दबे पाँव (कहानी) : वृंदावनलाल वर्मा

Dabe Paanv (Hindi Story) : Vrindavan Lal Verma

अध्याय 8

खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाखूनों से मारे जानेवालों की अपेक्षा कहीं अधिक होती है। प्रत्येक वर्ष के औसत की कहानी है।

सुअरों की संख्या इतनी शीघ्रता के साथ बढ़ती है कि उसकी बाढ़ में किसी बड़े षड्यंत्र का हाथ सा दिखलाई पड़ता है।

दो-तीन वर्षों में ही एक जोड़ के कम से कम पचास जोड़ हो जाने की संभावना रहती है।

यह जानवर बहुत दृढ़, बड़ा कष्टसहिष्णु, विकट बहुभोजी और बहुत मार पी जानेवाला होता है। बहादुर इतनी कि इसके मुकाबले में शेर भी उतना नहीं होता। खीसें इसका हथियार हैं और बल का कोष इसकी गरदन और कंधे। और इसका सिर तो मानो पत्थर का एक ढोंका ही होता है। जिसने एक बार इस खीस का सिर की टक्कर खाई, वह उसको कभी भूल नहीं सका अर्थात् यदि उस टक्कर के कारण मर न पाया तो।

उतरती बरसात के दिन थे। सूर्यास्त होने में विलंब था। बदली छाई हुई थी और ठंडी हवा चल रही थी। मैं अपने एक मित्र के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में घुसा नहीं था कि दो छोकरे दो कुत्ते लिए हुए मिल गए। कुत्ते आगे-आगे दौड़ रहे थे और कलोलों पर थे। मैंने उन छोकरों को कुत्ते पकड़कर लौटने के लिए कहा। उन्होंने प्रयत्न करके एक कुत्ता पकड़ पाया। दूसरा जंगल का रुख पकड़ गया।

हम लोग उस कुत्ते को पकड़ने की चिंता में जंगल के सिरे पर पहुँच गए। झाड़ी शुरू हो गई थी, परंतु घनी न थी।

निदान, वह कुत्ता एक छोटी सी झाड़ी के पास जा ठिठका। हम लोग उसके पास पहुँच गए। वह झाड़ी मेरे सामने थी। दाईं और चार-पाँच कदम के अंतर पर मेरे मित्र दुनाली बंदूक लिए खड़े हो गए। एक कुत्ते को एक छोकरा साफे के छोर से बाँधे हुए बाईं ओर चार-पाँच कदम के फासले पर ओर दूसरी उसके बराबर खड़ा हो गया। मेरे मित्र दाईं ओर से हटकर जरा और सामने आए।

उस दूसरे आवारा कुत्ते ने झाड़ी में मुँह डाला। सूँघा और फूँ-फाँ की। मैंने समझा, झाड़ी में खरगोश होगा।

परंतु उस झाड़ी में से कूदकर निकला एक मझोला सुअर। वह सीधा मेरे ऊपर आया।

मैं 30 बोर का राइफल लिए था। भरी हुई थी; परंतु नाल पर ताला पड़ा था। मेरे मित्र बंदूक नहीं चला सकते थे। चलाने पर गोली या तो मुझपर पड़ती या उन दो छोकरों में से एक पर। मैं भी नही चला सकता था। मेरी गोली या तो उन मित्र पर पड़ती या किसी छोकरे पर।

उन दोनों छोकरों के मुँह से निकला, 'ओ मताई, खा लओ!' और वे बिना किणसी प्रत्यक्ष कारण के पोंदों के बल धम्म से गिरे। उसी क्षण सुअर मेरे ऊपर आया। क्षण के एक खंड में मैं समझ गया कि आज हड्डी पसली टूटी।

और तो कुछ कर नहीं सकती थी। मैंने सुअर के आक्रमण को बंदूक की नाल पर झेला। कंधों और हाथों को काफी कड़ा करके मैंने सुअर के आक्रमण को झेला था; परंतु उसने मेरी दाहिनी टाँग को दो छिद्दे दे ही तो दिए। ये छिद्दे घुटने के नीचे पड़े थे।

सुअर अपना थोड़ा सा परिचय देकर भागा। मैंने अपना परिचय देने के लिए उसका पीछा किया; परंतु मैं दस-पद्रंह डग से आगे न जा सका। पैर भारी हो गया और जूतों में खून भर आया। खिसियाकर रह जाना पड़ा। पैर की हड्डी टूटने से तो बच गई, परंतु मैं घायल इतना हो गया था कि लँगड़ाते-लँगड़ाते चलना भी दुष्कर हो गया।

इस स्थान से बेतवा का किनारा लगभग एक मील था। हम लोगों ने उस रात नदी के एक बीहड़ घाट पर ठहरने की सोची थी। पैर में गरमी थी, इसलिए घाट पर पहुँचने में कोई बाधा नहीं जान पड़ी। घाट पर पहुँचे तो देखा कि वहाँ बिस्तर-विस्तर कुछ नहीं। जिस गाँव में डेरा डाला था वह इस घाट के लगभग ढाई मील दूर था। परंतु ऊपर की ओर हम लोगों ने, बेतवा की ढी में, एक ठीहा और बना रखा था। सोचा, बिस्तर वहाँ रख दिए होंगे। अभी अँधेरा नहीं हुआ था, इसलिए हम लोग उस ठीहे की ओर चल पड़े। वह इस घाट से डेढ मील की दूरी पर था। पैर लँगड़ाने लगा था; परंतु मन को आशा में उलझाए हुए वहाँ पहुँच गया।

देखें तो बिस्तर वहाँ भी नहीं। घाट पर बिस्तर रखने के लिए जो शिकारी नियुक्त था, वह या तो भूल गया था या भ्रम में था कि शायद हम लोग गाँव को लौट आवें; क्योंकि सुअर की टक्कर का समाचार गाँव में पहुँच गया था।

मेरा पैर सूज गया था और घाव में पीड़ा थी। घाट पर बिना बिस्तरों के ठहर नहीं सकते थे। मेरे मित्र चिंतित थे। बोले, 'आप गड्डे में बैठिए, मैं गाँव से बिस्तर और भोजन लेकर आता हूँ।'

मैंने कहा, 'न, मैं भी चलता हूँ। घाव को गरम पानी से धोकर प्याज का सेंक करेंगे।'

हम दोनों गाँव की ओर चल दिए। मैं कभी मित्र का और कभी बंदूक का सहारा लेता हुआ गाँव में नौ-दस बजे तक पहुँच गया। रात को घी में भूने हुए प्याज का सेंक दिया। कुछ दिनों में घाव अच्छा हो गया। उसमें पीप नहीं पड़ी। परंतु उसके थोड़े से निशान अब भी मौजूद हैं। सुअर की चोट का घाव विषैला नहीं होता है, गाँववालों ने यह मुझको उसी रात बतलाई थी। परंतु शिकार में ऐसी चोटों का लग जाना एक साधारण बात है।

सुअर के शिकार के लोभ में एक बार जरा कड़ी चोट खाई थी।

अगोट पर बैठे-बैठे जब थक गया तो गाँव को लौटा। साथ में गाँव का पथ-प्रदर्शक था। रात काली अँधेरी थी और मार्ग जंगली पगडंडी का।

पथ-प्रदर्शक जरा आगे निकल गया। पगडंडी एक जगह बंद सी जान पड़ी। मैं समझा, आगे दूबा है और वह उसी में लुप्त हो गई है; पर वह निकला एक भरका। लगभग चौदह फीट गहरा। मैं धड़ाम से उसमें गिरा। बंदूक हाथ में लिए था। उसके बल जा सधा, नहें तो दाहिना हाथ तो टूट ही जाता जिससे लिखना सीखा था।

हाथ तो बच गया, परंतु जबड़े का धक्का कान पर लगा। वह एक कष्टदायक फोड़े के रूप में परिवर्तित हो गया। सात महीने के लिए काम और शिकार दोनों छोड़ने पड़े। इसमें से दो महीने चीर-फाड़ के सिलसिले में लखनऊ में बिताए।

जब स्वस्थ हो गया तो फिर ध्यान में सुअर आया।

सुअर का शिकार जितना 'बहुजनहिताय बहुजनसुखाय' है उतना ही मनोरंजन और सनसनी देनेवाला भी होता है। उसके शिकार का संकट ही कदाचित मन को बढ़ावा देता है।

मैंने सुअर के सताए हुए बहुत से लोगों को देखा है किसी की जाँघ फाड़ डाली गई थी, किसी का हाथ तोड़ दिया गया था और किसी की आँतें बाहर निकाल दी गई थीं। कई तो मार भी डाले गए थे।

बेचारा मंटोला को फटी जाँघों का इलाज कराने के लिए तीन महीने अस्पताल में रहा था।

गाँव के लोग सुअर की सीध और संकट को जानते हैं, इसलिए उससे बहुत सावधान रहते हैं। ज्वार के खेत में जब अकेला सुअर आता है तब वह रखवाले की ललकार का उत्तर ढिठाई के साथ उसके पास आकर देता है। रखवाला उसके ऊपर जलते हुए कंडे और सुलगते हुए लक्कड़ फेंककर भागते-भागते जान छुटाता है।

