बेरथा का ब्याह : प्यारा केरकेट्टा

Bertha Ka Byah : Pyara Kerketta

अभी-अभी जंगल के शाल, आसन, केशेल आदि बड़े-बड़े पल्लवित होने लगे थे। जंगलों में शाम होते ही आग जला दी जाती थी। रातभर सूखी पत्तियाँ जलती रहतीं और सारा जंगल प्रकाश में नहाया रहता। मधुमास के समय सुबह होते ही गाँव के युवक-युवतियाँ पहाड़ों पर छा जाते। पहाड़ ‘सबै घास’ से अटा पड़ा था। तीतर, बटेर और मोर आदमी के हाथ पड़ने से पहले ही घास में छिप जाते। बाल-बुतरु और बूढे़-बुजुर्ग सब चिरौंजी, गूलर और केंद खाने के बहाने पहाड़ों पर चढ़ जाते। शोर, गीत और बाँसुरी की तान से पूरा जंगल गुलजार होता। मन मुक्त होकर भावनाओं को वन में ही तो अभिव्यक्त कर पाता है। ठीक उन्हीं दिनों लोगों ने नया-नया ईसाई धर्म स्वीकार किया था। उनके बीच पूर्वजों द्वारा गाए गीत और नृत्य ही मनोरंजन के साधन थे, परंतु नए-नए शिक्षक और प्रचारक, जो सोनपुर और नागपुर की तरफ से आए थे, वे उन्हें पुरखौती गीत गाने और नाचने से मना करते थे, इसलिए रात को थोड़ी देर तक ही नाच-गान होता था। सो लोग सूखे मौसम का इंतजार करते रहते, ताकि वनों में प्रवेश कर सकें। मुक्त होकर अपनी भावनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए वन से अधिक उपयुक्त स्थान दूसरा नहीं है। ऐसे ही सुखद मधुमास के एक दिन पहाड़ पर से नीचे उतरते हुए लोगों ने एक गीत सुना। पहाड़ की तराई पर अनेक युवतियों ने गीत सुना। गीत के बोल थे—

‘‘रसिक छैला पहाड़ पर गा रहा है (सुनकर)
परित्यक्ता स्त्री रात के अँधेरे में ताक-झाँक कर रही है।’’

गीत का राग श्रोताओं के कान में रस घोल गया। मनचली युवतियों का दिल मचल उठा। वे भी गीत को गुनगुनाने लगीं। युवक तो उत्तेजित ही हो उठे। असल में खड़िया पाड़ू का राग इतना मोहक होता है कि थोड़ी देर के लिए आदमी अपनी पीड़ा भूल जाता है। वैसे ही पल में पहाड़ के दूसरे छोर से गीत गूँज उठा—

‘‘कब तक युवक तुम युवा होगे।
तुम्हारी दाढ़ी मूँछें उगेंगी
मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगी।’’

गीत हवा के झोंके के साथ तलहटी से पहाड़ की चोटी पर पहुँच गया।

दंदू पौलुस के स्वर को सारे लोगों ने पहचान लिया। युवतियों के अंदर हलचल मची। बेरथा के दिल में कुछ अधिक ही गुदगुदी हुई। उसके दिल की धड़कन बढ़ गई। वह दंदू पौलुस को कम-से-कम एक नजर देखने और बात करने के लिए व्याकुल हो गई। वह मिलने या वापस जाने की दुविधा में फँस गई।

बेरथा का नाम ईसाई होने से पहले सोमारी था, इसलिए उसे लोग बेरथा के साथ-साथ सोमारी भी पुकारते थे। बेरथा सोमारी बीरूटोला के धाधु मतियस की बेटी थी। देखने में जितनी सुहानी थी, काम-धंधे में भी उतनी ही कुशल थी। बेरथा का विवाह रामपुर दरंगाटोला में तय हुआ। गाँव में उसी का पहला क्रिस्तानी विवाह था। उससे पहले सौंसार (मूल आदिवासी धर्म-सरना रीति का विवाह) विवाह होता था। ईसाई होने के साथ ही विवाह में मांस-भात का चलन आ गया। घर देखी, सर-जमीन देखी, चिलम पोड़ाउनी, सुखमूड़ देखना, सुखमूड़ लाने जाना, डंड़अ ओएङ आदि नेगों व रस्मों, रीति-रिवाज के नाम पर कई-कई बार वर के घर जाने लगे थे। ऐसा दस्तूर पहले नहीं था।

