Chhote-Chhote Sawal (Novel) : Dushyant Kumar

छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास): दुष्यन्त कुमार

कृषि-योजना (अध्याय-5)

अगले दिन उठते ही सत्यव्रत को खाने-पीने की फ़िक्र हुई और स्नान एवं पूजा-पाठ से निबटने के बाद वह नौ बजे के लगभग बाज़ार की ओर चला ।

.... राह में मंडी के पासवाले मीठे कुएँ पर चरखी की धड़धड़ आवाज़ के साथ कुएँ में डोल डालते हुए पंजे पनवाड़ी ने पास ही बाल्टी से नहाते हिन्दू कॉलेज की कमेटी के एक मेम्बर छदम्मीलाल पर प्यार का हमला किया, “क्यों लाला, अब के तो लाला हरीचन्द और गनेसीलाल की पिंसन गई ? और बिचारे नत्थूसिंह को तो लौंडिया की शादी करनी थी । च... च... या परवरदिगार !”

.... सत्यव्रत बात को समझे बिना ही आगे बढ़ गया। मगर दूसरे लोगों के सिर पर उठे हुए डोल-भरे हाथ रुक गए और पंजे ने उनके कौतूहल का स्वयं ही समाधान करते हुए कहा, “फिर भय्या, सरकार कोई अन्धी थोड़े ही है जो हिन्दू कॉलेज को रुपए-पै-रुपए बाँटती चली जाएगी। आखिर इस साल हिन्दू कॉलेज में जितने लौंडे फेल हुए हैं उतने तो सारे जिले में नहीं हुए।"

पंजे मियाँ लोहे की दुकान करते थे और मुस्लिम स्कूल की कमेटी के मेम्बर थे। किसी ज़माने में उन्होंने पनवाड़ी की दुकान की थी सो पनवाड़ी उनके साथ तभी से जुड़ गया था। हिन्दू कॉलेज के मेम्बर को कोई विरोध न करते देखकर उन्होंने आगे कहा, “हमारे स्कूल में तो इस साल दाखिले को भी जगह नहीं रही । एक तारीख़ से दाखिला चालू हुआ है और समझ लो कि अब तक सारे क्लास फुल हो गए। हमारा हाईस्कूल का रिजल्ट भी जिले में दूसरे नम्बर पर है ।"

हिन्दू कॉलेज के मेम्बर छदम्मीलाल को इस गर्वोक्ति में साम्प्रदायिकता की बू आई । तड़पकर बोले, “अबे, क्या कहदे करें हैं- फस्ट फिर भी आर्यसमाज स्कूल आया है बिजनौर का ! तारीफ़ तो जब थी जब फस्ट आकै दिखाते तुम। हमारा स्कूल फिर भी जिले में दो बार फस्ट आ चुका है, एक बार इंटर में और एक बार हाईस्कूल में ।”

छदम्मीलाल के खानदानी बूढ़े मुकद्दम चाचा कुएँ की मन पर मैल छुटाने के लिए पाँव रगड़ते हुए बड़े ध्यान से इन दोनों की बातें सुन रहे थे। छदम्मीलाल की बात पर वह अपने को न रोक सके; बोले, “रहने दे छदम्मी, रहनै दे, तेरे का भी कोई लौंडा आज लो डिप्टी ना हुआ । दूर क्यों जावै, अपने खानदान में ही देख ले। जित्ते लौंडे पढ़े, कोई साला किसी रोज़गार - सिर लगा ? सब कनकव्वे उड़ा रएँ । बस यो है कि जुल्फों में तेल डाल लेवेंगे, सफेद कपड़े पहन लेवेंगे और चिकने- चुपड़े बनकै घूमेंगे। कोई इनसे पूच्छै - अबै सुसरो, कोई तुम्हारा साँग करना है या तुम्हें कोठे पै बैठना है ! पर पूच्छै कौन ?”

मुकद्दम चाचा अपनी साफ़गोई के लिए बदनामी की हद तक मशहूर थे। पिछले दिनों जब एक हजार रुपए इकट्ठे करके शहर के कुछ उत्साही लोग उनके पास रामलीला का चन्दा माँगने पहुँचे थे तो उन्होंने साफ़ कह दिया था, “मैं तुम्हें धेल्ला नईं दूँगा । सुसरो, सरम तुमैं नईं आत्ती, जिन लौंडों को रात में सीता माँ और भगवान् रामचन्दर बनावौ हो, उन्हीं के साथ दिन में इकलामबाजी करो हो !”

मुकद्दम चाचा की बातें इतनी बेबाक और दिलचस्प थीं कि कुएँ पर रस्सियों की ढील से घड़घड़ाती घिर्रियाँ ख़ामोश हो गईं और लोग मुकद्दम चाचा की बातें सुनने के मूड में आ गए। किसी ने कहा, “मुकद्दम चाचा ! मुस्लिम स्कूल का भी तो कोई लौंडा आज लो डिप्टी ना हुआ !”

“अबै ना हुआ तो हो जावैगा । वो स्कूल तरक्की कर रिया है। वो लौंडा कू पढ़ावैं हैं, उनसे हल नहीं जुतवात्ते । और तुम्हारा स्कूल जो है, यो सुसरा तनज्जुली की तरफ जा रिया है। धन्धा बना लिया इसे लोग्गों ने। अब मैं क्या कऊँ, सच्ची बात मिर्ची की तरयो लग जावै ।"

बाज़ार से केले लेकर लौटते हुए सत्यव्रत के कानों में फिर स्कूल की बात पड़ी तो वह ठिठक गया। और भी दो-चार तमाशबीन वहाँ इकट्ठे हो गए थे । यहाँ तक कि जो लोग नहाकर घर जानेवाले थे, वे भी मुकद्दम चाचा की बातें सुनने के लिए ठहर गए थे ।

छदम्मीलाल ने सोचा, चाचा की बक छूट गई है, अतः जल्दी से एक डोल और सिर पर डाला और धोती का तहमद लगाकर डोल-रस्सी उठाकर चल दिए । तमाशबीनों की उत्सुकता घट गई। जब मैदान में कोई जवाब देनेवाला नहीं होता तो बात का मज़ा आधा रह जाता है। मुकद्दम चाचा लगभग पन्द्रह मिनट तक बड़बड़ाते रहे और हिन्दू कॉलेज के मेम्बरों को कोसते रहे ।

कुएँ पर फिर शोर बढ़ गया था । घिर्रियों की घड़घड़ाहट और हैंडपम्प की धड़कयूँ में भी लोग एक-दूसरे से बातें करने लगे थे। कल्लू ढाबेवाले का लड़का हाईस्कूल में फ़ेल हो गया था और पंजे पनवाड़ी से उसके मुस्लिम स्कूल में दाखिले की बात कर रहा था, “मैं कौन किसी का दिया खाऊँ हूँ ? सुसरे नाराज होंगे तो होने दो। मुझे लौंडे की ज़िन्दगी बनानी है, भैया! तुम अपने स्कूल में करा दो उसका दाखिला !”

