जलालुद्दीन रूमी की कहानियाँ (भाग-6)-अनुवाद: चौधरी शिवनाथसिंह शांडिल्य
Jalal-ud-Din-Rumi Stories in Hindi (Part-6)
26. सच्चा प्रेम
एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री थी, परी के समान। वह रास्ता चले हुए किसी कारण से खड़ी हो गयी। उसने देखा कि एक आदमी उसकी तरफ चला आ रहा है। जब पास आया तो उस स्त्री पर वह ऐसा मोहित हुआ कि उसे तन-मन की सुधि तक न रही। जब जरा होश हुआ तो उस सत्री की तरफ देखने लगा और फिर ऐसा आपे से बाहर हुआ कि उस सुन्दर रूप को अपने बाहु-पाश में बन्दी बनाने को तैयार हो गया। इस इरादे से वह आगे बढ़ा ही था कि स्त्री तुरन्त पीछे हट गयी और कहने लगी, "क्या बात है, जो इस तरह बढ़े चले आ रहे हो और सभ्यता की सीमा से बाहर जा रहे हो?"
पुरुष ने जवाब दिया, "यह सब तेरे रूप का जादू है। तेरे हाव-भावो ने तीर बरसाये हैं। क्या कहूं, तेरे सौन्दर्य ने मेरे हृदय को छीन लिया है। और जब अपने ऊपर तेरा अधिकार होते देखा है तो मुझे भी यह साहस हो गया कि अपनी रक्षा के लिए आगे बढ़कर वार करना चाहिए। अब तो मैं तेरा ही इच्छुक हूं। जबतक तुझे नहीं पा लूंगा, शान्ति नहीं मि सकती।"
वह स्त्री बोली, "मेरे पीछे मेरी एक दासी है। मुझसे भी अधिक सुन्दरी है। जब तू उसे देखेगा तो बड़ा खुश होगा। देख यह सामने से चली आ रही है।"
पुरुष ने पीछे मुड़कर देखा। दासी का कहीं पता न चला। जब देखते-देखते थक गया तो उस सुन्दरी ने बड़े जोर से एक तमाचा मारा और बोली, "ऐ कपटी! तुमको शर्म नहीं आती कि मेरे प्रेम का दावा करता हुआ भी दूसरे की तलाश करता है? तुझको प्रेमी बनने का अधिकार नहीं। तू प्रेमी नहीं, बल्कि धोखेबाज है।"
[हे आत्मन्! तू केवल परमात्मा का प्रेमी बन और माया-रूपी दुनिया कितनी सुन्दर हो, उससे मन न लगा, यहां तक कि सिवा परमात्मा के किसी से भी इच्छा न कर। न किसी के स्पर्श करने की कामना कर। किसी की गन्ध तक मल ले और न उसके अतिरिक्त किसी का ध्यान कर। तू भ्रम-जाल में फंसेगा तो उस परमात्मा के हाथों हानि उठायेगा]
27. दूरदर्शी
एक आदमी सोना तोलने के लिए सुनार के पास तराजू मांगने आया। सुनार ने कहा, "मियां, अपना रास्ता लो। मेरे पास छलनी नहीं है।"
उसने कहा, "मजाक न कर, भाई, मुझे तराजू चाहिए।"
सुनार ने कहा, "मेरी दुकान में झाडू नहीं हैं।"
उसने कहा, "मसखरी को छोड़ दे, मैं तराजू मांगने आया हूं, वह दे दे और बहरा बन कर ऊटपटांग बातें न कर।"
सुनार ने जवाब दिया, "हजरत, मैंने तुम्हारी बात सुन ली थी, मैं बहरा नहीं हूं। तुम यह न समझो कि मैं गोलमाल कर रहा हूं। तुम बूढ़े आदमी सूखकर कांटा हो रहे हो। सारा शरीर कांपता हैं। तुम्हारा सेना भी कुछ बुरादा है और कुछ चूरा है। इसलिए तौलते समय तुम्हारा हाथ कांपेगा और सोना गिर पड़ेगा तो तुम फिर आओगे कि भाई, जरा झाड़ू तो देना ताकि मैं सोना इकट्ठा कर लूं और जब बुहार कर मिट्टी और सोना इकट्ठा कर लोगे तो फिर कहोगे कि मुझे छलनी चाहिए, ताकि खाक को छानकर सोना अलग कर दूं। हमारी दुकान में छलनी कहां? मैंने पहले ही तुम्हारे काम के अन्तिम परिणाम को देखकर दूरदर्शी
