जैसे को तैसा (कहानी) : गोनू झा
Jaise Ko Taisa (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha
बात उन दिनों की है जब गोनू झा मिथिला नरेश के दरबारी नहीं थे। उनके दिन अभाव में गुजर रहे थे। उनके साथ उनका छोटा भाई भी था । दोनों के लिए भोजन-वसन जुटाना गोनू झा के लिए मुश्किल हो रहा था । गाँव में रोजगार नहीं। एक बार सूखा पड़ा तो खेत-पथार सभी सूख गए। जिधर भी दृष्टि जाती फटी बिबाइयों वाली बंजर धरती ही दिखती। ब्राह्मण होते हुए भी गोनू झा ने विप्र-वृति नहीं अपनाई थी कि कहीं माँगकर खा लें और अपने भाई भोनू झा में भी यह वृति नहीं पनपने दी थी । चाहते तो वे भी ‘पोथी -पतरा' लेकर जन्म कुण्डली बनाते या घर-घर जाकर पूजा कराते और जजमनका से मिले 'सीधा' से अपना और अपने भाई का पेट सुख से पाल लेते किन्तु बचपन से ही स्वाभिमानी गोनू झा को किसी के आगे हाथ फैलाना गँवारा नहीं था ।
एक दिन ऐसी नौबत आ गई कि घर में एक भी दाना नहीं बचा। गोनू झा को चिन्ता हुई कि आखिर वे भोनू झा को खिलाएँ तो क्या ? वे खुद तो एक-दो दिन उपवास कर सकते थे किन्तु भोनू झा भोजन-भट्ट थे । भूख लगी नहीं कि बेहाल हो जाते । गोनू झा सबकुछ देख सकते थे मगर भोनू झा को भूख से बिलबिलाते हुए नहीं देख सकते थे। उन्होंने सोचा – पास के कस्बे में जाकर कोई काम कर लूँ , शाम तक कुछ न कुछ मेहनताना तो मिल ही जाएगा । भोनू झा को घर पर ही रहने की नसीहत देकर वे पास के गाँव की ओर चल पड़े ।
गोनू झा ने कभी मजदूरी नहीं की थी । रास्ते में वे सोचते जा रहे थे कि आखिर कस्बे में वे किसके पास जाएँगे और क्या काम माँगेंगे ? घर से चलते समय उन्होंने सोचा था कि कुछ भी कर लेंगे मगर अब उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर करेंगे भी तो क्या ? कस्बे में पहुँचकर वे इधर-उधर भटकते रहे मगर उन्हें यह नहीं सूझ रहा था कि किसके पास जाकर वे काम माँगें और क्या काम माँगें ? कस्बे में भटकते-भटकते वे थक से गए । मानसिक रूप से बोझिल और विचारशून्य ! कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि करें भी तो क्या करें ? थकान के कारण बुरा हाल था । जेठ की सुलगती झुलसती हवा और तपती धूप से परेशान , पसीने से तरबतर , गोनू झा को लगा कि यदि वे इस तरह भटकते रहे तो लू की चपेट में आ ही जाएंगे । उन्होंने आस- पास ऐसी जगह के लिए दृष्टि घुमाई जहाँ दो घड़ी के लिए वे बैठ जाएँ। प्यास से कंठ खुश्क हो रहा था और गर्मी से मन व्याकुल । उनकी नजर एक हलवाई की दुकान पर पड़ी। वे उस दुकान में चले गए । दुकान में मिठाइयों को देखकर उनकी अंतड़ियाँ कुलबुलाने लगीं। दुकान में पीढ़े पर वे बैठे और हलवाई उनके पास पानी लेकर आ गया । गोनू झा ने थोड़ा सुस्ता लेने के बाद भर छाँक पानी पीया ।
हलवाई ने उनसे पूछा- “क्यों भइया ? क्या खाओगे ?"
