धन की सुरक्षा का कारण (कहानी) : गोनू झा
Dhan Ki Suraksha Ka Karan (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha
गोनू झा मिथिला-दरबार के विदूषक बनाए जाने से पहले विपन्न थे। उन्हें कोई पूछता नहीं था । जब वे मिथिला नरेश के प्रतिष्ठित दरबारी बन गए तो गाँव में 'गोर लागै छी' ( पाँव छूता हूँ ) कहने वालों की कमी न रही । विवाह के बाद तो नाते -रिश्तों की भी बाढ़ आ गई । कोई उनके ममहर से आता तो कोई बुआ के घर से । घर में आने-जाने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही थी ।
एक रात गोनू झा अपने बिस्तर पर पड़े- पड़े अतीत की बातें याद कर रहे थे। पिता के मरने के बाद कितने बुरे दिन देखे थे उन्होंने ! उन्हें याद आया कि मिथिला में एक बार अकाल पड़ा था और वे अपने अनुज भोनू को लेकर बाजार में मजदूरी करने के इरादे से गए थे। कहीं कोई काम नहीं मिला था और भोनू भूख से बिलबिला रहा था । अन्त में उन्होंने भोनू को एक हलुवाई की दुकान में भेजकर उसे भर पेट भोजन करवाया था और पैसे की माँग पर दुकानदार को झूठ बोलकर आफत में डाल दिया था कि भोनू खाने से पहले ही पैसा दे चुका है। इस घटना को याद करते हुए उनका मन भर आया और आँखें गीली हो गईं । उफ ! कैस-कैसे दिन कटा ? फिर भगवान की माया। दिन पलटे । भाग्य बदला । जो लोग देखकर मुँह फेर लेते थे, आज उन्हें देखकर आह्लादित हो उठते हैं । जीवन के इस परिवर्तन पर गोनू झा स्वयं विस्मय कर रहे थे। कितना कुछ बदल गया है ! पहले एक कटोरी दूध के लिए तरसते थे। आज बथान में दसियों गायें हैं । सोने के लिए कभी चिथड़ी सी चटाई थी, आज मेहमानों के लिए भी पलंग है ।
अतीत के चिन्तन से गोनू झा को लगने लगा कि आज उनके पास पैसा है इसलिए उन्हें लोग पूछने आते हैं । जब वे आर्थिक विपन्नता के शिकार थे तो कोई बासी रोटी भी देने के लिए तैयार नहीं था । समय कितना बदल गया ! फटी हुई धोती की जगह आज चक-चक रेशमी धोती में वे निकलते हैं । दरवाजे पर गाय -बैल, नौकर-चाकर क्या नहीं है उनके पास! आखिर यह सब तो पैसे के कारण ही-'बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया ।' यह सब रुपैया का खेल है ! चाँदी का चमत्कार है । इसी चिन्तन में गोनू झा की रात कट गई । सुबह वे देर तक सोते रहे । पत्नी ने जब उन्हें जगाया तब दिन चढ़ आया था ।
जगने पर भी गोनू झा अनमने से दिख रहे थे। न दरबार जाने की हड़बड़ी थी, न आम दिनों की तरह बात-बात पर पंडिताइन से चुहल करने की शोखी। पत्नी ने जब पूछा कि तैयार कब होंगे, दिन चढ़ आया है, दरबार नहीं जाना है क्या, तब बहुत ही उदास स्वर में गोनू झा ने उत्तर दिया-“नहीं ! आज कुछ भी करने का जी नहीं हो रहा है । “और वे फिर से बिस्तर पर लेट गए।
पंडिताइन आई । चिंतातुर होकर । नेह से भरकर । गोनू झा का ललाट छुआ यह देखने के लिए कि क्या गोनू झा को बुखार तो नहीं है ?
गोनू झा ने प्यार से अपनी पत्नी का हाथ पकड़ लिया । बोले-“नहीं, बुखार नहीं है। फिर उन्होंने पंडिताइन से कहा-“एक बात बताओ, यदि मेरे पास यह धन -दौलत और सुख सुविधा नहीं होती, तब भी क्या तुम मुझसे इतना ही प्यार करतीं ?"
