दबे पाँव (कहानी) : वृंदावनलाल वर्मा
Dabe Paanv (Hindi Story) : Vrindavan Lal Verma
अध्याय 12
एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर इसको जंगलों से निकला बाहर कर दिया है।
ग्वालियर नरेश महाराज माधवराव ने अफ्रीका की नस्ल के कुछ सिंह शावक शिवपुरी के पास के जंगलों में छुड़वाए थे। वे बढ़े और उनकी कुछ संतानें शिवपुरी के आस पास के जंगलों में अभी भी हैं।
सिंह का अगला भाग भारी होता है। मुँह चौड़ा-चकला और खोपड़ा बड़ा। गरदन पर अयाल होने के कारण यह विशाल और भयानक प्रतीत होता है; परंतु वास्तव में धारीदार नाहर के बराबर बलवान, प्रचंड या पाजी नहीं होता। इसका शिकार धारीदार नाहर के जैसा ही खेला जाता है; परंतु मुझको एक भी नहीं मिला, इसलिए मेरा निजी अनुभव इसके विषय में बिलकुल नहीं है।
ग्वालियर राज्य के जंगल झाँसी जिले से लगे हुए हैं, इसलिए जानवरों का वहाँ से आना-जाना यहाँ बना रहता है। लगभग बाईस साल हुए, जब ग्वालियर के जंगलों से एक मनुष्यभक्षी सिंह झाँसी के जंगलों में आ धमका पहले तो ललितपुर तहसील के बाँसी नामक ग्राम के आस पास तहलका मचाता रहा। दूर-दूर से कुछ अँगरेज शिकारी उसकी टोह में आए; परंतु वह इतना चालाक था कि किसी की भी अंटी पर न चढ़ा। मैंने उन शिकारियों की असफलता का वर्णन एक अँगरेजी पुस्तक में पढ़ा है। बाँसी से टलकर यह मनुष्यभक्षी सेर बेतवा के किनारे-किनारे ओरछा के जंगल में आया और फिर वहाँ भटकता घूमता मेरे अड्डों के निकट आ गया।
मुझको हर छुट्टी में उन जंगलों में विचरण करने का अभ्यास था, जिनके निकट यह मनुष्यभक्षी आ गया था।
जब मैं छुट्टी में अपने अड्डों पर जाता तो सुनता - वह मनुष्यभक्षी सिंह अमुक गाँव में एक आदमी को उठा ले गया, फलाने गाँव में एक औरत को उठाकर खा गया। हाथ किसी के पड़ता नहीं था, इसलिए जन-परंपरा ने एक प्रेत की सृष्टि की। कहा जाने लगा कि एक जादूगर धोबी मरने के बाद नाना रूप धारण करके मनुष्य-भक्षण करने लगा है। बे-हथियारवाली जनता को विश्वास करने में देर नहीं लगी।
मैं शिकार खेलने प्रायः अपने मित्र के साथ जाया करता था। एक बार अकेला गया। सुना कि मनुष्यभक्षी प्रेत बेतवा नदीवाले गड्ढे के निकट, जिसका उपयोग मैं सदा ही करता था, आ गया है। मैंने सोचा, यदि प्रेत है तो शिकारी किसी भी भूत प्रेत से कम नहीं होता है, इसलिए कोई डर नहीं और यदि मनुष्यभक्षी सिंह है, जैसा कि मुझको विश्वास था कि है, तो देखा जाएगा। रात भर अनिमेष जागने का मुझको अभ्यास था और यह भरोसा था कि जागते हुए में मनुष्यभक्षी पशु - चाहे वह सिंह, नाहर या तेंदुआ हो मुझको सहज ही नहीं दबा पाएगा। सुनता आया कि मनुष्य को परमात्मा ने सारी सृष्टि रचने के उपरांत बनाया था।
मैं साँझ के पहले ही अपने चिर-परिचित गड्ढे में जा बैठा। जब संध्या हो गई, बिस्तरों में टॉर्च को ढूँढ़ा। उसको गाँव में ही भूल आया था और रात निपट अँधेरी थी। टॉर्च के लिए गाँव को लौटकर जाने और गड्ढे में वापस आने का अर्थ था चार मील, और यदि मार्ग में ही किसी झाड़ी की बगल से मनुष्यभक्षी सिंह ऊपर आ कूदा तो सारा शिकार बेहद किरकिरा हुआ।
बिस्तर फैलाकर गड्ढे में बैठ गया। ठंड के दिन थे। ओवरकोट पहना और कंबल से पैर ढक लिए। राइफल भरकर उसी पर रख ली और बीस कारतूसों का डिब्बा सामने रख लिया मानो मनुष्यभक्षी सिंह उनके एक अंश को भी चला लेने की मुहलत देता।
पहले तो अँधेरा बहुत बुरा लगा, फिर वह मेरा मित्र बन गया। यदि मैं मनुष्यभक्षी को बिना बहुत निकट आए नहीं देख सकता था तो वह भी तो मुझको नहीं देख सकता था। सूँघ जरूर सकता था; परंतु सूँघने के लिए उसको नाक से फूँ-फाँ करनी पड़ती, मैं सुन लेता और 'धाँय' करने के लिए पहले ही सावधान हो जाता। मैं सामने देखता अगल-बगल बैठे-बैठे और उझक-उझककर भी। मैंने अपने जीवन भर में इतनी चौकसी कभी नहीं की।
चौकसी करते-करते आधी रात हो गई। भय के अत्यंत निकट संसर्ग में आने के कारण मन में धुक-धुक बिलकुल न रही। राइफल हटाकर बगल में रख दी और अकड़े-सिकुड़े हए पैरों को सीधा करने के लिए लेट गया। तारों पर टकटकी जमाई।
बेतवा की धार चल रही थी। थी पतली ही। कंकड़ों से टकराकर धार एक बँधा हुआ शब्द कर रही थी। टिटिहरी बीच-बीच में बोल जाती थी। किनारे के ऊपरवाले पेड़ों पर बसेरा लिए हुए डोंके ठहर-ठहरकर टुहुक लगा जाते थे। झींगुर झनकार रहे थे। दूर जंगल से कभी चीतल का कूका और कभी साँभर की रेंक सुनाई पड़ जाती थी। कभी-कभी उल्लू और कभी चमगादड़ अपने पंख फड़फड़ाते इधर से उधर निकल जाते थे।
मुझे नींद का नाम न था।
रात का तीसरा पहर समाप्त होने को आ रहा था। मैं इस बीच में कई बार बैठ और लेट चुका था। मैं लेटा हुआ था जब पास ही छप-छप का शब्द सुनाई पड़ा। मैं तुरंत सावधानी के साथ बैठ गया। राइफल साधी और लिबलिबी पर उँगली रख दी। पानी की धार, जहाँ से छप-छप का शब्द सुनाई दिया था, मेरे गड्ढे से साठ-सत्तर फीट की दूर पर होगी। साँस रोककर प्रतीक्षा करने लगा।
गड्ढे के सामने एक आकार आया और रुका। आकार उतना लंबा और चौड़ा न था जितना मेरे अनुमान ने बना दिया था। अँधेरे में बिना निशाना लिए हुए मुझको राइफल चलाने का अभ्यास था, इसलिए मन में बहुत शंका न हुई। आकार ने फूँ-फाँ की। मुझको साफ सुनाई पड़ा। लिबलिबी का पर तुरंत उँगली दबी और जोर का 'धाँय' शब्द हुआ। जब तक 'धाँय' की गूँज दुगुन और तिगुन हुई, मैंने चटपट दूसरा कारतूस नाल में पहुँचा दिया। मैं दूसरा कारतूस भी फोड़ता, परंतु वह आकार धराशायी हो गया था, उसकी साँस जोर-जोर से चल रही थी। मुझको विश्वास हो गया कि साँसें कुछ पल की हैं। कुछ पल के बाद उसकी साँस बंद हो गई। वह समाप्त हो गया। परंतु इतना अँधेरा था कि अनुमान भी नहीं कर सकता था कि किस जानवर पर गोली चलाई है। इतना साहस नहीं कर सकता था कि गड्ढे को छोड़कर उसके पास जाता और अनुसंधान करता।
प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगा।
प्रातःकाल के पहले पतले से चंद्रमा का उदय हुआ। परंतु उसके प्रकाश से कोई सहायता नहीं मिली। उसके धुँधले प्रकाश में गड्ढे के सामने पड़े हुए मृत पशु का आकार अनुमान से कुछ लंबा ही दिखता रहा।
ज्यों-ज्यों करके पौ फटी। उजाला हुआ। देखूँ तो मृत पशु लकड़बग्घा है। कारतूस को खराब करने का पछतावा नहीं हुआ। यदि वह मनुष्यभक्षी सिंह ही होता तो गोली तो ठिकाने से पड़ती लकड़बग्घे के गले से जरा हटकर जोड़ पर निशाना लगा था।
बिस्तर उठानेवाला सूर्योदय के बाद आ गया। लकड़बग्घे को देखकर वह हँसा। बोला, 'मैं खेत पर जाग रहा था, जब बंदूक का अर्राटा हुआ। सोचा था, कोई खाने लायक जानवर मरा होगा। यह तो कुछ भी न निकला।'
