दुविधा (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्‍जी'

Duvidha (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'

एक धनी सेठ था। उसके इकलौते बेटे की बरात धूम-धाम से शादी संपन्न कर वापस लौटते हुए जंगल में विश्राम करने के लिए रुकी। घनी खेजड़ी की ठंडी छाया। सामने हिलोरें भरता तालाब। कमल के फूलों से आच्छादित निर्मल पानी। सूरज सिर पर चढ़ने लगा था। जेठ की तेज़ चलती गर्म लू से जंगल चीत्कार कर रहा था। खाना-वाना खाकर चलें तो बेहतर। दूल्हे के पिता ने अधिक मनुहार की तो सभी बराती ख़ुशी-ख़ुशी वहाँ ठहर गए। दुल्हन के साथ पाँच दासियाँ थीं। वे सभी उस खेजड़ी की छाया में दरी बिछाकर बैठ गईं। पास ही एक विशाल बबूल था पीले फूलों से अटा हुआ। चाँदी के समान सफ़ेद हिलारियाँ। शेष बराती उसकी छाया में बैठ गए। कुछ देर विश्राम करने के बाद खाने का इंतज़ाम होने लगा।

दुल्हन मुँह फिराए, घूँघट हटाकर बैठ गई। ऊपर देखा—पतली-पतली अनगिनत हरी साँगरियाँ ही साँगरियाँ। देखते ही आँखों में शीतलता दौड़ गई। संयोग की बात कि उस खेजड़ी में एक भूत का निवास था। इत्र-फुलेल की ख़ुशबू से महकते दुल्हन के उघड़े चेहरे की ओर देखा तो उसकी आँखें चौंधिया गईं। क्या औरत का ऐसा रूप और यौवन भी हो सकता है? गुलाब के फूलों की कोमलता, ख़ुशबू और उनका रस मानो साँचे में ढला हो। देखकर भी ऐसे रूप पर विश्वास नहीं होता। बादलों का ठिकाना छोड़कर कहीं बिजली तो नहीं उतर आई! इन मदभरी आँखों की तो कोई उपमा ही नहीं। मानो तमाम क़ुदरत का रूप इस चेहरे में समा गया हो। हज़ारों औरतों का रूप देखा पर इस चेहरे की तो रंगत ही निराली! खेजड़ी की छाया तक चमकने लगी। भूत की योनि सार्थक हुई।

दुल्हन की देह में प्रवेश करने का विचार आने पर उसे वापस होश आया। इससे तो यह तकलीफ़ पाएगी। ऐसे रूप को तकलीफ़ कैसे दी जा सकती है! वह असमंजस में पड़ गया। यह तो अभी देखते-देखते चली जाएगी। फिर? न उसमें प्रवेश कर सताने को मन करता है और न छोड़े ही बनता है। ऐसा तो कभी नहीं हुआ। तो क्या दूल्हे को लग जाऊँ? पर दूल्हे को लगने पर भी दुल्हन का मन तो तड़पेगा ही! इस रूप के तड़पने पर न बादल बरसेंगे, न बिजलियाँ चमकेंगी। न सूरज उगेगा, न चाँद। क़ुदरत का सारा नज़ारा ही बिगड़ जाएगा। उसके मन में इस तरह की दया पहले तो कभी नहीं आई। इस रूप को दुख देने की बजाए तो ख़ुद दुख उठाना कहीं अच्छा है। ऐसा दुख भी कहाँ नसीब होता है! इस दुख के परस से तो भूत का जीवन सफल हो जाएगा।

आख़िर विश्राम के बाद तो रवाना होना ही था। दुल्हन जब उठकर चलने लगी की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। रात में भी स्पष्ट देखने वाली आँखों के सामने यह धुँध कैसी! सर चढ़े सूरज की रोशनी पर अचानक यह कालिमा कैसे पुत गई!

छम-छम करती हुई दुल्हन दूल्हे के रथ पर चढ़ गई। यह दूल्हा कितना सौभाग्यशाली है! कितना सुखी है! भूत के रोम-रोम में मानो काँटे चुभने लगे। हृदय में जैसे आग भभक उठी। विरह की इस जलन के कारण न तो मरना मुमकिन है और न ही जीना। जीते जी यह जलन कैसे सही जा सकती है! और मरने पर तो यह जलन भी कहाँ! भूत के मन में ऐसी उलझन तो कभी नहीं हुई। रथ के अदृश्य होते ही वो तो मूर्छित हो गया। ...और उधर रथ में बैठे दूल्हे की भी उलझन कम नहीं थी। दो घड़ी हो गई मगजमारी करते हुए पर अभी तक विवाह के ख़र्चे का हिसाब नहीं मिल रहा था। बापू बहुत नाराज़ होंगे। ख़र्च भी कुछ अधिक हो गया था। ऐसी भूल-चूक होने पर वे आसानी से ख़ुश नहीं होते। हिसाब और व्यापार का सुख ही सबसे बड़ा सुख है। बाक़ी सब झमेले। स्वयं भगवान भी पक्का हिसाबी है। हरेक साँस का पूरा हिसाब रखता है। वर्षा की बूँद-बूँद, हवा की रग-रग और धरती के कण-कण का उसके पास एक़दम सही लेखा है। क़ुदरत के हिसाब में भी भूल जब नहीं होती तब बनिए की बही में भूल कैसे खट सकती है। ललाट में बल डाले दूल्हा अंकों का जोड़-तोड़ बिठा रहा था कि दुल्हन ने रथ के पर्दे को हटाकर बाहर देखा। नज़र न टिके ऐसी तेज़ धूप हरे-भरे केरों पर सुर्ख़ ढालू दमक रहे थे। कितने सुहाने! कितने मोहक! मुस्कराते ढालुओं में दुल्हन की नज़र अटक गई। दूल्हे की बाँह पकड़कर दुल्हन अबोध बच्चे की तरह बोली, एक दफ़ा बही से नज़र हटाकर बाहर तो देखो। ये ढालू कितने सुंदर हैं! ज़रा नीचे जाकर दो-तीन अंजुली ढालू तो ला दो। देखो... ऐसी जलती धूप में भी ये फीके नहीं पड़े। ज्यों-ज्यों धूप पड़ती है, त्यो-त्यों रंग अधिक निखरता है। धूप में कैसा भी रंग या तो उड़ जाता है या साँवला पड़ जाता है।

दूल्हा इंसान जैसा इंसान था। न अधिक सुंदर और न अधिक कुरूप। विवाह तो भरी जवानी में ही हुआ था, पर उसे कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई। पाँच बरस बाद होता तो भी चल जाता और हो गया तो भी अच्छा। कभी न कभी तो होना ही था। बड़ा काम निबट गया। नौलखे-हार पर हाथ फिराते बोला, 'ये ढालू तो ठेठ गँवारों की पसंद है। तुम्हें इसकी ख़्वाहिश कैसे हुई? खाने की इच्छा हो तो गाँठ खोलकर छुहारे दूँ। नारियल दूँ। जी-भरकर खाओ।

दुल्हन भी निपट गँवार निकली। हठ करती हुई-सी बोली, ''नहीं, मुझे तो बस ढालू ला दो। आपका एहसान मानूँगी। आप तकलीफ़ न उठाना चाहें तो मुझे इजाज़त दें, मैं तोड़ लाती हूँ।

दूल्हे ने तो फिर वही बात की। कहा, ''इन काँटों से कौन उलझे! जो एक़दम जंगली होते हैं, वे ही ढालू तोड़ते हैं और वे ही खाते हैं। मखाने खाओ, बताशे खाओ। चाहो तो मिश्री खाओ। इन निंबोली व ढालुओं की तो घर पर बात ही मत करना। लोग हँसेंगे।

हँसने दो। दुल्हन तो यह बात कहकर तुरंत रथ से कूद पड़ी। तितली की तरह केर-केर पर उड़ती रही। कुछ ही देर में ओढ़नी भरकर सुर्ख़ ढालू ले आई। घड़े के पानी से उन्हें अच्छी तरह धोया। ठंडा किया। होंठों और ढालुओं का रंग एक-सा, पर दूल्हे को न ढालुओं का रंग अच्छा लगा, न होंठों का। वो तो हिसाब में उलझा हुआ था। दुल्हन ने काफ़ी निहोरे किए, पर वो ढालू खाने के लिए राजी नहीं हुआ।

दुल्हन ने कहा, आपकी इच्छा। अपनी-अपनी पसंद है। मेरा तो एक बार मन हुआ कि इन ढालुओं के बदले नौलखा हार केर में टाँक दूँ, तब भी कम है।''

ढालू खाती दुल्हन के चेहरे की तरफ़ देखकर दूल्हा कहने लगा, ''ऐसी बेवक़ूफ़ी की बात फिर कभी मत करना। बापू बहुत नाराज़ होंगे। वे रूप की बजाय औरतों के गुणों का अधिक आदर करते हैं।

दुल्हन मुस्कराती-सी बोली, ''अब मालूम हुआ, उनके डर से ही आप हिसाब में उलझे हुए हैं। पर सारी बातें अपनी-अपनी जगह शोभा देती हैं। विवाह के समय हिसाब में फँसना, यह कहाँ का न्याय है। दूल्हे ने कहा ''विवाह होना था, सो हो गया। पर हिसाब तो अभी बाक़ी है। विवाह के ख़र्च का सारा हिसाब सँभलाकर ठीक तीज के दिन मुझे व्यापार के लिए दिसावर जाना है। ऐसा शुभ मुहूर्त फिर सात बरस तक नहीं है। पर गँवार दुल्हन को इस शुभ मुहूर्त की बात सुनकर रत्ती भर भी ख़ुशी नहीं हुई। बात सुनते ही ढालुओं का स्वाद बिगड़ गया। लगा, जैसे कोई दिल को दबाकर ख़ून निचोड़ रहा हो। यह कैसी अनहोनी बात सुनी!