और पंजे पनवाड़ी अब हिन्दू कॉलेज के रिज़ल्ट पर आलोचना कम, अफ़सोस ज़्यादा ज़ाहिर कर रहे थे । आलोचना करनेवाले और बहुत-से लोग वहाँ आ गए थे । तरह-तरह की बातें निकल रही थीं। “...सब पैसा खाते हैं साले ! पढ़ाने लिखाने का नाम नहीं, दिन-भर प्रेसीडेंट और सिकटरी की चिलमें भरते रहते हैं ।"

सत्यव्रत को अध्यापकों के प्रति ऐसे उद्गार अत्यन्त अभद्र लगे ।

तभी किसी ने व्यंग्य में कहा, “स्कूल तरक्की कर रहा है, इस साल पिछले साल से चौगुने लड़के फेल हुए हैं । "

“ आश्चर्य की बात है कि इतनी नक़ल के बावजूद इतने लड़के फेल हो गए। सच कहा है किसी ने कि नक़ल को भी अकल चाहिए।” पंजे पनवाड़ी ने गर्दन हिलाते हुए आँखें मिचमिचाकर कहा । सत्यव्रत को वहाँ खड़े रहना कठिन प्रतीत होने लगा। अतः वहाँ से चल दिया।

मुकद्दम चाचा ने धोती निचोड़कर कन्धे पर डाल ली थी और मन से नीचे उतर रहे थे। पंजे की बात सुनकर बोले, “अरे भैया, लौंडे फेल हुए सो हुए, मिम्बरों का कोई रिस्तेदार बिना मास्टर हुए तो नई रै गिया। जित्ता गुड़ डाल्लोगे, उत्ता मीठा होवैगा । जैसे मास्टर रक्खोगे, वैसी ही पढ़ाई होवैगी। तो फिर दोस किसका है ?"

सत्यव्रत का मन हुआ कि वापस लौट पड़े और उन्हें अध्यापक के गुरु दायित्वों और कर्तव्यों के बारे में बताए। उन्हें प्यार से समझाए कि शिक्षक के प्रति ऐसी धारणाएँ बनाना उचित नहीं है। मगर उसे कॉलेज जाने के लिए देर हो रही थी ।

नए सत्र में कॉलेज खुलते ही यही चर्चा उस दिन हिन्दू कॉलेज में भी थी । कॉलेज-भवन के आँगन में खड़े बीसियों विद्यार्थी रिजल्ट पर बातें करते हुए एक-दूसरे के परचों और नम्बरों के बारे में पूछताछ रहे थे। और टीचर्स - रूम में बैठे हुए चन्द अध्यापक सोच रहे थे कि पिछले साल पचास प्रतिशत रिज़ल्ट रहा, फिर भी गर्मियों की छुट्टियों की आधी तनख़्वाहें काट ली गई थीं। इस साल तो इंटर का रिज़ल्ट दस प्रतिशत ही है। क्या होगा ?

पवन बाबू के दफ़्तर के सामने खड़े उन लड़कों में से कोई अपनी 'काशन मनी' चाहता था तो कोई अपनी मार्क्स-शीट, कोई अपना 'स्कूल- लीविंग सर्टीफ़िकेट' माँग रहा था तो कोई दाखिले का फ़ार्म। ज़्यादातर लड़के हाईस्कूल के पास या फेल होनेवालों में से थे । अतः पवन बाबू पर अपनी-अपनी फ़रमाइशों का तकाज़ा करके वे फिर रिज़ल्ट की चर्चा करने लगते थे ।

हाईस्कूल में अस्सी में से सत्रह लड़के पास हुए थे। पास होनेवाले छात्र रिज़ल्ट का प्रतिशत निकालते हुए फेल होनेवाले छात्रों से लम्बी-लम्बी साँसें छोड़कर कह रहे थे, “देखो भई, यहाँ से तो गाड़ी खिसक गई, अब आगे क्या होता है ?” उनकी संवेदनाएँ अपने-अपने संकटमय भविष्य की अकल्पित घोषणाएँ थीं ताकि फेल होनेवालों को इस कल्पना से तसकीन मिले कि असफलता के रास्ते पर वे अकेले नहीं हैं ।

टीचर्स - रूम के दरवाज़े पर पड़ी चिक के बाहर झाँकते हुए लम्बी साँस छोड़कर, नागरिक शास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव बोले, “पिछले साल इस सहन में तिल रखने को जगह नहीं थी। मगर इस साल... ?”

टीचर्स - रूम में बैठे पाँचों अध्यापक बहुत देर से इस बात को लक्ष्य कर रहे थे। मगर श्रीवास्तव की बात का कोई जवाब दे कि तभी कमरे की चिक उठाकर असिस्टैंट टीचर रस्तोगी भीतरं दाखिल होते हुए बोला, “सुना भई, आप लोगों ने कुछ ? मुस्लिम स्कूल में सीटें फुल हो गई हैं। मैं अभी-अभी स्टेशन से आ रहा हूँ। वहाँ भी यही चर्चा थी । गूँगे हलवाई की दुकान और नींबू की बगिया में बैठे हुए विद्यार्थी तो विद्यार्थी, शहर के लोग भी हमारे रिज़ल्ट पर बातचीत कर रहे थे कि लड़के अपने-अपने सर्टीफ़िकेट लेकर बिजनौर के आर्यसमाज स्कूल में जा रहे हैं। मुस्लिम स्कूल में जगह नहीं रही । और इस साल हिन्दू कॉलेज की स्ट्रेंग्थ बहुत कम हो जाएगी।"

