Chhote-Chhote Sawal (Novel) : Dushyant Kumar

छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

गूँगे की दुकान (अध्याय-3)

राजपुर एक मामूली-सा गन्दा कस्बा सही किन्तु राजपुर की शाम अनन्त सौन्दर्य लेकर आती है। आकाश पर कुछ आकृतियाँ उभरती हैं और अबाबीलों की तरह पंख खोलकर धीरे-धीरे धरती पर उतरने लगती हैं। शहर के चारों ओर खड़े खजूर के मनहूस-से पेड़ सतर्क प्रहरियों की तरह तन जाते हैं। लखीरी ईटों के उदास खंडहरों पर लज्जा की लाली दौड़ जाती है। सोन नदी का काला जल सुनहरा हो उठता है। और छोटे तालाब के चारों और गोलाकार खड़े जामुन, नीम और खजूर के वृक्ष सामूहिक नृत्य की मुद्रा धारण कर लेते हैं।

शाम के इस सौन्दर्य की सबसे अधिक प्रतिक्रिया हिन्दू इंटर कॉलेज की इमारत पर होती है जो हर दृश्य के साथ रंग बदलती हुई एक धैर्यवान दर्शक की भाँति खड़ी रहती है। यों देखने में वह भी एक मामूली-ती पीली दुमंजिली इमारत है जो हर ओर से चौकोर नजर आती है। उसमें अन्दर जाने के लिए एक ही बड़ा-सा दरवाजा है जिस पर लोहे की मोटी नुकीली कीलें उभरी हैं और नीचे एक बड़ी-सी साँकल और कुन्दा लगा है। भीतर छोटा-सा आँगन है। दरवाजे से आँगन में घुसते ही बाईं ओर दफ्तर है जहाँ पवन बाबू बैठते हैं, फिर टीचर्स-रुम और लायब्रेरी है। और दाईं ओर ऊपर जाने का जीना, साइंसलैबोरेटरी तथा प्रिंसिपल का कमरा है। नीचे के शेष पाँच-सात कमरों में हाई स्कूल की कक्षाएं लगती हैं। और ऊपर की मंजिल में इंटरमीडिएट और छोटी कक्षाओं के छात्र बैठते हैं। यानी कुल मिलाकर इमारत का कोई खास प्रभाव दर्शक के मन पर नहीं पड़ता। किन्तु शाम होते ही इसमें भी तरंगें पैदा होने लगती हैं।

यही शाम शहर से कुछ दिलचस्पियों को बाँधे है वरना कॉलेज में नियुक्त होनेवाले नए अध्यापकों के सामने हर साल एक समस्या आती है कि यहाँ वक्त कैसे गुजारा जाए? राजपुर पच्चीस-तीस हजार की आबादी का एक छोटा-सा कस्बा है; जहाँ न कोई थियेटर है, न सिनेमा, न कोई सांस्कृतिक गतिविधि है, न साहित्यिक उत्साह । पूरे शहर में एक ही बड़ी सड़क है (जो बिजनौर से आती है) जिसमें इधर-उधर से रेंगती हुई सँकरी-सी कई गलियाँ आ मिलती हैं। गलियों में दिन-भर बच्चे, मकोड़े और नाबदान के कीड़े बिलबिलाते रहते हैं और सड़क पर गाँव से गुड़ या राव की गाड़ियाँ लेकर आए हुए किसानों पर, दलालों और आढ़तियों की मक्खियों-सी भीड़ भनभनाती रहती है।

संक्षेप में, पूरा शहर एक मंडी है जिसमें चारों तरफ़ से आवाजें उठती हैं। मोल-तोल करती हुई आवाजें, लड़ती-झगड़ती और उलझती हुई आवाजें, बहकाती-फुसलाती आवाजें और छीना-झपटी करती हुई आवाजें। और व्यापारिक आवाजों के इस भयंकर शोर में संवेदनशील लोग, जिन्दगी का एक स्वर खोजने के लिए तरस उठते हैं। वे अध्यापक, जो अकेले होते हैं, जिनके परिवार उनके साथ नहीं होते, कॉलेज टाइम के बाद, एक लमहे का सकून पाने के लिए दिन-भर शाम का इन्तजार करते हैं। उस घड़ी का इन्तजार-जब वे शहर की इस मनहूस चहारदीवारी को लाँघकर कॉलेज और रेलवे स्टेशन की ओर निकल जाएँगे।

