Divodas (Hindi Novel) : Rahul Sankrityayan

दिवोदास (उपन्यास) : राहुल सांकृत्यायन

दो शब्द

'दिवोदास' लिखने का ख्याल बहुत वर्षों से था। मेरे ऋग्वैदिक आर्य ग्रंथ को इस ग्रंथ की बड़ी भूमिका समझिये। इसलिए यहाँ बहुत लिखना नहीं चाहता। स्वास्थ्य के कारण मुझे कार्य को कर डालने का ख्याल हुआ। इसलिए लघु उपन्यास लिखना पड़ा।

ऋग्वेद-काल की घटनाएँ उपन्यास का विषय हो सकती हैं - शंबु-विजय और दाशराज्ञ-युद्ध, शंबर-विजय आदि के रूप में दिवोदास के पुत्र सुदास के समय आर्यों के भीतर दाशराज्ञ का गृहयुद्ध हुआ। हो सका तो आगे लिखूँगा।

-राहुल सांकृत्यायन

3-7-61

डाबर भवन, कलकत्ता

अनुक्रम

सात पुरियों का ध्वंस
सरस्वती-तीर
अश्व-समन
भरद्वाज-कुल
दिवोदास राजा
गंधर्व-गृहीता कुमारी
भुज्यु की रक्षा
अतिथि गुह (महान् अतिथिसेवी)
अबला सेना
पूर्वज पितर
सारथी कुत्स आर्युनेर
ऋजिश्वा का युद्ध

1. सात पुरियों का ध्वंस

[१२२० ई. पू.]
"सप्त यत् पुरः शर्म शारदीर्दर्दत् दासी : "

सप्तसिन्धु (पंजाब) की गर्मियाँ असह्य होती हैं । वहाँ के शरद के बारे में वह बात नहीं कही जा सकती, लेकिन वह कड़ी जरूर होती है । लोग उसे बड़ा सुहावना मानते हैं । सप्तसिन्धु के आर्यों के पास जीवन के आनन्द लेने के लिए समय की कमी नहीं थी । कृषि से उन्हें थोड़े से जौ पैदा करने की जरूरत थी, जिसमें सत्तू, अपूप (रोटी) का काम चल जाय। उनकी असली जीविका पशुओं पर निर्भर करती थी । वह कामना करते थे - "कल्याण हो हमारे घोड़ों, भेड़ों, बकरियों, नर-नारियों और गायों का ।” (ऋक् १।४५|६ ) । इन्हीं अपने पशुओं को ले वह चराते रहते थे । राजा और उनमें इतना ही अन्तर था कि जहाँ साधारण आर्य परिवार में पशुओं की संख्या कुछ सौ होती थी वहाँ राजाओं के पास हजारों हजार होती थी । पणियों के समृद्ध नगरों को आर्यों ने तीन शताब्दियों पहले जीता था । वहाँ के आर्य नागरिक जीवन के सुख के इच्छुक नहीं थे । उन्हें अरण्यों और क्षेत्रों का खुला जीवन पसन्द था । इसीलिए वह नगरों में बसने के लिए तैयार नहीं हुए। ग्राम भी उन्हें बाँध नहीं सकते थे । (वस्तुतः ग्राम शब्द अभी परिवारों के झुण्ड के अर्थ में आता था । ) खेतों के पास उनके कुछ घर भी होते थे, पर घरों में बसकर वह अपने पशु का चारण कैसे कर सकते थे । वर्षा उनके लिये सबसे कष्ट और भय का समय था, क्योंकि इस समय सातों सिन्धु ही नहीं, नब्बे स्रोत्या (छोटी नदियाँ) और हजारों नाले उमड़ पड़ते थे । आर्यों के घर बह जाते थे, पर उसकी उन्हें उतनी चिन्ता नहीं थी जितनी कि अकस्मात् धारा के प्रबल हो जाने पर पशुओं के विनाश से । आर्य पुरोहित बराबर इन्द्र और पर्जन्य की स्तुति करते रहते थे । उनके लिए सोम (भाँग) और होम तैयार करते थे। पर देवता कब किसी के वश में हुए ? एक ओर वर्षा में सारी भूमि को हरितवसना, सभी जगह पशुओं के चरने के लिये लम्बी-लम्बी घासों को देखकर उनके मन में खुशी होती थी, तो दूसरी ओर वरुण की लाल-लाल आँखें भी उनके सामने सदा रहती थीं । न जाने कब उनका इशारा पा नदियाँ मन- मानी करने लगें ।

गर्मी में इस तरह का कोई भय नहीं था । पर वह अपने अन्तिम दो महीनों में अत्यन्त उग्र हो उठती थी । अपने ऊनी वस्त्रों, चमड़े के परिधानों को पसीने से तर देखकर उन्हें दूर हटाने के लिए वह बाध्य होते थे । कभी-कभी नग्न होने का भी मन करता पर पूरी नग्नता उनके समाज में पसन्द नहीं की जाती थी। शरद उन्हें बहुत प्रिय थी इसीलिए सौ शरद जीने की कामना करते थे। शरद बिताने के लिये वह सबसे उपयुक्त स्थान ढूँढ़ते थे, जहाँ उनके पशुओं के लिए चरने का पूरा सुभीता, प्राणियों को शरद के आनन्द लेने का अवसर हो ।