रस्तोगी की बात पर जयप्रकाश, इतिहास के लेक्चरर रामप्रकाश गुप्ता, नागरिकशास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव और दो नवनियुक्त अध्यापक पाठक और राजेश्वर सतर्क होकर बैठ गए। मगर तभी रस्तोगी ने उसकी उत्सुकता पर पानी डालते हुए चेहरे पर कोमल दर्द के भाव फैलाकर अत्यन्त थकी-सी आवाज़ में कहा, “यह हम सभी के लिए कितनी लज्जा की बात है ! इसी रिज़ल्ट के कारण हम आज बाहरवालों के सामने मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहे ।”

और तुरन्त सबके माथे जैसे शर्म से झुक गए। राजेश्वर ने कुछ कहने की सोची, पर गम्भीर वातावरण के अनुकूल उसे कोई बात नहीं सूझी। विवश होकर वह इधर-उधर देखने लगा। कुर्सी के हत्थे पर तबला बजाता हुआ गुप्ताजी का हाथ रुक गया और वह उदास होने की चेष्टा करने लगे। जयप्रकाश के मुखं पर एक अजीब तनाव- सा आ गया और उसकी उँगलियाँ अकड़कर मेज़ पर फैलने लगीं। सब ख़ामोश हो गए।

बाहर लड़के शोर मचा रहे थे । और उस शोर से उभरती हुई पवन बाबू की झुंझलाहट टीचर्स - रूम में साफ़ सुनाई दे रही थी ।

लोगों की बेमतलब की ख़ामोशी से ऊबकर राजेश्वर ने पूछा, “क्यों साहब, आख़िर रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण क्या है ? पिछले साल तो इतना ख़राब रिज़ल्ट नहीं था।"

इस प्रश्न ने कमरे का समूचा वातावरण बदल दिया । गुप्ताजी का पाँव फिर हिलने लगा और उँगलियाँ कुर्सी के हत्थे पर तबला बजाने लगीं। जयप्रकाश की उँगलियों का खिंचाव ढीला हो गया। पाठक ने मुस्कराकर रस्तोगी की ओर देखा । और रामाधीन श्रीवास्तव ने मुख की उदासी पर कृत्रिम उत्तेजना का रंग लाते हुए कुर्सी आगे खिसका ली ।

क्षणभर पहले की ख़ामोशी गरमागरम बहस में बदल गई।

“मेरे सब्जेक्ट में सिर्फ़ एक लड़का फेल हुआ है।” रामाधीन श्रीवास्तव ने मुख की उदासी पर उत्तेजना का रंग चढ़ाते हुए कहा, “अगर सब लोग अपने-अपने विषयों में मेहनत करते तो रिज़ल्ट इतना खराब कभी न रहता।”

यह एक मामूली सा तर्क था मगर गुप्ताजी ने श्रीवास्तव की इस बात को अपनी वैयक्तिक आलोचना समझा, तड़फकर विस्मयपूर्वक बोले, “क्या आप यह कहना चाहते हैं कि हमने अपने-अपने विषयों में मेहनत नहीं की ? माना कि इतिहास में मेरे पच्चीस में से पन्द्रह लड़के फेल हुए हैं, पर अंग्रेज़ी में तो अस्सी प्रतिशत से भी अधिक लड़के फेल हैं। तो क्या आपका ख़याल है कि उत्तमचन्द जी ने भी अपने विषय में मेहनत नहीं की ?"

उत्तमचन्द इंटर और हाईस्कूल के लड़कों को अंग्रेज़ी पढ़ाया करते थे । गुप्ताजी ने रामाधीन श्रीवास्तव के आत्म-प्रशंसात्मक सीधे-सादे वाक्य को जिस प्रकार उत्तमचन्द से जोड़ दिया था उससे श्रीवास्तवजी घबरा उठे। फ़ौरन क्षमायाचना की मुद्रा में हथियार डालते हुए बोले, “मैंने तो सिर्फ़ अपनी राय आपके सामने रखी थी। मेरा कोई और मतलब हरगिज़ न था। वैसे मैं इस बारे में आपके विचार ज़रूर जानना चाहूँगा।"

गुप्ता विजेता के भाव से मुस्करा दिए और कुछ सोचने का अभिनय करते हुए बोले, “रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण है पुराने प्रिंसिपल का शिथिल एडमिनिस्ट्रेशन ।”

“यह तो कोई बात ही न हुई।" झुंझलाकर हाथ नचाते हुए रस्तोगी ने गुप्ताजी का तीव्र प्रतिवाद किया; बोला, “साहब, नाक को चाहे सीधे पकड़ो या गर्दन के पीछे से हाथ लाकर, बात एक ही है। मान लीजिए कि प्रिंसिपल का एडमिनिस्ट्रेशन बहुत अच्छा होता तो ? तो क्या उससे विद्यार्थियों को 'पेपर्स आउट' हो जाते ? एडमिनिस्ट्रेशन अच्छा होगा तो ज़्यादा से ज़्यादा प्रिंसिपल यही कर सकता है कि टीचर्स को और मेहनत से पढ़ाने के लिए प्रेरित करे या आदेश दे - और यही बात दूसरे शब्दों में श्रीवास्तवजी ने कही थी। आपकी और उनकी बात में अन्तर कहाँ रहा ?"

रस्तोगी का पलड़ा भारी पड़ते देख गुप्ताजी फ़ौरन एडमिनिस्ट्रेशन के लाभ बताने लगे; बोले, “इससे विद्यार्थियों को एक नैतिक बल मिलता है, उनमें अध्ययन की भावना जाग्रत होती है, केवल विज्ञप्तियाँ और आदेश जारी करना ही प्रशासन नहीं है। उसका क्षेत्र बड़ा व्यापक है।”

रस्तोगी उनकी बातों को 'तर्क के लिए तर्क' कहता हुआ जोर देकर बोला, “आप क्यों नहीं मान लेते कि इस साल बोर्ड की नीति ही बदली हुई थी; उन्होंने इम्पॉर्टेंट (महत्त्वपूर्ण) प्रश्नों की बजाय साधारण प्रश्नों पर ज़ोर दिया था ताकि विद्यार्थियों की वास्तविक योग्यता का पता चल सके।

