दबे पाँव (कहानी) : वृंदावनलाल वर्मा
Dabe Paanv (Hindi Story) : Vrindavan Lal Verma
अध्याय 18
भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है।
भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-बच्छियों का तो यह शत्रु होता ही है, मनुष्य के बच्चों को भी उठा ले जाता है। किसान स्त्रियाँ खेतों में काम करने के समय झोंपड़ों में बच्चों को छोड़ जाती हैं। भेड़िया मौका पाकर उनको उठा ले जाता है। जब वे साथ में बच्चों को डलियों में रखकर ले जाती हैं और मेड़ पर, पेड़ के नीचे बच्चों को छोड़ जाती हैं तब लौटने पर डलियों को खाली पाती हैं। मालूम हो जाता है कि भेड़िया उठा ले गया।
यह गड़रिया के छप्पर फाड़कर भेड़-बकरियों को दाब ले जाता है। इतना ही होता तो भी कोई बात थी, परंतु दस-पाँच को तो वहीं मारकर डाल जाता है। मैंने झाँसी के पास के ही एक गाँव में कुछ समय हा तब देखा था।
भेड़-बकरियों के चरते हुए बगर में से एकाध का मुँह में दाबकर उठा ले जाना साधरण बात है; परंतु कभी-कभी दो भेड़िए एक बकरी को कान पकड़कर भगा ले जाते हैं। एक कान एक भेड़िया मुँह में दाबता है और दूसरे को दूसरा। बकरी बेचारी गुमसुम घिसटती हुई चली जाती है।
भेड़िया खिलाड़ी जानवर है। कभी-कभी मनुष्य के बच्चे को पाल भी लेता है।
भेड़िये का पाला हुआ एक बच्चा मैंने स्वयं देखा है। वह भेड़िए के साथ ओरछा के जंगल में कोहनियों के बल फिर रहा था। एक ताँगेवाले को मिला। भेड़िये को ताँगेवाले ने पत्थरों की मार से भगा दिया और बच्चे को पकड़ लिया। ताँगेवाला इस बच्चे को ताँगे पर बिठलाकर घुमाता रहता था। बच्चा कच्चा गोश्त खाता था। न तो वह किसी प्रकार की मानव भाषा बोल सकता था और न समझ सकता था। इस बच्चे को पकड़े हुए ताँगेवाले को थोड़े ही दिन हुए थे कि अकस्मात् यह ताँगा मुझको बैठन के लिए मिल गया। वह बच्चा ताँगे में बैठा था। बिलकुल नंग-धडंग। लगभग सात-आठ वर्ष का होगा। जाड़े के दिन थे। मैंने ताँगेवाले को डाँटा, 'बच्चे को ऐसा उघाड़ा क्यो लिए फिरते हो? ठंड लग जाएगी, मर जाएगा।'
ताँगेवाले ने उत्तर दिया, 'यह कपड़ा पहनता ही नहीं। एक कुरता पहनाया तो इसने दाँतों और हाथों से फाड़-फूड़कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए।'
फिर उसने भेड़िये से बच्चे को छुटा लाने का ब्योरेवार वर्णन सुनाया।
रात थी। मैंने ताँगे को सड़क लैंप की रोशनी के निकट खड़ा करवाया और बच्चे को बारीकी के साथ देखा। बच्चे को यह अवलोकन पसंद नहीं आया। उसने अपने छोटे-छोटे सुंदर दाँत मुझको दिखलाए और आश्वासन दे का प्रयत्न किया कि यदि अवलोकन आगे बढ़ा तो काट खाऊँगा।
उन्हीं दिनों मेरे वर्ग के कुछ लोगों ने झाँसी में एक अनाथालय खोला था। सोचा, इसको अनाथालय में रख दूँ। ताँगेवाला तो उस बच्चे से पिंड छुड़ाना ही चाहता था, मैंन बच्चे को अनाथालय में रख दिया। मैं हफ्ते में कई बार उसको देखने के लिए जाता था। उस बच्चे को अँधेरी और मैली-कुचैली जगह बहुत प्रिय थी। उसको मिट्टी में पड़े रहना और पलोटें लगाना बहुत पसंद था। कपड़े पहनना और ओढ़ना तो उसको बहुत कठिनाई से सिखला पाया। उसको कोहनी और घुटने के बल चलना बहुत अच्छा लगता था। अकेले में किलकारियाँ मारता था। अनाथालय के अन्य बालकों के सामने चीख उठता था।
कई वर्षों तक वह भाषा नहीं सीख सका। अनाथालय में एक बैंड था। बैंड की ध्वनियाँ उसको अच्छी लगती थीं। वह उनको ध्यानपूर्वक सुनता था, प्रसन्न होता था और कभी-कभी किसी-किसी ध्वनि की नकल भी कर उठता था।
गंदा इतना रहता था कि कोई भी अन्य बालक उसके पास खड़ा होना तक पसंद नहीं करता था।
पाँच-छह साल बाद उसको कुछ बोलना आया। इतने दिनों में वह कपड़े भी पहनने लगा था।
पता नहीं वह किस दुःखी माता-पिता का बालक था।
एक भेड़िए की चालाकी मैंने अपनी आँखों से देखी है।
एक बार बैलगाड़ी से बाहर गया। लौटते समय संध्या हो गई। संध्या के पहले मैं गाड़ी से उतर पड़ा और गाड़ी के पीछे लगभग दो फलाँग पर रह गया। देखा कि चलते-चलते गाड़ी एक पेड़ के पास ठिठक गई। आस पास खुले हुए खेत थे। न तो कोई डाँग बीहड़ और न अन्य पेड़। सड़क के किनारे केवल एक पेड़ था। पास पहुँचा तो उस पेड़ के नीचे एक भेड़िया पड़ा है और गाड़ीवान तथा एक ग्रामीण उसके पास खड़े हैं। उन्होंने भेड़िए पर एक पत्थर फेंका था। वे समझते थे कि भेड़िया मर गया।
जब गाड़ी पेड़ के पास पहुँची थी, वह छिपने का यत्न कर रहा था। गाड़ीवान गाड़ी खड़ी करके उतरा। एक पत्थर उठाकर मारा और उसपर दौड़ पड़ा। भेड़िया गिर पड़ा और लंबायमान हो गया।
उन लोगों ने भेड़िये को उठाकर गाड़ी पर रख लिया और गाड़ी बढ़ाने को हुए। मैं टहलते हुए चलना चाहता था, इसलिए गाड़ी के पीछे था।
मुझको विश्वास नहीं था कि भेड़िया मर गया। जब उसको गाड़ी पर रखा, उसकी साँस नहीं चल रही थी। परंतु मैंने देखा, उसने अपनी आँखें खोलीं और मुझको देखते ही तुरंत झपकी सी ले ली।
मैंने गाड़ीवान से तुरंत उसको नीचे डाल देने के लिए कहा। नीचे डालते ही उसने फिर साँस साधी। मैं बंदूक तैयार लिए उसके सिर पर खड़ा था।
भेड़िये ने थोड़ी देर में साँस ली और आँखें खोलकर झटपट बंद कर लीं। वह भाग निकलने का अवसर ताक रहा था। वह पत्थर को चोट खाकर भाग न सका था। मरने का मिस करके पेड़ के नीचे पड़ गया था। गाड़ी पर पहुँचने और गाड़ी से नीचे डाले जान के समय भी वह उचाट लेकर भागने का बल प्रतीत नहीं कर रहा था, इसलिए मरने की दशा का बहाना करके चुप्पी साध गया। सोचता होगा कि अकेला रह जाऊँ तो फिर अपने झुंड में जा मिलूँगा।