आर्यों के अब पाँच नहीं पच्चीसों जन हो गये थे। लेकिन मूल पाँच जनों - पुरु, यदु, द्रुह्यु और अनु का अब भी मान ज्यादा था, अब भी वह अधिक शक्तिशाली थे । पुरु जन सप्तसिन्धु के पूर्वी अंचल पर परुष्णी (रावी) से सरस्वती तक फैला हुआ । कुशिक, भरत, तृत्सु आदि उसकी कई शाखाएँ हो गयी थीं, तो भी मूल पुरु जन का सम्मान अधिक था । उसके नेता (राजा) का सभी बड़ा आदर करते थे । आर्य राजाओं और सूरियों (राजकुमारों) में उसको प्रथम स्थान मिलता था । पुरु राजवंश वीरता, निर्भीकता में सबसे आगे रहता था । हरेक पौरव राजा अपने जीवन में ऐसा काम करना चाहता था, जिससे पता लगे कि पुरु कुल की वीरता में अब भी कोई कमी नहीं आई | पुरु सप्तसिन्धु के पूर्वी अंचल पर बसे थे । यहाँ यमुना के पार अब भी कृप्ण त्वत्तों (असुरों) की दुनिया थी । उसके उत्तर में दुर्दान्त किलात रहते थे। इस प्रकार उन्हें संघर्ष का अवसर बराबर मिलता रहता था । फिर उनकी ताँबे की तलवारें कैसे भोथी हो सकती थीं ?

दृषद्वती (घग्घर) के कछार में दोनों तरफ घासों का मैदान वहाँ तक फैला हुआ था, जहाँ से घना जंगल शुरू हो जाता था । ऐसी समतल भूमि को पाकर पणि खेतों का स्वप्न देखते, लेकिन पशुपालों को क्षेत्र से अधिक गोचर भूमि पसन्द आती है। इसी मैदान में कहीं बड़े-बड़े सींग और बड़े डील-डौल वाली गायें महाकाय वृषभों के साथ फैली हुई थीं । घोड़ियाँ अधिकतर लाल, किन्तु कुछ सर्वश्वेत और दूसरे रंग के भी अश्व चर रहे थे । सुपुष्ट शरीर और पोरिसे भर-भर के अश्व अपने स्वामियों के सर्वप्रिय प्राणी थे। बरसातों में दृषद्वती अवश्य विकराल रूप धारण करती थी, परन्तु यह शरद का समय था । धारा इतनी रह गयी थी, जितनी कि उसके आश्रित पशुओं और मनुष्यों के लिये आवश्यक थी । धारा के पास ही झोपड़ियों का एक समूह था, वह हाल ही में बनी थीं। जंगल से फूस और लकड़ियों को काट कर इन्हें तैयार किया गया था। रात में सिंहों और द्विपियों (वघेरों) का पशुओं के लिए डर था, इसलिए झोपड़ियों के बाहर की दीवारों को मजबूत लकड़ियों से तैयार किया गया था। नदी की ओर छोड़कर इन झोपड़ियों की तीन तरफ दीवारें खड़ी की गयी थीं, जिनमें भी लकड़ी का उपयोग हुआ था । दृषद्वती यद्यपि आगे चल कर दृष्दों (पत्थरों) वाली नहीं रह जाती थी; यहाँ वह सचमुच दृषद्वती थी । इस स्थान से वृहत् पर्वत बहुत दूर नहीं थे, पर पुरुओं को उनसे कुछ लेना- देना नहीं था ।

पशुओं की संख्या और झोपड़ियों के विशाल ग्राम को देखने ही से मालूम हो जाता था कि यह साधारण आर्य कुलों का आवास नहीं है। यहाँ पुरुओं का राजा पुरुकुत्स रहने आया था। राजा पुरुकुत्स के साथ इतने अधिक पशुओं और पुरुषों का होना स्वाभाविक था । ग्राम में पुरुष अधिक थे, स्त्रियों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी | तरुण आर्य दाढ़ी रखना पसन्द नहीं करते थे। हाँ, अपनी सुनहरी मूछों पर उनको गर्व था, पर प्रौढ़ होते ही सुनहली दाढ़ियों का उन्हें शौक हो जाता था । दाढ़ियों का सम्मान कुछ अधिक था । तरुण उनके रोब में आ जाते थे, शायद यह भी कारण हो दाढ़ी बढ़ाने का । एक प्रौढ़ नेता ने स्वीकार करते हुए कहा था- "मेरा शरीर छोटा है, मुँह भी उसी के अनुकूल है, यदि रंग में अन्तर न होता, तो मुझे लोग किलात कहने लगते । दाढ़ी रखने से चेहरा भी जरा मालूम होता है ।" हो सकता है, दाढ़ी बढ़ाने का यह भी कारण हो । फिर दाढ़ी रखने से आदमी बप्ता (हजाम) के फंदे से बच जाता है । इस बात का इस आयु में डर ही नहीं था कि कोई मुस्कराती युवती उसे देखकर भौंहें तान देगी । प्रौढ़ पुरुष को अब किसी तरुणी के हृदय चुराने की आशा नहीं हो सकती थी ।

यद्यपि पुरुग्राम स्थायी ग्राम नहीं था, पर तो भी पशुओं- प्राणियों की सभी तरह की आवश्यकताएँ तो वहाँ निश्चित थीं, इसलिए झोपड़ियाँ निश्चित क्रम से बनी हुई हैं। घोड़ों के लिए अलग बाड़े हैं गायों के लिए अलग । इसी तरह भेड़-बकरियों के लिए अपने-अपने बाड़े थे । अन्धेरा होने से पहले ही वह अपने-अपने बाड़ों में पहुँचा दिये जाते । सूर्योदय के साथ दूध दुहे जाने वाली गायों को छोड़ बाकी जंगल की और हाँक दिये जाते । धेनुएँ भी थोड़ी देर बाद उनका अनुसरण करतीं । उषा के आगमन की प्रतीक्षा हरेक ग्राम बड़ी उत्सुकता से किया करता । निशा का अँधेरा कितने अज्ञात भयों का वाहक होता है | मनुष्य - शत्रु के किसी समय आ पड़ने की आशंका रहती है । फिर उनसे भी अधिक संख्या में भूत-प्रेत दृषद्वती के तट पर घूमा करते हैं । कोई आर्य योद्धा रात को अकेले हाते से बाहर जाने की कामना नहीं करता । दो पर दस बहुत होते हैं ।