जब सनसनाती हुई दुपहरी में मैं एक ग्रामीण के साथ पहाड़ पर चढ़ते-चढ़ते एक सुअर को पड़ा पा गया, तब ग्रामीण घबराकर पेड़ पर चढ़ गया। मैंने राइफल चलाई। सुअर लुढ़कता-पुढ़कता पहाड़ के नीचे गया; परंतु एक जगह सहारा पाकर ठहर गया और फिर मुझसे बदला लेने के लिए पहाड़ पर चढ़ा। इतना घायल होते हुए भी; परंतु मेरे पास राइफल और कारतूस। उसको मार खाकर फिर वापस जाना पड़ा।

एक बार तो सुअर घायल होकर लगभग सौ गज से मेरे ऊपर दौड़ आया था।

करामत मियाँ को हिरन का शिकार खेलते-खेलते सुअर मिल गया। बंदूक कारतूसी तो थी, पर थी एकनाली। सुअर पर दाग दी। सुअर घायल हुआ और आया करामत के ऊपर। बंदूक फेंककर एक पेड़ का सहारा पकड़ना पड़ा, तब प्राण बचे।

एक ठाकुर की तो गड्ढे में लाश ही पड़ी मिली थी। थोड़ी दूर पर सुअर भी मरा मिला। ठाकुर रात के पहले ही काँटेदार गड्ढे में जा बैठा। बंदूक टोपीदार थी। निशाना जोड़ पर नहीं बैठा। लोगों ने बंदूक चने की आवाज सुनी। सवेरे गड्ढे के भीतर ठाकुर को जगह-जगह फटा हुआ पाया गया और सुअर के खुरखुंद के चिह्न।

घायल सुअर का पीछा शिकारी कुत्ते बहुत अच्छा करते हैं। एक डाँग में मेरे एक साथी ने सुअर को घायल किया। उसके पास कुत्ते थे तो छोटे-छोटे, पर वे थे सीखे हुए। उसने घायल सुअर के ऊपर कुत्तों को छोड़ा। कुत्तों ने लगभग आधा मील पछिया कर सुअर को जा पकड़ा।

मैं भी दौड़ता-दौड़ता पीछे गया। जब निकट पहुँचा तो देखा कि कुछ कुत्ते उसकी पूँछ पकड़े हुए हैं, कुछ दोनों तरफ से उसके पेट से चिपटे हुए हैं और एक कान पकड़े हुए उसकी पीठ पर जमा हुआ है। वे सब एक झोर में थे। मैं झोर में उतरा। साथी ने मना किया, 'उसके पास मत जाओ। बहुत क्रोध में है। टुकड़े कर देगा।'

मैं न माना। .30 बोर की राइफल जो हाथ में थी।

मैं आठ-दस कदम के अंतर पर जाकर खड़ा हो गया। सुअर की आँखों में से आग बरस रही थी। बिलकुल लहूलुहान था।

सुअर ने एक 'हुर्र' करके मेरी ओर झपट लगाने का प्रयास किया; परंतु आधे दर्जन से ज्यादा कुत्ते उसपर चिपटे थे। वह आगे न बढ़ सका। मैंने भी सोचा, इसको ज्यादा मौका न देना चाहिए। जैसे ही मैंने बंदूक के कंधे से जोड़ा, झोर के ऊपर से मेरे साथी ने पुकार लगाई, 'बंदूक मत चलाना। कहीं किसी कुत्ते को गोली न लग जाय।'

मैं सुअर के दूसरे प्रयास के प्रतीक्षा नहीं कर सकता था - और न वहाँ से हट सकता था। वहाँ पहुँचने से कुत्तों को ढाढ़स मिल गया था, मेरे हटने से शायद वे अनुत्साहित हो जाते - अथवा सुअर कुत्तों से छूटकर मेरे ऊपर आ कूदता; तो निशाना बाँधने का भी अवसर न मिलता। मैंने उसके सिर पर गोली छोड़ दी। सुअर तुरंत समाप्त हो गया। परंतु उसकी दूसरी और चिपका हुआ एक कुत्ता भी ढेर हो गया; क्योंकि गोली सुअर को फोड़कर निकल गई थी।

कुत्ते के मालिक से मैंने क्षमा माँग ली।

सुअर जिस प्रकार खेती का विनाश करता है, वह मैंने अपनी आँखों से देखा है।

वह सावधानी के साथ ज्वार के खेत में घुसता है। अपने नीचे पेड़ को दबाता हुआ आगे बढ़ता है। पेड़ तड़ाक से टूटता है। भुट्टा उसके मुँह में आ जाता है और एक भुट्टे से भूख को प्रज्वलित करके फिर वह आगे बढ़ता है। रखवाले की झंझट की आहट लेता है और फिर अपनी विनाशकारी क्रिया को जारी करता है। रखवाले ने हल्ला-गुल्ला किया तो या तो उसपर दौड़ पड़ा या उसी जगह घड़ी-आध घड़ी के लिए चुप हो गया। सुविधा पाकर फिर वही सत्यानास।

जिस खेत में सुअरों का बगर झुंड घुस जाए, उसमें तो सब चौपट ही हो जाता है।

चनें गेहूँ, मसूर इत्यादि के खेतों को तो वह ऐसा कर देता है जैसे किसी ने घास-फूस के ढेर लगा दिए हों। किसान ढबुओं में या आग के सहारे पड़े-पड़े रात भर चिल्लाते रहते हैं, तब कुछ बचा पाते हैं। शकरकंद, ईख और आलू का तो वह ऐसा भक्षण करता है कि यदि उसका पूरा बस चले तो नाम-निशान तक न रहने दे।

मेरी आलू की खेती को तो उसने ऐसा नष्ट किया था। कि एक सेर आलू भी खाने के लिए न छोड़े। कुछ दिन रखवाली करते-करवाते एक रात चूक हो गई। वही रात सुअर का अवसर बन गई। सेवेरे जो खेत को देखा तो ऐसा दृश्य जैसे किसी ने भोंड़ेपन के साथ हल चलाए हों।

मक्का के खेत को भी वह बिछाकर ही रहता है। यों तो चिड़ियाँ भी इसको चुगते-चुगते नहीं अघातीं; परंतु सुअर नाशकारी भय के मारे मक्का की खेती ही छोड़ दी गई है। मक्का की खेती करना मनो विपद् को सिर पर बुलाना है। कई जगह ईख की भी खेती छोड़ दी गई है।

मनुष्य जाति के प्रारंभिक विकास काल में सुअर कितना भयंकर रहा होगा, इसका अनुमान किया जा सकता है। मारे डर के इसको देव, दानव और अवतार तक की पदवी मिल गई। अवतार का प्रयोग जरूर सुंदर ढंग से किय गया है; पर वह विकास के मध्य भाग की बात ही रही होगी।

सुअर का शिकार घोड़े की सवारी पर बरछे से भी होता है और यह बहुत सनसनी देनेवाला होता है। परंतु भूमि पहाड़ी और बहुत ऊबड़-खाबड़ नहीं होनी चाहिए।

अध्याय 9

मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था।

अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी खींसोंवाला सुअर पंद्रह बीस डग की दूरी पर गड्ढे के सामने आया। मैंने राइफल दागी। अँधेरे में निशाना तो बाँध ही नहीं सकता था, गोली उसके पेट पर पड़ी। सुअर तुरंत मेरी सीध में आया। मैंने भी जल्दी जल्दी उस पर चार फायर और किए। एक तो उसके पेट पर पड़ा, बाकी छूँछे गए। सुअर बिलकुल नहीं रुका।

गड्ढा नीचे की जमीन से छह फीट की ऊँचाई पर थी। उसपर चढ़ने के लिए पथरीली सीढ़ियाँ सी थीं। यदि सुअर बुरी तरह घायल न हुआ होता तो गड्ढे में अवश्य आ जाता। वह ऊपर चढ़ने की कोशिश कर रहा था, क्रोध में मुँह फाड़ रहा था और अपने बड़े-बड़े दाँत पीस रहा था।

मैं इसके पहले एक सुअर की चोट खा चुका था। सोचा, रहे-सहे हाथ-पैर आज जाते हैं।

पहला विचार जो मन में उठा वह गड्ढे में से भाग जाने का था। गड्ढे के ऊपर बेतवा के पथरीले किनारी की खड़ी चढ़ाई थी; परंतु मैं कूद-फाँदकर उस चढ़ाई की सुरक्षित चोटी पर पहुँच सकता था। किंतु उसी क्षण इस विचार को दाब दिया। चटपट नीचे रखे कारतूस उठाए और राइफल में भरे। सुअर उस समय गड्ढे में चढ़ आने का प्रयत्न कर रहा था।

जैसे ही कारतूस नाल में पहुँचा, लिबलिबी दबी, धड़ाका हुआ और सुअर के प्रयत्न की इति हो गई। मैंने सोचा, बहुत बचे। झाँसी के दक्षिण में ललितपुर उसका खंड जिला है। सागर जिले की सीमा पर 'नारहट' गाँव है और गाँव के पीछे ऊँचा पठार एवं घना जंगल। इस जंगल में एक पुरान तालाब है। फागुन-चैत तक इसमें कुछ पानी रहता है। इस ऋतु में संध्या के समय नाहर, तेंदुआ, रीछ, सुअर इत्यादि जानवर पानी पीने के लिए संध्या से लेकर प्रातः काल तक आते रहते हैं।