मैं कुछ और सोच रहा था। मेरे साथ लगभग अनिवार्य रूप से घूमनेवाले इस शिकारी का नाम दुर्जन कुम्हार था। बहादुर, कष्टसहिष्णु और बहुत हँसोड़।
बेतवा के भरकों में घूमते हुए एक दिन हम दोनों ने एक टीले के चौरस पर कुछ विलक्षण सी गठरियाँ लुढ़कती-पुढ़कती देखीं। छिपते-छिपते हम दोनों बहुत निकट पहुँच गए। देखें तो तीन-चार लकड़बग्घे किसी जानवर का भोजन कर रहे हैं। शायद गाँव के किसी आवारा कुत्ते को मार लाए थे। मेरे गाँठ में कुल पाँच कारतूस थे। तीन हिरनमार छर्रे के और दो चार नंबर के सरसों के दानों से भी छोटे छर्रेवाले। हिरनमार छर्रे से मैंने एक लकड़बग्घे को गिरा दिया। उसके गिरते ही बाकी वहाँ से भागे नहीं, बल्कि गिरे हुए लकड़बग्घे का रक्तपान करे लगे और उसको चीर-फाड़ भी डाला। मैने एक और गिराया। तीसरा लकड़बग्घा उस गिरे हुए पर चिपट गया और अपने बीभत्स कर्म में निरत हो गया। मैंने उस पर भी बंदूक चलाई और ओट छोड़ दी। वह गिर नहीं सका, घायल होकर भागा। तब एक कोने में चौथा लकड़बग्घा दिखलाई पड़ा। वह तुरंत भागकर एक माँद में जा घुसा। घायल लकड़बग्घा भरकों के बीच के एक छोटे से नाले में जा पड़ा। मैंने उसपर चार नंबर का बारीक छर्रा चलाया। उसका कोई घातक प्रभाव नहीं पड़ा; परंतु वह नाले में दुबक गया।
दुर्जन दौड़ता हुआ उसके पास पहुँचा। उसके पास पहुँचते ही घायल जानवर ने एक उचाट ली और दर्जन की ओर बढ़ा। दुर्जन ने चक्कर काटकर नाले को फाँदना चाहा। फाँदने में दुर्जन की कमर लचक गई और रीढ़ का एक गुरिया धमक खा गया।
'ओ मताई, खा लओ!' चिल्लाकर दुर्जन गिर पड़ा।
मैं जिस टीले पर खड़ा था, उसके नीचे एक छोटा टीला और था। उस टीले के नीचे नाला था। दुर्जन को गिरा देखकर लकड़बग्घा डरा और मेरी ओर आया। मेरे पास सिवाय चार नंबर के एक कारतूस के और कुछ न था। जैसे ही क्रुद्ध लकड़बग्घा आठ-दस फीट रह गया, मैंने उस पर चार नंबर का कारतूस चला दिया। वह खत्म हो गया। मैं दुर्जन को उठाकर गाँव ले आया। लकड़बग्घा जरूर बहुत डरपोक होता है; परंतु घायल होने पर दबे पाँव प्राण बचाने के लिए आक्रमण कर देता है।
अध्याय 13
अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी।
जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थे उससे ऊपर की ओर लगभग डेढ़ सौ गज पर एक घाट और था। वहाँ से होकर उसपर से चिरगाँव की हाट के लिए आन-जानेवाले लोग निकला करते थे। उनको कभी ज्यादा रात भी हो जाती थी; परंतु मनुष्यभक्षी सिंह के भयानक समाचारों के संध्या के उपरांत के आवागमन को बंद कर दिया था।
अँधेरा हो जाने पर मुझे आलस्य मालूम पड़ा। मैं सो गया। शर्मा जी पहरा देते रहे। शर्मा जी की बंदूक लगभग आधी रात गए चली - 'धाँय'। उधर से शब्द हुआ, 'ओ मताई, मर गओ!' मैं घबराकर उठ बैठा। कलेजा धक-धक करने लगा। टॉर्च जलाकर देखा तो एक आदमी सफेद रजाई ओढ़े हमारे गड्ढे की ओर आ रहा है। विश्वास हो गया कि मरा नहीं है; किंतु संदेह था, शायद घायल न हो। अनेक प्रश्न कर डाले। उसने कहा, 'बहुत बचे।'
हम लोग दुनाली से छर्रा न चलाने की शपथ सी बहुत पहले ले चुके थे। अब छर्रा कारतूस की पेटी में न रखने का निश्चय कर लिया।
अध्याय 14
मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर से निकल जाती हैं। प्रकृति में उल्लास भर जाता है। नीलकंठ और बगुले का मारना कानून में निषिद्ध है। मोर गाँव के निकट नहीं मारा जा सकता; चंडूल और लालमुनैया को कोई नहीं मारता; परंतु तीतर, वनमुरगी और हरियल के लिए तो खानेवाले ललकते से रहते हैं।
इनमें से केवल मोर खेती को हानि पहुँचाता है। ऐसा सुंदर पक्षी और गंहूँ चने इत्यादि को किस बुरी तरह खानेवाला। चना का पौधा उगा नहीं कि इसने उखाड़-उखाड़कर उसका सफाया किया। किसान जब इन सबकी मार से थक जाता है तब परिस्थितिजन्य संतोष के साथ कहता है - 'यदि इन सबसे पूरा अन्न बच जाय तो घर में रखने को जगह ही न रहे।'
सचमुच जगह न रहे, परंतु बच नहीं पाता। अधिक अन्न उत्पन्न हो जाय तो क्या किसान उसको फेंक देगा?
हरियल, पीपल, बरगद और ऊमर के पेड़ों पर अधिकतर दिखलाई पड़ता है। इसकी बारीक सीटी कभी-कभी मनुष्य की सीटी के भ्रम में डाल देती है; परंतु मनुष्य की बजाई हुई सीटी में विषमता होती है, इसकी सीटी लगातार एक सी बजती है। इसकी भूमि पर बैठा हुआ शायद ही किसी ने देखा हो; परंतु यह बैठता है - पानी पीने के लिए और दाने-चारे के लिए ही। इतना हरा-पीला होता है कि पेड़ों के हरे-हरे पत्तों में छिप जाता है। अधिकतर इसकी सीटी ही इसकी उपस्थिति का पता देती है।
तीतर सवेरे-शाम मार्गों, पकडंडियों और खुले मैदानों में, जहाँ ढोर गोबर छोड़ जाते हैं, पाया जाता है। यह ज्यादा नहीं उड़ सकता है। थोड़ी दूर उड़कर फिर तेजी के साथ पंजों के बल भागता है। तीतर दिन चढ़ते ही झाड़ी-झकूटों में जा छिपता है और संध्या के पहले लगभग चार बजे फिर अपने प्रवास से बाहर निकल पड़ता है।
इससे मिलती-जुलती एक चिड़िया भटतीतर होती है। इसका रंग मटमैला होता है। कटी हुई तिली के खेतों में बहुधा पाया जाता है। आहट पाकर खेत के कूँड़ों में यह ऐसा दबकर बैठ जाता है कि पास से भी नजर में नहीं आता। बहुत पास पहुँच जाने पर यह फड़फड़ाकर उड़ जाता है। भटतीतर बहुत ऊँची और लंबी उड़ान ले सकता है। स्वर इसका इतना तीक्ष्ण होता है कि ऊँची उड़ान पर से भी सुनाई पड़ जाता है।
वनमुरगी और पालतू मुरगी में ज्यादा अंतर नहीं है। बोली भी दोनों की लगभग एक सी होती है। पालतू मुरगी की बाँग कुछ लंबी खिंच जाती है, वनमुरगी की बाँग अधकटी सी होती है।
नीलकंठ शिकारी पक्षी है। इसका नीला रंग इतना सुंदर, इतना मोहक होता है कि वह शकुन का विषय बन गया है। पर इसकी बोली लटीफटी सी लगती है। कीड़ों-मकोड़ों का शिकार अधिकतर करता है; परंतु छोटी चिड़ियों से भी इसको कोई परहेज नहीं है - पंजे में पड़ जाय तो। चंडूल, लालमुनैया देखने में अच्छे और सुनने में तो कहना ही क्या है।
रात को तीसरे पहल जब ये पक्षी अपने मिठास भरे स्वरों का प्रवाह बहाते हैं, तब किसी भी बाजे से इनकी मोहकता की तौल नहीं की जा सकती। मैंने तो गड्ढों में बैठे-बैठे इनकी मनोहर तानों को सुनते-सुनते घंटों बिता दिए। बंदूक एक तरफ रख दी और इनके सुरीले बोलों पर ध्यान को अटका दिया। जानवर पास से निकल गए, परंतु मैंने बंदूक नहीं उठाई। ऐसा जादू पड़ गया कि मैंने कभी-कभी सोचा, खेतों की रखवाली का सारा ठेका क्या मैंने ही ले रखा है?
