Chhote-Chhote Sawal (Novel) : Dushyant Kumar
छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार
कोठरी (अध्याय-4)
कोठरी में पहुँचकर सत्यव्रत ने इत्मीनान की साँस ली। अपना ठौर, चाहे वह गीली मिट्टी का ही क्यों न हो, कितना प्यारा और विश्रान्तिदायक होता है। दिनभर इंटरव्यू के लिए आए उम्मीदवारों की उबा देनेवाली बातें, भूखे पेट में कुलबुलाती हुई विवशता, गूँगे का अशोभन रूप से आवेश में आ जाना और मास्टर जयप्रकाश से भेंट - सबकुछ बारी-बारी से उसके सामने आता चला जाता है। उसके विचारों में कहीं तनाव नहीं, मन में कहीं थकावट नहीं! केवल एक ऐसा सन्तोष है जो किसी सपने के पूर्ण होने पर ही हो सकता है।
आर्यसमाज मन्दिर की कोठरी में इच्छित काल तक रहने की सुविधा उसे मिल गई है। इसी कारण वह चौबीस घंटों में उससे इतना अपनत्व स्थापित कर बैठा है कि कहीं अजनबीपन का बोध ही नहीं होता। यद्यपि कभी-कभी यह मन ज़रूर होता है कि वह उड़कर घर पहुँच जाए और माँ से कहे, “माँ, देख, मुझे नौकरी मिल गई। वही नौकरी जिसे जीवन का ध्येय बनाकर मैं चला था। कौन कहता है माँ, कि मनुष्य के सारे सपने पूर्ण नहीं होते ? मेरा तो एक ही स्वप्न था, देख न, वह भी पूरा हो गया !” और माँ की प्रसन्नता की कल्पना करके सत्यव्रत भी प्रसन्न हो उठता है। हाँ, बहन की क्या प्रतिक्रिया होगी इसका ठीक अनुमान लगाने में उसे कुछ समय लगता है। खुशी तो खैर उसे भी होगी ही, पर वह उसे प्रकट करने के लिए कोई बच्चों-जैसी बात कहेगी, जैसी उस दिन विदा करते हुए उसने कही थी, ‘भैया, अगर तुम्हें वह नौकरी मिल गई तो मैं ज़रूर एक अच्छा-सा ब्लाउज़ सिलवाऊँगी, मेरी कोई भी सहेली अब कमीज़ नहीं पहनती, हाँ !' और वह प्रत्येक वाक्य के साथ थोड़ी-थोड़ी नाराज़ होती गई थी। पर अन्तिम 'हाँ' कहते हुए तो उसका मुँह कचौरी - जैसा फूल गया था। और जब सत्यव्रत ने भी वैसा ही मुँह फुलाकर उसे चिढ़ाया तो वह खिलखिलाकर हँस पड़ी थी।
कल कॉलेज खुल रहा है। कल मंगलवार है। पाँच दिन बाद वह घर पहुँचकर खुद ही सबको यह खुशख़बरी दे देगा। पर माँ ने कहा था, 'ख़त लिखना ।' लेकिन ख़त ही कौन इस हफ़्ते से पहले पहुँच सकता है ? सिर्फ़ मंगलवार को ही गाँव में डाकिया जाता है और रविवार को वह खुद ही पहुँच जाएगा। माँ ने तो यह भी कहा था, 'अपने खाने का खयाल रखना।' लेकिन चाहने पर भी यहाँ खाने का क्या ख़्याल रखा जा सकता है ? कोई भी ऐसा भोजनालय नहीं, जहाँ शुद्ध भोजन मिल सके ! और तो और, एक हलवाई तक यहाँ नहीं है । मन्दिर के चारों तरफ़ मुसलमानों का मुहल्ला है। फाटक से बाहर निकलो तो बस सड़क तक पूरी गली में गोश्त -ही-गोश्त की दुकानें हैं। बस, दुकानों पर नाम मात्र को टूटी-फूटी चिक पड़ी रहती हैं जिनके पार लटके हुए बकरों के कटे - साबुत जिस्म और लाल गोश्त के बड़े-बड़े लोथड़े झाँकते रहते हैं ।
