गोनू झा को 'मृत्यु दंड' (कहानी)

Gonu Jha Ko Mrityu Dand (Maithili Story in Hindi)

गोनू झा के वाक्चातुर्य और बुद्धि-कौशल पर मुग्ध थे मिथिला नरेश ! कोई भी उलझन आए, गोनू झा उसे चुटकियों में सुलझा लेते । राज्य की मर्यादा, राज्य के मान-सम्मान, दरबार की गरिमा, सत्ता के आदर्श, पड़ोसी राज्यों से कूटनीतिक सम्बन्ध, सीमान्त क्षेत्रों की गतिविधियों पर नजर, कलाकारों को प्रोत्साहन यानी ऐसा वह सबकुछ, जो राज्य-धर्म के निर्वाह के लिए जरूरी हो, गोनू झा का ध्यान उन सभी बातों पर लगा रहता था । उनकी इस बहुआयामी प्रतिभा के कायल थे मिथिला नरेश और उनकी इसी बहुआयामी प्रतिभा से जलते थे मिथिला-दरबार के दरबारी।

अपनी कार्यकुशलता और बुद्धि-लाघव के कारण मिथिला नरेश के दरबार में गोनू झा न केवल नरेश द्वारा प्रशंसित होते रहते थे बल्कि प्रायः किसी न किसी कारण से उन्हें पुरस्कृत भी किया जाता था । इस तरह मिलने वाले पुरस्कारों से गोनू झा के सम्मान में तो वृद्धि होती ही थी, उनकी आर्थिक स्थिति में भी लगातार सुधार हो रहा था । दरबारियों के उनसे जलने का कारण यही था । दरबारी सोचते कहाँ दो जून रोटी के लिए तरसनेवाला गरीब ब्राह्मण 'गोनू झा' और कहाँ मिथिला नरेश के दरबार में बहुप्रशंसित दरबारी गोनू झा ! ऐसे अनेक अवसर उस दरबार में आ चुके थे जब सभी दरबारियों ने मिलकर गोनू झा को नीचा दिखाने की कोशिश की थी । मगर, गोनू झा अपनी बुद्धि के बल से उन सब पर भारी पड़े थे । इसलिए गोनू झा से ईर्ष्या रखनेवाले दरबारी उनसे सीधी टक्कर लेने की बजाय उन्हें किसी साजिश के तहत महाराज की नजर से गिराने के अवसर की ताक में लगे रहते थे।

एक बार की बात है अंग देश के महाराज ने मिथिला नरेश को संदेश भेजा कि वे मिथिला-भ्रमण हेतु आना चाहते हैं । मिथिला नरेश इस संदेश से प्रसन्न हुए और अंग नरेश को संदेश भेज दिया कि उनके स्वागत के लिए मिथिला उनकी राह देख रही है। आम- लीची से भरे मिथिला के बाग, रोहू, कतला, बचवा, पुघता, आसर, बामी, गइंचा जैसी मछलियों से भरे तालाब, कमल और मखानों से सुवासित मिथिला के सरोवर, कनेर, गुलाब आदि विविध पुष्पों से सजी मिथिला की फुलवारियाँ उनकी बेताबी से प्रतीक्षा कर रही हैं ।

अंग देश मिथिला का मित्र राज्य है । वहाँ के नरेश के आगमन पर राज्य में उनके स्वागत में कैसे आयोजन होना चाहिए यह ध्यान में रखकर महाराज ने विशेष दरबार लगाया और सभी दरबारियों से राय ली गई और तय हुआ कि मिथिलांचल में प्रवेश के समय सीमान्त क्षेत्र पर स्वयं मिथिला नरेश अंग नरेश का स्वागत करने के लिए उपस्थित रहेंगे । उनके साथ होंगे मिथिला नरेश और मिथिला दरबार के विशिष्ट दरबारीगण। गाजे-बाजे के साथ अंग नरेश का स्वागत होगा। सीमान्त क्षेत्र से लेकर राजमहल तक पुष्पों से आच्छादित तोरण द्वारों की शृंखला होगी तथा पूरी राह में, मार्ग के दोनों किनारों पर सुन्दर वस्त्रों में सजे-धजे मिथिलांचल वासी पंक्तिबद्ध होकर अंग नरेश के आगमन को प्रतीक्षा करेंगे । सम्पूर्ण मार्ग सुवासित पर्ण-पुष्पों से आच्छादित रहेगा । जब अंग नरेश इस मार्ग से गुजरेंगे तब मिथिलावासी मिथिला और अंग देश की मैत्री का गुणगान करेंगे और दोनों राज्यों के लिए जयघोष करेंगे।