शाम के साये आकाश से उतरकर धरती की ओर बढ़ते हैं। कॉलेज की पीली इमारत का रंग सुनहरे रंग में झिलमिला उठता है। कॉलेज के पीछे सड़क के साथ-साथ शहर में फैले मैदानों में देसी सदासुहागिन की बाढ़ पर फूलों के छोटे-छोटे चिराग जल उठते हैं। फुटबाल का खेल बन्द हो जाता है। शहर के ताँगे खड़-खड़ करते हुए बिजनौर जाने और बिजनौर से आनेवाली शटल गाड़ियों पर मुसाफिरों को लाने-पहुँचाने में व्यस्त हो जाते हैं। रेलवे स्टेशन पर आकर खत्म हो जानेवाली शहर की एकमात्र सड़क दिन भर के वैधव्य के बाद शाम को थोड़ी देर के लिए सुहागिन हो उठती है। और इतनी ही देर में जीवन को इंच-इंच कर जीने के आकांक्षी काफ़ी जीवन-रस प्राप्त कर लेते हैं।

सचमुच कॉलेज और उससे सौ-दो सौ कदम के फासले पर खड़ी रेलवे स्टेशन की इमारत शहर की जान है। हालांकि सुबह शटल गाडियों का मेल हो जाने के बाद स्टेशन पर शाम तक निपट सन्नाटा छाया रहता है, वैसे ही जैसे छुट्टी के दिन यह कॉलेज यात्रीहीन धर्मशाला-सा जान पड़ता है। मगर कॉलेज के गेट से लगी नींबुओं की बगिया में गूँगे हलवाई की दुकान वातावरण को सोने नहीं देती। गूँगे हलवाई की दुकान की वहाँ बड़ी रौनक है। यह कहना कठिन है कि उससे स्टेशन को अधिक लाभ है या कॉलेज को, मगर उसकी उपयोगिता सब अनुभव करते हैं। कॉलेज के छात्रों से लेकर स्टेशन के खलासियों तक-सबने उसकी दुकान की प्रसिद्धि में उन्मुक्त योग दिया है। और अब उसकी दुकान के रसगुल्लों की शोहरत उसकी दुश्चरित्रता की कहानियों से भी ज्यादा फैल गई है।

हर नए आदमी की तरह सत्यव्रत पर भी इस शोहरत का प्रभाव पड़ा था और उस शाम वह वहाँ दूध पीने के लिए चला आया था। यद्यपि स्वभावतः वह बाहर जाकर होटलों या ढाबों में खाना नहीं खाता, और जहाँ हाथ से भोजन बनाने की सुविधा नहीं होती वहां वह केवल दूध और केलों पर ही गुजर कर लिया करता है। पर राजपुर में, दो बजे इंटरव्यू खत्म होने के बाद, न उसे केले मिले थे और न दूध। यों भी जिन हलवाइयों की दुकान पर वह गया था वहाँ उनकी गन्दगी देखकर उसके मन में भारी अरुचि पैदा हो गई थी और उसने निश्चय किया था कि इन दुकानों पर कुछ खाने की बजाय वह तब तक व्रत रखना पसन्द करेगा जब तक खाने-पीने की कोई समुचित व्यवस्था न हो जाए। पर गूँगे की दुकान पर आकर उसने अपना निश्चय बदल दिया।