कहा था कि तुम कहीं दूसरी जगह से तराजू मांग लाओ।"
[जो मनुष्य केवल काम के प्रारम्भ को देखता है, वह अन्धा है। जो परिणाम को ध्यान में रक्खे, वह बुद्धिमान है। जो मनुष्य आगे होने वाली बात को पहले ही से सोच लेता है, उसे अन्त में लज्जित नहीं होना पड़ता।]
28. कांटों की झाड़ी
एक मुंह के मीठे और दिल के खोटे मनुष्य ने रास्ते के बीच में कांटों की झाड़ी उगने दी। जो पथिक उधर से निकलता, वही धिक्कार कर कहता कि इसको उखाड़ दे; लेकिन उसको वह उखाड़ता नहीं था, न उखाड़ा। इस झाड़ी की यह दशा थी कि प्रत्येक पल बढ़ती जाती थी और लोगों के पैर कांटे चुभने से लहू-लुहान हो जाते। जब हाकिम को इसकी खबर पहुंची और इस मनुष्य के पूर्ण आचरण का ज्ञान हुआ तो उसने झाड़ी को तुरन्त उखाड़ देने की आज्ञा दी। इस पर भी वह मनुष्य और जवाब दिया कि किसी फुर्सत के दिन उखाड़ डालूंगा। इस तरह बराबर टालमटोल करता रहा, यहां तक कि झाड़ी ने खूब मजबूत जड़ पकड़ ली।
एक दिन हाकिम ने कहा, "ऐ प्रतिज्ञा भंग करनेवाले, हमारी आज्ञा का पालन कर। बस अब एड़ियां न रगड़। तू जो रोज कल का वादा करता है। यह समझ कि जितना अधिक समय गुजरता जायेगा, उतना ही अधिक बुराई का वृक्ष पनपता जायेगा और उखाड़ने वला बुड्ढा और भी कमजोर होता जायेगा। पेड़ मजबूत और बड़ा होता जाता है। जल्दी कर और मौके को हाथ से न जाने दे।"
[मनुष्य की हर बुरी आदत कांटों की झाड़ी है। वह अनेक बार अपने आचरणों पर लज्जित होकर पश्चात्ताप करता है। वह अपनी आदतों से स्वयं भी तंग आ जाता है, फिर भी उसकी आंखें नहीं खुलतीं। दूसरों के कष्ट जो उसके ही स्वभाव के कारण हैं, अगर वह उसकी परवा नहीं करता तो न सही; लेकिन उसे अपने घाव का अनुभव तो होना ही चाहिए।]
29. वैयाकरण और मल्लाह
एक वैयाकरण नाव में सवार था। वह घमंड में भरकर मल्लाह से कहने लगा, "क्या तुमने व्याकरण पढ़ा है?"
मल्लाह बोला, "नहीं।"
वैयाकरण ने कहा, "अफसोस है कि तुने अपनी आधी उम्र यों ही गंवा दी!"
मांझी को बड़ा क्रोध आया। लेकिन उस समय वह कुछ नहीं बोला। दैवयोग से वायु के प्रचंड झोंकों ने नाव को भंवर में डाल दिया।
नाविक ने ऊंचे स्वर में वैयाकरण से पूछा, "महाराज, आपको तैरना भी आता है कि नहीं?"
वैयाकरण ने कहा, "नहीं, मुझे तैरना नही आता।"
नाविक ने कहा, "वैयाकरण, तेरी सारी उम्र बरबाद हो गयी, क्योंकि नाव अब भंवर में डूबने वाली है।"
[मनुष्य को किसी एक विद्या या कला में दक्ष हो जाने पर गर्व नहीं करना चाहिए।]
30. मन को मार
एक आदमी ने अपनी स्त्री को मार डाला। परिचितों ने कहा, "अरे दुष्ट! तूने अपनी स्त्री को मार डाला और उसकी सेवा को भूल गया। हाय-हाय, अभागे! भला बता तो सही, स्त्री-हत्या का पाप किसी भी जन्म में धो सकेगा? बात क्या थी और उसने क्या अपराध किया था?"
वह बोला, "उसने वह किया कि जिसमें उसकी बदनामी थी और मैंने उसको इसलिए मार डाला कि मिट्टी उसके दोषों को छिपा लेगी। उसका एक आदमी से अनुचित संबंध था इसलिए मैंने उसको मार डाला और खून में लिथड़ी हुई उसकी लाश को कब्र की मिट्टी में छिपा दिया।"
उस आदमी ने कहा, "ऐसा लज्जाशील था तो उस दुराचारी आदमी को क्यों नहीं मार डाला?"