इकबारगी विश्वास ही नहीं हुआ। पूछा, 'क्या कहा, आप व्यापार की ख़ातिर दिसावर जाएँगे? सुना है, आपकी हवेली में तो दौलत के भंडार-भरे हैं। दूल्हा गुमान भरे स्वर में बोला, ''इसमें क्या शक है! तुम ख़ुद अपनी आँखों से देख लेना। हीरे-मोतियों के ढेर लगे हैं। पर दौलत तो दिन-दूनी और रात-चौगुनी बढ़ती रहे, तभी अच्छा है। व्यापार तो बनिए का पहला धर्म है। अभी तो दौलत बहुत बढ़ानी है। ऐसा बढ़िया मुहूर्त कैसे छोड़ा जा सकता है!''

दुल्हन ने फिर कोई बात नहीं की। बात करने से मतलब ही क्या था! एक-एक करके सारे ढालू बाहर फेंक दिए। दूल्हे ने मुस्कराकर कहा, ''मैंने तो तुम्हें पहले ही कह दिया था कि ये ढालू तो गँवारों के खाने की चीज़ है! अपन बड़े आदमियों को ये अच्छे नहीं लगते। आख़िर खाते नहीं बने तो तुम्हें भी फेंकने पड़े। तेज़ धूप में जली सो अलग!' यह बात कहकर दूल्हा धूप का तख़मीना लगाने के लिए रथ से बाहर देखने लगा। नज़र सुलग उठे, ऐसी तेज़ धूप! पीले फूलों से लदी हींगानियों की अनगिनत झाड़ियाँ उसे ऐसी लगीं मानो ठौर-ठौर आग की लपटें उठ रही हों। दूल्हे ने परिहास करते हुए कहा, 'अब इन हींगानियों की ख़ातिर तो ज़िद नहीं करोगी! इनमें अच्छाई होती तो भला गड़रिए कब छोड़ते!

दुल्हन ने कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप सर झुकाए बैठी रही। सोचने लगी कि इस पति के भरोसे घर का आँगन छोड़ा। माँ-बाप की जुदाई सही। सहेलियों का झुंड, भाई-भतीजे, तालाब का किनारा, गीत, गुड्डा-गुड्डी का खेल, झुरनी, आँख-मिचौनी, धमा-चौकड़ी ये तमाम सुख छिटकाकर इस पति का हाथ थामा। माँ की गोद छोड़कर पराए घर की आस की और ये ठीक तीज के दिन शुभ मुहूर्त की वेला व्यापार के लिए दिसावर जाना चाहते है! फिर यह बेशुमार दौलत किस सुख के लिए है? जीते-जी काम आती नहीं। मरने पर कफ़न की गर्ज भी पूरी करती नहीं। किस सुख की आशा में इनके पीछे आई? किस अदृश्य हर्ष और संतोष के भरोसे पराई ठौर का निवास क़बूल किया? कमाई, तिजारत, जायदाद और दौलत फिर किस दिन के लिए हैं?

असली सुख के इस सौदे के बदले तीन लोक का राज्य हाथ लगे तो भी किस काम का! दुनिया की सारी दौलत के बदले भी बीता हुआ पल वापस नहीं लौटाया जा सकता। इंसान दौलत की ख़ातिर है कि दौलत इंसान की ख़ातिर, फ़क़त इसी हिसाब को अच्छी तरह समझना है। फिर कौन-सा हिसाब बाक़ी रह जाता है! सोने का माहात्म्य बड़ा है या काया का? साँस का माहात्म्य बड़ा है या माया का? इस सवाल के जवाब में ही जीवन के सारे अर्थ पिरोए हुए हैं।

दूल्हा अपने हिसाब में डूबा था, दुल्हन अपने ख़यालों में गोता लगा रही थी और बैल अपनी चाल में मगन थे। चलने वाला मंज़िल पर पहुँचेगा ही। आख़िर सेठ की हवेली के सामने बरात आकर रुकी। गाजे-बाजे और ढोल-नगारों के स्वागत के साथ दुल्हन रनिवास में पहुँची। जिसने भी देखा, सराहे बग़ैर न रह सका। रूप हो तो ऐसा! रंग हो तो ऐसा!

शाम को रनिवास में घी के दीए जलाए गए। रात्रि के दूसरे पहर दूल्हा रनिवास में आया। आते ही दुल्हन को नसीहत देने लगा कि वह घर की इज़्ज़त का पूरा-पूरा ख़याल रखे। सास-ससुर की सेवा करे। अपनी आबरू अपने हाथ में। दो दिन के लिए शरीर की चाह क्यूँ जगाई जाए! दो दिन का सहवास पाँच साल तक तकलीफ़ देगा वक़्त बीतते क्या देर लगती है! देखते-देखते पाँच साल गुज़र जाएँगे। फिर किस बात की कमी। यही रनिवास। ये ही चिराग़। ये ही रातें और ये ही सेज।

वह किसी बात की चिंता को पास ही न फटकने दे। पलक झपकते पाँच बरस गुज़र जाएँगे। नसीहत की ये अनमोल बातें दुल्हन चुपचाप सुनती रही। कुछ कहना-सुनना और करना तो उसके वश में था नहीं। जो पति की इच्छा, वही उसकी इच्छा। जो बापू की इच्छा, वही बेटे की इच्छा। जो लक्ष्मी की इच्छा, वही बापू की इच्छा। और जो लालच की इच्छा, वही लक्ष्मी की इच्छा। नसीहत की इन बातों में सारी रात ढल गई। रात के साथ झिलमिल-झिलमिल चमकते नौ लाख तारे भी ढल गए। और उधर उस खेजड़ी के नीचे मूर्च्छा टूटने पर भूत की आँखें खुली! चारों ओर देखा। सूना जंगल सूनी हरियाली। गहरी खेजड़ी। गहरी छाया। झूलती साँगरियाँ। पर कहाँ दुल्हन? कहाँ उसकी मदभरी आँखें? कहाँ उसका ख़ूबसूरत चेहरा? कहाँ उसके गुलाबी होंठ? कहीं वो स्वप्न तो नहीं था? मूर्च्छा के बाद होश में आते ही उसे ऐसा लगा मानो उसके मन में छल-कपट के मैल की जगह धारोष्ण दूध ने ले ली हो। ऐसा सूरज तो आज से पहले कभी नहीं उगा। बड़ा-सा गुलाबी गोला। तमाम दुनिया में रोशनी-ही-रोशनी। कैसी मंद-मंद हवा चल रही है! हवा के अदृश्य झूले में झूलती हरियाली! उसका मन नाना प्रकार के अनगिनत रूप धरकर क़ुदरत के कण-कण में समा गया। अरे, आज से पहले तो कभी सूरज इस तरह अस्त नहीं हुआ! पश्चिम दिशा में मानो गुलाल-ही-गुला छितरा गया हो। धरती पर न तो खटकती हुई रोशनी, न पूरा अँधेरा। न गगन में चाँद, न सूरज और न ही कोई तारा। गोया क़ुदरत ने झीना घूँघट डाल लिया हो। चेहरा भी दिखता है, घूँघट भी दिखता है। अब क़ुदरत ने फिर चुँदरी बदली। नवलख तारों जड़ी साँवली चुंदरी। धुँधला-धुँधला चेहरा दिख रहा है। धुँधले वृक्ष। धुँधली हरियाली गोया स्वप्न का ताना-बाना बुना जा रहा हो। पहले तो क़ुदरत कभी इतनी मोहक नहीं लगी। यह सब दुल्हन के चेहरे का करिश्मा है! और उधर दुल्हन का पति उस यौवन से मुँह फिराकर दिसावर की राह चल पड़ा।

कमर पर हीरे-मोतियों की नौली बँधी हुई थी। कंधे पर आगे-पीछे लटकती दो गठरियाँ और सामने आकाश पर चमकता व्यापार का अखंड सूरज। सुख, लाभ और कमाई का क्या पार! जाते हुए वो उसी खेजड़ी के पास से गुज़रा। भूत ने उसे तुरंत पहचा लिया।

आदमी का रूप धरकर उससे राम-राम किया। पूछा, 'भाई, अभी तो विवाह के मांगलिक धागे भी नहीं खुले। इतनी जल्दी कहाँ चल दिए?

सेठ के लड़के ने कहा, 'क्यूँ, मांगलिक धागे क्या दिसावर में नहीं खुल सकते? भूत काफ़ी दूर तक साथ चलता रहा। सारी बातें जान ली कि वो पाँच साल तक परदेश में व्यापार करेगा। अगर यह मुहूर्त चूक जाता तो अगले सात साल तक ऐसा बढ़िया मुहूर्त हाथ नहीं लगता। सेठ के लड़के की बोल-चाल और उसके स्वभाव को गौर से देखने-भालने के बाद उसने अपनी राह ली। मन-ही-मन सोचने लगा कि सेठ के लड़के का रूप धरकर सवेरे ही सेठ की हवेली पहुँच जाए तो पाँच साल तक कोई पूछने वाला नहीं है। यह बात तो ख़ूब बनी! क्या उम्दा मौक़ा हाथ लगा है! आगे की आगे देखी जाएगी। भगवान ने आख़िर विनती सुन ही ली। फिर तो उससे एक पल भी नहीं रहा गया। हू-ब-हू सेठ के लड़के का रूप धरकर गाँव की तरफ़ चल पड़ा। मन में न ख़ुशी की सीमा थी, आनंद की।