राजमहल में भी तरह- तरह के रंगारंगा कार्यक्रमों के आयोजनों की सूची तैयार हुई । नृत्य, गीत, संगीत, नाटक के अलावा कुश्ती, कबड्डी, खोखो, मल्लयुद्ध आदि के आयोजनों को भी सूची में स्थान मिला ।

मिथिला नरेश ने अंग देश के राजा की आगवानी के लिए विशिष्ट दरबारियों की सूची तैयार करवाई लेकिन इस सूची में गोनू झा को स्थान नहीं मिला । सभी दरबारी खुश हुए । उन्हें लगा कि गोनू झा की औकात ही क्या है ? है तो भांड ही न ! चाटुकारिता करके महाराज का मुँहलगा बन गया है और अपने को महाविद्वान समझता है। महाराज गुणों को समझते हैं, तब ही तो इस विशेष अवसर पर गोनू झा को अपने से दूर रखा है । आखिर राज्यों के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों का सवाल है। इसमें भांड का क्या काम !

गोनू झा को स्वागतकर्ताओं को सूची में शामिल नहीं किए जाने से दरबारी मन ही मन बहुत खुश थे। उनमें कुछ दरबारी ऐसे भी थे जो यह कयास लगा रहे थे कि महाराज किसी बात से, गोनू झा से अवश्य नाराज हैं । अगर ऐसा नहीं होता तो महाराज उन्हें अवश्य अंग नरेश के स्वागत के लिए अपने साथ लेकर जाते । दरबारी इसी गुन-धुन में लगे थे कि मिथिला नरेश ने घोषणा की कि राज्य में अंग नरेश के आगमन से लेकर प्रस्थान तक की सभी तैयारियों का जिम्मा गोनू झा को सौंपा जाता है। उन्हें यह अधिकार भी दिया जाता है कि इन तैयारियों के लिए आवश्यक धन वे राज्य कोषागार से प्राप्त कर सकेंगे किन्तु उन्हें प्रत्येक व्यय का ब्यौरा कोषागार को देना होगा । उनसे राज्य यह अपेक्षा रखता है कि ये तैयारियाँ आकर्षक, मनोरंजक और निर्दोष हों । गोनू झा स्वयं अनुभवी और जिम्मेदार हैं इसलिए उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं कि यह दो मित्र राष्ट्रों के बीच आपसी तालमेल और समझ की बुनियाद को मजबूत करने का अवसर भी है । दरबारियों के कान खड़े थे। महाराज की घोषणा का एक-एक शब्द उन्होंने गौर से सुना । दरबार के समापन के बाद गोनू झा के विरोधी दरबारी आपसी मंत्रणा के लिए एक स्थान पर एकत्रित हुए । उनका हृदय झूम रहा था । बाछे खिली हुई थीं ।

एक दरबारी ने दूसरे उम्रदराज और अनुभवी दरबारी से पूछा-“आज राजदरबार में महाराज द्वारा की गई घोषणा का आप क्या अर्थ निकालते हैं ? राजा की भाषा में गोनू झा के प्रति कहीं आत्मीयता लक्षित नहीं हो पाई।"

बाकी दरबारी भी उत्सुक हो उठे। तब एक अनुभवी दरबारी ने कहा-“राजा की भाषा समझना कभी आसान नहीं होता । इसीलिए यह किंवदन्ती प्रचलित है-राजा के अगारी और घोड़ा के पछारी मत जाना । समझे कुछ?"