अध्याय 15
मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भी प्राप्य थे। विष्णुगुप्त चाणक्य ने तो इनका जिक्र किया ही है। अकबर के युग में भी ये प्राप्य थे और आज से लगभग सौ वर्ष पहले तक इनकी उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। अब तो इनका शिकार खेलने के लिए हमारे यहाँ के साधनसंपन्न शिकारियों को हिमालय की तराई और असम के जंगलों में जाना पड़ता है।
अब भी विंध्यखंड के जंगलों में जो कुछ है, कुतूहल के लिए बहुत है। बंगाल का नाहर अपने बल-विक्रम और सौंदर्य के लिए विख्यात है; परंतु मंडला, बालाघाट और बिलासपुर के जंगलों में उससे भी बड़े शेर पाए जाते हैं। शिकार संबंधी एक पुरानी पुस्तक में मैंने बारह फीट की लंबाईवाले शेरों का हाल पढ़ा है। अब भी दस-ग्यारह फीट की लंबाई वाले दुष्प्राप्य नहीं हैं। बड़े-बड़े भालू, अरने भैंसे, काले रंग के तेंदुए और जंगली कुत्ते इन जंगलों में बहुतायत से पाए जाते हैं।
बिलासपुर जिले में एक साधन के सहारे हम लोग कई मित्र एक दिन जा पहुँचे। रात को छकड़े किराए पर किए। दूसरे दिन, 'नानबीरा' नामक गाँव में पहुँचना था। सवेरा होने पर मार्ग में 'सरगबुंदिया' नाम का गाँव मिला। इस गाँव का नाम सरगबुंदिया - स्वर्गबिंदु क्यों पड़ा, मुझको इस बात की खोज करने का मोह हुआ। गाँव में दो पोखर थे। दोनों में लोग नहाते थे और उसका पानी भी पीते ते। आस पास पानी का और कोई ठिकाना न था। कम-से-कम, गरमियों की ऋतु में, मुझको नहीं दिखलाई पड़ा। गाँव खासा था और पानी के केवल दो पोखर। मैंने सोचा, स्वर्ग की ये दो बूँदें इस गाँव को सरगबुंदिया की संज्ञा प्रदान कर रही हैं।
सरगबुंदिया में अपना भोजन और उसका पानी पीकर हम लोग संध्या के पहले नानबीरा पहुँच गए। जंगलों, पहाड़ों से घिरा हुआ नानबीरा बड़ा गाँव है। वहाँ एक स्कूल भी है। ईस्टर की छुट्टियों के कारण स्कूल बंद था। हम लोगों के पास बिलासपुर जिला बोर्ड के एक कर्मचारी - श्री मानिकम् थे। उनकी कृपा से स्कूल में ठहरने की सुविधा मिल गई। जब हम लोग स्कूल के अहाते में पहुँचे, कुछ लड़के खेल रहे थे। लड़के संकोच में आकर वहाँ से खिसकने को हुए। मैंने रोक लिया। थोड़ी सी बातचीत की।
मैंने पूछा, 'तुम लोगों ने शेर देखा है?'
उत्तर मिला, 'हाँ।'
'भालू, तेंदुआ, भेड़िया?'
'सब देखे हैं।'
'तुम लोग मांस खाते हो?'
'हाँ।'
'किस-किस का?'
इस पर लड़के एक-दूसरे का मुँह ताककर हँसने लगे।
मैंने अनुरोध किया, 'सकुचो मत। बतलाओ?'
एक लड़का बोला, 'ये लोग चूहा और कौआ भी भी खाते हैं। हम लोग नहीं खाते।'
'चूहा और कौआ!' मुझको आश्चर्य हुआ।
मैंने प्रश्न किया, 'तुम लोग कौन, जो चूहा और कौआ नहीं खाते?'
'मुसलमान।' उस लड़के ने उत्तर दिया।
'और ये लोग कौन हैं, जिन्हें चूहा और कौआ भी हजम है?' मैंने पूछा।
लड़के ने हँसकर उन लोगों की जाति बतलाई।
मैंने कहा, 'तब तो तुम्हारे घरों में भी चूहे और जंगलों में कौए होंगे ही नहीं।'
बाकी लड़के भी वार्तालाप में भाग लेने लगे।
एक हिंदु बालक बोला, 'चूहे तो बहुत हैं, पर जंगलों में कौए बहुत नहीं हैं।'
मुझे झाँसी जिले के कौओं की याद आ गई। कुआर के महीने में नगरों और कस्बों में तो इनकी काँव-काँव के मारे नाको दम आ ही जाता है, जंगलों में इनके झुंड़ों के मारे संध्या बेसुरे कोलाहाल के मारे बेचैन सी हो जाती है। एक झुंड में ही सैकड़ों-हजारों। बगीचों के फलों और खेतों के अनाज को नष्ट करने में ये तोतों को भी मात दे देते हैं। मैंने सोचा, या तो नानबीरा हमारे यहाँ पहुँच जाएँ या हमारे यहाँ के कौए नानबीरा की ओर पधार जाएँ तो निष्कृत मिले। परंतु इसस प्रकार तो समस्या हल होती नहीं।
रात के जागे और दिन के थके थे, इसलिए रात भर मजे में सोए।
सवेरे लगभग सौ गोंड, कोल और बैगा हम लोगों के पास आ गए। शिकार उनका जीवन और मनोरंजन है। खेती कम और जंगल अधिक सहारा है।
उनके केश सुंदर और कंघी किए हुए। शरीर दृढ़ मांसल, रग-पुट्ठे वाले- और चिकने। छोटी धोती, लँगोट या जाँघिया कसे हुए। किसी किसी के हाथ में चाँदी के चूड़े। अधिकांश तीर कमान कसे हुए। बहुतेरों के कंधे पर तेज धारवाली कुल्हाड़ी - वे उसे 'टँगिया' कहते थे। कुछ के हाथ में लाठियाँ और छोटे बरछे। उनमें से थोड़े से ढोल और ताशे भी लिए थे।
उनके बीच में एक मटका रखा हुआ था। मटके में महुए की शराब थी। वे थोड़ी-थोड़ी चुल्लुओं पी रहे थे। मेरे मन में आया, इनको एक व्याख्यान देकर सुधार की भावना जाग्रत करूँ। तुरंत भीतर मैंने कुछ टटोला। मैं व्याख्यान देनेवाला कौन? यदि इनको अधिक भोजन, अधिक पैसे, अधिक शिक्षा, अधिक कपड़े, दवा-दारू और अच्छी दिशा दे सकूँ तो इनका देशवासी कहलाने की पात्रता रख सकता हूँ, नहीं तो ये जैसे हैं मुझसे अच्छे हैं। चेहरे पर सहज मुस्कान है; भाव इनका सीधा, सरल, निर्भीकता से भरा हुआ है। हम इनसे कुछ ले सकते हैं, दे इन्हें क्या सकते हैं?