एक पहर दिन बाक़ी था तो भी काफ़ी अँधेरा हो गया। उत्तर से, विकराल काली-पीली आँधी आती नज़र आई। आँधी धीरे-धीरे चढ़ने लगी। धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ने लगा। सूरज के होते हुए भी अँधेरा! हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। क़ुदरत को भी कैसे-कैसे स्वप्न आते हैं! क़ुदरत के इस स्वप्न के बिना ज़मीन पर बिछी हुई पैरों तले की धूल को सूरज ढकने का मौक़ा कब हाथ लगता है! ज़मीन पर पड़ी धूल आकाश पर चढ़ गई। अंधड़ की मार से सारा वातावरण चीत्कार कर उठा।

पहाड़ों तक की जड़ें हिला देने वाली आँधी! खोखले दंभ वाले विशाल वृक्ष चरर-मरर उखड़ने लगे। नम्रता रखने वाली लचीली झाड़ियाँ आँधी के साथ ही इधर-उधर झुकने लगीं। उनका कुछ भी नहीं बिगड़ा। पैरों तले रौंदी जाने वाली घास का तो कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ। हाल-चाल पूछती, दुलारती, सहलाती हुई आँधी ऊपर से निकल गई। सारी वनस्पति मानो पालने में झूलने लगी। पात-पात और कोंपल-कोंपल की ठीक से सँभाल हो गई। बड़े परिंदों को झपाटे लगने लगे। छोटे पक्षी डालों से चिपककर बैठ गए। उड़ना मुमकिन न रहा। समूचे आकाश पर आँधी का राज्य हो गया। चारों ओर तेज़ सरसराहट। गोया जंगल कराह रहा हो। सूरज के तप-तेज़ को धरती की धूल निगल गई। अद्भुत है, आँधी का यह नृत्य! अद्भुत है, रेत की यह घूमर! समूची क़ुदरत इस तूफ़ान में छिप गई। सारा ब्रह्मांड एकाकार हो गया। न आकाश दिखता है, न सूरज। न पहाड़, न वनस्पति और न ज़मीन।

निराकार अगोचर। क़ुदरत की इस ज़रा-सी जम्हाई के सामने न इंसान के ज्ञान की कोई हस्ती है, न उसकी ताक़त की कुछ औक़ात, न उसके अहंकार की कुछ क्षमता और न उसके क्रिया कलाप की कोई हैसियत।

क़ुदरत की छवि का दूसरा चित्र थोड़ा-थोड़ा उजाला छितराने लगा। हाथ को हाथ सूझने लगा। पल-पल उजाले का अस्तित्व फैलने लगा। धीरे-धीरे क़ुदरत की छवि स्पष्ट दिखने लगी। पहाड़ की ठौर पहाड़, सोने की थाली-सा गोल सूरज। वृक्षों की ठौर वृक्ष। झाड़ियों की ठौर झाड़ियाँ। हवा की ठौर हवा। यह क्या जादू हुआ? कि यकायक तड़ातड़ मूसलाधार पानी बरसने लगा। बूँद से बूँद टकराने लगी। गोया बादलों के मुँह खोल दिए गए हों। क़ुदरत स्नान करने लगी। उसका ज़र्रा-ज़र्रा नहा गया। नदी-नालों में पानी बहने लगा। चारों ओर पानी-ही-पानी। नहाती हुई क़ुदरत को देखकर सूरज की रोशनी सार्थक हुई।

भूत सोचने लगा कि कुछ ही देर में यह क्या माजरा हुआ? देखने पर भी विश्वास न हो, यह क़ुदरत की कैसी हरकत है? यह क्या हुआ? कैसे हुआ? कहीं उसके मन की आँधी ही तो बाहर प्रगट नहीं हुई? क़ुदरत की यह लीला कहीं उसके मन ही में तो दबी हुई नहीं थी? इस वहम के ज़ोम में वो तेज़ चलने लगा। मन-ही-मन तदबीर सोचता जा रहा था और राह चलता जा रहा था। वो सीधा हवेली न जाकर पहले सेठ की दुकान पर पहुँचा। हिसाब-किताब करते हुए सेठ ने बेटे को देखा, तब भी उसका मन नहीं माना। दिसावर के लिए गया हुआ बेटा वापस कैसे आ सकता है? आज दिन तक उसने कभी कहना नहीं टाला।

विवाह होने के बाद इंसान काम का नहीं रहता। यह सब किया-धरा सेठानी का है। अब हो चुकी कमाई! या तो व्यापार की हाजरी बजा लो या फिर औरत की! बापू के होंठों पर आती बात को बेटा बग़ैर कहे ही समझ गया। हाथ जोड़कर बोला, 'पहले आप मेरी बात तो सुनो! व्यापार के लिए सलाह-मशविरा करने के लिए ही वापस आया हूँ। अगर आपकी मर्ज़ी नहीं होगी तो घर गए बग़ैर ही वापस मुड़ जाऊँगा। रास्ते में समाधि लगाए एक महात्मा के दर्शन हो गए। सारे शरीर पर दीमक की तर्हे चढ़ी हुई थीं। मैंने सुथराई से दीमक हटाई। कुएँ से पानी निकालकर उन्हें नहलाया। पानी पिलाया। खाना खिलाया। तब महात्मा ने ख़ुश होकर वरदान दिया कि सवेरे पलँग से नीचे उतरते ही मुझे रोज़ाना पाँच मोहरें मिलेंगी। दिसावर जाने की बात सोचते ही वरदान ख़त्म हो जाएगा। अब आप जो हुक्म दें, मुझे मंज़ूर ऐसे अप्रत्याशित वरदान के बाद जो हुक्म होना था, वो ही हुआ। सेठ ख़ुशी-ख़ुशी मान गया। सेठ के साथ सेठानी भी बहुत ख़ुश हुई। इकलौता बेटा आँखों के सामने रहेगा और कमाई की जगह कमाई का जुगाड़ हो गया। दुल्हन को ख़ुशी के साथ आश्चर्य और गर्व भी हुआ कि भला यह रूप छोड़कर कौन दिसावर जा सकता है! तीसरे दिन ही वापस लौटना पड़ा।

दुकान का हिसाब-किताब और भोजन करके पति दो घड़ी रात ढलने पर रनिवास में आकर सो गया। चारों कोनों में घी के दीए जल रहे थे। फूलों की सेज। ऐसे इंतज़ार से बढ़कर कोई आनंद नहीं। पायल की झनक झनक झंकार सुनाई दी। इस झंकार से बढ़कर कोई सुर नहीं। सोलह सिंगार सजी दुल्हन रनिवास में आई। इस सौंदर्य से बढ़कर कोई छवि नहीं। समूचे रनिवास में इत्र-फुलेल की ख़ुशबू छा गई। इस ख़ुशबू से बढ़कर कोई महक नहीं। इस महक ने ही तो उस खेजड़ी के मुकाम पर भूत की सोई भावनाओं को जगाया था। और आज रनिवास में प्रत्यक्ष नज़रों का मिलन हुआ। इतनी जल्दी मनचाही हो जाएगी, इसका तो स्वप्न में भी ख़याल नहीं था।

दुल्हन निस्संकोच पास आकर बैठ गई। घूँघट क्या हटाया, मानो तीनों लोकों का सर्वोपरि सुख जगमगा रहा हो। इस रूप की तो छाया भी दमकती है। दुल्हन मुस्कराती हुई बोली, 'मैं जानती थी कि तुम बीच राह ही से लौट आओगे। यह तारोंभरी रात इस अवसर पर आगे नहीं बढ़ने देती। इस संकल्प के स्वामी थे तो फिर मेरे रोकने के बावजूद गए ही क्यूँ? मेरी मनौती सच हुई।

यह बात सुनते ही पति के मन में बवंडर-सा उठा। इस पवित्र दूध में कीचड़ कैसे मिलाए! इसे छलने से बढ़कर कोई पाप नहीं है। यह तो असली पति मानकर इतनी ख़ुश हुई है। पर इससे बदतर झूठ और क्या हो सकता है! यह झूठ का अंतिम छोर है। आख़िरी हद। इस अबोध प्रीत के साथ कैसे दग़ा करे! प्रीत करने के बाद तो भूर्ती का मन भी धुल जाता है। कोई बराबरी का हो तो छल-बल की तलवार भी ताक़त भी आजमाए, पर नींद में सोए हुए का गला चाक करने पर तो कलंकित होती है।

भूत थोड़ा दूर खिसककर बोला, 'क्या मालूम मनौती सच हुई या नहीं। पहले पूरी छानबीन तो कर लो कि मैं कहीं दूसरा आदमी तो नहीं हूँ! कोई मायावी तो तुम्हारे पति का रूप धरकर नहीं आ गया! दुल्हन यह बात सुनकर पहले तो कुछ चौंकी। फिर नज़र गड़ाकर पास बैठे व्यक्ति को अच्छी तरह देखा। हू-ब-हू वो ही चेहरा। वो ही रंग-रूप। वही नज़र। वही बोली। तुरंत समझ गई कि पति उसके शील को परखना चाहता है। मुस्कराहट की आभा छितराते बोली, 'मैं सपने में भी पराए मर्द की छाया तक का परस नहीं होने देती, तब खुली आँखों से यह बात कैसे मुमकिन है! अगर दूसरा आदमी होता विधा तो मेरे शील की आग से कभी का भस्म हो चुका होता!