तालाब के बंध के नीचे महुए के पेड़ हैं। उस समय महुओं ने अपने फूल टपकाने आरंभ कर दिए थे।

उस स्थान पर संध्या के काफी पहले मैं अपने मित्र शर्माजी के साथ अपनी छोटी सी गाड़ी से जा पहुँचा। मार्ग बहुत था। उसपर मोटर मजे में चल सकती थी।

साथ में पूड़ियाँ थीं और आलू तथा नमक-मिर्च। लकड़ियाँ इकट्ठी करके आग जलाई। आलू भूने और खा-पीकर मोटर की सीटों पर जा बैठे। ड्राइवर भी थोड़ा-बहुत शिकार खेल चुका था; परंतु बंदूकें दो ही थीं। वह मोटर में बैठा रहा, हम दोनों तालाब के किनारे गए। पानी के पास शिकारियों के खुदवाँ गड्ढे बने हुए थे। हम दोनों एक गड्ढे में बैठ गए।

सूर्यास्त नहीं हुआ था कि लगभग सौ गज के फासले पर एक सुअर आया। शर्मा जी ने बंदूक उठाई, मैंने रोक दिया। एक तो वह जरा दूर पड़ता था, दूसरे तमाशा देखने के लिए रात भर सामने थी; सूर्यास्त के पूर्व ही बंदूक का हल्ला करके क्यों जानवरों को बचकाया जावे।

उस दिन फागुन की पूर्णिमा थी। चंद्रमा अपने पूरे गौरव के साथ आकाश में आया। हमारे गड्ढे के पीछे महुए और आराम के लंबे-तगड़े पेड़ थे। उनकी छाया में हमारा गड्ढा छिपा हुआ था। पेड़ों की छाँह के बाहर चंद्रमा ने चाँदी-सी बिछा रखी थी, जो क्रमशः उजली पर उजली होती चली जा रही थी।

साढ़े सात या आठ बजे एक भारी-भरकम सुअर हमारे गड्ढे के पास से पानी पर पहुँचा। पास ही था। सहज ही मार सकते थे। परंतु प्यासे जानवर को न मारने की शिकारी परंपरा है, इसलिए उस समय राइफल नहीं चलाई।

सुअर ने पानी में पहुँचते ही पहले धप्प से एक पलोट लगाई। वह काफी देर तक लोट-लोटकर नहाता रहा। नहाकर उसने अँगड़ाई और फुरेरू ली। फिर थोड़ा ठहरकर पेट भर पानी पिया, तब जंगल के लिए लौटा।

लौटते समय वह हमारे गड्ढे से ठीक पंद्रह डग की दूरी से निकला। जैसे ही उसका शरीर आड़ में आया, मैंने राइफल दागी। सुअर तुरंत गिर पड़ा। परंतु फिर उठा और गड्ढे की ओर आने का प्रयास करने लगा। राइफलें हम दोनों की तैयार थीं; पर चलाने की जरूरत नहीं पड़ी। सुअर थोड़ी ही दूर चलकर समाप्त हो गया। हम लोगों ने गड्ढे से बाहर निकलकर दूरियों का नाप किया और फिर गड्ढे में जा बैठे।

अभी आठ बजा था। सारी रात रखी थी और इतना बड़ा जंगल आस पास था। बस्तियाँ मीलों दूर थीं। इसलिए गड्ढे में चुपचाप बैठे रहना ठीक समझा।

घंटे-डेढ़ घंटे बाद तालाब के बंध पर रीछ आए और वे तालाब के दूसरे किनारे पर पानी पीकर हमारी आँखों से ओझल हो गए। वे मोटर के आसपास घूम-घूमकर महुए बीनते खाते रहे। ड्राइवर की दम खुश्क थी। वह दबा हुआ मोटर में पड़ा रहा, हाथ में इंजन चलाने का डंडा लिए हुए। रीछों के चले जाने के बाद ही हम लोगों की मार में एक सुअर और आया। उसके मारे जाने के उपरांत एक बजे के लगभग तीसरा सुअर आया। वह घायल होकर भागा। हम लोगों ने गड्ढे से निकलकर उसका पीछा किया; परंतु सवेरे तक ढूँढ़ने के बाद हम लोग सवेरे अपने गड्ढे पर आए तो देखा, दोनों सुअर गायब।

पहले भ्रम हुआ, शायद शेर उठा ले गया हो; परंतु पास ही कुछ मनुष्यों की आहट मिला। वे सहरिए थे। उन्होंने अवसरभोगी बनकर काम किया था। सुअरों को थोड़ी दूर जा छिपाया था।

उनको जल्दी मानना पड़ा; क्योंकि बात छिपाने का बहुत कौशल गाँठ में न था। हम लोगों ने वे दोनों सुअर उन्हीं लोगों को दे दिए।

यह स्थान झाँसी से बयासी-तिरासी मील दक्षिण में है। झाँसी से सागर को जो सड़क गई है, उससे बाईं ओर। जहाँ सड़क अमझेरा की घाटी में होकर निकली है वहाँ तो जंगल का सुनसान सुहावनापन मानो मोहकता की गोद में खेलता है। सड़क के दोनों ओर घने जंगल के ऊँचे-ऊँचे मोटे पेड़ आँखें उलझाए रहते हैं। जंगल के पीछे लंबे-ऊँचे पहाड़ दृष्टि-पथ को रोक लेते हैं और अपने पीछे के स्थलों को गुदगुदी पैदा करनेवाले रहस्यों में भर देते हैं।

मैं इस बार इस स्थान पर गया हूँ; पर बार-बार जाने का मोह मन में बना रहा। एक बार तो कुछ डगों से एक शेर से बच गया था। ठीक दीवाली की रात थी। झाँसी से सीधा इस घाटी के बीचोबीच आठ बजे रात को पहुँचा। वहाँ से 'अमझेरा' नाम का नाला बहता हुआ निकला है। नाले पर पुलिया है। उस पार हनुमानजी का छोटा सा मंदिर और चबूतरेदार एक पक्की बारहदरी। किसी समय यह पुलिस की चौकी थी; उस समय खाली पड़ी थी।

इस बारहदारी के सामने चबूतरे पर हम लोगों ने अपना सामान रखा। खाना साथ में था, परंतु साग-भाजी पकाना चाहते थे। लकड़ी-कंडे बीन-बानकर आग सुलगाने का यत्न कर रहे थे कि मेरी बगल में कुछ डग के फासले पर गुरगुराहट का शब्द हुआ। मैं इस गुरगुराहट को पहचानता हूँ। सब शिकारी पहचानते हैं। तेंदुए की न थी, शेर की थी। पर वह वार किए बिना चला गया।

दूसरे दिन 'नारहट' गाँव में सुना कि दीवाली से दो दिन पहले अमझेरा घाटी में ही शेर ने एक राहगीर को सताया था।

अमझेरा घाटी झाँसी जिले के गौरवमय स्थलों में से एक है।

अमझेरा घाटी से होली की परमा को मैं घर आया और संध्या के पहले ही अपने पुराने स्थान भरतपुरा, झाँसी से बारह मील दूर बेतवा किनारे अपने मित्र शर्मा जी के साथ पहुँच गया। होली, दीवाली इत्यादि बड़े-बड़े त्योहार हम लोगों ने बरसों जंगलों में ही मनाए हैं।

हम लोग उसी गड्ढे में जा बसे, जिसमें कुछ महीने पूर्व सुअर ने मेरी मरम्मत करते करते छोड़ा था।

लगभग रात भर जागते रहे और अमझेरा घाटी के सौंदर्य एवं वैचित्र्य पर कल्पना को भटकाते रहे। न कुछ दिखलाई पड़ा और न सुनाई पड़ा। हम दोनों पहली रात के जागे थे ही, चार बजे के करीब सो गए।

साढ़े सात बजे होंगे, जब मेरी आँख यकायक खुली। देखूँ तो गड्ढे की ढी वाले किनारे की चोटी पर सुअर आ रहे हैं। पहले तो मुझको भ्रम हुआ, शायद गाँवटी सुअर हों। उसी क्षण भ्रम का निवारण हो गया। मैंने आँखें मीड़ीं। मैं गाँव में न था और न वे सुअर गाँवटी हो सकते थे।

मैं झटपट राइफल लेकर गड्ढे में बैठ गया, एक हाथ से फिर आँखें मीड़ीं। सुअर ढी के ऊपर से नीचे उतर आए थे और गड्ढे की सीध में थे। मैंने तुरंत एक पर गोली चलाई और दूसरे ही क्षण दो सुअर गड्ढे के भीतर आ गए। पहले सामने ठीक दो हाथ के फासले पर एक देखा था। उस पर राइफल उबारी। वह खिसक गया। दाहिनी तरफ आँख की तो दूसरी मेरे बिस्तरों के ऊपर ठीक एक हाथ के फासले पर।