लकड़ी की बाड़ों वाली मोर्चाबन्दी से घिरी पुरुओं की पुरी में सर्वत्र जीवन दिखाई पड़ता । कुछ लोग पशुओं के बाड़ों की सफाई में लगे थे । स्त्रियों ने घर सँभाला । तरुण अखाड़े में उतरे । आर्य निर्बल को मृत के बराबर समझते । तुवि (मोटी ) ग्रीवा, ऊँचा कंधा, चौड़ी छाती, पुष्ट पंजे सम्मानित थे । स्वभावतः ही वह दीर्घकाय होते । किलात और पणि उनके सामने बच्चे से दिखाई पड़ते । अपनी स्वाभाविक शरीर सम्पत्ति को और बढ़ाने की उनमें बड़ी कामना होती । इसलिए आर्य ग्रामों में सबेरे के वक्त अखाड़े में भीड़ हो जाया करती । सभी शारीरिक व्यायाम में लगते, मल्लयुद्ध का अभ्यास करते, इससे शरीर ही पुष्ट नहीं होता, बल्कि द्वन्द्वयुद्ध में भी बड़ी सहायता मिलती । प्रौढ़ और युद्ध मल्ल तरुणों को अपना हरेक कौशल सिखलाते । वहाँ दसियों अखाड़े थे । पुरुओं का राजा स्वयं एक मल्लयोद्धा था । आयु २५-२६ से अधिक नहीं होगी। कुछ लालिमा लिए मक्खन जैसे श्वेत उसके मुख को देखते ही आदमी कह देता, यह असाधारण पुरुष है।

पुरुकुत्स असाधारण कुल में पैदा हुआ असाधारण पुरुष था ही । पहले वह एक-एक करके सभी अखाड़ों में गया उसके शरीर पर घुटनों से जरा नीचे तक का अधोवस्त्र था, ऊपर चमड़े की द्रापि ऐसे बाँधे हुए था, कि दाहिना हाथ बाहर निकला था। ऊनी द्रापि भी आर्य पसन्द करते, पर पुरुकुत्स को लाल चमड़े की द्रापि अधिक पसन्द थी । राजा के अनुरूप उसे सोने के तारों से सँवारा होना चाहिए था। लेकिन पुरुकुत्स सादगी पसन्द करता था। उसके साथ चलने वाले सूरि (सूरमा, राजकुमार) भी उसकी ही तरह सुदृढ़ - शरीर थे, पर वह सबसे अधिक लम्बा और उसी के अनुकूल आयताकार था । उसे देखकर यदि लोग इन्द्र का नाम लेते हों, तो अचरज नहीं । जैसे देवों में इन्द्र वैसे ही मनुष्यों में पुरुकुत्स था । बल्कि वह इन्द्र से भी अधिक सुघड़ था, इन्द्र वपोदर (तुंदिल ) है, जबकि पुरुकुत्स के उदर में चर्बी का नाम नहीं, बस पेशियाँ थीं। कमर कितनी क्षीण और वक्ष कितना विशाल था ? कन्धे तो मानों साँड़ के डील की तरह उभरे हुए थे । वह सरल गति से एक अखाड़े से दूसरे अखाड़े में जा रहा था । उसकी गति में भी गम्भीरता के साथ सौंदर्य था, यौवनसुलभ चंचलता उसमें नहीं थी । एक अखाड़े में वह द्रापि हटा अधोवस्त्र के स्थान पर छोटा कपड़ा बाँध उतरा । कसरत के बाद वह तरुणों के साथ मल्लयुद्ध करने लगा । पसीने-पसीने हो गया; लेकिन थकने का नाम नहीं लेता था । पुरु लोग अपने नेता के पौरुष को देखते आनन्दित हो रहे थे ।

व्यायाम समाप्त हुआ। कुछ विश्राम कर पुरुकुत्स विशाल अग्नि- शाला में पहुँचा । ऋत्विज-जिनमें सफेद दाढ़ी-मूंछ वाले कितने ही वृद्ध ऋषि भी थे-अग्नि की जोर से स्तुति करने लगे । घृत और जौ का होम होने लगा । पुरुकुत्स स्वयं अग्नि के पास कुशासन पर बैठा । चारों तरफ मिट्टी और ताँबे के कलशों में सोम (भाँग) भर कर रखा हुआ था। अग्नि को सोम अर्पित किया गया। देवताओं को अर्पित किये बिना कुछ भी खाना आर्य पाप समझते । अग्नि के बाद इन्द्र का भी आवाहन होता । इन्द्र के पौरुष के साम गाये गये । प्रातः सवन इस तरह समाप्त हुआ, जबकि हवन के बाद सत्तू के साथ उपस्थित आर्य नर-नारियों ने अग्निशाला में सोमपान किया । यह कोई विशेष दिन नहीं था, दिन के काम पड़े रहने के कारण इस समय सोमपान को अतिमात्रा में बढ़ाया नहीं जा सकता था ।

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सायं सवन बीत चुका था। सभी आर्य रक्ताक्ष थे, सोमपान में कोई सीमा नहीं होती थी, यद्यपि पुरुपुरी में सख्त हिदायत थी कि पान में अतिरेक से काम न लिया जाये । पुरुकुत्स पान की होड़ में किसी से पीछे नहीं रहने वाला था, पर उसमें स्वाभाविक संयम था । कभी उसे सोम द्वारा भी बुद्धि खोये नहीं देखा गया । आधी रात होने में कुछ देर थी, जबकि वह अपने सात मित्रों के साथ किसी गम्भीर मंत्रणा में लगा हुआ था । एक मन्त्री ने कहा-