सुधार की भावना को ताक में रखकर मैं उनके बीच में पहुँच गया। जाग्रत मानव के सब हर्ष, समग्र ओज उनमें मौजूद थे- कठिनाइयों और पीड़ाओं, विपत्तियों और दुःखों से लड़ जाने का मनोबल उनमें प्रतीत होता है।
शहर के अधकचरे, अधबुझे हम लोग श्रद्धा के मारे झुक गए।
उनके अगुआ से शिकार के कार्यक्रम पर बातचीत होने लगी। उसने हाँके के लिए एक विशेष पहाड़ को चुना। आशा की गई कि शेर और भालू मिलेंगे।
हम लोग पहाड़ की ओर चल दिए। लगान लगानेवाले ने बंदूकवालों को यथास्थान खड़ा कर दिया। मैं अपने एक मित्र के साथ ऐसे स्थान पर खड़ा किया गया जहाँ महीने-डेढ़ महीने पहले एक अँगरेज स्त्री को शेर ने हाँके से निकलकर चबा डाला था। जगह-जगह पेड़ों पर मचान बँधी हुई थी। शेर के शिकार का अनुभव नहीं था, इसलिए हम लोग मचान पर नहीं गए, नीचे ही खड़े रहे। पहाड़ की तली में थे। पहाड़ पर से हँकाई होती आ रही थी।
ढोल, ताशों और कई प्रकार के वाद्यों का तुमुल नाद होता चला आ रहा था। हम लोग प्रतीक्षा की धुकधुकी में खड़े थे अपने-अपने स्थानों पर। मेरे अन्य मित्रों की भी यही अवस्था रही होगी।
इस हँकाई में एक सुअर के सिवाय और कुछ नहीं निकला। यह सुअर हमारे लगान के सामने उँचाई पर से निकला। 'धाँय-धाँय!' हम दोनों ने एक साथ बंदूकें चलाईं। सुअर के अगले जोड़ पर दोनों गोलियाँ पड़ी। दोनों मे केवल दो इंच का अतर था। हाँकेवाले उत्सुकता के साथ हम लोगों के पास आए। सुअर को पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए।
दूसरी हँकाई के लिए आध मील दूरी पर एक और पहाड़ चुना गया। अब की बार हम लोग अत्यंत असावधानी के साथ खड़े हो गए। किसी किसी ने तो केवल पेड़ की ओट ले ली। हम दोनों ने आम पेड़ के पत्ते तोड़कर आड़ बना ली ऐसी कि उसको खरहा भी तोड़ डालता।
हँकाई होने के थोड़े ही समय बाद एक और बंदूक चली, फिर एक और। सामने से दो बड़े रीछ आते हुए दिखलाई पड़े। मेरी बगल में कुछ फासले पर एक आया। मेरे साथी मित्र की पहली गोली से घायल होकर वह लौटा और वे स्थान छोड़कर उसके पीछे दौड़े। उन्होंने भागते हुए रीछ पर गोलियों की वर्षा कर दी। बारह-तेरह चलाईं; परंतु लगी एक भी नहीं। रीछ परेशान होकर एक पेड़ पर चढ़ा।
वह सीधा ही चढ़ा, बड़ी फुरती के साथ। लोगों का खयाल है कि रीछ उलटा चढ़ता है। यह गलत है। वह उलटा भी चढ़ सकता होगा, परंतु साधारणतया चढ़ता सीधा ही है।
मेरे मित्र ने एक गोली और चलाई। रीछ नीचे आ गिरा।
फिर एक हँकाई और हुई। दूसरे दिन भी हँकाईयाँ हुई; परंतु मिला कुछ नहीं। हाँ रीछों के कुछ अद्भुत किस्से जरूर सुनने को मिले। उनमें से एक विलक्षण था।
एक अँगरेज शेर के शिकार के लिए आया। मचान पर अकेला जा बैठा। नीचे किसी मरे हुए जानवर का गायरा रख लिया था। कुछ रात बीतने पर गायरे के पास एक रीछ आया। रीछ ने गायरे को सूँघा था कि झाड़ी के पीछे छिपे हुए शेर ने रीछ पर तड़प लगाई। रीछ बलबलाता हुआ भागा और पेड़ पर चढ़ गया और मचान की ओर बढ़ा, जहाँ अँगरेज शिकारी बैठा हुआ था। मारे डर के अँगरेज की जो हालत हुई होगी उसका तो अनुमान किया जा सकता है, परंतु ऐसे अप्रत्याशित स्थान पर आदमी को बैठे देखकर रीछ की जो दशा हुई उसका प्रयत्क्ष फल यह हुआ कि वह हड़बड़ाकर नीचे जा गिरा। शेर ने उसको समाप्त कर दिया। ऊपर से जो गोली पड़ी तो शेर उससे समाप्त हो गया।
जंगलों में शेर इत्यादि की जो कहानियाँ सुनने को मिलती हैं। उनमें से अधिकांश का आधार सच होता है; परंतु कुछ नितांत कल्पनाप्रसूत होती हैं।
जंगल के रहनेवाले लोगों में जितने भालू के नाखूनों से घायल होते हैं उतने और किसी से नहीं। इसके नाखून पंजे की गंद्दी से बाहर निकले रहते हैं और बहुत लंबे होते हैं। यह आसानी के साथ पालतु कर लिया जाता है; परंतु जंगली अवस्था में काफी दुःखदायक होता है। शरीर का छोटा, परंतु बाल बड़े-बड़े होने के कारण विहंगम दिखलाई पड़ता है। जड़ों और फलों का प्रेमी होता है। पेड़ों पर चढ़कर आराम के साथ शहद तोड़ खाता है। मधुमक्खियाँ इसका कुछ नहीं बिगाड़ पातीं, क्योंकि काटने के प्रयत्नों में उसके बालों में ही उलझ जाना पड़ता है। किसी की खाल पर जीभ को कसकर फेरे तो खून निकल आवे। कुछ लोगों की कल्पना है कि यह हाथों में लपेटकर, आदमी से चिपटकर थूक से अँधा कर देता है और उसका कचूमर निकाल देता है। इसके थूक में ऐसा कोई विष नहीं होता है, और क्रोध में सभी पशु मुँह से झाग फेंक उठते हैं। चिपट जरूर यह जाता है और नाखूनों से बेतरह चीड़-फाड़ करता है। इसको सुनाई कम पड़ता है। आँख के ऊपर बालों के लटकने के कारण देख भी अच्छी तरह नहीं पाता। जाड़ों में झोरों और लंबी घास वाले मैदानों में पड़ा रहता है। जहाँ कोई असावधान मनुष्य पास तक पहुँचा कि यह जागा और चिपट पड़ा। मनुष्य ने देख नहीं पाया। और भालू ने दूर से ही आहट नहीं ले पाई, फल भालू का घोर और विकट आलिंगन। यदि उस आलिंगन से प्राण न निकले तो कई सप्ताह अस्पताल का सेवन तो करना ही पड़ता है।
गाँवों और नगरों में जिस रीछ का पीछा बच्चे हा हा, हू-हू नहीं अघाते और वह बिलकुल नहीं चिढ़ता, जंगल का तोहफा होते हुए भी प्रकृत्ति में अपने भाईबंदों से बिलकुल अलग पड़ जाता है। इतने सीधे जानवर की ऐसी निंदा! पर वह है यथार्थ।
अध्याय 16
एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया।
मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होकर रेल घूमती, कतराती गई थी। गहरे-गहरे खड्ड, गरमियों में भी जल भरे नदी-नाले और कौतुकों से भरी हुई नर्मदा। मंडला जिले में ही तो कान्हाकिसली का विशाल, किंतु वर्जित जंगल है। मंडला जिले में ही छोटे से सुंदर नाम और बड़े दर्शनवाला - मोती नाला है। नाम 'मोती नाला' ही है, परंतु इस नाम का जंगल बड़ा और विस्तृत, विहंगम और बीहड़ है। मोती नाला के जंगल में शेर बहुतायत से पाए जाते हैं। मार्ग में 'जगमंडल' नाम का बड़ा वन मिलता है। सरही और सागौन के भीमकाय वृक्ष भरे पड़े हैं। जल भरे नदी नालों की कोई कमी नहीं।
जगमंडल नाम के जंगल में भी शेरों की काफी संख्या है। साँभर, चीतल, वाइसन और भैंसे भी मिलते हैं।
एक दिन तो हम लोग टोह-टाप में लगे रहे। जिस नाले में निकल जाएँ उसी में शेरों के पदचिह्न। एक नाले में दोनों किनारों से आड़ी पगडंडियाँ पड़ गई थीं। वहाँ पर रेत में शेरों के इतने निशान मिले कि हम लोग अचरज में डूब गए। झाँसी जिले के नालों में जैसे ढोरों के निशान मिलते हैं वैसे शेरों के मिले। कुशल यही रही कि नालों की घास में कोई शेर पड़ा हुआ नहीं मिला।