दो -तीन दरबारी एक साथ पूछ बैठे -" क्या मतलब? जरा ठीक से समझाइए ।" उनके स्वरों में आवेश, उत्तेजना और उत्सुकता के मिले-जुले भाव थे और आँखों में थी तीव्र व्यग्रता ।

अनुभवी दरबारी ने मुस्कुराते हुए कहा -"समझो, गोनू झा के दिन लद गए। वह अपने को तीस मार खाँ समझता था । राजा की चापलूसी करता रहता था । जितने कम समय में वह राजा का मुँहलगा बन गया और राजा के आगे-पीछे करने लगा- समझो उसका अन्त आ गया । शायद गोनू झा पहला आदमी होगा जो बहुत कम समय में राजा का चहेता बना और उससे भी कम समय में राजदरबार से बाहर हुआ ।"

वहाँ खड़े सभी दरबारी खुश हो गए । उनमें से एक ने कहा-“मतलब कि लोहा गरम है । बस, चोट करने की जरूरत है! यह अवसर हाथ से जाना नहीं चाहिए । महाराज ने गोनू को अंग-राज के आगमन से लेकर प्रस्थान तक की तैयारियों का जिम्मा सौंपा है तथा सांकेतिक शब्दों में यह चेतावनी भी दे दी है कि तैयारियाँ त्रुटिहीन होनी चाहिएँ । हम लोग मिलकर कुछ ऐसा करें कि अंग-राज के आगमन के दिन ही स्वागत की तैयारियों में कोई ऐसा खोट प्रकट हो जाए जिससे महाराज को बहुत बुरा लगे और यदि ऐसा हो जाता है तब गोनू झा, महाराज का कोपभाजन बनने से बचे नहीं रह सकेंगे। जब उस खोट के लिए दरबार में कोई बात उठेगी तब हम लोग एक साथ मिलकर उसे अक्षम्य अपराध की संज्ञा देंगे और उसके लिए गोनू झा को कठोर से कठोर दंड दिए जाने की माँग करेंगे । बोलो भाइयो, आप सबकी क्या राय है? इस तरह साँप भी मरेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।"

सबने हामी भर दी । उनकी मंत्रणा अभी समाप्त नहीं हुई थी । मूल प्रश्न खड़ा था आखिर ऐसा क्या किया जाए जिससे अंग-राज के आगमन के दिन ही कुछ ऐसा हो जाए जिससे महाराज कुपित हो जाएँ और गोनू झा दंडित किए जा सकें ।

दरबारियों में एक 'काना नाई' भी था जो बरसों से गोनू झा से खार खाए बैठा था । उसने सुझाव दिया-“बात बहुत आसान है । यदि हम सभी साथ हैं तो गोनू झा इस बार मुँह की खाएँगे। यह बात सत्य है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता और गोनू झा इस बार नितान्त अकेले पड़ गए हैं और उनके जिम्मे ऐसा काम है जिसमें थोड़ा-सा भी खोट सीधे झलक जानेवाला है-छुपनेवाला नहीं ! मेरी सलाह है कि सीमान्त क्षेत्र से राजमहल के बीच 'खजूर वन्नी' के पास सड़क संकरी और बदहाल है । यदि हम लोग वहाँ मजदूरों को कुछ पैसों का लोभ देकर उस सड़क में गड्ढे करवाकर उसको कीचड़ से भरवा दें और उस कीचड़ पर फूलों की मोटी परत बिछवा दें तो बात आसान हो जाएगी । उधर से महाराज अंग नरेश के साथ रथ पर ही गुजरेंगे। हो सकता है कि रथ में जुते घोड़ों के टापों से कीचड़ उछले और महाराज और उनके अतिथि को 'कीच-स्नान' कर दे और यह भी हो सकता है कि रथ कीचड़ में फँस जाए ! होने को तो यह भी हो सकता है कि अचानक गड्ढे में पाँव पड़ने से घोड़ा ही गिर जाए !"

