भाई को सीख (कहानी) : गोनू झा
Bhai Ko Seekh (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha
“देख भोनू ! मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ । तुम्हारा भला ही सोचूँगा। यह घर हमारा है हम लोगों का है । घर की बात घर में रहने दे।... तुम्हें हो क्या गया है ? तुम तो बचपन से ही मेरे लाड़- प्यार में रहे हो ! भला बताओ, मैं तुमसे अलग कैसे हो जाऊँ ; या तुमको अलग कैसे हो जाने दूँ? ... ईश्वर ने ही हमें एक घर में रहने के लिए भेजा है। ऐसा न होता तो बताओ हम एक घर में क्यों पैदा हुए होते ? यदि हम अलग -अलग रहने की सोचें, घर को बाँटने की सोचें, तो यह ईश्वरीय इच्छा का अनादर करना होगा न ? इतनी- सी बात भी नहीं समझ सकते कि आपस में लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए ? और मान लो कि किसी बात के लिए रंजिश भी हो गई तो हम आपस में अपनी समस्याएँ मिल-बैठकर सुलझा सकते हैं ! इसके लिए पड़ोसियों और पंचों को न्योतने की बात तो होनी ही नहीं चाहिए!"
गोनू झा अपने छोटे भाई, भोनू झा को समझा रहे थे। शाम का समय था । हवा मंथर गति से बह रही थी । गर्मी का मौसम होने के कारण उमस थी । गोनू झा अभी-अभी दरबार से लौटे थे। पसीने से तरबतर थे। दरबार से लौटते समय उन्होंने सोचा था कि घर पहुँचते ही वे भोनू झा को बोलेंगे कि कुएँ से चार डोल पानी खींच दो कि जी भर नहा लूँ । दरबार में आज इतने पेचीदे मसलों पर चर्चा हुई थी कि दिन भर वे उसमें ही उलझे रह गए थे। गर्मी और उमस के कारण बेचैनी थी । दिन भर तनावपूर्ण कार्यों को निपटाने में लगे रहने के कारण उनका सिर फटा जा रहा था । घर में कुछ दिनों से और कोई नहीं था, सिर्फ गोनू झा और भोनू झा ही थे।
अभी गोनू झा अपने घर की ओर मुड़े ही थे कि दरवाजे पर ही भोनू झा दिख गए। उन्होंने दूर से ही कहा, “अरे भोनू ! भाई, जरा कुएँ पर चल । चार डोल पानी खींच दे। बहुत थक गया हूँ। नहा लूँ तो शायद कुछ ठीक लगे।"
गोनू झा सहज-भ्रातृत्व के स्नेह से भरे हुए थे और प्रायः यूँ ही किसी काम के लिए भोनू झा को कह दिया करते थे और भोनू झा भी गोनू झा के स्नेह का आदर करते हुए बेहिचक उनका काम कर दिया करता था । लेकिन उस शाम भोनू झा क्रोध से भरा था ... जैसे ही उसने गोनू झा की बात सुनी वैसे ही उत्तेजित होकर गोनू झा को जवाब दिया-“थक गए हैं तो मैं क्या करूँ ? भगवान ने हाथ- पैर दिया है... हट्टे-कट्टे हो, चार डोल पानी नहीं खींच सकते ? और नहीं खींच सकते तो रख लो कोई टलहवा... पैसे की तो कमी नहीं है। महाराज के दरबार में इनामों की बरसात ही होती रहती है आप पर ! टहल -टिकोला करने के लिए आदमी तो रख ही सकते हैं आप !..."
गोनू झा को जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ । वे जहाँ थे वहीं थम से गए। भोनू झा ने कभी उनसे खुलकर बात नहीं की थी और आज वही भोनू झा उन पर व्यंग्य बाणों की बौछार कर रहा था । वे भोनू झा की आवाज में उभरी तल्खी से आहत हो उठे । लेकिन उन्होंने अपने को संयत रखा और धीरे-धीरे चलते हुए वे भोनू झा के पास आए और उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा-“अरे भोनू ... क्या हो गया है तुझे ? भैया से ऐसे बात कर रहे हो ... ?”