मैं ठीक-ठाक नहीं बतला सकता कि क्या हुआ; पर हुआ यह कि मेरी राइफल उस सुअर की ओर घूम गई। उसी समय लिबलिबी पर ऊँगली की दाब पड़ी और गोली चली। सुअर के चिथड़े उड़ गए। उसका रक्त मेरे बिस्तरों में भर गया और बोटियों के टुकड़े मेरी कमीज में आ चिपटे। सुअर गड्ढे में से भागा और काफी दूर जाकर मरा। उस दिन सुअर मेरे चिथड़े-चिथड़े उड़ा सकता था। राइफल की गोली खाने के पहले और पीछे भी; परंतु मैं कैसे बच गया, यह ठीक-ठीक कभी समझ में नहीं आया।

मेरे मित्र मुझसे पहले जागकर दिशा मैदान के लिए नदी में थोड़ी दूर चले गए थे। जिस समय सुअर गड्ढे में आए, वे दातौन कर रहे थे। पहली गोली के चलने पर जैसे सुअर मेरे गड्ढे पर चढ़े, उन्होंने देख लिया था। दूसरी गोली चलने पर जैसे ही घायल सुअर भागा, वे मुझको गड्ढे की ओर दौड़ते दिखलाई पड़े। बड़ी घबराहट में थे।

मेरी बाईं टेहुनी में चोट आ गई थी। लहू निकल रहा था। परंतु वह घाव सुअर का दिया हुआ न था। भागते हुए सुअर के पीछे थोड़ा सा चलते ही फिसलकर टेहुनी के बल पत्थर पर गिरा था।

मैंने एक फुट से ज्यादा लंबाईवाली खीसें देखी हैं; परंतु कोई-कोई इसकी लंबाई दो-दो पीट तक की बतलाते हैं। कई रजवाड़ों में तो इन खीसों को चाँदी से मढ़ाकर रख लिया गया है।

खीसों की बहुत सी कहानियाँ भी बन गई हैं। एक कहानी ने तो अतिशय की सीमा ही लाँघ डाली है।

कहते हैं कि अहमदनगर की ओर पहाड़ों की घाटियों में एक बड़ा प्रचंड सुअर था। जब वह दस-बीस शिकारियों के प्राण और हथियार भी छीन चुका, तब एक छोटी सी सेना उसके मुकाबले के लिए गई। सुअर ने उस सेना का भी मँह मोड़ दिया, और शायद हथियार भी छीन लिए।

जब एक विशेष रियासत के राजा उस सुअर के मुकाबले के लिए पहुँचे, तब कहीं वह मारा जा सका। प्रमाण के लिए कहा जाता है कि उस रियासत की राजधानी में उस सुअर की लंबी खीसें चाँदी से मढ़ाई रखी हैं।

यदि इस कथन को प्रमाण का पद दे दिया जाय तो अवश्य वह सुअर छोटे से हाथी के बराबर तो होगा ही होगा।

सुअर के मारे जाने में गाँववालों की बहुत रुचि होती है। एक तो सुअर के मारे जाने से उसका एक दुश्मन कम हो जाता है, दूसरे गाँव की अधिकांश जनता उसको बड़े चाव से खाती है।

उसकी चरबी के अनेक उपयोग होते हैं। कमजोर बैलों को पिलाने से वे बलिष्ठ और तेज हो जाते हैं। बादी जोड़ों के दर्द और मूँदी चोटों पर इसका बहुत प्रयोग किया जाता है। जहाँ डॉक्टर, वैद्य और हकीम कोई भी सुलभ नहीं वहाँ इसके अनेक लाभकारी और लाभहीन उपयोग किए जाते हैं।

यदि किसी को शिकार की सनसनी को आनंद प्राप्त करना है तो सुअर के शिकार से बढ़कर मैं किसी अन्य जानवर के शिकार को नहीं समझता हूँ।

घायल हो जाने के बाद भालू, तेंदुए और शेर को मैंने बहुधा भागते हुए देखा है; परंतु सुअर को घायल होने के बाद बहुत कम भागते देखा है।

अन्य बड़े जानवरों की तौल में उसका डीलडौल छोटा होता है; परंतु उस छोटे डीलडौल में कितना बल, कितना साहस और कितना पराक्रम होता है!

तेज बहनेवाली पथरीली बेतवा में मैंने सुअर को ही तीर की तरह सीधा तैरते हुए देखा है।

अध्याय 10

एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए।

हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले ज्यादातर यही जानवर भाग निकलता है। उसके उपरांत थोड़ी देर तक कोई आहट नहीं मिली। प्रतीक्षा करते-करते मुझको लगा जैसे बहुत विलंब हो गया हो। लगान पर से उठ सका नहीं था; क्योंकि हँकैये अबी तक समीप नहीं आए थे।

हँकैये के समीप आते ही चोटी पर दो फायर हुए। एक के कुछ क्षण बाद दूसरा।

जब हँकैये आ गए, हम सब लोग शर्मा जी के पास पहुँचे। देखें तो एक सुअर उनकी बैठख में ढाई से तीन फीट के अंतर पर पड़ा है। उनसे मालूम हुआ कि भागते सुअर के पहली गोली पेट पर पड़ी थी। वह गोली के लगते ही सीधा शर्मा जी पर विद्युत गति से आया। दूसरी नाल तैयार थी ही; परंतु चूक सकती थी, चूकी नहीं, सुअर के खोपड़े पर पड़ी। गोली के वेग का धक्का उसपर इतना प्रचंड पड़ा कि उसकी गति रुक ही नहीं गई बल्कि वह चित होकर गिरा था।

सुअर में कितनी ताकत होती है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पाँव में कठोर चोट लग जाने के बाद भी कितना उछल सकता है।

एक दिन झाँसी के निकट ही पाली-पहाड़ी की हँकाई की गई। मालूम था कि सुअर निकलेगा। संदेह था, शायद तेंदुआ भी निकले। तेंदुआ तो नहीं निकला, सुअर निकले।

जिस शिकारी के पास से एक सुअर निकला, उसको शिकार का अनुभव कम था। गोली चलाई। सुअर के पैर में सख्त चोट लगी; परंतु वह काफी उछला और आक्रमण करने का विकट प्रयास किया। असमर्थ हो चुका था, इसलिए वह कुछ नहीं कर पाया।

सुअर बिना घायल हुए बी घुड़की-धमकी देने की प्रवृत्ति रखता है। शिकार के बिलकुल प्रारंभिक जीवन में एक बार मैं एक छोटे से पेड़ की आड़ लेकर बैठ गया। प्रातःकाल के थोड़ी देर बाद के बड़ी खोंसवाला सुअर सामने आया। राइफल मैं एक मित्र की माँग लाया था। बड़े बोर की राइफल थी। पहले कभी न चलाई थी; परंतु चला जा सकता था। सुअर ने मुझे देख लिया, खड़ा हो गया। एक घुड़की उसने मुझको दी। राइफल मैं सुधार हुए था; परंतु गोली चलाने की साध मन में न उठ सकी। सुअर चला गया।

सुअर चालाक भी काफी होता है। सुअर की 'सूध' मशहूर है; परंतु कुछ लोगों के इस भ्रम के लिए कोई आधार नहीं कि वह मुड़ता नहीं है। यह सच है कि वह कभी-कभी तीर की तरह सीधा दौड़ता है; परंतु यह सच नहीं है कि उसको मुड़ पड़ने में कोई अड़चन होती है। यही बात उसकी सिधाई के बारे में कहा जा सकता है। वह सीधा-वीधा नहीं होता।

सोते हुए सुअर के पास किसी के यकायक पहुँच जाने पर वह चौंक पड़ता है; परंतु ऐसा नहीं कि वह सदा भाग खड़ा होता है। कभी-कभी वह चुपकी भी साध लेता है। सोचता होगा, बला टल जाए तो आरमा से सो जाऊँ।

एक बार मैंने एक झाड़ी में कुछ सुअर पड़े हुए देखे। एक बड़े सुअर पर ताककर गोली चलाई; परंतु निशाना खाली गया। सुअर एक किनारे से भाग गए। मैं झाड़ी में घुसा। अनुमान किया कि झाड़ी खाली होगी। देखा तो बिलकुल पैरों के पास से एक सुअर निकल भागा। खैर हुई कि उसने मेरी टाँगों को अपने सपाटे में नहीं भरा। बंदूक चलाने पर मैं तुरंत झाड़ी में घुस पड़ा था। इस सुअर को निकल भागने की सुविधा नहीं मिली, इसलिए छिपे रहने की चालाकी खेल गया।

सुअर को सूँघने की शक्ति प्रकृति ने बहुत मात्रा में दी है। जब वह सचेत होकर अपनी नाक का प्रयोग करता है तब शायद सूँगने की शक्ति में साँभर ही उसकी बराबरी कर सकता है। विंध्यखंड में लोग उसे 'सगुनिया जानवर' कहते हैं अर्थात् वह शकुन का विचार करके चलता है, इसलिए सहज ही शिकारी के हाथ नहीं पड़ता। वायु यदि सुअर की नाक के अनुकूल हो तो वह बड़ी दूर से सूँघ लेता है और गली काटकर निकल जाता है। उसकी नाक ही उसके शकुन लेने की शक्ति है। सुअर के गली से जरा ऊँचाई पर शिकारी बैठा हो तो सुअर शकुन-वकुन कुछ नहीं ले पाता। वायु ऊपर से निकल जाती है और सुअर को अपनी नाक से कोई सहायता नहीं मिल पाती।