पहले तो यह बात भूत को चुभी। होंठों पर आई हुई बात को तुरंत निगल गया कि तब तो इसके शील में अवश्य ही खोट है। वो भस्म हो जाता तो उसका शील सच्चा था। असलियत में दूसरा आदमी होते हुए भी जब वो भस्म नहीं हुआ तो उसका शील एक़दम बुझा हुआ है। पर दूसरे ही पल बात का दूसरा पहलू सोचते ही उसका ग़ुस्सा ठंडा पड़ गया। वो उलटा बेहद ख़ुश हुआ। सोचने लगा कि फ़क़त चेहरे से ही क्या होता है! अगर वो सच्चा पति होता तो व्यापार के लालच में औरत की यह माया छोड़ सकता था? क्या उसने इसलिए इसका हाथ थामा कि ऐसे रूप को विरह की आग में जलने के लिए छोड़कर चलता बने? कोई अँधा भी इस रूप की आभा को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता, तब वो आँखें रहते हुए भी किस तरह अंधा बना? अग्नि की साक्षी में सात फेरे लगा लिए तो क्या हुआ, उसकी प्रीत में सच्चाई कहाँ है! और भूत होकर भी मैंने सच्ची प्रीत की। छल करते हुए दिल काँपता है। मेरी प्रीत सच्ची है। मेरी चाह खरी है। तभी तो दोनों का सत बच गया। पर फिर भी दुराव रखने से प्रीत को ठेस लगेगी। असलियत बताए बग़ैर इस रनिवास में साँस लेना भी दूभर है। पास खिसककर कहने लगा, 'दरअसल, मैं हूँ तो दूसरा आदमी ही, पर फिर भी तुम्हारा शील खरा है, क्यूँकि मेरी प्रीत सच्ची है। मंडप के असली पति की प्रीत झूठी है। तभी तो वो ऐसे रूप से मुँह फिराकर विरह के लिए चल पड़ा!

पर दुल्हन सच-झूठ की कैसे पहचान करे? ये बातें रत्ती भर भी उसके पल्ले नहीं पड़ीं। स्वयं माँ-बाप जिसे अपना बेटा मानते हैं, उस हू-ब-हू शक्लवाले आदमी को अपना पति मानने में कैसा संकोच! शक्ल और रंग-रूप ही तमाम रिश्तों की सबसे बड़ी पहचान है। तत्पश्चात् उस भूत ने दुल्हन को सारी बात बताई कि उस खेजड़ी के मुकाम पर उसका रूप देखकर उसकी क्या दशा हुई। उसके रवाना होते ही वह कैसे मूर्च्छित हुआ। वापस कब होश आया। परदेश जाते हुए उसके पति के साथ उसकी क्या-क्या बातें हुईं। फिर उसका रूप धरकर कैसे इस हवेली पर आने का निश्चय किया। राह चलते हुए आँधी-पानी की बात भी विस्तार से कही। दुल्हन कठपुतली की तरह गुमसुम बैठी सारी बात सुनती रही। क्या इसी बात को सुनने की ख़ातिर विधाता ने उसे कान दिए हैं!

उसकी कलाई को सहलाते हुए भूत आगे कहने लगा, 'माँ-बाप को तो रोज़ की पाँच मोहरों और दुकान की कमाई से मतलब है, वास्तविक भेद से उन्हें कोई लेना-देना नहीं। पर तुम्हें न जताने पर प्रीत के मुँह पर कालिख पुत जाती। अगर मैं यह भेद प्रकट न करता तो पाँच साल तक तुम स्वप्न में भी असलियत नहीं जान पातीं। तुम तो असली पति मानकर ही सहवास करतीं। पर मेरा मन नहीं माना। मैं अपने मन से सही बात कैसे छुपाता! आज से पहले बहुत-सी औरतों के शरीर में घुसकर उन्हें काफ़ी तकलीफ़ दी, पर मेरे मन की ऐसी दशा तो कभी नहीं हुई। राम जाने, इतनी दया मेरे मन के किस कोने में छुपी थी? इसके बावजूद अगर तुम्हारी इच्छा न हो तो मैं इसी पल वापस चला जाऊँगा। जीते-जी इस ओर मुँह तक नहीं करूँगा।

तुम्हें तड़फाकर मुझे प्रीत का आनंद नहीं चाहिए। फिर भी उम्र-भर तुम्हारा एहसान मानूँगा कि तुम्हारी प्रीत की वजह से मेरे हृदय का ज़हर, अमृत में बदल गया। औरत के रूप और मर्द के प्रेम की यही तो सर्वोच्च मर्यादा है। रूप की पुतली के होंठ खुले। बोली, 'अभी तक यह बात मेरी समझ में नहीं आई कि यह भेद प्रकट होने से ठीक रहा या प्रकट न होने से ठीक रहता। कभी पहली बात ठीक लगती है और कभी दूसरी! दुल्हन की आँखों में नज़र गड़ाकर भूत कहने लगा, ‘प्रसव-वेदना को भला बाँझ क्या समझे! इस पीड़ा में ही कोख का चरम आनंद निवास करता है। सच्चाई और कोख के सृजन की पीड़ा एक-सी होती है। इस सच्चाई को छिपाने में न तो पीड़ा थी, और न ही आनंद। वो तो फ़क़त हक़ीक़त का भ्रम होता। आनंद का ढोंग।

मैंने कई औरतों के शरीर में प्रवेश किया, तब कहीं जाकर हक़ीक़त के भ्रम की ठीक से पहचान हुई। मैं कई ऐसी सती-सावित्री औरतों को जानता हूँ जो सहवास के समय पति के चेहरे में किसी और का चेहरा देखती हैं। यों कहने को तो वे पराए मर्द की छाया का भी परस नहीं करतीं। पर पति के बहाने दूसरे चेहरे के ख़याल में कितना पातिव्रत्य है, उसकी सही पहचान जितनी मुझे है, उतनी ख़ुद विधाता को भी नहीं है। पतिव्रता औरतों के तमाशे मैंने बहुत देखे हैं। डर तो फ़क़त बदनामी का है। भेद खुलने का डर न हो तो स्वयं भगवान भी पाप करने से न चूकें। अब जो भी तुम्हारी इच्छा हो, ज़ाहिर कर दो। मैंने तो भूत होकर भी कोई बात नहीं छिपाई।

ऐसी पहेली से तो आज तक किसी औरत का सामना नहीं हुआ होगा। स्वेच्छा से परकीया होने की तो बात ही अलग है। पराई औरत और पराए मर्द की ख़ातिर किसका मन लालायित नहीं होता, पर सामाजिक प्रतिष्ठा की वजह से पर्दा नहीं हटाया जा सकता। पर पर्दे के पीछे जो होना होता है, वो होता ही है। सोच-विचारकर ऐसी बात का जवाब देना कितना दूभर है! वह इस तरह गुमसुम बैठी रही, मानो बोलना ही भूल गई हो। इतनी बातें सुनने के बाद तो वह नितांत गूँगी हो गई।

दुल्हन के दिमाग़ में अचीती एक लहर उठी। वह सोचने लगी—जन्म के समय थाल के बदले सूप बजा। घरवालों को कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई। लड़का होता तो अधिक ख़ुश होते। माँ-बाप की नज़र में पूरा बढ़ने में वक़्त लगता हो तो बेटी का शरीर बढ़ने में भी कोई वक़्त लगे। दसवाँ साल लगते ही माँ-बाप उसके पीले हाथ करके पराए ठिकाने भेजने की चिंता करने लगे। वह न आँगन में समाती थी और न गगन में। छाछ और लड़की माँगने में कैसी शर्म! रिश्ते-पर-रिश्ते आने लगे। उसके रूप की चर्चा चारों ओर हवा में घुल गई थी। सोलह साल पूरे करने मुश्किल हो गए। माँ की कोख में समा गई, पर घर के आँगन में न समा सकी। अचानक इस हवेली से नारियल आया। उसकी क़िस्मत कि घरवालों ने नारियल लौटाया नहीं। यह हवेली न होकर अगर कोई दूसरा घर होता, तब भी उसे तो जाना ही था। जिसके लिए घरवालों की मर्ज़ी होती, उसी का हाथ थामना पड़ता। पति, व्यापार और हिसाब-किताब में ही खोया रहता है। उसकी नज़र में हँडिया के पैदे और औरत के चेहरे में कोई फ़र्क़ नहीं है। फटता हुआ जोबन भी वैसा और फटती हुई मिट्टी भी वैसी। न रथ में पत्नी के मन की बात समझा और न ही रनिवास में। सूना रनिवास और फीकी सेज छोड़कर अपने व्यापार के लिए चल पड़ा। वापस मुड़कर भी नहीं देखा। और आज भूतवाली प्रीत की रोशनी के सामने तो सूरज भी धुँधला गया! सात फेरेवाला पति जबरन रवाना हुआ तो उसका वश चला नहीं। भूतवाली इस प्रीत के सामने भी उसका वश कहाँ चला! जाने वाले को रोक न सकी तो फिर रनिवास में आनेवाले को कैसे रोके? यह प्रीत दरसाता है तो कानों में तेल कैसे डाले? पति ने उसे इस तरह मझदार में छोड़ दिया। भूत होते हुए भी इसने प्रीत जताई, तो कैसे इंकार करे? अगर स्वप्न वश में हो तो प्रीत वश में हो! वह अपनी सुध-बुध बिसराकर भूत की गोद में लुढ़क गई।

कहीं यह दुल्हन के मन का ही भूत तो नहीं था, जो साकार रूप धरकर प्रकट हुआ? फिर अपने मन से क्या दुराव! जहाँ भाषा अटक जाती है, वहाँ मौन काम कर जाता है। अब कुछ भी कहना-सुनना शेष नहीं रहा। स्वतः ही एक-दूसरे के अंतस की बात समझ गए। फिर चिराग़ की रोशनी लुप्त हो गई और अँधेरा उजाले का रूप धरकर दीप-दीप करने लगा। सेज के मुरझाए हुए फूलों की पँखुड़ी-पँखुड़ी खिल उठी। रनिवास की रोशनी सार्थक हुई। रनिवास का अँधेरा सार्थक हुआ। आकाश के नवलख तारों की जगमगाहट आप ही बढ़ गई। ऐसी रसीली रातों के होते वक़्त गुज़रते क्या देर लगती है! चुटकियों में दिन बीतने लगे। ख़ूब व्यापार बढ़ा। ख़ूब लेन-देन बढ़ा। ख़ूब प्रतिष्ठा बढ़ी। माँ-बाप ख़ुश थे ही, सारा इलाक़ा भी सेठ के लड़के से बेहद ख़ुश था। वक़्त-बेवक़्त सभी के काम आता था। दूसरे बनियों की माफ़िक़ गले नहीं काटता था। निपट संयमी। सदाचारी। दुकान पर आनेवाली औरतों की तरफ़ नज़र उठाकर भी नहीं देखता था।

