चिड़ियाँ लटकाना : डा. सिकरा दास तिर्की

Chidiyan Latkana : Dr. Sikradas Tirkey

कुडुंबा पहाड़, जोजो पहाड़, पहाड़ी देवता की गोद में भंडरा नामक गाँव है। गाँव के पूरब में वन, पश्चिम में तजना नदी, उत्तर में उलीडीह नदी और दक्षिण में तजना नदी एवं सेनेमुटुकिसिरकेला गाँव है। महुवाटोली, फुटकलटोली, चंडीटोली, कुदाटोली और भोगता महुआटोली इस मौजा के पाँच टोले हैं। इसी बीच में देवीगुड़ी, बुरु-इकिर, माड़ाबुरु, चंडीपीड़ि, जयर, देसाउली, जीलुजयर, अखड़ा और श्मशान जैसे स्थान हैं।

आरंभ में किसी समय की बात है, इस गाँव में किसी राजा की राजधानी और उसका भंडारघर था। उस स्थान को 'भंडार कोचा' कहा जाता है। परंतु अब न ही राजधानी की पहचान है और न भंडार भवन की। इस भंडारघर से ही इस गाँव का नाम 'भंडरा' पड़ा। इस भाँति अतीत से ही यह गाँव राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से इस क्षेत्र का मूल स्थान था।

इस गाँव में, जैसे कि गरमी का मौसम, वर्षा की ऋतु और जाड़े की ऋतु आती है और चली जाती है। उसी प्रकार यहाँ पूजा-पाठ, काम-क्रिया, धर्म-कर्म, नृत्य-गीत, पर्व-त्योहार, नेगदस्तूर एवं सुख-उमंग प्रकृति के साथ-साथ वर्ष भर एक के बाद एक आते-जाते रहते हैं। इन सभी कार्यक्रमों को सँभालने के लिए गाँव में एक पहान, एक मुंडा, इन दोनों की मदद के लिए पानीभरा, कोटवार आदि पदों में व्यक्तियों की नियुक्ति हुई हैं। गाँव के इन पदों पर आसीन लोगों को उस पद के पीछे उन्हें जमीन दी गई है। राजा के पद के लिए दी गई जमीन 'मझियस' कहलाती है। इसे 'राजा खेत' भी कहा जाता है। पहान को दी गई जमीन 'डालीकतारी', मुंडा की 'मुंडाई', पानीभरा की 'पानीभरी' और कोटवार की 'कोटवरी' जमीन के नाम से है। इनके स्थान में अन्य दो-तीन सदस्य होते हैं, पर इनके नाम से कोई जमीन की हिस्सेदारी नहीं है।

इसी भाँति इस गाँव के लोग ऊपर बताए गए सूत्र में अपनी चाहनुसार भली-भाँति जीवन जीते हैं, हँसते-बोलते हैं, नृत्य-गान करते हैं, मिल-जुलकर बैठते हैं और अपने क्रियाकलाप करते हैं। सेवा कर्म ही उनकी महानता है, जात-पात से संपूर्ण गाँव के लोगों में एक नातेदारी का बंधन है।

एक समय की बात है। जाड़े की ऋतु में एक सप्ताह तक माघदुंदुर कर दिया। प्रतिवर्ष की भाँति ही छोटे लड़के बैठी, छुरी आदि लेकर लासा बनाने के लिए बाँस का लासा ढुंगी और लासा खड़िका झटपट फाड़ने और बनाने में लगे हुए हैं। चिड़ियाँ लटकाने के लिए लासालुंगी और लासा खड़िका बनाने के बाद लासा खड़िका को पत्थर में वे रगड़कर चिकना करने लगे हैं। उन सबको बनाने के चक्कर में कोई स्कूल नहीं गया, तो कोई गाय चराने नहीं गया। दिनभर लासा बनाने के लिए फुटकल लासा, डौ लासा और डुमर लासा टाँगी से ठोंक-ठोंककर जमा करने में लगे हुए हैं। जिधर भी सुनो तो ठा-ठू, मानो वन में बहुत से लोगों के द्वारा वृक्ष काटा जा रहा हो, जैसी आवाज गूंज रही है।