भूख जीवन का कितना ही बड़ा सत्य क्यों न हो किन्तु और सत्यों की भांति थोड़े समय के लिए उसे भी दबाया और कुचला जा सकता है। सत्यव्रत भी भूख को मारकर शाम होते ही आर्यसमाज मन्दिर की अपनी कोठरी से निकलकर शहर में घूमने चल दिया था। मुख्य सड़क पर आते ही हलवाइयों की दुकानों से उठती हुई गन्ध रह-रहकर उसके निश्चय के एकान्त में महकने लगी, पर वह विचलित नहीं हुआ। तभी संयोगवश असरार से उसकी भेंट हो गई जिसने बड़े जोरदार शब्दों में घूमने के लिए हिन्दू कॉलेज और खाने-पीने के लिए गूँगे की दुकान पर जाने की सिफारिश की और दुकान पर आकर सत्यव्रत को प्रसन्नता ही हुई।

मँजे हुए, साफ़-सुथरे पीतल के गिलास से दूध का एक घूँट भरते ही सत्यव्रत की आत्मा तृप्त होती चली गई। वास्तव में इतने अच्छे दूध की उसने आशा नहीं की थी। गूँगे की ईमानदारी पर उसे आन्तरिक खुशी हुई और इसीलिए पैसे देते वक़्त उसने दूध के गिलास की ओर इशारा करते हुए निर्विकार भाव से उसकी शुद्धता की तारीफ की। सोचा-लोग खामखा शहरों को बदनाम करते हैं कि वहाँ शुद्ध घी-दूध नहीं मिलता।

तभी गूँगा तड़पकर खड़ा हो गया। और सत्यव्रत के पैसोंवाले हाथ को पीछे करता हुआ ‘आँऽऽ आँऽऽ' करके अपनी चौड़ी-चकली छाती पर हाथ मारता हुआ बिजनौर जानेवाली रेलवे लाइन की ओर इशारा करने लगा।

उसके चेहरे से लगता था कि वह उत्तेजित हो गया है और अगर बोल पाता तो गालियां दे रहा होता। दुकान पर उपस्थित लोग इस तमाशे में रस लेने लगे थे और सत्यव्रत इस अप्रत्याशित घटना से भौंचक्का-सा होकर सहायता के लिए इधर-उधर देखने लगा था। तभी पास के मूढ़े पर बैठा बीड़ी पीता हुआ एक दुबला-सा नवयुवक उठा और गूँगे के सामने खड़े होकर उसने गर्दन हिलाकर कुछ मना किया। फिर विस्तार से दोनों आँखें फैलाकर दाहिने हाथ की तर्जनी से उसी गिलास के अन्दर इशारा किया और तत्पश्चात् प्रशंसा सूचक मुस्कराहट अधरों पर लाकर स्वीकृति की मुद्रा में अपनी गर्दन ऊपर-नीचे हिलाने लगा। तत्काल गूँगा शान्त हो गया और उसने हँसते हुए हाथ बढ़ाकर सत्यव्रत से पैसे ले लिए।

सत्यव्रत ने मुक्ति की सांस ली। आभार और आश्चर्य-सहित वह उस नवयुवक की ओर देखने लगा, जिसने स्थिति संभालने के लिए अनायास ही एक छोटा-मोटा नाटक कर दिया था। सत्ताइस-अट्ठाइस साल की उम्र। देखने में सुशिक्षित और बुद्धिमान और पतले-दुबले कमजोर शरीर पर खादी के साफ़ कपड़े, बीड़ी पीने को छोड़कर सत्यव्रत को उसका पूरा व्यक्तित्व पसन्द आया। धन्यवाद देने के लिए वह कुछ शब्द खोज ही रहा था कि वह नवयुवक गूँगे की ओर संकेत करके बोल उठा, "इसकी आदत बड़ी खराब है। अपनी चीज की जरा-सी बुराई बरदाश्त नहीं कर सकता। वैसे आप भी स्वीकार करेंगे कि ईमानदार आदमी को अपनी मिथ्या आलोचना पर क्षोभ होता ही है।"

सत्यव्रत उस बीड़ी पीनेवाले नवयुवक की शिष्ट और संयत वाणी पर मुग्ध होते हुए बोला, "लेकिन मैंने इसकी आलोचना कहाँ की?"

