अपराध और दंड (रूसी उपन्यास) : फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की - अनुवाद : नरेश नदीम

Crime and Punishment (Russian Novel in Hindi) : Fyodor Dostoevsky

अपराध और दंड : (अध्याय 3-भाग 1)

रस्कोलनिकोव सोफे पर उठ कर बैठ गया।

उसने कमजोरी के साथ अपना हाथ हिला कर रजुमीखिन को इशारा किया कि वह उसकी माँ और बहन को संबोधित करके सांत्वना की जो भावपूर्ण मगर अनर्गल बातें कर रहा था, उसे बंद कर दे। फिर उसने उन दोनों के हाथ पकड़े और एक-दो मिनट तक कुछ भी कहे बिना, बारी-बारी उन्हें घूरता रहा। उसकी माँ उसके भाव देख कर डर गई। उसमें एक ऐसी भावना की साफ झलक दिखाई देती थी, जिसमें दारुण विपदा के साथ एक तरह की जड़ता भी थी, लगभग पागलपन जैसी। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना रोने लगीं।

अव्दोत्या रोमानोव्ना भी पीली पड़ गई। भाई के हाथों में उसके हाथ काँपने लगे।

'घर चली जाओ... इसके साथ,' उसने रजुमीखिन की ओर इशारा करके उखड़े हुए स्वर में कहा, 'कल फिर मिलेंगे; सारी बातें कल होंगी... तुम लोगों को आए क्या बहुत देर हो गई?'

'आज शाम ही तो आए, रोद्या,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने जवाब दिया, 'गाड़ी बेहद लेट थी। लेकिन रोद्या, मैं इस वक्त किसी भी हालत में तुमको अकेला छोड़ जाने को तैयार नहीं हूँ! रात को मैं रहूँगी, तुम्हारे पास...'

'तंग मत करो मुझे!' रस्कोलनिकोव ने चिड़चिड़ा कर कहा।

'मैं इसके पास रह जाता हूँ,' रजुमीखिन बोला, 'मैं इसे पल भर भी नहीं छोड़ सकता। भाड़ में जाएँ सारे मेहमान! चाचा तो वहीं है, सँभाल लेगा।'

'कैसे, मैं कैसे तुम्हारा शुक्रिया अदा करूँ!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने रजुमीखिन के हाथ एक बार फिर अपने हाथों में ले कर बात शुरू की थी कि रस्कोलनिकोव ने फिर बीच में ही टोक दिया :

'मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता! नहीं कर सकता!' उसने झुँझला कर दोहराया। 'मुझे परेशान न करो! बस, सब लोग निकल जाओ... मैं इसे और बर्दाश्त नहीं कर सकता!'

'आओ माँ, कम-से-कम कुछ पल के लिए कमरे के बाहर चलें,' दूनिया ने फिक्रमंद हो कर दबी जबान में कहा, 'हमारी वजह से उन्हें उलझन हो रही है, यह तो देख रही हो!'

'तीन बरस बाद भी जी भर कर देख नहीं सकती?' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने रो-रो कर कहा।

'ठहरो,' उसने उन्हें फिर रोका, 'तुम लोग बीच में टोकती रहती हो और मेरे विचार उलझ कर रह जाते हैं... लूजिन से भेंट हुई'

'नहीं रोद्या, लेकिन उन्हें हमारे पहुँच जाने की खबर मिल गई है। हमने सुना है रोद्या कि प्योत्र पेत्रोविच भलमनसाहत के साथ आज तुमसे मिलने आए थे,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने कुछ डरते हुए कहा।

'हाँ, भलमनसाहत तो थी ही उनकी... दूनिया, मैंने लूजिन से कह दिया कि मैं उसे नीचे फेंक दूँगा और यह भी कहा कि वह जहन्नुम में जाए...'

'क्या कह रहे हो रोद्या कहीं तुमने सचमुच...' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने सहम कर बात शुरू की थी कि दूनिया की ओर देख कर अचानक रुक गईं।

अव्दोत्या रोमानोव्ना ध्यान से अपने भाई को देख रही थी कि अब आगे क्या होनेवाला है। इस झगड़े के बारे में वे दोनों नस्तास्या से उतना तो पहले ही सुन चुकी थीं, जितना वह उसे समझ सकी और बयान कर सकी थी। तकलीफ पाने के अलावा वे चिंता और दुविधा में भी पड़ गई थीं।

'दूनिया,' रस्कोलनिकोव ने कुछ कोशिश करके अपनी बात जारी रखी, 'मुझे यह शादी एकदम पसंद नहीं, इसलिए तुम कल पहला मौका मिलते ही लूजिन से इनकार कर दो, ताकि हमें उसका नाम भी फिर कभी सुनाई न दे।'

'हे भगवान!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना चीख उठी।

'सोचो तो भैया, तुम कह क्या रहे हो!' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने बेचैन हो कर कहना शुरू किया। लेकिन उसने फिर फौरन अपने आपको सँभाल लिया। 'शायद तुम अभी ठीक से बातें करने की हालत में नहीं हो, बहुत थक गए हो,' उसने अपनी बात जारी रखते हुए बड़ी नर्मी से कहा।

'तुम समझती हो मुझे सरसाम है नहीं... तुम लूजिन से मेरी खातिर शादी कर रही हो। लेकिन मुझे यह कुर्बानी नहीं चाहिए। इसलिए तुम कल ही खत लिख कर उससे इनकार कर दो... सुबह मुझे दिखा देना, झगड़ा खत्म हो जाए!'

'मैं यह नहीं कर सकती!' नौजवान लड़की बुरा मान कर चिल्लाई। 'मैं क्यों...'

'दुनेच्का, तुम्हें भी सब्र नहीं है। चुप रहो, कल देखा जाएगा... देखती नहीं...,' माँ घबरा कर उसकी ओर लपकीं। 'आओ, चलें!'

'यह होश में नहीं,' रजुमीखिन नशे में डूबी आवाज में बोला, 'वरना इतनी हिम्मत कैसे पड़ती! कल यह सारी हिमाकत खत्म हो जाएगी... आज इसने उन्हें यहाँ से सचमुच भगा दिया था, इतना तो एकदम सच है। फिर लूजिन को भी गुस्सा आ गया था... वे यहाँ भाषण झाड़ रहे थे, अपने विद्वान होने का रोब जमाना चाहते थे पर गए जब, तो दुम दबाए हुए...'

'तो सच है यह बात?' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने चीख कर पूछा।

'कल मिलेंगे भैया,' दूनिया ने दयाभाव से कहा, 'आओ माँ, चलें... तो चलते हैं रोद्या।'

'सुनो बहन,' उसने आखिरी बार कोशिश करके उनके जाते-जाते दोहराया। 'मैं सरसाम में नहीं हूँ; यह शादी... एक कलंक है। मैं अगर बदमाश-लफंगा हूँ तो भी तुम्हें तो ऐसा नहीं करना चाहिए... हम दोनों में से कोई एक ही रहेगा... और मैं अगर बदमाश हूँ तो भी ऐसी बहन को कभी अपनी बहन नहीं मानूँगा। या मैं या लूजिन! ठीक है, अब जाओ...'

'तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है! तानाशाह बन रहा है!' रजुमीखिन गरजा। लेकिन रस्कोलनिकोव ने कोई जवाब नहीं दिया और शायद दे भी नहीं सकता था। वह एकदम निढाल हो कर सोफे पर लेट गया और अपना मुँह दीवार की ओर फेर लिया। अव्दोत्या रोमानोव्ना दिलचस्पी से रजुमीखिन को देखती रही। उसकी काली आँखों में बिजली जैसी चमक थी : उसकी इस तरह की निगाह से रजुमीखिन चौंक पड़ा। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना अवाक खड़ी थीं।

'मैं किसी भी हालत में नहीं जाने की,' उन्होंने निराशा में डूबे स्वर में रजुमीखिन से धीरे से कहा। 'मैं यहीं कहीं रह जाती हूँ... तुम दूनिया को घर पहुँचा आओ।'

'और आप सारा बना-बनाया खेल बिगाड़ेंगी,' रजुमीखिन ने बेचैन हो कर उसी तरह धीमी आवाज में कहा, 'बहरहाल, आप बाहर सीढ़ियों पर तो आइए। नस्तास्या, रोशनी दिखाना जरा! मैं आपको यकीन दिलाता हूँ,' वह सीढ़ियों पर पहुँच कर भी कुछ-कुछ कानाफूसी के ढंग से कहता रहा, 'कि आज तीसरे पहर वह मुझे और डॉक्टर को मारने पर ही आमादा था! आप समझ रही हैं न डॉक्टर तक को! वह भी हार मान कर यहाँ से चलता बना ताकि इसे झुँझलाहट न हो। मैं नीचे खड़ा पहरा देता रहा, लेकिन उसने झटपट कपड़े पहने और आँखें बचा कर खिसक गया। अगर आपकी किसी बात पर वह झुँझलाया तो इसी रात को फिर कहीं खिसक जाएगा और अपने आपको किसी मुसीबत में डाल लेगा...'

'कह क्या रहे हो!'

'इसके अलावा अव्दोत्या रोमानोव्ना को भी आपके बिना अकेला उस घर में छोड़ा नहीं जा सकता! जरा सोचिए, आप कहाँ ठहरी हुई हैं। उस बदमाश प्योत्र पेत्रोविच को आपके लिए कोई इससे अच्छा घर भी नहीं मिला... लेकिन, आप जानती हैं न, मैंने थोड़ी पी रखी है और उसी की वजह से... गाली बक रहा हूँ। बुरा न मानिएगा...'

'लेकिन मैं यहाँ मकान-मालकिन के पास रह जाऊँगी,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना अपनी बात पर अड़ी रहीं। 'मैं उसकी मिन्नत करूँगी कि वह मेरे और दूनिया के सोने के लिए किसी कोने में जरा-सी जगह दे दे। मैं इसे इस हालत में छोड़ कर नहीं जा सकती, कभी नहीं जा सकती!'

यह सारी बातचीत मकान-मालकिन के दरवाजे के ठीक सामने की खुली जगह में हो रही थी। नस्तास्या एक सीढ़ी नीचे खड़े हो कर रोशनी दिखा रही थी। रजुमीखिन असाधारण सीमा तक बेचैन था। आध घंटे पहले वह जब रस्कोलनिकोव को घर ला रहा था, तब भी उसकी जबान जरूरत से ज्यादा चल रही थी। लेकिन उसे इस बात का पता जरूर था, और काफी शराब पी लेने के बावजूद उसका दिमाग सुलझा हुआ था। इस समय वह खुशी और मस्ती के आलम की-सी स्थिति में था, और लग रहा था कि उसने जितनी भी पी रखी थी, वह सब कई गुना असर के साथ दिमाग पर चढ़ती जा रही थी। वह दोनों हाथों में उन दोनों औरतों के हाथ पकड़े हुए खड़ा उन्हें समझा-बुझा रहा था और अद्भुत सीमा तक सीधे-सादे शब्दों में उनके सामने तर्क प्रस्तुत कर रहा था। लगभग हर शब्द के साथ, शायद अपनी दलील पर जोर देने के लिए, वह इतना कस कर उनके हाथ दबाता था कि उन्हें तकलीफ होने लगती थी, मानो किसी ने शिकंजा कसा हो। वह शिष्टता की जरा भी परवाह किए बना अव्दोत्या रोमानोव्ना को घूरता रहा। दोनों कभी-कभी अपने हाथ उसके बड़े-बड़े, सख्त हड्डियोंवाले पंजों से छुड़ाने की कोशिश करतीं, लेकिन इस बात पर ध्यान देना तो दूर कि वे क्या चाहती हैं, वह और भी उनके करीब खिंच आता। वे अगर उससे कहतीं कि सर के बल सीढ़ियों से नीचे कूद जाए तो उनको खुश करने के लिए सोचे-समझे बिना या जरा भी संकोच किए बिना वह यह भी करने को तैयार हो जाता। हालाँकि पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना यह महसूस कर रही थीं कि वह नौजवान कुछ सनकी था और उनके हाथ जरूरत से कुछ ज्यादा ही दबा रहा था, लेकिन वे अपने रोद्या की चिंता में डूबी हुई थीं और वहाँ उसकी मौजूदगी को ईश्वर की कृपा समझ रही थीं। इसलिए वे उसकी इन सभी अजीब हरकतों को नजरअंदाज करने को भी तैयार थीं। अव्दोत्या रोमानोव्ना भी अपने भाई की तरफ से उतनी ही चिंतित थी, और वह स्वभाव से ऐसी डरपोक भी नहीं थी। लेकिन रजुमीखिन की आँखों की दहकती चमक को देख कर उसे भी ताज्जुब होने लगा और वह कुछ डर गई। नस्तास्या ने उसके भाई के इस विचित्र दोस्त के बारे में जो कुछ बताया था, उसकी वजह से उसके मन में अगर उसके लिए असीम विश्वास न पैदा हुआ होता तो वह उसके पास से जाने कब की भाग गई होती और अपनी माँ को भी भागने के लिए मजबूर किया होता। यह भी उसने सोचा होगा कि अब भागना भी शायद असंभव है। लेकिन कोई दस मिनट बाद वह आश्वस्त हो गई। रजुमीखिन की यही विशेषता थी कि उसकी मनोदशा जो भी हो, लेकिन वह अपना स्वभाव फौरन जाहिर कर देता था। सो लोग बहुत जल्द समझ जाते थे कि उनका किस तरह के आदमी से साबका पड़ा है।

'आप मकान-मालकिन के पास नहीं जा सकतीं; यह एकदम बेतुकी बात होगी,' उसने ऊँचे स्वर में कहा। आप हालाँकि उसकी माँ हैं पर आप अगर यहाँ रुकीं तो आप उसे जुनून की हद तक पहुँचा देंगी, और तब भगवान ही जानता है कि जो भी हो जाए, थोड़ा है। सुनिए, मैं बताता हूँ कि मैं क्या करूँगा। उसके पास इस वक्त नस्तास्या रहेगी, और मैं आप दोनों को घर पहुँचाए देता हूँ, आपका सड़क पर अकेले जाना ठीक नहीं है; पीतर्सबर्ग वैसे बहुत ही बेहूदा जगह है... पर कोई बात नहीं! फिर मैं लौट कर सीधा यहीं आऊँगा, और मैं कसम खा कर कहता हूँ कि पंद्रह मिनट बाद आ कर आपको सारा हाल बता दूँगा कि वह कैसा है, सो रहा है कि नहीं, वगैरह-वगैरह। अब उसके बाद की सुनिए! फिर मैं पलक झपकते सीधे अपने घर जाऊँगा - वहाँ मेरे मेहमान जमा हैं पर सब नशे में चूर - और जोसिमोव को साथ ले आऊँगा - उसी डॉक्टर को, जो इसका इलाज कर रहा है। वह भी वहीं है लेकिन नशे में नहीं है; वह कभी नशे में नहीं होता! मैं उसे घसीट कर पहले रोद्या के पास लाऊँगा, फिर आपके पास लाऊँगा, और इस तरह आपको घंटे भर में दो रिपोर्टें मिल जाएँगी - डॉक्टर की रिपोर्ट भी। आप समझ रही हैं न, खुद डॉक्टर की रिपोर्ट, जो मेरे बताए हुए हाल से पूरी तरह अलग कोई चीज होगी! अगर ऐसी-वैसी बात हुई तो मैं कसम खा कर कहता हूँ कि मैं खुद आपको यहाँ लाऊँगा, और अगर सब ठीक-ठाक रहा तो आप सो जाइएगा। मैं रात-भर यहीं रहूँगा ड्योढ़ी में, पर उसे मेरा पता तक नहीं चलेगा। जोसिमोव को मैं मकान-मालकिन के यहाँ सुला दूँगा ताकि वक्त-जरूरत वह यहाँ हो। उसके लिए बेहतर कौन है इस वक्त : आप या डॉक्टर इसलिए चलिए, घर चलिए। और आपका मकान-मालकिन के यहाँ जाने का सवाल ही नहीं उठता : वह आपको रखेगी भी नहीं, क्योंकि वह... वह बेवकूफ है। अगर आप जानना ही चाहती हैं तो मेरी वजह से उसे अब्दोत्या रोमानोव्ना से जलन होने लगेगी, और आपसे भी... अव्दोत्या रोमानोव्ना से तो जरूर ही होगी। उसके बारे में यकीन के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि कब क्या कर बैठे, कुछ भी नहीं कहा जा सकता! लेकिन मैं भी तो बेवकूफ हूँ... कोई बात नहीं! मुझ पर आपको भरोसा है बताइए, मुझ पर भरोसा है कि नहीं?'