परंतु जब वह झरबेरी के बेर खाने पर चिपट जाता है। तब उसकी एकाग्रता सूँघने और सुनने की शक्तियों को मानो कुंठित कर देती है। बेर के दिनों के शिकार को 'बिरोरी'कहते हैं। सुअर बेरों को कड़कड़ाकर खाता है। रात के सुनसान में एक फर्लांग तक से सुनाई पड़ता जाता है। जब बिरोरी का शिकार खेलनेवाला शिकारी धीरे-धीरे एक-एक डग को नापता हुआ बेर कड़कड़ाने वाले सुअर के पास जाता है, तब अत्यधिक सावधानी के साथ काम लेना पड़ता है। सुअर की कड़कड़ाहट के शब्द पर ही शिकारी को अपने हर एक कदम को सँभालना पड़ता है। गोली चलान का अवसर तब मिलता है जब शिकारी सुअर से आठ-दस कदम के फासले पर रह जाता है। परंतु उसके शब्द पर ही बंदूक नहीं चलाई जा सकती। बंदूक की गोली और सुअर के बीच में झाड़-झंखाड़ की टहनियाँ होती हैं। या तो गोली इन टहनियों से रिपटकर चली जाती है या सुअर 'हुर्र हुख'करके ऊपर आता है। भाग्य अच्छा हुआ तो भाग भी जाता है। परंतु यदि केवल घायल ही हुआ तो फिर शिकारी के प्राणों पर आ बनने की पूरी संभावना है। इसलिए शिकारी को एक ओट से दूसरी में जाने का और सुअर को पछियाने का काफी समय तक प्रयत्न करना पड़ता है। जहाँ सुअर एक झरबेरी से दूसरे की ओर आता हुआ शिकारी को दिखलाई पडा कि बस!

इसके संकट से शिकारी को जितनी सनसनी मिलती है उतनी शायद ही किसी और प्रकार से मिलती हो। न कोई मचान, न कोई आड़-ओट; अपनी अटल एकाग्रता तथा हाथ में सधी ही तैयार बंदूक और शिकारी प्रत्येक प्रकार की परिस्थिति के प्रस्तुत। यहाँ तक कि आक्रमण के लिए दपटते हुए सुअर को छलाँग मारकर कूद-फाँद जाने के लिए तैयार। जो यह न कर सके वह बिरोरी को शिकार न खेले। उसके लिए तो मचान या गड्ढा ही ठीक है।

मैंने बिरोरी का शिकार खेला है; परंतु अधिक नहीं।

कई बार सुअर के ठीक पास पहुँच गया; परंतु सुअर ने देख लिया और भाग गया। मैं बंदूक नहीं चला पाया।

एक बार ही सफल हुआ। सुअर पर छह या सात कदम के फासले पर गोली चलाई थी। राइफल की गोली थी, इसलिए सुअर तुरंत समाप्त हो गया। मुझको उजेले अँधेरे दोनों में राइफल पर बहुत भरोसा रहा है। अँधेरे में ही एक बार एक सुअर को राइफल से पचास या पचपन कदम की दूरी से मारा था।

एक बार पहाड़ की हँकाई कराई गई। कई मित्र साथ थे। उनमें से कुछ तो बहुत दूर-दूर और बड़े-बड़े शिकार खेल चुके थे। बड़े लोग, रुपये-पैसे, समय और गोली-बारूद की कोई कमी नहीं। चिड़ियों से लेकर अरने भैंसे, गैंडे, नाहर और हाथियों का शिकार तरह-तरह के बड़े जंगलों में खेल चुके थे। उस दिन की पहाड़ की हँकाई का शिकार मुझको उन्हीं मित्रों की कृपा से प्राप्त हुआ था। उन्होंने सबसे अच्छा स्थान मुझको बैठने को दिया। हँकाई शुरू हो गई।

एक बड़ा चीतल मेरे हाथ लगा। थोड़ी ही देर में एक करारा सुअर आया। उस पर मैंने 12 बोरे बंदूक की गोली चलाई। गोली पक्की (SOLID) थी। भागते हुए सुअर के पेट में लगी। उसने मुझको देखा नहीं, इसलिए घायल होकर भागा और जिधर मैं बैठा था, उसके पीछे के जंगल में चला गया।

इस हँकाई की समाप्ति पर जंगल के उस भाग की हँकाई करवाई गई, जो मेरी पीठ पर पड़ता था और जिसमें घायल सुअर चला गया था।

इस हँकाई की समाप्ति पर जंगल के उस भाग की हँकाई करवाई गई, जो मेरी पीठ पर पड़ता था और जिसमें घायल सुअर चला गया था।

हम लोगों ने आसन बदला। मैं एक मचान पर चढ़ गया; परंतु यह मचान लगान के पाँत में उलटी बैठती थी। मेरे मित्र मुझसे नीचे की तरफ आमने-सामने बैठते थे, ऐसे कि गोली चलती तो एक-दूसरे पर पड़ने की संभावना थी। मित्र ने मुझको सीटी द्वारा सचेत किया। मैं मचान से उतरकर लगान की पाँत में जा लगा।

परंतु, मचान पर से उतरने के पहले मैंने दुनाली खाली कर ली और राइफल की नाल में से कारतूस निकाल मैगजीन में पहुँचाकर ताला डाल दिया। जहाँ मैं खड़ा था वहां एक पेड़ की आड़ थी। पेड़ से राइफल टिका दी और दुनाली हाथ में ले ली। दुनाली खाली थी।

हँकाई में वह घायल सुअर निकला। मेरे मित्र के पास आया। उन्होंने उस पर राइफल चलाई। उनकी राइफल चलने पर सुअर जरा टेढ़ा भागा, तब उसका घाव मुझको दिखलाई पड़ा। मैं समझा, उनकी राइफल की गोली से घायल हुआ है। उस समय मुझको यह नहीं मालूम हुआ कि सुअर मेरा ही घायल किया हुआ है। सुअर जंगल में विलीन हो गया। थोड़े समय उपरांत मेरे सामने, जरा ऊपर की ओर हटकर, जहाँ से हँकाई आ रही थी, सुअर का एक झुंड आया। इसको 'दार' कहते हैं। सुअर जब निकट आ जाए, मैंने बंदूक को कंधे से जोड़कर निशाना साधा। घोड़े ने 'खट्ट' का शब्द किया। कारतूस नाल में था ही नहीं, सुअर का बिगड़ ही क्या सकता था! सुअर लौट गए।

मैंने इधर-उधर आँखें फेरीं किसी ने मेरी मूर्खता को देख तो नहीं लिया है। तुरंत दोनों नालों में कारतूस डाले और घोड़े चढ़ाकर तैयार हो गया। लौटे उनकी खरभर सुन ली और दो-एक को झाँक भी लिया। सुअरों ने मुझको देख लिया था, इसलिए वे वहीं के वहीं फिर लौट पड़े और बेतहाशा भागकर, हाँकेवालों में हकर निकल गए और विलीन हो गए। हाँकेवाले पास आने लगे; परंतु वे जरा दूर थे, मुझको दिखलाई नहीं पड़े। मैंने सोचा, घोड़ों को चढ़ाए रखना व्यर्थ है। घोडों को उतारने के लिए बंदूक हाथ में कर ली और उत्सुकतावश लौटे हुए सुअरों की दिशा में देखने लगा।

उँगलियाँ बाईं नाल की लिबलिबी को दबाने के लिए पहुँच गईं; परंतु अँगूठा पहुँचा दाईं नालवाले घोड़े पर। दाईं नालवाले घोड़े को साधने के लिए अँगूठे से दबाया, जिसमें वह यकायक गिरकर कील को ठोकर न दे; परंतु उँगलियाँ थीं बाईं नाल के घोड़े ककी लिबलिबी पर और अँगूठा उसपर था नहीं। धाँय से बाईं नाल चल गई। दाईं नाल का घोड़ा गिरा नहीं, क्योंकि उसकी लिबलिबी पर दाब नहीं था; पर घोड़े का नुकीला सिरा अँगूठे की जड़ में था। बाईं नाल के चलते ही जोर धक्का लगा। कंधे पर तो बंदूक थी नहीं, जो धक्के को झेलता है। दाईं नाल के घोड़े का सिरा अँगूठे की जड़ में धँस गया।

मैंने झटपट, सावधानी के साथ, दाईं नाल के घोड़े को साधकर बिठला लिया और बंदूक पेड़ से टिका दी। अँगूठे की जड़ से खून की धार बह निकली। रूमाल से पोंछ-पाँछकर मन में मनाने लगा, कोई हँकाईवाला या लगानवाला न आ जाय, नहीं तो मूर्खता अपने पूरे रूप में प्रकट हो जाएगी। घाव पर रूमाल बाँधने की हिम्मत पड़ नहीं रही थी। मूर्खता जो पकड़ी जाती। रूमाल का वह बंधन सारी कहानी कह डालता। मैंने खूब दबा-दबाकर रक्त निकाल दिया और पोंछ-पाँछ डाला।