मगर उनके स्नेहिल शब्दों का असर भोनू झा पर नहीं हुआ । अपना कंधा झटकाकर उसने गोनू झा के हाथ को वहाँ से हटाया और बोला -" रहने दीजिए ... भैया -तइया ! यही सब कहकर आप मुझे नौकरों जैसा खटाते हैं ... अब मैं आपके साथ नहीं रहूँगा ।"
गोनू झा की इच्छा हुई कि वे अपने भाई को एक चाँटा जड़ दें लेकिन उसके आवेश को देखते हुए वे शान्त रहे । गोनू झा ने यह भी महसूस किया कि भोनू झा की आँखों में लाल डोरे पड़े हुए हैं और उसकी आँखें चढ़ी हुई हैं । इसका मतलब उन्हें साफ समझ में आया कि भोनू झा नशे में है । गोनू झा ने सोचा कि अभी भोनू झा से बातें करना उचित नहीं है। नशे में आदमी कई बार उचित-अनुचित का खयाल नहीं रख पाता है। इस खयाल से ही उन्होंने भोनू झा से कहा-“ठीक है भोनू ! तू जा, खा-पी के सो जा । मैं खुद ही कुएँ से पानी निकालकर नहा लूँगा!"
उनका इतना कहना था कि भोनू झा फिर तड़क गया और बोला-“मैं खाऊँ न खाऊँ, सोऊँ या कुछ और करूँ, आपको इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए । महाराज के दरबार में ही आपकी ये बातें असर दिखाएँगी। मुझ पर नहीं ! मैं अब आपकी चिकनी-चुपड़ी बातों में नहीं आनेवाला ।”
गोनू झा से भोनू की यह धृष्टता सही नहीं गई और उन्होंने उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया । इस तमाचे ने आग में घी का काम किया ।... और भोनू तैश में आकर चीख पड़ा-“आपने मुझे चाँटा मारा! इस चाँटे को मैं हमेशा याद रखूँगा । अब देखिए, इस घर में क्या होता है ।"
गोनू झा ने उसकी बातें अनसुनी कर देने में ही भलाई समझी। वे अपने कमरे में चले गए । भोनू की बातों से गोनू झा आहत थे। उन्होंने न तो स्नान किया और न ही कुछ खाया । देर रात तक गुमसुम से अपने बिस्तर पर पड़े रहे । रह-रहकर उनके कलेजे से हूक-सी उठती रही। वे अपने छोटे भाई भोनू को बहुत प्यार करते थे। वे चाहते थे कि भोनू झा पढ़ लिखकर कुछ अच्छा करे, मगर भोनू झा को गाँव में अपनी चौकड़ी के साथ मटरगश्ती करने में ही आनन्द आता था ...। गोनू झा बिस्तर पर पड़े- पड़े सोचते रहे कि इन दिनों भोनू में जो बदलाव आया है वह घर के लिए और खुद भोनू झा के लिए ठीक नहीं है। उनके मन में सवाल उठ रहा था कि आखिर भोनू झा उनसे मुँह लगने की और उनको चेतावनी देने की हिमाकत कैसे कर बैठा ? ... जब उनके दिमाग में यह बात कौंधी कि भोनू झा नशे में था तब वे और भी बेचैन हो गए ... उन्हें इस बात पर भी आश्चर्य हो रहा था कि आखिर भोनू झा नशे में उनके सामने आने की हिम्मत कैसे कर बैठा?...इसके बाद गोनू झा ने फिर सोचा-भले ही भोनू झा पढ़ने -लिखने में मन नहीं लगा पाया और इधर-उधर मटरगश्ती करने में लगा रहा...