जैसे ही उसने दुबारा आँखें खोलीं, मैंने उसको समाप्त कर दिया और गाड़ीवान से कहा, 'अब ले जाओ और इनाम के दस रुपये कमा लो।'
गाड़ीवान दूसरे दिन भेड़िये की खाल कचहरी में ले गया। दस रुपये इनाम के गाँठ में किए और एक टोपीदार बंदूक का लाइसेंस भी ले आया।
अध्याय 19
भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव को नहीं जानती थी। उनसे पानी पिया। गरमियों के दिन थे, नहाने की इच्छा हुई। पानी में उतर पड़ी। कुछ ही क्षण ठहरी थी कि मगर पानी के ऊपर आया कि सपाटा मारकर उसको पानी के नीचे ले गया। जब उसने समझ लिया कि मर गई, पत्थरों की खोख या झाऊ की झाड़ी में ले गया और उसको समूचा खा गया।
बड़ी नदियों के किनारे ये घटनाएँ प्रायः होती रहती हैं। कहार लोग अपने जाल में छोटे मगरों को तो फाँस लेते हैं, परंतु बड़े मगर और नाके इन जालों में नहीं आते।
मगर और नाके में अंतर है। मगर चौड़ा और ऊँचा होना है, नाका लंबा। बीस फीट से अधिक लंबाई के नाके मैंने देखे हैं।
मगर अधिक घातक होता है। गाय-बैलों तक को पानी में दबोच लेता है और डुबोकर मार डालता है। भेड़, बकरी और कुत्ते तो उसके लिए कुछ भी नहीं हैं।
एक बार मैं नदी किनारे प्रातः काल हाथ-मुँह धो रहा था। जल के पास पहुँचने के पहले एक मगर वहीं पड़ा हुआ था; परंतु मैंने देख नहीं पाया। हाथ-मुँह धोते समय मुझको पास ही तली में कुछ सरकता हुआ दिखलाई पड़ा। मैं तुरंत उचट कर पीछे हटा। मगर भी लौट गया। मैं पास ही एक पत्थर की आड़ में बैठ गया।
सवेरे के समय मगर जल के पास रेत में लेटने और सोने के लिए आता है। जाड़ों में तो वह देर तक धूप लेता रहता है।
घंटे-डेढ़ घंटे की प्रतीक्षा के उपरांत मगर रेत पर आया और चने के साथ लेट गया। मुझको उसकी खुली आँखें दिखलाई पड़ रही थीं। जब उसने आँखें मूँद लीं, यह नहीं अनुमान होता था कि उसके आँखें हैं भी या नहीं।
धीरे से राइफल सँभाली, गरदन का निशाना लिया और यहाँ लिबलिबी दबी, वहाँ मगर केवल जरा सा हिला और बहुत शीघ्र समाप्त हो गया।
मर जाने पर भी उसकी देह में इतनी गरमी रहती है कि थोड़ी देर तक स्पंदन करता रहता है।
जिस स्थान पर गड़रिए की स्त्री को मगर खा गया था, मुझको उस स्थान की चिंता हुई। कई बार घंटों ताक लगाकर बैठा, परंतु मगर की श्रवण शक्ति इतनी प्रबल होती है कि जरा सी आहट पर वह पानी में खिसक जाता था। दिन-दिन भर का श्रम व्यर्थ जाता और मुझको लौटना पड़ता।
एक बार एक मित्र ने मगर के स्वभाव को पास से जाँचने की इच्छा प्रकट की और मेरे साथ बैठने का हठ किया। हम लोग पानी के पास आड़ में जा बैठे। दो घंटे के बाद मगर आकर रेत पर बैठा। मेरे मित्र ने आतुरता के साथ कहा -
'वह आ गया मगर'
इधर मित्र का वाक्य समाप्त नहीं हो पाया था, उधर मगर पानी में गायब हो गया। वह बहुत धीमे बोले थे, परंतु मगर का कान बहुत तेज होता है।
परंतु एक दिन मगर झंझट में पड़ ही गया। मैं पथरीले किनारे पर दबे-दबे, पोले पैरों जा रहा था। एक पत्थर की ढाल पर पत्थर के रंग का सा ही कुछ दिखलाई पड़ा। मैंने जूते उतारकर एक जगह रख दिए। फिर बहुत धीरे-धीरे उस पत्थर के रंग जैसे की ओर बढ़ा। मेरा अनुमान सही निकला। वह एक भयानक मगर था।
जब मैं पंद्रह फीट के अंतर पर पहुँच गया तब उसको और अच्छी तरह देखा। बहुत ही कुरूप और भदरंग था। मैंने सिर का निशाना ताककर गोली छोड़ी। मगर पानी के बिलकुल पास था। वह जरा सा हिलकर तुरंत वहीं खत्म हो गया।
दूसरे महीने मैं अपने उन्हीं मित्रों के साथ इसी किनारे आया। रात को हम लोग अपने-अपने गड्ढे में जा बैठे। तेंदुए की खबर लगी थी। मैंने उन मित्र को सावधानी के साथ बैठने के लिए कह दिया था और तेंदुए की भयानकता के संबंध में कुछ बातें बतला दी थीं।
मेरे गड्ढे के सामने से तेंदुआ तो नहीं आया, एक भारी-भरकम विलक्षण जानवर निकला। मंद चाँदनी रात थी; परंतु वह गड्ढे के बिलकुल पास से निकला था, इसलिए पहचानने में की बाधा नहीं हुई। वह बड़ा मगर था और नदी के एक दह से दूसरे दह को कंकडों, पत्थरों और रेत में होकर जा रहा था। मेरे हाथ में उस समय 12 बोर की दुनाली बंदूक थी। नाल में टुकड़ेदार गोली (Split Bullet) वाला कारतूस था। चलाया, परंतु मगर तेजी के साथ आँखों से ओझल होकर पानी में धँस गया। सवेरे मैंने उस स्थल का निरीक्षण किया जहाँ मगर पर गोली चलाई थी, तब रेत के ऊपर गोली के टुकड़े पड़े मिले।
वास्तव में, मगर पर इस प्रकार की गोली का कोई प्रभाव नहीं होता। सिर या गरदन पर गोली पड़े तो और बात है, वैसे पीठ पर तो साधारण गोलियाँ खुजली का ही काम करती होंगी।
मैं अपने उन मित्र के गड्ढे पर गया। वे गड्ढे के पीछेवाले पेड़ पर चढ़े थे। वैसे उनमें बहुत वीरता थी; परंतु शिकार का अनुभव न होने के कारण उन्होंने पेड़ को ही आश्रय बनाना ठीक समझा था।
जब मैं पेड़ के नीचे पहुँचा, उन्होंने अपनी दुनाली बंदूक नाल की तरफ से मुझको दी। दोनों घोड़े चढ़े हुए थे और कारतूस तो नाल में थे ही। मैंने अपने प्राणों की कुशल मनाते हुए नाल को सिर से ऊँचा करके पकड़ा, साधकर घोड़े गिराए और उनसे कहा, 'इस प्रकार घोड़े चढ़ी हुई बंदूक को नाल की तरफ से किसी को नहीं देना चाहिए।'
वे हँसकर बोले, 'क्या परवाह!'