हम लोगों को ठहरने के लिए जंगल विभाग की एक चौकी मिल गई थी। साधन संपन्न जंगलों में डेरे तंबू लगाते हैं; परंतु इनकी टीमटाम देखकर अल्प साधनवाले मनचले शिकारी हतोत्साहित हो जाते हैं। वे सोचते हैं, न इतना साज सामान होगा, न बड़े जंगलों का भ्रमण और जंगलों का शिकार उपलब्ध होगा। मैं भी नहीं जा सकता था; परंतु मेरे एक निकट संबंधी इन जिलों में बड़े पद पर थे, इसलिए एक दरी और एक चादर लेकर झाँसी से बाहर निकल पड़ता था। उनका निषेध है, इसलिए नाम लेकर कृतज्ञतापन तक से विवश हूँ।
दूसरे दिन दुपहरी में भटक-भटककर हम लोग डेरे पर आ गए। साथ में मंडला से आटा ले आए थे; क्योंकि इस ओर गाँव में दाल-चावल और मिर्च-मसाला तो मिल जाता है, परंतु आटा दुर्लभ है। भोजन शुरू ही किया था कि एक गोंड ने आकर समाचार दिया - नाहर ने गायरा किया है। उसकी बोली में - 'नाहर गायरा किहिस।'
पत्तल छोड़कर हम लोग उठ बैठे। उस समय तीन बजे होंगे। मचान बाँधने का सामान, रस्से, पानी का घड़ा और बिस्तर इत्यादि साथ लिए और चल दिए।
एक नाले में झाँस के नीचे एक बड़ा बैल दबा पड़ा था। उस बैल की कहानी कष्टपूर्ण थी। उस जंगल में रेलवे लाइन पर बिछाए जानेवाले शहतीर स्लीपर काटे जा रहे थे और जबलपुर के लिए ढोए जा रहे थे। जबलपुर से एक गाड़ीवाला शहतीरों को ढोने के लिए अपनी गाड़ी लाया। शहतीरों तक नहीं जा पाया था, मार्ग में एक पानीवाला नाला मिला। गाड़ीवाला ने बैल ढील दिए और पुल के नीचे एक चट्टान पर खाना बनाने लगा। बैल जरा भटककर डाँग में चले गए। उनमें से एक को सेर ने मार डाला। उसको सेर उठाकर लगभग तीन फलाँग की दूरी पर ले गया और झाँस के नीचे एक छोटे से नाले में दाब दिया। उस समय उसने बैल को बिलकुल नहीं खाया। सोचा होगा, रात आने पर सुभीते में खाएँगे।
बैल को नाले में से निकलवाया। छह आदमी उसको बाहर निकाल सके। लगभग साठ डग पर एक ऊँचा बरगद का पेड़ था। नीचे जरा हटकर आम और तेंदू के छोटे-छोटे गुल्ले थे। इनको साफ करवाकर एक पेड़ के ठूँठ की खूँटी का रूप दिया गया। बाँस के खपचे निकालकर उनसे बैल को पेड़ के ठूँठ से जकड़कर बाँध दिया गया।
मैंने बाँधनेवालों से पूछा, 'इन खपचों को तोड़कर सेर बैल को उठा तो नहीं ले जाएगा?'
उन लोगों तान-तानकर खपचों को खींचा और आश्वासन दिया- 'शेर इन खपचों को कैसे भी झटके से नहीं तोड़ सकेगा।'
मेरे सामने से एक बार तेंदुआ रस्सी तोड़कर बकरे को उठा ले गया था। मैं उस जगह उस अनुभव को दुहराना नहीं चाहता था।
गोंडों और कोलों के आश्वासन को मैंने मान लिया। उसका तद्विषयक अनुभव काफी था। हम लोगों को उनकी बात पर संदेह करने के लिए कोई कारण न था।
उस रात चैत की पूर्णिमा थी। दिन में गरमी रही, परंतु रात का सलोना सुहावनापन तो अनुभव के ही योग्य था। चारों ओर से महक भरे मंद झकोरे आ रहे थे। कहीं से चीतल की कूक और कहीं से साँभर की रेंक सुनाई पड़ रही थी। सियार भी कभी 'फे' कर जाता था।
हमारी मचान भूमि से लगभग पच्चीस फीट की ऊँचाई पर थी। मचान लंबी-चौड़ी थी, सीधे डंडों से पूरी हुई। ऊपर गद्दा और दरी। एक ओर डालों के तिफंसे में जल भरा घड़ा और कटोरा रखा था। मचान एक ओर से खुली हुई थी और तीन ओर से पत्तों से आच्छादित। उस पर केवल रीछ चढ़कर आ सकता था; शायद तेंदुआ भी - क्योंकि मैंने तेंदुए को अपनी आँखों पेड़ पर सहज गति से चढ़ते देखा है परंतु शेर चढ़कर नहीं आ सकता था। मचान के सिरहाने की तरफ मैं बैठा था, दूसरी ओर मेरे मित्र शर्माजी। मेरे सामने का भाग ज्यादा खुला था, शर्मा जी के सामने का कम।
मेरे अन्य मित्र काफी दूर अन्य मचानों पर थे।
आठ बज गए। चाँदनी खूब छिटक आई। मेरे सामने सौ गज तक खुला हुआ मैदान था, फिर घनी झाड़ी शुरू हुई थी।
आठ बजे के उपरांत इस खुले हुए मैदान में लगभग अस्सी गज की दूरी पर एक सफेद सफेद सा ढेर दिखलाई पड़ा। मैंने आँखों को गड़ाया। वह ढेर स्थित था। सोचा, आँखों का भ्रम है। कुछ मिनट बाद वह ढेर हिला और मचान की ओर थोड़ा सा बढ़ा। विश्वास हो गया कि शेर है और बंदूक की अनी पर आ रहा है। मैंने शर्मा जी को इशारा किया। उन्होंने ने भी अपने झाँके में होकर देखा। वह लगभग आधे घंटे तक ठिठकता-ठिठकता सा चला। फिर उसने उस नाले पर छलाँग भरी, जिसमें वह दिन में मारे हुए बैल को ठूँस आया था। इसके उपरांत वह दृष्टि से लोप हो गया। बाट जोहते-जोहते ग्यारह बज गए। चाँदनी निखरकर छिटक गई थी। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। शर्मा जी ने सिर और आँखों पर हाथ फेरकर नींद की विवशता प्रकट की। मेरे भी सिर में दर्द था। हम दोनों लेट गए। मैंने सोचा, गायरा प्रबल खपचों से बँधा हुआ है। शेर आकर जब बैल के उठाने का उत्कट प्रयत्न करेगा, हम लोग सोते ही न पड़े रहेंगे। लेटते ही सो गए, क्योंकि मचान पर किसी विशेष संकट की आशंका न थी।
चाँदनी ठीक ऊपर चढ़कर थोड़ी सी वक्र हो गई थी। एक बजा था, जब मुझको पेड़ के नीचे कुछ आहट मालूम पड़ी। मैं यकायक उठकर नहीं बैठा। मचान पर का जरा सा भी शब्द सुनकर यदि शेर होगा तो फिर नहीं आएगा- शायद महीने-पंद्रह दिन तक न आवे; क्योंकि शेर तेंदुए की तरह ढीठ नहीं होता। मैं बहुत धीरे-धीरे उठा। आँखें मलकर मचान के नीचे झाँका। कोई दो छोटे जानवर बरगद की सूखी पत्तियों को रौंद-रौंदकर बैल की घात लगा रहे थे। बैल को भी देखा संदेह था, कहीं उस समय शेर उसको न घसीट ले गया हो, जब सो रहे थे। बैल समूचा पड़ा था। शेर उसके पास नहीं आया था।
मैं कुछ क्षण ही इस तरह बैठा था कि सामने से शेर आता दिखलाई पड़ा। शेर के आने के पहले ही वे दोनों जानवर भाग गए। मैं जब लेटा था, मैंने अपनी राइफल का तकिया बनाया था। शर्मा जी दुनाली बंदूक छाती पर रखे हुए सो रहे थे। मैं राइफल को उठाने के लिए मुड़ नहीं सकता था। मुड़ते ही मेरी गति को शेर देख लेता और भाग जाता, सारी कमी कमाई मेहनत और लालसा व्यर्थ जाती। मैंने शर्मा जी की छाती पर से धीरे से दुनाली उठा ली। उनको जगाने का समय तो था ही नहीं। बंदूक के घोड़े चढ़े हुए थे और नालों में गोलियों के कारतूस पड़े थे। परंतु मुझे अपनी राइफल का अधिक भरोसा रहा है; लेकिन उस मौके पर राइफल उठाना मेरे लिए संभव न था। दुनाली लेकर मैंने बैल पर सीधी कर ली। झुक गया और एकाग्र दृष्टि से अपनी ओर आते हुए शेर को देखने लगा।