मगर वह दिल का बुरा नहीं है । गाँव में ऐसे भी कौन पढ़ने-लिखने में लगा रहना चाहता है ? जिसके पास खेत-पथार, गाय-बैल है वह उसके बूते ही जी लेने का विचार रखता है ।... इसी तरह के गुन-धुन में गोनू झा देर तक लगे रहे । अचानक उनके दिमाग में एक बात कौंधी कि जरूर किसी ने भोनू झा को उनके विरुद्ध भड़काया है । मन में यह विचार उठते ही गोनू झा बिस्तर पर ही पालथी मारके बैठ गए । वे अब सामान्य दिख रहे थे। भोनू झा के विरुद्ध उनके मन का आक्रोश समाप्त हो गया । वे चैतन्य होकर सोचने लगे कि यदि भोनू झा को किसी ने भड़काया है तो वह आदमी कौन हो सकता है ? दिमाग में यह सवाल पैदा होते ही गोनू झा याद करने लगे कि भोनू झा इन दिनों किन लोगों के साथ घूमता -फिरता है और किसकी संगति में ज्यादा रहता है । उनके दिमाग में भोनू झा के मित्रों की छवि कौंधने लगी । मुनेसर, गोनौरा, परमेसर, रूपलाल-वे बारी -बारी से भोनू झा के मित्रों को याद करने लगे ।
रूपलाल की याद आते ही उनके दिमाग में मानो एक धमाका हुआ । गोनू झा को लगा कि भोनू झा को भड़काने में रूपलाल का हाथ हो सकता है। रूपलाल गोनू झा के बचपन का साथी था । जब तक गोनू झा की नियुक्ति राजदरबार में नहीं हुई थी तब तक गोनू झा उसके साथ अपना खाली समय बिताते थे। खूब अड्डेबाजी होती । रूपलाल के साथ गोनू झा हिलना-मिलना राजदरबार में नियुक्ति के बाद से कम होता गया ।
महाराज के चहेते दरबारी होने के कारण गोनू झा के जिम्मे बहुत से ऐसे काम रहते थे जिसके बारे में महाराज को आशंका रहती थी कि यदि किसी दूसरे को वह काम सौंपा गया तो गोपनीयता बरकरार नहीं रहेगी या रहेगी भी तो काम दुरुस्त नहीं होगा । महाराज के चहेते होने के कारण गोनू झा का रुतबा बढ़ गया था । प्रायः कहीं न कहीं से, कोई न कोई गोनू झा से किसी तरह का परामर्श लेने उनके घर आता ही रहता था । रूपलाल चूंकि उनका पड़ोसी था इसलिए वह यह सब कुछ देखता रहता था ।
रूपलाल को महाराज के दरबार में किसी कारणवश आना पड़ा। उस दिन महाराज के पास दूसरे राज्य से कुछ मेहमान आए हुए थे जिसके कारण महाराज ने गोनू झा को अपने साथ ही रहने का आदेश दे रखा था । जब रूपलाल दरबार पहुँचा तो गोनू झा से मिलने की इच्छा व्यक्त की । उसका संदेश गोनू झा तक पहुँचा और गोनू झा ने अपनी व्यस्तता के बावजूद महाराज से समय लेकर रूपलाल से मुलाकात की । हाल-चाल पूछा और दरबार में आने का कारण पूछा । रूपलाल जिस काम से वहाँ आया था उसकी जानकारी लेकर गोनू झा ने रूपलाल को उस काम से सम्बन्धित कर्मचारी से मिला दिया । गोनू झा ने उस कर्मचारी को यह भी बता दिया कि रूपलाल उसके बाल सखा हैं । उनके काम में विलम्ब नहीं होना चाहिए! इसके तुरन्त बाद गोनू झा ने रूपलाल से अपनी विवशता बताते हुए विदा ले ली और महाराज के पास चले गए ।
