दूरी (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्‍जी'

Duri (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'

डोकरी तो आज हुई है ! पर साठ बरस पहले कुलाँचें भरती नंग-धड़ंग तोंदल छोकरी ब्याह के बाद पहली मर्तबा नया वेश पहनकर ससुराल की अजानी डगर रवाना हुई, तब सचमुच वह आठ बरस की ही थी ! खलू-खलूँ खाँसी के मारे आज मरूँ कल मरूँ की दुविधा में फँसे नाना ने नातिन के हाथ जल्द ही पीले कर दिए। ब्याह के तीन महीने बाद नाना की मृत्यु पर वह ननिहाल गयी, फिर तो एक बार भी ससुराल का आसरा नहीं छोड़ा। तब से आरण, ऐरण, धौंकनी, घण, हथौड़ा, सँड़ासी, आग और धुएँ के अलावा उसका न तो कोई संसार था और न कोई ब्रह्माण्ड ही! दस-बीस गाँवों की आस के इर्द-गिर्द चूँ-चूँ करती गाड़ी और औंधी खटिया ही सुख-सुविधा का एकमात्र साधन थी। ऐरण और घण की चोटों के दौरान कब इतने बरस आँखमिचौनी खेलते दूर-ही-दूर खिसक गये, डोकरी को पता ही नहीं चला ! धौंकनी की गर्म हवा और सुलगते अंगारों की आँच में कब पाँच बेटियाँ और एक बेटा पैदा हुआ, कुछ खबर ही नहीं पड़ी ! कब समय के पालने में बच्चे बड़े हुए, कब काम करते-करते भाँवरों में बँध गये, कब निरीह चिड़ियाँ रोते-रोते ससुराल गईं और कब बेटे की बहू रोते-रोते ससुराल आयी, कुछ आभास ही नहीं हुआ, जैसे खुली आँखों कोई सपना देख रही हो !

होश सँभालते ही बेटे व उसकी बहू ने तो आरण और धुएँ का संसार कबूल कर लिया और हजा ने घर-घर फेरी की जिम्मेवारी ओढ़ ली । डलिया में काँटा - कढ़ने, कड़ी-सींकले, टीपरियाँ, चिमटे व बच्चों का मन बहलाने के निमित्त लोहे के छोटे रथ भरकर वह गली - गलियारों में गुहार मचाती । घर के मालिक या मालकिन की मरजी के मुताबिक अच्छा-बुरा अनाज हञ्जा के हाथ लग जाता । वह कभी किसी से हुज्जत नहीं करती थी । या यों कहें कि उसे हुज्जत करना पोसाता ही नहीं था ।

आठ बरस की उस अबूझ दुलहन की देह पर आज हञ्जा-माऊ की यह कैसी छवि अंकित हो गयी? स्याह-पुष्ट सूरत ठौर-ठौर सलवटों की जाली से घिर गयी ? गर्दन की दाहिनी बाजू एक बड़ी-सी मेद उभर आई । छतिया के नींबू बढ़ते-बढ़ते खाली थैलियों की तरह लटक गए ! काले-कजरारे बालों में सर्वत्र सफेद रंग घुल गया! एक-एक करके सारे दूधिया दाँत झड़ गए। माँ की कोख से छुटकारा पाने के बाद किसी भी टेढ़े-मेढ़े रास्ते से मौत की गोद में पहुँचना है, सो हञ्जा-माऊ जस-तस करीब पहुँच रही थी ।

कल तक तो किसी तरह का कोई झमेला नहीं था, पर आज यह कैसी अचीती गाज गिरी ! दोपहर की चिलचिलाती वेला रोजमर्रा की तरह छाछ, नमक व मिर्च में दो सोगरे चूरकर उसके बेटे झोला ने भरपेट खाने के उपरान्त आरण चालू किया ही था कि पेट में ऐसी दुर्दान्त टीस उठी कि वह ऐंठकर लुढ़क पड़ा। हञ्जा-माऊ ने रामदेव बाबा को सवा सेर गुड़ की मन्नत बोली, तब भी अड़ोसी पड़ोसी उसे जबरदस्ती गाड़ी में डालकर अस्पताल ले गए। डॉक्टर अपने भाजे के विवाह में पचास कोस दूर काफी व्यस्त था। कम्पाउण्डर ने जाँच-पड़ताल करके अपेण्डिक्स की आशंका प्रकट की और पींपाड़ के अस्पताल शीघ्र पहुँचने की मुफ्त सलाह दी।

घबराहट के मारे काँपती हञ्जा-माऊ को न तो किसी को टोकने की सुध रही और न एतराज करने की । उसके देखते-देखते गाँव के चन्द सयाने - समझदार लोगों ने तड़पते झोला को जबरन रवाना कर दिया। सौ रुपयों की एवज में चम्पा कलाल की जीप धर्र-धर धुआँ छोड़ने के साथ धूल उड़ाती अदीठ हुई, तब कहीं हञ्जा-माऊ का होश ठिकाने आया ! घुटनों में कँपकँपी फैल गई । झोला की तीमारदारी में बहू और ग्यारह बरस का पोता भी लोगों के कहे कहे जीप में बैठ गए।... और पीछे रह गयी हञ्जा माऊ - निपट अकेली ! इतनी लम्बी- लड़ाक जिन्दगी में वह कभी अकेली नहीं रही। और न सपने में भी उसे अकेलेपन का कभी एहसास हुआ। घरवालों के बीच वह हरदम ऐसी आश्वस्त रहती थी मानो सार-सँभाल के वज्र- कुठले में नितान्त सुरक्षित हो ! उसकी निर्बाध कुशलक्षेम में कहीं कोई कसर नहीं थी। और आज अकेली होते ही उसके अटूट विश्वास की नींव मानो अतल गहराई में धँस गई ! बड़ी मुश्किल से पाँव घसीट-घसीटकर वह अस्पताल से अपने घर पहुँची ।

हञ्जा-माऊ अपने जैसे-तैसे ढर्रे की अभ्यस्त हो चुकी थी, मगर आज तो उसका रोम-रोम विचलित हो उठा। न गाड़ी और आरण के आदिम पड़ाव ठहरा जा सकता है और न अदीठ - ओझल बेटे के पास पहुँचा जा सकता है ! बदबूदार धुएँ की काली साँस छोड़ती वह डायन तो देखते-देखते उसके पुत्र को लेकर अन्तर्धान हो गयी, न जाने कहाँ, दुनिया के किस कोने में? इत्ते बरस यह दुनिया कहाँ गायब थी ? कहाँ, कहाँ? कभी उसकी जरूरत भी तो नहीं पड़ी !

इस डायन का डौल देखते ही हञ्जा-माऊ का जी मितलाए तो क्या हुआ, एक बार उसे भी साथ बैठने के लिए पूछना तो था ! बेटे की खातिर मौत के कन्धे पर बैठ जाती ! कोख में बिना देखे ही उसे तकलीफ नहीं होने दी तो अब आँखों के सामने उसे क्योंकर छटपटाने देती? माँ के जिन्दा रहते बेटे के पाँव में काँटा भी नहीं चुभना चाहिए! हञ्जा - माऊ को ऐसा महसूस हुआ जैसे गले का थूक कसैला पड़ गया हो। करवा भरकर बोखे मुँह तीन-चार कुल्ले किए, एकाध घूँट पानी निगलने की चेष्टा की, पर एक बूँद भी नीचे नहीं उतरा, मानो गले में कुछ फँस गया हो । इधर देखा - उधर देखा। आँगन, नीम, आरण और उजाला ऐसे उदास उदास तो कभी नजर नहीं आये !

फड़फड़ाते जी की खातिर हञ्जा-माऊ एक बार फिर अस्पताल की ओर रवाना हुई। ठक-ठक लाठी ठपकारती कम्पाउण्डर के सामने खड़ी हुई, तब भी उसने हञ्जा-माऊ से कुछ बात नहीं की। संज्ञाविहीन माँ उसके पान ठसे गोल-मटोल मुँह की तरफ टुकुर-टुकुर ताकती रही, जैसे वह काफी दूर खड़ा हो ! कुछ देर बाद गले में फँसे बोल बड़ी बड़ी मुश्किल से बाहर धकियाते बोली, “बेटा, मेरे झोले को पींपाड़ भेजने से पहले मुझे पूछना तो था...?"