'चलो, माँ,' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने कहा, 'इन्होंने जो वादा किया है, उसे ये जरूर पूरा करेंगे। रोद्या की जान तो इन्होंने ही बचाई है, और अगर डॉक्टर सचमुच रात को यहाँ रहने पर राजी हो जाए तो इससे अच्छी और क्या बात होगी?'

'यानी कि आप... आप... मुझे समझ रही हैं, क्योंकि आप फरिश्ता हैं!' रजुमीखिन खुशी से पागल हो उठा, 'आइए, चलें! नस्तास्या! भाग कर ऊपर जाओ और रोशनी ले कर जरा उसके पास बैठो। मैं अभी पंद्रह मिनट में आता हूँ।'

पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना को पूरी तरह भरोसा तो नहीं था, लेकिन उन्होंने और ज्यादा आग्रह नहीं किया। रजुमीखिन दोनों को अपनी एक-एक बाँह का सहारा दे कर सीढ़ियों से नीचे उतार लाया। 'हालाँकि यह बहुत मुस्तैद और अच्छे स्वभाव का है,' माँ बेचैनी से सोच रही थीं, 'लेकिन क्या अपना वादा पूरा कर पाएगा, हालत तो इसकी ऐसी है कि...'

'आह, मुझे पता है... आप शायद यह समझ रही हैं कि मेरी हालत इस वक्त ऐसी नहीं है!' रजुमीखिन ने उनके विचारों को भाँप कर उनको हतप्रभ कर दिया। वह सड़क की पटरी पर लंबे-लंबे डग भरता चल रहा था, जिसकी वजह से दोनों महिलाओं को उसके साथ चलने में कठिनाई हो रही थी। लेकिन उसका इस बात की ओर कोई ध्यान नहीं गया। 'सरासर बकवास! मेरा मतलब है... मैंने इतनी पी ली है कि मेरी मति मारी गई है, लेकिन यह बात है नहीं; मुझे शराब का नशा नहीं है। आपको देख कर मेरा दिमाग फिर गया है... लेकिन गोली मारिए मुझे! मेरी किसी बात की ओर भी ध्यान मत दीजिए : मैं बकवास कर रहा हूँ, मैं आपके लायक नहीं हूँ... बिलकुल आपके लायक नहीं हूँ! आपको घर पहुँचाने के बाद मैं यहीं मोरी पर अपने सर पर दो बाल्टी पानी डालूँगा और एकदम ठीक हो जाऊँगा... काश, आपको मालूम होता कि मुझे आप दोनों से कितनी मुहब्बत है! हँसिए मत, और नाराज भी मत होइए! आप किसी से भी नाराज हो जाएँ, लेकिन मुझसे मत हों! मैं उसका दोस्त हूँ, इसलिए आपका भी दोस्त हूँ। यानी बनना चाहता हूँ... मैंने गोया एक सपना देखा था... पिछले साल एक पल ऐसा आया था हालाँकि सच पूछिए तो वह सपना नहीं था, क्योंकि आप तो जैसे आसमान से उतरी हैं। पर मैं समझता हूँ कि अब मुझे रात भर नींद नहीं आएगी... कुछ ही समय पहले तक जोसिमोव को भी डर था कि यह पागल हो जाएगा... और इसीलिए ऐसी कोई बात नहीं करनी चाहिए जिससे उसे चिड़चिड़ाहट हो।'

'कह क्या रहे हो तुम!' माँ ने चिंतित स्वर में कहा।

'डॉक्टर ने सचमुच ऐसी बात कही थी?' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने सहम कर पूछा।

'लेकिन, बात ऐसी है नहीं, एकदम नहीं है। उसने इसे कोई दवा दी थी। कोई पुड़िया थी, मैंने खुद देखा था, और फिर आप लोगों के यहाँ आ जाने से ...आह! कितना अच्छा होता अगर आप लोग कल आतीं। अच्छा हुआ कि हम लोग चले आए। अभी घंटेभर में खुद जोसिमोव आपको सारा हाल बता जाएगा। वह नशे में नहीं है! और मैं भी नशे में नहीं रहूँगा... और मुझे इस बुरी तरह नशा चढ़ा तो क्यों क्योंकि उन लोगों ने मुझे बहस में उलझा लिया, लानत हो उन पर! मैंने कसम खाई थी कि कभी बहस नहीं करूँगा! ऐसी खुराफातें उछालते हैं लोग कि बस! मेरी तो हाथा-पाई होते-होते रह गई! मैं वहाँ चाचा को छोड़ आया हूँ, वह सब कुछ सँभाल लेंगे। आप यकीन करेंगी उनकी जिद यह है कि किसी आदमी की अपनी कोई अलग हस्ती होनी ही नहीं चाहिए, और इसी में उनको मजा आता है! कि वे जो कुछ हैं, वह न रहें और जो कुछ भी हैं, उससे जितना भी हो सके अलग लगने लगें! इसी को वे प्रगति की चरम सीमा मानते हैं। अगर यह बकवास उनकी अपनी होती तब भी बात थी, लेकिन है यह...'

'सुनो!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने उसे दबी जबान में बीच में टोका। लेकिन इस चीज ने आग में घी का काम किया।

'आप क्या समझती हैं' रजुमीखिन पहले से भी ऊँची आवाज में बोला, 'आप समझती हैं, मैं उन पर इस बात के लिए बरस पड़ता हूँ कि वे खुराफातें उछालते हैं कतई नहीं! मैं तो यह चाहता हूँ कि वे बकवास करें! मनुष्य का यही तो ऐसा विशेषाधिकार है, जो पूरी सृष्टि में किसी और प्राणी को नहीं मिला है। आप झूठ बोल कर ही सच्चाई तक पहुँचते हैं! मैं इनसान इसीलिए हूँ कि मैं झूठ बोलता हूँ : आप कभी किसी सच्चाई तक पहुँच ही नहीं सकते, जब तक उससे पहले चौदह बार झूठ न बोल लें, और कौन जाने एक सौ चौदह बार बोलना पड़े। अपने ढंग से यह सम्मान की बात भी है; लेकिन हम झूठ भी तो अपने ढंग से नहीं बोलते! बकवास करो, लेकिन वह तुम्हारी अपनी बकवास हो, और मैं तुम्हारे कदम चूम लूँगा। अपने ढंग से झूठ बोलना किसी दूसरे के ढंग से सच बोलने से अच्छा है। पहली हालत में आप इनसान होते हैं, दूसरी हालत में आप तोते से बढ़ कर कुछ नहीं होते! सच्चाई तो आपसे बच कर जा नहीं सकती, कभी-न-कभी तो हाथ लगेगी ही, लेकिन गलतियों से डरने की वजह से जिंदगी घुटन की शिकार हो सकती है। बहुत-सी मिसालें मिलती हैं इसकी और इस वक्त हम क्या हैं विज्ञान में, विकास में, चिंतन, आविष्कार, आदर्शों, उद्देश्यों, उदारवाद, विवेक, अनुभव, और हर चीज में, हर एक चीज में, हर बात में हम सभी स्कूली बच्चे हैं। दूसरों के विचारों के सहारे जीना हमें अच्छा लगता है, इसी की हमें आदत जो पड़ गई है! ठीक बात है न मैं ठीक कह रहा हूँ न?' रजुमीखिन दोनों महिलाओं के हाथ जोर से दबा कर हिलाते हुए चिल्लाया।

'आह, मुझसे क्या पूछे हो, मुझे पता भी नहीं,' बेचारी पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना बोलीं।

'हाँ, हाँ, सच कहते हैं... हालाँकि मैं आपकी हर बात से सहमत नहीं हूँ,' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने सच्चे दिल से कहा। अचानक उसके मुँह से एक हलकी-सी चीख निकल गई क्योंकि उसने उसका हाथ इतने जोर से दबाया कि तकलीफ होने लगी।

'सच जो आपने कहा सच है ...अरे, अब तो आप... आप...' वह मंत्रमुग्ध हो कर चिल्लाया, 'आप नेकी, शुद्धता, विवेक... और उत्कृष्टता का स्रोत हैं! अपना हाथ इधर लाइए... और आप भी लाइए। मैं आपके हाथों को चूमना चाहता हूँ, अभी यहीं, घुटनों के बल बैठ कर!'

यह कह कर वह घुटनों के बल वहीं सड़क की पटरी पर बैठ गया। खैरियत हुई कि उस वक्त वहाँ कोई था ही नहीं।

'बस, रहने दो, मैं तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। तुम कर क्या रहे हो?' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना दुखी हो कर चिल्लाईं।

'उठिए, उठिए!' दूनिया ने भी हँसते हुए कहा, हालाँकि वह परेशान भी हो रही थी।

'मैं तब तक नहीं उठूँगा जब तक आप मुझे अपना हाथ नहीं चूमने देंगी! यह बात हुई! लीजिए मैं उठ गया, और अब चलिए। मैं अभागा बेवकूफ हूँ, आपके लायक नहीं हूँ, और ऊपर नशे में भी हूँ... और मैं शर्मिंदा भी हूँ... मैं आपसे प्यार करने लायक नहीं हूँ, लेकिन आपके सामने सर झुकाना हर उस आदमी का फर्ज है, जो बिलकुल ही जानवर न हो। तो मैं अपना यह फर्ज पूरा कर चुका... यह रही आपकी रहने की जगह, और सिर्फ इसी की वजह से रोद्या ने आपके उस प्योत्र पेत्रोविच को भगा दिया, जो ठीक ही हुआ! उसकी यह मजाल! आपको ऐसी जगह में रखने की उसे हिम्मत कैसे पड़ी! कितनी शर्मनाक बात है! आप जानती हैं यहाँ कैसे-कैसे लोग किराएदार रखे जाते हैं और आप उसकी मंगतेर! आपसे उसकी सगाई हुई है न? अच्छी बात है, तो मैं आपको इतना बता दूँ कि आपका मँगेतर पक्का बदमाश है!'

'मिस्टर रजुमीखिन, आप भूल रहे हैं कि...' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना कुछ कहने जा रही थीं।

'जी, जी हाँ, आप ठीक कहती हैं, मैं अपने आपको भूल गया था। मैं अपनी इस हरकत पर शर्मिंदा हूँ,' रजुमीखिन ने जल्दी से माफी माँगते हुए कहा। 'लेकिन... लेकिन आप ऐसी बातें कहने पर मुझसे नाराज मत हों! इसलिए कि मैं ये बातें सच्चे दिल से कह रहा हूँ, इसलिए नहीं कि... हूँ! वह तो बड़ी शर्म की बात होगी; दरअसल इसलिए नहीं कि मुझे आपसे... हुँ! खैर, मैं इसकी वजह नहीं बताऊँगा, मेरी हिम्मत ही नहीं पड़ेगी! ...लेकिन आज जब वे तशरीफ लाए तो हम सबने देखा कि वे हमारी बिरादरी के आदमी नहीं हैं। इसलिए नहीं कि उन्होंने नाई के यहाँ जा कर बालों में घूँघर डलवाए थे, इसलिए भी नहीं कि उन्हें अपना सारा इल्म हम लोगों पर झाड़ने की जल्दी थी, बल्कि इसलिए कि वे सूम हैं, सटोरिए हैं, मक्खीचूस हैं और पक्के मसखरे हैं। यह बात एकदम साफ है, आप उन्हें बहुत होशियार समझती हैं जी नहीं, वे बेवकूफ हैं, सरासर बेवकूफ! और आपका उनका क्या जोड़ भगवान बचाए! देवियो! आप लोग समझ रही हैं न?' अचानक उनके कमरों की ओर जानेवाली सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते वह रुक गया, 'हालाँकि वहाँ मेरे सभी दोस्त शराब पिए हुए हैं, लेकिन वे ईमानदार हैं और हालाँकि हम सब लोग बहुत-सी बकवासें करते हैं, मैं भी करता हूँ, पर हम लोग इसी तरह बातें करते-करते आखिरकार सच्चाई तक पहुँचेंगे क्योंकि हम सही रास्ते पर हैं। लेकिन आपके प्योत्र पेत्रोविच... वे सही रास्ते पर नहीं हैं। ...हालाँकि मैं अभी उन लोगों को हर तरह की गालियाँ दे रहा था, लेकिन मैं उन सबकी इज्जत करता हूँ... मैं जमेतोव की इज्जत तो नहीं करता, फिर भी वह मुझे अच्छा लगता है, क्योंकि अभी उसकी उम्र ही क्या है... और वह साँड़ जोसिमोव भी, क्योंकि वह ईमानदार आदमी है और अपना काम जानता है। लेकिन बस, अब जाने दीजिए, कहा-सुना माफ कीजिए। माफ कर दिया न अच्छी बात है, तो फिर आइए, चलें। मुझे यह रास्ता मालूम है, मैं यहाँ आ चुका हूँ, यहाँ 3 नंबर में एक शर्मनाक वारदात हो गई थी... आप यहाँ कहाँ हैं? किस नंबर में? आठ में... अच्छा, तो रात को दरवाजा अंदर से बंद कर लीजिएगा। किसी को भीतर आने मत दीजिएगा। अभी पंद्रह मिनट में मैं सारा हाल ले कर आता हूँ और उसके आधे घंटे बाद जोसिमोव को लाऊँगा... आप देखती जाइए। तो मैं चला, भाग कर सीधे जाता हूँ।'

'हे भगवान, यह क्या होनेवाला है दुनेच्का...' चिंता और आश्चर्य के भाव से पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने अपनी बेटी से कहा।

'चिंता मत करो, माँ,' दूनिया ने अपना हैट और कोट उतारते हुए कहा। 'भगवान ने इस भले आदमी को हमारी मदद के लिए भेजा है, हालाँकि यह सीधा शराबियों की महफिल से उठ कर आया है। मेरी बात मानो, हम उस पर भरोसा कर सकते हैं। फिर रोद्या के लिए जो कुछ उसने किया है...'

'आह दूनिया, भगवान जाने वह आएगा भी कि नहीं! मैं रोद्या को छोड़ कर चली क्यों आई... क्या-क्या मैंने सोच रखा था इस मुलाकात के बारे में, और हो क्या गया! कैसा कठोर था वह, जैसे हमसे मिल कर उसे कोई खुशी ही न हुई हो...'