शाम को सभी लड़के एक जगह झटपट अपना-अपना पत्थरों का चूल्हा बनाने लगे हैं। कोई तो चूल्हा बनाकर जलाने के लिए झुरियाँ जमा करने में लगा है। किसी का तो पूरा शरीर लासे से लथ-पथ हो गया। टूटे घड़े के टुकड़े में और घर का तेल बोतलों को लगाकर अपनेअपने चूल्हे में आग जलाकर तेल के साथ फुटकल, डुमर और डौ लासा को गरमकर लासा बनाने में लगे हुए हैं। रात भी हो गई। उनके घरवाले चिल्लाने लगे हैं, "आ जा बाबू, जल्दी भात खाने! नहीं तो हम सब सो रहे हैं।" कोई तो कई बार चिल्लाते हुए बोल रहा है, "इतनी ठंड में खाना-पीना तक भूलकर कल-परसों से लासा बनाने में ही लटका हुआ है। ई आदमी को तो ठंड से जान निकल जाने जैसा लग रहा है।" परंतु लड़के लासा बनाने का रस में मते हुए हैं। रात हो गई, भूस्सी और जुवांट (तारे) दोपहर हो गए हैं। लासा भी बनकर पूरा हो गया। सब कोई भोजन करने एवं सोने के लिए अपने-अपने घर चले गए।

सवेरे फिर वे सब उठकर आग तापते हुए भुस्सी में गरम करने लगे हैं। मेरा लासा कैसा तैयार हुआ है, इसकी जाँच करते हुए उस दिन ठीक दिनभर धूप कर दिया। लड़के गाय-भैंस चराते हुए टांड़ में बातें कर रहे हैं, "आज तो हम लोग गायों को जल्द ही घर ले जाएँगे, उफियाँ निकलेंगे?" "हाँ मित्रो," वे आपस में बातें करने लगे हैं। सभी सोचने लगे कि कब शाम होगी? कोई कहता है, “आज तो जल्दी शाम भी नहीं हो रही है?" "हाँ, यदि सूर्य तक हाथ पहुँचता तो हम उसे ढकेलकर डुबो देते?" कहते हुए उनके मन में अकबकी हो रही है, चिड़ियाँ लटकाने के लिए, उफियाँ पकड़ने के लिए, पर अब तो शाम हो गई। बच्चे के या किसी के कहने से क्या जल्दी शाम होगी?

सूर्यास्त के पूर्व ही लड़के गायों को घर की ओर खेदने लगे। ठीक सूर्यास्त के होते ही वे गाय-बैलों को घर के अंदर कर दिए। फिर वे अपना-अपना लोटा-बरतन पकड़कर सभी तैयार हो गए। वे सब इधर-उधर देखने लगे कि कहाँ उफियाँ निकल रही हैं, पर उफियाँ निकल रही हैं कम मात्रा में और ऊपर में दिखाई पड़ रही हैं, जमीन में नहीं। लड़के इधर-उधर दौड़ने लगे हैं, उफियाँ पकड़ने के लिए "आओ, मित्रों इधर" किसी ने कहा तो किसी ने चिल्लाया, "वो देखो, वहाँ निकल रही हैं।"

बच्चे इधर-उधर दौड़ने लगे, उफियाँ पकड़ने के लिए, तो आसमान में चिड़ियाँ मँडरा रही हैं, उन्हें दबोच खाने के लिए। अब तो जोरों से उफियाँ निकलने लगीं। तब लोटा में गीली मिट्टी डालकर जिंदा उफियों को, लोटे में चिड़ियाँ लटकाने के लिए रख रहे हैं और उसे पुवाल या कपड़ा की ठीपी से बंद कर दिए हैं। कुछ को पूँज खाने के लिए थाली के पानी में डाल-डुबा रहे हैं। बाद में पानी में डुबोए उफियों को चावल के साथ उन्होंने भूँजा और खाया।

फिर रात में भात खाकर सब कोई एक साथ भुस्सी ताप रहे हैं। तापते-तापते फिर चिड़ियाँ लटकाने का कार्यक्रम वे बनाने लगे हैं, “मित्रो, कल सबेरे होने के पहले, उठते ही हम लोग चलेंगे। एक-दूसरे की इंतजारी हम नहीं करेंगे, वन राह में ही हम मिलेंगे। अब तो चलो, हम सब सो जाएँ। रात हो गई जुवंट दोपहर हो गए, नहीं तो हम सुबह जल्दी उठ नहीं सकेंगे!"