या तो उसे हञ्जा-माऊ का सवाल ठीक तरह सुनाई नहीं पड़ा या सवाल का मायना उसकी समझ में नहीं आया । मिची मिची आँखों से उसके जाली भरे मुँह की तरफ गुमसुम देखता रहा । उसके चेहरे की रंगत से यह पता पड़ना मुश्किल था कि सामने खड़ी बुढ़िया उसी से जवाब-तलब कर रही है ! नजर सांगोपांग तेज होते हुए भी उसकी सूरत पर अन्धे मनुष्य की-सी उदासीनता पुती हुई थी ! अधीर हञ्जा-माऊ ने फिर जानना चाहा, "बोल, मुझे पूछना था कि नहीं ? "

इस बार पान ठसा मुँह थोड़ा खुला, “तू खुद पास खड़ी थी। कुछ भी एतराज था तो बोली क्यों नहीं? "

“बेटा, उस समय मुझे कुछ होश होता तो पूछती, पर तुझे तो पूछना था!”

“क्यों पूछना था ? बीमारी की बात हम माँ-बाप से अधिक जानते हैं ।”

कम्पाउण्डर के वे बड़-बोल उसे चिनगारियों की तरह चटखते सुनाई पड़े। “तुम्हें ऐसी क्या गरज पड़ी थी? माँ से ज्यादा गरज धन्तर- वेद को भी नहीं होती !”

गँवार बुढ़िया की उस साफगोई ने उसके कानों में झनझनाहट मचा दी । “ गरज तो कुछ भी नहीं, पर कुछ फरज मेरा भी था । और तू साथ रहकर भी क्या नौ की तेरह कर लेती ? उल्टा रो-धोकर चिल्लाती। कोरे मोरे चिल्लाने से बीमारी ठीक नहीं होती, समझी?"

जवाब तो हञ्जा- माऊ को आरण के सुलगते अंगार जैसा सूझा था, मगर रो-धोकर चिल्लाने की बात सुनते ही उसकी आँखों के सामने धधकती लपटें कौंध उठीं ! बुझे-बुझे स्वर में पूछा, “भले आदमियो ! मेरे झोले की देह पर चीर-फाड़ तो नहीं करोगे... ?"

हञ्जा-माऊ की नादानी पर कम्पाउण्डर झीना - झीना मुस्कराता कहने लगा, “वाह री हञ्जा- माऊ, ऐसी बेतुकी बात तो बच्चा भी नहीं करता । चीर-फाड़ की जरूरत नहीं होती तो उसे पींपाड़ क्यों भेजता ? झख मारने? "

हञ्जा-माऊ की नादानी पर कम्पाउण्डर को तो फकत अचरज ही हुआ, पर उसके बेबाक जवाब से हञ्जा - माऊ की तो जैसे साँस ही उखड़ गयी हो। अब तो बहू का सुहाग, पोते का भाग्य और माँ का पुण्य ही काम आएगा ! मौत न यहाँ टल सकती है और न वहाँ ! पर यह अदीठ दूरी! यह अदृष्ट दुनिया ! यह बहरा अलगाव और यह घायल अभरोसा ! मौत का सब्र हो जाता मगर वहम और दूरी का सब्र नहीं होता ! दूरी चाहे दिल की हो, चाहे दुनिया की ... !

आँखों से ओझल होने की पीड़ा ही उसकी गहरी छटपटाहट थी । न जाने क्या हुआ, क्या होगा? इस दुश्चिन्ता की दाझ ही उसके अन्तस् में उबल रही थी ! काया की कुदरती मौत-माँदगी तो हाथ की बात नहीं, पर विरह-विजोग तो वश की बात है। जैसी चाह, वैसी राह । फिर सामने मौजूद बेटे को दूर क्यों जाने दिया? अड़सठ साल की अर्जित की हुई समझ भी जब इस विपदा की वेला काम नहीं आयी तो वह किस काम की? आग लगे ऐसी नागडसी समझ को । हज्जा- माऊ तो आज मौत से पहले ही मर गयी...!

मूर्च्छा के जाल में जकड़ी माँ वापस घर की ओर लौटी। पाँव घसीटने के साथ-साथ उसे नीचे की जमीन दूर खिसकती - सी महसूस हुई। बीच की दूरी को लाँघना भारी पड़ गया। बड़ी मुश्किल से अपनी लाश को ढोती- ढोती वापस घर पहुँची । अकेली, निपट अकेली ! फटी-फटी निगाहें पछाड़कर आकाश में तपते सूरज की ओर देखा... शायद कुछ रोशनी नजर आये ! इतने बरस तो दिन में उजाला करने के अलावा सूरज की दूसरी कोई जिम्मेवारी नहीं थी! फकत काम करने की सुविधा के लिए बेचारा दिन भर तपता रहता है ! पर आज उसे कुछ ऐसा महसूस हुआ जैसे आकाश के ओसारे में आग लगी हो ... ।

यों तो उसका बेटा कई बार गाँव- गोठ, न्यात- बिरादरी और मेले- खेलों में दूर-दूर गया था पर अन्तस् की आँखों से ओझल कभी नहीं हुआ ! एक दिन के बछड़े को अलग करने पर जिस तरह गाय व्याकुल होती है, उसी प्रकार अड़तीस बरस के अधबूढ़ बेटे की जुदाई से वह तड़प-तड़प उठी। पूरे बरस धमाधम घण कूटने पर भी सौ रुपये बड़ी मुश्किल से जुड़ते हैं, फिर इन बड़भागियों को एक मुश्त सौ रुपये माँगते लाज सरम नहीं आयी ? कई बार सभी घरवाले भूखे-निरणे ही सोए, पर छूमन्तर होने के डर से कलदार रुपये को कभी नहीं भुनाया ! बदरंग खाट के नीचे मेंगनी की आँच करके ठिठुरती रात काटना कबूल पर राली-गुदड़ी के निमित्त कानी - कौड़ी भी बेकार खर्च नहीं की! लेकिन आज तो सौ रुपये भी गँवाए और बेटे का संग-साथ भी छूटा दवा-दारू और नकदी की दुहाई से मौत को फुसलाया जा सके तो ये ठाकुर-सेठ अपने घरवालों को मरने दें भला...?

आज की रात जैसा काला- स्याह अँधेरा तो कभी नहीं गिरा ! पहले तो अँधेरा भी साफ-साफ दिखता था पर आज तो आँखें फाड़ने पर भी वह नजर नहीं आता। कहीं आँखों की जोत तो धोखा नहीं दे गयी ? दीया जलाने पर मन्द मन्द उजाला तो जरूर हुआ, पर उसकी आभा में कहीं झोला नजर आये तो उसका महातम है ! झीने-झीने उजाले में इधर-उधर आँखें फाड़ीं। बेटा हो तो दिखे ! उजाला विष बुझे तीर की नाईं उसकी पुतलियों में खटकने लगा । ओढ़नी के पल्लू से झट दीया बुझा दिया। जहाँ माँ है, वहीं बेटे को होना चाहिए । जहाँ बेटा है, वहीं माँ को होना चाहिए... ।

चहुँ तरफ और भी घनघोर अँधेरा ढह पड़ा । झुके हुए पिंजर के भीतर अँधेरा । बाहर अँधेरा । मानो दो सघन पाटों के बीच पिचक गयी हो ! तीन बरस पहले झोला के बाप ने जब हमेशा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं, तब भी ऐसा खूँखार अँधियारा प्रकट नहीं हुआ था । पर आज छिन, घड़ी, दिन, मास और बरस की ठोकरों से लुढ़कती जिन्दगी को यह कैसा धक्का लगा कि वह पहले ही झटके में छकड़ी भूल गई। सरपट भागती उस चुड़ैल को ऐसी तेज रफ्तार क्या इसीलिए मिली कि वह इकलौते बेटे को माँ से जुदा कर दे... ?

शायद एक ठौर रुकने से न तो आज की रात ढलेगी और न अथाह अँधेरा ही मिटेगा । सपनचारी के उनमान कन्धे पर गठरी लटकाए, ठक-ठक ताल के सड़िन्दों से अँधेरे को रौंदती हञ्जा-माऊ बेटे की तलाश में अजानी राह अपने-आप चल पड़ी। उसके अमृत मिलन की आस में एक-एक कदम अँधेरा पार करेगी ! तमाम बस्ती के साथ सारे पंछी भी सो रहे थे । किन्तु छड़े बिछड़े गण्डक सजग होकर अँधेरे को नोचते हुए भूँकने लगे सो भूँकते ही रहे !

