गोनू की बहादुरी (कहानी) : गोनू झा

Gonu Ki Bahaduri (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

गोनू झा की शादी हुई । मिथिलांचल में ब्राह्मणों के विवाह का आनन्द ही कुछ और है । ऐसे भी रामायण काल से ही मिथिला को प्रेम की नगरी की संज्ञा दी जाती है । लोग मानते हैं कि वह पुष्प वाटिका यहीं थी जहाँ सहेलियों के झुंड में सीता सुन्दरी को भगवान राम ने पहली बार देखा था । मिथिला के किसी गाँव में विवाह हो और दूल्हा गाँव भर की किशोरियों की ठिठोली से बचा रह जाए , ऐसा हो ही नहीं सकता । आम तौर पर जमाई ( दामाद) को ससुराल में कम से कम सवा महीने तक रोकने की प्रथा वहाँ प्राचीन काल से ही चली आ रही है ।

गोनू झा को भी सिन्दूर-दान के बाद ससुराल में रोक लिया गया । ससुराल में उन्हें किसी तरह की असुविधा न हो इस बात का खासा खयाल रखा जाता। दिन भर पत्नी की सहेलियाँ नव वर-वधू को घेरे रहतीं । रात को वधू की मामी, भाभी आदि की चुहलबाजी शुरू हो जाती । बेचारे गोनू झा जिन्दगी भर पुरुषों के साथ रहे थे । महिलाओं के साथ बातचीत करने में झेंप-झेंप जाते । गाँव में वधू पक्ष के सम्बन्धियों के घर से उनके लिए तरह- तरह के सुस्वादु पकवान बनकर आते लेकिन हँसी-ठिठोली के बीच गोनू झा सही ढंग से भोजन नहीं कर पाते । संकोचवश दो-चार निवाला मुँह में रखते और पानी पीकर उठ जाते । पत्नी अभी किशोरी ही थी । गोनू झा की खुराक के बारे में उसे कोई अन्दाज नहीं था इसलिए वह कुछ बोलती नहीं थी । अपने घर में होने के कारण उसमें कोई संकोच का भाव नहीं था इसलिए वह अपनी सहजता में भोजन करती, सहेलियों की छेड़-छाड़ का आनन्द उठाती ।

गोनू झा के लिए एक-एक दिन पहाड़-सा होने लगा। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इस तरह सवा महीना ससुराल में अधपेटा रहकर कैसे जी पाएँगे ? गोनू झा को विवाह के बाद जब सुसराल में रोका गया था तब उनके टहल-टिकोला के लिए उनके गाँव का एक गरीब ब्राह्मण युवक भी वहाँ रुक गया था जिसका नाम था मंगर झा । लोग उसे मंगरुवा पुकारते थे। मंगलवार को उसका जन्म हुआ था जिसके कारण पंडित ने उसका नामकरण मंगल किया था और लोक-प्रचलन में उसका नाम मंगल से मंगर और मंगर से मंगरुआ हो गया था ।

गोनू झा भी कोई धनी परिवार से नहीं थे। उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता था । विवाह के समय में उन्हें आर्थिक-संकटों से गुजरना पड़ रहा था ।

ससुराल पक्ष भी धनी नहीं था मगर उनकी अपेक्षा ससुरालवालों की आर्थिक स्थिति अच्छी थी । ससुर के दरवाजे पर गाय-भैंस-बकरी आदि दुधारू मवेशी थे। खेत-पथार भी था । न उधो का लेना, न माधो का देना वाली हैसियत थी । कई गाँवों में ससुर की रिश्तेदारियाँ थीं । मिथिलांचल की परम्परा के अनुसार ससुर के प्रत्येक सम्बन्ध के घर से विदाई के लिए तरह-तरह की चीजें आ रही थीं जिनको रखने के लिए घर के दरवाजे पर बाँस गाड़कर , बाँस की चचरी से उसकी घेरा बंदी कर दी गई थी । कहीं से कुछ आता एक चचरी खोल दी जाती और सामान उसमें रख दिया जाता । कहीं से खाजा भरी चंगेरी तो कहीं से बालूशाही, कहीं से मखाने की चंगेरी, तो कहीं से लड्डू की चंगेरी। ऐसे पकवान जो महीनों खराब न हों , उस अस्थायी रूप से बनाए गए कमरे में एकत्रित हो रहे थे जिसकी गमक से पूरा दरवाजा मँहमँह करने लगा था ।

एक दिन गोनू झा किसी बहाने पत्नी की सहेलियों के बीच से उठकर घर के दरवाजे पर आने में कामयाब हो गए । उन्होंने दरवाजे पर एक चटाई पर लेटे हुए मँगरुआ को देखा तो उसे जगाया । दरवाजे पर पकवानों की खुशबू से उनकी भूख जाग गई । वे बेचैन हो गए। मँगरुआ ने देखा कि गोनू झा कुछ मायूस दिख रहे हैं तो उसने इसका कारण पूछा । गोनू झा ने मँगरुआ से बताया "दिन भर पत्नी की सहेलियाँ घेरे रहती हैं और रात को भाभी और मामियाँ । उनके सामने संकोचवश ठीक से भोजन नहीं कर पाता । अधपेटा रह जाना पड़ता है । अभी तो सात-आठ दिन ही हुए हैं-सवा महीना कैसे कटेगा, यही सोचते-सोचते जी हलकान हो गया है।"

मँगरुआ ने उन्हें समझाया -"कोई बात नहीं है गोनू ! तुम रात को दिशा मैदान के बहाने उठकर बाहर आ जाना । मैं इस ‘कोठरी की एक चचरी' हटा दूँगा । तुम भीतर जाकर जी भर के , जो चाहो , खा लेना। फिर तुम चचरी हटाकर बाहर आ जाना और जाकर सो जाना । लोगों को कानों-कान खबर तक नहीं होगी।"