सभी इस सलाह से उछल पड़े और काना नाई की सलाह को सर्वस्वीकृति मिल गई।

गोनू झा बड़ी लगन से अंग नरेश के आगमन से लेकर विदाई तक के कार्यक्रमों का निर्धारण करके उनके आयोजनों की तैयारियों में जुट गए। वे स्वयं घोड़े पर सवार होकर आगवानी -बिन्दु से लेकर महल तक का चक्कर लगाते। यह देखते कि तोरण द्वारों के मध्य की दूरी एक फर्लांग से अधिक न हो । मुख्य मार्ग के अगल-बगल नरेशों के स्वागत के लिए खड़े रहने वाले लोगों की सुविधा के लिए जगह-जगह पर प्याऊ की व्यवस्था ; राज्य की ओर से इन लोगों के लिए दही, छाछ व जलपान का प्रबंध; तोरण द्वारों के मध्य की दूरी को रंग बिरंगे पताकों से सजाने का कार्य-एक-एक काम को बारीकी से देखते गोनू झा समझ रहे थे कि महाराज ने उन्हें यह काम इसलिए सौंपा है कि यही कार्य सबसे महत्त्वपूर्ण था । राज्य भर के कलाकारों को आमंत्रण भेजना, विद्वानों के स्वागत-सम्मान समारोहों की योजना बनाना, उनसे सम्पर्क करना और राज्य के वरिष्ठ विद्वानों से इस आयोजन को सफल बनाने के लिए सलाह लेना-गोनू झा इन कार्यों में व्यस्त थे। न दिन को चैन, न रात को विश्राम । एक ही धुन में रमे थे गोनू झा कि उन्हें जो जिम्मेदारी सौंपी गई है, वे उसे खूबी के साथ अंजाम दे पाएँ।

अंग नरेश के आने की घड़ी नजदीक आ चुकी थी । गोनू झा मुख्य मार्ग की सज्जा का निरीक्षण और अवलोकन कर चुके थे। मिथिला नरेश भी मुख्य मार्ग का जायजा ले चुके थे और इस अभूतपूर्व सज्जा की मन ही मन प्रशंसा कर चुके थे। उन्होंने महल में पहुँचने के बाद महारानी से कहा भी था कि गोनू झा जैसा विलक्षण व्यक्ति सदियों में कभी जनमता होगा । उन्होंने मन ही मन तय कर लिया था कि अंग नरेश की विदाई के बाद वे गोनू झा को उनकी विशिष्ट कार्यशैली के लिए राज्य की ओर से सम्मान देंगे ।

मिथिला के सीमान्त क्षेत्र में मिथिला नरेश अपने दरबारियों के साथ खड़े थे । अंग नरेश के आगमन की प्रतीक्षा थी । तभी घोड़ों के टापों की आवाज ने उनका ध्यान आकर्षित किया । थोड़ी ही देर में अंग नरेश अपने सुरक्षाकर्मियों के बीच घोड़े पर सवार आते दिखे। जब वे लोग सीमांत क्षेत्र पर पहुँचे तो मिथिला नरेश के दरबारियों ने जयघोष कर अंग नरेश का स्वागत किया । अंग नरेश घोड़े से उतरे और मिथिला नरेश ने उन्हें गले से लगा लिया । फूलों से सजे रथ पर अंग नरेश के साथ मिथिला नरेश बैठे। गाजे -बाजे बजने लगे। मिथिलांचलवासियों की जयघोष से दिशाएँ गूंज उठीं । अंग नरेश ने इतने भव्य स्वागत की कल्पना नहीं की थी । वे प्रफुल्लित मन से मिथिला नरेश से मिथिला के जन -जीवन की बातें करने लगे । रथ चला। धीमी गति से । दोनों नरेश रथ पर खड़े होकर प्रजाजनों का अभिवादन स्वीकारने लगे ।