छोटी को बहन और बड़ी को माँ के समान मानता था। उसका नाम लेते ही लोगों का मन श्रद्धा से भर जाता था। उसमें फ़क़त एक बात की कमी थी कि परदेश से सेठ के लड़के का पत्र आता तो फाड़कर फेंक देता। वापस कोई जवाब नहीं। इस आनंद और यश के बीच देखते-देखते तीन बरस गुज़र गए—गोया मीठा सपना बीता हो। भूत भी उस हवेली में रस-बस गया। मानो सेठ का सगा बेटा ही हो। बहू भी रनिवास के नशे में विभोर थी। रनिवास के इंतज़ार में उगते ही दिन अस्त हो जाता। रनिवास में घुसते ही पल भर में रात ढल जाती।

बहू के आशा ठहरी। तीसरा महीना उतरने वाला था। गर्भ रहने की ख़ुशख़बरी सुनकर सेठ ने सवा मन गुड़ अपने हाथों से बाँटा। लोगों ने सवा मन सोना मानकर क़बूल किया। सेठ ने उम्र में पहली दफ़ा यह उदारता बरती थी। आज हाथ खुला है तो आगे भी कुछ-न-कुछ मिलेगा। बेटे-बहू ने चुपके-चुपके काफ़ी दान-पुण्य किया। हर्ष के नवलख तारों के बीच अब नया चाँद जुड़ेगा। कोख का चाँद आकाश के चाँद से सदा बढ़कर होता है। दोनों पति-पत्नी को बेटी की बेहद चाह थी। ख़ूब ख़ुशियाँ मनाएँगे। बेटा कौन-सा स्वर्ग ले जाता है? राम जाने किसकी शक्ल पर जाए! संतान के जन्म की बजाए संतान होने की कल्पना में अधिक सुख होता है। कोख में संतान के साथ-साथ सपने पलते हैं।

दिन घोड़े की गति से दौड़ने लगे। पाँच महीने बीते। सात महीने पूरे हुए। यह नौवाँ महीना उतरने वाला है। बहू दिन-भर रनिवास में सोई रहती। उसकी सेवा में तीन दासियाँ आठों पहर हाज़िर रहतीं। एक रात पति की गोद में सोई बहू मुँह उठाकर बोली, 'कई दफ़ा सोचती हूँ, अगर उस दिन खेजड़ी की छाया में आराम करने के लिए नहीं ठहरते तो राम जाने मेरे ये चार साल किस तरह कटते। मुझे तो लगता है कि कटते ही नहीं। भूत बोला, 'तुम्हारे दिन तो जैसे-तैसे निकल ही जाते, पर मेरी क्या दशा होती? झाड़ी-झाड़ी व पेड़-पेड़ पर भूत की योनि पूरी करता। उस दिन सुमत सूझी कि मैं तुम्हें लगा नहीं। मुझे तो आज भी विश्वास नहीं होता कि ज़िंदगी का आनंद भोग रहा हूँ या कोई सपना देख रहा हूँ।

चिकने रेशमी बालों पर अँगुलियाँ फिराते-फिराते रात फिसल गई। उधर सुदूर दिसावर में बहू का परिणेता रात के अंतिम पहर में उठ बैठा। आलस मरोड़, जम्हाई लेकर घड़े से ठंडा पानी पीया। चारों ओर देखा। एक-सा अँधेरा। झिलमिलाते हुए एक से तारे। किसी भी दिशा में रोशनी नहीं। सोचने लगा कि यह रात और भी छोटी होती तो कितना अच्छा रहता! क्या ज़रूरत है इतनी लंबी रातों की! सोने-सोने में ही आधी ज़िंदगी गुज़र जाती है। नींद में तो व्यापार और लेन-देन हो नहीं सकता, वरना दूनी कमाई होती। फिर भी दौलत कम इकट्ठी नहीं की! बापू बेहद ख़ुश होंगे। बीच-बीच में आसपास के व्यापारी मिलते रहते थे। उसे वहाँ पाकर उन्हें बहुत आश्चर्य होता था। एक दफ़ा पूछ ही लिया कि वो गाँव से वापस कब आया? यह सुनकर उसे भी कम आश्चर्य नहीं हुआ था। जवाब दिया कि उसने तो अभी गाँव की तरफ़ मुँह भी नहीं किया। वे पागल तो नहीं हो गए। लोगों ने ज़ोर देकर कहा, विस्तार से सारी बात बताई, फिर भी उसे विश्वास नहीं हुआ। वो जब यहाँ है तो वहाँ कैसे हो सकता है! कमाई सहन नहीं होती, अतः ईर्ष्यालु लोग उसे चक्कर में डालना चाहते हैं। पर वो ऐसा नासमझ नहीं है। उनके भी कान-कतरे जैसा है। कमाई और व्यापार में और अधिक मन लगाने लगा। पर आज अल्ल-सवेरे ही एक भरोसेमंद पड़ोसी ने ख़बर दी कि बहू के तो बच्चा होने वाला है। शायद हो गया हो। सेठ का लड़का बीच ही में बोला, 'अगर ऐसी बात होती तो घर वाले मुझे ज़रूर ख़बर करते। मैंने पाँच-सात चिट्ठियाँ दी, पर एक का भी जवाब नहीं आया। पड़ोसी ने कहा, 'भले आदमी, ज़रा सोचो तो सही कि घरवाले क्यूँ ख़बर करते? किसको करते? उनका लड़का तो बीच राह से तीसरे ही दिन वापस आ गया था। एक महात्मा के दिए हुए मंत्र से सेठजी को रोज़ाना पाँच मोहरें देता है। हवेली पर तो राम की मेहर है। गाजों-बाजों व उत्सवों के ठाट हैं। रनिवास में घी के दीए जलते हैं। हाँ, अब मालूम हुआ कि आपकी शक्ल हू-ब-हू सेठजी के लड़के से मिलती है। विधाता का खेल! ख़ुद सेठजी देखें तो भी पहचान नहीं सकें। अब बातचीत करने पर मालूम हुआ कि शक्ल तो ज़रूर मिलती है, पर आप दूसरे हैं।

भला, मैं दूसरा कैसे हुआ? अब लगता है कि कल-परसों ही जाना पड़ेगा। सो सेठ के लड़के ने अपना धंधा समेटा, मुनीम को हिसाब-किताब समझाया और अपने गाँव की ओर चल पड़ा। वो ही जेठ का महीना। लूओं के अंधड़ शोर मचा रहे थे। करीलों पर सुर्ख़ ढालू देखकर यकायक उस दिनवाली बात याद आ गई। सोचा—बहू की अगर ऐसी पसंद है तो अपना क्या जाता है! कौन-से पैसे लगते हैं! पके हुए ढालू तोड़कर अँगोछे के पल्लू में बाँध लिए।

वो हवेली पहुँचा तब आँगन में औरतों का जमघट लगा हुआ था। सेठ-सेठानी घबराए हुए मनौती-पर-मनौती बोल रहे थे। भूतवाला पति ऊपर रनिवास के दरवाज़े पर खड़ा था। उदास। उद्विग्न। बहू नीचे सौरी के अंतर कराह रही थी। बच्चा अटक गया था। दाइयाँ अपने हुनर आज़मा रही थीं। कि इतने में आँगन की इस चिल्ल-पौं के दरमियान सात फेरों का परिणेता धूल से अटा हुआ बेहिचक आँगन में आ खड़ा हुआ। कंधे पर ढालुओं का अँगोछा लटक रहा था। माँ-बाप के चरणों में शीष नवाकर प्रणाम किया। यह क्या माजरा है? हू-ब-हू बेटे से शक्ल मिलती है! गर्द से सना है तो क्या हुआ! दौलत के लालच में कोई मायावी तो नहीं आ गया! अत्यधिक आश्चर्य भी गूँगा होता है। माँ-बाप ने बोलना चाहा तो भी उनसे बोला नहीं गया। औरतों के गले का राग बदल गया।

हाय दैया, एक ही शक्ल के दो पति! कौन सच्चा, कौन झूठा? यह कैसा कौतुक? कैसा तमाशा? कोई इधर भागी, कोई उधर भागी। सौरी के भीतर से पत्नी का कराहना सुनकर वो फ़ौरन सारी बात समझ गया। सुनी सो ख़बर सच्ची है! ऐसा छल किसने किया? कैसे हो इसकी पहचान? लोग किसके कहे का विश्वास करेंगे? सहसा ऊपर रनिवास के दरवाज़े पर खड़े युवक पर उसकी नज़र पड़ी। यह तो वास्तव में हू-ब-हू उसका हमशक्ल है! मायावी के छल का कौन मुक़ाबला कर सकता है! रगों में ख़ून जम गया। ओह, यह अनहोनी कैसे हुई?