किलात यहाँ से एक योजन से अधिक दूर नहीं हैं । उनके पास हजारों पशु हैं । नरम ऊन वाली मोटी-मोटी भेड़ों से सात जंगल भर गया ।

— लेकिन, अभी तो किलातों के पहाड़ से नीचे उतरने का ठीक समय नहीं है ।

— ठीक समय न हो, पर शरद का आरम्भ हो गया है, इसलिए हिम के भय के मारे उन्हें ऊपरी पर्वतों को छोड़ना ही पड़ता है ।

तीसरे प्रौढ़ ने कहा- अबके साल सर्दी जल्दी आयी है इस साल वर्षा भी बहुत और लगातार चार महीनों तक होती रही। कहते हैं, जब हमारे यहाँ वर्षा होती है, तब ऊपर के पहाड़ों पर हिम पड़ जाती है शायद इस कारण किलातों ने नीचे आने में जल्दी की हो ।

प्रथम पुरुष ने और बातों का पता देते हुए कहा- किलात अभी अपने पुर (मोर्चाबन्दी) को सुव्यवस्थित नहीं कर सके हैं।

पुरुकुत्स ने कहा—पर उनके आदमी तो सभी आ चुके हैं। लेकिन कोई बात नहीं । हमें इन देवद्वेषियों कृष्णत्वचों की गायों और अजा- अजवियों की आवश्यकता है । इन्द्र की आज्ञा है कि देव-द्वेषी के पास धन नहीं होना चाहिए। हम कई साल से सोच रहे हैं, लेकिन देवताओं के प्रति अपने कर्त्तव्य को पूरा नहीं कर सके ।

तीसरे मंत्री ने मंत्रणा दी-अभी तक हम पणियों और वनचरों (निषादों) को ही अपना शत्रु बनाये हुए थे । पर्वतीय किलात दूसरी ही तरह के हैं । यह बड़े दुर्दान्त और युद्ध करने में निपुण हैं। शरीर में ये हमसे अवश्य खर्व होते हैं, पर युद्ध में नहीं । हमारे पूर्वजों ने एकाध बार इनसे छेड़-छाड़ की। उन्हें मालूम होते देर नहीं लगी कि वह न पणियों की तरह युद्धोचित स्वभाव से वंचित हैं और न निषादों की तरह निरे साधन-हीन वन्य प्राणी । इसीलिए आर्यों ने किलातों से अभी तक गम्भीर छेड़-छाड़ नहीं की ।

दूसरे मंत्री ने कुछ सहमति प्रकट करते हुए कहा – पण और निषाद को हम दास बनाकर अपने पास रख सकते हैं, पर किलात को दास बनाना अभी तक संभव नहीं हुआ, जैसा कि गवय ( नील गाय ) को हम पालतू नहीं बना सके । मृग की जाति का यह जन्तु मांस में उससे कई गुना अधिक होता है। दूध भी बड़ी बकरी से कहीं अधिक दे सकता है, यह उसके विशालकाय से मालूम होता है । यदि हम उसे पालतू बना सकें, तो वह हमारे बड़े काम का होगा । परन्तु गवय बच्चे को पकड़कर भी हम उसे पालतू बनाने में कभी सफल नहीं हुए ।

कुत्स — हम किलातों को दास भले ही न बना सकें, पर उनके पशुओं को तो पा सकते हैं ।

पहला मन्त्री — और उनकी गोचरभूमि की भी हमें आवश्यकता है । हमारे स्तोक-तनय (परिवार) बढ़ रहे हैं, पशु बढ़ रहे हैं । हमें और भी गोचर भूमि की आवश्यकता है ।

कुत्स—इन्द्र पर विश्वास होना चाहिए । इन्द्र अजेय है। उसकी आज्ञा पालन करना हमारा कर्त्तव्य है ।

क्षीर जैसे श्वेत श्मश्रु (दाढ़ी) वाले पुरोहित अब तक मन्त्रणा में भाग नहीं ले रहे थे । अब उन्होंने राजा की बात का समर्थन करते हुए कहा—कुत्स ठीक कह रहा है। मघवा कई बार कह चुका है कि मैंने इस विस्तृत मही को आर्यों को दिया । इसीलिए वह हमारे हरेक संग्राम में साथ होता है। उसने चेतावनी दी-“यदि पुरु लोग इन्द्र-शत्रुओं से इस भूमि को मुक्त नहीं करेंगे, तो मैं उनका साथ छोड़ दूँगा ।"

और विचार करने की आवश्यकता नहीं थी । इन्द्र पहले ही दासों (किलातों) की सात पुरियों को ध्वंस करने का वचन दे चुका था ।

चारों ओर अन्धकार था । उषा के आने में भी देर थी। इसी समय पुरुपुरी में गर्गरा बजी । एक क्षण में सभी जग उठे । पुरु तरुण और प्रौढ़ विशालकाय लाल-लाल घोड़ों पर सवार हो गये । पुरुकुत्स सबसे पहले अपने अरुण अश्व पर सवार हुआ । उसके सिर पर अयःशिप्र (ताँबे का शिरस्त्राण) था । शरीर पर द्रापि यद्यपि लाल चमड़े की थी, पर उस पर सुनहला काम दिया हुआ था । बायें कंधे से धनुष लटक रहा था और दाहिनी कमर से असि पीठ पर इषुधि (तुणीर) के साथ दो हाथ लम्बा डेढ़ हाथ चौड़ा चर्म (ढाल) बँधा हुआ था । रह-रह कर अपनी बड़ी-बड़ी सुनहली मूँछों पर उसका हाथ चला जाता था । उसने मेघ गम्भीर स्वर में कहा-

