जलालुद्दीन रूमी की कहानियाँ (भाग-5)-अनुवाद: चौधरी शिवनाथसिंह शांडिल्य

Jalal-ud-Din-Rumi Stories in Hindi (Part-5)

21. हुदहुद और कौआ

जब सुलेमान के उत्तम शासन की धूम मची, तो सब पक्षी उनके सामने विनीत भाव से उपस्थित हुए। जब उन्होंने यह देखा कि सुलेमान उनके दिल का भेद जाननेवाला और उनकी बोली समझने में समर्थ है तो पक्षियों का प्रत्येक समूह बड़े अदब के साथ दरबार में उपस्थित हुआ।
सब पक्षियों ने अपनी चहचहाहट छोड़ दी और सुलेमान की संगति में आकर मनुष्यों से भी अधिक उत्तम बोली बोलने लगे। सब पक्षी अपनी-अपनी चतुराई और बुद्धिमानी प्रकट करते थे। यह आत्म-प्रशंसा कुद शेखी के कारण न थी; बल्कि वे सुलेमान के प्रति पक्षी-जगत् के भाव व्यक्त करना चाहते थे, जिससे सुलेमा को उचित आदेश देने और प्रजा की भलाई करने में सहायता मिले। होते-होते हुदहुद की बारी आयी। उसने कहा, "ऐ राज! एक ऐसा गुण, जो सबसे तुच्छ है, मैं बतलाता हूं, क्योंकि संक्षिप्त बात ही लाभकारी होती है।"
सुलेमान ने पूछा, "वह कौन-सा गुण है?"
हुदहुद ने उत्तर दिया, "जब मैं ऊंचाई पर उड़ता हूं तो पानी को, चाहे वह पाताल में भी हो, देख लेता हूं और साथ ही यह भी देख लेता हूं कि पानीद कहां हे, किस गहराई में है और किस रंग का है? यह भी जान लेता हूं कि वह पानी धरती में से उबल रहा है या पत्थर से रिस रहा है? ऐ सुलेमान! तू अपनी सेना के साथ मुझ-जैसे जानकार को भी रख।"
हजरत सुलेमान ने कहा, "अच्छा, तू बिना पानीवाले स्थानों और खतरनाक रेगिसतानों में हमारे साथ रहा कर, जिससे तू हमें मार्ग भी दिखाता रहे और साथ रहकर पानी की खोज भी करता रहे।"
जब कौए ने सुना कि हुदहुद को यह आज्ञा दे दी गयी, अर्थात् उसे आदर मिल गया है तो उसे डाह हुई और उसने हजरत सुलेमान से निवेदन किया, "हुदहुद ने बिल्कुल झूठ कहा है और गुस्ताखी की है। यह बात शिष्टाचार के खिलाफ है कि बादशाह के आगे ऐसी झूठ बात कही जाये, जो पूरी न की जा सके। अगर सचमुच उसकी निगाह इतनी तेज होती तो मुठ्टी-भर धूल में छिपा हुआ फन्दा क्यों नहीं देख पता, जाल में क्यों फंसता और पिंजरे में क्यों गिरफ्तार होता?" हजरत सुलेमान बोले, "क्यों रे हुदहुद! क्या यह सच है कि तू मेरे आगे जो दावा करता है वह झूठ है?"
हुदहुद ने जवाब दिया, "ऐ राजन्, मुझे निर्दोश गरीब के विरुद्ध शत्रु की शिकायतों पर ध्यान न दीजिए। अगर मेरा दावा गलत हो तो मेरा यह सिर हाजिर है। अभी गर्दन उड़ा दीजिए। रही बात मृत्यु और परमात्मा की आज्ञा से गिरफ्तारी की, सो इसका इलाज मेरे क्या, किसी के भी पास नहीं है। यदि ईश्वर की इच्छा मेरी बुद्धि के प्रकाश को न बुझाये तो मैं उड़ते-उड़ते ही फन्दे और जाल को भी देख लूं। परन्तु जब ईश्वर की मर्जी ऐसी ही हो जाती है तो अकल पर पर्दा पड़ जाता हैं। चन्द्रमा काला पड़ जाता है और सूजर ग्रहण में आ जाता है। मेरी बुद्धि और दृष्टि में यह ताकत नहीं है कि परमात्मा की मर्जी का मुकाबला कर सके।"