उनकी आँखों में आँसू भर आए।

'नहीं, ऐसी बात नहीं है माँ। तुमने ध्यान नहीं दिया, तुम तो सारे वक्त रोती ही रही। सख्त बीमारी की वजह से उनका दिमाग ठिकाने नहीं है... असली वजह यही है।'

'हाय, यह बीमारी! अब क्या होगा, क्या होगा अब और वह तुमसे बातें कैसी कर रहा था, दूनिया!' माँ ने लाचारी की दृष्टि से बेटी की ओर देखते हुए कहा। वह अपनी बेटी के मन की बात जानने की कोशिश कर रही थीं। दूनिया ने अपने भाई का पक्ष लिया तो उनकी आधी तसल्ली तो हो ही गई थी, क्योंकि इसका मतलब यह था कि उसने उसे माफ कर दिया था। 'मैं समझती हूँ कि कल वह इसके बारे में ठीक से सोच सकेगा,' माँ ने उसके विचारों की और भी थाह लेने की गरज से कहा।

'पर मैं समझती हूँ कि कल भी वह... उस बात के बारे में... यही कहेगा,' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने जोर दे कर कहा। पर सच तो यह है कि इससे आगे कहने को कुछ था भी नहीं, क्योंकि यह एक ऐसी बात थी जिस पर बात करते हुए पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना डर रही थीं। दूनिया ने आगे बढ़ कर माँ को प्यार कर लिया। माँ ने भी कुछ कहे बिना उसे कस कर गले लगा लिया। इसके बाद वे बैठ कर बेचैनी से रजुमीखिन के आने का इंतजार करने लगीं और सहमी-सहमी निगाहों से बेटी को देखती रहीं जो दोनों हाथ सामने बाँधे, विचारों में डूबी, कमरे में इधर-से-उधर टहल रही थी। अव्दोत्या रोमानोव्ना की आदत थी कि जब किसी बारे में सोचती थी, तो इधर-से-उधर टहलती रहती थी और माँ को ऐसे पलों में खलल डालने से डर लगता था।

नशे की हालत में रजुमीखिन का अचानक अव्दोत्या रोमानोव्ना पर फिदा हो जाना हास्यास्पद था। लेकिन उसकी इस सनक से अलग, बहुत से लोग अगर अव्दोत्या रोमानोव्ना को देख लेते तो उसकी इस हरकत को ठीक ही समझते। खास तौर पर उस पल में जब वह दोनों हाथ सीने पर बाँधे, विचारमग्न और उदास टहलती होती थी। अव्दोत्या रोमानोव्ना खासी खूबसूरत थी - लंबा कद, सुड़ौल, गठा हुआ शरीर और आत्मविश्वास कूट-कूट कर भरा हुआ। उसका यह आत्मविश्वास उसके हर हाव-भाव से झलकता था, हालाँकि उसकी वजह से उसकी शालीन चाल-ढाल और कोमलता में राई भर भी कमी नहीं आती थी। सूरत-शक्ल में वह अपने भाई से मिलती थी, लेकिन उसे सचमुच सुंदर कहा जा सकता था। बाल गहरे बादामी रंग के थे, अपने भाई के बालों के रंग से कुछ ही कम गहरे। लगभग काली आँखों में गर्व और स्वाभिमान की चमक थी लेकिन साथ ही उनमें कभी-कभी असाधारण दयालुता का भाव भी स्पष्ट दिखाई देता था। रंग पीला तो था, लेकिन यह स्वस्थ पीलापन था। चेहरे पर ताजगी और स्फूर्ति की चमक थी। मुँह जरा छोटा था और नीचे का भरा-भरा लाल होठ ठोड़ी की तरह ही कुछ बाहर को निकला हुआ था। उसके सुंदर चेहरे में बस यही एक जरा-सी असंगति थी, लेकिन इसकी वजह से उसमें एक विचित्र-सा, अनोखा और दंभ का भ्रम पैदा करनेवाला भाव आ गया था। उसकी मुद्रा उल्लासमय की बजाय हमेशा कुछ गंभीर और चिंतामग्न रहती थी; लेकिन मुस्कान, हलकी-फुलकी, यौवनमय, चिंतामुक्त हँसी उसके चेहरे पर ऐसी फबती थी कि देखते बनता था! यह स्वाभाविक ही था कि रजुमीखिन जैसा सहृदय, खुले दिल का, भोला, ईमानदार, लंबे-चौड़े डीलडौलवाला आदमी, जिसने पहले कभी उस जैसी किसी औरत को नहीं देखा था और जो उस वक्त पूरी तरह होश में भी नहीं था, फौरन उस पर फिदा हो गया। इसके अलावा, यह भी एक संयोग ही था कि उसने दूनिया को पहली बार ऐसे समय देखा था, जब अपने भाई के प्रति अपने प्रेम के कारण और उससे मिलने की अपार खुशी के कारण वह एकदम भिन्न रूप में दिखाई दे रही थी। बाद में रजुमीखिन ने भाई के अशिष्ट, क्रूर और कृतघ्नता भरे शब्दों पर आग-बगूला हो कर उसके निचले होठ को काँपते हुए भी देखा था - और उसी वक्त उसकी किस्मत का फैसला हो गया था।

लेकिन रस्कोलनिकोव की बेलगाम झक्की मकान-मालकिन प्रस्कोव्या के बारे में जब रजुमीखिन ने सीढ़ियों पर नशे में बात करते हुए यह कहा था कि उसे उसकी वजह से अव्दोत्या रोमानोव्ना से ही नहीं बल्कि पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना से भी जलन होने लगेगी, तो उसने सच ही कहा था। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना तैंतालीस साल की जरूर हो गई थीं। लेकिन उनके चेहरे पर उनकी पुरानी सुंदरता के निशान बाकी थे। वह देखने में सचमुच अपनी उम्र से बहुत छोटी लगती थीं, जैसा कि उन औरतों के साथ अकसर होता है जो बुढ़ापे तक अपनी भावनाओं में शांति, संवेदनशीलता और शुद्ध निष्कपट सहृदयता बनाए रखती हैं। प्रसंगवश हम बता दें कि बुढ़ापे तक अपनी सुंदरता को कायम रखने का तरीका यही है कि इन सब गुणों को बनाए रखा जाए। उनके बालों में जहाँ-तहाँ सफेदी आने लगी थी और वे पहले जितने घने भी नहीं रह गए थे। आँखों के चारों ओर बहुत पहले से ही कौए के पंजे की शक्ल की झुर्रियाँ पड़ गई थीं और चिंता और कष्ट के कारण गाल पिचक कर अंदर धँस गए थे। फिर भी उनका चेहरा सुंदर था। वे देखने में दूनिया का ही दूसरा रूप लगती थीं, बस उससे बीस साल बड़ी थीं, और उनका निचला होठ बाहर की ओर निकला हुआ नहीं था। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना भावुक तो थीं पर भावनाओं में सहज ही बह जानेवाली नहीं थीं। वे दब्बू थीं और आसानी से बातें मान लेती थीं, लेकिन बस एक हद तक। अपनी आस्थाओं के विपरीत भी वे बहुत कुछ मान लेने और दब जाने को तैयार हो जाती थीं, लेकिन ईमानदारी, सिद्धांत और गहरी आस्थाओं की एक सीमा थी, जिसे पार करने के लिए कोई भी चीज उन्हें मजबूर नहीं कर सकती थी।

रजुमीखिन के जाने के ठीक बीस मिनट बाद किसी ने धीमे से दो बार, जल्दी-जल्दी दरवाजा खटखटाया। वह वापस आ गया था।

'मैं अंदर नहीं आऊँगा, मेरे पास वक्त नहीं है,' दरवाजा खुलते ही उसने जल्दी से कहा। 'वह चुपचाप, गहरी नींद सो रहा है, जैसे कोई बच्चा सो रहा हो। भगवान करे वह दस घंटे तक ऐसे ही सोता रहे। नस्तास्या उसके पास है और मैं उससे कह आया हूँ कि जब तक मैं न आ जाऊँ, वह कहीं जाए नहीं। अब मैं जा कर जोसिमोव को लिए आता हूँ। वह आ कर आपको सारा हाल बताएगा और उसके बाद आप लोग आराम से सो जाइए क्योंकि आप इतनी थकी हुई दिखाई दे रही हैं कि अब कुछ कर नहीं सकतीं...'

और यह कह कर वह गलियारे में भागा।

'कैसा मुस्तैद और... वफादार नौजवान है!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने खुश हो कर कहा।

'बहुत ही अच्छा आदमी मालूम होता है!' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने फिर कमरे में इधर-से-उधर टहलते हुए कुछ जोश से जवाब दिया।

लगभग एक घंटे बाद उन्हें फिर बाहर गलियारे से कदमों की आहट और फिर दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनाई दी। इस बार दोनों औरतें रजुमीखिन के वादे पर पूरा भरोसा करके राह देख रही थीं। वह सचमुच जोसिमोव को ले आने में सफल रहा था। जोसिमोव शराब की महफिल छोड़ कर फौरन रस्कोलनिकोव के पास जाने को तैयार हो गया था, लेकिन वह बड़े संकोच और शंका के भाव से उन दोनों महिलाओं से मिलने आया क्योंकि इस मस्ती की हालत में उसे रजुमीखिन पर भरोसा नहीं था। लेकिन यह देख कर कि वे लोग सचमुच किसी मसीहा की तरह उसकी राह देख रही थीं, उसके स्वाभिमान की भावना पूरी तरह तृप्त हो गई और उसे अपनी इस प्रशंसा पर खुशी भी हुई। वह वहाँ कुल दस मिनट ही ठहरा होगा पर इतनी ही देर में उसने पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना को पूरी तरह यकीन दिला दिया और उनकी पूरी-पूरी तसल्ली कर दी। उसने गहरी हमदर्दी के साथ बातें कीं, लेकिन साथ ही उसके भाव में किसी महत्वपूर्ण परामर्श में भाग लेनेवाले नौजवान डॉक्टर जैसा ठहराव भी था और भरपूर गंभीरता भी थी। उसने किसी भी दूसरे विषय पर एक शब्द भी नहीं कहा और उन दोनों महिलाओं के साथ अधिक घनिष्ठता स्थापित करने की जरा भी इच्छा प्रकट नहीं की। कमरे में कदम रखते ही वह अव्दोत्या रोमानोव्ना के चकाचौंध कर देनेवाले रूप को देख कर दंग रह गया - इतना कि वह वहाँ जितनी देर भी रहा, उसने कोशिश उसकी ओर कोई भी ध्यान न देने की ही की और सारे वक्त केवल पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना को संबोधित करके बातें करता रहा। इन सब बातों से उसे गहरा दिली संतोष मिल रहा था। उसने ऐलान किया कि उसकी राय में बीमार में इस समय काफी संतोषजनक सुधार आ रहा था। उसके मत में रोगी की बीमारी की वजह कुछ हद तक तो पिछले कुछ महीनों के दौरान उसकी दुर्भाग्यपूर्ण भौतिक परिस्थितियाँ थीं, लेकिन कुछ हद तक उसकी वजह नैतिक भी थी, 'एक तरह से वह अनेक नैतिक तथा भौतिक प्रभावों, चिंताओं, आशंकाओं, मुसीबतों, कुछ विचारों... इत्यादि का नतीजा थी।' कनखियों से यह देख कर कि अव्दोत्या रोमानोव्ना उसके एक-एक शब्द को ध्यान से सुन रही थी, जोसिमोव इस विषय पर और भी विस्तार से बातें करने लगा। जब पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने डरते-डरते, कुछ चिंतित हो कर 'पागलपन के कुछ संदेह' के बारे में पूछा तो उसने सधी हुई पर निष्कपट मुस्कराहट के साथ जवाब दिया कि उसके शब्दों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है, कि रोगी के दिमाग में निश्चित रूप से कोई एक विचार जम कर रह गया है, जो कुछ-कुछ एकोन्माद (मोनोमेनिया) जैसी हालत है - वह, जोसिमोव, स्वयं इस समय डॉक्टरी की इस दिलचस्प शाखा का विशेष अध्ययन कर रहा था - लेकिन यह बात याद रखनी चाहिए कि रोगी आज तक सरसाम की हालत में था और... और यह कि उसके सगे-संबंधियों के यहाँ मौजूद होने से उसके ठीक होने में मदद मिलेगी और उसका दिमाग दूसरी ओर हटेगा, 'लेकिन बस इस शर्त पर कि अब उसे कोई नया धक्का न पहुँचे।' उसने अपनी यह आखिरी बात बड़े अर्थपूर्ण ढंग से कही। उसके बाद वह उठा और प्रभावशाली व विनम्र ढंग से झुक कर उसने विदा ली। उस पर आशीर्वादों, हार्दिक कृतज्ञता के बोलों और प्रार्थनाओं की बौछार हो रही थी, और अव्दोत्या रोमानोव्ना ने स्वयं उसकी ओर अनायास ही अपना हाथ बढ़ा दिया। जब वह बाहर निकला तो यहाँ आने पर बहुत खुश था और उससे भी ज्यादा खुश अपने-आपसे था।

'कल बात करेंगे; आप लोगों को भी तो सोना है!' रजुमीखिन ने जोसिमोव के पीछे-पीछे बाहर निकलते हुए अंत में कहा। 'मैं कल सुबह सारा हालचाल ले कर जल्द-से-जल्द आपके पास आऊँगा।'

जब वे दोनों बाहर सड़क पर आए तो जोसिमोव ने लगभग अपने होठ चाटते हुए कहा, 'लड़की है बड़ी मजेदार यह अव्दोत्या रोमानोव्ना!'

'मजेदार क्या कहा तुमने, मजेदार' रजुमीखिन गरजा और लपक कर जोसिमोव की गर्दन पकड़ ली। 'खबरदार, जो फिर कभी हिम्मत की... समझे... समझ गए न...' उसने कालर पकड़ कर उसे झिंझोड़ते हुए और दीवार से भिड़ा कर दबाते हुए चीख कर कहा। 'सुन लिया तुमने?'

'छोड़ मुझे, शराबी शैतान...' जोसिमोव ने अपने आपको छुड़ाने की कोशिश करते हुए कहा। फिर जब रजुमीखिन ने उसे छोड़ दिया तो वह उसे पहले तो घूरता रहा, फिर ठहाका मार कर हँस पड़ा। रजुमीखिन उसके सामने उदास सूरत बनाए, गहरे विचारों में खोया हुआ खड़ा रहा।

'सच बात है, मैं भी पक्का गधा हूँ,' उसने दुखी स्वर में जवाब दिया, 'लेकिन तुम भी...'

'नहीं, भाई, तुम्हारे जैसा नहीं। मैं कोई बेवकूफी के सपने नहीं देख रहा।'

वे दोनों चुपचाप चलते रहे और जब रस्कोलनिकोव के घर के पास पहुँचे तो रजुमीखिन ने चिंतित हो कर चुप्पी को तोड़ा।

'सुनो,' उसने कहा, 'आदमी तो तुम लाजवाब हो, लेकिन दूसरी खराबियों के अलावा तुम्हारी एक खराबी और भी है, और वह मैं जानता हूँ, यह कि तुम बहुत लंपट आदमी हो, और सो भी घटिया किस्म के। तुम तबीयत के कमजोर, हर वक्त बौखलाए रहनेवाले मुसीबत के मारे आदमी हो, तुमने दुनिया की हर सनक पाल रखी है, ऊपर से दिन-ब-दिन मोटे और काहिल होते जा रहे हो और यह तुम्हारे बस की बात नहीं कि मिलती हुई कोई चीज छोड़ दो। इसे मैं इसलिए घटिया कहता हूँ कि इस रास्ते पर चल कर आदमी सीधा मोरी में जा पहुँचता है। तुमने अपने आपको इतना लुंज-पुंज बना रखा है कि मेरी समझ में यही नहीं आता कि तुम अभी तक एक अच्छे डॉक्टर हो कैसे, और वह भी लगन से काम करनेवाले। तुम - एक डॉक्टर - परों से भरे हुए गद्दे पर सोते हो और रात को अपने मरीजों को देखने के लिए उठ भी जाते हो! बस तीन-चार साल की बात और है, फिर तो मरीजों के लिए उठना भी छोड़ दोगे... लेकिन छोड़ो भी यह सब, असल बात यह नहीं है कि बात यह है कि आज रात तुम्हें यहाँ मकान-मालकिन के फ्लैट में सोना है (मैंने मुश्किल से उसे राजी किया है) और मैं रसोई में सोऊँगा। यह तुम्हारे लिए उससे जान-पहचान बढ़ाने का बेहतरीन मौका है! तुम जो सोचते हो, वह बात नहीं है! उस तरह की राई भर भी बात नहीं है, बिरादर...'