"हाँ मित्रो, सुबह हम जल्दी उठेंगे चलो।" आपस में बातें करते वे सब अपने-अपने कुंबा-घर की ओर सोने के लिए चल दिए। सब होशियारी से सो गए। किसी को जल्दी नींद नहीं आ रही है तो कोई जबरदस्ती आँखें मूंदे हुए है। जल्दी से सो जाऊँऔर सुबह को जल्दी से उठ सकूँ, कहते हुए।

सुबह जब अंतिम मुरगा बोलने का समय हुआ, माघ मास की ठंड के बावजूद चिड़ियाँ लटकाने के जोश में सभी अपने-अपने घर की भूस्सी में लासा को गरम करके तथा उफियाँ लोटा, लासालुंगी और उफियाँ गाड़ने के लिए कटाई काँटा पकड़कर वे एक-एक कर निकल गए। आगे-पीछे देखते हुए, चलते-चलते मसना से आगे ठीक जाजो पहाड़ के ऊपर रास्ते में वे सभी जमा होकर मिले और सबने सलाह किया, "चलो, झुंड के नीचे की ओर भागने लगेंगी और उफियों को देखकर उन्हें खाने की इच्छा होगी कि चिड़ियाँ लटकेंगी।" ।

इसी भाँति अब राय करके उन्होंने जोजो पहाड़, कुडुंबा पहाड़ी की तलहटी के झुंड के नीचे सबने अपना लासा इधर-उधर लगा दिया। उफियाँ लोटा और लासालुंगी आदि को सभी ने एक जगह रख दिया। चिड़ियों को भगाने के लिए बैठ गए। बुधवा, सोहराई, सोमा, बँधना और माँगा आदि ऊपर की ओर दौड़ते हुए पहले चढ़ गए तथा जोरों से पत्थर फेंकने लगे। पत्थरों की तो यहाँ कमी नहीं। उसी समय घुसा के सामने ही झुंड से बाघ कूद निकला। वह डरकर मारे कलेजा सँभालकर भागने लगा। बोलमोन ने भी बाघ को देखा या नहीं, वह भी भागने लगा। दोनों हाँफते-हाँफते चढ़ाई दौड़कर ऊपर पहुँचे और चिल्लाए, "भागो मित्रो, बाऽ ऽ बाऽ ऽ ऽ बाघ, मेरे ओर से ही निकल भागा।" दोनों बताने लगे और भागते ही जा रहे हैं घर की ओर। अन्य लड़के भी डर से सब लोटा, लासा आदि छोड़कर भाग गए। एक ही दौड़ में सब गाँव पहुंचे और बताने लगे, "हम...हम...हमारे वन में बाघ आया है। मेरी ओर ही छलाँग लगाकर निकल भागा। मैं जल्दी से मैदान से उठकर भाग गया और डर के मारे लोटा सब हम सभी ने उधर ही छोड़ दिया है।" घुसा ने भुस्सी तापते गाँव के लोगों को बताया। इसी प्रकार सभी लड़कों ने भी बताया। यह बात सुनकर गाँववालों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। बिजली की तरह पूरे गाँव में यह बात पसर गई कि "हमारे वन में चिड़ियाँ लटकानेवाले लड़कों ने बाघ पाया, वे सब डर के मारे भाग गए।" और फिर भुस्सी तापते बाघ के शिकार की बातें चल निकली—"हम चलें, बाघ का शिकार करने!"

"कोई जाए, कोटवार को बुला लावे," घुसा के पिता ने कहा। इसके पश्चात् गाँव के कोटवार को बुलाकर सभी टोलों में इस बात को बताने को कहा गया। उसने सब टोलों में बाघ के शिकार की बात बता दी। सभी टोलों के लोग जमा हुए, अपने-अपने हथियार लेकर। आगेपीछे वे वन की ओर चल पड़े। कुछ लोगों ने जोजो पहाड़ के पास से ही खोजना शुरू किया, परंतु वन के पास सभी टोले के लोग इकट्ठे हुए दोबारा फिर चले, "अब तो हम वन में उसे खोजें" कहते-कहते वे वन में प्रवेश कर गए। खोजते-खोजते धवई फूल गड्ढा खत्म होने लगा, लेकिन बाघ नहीं मिला। कुदाटोली का भोमभा मुंडा बोलने लगा, "कहाँ का बाघ? भेलवा खानेवाले लड़के ठगे रहे होंगे;""पता नहीं, बच्चों की बात कुत्ता का भुंक! बाघ था या सियार? कोई जानवर दिखाई पड़ा होगा और वे डरके मारे भाग गए होंगे।"