दूसरे दिन राइफल से एक मगर मारकर मैंने उसपर दुनाली की गोली के प्रभाव की परीक्षा करनी चाही। पक्की गोली उसकी पीठ पर चलाई। गोली उचटकर चली गई, केवल एक खरोंच छोड़ गई। उस रात मगर पर टुकड़ेदार गोली ने क्यों कोई काम नहीं कर पाया था, यह बात अब समझ में आ गई।
मगर का सिर, गरदन और पेट मार के स्थल हैं। उसकी पीठ के खपटे इतने प्रबल होते हैं कि साधारण हथियार काम नहीं कर सकते। राइफल की नुकीली गोली निस्संदेह उसपर यथेष्ठ काम करती है।
बेतवा का पाट कहीं-कहीं चार फर्लांग चौड़ा है। इस नदी में कई स्थानों पर टापू हैं। एक बार मैं दो मित्रों सहित नदी के उस पार भ्रमण कर रहा था। नदी में एक टापू उस ढी से दो फर्लांग पर था। टापू के नीचे थोड़ी सी रेत थी, बाकी पाट में पानी भरा हुआ था। हम लोग उस पार की ढी पर खड़े-खड़े ऊँचे स्वर में बातचीत कर रहे थे। टापू के नीचे एक बड़ा लंबा-चौड़ा मगर रेत पर पड़ा हुआ था। उसको हम लोगों की ओर से संकट की कोई शंका नहीं हो सकती थी, क्योंकि हम लोग बहुत दूर थे।
मेरे मित्रों ने प्रस्ताव किया - 'मगर पर राइफल चलाओ, देखें, गोली लगती है या नहीं।' मैंने टाला-टूली की। मुफ्त में एक कारतूस क्यों खोता। जानता था कि निशाना न लगेगा। वे लोग न माने। मैंने एक पत्थर पर राइफल रखकर निशाना साधा और 'धाँय' कर दी।
अकस्मात्, गोली मगर की गरदन पर पड़ी और वह हिलकर रह गया। मगर की गरदन का लक्ष्य कुछ ही इंच व्यास का होता है; परंतु उस दिन निशाने की जगह पर बैठना एक संयोग मात्र था; क्योंकि राइफल से मैंने बहुत निकट के लक्ष्य चुकाए हैं।
एक मगर जब दूसरे से लड़ता है तब नदी में तुमुल नाद होता है। मगरों की उछालों के मारे पानी फट-फटकर उत्ताल तरंगों में परिवर्तित हो जाता है और तरंगों पर झाग आ जाते हैं। मगर कभी रेल की सी सीटी बजाकर और कभी तेंदुए जैसी हुंकार भरकर एक दूसरे से टकराते, लिपटते और गुँथते हैं। डूबने का उनको कुछ डर ही नहीं, क्योंकि वे घंटों पानी के भीतर रह सकते हैं। जब एक थक जाता है तब उसका प्रबलतर प्रतिद्वंद्वी नीचे ले जाता है, फिर पकड़कर पानी के बाहर लाता है। अपने नाखूनी पंजों और विकट दाँतों से उसका पेट फाड़ डालता है।
परंतु यही मगर जलमानुस से बहुत घबराता है। जलमानुस पानी का सुना कुत्ता है। नदी के जिस बाग में पहुँच जाता है उसकी मछली, कछुए, मगर सब समाप्त कर देता है या भगा देता है।
जलमानुस होता छोटा सा ही जानवर है। पूँछ समते लगभग चार फीट लंबा और ऊँचा छोटे कुत्ते के बराबर। बहुत चिकना, बड़ा गाँठ-गँठीला और नाखूनी पंजोंवाला। वह बड़ी तेजी के साथ पानी में डुबकी लगाता है और उबरता है। झुंड में रहता है।
जब मगर से यह लड़ता है, मगर फुफकारी मारकर इसके ऊपर आता है; परंतु यह उचाट लेकर उसके सिर पर सवार हो जाता है और गरदन में अपना नाखूनी शिकंजा कसता है। मगर पानी के भीतर जाता है, परंतु जलमानुस को पानी में डूबने का तो कुछ डर ही नहीं है, मजे में चला जाता है और नीचे भी मगर के गले पर अपे पैने नाखूनों को गपाता है। मगर ऊपर आता है; परंतु वहाँ भी निस्तार नहीं, क्योंकि दूसरे जलमानुस उसके पेट के नीचे पहुँच जाते हैं और नाखून ठोंकने की उसी क्रिया को पेट पर चालू कर देते हैं। मगर रेत पर भागकर भी त्राण नहीं पाता; क्योंकि जलमानुस बंदरों की तरह भूमि पर चलते-फिरते उछलते-कूदते हैं। जलमानुस पेड़ पर भी चढ़ जाते हैं।
एक बार जब अपनी आँखों एक मगर को गाय पर सवार होते देखा, तब जलमानुस की बहुत याद आई। यदि वह इस पानी में होता तो मगर साहस न कर पाता।
दिन की बात थी। मैं 12 बोर की दुनाली लिए पानी से काफी दूर बैठा था। एक गाय किनारे पानी पीने आई। उसने पानी में मुँह डाला ही था कि मगर ने अपनी भयंकर पूँछ की पछाड़ गाय की देह पर दी। गाय रेत में जा गिरी और मगर उससे जा लिपटा। अभी तक सुना था कि मगर पानी में दबे-दबे आकर, पैर पकड़कर घसीट ले जाता है; परंतु यह व्यापार विलक्षण था। मैं तुरंत हल्ला करता हुआ दौड़ा, क्योंकि गोली नहीं चला सकता था। एक तो उसका प्रभाव मगर के ऊपर नहीं के बराबर होता, दूसरे गाय पर गोली पड़ जाने का भय था। मगर गाय को छोड़कर भाग गया। परंतु मगर की पूँछ के वार के कारण गाय इतनी घायल हो गई थी कि मुश्किल से नदी की ढी पर चढ़ पाई।
चिरगाँव से चार मील 'भरतपुरा' नाम का गाँव झाँसी जिले में है। बेतवा इस गाँव से लगभग एक मील की दूरी पर बहती है। उस पार के पहाड़ और जंगल बडे सुहावने दिखते हैं। कुंडार का किला इस गाँव से आठ-नौ मील दूर है। भरतपुरा के तैराक बरसात में आई हुई नदी को तो पार कर ही जाते हैं। वे आई हुई नदी में तैरते हुए कुल्हाड़ी से मगर का सामना भी करते हैं।
भरतपुरवालों की गाय-भैंसे जब उस पार जंगल में रह जाती हैं तब वे उनको लेने के लिए जाते हैं। उधर से ढोरों को लाते समय कभी कभी मगर से मुठभेड़ हो जाती है। मगर ढोर पर आ जाता है और ये एक हाथ से ढोर की पूँछ पकड़े हुए, दूसरे में कुल्हाड़ी लिए ललकारते हैं। और अपने ढोरों को बचा ले आते हैं।
मगर फागुन-चैत में अंडे देता है। अंडे इसके बड़े-बड़े होते हैं। यह उनको रेत में गहरे गाड़ता है। साधारण तौर पर यह मछलियाँ खाता है। मुँह खोल लिया, पानी फुफकारता रहा और मछलियों की निगलता रहा।
अध्याय 20
जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार।
अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने देखा और सुना है, मनुष्य से डरता है।
हिरन तक को निगल जानेवाले अजगर देखे गए हैं। चिरगाँव से पाँच मील दूर बेतवा किनारे एक अजगर ने हिरन को अपनी पूँछ की फटकार से पटका और लिपटकर उसके शरीर को चरमरा डाला; फिर उसको निगलना शुरू किया। पास ही किसानों के खेत थे। वे रखवाली कर रहे थे। रात का समय था। हिरन की पुकार सुनकर लाठी और कुल्हाड़ी लेकर दौड़े। उन्होंने समझा कि तेंदुए या भेड़िये ने हिरन को दबाया है। जब पास पहुँचे तब देखा, अजगर हिरन को दबाए हुए है और निगले जा रहा है।
उन्होंने लाठियों और कुल्हाड़ियों से अजगर को मार डाला और हिरन को छुटा लिया। परंतु हिरन भी मर चुका था। उन्होंने हिरन को छील-छीलकर पकाया, खाया। सबके सब बीमार पड़ गए। उनको हफ्तों दस्त लगे थे। परंतु कहा नहीं जा सकता कि अजगर के निगलने के कारण हिरन विषाक्त हो गया था या वे लोग किसी और कारण से बीमार पड़े थे।