'मैं तो कुछ सोच ही नहीं रहा।'

'यहाँ, बिरादर, तुम्हें मिलेगी विनम्रता, खामोशी, शरमीलापन, घोर निष्कलंकता... फिर भी वह आहें भरती है और मोम की तरह पिघल जाती है, बस पिघलती रहती है! मुझे उससे बचा लो, कुछ भी करके बचा लो! वह तो पटाखा है, एकदम पटाखा। सच कहता हूँ। मैं तुम्हारा पाई-पाई बदला चुका दूँगा, तुम्हारे लिए कुछ भी करूँगा!'

जोसिमोव पहले से भी ज्यादा जोर-से ठहाका मार कर हँसा।

'अरे भाई, काबू से बाहर न हो! मुझे उससे क्या लेना-देना?'

'तुम्हें कुछ ज्यादा मुसीबत नहीं उठानी पड़ेगी, मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ। जो भी जी में आए उससे बकवास करते रहो, बस उसके पास बैठे उससे बातें करते रहो। तुम डॉक्टर भी हो; उसकी भी बीमारी का कुछ इलाज करो। मैं कसम खा कर कहता हूँ कि तुम्हें पछतावा नहीं होगा। उसके पास पियानो है, और तुम तो जानते ही हो, मैं बस थोड़ा-बहुत सुर छेड़ना जानता हूँ। मुझे एक गाना याद है, ठेठ रूसी गाना : 'मैं खून के आँसू रोता हूँ...'। उसे इस तरह की खरी चीजें बहुत पसंद हैं - और हाँ, सारा किस्सा इसी गीत से शुरू हुआ; तुम तो बाकायदा पियानोवादक हो, उस्ताद हो, अपने वक्त के रूबिंस्टाइन हो... मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि तुम्हें किसी तरह का पछतावा नहीं होगा!'

'लेकिन तुमने उससे क्या कोई वादा कर रखा है कुछ लिख कर दिया है शादी करने का वादा... या ऐसी ही कोई और बात?'

'कुछ भी नहीं, कतई नहीं, इस तरह की कोई भी बात नहीं है! इसके अलावा, वह इस तरह की औरत है भी नहीं। चेबारोव ने इसकी कोशिश की थी...'

'तो फिर छोड़ो उसे!'

'लेकिन मैं उसे इस तरह छोड़ नहीं सकता!'

'क्यों नहीं छोड़ सकते?'

'कुछ ऐसी ही बात है कि नहीं छोड़ सकता! एक अजीब कशिश है उसमें, बिरादर!'

'तो फिर तुमने उसे अपने ऊपर फिदा क्यों कर लिया?'

'मैंने उसे फिदा नहीं किया; शायद अपनी बेवकूफी में मैं खुद उस पर फिदा हो गया। लेकिन उसे इस बात की जरा-सी भी परवाह नहीं कि तुम हो या मैं हूँ... बस कोई उसके पास बैठा आहें भरता रहे... यह, बिरादर... मैं सारी बात तुम्हें नहीं समझा सकता... देखो, तुम गणित अच्छी जानते हो, और आजकल उस पर काम भी कर रहे हो... उसे समाकलन गणित पढ़ाना शुरू कर दो; अपनी जान की कसम, मैं मजाक नहीं कर रहा, तुमसे सच कहता हूँ, उसके लिए कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वह नजरें जमाए तुम्हें एकटक देखती रहेगी और सालभर तक आहें भरती रहेगी। एक बार मैं लगातार दो दिन तक उससे प्रशा की संसद के ऊपरी सदन की बातें करता रहा (किसी-न-किसी चीज के बारे में तो बात करनी ही थी) - वह बस आहें भर-भर कर पिघलती रही! पर मुहब्बत की बात भूल कर भी न करना - वह शर्मीली तो इतनी है कि दौरा पड़ जाता है - बस उसे इतना जता दो कि तुम्हारा किसी भी तरह वहाँ से उठने को जी नहीं चाहता - बस काफी है। वहाँ हद से ज्यादा आराम है; एकदम अपने घर जैसा लगता है। पढ़ो, बैठो, लेटो, लिखो, जो जी चाहे करो। कभी-कभार थोड़ा प्यार भी कर सकते हो, मगर हाथ-पाँव बचा कर...'

'लेकिन मुझे उससे क्या लेना-देना?'

'आह, तुम्हें मैं कैसे समझाऊँ! देखो, बात यह है कि तुम्हारी जोड़ी लाजवाब रहेगी, तुम दोनों एक-दूसरे के लिए ही बनाए गए हो! तुम्हारे बारे में मैंने पहले भी सोचा था... आखिर तुम्हें पहुँचना तो यहीं है! तो क्या फर्क पड़ता है, जल्दी पहुँचो या देर में पहुँचो यहाँ परों से भरे गद्दोंवाली कुछ बात है, मेरे भाई - आह! और सिर्फ इतनी ही बात नहीं है। यहाँ एक कशिश है... यहाँ आ कर दुनिया खत्म हो जाती है। समझो कि यह लंगर डालने की जगह है, चैन से रहने की जगह है, जहाँ न कोई झगड़ा है न झंझट। यहीं धरती की धुरी है, वह तीन मछलियाँ जो धरती को अपने ऊपर रोके हुए हैं। बेहतरीन पकवान, जायकेदार कबाब, शाम को दहकते हुए समोवार से चाय की चुस्कियाँ, ठंडी-ठंडी आहें और गर्म शॉल, और सोने के लिए आतिशदान के ऊपर गर्म चबूतरा - ऐसा सुख मिलता है, जैसे मर चुके हो और फिर भी जिंदा रहते हो - एक साथ दोनों चीजों का मजा! खैर बिरादर, छोड़ो ये बातें, मैं भी कहाँ की बकवास ले कर बैठ गया! अब सोने का वक्त हो गया है। सुनो, रात को कभी मेरी आँख खुली तो मैं जा कर उसे देख लिया करूँगा। वैसे कोई जरूरत नहीं है, सब तो ठीक-ठाक ही है। तुम कोई फिक्र न करो; वैसे तुम्हारा जी चाहे तो एक बार तुम भी झाँक लेना। लेकिन अगर कोई बात दिखाई दे -सरसाम हो या बुखार - तो मुझे फौरन जगा लेना। वैसे कोई जरूरत पड़ेगी नहीं...'

अपराध और दंड : (अध्याय 3-भाग 2)

रजुमीखिन अगले दिन सबेरे सात के बाद उठा। वह बहुत परेशान और गंभीर था। उसके सामने बहुत-सी नई और अनसोची परीशानियाँ आ गई थीं। कभी उसने सोचा भी न था कि वह ऐसा जागना महसूस करेगा। पिछले दिन की एक-एक बात उसे याद थी और वह जानता था कि उसे एक बिलकुल ही नया और अनोखा अनुभव हुआ है, कि उसके दिल पर एक ऐसी छाप पड़ी है जैसी इससे पहले कभी नहीं पड़ी थी। इसके साथ ही उसने साफ तौर पर यह भी पहचाना कि जिस सपने ने उसकी कल्पना को जगा दिया था, वह कभी पूरा नहीं हो सकता था, उसका पूरा होना इतना असंभव था कि उसे सोच कर भी शर्म महसूस होती थी। उसने फौरन अपना ध्यान उन अधिक व्यावहारिक चिंताओं और कठिनाइयों की ओर कर दिया जो उसे 'उस अभिशप्त बीते हुए कल' से विरासत में मिली थीं।

उसे पिछले दिन की जो बातें याद थीं, उनमें सबसे अप्रिय यह थी कि उसने अपने 'नीच और कमीना' होने का परिचय दिया था। इस वजह से ही नहीं कि वह नशे में था बल्कि इस वजह से भी कि उसने उस नौजवान लड़की की स्थिति का लाभ उठा कर अपनी मूर्खताभरी ईर्ष्या में उसके मँगेतर को गालियाँ दी थीं, जबकि उसे उनके आपसी संबंधों और दायित्वों के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था, न ही उसे उस आदमी के बारे में ही कुछ मालूम था। तो इतनी जल्दबाजी में बेलगाम हो कर उसे बुरा-भला कहने का अधिकार ही उसे क्या था उसकी राय माँगी किसने थी, यह बात क्या सोची जा सकती थी कि अव्दोत्या रोमानोव्ना जैसी लड़की पैसे के फेर में किसी ऐसे-वैसे आदमी से शादी करेगी? मतलब यह कि उसमें कोई-न-कोई खूबी तो जरूर होगी। रहने की जगह लेकिन उसे आखिर रहने की जगह के बारे में मालूम ही क्या था कि वह कैसी थी वह एक फ्लैट ठीक करा रहा था... छिः! यह सब कुछ किस कदर नफरत के काबिल था! और यह क्या दलील है कि वह नशे में था, इस तरह का लुजलुजा बहाना तो और भी नीचता का सबूत था! शराब में सच्चाई होती है और सारी सच्चाई, 'मतलब यह कि उसके घिनौने और ईर्ष्या भरे हृदय की सारी गंदगी' बाहर आ गई थी! और क्या उसे, रजुमीखिन को, कभी इस बात का सपना देखने का भी हक था ऐसी लड़की के सामने उसकी क्या हस्ती थी -कल रात के इस शराबी बड़बोले की 'क्या कोई ऐसी बेतुकी और बेमेल जोड़ी की कल्पना भी कर सकता था!' रजुमीखिन का चेहरा इस विचार से ही शर्म से लाल हो गया। अचानक उसे साफ-साफ याद आया : कल रात सीढ़ियों पर उसने कहा था कि मकान-मालकिन को अव्दोत्या रोमानोव्ना से जलन होने लगेगी... यह बात तो कभी बर्दाश्त भी नहीं की जा सकती। उसने तंदूर के चबूतरे पर जोर से घूँसा मारा, हाथ भी जख्मी कर लिया, और उसकी एक ईंट भी गिरा दी।

'जाहिर है,' मिनट भर बाद वह आत्मतिरस्कार की भावना से मन-ही-मन बुदबुदाया, 'जाहिर है कि ये सारे कलंक न कभी धुल सकते हैं और न ही उनकी कोई सफाई दी जा सकती है... इसलिए इस बारे में सोचना भी बेकार है। मुझे चुपचाप उनके पास जाना चाहिए और... अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए... वह भी चुपचाप, बल्कि क्षमा भी नहीं माँगनी चाहिए, कुछ भी नहीं कहना चाहिए... क्योंकि सब कुछ मिट्टी में तो मिल ही चुका!'

तो भी कपड़े पहनते वक्त उसने अपना लिबास हमेशा के मुकाबले कहीं ज्यादा सावधानी से देखा। उसके पास कोई दूसरा सूट नहीं था... होता तो भी वह उसे शायद न पहनता। 'मैं उसे हरगिज न पहनता।' लेकिन वह दुनिया से चिढ़ा हुआ, फक्कड़ बना तो घूम नहीं सकता था। उसे दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुँचाने का कोई अधिकार नहीं था, खास तौर पर जब उन्हें उसकी मदद की जरूरत थी और उन्होंने उसे बुलाया था। उसने अपने कपड़े अच्छी तरह ब्रश से साफ किए। उसकी कमीज हमेशा बहुत बढ़िया रहती थी; इस मामले में वह खास तौर पर बहुत नफासत से और साफ-सुथरा रहता था।

उस सुबह उसने बहुत मल-मल कर अपना बदन साफ किया। नस्तास्या से उसे साबुन का एक टुकड़ा मिल गया था। उसने अपने बाल धोए, गर्दन धोई और हाथ तो खास तौर पर धोए। जब ठोड़ी पर बढ़ी हुई दाढ़ी का सवाल आया कि उसे बनाए या न बनाए (प्रस्कोव्या पाव्लोव्ना के पास उसके स्वर्गीय पति मि. जार्निस्तीन के बहुत उम्दा उस्तरे थे), तो उसने इस प्रश्न का उत्तर बहुत गुस्से से 'नहीं' में दिया। 'जैसी है रहने दो वैसी ही! अगर उन लोगों ने यह सोचा कि मैं जान-बूझ कर साफ दाढ़ी बना कर आया हूँ ताकि... जरूर वे यही सोचेंगी! नहीं, किसी भी हालत में नहीं।'

'और सबसे खास बात तो यह थी कि वह उजड्ड था, गंदा था, उसके तौर-तरीके पूरी तरह भठियारखाने वाले थे; और... और अगर यह मान भी लें कि उसे मालूम था कि उसमें शरीफ लोगोंवाली कुछ बुनियादी बातें थीं... तो भी इसमें इतना इतराने की क्या बात थी शरीफ तो हर आदमी को होना चाहिए, बल्कि उससे भी बढ़ कर... और भी (उसे याद आया) उसने भी तो ऐसी छोटी-छोटी कुछ बातें की थीं... जिन्हें बेईमानी तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी! ...और कभी-कभी उसके मन में विचार कैसे उठते थे! हुँ... और इन सब बातों का मुकाबला अव्दोत्या रोमानोव्ना से! लानत है! खैर, यही सही! अच्छी बात है, वह जान-बूझ कर गंदा रहेगा, चीकट रहेगा, भठियारखानों वाले तौर-तरीके अपनाएगा और रत्ती भर इसकी परवाह नहीं करेगा! बल्कि इससे भी बदतर बन जाएगा!...'

अपने आपसे वह कुछ इसी तरह की बातें कर रहा था कि इतने में जोसिमोव वहाँ आ पहुँचा। रात उसने प्रस्कोव्या पाव्लोव्ना के घर में बिताई थी।

वह जा तो अपने घर रहा था लेकिन पहले उसे मरीज को देखने की जल्दी थी। उसे रजुमीखिन ने बताया कि रस्कोलनिकोव बहुत गहरी नींद सो रहा है। जोसिमोव ने कहा -उसे जगाया न जाए और लगभग ग्यारह बजे फिर आ कर उसने देखने का वादा करके चला गया।

'वह तब तक अगर घर पर हुआ,' चलते-चलते उसने इतना और जोड़ा। 'लानत है! अगर मरीज काबू में न रहे तो कोई कैसे उसका इलाज करे? तुम्हें मालूम है कि वह उन लोगों के यहाँ जाएगा या वे लोग यहाँ आएँगी?'

'मैं समझता हूँ कि वे लोग ही आ रही हैं,' रजुमीखिन ने उसके प्रश्न का उद्देश्य समझते हुए जवाब दिया, 'और जाहिर है, वे लोग अपने परिवार के मुआमलों की बातें करेंगे। मैं तो चला जाऊँगा। डॉक्टर के नाते तुम्हें यहाँ होने का मुझसे ज्यादा हक है।'

'लेकिन मैं कोई पादरी तो नहीं जिसके सामने आदमी अपने पाप स्वीकार करता है। मैं तो आऊँगा और चला जाऊँगा। उनकी देखभाल के अलावा मुझे और भी बहुत से काम हैं।'

'मुझे एक बात की वजह से काफी परेशानी है,' रजुमीखिन माथे पर बल डाले हुए बीच में बोला। 'घर आते हुए, रास्ते में मैंने उससे नशे में काफी बकवास की थी... दुनिया भर की बातें... और यह भी कि तुम्हें डर है कि वह... पागल हो जाएगा।'

'तुमने माँ-बेटी से भी यह बात कह दी?'

'जानता हूँ मैं कि यह मेरी बेवकूफी थी! तुम्हारा जी चाहे, मुझे पीट लो। तुम क्या सचमुच ऐसा समझते थे?'