22. चोर की चालाकी

एक मनुष्य ने अपने घर में एक चोर को देखा और जब वह निकलकर भागा तो उसके पीछे दौड़ा कि देह थककर चूर-चूर हो गयी। जब चोर के इतना पास पहुंच गया कि उसको पकड़ ले तो दूसरे चोर ने पुकारकर कहा, "अरे मियां! यहां आओ। यहां तो देखों कि यहां कितने निशान मौजूद हैं। जल्दी लौटकर आओ।"
गृहस्वामी ने यह आवाज सुनी तो उसे डर लगने लगा। सोचने लगा, शायद दूसरे चोर ने किसी को मार डाला है या हो सकता है, वह मुझपर भी पीछे से टूट पड़। हो सकता है कि बाल-बच्चों पर भी हाथ साफ करे। तो फिर इस चोर के पकड़ने से क्या लाभ होगा?
यह सोचकर पहले चोर का पीछा करना छोड़ दिया और लौटकर वापस आया और उस आदमी से पूछा, "दोस्त! क्या बात है? तुम क्यों चिल्ला रहे थे?"
वह कहने लगा, "यह देखिए चोर के पैरों के निशान। वह दुष्ट अवश्य इस रास्ते से भागकर गया है। यह खोज मॉजूद है। बस, इसीको देखते-भालते उसके पीछे चले जाओ।"
गृहस्वामी ने कहा, "अरे मूर्ख! मुझे खोज क्या बताता है। मैंने असली चोर को दबा लिया था। तेरी चीख-चिल्लाहट सुनकर उसे छोड़ दिया। अरे बेवकूफ! यह तू क्या बेहूदा बक-वाद करता है। मैं तो लक्ष्य को पहुंच चुका था। भला निशान क्या चीज है! या तो तू गुण्डा है या बिल्कुल मूर्ख है। हो सकता है कि चोर तू ही हो और यह सब हाल तुझे मालूम हो।"
[मनष्य को अधिक लाभ का लालच देकर असली भलाई को रोका जा सकता है। इस तरह लाभ के बजाय हानि उठानी पड़ती है।]

23. चूहा और ऊंट

एक चूहे के हाथ ऊंट की नकेल लग गयी। वह बड़ी शान से खींचता हुआ चला। ऊंट जो तेजी से उसके पीछे चला तो चूहे के दिमाग में यह घमण्ड पैदा हो गया कि मैं भी पहलवान हूं। ऊंट चूहे के भावों को ताड़ गया और दिल में सोचा, अच्छा, तुझे इसका मजा चखाऊंगा। चलते-चलते वे एक बड़ी नदी के किनारे पहुंचे, जहां इतना गहरा पानी था कि हाथी भी डूब जाये। चूहा वहीं ठिठककर बैठ गया।
ऊंट ने कहा, "जंगलों और पहाड़ों के साथी, तुम क्यों रुक गये और इस समय क्या चिन्ता है? आओ, साहस करके नदी में उतरो। तुम तो सरदार और आगे-आगे चलनेवाले हो, बीच रास्ते में ठहरकर हिम्मत न हारो।"
चूहे ने जवाब दिया, "नदी का पाट बहुत चौड़ा है और मुझे इसमें डूब जाने का डर है।"
ऊंट ने कहा, "अच्छा, मैं देखू पानी कितना गहरा है।"
यह कहकर नदी में पैर रखा और कहा, "अरे चूहे, इसमें तो सिर्फ जांघ तक पानी हैं तू ऐसा विचलित और परेशान क्यों हो गया?"
चूहे ने कहा, "जो चीज तेरे आगे चींटी है, वही हमारे लिए अजगर है, क्योंकि जांघ जांघ का भी फर्क हैं अगर पानी तेरी जांघ तक है तो मेरे सिर से भी गजों ऊंचा होगा।"
ऊंट ने कहा, "खबरदार, आगे फिर कभी ऐसी गुस्ताखी न करना, नहीं तो स्वयं हानि उठायेगा। अपने जेसे चूहों के आगे तुम चाहे कितनी ही डींग हांको, परन्तु ऊंट के आगे चूहा जीभ नहीं हिला सकता!"
चूहे ने कहा, "मैं तौबा करता हूं। ईश्वर के लिए इस खतरनाक पानी से मेरी जान बचाओ।"
ऊंट को दया आयी और कहा, "अच्छा, मेरे कोहान पर चढ़कर बैठ जा। इस तरह आर-पार होना मेरा काम है। तुझ जैसे हजारों को नदी पार करा चुका हूं।"
[ऐ मनुष्य, जब तू पैगम्बर नहीं तो निर्दिष्ट मार्ग से चल, जिससे कि कुएं-खाई से बचकर आसानी से अपने लक्ष्य पर पहुंच जाये। जब तू बादशाह नहीं तो प्रजा बनकर रह और जब तू मल्लाह नहीं तो नाव को न चला। तांबे की तरह रसायन का सहारा ले। ऐ मनुष्य! तू महापुरुषों की सेवा कर।]