काला, गढ़ैंत और उर्दिया साँप भयंकर विषधर हैं। उर्दिया साँप बूँदों और छपकोंदार होता है। देखने में सुंदर, परंतु काटने पर बहुत ही घातक विषवाला। यह काले से काफी बड़ा होता है। काले और गढ़ैंत को सभी जानते हैं। इन सबसे जंगल में भ्रमण करनेवालों, विशेषकर गड्ढों में बैठनेवालों को सावधान रहना चाहिए। अच्छा यह है कि मनुष्यों से डरते हैं; परंतु ये शिकार के गड्ढों में आ सकते हैं और आ जाते हैं। बैठने के पहले एक छोटे से डंडे से आस पास के स्थल को ठोंक-बजा लेने से रक्षा सुलभ हो जाती है।
बिच्छुओं से भी बचने के लिए यह प्रयोग अच्छा है। मैंने जंगलों में छह इंच लंबे तक बिच्छू देखे हैं। रंग काला, जिनको देखकर रोमांच हो आवे।
बरसात के आरंभ में हरे रंग के छोटे साँप दिखलाई पड़ते हैं। सुनते हैं कि ये भी बहुत विषैले होते हैं।
चलने-फिरने के लिए, और शिकार में वैसे भी, टाँगों मे टकोरे चढ़ा लेना बहुत अच्छा है।
साँपों को देखकर छोड़ देना दूसरे मनुष्यों या पालतू जानवरों के साथ घात करने के बराबर है।
पागल सियार भी जंगल की एक काफी बड़ी व्याधि है। पागल सियार के बराबर निर्भीक और ढीठ और कोई जंतु नहीं। इसको तो गाँववाले यथाशक्य, तुरंत ही नष्ट कर डालते हैं; क्योंकि वे उसके संहारकारी परिणाम को जानते हैं। पागल सियार जिस मनुष्य, ढोर तथा कुत्ते को काट खाता है, उसका बचना कठिन हो जाता है। पागल सियार का काटा हुआ मनुष्य यदि समय पर अस्पताली इलाज पा गया तो बच जाता है; परंतु ढोरों की बड़ी मुश्किल पड़ती है, और कुत्ते तो पागल सियार से पाए हुए विष को बाँटते से फिरत हैं।
हमारे यहाँ लोमड़ी का शिकार कोई नहीं करता और न वह खेतो को कोई बड़ा नुकसान ही पहुँचाती है। इसकी बोली रात के सन्नाटे को जब विचलित करती है तब ऐसा लगता है कि वह किसी बड़े जानवर के आने की सूचना दे रही है।
अध्याय 21
जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं।
अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का करमा नृत्य देखा। उसके कई प्रकार होते हैं। वे सब बारी-बारी से देखने को मिले।
करमा में स्त्री-पुरुष सब शामिल होते हैं। पुरुषों की एक टोली और स्त्रियों की एक टोली। पुरुष टोली एक कतार में और सामने स्त्रियों की टोली भी पाँत में। गायन और नृत्य ढोलकी के वाद्य पर होता है।
गायन सीधा और सरस होता है। गायन का साहित्य किसी प्रेमकथा या जीवन की किसी अवस्था पर मचलता है। मचल-मचलकर ही वे सब गाते हैं और बड़े मोद के साथ नाचते हैं। स्त्रियाँ घूँघट डाले रहती हैं। हम लोगों के समक्ष वे घूँघट ही डाले थीं। जब वे लोग 'बाहरवालों' के सामने न गाते-नाचते होंगे तब शायद घूँघट की आड़ हटा दी जाती हो।
करमा नृत्य में कला और विनोद दोनों हैं। मैंने करमा का अनुकरण शांति निकेतन की एक मंडली में देखा है। करमा स्वास्थ्य और आनंद देनेवाला नृत्य है।
बुंदेलखंड के देहातों में, विशेषकर हमीरपुर जिले के गाँवों में, विवाह के समय स्त्रियों का नृत्य देख है। इस नृत्य में एकरसता होती है। बहुत थकानेवाला और शायद कम विनोद देनेवाला होता है।
देहातों और जंगलों में जो विवाह होते हैं वे वास्तविक उत्सवों का रूप धारण करते हैं।
गोंडों और कोलों में तो विवाह एक बहुत बड़े त्योहार का रूप धारण करता है। इस त्योहार के मनाने में उनको पंडा-पुजारी की बिलकुल जरूरत नहीं पड़ती। गोंडों का सहवर्गी बेगा आता है और भाँवर पड़वा देता है। बेगा अपने को किसी भी ब्राह्मण से कम पवित्र नहीं समझता। और भोजन में चूहे-कौए को भी नहीं छोड़ता।
जब हम लोग 'नानबीरा' से लौटे, मार्ग में भूख लगी। साथ में दाल-चावल था, परंतु पकाने के लिए कोई बरतन न था। साथ में एक बेगा था, उससे मिट्टी का बरतन लाने को कहा। वह पास के एक गाँव से तीन-चार मटकियाँ ले आया। एक में हम लोगों ने पानी भरकर रख लिया और दूसरे में खिचड़ी चढ़ा दी।
एक कहावत है - दो मुल्लों में मुरगी हराम। इधर हम लोग थे पाँच-सात। चूल्हा जल रहा था, तो भी उसमें कोई लकड़ी निकाल-निकालकर फिर खोंस रहा है, कोई जलती हुई आग को बुझाकर फिर उसका रहा है, की हंडी में लकड़ी बार-बार डाल रहा है। मतलब यह कि न चूल्हे को चैन और न हंडी को। फल यह हुआ कि एक घंटे की इस कवायद-परेड के बाद हंडी का पानी जल गया और खिचड़ी में से जलाँध आने लगी। हमारे दलनायक ने व्यवस्था दी - 'उतारो, हंडी को उतारो, खिचड़ी पक गई है।'
हंडी को उतार लिया और चूल्हे को बुझा दिया; क्योंकि हवा चल रही थी, गरमियों के दिन थे और घने जंगल पास लगे थे। डर लगता था कि कहीं जंगल में आग न लग जाए।
खिचड़ी के ठंडे होने के पहले ही आतुरता के साथ महुए इत्यादि के पत्तों की पत्तलें बनाईं। अपनी-अपनी समझ में सुंदर परंतु गोल के सिवाय रेखागणित के किसी भी कोण से होड़ लगानेवाली। पर स्वादिष्ट खिचड़ी के लिए अच्छी आकृतिवाली पत्तलों की अटक ही क्या!
जब खिचड़ी परोसी और मुँह में डाली तब बिलकुल कच्ची। बेगा हम लोगों की झेंप और निराशा पर हँस रहा था। हंडी में काफी खिचड़ी रखी थी। बेगा भूखा था। हम लोगों ने बेगा से कहा कि पानी डालकर, इसको फिर से पकाककर खा लो। उसने बिलकुल नाहीं कर दी। वह हम लोगों का छुआ हुआ पानी तक नहीं पी सकता था इसलिए वह मटके लाया था। उसने एक मटका अलग से भरा। अलग ही अपनी खिचड़ी पकाई औऔर मजे में खा गया।
नगरों में रहनेवाले लोगों का खयाल है कि गाँवों में रहनेवाले लोग अपने बाहर के संसार से अंजान रहते हैं। इससे बढ़कर और कोई भूल नहीं हो सकती।
गाँववालों को अभी तक इतना सताया गया है, उनकी इतनी अहवेलना को गई है कि सिधाई और अज्ञान को उन्होंने अपना आवरण बना लिया है। वे उस आवरण को डाले हुए शत्रु और मित्र, दोनों के समाने एक समान भावना से आते हैं। जब वे समझ लेते हैं कि मित्र के रूप में बाहर से आया मनुष्य उनका वास्तविक मित्र या हितचिंतक है तब वे उस आवरण को हटा देते हैं। उस समय उनका सच्चा स्वरूप दिखलाई पड़ता है। उसकी ठोस बुद्धि, उनका दृढ़ स्वभाव और उनकी तत्परता उस समय पहचानने में आती है।
मैं एक बार एक कंधे पर बंदूक और दूसरे पर अपने थोड़ से बिस्तर लिए जंगल के गड्ढे में बैठने के लिए जा रहा था। गड्ढा दो-ढाई मील की दूरी पर था। मेरे पीछे एक गड़रिया आ रहा था। उसका मार्ग गड्ढे के पास होकर पड़ता था। गड़रिया मुझको पहचानता था। आगे बढ़ा और उसने मेरे बिस्तर अपने कंधे पर टाँगने का अनुरोध किया। मैंने नाहीं की, परंतु उसने बिस्तर छीनकर अपने कंधे पर रख लिया। मैंने सोचा, मैं इसकी क्या सेवा करूँ? मैंने वार्तालाप आरंभ किया। मैंने पूछा, 'कहो भाई, गाँव में क्या हो रहा है?'
उसने उत्तर दिया, 'और तो सब ठीक है, पर जमींदार जान खाए जाते हैं।'
'क्यों? कैसे?'