प्रीत वाले पति के कानों में तो फ़क़त जच्चा का कराहना गूँज रहा था। उसे तो किसी दूसरी बात का होश ही नहीं था। हवा थम गई थी। सूरज थम गया था। कब यह कराहना बंद हो और कब क़ुदरत का बंधन खुले! बापू के मुँह की ओर देखते हुए बेटा बोला, 'मैं तो चार साल से दूर दिसावर में था, फिर समझ में नहीं आता कि बहू के गर्भ कैसे रह गया? तुम्हें कुछ तो अक्ल से काम लेना था! सेठ ने मन-ही-मन सारा हिसाब लगा लिया। बोला, 'तू है कौन? मेरा लड़का तो तीसरे ही दिन वापस आ गया था। यहाँ ऐयारी की तो दाल नहीं गलेगी! बापू के मुँह से यह बोल सुनकर बेटे को बेहद आश्चर्य हुआ। चुप रहने पर तो सारी बात ही बिगड़ जाएगी। तुरंत बोला, 'चार साल तक बेशुमार कमाई करके दिसावर से बाप के घर आया। इसमें ऐयारी की कौन-सी बात है! तुम्हीं ने तो जबरन भेजा था।

सेठ ने कहा, 'नहीं चाहिए मुझे ऐसी कमाई। तू मुझे कमाई का क्या लालच दिखा रहा है! जिस राह आया, उसी राह सीधे-सीधे चलता बन, वरना बुरी बीतेगी। बापू का तो दिमाग़ ही फिर गया लगता है। उसने माँ के मुँह की ओर देखकर पूछा, 'माँ, क्या तू भी अपनी कोख के बेटे को नहीं पहचानती? माँ इस सवाल का क्या जवाब देती! उसकी ज़बान मानो तालू से चिपक गई हो। वह टुकुर-टुकुर पति के चेहरे की तरफ़ देखने लगी। माँ ने कुछ जवाब नहीं दिया तो बेटा भी असमंजस में पड़ गया। सहसा उसे ढालुओं की बात याद आ गई। काँपते हाथों से तुरंत अँगोछा खोल, लाल-लाल ढालुओं को बापू के सामने करते बोला, 'बहू को उस दिन के ढालुओं की बात तो पूछो। वह सारा क़िस्सा बता देगी। उस दिन उसने स्वयं ही ढालू तोड़कर खाए थे। आज मैं अपने हाथों से तोड़कर लाया हूँ। एक दफ़ा उससे पूछो तो सही। आप फ़रमाएँ तो मैं बाहर खड़े-खड़े ही पूछ लूँ।

सेठ को ग़ुस्सा आ गया। बोला, 'पागल कहीं का! यह समय ढालुओं की बात पूछने का है! बहू मौत से जूझ रही है और तुझे ढालुओं की पड़ी है। भाड़ में जाएँ तेरे ये ढालू। मैं तो यह बेतुकी बात सुनते ही सारी बात समझ गया। मेरी बहू गँवारों की तरह हाथों से तोड़कर ढालू खाएगी! इज़्ज़त प्यारी हो तो यहाँ से दफ़ा हो जा, वरना इतने जूते पड़ेंगे कि कोई गिनने वाला भी नहीं मिलेगा। बेटे ने कहा, 'बाप के जूतों की कोई परवाह नहीं, पर सचमुच मैंने भी उस दिन रथ में ठीक यही बात कही थी। सौरी के भीतर बहू का कराहना उसी तरह जारी था। दाइयों ने कई दफ़ा पूछा, फिर भी वह बच्चे को कटाकर निकलवाने के लिए तैयार नहीं हुई। बमुश्किल मरने से बची। बहू की आँखों के आगे कभी अँधेरा छा जाता, कभी बिजलियाँ जगमगाने लगतीं।

हवेली से भागी औरतों के जरिए यह बात हवा की तरह घर-घर में फैल गई। देखते-ही-देखते सेठ की हवेली के सामने मेला लग गया। ऐसी अनहोनी बात का स्वाद तो ज़बान को बरसों में मिलता है। हरेक की ज़बान के पंख लग गए। एक ही शक्ल के दो पति! एक तो चार साल पहले से ही रनिवास में ऐश कर रहा है और एक आज दिसावर से लौटा है। बहू सौरी में प्रसव पीड़ा से कराह रही है। ख़ूब तमाशा हुआ। देखना है कि धन्ना सेठ इस मामले को कैसे निबटाते हैं? कैसे छुपाते हैं? भला, ऐसी बात पर पर्दा कौन डालने देगा! लोग चबा-चबाकर फिर से जुगाली करने लगते। अपनी हवेली के चारों ओर यह जमघट देखा तो सेठ की एड़ी से चोटी तक आग लग गई। थूक उछालते कहने लगा, 'मेरे घर की बात है। हम आप ही निबट लेंगे। बस्ती वाले क्यूँ टाँग अड़ाते हैं? मैं कहता हूँ कि बाद में आने वाला आदमी छली है। मैं अपने नौकरों से धक्के देकर उसे निकलवा दूँगा। दिन-दहाड़े यह मक्कारी नहीं चल सकती।

बेटा चिल्लाया, 'बापू, तुम यह क्या पागलपन कर रहे हो? सूरज को तवा और तवे को सूरज बता रहे हो? तुम जैसे भी चाहो, पूरी छान-बीन कर लो। यह तो सरासर अन्याय है। इन दौलतमंद लोगों को नीचा दिखाने का मौक़ा कब-कब मिलता है! लोग-बाग भी अड़ गए कि खरा न्याय होना चाहिए। दूध-का-दूध और पानी का पानी। कसूरवार को वाजिब सजा मिले। यों दो पतियों का रिवाज चल निकला तो कैसे निभेगी? अमीरों का तो कुछ नहीं,पर ग़रीबों का जीना हराम हो जाएगा। बस्ती की उपेक्षा नहीं की जा सकती। चाहे कितना ही दौलत का ज़ोर क्यूँ न हो, कंधा देने वाले किराए पर नहीं आएँगे। मामला काफ़ी उलझ गया। दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़ गए। कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। न सेठ और न बिरादरी वाले लोगों की ज़बान थी और बहू के कान थे, सो उस तक भी सारी ख़बर पहुँच गई। औरत की इस ज़िंदगी में राम जाने कैसी-कैसी बातें सुननी पड़ेंगी, कैसे-कैसे अपमान सहने पड़ेंगे और कैसे-कैसे तमाशे देखने पड़ेंगे! आख़िर एक दिन तो यह झमेला होना ही था। चार साल तो स्वप्न की तरह अदृश्य हो गए। भला, स्वप्न के दिलासे से कब तक मन को समझाया जा सकता है? कितना उसका सहारा! और कितनी उसकी गहराई! किसी पुराने खंडहर की चमगादड़ों की तरह भीड़ इधर-उधर चक्कर लगाने लगी। यह मामला निबटाए बग़ैर तो गले से कौर भी नहीं निगला जा सकता।

सौरी का दरवाज़ा खोलकर दाइयों ने ख़बर दी कि बहू को लड़की हुई है। मौत की विकट घाटी टल गई। जच्चा के मरने में तो कोई कसर ही नहीं थी। बच गई सो क़िस्मत की बात। सौरी के बाहर भनभनाती औरतों को बच्ची का रोना सुनाई दिया। रनिवास के बाहर खड़े पति को अब जाकर होश आया, पर होश आते ही जो भनक कानों में पड़ी तो मानो कलेजे में सहसा सुरंग छूटी हो। सुध-बुध को गोया लकवा मार गया हो। एक साल पहले यह गाज कैसे गिरी? सेठ-सेठानी पागलों की तरह हक्के-बक्के खड़े थे। हतप्रभ! समूची बस्ती में कानाफूसी होने लगी। यह कैसी अप्रत्याशित मुसीबत आ पड़ी! इस हरामज़ादे, चंडाल ने न जाने किस जन्म का बदला लिया है। बात तो हाथ से छूटती जा रही है। अब कैसे समेटी जाए! कौन जाने, किसने यह चाल चली है? रनिवास तो पिछले चार सालों से रोशन है। इसे नहीं क़बूलने पर तो हवेली की सारी इज़्ज़त ही मिट्टी में मिल जाएगी। ढालूवाला किसी तरह मान जाए तो पर्दा पड़ा रहे। मुँहमाँगी दौलत देने को तैयार है, फिर उसे क्या चाहिए।

पर न ढालूवाला माना और न बस्ती के लोग ही माने। पुख़्ता न्याय होना चाहिए। सारी बिरादरी की नाक कटती है। चार साल बाद कोख उघड़ते ही एक और पति आ धमका। क्या मालूम कौन असली है? एक को तो झूठा होना ही पड़ेगा। लोगों ने शोर मचाकर आकाश को सर पर उठा लिया, मानो बर्रों का बड़ा छत्ता नीचे आ पड़ा हो। ढालूवाले की हिमायत न करना तो हाथों भड़काई आग पर पानी डालना होगा। तब तो सारा मज़ा ही किरकिरा हो जाएगा। इस मज़े को चखने की ख़ातिर हर व्यक्ति ढालूवाले पति की तरफ़दारी करने लगा।

सेठ हाथ जोड़ते हुए रुँधे सुर में बोला, 'मेरी पगड़ी उछालकर तुम्हें क्या मिलेगा? भाइयों की तरह साथ रहते हैं। वक़्त-बेवक़्त एक-दूसरे के काम आते हैं। मेरे बेटे के गुण तुम लोगों से छुपे नहीं हैं। उसके हाथों से किसका भला नहीं हुआ! इतनी जल्दी एहसान-फ़रामोश न बनो। मेरी इज़्ज़त अब तुम्हारे हाथों में है। किसी भी तरह मामला सुलझा दो। यह ढालूवाला आदमी जाली है। इसे धक्के मारकर गाँव से बाहर निकालो।

बुज़ुर्गों ने कहा, 'सेठजी, दिखती मक्खी निगली नहीं जा सकती। वक़्त आने पर जान देने को तैयार हैं, पर पानी की गठरी कैसे बाँधी जा सकती है! यह आदमी बढ़-बढ़कर कह रहा है, बहू से ढालूओंवाली बात पूछो तो सही, इसमें हर्ज ही क्या है?