वह जब स्टेशन से मन्दिर का पता पूछता हुआ आया था तो इस गली में घुसते ही एक अजीब-सी गन्ध का अनुभव करके तथा खुजली-भरा जिस्म लिए रिरियाते कुत्तों और पिल्लों को देखकर उसे घोर वितृष्णा हुई थी । मक्खियों के मारे अलग उसकी नाक में दम हो गया था और उसने सोचा था कि उस जैसे व्यक्ति के लिए इस जगह बहुत दिनों तक रहना सम्भव न हो सकेगा । किन्तु आर्यसमाज मन्दिर में पहुँचकर उसने जो सफ़ाई और सुविधाएँ देखीं, उनसे उसका विचार बदल गया। जो कोनेवाली कोठरी उसे रहने के लिए दी गई उसमें पक्का सीमेंट का फ़र्श था, आलमारी थी और एक तख़्त भी पड़ा था । कोठरी के सामने ही साफ़-सुथरा आँगन था जिसके बीचोबीच चौबच्चे में एक हैंडपम्प लगा था । सहन के चारों ओर आयताकार बरामदा था और उसकी कोठरी से बाईं ओर दो-तीन कमरे छोड़कर यज्ञशाला थी, जहाँ आजकल एक स्वामीजी ठहरे हुए थे ।
सत्यव्रत को यह वातावरण बहुत पसन्द आया। यज्ञ की गन्ध और वेद मन्त्रों का अस्पष्ट संगीतभरा उच्चारण उसके कानों में अमृत घोल गया। इंटरव्यू से लौटने के बाद कोठरी में लेटा हुआ वह कुछ देर तक तो इस संगीत को सुनता रहा था, पर बाद में जब नहीं रहा गया तो वह स्वयं ही यज्ञशाला में जा पहुँचा। कैसा पवित्र दृश्य था ! यज्ञशाला के मुख्य द्वार से यज्ञ वेदी तक श्रद्धालु नर-नारियों की भीड़; आगे गन्ध बिखेरती यज्ञ की निर्धूमशिखा और उसके दूसरी ओर फल, सामग्री और घृत की आहुति डालते हुए पद्मासन लगाकर बैठे तेजोज्ज्वल मुखवाले स्वामी अभयानन्द सरस्वती । स्वामीजी के पीछे खड़े उनके दो सहयोगियों द्वारा उच्च स्वर में मन्त्रोच्चार और उन्हीं के साथ अस्फुट स्वर में स्वामीजी के मधुर कंठ की गुनगुनाहट ! कुल मिलाकर ऐसा सम्मोहक वातावरण था कि दोपहर की हल्की गर्मी का ताप सहन करके भी वह निश्चित-सा वेदी के निकट खड़ा यज्ञ की अग्नि- शिखा में अपना भूत-भविष्य देखता रहा ।
अचानक सत्यव्रत को महसूस हुआ कि कोठरी में अन्धकार भर गया है और आर्यसमाज की ओर से मिले दीये की बत्ती शायद तेल में सरककर बुझ गई है। आँगन में सन्नाटा है, केवल स्वामीजी के कमरे में कुछ लोग सम्भवतः अब भी बातचीत कर रहे हैं । उसका मन उठकर दीया जलाने को नहीं हुआ। पड़े-पड़े ही उसने झोले में से चादर निकाली और सिरहाने लगाकर फिर सोचने लगा। पहले उसने सोचा कि वह छात्रों को पढ़ाने की विधियों का विश्लेषण करके एक निश्चित प्रणाली तय कर ले। मगर फिर उसे लगा कि बिना पाठ्यक्रम देखे ऐसा सम्भव नहीं है। दूसरे, अन्य अध्यापकों के सहयोग एवं सम्मति की भी इसमें आवश्यकता पड़ेगी। फिर भी उसकी शिक्षण प्रणाली ऐसी होनी चाहिए कि छात्रों का व्यक्तित्व यज्ञ की अग्नि की भाँति ज्ञान की ज्योति से जगमगा उठे। उस चमक से आस-पास के लोग अभिभूत होकर श्रद्धावनत हो जाएँ। तभी उसका श्रम सार्थक है, तभी उसका शिक्षण सार्थक है । अन्यथा इस नाशवान संसार में 'को मृते वा को न जायते ।' शिक्षक का अर्थ ही यह है कि विद्यार्थी का संस्कार करके उसमें आदर्श की प्रतिष्ठा करे। तो उसका काम विद्यार्थियों के संस्कार से शुरू होगा ताकि वे ज्ञान और आदर्श को ग्रहण करने योग्य हो सकें।
इसी प्रसंग में अचानक उसे लगा कि छात्रों के संस्कार की बात उसके मन में यूँ ही नहीं आ गई बल्कि इसके पीछे एक सांस्कृतिक सिद्धान्त निहित है । संस्कृत-साहित्य में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब गुरुओं ने किसी शिक्षार्थी को इस कारण शिक्षा देने से इनकार कर दिया कि वह उसका पात्र नहीं था। तो पहले पात्रता विकसित करनी पड़ती है। आज यज्ञ में आहुति देने के लिए स्वामीजी से कितने लोगों ने प्रार्थना की थी ! पर सभी