'जंगल में भेड़-बकरी नहीं चरने देते। कहते हैं, लगान दो। हम लोगों ने लगान पहले कभी नहीं दिया। हर साल दो कंबल देते चले आए हैं, सो अब भी देने को तैयार हैं; परंतु वे लोग कंबलों के अलावा लगान भी माँगते हैं। हम लोगों ने पहले बेगार कभी नहीं की। अब वे पुलिस और तहसील की बेगार भी कराना चाहते हैं।'
मैंने कहा, 'लड़ाई का जमाना है, इसलिए पुलिस, तहसील जमींदार सभी की बन पडी है। सबके सब अंधे हो गए हैं और आगा-पीछा न देखकर लालच में अंधाधुंध पड़ गए हैं। तो भी मैं कल आकर तुम्हारे जमींदारों को समझाऊँगा। वे लोग मुझको जानते हैं। मेरे समझाने से मान जाएँगे।'
गड़रिए को आश्वासन मिला। अब वह खुला। उसने अपने अभ्यस्त आवरण को हटाया। बोला, 'लड़ाई का क्या हाल चाल है?'
मैंने सोचा, इसको क्या बतलाऊँ। जो लोग भूगोल से थोड़ा सा परिचय रखते हैं, वे ही लड़ाई में भाग लेनेवाले देशों का नाम जानते हैं और वे ही लड़ाई के संबंध की कुछ बातें समझ सकते हैं। मैंने गोल-मटोल उत्तर देने की चेष्टा की।
लड़ाई के प्रारंभिक काल की बात थी, जर्मनी और इंग्लैंड की पैंतरेबाजी चल रही थी; परंतु अभी मुठभेड़ नहीं हुई थी।
मैंने कहा, 'अभी जर्मनी से अँगरेजों की झपटा-झपटी नहीं हुई है। दूसरे देशों में युद्ध हो रहा है। अपने देश से बहुत दूर-दो हजार कोस पर।'
वह मुसकराकर बोला, 'जर्मनी ने पोलैंड को तो जीत लिया है, अब फ्रांस को रौंदने वाला है।'
मैं इस वाक्य को सुनकर दंग रह गया। जंगलों और पहाड़ों में भेड़-बकरी चरानेवाला गड़रिया पोलैंड और फ्रांस के नाम जानता है, और यह भी जानता है कि जर्मनी ने पोलैंड को जीत लिया है और फ्रांस को रौंदना चाहता है। मैंने कुतूहल के साथ पूछा, 'रूस देश का नाम सुना है?'
उसने उत्तर दिया, 'सुना है वहाँ किसानों और मजदूरों की पंचायत का राज है।'
मैंने कहा, 'अपने देश में भी किसानों और मजदूरों का राज होगा। वह दिन जल्दी आ रहा है।'
गड़रिया बिना किसी बनावट के बोला, 'पर अपने यहाँ किसान-मजदूर जमींदारों और साहूकारों का खून बहाकर पंचायत नहीं बनाएँगे।'
'क्यों?'
'क्योंकि हम लोग राक्षस नहीं हैं।'
मुझको तुरंत अपने दरिद्र कहलानेवाले, परंतु महा गौरवमय, देश के उस तपस्वी की याद आ गई, जिसको इग्लैंड के एक मानवद्रोही घमंडी ने 'नंगा फकीर' कहा था, परंतु जिसको उसके देशवाले 'महात्मा' और 'बापू' कहते हैं।
बापू की निर्भीक अहिंसा की नींव देश की वह संस्कृति है, जो इस अनपढ़ गड़रिए के भीतर से उन शब्दों में होकर अनायास निकल पड़ी थी।
मैंने पूछा, 'तुम्हारे गाँव में भी झंडा उठाया गया?'
उसने उत्तर दिया, 'हाँ-हाँ, तिरंगा झंडा। कई बार उठाया गया और हम लोगों ने कई बार गाया 'झंडा ऊँचा रहे हमारा'।'
मैं उस दिन गड्ढे में नहीं बैठा। सीधा उसके गाँव में गया। जमींदारों को समझाया। उन्होंने 'हाँ-हाँ' तो कर दी और कुछ महीनों गड़रियों को तंग भी नहीं किया; परंतु वह प्रथा, वह प्रणाली ऐसी है कि उनकी हाँ-हाँ बहुत दिनों तक नहीं चली।
अध्याय 22
शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले।
संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं - काफी हँसोड़ भी हैं। शिकार में दो-एक बार मेरे साथ गए। जंगल में तो उन्होंने नहीं गाया, गाने की धुन में तो उनको तबले-तँबूरे की अटक ही नहीं रहती, परंतु शिकार से लौटने पर उन्होंने तानों की वर्षा कर दी।
जब शिकार के मोरचों पर नहीं होते तब बातें भी काफी करते हैं।
एक बार यात्रा करते हुए लौट रहे थे। गाड़ी के पीछे सामान रखा था, बीच में मेरे जूते रखे हुए थे। उस्ताद लखनऊ संबंधी अपने कुछ अनुभव सुना रहे थे।
कहते जाते थे 'एक बार मैं लखनऊ की एक रईसी दावत में फँस गया। खानेवालों के सामने सजा-सजाया बढ़िया खाना, पर थोड़ा-थोड़ा ही। इसपर भी इतना तकल्लुफ कि जो देखो, सो परोसनेवाले से कहे - अजी बस, अजी बस। यही पड़ा रह जावेगा, ज्यादा मत परोसो। मैंने सोचा, इनको तकतल्लुफ में भी मात देना पड़ेगा। मैंने ग्रास उठाया, सूँघा और रख दिया, सूँघा और रख दिया। मेरी कार्रवाई को देखकर लखनऊ के एक साहब ने कहा - 'उस्ताद, आप तो कुछ भी नहीं खा रहे हैं, यह क्या? मैंने जवाब दिया, 'साहब, मैं तो खुशबू से ही पेट भरनेवालों में हूँ।' जब दावत समाप्त हो गई, आँतें कुलबुला उठीं। मैंने बहाना लेकर बाजार का रास्ता पकड़ा और एक दूकान पर जाकर अपने बुंदेलखंडी पेट को डाटकर भरा।'
उस्ताद ने हँसते हुए एक दूसरी कहानी छेड़ी - 'लखनऊ से एक साहब शिकार के सिलसिले में झाँसी आए। विकट बीहड़ जंगल पहुँचे। मुझसे बोले, 'मियाँ, आपकी बंदूक गोली बरसाती है और हमारा मुँह ही गोले छोड़ देता है।' मैं जवाब देने के लिए परेशान हो रहा था कि एक जगह साँभर की लेंड़िया का ढेर दिखलाई दिया। मैंने लखनऊवाले मेहमान से कहा, 'जनाब, जरा उस ढेर को देखिए। हमारे यहाँ के जानवर लोहे की लेंड़ियाँ करते हैं।' मेहमान मारे पसीने के तर हो गए।'
उस्ताद की गप खत्म हुई थी कि गाड़ी के पीछे की तरफ आँख गई। सब सामान, बिस्तरे-विस्तरे गायब। दुपहरी का समय था, परंतु गपशप में सामान का खिसक जाना मालूम ही न पड़ा। सामान के साथ मेरे जूते भी चल दिए थे। सामान और बिस्तरे उस्ताद के ही थे, इसलिए वे सारी गपशप भूल गए।
बेचारे गाड़ी पर से उतरे। काफी लंबी दौड़धूप की। सामान मार्ग में पड़ा मिल गया। मेरे जूते खो गए।
परंतु कभी-कभी ऐसे साथी भी मिल जाते हैं कि त्राहि-त्राहि करनी पड़ती है।