शेर बड़ी मस्त चाल से आ रहा था। बगल की पहाड़ी पर पतोखी बोली। अलसाते-अलसाते उठाते हुए अपने भारी पैरों को शेर ने एकदम सिकोड़ा, बिजली की तरह गरदन मरोड़ी, पीछे के पैरों को सधा और जिस पतोखी बोली थी उस ओर एकटक देखने लगा। जब वह उस ओर से निश्चिंत हो गया तब मचान की ओर बढ़ा।
खरी चाँदनी में उसकी छोहें स्पष्ट दिख रही थीं। सफेद भाल और छपके चमक रहे थे। भारी भरकम सिर की बगलों में छोटे-छोटे कान विलक्षण जान पड़ते थे। शेर जरा सा मुड़ा, तब उसके भयंकर पंजे और भयानक बाहु और कंधे दिखलाई पड़े। गरदन जबरदस्त मोटी और सिर से पीठ तक ढालू। उसके पुट्ठों को देखकर मन पर आतंक सा छा गया। सोचा, यदि बड़े-से-बड़ा खिसारा सुअर इससे भिड़ जाय तो कितनी देर ठहरेगा? परंतु सुअर इससे भिड़ जाता है और देर तक सामना भी करता है।
शेर फिर मचान के सामने सीधा हुआ। उसने मेरी ओर गरदन उठाई। चद्रंमा के प्रकाश में उसकी आँखें जल रही थीं। वह टकटकी लगाकर मेरी ओर देखने लगा और मैं तो आँख गड़ाकर उसकी ओर पहले से ही देख रहा था। एक क्षण के लिए मन चाहा कि गोली छोड़ दूँ; परंतु जंगल का शेर और इतना बड़ा जीवन में पहली बार देखा था, इसलिए मन में उसको देखते रहने का लालच उमड़ा। कभी उसके सिर और कभी उसकी छाती तो देखता था। ऐसी चौड़ी छाती जैसी किसी भी जानवर की न होती होगी।
शेर कई पल मेरी ओर देखता रहा। उसको संदेह था। वह जानना चाहता था कि मैं हूँ कौन? पर मैं अडिग और अटल था। उसको बाल बराबर भी हिलता नहीं देखा। जब शेर मेरा निरीक्षण कर चुका तब बैल के पास गया। उसने अपना भारी जबड़ा बैल के ऊपर रखा और दाढ़े गड़ाकर एक झटका दिया। एक ही झटके में कई आदमियों के बाँधे हुए बाँस के खपचे तड़ाक से टूट गए। दूसरी बार मुँह हाल कर जो उसने झटका दिया तो बैल तीन-चार हाथ की दूरी पर जा गिरा। इस समय उसकी पीठ मेरी ओर थी। उसने बैल को एक और झटका दिया। बैल चार-पाँच डग पर जाकर गिरा। मुझको लगा, अब यह चला। सवेरे जब मित्रगण इकट्ठे होंगे तब मेरी इस बात को कोई न सुनेगा कि मैं शेर की लोचों का अध्ययन कर रहा था सब कहेंगे कि मैं डर गया था। मैं मनाने लगा कि किसी तरह यह मेरे सामने अपनी छाती फेरे।
सेर ने कुछ क्षण के लिए मेरे सामने अपनी छाती की। बंदूक तो मिली हुई हाथ में थी ही। मैंने गोली छोड़ी। शेर ने काफी ऊँची उछाल लेकर गर्जन किया। शर्मा जी जाग उठे। उन्होंने भी सुना और देखा।
शेर ने नीचे गिरकर तुरंत एक तिरछी उचाट ली और आँखों से ओझल हो गया।
उसी समय मचान से उतरकर अनुसंधान करने का सवाल ही न था; क्योंकि कुछ पहले इसी प्रकार का प्रयत्न करते हुए इलाहाबाद के एक अँगरेज वकील श्री डिलन फाड़ डाले गए थे; और जैसा कि दो दिन बाद मंडला पहुँचकर हम लोगों ने सुना, कलकत्ता हाई कोर्ट के जज श्री चौधरी के भाई जो वकील थे इसी जंगल से कुछ मील दूर इसी रात इसी प्रकार के प्रयत्न में मार डाले गए थे।
हम लोग मचान से नहीं उतरे। बातें करते-करते सवेरा हो गया। हम लोगों के मचान से उतरने के पहले ही मित्र लोग वहाँ आ गए। आते ही उन्होंने भूमि का निरीक्षण किया। जहाँ गोली चली थी वहाँ खून की एक बूँद भी न थी।
एक साहब बोले, 'गोली चूक गई।'
मैंने कहा, 'असंभव।'
नीचे उतरकर देखा, शेर के खून की बूँदें मिलीं। जरा आगे बढ़े कि हड्डी के टुकड़े, और आगे बढ़े तो खून की धार। परंतु हड्डियों के टुकड़े और रक्त की धार लगभग आधा मील तक मिली। एक नाले में उसने पानी पिया और नाले के उस पार के जंगल की लंबी घनी घास में विलीन हो गया। कई दिन बाद उसकी लाश सड़ी हुई मिली। गोली हँसुली की हड्डी पर पड़ी थी। चोट करारी थी, परंतु फिर भी वह इतनी दूर निकल गया।
दूसरे दिन उसी मरे बैल के गायरे को बाँधकर शर्मा जी और मैं बरगद के मचान पर जा बैठे। रात भर जागते रहे, लेकिन मचान तले कोई भी नहीं आया। परंतु अन्य मित्रों को विचित्र अनुभव प्राप्त हुए।
कई मित्र मचान बाँधकर पानी के पोखरे के पास बैठे थे। शुद्ध चाँदनी रात थी। खूब दिखलाई पड़ता था। पोखरे पर पहले दो बाइसन आए। बाइसन के मारने की मनाही थी, इसलिए गोली नहीं चलाई गई। उनके उपरांत एक शेर आया। मित्र को सिगरेट पीने की थी आदत। इधर सिगरेट ने खाँसी पैदा की, उधर शेर छलाँग भरकर ओझल हो गया।
दूसरे मित्र भी एक सज्जन के साथ मचान पर बैठे थे, और यह मचान मैंने ही बँधवाई थी। मचान एक गहरे और चौड़े नाले के किनारे के एक पेड़ पर थी। नाले में पानी न था, परंतु जानवरों के निकलने का उधर होकर मार्ग था।
जब मैं नाले में खड़ा हुआ तब वह पेड़ काफी ऊँचा दिखलाई दिया। मैंने सोचा, इस पर का मचान बिलकुल सुरक्षित रहेगा। पर वह पेड़ किनारे के धरातल से केवल दस-ग्यारह फीट ही ऊँचा था।
दिन में मचान बाँधे जाने के बाद हम लोग सब अपनी-अपनी जगह जा बैठे। जब सवेरे सब लोग मिले, नाले की ढीवाले मचान के शिकारियों का अनुभव सुनकर हम सबको दंग रह जाना पड़ा। उन्होंने बतलाया -
'नौ बजे के लगभग मचान के पास गुरगुराने की आहट मिली। हम लोग सावधान होकर उस दिशा की ओर देखने लगे, जहाँ से गुरगुराहट सुनाई पड़ी थी। कुछ ही क्षण बाद एक बड़ी शेरनी अपने दो बच्चों के साथ धीरे-धीरे झूमती-झूमती मचान के नीचे आई। बच्चे कलोल में थे और गुरगुरा रहे थे। शेरनी मचान के नीचे बैठ गई। वह जरा सी उठाल लेकर मचान पर बैठे हुए शिकारियों के नीचे पटक ला सकती थी। शेरनी के बच्चे कभी आपस में उलझते और लिपटते, तो कभी शेरनी के भारी शरीर को अपने खेल-कूद का अखाड़ा बनाते। जब दूरी से चीतल या साँभर की आवाज आती तो शेरनी अपने पंजे की मुलायम गद्दी से बच्चों को चुपका कर देती और जबड़े को जमीन से सटाकर ध्यान के साथ कुछ सुनती और देखती। चंचल बच्चे जब उसकी गहरी बगलों में से, उतावले होकर, जंगल के जगत का कारबार समझने के लिए सिर उठाते, वह पंजे की गद्दीदार ठोकर से उनको बुद्धि देने का प्रयास करती। एक बार एक बच्चा कूदने-फाँदने के लिए विकल हो गया तो शेरनी ने हलकी सी चपत जमा दी। चपत ने उस बच्चे को कुछ समझदारी दी और कुनमुनाकर अपनी माँ की बगल में सट गया। थोड़ी देर में नाले के उस पार पेड़ों की छाया में एक बड़ा आकार आया। समझ में नहीं आया, क्या था। शेरनी उस आकार को देखकर फरफराकर खड़ी हो गई और उसने अपने गले में जिस स्वर को दबाकर नाक से निकला, वह बहुत दूर से सुनाई पड़नेवाली भूकंप की सी आवाज थी। मचान पर बैठे एक शिकारी ने बंदूक पर उँगली पसारी। दूसरे शिकारी ने हाथ पकड़ लिया। बिलकुल संभव यह था कि शेरनी केवल घायल होती और निश्चित यह था कि वह घायल होकर मचानवाले किसी भी शिकारी को न छोड़ती।'