संक्षेप में रस्तोगी 'अनएक्सपेक्टड पेपर्स' को रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण बता रहा था और गुप्ताजी तत्कालीन प्रिंसिपल के शिथिल एडमिनिस्ट्रेशन को । और दोनों अपनी-अपनी धारणाओं पर दृढ़ एक-दूसरे से बुरी तरह उलझे थे ।

जब काफ़ी देर तक चलती हुई बहस ऊपर उठकर अनिर्णीत ही नीचे आने लगी तो जयप्रकाश अपनी ही ख़ामोशी से अकुला उठा। अपने दोनों हाथ दो विपरीत दिशाओं में फैलाते हुए बोला, “आप दोनों कुछ भी कहिए, पर मेरा तो निश्चित मत है कि रिज़ल्ट बिगड़ने का कारण कॉलेज की कृषि योजना है।”

जयप्रकाश की आवाज़ में आत्मविश्वास था । वह निर्णयात्मक लहजे में बोला, “देखिए न, फ़ेल होनेवाले लड़कों में पिचासी प्रतिशत गाँव के वे लड़के हैं जो कॉलेज की कृषि-योजना में काम करते थे। ज़रा सोचिए, अगर उनका वक़्त इतनी बेरहमी से बरबाद न किया गया होता तो क्या वे फ़ेल हो सकते थे ?”

रामप्रकाश गुप्ता ने जयप्रकाश का आवेश लक्षित किया और साथ ही एक भावी आशंका से उनकी छाती धड़क उठी। बावजूद सारी बातों के वे जयप्रकाश को पसन्द करते थे । उसकी बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का लोहा मानते थे । वह अक्सर कहा करते थे कि बात करना कोई जयप्रकाश से सीखे। सारी बातें कह जाएगा मगर शिकायत लायक़ पकड़ की कोई बात नहीं छोड़ेगा । शब्दों का नपा - तुला प्रयोग और संयत तथा सुलझी हुई बातें - जयप्रकाश की अपनी विशेषताएँ थीं। और इन्हीं के कारण कोशिश करने पर भी गत वर्ष प्रिंसिपल को उसका कहा हुआ एक ऐसा वाक्य पकड़ में नहीं आया था जिससे यह सिद्ध होता कि उसने मैनेजिंग कमेटी का भी विरोध किया है और उसकी नौकरी जाते-जाते रह गई थी। मगर आज उसी जयप्रकाश को क्या हो गया है जो इतने खुले - खुले शब्दों में कृषि-योजना का विरोध कर रहा है।

.... कृषि - योजना का विरोध यानी कमेटी का विरोध !... रामाधीन श्रीवास्तव भी मन में यही सोच रहे थे। शायद जयप्रकाश पिछले साल की चेतावनी भूल गया है... या उसकी कहीं और नौकरी पक्की हो गई है।

जयप्रकाश ने बात ख़त्म करके समर्थन के लिए अपने साथियों पर दृष्टि डाली। राजेश्वर और पाठक अपनी-अपनी कुर्सियों से आगे झुक आए थे। मगर उसने गुप्ताजी की ओर देखा तो वह उससे आँखें चुराने की कोशिश करने लगे। श्रीवास्तवजी ने पीठ कुर्सी से टिका ली और भावशून्य आँखों से छत की ओर देखने लगे। रस्तोगी ने इधर-उधर ताकते हुए ज़ाहिर किया जैसे उसने जयप्रकाश की बात ही न सुनी हो ।

जयप्रकाश का चेहरा आवेश के कारण लाल हो गया था और रह-रहकर उसकी उँगलियाँ फड़क उठती थीं। मगर साथियों की ऐसी प्रतिक्रिया देखकर उसका उबाल भी ठंडा हो गया। और एक बार फिर चन्द मिनटों के लिए ख़ामोशी छा गई।

दूध के उफ़ान की तरह बार-बार बातों का सिलसिला बनता और टूट जाता। अध्यापकों के चेहरों पर अचानक किसी रोशनी का दीया टिमटिमाता और प्रकाश देने से पहले ही बुझ जाता । घुटी घुटी - सी आवाज़ें, कुछ बोलने को आतुर अकुलाते हुए-से मौन अक्षर और अपठनीय लिपि से अंकित अध्यापकों के बेजुबान चेहरे, इन सब बातों पर राजेश्वर ने जितना ध्यान दिया उतना ही वह उलझता गया ।

पाठक को भी जयप्रकाश की इतनी दिलचस्प बात पर अध्यापकों का मौन रहना अख़र गया। ऐसे शान्त प्रकृति के पोंगे अध्यापक उसने कहीं नहीं देखे थे । अतः स्वर में भरसक कोमलता लाते हुए जयप्रकाश से पूछ ही बैठा, “क्यों मास्टर साहब, यह कृषि योजना क्या बला है ?” और मन-ही-मन यही प्रश्न राजेश्वर ने भी दोहरा दिया।

जयप्रकाश को इस प्रश्न से बड़ी राहत मिली। यद्यपि कुछ ही मिनट पहले वे सकपकाकर चुप हो गया था, किन्तु भीतर-ही-भीतर निस्तब्धता उसे चुभ रही थी। गो कि प्रश्न अच्छा नहीं था, फिर भी उसने उसका उपयोग परिस्थिति को सँभालने में किया । हँसकर बोला, “धीरे-धीरे सब कुछ मालूम हो जाएगा, मास्टर साहब ! आज तो आपने ज्वाइन ही किया है।" और फिर वह ऐसी लापरवाह हँसी हँस दिया, जैसे एक मामूली-सी बात को खामखाह बहुत महत्त्व दे दिया गया हो। और अब यह खामोशी घट जानी चाहिए ।

शायद जयप्रकाश के करुणार्द्र मुख या शायद वातावरण पर दया करते हुए रामप्रकाश गुप्ता और रामाधीन श्रीवास्तव थोड़ा-सा मुस्करा दिए। रस्तोगी ने भी आँखें मिचमिचाईं । राजेश्वर को आशा बँधी कि अब वातावरण हल्का हो रहा है । पाठक को भी तनाव टूटता हुआ दिखाई दिया । किन्तु जयप्रकाश के स्वर की कड़वाहट को लोग अभी तक पूरी तरह पचा नहीं पाए थे। सबके मन में भय था कि उन्होंने मैनेजमेंट की कृषि - योजना- विरोधी चर्चा में भाग लिया है और सब तुरन्त कुछ ऐसा कर देना चाहते थे कि यह सिद्ध न हो सके ।