वे इस तरह आपस में बातें करते, खोजते जा रहे थे कि अचानक ही बाघ भोमभा मुंडा पर झपटा। दोनों दो बार घुड़मुड़िया गए। इसके बाद बगल के दोनों व्यक्तियों को भी झपट मार बाघ आगे उछलकर भाग गया। पूरे वन में हल्ला हो गया "भागो...भागो...सब लोगों पर बाघ झपट रहा है।" कुछ लोग वन के किनारे ही थे। वे भी सुनकर पेड़ों पर दौड़कर चढ़ने लगे। बच्चों को खींचकर चढ़ाने लगे। कुछ देर बाद सभी लोग वन से बाहर निकले। पेड़ों पर चढ़े लोग भी उतरे तथा बच्चों को घर की ओर भेज दिया गया। सभी ने उन दोनों को देखा जिन्हें बाघ ने झपटा मारा था। परंतु वे अधिक जख्मी नहीं हुए थे। फिर से बाघ का शिकार करने की हिम्मत किसी को नहीं हुई। सब वापस गांव आ गए।

अब तो गांव में जो लोग नहीं जा सके थे, वे भी जमा हो गए और पहुंचते ही पूछने लगे- “कहिए भाइयों, आपलोगों ने बाघ पाया था या नहीं?" “हाँ, हमलोगों ने बाघ पाया था, कितने लोगों ने तो बाघ के साथ लड़ा भी। परंतु हम उसे मार नहीं सके।” शिकार में गए लोगों ने कहा ।

धीरे-धीरे और भी आदमी जमा होते गए। इस प्रकार उन्होंने फिर से सभा-विचार किया। इसमें कई प्रकार के विचार आने लगे। कोई कहने लगा"हम अबकी बार अधिक से अधिक संख्या में जाएंगे और फिर से बाघ का शिकार करेंगे!" किसी ने कहा- “नहीं भाईयों! नहीं, हम तो नहीं जायेंगे। यदि बाघ का शिकार ही करना है तो हम आसपास के गांव के आदमियों को बुला, इक्ट्ठा कर जाएंगे।" किसी ने कहा इसी भांति बातें तो अनेक हुई। तब लेंगा मास्टर ने कहा, "नहीं बंधुओं, आप लोग मेरी भी एक राय सुन लीजिए। बात ऐसी है कि हम एक दरखास्त लिखें और उसमें सभी कोई ठेपा-सही कर थाना के लोगों को दें। भोगता महुवाटोली का हमारा चौकीदार चमरा प्रधान के साथ चार-पाँच आदमी खूटी थाना में जाएँ थानावाले बंदूक ले आएँ तथा उनके साथ हम लोग शिकार करेंगे।"

"ठीक है, ठीक है" कहते हुए इस बात को सभी ने मान लिया। लेगा मास्टर ने तुरंत आवेदन लिख दिया और सब लोगों ने जल्दी से ठेपा-सही कर दिया। उसके बाद चुने गए लोग चौकीदार के साथ थाना चले गए। बूढ़ा चौकीदार थाना में दरखास्त देते हुए मौखिक भी बताने लगा, "हमारे वन में बाघ आया है। कुछ लोगों को काटा है, इसलिए हम लोग सारे आस-पास के आदमी जमा होकर बाघ का शिकार करने जा रहे हैं। यदि आप लोग शिकार में बंदूक के साथ मदद कर देते तो बड़ा अच्छा होता!"