गोनू झा ने अपनी तोंद सहला रहे हलवाई की ओर देखा और बहुत संकोच से बोले-“भाई ! मुझे खाना भी है और डेढ़-दो सेर मिठाई भी लेकर जाना है मगर मेरे पास पैसे नहीं हैं । तुम चाहो तो मैं तुम्हें अपनी अंगूठी दे देता हूँ । मैं दो-तीन दिनों में आकर तुम्हें पैसे दे जाऊँगा और अपनी अँगूठी ले जाऊँगा। “गोनू झा ने अपने दाएँ हाथ की अनामिका से एक चाँदी का छल्ला निकालकर हलवाई की ओर बढ़ाया और फिर कहा-“मैं पड़ोस के गाँव का हूँ ...मेरा विश्वास करो।"
हलवाई ने अँगूठी अपने हाथ में लेकर देखी । उसकी आँखों में काइयाँपन उभर आया । उसने गोनू झा से कहा -" भाई , लगता है कि तुम भूखे हो । भूखे को खाना खिलाना धरम है इसलिए मैं तुम्हें खिलाऊँगा –जितनी खा सको , खा लो ... और डेढ़ सेर क्या , दो सेर मिठाई ले जाओ लेकिन यह मत सोचना कि इस चार आना भर के चाँदी के छल्ले के लिए तुम्हें ये मिठाइयाँ खिलाई हैं ... पड़ोस गाँव से आए हो , इस नाते हमारे मेहमान ही हुए । और मेहमान का सत्कार भला कोई कैसे नहीं करेगा ?"
गोनू झा ने मन ही मन सोचा कि कितना काइयाँ आदमी है यह! आठ आना भर चाँदी की अँगूठी को यह चार आना भर कह रहा है! वे कुछ बोले नहीं । भर पेट जलेबी और कचौड़ी खाई। फिर रसगुल्ले और कुछ पंतुआ भी खाए। हलवाई ने उन्हें दो सेर मिठाइयाँ भी तौलकर मिट्टी की हंडी में डालकर दे दी । गोनू झा ने कुछ कचौड़ी और जलेबी भी भोनू के लिए बँधवाया । मन ही मन गोनू झा ने सोचा कि कहीं से कुछ पैसों का जुगाड़ करके वे हलवाई के पैसे दे जाएँगे और अपनी अँगूठी ले जाएँगे । गोनू झा मन ही मन बहुत प्रसन्न थे कि चलो, भोनू की भूख मिटाने की व्यवस्था हो गई।
मगर दो-तीन दिन में पैसे का इंतजाम गोनू झा नहीं कर पाए। दो-तीन माह में भी नहीं। गाँव के एक धनी किसान के बच्चों को पढ़ाने का काम उन्हें मिल गया था , सो किसी तरह वे अपना और अपने भाई का पेट पाल रहे थे ।
संयोग यह हुआ कि इसके कुछ माह बाद अच्छी बारिश हुई । अच्छी फसल के कारण गाँव में खुशहाली आई । गोनू झा की माली हालत में सुधार हुआ । वे एक दिन उस हलवाई के पास गए और उसकी मिठाइयों के पैसे चुकाकर अंगूठी की माँग की मगर हलवाई ने उनसे पैसे लेने और उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया । गोनू झा मन मसोसते हुए वापस आ गए।
कहते हैं कि नियति के रंग-ढंग निराले होते हैं । संयोगों की रचना भी नियति ही करती है । संयोगवश गोनू झा के गाँव में एक बार फिर अकाल पड़ा । भोनू की परवरिश को लेकर गोनू झा फिर परेशान हो गए । और एक दिन फिर भोनू को साथ लेकर उसी कस्बे में काम की खोज के लिए पहुंचे।
दिन चढ़ने पर भोनू झा भूख से बिलबिलाने लगा और गोनू झा से बार -बार कुछ खिलाने के लिए कहने लगा। जब दोनों भाई उसी हलवाई की दुकानवाली राह पर पहुँचे तो अतीत की स्मृतियाँ गोनू झा के दिमाग में कौंध गईं और उन्होंने तुरन्त फैसला कर लिया कि हलवाई को सबक सिखाने का यही मौका है । भोनू झा को अँगूठी वाली घटना की कोई जानकारी नहीं थी । उन्होंने भोनू झा से कहा, " हम दोनों भाई भर पेट मिठाई खा सकते हैं । इस हलवाई की दुकान में जो कुछ भी पसन्द आए, तुम जाकर खाओ । मैं थोड़ी देर बाद आऊँगा । तुमसे अलग बैठूँगा। तुम दुकान में अजनबी की तरह रहना । भूलकर भी न मेरी तरफ देखना और न बात करना। जो खाना है, खा -पीकर चल देना । दुकानदार से डरना मत । दुकानदार तुम पर चिल्लाए तो कहना कि तुम खाने से पहले ही पैसे दे चुके हो । दुकानदार तुमसे झगड़े, तुम अपनी बात पर डटे रहना । इसके बाद मैं सब सँभाल लूँगा।"
