असम्भव हुआ सम्भव (कहानी) : गोनू झा

Asambhav Hua Sambhav (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

मिथिला नरेश के दरबार में जब कभी कोई काम नहीं रहता या महाराज मनोरंजन की इच्छा प्रकट करते तो सारी औपचारिकताएँ समाप्त हो जातीं और दरबारियों को मनचाहा कहने -सुनने की छूट मिल जाती ।

मिथिला नरेश के दरबार में एक दरबारी थे पलटू झा । गोनू झा से पुराने और महाराज के मुँहलगे। गोनू झा के दरबार में बढ़ते रसूख से वे भीतर ही भीतर जलते थे लेकिन प्रकट रूप से गोनू झा की सराहना करते । उनके बारे में दरबार में भी यह आम राय थी कि पलटू झा से सलामत दूर की अच्छी । न इनकी दोस्ती अच्छी, न इनकी दुश्मनी अच्छी।... बड़े घाघ माने जाते थे पलटू झा । दोमुँहा साँप के नाम से दरबारी उनकी पीठ पीछे चर्चा करते । गोनू झा की मेधा से भी दरबारियों को चिढ़ होती थी जिसके बूते सभी पुराने दरबारियों को पीछे छोड़ते गोनू झा महाराज के चहेते बन गए थे। कोई भी महीना ऐसा नहीं जाता जब किसी न किसी कारण से महाराज दरबार में उनकी खास चर्चा करते और यह चर्चा क्या होती ? बस वही, गोनू झा के बुद्धिकौशल की सराहना । मतलब यह कि गोनू झा और पलटू झा की चर्चा किसी न किसी कारण से दरबारियों के बीच होती ही रहती थी । उनके बीच यह भी चर्चा होती कि यदि किसी बात पर गोनू झा और पलटू झा के बीच भिडंत हो जाए तो किसका पलड़ा भारी रहेगा ? कौन जीतेगा ? लेकिन गोनू झा और पलटू झा एक दूसरे से भिड़ने की बजाय ऐसी किसी सम्भावना के पनपते ही कन्नी काट जाते । ठीक ही कहते हैं कि समान सूझवाले ज्ञानी परस्पर विरोधी विचारों के होते हुए भी आपस में जूझते नहीं बल्कि अपने काम में , अपनी धुन में लगे रहते हैं और निर्णय लोगों पर छोड़ते हैं ।

लेकिन एक दिन वह अवसर आ ही गया जब पलटू झा की एक चुनौती गोनू झा को स्वीकार करनी पड़ गई।

हुआ यह कि मिथिला नरेश उस दिन दरबार में पहुँचते ही चुटकुलों, किस्सों-कहानियों की बातें छेड़ बैठे । दरबारी मस्त हो गए। समझ गए, आज महाराज मनोरंजन करना चाहते हैं । ऐसे दिन , दरबारियों को अपने हुनर के प्रदर्शन का अवसर मिल जाया करता था । इधर उधर की बातें होती रहीं । दरबार में हँसी -ठिठोली का वातावरण बन गया । दरबारी औपचारिकताएँ सरक गईं। तभी किसी बात पर पलटू झा ने तंज कसा -" अरे भाइयो ! हम सभी गोनू झा की बुद्धिमानी की चर्चा करते रहते हैं लेकिन यदि गोनू झा सुराही में कोंहरा भर लाएँ तो मैं उनकी बुद्धि का लोहा मान लूँ !"

बात बहुत सामान्य ढंग से कही गई थी लेकिन उसे सुनते ही दरबारी हँसने लगे। गोनू झा को यह बात चुभ सी गई । वे मुस्कुराते हुए अपने आसन से उठे और महाराज से बोले-“महाराज! मैं सुराही में कोंहरा भर सकता हूँ यदि आप कहें ...!"

महाराज को लगा कि अब गोनू झा अपनी बद्धि के घमंड में शेखी बघार रहे हैं । उन्हें लगा कि गोनू झा को अपने पद की गरिमा का ध्यान रखकर ही कुछ बोलना चाहिए... बड़बोलेपन से बचना चाहिए ।

मिथिला नरेश ने उन्हें टोका-“पंडित जी ! कोंहरा –कोंहरा होता है, पानी या आटा नहीं है कि आप सुराही में भर लें !"

गोनू झा उसी तरह मुस्कुराते हुए बोले -" महाराज! कोंहरा हम उपजाते हैं ! कोहरे की प्रकृति हम जानते हैं , तब ही यह कह रहे हैं कि यदि आप आदेश करें तो सुराही में कोंहरा भरकर दिखा दूँ!”