फलस्वरूप दो-चार मिनट तक उखड़ी - उखड़ी बातें करने के बाद, अपने बेक़सूर होने का सबूत देते हुए, सबसे पहले गुप्ताजी और फिर रस्तोगी वहाँ से खिसक लिए। फिर नागरिकशास्त्र के लेक्चरर रामाधीन श्रीवास्तव, पाठकों को लाइब्रेरी दिखाने के बहाने उठा ले गए। और टीचर्स - रूम में रह गए केवल दो आदमी। एक जयप्रकाश जो यह सोच रहा था कि क्या नए अध्यापकों की उपस्थिति में मुझे यह बात नहीं कहनी चाहिए थी और दूसरा राजेश्वर ठाकुर जिसके मन में कृषि-योजना को लेकर तीव्र उत्सुकता जग गई थी।

उसी समय बराबर के कमरे से पवन बाबू किसी लड़के को फ़ार्म भरने की विधि बतलाते हुए ज़ोर से चीख़ पड़े, “किस उल्लू के पट्ठे ने तुम्हें मिडिल का सर्टीफिकेट दे दिया। तुम एक शब्द तो ठीक लिख नहीं सकते ।”

जयप्रकाश का ध्यान उधर चला गया। सोचने लगा, अब ऐनक उतारकर पवन उस लड़के को उल्लू जैसी आँखों से घूर रहा होगा। और यह सोचकर उसे हँसी आने लगी। मगर राजेश्वर का ध्यान वहीं था। जयप्रकाश के होंठों पर मुस्कान आते देखकर वह फिर पूछ बैठा, “बताइए न मास्टर साहब, क्या है यह कृषि योजना ?”

“कृषि-योजना ?” अनायास तन्द्रा से चौंकते हुए जयप्रकाश ने उसी की बात दोहरा दी। फिर एक आत्मीय - सी मुस्कुराहट अधरों पर लाते हुए बोला, “आप कहाँ के रहनेवाले हैं ?"

“मावले का।" राजेश्वर ने उत्तर दिया। सोचा, शायद इस प्रश्न का उत्तर से कोई सम्बन्ध हो ।

किन्तु जयप्रकाश ने यह प्रश्न केवल यह निश्चय करने के लिए किया था कि वह राजेश्वर को इस बारे में कितना बताए या न बताए । मावले का नाम सुनकर वह चौंक पड़ा, “तो आप गाँव के रहनेवाले हैं ?”

“जी हाँ ।" राजेश्वर ने कहा। फिर मुस्कराकर सम्बन्धों की निकटता बढ़ाने की गर्ज़ से बोला,

“कोई गुनाह तो नहीं है गाँव का होना ?"

“गुनाह है साहब, बिलकुल गुनाह है।” जयप्रकाश ने तेजी से उसकी बात पलटते हुए कहा, "हर जगह की अपनी खूबियाँ होती हैं। कई जगहें ऐसी होती हैं जहाँ पान थूकना या सिगरेट-बीड़ी पीना गुनाह होता है और कई जगहें ऐसी होती हैं जहाँ बोलना चालना और हँसना- रोना भी गुनाह होता है । और आप देखेंगे कि ऐसी जगहें भी हैं जहाँ जीना भी गुनाह है। और लोग ये गुनाह कर रहे हैं क्योंकि उनके पास करने के लिए इससे ज़्यादा ठोस और इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण और कोई काम नहीं है ।"

राजेश्वर को उसका बात करने का नाटकीय अन्दाज़ बड़ा प्यारा लगा। पर उसने साथ ही यह भी महसूस किया कि यह विषयान्तर हो रहा है। अतः पुनः प्रश्न पर लौटते हुए बोला, “आपकी बात सही है। मगर आप मुझे कृषि योजना के बारे में बता रहे थे ।”

“मैं तो नहीं बता रहा था।” मुस्कराकर जयप्रकाश ने कहा, “अलबत्ता आपने सवाल जरूर किया था । "

“ चलिए, यही सही ।" राजेश्वर हँसकर बोला।

" आप कृषि - योजना के बारे में जानना चाहते हैं ?" "जी हाँ !” राजेश्वर ने पूरी उत्सुकता से कहा ।

" और आप गाँव के रहनेवाले हैं ?”

“हूँ तो ।”

"क्या आपने सानियों को ज़मीदारों की बेगार के लिए कभी कुइयाँ खोदते हुए देखा है ?" जयप्रकाश ने उसी तरह की मुस्कुराहट होंठों पर लिए हुए पूछा । “हाँ, देखा है।” राजेश्वर ने तपाक से उत्तर दिया। हालाँकि उसने गाँव में कुइयाँ नहीं, कुएँ की ही खुदाई देखी थी ।

जयप्रकाश ने अपनी बात को और स्पष्ट किया, बोला, “देखिए कुइयाँ और में बड़ा फ़र्क होता है। कुएँ, पैसे देकर, जनता द्वारा मज़दूरों से खुदवाए जाते हैं और कुइयाँ, भूड़ के ज़मींदार, परोपकार का हवाला देकर सानियों से फोकट में खुदवा लेते हैं। ये कुइयाँ साल दो साल बाद रेत के तूफ़ान में अँटकर बेकार हो जाती हैं। परोपकार का लाभ ज़मींदार को मिलता है जिन्हें पानी पीनेवाले मुसाफ़िर दुआएँ देते हैं और सानियों का श्रम पानी में मिल जाता है । "

" मगर कृषि योजना... ?"