"वही तो मैने समझाया कि ये तुम्हारी तारीफ़ कर रहे हैं। वरना वह आपको चैलेंज दे रहा था कि बिजनौर तक ऐसा दूध नहीं मिल सकता।" उस नवयुवक ने मुस्कराकर कहा और फिर पूछा, "आप बिजनौर के रहनेवाले तो नहीं हैं न?"
"जी नहीं," सत्यव्रत ने कहा, "मैं तो मोजमपुर के पास एक गाँव है, तीरथनगर, वहाँ का रहनेवाला हूँ।"

"नए आए हैं यहाँ ?" उस नवयुवक ने पूछा। वह सोच रहा था कि न यह व्यापारी हो सकता है, न छात्र। फिर कौन है ? मगर उसके चेहरे पर जिज्ञासा नहीं, स्वागत का भाव था।
“जी हाँ, आज ही।" सत्यव्रत ने कहा और फिर पूरा परिचय देते हुए बोला, "सहायक अध्यापक के रूप में मेरी नियुक्ति इसी कॉलेज में हो गई है।"
"कब ?" घोर आश्चर्य व्यक्त करते हुए उस नवयुवक ने अपने प्रश्न को तुरन्त ही दोहरा दिया, "कब से ?"
"आज ही से।" सत्यव्रत ने जवाब दिया और नियुक्ति की प्रसन्नता से उसकी छाती फूल उठी। मन में असाधारणत्व का अनुभव करते हुए सौजन्य के नाते उसने पूछा, "और आप?"
"मैं भी यहीं मास्टर हूँ। उस नवयुवक ने अपने बारे में बताते हुए कहा, "मेरा नाम जयप्रकाश है।"

अब सत्यव्रत के विस्मित होने की बारी थी। उसका असाधारणत्व घट गया था और वह 'आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई' वाली औपचारिक मुद्रा में खड़ा जयप्रकाश की ओर देख रहा था कि तभी नजीबाबाद जानेवाली गाड़ी की सीटी गूँज उठी, और भक-भक करती हुई गाड़ी के चलने की आवाज सुनाई दी। सत्यव्रत औपचारिकता निभाने से बच गया।
स्टेशन से बचे-खुचे मुसाफ़िर और घूमने आए हुए लड़के शहर की ओर लौट पड़े। गूँगे के नौकर ने चिमनी साफ़ करके लालटेन जला दी।
जयप्रकाश ने जेब से बंडल निकालकर एक और बीड़ी सुलगाते हुए कुछ रुककर सत्यव्रत से कहा, "वापस लौटना हो तो आइए। साथ ही रहेगा।"
“जी हाँ, चलिए।" सत्यव्रत ने तुरन्त सहमत होते हुए कहा और दोनों एक-दूसरे से हुए इस आकस्मिक परिचय के विषय में सोचते शहर की ओर चल दिए।

सड़क सुनसान हो चुकी थी। कोई भटका हुआ पंछी पंख फड़फड़ाता हुआ सिर से गुजर जाता तो दोनों चौंककर पीछे देखने लगते थे। गूँगे की दुकान में लटकी हुई लालटेन की रोशनी बहुत मद्धिम हो गई थी और कॉलेज तथा रेलवे स्टेशन की इमारतें अँधेरे में डूबने लगी थीं। सिगनलों की लाल-लाल बत्तियाँ खेतों की बाड़ से झाँकती हुई आँख-मिचौनी खेल रही थीं। दूर जाते हुए विद्यार्थियों के जोरदार कहकहे, टेलीफ़ोन के खम्भों से उभरती हुई भायँ-भायँ की ध्वनियाँ और छोटे तालाब पर टिटहरियों की प्यासी आवाजें, सन्नाटे के तारों पर मरी हुई चमगादड़ों-जैसी टँगी थीं।
तभी अचानक सत्यव्रत ने पूछा, "भाईजी, ये कॉलेज से यहाँ तक सड़क के साथ-साथ चले आनेवाले खेत, क्या कॉलेज के ही हैं?"
जयप्रकाश तुरन्त सजग हो गया। सत्यव्रत के आत्मीय सम्बोधन को उसी आत्मीयता से स्वीकार करते हुए उसने कहा, "जी हाँ, मास्टर साहब ! ये सब कॉलेज की ही सम्पत्ति हैं।"
"क्या ये खेल के मैदान हैं?" सत्यव्रत ने अगला प्रश्न किया और अँधेरे में डूबे विशाल मैदानों की ओर देखने लगा। उत्तर में जयप्रकाश एक क्षण ठिठककर मौन हो गया जैसे वीणा के तार झनझनाकर सहसा रुक गए हों। उसके मन में आया कि वह कहे, 'काश! ये खेल के मैदान होते!'
सत्यव्रत ने भी प्रश्न दोहराया नहीं। सोचा, ये खेल के मैदान ही हो सकते हैं। मगर जयप्रकाश सोच रहा था कि इन खेतों को खेल के मैदान में कैसे बदला जा सकता है!