सूरियो, उषा की स्तुति हमें दासों की पुरी में पहुँच कर करनी है, जल्दी।

सारी पुरु सेना उत्तराभिमुख रवाना हुई । संख्या पाँच सौ से कम न होगी । पर, देखने में वह उससे कहीं अधिक मालूम होती थी । सभी चुने हुए सुपुष्ट दीर्घ शरीर वाले योद्धा थे । उनके घोड़े भी साधारण लम्बे ऊँचे थे। सभी लाल रंग के थे। योद्धाओं के शरीर पर भी लाल ही रंग की द्रापियाँ थीं । अँधेरे में चलते वक्त सिर्फ घोड़ों के टाप की आवाज सुनाई पड़ रही थी, आकृति अन्धकार से मिल कर एक हो गई थी वह जंगल से बाहर-बाहर दृषद्वती के तट के समीप दौड़ रहे थे । पत्थरों की कड़कड़ाहट से बचने के लिए नदी की सूखी धार में से चलना नहीं चाहते थे । दास पुरी के पास तो उन्हें और सावधानी बरतनी पड़ी। इन्द्र और अपने ऊपर पुरुओं को पूरा विश्वास था, किलात असाधारण शत्रु थे । उनको दबाना बहुत कठिन काम था ।

दास पुरी घोर जंगल में थी, पहाड़ वहाँ से बिल्कुल समीप था । बल्कि कह सकते हैं, वह पहाड़ के चरणों में ही बनायी गयी थी । पुरु शत्रु को बिना सजग किये उसके पशुओं पर टूट पड़ना चाहते थे । अभी उषा की हल्की किरणें पूर्व में छलकने लगी थीं, जबकि आर्य घुड़सवार लकड़ियों के प्राकार के पास पहुँच गये । वह चुपचाप गायों के बेड़े के पास पहुँच जाते, पर किलातों के कुत्ते असावधान नहीं थे । उनके भोंकते ही एक क्षण में सारी किलातपुरी सजग हो गयी । गर्गरा और गोधा की आवाज से कान फटने लगे । जरा देर में किलात योद्धा बेड़ों के पास थे, जहाँ कुत्ते पहले ही पहुँच चुके थे। दोनों दल एक- दूसरे के इतने नजदीक थे कि बाण चलाने का अवसर नहीं था । उनके खड्ग पास नहीं पहुँच सकते थे, सिर्फ भालों से युद्ध जारी हुआ । इसी बीच किलात स्त्रियाँ किलकारी मारते पहुँचीं, और पत्थरों की वर्षा करने लगीं। कुछ ही समय बाद प्राची में सूर्य का लाल गोला निकल आया । अब अन्धकार का कहीं पता नहीं था । पुरु एक बार तो किलातों के प्रचण्ड प्रहार से निराश हो गये, पर उनके हाथों के लम्बे भालों ने बड़ी सहायता की। किलात मोर्चे से पीछे हटने के लिए मजबूर हुए। इसी समय कुछ पुरुओं ने घोड़े से उतर कर लकड़ी की भीत को हटा दिया । घुड़सवार उसी से भीतर घुसे। थोड़ी देर तक किलात स्तब्ध से हो गये । पर, उन्हें अपनी अजेयता का अभिमान था । वह अनन्त काल से जाड़ों को बिताने के लिए पशु-प्राणियों के साथ यहाँ आया करते थे । पर्वत से दूर हटना उनके लिए प्रिय बात थी। पर जाड़ों में ऊपर के पहाड़ों पर जब कई हाथ बर्फ पड़ जाती तो पशुओं और प्राणियों को बड़े कष्ट का सामना करना पड़ता । आदमी को हड्डी चीरनेवाली सर्दी सताती, और पशुओं के लिए घास चारा दुर्लभ हो जाता। इससे बचने के लिए वह यहाँ वृहत् पर्वत (हिमालय) के चरण में अपनी पुरियाँ बसाते, मोर्चाबन्दी करते । एकाध बार आर्यों से संघर्ष होने में यद्यपि जय-पराजय का निर्णय नहीं हो सका था, पर वृहत् पर्वतों के निवासी सारे किलात यह समझते थे कि पीतकेशों को हमने बुरी तरह से हराया, वह हमारे नाम से भी भय खाते हैं। कितनी पीढ़ियों से यह भावना उनके हृदय में दृढ़ हो चुकी थी, इसलिए पुरी के घेरे के टूट जाने के बाद भी किलात हिम्मत हारने वाले नहीं थे ।

पुरी का विशाल हाता दोनों ओर के युयुत्सुओं से आकीर्ण हो गया था । आर्यों के कितने ही घोड़े चोट खाकर गिर चुके थे, कितने ही योद्धा मर गये थे | किलातों को भी क्षति हुई थी । इसने दोनों के क्रोध को और उद्दीप्त कर दिया था । दोनों दल एक-दूसरे के भीतर घुस गये थे । भाले के उपयोग का भी अवसर नहीं रह गया था। पुरु अपनी तलवार और चर्म निकालकर घोड़ों से कूद पड़े । किलात तलवारों, पत्थर की गदाओं से प्रहार कर रहे थे । किलात नारियाँ भी पत्थर के टुकड़ों को बड़े वेग से फेंक रही थीं। पर, आर्य सभी सुशिप्र ( शिरस्त्राणबद्ध) थे । उनके केवल शरीर पर ही चोट लग सकती थी । पुरुकुत्स का रण कौशल इस वक्त देखने लायक था। शायद ऐसे ही आर्य वीर को देखकर इन्द्र की आकृति की कल्पना की गयी । वह इन्द्र की तरह कुछ देर तक रोहिदश्व ( लाल घोड़े वाला) रहा, और जहाँ भी किलातों को प्रबल देखता, अपने खड्ग के प्रहार से वहाँ पिल पड़ता । उसका प्रहार ही प्राण लेने के लिये काफी था । पर किलात संख्या में कहीं अधिक थे, इसलिए अधिक क्षति होने पर उनके प्रहार का वेग कम नहीं होता था। पुरुओं को पहले-पहल ऐसे भीषण संघर्ष से पाला पड़ा था जो घायल और बेकार हो चुके थे, उन्हें तो निराशा होने लगी थी । शायद इन्द्र किसी दूसरे काम में लगे रहने से हमारी सुध भूल गये — बार-बार यही उनके मन में आता था ।