“कृषि योजना भी एक कुइयाँ है जिसे उत्तमचन्द गाँव के विद्यार्थियों द्वारा इस आशा में खुदवा रहे हैं कि उन्हें प्रिंसिपल होने का लाभ मिलेगा मगर कुइयाँ खुदवाने का लाभ स्थायी कहाँ होता है ! देखिए न, उत्तमचन्द जी भी अस्थायी प्रिंसिपल हैं।” और इस उपमा पर वह इतनी ज़ोर से हँस दिया कि राजेश्वर की भी हँसी फूटे बिना न रह सकी।

हालाँकि जयप्रकाश ने राजेश्वर को हँसकर टाल दिया और कृषि - योजना के बारे में साफ़-साफ़ कुछ भी नहीं बताया, फिर भी वह इतना समझ गया कि कृषि-योजना में गाँव के विद्यार्थियों का श्रम और समय लगाकर उत्तमचन्द मैनेजमेंट पर अपनी कार्य-निष्ठा का प्रभाव डालना चाहता है। मगर उसका कौतूहल इतने से ही शान्त नहीं हुआ ।

अतः सब कुछ समझ जाने का भाव मुख पर लाते हुए उसने योजना कॉलेज के इन्हीं खेतों में चलती होगी ?"

जयप्रकाश ने गर्दन हिलाकर स्वीकार किया ।

पूछा, “कृषि राजेश्वर ने कुछ सोचते हुए कहा, “और गाँवों के लड़कों के खून-पसीने की कमाई मैनेजमेंट के बनिए हड़प जाते होंगे ?"

जयप्रकाश ने फिर गर्दन हिला दी।

यद्यपि राजेश्वर गाँव का रहनेवाला था और कृषि - योजना पर उसकी प्रतिक्रिया बड़ी अनुकूल थी, फिर भी जयप्रकाश के मन में आशंकाएँ उठ रही थीं। क्या जाने मैनेजमेंट के किस मेम्बर से उसके कैसे सम्बन्ध हों ? इसलिए वह उसकी बातों का जवाब सिर्फ़ गर्दन हिलाकर दे रहा था ।

राजेश्वर की कनपटियों की नसें उभरने लगीं और उसके चेहरे पर आक्रोशपूर्ण तनाव बढ़ता गया । मुँह का थूक सटकते हुए बड़ी घृणा से उसने कहा, उत्तमचन्द पूरा हरामी है, यह बात मैं इंटरव्यू के दिन ही समझ गया था। मगर मास्टर साहब, मैं आपसे बताए देता हूँ कि ये मैनेजमेंट के लोग इसके भी बाप हैं। क्या वे नहीं जानते थे कि इस कृषि-योजना द्वारा गाँव के लड़कों की ज़िन्दगियाँ बरबाद की जा रही हैं ?” और फिर एक लम्बी साँस छोड़ते हुए राजेश्वर बोला, “मुझे आश्चर्य है कि गाँव के होकर भी आपने ऐसी बातें कैसे बरदाश्त कर लीं ?"

बात राजेश्वर ने कुछ इस दर्द और अपनत्व से कही थी कि जयप्रकाश के सारे शरीर में झनझनी-सी दौड़ गई। जैसे विरोध और असन्तोष की दबी हुई बारूद में सहसा किसी ने चिंगारी लगा दी हो ।

भय तभी तक भय रहता है जब तक हम अपने-आपको अकेला और कमज़ोर महसूस करते हैं। विश्वासपूर्ण राजेश्वर की चुनौती ने जयप्रकाश को एक सहारा दिया । उसका मन हुआ कि वह फट पड़े, मगर भीतर का आक्रोश दबाकर ईमानदारी से बोला, “अकेला चना भाड़ नहीं भूँज सकता ठाकुर भाई, और मैं अपनों के होते हुए भी अकेला था। किसी ने कभी इतनी हिम्मत नहीं दिखाई कि मेरे स्वर को सहारा दे। मेरी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बनकर रह गई । "

राजेश्वर तैश में बोला, “मैं तो बरदाश्त नहीं करूँगा ऐसी बातें। मैं गाँव का रहनेवाला हूँ और गाँव के लड़कों का हित देखना मेरा पहला फर्ज़ है । "

जयप्रकाश ने राजेश्वर को बड़ी आभारपूर्ण दृष्टि से देखा । उसे राजेश्वर में वह अग्नि दिखाई दी जिसकी वह खुद में कमी पाता था। वह शिखा जो बढ़कर दूसरे को छू सकती है, विस्फोट बनकर फैल सकती हैं और हर जगह प्रज्वलित हो सकती है। वह इसी शिखा की तलाश में तो था । बोला, “इसी बात पर आज से तुम मेरे मित्र हुए। पुराने ज़माने में लोग नई मित्रता के उपलक्ष्य में पगड़ी बदला करते थे। हम अपने-अपने विचार बदलेंगे ।”

और इसके बाद दोनों ने अपना-अपना हृदय खोलकर एक-दूसरे के सामने रख दिया। राजेश्वर की मित्रता पर भाव-विभोर होते हुए जयप्रकाश ने कहा, “अब देखना ठाकुर, अब गाँववालों का शोषण नहीं हो सकता। अब उनकी उन्नति होगी।" फिर एक पल रुककर बातचीत की गम्भीरता को हल्का बनाने के लिए उसने कहा, “मैं तो मरते समय अपनी औलाद के नाम वसीयत कर जाऊँगा कि मेरी कोई भी सन्तान इस मास्टरी के धन्धे में न पड़े, और मास्टरी भी करे तो प्राइवेट स्कूल-कॉलेज में न करे, और प्राइवेट कॉलेजों में भी करे तो राजपुर के इस हिन्दू कॉलेज में न आए।”

राजेश्वर को हँसी आ गई। जयप्रकाश की नियुक्ति की कथा जानने के लिए उसने पूछा, “मगर तुम यहाँ कैसे आ गए ?"

“मैं ?” जयप्रकाश थोड़ा गम्भीर हो गया, बोला, “बस वैसे ही जैसे तुम आ गए। इन्हें एक असिस्टैंट टीचर की ज़रूरत थी और सौभाग्य से उस साल इनके किसी रिश्तेदार ने एप्लाई नहीं किया था !"

"ऐसा !” राजेश्वर ने विस्मय से कहा, “बड़ी आसानी से आ गए। मगर मैं ऐसे नहीं आया !”