कॉलेज की इस सौ बीघा जमीन में लाला हरीचन्द ने पिछले साल से खेती शुरू कराई थी और उसका नाम रखा था 'कॉलेज-कृषि योजना' । लालाजी के शब्दों में यह योजना उनके वर्षों के चिन्तन का निचोड़ थी और इसके साथ उनकी बड़ी-बड़ी आशाएँ जुड़ी थीं। फलस्वरूप जिस महत्त्वाकांक्षा और उत्साह से उन्होंने कृषि-योजना की बुनियाद डाली, उसी उत्साह और उल्लास से उन्हें इसमें छात्रों एवं अध्यापकों का सहयोग भी मिला। इंटर और हाईस्कूल की कक्षाओं में पढ़नेवाले गाँव के बड़े-बड़े लड़के पूरी लगन से कृषि-योजना में जुट गए और देखते-ही-देखते उन्होंने बड़े-बड़े बंजर मैदानों को उपजाऊ जमीन में बदल दिया।

लाला हरीचन्द विद्यार्थियों की इस श्रम-निष्ठा से बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें 'श्रम-सेवकों' की उपाधि दी थी। यही नहीं, मैनेजिंग कमेटी की एक विशेष बैठक में उन्होंने कृषि-योजना की मौलिकता और उसके पीछे निहित गांधीवादी कार्य-प्रणाली का विस्तार से विश्लेषण करते हुए योजना के संचालक मास्टर उत्तमचन्द और उनके सहकर्मी छात्रों की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और वाइस-प्रेसीडेंट चौधरी नत्थूसिंह एवं सेक्रेटरी गनेशीलाल के परामर्श से योजना में विशेष रुचि लेने के लिए उन्होंने गाँवों के बीस-पच्चीस बड़े-बड़े लड़कों को कॉलेज की ओर से अनेक सुविधाएँ दिलवा दी थीं; जैसे, फ़सल की बुवाई और कटाई के दिनों में अनुपस्थित रहने के बावजूद कक्षाध्यापकों के रजिस्टरों में उनकी हाजिरी लगती थी। गैरहाजिरी का कोई जुर्माना उन्हें नहीं देना पड़ता था और कृषि-योजना के बहाने वे जब चाहें, कॉलेज छोड़कर कहीं भी आ-जा सकते थे।

इस प्रकार योजना की उपादेयता और इन कुछ वरदानों के कारण गाँवों के लड़कों में कृषि-योजना शीघ्र ही लोकप्रिय हो गई। कुछ ही दिनों के अन्दर-अन्दर मास्टर उत्तमचन्द के कृषि-योजना-रजिस्टर में श्रम-सेवकों की संख्या दो सौ तक पहुँच गई और विद्यार्थी सुविधाओं के मोह में पढ़ाई-लिखाई से विरक्त होने लगे।

सबसे पहले कृषि-योजना के इस घातक पहलू को जयप्रकाश ने देखा और उसके बाद गाँवों के सभी अध्यापकों ने इसका विरोध शुरू कर दिया। आपस में मिलकर जगह-जगह वे इस योजना की आलोचना करने लगे, कृषि-योजना के नियामक उत्तमचन्द को बुरा-भला कहने लगे तथा विद्यार्थियों को बुला-बुलाकर उन्हें उनके वक्त की कीमत समझाने लगे। और यहाँ तक कहा जाने लगा कि कृषि-योजना द्वारा गाँवों के विद्यार्थियों का शोषण किया जा रहा है।