'मैं तुम्हें बताता हूँ, यह सब बकवास है। मैं भला ऐसा कैसे सोच सकता हूँ जब तुम मुझे उसके पास ले गए थे, तब खुद तुमने बताया था कि उसे किसी एक बात की सनक चढ़ गई है... पर कल हम लोगों ने आग में घी डालने का काम किया, मतलब यह कि तुमने किया, वह अपने पुताई करनेवाले का किस्सा सुना कर। बहुत अच्छी बातचीत हो रही थी तब, पर शायद उसी बात पर उसका पागलपन भड़क उठा होगा! काश, मुझे मालूम होता कि थाने में क्या-क्या हुआ था और यह कि किसी कमबख्त ने... यही शक करके उसका अपमान किया था! हुँह... तो कल मैं वह बातचीत होने ही न देता। इसी तरह के जुनूनी लोग राई का पहाड़ बना लेते हैं... और अपनी कल्पनाओं को सच्चाई की शक्ल में देखने लगते हैं... मुझे याद आता है कि, जहाँ तक मैं समझता हूँ जमेतोव के किस्से ने इस रहस्य पर से आधा पर्दा हटाया था। अरे मैं तो एक ऐसा मामला भी जानता हूँ जिसमें ऐसे ही एक खब्ती ने, वह चालीस साल का शख्स था, आठ साल के एक लड़के की गर्दन बस इसलिए काट दी थी कि रोज खाने की मेज पर वह लड़का उसका मजाक उड़ाता था। जिसे वह बर्दाश्त नहीं कर सकता था! और इस मामले में तो इसके फटे-पुराने कपड़े, सरफिरा पुलिस अफसर, बुखार, और यह शक! एक आदमी जो बीमारी के खब्त से यूँ ही आधा पागल हो, उसका हद दर्जे बढ़ा हुआ अहंकार बीमारी का रूप ले चुका हो, और उस पर से इन सब बातों का असर! बहुत मुमकिन है कि बीमारी की शुरूआत यही रही हो! खैर, छोड़ो इन बातों को! ...हाँ, यह जमेतोव आदमी तो बहुत उम्दा है, लेकिन... उसे कल रात वह सब कुछ नहीं बताना चाहिए था। वह भी पक्का बातूनी है!'

'लेकिन उसने बताया ही किसे बस तुम्हें और मुझे ही तो!'

'और पोर्फिरी को।'

'तो उससे क्या हुआ?'

'और हाँ, यह तो कहो कि उन लोगों पर तुम्हारा कुछ असर है, उसकी माँ और बहन पर? उनसे कह देना कि आज उसके बारे में जरा ज्यादा सावधानी बरतें...'

'वे ठीक से ही रहेंगी!' रजुमीखिन ने झिझकते हुए जवाब दिया।

'आखिर वह इस लूजिन के इतना खिलाफ क्यों है? पैसेवाला आदमी है और वह उसे ऐसा कोई नापसंद भी नहीं करती... जहाँ तक मैं समझता हूँ, इन लोगों के पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं है, क्यों?'

'ये सब सवाल भला क्यों?' रजुमीखिन चिढ़ कर बोला। 'मुझे क्या मालूम कि उनके पास एक कौड़ी भी है कि नहीं जा कर खुद पूछ लो, शायद पता चल जाए...'

'उफ! तुम भी कभी-कभी कैसी गधेपन की बातें करते हो! कल रात की चढ़ी हुई अभी तक उतरी नहीं! खैर, मैं चला; मेरी तरफ से अपनी प्रस्कोव्या पाव्लोव्ना को रात में मुझे ठहराने का शुक्रिया अदा कर देना। वह तो कमरा अंदर से बंद करके बिस्तर पर दराज, मैंने दरवाजे के बाहर से सलाम किया तो उसका भी जवाब नहीं; सुबह सात बजे उठीं, रसोई से समोवार सीधा उनके कमरे में लाया गया। मुझे तो उनका दीदार तक नसीब नहीं हुआ...'

ठीक नौ बजे रजुमीखिन बकालेयेव के मकान पर पहुँचा। दोनों महिलाएँ घबराई हुई, बेचैनी से उसकी राह देख रही थीं। वे सात बजे या उससे भी पहले उठ गई थीं। वह अंदर आया तो चेहरे पर रात जैसी स्याही छाई हुई थी। कुछ गड़बड़ा कर वह सलाम करने के अंदाज में झुका और इस बात पर फौरन ही अपने आपको धिक्कारने लगा। उसे इस बात का पूरा-पूरा अंदाजा भी नहीं था कि वह मिलने किससे आया है। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना उसकी ओर लपक ही पड़ीं। उन्होंने तपाक से उसके दोनों हाथ पकड़े और उन्हें लगभग चूमने लगीं। रजुमीखिन ने डरते-डरते कनखियों से अव्दोत्या रोमानोव्ना की ओर देखा, लेकिन उस पल उसके गर्वमय चेहरे पर कृतज्ञता और मित्रता का, संपूर्ण और अप्रत्याशित सम्मान का ऐसा भाव था। (जबकि वह उपहास दृष्टि और खुले तिरस्कार की आशा ले कर आया था) कि वह और भी निराश हो उठा। अगर उसे गाली दी गई होती तो भी वह शायद इतना न बौखलाता। सौभाग्य से बातचीत के लिए एक विषय तो था ही और वह फौरन उसका सहारा लेने से नहीं चूका।

यह सुन कर कि सब कुछ ठीक चल रहा था और उनका बेटा अभी तक जागा नहीं था, पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने इस बात पर अपनी खुशी का ऐलान किया क्योंकि 'एक बात ऐसी थी जिसके बारे में पहले से बात कर लेना बहुत ही जरूरी था।' इसके बाद नाश्ते की बात पूछी गई और उसे भी साथ ही नाश्ता करने का निमंत्रण मिला। वे लोग भी वास्तव में उसके साथ ही नाश्ता करने का इंतजार कर रही थीं। अव्दोत्या रोमानोव्ना ने घंटी बजाई। घंटी सुन कर फटे-पुराने, मैले कपड़े पहने एक गंदा-सा वेटर आया जिससे उन्होंने चाय लाने को कहा। आखिरकार चाय आई लेकिन ऐसे गंदे और बेहूदा ढंग से कि दोनों महिलाएँ शर्मिंदा हो गईं। रजुमीखिन ने ठहरने की उस जगह पर भड़भड़ाना शुरू ही किया था कि लूजिन की याद आते ही वह सकपका कर रुक गया। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना के सवालों की लगातार झड़ी से उसे बड़ी राहत मिली।

वह पौन घंटे तक बोलता रहा; बीच-बीच में वे दोनों उससे कुछ सवाल भी पूछती रहीं। रस्कोलनिकोव के पिछले एक साल के जीवन की जो सबसे महत्वपूर्ण बातें उसे मालूम थीं, वे उनके सामने उसने बयान कर दीं और अंत में उसकी बीमारी से संबंधित परिस्थितियों का ब्यौरा भी दे दिया। लेकिन उसने बहुत-सी बातें छोड़ भी दीं, जिनका छोड़ दिया जाना ही बेहतर था। इनमें थाने का वह दृश्य और उसके बाद की घटनाएँ शामिल थीं। उन्होंने उत्सुकता से यह पूरा किस्सा सुना और जब वह यह समझ रहा था कि वह अपनी बात खत्म कर चुका और उसके सुननेवालों की तसल्ली हो गई होगी, तभी उसे पता चला कि वे लोग यह समझ रही थीं कि उसने अभी अपनी बात शुरू भी नहीं की है।

'अच्छा बताओ, मुझे बताओ! तुम्हारे खयाल में... माफ करना, मुझे अभी तक तुम्हारा नाम भी नहीं मालूम!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना जल्दी से बोलीं।

'द्मित्री प्रोकोफिच!'

'मैं यह जानना चाहूँगी, द्मित्री प्रोकोफिच, पूरे दिल से जानना चाहूँगी कि आमतौर पर सभी बातों के बारे में अब... उसका रवैया क्या है... मेरा मतलब है... कैसे समझाऊँ... क्या बातें उसे पसंद हैं और क्या नापसंद हैं वह हमेशा क्या ऐसे ही चिड़चिड़ा रहता है अगर तुम्हें मालूम हो तो बताओ कि उसकी उम्मीदें क्या हैं और यूँ समझ लो कि उसके सपने क्या हैं, इस वक्त उस पर किन-किन बातों का असर पड़ रहा है कुल मिला कर मेरा मतलब यह है कि मैं चाहूँगी...'

'माँ, इतनी सारी बातों का जवाब कोई एक साथ कैसे दे सकता है,' दूनिया ने टोका।

'भगवान ही जानता है द्मित्री प्रोकोफिच, मुझे इसकी जरा भी उम्मीद नहीं थी कि वह ऐसी हालत में होगा!'

'स्वाभाविक है मादाम,' रजुमीखिन ने जवाब दिया। 'मेरी माँ तो रहीं नहीं, लेकिन मेरे चाचा हर साल आते हैं और लगभग हर बार ऐसा होता है कि वे मुझे मुश्किल से ही पहचान पाते हैं, यहाँ तक कि मेरी सूरत भी नहीं पहचानते, हालाँकि वे बहुत होशियार आदमी हैं। और आपके तीन साल से अलग रहने से भी बहुत फर्क पड़ा होगा। आपसे अब मैं क्या बताऊँ! रोदिओन को मैं डेढ़ साल से जानता हूँ। वह कुछ खोया-खोया उदास-सा रहता है, स्वाभिमानी है और जिद्दी भी, और इधर कुछ समय से - हो सकता है और भी पहले से - शक्की भी हो गया है। अपने मन से कोई बात सोच कर फिर उसी को पकड़ कर बैठ जाता है। स्वभाव का बहुत अच्छा और दिल का नेक है। सबके सामने अपनी भावनाओं को जाहिर करना पसंद नहीं करता और भले ही उसे बेरहमी का बर्ताव करना पड़े, अपने दिल की बात खोल कर सामने कभी नहीं रखेगा। कभी-कभी यूँ भी होता है कि किसी कुंठा या बीमारी का शिकार हुए बिना वह एकदम निर्मम और अमानवीय सीमा तक कठोर हो जाता है। तब लगता है कि एक नहीं, दो आदमी हैं; कभी वह एक हो जाता है, कभी दूसरा। कभी-कभी तो अपने आपमें इतना सिमट जाता है कि डर लगने लगता है। कहता है उसे इतना काम है कि हर चीज से उसमें बाधा पड़ती है लेकिन बस बिस्तर पर पड़ जाता है, करता कुछ भी नहीं है। किसी चीज का वह मजाक भी नहीं उड़ाता, इसलिए नहीं कि उसमें इतनी बुद्धि नहीं है बल्कि लगता है उसके पास ऐसी टुच्ची बातों में गँवाने के लिए वक्त नहीं है। उससे जो कुछ कहा जाता है, उसे कभी भी पूरी तरह नहीं सुनता। किसी खास मौके पर लोग जिस बात में दिलचस्पी लेते हैं, उसमें उसे कोई दिलचस्पी नहीं रहती। अपने आप को बहुत भाव देता है और शायद यह ठीक ही करता है। बस, और क्या बताऊँ! मैं समझता हूँ उस पर आप लोगों के आने का अच्छा ही असर पड़ेगा।'

'भगवान करे ऐसा ही हो,' उनके रोद्या का रजुमीखिन ने जो बयान किया था, उससे दुखी हो कर पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने आशा व्यक्त की।

आखिरकार रजुमीखिन ने अब अव्दोत्या रोमानोव्ना की ओर कुछ और भी बेझिझक हो कर देखने की हिम्मत की। जब वह बातें कर रहा था तो बीच-बीच में अकसर कनखियों से उसकी ओर देख लेता था, लेकिन बस एक पल के लिए देख कर अपनी नजरें फौरन दूसरी ओर फेर लेता था। अव्दोत्या रोमानोव्ना मेज के पास बैठी ध्यान से सुन रही थी। थोड़ी-थोड़ी देर बाद वह उठती और सीने पर हाथ बाँधे, होठ भींचे, कमरे में इधर-से-उधर टहलने लगती। बीच-बीच में टहलना रोके बिना वह कोई सवाल भी पूछ लेती। उसकी भी आदत यही थी कि जो कुछ कहा जाता था, उसे सुनती नहीं थी। उसने गहरे रंग के महीन कपड़े की पोशाक पहन रखी थी और गले में सफेद रंग का झीना रूमाल लपेट रखा था। रजुमीखिन को उनकी हर बात में बेहद गरीबी की झलक पाने में कुछ ज्यादा समय नहीं लगा। वह महसूस कर रहा था कि अव्दोत्या रोमानोव्ना अगर किसी महारानी की तरह सजी-बनी होती तो उससे उसे कोई डर नहीं लगता। लेकिन शायद इसी वजह से कि उसके कपड़े मामूली थे और उसके चारों ओर की हर चीज से मुफलिसी टपकती दिखाई देती थी, उसके दिल में डर समा गया। उसे अपने कहे हर शब्द से, हर हाव-भाव से डर लगने लगा था, और जो आदमी पहले से ही सहमा-सहमा हो उसके लिए यह बहुत ही परीशानी की बात थी।

'आपने मेरे भाई के स्वभाव के बारे में बहुत दिलचस्प बातें बताई हैं... और बड़े निष्पक्ष ढंग से बताई हैं। मुझे इस बात की खुशी है। मैं समझती थी आपको उनसे इतना गहरा लगाव है कि आप उनमें कोई बुराई देख ही नहीं सकते,' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने मुस्करा कर कहा। 'मैं समझती हूँ आपका यह कहना एकदम ठीक है कि उन्हें किसी औरत की बहुत जरूरत है,' कुछ सोच कर उसने इतना और जोड़ दिया।

'मैंने यह बात कही तो नहीं थी लेकिन इतना मैं जरूर कह सकता हूँ कि आपका यह कहना एकदम ठीक है; बात बस इतनी-सी है कि...'

'क्या?'

'वह किसी से प्यार नहीं करता और शायद कभी करे भी नहीं,' रजुमीखिन ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा।

'आपका मतलब यह है कि वह प्यार कर ही नहीं सकता?'

'आपको शायद मालूम नहीं अव्दोत्या रोमानोव्ना कि आप हर बात में हू-ब-हू अपने भाई जैसी हैं!' अचानक उसके मुँह से यह बात निकल गई और उसे इस पर खुद भी आश्चर्य हुआ। लेकिन फौरन यह याद आते ही कि अभी-अभी इससे पहले उसने उसके भाई के बारे में क्या कहा था, उसका रंग लाल हो गया और वह सिटपिटा गया। उसे देख कर अव्दोत्या रोमानोव्ना को बरबस हँसी आ गई।

'रोद्या के बारे में तुम दोनों गलती पर हो सकते हो,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने कुछ खीझ कर कहा। 'मैं अभी की उलझन की बात नहीं कर रही, दूनिया बेटी। प्योत्र पेत्रोविच ने अपने इस खत में जो कुछ लिखा है और जो कुछ तुम और मैं अपने मन में माने बैठे हैं, वह गलत हो सकता है। लेकिन, द्मित्री प्रोकोफिच, तुम सोच भी नहीं सकते कि वह कितना सनकी है। बस यूँ समझो कि बेहद बदमिजाज। जब वह पंद्रह साल का था तभी से मुझे कभी यह भरोसा नहीं रहा कि कब क्या कर बैठेगा। मुझे तो बल्कि पूरा यकीन है कि वह अब भी कोई ऐसा काम कर बैठेगा जिसे करने की बात कोई दूसरा आदमी सोच तक नहीं सकता... अब जैसे इसी बात को ले लो... बस डेढ़ साल पहले की बात है कि उसने मुझे ऐसे चक्कर में डाल दिया और मुझे ऐसा गहरा सदमा पहुँचाया कि मैं बस मरते-मरते बची... जब वह उस लड़की से ब्याह करने की सोच रहा था - क्या नाम था उसका? ...अरे वही, उसकी मकान-मालकिन की बेटी!'