हाता रुधिर से लाल हो गया था। एक ओर गोरे लम्बे-लम्बे पुरु तथा पीतांग खर्वकाय किलात एक-दूसरे की पंक्ति में घुसकर ताँबे की तलवारों और पत्थर के वज्रों (गदाओं) को चला रहे थे। दूसरी ओर निर्जीव या सिसकते गोरे-काले एक-दूसरे के पास पड़े अपनी रक्तधारा को मिश्रित कर रहे थे । पुरुओं का कुत्स घमासान होते युद्धस्थल में अपनी लम्बी असि चला रहा था, दूसरी ओर किलात सरदार भी उससे पीछे रहने वाला नहीं था । वह आकार में भले ही पुरुकुत्स के कन्धे तक पहुँचता हो, पर उसका शरीर बहुत गठा हुआ, छाती असाधारण चौड़ी और भुजदंड अत्यन्त दृढ़ थे । उसने कई पुरुओं को धराशायी किया । पुरुकुत्स को मालूम होने लगा कि उसको खत्म किये बिना किलातों की कमर नहीं तोड़ी जा सकती । पर, वह ऐसे हार खानेवाला नहीं था। कितने ही साध कर मारे हुए दाँव को विफल करके वह पुरु राजा के ऊपर प्रहार कर रहा था । कुत्स की जाँघ पर उसने असि का एक ऐसा वार किया, जिससे उसके गिर जाने में कोई संदेह नहीं था। इसी समय कुत्स ने अपने एक असि घात से किलात सरदार का सिर धड़ से अलग कर दिया । कुछ क्षणों तक उसका कबंध इधर-उधर हाथ मारता रहा। उसके गिरने के साथ बचे-खुचे किलात पहाड़ की ओर भागे। पुरुओं ने उनका कुछ दूर पीछा किया। पहाड़ पर चढ़ने में वह किलातों का मुकाबिला नहीं कर सकते थे । उन्हें लौटना पड़ा। कुछ देर तक पत्थर और बाण फेंके जाते रहे । इसी समय सूर्य भी अस्ताचल पर पहुँच गया ।

पुरी में लौटने पर देखा कि पुरुकुत्स जमीन पर गिर पड़ा है । कुछ पुरु उसके पास बैठे हैं। उसके घाव पर कपड़ा बाँधा गया, पर खून बंद होने का नाम नहीं लेता था। कुत्स संज्ञाहीन था । किलातपुरी पर पुरुओं की विजय हुई, किन्तु उन्हें भारी दाम चुकाना पड़ा। पहले तो यही जान पड़ता था, कि कुत्स अब नहीं बच सकेगा। पर, कुछ घड़ी बाद उसने आँखें खोलीं, पानी का संकेत किया । पानी पीते ही उसको पूरा होश हो गया । इसी वक्त लोगों ने इन्द्र की जय मनायी । पुरुकुत्स को बधाई देते हुए कहा-"किलातों पर हमने पूर्ण विजय प्राप्त कर ली । रण में घायल किलातों में से किसी को हमने जीता नहीं छोड़ा। बाकी स्त्री-पुरुष-बच्चे पहाड़ के ऊपर भाग गये । उनकी सारी गाएँ, सारी भेड़-बकरियाँ अब हमारी हैं । यह इन्द्र की महिमा है ।"

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किलातों के पहाड़ की ओर भागते ही पुरुपुरी में सन्देश भेज दिया गया था । अन्धेरा होने से पहले ही वहाँ से सैकड़ों स्त्री-पुरुष घोड़ों पर चढ़े किलातपुरी में पहुँच गये। पुरुकुत्स एक बार होश में आकर फिर मूर्छित हो गया था । पुरुकुत्सानी अपने पति को इस अवस्था में पाकर बड़ी कठिनाई से क्रन्दन रोके सिर को गोद में लिए अपने आँसुओं से पति के मुँह को धो रही थी । वृद्ध सान्त्वना दे रहे थे— “वीर पत्नी, चिन्ता मत करो । इन्द्र अपने यजमान का रक्षक है । उसी के प्रताप से यह विजय हाथ लगी। उसने कहा है, मेरा भक्त दासों की सात पुरियों को नष्ट करेगा। अभी तो यह पहली पुरी है ।" तुर्वश- पुत्री पुरुकुत्सानी बड़ी गम्भीर प्रकृति की महिला थी । अपने वीर पति के अनुरूप ही उसने दृढ़ संकल्प पाया था। गुलाबी रंग, सुनहरी आँखें, भरा चेहरा, पीले लम्बे केशों के साथ वह असाधारण स्वस्थ सुन्दरी थी । सारे आर्यजनों में उसके लावण्य की प्रसिद्धि थी । तुर्वशों के साथ पुरुों का उस समय मेल नहीं था, पर पुरुकुत्सानी ने पुरुकुत्स को ही वरा । वह जानती थी, आर्यवीर का काम है, युद्ध में लड़ना, शत्रुओं को मारना और समय पड़ने पर मृत्यु को आलिंगन करना । आर्य पत्नी का काम है अपने पति को प्रोत्साहित करना, उसके काम में सहायता देना । वह जानती थी हमारे पितर आकाश में बड़ी उत्सुकता से रण में अपनी सन्तान के पराक्रम को देख रहे हैं। वह कायर को कभी क्षमा नहीं करते। वीरों की दो गति हैं-विजय प्राप्त करके शत्रु के पशुधन-गो, अजा, अवि को पाना या मरकर पितरों के पास चला जाना। सारी दृढ़ता के होते भी पुरुकुत्सानी का हृदय भीतर से विदीर्ण हो रहा था। दोनों में असाधारण प्रेम था । कर्तव्य का ख्याल करके ही वह कुछ समय के लिए एक दूसरे से अलग रहते, नहीं तो उन दोनों के शरीरों में एक ही प्राण था ।