बीरूटोला के लोग दरंगाटोला के रीझा सामुएल के घर नए दस्तूरों के मुताबिक कई बार गए। सामुएल के बाप जुएल का घर खाता-पीता ही था। लेकिन नेग के नाम पर खिलाते-खिलाते एक वर्ष के अंदर घर खाली हो गया। लोग जितनी बार आए, मांस-भात से ही सत्कार करना पड़ा। जितनी बार आए, पचास-साठ से कम नहीं आए। ‘डंड़अ ओएङ’ में तो पूरे एक सौ बीस जन बिना बुलाए ही आए। बुलाए बिना किसी जगह नहीं जाना चाहिए, ऐसा कोई विचार खड़िया लोगों में नहीं है। लाज-शर्म भी नहीं होती है। तो बेचारा जुएल नेग पूरा करते-करते पस्त हो गया। विवाह के नाम पर घर का सारा अनाज होम हो गया। कर्ज में भी डूब गया।

अब जरा दूसरी ओर भी देखें। दरंगाटोला के लोग भी कम नहीं थे। उन्होंने सलाह की, कि वे भी पूरे गाँव के लोग बरात में जाएँगे, ‘‘वे हमारे यहाँ बार-बार खाकर गए हैं, तो क्या हम एक बार भी नहीं जाएँगे?’’ सो दरंगाटोला से एक सौ अस्सी बरात में गए। टिड्डी जिस तरह पत्तियों, फसलों को चटकर जाती है, वैसे ही दरंगाटोल के लोग धाधु मतियस का सारा अन्न चटकर गए। धाधु मतियस का घर पूरा साफ हो गया। माघ के महीने में ही खाली हो गया। सामने पूरा वर्ष मुँह खोले खड़ा हो गया। दोनों समधियों को दिन में ही तारे दिखाई देने लगे।

यों देखें तो विवाह हँसी-खुशी और नाच-गान के बीच संपन्न हुआ। भोज-भात भी किसी को पसंद हुआ, किसी को नहीं हुआ। अच्छे घर-वर की चर्चा भी किसी-किसी ने की। परंतु अधिकांश असंतुष्ट रहे। किसी ने कहा कि उसे सिर्फ रान की हड्डी मिली, किसी ने कहा उसे शोरबा ही मिला। एक ने कहा कि उसने घर वापस जाकर भोजन किया। दूसरे ने परोसनेवालों की शिकायत की। बेचारे दोनों समधी इष्ट-कुटुंब की प्रसन्न करने में लगे रहे, पर सब पानी में बह गया। न खुदा ही मिला, न

बिसाले सनम। इतना ही हुआ कि घर की तंगहाली में दोनों अंदर-ही-अंदर जलने लगे।

बेरथा सुशील थी और काम में भी निपुण थी। लोग गाँव का नाम रोशन करनेवाली कहा करते थे। इतनी दृढ चरित्र की, कि गाँव के शिक्षक ने उसे बहुत बहकाने की चेष्टा की, पर बेरथा डिगी नहीं। बाद में शिक्षक ने उसके सामने आँख उठाने की हिम्मत नहीं की। सब उसके चरित्र की सराहना करते थे।

बेरथा की तरह ही उसका पति सामुएल भी चरित्रवान था। धीर-गंभीर और सुशील स्वभाव था उसका। लेकिन बेरथा की सास बेटे के विवाह से दुःखी हो गई। जब-तब अंदर-बाहर घुसते-निकलते बड़बड़ाने लगी, ‘‘इससे विवाह करके मैंने अपना पूरा घर ही धो डाला, हम तो बरबाद हो गए।’’ कभी बेरथा की तबीयत बिगड़ जाती, तब भी उसे आराम नहीं करना था। जैसे ही वह बिस्तर पर लेटती, सास सुनाने लगती थी, ‘‘घर तबाह कर बहू लाई हूँ, अब देखो बिछावन से नीचे नहीं उतरती है, सारा काम मेरे सिर पर पड़ गया। पता नहीं कितना लेटने का मन करता है! हमारे जमाने में ऐसा नहीं होता था। ऐसा करते तो ये दिन देखते?’’

बेचारी बेरथा ने सास-ससुर को प्रसन्न करने के लिए क्या नहीं किया, पर उन्हें प्रसन्न न कर सकी। सामुएल सीधा-साधा युवक था। घर की दशा से अंदर-ही-अंदर घुलने लगा। माँ की बातें सुनकर अंदर-ही-अंदर रो उठता। आखिर विवाह के लगभग दो माह पश्चात् सामुएल ने इस तरह खाट पकड़ ली कि फिर उठा ही नहीं। चिंता की कोई दवा नहीं है।

बहुत खर्च हुआ उसके इलाज पर, लेकिन एक दिन मुरगा बाँग दे, उसी समय लगभग सामुएल वहाँ के लिए प्रस्थान कर गया, जहाँ से कोई वापस नहीं आता। आँखों की रोशनी बुझ गई, हाथ-पैर प्राणहीन हो गए। वह रोई, फफक-फफककर रोई। दो-तीन दिनों तक अन्न-पानी को छुआ भी नहीं।