रूपलाल को उम्मीद थी कि बाल सखा होने के कारण गोनू झा उसके साथ दरबार में उसका काम हो जाने तक जरूर रहेंगे। जब गोनू झा वहाँ से आनन-फानन में चले गए तब रूपलाल को यह बात बुरी लगी । दरबार में रूपलाल का काम तो होना ही था क्योंकि कर्मचारी के लिए इतना ही काफी था कि गोनू झा ने खुद उसके पास आकर वह काम यथाशीघ्र कर देने की सिफारिश की थी । अपना काम कराकर रूपलाल जब गाँव वापस आया तब उसने अपने मित्रों से यह कहना शुरू कर दिया कि गोनू झा को घमंड हो गया है । राजदरबार में अपने वाक्चार्तुय से उसने महाराज का मन क्या फेर लिया कि बचपन के मित्रों को भी वह हिकारत की दृष्टि से देखता है । गाँव में कोई भी बात जंगल की आग की तरह फैलती है ।
अपने घमंडी होने की चर्चा गोनू झा तक भी पहुँची। गोनू झा को समझते देर नहीं लगी कि इस चर्चा के पीछे रूपलाल ही है। सच्चाई यह थी -गोनू झा की तरक्की और शाही रुतबे से उसके बचपन के मित्र जलने लगे थे। पड़ोसी होने के कारण रूपलाल गोनू झा के ऐश्वर्य में हो रही वृद्धि को बहुत करीब से देख रहा था । गोनू झा के प्रति उसकी ईर्ष्या का यह प्रमुख कारण था । इस चर्चा पर गोनू झा ने ध्यान नहीं दिया । उन्होंने सोचा कि जब कभी भी रूपलाल से मुलाकात होगी वे उसे समझा लेंगे।
एक दिन बाजार में, रूपलाल उन्हें दिखा भी लेकिन संयोग ऐसा था कि गोनू झा उस दिन भी हड़बड़ी में थे लेकिन जब उन्होंने रूपलाल को नमस्कार किया तो रूपलाल ने नमस्कार का जवाब देने की बजाय अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ दूसरी तरफ चला गया । गोनू झा ने समझा कि उनका मित्र उनसे रूठा हुआ है । वे मन ही मन मुस्कुराए और सोचा, रूपलाल अब तक वही किशोर मन वाला बना हुआ है । छोटी छोटी बात पर तुनक जाना और रूठ जाना तो उसके बचपन का स्वभाव रहा है... अब किसी दिन उसके घर जाना ही पड़ेगा ताकि उसके मन की भड़ास निकल जाए । मन में यदि कोई ग्रन्थि बनी रह जाए तो मित्रता के लिए ठीक नहीं होती । सम्बन्धों में दरार आने का महत्त्वपूर्ण कारण यही ग्रन्थियाँ हैं जो छोटी-मोटी गफलतों के कारण पैदा होती हैं । लेकिन गोनू झा की व्यस्तता बनी रही और वे रूपलाल के घर नहीं जा सके । इधर दो -तीन महीने में उन्होंने अपने भाई भोनू को रूपलाल के साथ कई बार देखा। उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया । उन्हें लगा कि गाँव के लखैरों के साथ मटरगश्ती करने से तो अच्छा है कि भोनू झा अब रूपलाल के साथ समय बिता रहा है । रूपलाल समझदार आदमी है । उनके बचपन का मित्र है । वह भोनू झा को कुछ अच्छी बातें ही सिखाएगा ...।
... अतीत और वर्तमान का विश्लेषण करते- करते गोनू झा को नींद आने लगी, तो वे लेट गए और सोचते -सोचते सो गए ।
सुबह में उनकी नींद दरवाजा खटखटाए जाने से खुली। दरवाजा खोला तो देखा कि ग्राम पंचायत का मुलाजिम दरवाजे पर खड़ा है ।
उन्होंने उससे पूछा -" क्या बात है मंगरुआ ?"