थानेदार चौकीदार की बात को रखेगा ही। जल्द ही दो सिपाही बंदूक के साथ जाने को तैयार हो गए। उस समय खूटी थाना में अधिक काम नहीं रहता था, क्योंकि खुंटी क्षेत्र में उस समय जनसंख्या कम थी। चोरी-डकैती, लूट-पाट, हत्याएँ आदि कम ही हुआ करती थीं। आदमी को भय था तो वन के जानवरों, भूत, साँपों का ही। परंतु ये भी यों ही आदमी पर आक्रमण नहीं करते और न ही जानवरों का भोजन मनुष्य है।

दौड़ते चलते बस एक घंटे में भेजे गए आदमी लौट आए। दो सिपाही साइकिल से आए। इधर गाँव के सभी लोग बाघ के शिकार में जाने के लिए खा-पीकर तैयार थे। इस बार सभी लोगों में नया साहस आ गया, सिपाहियों और उनकी बंदूकों को देखकर। वन गाँव से दूर नहीं है। हँसते-बोलते वन पहुँचने में देर नहीं लगती। सभी लोग जोजो पहाड़, कुडुंबा पहाड़ी रास्ते से उतर गए।

अब की बार ताकत का अनुभव हो रहा है। कारण कि बंदूक गोली है न! कुछ अभी भी डरे हुए हैं। 'बाघ' कहने से कौन नहीं डरता? खाए न खाए, जान तो ले लेगा!

खोजते-खोजते फिर धवई फूल गड्ढा पार हो गया। बाघ नहीं मिला। पर, बाघ दूर नहीं गया हुआ था। ठीक पूरब की ओर सब कोई खोजते जा रहे हैं। बाघ भी पश्चिम की ओर शिकारियों की ओर ही मुँह कर चुप बैठा हुआ है। खोज रहे लोगों ने उसे देख लिया। बाघ बेफिक्र बैठा है। सबको सचेत कर दिया गया। बंदूकधारी सिपाही उस ओर ही हैं। तुरंत ही उन्हें इशारा कर दिया गया। सिपाही ने वृक्ष की आड़ से बाघ को गोली मारी।

पर गोली बाघ को नहीं लगी। फिर बाघ आदमियों की ओर कूद पड़ा। सभी इधर-उधर भागने लगे। कोई पेड़ पर चढ़ रहा है, कोई भागकर जान बचा रहा है। कंदना (घर में लोग उसे कांदू कहते हैं) पेड़ पर चढ़ रहा था कि बाघ ने उसे पीछे से झपटकर मार गिराया और आगे बढ़ गया। पास के कुछ आदमी झटपट कंदना को बचाने में लग गए। बाघ को थोड़ी सी भी चोट नहीं आई। बाद में सिपाहियों का भी साहस घट गया। एक तो शाम भी होनेवाली थी। कुछ लोगों में डर भी समा गया और वे वन से खिसकने लगे। कुछ लोग कंदना को मिल-जुलकर ढोकर गाँव ले आए। गाँव में यह बात फैल गई—"कांदू को बाघ काटा।"

बाद में दोनों सिपाही ने कंदना को अस्पताल ले जाने की सलाह दी—“आप लोग चलिए हमारे साथ। इसे कुछ आदमी खूटी सदर अस्पताल ढोकर ले जाइए। ज्यादा जख्म नहीं पहुंचा है। दवा मिलने पर जल्द ही ठीक हो जाएगा।" कुछ लोग उसे अस्पताल ले गए। साथ में दोनों सिपाही भी गए। अस्पताल में उन दोनों ने ही घटना की जानकारी दी, जिस कारण दवा मिलने में कठिनाई नहीं हुई। अस्पताल में डॉक्टर ने देखा, कंदना अधिक जख्मी नहीं हुआ है, बाघ का पंजा मात्र लगा है। यह बात लोगों को डॉक्टर ने दवा देते हुए बताई।

अब तो रात भी हो गई, इसलिए वहीं ठहरने की बात हुई। रात खूटी अस्पताल में ही बीत गई। दूसरे दिन खाने व लगाने की दवाएँ मिलीं और उन्हें छुट्टी मिल गई। कंदना, जोड़ापुल के पास वर्तमान 'बिरसा मृग बिहार' के बगल के कालामाटी गाँव का टोला तिरिलडीह का आदमी था। वह अपने मामा गाँव में सुकरा के घर में रहता था। कंदना अविवाहित ही था उसके भीतर खूटी मंडा में प्रतिवर्ष शिव भोक्ता घुसा करता था। बूढ़ा होने पर जब उससे काम नहीं होने लगा, तब तिरिलडीह के उसके भाइयों ने कहा, "अब तो मामा, कंदना हमारा भाई वहीं अपनी जीवनलीला समाप्त करें। हम लोग इसे गाँव ले जाएँगे।"