जब हँकाईवाले आ गए और लगानवालों को अपने स्थान छोड़ने की आजादी मिली तो मैं उन मित्र के पास पहुँचा, जिन्होंने सुअर पर राइफल दागी थी।

अपने घायल हाथ की ओर से उनका ध्यान उचटाने के लिए कहा, 'सुअर घायल हो गया है, जरा उसका चिह्न देखिए।'

वे बोले, 'हाँ, घायल तो अवश्य हो गया है। पता लगाता हूँ।'

वे झुके-झुके घायल सुअर के चिह्न को देखने लगा। तब तक मैंने अपना घाव पूरी तरह सुखा लिया। मूर्खता ढक गई।

घायल सुअर का चिह्न लेते-लेते मित्र ने एक पत्थर के पास देखा तो राइफल की गोली के टुकड़े पड़े हुए हैं। मैं भी उनके पास पहुँच गया। मैंने बी वे टुकड़े देखे।

वे बोले, 'भाई, मेरी गोली तो पत्थर पड़ी है, सुअर पर नहीं पड़ी है। वह आपका घायल किया हुआ सुअर था।'

मैंने सोचा, मैं भी अपनी मूर्खता प्रकट कर दूँ। बंदूक चल पड़ने की सविस्तार कहानी सुनाकर कहा, 'नाल जरा ऊँची थी, नहीं तो गोली किसी हँकाईवाले पर पड़ती।'

वे हँसकर बोले, 'यार मेरे, चुप भी रहो। न किसी से मेरी कहना, न अपनी।'

हम दोनों ने अपनी झेंप पर परदा डाल लिया।

मेरे एक मित्र (अब इस दुनिया में नहीं हैं) शिकार में काफी रुचि रखते थे अर्थात् जितनी का उनके खाने से संबंध था। स्थूल इतने कि बिना हाँफ के दस कदम भी चलना एक आफत। एक दिन बड़ा दंभ किया। बोले, 'मैं चलती मोटर में से जानवर पर बंदूक चला देता हूँ।'

मैंने सिधाई के साथ पूछा, 'और वह जानवर को लग भी जाती है?'

उन्होंने जरा हेकड़ी के साथ उत्तर दिया, 'नहीं तो क्या कोरे पटाखे फोड़ता हूँ!'

मैंने उस समय बात नहीं बढ़ाई, परंतु उनकी परीक्षा लेने का निश्चय कर लिया।

एक दिन अवसर मिल गया।

वे ताँगे पर बैठकर शिकार के लिए जाने को ही थे कि मैं अकस्मात् उनके घर पहुँच गया। उन्होंने मुझे साथ चलने के लिए कहा। मैं तुरंत राजी हो गया, चाहता ही था। बंदूक ले आया और साथ हो लिया।

कुछ ही मील जाने पर उनको हिरनों का एक झुंड मिल गया। गोली चलाने के लिए उन्होंने मुझसे प्रस्ताव किया। मैंने तो न चलाने का निश्चय ही कर लिया था। नाहीं कर दी।

'आप ही चलाइए। ताँगे से ही चलाइए। हिरन पास ही तो हैं।'

'अजी नहीं! ताँगा हिल रहा है। निशाना चूक जाएगा।'

'पर मोटर से तो कम हिल रहा है।'

'आप मजाक समझते हैं; चलाता, मगर घोड़ा भड़क जाएगा।'

'तब उतर जाइए। ओट लेकर चलाइए।'

पेड़ों की आड़ के आने पर ताँगा रोक लिया गया। वे किसी तरह ताँगे से उतरे।

धोती पहने हुए थे। ढूँकते-ढाँकते वे हिरनों की ओर बढ़े। दस-पंद्रह कदम भी न गए होंगे कि चौकन्ने हिरनों ने उनको देख लिया। हिरन भागे।

वे भी हिरनों के पीछे भागने का प्रयत्न करने लगे। उधर उन्होंने गोली चलाई, इधर उनकी धोती अधखुली हो गई। हिरनों के पास गोली की हवा तक न फटकी। वे धोती सँभालते और हँसते हुए ताँगे की ओर आए। मारे हँसी के मेरे पेट में बल पड़ रहे थे।

मैंने किसी तरह हँसी को रोककर उनसे कहा, 'यदि सुअर होता और जरा सा घायल हो जाता तो आप क्या करते?'

वे जबरदस्ती हँसी को दबाते हुए बोले, 'यदि सुअर होता और जरा सा घायल हो जाता तो आप क्या करते?'

वे जबरदस्ती हँसी को दबाते हुए बोले, 'क्या करते! सुअर क्या कर लेता?'

मुझको फिर हँसी आ गई। मैंने कहा, 'क्या कर लेता, सो तो मैं ठीक-ठाक नहीं बतला सकता, परंतु इतना कह सकता हूँ कि आप धोती सँभालने की फुरसत न पाते।'

इन पर हम दोनों हँसते रहे; लेकिन उस दिन के बाद हम लोगों का साथ शिकार में न हुआ।

दो वकील मित्रों तो शिकार में मेरे साथ घूमने की लालसा हुई। मैं इनकार न कर सका। परंतु वकील मित्र कमजोर न थे। तेरह मील चलने के बाद मेरी साइकिल के चक्के में एक बेतुका छेद हो गया। तब दोनों गपशप करते हुए आठ मील पैदल गए। बेतवा किनारे 'घुसगवाँ' नाम का एक गाँव है। संध्या होने के पहले ही पहुँच गए। गाँववालों की सहायता से तुरंत बंदूकें लिए जंगल की ओर चल दिए।

तीन-चार सुअर मिले। मेरे मित्र की सीध में वे बैठ नहीं रहे थे, इसलिए मैंने ही बंदूक चला दी। एक गिर गया। रास्ते की रिस वकील मित्र ने मरे हुए सुअर पर निकाली। वे आमोदप्रिय भी थे, इसलिए भी उन्होंने एक दिल्लगी की।

मरे हुए सुअर पर उन्होंने धाड़ से गोली छोड़ी। चूकने की कोई बात ही न थी। गोली लगने पर हँसते हुए बोले, 'बस जी, मैंने इसको मारा है। मेरे शिकार पर तुमने बाद में बंदूक चला दी।'

मैंने कहा, 'बिलकुल सही, मुकदमों की सचाइयों से भी ज्यादा सच।'

फिर हम लोग बैलगाड़ी से उसी रात चिरगाँव रेलवे स्टेशन पर आए और सवेरे झाँसी पहुँचे। मित्र बहुत थक गए थे; परंतु उनकी वन-भ्रमण की कामना कम नहीं हुई। वे अनेक बार मेरे साथ जंगलों और पहाड़ों में घूमे हैं।

दूसरे साहब का अनुभव बिलकुल विपरीत रहा।

एक गाँव में अदालती काम से दूसरे वकील मित्र मेरे साथ गए। गरमियों के दिन थे। दस बजते-बजते गाँव पहुँचे। लू चलने लगी। बारह बजे तक हम लोग काम से निवृत्त हो गए। गाँव से मील-डेढ़ मील पर जंगल था। मैंने उनसे मटरगश्त के लिए प्रस्ताव किया। लू चल रही थी, इसलिए उनके उत्साह में कुछ ढिलाई आ गई थी; लेकिन बिलकुल बुझा न था। साथ चल दिए।

मील-डेढ़ मील चलने के बाद ही वकील मित्र काफी परेशान हो उठे। बोले, 'अभी तक तो कुछ दिखा नहीं। यों मारे-मारे फिरने से क्या फायदा?'

मैंने कहा, 'शिकार मिले या न मिले, पर चलने-फिरने के फायदे से तो तुम इनकार नहीं कर सकते। लौटकर जब चलोगे, बेभाव भूख लगेगी। रात को बेहिसाब सोओगे।'

जंगल छेलवे और हींस-मकोय का था। ऐसी जगह सुअरों के पड़े मिलने की आशा थी। इसलिए लगभग एक मील और भटके। मेरे मित्र को प्यास लग रही थी। ढुकाई के शिकार में भी दो कठिनाइयों का अनुभव कर रहा था। अपने को सँभालना और उन मित्र को दबे-छिपे ले चलना। इसलिए हम लोग लौट पड़े।

मित्र का मुँह सूख रहा था और उनसे चलते नहीं बन पा रहा था। गाँव पहुँचते ही मैंने देखा, उनके पैरों में बड़े-बड़े फफोले पड़ आए हैं। उनका कष्ट देखकर मुझको खेद हुआ और क्षोभ भी। एक प्रश्न मन में उठा क्यों नहीं स्कूलों और कॉलेजों में ही लड़कों को पक्का और कट्टर बना दिया जाता?