उसने जवाब दिया “आपके भाई भोनू झा ने पंचायत बुलाई है। आप तैयार होकर पंचायत के लिए रूपलाल जी के दरवाजे पर पहुँच जाइए।"
गोनू झा को जैसे झटका लगा कहाँ वे सोच रहे थे कि अपने भाई भोनू झा को समझा लेंगे और कहाँ वह पंचायत बुला रहा है! वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर विवाद क्या है ? भोनू पंचायत क्यों कराना चाहता है ? दोनों भाइयों के बीच कोई द्वंद्व तो है ही नहीं ! फिर उन्होंने सोचा-पंचायत की सूचना मिल गई है तो उन्हें जाना पड़ेगा ही । भींगे मन से गोनू झा ने स्नान-ध्यान किया और रूपलाल के घर पहुंचे।
घर के बाहर ही उन्हें भोनू झा दिख गए जो पंचायत में आनेवाले लोगों को नमस्कार कर उनकी आगवानी कर रहा था ।
गोनू झा के मन में अभी भी भोनू झा के प्रति कोई दुराव नहीं था । वे सोच रहे थे कि भोनू झा जो कुछ भी कर रहा है, वह नासमझी है- बचपना है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। वे भोनू झा के पास रुक गए और भोनू से कहा-“यह क्या तमाशा कर रहे हो भोनू ?"
... मगर भोनू के दिमाग पर मानो शैतान का वास हो गया था । वह बिगड़ैल साँढ़ की तरह फुफकारते हुए बोला-“आपको जो भी कहना है-पंचों के सामने कहिएगा । मुझसे लल्लो चप्पो करने की जरूरत नहीं ! मैं आपको अच्छी तरह समझ चुका हूँ । आप मुझे टलहवा बनाकर ही रखेंगे-ये लाओ... वो लाओ... ये कर दो ... वो कर दो ... ऐसा न करना और वैसा न करना-अब यह सब बंद ! मैं आपसे मुक्ति चाहता हूँ। मैं आपके साथ नहीं रहूँगा हर्गिज नहीं ! आज घर का बँटवारा होकर रहेगा...बहुत करा ली चाकरी आपने-भाई बनकर!"
गोनू झा के पास अब कोई चारा नहीं रहा तो वे रूपलाल के दरवाजे की ओर बढ़ते हुए बोले-“भोनू, घर की बात घर में सुलझे तो उत्तम । घर की बात बाहर आते ही घर की प्रतिष्ठा धूमिल हो जाती है ।"
भोनू झा ने उनकी बात अनसुनी कर दी और अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया । पंचायत की व्यवस्था रूपलाल के दरवाजे पर थी । सिर पर बड़ी-सी रेशमी पगड़ी बाँधे मूंछों पर ताव देते हुए रूपलाल ने गोनू झा को देखा और मुस्कुराते हुए बोला -” आइए पंडित जी ! विराजिए !"
लोगों को बैठने के लिए दरी-जाजिम बिछी हुई थी । गोनू झा स्थितिप्रज्ञ की मुद्रा में निःसंकोच एक किनारे बैठ गए । पंचायत में भोनू झा ने जिन लोगों को बुलाया था, उनमें से अधिकांश लोग गोनू झा के पुराने साथी थे और गोनू झा की ख्याति से ईर्ष्या करने लगे थे।
गोनू झा ने निश्चय कर लिया था कि भोनू झा को अब वे रोके-टोकेंगे नहीं और भोनू झा जो चाहेगा, वह होने देंगे। उन्हें विश्वास था कि एक दिन ऐसा अवसर जरूर आएगा जब भोनू को अहसास होगा कि उसने गलती की है। आखिर वह उनका छोटा भाई है गैर थोड़े ही है ? पंचायत शुरू हुई और पंचों के सामने भोनू झा ने एकसूत्री प्रस्ताव रखा – “मैं अपने बड़े भाई, गोनू झा के साथ नहीं रहना चाहता हूँ, इसलिए हमारे घर-जमीन और सभी चल अचल सम्पत्ति का बँटवारा हो जाना चाहिए।"
पंच बने रूपलाल ने गोनू झा की ओर देखते हुए कहा-“क्यों गोनू जी ! आपका क्या कहना है ?"