'आपने उस मामले के बारे में विस्तार से सुना था?' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने पूछा।

'क्या तुम समझती हो...' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना जोश के साथ अपनी बात कहती रहीं, 'कि मैं घड़े-घड़े आँसू बहाती, बेपनाह रोती-गिड़गिड़ाती, बीमार पड़ जाती, दुख से मर भी जाती... या फिर हमारी गरीबी... कोई भी चीज उसे रोक सकती थी नहीं, इन सारी बाधाओं की परवाह किए बिना वह चुपचाप अपने रास्ते पर आगे चलता जाता। तो क्या हम लोगों से उसे प्यार नहीं?'

'उस सिलसिले के बारे में उसने मुझसे कभी एक बात भी नहीं कही,' रजुमीखिन ने सावधान हो कर जवाब दिया। 'लेकिन मैंने इस बारे में खुद प्रस्कोव्या पाव्लोव्ना के मुँह से कुछ सुना था, हालाँकि वह ऐसी औरत हरगिज नहीं है कि किसी के बारे में यूँ ही कोई बात फैलाए। और जो कुछ मैंने सुना था वह सचमुच जरा अजीब था।'

'क्यों... क्या सुना तुमने?' दोनों औरतों ने एक साथ पूछा।

'खैर, कोई खास बात नहीं। मुझे तो बस इतना मालूम हुआ कि वह शादी, जो सिर्फ उस लड़की के मरने की वजह से नहीं हो सकी, प्रस्कोव्या पाव्लोव्ना को कतई पसंद नहीं थी। लोग तो यह भी कहते हैं कि लड़की कतई सुंदर नहीं थी। वास्तव में मैंने तो यहाँ तक सुना है कि वह एकदम बदसूरत थी... हमेशा बीमार रहती थी... और कुछ अजीब-सी थी। लेकिन ऐसा लगता है कि उस लड़की में कुछ अच्छाइयाँ भी थीं। कुछ न कुछ अच्छाइयाँ उसमें जरूर रही होंगी, वरना यह बात समझ में नहीं आती... दहेज के नाम पर भी कुछ नहीं था और उसके पैसे के चक्कर में यह पड़ता भी नहीं... लेकिन ऐसे किसी मामले में कोई फैसला करना हमेशा मुश्किल होता है।'

'मुझे तो यकीन है कि वह जरूर अच्छी लड़की रही होगी,' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने संक्षेप में अपनी राय दी।

'भगवान मुझे क्षमा करे, मैं उसके मरने पर बहुत खुश हुई थी। यूँ मैं ठीक से नहीं कह सकती कि दोनों में से कौन किसे ज्यादा तकलीफ पहुँचाता - यह उसको पहुँचाता या वह इसको पहुँचाती,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने इस सिलसिले को खत्म करते हुए कहा। इसके बाद उन्होंने लूजिन के साथ कल जो कांड हुआ था, उसके बारे में टोह लेने के लिए उससे कुछ सवाल पूछने शुरू किए। वे कुछ झिझक रही थीं और बीच-बीच में कनखियों से लगातार दूनिया को देखती जाती थीं, जिस पर दूनिया को, साफ था कि उलझन हो रही थी। जाहिर था कि और चाहे जो कुछ भी हुआ था, उन्हें सबसे बढ़ कर इस घटना की वजह से काफी बेचैनी, बल्कि कहना चाहिए कि परीशानी थी। रजुमीखिन ने विस्तार से एक बार फिर सारी घटना बयान की, लेकिन इस बार वह अपनी राय भी जोड़ता गया। उसने खुल कर रस्कोलनिकोव को जान-बूझ कर प्योत्र पेत्रोविच का अपमान करने का दोषी ठहराया, और उसकी बीमारी की वजह से भी उसे माफ करने की कोशिश नहीं की।

'उसने अपनी बीमारी से पहले ही इसकी ठान रखी थी,' आखिर में उसने यह भी कहा।

'मेरा भी यही खयाल है,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने निराशा के भाव से अपनी सहमति दी। लेकिन उन्हें यह सुन कर बहुत ताज्जुब हो रहा था कि रजुमीखिन सावधानी से, बल्कि एक हद तक प्योत्र पेत्रोविच के प्रति सम्मान की भावना के साथ अपनी राय जाहिर कर रहा था। अव्दोत्या रोमानोव्ना को भी यह बात कुछ खटकी।

'तो प्योत्र पेत्रोविच के बारे में तुम्हारी राय यह है?' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना उससे पूछे बिना न रह सकीं।

'आपकी बेटी के होनेवाले पति के बारे में मेरी राय और क्या हो सकती है,' रजुमीखिन ने दृढ़ता और सहृदयता से जवाब दिया, 'पर मैं यह बात कोरी शिष्टता के नाते नहीं कह रहा, बल्कि इसलिए... सिर्फ इसलिए कह रहा हूँ कि अव्दोत्या रोमानोव्ना ने अपनी मर्जी से इस आदमी को स्वीकार किया है। कल रात उनके बारे में मैं जो बदतमीजी से बातें कर रहा था, उसकी वजह यह थी कि मैं बुरी तरह नशे में था और... उसके अलावा कुछ पागल भी हो गया था : जी हाँ, पागल, दीवाना, मेरा दिमाग एकदम फिर गया था... और मैं आज सुबह से अपनी उस हरकत पर शर्मिंदा हूँ।' उसका चेहरा लाल हो गया और इसके आगे वह कुछ और न बोल सका। अव्दोत्या रोमानोव्ना के चेहरे पर भी लाली दौड़ गई, लेकिन उसने भी इस चुप्पी को नहीं तोड़ा। जबसे उन लोगों ने लूजिन की चर्चा छेड़ी थी, तब से उसने एक शब्द भी नहीं कहा था।

उसके समर्थन के बिना पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना की समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। आखिर अटक-अटक कर बोलते हुए और बराबर कनखियों से अपनी बेटी की ओर देखते हुए उन्होंने यह बात मानी कि वे एक बात की वजह से बेहद परेशान थीं।

'देखो, द्मित्री प्रोकोफिच,' उन्होंने कहना शुरू किया। 'मैं द्मित्री प्रोकोफिच से खुल कर बात करूँ, दुनेच्का?'

'हाँ माँ, क्यों नहीं,' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने जोर दे कर कहा।

'असल में बात यह है,' उन्होंने जल्दी-जल्दी अपनी बात कहनी शुरू की, गोया अपनी परीशानी के बारे में बातें करने की इजाजत पा कर उनके दिमाग पर से कोई बोझ हट गया हो। 'आज बहुत सबेरे प्योत्र पेत्रोविच ने हमारे पास हमारे उस खत के जवाब में, जिसमें हमने उन्हें यहाँ अपने पहुँचने की खबर दी थी, एक पर्चा लिख कर भेजा। उन्होंने हमें लेने के लिए स्टेशन आने का वादा किया था, यह तो तुम जानते ही हो। पर इसकी बजाय उन्होंने रहने की इस जगह का पता हमें एक नौकर के हाथ भिजवा दिया और उससे हमें यहाँ तक का रास्ता बताने को कह दिया। हाँ, उन्होंने यह संदेश भी भिजवाया कि वे आज सबेरे यहाँ आएँगे। लेकिन आज सबेरे उनका यह पर्चा आया... तुम खुद पढ़ लो; इसमें एक बात भी है जिसकी वजह से मुझे बड़ी चिंता हो रही है... अभी तुम्हारी समझ में आ जाएगा कि वह कौन-सी बात है और द्मित्री प्रोकोफिच... मुझे अपनी राय सही-सही बताना! तुम रोद्या के स्वभाव को जितनी अच्छी तरह जानते हो, उतनी अच्छी तरह और कोई नहीं जानता, और हमें तुमसे बेहतर सलाह भी और कोई नहीं दे सकता। मैं तुम्हें बता दूँ कि दूनिया ने तो फौरन अपना फैसला कर लिया था लेकिन मैं अभी तक अपना मन नहीं बना सकी कि हमें क्या कदम उठाना चाहिए और मैं... मैं तुम्हारी राय जानने की राह देख रही थी।'

रजुमीखिन ने पर्चा खोला जिस पर पिछली शाम की तारीख पड़ी थी। लिखा था :

'प्रिय महोदया पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना, मैं पूरे सम्मान के साथ आपको यह सूचना देना चाहता हूँ कि ऐसी कुछ अड़चनों की वजह से, जिनका मुझे पहले से कोई पता नहीं था, मैं इतना लाचार रहा कि आपको लेने रेलवे स्टेशन नहीं आ सका; इस काम के लिए मैंने एक बहुत जिम्मेदार आदमी को भेज दिया था। कल सबेरे भी मैं आपके दर्शन पाने का सौभाग्य नहीं पा सकूँगा क्योंकि सेनेट में एक ऐसा काम आ पड़ा है, जिसे टाला नहीं जा सकता। अलावा इसके यह बात भी है कि जब आप अपने बेटे से और अव्दोत्या रोमानोव्ना अपने भाई से मिल रही हों तो मैं उस मुलाकात में विघ्न नहीं डालना चाहता। मैं आपसे मिलने और आपके प्रति अपना सम्मान प्रकट करने आपके निवास-स्थान पर कल शाम तक, बल्कि हद-से-हद आठ बजे तक उपस्थित हूँगा और इसके साथ ही मैं आपकी सेवा में अपनी यह हार्दिक, बल्कि मैं यह भी कह दूँ कि नितांत आवश्यक, प्रार्थना भी रखना चाहता हूँ कि हमारी भेंट के समय रोदिओन रोमानोविच वहाँ उपस्थित न रहें... क्योंकि मैं कल जब उनकी बीमारी के बीच उन्हें देखने गया तो उन्होंने सरासर मेरा ऐसा खुला अपमान किया कि आज तक किसी ने नहीं किया। अलावा इसके, मैं एक बात के बारे में आपसे निजी तौर पर नितांत आवश्यक और विस्तृत सफाई चाहता हूँ, क्योंकि मैं जानना चाहता हूँ कि इस बात के बारे में आपकी क्या राय है। मैं आपको पहले से ही यह सूचना भी देना चाहूँगा कि अगर मेरी इस प्रार्थना के बावजूद रोदिओन रोमानोविच से वहाँ भेंट हुई तो मैं वहाँ से फौरन चले आने पर मजबूर हूँगा और इसके लिए केवल आप दोषी होंगी। ये बातें मैं यह मान कर लिख रहा हूँ कि रोदिओन रोमानोविच, जो उनको देखने के लिए मेरे जाने के समय काफी बीमार लग रहे थे, अचानक दो ही घंटे बाद एकदम चंगे हो गए थे और इसलिए, घर से बाहर निकल सकने योग्य होने की वजह से, हो सकता है कि वह आपसे भी मिलने आएँ। मेरा यह विश्वास उस बात से और भी पक्का हो गया है, जो मैंने खुद एक शराबी के घर पर देखी जो सड़क पर गाड़ी से कुचल गया था और बाद में मर भी गया। उसकी बेटी को, जो बदचलन है, उन्होंने कफन-दफन के बहाने पच्चीस रूबल भी दिए, जिस पर मुझे गहरी हैरानी हुई क्योंकि मुझे मालूम था कि आपने वह रकम कितनी तकलीफें उठ कर जमा की थीं। इसके साथ ही आपकी सम्मानित पुत्री अव्दोत्या रोमानोव्ना के प्रति अपना विशेष सम्मान प्रकट करते हुए मैं आपसे मेरा श्रद्धापूर्ण नमस्कार स्वीकार करने की प्रार्थना करता हूँ।

आपका विनीत सेवक,

प. लूजिन।'

'अब मैं क्या करूँ द्मित्री प्रोकोफिच' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने लगभग रोते हुए अपनी बात कहनी शुरू की। 'मैं भला रोद्या को यहाँ आने से कैसे मना कर सकती हूँ कल उसने इतनी जिद करके कहा कि हम प्योत्र पेत्रोविच से साफ इनकार कर दें और अब हमें हुक्म दिया जा रहा है कि हम रोद्या को अपने यहाँ न आने दें! अगर उसे मालूम हो गया तो वह जान-बूझ कर यहाँ आएगा और... तब क्या होगा'

'अव्दोत्या रोमानोव्ना जो फैसला करें वैसा कीजिए,' रजुमीखिन ने फौरन और शांत भाव से उत्तर दिया।

'आह, कुछ समझ में नहीं आता! वह कहती है... भगवान जाने क्या कहती है... वह कुछ बताती ही नहीं कि चाहती क्या है! वह तो कहती है कि सबसे अच्छा यही होगा, या सबसे अच्छा न भी सही, लेकिन यह जरूरी है कि रोद्या यहाँ आठ बजे मौजूद रहे और यह कि उन दोनों की मुलाकात हो... मैं उसे यह खत भी नहीं दिखाना चाहती थी, बल्कि उसे तुम्हारी मदद से किसी तरकीब से यहाँ आने से रोकना चाहती थी... क्योंकि वह काफी चिड़चिड़ा हो गया है... इसके अलावा वह बात भी मेरी समझ में नहीं आती, उस शराबी की, जो मर गया और उसकी बेटी की, कि उसने उसकी बेटी को सारा पैसा दे कैसे दिया... जिसके...'

'जिसके लिए तुम्हें काफी कुरबानी देनी पड़ी थी, माँ,' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने उसकी बात पूरी की।

'वह कल अपने होश में नहीं था,' रजुमीखिन ने कुछ सोचते हुए कहा, 'काश आपको मालूम होता कि कल उसने एक रेस्तराँ में क्या किया, हालाँकि उसमें भी एक तुक था... हुँ! कल रात जब हम लोग घर जा रहे थे तो एक मरे हुए आदमी और एक लड़की के बारे में वह कुछ कह तो रहा था लेकिन मेरी समझ में एक शब्द भी नहीं आया... लेकिन कल रात मैं खुद भी...'

'सबसे अच्छी बात यह होगी माँ, कि हम लोग खुद उसके पास जाएँ और मैं यकीन दिलाती हूँ कि वहाँ पहुँच कर हमारी समझ में फौरन आ जाएगा कि हमें क्या करना है। इसके अलावा, अब देर भी हो रही है - बाप रे, दस बज चुके,' वह अपने गले में वेनिस की बनी महीन-सी जंजीर से लटकी हुई एक बहुत ही शानदार सुनहरी घड़ी में, जिसका उसकी बाकी पोशाक के साथ कोई मेल नहीं दिखाई पड़ रहा था, वक्त देख कर चिल्ला पड़ी। 'मँगेतर ने तोहफे में दी होगी,' रजुमीखिन ने सोचा।

'हमें चलना चाहिए बेटी, फौरन चल देना चाहिए,' उसकी माँ ने हड़बड़ी में कहा। 'हमारे इतनी देर से आने पर वह यही सोचेगा कि कलवाली बात पर हम लोग अभी तक नाराज हैं। भगवान भला करे।'

यह कहते हुए उन्होंने जल्दी-जल्दी अपना लबादा पहना और टोपी लगा ली; दूनिया भी तैयार हो गई। रजुमीखिन ने देखा कि उसके दस्ताने बदरंग और भद्दे ही नहीं थे बल्कि उनमें जगह-जगह सूराख भी हो गए थे। तो भी पोशाक से साफ दिखाई देनेवाली गरीबी की वजह से दोनों महिलाओं में एक विशेष गरिमा आ गई थी, जो ऐसे लोगों में हमेशा पाई जाती है, जो मामूली कपड़े भी सँवार कर सलीके से पहनना जानते हैं। रजुमीखिन ने श्रद्धा के साथ दूनिया की ओर देखा और इस बात पर गर्व का अनुभव किया कि वह उसके साथ चल रहा था। 'वह रानी जो कैदखाने में अपने मोजे रफू करती थी,' उसने सोचा, 'उस वक्त भी सोलहों आने रानी ही लगती होगी, बल्कि जैसी वह आलीशान दावतों में और दरबार लगने पर लगती रही होगी, उससे भी ज्यादा रानी लगती होगी।'

'हे भगवान!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने दुखी हो कर कहा, 'मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे कभी अपने बेटे से, अपने कलेजे के टुकड़े रोद्या से, मिलने में भी डर लगेगा। मुझे तो अब डर लग रहा है, द्मित्री प्रोकोफिच,' उन्होंने सहमी हुई नजर से उसे देख कर कहा।

'डरो नहीं, माँ,' दूनिया ने उन्हें चूमते हुए कहा, 'भरोसा करो उस पर, जैसे मैं करती हूँ।'

'अरे, भरोसा तो है उस पर लेकिन सारी रात मेरी आँख नहीं लगी,' बेचारी माँ ने कातर हो कर कहा।

वे लोग बाहर सड़क पर आ चुके थे।

'जानती हो दूनिया, मेरी आँख आज सबेरे जब थोड़ी देर को लगी तो मैंने सपने में मार्फा पेत्रोव्ना को देखा... वे सर से पाँव तक सफेद कपड़े पहने थीं... मेरे पास आईं और मेरा हाथ पकड़ कर मेरी ओर सर हिलाया, लेकिन इतने झटके से गोया मुझे दोष दे रही हों... यह क्या अच्छा शगुन है अरे, तुम नहीं जानते द्मित्री प्रोकोफिच, मार्फा पेत्रोव्ना मर चुकी हैं!'