"भगिना, जीवन भर इसने मेरा काम कर दिया। अब आप लोग ले जाइएगा? भला, मुझे कौन अच्छा कहेगा? जीवन के अंतिम क्षण तक यहीं रह जाए तो कैसा होगा?" सुकरा बूढ़ा ने कहा।

"कुछ तो नहीं होगा मामा! आपका कहना भी ठीक है, परंतु जीवन-लीला के अंत में आप इसे अलग में ही स्थान देंगे। इस प्रकार ये अपने माता-पिता की जमीन-जगह से सदा के लिए वंचित हो जाएगा। अब तो इनका बुढ़ापा आ गया। मर जाने के बाद अपने माता-पिता की जमीनजगह ग्रहण कर सके और वह अन्नपुर (सुखवाली जगह) में जाए। यही हमारी अंतिम इच्छा है।" तिरिलडीह के, कंदना के भाई, कंदना को मृत्यु के पूर्व तिरिलडीह ले आए। वह पर्वत्योहारों में जब तक हो सका, आना-जाना किया और उसने सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया।

दूसरे दिन वे अस्पताल से लौटे। फिर गाँव में अगल-बगल के लोग उसे देखने के लिए जमा हुए। सभी ने देखा, घाव एक पिंडली में और एक कंधा में है। पर जान को खतरा नहीं है। इसके पश्चात् यहाँ जमा हुए लोगों में घुसा के पिता सोहराई बूढ़ा ने कहा, "हे भाइयो, बाघ तो बाघ था कि कोई देवता? गाँव खराब हो जाने से इस प्रकार के जानवर अपना रूप दिखाते हैं, परंतु वैसा तो जान नहीं पड़ता है। गाँव में किसी तरह की गड़बड़ी होने से और भी अधिक उत्पात करता, परंतु यह घटना वैसा नहीं है। सोया हुआ बाघ या साँप को यदि हम थूड़ेंगे। तब तो वह काटेगा ही!"

उन्होंने फिर आगे कहा, "सरहुल त्योहार, पूजा-पाठ में हम क्यों गोटा उड़द चढ़ाते हैं? इसलिए कि उड़द को चूरकर देने से पहाड़ी देवता रूठ जाते हैं। जिस प्रकार उड़द को जाँती में फोड़ते आवाज निकलती है, उसी प्रकार पहाड़ी देवता बाघ के रूप में गाँव में आवाज करता है। ऐसा पुरखों ने कहा है, इसलिए सरहुल पर्व-उपवास के दिन हम लोग गोटा उड़द करते हैं। परंतु कल की इस घटना से तो किसी देवता के रूठ जाने का जान नहीं पड़ता है। वैसे तो वन में कई प्रकार के जानवर हैं, नहीं हैं, सो बात भी नहीं है। पहले समय से देखा गया है कि बाघ रात में गाय को गोहार से ढो निकालकर कुडुंबा बुरु के झूडों में ले जाता रहा है। जिस बाघ का शिकार किया गया था या चिड़ियाँ लटकानेवाले बच्चों ने पाया था, वह अपने से किसी का नुकसान नहीं पहुँचाया है और किसी की हानि वह न करे, इसके लिए रतन पाहन बूढ़ा को बताया जाए। वह अपने घर-आँगन में ही पूजा-अर्पण कर देवे।"

"परंतु, हमारा पाहन इस बात को माने तब तो?" भोजा बूढ़ा ने कहा। आगे फिर से सोहराई बूढ़ा ने कहा, "यह तो मानी हुई बात ही है। क्या पूजा-पाठ फिजूल की बात है? वर्षा ऋतु में खेती-बारी मौसम में रोपा करने का धान बीड़ा गाँव में किसी व्यक्ति का तैयार हो गया है और किसी कारणवश पाहन यदि बताऊला पर्व नहीं किया हो, तब धान और मडुआ रोपनी का काम वर्जित है। ऐसी अवस्था में यदि वह किसान पाहन को एक लाल मुरगा एवं तपन के लिए चावल आदि उसे अवगत कराते हुए सौंप दिया जाता है, तब कोदेलेटा पूजा नहीं मनाए जाने के बाद भी वह रोपा कर सकता है।"