तंदुए या शेर के लिए जो मचान बाँधी जाय, उसपर अकेले बैठना सबसे अच्छा। कोई साथ में बैठे तो पहली शर्त यह है कि बातचीत बिलकुल न करे और दूसरी यह कि खाँसता न हो।
यदि जरा सी भी आहट हो गई तो चाहे मचान पर कोई दिन-रात बैठा रहे, शेर तो आवेगा नहीं; तेंदुआ शायद दुबारा आ जाए, क्योंकि वह बहुत ढीठ होता है।
अध्याय 23
शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती है, जिसमें उसने गायरा किया हो- क्योंकि गायरा करके वह आस पास ही कहीं छिप जाता है। तब लगानवालों को पूरी चुप्पी साधकर बैठना पड़ता है। शेर को लगानवालों के पास भेजने के लिए पेड़ पर कुछ लोग बैठ जाते हैं; यदि सेर भटककर उनकी ओर आता है तो वे कंकड़ बजा देते हैं और शेर मुड़कर लगानवालों की ओर चला जाता है।
कुछ लोगों का अनुभव है कि शेर आदमियों के बीच से ढोर को पकड़ ले ताजा है; परंतु ऐसे लोगों का यह भी कहना है कि आदमियों के हल्ला-गुल्ला करने पर शेर डरकर, छोड़कर भाग जाता है।
अनेक शिकार यह कहते हैं कि घायल होने पर ही शेर शेर बनता है; वैसे तो वह डरपोक जानवर है। सदा अपनी रक्षा की चिंता में रहता है।
एक अँगरेज शिकारी ने घायल शेर के रोमांचकारी पराक्रम का वर्णन किया।
अँगरेज और उसकी पत्नी दोनों शिकार खेलने गए। वे निकट मचानों पर पृथक-पृथक बैठे। हँकाई हुई। शेर पहले पुरुषवाले की मचान के पास आया। वह अपनी पत्नी को शिकार खिलाना चाहता था, इसलिए उसने बंदूक नहीं चलाई। शेर उसकी पत्नी की मचान के पास पहुँचा। उसने बंदूक चलाई। शेर घायल हो गया। घायल शेर ने उस स्त्री को देख लिया। शेर मचान पर पहुँचने के लिए पेड़ पर चढ़ा। स्त्री ने बंदूक की गोलियाँ खर्च कर डाली, परंतु शेर न मुड़ा।
उसका पति यह सब देखकर बहुत घबराया। शेर स्त्री के निकट पहुँचता चला जा रहा था। अँगरेज पत्नी को चोट पहुँचने के भय से बंदूक नहीं चला रहा था। वह अपने मचान से उतरा। शेर झपट मारकर स्त्री पर टूटना ही चाहता था कि उसने अपनी पत्नी को बरकाते हुए गोली चलाई। स्त्री डर के मारे मचान से नीचे जा गिरी और घायल शेर गोली खाकर जमीन पर लुढ़का। स्त्री बच गई। शेर मर गया। शेर संबंधी और अनेक मनोरंजक घटनाएँ हैं।
शेर का मेरा अनुभव यद्यपि अन्य शिकारियों की अपेक्षा अधिक विस्तृत नहीं है, तथापि समकक्ष अवश्य होगा।
अप्रैल सन् 1946 की बात है। मैं ओरछा राज्य (श्यामसी) वाले फॉर्म पर था। इस फॉर्म के निकट ही राज्य का रक्षित वन है। जानवर तो उसमें कम हैं, परंतु जंगल पर्वतमय होने के कारण सुंदर है।
मेरे पास शिकार खेलने का लाइसेंस था। एक दिन पहले तक काफी परिश्रम कर चुकने के कारण सोचा कि जंगल की सैर कर आऊँ। बैलगाड़ी पर गया।
मेरा फॉर्म प्रबंधक बिंदेश्वरी गाड़ी हाँक रहा था। गाड़ी में मेरे पास एक बुड्ढा और बैठा था। फॉर्म से गाड़ी लगभग साढ़े छह बजे सुबह चली। चार-पाँच फर्लांग चलने के उपरांत सूरज ऊपर चढ़ आया।
फॉर्म और रक्षित वन के बीच सिंगा नाला है। नाले की चढ़ाई साधारण है। चढ़ाई पार करते ही सघन वन मिलता है। उसी स्थान पर छोटा सा नाला ऊपर आकर उस नाले में दाईं ओर मिला है। नाले पर हिंस, मकोय, करधई, नेगड़ और पलाश के छुटपुट पेड़ हैं।
मैं आगे की ओर मुँह किए था, एक बुड्ढा बगल में। बैल मट्ठर थे और धीमे-धीमे चल रहे थे।
बुड्ढे ने मेरी बगल में धीरे से कुहनी से स्पर्श किया और कहा, 'नाले के ऊपर और पत्तों के बीच चीतल पड़ा है।'
मैंने तुरंत उस ओर देखा। गाड़ी खड़ी करवा दी। पत्तों के पीछे शेर खड़ा था। खरी छौहोंवाला दीर्घकाल पूरा शेर। बुड्ढे ने पहले कभी शेर न देखा था, इसलिए उसे चीतल का भ्रम हआ।
मैंने बिंदेश्वरी और बुड्ढे से कहा, 'नाहर है।' वे दोनों उत्सुकता के साथ उसे देखने लगे। बंदूक मेरी तैयार थी, परंतु लाइसेंस में शेर के शिकार की अनुमति न होने के कारण बंदूक चलाने का लालच तक मन में न आया। परंतु मुझको एक कल्पना सूझी।
लोग कहते हैं कि मनुष्य की आवाज पर सेर भाग जाता है, परंतु वह अडिग रहा, और मैंने जोर के साथ बातचीत की थी, तो भी वह नहीं हटा था। मैंने शेर की हुंकार-गर्जन का अभिनय अपने कंठ से किया। मैं कम से कम पच्चीस बार गरजा।
फिर भी शेर वहाँ से न हिला।
मैंने सोचा, इतना खेल काफी है। गाड़ी आगे बढ़वाई। मुश्किल से चालीस-पचास कदम बढ़ी होगी कि शेर दाईं ओर से चलता हुआ बिलकुल आड़ा आ खड़ा हुआ। हम लोगों के और उसके बीच कोई आड़ नहीं थी; न एक पत्ता और न एक सींक। इस बार गोली चलाने का लोभ मन में हुआ; परंतु लाइसेंस की बाधा के कारण रुक गया।
शेर पूर्व की दिशा की ओर था। उसके ऊपर से सूर्य की किरणें रिपट रही थीं। गाड़ी से वह पचास-साठ डग के अंतर पर होगा। मुझको फिर शरारत सूझी। और मैंने फिर उसके गर्जन की नकल की। अव की बार शेर ने अपना जबड़ा जरा नीचे को लटकाया और अगला पंजा लगभग एक इंच जमीन से उठाकर फिर रखा- मानो सोच रहा हो कि इस अभद्रता का क्या उत्तर दूँ। मुझको भी संदेह हुआ। दाल में काला समझकर मैंने गाड़ी हँकवाई।
मार्ग में एक मोड़ था, लगभग पचास गज का। इस मोड़ से शेर नहीं दिखलाई पड़ रहा था; परंतु जैसे ही मोड़ साफ हुआ, देखा कि शेर गाड़ी के पीछे-पीछे आ रहा है।
मैं समझ गया कि शेर चिढ़ गया है और उसकी नियत में फर्क है, शायद आक्रमण करेगा।
मैंने बिंदेश्वरी से कहा, 'गाड़ी तेज चलाओ।'
उसने बहुत प्रयत्न किया, यहाँ तक कि बैल को ठोकर मारते-मारते एक पैर का जूता खिसककर गिर गया; परंतु बैल मट्ठे थे, इसलिए न बढ़े। बैलों ने शेर को नहीं देखा था, और पश्चिम का पवन होने के कारण उन्होंने सेर की गंध भी नहीं पाई थी, नहीं तो गाड़ी को फेंक-फाँककर भाग जाते।