उसने जवाब दिया, "फिर तो प्रतिदिन एक मनुष्य का वध करना पड़ता। बस उसको मारकर मैं रोज-रोज के रक्तपात से बच गया। उस अकेली का गला काटना बहुत से लोगों के गले काटने से अच्छा था।"
[मन उस दुराचारिणी स्त्री के समान है, जिससे सारा वातावरण दूषित हो रहा है। अत: उसको मारना चाहिए, अर्थात् वश में करना चाहिए, क्योंकि इस दुष्ट के कारण हर घड़ी किसी न किसीसे लड़ाई होने का अंदेशा है। मन की वासनाओं के कारण यह सुखमय संसार दु:खदायी बना हुआ है। यदि मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया जाये तो दु:ख और सुख पास न आयें और सारा संसार मित्र बनकर रहे।]
31. 'तू' और 'मैं'
एक मनुष्य अपने प्रेमपात्र के दरवाजे पर आया और कुंडी खटखटायी। प्रेमपात्र ने पूछा, "कौन है?"
बाहर से जवाब मिला, 'मैं' हूं।"
प्रेमपात्र ने कहा, "तुम्हें लौट जाना चाहिए। अभी भेंट नहीं हो सकती। तुम जैसी कच्ची चीज के लिए यहां स्थान नहीं।"
उसने समझा कि प्रेमपात्र का मुझसे अपमान हुआ है।
यह जवाब सुनकर वह बेचारा प्रेमी निराश होकर अपने प्रेमपात्र के द्वारा से लौट गया। बहुत दिनों तक वियोग की आग में जलता रहा। अन्त में उसे फिर प्रेमपात्र से मिलने की उत्कण्ठा हुई और उसके द्वार पर चक्कर काटने लगा। कहीं फिर काई अपमानसूचक शब्द मुंह से न निकल जाये, इसलिए उसने डरते-डरते कुंडी खटखटायी। प्रेमपात्र ने भीतर से पूछा, "दरवाजे पर कौन है?"
उसने उत्तर दिया, "ऐ मेरे प्यारे, 'तू' ही है।"
प्रेम-पात्र ने आज्ञा दी कि अब जबकि 'तू' 'मैं' ही है, तो अन्दर चला आ।"
[एकता में दो की गुंजाइश नहीं। जब एक ही एक है तो फिर दुई कहां?]
32. अच्छे-बुरे की परीक्षा
एक बादशाह ने दो गुलाम सस्ते दाम में खरीदे। एक से बातचीत की तो वह गुलाम बड़ा बुद्धिमान और मीठा बोलने वाला मालूम हुआ, और जब होठ ही मिठास के बने हुए हों तो उनमें शरबत को छोड़ और क्या निकलेगा? मनुष्य की मनुष्यता उसकी वाणी में भरी हुई है। जब इस गुलाम की परीक्षा कर चुका तो दूसरे को पास बुलाकर बादशाह ने देखा कि इसके दांत काले-काले हैं और मुंह गन्दा है। बादशाह इसके चेहरे को देखकर खुश नहीं हुआ, परन्तु उसकी योग्यता और गुणों की जांच करने लगा। पहले गुलाम को तो उसने कह दिया कि जा, और नहा-धोकर आ। दूसरे से कहा, "तू अपना हाल सुना। तू अकेला ही सौ गुलामों के बराबर है। तू ऐसा मालूम नहीं होता, जैसा तेरे साथी ने कहा था और उसने हमें तेरी तरफ से बिल्कुल निरश कर दिया था।"
गुलाम ने जवाब दिया, "यह बड़ा सच्चा आदमी है। इससे ज्यादा भला आदमी मैंने कोई नहीं देखा। यह स्वभाव से ही सत्यवादी है। इसलिए इसने जो मेरे संबंध में कहा है, यदि ऐसा ही मैं इसके बारे में कहूं तो झूठा दोष लगाना होगा। मैं इस भले आदमी की बुराई नहीं करुंगा। इससे तो यही अच्छा है कि अपने को दोषी मान लूं। बादशाह सलामत! सम्भव है कि वह मुझमें जो ऐब देखता हैं, वह मुझे खुद न दीखते हों।"
बादशाह ने कहा, "तू भी इसके अवगुणों का बखान कर, जैसा कि इसने तेरे दोषों का किया है, जिससे मुझे इस बात का विश्वास हो जाये कि तू मेरा हितैशी है और शासन के प्रबन्ध में मेरी सहायता कर सकता है।"
गुलाम बोला, "बादशाह सलामत! इस दूसरे गुलाम में नम्रता और सच्चाई हैं। वीरता और उदारता भी ऐसी है कि मौका पड़ने पर प्राण तक न्यौछावर कर सकता है। चौथी बात यह है कि वह अभिमानी नहीं और स्वयं ही अपने अवगुण प्रकट कर देता है। दोषों को प्रकट करना और ऐब ढ़ूंढ़ना हालांकि बुरा है तो भी वह दूसरे लोगों के लिए अच्छा है और अपने लिए बुरा हे।"
बादशाह ने कहा, "अपने साथी की प्रशंसा में अति न कर और दूसरे की प्रशंसा के सहारे अपनी प्रशंसा न कर, क्योंकि यदि परीक्षा के लिए इसे मैं तेरे सामने बुलाऊं तो तुझको लज्जित होना पड़ेगा।"
गुलाम ने कहा, "नहीं, मेरे साथी के सदगुण इससे भी सौ गुने हैं। जो कुछ मैं अपने मित्र के संबंध में जानता हूं, यदि आपको उसपर विश्वास नहीं तो मैं और क्या निवेदन करूं!"