पंडिताइन अवाक रह गई । 'अरे ! यह क्या बात ले बैठे ? कहीं किसी ने कान तो नहीं भरे इनके ? चुगली लगाने वालों की तो कमी नहीं है न ! घर में ही तो कितने हैं जलनेवाले!' मन में इस तरह की उठती आशंकाओं को दबाते हुए पंडिताइन ने कहा-“आप कैसी बातें कर रहे हैं ? जन्म-जन्मांतर का सम्बन्ध है हमारा। आपके मन में यह सवाल क्यों आया कि आप अपनी तुलना धन-दौलत से करने लगे? मेरे लिए सारी दुनिया की दौलत एक ओर और आपको एक ओर रखकर पूछा जाए कि मुझे क्या चाहिए तो मैं आपका साथ पसन्द करूँगी। अब कभी मुझसे ऐसी बातें न कहिएगा।"
पत्नी की बात सुनकर गोनू झा मुस्कुराए और पत्नी का हाथ चूम लिया । थोड़ी देर तक पलकें बंद किए लेटे रहे । फिर बोले-“जाओ, जरा माँ को भेज दो ।"
पत्नी चली गई । कमरे में माँ आईं । बेटे के अस्वस्थ होने की बात बहू ने उन्हें बता दी थी । इसलिए मातृ-सुलभ स्नेह से भरकर गोनू झा के सिरहाने बैठकर उन्होंने गोनू झा का सिर सहलाना शुरू कर दिया । गोनू झा ने आँखें बन्द किए हुए ही अपने सिर पर फिर रहे माँ के हाथ को थाम लिया । फिर पूछा-“माँ, तुम मुझे इतना प्यार करती हो, कुछ हो जाता है तो बेचैन हो जाती हो, आखिर क्यों ?"
गोनू झा की माँ बोलीं-“बावरे! ये भी कोई बताने की बात है ? तू मेरी कोख का जाया है । मैंने तुझे पय पान कराया है। गोद में खेलकर तू बड़ा हुआ है । भला मुझे तुम्हारी चिन्ता न होगी तो और किसकी होगी ?"
गोनू झा उसी तरह आँखें बन्द किए थोड़ी देर तक चपचाप लेटे रहे । फिर माँ से पूछा-“माँ, बुरा न मानो तो एक और बात पूछूँ?"
" हाँ बेटा, बोल! क्या बात है। मैं तेरी किसी भी बात का बुरा नहीं मानूंगी ।" माँ ने उत्तर दिया ।
गोनू झा ने संयत स्वरों में पूछा-“माँ, यदि मेरे पास यह समृद्धि न होती तब भी क्या मेरे लिए तुम्हारे मन में ऐसा प्यार उमड़ता ?"
गोनू झा की माँ के मुँह से एक सर्द आह निकली। उनका हाथ काँपने लगा -" अरे, आज मेरे लाल को क्या हो गया है, जो ऐसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है?" अनिष्ट की आशंका से उनका मन काँप गया और वे फफक पड़ीं । टप् ! आँख से आँसू निकलकर गोनू झा के ललाट पर गिर पड़ा ।
गोनू झा ने आँखें खोली तो पाया कि उनकी माँ रो रही हैं फिर भी उन्होंने अपनी संवेदनाओं पर काबू पाते हुए माँ से कहा-“माँ, रो मत, मुझे बता-जब मेरे पास धन नहीं होता तब भी क्या तुम मुझसे इतना ही प्यार करतीं ? मेरा मन यह जानने के लिए बेचैन हो रहा है कि दुनिया में जन का महत्त्व है या धन का ? क्यों इतनी स्पर्धा है ? क्यों इतना फरेब है ? क्यों लोग दूसरों की तरक्की से जलते हैं ? क्यों इतनी आपाधापी मची रहती है ? क्यों, आखिर क्यों ? तुम मुझे बचपन से अच्छी-अच्छी बातें सिखाती रही हो । जब मेरा मन इन सवालों से विचलित हो रहा है तब तुम्हीं बताओ न माँ कि मैं किससे जाकर पूछ ? मेरी जन्मदाता भी तुम्ही हो । ज्ञानदाता भी तुम्हीं हो । तुम्हारे सिवा मेरा गुरु कोई दूसरा नहीं है।” गोनू झा भावातिरेक में बोलते गए ।