गोनू झा को मँगरुआ की सलाह पसन्द आ गई । लगभग मध्यरात्रि में वे घर से बाहर आए मँगरुआ को जगाया । मँगरुआ ने चचरी खोली । गोनू झा भीतर घुस गए और एक चंगेरी का ढक्कन खोलकर उसमें टटोल -टोलकर पकवानों का अन्दाजा करने लगे । अँधेरा होने के कारण अन्दाज से ही उन्होंने बालूशाही निकाली और खाने लगे । फिर उन्होंने टटोलकर खाजा निकाला और खा लिया । इसी तरह वे बारी -बारी से चंगेरियों का ढक्कन खोलते , किसी से ठेकुआ निकालकर खाते तो किसी से कसाढ़ । जब उनका पेट अच्छी तरह भर गया तब वे बाहर आने के लिए चचरी हटाने की कोशिश करने लगे मगर चचरी नहीं खुली ।

चचरी में कुछ छेद बना दिए गए थे जिनमें कीलें घुस जाती थीं तो चचरी बंद हो जाती थी । मंगरुआ और उनको इस बात का पता नहीं था । गोनू झा ने जब कमरे में घुसकर चचरी बंद की थी तो यह चचरी कीलों में फँस गई थी और गोनू झा समझ नहीं पा रहे थे कि यह चचरी खुलेगी कैसे ?

थोड़ी देर तक गोनू झा प्रयास करते रहे मगर जब चचरी नहीं खुली तब वह धीरे-धीरे चचरी को थपथपाने लगे ताकि इस हल्की आहट से मँगरुआ उठ जाए और आकर चचरी उठा दे। मगर मँगरुआ को नींद आ गई थी इसलिए वह चचरी थपथपाये जाने से जगा नहीं । गोनू झा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी । उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि करें भी तो क्या करें ? यदि इसी तरह बंद रह गए तो सुबह में ससुराल वालों के सामने उनकी भद्द पिट जाएगी। मुँह दिखाने के लायक भी नहीं रहेंगे। इसी बेचैनी में वे मँगरुआ को आवाज लगाने लगे-“रे, खींच ! अरे खींच! खोल ...रे ... खोल !"

मगर मँगरुआ के खर्राटे थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे ।

चचरी पीटे जाने और 'खोल ... खींच' की आवाज से ससुराल के लोगों की नींद खुली । उन्हें लगा कि कोई चोर कोठरी में घुस आया है। वे बाहर निकले । मँगरुआ भी जग गया । लोगों ने विचारना शुरू किया कि कोठरी में कौन घुसे ? चोरों का क्या भरोसा, कहीं कोई गुप्ती भुजाली लेकर न बैठा हो ? कौन जोखिम ले ?

गोनू झा ने बाहर हो रही खट-पट की आवाज से समझा कि मँगरुआ जाग गया है तो फिर दबी आवाज में बोले -"रे खींच जल्दी कर !"

मगर तभी उन्हें किसी की आवाज सुनाई पड़ी..."अरे पंडित जी , रात भर ऐसे ही मुँह बाए खड़े रहिएगा कि चोर को पकड़िएगा ?"

दरअसल बोलनेवाला यह व्यक्ति गोनू झा के ससुर के किसी सम्बन्धी का नौकर था जो पुछारी लेकर आया हुआ था और उनके घर के लोगों से ठीक तरह से परिचित नहीं था । उसने कहा -"हटिए आप लोग ! मैं घुसता हूँ , अकेले । आप लोग बस इतना ध्यान रखिए कि वह यदि मेरी पकड़ में नहीं आए और बाहर निकलकर भागने लगे तो उसे बाहर निकलते ही दबोच लें !”

गोनू झा ने जब यह सुना तो उनके पाँव के नीचे से जमीन ही खिसक गई । वे एक बड़े माठ के पीछे दुबककर खड़े हो गए । माठ के सिरे पर एक कथरी दही पड़ी हुई थी । पता नहीं गोनू झा को क्या सूझा कि उन्होंने कथरी उठाकर अपने दोनों हाथों में रख ली ।

जैसे ही चचरी खोलकर वह आदमी कोठरी में घुसा , गोनू झा ने वह कथरी उसके सिर पर दे मारी। कथरी टूट गई और वह आदमी सिर से कंधे तक मलाई की छह- छह परतोंवाली दही से पुत गया । गोनू झा ने उस व्यक्ति को दबोच लिया और चिल्लाने लगे -" जल्दी लालटेन लाओ, मैंने 'खींचो- खोलो' को पकड़ लिया ।"

वह व्यक्ति इस अचानक हमले से इतना घबरा गया था कि उसे कुछ समझ में नहीं आया कि अँधरे में उसके सिर पर क्या टूटा और चेहरे की क्या हालत हो रही है।

गोनू झा की आवाज सुनकर ससुराल के लोग कोठरी में घुसे और उस व्यक्ति को घसीटकर बाहर लाए और फिर हुई उसकी जबर्दस्त धुनाई की।

गोनू झा ने बाद में उसे छुड़ा दिया और उसे एक कोने में ले जाकर कहा -"बस , यहाँ से भाग जाओ, इसी में तुम्हारी भलाई है।"

वह आदमी सकते में तो था ही , वहाँ से भाग निकला । सोचा -‘ जान बची तो लाखों पाए ! ' और गोनू झा अपनी मस्त चाल में चलते हुए आए।

ससुराल के लोग उन्हें मुग्ध नजरों से देख रहे थे। उनकी आँखों में प्रशंसा का भाव था कि कितने बहादुर हैं हमारे मेहमान !

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