गोनू झा हुए पराजित (कहानी)
Gonu Jha Huye Parajit (Maithili Story in Hindi)
बसुआ यानी बासुदेव । गोनू झा के टहल -टिकोला में लगा रहने वाला उनके गाँव का एक किशोर। बसुआ, जिसका अपना सगा कोई नहीं था । गाँव में उसकी एक छोटी-सी झोंपड़ी थी । गोनू झा के खेत के पास । बसुआ दिन भर इधर-उधर रहता। किसी ने कुछ करने को कहा, कर दिया । अलमस्त था बसुआ । न दिन की फिक्र, न रात की चिन्ता । जब थक जाता तो चला आता अपनी झोंपड़ी में । उसे झोंपड़ी कहने की बजाय उसका रैन बसेरा कहें तो ज्यादा ठीक होगा-बसुआ मस्त-मलंग की तरह पड़ा रहता । 'न उधो का देना, न माधो का लेना !' निश्चिन्त रहता बसुआ। किसी की उसे परवाह नहीं थी । न कोई छोटा- मोटा, न कोई बड़ा । उसकी नजर में सब बराबर ! कोई बच्चा भी उसे किसी काम के लिए कहता तो वह 'जी मालिक' कहकर उसका काम कर देता । कहीं से दो जून रोटी मिल गई तो खा लिया और चला आया अपनी झोंपड़ी में । यही थी बसुआ की दिनचर्या।
एक दिन गोनू झा का हरवाहा बीमार पड़ गया । गोनू झा को अपना खेत तैयार करना था । वे सोचने लगे-अब क्या करें ! अचानक खेत की मुँडेर पर उन्हें बसुआ दिख गया । वे खुश हो गए । उन्हें लगा कि बसुआ उनका कहना नहीं टालेगा। इसलिए उन्होंने बसुआ को आवाज दी-“बसुआ-ओ बसुआ !"
बसुआ ने उनकी आवाज सुनी तो वहीं से चिल्लाया -"पाँव लागन मालिक!" और दौड़ता हुआ गोनू झा के पास पहुंच गया ।
गोनू झा ने कहा-“बसुआ, दो-चार दिन तू मेरा खेत जोत दे! हरवाहा बीमार पड़ गया है । वह ठीक हो जाएगा तब तक भले ही किसी और काम में लग जाना!"
बसुआ मान गया । गोनू झा के घर से हल और बैल ले आया और खेत की जोताई में लग गया ।
गोनू झा दरबार के लिए तैयार होकर अपने खेत की ओर से ही दरबार के लिए निकले । उन्होंने देखा, बसुआ तन्मयता के साथ खेत जोतने में लगा हुआ है। मन ही मन खुश होते हुए गोनू झा ने बसुआ को आवाज दी-“ओ बसुआ ! जरा इधर आ !"
बसुआ खेत के बीच से ही चिल्लाया-“आया मालिक !” और दौड़ता हुआ गोनू झा के पास पहुँचा और हाँफते हुए पूछा-“जी, मालिक?”
गोनू झा ने बसुआ से कहा “देख बसुआ !... मन लगा के खेत जोतना ! अपना काम समझ के जितना कर सको, करना। शाम को दरबार से लौट- कर तुम्हें हलवा खिलाऊँगा!"
बसुआ खुश हो गया और बोला-“जी, मालिक!"
इसके बाद गोनू झा दरबार चले गए और बसुआ पूरे उमंग के साथ खेत जोतने में लग गया । जब थोड़ी थकान होती, बसुआ गाने लगता-“मालिक आएँगे! हलवा लाएँगे ! मैं तो जी भर के हलुआ खाऊँगा... मस्त होके सोने जाऊँगा...!"
दरबार से लौटते समय भी गोनू झा खेत वाली राह से ही आए। उन्होंने देखा, बसुआ खेत जोतने में जुटा हुआ है । उन्हें देखकर आश्चर्य हुआ कि जितना खेत उनका हरवाहा सात दिनों में जोतता, उससे कहीं अधिक खेत बसुआ एक दिन में ही जोत चुका था ...। गोनू झा घर लौटे । वे अपने साथ बाजार से ही थोड़ा हलवा खरीदकर खेत की ओर आए थे ।
खेत पहुँचकर उन्होंने बसुआ को आवाज दी-“ओ बसुआ! आ ! बहुत हो गया ! अब कल जोतना! चला आ ! हाथ -मुँह धो ले । थक गया होगा । तुम्हें भूख भी लगी होगी । जल्दी आ ...मैं तुम्हारे लिए हलवा ले के आया हूँ।"
बसुआ ने दूर से ही देखा गोनू झा के हाथों में बड़ा सा बर्तन देखकर वह बहुत खुश हुआ और कुएँ पर पहुँचकर हाथ-पाँव धोया, कुल्ला -गरारी किया और झूमते हुए गोनू झा की ओर चला-गाते-गाते-“जी भर के हलुवा खाऊँगा! तब मैं सोने जाऊँगा...!"