गोनू झा और महाराज के बीच के वार्तालाप सुनकर दरबार में खामोशी छा गई । पलटू झा ने तो यूँ मजाक-मजाक में वह बात कह दी थी और दरबार में वही बात एक संजीदा मोड़ पर पहुँच चुकी थी ... यह सब देखकर वे भी सकते में आ गए। महाराज को गोनू झा की बातें अच्छी नहीं लगीं। उन्हें लगा कि गोनू झा दंभ में आकर वह बात कह रहे हैं जो असम्भव है आज । वह कल भी असम्भव ही रहेगा: भला सुराही के छोटे से मुँह से कोंहरा कैसे घुस सकता है सुराही में ...? न भूतो न भविष्यति! ऐसा हो ही नहीं सकता । महाराज ने सोचा। उन्होंने गोनू झा पर गम्भीर दृष्टि डाली तो देखा कि गोनू झा अब भी मुस्कुरा रहे हैं । गोनू झा की मुस्कान से महाराज उद्वेलित हो उठे । उनके मन में विचार उठा-यह कुटिल मुस्कान ! गोनू झा को उनके दंभ की सजा मिलनी चाहिए ।

उन्होंने गोनू झा से गम्भीर स्वर में पूछा “तो पंडित जी ! आप अब भी कह रहे हैं कि सुराही में कोंहरा भरा जा सकता है?"

दरबारीगण महाराज की गम्भीरता से सन्नाटे में आ गए लेकिन वे मन ही मन खुश थे कि गोनू झा अब महाराज का कोपभाजन बनने वाले हैं । गोनू झा अपनी उसी सहजता में बोले-“जी हाँ , महाराज ! अभी कोंहरा फलने का मौसम भी है । मुझे तीन माह का अवसर दें , तो मैं यह काम करके दिखा दूं।"

महाराज ने उनकी बातों को गम्भीरता से लिया तथा घोषणा की कि आज से ठीक तीन माह बाद गोनू झा दरबार में कोहरे से भरी सुराही प्रस्तुत करेंगे! यदि वे नहीं कर पाएँगे तो दंड के भागी होंगे। इस गम्भीर घोषणा के बाद उस दिन महाराज दरबार से उठ गए । दरबारी मन ही मन खुश थे, गोनू झा पर सामत आने वाली है...।

दूसरे दिन से दरबार सामान्य ढंग से चलने लगा । गोनू झा भी सामान्य और सहज थे। पलटू झा और अन्य दरबारी उनके चेहरे पर कोई चिन्ता की रेखा नहीं देखकर असमंजस में थे, फिर भी उन्हें लग रहा था कि तीन माह बाद गोनू झा निश्चित रूप से दंडित होंगे... सुराही में कोई कोंहरा डाल सकता है भला !

देखते-देखते तीन महीने बीत गए। दरबार में किसी दरबारी ने महाराज को याद दिलाया-“महाराज, आज ठीक तीन महीने पूरे हो गए। आज गोनू झा हम लोगों को सुराही में कोंहरा भरकर दिखाने वाले थे।"

महाराज को तीन महीने पहले की घटना याद हो आई और उन्होंने गोनू झा से पूछा -" क्यों पंडित जी ?"

महाराज आगे कुछ बोल पाते कि गोनू झा ने अपने आसन से उठकर पूरी विनम्रता के साथ कहा-“एक सुराही में कोहरे की बात थी महाराज ! मुझे याद है । एक की जगह मैं दरबार में दस बड़ी सुराहियों में भरे कोहरे प्रस्तुत करने जा रहा हूँ । एक महाराज के लिए भेंटस्वरूप ! एक भाई पलटू झा के लिए भेंटस्वरूप । शेष कोहरेवाली सुराही महाराज की इच्छा पर 4 विशेष प्रयोजनों के लिए सुरक्षित रखी जा सकती है या किसी विशेष अवसर पर किसी मेहमान को उपहारस्वरूप भेंट में दी जा सकती है !

महाराज गोनू झा के उत्तर से चकित हो गए और उत्सुकतावश उन्होंने पूछा-“लेकिन कब ?"

गोनू झा ने कहा “महाराज! बैलगाड़ी में दस सुराहियाँ लादे हमारे आदमी पहुँचनेवाले ही होंगे।”

दरबार में सनसनी पैदा हो गई । सभी दरबारी एक दूसरे को चकित दृष्टि से देख रहे थे । कोई विश्वास नहीं कर पाया कि ऐसा भी हो सकता है ।

थोड़ी ही देर में द्वारपाल ने आकर सूचना दी कि गोनू झा के घर से एक बैलगाड़ी आई है जिस पर सुराही लदी हैं तथा उस बैलगाड़ी के साथ आए लोग सुराहियाँ दरबार में लाना चाहते हैं ।

महाराज ने उन्हें दरबार में प्रवेश करने की इजाजत दे दी ।

थोड़ी ही देर बाद सभी दरबारियों ने देखा, दस आदमी अपने कंधों पर सुराही उठाए दरबार में पहुँचे। महाराज के पास आकर उन्होंने सुराहियाँ रख दीं तथा उन्हें प्रणाम कर दरबार से बाहर हो गए ।