आधी रात के बाद सर्दी ज्यादा हो गयी; लोगों ने द्रापियों से अपने शरीर पूरी तरह आच्छादित कर लिये । पुरुकुत्सानी को सर्दी का कोई पता नहीं था । उसका सारा ध्यान अपने पति की ओर था । चर्बी के दीप के प्रकाश में वह एकटक पति के मुख की ओर देख रही थी । साँस एक रस चल रही थी । विशाल वक्ष नियमपूर्वक उठ-बैठ रहा था । रक्त का बहाव कुछ देर पहले रुक चुका था । एकाएक पुरुकुत्स की आँखें खुलीं । झुके हुए चेहरे से उसके मुँह पर इसी समय दो बूँदें टपक पड़ीं । पुरुकुत्सानी के बदन से कितनी करुणा बरस रही होगी, इसे पूरी तौर से न देखते भी पुरुकुत्स समझता था । उसने अपने दायें हाथ को उठाकर पुरुकुत्सानी के कपोलों को बड़े स्नेह से स्पर्श किया। पूरा प्रकाश होता, तो पुरुकुत्सानी का मुँह इस समय देखने लायक था । वह 'प्रियतम' कहकर पति की छाती पर गिर पड़ी। कुछ देर तक दोनों इस अनुपम स्पर्श-सुख का अनुभव करते रहे। इसी समय बायाँ पैर हिला । पुरुकुत्स ने एक हल्की सी आह भरी। उसे अब तक अपने घाव का पता नहीं था। लेकिन, घाव के लिए कातरता दिखलाना आर्यवीर के लिए लज्जा की बात थी । उसने इतना ही कहा-"मेरी जाँघ में घाव है।" फिर यह भी, कि "किलात हमसे वीरता में किसी प्रकार कम नहीं हैं, वह किलातसूरि तो पौरुष और पराक्रम में द्वितीय था ।” फिर उसने उसके शव के बारे में पूछा । पुरुकुत्सानी ने कहा- “हमारे लोग सारे शवों को जलाने में अब भी लगे हुए हैं । आर्य शवों को वह जला चुके हैं। अब किलातों को जला रहे हैं ।"

किलातों की पुरी-मोर्चाबन्दी-अब पुरुओं की सम्पत्ति भी । उसके आस-पास इतने मुर्दों का रहना दो-चार दिन में भारी सड़ाँध पैदा करता । जंगल में चटक और सियार यद्यपि शवों की सद्गति करने के लिए तैयार थे, पर वह एक-दो दिन में यह काम नहीं कर सकते थे । पुरुकुत्स की बड़ी इच्छा थी कि अपने प्रतिद्वन्द्वी किलातसूरि का शव-संस्कार विशेष सम्मान के साथ हो, पर वह अब तक जलाया जा चुका था ।

इस महान् विजय के उपलक्ष में वृद्ध ऋषि ने गद्गद् हो प्रार्थना की । अग्निदेव के मुख में घृत की आहुतियाँ दी गईं। इंद्र के लिए किलातों के वृषभों (साँड़ों) में से ३५ मारकर पकाये गये सोम के कितने ही कलश प्रदान किये गये । लोगों ने यज्ञशेष खाया जरूर, पर उस रात उनके मन में कोई उत्साह नहीं था । उनका सेनानी पुरुकुत्स विजय से भी अधिक मूल्यवान् था । सभी यही प्रार्थना कर रहे थे- “इन्द्र, यह विजय व्यर्थ की होगी, यदि हम कुत्स से वंचित हुए । " इन्द्र ने ऋषि के मुख से उसी समय कहलवाया-"इन्द्र पर विश्वास रखो मुझे पुरुकुत्स सबसे अधिक प्यारा है ।"

रात को ही पुरुकुत्स को प्रकृतिस्थ देखकर लोगों को सन्तोष हो गया । प्रातः उन्होंने दिन की दुहिता उषा की प्रार्थना की। पुरुकुत्सानी ने उसके लिए विशेष प्रार्थना और हवन किये ।

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इन्द्र का वचन सत्य निकला । पुरु दासों (किलातों) की सातों पुरियों को ध्वस्त करने में सफल हुए । उन्हें अपार पशुधन मिला । किलातों का पशुधन ही धन था । पशुपालन और आखेट यही दो उनकी जीविका के साधन थे । जंगलों के फलों को भी वह एकत्रित करते और कुछ को सुखाकर रख भी लेते पर, वह उनके लिए पर्याप्त नहीं थे। खेती का एक तरह उनमें प्रचार ही नहीं था । नीचे के पहाड़ों में देखा-देखी कहीं-कहीं अनाज बो देते थे । पर उसका उपयोग मनुष्यों के खाने की अपेक्षा पशुओं के चारे के तौर पर अधिक होता । यद्यपि अपनी छहों पुरियों को किलातों ने आसानी से नहीं छोड़ा, पर प्रथम पुरी के ध्वंस ने उनके उत्साह को कम कर दिया था । पुरुकुत्स को पूरी तरह स्वस्थ होने में महीने से अधिक समय लग गया था । लोग नहीं चाहते थे, कि उसी शरद में और कोई संघर्ष छेड़ा जाय, पर पुरुकुत्स उसे मानने के लिए तैयार नहीं था । दृषद्वती के पूर्व आपया (मार्कंडा ), सरस्वती और यमुना के पास किलातों की तीन शारदी पुरियाँ थीं । दृषद्वती से पश्चिम सतलुज तक भी तीन पुरियाँ थीं । पुरियाँ क्या प्रतिरक्षा के उपयुक्त मोर्चाबन्दी तथा रात को रहने के लिए पशुओं के बाड़े और बिल्कुल मामूली सी फूस की झोपड़ियाँ थीं। विजय में प्राप्त होने वाला धन पशु के रूप में ही था । आर्यों के पास भी भेड़ें थीं, लेकिन किलातों के भेड़ों की ऊन की द्रापि बहुत कोमल और सुन्दर होती थी।