माँ की आँखें फिर भर आईं। अपने पुत्र के हृदय में उनके प्रति जो मान था, आज पहली बार इस तरह प्रकट हुआ था । उन्हें लगा कि गोनू आज भी बच्चा है-उनका प्यारा, लाडला, दुलारा बच्चा। स्नेह से गोनू झा के बालों को सहलाते हुए वे बोलीं -" बेटा! मेरे लिए अब धन का क्या मोल ? तू है तो संसार है । तेरी खुशियाँ देखते-देखते ही आँखें बन्द हों, यही अरमान लिए जीती हूँ ।" फिर वे गोनू झा के सिर को चूमते हुए बोलीं -" बेटा ! इस तरह की बातें मत सोचा कर । इस तरह की बातों से विरक्ति पैदा होती है। अभी तू जवान है। जीवन के रंगों में रम । मत सोच मेरे लाल । कुछ मत सोच।"
गोनू झा थोड़ी देर तक बिस्तर पर लेटे रहे-पलकें मूंदे। माँ के स्पर्श का सुख प्राप्त करते रहे । थोड़ी देर बाद उन्होंने कहा-“जाओ माँ, आराम करो। मुझे कुछ नहीं हुआ है। हाँ, जरा भोनू को भेज देना। काम है।"
माँ को लगा, गोनू झा पर उनकी बातों का असर हुआ है । वे संतोष से उठीं और भोनू झा को भेज दिया ।
भोनू झा को भी जानकारी मिल चुकी थी कि आज भैया का स्वास्थ्य ठीक नहीं है जिसके कारण वे दरबार नहीं गए हैं । माँ ने जब उससे बताया कि जाओ, भैया बुला रहा है तब भोनू झा तेजी से गोनू झा के पास आया । गोनू झा की आँखें बन्द देखकर उसने सोचा-भैया शायद सो गए हैं । ऐसा सोचकर वह गोनू झा के पायताने में जाकर बैठ गया और धीरे- धीरे उनके पाँव दबाने लगा ।
गोनू झा ने बिना आँखें खोले भोनू झा से पूछा-“भोनू! मेरे भाई! एक बात बता – यदि तुम्हारा भैया इतना सम्पन्न नहीं होता, तब भी क्या तू मुझे इतना ही सम्मान देता ?"
भोनू को लगा कि भैया को बँटवारे वाली बात शायद आज भी मन में बैठी हुई है । एक बार वह रूपलाल के बहकावे में आकर घर का बँटवारा करा लिया था लेकिन यह तो भैया ही थे कि समझदारी से रूपलाल की चालों को मात दे दी थी और घर टूटने से बचा लिया था । भोनू झा का मन ग्लानि से भर उठा । उसने गोनू झा से कहा-“भैया । पुरानी बातों को भूल जाओ। मैं आपका भोनू हूँ । वही भोनू जिसे आप अपने कन्धे पर बैठाकर घुमाते थे। वही भोनू जिसकी छोटी से छोटी इच्छा पूरी करने के लिए आप अपनी भी परवाह नहीं करते थे। धन -दौलत मेरे लिए बहुत माने नहीं रखते । मेरे लिए तो बस आपका आशीर्वाद काफी है ।"
गोनू झा ने कहा-“ठीक है भोनू । जाओ, जो कर रहे थे, करो। मेरा मन घबरा रहा है । मुझे आराम करने दो । घर में सबसे कह दो मुझे जगाएँ नहीं, यदि मैं सो जाऊँ तो ।"
भोनू चला गया ।
गोनू झा बिस्तर पर लेटे रहे । दिन ढला । शाम हुई । फिर रात। चाँद आसमान में चढ़ने लगा । एक पहर रात चढ़ने के बाद गोनू झा की पत्नी कमरे में आई तो यह देखकर चौंक गई कि गोनू झा का शरीर उसी मुद्रा में है जिस मुद्रा में दिन में था । मुँह खुला हुआ है । हाथ ऐंठा-सा है । टाँगें अकड़ी हुई हैं । उसका कलेजा धड़कने लगा। दैव ! यह क्या ? क्या ये चले गए? ऐसा सोचते-सोचते उसके मुँह से विकल सी चीख निकल गई -" माँ ... जी । भोनू... ? दैब रे दैब !" वह दहाड़ मारकर रो पड़ी । उसका विलाप सुनकर गोनू झा की माँ कमरे में आईं । भोनू झा भी कमरे में आया। भोनू हत्प्रभ रह गया और गोनू झा की माँ गोनू झा का ऐंठा शरीर और बहू का विलाप सुनते बेहोश हो गईं ।
गोनू की पत्नी का विलाप सुनकर आसपास के लोग जुट आए । गाँव में यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई कि गोनू झा नहीं रहे ।