'नहीं, मुझे नहीं मालूम था। ये मार्फा पेत्रोव्ना हैं कौन?'

'एकदम अचानक मर गईं; जरा सोचो...'

'बाद में, माँ,' दूनिया ने बात काटते हुए कहा। 'इन्हें क्या मालूम कि मार्फा पेत्रोव्ना कौन थीं।'

'अरे, तुम नहीं जानते मैं समझ रही थी तुम्हें हम लोगों के बारे में सब कुछ मालूम है। माफ करना, द्मित्री प्रोकोफिच, इधर कुछ दिनों से मैं न जाने क्या-क्या सोचती रहती हूँ। मैं तुम्हें सचमुच हम सबके लिए भगवान की देन समझती हूँ, और इसलिए मैंने मान लिया था कि तुम हम लोगों के बारे में सब कुछ जानते होगे। मैं तो तुम्हें अपना रिश्तेदार समझने लगी हूँ... मेरी इस बात का बुरा न मानना। अरे, यह तुम्हारे दाहिने हाथ में क्या हुआ कहीं चोट खा ली क्या?'

'हाँ, चोट लग गई थी,' रजुमीखिन ने दबे स्वर में जवाब दिया। वह खुशी से फूला जा रहा था।

'मैं कभी-कभी अपने दिल की बात कह देती हूँ, और दूनिया मुझे टोकती है... लेकिन भैया, वह भी कैसे दड़बे में रहता है! मालूम नहीं, अभी जागा भी होगा कि नहीं। यह औरत, उसकी मकान-मालकिन, उस जगह को कमरा कहती है सुना, तुम कह रहे थे कि वह अपनी भावनाएँ किसी के सामने खोल कर रखना नहीं चाहता... तो मैं अगर अपनी कमजोरियाँ उसके सामने रखूँगी तो उसे झुँझलाहट ही होगी! मुझे सलाह दो द्मित्री प्रोकोफिच, मैं उसके साथ किस तरह का बर्ताव करूँ। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता, मैं तो एकदम हैरान-सी हूँ!'

'उसके माथे पर अगर बल पड़े हुए हों तो उससे किसी बात के बारे में कुछ ज्यादा मत पूछिएगा। उससे उसकी तंदुरुस्ती के बारे में ज्यादा मत पूछिएगा; यह उसे अच्छा नहीं लगता।'

'आह, द्मित्री प्रोकोफिच, माँ होना भी कैसी मुसीबत है! लो, ये तो सीढ़ियाँ आ गईं... कैसी बेढब सीढ़ियाँ हैं!'

'माँ, तुम्हारा चेहरा एकदम पीला पड़ गया है! इतनी दुखी न हो, माँ,' दूनिया ने एक बाँह में उसे कसते हुए कहा और फिर चमकती हुई आँखों से देख कर बोली : 'वह तुम्हें देख कर खुश ही होगा, तुम बेकार ही परेशान हो रही हो।'

'आप लोग ठहरिए, मैं जरा झाँक कर देख तो लूँ कि वह जाग गया है या नहीं।'

रजुमीखिन आगे बढ़ गया। दोनों औरतें धीरे-धीरे पीछे आ रही थीं। जब वे चौथी मंजिल पर मकान-मालकिन के दरवाजे पर पहुँचीं तो उन्होंने देखा कि उसके दरवाजे में एक पतली-सी दरार खुली थी और अंदर के अँधेरे में से दो काली-काली आँखें उन्हें देख रही थीं। जब उनकी आँखें मिलीं तो दरवाजा अचानक इतने जोर से बंद कर दिया गया कि पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना के मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गई।

अपराध और दंड : (अध्याय 3-भाग 3)

'ठीक, बिलकुल ठीक!' जोसिमोव उनके अंदर आते ही खुश हो कर ऊँचे स्वर में बोला। वह दस मिनट पहले ही आया था और सोफे पर पहलेवाली जगह पर ही बैठा था। रस्कोलनिकोव सामनेवाले कोने में बैठा था। वह मुँह-हाथ अच्छी तरह धोए हुए, बाल बनाए हुए और सारे कपड़े पहने हुए था, जैसा कि उसने इधर एक अरसे से नहीं किया था। कमरा ठसाठस भर गया। नस्तास्या फिर भी मेहमानों के पीछे-पीछे अंदर आ गई और उनकी बातें सुनने के लिए वहीं रुकी रही।

कल की हालत के मुकाबले में रस्कोलनिकोव लगभग पूरी तरह ठीक था, हालाँकि उसका चेहरा अब भी पीला, बेजान और उदास लगता था। देखने में वह किसी घायल आदमी जैसा या किसी ऐसे शख्स जैसा लगता था जो कोई भयानक शारीरिक कष्ट झेल चुका हो। भौहें तनी हुईं, होठ भिंचे हुए और आँखों में बुखार जैसी हालत। बहुत थोड़ा बोलता था और वह भी अटक-अटक कर, मानो कोई फर्ज पूरा कर रहा हो। चाल-ढाल में एक बेचैनी-सी थी।

बस एक ही कमी रह गई थी। अगर उसकी बाँह स्लिंग में टिकी होती या उँगली पर पट्टी बँधी होती तो उसका हुलिया उस आदमी जैसा होता, जिसके हाथ में चोट लगी हुई हो या जिसे कोई फोड़ा बेहद दर्द कर रहा हो।

माँ और बहन के आने पर उसके पीले, उदास चेहरे पर एक पल के लिए चमक-सी आ गई। लेकिन इसी वजह से उस पर निराशा की मुर्दनी की बजाय गहरी पीड़ा का भाव आ गया था। चमक तो थोड़ी देर में गायब हो गई लेकिन पीड़ा का भाव बना रहा। नई-नई डॉक्टरी शुरू करनेवाले नौजवान डॉक्टर के पूरे उत्साह के साथ जोसिमोव ने अपने मरीज को ध्यान से देखा, उसकी हालत पर गहराई से विचार किया और यह नतीजा निकाला कि अपनी माँ और बहन के आने से उसे कोई खुशी नहीं हुई थी, बल्कि अंदर ही अंदर कोई कड़वा संकल्प पैदा हो गया था, यह कि वह एक बार फिर घंटे-दो घंटे यातना झेल लेगा, जिसे टाला नहीं जा सकता था। बाद में उसने देखा कि उनके बीच जो बातचीत हुई उसका एक-एक शब्द गोया किसी दुखते हुए जख्म को छेड़ कर उसमें टीस पैदा कर रहा था। लेकिन इसके साथ ही उसे उस मरीज की अपने पर काबू रखने और अपनी भावनाओं को छिपाने की ताकत पर हैरत भी हो रही थी, जो अभी कल तक जरा-जरा-सी बात पर पागलों की तरह भड़क उठता था।

'हाँ, मुझे खुद लगता है कि मैं लगभग एकदम ठीक हो चुका हूँ,' रस्कोलनिकोव ने माँ और बहन को चूम कर उनका स्वागत करते हुए कहा। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना फौरन इससे चहक उठीं। 'और मैं यह बात उसी तरह नहीं कह रहा जिस तरह कल कही थी,' उसने दोस्ताना ढंग से रजुमीखिन का हाथ दबाते हुए कहा।

'आज इसे देख कर मुझे सचमुच ताज्जुब हो रहा है,' जोसिमोव ने कहना शुरू किया। वह इन दो महिलाओं के आ जाने से खुश था क्योंकि वह अपने मरीज के साथ दस मिनट भी बातचीत करने में असफल रहा था। 'यह सिलसिला अगर इसी तरह चलता रहा तो यह तीन-चार दिन में पहले जैसा ही हो जाएगा, मेरा मतलब है कि एक महीने पहले या दो महीने पहले जैसा... या शायद वैसा ही जैसा तीन महीने पहले था। इसकी हालत काफी दिनों से धीरे-धीरे बिगड़ती आई है... क्यों अब मान भी लो कि यह सब शायद तुम्हारा अपना किया-धरा है' उसने कुछ झिझकते हुए मुस्करा कर कहा, गोया अब भी डर रहा हो कि कहीं वह चिढ़ न जाए।

'बहुत मुमकिन है,' रस्कोलनिकोव ने सपाट लहजे में जवाब दिया।

'मैं तो यह भी कहना चाहूँगा,' जोसिमोव ने उत्साह से अपनी बात आगे बढ़ाई, 'कि तुम्हारे ठीक होने का पूरा दारोमदार खुद तुम पर है। चूँकि अब तुमसे बात की जा सकती है, इसलिए मैं तुम्हारे दिमाग में यह बात अच्छी तरह बिठाना चाहूँगा कि तुम्हारे लिए उन बुनियादी वजहों से बचना निहायत जरूरी है, जो तुम्हारी यह बीमारी पैदा कर सकती हैं। मेरा मतलब है कि जो तुम्हारी इस हालत की जड़ हैं। तुम अगर ऐसा करोगे तो अच्छे हो जाओगे, और नहीं करोगे तो तुम्हारी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जाएगी। ये बुनियादी वजहें क्या हैं, मुझे नहीं मालूम, लेकिन तुम्हें जरूर मालूम होंगी। तुम समझदार आदमी हो, और जाहिर है तुमको इन वजहों को खुद पहचानना होगा। मैं समझता हूँ तुम्हारे बहकने की पहली मंजिल उसी वक्त शुरू हुई जब तुमने युनिवर्सिटी छोड़ी थी। तुम्हें खाली नहीं बैठना चाहिए। सो मैं समझता हूँ कि अगर तुम कोई काम करते रहोगे और अपने सामने कोई लक्ष्य रखोगे तो बहुत जल्द फायदा होगा।'

'हाँ, तुम ठीक कहते हो... मैं जल्द-से-जल्द यूनिवर्सिटी वापस जाने की कोशिश करूँगा और फिर... सब कुछ ठीक हो जाएगा...'

जोसिमोव ने उपदेश की ये बातें एक हद तक उन महिलाओं पर अपनी धाक जमाने के लिए शुरू की थी। लेकिन जब भाषण निबटा कर उसने अपने मरीज पर एक नजर डाली और उसके चेहरे पर एक कड़वी मुस्कराहट देखी तो उसे कुछ हैरत जरूर हुई। लेकिन यह हालत बस एक पल ही रही। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने फौरन जोसिमोव का शुक्रिया अदा करना शुरू कर दिया, खास तौर पर पिछली रात उनके यहाँ आने का।

'क्या! कल रात भी यह तुम लोगों से मिला था' रस्कोलनिकोव ने गोया चौंक कर पूछा। 'तब तो तुम लोग इतने लंबे सफर के बाद भी सोई नहीं होगी!'

'अरे नहीं रोद्या, वह तो बस दो बजे तक की बात थी। यूँ घर पर भी तो हम और दूनिया कभी दो बजे से पहले सोते नहीं।'

'मेरी समझ में नहीं आता कि इसका शुक्रिया मैं कैसे अदा करूँ,' रस्कोलनिकोव अचानक माथे पर बल डाल कर और नीचे देखते हुए कहता रहा। 'पैसे देने का सवाल तो अलग, मुझे इसकी चर्चा छेड़ने के लिए माफ करना,' उसने जोसिमोव की ओर मुड़ कर कहा। 'मेरी समझ में सचमुच नहीं आता कि मैंने तुम्हारे साथ कौन-सा ऐसा उपकार किया है जो तुम खास तौर पर मेरा इतना ध्यान रख रहे हो! मेरी समझ में कतई नहीं आती यह बात... और... और... सच पूछो तो यह मेरे लिए एक बोझ बन गई है, क्योंकि मेरी समझ में नहीं आती। मैं तुमसे साफ-साफ कह रहा हूँ।'

'परेशान न हो!' जोसिमोव ने जबरदस्ती की हँसी हँसते हुए कहा। 'यूँ समझ लो कि तुम मेरे पहले मरीज हो, और हम लोग जब नई-नई डॉक्टरी शुरू करते हैं तो अपने शुरुआती मरीजों से हमें ऐसा लगाव हो जाता है जैसे वे हमारे बच्चे हों; कुछ तो उनसे प्यार-सा करने लगते हैं। यूँ मेरे पास मरीज भी कुछ ज्यादा नहीं हैं।'

'इस बारे में तो मैं कुछ कहूँगा भी नहीं,' रस्कोलनिकोव ने रजुमीखिन की ओर इशारा करते हुए कहा, 'हालाँकि इसे भी मुझसे झिड़कियों और मुसीबतों के अलावा कुछ नहीं मिला।'

'कैसी बकवास कर रहा है! क्यों, आज इतना जज्बाती भला क्यों हुआ जा रहा है?' रजुमीखिन ऊँचे स्वर में बोला।

अगर उसकी समझ जरा और पैनी होती तो वह आसानी से देख लेता कि उसमें जज्बात का नाम भी नहीं था, बल्कि उसकी उलटी ही कोई चीज थी। लेकिन दूनिया ने इस बात को ताड़ लिया। वह अपने भाई को गौर-से और बेचैनी से देखे जा रही थी।

'रहा तुम्हारा सवाल माँ, तो मैं कुछ कहने की हिम्मत भी नहीं कर सकता,' वह इस तरह कहता रहा जैसे कोई रटा हुआ सबक सुना रहा हो। 'आज जा कर मुझे इस बात का कुछ अंदाजा हुआ कि कल मेरी वापसी की राह देखते हुए तुम्हें कितनी तकलीफ हुई होगी।' यह सब कुछ कहने के बाद उसने एक शब्द भी कहे बिना, मुस्कराते हुए अचानक अपनी बहन की ओर हाथ बढ़ा दिया। लेकिन इस मुस्कराहट में सच्ची और निष्कपट भावना की चमक थी। दूनिया ने फौरन इस बात को देख लिया और बेहद खुश हो कर, कृतज्ञता के भाव से तपाक से उसका हाथ दबाया। उनके कल के झगड़े के बाद रस्कोलनिकोव ने उसे पहली बार संबोधित था। भाई-बहन के बीच इस तरह फिर से पक्की सुलह होते देख कर माँ का चेहरा हद दर्जा खुशी से खिल उठा।

'बस, इसकी यही बात मुझे बेहद भाती है,' रजुमीखिन, जिसे हर बात बढ़ा-चढ़ा कर कहने की आदत थी, झटके से कुर्सी पर पहलू बदलते हुए मुँह-ही-मुँह में बुदबुदाया। 'ऐसी अदाएँ भी नजर आती हैं इसके हावभाव में!'