गोनू झा अपने आसन से उठे और सबसे बड़ी सुराही को पूरी ताकत से उठाकर धीरे-धीरे चलते हुए महाराज के पास आए और उसे महाराज के आसन के पास रखते हुए

बोले-“महाराज, यह सबसे बड़ा कोंहरा आपके लिए।"

महाराज ने महसूस किया कि गोनू झा का दम फूल रहा है शायद भार उठाने के कारण ।

महाराज ने सुराही को देखा -सुराही के मुँह के पास कोहरे की बेल का कटा हुआ हिस्सा था । महाराज ने उसे छूकर देखा-अभी ताजा था । उन्होंने उसे खींचने की कोशिश की तो वह बेल सुराही से थोड़ा सा खिंचा लेकिन उसके बाद सुराही हिलने लगी । महाराज ने सुराही का मुँह पकड़कर एक हाथ से उठाने की कोशिश की तो उन्हें लगा कि सुराही को उठाना आसान नहीं है ।

तभी एक सुराही गोनू झा , पलटू झा के आसन तक ले गए और बोले-“पलटू भाई, यह आपके लिए।"

दरबार में साँस साधे लोग यह कौतुक देख रहे थे। किसी ने कहा कि यह कोई घनचक्कर है। तब गोनू झा ने सभी दरबारियों को आमंत्रित किया कि वे आएं और सुराहियों को ठीक से देख लें कि इनमें कोहरे भरे हैं या नहीं !

बारी-बारी से सभी ने सुराही का मुआयना किया । कहीं कोई चालाकी नजर नहीं आई । मगर एक दरबारी ने शंका जताई कि यह कैसे पता चलेगा कि सुराही में कोंहरा ही है ?

तभी गोनू झा ने हँसते हुए कहा -"ऐसे!" यह कहते हुए उन्होंने एक सुराही उठाई और उसे दीवार से टकरा दिया । सुराही चकनाचूर हो गई और उसके भीतर से सुराही की आकृति का कोंहरा निकल आया ।

सभी के सभी चकित हुए । मगर उपहास करने के लिए बेताब दरबारियों में से किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वे पूछ सकें कि आखिर गोनू झा ने यह अजूबा कैसे अंजाम दिया ।

महाराज ने दरबार में गोनू झा के इस करिश्मे की मुक्त -कंठ से सराहना की । दरबार के समापन के बाद महाराज ने गोनू झा को अपने पास बैठाया और कहा-“सच बात तो यह है पंडित जी कि मुझे विश्वास नहीं था कि आप सचमुच सुराही में कोंहरा भर के दिखा सकते हैं । मैं सोच रहा था कि आप दंभ में आकर इस तरह की बात कर रहे हैं ।"

गोनू झा के होंठों पर सरल स्मित तैर गई और उन्होंने कहा-“महाराज! मुझे इसका भान है अन्यथा आप दरबार में मुझे दंडित करने की घोषणा नहीं करते !” महाराज चुप रहे । थोड़ी देर के बाद उन्होंने पूछा-“पंडित जी , मुझे अभी भी समझ में नहीं आया कि आपने यह करिश्मा कैसे कर दिखाया ?" गोनू झा ने महाराज को बताया-“महाराज ! मेरे दरवाजे पर कोहरे की लतर पहले से ही लगी हुई थी । कोंहरा पक जाने के बाद लम्बे अरसे तक सड़ता नहीं और न सूखकर खराब होता है । इसलिए हम लोग भविष्य की जरूरत को देखते हुए कोंहरा सहेजते हैं । जब मुझे सुराही में कोंहरा भरने की आज्ञा मिली तो मैंने घर पहुंचकर देखा , कोहरों की लताओं में बीस 'बतिया' निकल चुके थे। मैंने दूसरे दिन ही बीस सुराहियाँ मँगवाईं और लता को नरमी से मोड़कर बतिया सहित सुराही में डाल दिया । तीन महीने तक मैंने कोहरे की जड़ और लता की सतर्कता के साथ सेवा की । जरूरत के मुताबिक पानी और खाद देता रहा। बीस में से पन्द्रह बतिया कोहरे के रूप में विकसित हो गईं और पाँच मुरझाकर सूख गईं। पन्द्रह में से दस कोहरे श्रीमान के दरबार में प्रस्तुत कर मैं राजदंड का भागी बनने से बच पाया ।"

गोनू झा की बातें सुनकर मिथिला नरेश के चेहरे पर एक सलज्ज मुस्कान आई और उन्होंने गोनू झा से कहा-“पंडित जी , आपकी मेधा की जितनी तारीफ की जाए, कम है।"

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