आसपास के घरों की महिलाएँ भी जुट आईं। कोई गोनू झा की माँ को होश में लाने का प्रयत्न करने लगी तो कोई गोनू झा की पत्नी के साथ ही विलाप करने लगी । सारा माहौल द्रवित कर देनेवाला हो गया । गाँव के लोगों ने गोनू झा के शरीर को बिस्तर से उठाकर आँगन में रखा। उनमें कुछ लोग ऐसे भी थे जो पहले भी गोनू झा को मुर्दा देख चुके थे और ‘शव स्नान करा चुके थे। वे लोग आपस में खुसुर-पुसुरकर रहे थे-बड़ा विचित्र प्राणी है यह मरकर भी जी उठने वाला । क्या पता, फिर जी जाए ? जबकि कुछ लोग कह रहे थे – गर्मी का मौसम है -बास आने से पहले लाश उठ जाए तो ठीक रहेगा ।... गोनू झा की अन्तिम यात्रा की तैयारियाँ होने लगीं। मशाल जला लिए गए कि उसकी रोशनी में श्मशान यात्रा हो सके। घर में शोक का वातावरण था ।
गोनू झा की माँ होश में आ गई थीं और वे गाँव की वृद्ध महिलाओं के साथ विलाप कर रही थीं । उन्हें दिलासा देनेवालियों का कलेजा बैठा जा रहा था । गोनू झा की पत्नी छाती पीट- पीटकर करुण स्वरों में रूदन कर रही थी । भोनू झा को तो जैसे काठ मार गया था । अवसन्न अवस्था में वह गाँव के युवकों से घिरा था ।
जब गोनू झा के शरीर का स्नान हो चुका और लोग शरीर को उठाने लगे तब माँ ने विलापते हुए ही कहा -” अरे भोनू, गोनू की अंगुली में सोने की अंगूठी है और कान में कनौसी, निकाल ले ! जानेवाला तो चला गया बेटा । अब उसकी चीजें ही तो उसकी यादगार रहेंगी । इन्हीं स्मृतियों के सहारे अब बाकी जीवन बिताना होगा ।" फिर वे जोरों से विलाप करने लगीं ।
भोनू झा ने कनौसी और अँगूठी निकाल ली और वहाँ से हटने ही वाला था कि गोनू झा की पत्नी ने विलाप करते हुए कहा -" भोनू, उनके जनेऊ में सन्दुक की चाबी है -बँधी हुई । खोल लेना।" विलाप के स्वर में ही उनका दूसरा आदेश उमड़ा -"रे भोनू, तुम्हारे भैया के डाँरा ( काला धागा जो मिथिलांचल के लोग कमर में बाँधते हैं ) में तिजोरी की चाबी बँधी है-निकाल लेना रे। दैब रे दैब ...” और फिर उसके विलाप का स्वर पहले की लय में आ गया । भोनू झा ने जनेऊ और डाँरा से चाबियाँ खोल लीं ।
तभी एक चमत्कार-सा हुआ । गोनू झा के मुँह से निकला -” हे राम! दीनबन्धु ! दीनदयाल । जै माँ !" और वे उठकर बैठ गए । आँगन में मशाल के नीम उजाले में लोगों ने देखा, गोनू झा उठकर बैठ गए और पास में पड़े कपड़े से अपना तन ढंक लिया और अनजान बनते हुए बोले-“क्या बात है ? मैं आँगन में इस हाल में क्यों पड़ा हूँ ? यहाँ इतनी भीड़ क्यों है ?"
किसी को कोई जवाब देते नहीं बना। सब अपने-अपने घर की ओर चल पड़े । आपस में इस चमत्कार के बारे में बतियाते हुए ।
गोनू झा को जीवित देख उनकी मां और पत्नी का विलाप थम- सा गया । वे ईश्वर के प्रति श्रद्धानत हो गईं कि गोनू झा का जीवन वापस हो गया है। उनकी साँसें लौट आई हैं ।
गोनू झा प्रसन्नचित्त वहाँ से उठे । भोनू झा ने उन्हें सहारा दिया तो भोनू के कंधे को प्यार से थपथपाते हुए उन्होंने कहा-“मेरे भाई। निश्चिन्त रहो। तुम्हारे भैया को कुछ नहीं होनेवाला। जाओ भाभी से बोलो मेरे लिए भोजन परोस दे। मैं मुँह धोकर अभी आता हूँ।"
गोनू झा की पत्नी ने खाना गर्म किया और प्यार से परोसा । जब गोनू झा खाने बैठे तो उनकी माँ हाथ में बेना (पंखा ) लेकर उनके पास बैठीं । उनकी पत्नी और भाई भोनू भी उनके पास आकर बैठे । गोनू झा ने खाते हुए ही कहा -"आज एक बात और समझ में आ गई कि जन का महत्त्व कम है और धन का महत्त्व ज्यादा। आदमी गुजर जाता है लेकिन धन बना रहता है इसलिए धन की सुरक्षा जरूरी लगती है।" यह सुनकर तीनों सकते में आ गए और गोनू झा चैन से भोजन करने लगे ।