जगह-जगह रंग -बिरंगे कपड़ों से सजे-धजे नर-नारियों की जयघोष करती कतार को देखकर अंग नरेश ने सोचा-कितने खुशहाल हैं -मिथिला के वासी ! ऐसा आह्लाद, ऐसी उमंग और ऐसा उत्साह अंग नरेश ने अपने राज्य में किसी अतिथि के लिए नहीं देखा था । रंगों की चमक-दमक, पुष्प-गुच्छों से आच्छादित तोरण द्वारों से उठनेवाली सुगन्ध ने अंग नरेश पर जादुई प्रभाव डाला था और वे राह की थकान भूल, मुग्ध होकर राजमहल जाने वाली राह की सज्जा और प्रसन्नचित्त मिथिलावासियों को देख रहे थे कि अचानक एक धचके के साथ रथ के पीछे का दोनों पहिया कीचड़ में फँस गया और घोड़ों के टापों से उछले कीचड़ से रथ के फूल लथ-पथ हो गए ।

मिथिला नरेश इस आसन्न व्यवधान से चौंक पड़े । रथ-चालक ने बहुत कोशिश की मगर घोड़े रथ को खींच नहीं पाए । रथ का एक पहिया बुरी तरह एक गड्ढे में फँसा हुआ था । अन्ततः महाराज के सुरक्षाकर्मियों ने रथ को कंधे के सहारे उठाया और फिर मुख्यमार्ग पर रथ लाया गया । रथ की सफाई की गई। घोड़े बदले गए । रथ महल की ओर चला । महाराज इस व्यवधान से क्षुब्ध हो उठे, मगर समय को ध्यान में रखते हुए शान्त रहे । उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि राह में यदि गड्ढा था तो उसे भरा क्यों नहीं गया ? और राह में उस गड्ढ़े में इतना कीचड़ कहाँ से आ गया ? बरसात का मौसम नहीं कि राह में कीचड़ हो ! 'खजूर वन्नी' का इलाका ऐसे भी जन-शून्य स्थान है। वहाँ नाले भी नहीं हैं ! किसी के द्वारा लगातार पानी बहाने की भी सम्भावना नहीं है ! सबसे बड़ा सवाल उनके मन में यह उठ रहा था कि कीचड़ को फूलों से ऐसे किसने ढंका कि वह शेष राह जैसा ही दिखे? आखिर ऐसा करने वाले की मंशा क्या रही होगी ? उन्होंने अंग नरेश से इस व्यवधान के लिए खेद जताया और अंग नरेश ने उन्हें आश्वस्त किया कि के इस घटना को महत्त्व नहीं दे रहे ।

राजमहल में पहुँचने के बाद अंग नरेश के लिए भव्य रूप से सजाए गए कक्ष में उन्हें ले जाया गया और इसके बाद एक से बढ़कर एक भव्य और मनोरंजक कार्यक्रमों की शृंखला शुरू हुई । लगभग एक माह के प्रवास पर आए अंग नरेश के लिए एक से बढ़कर एक, यादगार कार्यक्रमों की प्रस्तुति हुई। मिथिलावासियों के लिए भी यह अवसर अपने सांस्कृतिक धरोहरों को उजागर करने वाला था ।

भोजन, मनोरंजन और विश्राम की निर्दोष तैयारियों की सराहना मन ही मन मिथिला नरेश भी कर रहे थे लेकिन उनके मन में अंग नरेश के आगमन के दिन की घटना शूल की तरह चुभा रही थी । वे समझ नहीं पा रहे थे कि इतनी अच्छी व्यवस्था में वह दोष कैसे उत्पन्न हो गया ?