आज हञ्जा-माऊ को घरबार एवं बस्ती का ख़याल तो बड़ी बात, खुद अपना भी ख़याल कहाँ था ! वह अपने ही भीतर कहीं गहरी खो गयी थी! या तो भीतर का अदीठ अन्तस् उलटकर बाहर आ गया था या बाहर का झुरझुर पिंजर भीतर सिमट गया था ! फिर भी अड़सठ बरसों की उस आधी-अधूरी चेतना की बजाय बेहोशी की यह धुन्ध ज्यादा बेहतर थी !

हञ्जा-माऊ गाँव के घूरे से उतरी तो ठपकारों की भनक में बरगद का निवास छोड़कर टिवटिव करते पंछी पाँखें फड़फड़ाकर इधर-उधर उड़े। शायद ये भी बच्चों की खोज में उड़े हों ! बरगद के नीचे रुककर उसने ऊपर देखा - अनगिनत साँवले पान-ही-पान । साँवले डाले और साँवली डालियाँ । झूलती हुई साँवली शाखों के जाल ! इत्ता भारी-भरकम विशाल बरगद फकत एक ही तने के सहारे खड़ा है ! फर-फर की मीठी फड़फड़ाहट से पान झूम-झूम रहे हैं! केवल एक बीज का यह अजीब चमत्कार ! पान, डालियाँ और तने सहित यह विराट बिरछ उस छोटे-से बीज में कहाँ छिपा था...? उसने तो अब तक पेड़-पौधों को ध्यानपूर्वक देखा ही कहाँ ? फकत अपनी जरूरतों को पूरा करने के निमित्त ही कुदरत का महातम था !

यकायक उसे साँवले पानों के पार सफेद-सफेद चमक टिमटिमाती नजर आई। काँच के टुकड़ों की तरह ये क्या चमक रहे हैं ? बरगद का घेर घुमेर दायरा छोड़कर उसने ऊपर देखा - ओह ! ये तो हमेशा वाले ही अनगिन तारे ! अपनी धुन में टिमटिमा रहे हैं। इन्हें अच्छी तरह ध्यान से निहारने की मंगल वेला ही कहाँ मिली? फिर तो कमर ही झुक गई। अपनी इच्छा से ऊपर देखे तो बरस बीत गए। इन तारों की कब किसे जरूरत पड़ती है? लाखों-लाख होते हुए भी धरती पर चिनगारी जितना भी प्रकाश नहीं! खुली आँखों के सामने फकत टिमटिम चमकते नजर आते हैं। बेचारे सूरदास को तो सूरज भी दिखाई नहीं पड़ता, तब ये तारे क्या खाक दिखते होंगे? अन्धे की जिन्दगी भी क्या कोई जिन्दगी है ? काल - कोठरी और अन्धी कैद ! यदि दुर्योग से वह अन्धी होती तो आज बेटे की खोज में कैसे निकल पाती ? हञ्जा माऊ को पहली बार आँखों की जोत का गुमान हुआ! अँधियारे के अस्पष्ट धुंधलके में उसके अदीठ अन्तस् में एक ऐसी आस फड़फड़ा रही थी कि बस अगले ही छिन बेटे की आवाज सुनाई देगी, “माँ, मैं आ गया! एकदम भला चंगा ! पर तू कहाँ जा रही है... ?"

अगले, हाँ अगले क्षण की अमिट आस लगाए वह निरन्तर आगे बढ़ती रही - ठक-ठक लाठी ठपकारती हुई। मगर अँधियारे की घाटी लाँघने पर उजाले की सीमा में पाँव धरते ही उसकी आस चकनाचूर हो गई ! धू-धू सुलगते उजाले ने उसके बेटे को न जाने कहाँ दूर ही दूर छिपा लिया !

हञ्जा-माऊ के कानों में अचानक मनुष्य के कण्ठ की भनक पड़ी, "कौन है ?"

उसने चौंककर पीछे देखा ।

“अरे! यह तो हञ्जा-माऊ !”

अब कहीं डोकरी को चेत हुआ कि यह बोली तो उसके बेटे की नहीं है ! पर आवाज जानी-पहचानी थी। छकड़ा करीब आते ही साफ पहचान लिया कि ये तो अपने ही गाँव के बाशिन्दे - झूमर चौकीदार और भँवरलाल कोठारी । गर्दन ऊँची करके अधीर स्वर में पूछा, “मेरे झोले को कहीं देखा.....?"

झूमर छकड़ा रोककर कहा, “सुना कि कल दोपहर को वह जीप में बैठकर पींपाड़ गया। कम्पोडर ने हील ( अपेण्डिक्स) का उठाव बताया। बीमारी के कारण जीप में बैठने का मजा तो लिया, वरना बेचारे की किस्मत में ऐसा संजोग कब जुड़ता ? "

हञ्जा-माऊ की खोपड़ी पर जैसे घण का अचीता प्रहार हुआ हो ! मुए बावरी को झाड़ने की इच्छा तो बहुत हुई पर जीभ ही नहीं उथली । लेकिन बोहरे की जीभ के लिए तो ऐसी कोई रुकावट नहीं थी । वह अपने लम्बे, पीले खीसें निपोरता अदेर कहने लगा, “हील का उठाव हो चाहे बादी का सौ रुपयों का जूत लगना था, वह लग गया! हञ्जा- माऊ, तू ही बता, ये सौ रुपये कर्ज के पेटे जमा होते तो बोझ कम होता कि नहीं? जीप के मजे की खातिर बेकार रुपये खोने में कोई एतराज नहीं, मगर मैं जब भी तकाजा करूँ, रोना-रींकना चालू !”

किसकी आस सँजोए थी और किस से साबका पड़ा ? हञ्जा माऊ को लगा, जैसे दहकते आरण पर लुढ़क पड़ी हो ! हारी-थकी आवाज में धीमे से बोली, “तुम्हें भी देंगे सेठजी, दूध में खँगालकर देंगे। थोड़ा धीरज रखो ।”

“पानी में खंगालकर दो, मुझे कोई उजर नहीं, पर दो तो सही। एक बार उधार देने के बाद मुझे तो मन मारकर धीरज रखना ही है । "

हञ्जा-माऊ के दाँत जैसे अभी-अभी गिरे हों! जवाब देते समय मसूड़ों में टीस उठी! "सेठजी, घण तो खूब ही घमकाते हैं, फिर भी जुगाड़ जमता नहीं ।" बोहरे ने पवित्र गुर का मायना समझाते कहा, “ नीयत बोदी हो तो लक्ष्मी का जुगाड़ कभी नहीं जमता ।"

किसी अदीठ चरखी में फँसी हञ्जा-माऊ बड़ी कठिनाई से बोली, “झोला अचानक बीमार नहीं पड़ता तो नाहक सौ रुपयों की चपत क्यों लगती ?”

असामी को तंग करने का हिंसक आनन्द भी वसूली के सन्तोष से कम नहीं होता ! बोहरा यह स्वाद कब चूकने वाला था ! “झोला तो कल बीमार पड़ा और मैं जब भी तकाजा करता हूँ, इस कान से सुनकर उस कान से निकाल देते हो । बस, तुम लोगों को तो कोई-न-कोई बहाना चाहिए। कल पोते की बीमारी का बहाना तैयार ! तुम्हारे लच्छन मुझसे क्या छिपे हैं?"

हञ्जा-माऊ के रोम-रोम में सिहरन फैल गई। बोहरे का जोर जमराज से बढ़कर होता है ! किसी अदीठ सण्डासी की पकड़ से जीभ छुड़ाते बोली, “सेठजी, लच्छन बखाने जैसा काम तो भूल चूक से भी नहीं किया, उसी का तो रोना है !"