तो उसके पात्र नहीं थे। इसीलिए उन्होंने किसी से स्नान करने के लिए कहा, किसी से हाथ-मुँह धोकर आने के लिए । छदम्मीलाल को तो उन्होंने अपनी कोरी धोती ही दे दी ताकि वह स्नान के बाद अलीगढ़ी पाजामा बदलकर उसे पहन सके । परन्तु सत्यव्रत को अवश्य उन्होंने अनायास ही बुला लिया था। उसने यों ही स्वामीजी की ओर देखा था और उन्होंने दो उँगलियाँ उठाकर हिलाईं और बराबर का आसन थपथपाकर आने का संकेत कर दिया। वह इसके लिए तैयार भी न था । दिन-भर इंटरव्यू की कशमकश, थकावट और पसीने का अहसास और दूसरे लोगों के प्रति स्वामीजी के वर्जनात्मक दृष्टिकोण से वह इतना संकुचित हो उठा कि उनके पास जाकर बैठने का उसमें साहस नहीं हुआ। स्वामीजी ने फिर दृष्टि उठाई तो वह सकपकाकर बोला, “जी, मैं स्नान कर आऊँ ?” हालाँकि वह सुबह ही स्नान कर चुका था परन्तु उसे लगा कि वह इतनी प्रखर दृष्टि का सामना नहीं कर पाएगा। वह बहुत देर से देख रहा था कि स्वामीजी जब खड़े होकर दायाँ पाँव आगे बढ़ाकर यज्ञ में आहुति डालते तो उनके मुख-मंडल पर अलौकिक तेज उभर आता था । आहुति डालने के पश्चात् जब वह हाथ उठाकर, लाल-लाल आँखों से आकाश की ओर तन्मयतापूर्वक निहारते हुए कुछ बुदबुदाते थे तो ऐसा लगता था मानो स्वर्गीय शक्तियों से बातचीत कर रहे हों। लोग श्रद्धा से नत- नत हो - हो जाते थे ।
एक क्षण के लिए सत्यव्रत को लगा उसका बहाना काम कर गया, किन्तु दूसरे ही क्षण उसका अनुमान गलत सिद्ध हुआ । अदृश्य से जाने क्या बातें करके स्वामीजी ने फिर उसे अपने पास आने का संकेत किया और सधी हुई गम्भीर वाणी में पहली बार बोले, “हम जानते हैं, तुम्हारी आत्मा शुद्ध है। आओ !” कोई चारा न देख, विवश होकर झिझकता हुआ-सा सत्यव्रत आगे बढ़ा और उसी प्रकार दृष्टि नीची किए स्वामीजी के दाएँ हाथ की ओर बैठ गया। बाएँ हाथ का आसन अब भी खाली पड़ा था।
यज्ञ वेदी के निकट होने के बावजूद अब उसे उतनी गर्मी नहीं लग रही थी क्योंकि कुछ श्रद्धालु पुरुष ताड़ का बड़ा-सा पंखा लेकर हवा करने लगे थे। तभी स्वामीजी के सहयोगियों में से एक ने ताज़ा हलुवे का एक बड़ा-सा थाल उनके सामने ला रखा। दूसरे सहयोगी ने आम की मोटी-मोटी लकड़ियाँ लगाकर यज्ञ की अग्नि प्रदीप्त की ।
शुद्ध घी में बसे हलुवे की गन्ध जब सत्यव्रत की नाक से होती हुई आमाशय तक पहुँची तो अनायास उसे ध्यान आया कि वह सुबह से भूखा है और उसकी अंतड़ियों में हल्का-सा दर्द होने लगा है। नियुक्ति की खुशी में उसे अब तक खाने की याद ही न आई थी ।
तभी स्वामीजी ने सामने रखी हवन सामग्री के दोनों बड़े-बड़े थालों को इधर-उधर अपने दाएँ-बाएँ खिसका दिया और हलुवे का थाल लेकर खुद उठ खड़े हुए ।
भूख के बारे में सोचते हुए कुछ क्षणों के लिए सत्यव्रत इतना खो गया कि उसे यह भी पता न चला कि कब स्वामीजी ने स्त्रियों की भीड़ में से संकेत द्वारा एक लड़की को आहुति-योग के लिए बुला लिया है। उसका ध्यान तब टूटा जब एक साफ़-सी सफ़ेद धोती में लिपटी हुई वह लड़की स्वामीजी के बाईं ओरवाले खाली आसन पर आकर बैठ गई ।