सतलुज से जमना तक पहाड़ की तराई पुरुओं के प्रयत्न से किलातों से खाली हो गयी । किलात केवल सर्दियों के बिताने के लिए यहाँ आया करते थे । पुरुओं से पराजित हो वह अपने हजारों आदमियों से हाथ धो असंख्य पशुओं को खो अपनी शारदी गोचर भूमियों से वंचित हो गये । पुरुओं के चरिष्णु ग्राम अब तराई तक फैल गये । कभी-कभी दूर पहाड़ पर से अपनी इस भूमि में आर्यों के घोड़ों और गौओं के झुण्डों को देखते, किलातों के हृदय में टीस-सी उठती । एकाध बार उन्होंने छापा मारने की कोशिश की, लेकिन पुरुओं ने अपनी पुरियों को सुदृढ़ कर रखा था। पहाड़ का चरण दोनों की सीमा बन गया ।

पुरुकुत्स सप्तसिन्धु का महावीर माना जाने लगा । सप्तसिन्धु में कहीं पर भी आर्यों ने अपने उत्तरी पड़ोसी पहाड़ी किलातों के ऊपर ऐसी विजय नहीं प्राप्त की थी, न उनकी शारदी चरिष्णु (चलायमान ) पुरियों पर आक्रमण करने का प्रयास किया था । जंगल में चरती गौओं को भले ही आर्य कभी-कभी छीन ले गये हों, पर यह वीर के तौर पर नहीं, बल्कि दस्यु के तौर पर ही, जो आर्यों के लिए शोभा की बात नहीं थी । सातों पुरियों के लिए संघर्ष तीन वर्ष तक चलता रहा । दूसरे वर्ष में पुरुकुत्सानी ने एक पुत्र जना । पिता दस्युओं को त्रस्त करने में लगा था, इसी उपलक्ष में पुत्र का नाम त्रसदस्यु रखा गया। सारे आर्य जनों में पुरु ज्येष्ठ थे । पुरुओं का ज्येष्ठ पुरुकुत्स था । उसकी ज्येष्ठ सन्तान त्रसदस्यु अपने पिता का योग्य उत्तराधिकारी होगा, इसे समय ही बतलाने वाला था। पर, त्रसदस्यु के जन्म पर सारे पुरजन में ऐसा आनन्द उत्सव मनाया गया, मालूम होता था कि प्रत्येक घर में प्रथम सन्तान पैदा हुई हो । पुरुकुत्सानी को देर से यह पहली सन्तान मिली, इसलिए वह इन्द्र के लिए कृतज्ञता प्रकट करते नहीं थकती थी । पुत्र को देखते उसे अपने पति का पूर्ण शरीर याद आता । वह यही कामना करती और इसी प्रयत्न में रहती कि त्रसदस्यु भी पिता की तरह ही दस्युओं को त्रास देने वाला हो ।

2. सरस्वती-तीर

[१२१७ ई० पू०]
“इयमदाद दिवोदासं बध्र्यश्वाय सरस्वती"1
(1. इस सरस्वती ने बध्र्यश्व के लिए दिवोदास को दिया)

सप्त-सिन्धु की सबसे पूर्व की प्रसिद्ध नदी सरस्वती अपनी अन्य छः 'बहिनों-सतलुज, विपाश (व्यास), परुष्णी (रावी), असिक्नी (चिनाव ), वितस्ता ( जेलहम ) और सिन्ध की तरह हिमगलित स्रोतों- वाली सदानीरा नहीं थी । जाड़ों और गर्मियों में उसकी धारा अत्यन्त क्षीण हो जाती । पर, शताब्दियों तक आर्यों को अपने सीमान्त पर इस जगह डटे रहने का उसने अवसर दिया था, इसलिए वह उसके प्रति बाकी छः बहिनों से भी अधिक कृतज्ञ थे । परुष्णी सप्तसिन्धु के बीच में थी । आर्य मानते थे, इन्द्र की उसके ऊपर महती कृपा है, तो भी, सरस्वती का वह विशेष आदर करते थे । सरस्वती से पूर्व कुछ योजन पर यमुना एक विशाल नदी थी, पर उसे आर्य अपनी नहीं कह सकते थे । दुर्दान्त दस्यु उसके तट पर अधिकार रखते थे, यदि सरस्वती ने अन्न और शरण देकर सहायता न की होती, तो दस्युओं के सामने आर्यों के पैर उखड़ जाते । परुष्णी से ही पुरुजन की भूमि प्रारम्भ हो जाती थी, पर पुरु अब स्वयं कई जनों में विभक्त हो गये थे । मध्य सारस्वत देश कुशिकों का था। उसके उत्तर भरत पूर्व से पश्चिम परुष्णी तक फैले हुए थे । परुष्णी के तट पर उन्हीं की एक

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