“ तभी तो तेरे विश्वास पर मैंने कलदार तीन सौ रुपये गिने । तू बेटे के नाम पर भले ही फूली न समाए पर मैं तो पाजी झोले की धेले भर भी कदर नहीं करता। खैर, रास्ते में मिल गयी तो बात छेड़ दी ; वरना मुझे फुरसत ही कब मिलती है? पर तू जा कहाँ रही है ? "

गुस्सा तो ऐसा आया कि हाथ की लाठी से बोहरे की बत्तीसी तोड़ - ताड़कर जीभ चिगद डाले, पर असामी की जड़ का बूता ही कितना ! राजा के हाथी को मरियल पड़वा के सामने पूँछ दबाकर भागना पड़ा था। जहर का घूँट घुटकते बोली, “दुनिया भर का हिसाब जानते हो, यह भी बताना पड़ेगा कि बेटे से मिलने पींपाड़ जा रही हूँ ।"

“तो बैठ छकड़े पर । पींपाड़ के पास छोड़ दूँगा । सौ रुपये जीपवाले को दिए तो मुझे पाँच से कम क्या देगी...? "

डोकरी भीतर-ही-भीतर अध-कुचले साँप की तरह बिफरी हुई थी। झटके से मुड़कर आगे कदम बढ़ाते बोली, “ना, तुम जाओ। मैं तो पाँव-पैदल ही भली । ”

गरीब मरियल बुढ़िया के मुँह से इस कदर साफ - सफ्फाक मनाही सुनने को सेठ के कान बिल्कुल आदी नहीं थे । कानों में झनझनाहट मच गई। मुँह मसोसकर कहने लगा, “तुम गाडूलियों के बस की बात हो तो मसान भी पैदल जाओ! ऐसी मूजी और गलीज जात मैंने नहीं देखी ! हगकर पीछे देखते हैं ! "

मसान का नाम सुनते ही डोकरी के कानों में जैसे सुरंग छूटी ! कलेजे में आरण सुलग उठा! फिर भी ठण्डे सुर में बोली, “ थूको अपने मुँह से ! राजा करण की वेला ये क्या मुए- आखर उगल रहे हो...?”

" सच्ची बात कहने पर माँ भी नाराज होती है। थोथी हेकड़ी में कुछ नहीं धरा । खुर रगड़ते कब पींपाड़ पहुँचेगी? बेटे से जल्दी मिलना चाहे तो बोहरे की शरण झेल! चल, पाँच रुपये मत देना। मैंने तो मसखरी की और तू बुरा मान गयी !”

गरीबी निहायत मजबूर होती है। बीमार बेटे से जल्द मिलने की खुशी में उसने आगे कोई आनाकानी नहीं की। चुपचाप मन मारकर छकड़े पर बैठ गयी, मानो चिता पर बैठी हो...!

उस दिन...हाँ उस दिन भी गाड़ी पर ससुराल आयी थी ! छाती तक लम्बा घूँघट निकाले । बाल- बनड़ी ! कित्ता ... कित्ता समय गुजर गया, जैसे कोई जंजाल आया हो! आरण की आँच में उफनता जोबन बुझ गया ! लोहे की छोटी-मोटी चीजों को घड़ने में ही कंचन काया माटी में मिला दी ! धार देते-देते ही समूचा जोबन भोथरा पड़ गया! उफ़ ! अब वे दिन वापस क्योंकर पकड़ में आएँ...?

डोकरी के जर्जर ख़यालों से बैलों का वास्ता ही क्या था ! वे तो अपनी चाल से चल रहे थे। जुता हुआ छकड़ा उसी रफ्तार से गुड़क रहा था । आखिर गुड़कते - गुड़कते बोहरे की मंजिल पास आई। पींपाड़ से कोस भर पहले उसे नीचे उतार दिया। मालियों के कुएँ पर खरीदा हुआ जीरा भरने के लिए छकड़ा तो दाहिन तरफ मुड़ गया और हञ्जा - माऊ कन्धे पर गठरी लटकाए पींपाड़ की राह आगे बढ़ने लगी । डोकरी तो आज हुई है ! समय कब किसकी प्रतीक्षा करता है ?

चार-पाँचेक स्कूली छोकरे हाथ में बस्ता लिए उधर ही आ रहे थे कि सहसा उनके कानों में ठक-ठक की ठपकार सुनाई पड़ी। एक कुड़ी-मुड़ी बुढ़िया हाथ में लाठी थामे सामने ही आती दिखाई दी । वह कुछ पूछताछ करे, उसके पहले ही एक चंचल बालक ने मजाक करते कहा, “ माऊ, मसान तो उधर है, तू इधर कहाँ जा रही है ? रास्ता तो नहीं भूल गयी ?"

सभी बच्चे एक साथ ठहाका मारकर हँसे । हँसने की बात पर बच्चों को खुलकर हँसी आ जाती है । सयानों की तरह वे उसे रोक नहीं पाते।

किसी एक विद्यार्थी की नजर गले की गाँठ पर पड़ी तो वह जोश के साथ बोला, “माई, तेरे गले से चिपकी हुई यह गेंद हमें इनायत कर दे ! खेलते-खेलते घर जल्दी पहुँच जाएँगे ! यह गेंद अब तेरे किस काम की? हमारी तरह खेलने की इच्छा हो तो रख ले !"

हरदम “हञ्जा-माऊ, हञ्जा माऊ” की सुहाती टेर सुनने वाले अभ्यस्त कानों को यकायक भरोसा नहीं हुआ कि मनुष्य के जाये जन्मे बच्चों की यह बोली है ! उसे नहीं पहचानने वाली यह दुनिया अब तक कहाँ छिपी थी ? अजाने गण्डक परस्पर भौंकते जरूर हैं, पर ऐसी बेहूदी मजाक नहीं करते! मनुष्यों की इस बस्ती का यह कैसा माहौल है ? वह सबको पहचानती है और उसे सब पहचानते हैं, इतने बरस यही तो विश्वास था ! इस विश्वास को भ्रम मानने की बजाय मरना बेहतर है ! मुँह पर बैठी मक्खी के उनमान एक ही झपाटे में उसने इस भ्रम को उड़ा दिया ! पर मक्खी भी वापस बैठे बगैर कहाँ मानती है ! उसकी जिद का भी कोई जवाब नहीं ।

थर-थर काँपती लाठी के सहारे वह जस-तस आगे बढ़ी। मानो दुहरी कमर पर अचीता बोझ ढह पड़ा हो। उसी दुर्गम रास्ते पर चार-पाँचेक बच्चे और मिले । वे कुछ मजाक करें उसके पहले ही डोकरी ने सावधानी बरती। पूछा, “तुमने मेरे झोले को कहीं देखा है...?"

एकबारगी तो सभी बच्चे यह अचीता सवाल सुनकर भौचक्के रह गये, पर बुढ़िया का हुलिया देखकर एक साथ हामी भरी, “हाँ, देखा क्यों नहीं, थोड़ी देर पहले ही तो मिला था । "

एक ही काया में जैसे दूसरा प्राण मचल उठा हो ! अमृत- सनी वाणी में पूछा, “कहाँ, अस्पताल में ....?”

“हाँ।”

"कैसा है?"

“बिल्कुल ठीक है । "

बेहद अचरज की बात कि अचीते संकट को ठेलकर वह अथाह आनन्द बुढ़िया की जर्जर देह में समाया तो समाया ही कैसे ? आसीस देते कहने लगी, "जुग जुग जीओ मेरे लाडलो, तुम्हारा राम भला करे। अब एक पल भी धीरज नहीं रख सकती, जल्दी अस्पताल का रास्ता बताओ। तुम सबको अभी टीपरी, चींपिया, कुड़ची और काँटा - कढ़ना दूँगी । तुमने मेरे बेटे के शुभ समाचार सुनाए !”

अस्पताल की राह जानने के बाद हञ्जा-माऊ अतिरेक उछाह से गठरी खोलते बोली, “मेरे सयाने लाडलो, जो इच्छा हो, आधी चीजें उठा लो । आधी झोला की सेवा करने वालों को सफाखाने में दूँगी ! क्यों, ठीक है न? "

उसकी सेवा तो हमने की है। सबने मिलकर की है। यह अतिरिक्त शुभ समाचार सुनाने के उपरान्त सभी बच्चे हड़बड़ी में गठरी पर टूट पड़े ! और एक-एक करके सारी चीजें झपट लीं। गठरी का मैला कपड़ा नादान बुढ़िया के कन्धे पर डालकर, जिधर उन्हें जाना था, उधर ही सरपट भागे ।

मृग छौनों के समान दौड़ते - फाँदते बच्चों की तरफ वह एकटक देखती रही, मानो उसका बाल्य रूप भी उनके साथ हुल्लड़ मचाता दौड़ रहा हो ! यह उम्र ही ऐसी है ! अभी धींगा मस्ती नहीं करेंगे तो कब करेंगे? डोकरी की थकी पुरानी हड्डियों में थोड़ा जोश मचला ! आशा और उछाह से प्रेरित होकर वह वापस मुड़ी और तेज कदमों से जल्दी-जल्दी फासला तय करने लगी। आजू-बाजू और सामने पक्के घर - ही घर । जिधर नजर जाये, उधर मनुष्य ही मनुष्य । अजाने और अपरिचित ।... और पींपाड़ के चन्द लोगों को यह पता चला कि आज तक अजनबी बुढ़िया न जाने क्या सोचकर ठक-ठक लाठी ठपकारती उनकी बस्ती में अचीती प्रकट हुई ! जैसे मौत से रूठकर आयी हो । दुहरी कमर । गले पर बड़ी गाँठ । अदन्त मुँह ।

अस्पताल से बाहर निकलती एक औरत को उसने भिड़ते ही पूछा, “झोला कैसा है..."