वकील मित्र ने कष्ट कम होने पर कहा, 'भाड़ में जाय तुम्हारा शिकार! आगे के लिए कसम खाई।'

किसी-किसी ग्रामीण में सुअर के प्रति इतनी हिंसा होती है कि वह सबकुछ कर डालने पर उतारू हो जाता है। तब इतना निडर हो जाता है कि जान पर खेल जाता है।

भरतपुरा गाँव के पास ही एक लोधी अपने खेतों के बीच की पड़ती पर घर बनाए हुए था। जब देखो तब सुअर कुछ-न-कुछ उत्पाद खेतों में करता रहता था। उसके पास हथियार कोई था नहीं। हिंसा ने उसको एक निश्चय दिया।

लोधी का शरीर बहुत तगड़ा था, परंतु उसके आँख एक ही थी; पर थी काफी तेज।

वह एक दिन संध्या के पहले ही सुअरों की राह पर एक ओट में जा बैठा। कुल्हाड़ी साथ में थी।

सुअर बहुत धीरे-धीरे आया। आड़ से लगभग सटा हुआ निकला। लोधी ने आव देखा न ताव, जैसे ही सुअर के पीछेवाला भाग उसकी पहुँच के पास हुआ कि उसने पिछले पैर अपने दोनों हाथों से पकड़ लिए और खड़ा हो गया।

सुअर लगा करने 'हुर्र हुख'। उसने बहुत प्रयत्न लौटकर चोट पहुँचाने का किया, बड़ा बल लोधी के फौलादी शिकंजे से निस्तार पाने के लिए लगाया; परंतु सब व्यर्थ।

लोधी अपनी लगन पर दृढ़तापूर्वक सवार था और सुअर के पैरों को इस प्रकार पकड़े था कि वह किसी तरह भी छुट्टी नहीं पा सका। कुल्हाड़ी करीब थी; परंतु लोधी उसका उपयोग नहीं कर पा रहा था।

गुल-गपाड़ा सुनकर आस-पास के किसान कुल्हाड़ियाँ और लाठियाँ लेकर दौड़े। तब सुअर से उसने छुटकारा पाया।

फिर तो सुअरों से उस लोधी का डर सदा के लिए छूट गया। उसने बड़े-बड़े सुअर लाठियों और कुल्हाड़ियों से मारे। कई बार घायल भी हुआ। सुअर के नाम से ही उसको इतनी चिढ़ थी कि वह उसकी खोज में दिन-रात, जाड़ा-बरसात कुछ नहीं देखता था। यदि उस किसान के पास बंदूक होती तो शायद वह जंगल को सुअरों से सूना कर देता।

उसने बंदूक का लाइसेंस प्राप्त करने की चेष्टा भी की; परंतु उसको लाइसेंस कौन देता! न काफी मालगुजारी देनेवाला जमींदार और न पुलिस का मुखिया; न अँगरेज शिकारियों का खुशामदी या अँगरेज का आबुर्दा।

एकांत जीवन बितानेवाला निडर, निर्भीक किसान। उसने अंत तक अपनी लाठी-कुल्हाड़ी का भरोसा किया और बंदूक की या बंदूक का लाइसेंस देनेवालों की कभी परवाह नहीं की।

सुअर के शिकार के लिए जो 'गड्ढा' बनाया जाय वह काँटेदार तो कम से कम होना ही चाहिए; परंतु मेरे एक साथी हेकड़ी के साथ एक रात कठजामुन के झुरमुट में जा बैठे। कठजामुन में पत्तों की भरमार थी। मोटी डालें बहुत कम थीं। उसके साथ दुर्जन कुम्हार बैठा था, नहीं तो असली बात का पता ही न चलता।

सुअर आया। उन्होंने बंदूक चलाई। सुअर घायल हो गया। उसने समझ लिया कि गोली कहाँ से आई। झुरमुज की ओर झपटा।

शिकारी और दुर्जन भागे। दुर्जन ने दूर भागकर दम ली। शिकारी लगे काटने चक्कर कठजामुन के झाड़ के। उनके साथ सुअर भी चक्कर काता रहा। सुअर बहुत घायल हो गया था, इसलिए शिकारी बच गए; नहीं तो वह अपनी खीसों से उनकी उधेड़बुन कर डालता। चाँदनी रात थी, दुर्जन सब देख रहा था।

सवेरे जब मैंने उनसे रात का वृत्त पूछा, क्योंकि एक-दूसरे का अनुभव पूछने में प्रमोद होता है, तो उन्होंने कहा, 'सुअर घायल होकर भाग गया।' दुर्जन हँस पड़ा। उसकी हँसी शिकारी को बहुत खली। वे अपनी झेंप को ढाँकना चाहते थे; परंतु दुर्जन की हँसी उघाड़े दे रही थी। मेरे कुरेदकर प्रश्न करने पर दुर्जन ने कहा, 'सुअर भग गओ और जे कठजामुन को परदच्छना (प्रदक्षिणा) देत रये।'

फिर उसने सारा हाल विस्तार के साथ सुनाया।

अध्याय 11

साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं।

जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग में पहुँच जाते हैं तब रोज-गुरायँ तो इनके साथ हिल-मिलकर चरने लगते हैं। रोज-गुरायँ मनुष्य से, अन्य जानवरों की अपेक्षा, कम छड़कता है। वह जंगल के भीतर नहीं रहता। प्रायः जंगल के प्रवेश के निकट ही मिल जाता है। इनके झुंड के झुंड होते हैं। मैंने पचास-पचास तक के झुंड देखे हैं। इनका नर जब पूरा बढ़ जाता है तब उसका रंग नीला हो जाता है। गले में घंटियाँ सी और पूँछ छोटी। सींग भी बड़े नहीं होते। यह बड़ा मजबूत होता है और दौड़ाने में बहुत तेज। कोई-कोई इसके बच्चों को पालते हैं और सवारी का काम लेते हैं - गाड़ी में जोतकर।

परंतु नाले और खाई-खड्डों को देखते ही उसको अपने पुरखों की याद आ जाती है और फिर यह नाथ, डोर, रस्सी हाँकने वाले और गाड़ी सवारी किसी की परवाह नहीं करता। बेभाव छलाँग मारता है। चाहे गाड़ी में बैठनेवाला बचे या मरे, इसकी कोई चिंता इसको नहीं रहती।

झाँसी के एक गुसाईंजी ने रोज के बच्चों की जोड़ी पाली और बड़े होने पर उनको गाड़ी में जोता। जब तक वे सीधे रास्तों पर चलाए गए तब तक उन्होंने अपनी तेज दौड़ से सबको संतोष दिया; परंतु एक दिन जब देहाती मार्ग में एक नाला और बगल में खड्ड मिला तब उनको अपनेपन की याद आ गई। विकट छलाँग भरी। गाड़ी लौट गई। गाड़ीवान घायल हो गया और गुसाईंजी को प्राणों से ही हाथ धोने पड़े।

जब तक इसके जोड़, सिर या गरदन पर गोली नहीं पड़ती तब तक घायल होने पर भी यह हाथ नहीं आता।

इस पशु में एक विलक्षणता है। यह मौका पाकर दिन में भी खेतों में घुस आता है और रात तो इन सब जानवरों की है ही।

झुंड में नर होते हुए भी अग्रणी साधारण तौर पर मादा होती है। बहुत सावधान और बड़ी तेज।

रोज-गुरायँ के चमड़े को गाँववाले परहे बनाने के काम में लाते हैं।

साँभर खुरीवाले जंगली जानवरों में सबसे अधिक सावधान है। जरा सा खुटका पाते ही ठौर छोड़कर भागता है। यह प्रायः दस-दस पंद्रह-पद्रह के झुंड में रहता है; परंतु नर अकेला भी पाया जाता है। यह जंगल के अत्यंत बीहड़ और छिपे हुए स्थानों को ढूँढ़ता है। अधिकतर लंबी घासवाले नालों और घनी झोरों में रहता है।

सिर और गरदन को खुजलाने के लिए इसको जहाँ सलैया के पेड़ मिल जाते हैं, वहाँ अधिक ठहरता है। सलैया की गोंद की सुगंधि इसके लंब फंसोंवाले सींगों की रगड़ से आस पास के वातावरण को महका देती है।

साँभर खेतों पर आधी राते के पहले बहुत कम आता है। जब आता है, बहुत धीरे-धीरे बहुत चुपके-चुपके। यह बड़ी-बड़ी बिरवाइयों को कूद-फाँद जाता है। शरीर के लंबे बालों के कारण, सुअर की तरह, इसको भी काँटों की परवाह नहीं होती। प्रायः कँटीली बिरवाइयों में इसके टूटे हुए बाल चिपके मिलते हैं। इसके खुर लंबे होते हैं और पैर बहुत लचीले। सहज ही पहाड़ों पर चढ़ जाता है।

इसका अगला धड़ बड़ा, पिछला हलका, पूँछ छोटी और आवाज रेंक सी तीखी, मोटी और ठपदार होती है। कान घंटे की तरह गोल और बड़े। ये इतने बड़े तेज होते हैं कि ढुकाई का शिकार तो इनका बहुत ही श्रमसाध्य और कठिन है।

साँभर में सूँघने की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह तीस-चालीस गज से असाधारण गंध को पाकर तुरंत मुरककर चला जाता है।