गोनू झा ने संक्षिप्त उत्तर दिया-“जैसा भोनू चाहे!"
घर के बँटवारे की जब बात उठी तब भी गोनू झा से पूछा गया “वे घर के किस हिस्से में रहना चाहेंगे?"
गोनू झा ने फिर संक्षिप्त उत्तर दिया -” भोनू जहाँ रहना चाहे, रहे और मेरे लिए जिधर जगह दे दे, मैं उधर रह लूँगा ।”
गोनू झा ने तय कर लिया था कि पंचायत में वे कुछ भी ऐसा नहीं होने देंगे जिससे दोनों भाइयों का विवाद बढ़े। भोनू झा की इच्छा अनुसार घर के सामने का हिस्सा उसे दिया गया । गोनू झा के हिस्से में घर के पीछे बना भंडार घर आया। सारे सामान बँट गए। बड़ा सन्दूक भोनू झा के हिस्से, घर की खानदानी तिजोरी भोनू झा के हिस्से । गोनू झा समझ रहे थे कि पंच बने रूपलाल द्वारा यह जो एकपक्षीय निर्णय हो रहा है, उसका सीधा उद्देश्य है कि गोनू झा उत्तेजित हों और भोनू से झगड़ पड़ें मगर गोनू झा अपने निर्णय पर अडिग रहे । अब उलझन घर के एकमात्र कम्बल और भैंस को लेकर पैदा हो रही थी । पंच बने रूपलाल ने कहा -" भाई, भैंस तो काटकर बाँटी नहीं जा सकती। गोनू झा अपने घर के ही नहीं, गाँव की भी पहचान बन गए हैं... और किसी की भी पहचान उसके चेहरे से होती है... इसलिए भैंस के सिर से पेट तक का हिस्सा गोनू झा के हिस्से । रही कम्बल की बात, तो गोनू झा बड़े भाई हैं । बड़ा भाई होने के कारण उनको मौका मिलना चाहिए । दिन में कम्बल गोनू झा के जिम्मे रहेगा और बाद में, रात को कम्बल भोनू झा के जिम्मे ।"
गोनू झा ने बिना किसी आपत्ति के सिर झुकाकर पंच का फैसला सुना और अपनी सहमति जताकर वहीं से दरबार चले गए ।
शाम को लौटे और भंडार घर में जाकर अपनी धोती ओढ़कर सो गए । कम्बल तो भोनू के हिस्से में था-रात को ! पहले दोनों भाई एक ही कम्बल में मजे से सोते थे ।
सुबह में बिस्तर छोड़ने के बाद गोनू झा ने भैंस को सानी -पानी दिया और भोनू झा दूध दुहने बैठा । अब यह रोज का क्रम था । भैंस को खिलाने का काम गोनू झा करते और दुहने और उपलों के लिए गोबर जमा करने का काम भोनू करता । लेकिन इसका मलाल गोनू झा को नहीं था । वे घर के बँटवारे को अपनी उपलब्धि समझ रहे थे ।
कुछ दिन ऐसे ही गुजर गए । गोनू झा ने एक दिन विचार किया कि अब यदि भोनू झा को सबक नहीं सिखाया गया तब भोनू झा को बहकने से रोकना असम्भव हो जाएगा । इस निर्णय के साथ वे भैंस को सानी-पानी देकर एक सोंटा हाथ में लेकर भैंस के पास खड़े हो गए। जैसे ही भोनू झा दूध दूहने के लिए बैठा वैसे ही गोनू झा ने भैंस के सिर पर दो चार सोंटे जड़ दिए-सटाक ...सटाक ... सटाक !