बेरथा की सास भी रोई। गरज-गरजकर रोई। चिल्ला-चिल्लाकर रोई। वह सिर धुनती और बोलती जाती, ‘‘घर तबाह कर मैंने तुम्हारा विवाह किया मेरे बेटे...। तुम किस ग्रह के फेर में पड़ गए? तम्हारे लिए सारी दुनिया में आग लग गई थी, जो इससे विवाह किया? दूसरे की बेटी-बहन को यहाँ लाकर तुमने छोड़ दिया।’’ सहने की भी सीमा होती है। सारे दुःख सहकर भी बेरथा ने सास-ससुर की सेवा करनी चाही। ताने-लाँछन और कष्ट से वह जर्जर हो गई। नौ माह उसने इसी अवस्था में ससुराल में काटे। जब पीड़ा असह्य हो गई तो वह एक दिन हाट के बहाने नैहर लौट गई।

नैहर की स्थिति अच्छी नहीं थी। घर में कुछ था नहीं। उधार कोई देता नहीं था, इसलिए कि वे वापस करने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी बेरथा माँ के आँचल तले अपना दुःख भूलने लगी। गाँव की सहेलियों से बातें करती, हँसती। धीरे-धीरे वह अपनी व्यथा से मुक्त होने लगी। परंतु कभी अकेले में अपनी विवाहित सखियों को देखकर अपना दुःख याद करती और आँसू बहा लेती थी। लेकिन उसे माँ के प्यार की छाँव में नया जीवन आरंभ करने की प्रेरणा मिली। यद्यपि वह भगवान् से प्रार्थना करती थी कि उसे बल मिले, जिससे कि वह अपने चरित्र की रक्षा कर सके। वह दृढ चरित्र थी, लेकिन उसके जीवन में बसंत अभी-अभी आया था। कभी-कभी मौसम, फूलों, पक्षियों और आकाश को देखकर उसके मन में भी किसी का साहचर्य पाने की उद्दाम इच्छा जाग्रत् हो जाती, तब वह घबराकर रो पड़ती। उसकी माँ के बोल भी उसे उद्विग्न कर देते।

माँ रात को बिछावन पर लेटे हुए कभी-कभी बोल बैठती, ‘‘किसी का हाथ थामकर कहीं चली जाओ तो भला। कब तक अकेली बैठी रहोगी?’’

ऐसी बातें सुनकर बेरथा निराशा में डूब जाती। चारों ओर अँधेरा दिखाई देता। अँधेरे में ही हाथ-पैर मारती, पर उसे तसल्ली देनेवाला कोई नहीं मिलता। काश! कोई होता, जो उसे रास्ता दिखाता! युवावस्था, उस पर विधवा जीवन! झूठे ही सही, कोई तो तसल्ली देता। बाँध जब तक पानी को रोक सकता है, रोकता है, पर जब सँभाल नहीं पाता तो बाँध टूट जाता है। बेरथा का बाँध भी टूट गया।

चड़री पहाड़ के उस पार टोंगरी टोला है। चड़री टोला के दंदू पौलुस ने पहाड़ पर चढ़कर पाड़ू गाया। पहाड़ की तराई में बेरथा ने उसे सुना। बेरथा ने बड़े मन से गीत गाकर उसे उत्तर दिया। फिर तो दोनों की मुलाकातें वन में ही होने लगीं। वे दोनों कब, कहाँ और कितनी देर तक बातें करते, किसी को पता नहीं। लेकिन बेरथा बड़े मनोयोग से बाल सँवारने, तेल लगाने और साफ कपड़े पहनने लगी।

एक दिन बेरथा जंगल से काफी रात गए घर वापस लौटी। फिर तो घर पर ही बनने-सँवरने में काफी समय लगाने लगी।

इसके बाद किसी एक दिन सुबह घरवालों को पता चला कि बेरथा घर पर नहीं है। गाँव में परिचितों के बीच कानाफूसी हुई। किसी ने कुछ, किसी ने कुछ कहा। थोड़े दिनों के बाद सुना गया कि दंदू पौलुस भी भागकर असम चला गया।

सबकुछ जानने के बाद गाँव के बुजुर्गों ने सिर्फ इतना कहा, ‘‘जब दोनों एक-दूसरे को पसंद करते थे तो उन्हें मिला देना चाहिए था। बेरथा के घरवालों ने बड़ी भूल की। काँच-कुँवार लड़की की तरह दुनिया भर कर नेग-जोग माँगने लगे। भोज-भात बड़ा है या इज्जत? दूसरे का खाने के लिए मुँह फाड़े रहते हैं। अच्छा हुआ झूठी परंपराओं को ठुकराकर चली गई।’’

(खड़िया से अनुवाद : रोज केरकेट्टा)

साभार : वंदना टेटे