“कौन झोला ?"

"मेरा बेटा... मेरा बेटा ! कल दुपहर को रोटी खाते ऐसा छटपटाया कि यहाँ भेजना पड़ा! सौ रुपये... पूरे सौ रुपये मोटर - भाड़े के दिए । सच्ची ... !”

पर हञ्जा-माऊ के सच-झूठ से किसी का क्या सरोकार था? वह औरत उपेक्षा से मुँह बिगाड़कर बोली, “मुझे कुछ पता नहीं, भीतर नरस - बाई से पूछ !”

तब वह लाठी ठपकारती नरस - बाई के पास आई। नरस तो वाकई सरस थी ! बगुली की नाईं सफेद-बुर्राक वेश । साँवली पसम । डोकरी ने अपना बोखा मुँह उठाकर पूछा, “मेरा बेटा भला चंगा तो है... ?"

मुस्कराहट को दबाने की अकारथ चेष्टा करती नर्स ने वापस सवाल किया, “किसका बेटा? कैसा बेटा ? यहाँ तो कई बेटे-पोते आते हैं...!”

“मेरे तो एक ही बेटा है... झोला ... झोला ! कल उसके पेट में ऐसी टीस उठी कि गाँव के लोगों ने जीप में डालकर यहाँ भेजा। पूरे सौ... सौ रुपये भाड़े के दिए । और मैं उसे देखने ठेठ गाँव से पींपाड़ आई । बस्ती के बाहर ही उसकी सेवा - टहल करने वाले बच्चे मुझे रास्ते में मिले ! गठरी खोलते ही उन्होंने सारी चीजें झड़प लीं- कुड़ची, झर, काँटा - कढ़ने, चींपिया और मिरिया ! पीछे फकत यह चिथड़ा छोड़ा। बच्चे जो ठहरे!” यह आपबीती सुनाकर कन्धे पर लटकते कपड़े को नर्स के सामने करती आगे कहने लगी, “पर सोच - फिकर करने की बिल्कुल जरूरत नहीं । झोला के ठीक होते ही तुम्हें ऐसा बढ़िया काँटा - कढ़ना, चिमटा... ।”

“काँटा - कढ़ना ?” नर्स ने अचरज से पूछा, “मैं काँटे - कढ़ने का क्या करूँगी ?"

“क्या करोगी?” वह अदन्त मुस्कान छितराते बोली, “मेरे काँटा-कढ़ने सारे इलाके में मशहूर हैं! कैसा भी गहरा काँटा हो, छिन- पलक में बाहर ! तुम देखती रह जाओगी...! "

न नर्स की हँसी रुकी और न पास खड़ी औरतों की। पर इसमें हँसने की क्या बात! उसने कोई झूठी तारीफ तो की नहीं । चाहे जिससे पूछ लें । फिर भी डोकरी को अटपटापन महसूस हुआ। थोड़ी देर अबोली खड़ी रही। किन्तु बेटे के कुशल-क्षेम की जानकारी बिना तो साँस तक लेना भी दूभर हो जाएगा ! दुविधा संकोच को एक तरफ झटककर मुद्दे की बात पूछी, “मेरा झोला तो ठीक है न?"

सुई भरते-भरते ही नर्स मुस्कराकर धीरे से बोली, “कल बोरुन्दा से आया, वही लुहार न?"

“हाँ-हाँ, वही ! मेरा बेटा ही तो है झोला ... झोला ! कैसा है एकदम ठीक...?"

" डॉक्टर साहब टूर पर थे। जोधपुर भेजना पड़ा।”

चिड़िया के असहाय बच्चे की नाईं उसका दन्तहीन मुँह फटा - का - फटा रह गया। लेकिन मौत भी शायद मुखर होती है ! जड़ता के बावजूद उसकी अपनी चेतना है! अन्तस् का लावा होठों से फूट पड़ा, “यहाँ नहीं है वो ...? बच्चे तो कह रहे थे...!"

" और मैं झूठ बोल रही हूँ? "

“तुम क्यों झूठ बोलोगी! वो... वो कोई दूसरा लुहार होगा । हम तो गाडूलिये लुहार हैं... गाडूलिये । मेरे बेटे का नाम है... झोला...झोला ! पाँच बहनों का एक ही भाई है। और मेरा नाम है- हञ्जा-माऊ । "

“हाँ-हाँ, वही ! कितनी बार कहने से समझेगी। माँ के नाम से हमें कोई मतलब नहीं!"

" पर वे बच्चे तो कह रहे थे कि... ।”

“मैं कहूँ, सो बात सच्ची या बच्चों की बात सच्ची । भगवान बचाए.... !”

नर्स अभी पूर्णतया मुँहफट नहीं हुई थी । अस्पताल की नौकरी करते यह दूसरा ही साल लगा था। गँवार, मूर्ख, जाहिल या इनसे मिलता-जुलता कोई शब्द काम में लेना चाहती थी। पर न जाने क्या सोचकर बीच में रुक गई। मगर हञ्जा-माऊ तो वाकई गँवार थी। नर्स के चेहरे पर उभरे स्पष्ट भाव से भी वह कुछ नहीं समझी। उलटे उसके मुँह से छूटी अधूरी बात का समर्थन करती बोली, “हाँ बाई जी, भगवान तो सबको बचाता है। लेकिन गरीबों पर उसकी खास मेहर-मया रहती है, वरना उन्हें कौन बचाए?"

" इसीलिए तो कहती हूँ कि बेटे से मिलना चाहे तो झटपट जोधपुर चली जा।"

जैसे नींद में सोती हुई का सपना झपटकर कोई चील अलंघ्य आकाश में उड़ गयी हो ! कैसी अचीती विपद के भँवर - जाल में फँसी ! कड़कती बिजली पड़े धुआँ उगलती इस डायन पर ! अगन-देवता इन सबको लील क्यों नहीं जाता ?

दो पाँव और लाठी के सहारे उसकी लाश जैसे-तैसे रोडवेज स्टेशन पहुँची । चारों तरफ मनुष्यों की भीड़। अपने अलावा किसी को भी एक दूजे की परवाह नहीं थी ! फिर भी ठकाठक लाठी ठपकारती बुढ़िया का अजीबोगरीब डौल देखकर हवा में एक फुसफुसाहट फैली। देखने वाली सभी आँखों में विस्मय तथा ठिठोलीयुक्त ऐसा तिरस्कार उमड़ रहा था मानो इससे पहले इनसान का बुढ़ापा देखा ही न हो ! या उसका निरुपाय बुढ़ापा टोहकर उन आँखों को पहली बार यह इल्म हुआ कि देर-सबेर एक दिन सभी का हुलिया ऐसा ही बिगड़ना है ! उन्हें भीतर-ही-भीतर अपार ग्लानि की अनुभूति हुई !

इस बार हञ्जा-माऊ ने किसी से कुछ भी नहीं पूछा । पास खड़ी एक औरत की गोद में दूध पीते बच्चे की ओर वह एकटक देखने लगी सो देखती ही रही । क्या सचमुच उसने भी किसी दिन इसी तरह अपनी माँ की छाती से दूध पिया था ? पुख्ता निर्णय नहीं कर सकी। किसी एक समय की असन्दिग्ध सच्चाई देखते-देखते किस कदर मिथ्या साबित हो गयी ! तो क्या बुढ़िया के रूप में ही वह पैदा हुई थी ? सलवटों की जाली से घिरी दन्तहीन सूरत । दुहरी कमर । सफेद बाल । हो सकता है किसी माँ की कोख से वह पैदा ही नहीं हुई हो। इसी रूप में शायद अँधेरे में ऊपर से टपक पड़ी हो ! ना ना, यह तो समय के विचित्र टोटके ने उसके साथ क्रूर खिलवाड़ किया है ! हाँ, सभी बच्चों की तरह माँ के पेट से उसका भी एक दिन जन्म हुआ था। डोकरी तो आज हुई है! उभरती चढ़ती, उफनती जवानी के कई बरस उपरान्त ! यदि किसी चमत्कारी देवता के वरदान स्वरूप यह प्रपंची समय उलटे पाँव वापस लौटे तो एक बार गुमशुदा जवानी का अपनी आँखों से जी भरकर निहार ले ! आखिर जुहार तो कर ले ! ज्यादा नहीं तो कम-से-कम दो बार बचपन और तीन बार जवानी आनी चाहिए ! एक बार तो गफलत हो ही जाती है ।