ऐसी बात कैसे पूछी जा सकती है? कौन पूछे? तब कुछ भली बूढ़ी औरतें 'आगे आईं। मुसीबत में इंसान ही इंसान के काम आता है। सौरी का दरवाज़ा खोलकर भीतर गईं। जच्चा का पेट दर्द से ऐंठ रहा था। प्रसव की घाटी पार करने के बाद इस बात की भनक उसके कानों में पड़ी तो वह प्रसव की सारी पीड़ा भूल गई। यह दूसरी पीड़ा बहुत-बहुत बड़ी थी। दाँत पीसती हुई कठिनता से बोली, 'कोई मर्द यह बात पूछता तो उसको हाँ या ना का जवाब भी देती। पर औरतों का दिल रखकर भी तुम यह बात पूछने की हिम्मत कैसे जुटा पाईं! मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो। तुम्हें परेशान करने का यही समय मिला है? धन्य है तुम्हारा साहस!

वृद्धाएँ मुँह बिगाड़ती हुई बाहर आईं। बोलीं, 'ऐसी बातों में औरतें सच नहीं बोलतीं? हमें तो दूध में कालिख नज़र आती है। फिर जो तुम्हारी समझ में आए, सो करो। ऐसे मोक़ों पर ही तो समझ की धार तेज़ होती है। सूत तो ख़ूब ही उलझा। बुज़ुर्गों ने फिर समझ से काम लिया। कहा, 'यह न्याय राजा के बिना नहीं निबट सकता। किसी और ने इसमें टाँग अड़ाई तो समूची बस्ती को उनके ग़ुस्से का शिकार होना पड़ेगा। अपना भला-बुरा तो सोचना ही पड़ता है। एक दफ़ा इन दोनों पतियों को राजा के हवाले कर दें। फिर राजा जानें और सेठ जानें। अपन बीच में नाहक क्यूँ थूक उछालें। फिर बस्ती राम है। जो सबकी इच्छा हो, सो करो। तत्पश्चात बस्ती की इच्छानुसार ही हुआ। भला अपना राम-पद वह क्यूँ छोड़ती। दोनों पतियों को रस्सियों से बाँधकर ले चलने का फ़ैसला हुआ। रनिवास के बाहर खड़े पति को बाँधने लगे तब उसे होश आया कि आख़िर बात कहाँ तक पहुँच चुकी है। उसने कुछ भी आनाकानी नहीं की। सीढ़ियाँ उतरते हुए कलेजा होंठों तक लाकर बोला, 'मुझे एक दफ़ा सौरी में जाने दो। माँ-बेटी की ख़ैरियत तो पूछ लूँ। न जाने कैसी तबियत है? पर लोग नहीं माने। कहा, 'फ़ैसला होने के बाद सारी उम्र ख़ैरियत पूछनी ही है। इतनी जल्दी क्या है? लोगों का बवंडर पैरों-पैरों आगे बढ़ा। दोनों पति बँधे हुए साथ-साथ चल रहे थे। सेठ भी जूतियाँ फटकारते हुए साथ घिसट रहा था। पगड़ी खुलकर गले में झूल रही थी। तेज़ हवा के झोंके पत्ते पत्ते को झकझोर रहे थे। चलते-चलते उसी खेजड़ी पर भूत की नज़र पड़ी। सारे शरीर में बिजली दौड़ गई। उसके पाँव वहीं चिपक गए। सर में उफान उठने लगा। आँखों के सामने यादों के चित्र फड़फड़ाने लगे ही थे कि रस्सी का झटका लगने पर उसे होश आया। पैर आप ही बढ़ने लगे। बायाँ-दायाँ, बायाँ-दायाँ। इंसान के दिल में यादों का झंझट न रहे तो कितना अच्छा हो! यह याद तो मानो ख़ून ही निचोड़ डालेगी। साथ बँधे कारोबारवाले पति का मन तो निश्छल था। पर आज साँच को यह आँच कैसी लगी! वो ख़ुद भ्रम में पड़ गया। यह क्या लीला हुई? साथ-साथ चलता यह शख़्स ऐसा लग रहा है गोया वो शीशे में अपना ही प्रतिबिंब देख रहा हो। इससे पूछने पर ही भ्रम मिट सकता है। उसके गले में फँसते-फँसते बमुश्किल ये शब्द बाहर निकल पाए, ‘भाई मेरे, न्याय तो राम जाने क्या होगा, पर तू यह अच्छी तरह जानता है कि मैं ही सेठजी का लड़का हूँ। सात फेरे खाने वाला असली पति हूँ। पर तू कौन है, यह तो बता? यह कैसा इंद्रजाल है? बैठे-बिठाए यह कैसी मुसीबत आ पड़ी! बता, मुझे तो बता कि तू है कौन?

था तो वो महाबली भूत। न्याय करने वाले पंचों की गर्दनें एक साथ मरोड़ सकता था। कई करतब कर सकता था। किसी के शरीर में घुसकर उसका सत्यानाश कर सकता था। पर चार साल तक प्रीत की ज़िंदगी जीकर उसका मानस ही बदल गया है। झूठ बोलना चाहा तब भी उससे बोला नहीं गया। पर स्पष्ट सच्चाई भी कैसे कहे! प्रियुतमा की इज़्ज़त तो रखनी ही थी। उससे बेवफ़ाई कैसे करे! युधिष्ठिरवाली मर्यादा निभाई। बोला, ‘मैं औरतों की देह के भीतर का सूक्ष्म जीव हूँ। उनकी प्रीत का मालिक हूँ। व्यापार और कमाई की बनिस्पत मुझे मोह-प्रीत की लालसा अधिक है। सात फेरों का परिणेता बेसब्री से बीच ही मे बोला, 'फ़ालतू बकवास क्यूँ करता है! साफ़-साफ़ बता कि मंडप में तूने विवाह किया था क्या? फ़क़त विवाह से क्या होता है! विवाह की दुहाई उम्र भर नहीं चल सकती। व्यापार वस्तुओं का होता है, प्रीत का नहीं। तुम तो प्रीत का भी व्यापार करने लगे!

इस व्यापार में ऐसी ही बरकत हुआ करती है! सेठ के लड़के के दिल में गोया गर्म सलाखें घुस गई हों। ऐसी बातें तो उसने कभी सोची ही नहीं। सोचने का मौक़ा ही कब मिला था। आज मौक़ा भी मिला तो इस हालत में!

भीड़ का बवंडर राजा के पास न्याय की ख़ातिर जल्दी-जल्दी आगे बढ़ रहा था कि बीच राह में रेवड़ चराता हुआ एक गड़रिया मिला। हाथ में तड़ा। लाल साफे से बाहर निकले बाल। घनी व काली दाढ़ी। हाथों में चाँदी के कड़े। भरपूर लंबा क़द। रीछ की तरह सारे शरीर पर बाल-ही-बाल। पलकों व भौहों के बाल भी काफ़ी बढ़े थे। कानों पर बालों के गुच्छे। पीले दाँत। तड़ा सामने करते हुए पूछा, 'इतने सारे लोग इकट्ठे होकर कहाँ जा रहे हो? शायद मृत्युभोज खाने के लिए यह कारवाँ निकला है?

दो-तीन मर्तबा समझाने पर उसे ठीक से समझ में आया कि आख़िर माजरा क्या है। होंठों की एक बाजू से हँसी को छलकाते कहने लगा, 'इस अदने-से काम ख़ातिर बेचारे राजा को क्यूँ तकलीफ़ देते हो! यह झमेला तो मैं ही निबटा दूँगा। तुम्हें मेरी आँखों की कसम जो आगे एक भी क़दम रखा तो। नदी का ठंडा पानी पीओ। कुछ आराम करो। तुम्हारे इलाक़े की तो गज़ब ही कलई खुली। कोई माई का लाल यह न्याय नहीं निबटा सका! जूते फटकारते हुए सीधे राजा के पास चल पड़े! लोगों ने भी सोचा कि अभी तो राजदरबार काफ़ी दूर है। अगर इस गँवार की अक़्ल से काम निकल जाए तो क्या हर्ज है? वरना आगे तो जाना ही है। वे मान गए तब गड़रिए ने बारी-बारी से दोनों के चेहरे देखे। बिलकुल एक-सी शक्ल बाल जितना भी फ़र्क़ नहीं। चंचल विधाता ने भी कैसी मज़ाक़ की!

उन दोनों की रस्सियाँ खोलते हुए वो कहने लगा, 'भले आदमियों, इन्हें इस तरह बाँधने की क्या ज़रूरत थी? इस भीड़ से बचकर ये कहाँ जाते? फिर मुखिया की तरफ़ देखकर पूछा, 'ये गूँगे-बहरे तो नहीं है? मुखिया ने जवाब दिया, ‘नहीं, ये तो बिलकुल गूँगे-बहरे नहीं हैं। बेधड़क बोलते हैं;

गड़रिया यह बात सुनते ही ठहाका मारकर हँसा हँसते-हँसते ही बोला, फिर यह बेकार चक्कर क्यूँ लगाया? इनसे वहीं पूछ-ताछ कर लेते। दोनों में से एक झूठा है ही; पंच मन-ही-मन हँसे। यह गड़रिया तो निरा मूर्ख है। ये सच बोल जाते तो फिर रोना ही किस बात का था। बस हो चुका इसके हाथों न्याय! ऐसी न्याय करने लायक अक्ल होती तो यह तड़ा लिए भेड़ों के पीछे ढर्र-ढर्र करते क्यूँ भटकता!