गोनू झा सशंकित मन से हलवाई की दुकान में गया और कचौड़ी, तरकारी, जलेबी, दही और रसगुल्ले मँगाकर उन पर टूट पड़ा ।
जब भोनू झा का खाना लगभग समाप्त होकाने को था तब दुकान में गोनू झा आए। उन्होंने भी अपने लिए कचौड़ी-जलेबी , रसगुल्ले और दही मँगाई और खाने में मग्न हो गए । अभी उन्होंने चार कचौडियाँ ही खाईं थी कि भोनू झा की आवाज उनके कानों से टकराई मैं तो खाने से पहले ही पैसा दे चुका हूँ। थोड़ी ही देर में हलवाई और भोनू झा के बीच में जबरदस्त तू-तू , मैं-मैं होने लगी। भोनू झा पूरी तरह से डटा हुआ था और गोनू झा खाने में लगे हुए थे। दुकान में झगड़ा होते देख राहगीर दुकान के पास जमा हो गए। हल्ला -हंगामा के कारण बाजार की चौकसी करनेवाला सिपाही दुकान में पहुँच गया और दुकानदार से पूछने लगा कि क्या बात हुई है ? हलवाई कुछ बोले, उससे पहले ही भोनू झा ने उस सिपाही से कहा-“इस दुकानदार ने खाना देने से पहले मुझसे पैसे ले लिए । अब मैं जा रहा हूँ तो यह दुबारा पैसे माँग रहा है ।"
दुकानदार इस सफेद झूठ से उत्तेजित हो गया और आवेश में बोला, “सिपाही जी , यह सरासर झूठ बोल रहा है।"
भोनू झा ने सिपाही से कहा “मैं अगर झूठ बोल रहा हूँ तो आप उस आदमी से पूछिए जो वहाँ खाना खा रहा है । जिस समय मैं पैसे दे रहा था उस समय ही यह आदमी यहाँ आया था ।"
सिपाही ने गोनू झा की तरफ देखा। वे खाकर हाथ -मुँह धो रहे थे। सिपाही ने गोनू झा को आवाज दी तो गोनू झा फूट-फूटकर रोते हुए सिपाही के पास पहुँचे। सिपाही ने कहा-“अरे तुम क्यों रो रहे हो ? मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूँगा भाई! डरो मत ।"
गोनू झा ने सुबकते हुए कहा-“मैं आपसे नहीं , इस हलवाई से डर रहा हूँ। खाना देने से पहले इसने मुझसे भी पूरी फेहरिश्त ली कि मैं क्या-क्या खाऊँगा और जब मैंने इससे कहा कि भाई, पहले खा तो लेने दो -फिर पैसे ले लेना तब इसने कहा कि इस दुकान का दस्तूर यही है पहले पैसा, तब सामान । कोई खाकर चल देगा तो मैं क्या करूँगा? यह भाई जी ठीक ही कह रहे हैं पैसा चुकाकर जब ये खाना खाने बैठे, उसी समय तो यह हलवाई पैसा गिनते हुए मुझसे हुज्जत कर रहा था ।"
हलवाई गोनू झा की बातें सुनकर हत्प्रभ रह गया । “अरे! क्या बोल रहे हो भाई ? क्यों झूठ बोलकर मुझे फँसा रहे हो ?” उसने गोनू झा से कहा ।
मगर गोनू झा ने सिपाही का हाथ पकड़ते हुए कहा-“आप ही इन्साफ करिए माई-बाप ! यह दुकानदार तो मुझे भी झूठा कह रहा है!”
फिर क्या था ! सिपाही ने तड़ाक एक बेंत हलवाई की पीठ पर लगाई और कहा-“बंद कर अपनी जुबान । ये दोनों शरीफ आदमी हैं । हम भी आदमी पहचानते हैं । तुम बेकार का प्रपंच रचकर ग्राहकों को लूटते हो । मैं तुम्हें हवालात की सैर कराकर रहूँगा।” सिपाही ने गोनू झा और भोनू झा को दुकान से जाने को कह दिया और हलवाई से उलझता रहा ।
गोनू झा समझ चुके थे कि यह सिपाही भी हलवाई से अपना ‘चढ़ावा' वसूल कर ही उसे छोड़ेगा । गोनू झा ने रास्ते में भोनू झा को ‘अँगूठी वाली घटना' बता दी ताकि भोनू झा के मन में इस घटना का बुरा प्रभाव नहीं पड़े ।
भोनू झा भी समझ गया कि उसके भैया ने हलवाई को सबक सिखाने के लिए तेरहम-विधा का इस्तेमाल किया ।