24. नि:स्वार्थ दान

हजरत उमर की खिलाफत के जमाने में एक शहर में आग लग गयी। वह ऐसी प्रचंड अग्नि थी, जो पत्थर को भी सूखी लकड़ी की तरह जलाकर राख कर देती थी। वह मकान और मुहल्लों को भी जलाती हुई पक्षियों के घोंसलों तक पहुंची और अंत में उनके परो में भी लग गयी। इस आग की लपटों ने आधा शहर भून डाला, यहां तक कि पानी भी इस आग को न बुझा सका। लोग पानी और सिरका बरसाते थे, परन्तु ऐसा मालूम होता था कि पानी और सिरका उल्टा आग को तेज कर रहो हैं। अन्त में प्रजा-जन हजरत उमर के पास दौड़ आये और निवेदन किया कि आग किसी से भी नहीं बुझती।
हजरत उमर न फरमाया, "यह आग भगवान के कोप का चिह्न है और यह तुम्हारी कंजूसी की आग का एक शोला हैं। इसलिए पानी छोड़ दो और रोटी बांटना शुरू करो। यदि तुम भविष्य में मेरी आज्ञा का पालन करना चाहते हो तो मंजूसी से हाथ खींच लो।"
जनता ने जवाब दिया, "हमने पहले से खैरात के दरवाज खोल रखे हैं और हमेशा दया और उदारता का व्यवहार करते रहे हैं।"
हजरत उमर ने उत्तर दिया, 'यह दान तुमने निष्काम भावना से नहीं किया, बल्कि जो कुछ तुमने दिया है, वह अपना बड़प्पन प्रकट करने और प्रसिद्धि के लिए दिया है। ईश्वर के भय और परोपकार के लिए नहीं दिया। ऐसे दिखावे को उदारता और दान से कोई लाभ नहीं है।"

25. तोता और गंजा फकीर

एक पंसारी के यहां तरह-तरह की बोलियां बोलने वाला एक बहुत सुन्दर तोता था। वह तोता दुकान की देख-रेख करता और प्यारी-प्यारी बोलियां बोलकर आन-जानेवालों का मनोरंजन किया करता था। एक दिन ऐसा संयोग हुआ कि मालिक अपने घर गया हुआ था और तोता दुकान की निगरानी कर रहा था। इतने में एक बिल्ली चूहे पर झपटी, तोता अपनी जान बचाने के लिए जैसे ही एक तरफ को भागा कि दौड़-धूप में बादाम रोगन की कुछ बोतले लुढ़क गयीं।
जब मालिक घर से आया तो देखा कि तेल से तमाम फर्श चिकना हो गया है। पंसारी ने गुस्सा होकर तोते को ऐसी चोट मारी कि उसके सिर के बाल उड़ गये। इस रंज की वजह से तो तोते ने बोलना-चालना बिल्कुल छोड़ दिया। पंसारी अपने इस आचरण पर पश्चात्ताप करने लगा। वह बार-बार अपने जी में कहा कि क्या ही अच्छा होता, यदि मेरे हाथ उस घड़ी से पहले ही टूट जाते, जिस समय मैंने इस तोते को मारा था।
पंसारी ने अनेक प्रयत्न किये कि तोता बोलने लगे, परन्तु उसने एक शब्द तक भी अपने मुंह से नहीं निकाला। इसी तरह कई दिन गुजर गये, पंसारी अपनी दुकान पर बैठा हुआ इसी चिन्ता में मग्न था और सोचता था कि मेरा तोता कभी बोलेगा भी या नहीं, इतने में एक साधु सिर घुटाये हुए उस तरफ से निकले।
तोते ने तुरन्त साधु पर कटाक्ष किया और कहा कि ओ गंजे, शायद तूने भी तेल की बोतल गिरायी है, तो तुझे गंजा होना पड़ा।
सुननेवाले खूब हंसे कि लो साहब, यह तोता साधु को भी अपने समान समझता है।
[अपनी दशा के अनुसार संसार के अन्य सज्जन मनुष्यों और महापुरुषों की हालत का अन्दाज नहीं करना चाहिए। अक्सर ऐसा हुआ है कि लोगों ने महान आत्माओं को नही पहचाना, उनके उपदेशों पर अमल नहीं किया और पथ-भ्रष्ट हो गये।]

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