भैंस अपनी जगह से इधर-उधर हुई और भोनू झा के हाथ से बर्तन गिर गया । दूध जमीन पर गिर गया । शाम को भी गोनू झा ने कम्बल पानी में धो खंगालकर भोनू झा के लिए छोड़ दिया । अब वे ऐसा रोज करने लगे ।
गोनू झा सुबह- शाम भैंस के दूध से वंचित रहने लगा और गीले कम्बल के कारण रात को ठिठुरने लगा। भोनू झा का पारा फिर चढ़ने लगा । उसने फिर पंचायत बुलाने की ठान ली । उसने रूपलाल से मिलकर उसे अपनी व्यथा-कथा सुनाई और गोनू झा से खार खाये बैठा रूपलाल जैसे मनचाहा अवसर पा गया-गोनू झा को एक बार और नीचा दिखाने का अवसर!
आनन -फानन में गोनू झा को पंचायत की सूचना भेजी गई और पंचायत में शामिल होने का फरमान भेज दिया गया ।
गोनू झा पंचायत में हाजिर हुए । पंचों के सामने भोनू झा ने अपनी व्यथा -कथा दुहराई। पंचों ने एक स्वर में कहा कि गोनू झा अपने भाई भोनू झा को अप्रत्यक्ष रूप से प्रताड़ित कर रहे हैं और उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए।
गोनू झा तो पहले से तैयार बैठे थे, उन्होंने पंचों से कहा -"पिछली पंचायत में पंचों ने जो आदेश दिया वे उसका अक्षरशः पालन कर रहे हैं और उन पर कोई आरोप नहीं बनता । कम्बल के उपयोग का अधिकार उन्हें दिन में प्राप्त है तथा भैंस के शरीर का सिर से पेट तक का भाग उनके अधिकार में है । कम्बल उपयोग में लाए जाने के बाद गंदा होता ही है तो गंदे कम्बल को धोना उनका कर्तव्य है । अब उनके पास कम्बल धोने के लिए शाम को ही समय मिलता है तो शाम को ही कम्बल धोना उनकी विवशता है । इसमें भोनू को प्रताड़ित करने की मंशा नहीं । रही भैंस की बात तो पंचों के निर्देश के अनुसार भैंस के सिर से पेट तक की व्यवस्था वे करते हैं । भैंस को समय पर सानी- पानी लगाने का काम वे पंचायत के बाद से नियमित रूप से कर रहे हैं । रही भैंस को सोंटा मारने की बात तो उन्हें अपराधी तब ही कहा जाएगा जब वे भैंस के पीछे के हिस्से पर प्रहार करेंगे। भैंस को खिलाने और दुलारने का हक यदि उनको प्राप्त है तो भैंस को जरूरत पड़ने पर पीटने का हक भी उन्हें है। भला, गाँव का कौन ऐसा व्यक्ति है जो अपने मवेशियों को सोंटा नहीं मारता... ? अब भी यदि मेरी बात आप लोगों की समझ में नहीं आयी है तब आप सब लोग इस बात के लिए तैयार हो जाएँ कि इस पंचायत के निर्णय पर विवाद अब महाराज के दरबार में होगा और वहाँ से जो फैसला होगा वह मुझे भी मान्य होगा और आप लोगों के लिए भी मान्य होना ही है क्योंकि महाराज तो महाराज ही हैं ...” गोनू झा की बात सुनकर पंचायत में सन्नाटा छा गया । रूपलाल जैसे आसमान से गिरा और भोनू झा को तो मानो साँप सूंघ गया । गोनू झा पंचायत से उठकर चले आए । उनके पीछे-पीछे पंचायत में शामिल लोग भी उठ गए। उनमें से कुछ गोनू झा के पीछे-पीछे उनके घर तक आ गए और गोनू झा की चिरौरी करने लगे- भाई गोनू, तुम तो समझदार आदमी हो ... घर की बात दरबार तक न जाए तो अच्छा ! भोनू को बोल-बतियाकर समझा लो कि वो रूपलाल के चक्कर में न पड़े। सारे विवाद की जड़ में रूपलाल है। वही भोनू झा को नशा कराता है और उसके कान भरता है। हम लोग अब तुम्हारे घर के झगड़े में नहीं पड़ेंगे।" ऐसा कह के वे लोग गोनू झा से विदा लेकर चले गए ।