होली की छुट्टियों में भरतपुरा गया। दुर्जन ने संध्या के पहले ही नदी के एक टापू पर एक बड़े साँभर के चिह्नों का पता दिया। कठजामुन के काफी झुरमुट उन चिह्नों के पास थे। मैं दुर्जन के पास एक झुरमुट में सूर्यास्त के पहले जा बैठा। दिन में भरतपुरावाले मेरे मित्र ने जंगल में केसर-चंदन और इत्र-पान से होली मनाई थी। खस के इत्र का उनको बहुत शौक था। उन्होंने मेरे कपड़ों में पोत दिया। उन्हीं कपड़ों को पहने मैं कठजामुन के झुरमुट में दुर्जन के साथ बैठा था।

लगभग आठ बजे साँभर आहट लेता हुआ धीरे-धीरे मेरे स्थान की ओर आया। जब पच्चीस-तीस गज की दूरी पर आ गया होगा, उसने नथने फुफकारे। खस की गंध ने उसको अपने शत्रु की उपस्थिति बतला दी। उसने जोर के साथ अपनी बोली में आश्चर्य या भय प्रकट किया और भाग गया।

दुर्जन उस समय पैर लंबे किए बैठा-बैठा सो रहा था। जैसे ही साँभर ने आवाज लगाई, दुर्जन चौंक पड़ा। उसके पैर उठ गए और मेरी कनपटी से जा टकराए। मुझको बहुत हँसी आई। मैंने कहा, 'दुर्जन, तुम्हारी नींद के खुर्राट ने साँभर को भगा दिया।'

दुर्जन बहुत सहमा; परंतु थोड़ी ही देर में बोला, 'बाबू साब, काए खों लच्छिन लगाउत! तुमार अतर ने भगाओ साँभर खो।'

यह अगोट पर या हँकाई में सहज ही हाथ चढ़ जाता है। इसकी खाल पकाई जाने पर बहुत मुलायम और लोचदार होती है। जूते, टाँगों के टोकरे, दस्ताने, बास्कट इत्यादि बनाए जाते हैं। परंतु पानी में इसका चमड़ा लीचड़ हो जाता है। साँभर कठोर ठंड में भी रात को डुबकियाँ लगाता है; ठंडे कीचड़ में लोट लगाता है। यह जंगल से निकलकर नदी की पूरी धार को पार करके खेतों में पहुँच जात है। लौट आता है और जानवरों से दो घंटे पहले। चार बजे के बाद फिर यह खेतों में नहीं ठहरता।

जब सरूर पर होता है, तब एक नर दूसरे से बेतरह सींग खटखटाता है। यह लड़ाई मादा के पीछे या झुंड का अगुआ बनने की प्रतिद्वंदिवता में होती है। कभी कभी इतनी खटाखट होती है कि आस पास का जंगल गूँज उठता है।

साँभर पानी पीने के लिए सुनसान जंगल में दिन में ही बाहर निकल पड़ता है। वैसे इनका पानी पीने का समय संध्या के उपरांत जररा रात बीते है।

एक दिन गरमियों में मैं नदी के किनारे एक-दूसरे गड्ढे में दो-तीन घंटे दिन जा बैठा। 'गढ़ कुंडार' पूरा नहीं हो पाया था। झाँसी में बहुत कम समय मिलता था। छुट्टियों में शिकार के लिए जंगल की राह पकड़ लेता था; परंतु लिखने की सामाग्री साथ ले जाता था। उस दिन गड्ढे में पड़ा 'गढ़ कुंडार' लिख रहा था; क्योंकि सूर्यास्त के लिए काफी समय था। साथ में करामत था। मैंने उसको आहट लेते रहने के लिए कह दिया था।

सूर्यास्त होने को आ रहा था। मैं अपनी धुन में मस्त था। करामत आहट लेते-लेते और जानवरों की बाट जोहते-जोहते अलसा उठा था कि साँभरों का एक झुंड गड्ढे से पद्रंह-बीस डग की दूरी पर आया। करामत ने मुझको संकेत किया। मैंने उनको देखा। वे सब एक ही स्थान पर पानी पीने के लिए परस्पर कुश्तम-कुश्ता कर रहे थे। करामत ने बंदूक चलाने के लिए इशारा किया। साँभर मुझको इतने मोहक लग रहे थे कि मैं बंदूक न चला सका। इनकार कर दिया। जब साँभर पानी पीकर वहाँ से धीरे-धीरे चल दिए तब मैं अपनी निष्क्रियता पर थोड़ा पछताया।

साँभर जब जंगल के सुनसान को चीरता हुआ बोलता है तब जंगल की महिमा पर मुहर सी लगती है।

साँभर से बारहसिंगा छोटा होता है। उसके सींग साँभर के सींगों से भी अधिक सुंदर होते हैं। सिर पर सींगों का झाड़-सा जान पड़ता है। मंडला जिले के कान्हाकिसली नामक जंगल का मैंने थोड़ा सा भ्रमण किया है। कान्हाकिसली जंगल में शिकार खेलने की अनुमति नहीं मिलती। मुझको इस जंगल में शिकार नहीं खेलना था, खेल ही नहीं सकता था। परंतु उसकी बड़ाई बहुत सुनी थी, इसलिए कुछ मित्रों के साथ भ्रमण के लिए गया था।

हम लोगों के पहुँचने के पूर्व हॉलैंड की एक कंपनी जंगली जानवरों का चित्रपट बनाने के लिए अपनी मशीनों के साथ काफी समय तक ठहरी रही थी।

हम लोगों ने साज, सरही और सागौन के विशाल समूह तो उस जंगल में देखे ही, विंध्याचल-सतपुड़ा की विकट सम-विषम ऊँचाइयों को देखकर श्रद्धा में डूब जाना पड़ा था। और जिस मार्ग पर जाएँ उसी पर शेरों, जंगली भैसों इत्यादि के पदचिह्न दिखलाई पड़े।

उस जंगल में एक पथरीली ऊँचाई का नाम है श्रवण पहाड़ी। वही श्रवण, जिसकी कथा पुराण में प्रसिद्ध है, जिसको दशरथ ने भ्रमवश अपने बाण से वेध डाला था और इस अनजाने किए हुए पाप के बदले में भयंकर शाप पाया था। उस श्रवण पहाड़ी के नीचे एक पुराना तालाब था। लोगों ने एक लोक परंपरा बतलाई - उसी श्रवण की यह पहाड़ी है और इसी तालाब के किनारे राजा दशरथ ने अपने तीर से श्रवण का प्राण ले डाला था।

हम लोग तालाब के बंध पर चढ़े। उसमें पानी बिलकुल न था; पर पेडों की छाया में बारहसिंगों का बड़ा भारी झुंड बैठा था। उस जंगल में बंदूक न चलने के कारण और मनुष्यों के अल्प विचरण के कारण जानवर निर्बाध रहते तथा घूमते हैं। हम लोग तालाब के बंध पर कई क्षण खड़े रहे, परंतु बारहसिंगे विचलित नहीं हुए। हम लोगों ने आपस में बातचीत शुरू की तब वे दो-दो, चार-चार करके खड़े हुए। मैंने उनको गिनने की चेष्टा की- एक सौ अठ्ठारह से अधिक थे।

अब यह जानवर अन्य जंगलों में बहुत कम हो गया है।

होशंगाबदा के बाहर इटारसी सड़क पर एक पहाड़ी है। इसकी भीमकाय चट्टानों के भीतरी भाग पर कुछ प्राचीन चित्र हैं। उनमें एक जाति के जानवर का भी अंकन है, जो बारहसिंगा से कहीं बड़ा, परंतु मिलता-जुलता है। अब यह जानवर भारतवर्ष भर में कहीं भी नहीं है।

बारहसिंगा जंगल का सौंदर्य है। इसको बिलकुल न मारा जाए तो शायद कोई हानि नहीं; क्योंकि यह खेती के पासवाले जंगलों में नहीं पाया जाता।

दूसरे जानवर जो खेती को कम नुकसान पहुँचाते सुने गए हैं। चौसिंगा वन बेड़ और कोटरी है।

चौसिंगा कुछ बड़ा होता है और कोटरी एवं वन भेड़ लगभग एक ही डील-डौल के होते हैं। चौसिंगा के माथे के पिछले तथा अगले भाग पर दो-दो सींग होते हैं। पिछले भाग पर जरा लंबे और अगले भाग पर कुछ छोटे। रंग गहरा खरा। वन भेड़ इससे मिलती-जुलती है। इन दोनों की रक्षा इनकी फुरती और सावधानी में है। चिंकारे की तरह ये भी जरा से खुटके पर कूदते-फाँदते नजर आते हैं। जरा चूके कि गए।

कोटरी विलक्षण प्रकार का दबा हुआ कूका लगाती है। विंध्यखंड के जंगलों में काफी संख्या में पाई जाती है। जोड़ी के सिवाय इसके झुंड बहुत कम देखे गए हैं। घने-बेगरे दोनों प्रकार के जंगलों में पाई जाती है। कहते हैं, यह शेर के आगे-आगे चलती है। असल बात यह है कि शेर के निकल पड़ने पर जंगल में भगदड़ मच जाती है। जब कोटरी भयभीत होकर बोलती है तब लोग समझते हैं कि वह जंगल को शेर के आगमन की सूचना दे रही है।



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