एक भव्य आयोजन के बाद अंग नरेश की विदाई की घड़ी आई। महाराज स्वयं उनके साथ सीमान्त तक गए । भावभीनी विदाई के बाद एक दिन शान्तिपूर्वक बीता । दूसरे दिन दरबार में महामंत्री ने प्रस्ताव रखा कि अंग नरेश के आगमन से लेकर प्रस्थान तक के कार्यक्रमों की समीक्षा होनी चाहिए। दरबारी मानो इस पल की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। सबने एक स्वर में स्वीकृति दे दी । महाराज गम्भीर मुद्रा में दरबारियों को देख रहे थे।

समीक्षा -मीमांसा में एक से बढ़कर एक आयोजनों की एक स्वर में सराहना हुई। जब अंग नरेश की अगवानी की तैयारियों की समीक्षा शुरू हुई तो पूरे दरबार में फुसफुसाहटें तेज हो गईं।

मिथिला नरेश ने दरबारियों में आए इस परिवर्तन पर गौर किया । उनका मन पहले से ही आशंकित था । अब उनकी यह आशंका बलवती हो गई कि निश्चित रूप से मुख्यमार्ग में गड्डा खोदा गया, उसमें कीचड़ भरकर फूलों से उसे छुपाया गया, वरना इस प्रस्ताव पर दरबारियों में ऐसी खलबली पैदा नहीं होती ।

महाराज ने महामंत्री को इशारा किया । महामंत्री ने आसन से उठकर अभियोग सुनाया -" अंग नरेश की अगवानी के दिन रथ का पहिया कीचड़ में फंस जाने की घटना के लिए गोनू झा को दोषी माना जाता है । चूंकि यह दायित्व गोनू झा का था कि नरेश की यात्रा सीमांत क्षेत्र से लेकर राजमहल तक निर्विघ्न और निर्बाध सम्पन्न हो और यह कार्य राजकीय महत्त्व का था इसलिए उनका दोष अक्षम्य है । अंग नरेश हमारे लिए विशेष महत्त्व रखते हैं । उनका मिथिला आगमन दोनों राज्यों के मैत्री सम्बन्धों को प्रगाढ़ करने के लिए था इसलिए इस महत्त्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी गोनू झा को सौंपी गई थी कि वे प्रज्ञा सम्पन्न प्राणी हैं और इस कार्य के महत्त्व को समझते हैं मगर मार्ग में जो व्यवधान उपस्थित हुआ, उससे गोनू झा के कार्य के प्रति लापरवाही और उदासीनता दोनों प्रकट हुई । यह लापरवाही मिथिला के हित में कदापि नहीं कही जाएगी और इसके लिए मेरी गुजारिश है कि महाराज मिथिला नरेश, गोनू झा को कड़ा से कड़ा दंड दें ताकि भविष्य में कोई भी व्यक्ति ऐसा आचरण करने का साहस नहीं कर सके जिसमें दो राज्यों के मधुर सम्बन्ध प्रभावित होने के आसार नजर आते हों । मेरी समझ में यह घटना छोटी नहीं है और यह प्रकारांतर से राजद्रोह की प्रकृति का संकेत देती है जिसके लिए राज्य के विधान में 'मृत्युदंड' निर्धारित है।"

दरबारियों ने जब प्रधानमंत्री की बातें सुनीं तो वे प्रसन्न हो उठे । एक हर्ष ध्वनि-समवेत उठी और महाराज ने दरबारियों की मुखमुद्रा से समझ लिया कि गोनू झा को मृत्युदंड की पेशकश से वे सभी प्रसन्न हैं । महाराज ने गोनू झा की ओर देखा-गोनू झा शान्त थे। उनके चेहरे पर भय का कोई भाव नहीं था । महाराज अपने आसन से उठे और दरबारियों से पूछा-“आप सबकी क्या राय है ?"

दरबारी एक स्वर से चीख पड़े-"प्रधानमंत्री महोदय का निर्णय विधान-सम्मत है । गोनू झा दंड के भागी हैं और उन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए।"

महाराज ने गोनू झा की ओर देखा और गम्भीर मुद्रा में बोले-“पंडित जी ! आप कुछ कहना चाहते हैं ?"