बच्चे के मुँह में स्तन की जगह मानो चाँद ही समा गया हो! उस अपूर्व नजारे में खोई हञ्जा-माऊ सब कुछ बिसर गयी थी! अपने बच्चों का जन्म और उन्हें दूध पिलाना तो दूर की बात, अपने इकलौते बेटे का असह्य बिछोह और उसकी बीमारी तक उसे याद नहीं रही। अतीत, वर्तमान और भविष्य, ये तीनों ही काल एक-दूसरे में गड्डमड्ड हो गये थे ।... सहसा दूध पिलाती माँ की नजर बुढ़िया की भीगी आँखों से टकराई तो उसकी घिन व आशंका की सीमा नहीं रही! अदेर अपने बाल-गोपाल के मुँह पर सुरंगी ओढ़नी का पल्लू डाला और पीठ फेरकर खड़ी हो गई। और उसी क्षण हञ्जा-माऊ का सुध-बुध बिसरा बुढ़ापा मानो बिजली की चपेट में आ गया हो ! मौत भी ऐसी निर्मम नहीं होती ! उसके कलेजे में कोई जलती हलवाणी आर-पार हो गयी हो ! क्या आज उसका हुलिया इस कदर डरावना हो गया कि बुरी नजर की आशंका से घबराकर कोई माँ ऐसी सतर्कता बरते ? समय के साथ ऐसा हुलिया तो होना ही था! संसार में वही तो पहली बार बुढ़िया नहीं हुई। फिर भी उस अप्रत्याशित चपेट से उबरने में उसे थोड़ा समय लगा। बिगड़ी बात को सँवारने की नीयत से पूछा, “बिटिया, जोधपुर कौन-सी मोटर जाएगी ?"

मगर बात तो बिगड़ती ही गई। “मुझे क्या पता, जो जाने उससे पूछ !” इस झिड़की के साथ ही वह एक-एक कदम भरती दूर खिसकती चली गई। न जाने कहीं रुकेगी या नहीं !

बुढ़िया की आँखों के सामने घुप अँधेरा छा गया! चेतना के परे ही उसके मुँह से बरबस वैसा ही सघन प्रश्न फूटा, “कौन जानता है, यह तो बता... ?”

मनुष्य की दुनिया जानकारियों से अटी पड़ी है। उसके पास ही खड़ा ठेले. वाला सब जानता था कि कौन-सी मोटर कब रवाना होती है? दूसरे से पूछे गये सवाल का जवाब देने में क्या बुराई है? हाथ का इशारा करते बोला, “जोधपुर तो यह मोटर जाएगी। पर तुझे वहाँ बेकार भटकने की जरूरत क्या है ? यहाँ के मुरदे तो यहीं जलते हैं!" फिर सड़े हुए केले को ऊपर उठाकर परिहास करते हाँक लगाई, “रुपये के आठ, रुपये के आठ... !”

राम जाने वह किस राकसपुरी में आ टपकी ! जमीन पर खड़े रहना उसके लिए असम्भव हो गया । आखिर जोधपुर वाली मोटर में चढ़ने से ही उसकी धड़कन कुछ कम हुई। पास खड़ी एक अधबूढ़ औरत से इच्छा न होते हुए भी पूछ लिया, “तुम कहाँ जाओगी?"

“जोधपुर ।”

" तुम्हारा बेटा भी बीमार है क्या...? "

“कल-जीभी, थूक तेरे मुँह से! मेरा बेटा क्यों बीमार होने लगा ? मौत की देहरी पर आयी और बोलने का भी होश नहीं तुझे !”

हञ्जा-माऊ के काटो तो खून नहीं । माफी माँगते बोली, “ बड़भागिन, नाराज मत हो । हजारी उम्र हो तेरे बेटे की। मेरा बेटा बीमार है, इसलिए नागडसी जबान काबू में नहीं रही !”

"तेरा बेटा बीमार है तो क्या सबके बेटे बीमार होंगे, यह कैसा बेहूदा हिसाब है !" पास की सीट पर बैठे बनिये से जरा भी सब्र नहीं हुआ तो उसने मिरची - बड़ा खाते-खाते कटाक्ष किया।

“खामखाह सीट खाली पड़ी और तू तकलीफ पा रही है। हमें अच्छा नहीं लगता ।” मूँगफली छीलते - छीलते एक सोनार ने नेक सलाह दी, “दही की तरह जम जा ! कोई लाट साहब भी कहे तो उठना मत।"

ड्राइवर वाली सीट की ओर इशारा करते हुए उसने बार-बार आग्रह किया तो हाथ की लाठी एक कोने में रखकर वह बेखटके उस सीट पर बैठ गई। फिर पीछे मुड़कर एहसान दरसाते कहने लगी, “बेटा, तेरा राम भला करे ! खड़े-खड़े कमर टूटने लगी थी। दुनिया में भले आदमियों की कोई कमी थोड़े ही है ! जीते रहो बेटा, जीते रहो!”

मोटर में एक साथ कई यात्रियों का ठहाका गूंजा । एकाध तालियों की आवाज भी सुनाई पड़ी। ऐसे विरल मनोरंजन का संजोग बड़े भाग्य से हाथ लगता है ! पीछे बैठे मुसाफिरों ने खड़े होकर तमाशा देखा और बेइन्तहा खुश हुए ! देरी की सारी झुंझलाहट मिट गयी, जैसे बच्चे का मन बहलाने के लिए कोई झुनझुना मिल गया हो ! क्या जवान, क्या बूढ़े सभी यात्रियों का बच्चों के रूप में कायाकल्प हो गया !

मोटर में निरन्तर भीड़ जुड़ती जा रही थी । जो भी आता उसे अभिज्ञ लोग हाथ का इशारा करके बुढ़िया की नादानी का नमूना बताते। किसी ने कुछ फबती कसी, किसी ने कुछ ताना मारा, मगर हञ्जा - माऊ तो नितान्त अपनी ही उधेड़बुन में उलझी थी।... अब तो जोधपुर पहुँचने भर की देर है ! झोला को सीधे गाँव लाएगी ! जो आफत पड़ी, वही बहुत है । यदि उस समय अबोली नहीं रहती तो यह परेशानी क्यों बढ़ती ? अस्पताल और डॉक्टरों से भगवान बचाए ! हत्यारी मौत की क्या बिसात कि माँ के रहते बेटे को ले जाए ! खुद के मरने पर भी नहीं ले जाने देगी। फिर आज तो वह जीवित है !

चाय-पानी और बीड़ी से फारिग होकर ड्राइवर ने फाटक खोला। उसकी सीट पर यह मरियल-सी बुढ़िया कौन बैठी है? फाटक की खड़खड़ाहट सुनकर वह भी चौंकी। मुँह फेरकर उधर देखा । बड़ी-बड़ी गलमूँछों वाला एक भीमकाय मानुस फाटक पकड़े उसे ही घूर रहा है। गोल मुँह । मोटी आँखें। मटिया वरदी ।

सूरत रोबीली होते हुए भी ड्राइवर सीधा - सयाना था। बेचारी हैरान होकर थोड़ी देर सुस्ताने बैठी तो कोई हर्ज नहीं । सीट का क्या बिगड़ता है ! इस निरीह बुढ़िया में तो उसकी जाँघ जितना भी वजन नहीं है! फाटक पकड़कर ऊपर चढ़ा तो अगल-बगल के यात्री हँसे । उनकी देखादेख दूसरे लोग भी हँसे । ड्राइवर के आने पर थमे हुए हँसी-ठट्ठे में फिर से बहार आ गई! एक मुसाफिर ने कहा, “ड्राइवर मोशाय, आपकी तो अब जरूरत ही नहीं है। जैसे आये वैसे ही लौट जाओ । बुढ़िया सबको ठिकाने लगा देगी ... !”