“तो ?” जयप्रकाश ने प्रश्न किया ।

“मुझे तो इन्होंने इंटरव्यू कार्ड तक नहीं भेजा था। मगर पिताजी मेरे ज़रा दबंग किस्म के आदमी हैं । वह लाला हरीचन्द के भट्टे पर ईंटें लेने आए थे कुछ दिन पहले, और उनसे साफ़-साफ़ कह गए थे कि अगर लड़के को स्कूल में नहीं रखा तो हमारे आठों गाँवों का एक भी लड़का यहाँ पढ़ने नहीं आएगा । और यही बात उन्होंने गनेशीलाल के छोटे भाई से भी कही थी जो खँडसाल का व्यापार करता है; बल्कि उससे तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि अगर राजेश्वर नहीं लिया गया तो समझ लो, इस बार चाहे सारी राब सोन में बहा देनी पड़े मगर तुम्हें एक मटकी नहीं मिलेगी। और तुम जानो, बनिये की जात पहले अपना व्यापार देखती है, इसलिए बी. ए. में सप्लीमेंटरी होने के बावजूद इन्हें मुझे लेना पड़ा।"

जयप्रकाश उसकी नियुक्ति के पीछे किसी-न-किसी सिफ़ारिश की आशा तो ज़रूर करता था मगर इस तरह की घटना का उसे अनुमान भी न था; इसलिए बहुत हँसा । और उसने भी एक-दो अध्यापकों की नियुक्तियों की कहानियाँ राजेश्वर को सुनाईं।

शायद नियुक्तियों के पीछे निहित इन्हीं अन्तर्कथाओं को लक्ष्य करके राजेश्वर बोला, "मास्टर साहब ! ऐसे माहौल में क्या पढ़ाई होती होगी लड़कों की, और क्या अध्यापक पढ़ाते होंगे ?”

जयप्रकाश खुद यही सोच रहा था कि शिक्षा के नाम पर हम कैसे मज़ाक कर रहे हैं। कॉलेज के संस्थापकों का उद्देश्य शिक्षा न होकर संस्था के द्वारा निजी प्रभुत्व का विस्तार करना है। अतः राजेश्वर की बात का उसने कोई उत्तर न दिया ।

तभी राजेश्वर ने आग्रह किया, “मुझे इस कॉलेज के बारे में कुछ और बताओ न! तुम तो चुप हो गए। "

इस आग्रह पर जयप्रकाश कुछ तय नहीं कर पाया कि वह क्या बताए । गाँवों के छात्रों के साथ परायों- जैसा व्यवहार । अध्यापकों की तनख़्वाहों में से कारण- अकारण कटौती। कुछ अध्यापकों को सौ रुपए देकर एक सौ बीस पर दस्तख़त कराना। कॉलेज के दिन-प्रतिदिन के कार्यों में मैनेजमेंट का हस्तक्षेप । हर साल नए अध्यापकों की नियुक्ति का अवसर प्राप्त करने के लिए पुराने अध्यापकों को निकाल बाहर करने की तिकड़में। कॉलेज के नाम पर इकट्ठे किए चन्दे की मोटी-मोटी रकमें हड़प कर जाना, या कृषि योजना का सुनहरा फरेब ? ये इतनी सारी बातें नक्शे की तरह उसके मानस पटल पर खुली पड़ी हैं। वह क्या बताए, क्या न बताए ?

राजेश्वर ने फिर आग्रह किया तो उसने वस्तुस्थिति की संक्षिप्त-सी रूपरेखा जाते हुए भारी दिल से कहा, “क्या बताऊँ ? यह शिक्षण संस्था नहीं है ठाकुर, कंसेंट्रेशन कैम्प है। यहाँ के हालात में कोई आदमी ज़हर खा सकता है, नौकरी नहीं कर सकता। मगर ठाकुर, जिस तरह मज़बूरी आदमी को मरने के लिए विवश करती है, उसी तरह कभी-कभी जीने के लिए भी बाध्य कर देती है । "

और जयप्रकाश के सामने फिर अपने गाँव के वे खेत घूम गए जिन्हें मालिनी नदी ने बरबाद कर रेत से भर दिया था और उसकी अनेक अर्जियों के बावजूद जिनका पूरा लगान उससे अब तक लिया जाता था। गाँव में, खेती से, साल भर खाने योग्य अन्न पाने का जो एकमात्र साधन था वह भी नष्ट हो चुका था। सारी ज़िम्मेदारी अब अकेले जयप्रकाश पर थी। बोला, “अगर मेरे ऊपर मेरे और मेरे स्वर्गीय भाई के पाँच बच्चों का दायित्व न होता तो मेरी सहनशीलता इस तरह हमेशा मेरे जवान खून का टेम्प्रेचर ऊपर चढ़ने से न रोक लेती।” जयप्रकाश बोलता जा रहा था और राजेश्वर को लग रहा था कि जैसे एक-एक शब्द में वह अपना कलेजा निकालकर रखे दे रहा है। गाँवों के विद्यार्थियों के फेल होने पर राजेश्वर भी दुखी था और उसे कृषि योजना की रचना एक छलावा प्रतीत हो रही थी, मगर जयप्रकाश के हाव-भाव और आवेशसहित बात करने के अन्दाज़ ने उसमें और ज़्यादा गर्मी पैदा कर दी थी। उसे लगा कि तुरन्त इसके लिए कुछ करना चाहिए, कुछ ऐसा कि जयप्रकाश को शान्ति मिले और उसका दिल हल्का हो। बोला, “क्या इस कृषि - योजना को बन्द नहीं कराया जा सकता ?"

यह जयप्रकाश का मर्मस्थल था जहाँ राजेश्वर ने उँगली रख दी। सबसे ताज़ा और रिसता हुआ ज़ख्म । इसी कृषि-योजना के द्वारा तो उसकी भावनाओं का गला घोंटा गया था। उसके कानों में आतंक का शोर हँसकर ज़बान पर आदेशों के ताले जड़ दिए गए थे, ताकि वह गाँव के भोले और नासमझ विद्यार्थियों के शोषण के विरुद्ध कुछ न बोल सके। मगर अहसास के रास्ते खुले थे, कुछ सोचते हुए वह बोला, “ मुश्किल तो कुछ नहीं, मगर ख़तरनाक है। मैं भुगत चुका हूँ।”

“ ख़तरनाक कुछ नहीं, तुम कहो तो मेरे गाँव के दो-तीन लड़के यहाँ हैं, उनसे बात करूँ कि ये क्या खेती-वेती का चक्कर लगा रखा है तुम लोगों ने ?” राजेश्वर ने लापरवाही से पूर्ण निश्चयात्मक स्वर में कहा ।