गोनू झा ने कहा-“महाराज ! प्रधानमंत्री महोदय की न्याय -व्यवस्था से मैं सहमत हूँ । मैं उस दिन की घटना के लिए जिम्मेदार हूँ और स्वीकार करता हूँ कि उस गफलत के कारण कुछ भी ऐसा घटित हो सकता था जिससे दो मित्र राज्यों के सम्बन्धों में कटुता आ सकती थी । अपना अपराध स्वीकार करते हुए मैं अपने लिए कठोर से कठोर दंड दिए जाने की पेशकश करता हूँ।”

महाराज गोनू झा के चेहरे को देख रहे थे। गोनू झा की मुख-मुद्रा शान्त और निर्दोष थी और उनके मुँह से निकलने वाला प्रत्येक शब्द संतुलित ध्वनि के साथ दरबार में अनुगूंजित हो रहा था । महाराज ने दरबारियों की ओर देखा-सभी दरबारी प्रसन्नमुद्रा में बैठे थे तथा महाराज द्वारा दंड सुनाए जाने की प्रतीक्षा में थे। महाराज के पास दंड देने की शक्ति थी और दंड मुक्त करने का अधिकार भी । महाराज इतना भाँप चुके थे कि दरबारी गोनू झा को दंडित करवाना चाह रहे हैं और वे यह भी समझ चुके थे कि गोनू झा निर्दोष हैं, उन्हें किसी षड्यंत्र के तहत अपराधी के रूप में दरबार में खड़ा करने का माहौल तैयार किया गया है । मन ही मन कुछ निश्चय कर महाराज ने हठात् ऊँची आवाज में दो पंक्तियों में अपना फैसला सुनाया-“गोनू झा ! आप राजद्रोह के दोषी हैं । मैं आपको मृत्युदंड देने का निर्णय सुनाता हूँ ।"

महाराज की आवाज सुनकर दरबार में हर्ष- ध्वनि हुई । प्रसन्न मुद्रा में दरबारियों ने मन ही मन सोचा-निकल गया कांटा ।

गोनू झा शान्त थे।

तभी महाराज ने पूछा-“गोनू झा ! आपकी कोई अन्तिम इच्छा हो तो कहें ! हम उसे अवश्य पूरी करेंगे।"

गोनू झा ने कहा “महाराज ! आपका दंड शिरोधार्य! मैं फाँसी पर लटकने को तैयार हूँ। राजाज्ञा का पालन मेरा धर्म है । मैंने जो अपराध किया है, उसकी सजा मुझे मिलनी ही चाहिए ।"

मिथिला नरेश मुस्कुराए और सहज भाव से पूछा-“पंडित जी ! मैंने आपसे आपकी अन्तिम इच्छा पूछी है।"

गोनू झा ने उसी तरह शान्त स्वर में कहा “महाराज, मेरी एक ही अभिलाषा है कि मैं आपके परपोते को गोद में खेलाऊँ ।"

महाराज मुस्कुराए और उन्होंने घोषणा की कि मेरे पुत्र के पुत्र के पुत्र के अवतरण तक यदि गोनू झा जीवित रहते हैं तो मृत्युदण्ड के भागी होंगे ।

दरबारी एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे । तभी उनके कानों में महाराज की गुर-गम्भीर वाणी गूंजी -" आप सभी दरबारी ध्यान देंगे ! आपस में स्पर्धा होनी चाहिए लेकिन, वह रचनात्मक होनी चाहिए । किसी को नुकसान पहँचाने के उद्देश्य से किया जानेवाला कर्म कभी भी हितकर नहीं होता । मुझे विश्वास है कि आप लोग मेरी बातें समझ गए होंगे” ।

महाराज ने दरबारियों की ओर देखा-सबके चेहरे लटक चुके थे। महाराज ने मुस्कुराते हुए अपने गले से मोतियों की माला उतारी और गोनू झा के आसन के पास पहुँचकर वह माला उनके गले में डालते हुए कहा, “पंडित जी ! आप इसी 'दंड' के योग्य हैं !"

गोनू झा श्रद्धानत होकर अपने आसन से उठ खड़े हुए और मिथिला नरेश ने उन्हें अपने गले से लगा लिया ।

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