रस्सी को समेटते हुए गड़रिया कहने लगा, 'समझ गया, समझ गया। बोलना जानते हैं, पर साथ-ही-साथ झूठ बोलना भी सीख गए। पर कोई बात नहीं। सच को बाहर निकालना तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है। गले में तड़ा डालकर आँतों में फँसा हुआ सच अभी बाहर ला पटकता हूँ। देर किस बात की! खेजड़ी की डालियाँ भी इस तड़े के सामने नहीं टिक सकती, फिर बेचारे सच की तो औक़ात ही क्या है! बोलो किसके गले में तड़ा घुसेडूँ। जो पहले मुँह खोलेगा, वो ही सच्चा है। भूत ने सोचा अगर अकेले उसी की बात होती तो कोई भी जोखिम और मुसीबत उठा लेता। पर अब भेद ज़ाहिर होने पर तो रनिवास की मालकिन को दुख उठाना पड़ेगा। ऐसा मालूम होता तो खेजड़ी के काँटों में बिंधा रहना ही ठीक था।

भूतों के छल-बल में तो वो उस्ताद था, पर इंसानों के कपट की उसे रञ्जामात्र भी जानकारी नहीं थी। इंसान की ज़बान से निकली हर बात को वो सही मानता था तड़ा उसके गले का क्या बिगाड़ सकता है! ऐसे सात तड़े घुसेड़कर भी यह मेरा बाल बाँका नहीं कर सकता। मेरी प्रीत झूठी हरगिज़ नहीं हो सकती। इसमें इतना सोचने की क्या बात है! वो तो तुरंत मुँह फाड़ता ही नज़र आया। सेठ के लड़के ने तो होंठ ही नहीं खोले। ग़ुस्सा तो ऐसा आया कि इस गँवार गड़रिए की चटनी बना डाले। पर कहा कुछ नहीं।

मुँह फाड़ने वाले पति की पीठ ठोंकते हुए गड़रिया बोला, वाह रे पट्टे, तुझ जैसे सत्यवादी आदमी को इन मूर्ख लोगों ने इतना परेशान किया! पर मन की तसल्ली बड़ी बात है। थोड़ी-बहुत भी शक की गुंजाइश क्यूँ रहे! उसकी भेड़ें काफ़ी दूरी पर अलग-अलग चर रही थीं। उनकी ओर हाथ का इशारा करते गड़रिया कहने लगा, 'मैं सात तालियाँ बजाऊँ, तब तक इन तमाम भेड़ों को घेरकर इस खेजड़ी के चारों ओर जो इकट्ठा कर दे,वो ही सच्चा है। गड़रिए के कहते ही उस भूत ने बवंडर का रूप धरकर पाँचवीं ताली बजने से पहले ही तमाम भेड़ों को इकट्टा कर दिया। सेठ का लड़का मुँह लटकाए खड़ा रहा। वहाँ से हिला तक नहीं। जैसी गड़रियों की जाहिल क़ौम, वैसा ही जाहिल उनका न्याय। मानना और न मानना तो उसकी मर्ज़ी पर है।

गड़रिया बोला, 'शाबास! सच्चे पति के अलावा इतना जोश और इतनी ताक़त भला किसकी हो सकती है! अब एक आख़िरी परख और करूँगा। थोड़ा सुस्ता लो। तड़ा बग़ल में दबाकर छागल का मुँह खोला। एक ही साँस में गटगट सारा पानी मुँह में उड़ेलकर ज़ोर से डकार खाई। फिर पेट पर हाथ फिराते कहने लगा, ‘सात चुटकियों के साथ ही जो इस छागल के अंतर घुस जाएगा, वो ही रनिवास का असली, मालिक हैं। जो मेरे न्याय को ग़लत बताएगा, उसके गले की ख़ातिर मेरे तड़े का एक ही झटका काफ़ी है, यह ख़याल रखना।

लोगों ने तड़े के मुँह पर बँधे हँसिए की तरफ़ देखा धार लगा हुआ। एकदम तीखा। एक झटका लगने पर दूसरे की ज़रूरत ही नहीं। खोपड़ी सीधी धूल चाटती नज़र आएगी! लोगों को हँसिए की ओर देखने में तो वक़्त लगा, पर भूत को छागल के अंदर घुसने में कुछ भी वक़्त नहीं लगा। ये करतब तो वो जन्म से ही जानता था गड़रिए ने तो आज इज़्ज़त रख ली। भूत के अंतर घुसते ही गड़रिए ने फिर एक पल की भी ढील नहीं की। तुरंत छागल का मुँह दुहराकर रस्सी से कसकर बाँध दिया! फिर पंचों के मुँह की तरफ़ देखते गर्व से बोला, 'न्याय करने में यह देर लगी!

छागल तो मेरी भी जाएगी, पर न्याय करना मंज़ूर किया तो कुछ सोच-विचारकर ही किया था। चलो, अब सभी चलकर इस छागल को नदी के हवाले कर दें। उमड़ती उथेले खाती नदी इसे आप ही रनिवास की सेज पर पहुँचा देगी। बोलो, हुआ कि नहीं खरा न्याय? सभी ने एक साथ सर हिलाकर सहमति दरसाई। सेठ का लड़का तो ख़ुशी के मारे बौरा-सा गया। विवाह से भी हज़ार गुना अधिक आनंद उसके दिल में हिलोरें लेने लगा। मारे ख़ुशी के काँपते हाथ नग-जड़ी अँगूठी खोलकर गड़रिए के सामने की। गड़रिया बग़ैर कहे ही उसके दिल की बात समझ गया, पर अँगूठी क़बूल नहीं की। काली दाढ़ी के बीच पीले दाँतों की हँसी हँसते बोला, 'मैं कोई राजा नहीं हूँ, जो न्याय की क़ीमत वसूल करूँ। मैंने तो अटका काम निकाल दिया। और यह अँगूठी मेरे किस काम की! न अँगुलियों में आती है, न तड़े में। मेरी भेड़ें भी मेरी तरह गँवार हैं। घास तो खाती हैं, पर सोना सूँघती तक नहीं। बेकार की वस्तुएँ तुम अमीरों को ही शोभा देती हैं।

अब कहीं जाकर भूत को गड़रिए के उज्जड़ न्याय का पता चला। पर अब हो भी क्या सकता था! बात काबू के बाहर पहुँच गई थी। तो भी छागल के भीतर से चिल्लाया, 'बापू, मुझ पर दया कर, एक दफ़ा बाहर निकाल दे। ज़िंदगी-भर तेरा गुलाम रहूँगा।

भला, अब भूत की बात कौन सुनता! उत्साह से भरे सभी नदी के किनारे पहुँचे। छागल को वेग से बहते पानी में फेंक दिया। प्रीत के मालिक को आख़िर बल खाती, भँवर बनाती, लहराती, उथेले खाती, कल-कल करती नदी की सेज मिली। उसका जीवन सफल हुआ। उसकी मौत सार्थक हुई। फिर बस्ती के लोग, सेठ और सेठ का लड़का वापस दूनी गति से गाँव की ओर लौटे।

हवेली के दरवाज़े में घुसते ही सेठ का लड़का सीधा सौरी की ओर लपका। एक दाई बेटी को घी की मालिश कर रही थी। दूसरी चंदन की कंघी से जच्चा के बाल सुलझा रही थी। गड़रिए के खरे न्याय की सारी दास्तान उसने एक ही साँस सुना डाली। एक-एक शब्द के साथ जच्चा को ऐसा लगता गोया आग में तपा लाल-सुर्ख़ भाला उसके दिल में घोंपा जा रहा हो। प्रसव-पीड़ा से भी यह पीड़ा हज़ार गुना अधिक थी। पर उसने न तो उफ़ की और न कोई निश्वास ही उसके मुँह से निकला। पाषाण पुतली की तरह गुमसुम सुनती रही।

दिल की सारी भड़ास निकालने के बाद वो कहने लगा, ‘पर तुम इस क़दर परेशानी में क्यूँ पड़ गई? जन्म देने वाले माँ बाप भी जब नहीं पहचान सके तो भला तुम कैसे पहचानती? इसमें तुम्हारी कुछ भी ग़लती नहीं है। पर नालायक भूत में तो लच्छन मुताबिक़ ख़ूब बीती। छागल में घुसने के बाद बहुत गिड़गिड़ाया, बहुत रोया पर फिर तो राम का नाम लो। हम ऐसे नादान कहाँ! आख़िर नदी में फेंकने पर उससे पिंड छूटा और उसका चिल्लाना बंद हुआ। हरामज़ादा, फिर कभी छल करेगा! तत्पश्चात घर वालों ने जैसा कहा, जच्चा ने वैसा ही किया। कभी किसी बात का उलटकर जवाब नहीं दिया। किसी भी काम में आनाकानी नहीं की। उसकी ख़ातिर सास ने जितने भी लड्डू वगैरह बनाए, उसने चुपचाप खा लिए। जब सास ने कहा, तब सर धोया। सूरज पूजा। ब्राह्मण ने हवन किया। औरतों ने गीत गाए। गुड़ की मांगलिक लपसी बनी। तालाब पर जाकर जल-देवता की पूजा की। पीली चुंदरी ओढ़ी।

बेटी को पालने में झुलाया। जल भरे घड़े पूजे। कुमकुम से आँगन उरेहा। मेहँदी लगाई। जैसा कहा, वैसा सिंगार किया। आभूषण पहने। ऐसी सुलच्छनी बहू तो सौभाग्य से ही मिलती है। जल-पूजन की रात्रि को बहू पीली चुंदरी ओढ़कर झाँझर की झनकार करती हुई रनिवास की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। गोद में बच्ची। आँचल में दूध। आँखें सूनी। हृदय सूना। सर में मानों अनगिनत झींगुर गुँजार कर रहे हों। पति इंतज़ार में फूलों की सेज पर बैठा था। इस एक ही रनिवास में राम जाने उसे कितने जीवन भोगने पड़ेंगे? पर आँचल से दूध पीती यह बच्ची, बड़ी होकर औरत का ऐसा जीवन न भोगे तो माँ की सारी तकलीफ़ें सार्थक हो जाएँ। इस तरह तो जानवर भी आसानी से अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं किए जाते। एक दफ़ा तो सर हिलाते ही है। पर औरतों की अपनी मर्ज़ी होती ही कहाँ है? मसान न पहुँचे तब तक रनिवास और रनिवास छूटने पर सीधी मसान!

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