मचान बँधवाने के समय मेरे मन में, पेड़ की ऊँचाई के विषय में, नाले की गहराई में खड़े रहने के कारण भ्रम हो गया था। वैसे वह मचान तो तेंदुए के भी शिकार के योग्य न थी।
बाहर फीट की ऊँचाईवाली मचान से तो एक बार नयागाँव छावनी के पास तिंदरी पहाड़ी के नीचे एक पेड़ पर मचान बाँधकर बैठे हुए शिकारी को घायल होते ही तेंदुए ने उछलकर नीचे पटक लिया था और उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले थे। फिर शेर के लिए यह मचान केवल दस-ग्यारह फीट की ही ऊँचाई पर थी। बंदूक चल जाती तो गजब हो जाता।
एक चौथी मचान और थी। उस मचान को एक बिलकुल बेढंगी सुनसान जगह में बाँधने की सूझ शिकारी को उसकी झक ने दी थी। शिकारी बिलकुल अकेले, बहुत दूर और बिलकुल बीहड़ झाड़ी में बैठना चाहते थे - शेर वहाँ आए, चाहे न आए।
शेर तो क्या, उनके मचान के पास एक चूहा भी नहीं आया। लाल आँखों सवेरा हुआ।
इसके बाद मैं अनेक बार अमरकंटक पहाड़ पर शेर के लिए गया। अमरकंटक पहाड़ के पठार के समतल पर एक छोटा सा खेत है। उसकी पश्चिमी दरार आगे चलकर नर्मदा बनी है और पूर्ववाली सोन। मजे में अपने दोनों पैर दोनों दरारों पर रखे जा सकते हैं; परंतु कुछ मील जाकर उस पठार पर से दोनों के भयंकर प्रपात हैं। अमरकंटक पर कुछ पेड़ ऐसे मिले, जिनके पत्तों से जून के महीने में रात्रि के समय बारीक फुहार झरती थी। वहीं मलिनियाँ नाम की एक बेल देखी, जिसमें लाल-लाल छोटे-छोटे फल लगे थे। हम लोगों ने फल चखे, स्वादिष्ट लगे। ग्रीष्म ऋतु में बघेलखंड के अनेक किसान अपने ढोर अमरकंटक के पठार पर चराने के लिए ले आते हैं।
पठार प्रकृत्ति के सौंदर्य का कोष है। उन दिनों जंगल में फूलों से लदे जूही के पेड़ मैंने विंध्यखंड के इसी स्थान में देखे। घूमते-घूमते एक स्थल पर पहुँचे, जिसको 'सूमपानी' कहते थे। सूमपानी शायद इसलिए कि पानी पहाड़ में से थोड़ा-थोड़ा करके रिसता था। इस पानी के आगे पहाड़ की एक घूम थी और मार्ग सँकरा। नीचे बड़ा भारी खड्ड। हम लोग घूम के इस सिरे पर थे, दूसरे सिरे पर कोमल कंठ निःसृत एक सामूहिक गान सुनाई पड़ा। ऐसे घने बीहड़ जंगल में यह सुरीला गान कहाँ से आया? थोड़ा आगे बढ़े तो जंगल की कुछ स्त्रियाँ और कन्याएँ रंग-बिरंगे फूलों से अपने केश सजाए, डलियाँ बगल में दाबे, फटे कपडे पहने आ रही थीं। हम लोगों को देखकर वे संकोच में मुसकाईं और गाना बंद कर दिया। हम लोग आगे बढ़ गए। मेरे मन में एक टीस उठी- हमारे देश की सुंदरता और संस्कृति ऐसी दरिद्रता में सनी हुई है।
जब पठार पर पहुँचकर नर्मदा के प्रपात को देखने गए, ऊपर की ओर बगल में एक छोटा सा बंगला देखा। उसमें शायद कोई संन्यासी या प्रवासी रहते थे। संन्यासी का अनुमान इसलिए करता हूँ कि उसमें से वनकन्या या देवकन्या के समान सौंदर्यवाली एक युवती निकली, जो गेरुए वस्त्र धारण किए हुए थी और चौड़े मस्तक पर भस्म का त्रिपुंड लगाए हुए थी। यदि जीवन रोमांस है - मुझे तो बहुलता के साथ मिला है तो उस कुटी में अवश्य था।
प्रपात के नीचे हम लोग नहाने को उतरे। स्नान से निवृत्त हुए थे कि समाचार देनेवाले ने सूचना दी 'नायरा ने गायरा किया है।' जेबों में गुड़ और भुने हुए चने डाले और रास्ते में खाते-पीते, पहाड़ के उतार-चढ़ाव को नापते हुए सूर्यास्त के पहले पाँच मील की दूरी तय करके गायरे के पास पहुँच गए। एक खड्ड के ऊपर बड़ा पेड़ था। उसपर कलमुँहे बंदर बहुत चीं-चिख कर रहे थे। जरूर शेर वहीं कहीं छिपा होगा, हम लोगों ने निष्कर्ष निकाला। पास ही एक मारे गए भैंसे का गायरा पड़ा था।
शेर जानवर की गरदन ऊपर से पकड़ता है और तेंदुआ नीचे से। भैंसे की गरदन पर ऊपर से दाढ़ों की फाँस पड़ी थी। निश्चय ही उसको शेर ने मारा था।
परंतु मचान बनाने में इतना हो हल्ला हुआ की शेर नहीं आया। रात भर आँखें गड़ाए रहे, लेकिन सिवाय एक रीछ के और मचान के पास कोई जानवर नहीं निकला।
शेर के लिए मैंने होशंगाबाद के भी कुछ जंगलों को छाना है। जंगलों की विशालता और महानता तो देखने को मिली, परंतु शेर नहीं मिला। एक स्थान पर गायरे की खबर पाकर गए। शेर ने गाय मार डाली थी। एक ऊँची मचान बनाई। चारों ओर से उसको ढाँका। सूर्यास्त के पहले ही मचान पर आसन जमा लिया। परंतु ठीक समय न जाने कहीं से असंख्य चींटे आ गए। आफत हो गई। बड़ी कठिनाई के साथ उनसे पार पा रहे थे कि पगडंडी पर शेरनी आती हुई दिखलाई दी। मंडला जिले में जो शेर देखा था उससे छोटी थी; परंतु उससे कहीं अधिक लचीली और फुरतीली। मैं चींटा युद्ध में व्यस्त था। मचान थोड़ी-थोड़ी हिल रही थी। शेरनी ने देख लिया, वह तुरंत चल दी। एक बार अपने जिले की हद से जरा हटकर हम लोग शिकार खेलने के लिए गए। संध्या के समय ठीहे के लिए जा रहे थे कि बगल की छोटी सी झाड़ी में शेर दिखलाई पड़ा। गोल बाँधकर हम लोग उसके पीछे पड़ गए। भाग्य की बात कि वह हम लोगों से अधिक बुद्धिमान था, वह भाग गया और हम लोग अपने सिर चिथवाने से बच गए।
ठीहे के लिए आगे बढ़े। बादल घिर आए और इतनी जोर का पानी बरसा कि शिकार-विकार सब भूल गए। कपड़े, बिस्तर, हथियार - सब बिलकुल जलमग्न हो गए। जब ठौर पर पहुँचे, घंटों कपड़ों के सुखाने में लग गए। दो बजे रात को कुछ भोजन मिला और तीन बजे थोड़ी सी नींद। सवेरे एक गप्पी ने शिकार के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखलाए। कमबख्ती के मारे ऊँट चढ़े कुत्ते काटते हैं। दो दिन पहाड़ों में मारे-मारे फिरे, भूखे-प्यासे, कुछ भी न मिला। मिला क्या, दिखा तक नहीं। परंतु मसखरे साथी संग में थे, इसलिए भूख-प्यास, भटक और वह कठोर वर्षा के भी नहीं अखरी। जब लौटकर झाँसी आया तब मालूम हुआ श्री बद्रीनाथ भट्ट आए हुए हैं। भट्ट जी पुराने मित्र थे। उन दिनों अस्वस्थ थे। जलवायु परिवर्तन के लिए आए थे। झाँसी से दो मील दूर मैंने एक कृषि फॉर्म बनाया था और एक मकान खड़ा कर लिया था। एकांत स्थान और जलवायु अच्छा। भट्ट जी वहीं ठहर गए।
मुझसे बोले, 'लोग कहते हैं कि हिंदी के लेखक होकर आप शिकार खेलते हैं।'
मैंने कहा, 'लोगों का आरोप ठीक ही होगा, क्योंकि हिंदी के लेखक सिवाय धर्म और नीति के और किसी विषय पर लिखते ही कहाँ हैं!'