“मेरा तो अभी गौना ही नहीं हुआ ! आप सब लोग ठिकाने पहुँचें मैं तो यहीं उतर जाता हूँ!” चुँदड़ी का गोल साफा बाँधे एक युवक ने चुटकी ली।

“पर मेरी तो सगाई भी नहीं हुई। आप कहें वैसा करूँ । बुजुर्गों का आदेश सिर- आँखों पर ।” लम्बे बालों वाले एक पढ़े-लिखे छैले ने विनम्रतापूर्वक कहा।

जिसने भी सुना वह खुलकर हँसा । ड्राइवर का बुलन्द ठहाका भी सुनने काबिल था, मानो सीने में छोटा-बड़ा कोई बवण्डर उठा हो ! गलमूँछों की स्याह छवि से दाँतों की धवल हँसी दूनी खूबसूरत लगी। उसने हँसते-हँसते अनुनय के स्वर में कहा, "माँजी, जितनी देर आराम किया, वही काफी है। अब तो बन्दे की सीट खाली करो। मैं आ गया हूँ।”

हञ्जा-माऊ ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब किसी के बहकावे में हरगिज नहीं आएगी! ड्राइवर की मटिया वरदी की रंचमात्र भी परवाह न करके बोली, “तू आया तो ठीक ही आया । आखिर मुझे यह सीट तो छोड़नी ही है । पर अभी नहीं छोडूंगी। ठेठ जोधपुर पहुँचने पर छोडूंगी। मुझे गाड़ी का फेर चढ़ता है! बेकार तंग मत कर।"

“ खड़ी बस में फेर चढ़ने की बात आज तेरे मुँह से ही सुनी।" गलमूँछों पर चमकते कड़ेवाला हाथ फेरते ड्राइवर ने मन्द मन्द मुस्कराते कहा ।

“बेटा, मुझे तो कलमुँही मोटर का नाम सुनते ही फेर चढ़ता है! अपने-अपने की तासीर ! लेकिन सारी मोटर में तंग करने के लिए मैं ही मिली तुझे? मेरी लाचारी और बुढ़ापे का कुछ तो ख़याल कर ।”

रुपये लुटाने पर भी ऐसा तमाशा कहाँ सम्भव है? देरी हो तो हो । कौन-सा मुहूर्त टल रहा है ! हँसी-ठट्ठा करते मुसाफिरों को ही जब उतावली नहीं है तो ड्राइवर क्यों जल्दबाजी मचाए ! गाड़ी चलाते सतरह साल हो गये, पर ऐसा तमाशा नहीं देखा ! बुढ़िया को समझाने की चेष्टा करते कहने लगा, “बुढ़ापे का ख़याल तो रखना ही पड़ेगा । हिन्दुस्तान की तहजीब का तकाजा भी यही है ! पर माँजी, यह तो ड्राइवर की सीट है, खाली किए बिना मोटर चालू नहीं होगी !”

अब तो वह टस से मस होने वाली नहीं है। लिहाज रखने से पार नहीं पड़ेगा। इन मसखरे लोगों का क्या भरोसा ! उन नालायक छोकरों पर विश्वास किया तो सारी चीजें गँवा बैठी। कितना पसीना बहाया था उन्हें घड़ने में ! अदन्त मसूड़ों में एक टीस उठी! "तेरा मन सीधा हो तो कहीं बैठकर मोटर चला ले ! क्या तू बैलगाड़ी के सागड़ी से भी गया- गुजरा है ? जरूरत पड़े तो वह किसी भी जगह बैठकर गाड़ी हाँक सकता है ! मुझे छेड़ने से तुझे क्या मिलेगा ? चुपचाप गाड़ी चलाए सो बात कर । मेरा बेटा जोधपुर अस्पताल में है । हुज्जत करने से और भी देर हो जाएगी!”

“पर यह सीट नहीं छोड़ने से तो कभी पहुँच ही नहीं सकेगी"

तमाशबीन कण्डक्टर भी टिकटों की जाँच छोड़कर पास आ गया था । बुढ़िया की तरफ हाथ बढ़ाते बोला, “ टिकट, अपना टिकट तो बता, माई !”

उसे कुछ समझ नहीं पड़ा कि हाथ फैलाकर यह शख्स क्या माँग रहा है? पर शेष यात्रियों के लिए सोने में सुहागा जैसी बात हुई । कण्डक्टर ने जोर देकर फिर वही तकाजा किया। तब तक अबोध बच्चे की तरह वह अचरज दरसाते बोली, “टिकट ! टिकट फिर कैसा?"

“ शाबाश माई, शाबाश! तू तो वाकई मन्त्री बनने के काबिल है! टिकट ही नहीं लिया और ड्राइवर की सीट पर जम गई !”

“भला मन्त्री को टिकट की क्या जरूरत!” बनिये ने हाथोंहाथ खुलासा किया ।

मोटर के किसी मुसाफिर को आज दिन तक ऐसा आनन्द नहीं आया होगा ! कितने खुशकिस्मत हैं इस बस के यात्री ! कुरते की चाल पर से मूँगफली के छिलके झटकता सोनार गँवार बुढ़िया की पैरवी करते कहने लगा, “माँजी, किसी की घुड़की से यह सीट मत छोड़ना । चतुर ड्राइवर हो तो छत पर बैठकर मोटर चला ले ! असली ड्राइवर की यही तो पहचान है !”

डोकरी के मतलब की बात थी ! खुशी के लहजे में चहकी, “सब जानत हूँ बेटा, मुझे क्या पाटी पढ़ा रहा है? मैंने नमक खाया उत्ता तूने आटा भी नहीं खाया..."

“ तभी तो तेरे सिवा कोई दूसरा ड्राइवर की जगह नहीं बैठा।” इंजन के पास वाली सीट पर बैठे एक मुसाफिर ने मिलती मारी !

एक रात और कुछ ही घण्टों में हञ्जा-माऊ ने पूरी शताब्दी की पीड़ा का अनुभव कर लिया ! ऐसा विरल अनुभव जो समय व शिक्षा का मोहताज नहीं होता! तुरन्त जवाब दिया, “मैं अपनी मरजी से थोड़े ही बैठी। एक भले आदमी ने बार-बार कहा तो मुझे बैठना पड़ा! दूसरी ठौर खाली ही कहाँ थी, जिस पर बैठती, तू ही बता...!"

" मैंने पानी नहीं पिया, उत्ता तूने घी खाया। घी खाने से ही अकल आती है।" मौका मिलने पर सोनार कब चूकने वाला था !

हर तरफ से हँसी का फव्वारा छूटा ! मनुष्य के गले में इससे ज्यादा हँसी की गुंजाइश भी नहीं होती ।... पर कित्ते ही जोर से हँसो, चाहे रोवो, हञ्जा-माऊ अब किसी के झांसे में नहीं आएगी! हँसी की बाढ़ थमने पर हाथ जोड़ते बोली, “तुम इत्ते सारे और मैं अकेली ! कैसे मुकाबला करूँ? मैंने तो किसी को अपनी सीट छोड़ने के लिए नहीं कहा ! भले आदमियो, मैं तुम्हारी माँ के समान हूँ ! कुछ तो मान रखो !"

बुढ़िया के आने से पहले सभी यात्रियों को मार उतावली थी ! ड्राइवर और कण्डक्टर पर मन-ही-मन झुंझला रहे थे ! पर अब इस आनन्द के प्रवाह में सारी झुंझलाहट लुप्त हो गई ! मुफ्त का यह आनन्द जित्ता बढ़े उत्ता ही अच्छा है। वरना आज के निरानन्द जीवन में धरा ही क्या है? ड्राइवर ने फिर भी संयम नहीं खोया। “माँजी, मान-मरजाद का ख़याल है, तभी तो तुम्हारे निहोरे कर रहा हूँ । कोई दूसरा पट्ठा तुम्हारी जगह होता तो बाँह पकड़कर नीचे फेंक देता! यकीन करो माई, यह सीट मेरी है मेरी ! "

" तू क्या रामजी के घर से लिखत करवाकर लाया ? "

“हाँ माँजी, इस सीट का तो लिखत ही समझो! खुद भगवान भी आये तो इस पर नहीं बैठने दूँ...!”

“बेटा, इत्ता गुमान मत कर ! आज दिन तक किसी की गादी अमर नहीं रही ! फिर इस नाकुछ सीट की तो बिसात ही क्या ! मेरे राजा बेटे, तू कहीं और बैठकर गाड़ी हाँक ले। किसी से हुज्जत करने की मेरी सगति नहीं है । "

" हुज्जत तो तू कर रही है। ड्राइवर की सीट पर बैठे बिना मोटर चालू कैसे होगी?"

“पर यह सीट खाली कहाँ है? मैं बैठी तो हूँ !”