जब वह गोनू झा के पास पहुँचा तब तक गोनू झा ने उसकी ओर वह बर्तन बढ़ा दिया जो उनके हाथ में था । बर्तन जैसे ही बसुआ ने पकड़ा तो उसके वजन से ही बसुआ को लगा कि बर्तन खाली है । बसुआ ने जब बर्तन में झाँका तो उसका सारा उत्साह फीका पड़ गया और उसके मुँह से निकला-“यह क्या मालिक ! आपने तो मुझसे कहा था कि आप मुझे हलवा खिलाएँगे, मगर ...।"
गोनू झा ने बसुआ को बीच में ही टोकते हुए कहा-” हलुवा ही तो है..."
बसुआ ने कहा-“मगर मालिक! इतना ही ? इससे मेरा पेट कहाँ भरेगा ?"
गोनू झा ने कहा" देखो, मैंने तुझे कहा था कि हलवा खिलाऊँगा तो हलवा ले आया तुम्हारे लिए...मैंने यह तो नहीं कहा था कि भर पेट हलवा खिलाऊँगा ? अब ज्यादा बक-बक मत कर । जो है सो खा ले।”
बसुआ ने रुआँसा होकर गोनू झा की ओर देखा और कहा-“जी, मालिक।” बसुआ ने हलवा खा लिया और कुएँ पर जाकर पानी पिया फिर बर्तन धोकर गोनू झा को लौटा दिया ।
गोनू झा बर्तन लेकर जब घर की ओर लौटने लगे तब उन्होंने बसुआ से कहा-“कल मैं घर से सीधे दरबार चला जाऊँगा। शाम को जब दरबार से लौटूंगा तब तुम्हारे लिए कुछ मजेदार चटपटी चीजें लेता आऊँगा-जी भर के खाना ! हाँ, देख, सुबह से खेत जोतने में जरूर लग जाना !”
बसुआ ने कहा-“जी, मालिक!"
गोनू झा चले गए ।
बसुआ हल-बैल लेकर बथान पर पहुँचा आया । फिर अपनी झोंपड़ी में पहुँचा । उसके पेट में चूहे दौड़ रहे थे। खलबली मची हुई थी । लोटा भर पानी पीकर किसी तरह बसुआ ने रात बिताई । रात को ही उसने सोच लिया था कि गोनू झा को वह जरूर मजा चखाएगा ।
दूसरी तरफ, गोनू झा बसुआ के काम से खुश थे। उन्होंने सोचा-बेचारा बसुआ! दिन भर काम में जुटा रहा... उम्मीद से ज्यादा खेत जोत दिया लेकिन उसे आज अधपेटा रहना पड़ गया । खैर ! कल उसके लिए कचौड़ी -जलेबी लेकर आऊँगा... इतना कि उसका पेट भर जाए!"
दूसरे दिन शाम को खेत पर जब गोनू झा हाथ में कचौड़ी, जलेबी से भरा बर्तन लेकर पहुँचे तो देखा, बसुआ एक ही जगह हल-बैल चलाए जा रहा है । दिन भर में वह कट्ठा भर जमीन भर नहीं जोत पाया है । हाँ, जितनी जमीन जोता है उतनी जमीन की मिट्टी चूड़ होकर पाउडर की तरह महीन हो चुकी है । गोनू झा को कुछ समझ में नहीं आया कि बसुआ एक ही जगह हल क्यों चलाए जा रहा है ? उन्होंने क्रोध में आवाज दी -" ओए बसुआ, इधर आ !"
बसुआ उनकी ओर देखा और चिल्लाकर बोला-“आया मालिक!"
बसुआ हल-बैल छोड़कर गोनू झा के पास आने से पहले कुएँ पर गया और हाथ- पैर धोकर गोनू झा के पास पहुँचा और बोला-“लाइए मालिक, मजेदार और चटपटी चीजें ! भूख लगी है खा तो लूँ!”
गोनू झा ने हाथ का बर्तन बसुआ की ओर बढ़ा दिया । बसुआ बर्तन में जलेबी -कचौड़ी देखकर बहुत खुश हुआ और वहीं पालथी मारकर बैठ गया और खाने लगा ।
गोनू झा उसे खाता देखकर मन ही मन खीज रहे थे। जब बसुआ खा चुका और बर्तन धोकर उन्हें थमाने लगा तब गोनू झा ने बर्तन लेते हुए बसुआ से पूछा-“बसुआ ! आज दिन भर में तू कट्ठा भर जमीन भी नहीं जोत पाया ! ऐसे ही जोताई होती है ?"
बसुआ ने गोनू झा की आवाज से उत्पन्न आवेश को महसूस किया और तड़ककर बोला" मालिक ! आप नाराज क्यों होते हैं ? मैंने तो कहा था, खेत जोतूँगा सो जोत रहा था । मैंने यह थोड़े ही कहा था कि सारा खेत जोत दूँगा ?" गोनू झा को तुरन्त हलवा वाली बात याद आ गई, और उनका आवेश जाता रहा । बसुआ ने उन्हें अहसास करा दिया था कि दूसरों को गच्चा देने वाले को खुद भी गच्चा खाना पड़ सकता है। बसुआ की मस्त-मलंग आवाज से गोनू झा हँस दिए और बोले" बसुआ ... सच में तुम बहुत अच्छे इन्सान हो । कल मुझसे गलती हो गई थी, अब ऐसा कभी नहीं होगा मैं सदैव इस बात का ध्यान रखूँगा !" बसुआ हँस दिया मस्त हँसी और हल -बैल लेकर बथान की ओर चल पड़ा ।
गोनू झा उसे मस्त चाल में जाते हुए देखते रहे ।