शेर के मार्ग में जूता आया। उसने एक छोटी सी छलाँग मारकर इस अपशकुन को पार किया।
बिंदेश्वरी चुप्पा बहादुर है। उसका धीरज उसकी गाँठ में था; परंतु बुड्ढे के चेहरे पर मैंने घबराहट के लक्षण देखे। वह पीछे बैठा था। डर लगता था, कहीं वहीं का वहीं न टपक जाए। मैंने अपने दोनों साथियों को चिल्लाकर ढाढ़स दिया।
मैंने शेर पर गोली न चलाने का निश्चय कर लिया था, क्योंकि मैं ओरछा नरेश के सौजन्य का अपमान नहीं करना चाहता था।
परंतु इधर अकेले मेरे ही नहीं, मेरे दो साथियों के प्राणों पर आ बनी थी, जिसमें बिंदेश्वरी तो मेरे कुटुंब का एक अंग सा ही था।
गाड़ी अपनी गति से चली जा रही थी। शेर मानो नाप-नापकर अपने और गाड़ी के बीच के अंतर को कम करता चला आ रहा था।
मैंने पूरे जोर के साथ चिल्लाना शुरू किया, 'हट जा, भाग जा, कमबख्त! अभागे हट जा, भाग जा।'
मैं इतना चिल्लाया कि अंत में मेरा गला बैठने लगा। सुनसान जंगल में मेरी चिल्लाहट गूँज-गूँज जा रही थी। चिल्लाहट के कारण मेरे कान सनसना रहे थे; परंतु हम लोग भयभीत नहीं हुए थे।
जब जब मैं चिल्लाहट को और अधिक कठोर और भीषण बनाता, तब-तब शेर जरा सा, बहुत जरा सा सहमता जान पड़ता; परंतु वह रुका नहीं। उत्तरोत्तर अपने और गाड़ी के अंतर को कम करता चला आ रहा था।
उसके पंजों से नाखून निकल-निकल पड़ रहे थे। मूँछें खड़ी थीं। बड़ी-बड़ी आँखें जल रही थीं।
दो फर्लांग चलने के बाद अंतर केवल पच्चीस-तीस कदम का रह गया था।
चिल्लाते-चिल्लाते मेरा गला लगभग बैठ गया था। शेर को केवल दो लंबी छलाँगें मारने की कसर थी कि हम तीनों की हड्डी पसली एक हो जाती। यदि भागनेवाले तेज बैल होते, तो भी पार नहीं पा सकते थे; क्योंकि शेर भी उसी अनुपात में अपना डग बढ़ाता।
अब केवल एक विकल्प कल्पना में आ रहा था - या तो शेर गाड़ी पर कूदकर हम लोगों को चबाता है या फिर उसपर राइफल चलाकर उसकी गति को कुंठित करना चाहिए।
परंतु इस विकल्प में एक बड़ी बाधा थी - पहाड़। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर गाड़ी चल रही थी। शेर उलटा-सीधा हम लोगों की ओर बिना रुके हुए चला आ रहा था। निशाना नहीं बाँधा जा सकता था। ऐसी परिस्थिति में वह शायद घायल ही होता और फिर घायल शेर वास्तव में शेर होता है। फिर वह किसी हालत में भी हम लोगों को न छोड़ता।
तब एक और उपाय सूझा। मैंने सोचा, शेर के आगे जरा अंतर पर गोली छोड़नी चाहिए। शायद बंदूक की आवाज और गोली से उडी धूल के कारण डरकर लौट जाय। शायद गोली से उचटी हुई धूल उसकी आँखों में पड़ जाय। तब तक हम लोग, मंथर गति से ही सही, जान बचा ले जाएँगे। और यदि यह उपाय विफल हुआ तो एक अंतिम संकल्प वही था - ताककर सेर के सिर पर गोली चलाना। फिर लगे कहीं भी।
मैंने तुरंत बढ़ते हुए शेर के सामने गोली चलाई, ऐसी कि उसके फुट या दो फुट आगे पड़े। गोली चलते ही अर्राट का शब्द हुआ। उसके सामने धूल भी उड़ी। शेर की हिम्मत डिग गई।
वह लौट पड़ा और जंगल में विलीन हो गया। हम लोग अपने प्राणों की कुशल मनाते हुए घर लौट आए।
अध्याय 24
लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी।
तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर कुल्हाड़ी को। लाठी और छुरी का विवाद बहुत पुराना है। सटकर लड़ने में छुरी बहुत काम दे सकती है। परंतु अच्छी लाठी लाठी ही है। तो भी पास में एक अच्छी लंबी छुरी या अच्छी कुल्हाड़ी का रखना उपादेय।
हथियारों के विकल्प के विषय पर बहुत विषाद है। कोई कुछ कहता है और कोई कुछ। जिनके पास अटूट साधन और समय है और जिनको अपना जीवन शिकार के अंचल में भेंट करना है, वे भिन्न बोरों की दर्जनों बंदूकें रखते हैं; परंतु मेरी समझ में एक 12 बोर दुनाली और एक प्रबल राइफल अल्प साधन और स्वल्प अवकाशवाले के लिए काफी हैं। राइफल के बोरों में मुझको तो 30 बोर अच्छा जान पड़ता है। इसकी मुहारी गति (Muzzle velocity) और मुहारी शक्ति (muzzle energy) संतुलित होती है। यदि बड़े शिकार के लिए प्रबलतर बंदूक ही वांछित हो तो 500 या 450-400 बोरवाली राइफल बहुत अच्छी है। अमेरिका संयुक्त राज्य के प्रधान प्रेसीडेंट प्रथम रुजवेल्ट नामी शिकारी थे। उनको अफ्रीका के सिंहों के मारने का बहुत शौक था - उन्होंने मारे भी बहुत थे। उनकी सम्मति में 405 बोर विंचैस्टर राइफल सिंह की औषध थी (medicine gun for lions); परंतु बात अपने-अपने पसंद की है। और वास्तव में अच्छा हथियार वह है, जो अपने हाथ को लग जाए।
दूसरा प्रश्न कारतूसों का है। 12 बोर की बंदूक के लिए बिलकुल पास (लगभग पंद्रह फीट के अंतर पर) चलाने के लिए एल जी (हिरनमार छर्रा) बहुत अच्छा है; परंतु सुअर इत्यादि विकट जानवरों के लिए तो टूटी गोली (split bullet) वाला कारतूस ज्यादा अच्छा। राइफल के लिए नरम नोकवाला कारतूस (soft nosed bullet) ही काम का है। पक्की गोली (hard ball) प्रायः निराशा और दुर्घटना का प्रत्यक्ष कारण बनती है।
कुछ लोग पिस्तौल या रिवाल्वर के भरोसे शिकार खेलने की इच्छा करते हैं। ये हथियार नजदीक से आत्मरक्षा के बड़े अच्छे साधन हैं; परंतु शिकार के लिए तो बहुत कम उपयोगी हो सकते हैं।
अध्याय 25
यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती है। जिन शिकारियों को वे अपने अनुकूल समझते हैं, उनके साथ बरताव बिलकुल उलटा होता है। उनसे कहेंगे, 'ढेरों जानवर हैं, मुल्कों गाड़ियों, खीटों!'