गोनू झा ने उन लोगों से कुछ नहीं कहा। बस, उनकी ओर देखकर मुस्कुराते रहे ।
उधर रूपलाल के दरवाजे पर केवल रूपलाल और भोनू झा बच गए। रूपलाल ने समझ लिया कि अब बाजी उसके हाथ से निकल चुकी है । गोनू झा यदि महाराज के दरबार में शिकायत कर दे तो ...? इस सवाल के मन में उठने से रूपलाल सिहर सा गया । उसे यह अहसास तो था ही कि गोनू झा को नीचा दिखाने के लिए ईर्ष्या वश उसने भोनू झा को बहकाया है... गोनू झा की तनी भृकुटियों से उसे यह संदेश मिल गया था कि यदि अब उसने भोनू झा को भड़काया तो अंजाम बुरा होगा। उसके दरवाजे से गाँव वालों के उठकर चले जाने से भी रूपलाल समझ गया था कि गाँव वालों ने भी उसका साथ छोड़ दिया है । अन्ततः रूपलाल ने भोनू झा से कहा -" भाई भोनू, जो होना था, हो चुका । अब गोनू झा से बिगाड़कर रहने में भलाई नहीं है। तुम जाओ और अपने घर का फैसला आपस में ही मिल बैठकर कर लो ...।"
भोनू झा ने देखा कि अब वह पूरी तरह से अकेला पड़ चुका है । मन ही मन पछताते हुए भोनू झा घर लौटा । दरवाजे पर ही उसे गोनू झा दिख गए। भोनू झा दौड़कर गोनू झा के पास पहुँचा और हाथ जोड़कर उनसे माफी माँगने लगा-“भैया, मेरी धृष्टता को क्षमा कर दो ...मैंने आपको बहुत कष्ट पहुँचाया है।"
अपने भाई के मुँह से ये बातें सुनते ही गोनू झा की आँखें छलछला आईं। उन्होंने भोनू झा को कलेजे से लगाते हुए कहा-“भोनू ! तू मेरा भाई है...मेरा जो कुछ भी है, वह सब तेरा है यह घर, जमीन, भैंस सब तो पुरखों से आया है इस पर मैं क्या दावा करूँ ? तू जैसे चाह, वैसे इसका उपयोग कर ...मगर इतना ध्यान रख कि घर की बात घर में ही रहे, नहीं तो वह कहावत चरितार्थ होती है-घर फूटे तो गँवार लूटे ... रूपलाल जैसा मित्र अमित्र हो गया और उसकी बद्दिमागी के कारण हमारा भ्रातृत्व प्रभावित हुआ, यह तो हमारे लिए कलंक की बात है- है न ?" गोनू झा उसे सहलाते रहे ।
आँसुओं की धारा में भोनू झा के मन का मैल निकल गया । जब वह शान्त हुआ तब गोनू झा भंडार-घर की ओर जाने लगे, मगर भोनू झा ने उनके पाँव पकड़ लिए और कहा -" भइया, अब मुझे माफ कर दें । अब आप वहाँ नहीं सोएँगे। भंडार घर-भंडार- घर ही रहेगा। मैं आपके पास सोऊँगा-एक ही कम्बल में, जैसे पहले हम दोनों भाई सोते थे।"
गोनू झा ने भोनू झा को अपने आलिंगन में ले लिया और उसका माथा चूमते हुए कहा -" जैसा तू चाहे भोनू! वैसा ही करूँगा... बस, जा, कुएँ से चार डोल पानी निकाल – मैं जरा नहा लूँ ।”
और भोनू झा कुएँ की ओर चल पड़ा -प्रफुलित मन से ।
गोनू झा उसे कुएँ की ओर जाते हुए देखते रहे । उनका मन हलका हो चुका था । आँखों में खुशी की चमक थी । अनायास ही उनकी आँखें भर आईं ।