भट्ट जी विकट दुःख दर्द में भी हँसने हँसान में सचेष्ट रहते थे।
उन्होंने कहा, 'देखिए, हिंदी का लेखक उनको कहना चाहिए, जो सदा सिर झुकाकर चले, इधर-उधर कुछ न देखे। और बाजार में जब कोई सौदा लेने जाय तब चार पैसे की चीज के चार आने देकर घर आवे।'
मैंने भट्ट जी को इस बार की अपनी शिकार यात्रा का विवरण सुनाया। उसमें मनोरंजन के लिए कोई सामाग्री न थी, केवल पैर तोड़नेवाली यात्रा के क्रम थए।
उस दिन की कठोर वर्षा के दुःख को तो मैं जल्दी भूल गया, परंतु उससे लड़ने में जो प्रयत्न किया था, वह सदा याद रहा।
अध्याय 17
जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इसको 'सुना कुत्ता' कहते हैं।
अकेला-दुकेला सुना कुत्ता कुछ नहीं कर सकता; परंतु यह चालीस पचास से भी अधिक संख्या के झुंड में रहता है। और जानवर तो रात में शिकार खेलते हैं, यह दिन में ही बंटाढार करता है। जिस जंगल में सुना कुत्तों का झुंड पहुँच जाता है। उस जंगल के जानवरों का या तो सर्वनाश हो जाता है या वे ठौर छोड़कर दूर जंगलों में चले जाते हैं। यहाँ तक कि शेर भी उस जंगल को छोड़कर अन्यत्र चल खड़ा होता है। जब सेर के लिए खाने को जंगल में कुछ नहीं रहता तब उसको विवश होकर निर्वासन स्वीकार करना पड़ता है। केवल भोजन की अप्राप्यता ही शेर के कष्ट का कारण नहीं है, सुना कुत्तों का झुंड शेर को घेरकर मार भी डालता है। इसलिए शेर इस शैतानी झुंड से बहुत डरता है।
अन्य जानवरों की तरह सुना कुत्तों के झुंड का भी अगुआ होता है। इनमें जासूस, हरावल नायक, पहलेवाले इत्यादि सभी होते हैं। सुना कुत्ते मनुष्य से भी नहीं डरते; परंतु वे मनुष्य पर वार तब करते हैं जब उनको जानवर खाने को नहीं मिलते या जब उनके पास एक दूसरे को खा जाने का सुभीता नहीं रहता।
इनका जासूस स्काउट भोज्य पदार्थ की खबर देता है। सारा झुंड अंगड़ाई लेकर खड़ा हो जाता है। फुरेरू ली, धरती खोदकर नाखून तेज किए, जबड़े समेट कर दाँत पीसे और सबके सब चल दिए।
परंतु ये जानवर पर अंधाधुंध धावा नहीं बोलते। इसकी योजना किसी भी चतुर सेनापति की दक्षता को चुनौती देनेवाली होती है।
पहले इनका जासूस साँभर, चीतल, रोज, गुरायँ इत्यादि जानवरों के झुंड को दूर से दिखला देता है, फिर मुखिया जासूस को साथ लेकर चारों ओर चक्कर काटकर मार्के के स्थान देखता है। इसके बाद मुखिया अपने सारे दल को टुकड़ियों में बाँटकर मोरचाबंदी करता है। मोरचे चारों ओर से बाँध लिए जाते हैं। महत्व का कोई भी स्थान संभावना के लिए नहीं छोड़ा जाता।
इतना कर लेने के उपरांत मुखिया कूका देकर मानो आक्रमण करने का बिगुल बजाता है।
घिरा हुआ जानवर चौंककर इधर-उधर देखता है। दिखलाई कुछ नहीं पड़ता। कूके सुनाई पड़ते हैं। घेरा संकीर्ण होता चला जाता है। जैसे ही जानवरों ने निकल भागने के लिए उछल-कूद की कि सुना कुत्तों का एक दल आ चिपटा; बाकी सेना भी आई और कुछ क्षणों में ही जानवर साफ।
सुना कुत्ते शेर को भी घेरकर, सताकर और थकाकर मार डालते हैं। शेर को ये दिन-रात चैन नहीं लेने देते। नोचते-काटते रहते हैं। वह खिसिया-खिसियाकर इनपर झपटता है; पर ये हाथ नहीं आते। अंत में थका-माँदा और भूखा प्यासा शेर मारा जाता है और ये उसको चट कर जाते हैं।
इसके शिकार के लिए काफी सावधानी की जरूरत है। काँटों की घनी बिरवाई करके देखने और बंदूक चलान के लिए उसमें कई ओर छेद कर लिए जाते हैं। शिकारी महुआ, आम या बाँस के पत्ते की कोमल कोंपल क ओठों में दबाकर साँभर, चीतल के त्रस्त बच्चे की रुलाई या पुकार का अनुकरण करता है। उस शब्द पर कूके लगाते हुए और घेरा डालते सुना कुत्ते आ जाते हैं। पास आते तुरंत ही छर्रे के कारतूस चलाने की आवश्यकता है। जैसे ही एक-दो मरे या घायल हुए कि बाकी उनपर टूट पड़ते हैं और खाने में संलग्न हो जाते हैं। उसी समय झुंड पर लगातार छर्रे की वर्षा करनी अनिवार्य है। जब झुंड इस छिपी बला से अनपी संख्या को काफी घटा हुआ देखता है तब भागता है। ऐसी परिस्थिति में शिकारी सुरक्षित है।
सुना कुत्ते के नाश के लिए विविध प्रांतों में विविध प्रकार के पुरस्कार नियुक्त हैं। वैसे रक्षित जंगलों में बिना अनुमति के शिकार नहीं खेला जा सकता, परंतु सुना कुत्तों को मारने के लिए कोई शिकारी रक्षित वन में घुस सकता है और उनको मारकर पुरस्कार पा सकता है।
सुना कुत्ते की भूख मानो एक दहकता हुआ अग्निकुंड है। खाता चला जाएगा और फिर भी अतृप्त रहेगा। इसकी भूख की तुलना भेड़िए की भूख से की जा सकती है। परंतु न तो उसका झुंड इतना बड़ा होता है और न इतना भयानक।