्यादा जल्दी मचाई। इससे मेरे प्राण बच गए। अन्नदाता ने फरमाया कि पण्डितजी के घुटनों को लालसुर्ख सलाखों से दागते ही उनका दरद काफूर हो जाएगा।"

फिर चौधरी माँजी की ओर मुड़ा, “अब जैसा आप का हुकम हो?"

माँजी ने कहा, “मेरा हुकम क्या उनके हुकम से भी बड़ा हो गया ! बातें बनाना बन्द करो और फटाफट डाम लगाओ। पण्डितजी के डाम लगाए बिना उनका कराहना बन्द नहीं होगा।”

पण्डित थर-थर काँपते हुए बोला, “गरीबपरवर, मेरे डाम लगाने से अन्नदाता का दरद कैसे दूर होगा ?"

अबके कुँअर ने कहा, “जैसे आप को दिए दान का अन्नदाता को दूना फल मिला उसी तरह यह डाम भी हाथोंहाथ असर दिखाएगा।"

अब एक पल की देर भी माँजी के लिए भारी हो रही थी । भट्ठी दहकाते चाकरों से आवाज देकर पूछा, “सलाखें लाल हो गईं कि नहीं ?”

" हो गईं अन्नदाता ! अभी लाए।"

अगले ही पल टाट में लिपटी सलाखों के लालसुर्ख सिरे पण्डित की आँखों के आगे दमकने लगे। मिलनी के ऐसे फल का तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था। पण्डिताई के ऊँचे ज्ञान को चौधरी की मोटी बुद्धि के आगे हार माननी पड़ी। काँपते हाथों से चौधरी के पैर पकड़कर गिड़गिड़ाया, "इस बार छोड़ दे चौधरी, ब्राह्मण होकर तेरे पाँव पड़ता हूँ। चाहे तो मेरी सारी जमा जत्था ले ले, पर मुझे छोड़ दे ! मरकर भी तेरा गुन नहीं भूलूँगा । फिर तेरी मरजी !”

चौधरी पैर छुड़ाते हुए बोला, “मेरी मरजी तो कुछ और ही थी, पर पैर पकड़ने के बाद मन की मन में ही रह गई । धन्य हैं पण्डितजी आपकी चालें !”

(1. बैकुण्ठी : शव को पालकी में बिठाकर निकाले जाने वाली शोभायात्रा ।)

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