“ तो तू मोटर चला ले, मुझे कोई उजर नहीं ! ले सँभाल यह चाबी ! " गलमूँछों वाले ड्राइवर ने बुढ़िया के सामने चाबी बढ़ाई और चारों तरफ मुस्कान उछाली ! तालियों की गड़गड़ाहट के साथ फिर हँसी का बवण्डर लहराया ! कहीं आँत पर आँत न चढ़ जाए! ऐसी शानदार हँसी की चर्चा सुनना भी सौभाग्य की बात है! मगर बस के मुसाफिर तो उसके प्रत्यक्ष भागीदार थे ! फिर किसे उनके भाग्य से ईर्ष्या नहीं होगी !

ड्राइवर के हाथ में थमी चाबी को उसने सूनी निगाह से देखा और आह भरकर बोली, “मुझे मोटर चलानी आती तो इत्ते ताने क्यों सुनती ? यदि तू ऐसा ही तीसमारखाँ है तो खड़ा खड़ा ही मोटर चला ले !”

"यह कोई हिंयोड़ी है जो खड़े-खड़े हाँक ले!” कण्डक्टर ने बगलें नचाते हुए प्रतिवाद किया।

“तो पाजियो, ऐसा काठ-कबाड़ रखते ही क्यों हो? मैं तो आज बुरी फँसी ! मैं तुम्हारा क्या बिगाड़ा ? छोटे-बड़े सबके पाँव पड़ती हूँ, आज, आज तो मेरी बात मान लो । फिर तो मरते दम तक मोटर में नहीं बैठूंगी !”

"अर्थी पर सोने के दिन आये, फिर भी सन्तोष नहीं होता!" एक पण्डित ने ज्ञान का अन्तिम मन्त्र सुनाया !

"झोले की बीमारी ने यह कहर ढाया, वरना इन कल-निसासी डायनों के पीछे सात बार धूल उछालती हूँ! कल रोटी खाने के बाद वह ऐसा निढाल हुआ कि जीप में डालकर यहाँ भेजना पड़ा। और यहाँ बात नहीं बनी तो उसे जोधपुर टरका दिया! उससे मिले बिना पानी भी नहीं पीऊँगी । और एक तू है जो मुझे कब से राँध रहा है !"

ड्राइवर हाथ जोड़ने का अभिनय करते कहने लगा, “माँजी, मेरा विश्वास न हो तो किसी से भी पूछ लो । मैं इस सीट पर बैठूंगा, तभी गाड़ी चलेगी।”

हञ्जा-माऊ की झुंझलाहट अब फट पड़ने को थी । मसूड़ों को रगड़ते बोली, “अब किसी से कुछ भी नहीं पूछूंगी। अभी-अभी तेरे सामने एक मुटियार ने कहा कि चतुर डलेवर हो तो छत पर खड़ा खड़ा ही मोटर चला ले ! सुना नहीं तूने?"

"दादी अम्मा, तू तो बच्चे से भी ज्यादा भोली है। ये सब तुझ से ठिठोली कर रहे हैं।"

“क्या पता कौन ठिठोली कर रहा है? मुझे तो तू सबका सगरना मालूम पड़ता है ! पिछले जनम का कोई हिसाब तो बाकी नहीं है... ?”

ऐसा परम आनन्द तो सोने में अजहद मिलावट करने पर भी नहीं आता ! सोनार उसे फिर उकसाने की कोशिश करते बोला, “माँजी, थोड़ी देर और डटे रहना । मैं तेरे साथ हूँ ।"

सारे यात्री तालियाँ बजाकर जोर से हँसे । औरतें, बच्चे और बुड्ढे सभी । यह रामायण तो उम्र भर याद रहेगी। देर हुई सो ठीक ही रहा । समय पर पहुँचकर कोई हीरे-मोती तो बीनने नहीं हैं ! और ये रोडवेज के उड़न खटोले चलते-चलते ही टें बोल जाते हैं !

साथ देने की बात सुनते ही उसके अन्तस् में आग - आग भभक उठी । लोगों का साथ जुड़ने से ही यह दुर्दिन देखना पड़ा। आरण का कदीमी ठिकाना छोड़कर यह तोहमत झेलनी पड़ी! मनुष्यों की जबान से साँपों के बोल सुनने पड़े । कड़कती वाणी में बोली, “मुझे किसी के साथ - वाथ की जरूरत नहीं ! तेरा जोर हो सो कर ले। अब तो मरने पर भी यह ठौर नहीं छोड़ेंगी । "

" मरने पर तो दुनिया ही छोड़नी पड़ेगी! जिन्दा रहते यह सीट नहीं छोड़े तो तेरी मर्दानगी है !” बनिये ने बीड़ी की खातिर तीली सुलगाई ।

बनिये के परिहास ने ड्राइवर के दिल पर सीधी चोट की। अन्तिम बार चुनौती के लहजे में पूछा, “बोल डोकरी, मेरी सीट छोड़ेगी कि नहीं...?”

“नहीं, नहीं छोड़ेंगी। हरगिज नहीं छोड़ेंगी। गरीब बुढ़िया समझकर तू मेरे पीछे क्यों पड़ा है? दूसरों पर जोर जताते जूड़ी बँधती है ! क्यों ? "

यह बुढ़िया तो जबरदस्त हेकड़ीबाज निकली। समझाने से थोड़े ही मानेगी। गलमूँछों की इज्जत तो रखनी ही पड़ेगी! व्यंग्य से मुस्कराते बोला, “इस बेकार की बकवास में कुछ नहीं धरा । यह सीट तुझे क्या, तेरे सात पुरखों को छोड़नी पड़ेगी... !”

बुढ़िया को हाथों पर उठाया तो एकदम हलकी । कुछ भारीपन की आशा थी । ड्राइवर की ताकत को थोड़ी ठेस पहुँची। शरीर में ताकत है तो कभी-न-कभी काम आएगी। आज नहीं तो कल । बुढ़िया अपनी औकात के अनुसार खूब छटपटाई, बेहद गिड़गिड़ाई| पर ड्राइवर ने एक भी नहीं सुनी, जैसे नितान्त बहरा हो गया हो। मरते समय क्या मौत भी इस तरह गोद में उठाती है? अपनी ताकत आजमाती है...?

बुढ़िया को हाथों पर उठाए उठाए वह फदाक मारकर नीचे कूदा और उसे गुड़िया की मानिन्द जमीन पर खड़ी कर दी !

“टिकट लेकर पिछली बस में आ जाना। इतनी भीड़ नहीं होगी। मगर ड्राइवर की सीट छोड़कर ध्यान से बैठना।” यह हिदायत देकर वह दूसरे ही क्षण रुआब से वापस चढ़ गया। सीट पर बैठते ही उसने धीमे से खटका दबाया । उसका अहंकार मोटर की धर्र- धर्र के बहाने चारों तरफ हुंकार मचाने लगा ! पर हञ्जा-माऊ के लिए उस धरधराहट में दुत्कार भी कम नहीं थी !

“ओह ! बेचारी बुढ़िया की लाठी तो यहीं रह गयी!" एक विधवा औरत के याद दिलाते ही ड्राइवर ने लाठी नीचे पटक दी। संज्ञाविहीन हञ्जा - माऊ की सुध-बुध लौटी तब तक काला निःश्वास छोड़ती मोटर तो रवाना हो चुकी थी ! पाँच-सातेक अधकचरे शिक्षित छैलों ने हाथ नचा - नचाकर टा-टा भी किया ! लेकिन हञ्जा-माऊ कुछ भी पहचान नहीं सकी कि यह किसकी बोली है? मनुष्य की तो नहीं लगती ! वह एक ही ठौर पत्थर की मूरत के समान अविचल खड़ी थी । झुकी झुकी सी कमर । हाथ की लाठी पाँवों से कुछ दूर पड़ी थी । हाथ में थामने के बाद फिर वही ठकाठक की ठपकार सुनाई देगी! न जाने कितनी देर बाद ? कितनी दूर तक ?... बिजली पड़े इनकी धरधराहट और काले धुएँ पर ! एक डायन तो धुआँ छोड़ती उसके झोले को दूर-ही-दूर ले गयी और दूसरी चुड़ैल उसे पीछे छोड़कर आगे रवाना हो गई ! काली - जहरीली साँस छोड़ती ! अब इन डायन चुड़ैलों की निर्मम गति के साथ किसी का कैसे सम्पट बैठे? बीमार बेटे का वापस माँ से कब मिलाप होगा? माँ के बगैर उसे कौन दुलराएगा? मौत का सब्र हो जाता पर दूरी का सब्र नहीं होता ! यह दूरी तो मौत से भी अधिक भयानक है ... !!

12 अप्रैल, 1994 मंगलवार,
साँझ छह बजे

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