जयप्रकाश उठ खड़ा हुआ था मगर राजेश्वर का प्रस्ताव सुनकर फिर बैठ गया। बोला, “सोचकर बताऊँगा।”

उसकी उँगली सिर को खुजाने लगी थी और होंठों पर हमेशा पड़ी रहनेवाली मुस्कान ग़ायब हो चुकी थी। राजेश्वर और उसके इस प्रस्ताव के बारे में सोचते हुए उसे लगा कि इस आदमी में शक्ति और हौसला तो है पर सन्तुलन और दूरदर्शिता का अभाव है। एक क्षण को उसने सोचा कि क्यों न इस आदमी को सीधा उत्तमचन्द के मुक़ाबले पर खड़ा कर दूँ, पर दूसरे ही क्षण महसूस किया कि दोस्त बनाकर ऐसा विश्वासघात करना उचित नहीं होगा ।

किन्तु राजेश्वर पर उतावली सवार थी। वह चटपट कुछ कर डालना चाहता था। अतः बोला, “कुछ सोचा ?"

जयप्रकाश ने कहा, “देखो, ऐसे मामलों में मेरा सिद्धान्त है कि आवेश में सोची हुई हर बात को 'पेंडिंग' में डाल देना चाहिए। और तब तक उस पर नहीं सोचना चाहिए जब तक कि आवेश बिल्कुल शान्त न हो जाए । यह गुण मैंने उत्तमचन्द से सीखा है।” और कुछ रुककर, कहीं राजेश्वर हतोत्साह न हो जाए, इसलिए उसने फिर कहा, “पहले तुम विद्यार्थियों के नाम बताओ, जिनसे इस बारे में बात करोगे । भई, स्थिति यह है कि यहाँ अध्यापक ही नहीं, कुछ विद्यार्थी भी मैनेजमेंट के लिए जासूसी करते हैं । इसलिए बहुत सोच-समझकर क़दम उठाने की ज़रूरत है।"

राजेश्वर जयप्रकाश की बात से आश्वस्त हुआ । और फिर अपने गाँव के विद्यार्थियों के नाम बताने लगा, “गुलशेरसिंह, उम्मेदसिंह, सज्जन और रामपूजन...”

“रामपूजन ?” जयप्रकाश एकदम चौंककर बोला, “तुम्हारे गाँव का है यह लड़का ?"

और फिर बिना उत्तर लिए ही कहने लगा, “मेरा ख़ास स्टूडेंट था यह लड़का। इसके फेल होने का मुझे जितना अफसोस हुआ है, उतना खुद उसे भी नहीं होगा। खेल-कूद में वह अव्वल, फुटबाल का वह कैप्टेन और पढ़ने-लिखने और सांस्कृतिक गतिविधियों में वह सबसे आगे। मगर वाह रे उत्तमचन्द ! कृषि - योजना के श्रम सेवकों का संयोजक बनाकर तूने उसका भी साल बरबाद कर दिया !”

राजेश्वर ने कहा, “मेरे गाँव का ही नहीं, बल्कि खानदानी रिश्ते में मेरा भतीजा लगता है रामपूजन ।”

“बस, तो ठीक है।” जयप्रकाश ने खड़े होते हुए कहा, “सारे लड़कों से कहने की ज़रूरत नहीं, उसी से कह देना काफ़ी होगा। आओ ।"

और बातें करते हुए दोनों एक-एक कप चाय पीने के लिए गूँगे हलवाई की दुकान की तरफ़ चल दिए। तभी रास्ते में राजेश्वर को सत्यव्रत का ध्यान आ गया। बोला, “गाँव का एक साथी और भी तो आया है।”

इसलिए उसने फिर कहा, “पहले तुम विद्यार्थियों के नाम बताओ, जिनसे इस बारे में बात करोगे । भई, स्थिति यह है कि यहाँ अध्यापक ही नहीं, कुछ विद्यार्थी भी मैनेजमेंट के लिए जासूसी करते हैं । इसलिए बहुत सोच-समझकर क़दम उठाने की ज़रूरत है।"

राजेश्वर जयप्रकाश की बात से आश्वस्त हुआ । और फिर अपने गाँव के विद्यार्थियों के नाम बताने लगा, “गुलशेरसिंह, उम्मेदसिंह, सज्जन और रामपूजन...”

“रामपूजन ?” जयप्रकाश एकदम चौंककर बोला, “तुम्हारे गाँव का है यह लड़का ?"

और फिर बिना उत्तर लिए ही कहने लगा, “मेरा ख़ास स्टूडेंट था यह लड़का। इसके फेल होने का मुझे जितना अफसोस हुआ है, उतना खुद उसे भी नहीं होगा। खेल-कूद में वह अव्वल, फुटबाल का वह कैप्टेन और पढ़ने-लिखने और सांस्कृतिक गतिविधियों में वह सबसे आगे। मगर वाह रे उत्तमचन्द ! कृषि - योजना के श्रम सेवकों का संयोजक बनाकर तूने उसका भी साल बरबाद कर दिया !”

राजेश्वर ने कहा, “मेरे गाँव का ही नहीं, बल्कि खानदानी रिश्ते में मेरा भतीजा लगता है रामपूजन ।”

“बस, तो ठीक है।” जयप्रकाश ने खड़े होते हुए कहा, “सारे लड़कों से कहने की ज़रूरत नहीं, उसी से कह देना काफ़ी होगा। आओ ।"

और बातें करते हुए दोनों एक-एक कप चाय पीने के लिए गूँगे हलवाई की दुकान की तरफ़ चल दिए। तभी रास्ते में राजेश्वर को सत्यव्रत का ध्यान आ गया। बोला, “गाँव का एक साथी और भी तो आया है।”

“मैं मिल चुका हूँ।” जयप्रकाश ने निर्लिप्त भाव से कहा और अपने में खोए हुए जेब से एक बीड़ी निकालकर सुलगा ली। नींबू के नीचे पड़ी खाट पर बैठकर उसने एक लड़के को दो कप चाय लाने के लिए भेजा। राजेश्वर ने जेब से कैंची की सिगरेट निकालकर पेश की तो उसने हाथ जोड़ दिए। बोला, “क्यों मेरे मुँह का जायका ख़राब करते हो, अभी तो चाय पीनी है !"

  • छोटे-छोटे सवाल (उपन्यास) : (अध्याय 1-7)
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