इस तरह बहुत-सी बातें करके बादशाह ने उस कुरूप गुलाम की अच्छी तरह परीक्षा कर ली और जब पहला गुलाम स्नान करके बाहर आया तो उसको अपने पास बुलाया। बदसूरत गुलाम को वहां से बिदा कर दिया। उस सुन्दर गुलाम के रूप और गुणों की प्रशंसा करके कहा, "मालूम नहीं, तेरे साथी को क्या हो गया था कि इसने पीठ-पीछे तेरी बुराई की!"
इस गुलाम ने भौं चढ़ाकर कहा, "ऐ दयासागर! इस नीच ने मेरे बारे में जो कुछ कहा; उसका जरा-सा संकेत तो मुझे मिलना चाहिए।"
बादशाह ने कहा, "सबसे पहले मेरे दोगलेपन का जिक्र किया कि तू प्रकट में दवा और अन्तर में दर्द है।"
जब इसने बादशाह के मुंह से ये शब्द सुने तो इसका क्रोध भड़क उठा, चेहरा तम-तमाने लगा और अपने साथी के संबंध में जो कुछ मुंह में आया, बकने लगा। बुराइयां कतरा ही चला गया तो बादशाह ने इसके होंठों पर हाथ रख दिया कि बस, हद हो गयी। तेरी आत्मा गन्दी है और उसका मुंह गन्दा है। ऐ गन्दी आत्मावाले! तू दूर बैठ। वह गुलाम अधिकारी बने और तू उसके अधीन रह।
[याद रखो, सुन्दर और लुभावना रूप होते हुए भी यदि मनुष्य में अवगुण हैं तो उसका मान नहीं हो सकता। और यदि रूप बुरा, पर चरित्र अच्छा है तो उस मनुष्य के चरणों में बैठकर प्राण विसर्जन कर देना भी श्रेष्ठ है।]
33. ईंट की दीवार
एक नदी के किनारे पर ऊंची दीवार थी। उसपर एक प्यासा आदमी बैठा हुआ था। बिना पानी के उसके प्राण निकले जा रहे थे। दीवार पानी तक पहुंचने में रुकावट डालती थी और वह प्यास के मारे व्याकुल हो रहा था। उसने दीवार की एक ईंट उखाड़कर पानी में जो फेंकी तो पानी की आवाज कान में आयी। वह आवाज भी उसे ऐसी प्यारी लगी, जैसे प्रेमपात्र की आवाज होती है। इसी एक आवाज ने शराब की सी मस्ती पैदा कर दी।
उस दुखियारे को पानी की ध्वनि में इतना आनन्द आया कि वह दीवार में से ईंटें उखाड़कर पानी में फेंकने लगा। पानी की यह दशा थी, मानो वह कह रहा था कि ऐ भद्र परुष, भला मेरे ईंटें मारने से तुझे क्या लाभ? प्यासा भी मानो अपनी दशा से यह प्रकट कर रहा था कि मेरे इसमें दो लाभ हैं। इसलिए मैं इस काम से कभी हाथ नहीं रोकूंगा। पहला लाभ तो पानी की आवाज का सुनना है। यह प्यासों के लिए रबाब (एक प्रकार का बाजा) की आवाज से अधिक मधुर है। दूसरा लाभ यह है कि जितनी ईंटें मैं इस दीवार की उखाड़ता जाता हूं, उतना ही निर्मल जल के निकट होता जाता हूं, क्योंकि इस ऊंची दीवार से जितनी ईंटें उखड़ती जायेंगी, उतनी ही दीवार नीची होती चली जायेगी। दीवार का नीचा होना पानी के निकट होना है।"
[ईंटों की चिनाई का उखाड़ना वन्दना (प्रणति) है। जबतक इस दीवार की गर्दन ऊंची हे, वह सिर को झुकाने नहीं देती। इसलिए जबतक इस पंच भौतिक शरीर से मुक्ति न प्राप्त हो, अमृत (अमर जीवन) के आगे सिर नहीं झुक सकता। इस यौवन के महत्व को समझकर सिर झुकाना चाहिए और बुढ़ापा आने से पहले यानी उस समय से पहले जब कि तेरी गर्दन बढ़ी हुई रस्सी से बंध जायेगी और बुरी आदतों की जड़ें ऐसी मजबूत हो जायेंगी कि उनके उखाड़ने की ताकत न रहे, अपनी दीवार (दुर्वासनाओं) के ढेलों और ईंटों को उखाड़कर फेंक दे।]