"हाँ, हम सब ऐसा देखते आए हैं।" सभी ने कहा। "ठीक ही होगा, इस बात को कोटवार पाहन को बता दें! कल सुबह इस बात को हम सभी मिलकर उसे बता देंगे।" फिर से सभी ने कहा। "हाँ, यही अच्छा होगा।" सबने एक स्वर में कहा। इस प्रकार बाद में रायमशविरा करके सभी चले गए।

वर्षा हुई है, नवा गोड़ा जोत-कोड़ करने का अच्छा मौका दिया है। ठीक दूसरे दिन लोहरा के यहाँ कुछ लोग फार पजवाने जमा हुए। पाहन बूढ़ा भी फार पजवाने के लिए पहुँचा। अब उस बात को बताने के लिए वे कोटवार को कह रहे हैं। हँसते-बोलते फिर कोटवार कहता है, "चलिए भाई, आप लोग ही कहिए!"

"नहीं, आप ही कहिए!"

बातचीत के क्रम में पाहन बूढ़ा ने पूछा, "क्या बात?"

कोटवार फार पजवाते हुए बोला, "नहीं बाबा, बात तो यह है कि चिड़ियाँ लटकानेवाले लड़कों ने बाघ पाया था और हमने उसका शिकार किया था। वह बाघ था या हमारे कोई देवता का रूप था? किसी वजह से कोई देवता के रूठ जाने से उसका दर्शन हुआ, कि किस कारण से। परंतु फिर से देखार न हो, इसके लिए आप से पूजा कर देने की बात तय की गई है।"

"इस बात में खराब क्या है? मेरे पास इस बात को पहुँचा देना ही पूजा है। खलियानी पूजा में, माघ पर्व में पहाड़ी देवता के साथ सभी देवताओं की सामूहिक पूजा की जाती है।" पाहन बूढ़ा ने कहा।

"हाँ, इसी बात को कहने के लिए ही हम एक-दूसरे पर ढेंस दे रहे थे। सप्ताह में तो ये पर्व मनाया ही जाएगा।" कोटवार ने फार पजवाते-पजवाते कहा।

फार, साबल आदि को पजवाकर सब अलग-अलग चले गए, अपने-अपने खेतों में जोतकोड़ करने के लिए। कोई गोड़ा धान बोने के लिए नवा जोतकर तैयार कर रहा है, कोई गोड़ागोंदली बोने के लिए जोत तैयार कर रहा है। यह विचार करके कि ठीक से टांड़ का जोत-कोड़ कर लें।

एक सप्ताह में पाहन खलियानी पूजा कर रहा है। युवक-युवतियों के मन में उमंग है कि आज हम नृत्य-गान करेंगे। खलियानी पूजा के दूसरे दिन से ही सब लोग अपना-अपना पुवाल खलियान से उठाकर समेटने में लग गए हैं। पुवाल को समेटकर साल भर का पुराना काम पूर्ण हो गया। पुवाल उरियाने का हड़िया-भात भी खत्म हो गया।

इसके बाद सब कोई माघ पर्व मनाने की तैयारी करने लगे हैं। घानी में सुरगुजा तेल पेरने लगे। चावल आटा के लिए अरवा चावल बनाने लगे। गाँव में मिलकर खस्सी खरीदने के लिए चंदा होने लगा है। युवक-युवतियाँ माघ मेले की तैयारी में हैं। ठीक माघ मास की पूर्णिमा में माघ पर्व धूमधाम से मनाया गया।

माघ पर्व के जाते ही फागुन मास आ गया। जाड़े का अंत हो गया कि गरमी की ऋतु आ गई। सुबह-सुबह हल जोतना, कोड़ना और फिर दोपहर को वन में शिकार करना शुरू हुआ। वन में चिड़ियाँ, खरगोश आदि की खोज, शिकार होने लगा। परंतु बाद में चिड़ियाँ लटकानेवाले लड़कों ने जिस बाघ को पाया था, फिर कहीं नहीं निकला, न ही कोई बाघ मिला। पता नहीं इस वन में ही वह रह गया कि इस वन में ही आगे कहीं चला गया या कोई पहाड़ी-वन देवता का रूप था। परंतु उसके बाद तो वन-पहाड़ों में सामान्य रूप से किसी का डर-भय नहीं रह गया इस गाँव के लोगों में।

साभार : वंदना टेटे

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