जब शिकारी इन 'असंख्य' जानवरों की तलाश में निकलता है, तब मिलता है उसको कुछ भी नहीं। कभी-कभी ऐसा हो जाता है।
असल में जानवर कुसमय या अनुपयुक्त स्थान पर नहीं मिलते, चाहे जैसे बड़े जंगल में कोई चला जाय।
मुझको प्रतिकूल वातावरण में जाने का बहुत कम अवसर मिला है। परंतु अनुकूल ग्रामों में भी काफी निराशाएँ पल्ले पड़ी हैं। दोष गाँववालों या जानवरों का नहीं है। कई मौकों पर तो सारा दोष शिकारी या शिकारी के सहयोगियों के ही मत्थे जाना चाहिए और गया।
यही शिकारियों की गपबाजी के विषय में भी दो शब्द कहना अनुपयुक्त न होगा। जब शिकारी की गोली चूक जाती है तो बहुधा उसको मालूम हो जाता है कि निशाना खाली गया; परंतु वह प्रायः कहता यही है - जानवर को लग गई, घायल भाग गया है। जब जानवर के घायल होने चिह्न चाक ढूँढ़ा जाता है तब जंगल में उसका कुछ पता नहीं लगता। निस्संदेह कभी-कभी घायल जानवर के शरीर से बिलकुल रक्त नहीं निकलता, परंतु सभी खाली निशानों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता।
शायद शिकारी योजना बनाकर झूठ नहीं कहता। आत्मगौरव या गर्व उसके अचेतन मन में झूठ बोलने के लिए पहले से ही जगह बनाए रहता है। ऐसा निशाना खाली जाने पर, जो जानवर के बिलकुल नजदीक से चूका हो, तुरंत ही शिकारी के मन में एक धारणा उत्पन्न करता - 'निशाना लग गया होगा', 'निशाना लगने का शब्द तो हुआ था।' परंतु जब थोडी देर में उसको विश्वास हो जाता है, चूक हुई है तब भी वह सच्ची बात नहीं बतलाता।
अधिकांश शिकारियों को मैंने क्रोधी नहीं पाया। परंतु जब हँकाई में कोई जानवर न मिलता तब भरतपुरावेल मेरे मित्र बहुत खिसिया जाते थे। हँकैयों को डाँटते या किसी न किसी को फटकारते।
उन्होंने ने छुटपन में बहुत कुश्ती कसरत की थी - इतनी कि वे जिले के नामी पहलवानों में थे। परंतु बहुत दिनों से व्यायाम छोड़ देने के कारण स्थूल हो गए थे और अधिक दौड़धूप में उनको हाँफ आ जाती थी, इसलिए जब शिकार में उनको कुछ न मिलता तो मेहनत आँस जाती थी।
एक बार जब क्रोध खर्च करने के लिए उनको सामने कोई न मिला, तब मकान के सामने एक चारपाई पर लेट गए। आस पास कुत्ते थे ही, उन्होंने अपने क्रोध और गालियों के खजाने को कुत्तों पर लेटे लेटे ही बरसा डाला।
हमारी भाषा में गालियों की यों भी कोई कमी नहीं है; उन्होंने नई-नई भी अनेक बनाई, जो कुत्तों की कई पीढ़ियों को ही अपने चक्कर में घसीट नहीं लाईं। बल्कि उनके कल्पित या वास्तविक मालिकों के पुरखों और सगोत्रजों तक को अपनी कठोर कृपा से वंचित न रख सकीं।
मेरे ये मित्र निरामिषभोजी थे, परंतु शिकार के व्यसनी। ऐसे भी लोगों का संग हुआ है, जिन्होंने कभी शिकार नहीं खेला।
एक बार मेरे एक जैन मित्र मेरे साथ घूमने के लिए गए। उनका विचार शिकार खेलने का न था और न इस प्रयोजन से मैंने अपने साथ उनको लिया ही था। कुछ हिरन देखकर उन्होंने कहा, 'इनका मारना अनुचित है। ये किसी को हानि नहीं पहुँचाते।'
मुझको बहस नहीं करनी चाहिए थी; क्योंकि जो लोग प्रत्येक प्रकार की हिंसा से दूर रहना चाहते हैं, उनको शिकार वृत्ति में उपनीत करने का मेरा या किसी भी शिकारी का काम नहीं है। मुझको चुप देखकर वे स्वयं कहने लगे, 'परंतु यदि तंदुआ या शेर मिले तो अवश्य बंदूक चलाऊँ।'
मुझको भी कुछ कहना पड़ा, 'क्यों? तेंदुए या शेर ने आपका क्या ले लिया है?'
उत्तर मिला - 'ये हिंस्र पशु हैं। इनको मारने में मन को कोई बाधा प्रतीत नहीं होती।'
मुझको किसी पक्ष के समर्थन करने का आग्रह नहीं था, तो भी मेरे मुँह से निकल पड़ा - 'हाँ, ये हिरनों को खाते हैं और हिरन मनुष्यों की खेती को खाते हैं।'
एक दूसरे जैन मित्र ने तेंदुए का शिकार खेल ही डाला। मचान पर बैठने के पाव घंटे बाद तेंदुआ आया। उनको बंदूक चलाने का अभ्यास बहुत कम था। चलाई, परंतु खाली गई। तेंदुआ भाग गया।
कुछ लोगों को अपने शिकार के स्मारकों से घर भरने का बड़ा शौक होता है। यदि इनके लिए कुछ अपना भी खून बहाया गया तो उन स्मारकों में खेल की कुछ छलछलाहट मिलेगी; परंतु यदि वे शिकार के सहयोगियों के रक्त में सने हुए हैं, तो मन में ग्लानि उत्पन्न होती है।
झाँसी के पड़ोस में ही एक रियासत के राजा शिकार के बहुत व्यसनी हैं। शेर तो उन्होंने इतने मारे हैं कि अपने महल के एक बड़े कमरे में उसी की खालें फर्श और दीवारों पर हैं। मुझे आश्चर्य था कि छत को क्यों खाली से नहीं मढ़ा गया है!
इनका शिकार अधिकतर हँकाई का होता है। इनकी मचान के पास से शेर को हाँकने का प्रयत्न किया जाता है। फिर शेर का मारा जाना हाथ की सफाई और बंदूक की शक्ति पर निर्भर है। उनके एक हाँके में शेर निकला और गोली से घायल होकर जंगल में घुस गया। राजा के एक जागीरदार को घायल शेर की खोज के लिए जाना पड़ा। शेर काफी घायल हो गया था, परंतु उसमें बदला लेने के लिए अभी बल बाकी था।
घायल शेर जागीरदार पर टूट पड़ा। उसने अपनी झपट से उनका कंधा फाड़ दिया और एक आँख को खरोंच डाला। वे नीचे पड़ गए और शेर ऊपर हो गया। वह उनको तुरंत खत्म कर देता, परंतु पास ही एक शिकारी और था। उसने बिलकुल पास आकर ऐसे अंदाज के साथ गोली चलाई कि नीचे पड़े हुए जागीरदार बच जाएँ और शेर मारा जाए। ऐसा ही हुआ।
कंधे और आँख के इलाज में महीनों लग गए; परंतु वे बच गए। जिस आँख को शेर ने खरोंचा था उस आँख से उनको दिखलाई तो पड़ा, परंतु उसका स्थान बदल गया। यह घटना एक मित्र की आँख की देखी है।
इन्हीं की एक आँख देखी घटना और है, परंतु उसका अंत भंयकर हुआ।
एक बड़े शिकारी हाँके के शिकार में बिना मचान के शिकार खेलने लगे। वे शेर की दाब में आ गए। चित गिर पड़े। शेर ने दोनों पंजे उनकी कमर के ऊपरी भाग पर रखे और उनके मुँह के पास हुंकार भरी और छोड़कर चला गया। इतनी ही दबोच के कारण उनका फेफड़ा फट गया और मुँह, आँखों तथा नाक से खून आ गया। थोड़ी देर बाद उनका देहांत हो गया।
मैं भी हँकाई के शिकार में शेर के लिए कई बार धरती पर ही खड़ा रहा हूँ। परंतु शेर ऐसी स्थिति में कभी नहीं मिला। मैं मन में अवश्य यह मानता रहा हूँ कि शेर न निकले तो बहुत अच्छा, पर निकलता तो शायद बंदूक चलाता - फिर जो कुछ होता।
जानवरों की खाल या सिर को स्मरण के हेतु रक्षित रखने के लिए खाल को साफ करवाकर धरती पर फैला देना चाहिए। खाल सिकुड़ने न पावे, इसके लिए उसके सिरों पर छोटी-छोटी खूँटियों का गाड़ देना अच्छा है। फिर बारीक पिसा हुआ नमक मलकर खाल को सूखा लिया जाय। कुछ लोग फिटकरी काम में लाते हैं। परंतु गाँवों में हर जगह फिटकरी प्राप्त नहीं होती। नमक सुलभ है और अच्छा भी है।
इसके बाद खाल को किसी कारीगर के हाथ में दे देना ठीक होगा। इस प्रकार की कारीगरी करनेवाली कई कंपनियों बंबई, मद्रास इत्यादि में हैं; परंतु बड़े खर्च का नखरा राजा-रईसों के लिए है।
जिस महल के कमरे की सजावट का ऊपर वर्णन किया गया है, उसमें एक लाख रुपये से अधिक खर्च हो गया होगा। उस कमरे में घुसते ही सौंदर्य कम और बीभत्स अधिक दिखलाई पड़ता है।
समाप्त