वेदी के दूसरी ओर बैठे हुए कुछ लोग भी सद्यः प्रज्वलित अग्नि की आँच न सह सकने के कारण खड़े हो गए थे। अधिकांश लोगों के चेहरों पर गर्मी के कारण सुर्खी उभर आई थी किन्तु बिना पूर्णाहुति का प्रसाद लिए कोई जाने का इच्छुक न था। स्वामीजी के साथ-साथ सत्यव्रत भी आप से आप मन्त्रोच्चारण करने लगा । मन्त्र की समाप्ति पर स्वाहा के साथ-साथ सत्यव्रत और वह लड़की दोनों यन्त्रवत् दाएँ हाथ की मुट्ठी में भरकर थोड़ी-थोड़ी सामग्री हवन कुंड की अग्नि पर फेंकते एक भाव-विह्वल होकर यह दृश्य देख रहे थे ।
धीरे-धीरे स्वामीजी ने यज्ञ के हलुवे के उस पूरे थाल की आहुति दे दी, मगर दूसरे ही क्षण फलों और मेवों से भरे दो थाल उनके सामने और आ गए और आहुति का क्रम फिर जारी हो गया। बड़े-बड़े ताज़े बम्बइया केले और सन्तरे अग्नि में पड़कर छटपटाते हुए झुलसने लगे। दो-चार सेब भी भुन चुके थे और उनकी चटर-पटर की आवाज़ सत्यव्रत को बरबस उसकी भूख का अहसास करा रही थी ।
तभी जाने किसके कहने से उस लड़की ने घी का बड़ा-सा कटोरा उठाकर लगभग आधा घी अग्नि के ऊपर उलट दिया। सहसा लपट ऊपर उठी और हवन कुंड की आँच तेज़ हो गई। सत्यव्रत ने आँखों को आँच से बचाने के लिए जैसे ही अपना मुँह बाईं ओर घुमाया, उसकी दृष्टि अनायास उस लड़की की दृष्टि से जा टकराई। वह भी शायद आँखों को आँच से बचाने के लिए ही उस ओर देखने लगी थी। सत्यव्रत को उधर देखते पाकर उसने अनजाने ही गर्दन को एक झटका-सा दिया और वेदी की ओर देखने लगी ।...
अनायास बेचैनी से सत्यव्रत ने करवट बदली कि तख़्त में उभरी हुई कोई छोटी-सी कील उनके सीने पर बाईं तरफ़ जा चुभी। वह उठकर बैठ गया और झोले से तुरन्त दूसरी चादर निकालकर उसने तख़्त पर बिछा ली। निश्चिन्त होकर वह फिर लेट गया । मन्दिर में निस्तब्धता थी और कहीं से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। रात की ख़ामोशी पूरी तरह छा गई थी । बराबर की कोठरी में ठहरे हुए महाशयजी के खर्राटे वातावरण की गम्भीरता को बढ़ा रहे थे। तभी खड़ाऊँ की हल्की-सी आवाज़ हुई और आर्यसमाज मन्दिर के प्रबन्धक महोदय स्वामीजी के कमरे से निकलकर सहन पार करते हुए अपनी कोठरी की तरफ़ चले गए।
सत्यव्रत अँधेरे में भी खड़ाऊँ की आहट से ही उन्हें पहचान गया । उन्होंने ही तो यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद सत्यव्रत के संस्कृत - ज्ञान की प्रशंसा करते हुए यज्ञ के प्रमुख लोगों का परिचय दिया था, “वह अधेड़ से व्यक्ति जिन्हें स्वामीजी ने अपनी धोती पहनने को दी थी, आपके कॉलेज की प्रबन्ध समिति के सदस्य लाला छदम्मीलाल थे और वह विमलाजी, जो आपके साथ आहुति डाल रही थीं, प्रबन्ध समिति के उप-प्रधान चौधरी नत्थूसिंह की लड़की है।” सत्यव्रत को प्रबन्धक जी का यह सौजन्यपूर्ण व्यवहार और साथ ही उनका स्वभाव बहुत पसन्द आया। सुबह भी बिना किसी परिचय के ही उन्होंने कितनी सहजता से उसे यहाँ ठहरने की अनुमति दे दी थी। और शाम को वह इस बात पर नाराज़ हुए थे कि सत्यव्रत संकोचवश प्रसाद के लिए नहीं रुका।
“भाई, आप तो लड़कियों से भी अधिक संकोची हैं। आखिर विमला भी तो प्रसाद लेने के लिए रुकी रही।” प्रबन्धकजी की इस स्नेहपूर्ण नाराज़ी और सरल-से परिहास को याद करते-करते उसकी आँखें नींद से भारी हो आईं। वह तख़्त पर औंधा लेट गया, किन्तु तुरन्त सो नहीं सका, क्योंकि तख़्त में एक-दो जगह कीलें उभरी थीं। और इस बार फिर एक कील उसके सीने में चुभ गई थी ।