यह सचमुच एक भयंकर प्रतिक्रिया थी। गाँवों के अध्यापकों की कृषियोजना-सम्बन्धी यह प्रतिक्रिया मैनेजिंग कमेटी तक न पहुँची हो, ऐसी बात नहीं। और अध्यापकों की इन बेहूदी बातों पर चौधरी नत्थूसिंह और गनेशीलाल को क्रोध न आया हो, ऐसी भी बात नहीं। पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ते देख लाला हरीचन्द ने सबको शान्त कर दिया था। कहा था, "भय्यो ! जहाँ चार आदमी होवें, वहाँ चार राय होवें ही हैं। पर हमें तो स्कूल का भला देखना है।"

उन्होंने तत्काल कोई कार्यवाही न करके केवल तत्कालीन प्रिंसिपल द्वारा सभी अध्यापकों के पास यह सूचना पहुंचा दी थी कि कृषि-योजना का विरोध मैनेजिंग कमेटी का विरोध है और ऐसा करनेवाले अध्यापकों के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही की जा सकेगी।

कमेटी की इस सूचना का मतलब सब अध्यापक इतनी अच्छी तरह समझते थे कि कृषि-योजना-विरोधी खुली-खली आवाजें थोड़े ही दिनों में कानाफूसी और फुसफुसाहटों में बदलती हुई धीरे-धीरे शान्त हो गई थीं। और जयप्रकाश सीने में असफल विद्रोह की चिंगारी दबाए गाँवों के विद्यार्थियों की अदूरदर्शिता और बुद्धिहीनता को कोसता रह गया था।

जयप्रकाश को अच्छी तरह याद है कि इस सिलसिले में उसने जब मास्टर उत्तमचन्द से यह कहा था कि कम-से-कम परीक्षाओं के दिनों में तो वह फसल की कटाई के लिए गाँवों के विद्यार्थियों को न भेजें तो उसे प्रिंसिपल द्वारा एक लिखित चेतावनी मिली थी। वह कागज अभी भी उसके पास है। उसमें कहा गया था, "अध्यापक जयप्रकाश कॉलेज में गाँव और शहर की बात उठाकर गाँवों के लड़कों का एक अलग दल बनाना चाहते हैं जो सर्वथा अवांछनीय है। इस तरह का वातावरण किसी भी संस्था के स्वस्थ विकास के लिए सर्वथा घातक है। यदि अध्यापक ने अपनी त्रुटि शीघ्र न सुधारी तो अनिच्छापूर्वक उन्हें संस्थान की सेवाओं से निवृत्ति दे दी जाएगी।"

और, इसी के साथ सारा तूफ़ान समाप्त हो गया था। गाँवों के अध्यापक आपस में मिलने और बोलने और कृषि-योजना पर बातें करने तक से कतराने लगे थे। और लड़कों ने इच्छा-अनिच्छापूर्वक रबी की फसल भी काटी थी और परीक्षा भी दी थी।

कृषि-योजना के एक वर्ष के इस संक्षिप्त-से इतिहास पर सोचते-सोचते जयप्रकाश अतीत में ऐसा खो गया कि उसे पता भी नहीं चला कि वह कब शहर की सीमा में घुस आया है। उसी के साथ-साथ चलनेवाला सत्यव्रत भविष्य में खोया था। किन्तु शहर में प्रविष्ट होकर आर्यसमाज गली के पास आते ही बोला, "तो भाईजी, मुझे आज्ञा है?"
“हाँ-हाँ।" चेहरे पर एकदम सरल निर्मल मुस्कान लाते हुए जयप्रकाश ने कहा, "कल कॉलेज खुल रहा है। मुलाकात होगी।"
और दोनों अपने अपने में खोए दो विपरीत दिशाओं की गलियों में मुड़ गए। दोनों में अंधेरा था।

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