'और करता किस ढंग से है यह सब,' माँ मन ही में सोच रही थीं। 'कैसे उदार भाव हैं इसके, कितने सीधे-सादे ढंग से, कैसी कोमलता से उसने अपनी बहन के साथ कल की सारी गलतफहमी दूर कर दी। एकदम सही समय पर उसकी ओर अपना हाथ बढ़ा कर, उसकी ओर यूँ देख कर... और कितनी अच्छी उसकी आँखें हैं, पूरा मुखड़ा कितना सुंदर है। ...देखने में दूनिया से भी सुंदर लगता है ...मगर, हे भगवान, सूट तो देखो - कैसे भोंडे कपड़े पहन रखे हैं। ...अफानासी इवानोविच की दुकान का चपरासी वास्या भी इससे अच्छे कपड़े पहनता होगा! जी चाहता है आगे बढ़ कर इसे कलेजे से लगा लूँ... खुश हो कर रोऊँ, खूब रोऊँ - लेकिन डर लगता है... क्या बताऊँ, कैसा अजीब लगता है यह! बातें कैसी मीठी कर रहा है, लेकिन मुझे डर लगता है! आखिर, मुझे किस बात का डर लगता है...'

'अरे रोद्या यकीन नहीं आएगा तुम्हें,' माँ अचानक बोलने लगीं गोया उन्हें उन शब्दों के जवाब में कुछ कहने की जल्दी हो, जो बेटे ने उनसे कहे थे, 'कल दूनिया और मैं कितने दुखी थे! अब जब कि सारा झगड़ा निबट गया है, हम सब फिर से बहुत खुश हैं -इतना तो मैं कह सकती हूँ। जरा सोचो, हम लोग तुमसे मिलने के लिए इतने बेताब थे कि रेलगाड़ी से उतरते ही लगभग सीधे यहाँ आए... और उस औरत ने - अरे, यह रही वह! कैसी हो, नस्तास्या! ...इसने हमें आते ही बताया कि तुम तेज बुखार में पड़े थे, सरसाम ही हालत में डॉक्टर के पास से भाग कर बाहर चले गए थे और लोग तुम्हें बाहर सड़क पर ढूँढ़ रहे थे। तुम सोच भी नहीं सकते कि हमें उस वक्त कैसा लगा होगा! मुझे अचानक लेफ्टिनेंट पोतांचिकोव का अन्जाम याद आ गया... तुम्हारे बाप के एक दोस्त थे - तुम्हें तो उनकी याद नहीं होगी, रोद्या - वह भी तेज बुखार में इसी तरह भाग कर बाहर निकल गए और आँगन के कुएँ में गिर पड़े। कहीं अगले दिन जा कर ही निकाले जा सके। और हमने तो बात को सौ गुना बढ़ा दिया था। हम तो मदद के लिए भाग कर प्योत्र पेत्रोविच के पास जानेवाले थे... क्योंकि हम अकेले थे, एकदम अकेले,' उन्होंने दर्द में डूबी हुई आवाज में कहा और अचानक रुक गईं; उन्हें याद आ गया कि अभी प्योत्र पेत्रोविच की बात करना खतरे से खाली नहीं होगा, पर अब हम सब फिर से बहुत खुश हैं।'

'हाँ... झुँझलाने की बात तो है...' रस्कोलनिकोव जवाब में बुदबुदाया। लेकिन वह विचारों में ऐसा डूबा हुआ, कुछ खोया-खोया-सा था कि दूनिया घबरा कर उसे घूरती रही।

'मैं और क्या कहना चाहता था,' वह कुछ याद करने की कोशिश करता हुआ कहता रहा। 'अरे, हाँ माँ, और दूनिया तुम भी, तुम लोग यह न समझना कि आज आ कर तुम लोगों से मिलने का मेरा कोई इरादा नहीं था या इस बात की राह देख रहा था कि पहले तुम लोग यहाँ आओ।'

'कैसी बातें करते हो, रोद्या' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने दुखी हो कर कहा। उन्हें भी उसकी बात पर ताज्जुब हुआ था।

'क्या यह जवाब फर्ज निभाने के लिए दिया जा रहा है' दूनिया सोचने लगी। 'क्या यह सुलह करने और अपनी गलती की माफी माँगने की कोशिश है... जैसे कोई रस्म पूरी की जा रही हो, या कोई सबक सुनाया जा रहा हो!'

'मैं तो सो कर अभी उठा, और तुम लोगों के यहाँ जाना चाहता था लेकिन कपड़ों की वजह से देर हो गई; मैं कल इससे... नस्तास्या से... कहना भूल गया था... कि खून धो डाले... बस, कपड़े पहन कर अभी तैयार ही हुआ था...'

'खून! कैसा खून!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने चौंक कर पूछा।

'अरे, कुछ नहीं, परेशान न हो। कल जब मैं इधर-उधर भटक रहा था, कुछ-कुछ सरसामी हालत में, तभी रास्ते में एक आदमी सड़क पर पड़ा मिला, जो गाड़ी से कुचल गया था... क्लर्क था...'

'सरसामी हालत में लेकिन तुम्हें याद तो सब कुछ है!' रजुमीखिन बीच में बोला।

'ठीक कहते हो,' रस्कोलनिकोव ने खास तौर पर सावधान हो कर जवाब दिया। 'मुझे सब कुछ छोटी-से-छोटी बात भी याद है। मगर फिर भी... मैंने वैसा क्यों किया, वहाँ क्यों गया, वह बात क्यों कही, इसे अब मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता।'

'यह बात तो सभी जानते हैं,' जोसिमोव अपनी राय देते हुए बीच में बोला, 'कभी-कभी यूँ भी होता है कि एक योजना कुशल ढंग से, महारत के साथ और चालाकी से पूरी की जाती है, लेकिन उसके अलग-अलग नियंत्रण में ढील रहती है, खास तौर पर शुरू में और उसका फैसला बहुत-सी ऐसी सोचों की बुनियाद पर होती है जो स्वस्थ नहीं होतीं... बिलकुल सपने जैसी बात होती है।'

'यह शायद अच्छी ही बात है कि यह मुझे लगभग पागल समझ रहा है,' रस्कोलनिकोव ने सोचा।

'क्यों, ऐसी हरकतें अच्छे-भले लोग भी करते हैं, जिन्हें कोई बीमारी नहीं होती,' दूनिया ने बेचैनी से जोसिमोव की ओर देखते हुए कहा।

'जो कुछ कह रही हैं आप उसमें कुछ सच्चाई है,' जोसिमोव ने जवाब दिया। 'इस मानी में यह कोई अनोखी बात नहीं कि हम सब लोग पागलों जैसी कुछ हरकतें करते हैं। फर्क बस इतना होता है कि जिनका 'दिमाग पटरी पर से उतर जाता है।' वे कुछ ज्यादा ही पागल होते हैं, क्योंकि हमें कहीं तो दोनों के बीच फर्क करना होगा। सच है, ऐसा आदमी शायद ही कोई होता हो जिसमें किसी तरह की कोई गड़बड़ी न हो। हजारों में... शायद लाखों में... मुश्किल से कहीं एक मिलता है और सो भी खालिस होशमंद नहीं।'

अपने पसंदीदा विषय पर धाराप्रवाह बोलते हुए जोसिमोव के मुँह से असावधानी में 'पागल' शब्द क्या निकला कि सबके माथे पर बल पड़ गए।

रस्कोलनिकोव अपने पीले होठों पर अजीब-सी एक मुस्कराहट लिए हुए विचारों में डूबा बैठा रहा। लग रहा था कि उसने इस बात की ओर कोई ध्यान नहीं दिया है। वह अभी तक किसी चीज के बारे में सोच रहा था।

'हाँ, तो उसका क्या हुआ जो गाड़ी से कुचल गया था मैंने तुम्हारी बात बीच में काट दी थी!' रजुमीखिन जल्दी से बोला।

'क्या,' रस्कोलनिकोव अचानक जैसे सोते से जागा हो। 'आह... तो उसे घर तक पहुँचाने में मदद करते हुए मेरे कपड़े खून में सन गए थे। और हाँ माँ, अच्छा याद आया, मैंने कल एक ऐसी हरकत की जिसके लिए मुझे माफ नहीं किया जा सकता। मैं सचमुच बेहोशी की हालत में था। तुमने जो पैसा भेजा था वह मैंने पूरे का पूरा... उसकी बीवी को कफन-दफन के लिए दे दिया। अब वह विधवा हो गई है, वैसे ही तपेदिक की मारी हुई है बेचारी... तीन बच्चे हैं, भूख से बिलखते हुए... घर में दाना भी नहीं... एक बेटी भी है... तुमने अगर देखा होता उन लोगों को तो शायद तुम भी दे आतीं। ...लेकिन मैं मानता हूँ कि ऐसा करने का मुझे कोई हक नहीं था, खास तौर पर तब, जबकि मुझे मालूम था कि तुम्हें खुद उनकी कितनी जरूरत थी। दूसरों की मदद करने के लिए आदमी को ऐसा करने का हक होना चाहिए, वरना ब्तमअम्रए बीपमदेए पे अवने दश्मजमे चें बवदजमदजे!1' यह कह कर वह हँस पड़ा।

'क्यों, ठीक है न, दूनिया?'


1. फ्रांसीसी कहावत : कुत्ते, अगर तू संतुष्ट नहीं तो कहीं जा मर!


'नहीं, ठीक नहीं है,' दूनिया ने कठोरता से उत्तर दिया।

'छिः! तो तुम्हारे भी अपने विचार हैं!' वह दूनिया को लगभग घृणा से देखते और व्यंग्य से मुस्कराते हुए बुदबुदाया। 'मुझे पहले ही सोचना चाहिए था... खैर, यह तारीफ की ही बात है, और तुम्हारे लिए अच्छा ही है... कभी तुम ऐसी हद तक पहुँच गईं जिसे पार करने को तुम तैयार न हुई तो बहुत दुखी रहोगी... और अगर उसे पार कर लिया तो और भी दुखी होगी... लेकिन यह सब बकवास है!' उसने चिढ़ कर कहा। उसे इस तरह भावनाओं में बह जाने पर झुँझलाहट हो रही थी। 'मैं तो बस इतना कहना चाहता था माँ, कि मैं उसके लिए माफी चाहता हूँ,' उसने अचानक अपनी बात समेटते हुए कहा।

'जाने दो रोद्या, मैं बस इतना जानती हूँ कि तुमने जो कुछ किया, अच्छा किया!' माँ ने खुश हो कर कहा।

'इस बात पर कुछ ज्यादा निश्चिंत न होना,' रस्कोलनिकोव ने मुँह कुछ टेढ़ा करके मुस्कराते हुए कहा।

कुछ देर तक सभी चुप रहे। इस सारी बातचीत में, इस खामोशी में, इस सुलह में, इस क्षमा कर देने में कुछ झिझक थी, और सभी उसे महसूस कर रहे थे।

'लगता है कि वे मुझसे डरी हुई हैं,' रस्कोलनिकोव कनखियों से अपनी माँ और बहन को देखता हुआ सोच रहा था। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना को जितनी ही देर तक चुप रहना पड़ रहा था उतना ही उनका डर बढ़ता जा रहा था।

'फिर भी वे जब यहाँ नहीं थीं, मैं दिल में उनके लिए कितना प्यार महसूस कर रहा था,' अचानक यह विचार उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंधा।

'तुम्हें मालूम है रोद्या, मार्फा पेत्रोव्ना मर गईं,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने बिना किसी प्रसंग के अचानक कहा।

'मार्फा पेत्रोव्ना कौन?'

'अरे, भगवान भला करे, वही मार्फा पेत्रोव्ना स्विद्रिगाइलोवा! मैंने तुम्हें उनके बारे में इतनी तो बातें लिखी थीं।'

'आह! याद आया... तो वे मर गईं सचमुच?' रस्कोलनिकोव ने अचानक कहा, जैसे सोते से जागा हो। 'कैसे मरीं?'

'सोचो तो सही, बस अचानक मर गईं!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने उसकी उत्सुकता से जोश में आ कर जल्दी से जवाब दिया। 'जिस दिन मैंने तुम्हें खत भेजा था उसी दिन! सच मानो, उनकी मौत उसी जल्लाद की वजह से हुई। लोग तो कहते हैं कि उन्हें उसने बुरी तरह पीटा था।'

'क्यों, उनकी एकदम नहीं बनती थी,' रस्कोलनिकोव ने बहन की ओर देख कर पूछा।

'नहीं, ऐसी बात हरगिज नहीं है। बात बल्कि उलटी ही थी। यह उनके साथ तो हमेशा से सब्र से पेश आता था, बल्कि कहना चाहिए कि उनका बहुत खयाल रखता था। सच तो यह है कि अपनी शादी के सात बरसों के दौरान बहुत-सी बातों में वह उनकी जैसी ही करता था, सच पूछें तो जरूरत से ज्यादा। लगता है, अचानक वह अपना सब्र खो बैठा।'

'अगर उसने सात साल तक अपने आपको काबू में रखा तो इतना बुरा आदमी नहीं हो सकता। तुम तो दुनेच्का, लगता है उसकी तरफ से सफाई दे रही हो।'

'नहीं, आदमी वह बहुत बुरा है! मेरी समझ में उससे बुरा आदमी तो हो ही नहीं सकता!' दूनिया ने लगभग सहमते हुए जवाब दिया; उसकी त्योरियों पर बल पड़ गए और वह विचारों में डूब गई।

'यह बात सबेरे की है,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने जल्दी से आगे कहा। 'फिर तुरंत बाद उसने हुक्म दिया कि खाने के फौरन बाद उसे शहर ले जाने के लिए बग्घी तैयार रहे। वह ऐसी हालत में फौरन बग्घी जुतवा कर शहर चली जाती थीं। सुना है कि खाना उसने डट कर खाया...'

'मार खाने के बाद'

'हमेशा से उसकी यही... आदत थी। और खाने के फौरन बाद, कि कहीं जाने में देर न हो जाए, वह सीधे नहाने गईं... बात यह है कि उसकी कुछ स्नान-चिकित्सा चल रही थी। वहाँ ठंडे पानी के झरने में स्नान का खास इंतजाम था और वह रोज उसमें नहाती थी। लेकिन पानी में घुसते ही अचानक उसे फालिज मार गई!'

'जरूर मार गई होगी,' जोसिमोव बोला।

'क्या उसने बहुत बुरी तरह उसे मारा था?'

'क्या फर्क पड़ता है इससे' दूनिया बोली।

'हुँह! लेकिन माँ, मेरी समझ में नहीं आता कि तुम ऐसी, इधर-उधर की खबरें हम लोगों को क्यों सुनाना चाहती हो,' रस्कोलनिकोव ने चिढ़ कर कहा। यह बात गोया अनायास उसके मुँह से निकली थी।

'मेरी कुछ समझ में नहीं आता बेटा, कि बातें क्या करूँ,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने लाचारी से कहा।

'क्यों, क्या तुम सबको मुझसे डर लगता है?' उसने फीकी-सी मुस्कराहट के साथ पूछा।

'बात तो यही है,' दूनिया ने भाई की आँखों में आँखें डाल कर कठोरता से देखते हुए कहा। 'सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त माँ डर के मारे रह-रह कर दुआ माँग रही थीं।'

रस्कोलनिकोव का चेहरा फड़कने और टेढ़ा पड़ने लगा।

'छिः, कैसी बातें करती हो दूनिया रोद्या, तुम नाराज न होना, बेटा।... तुमने यह बात कैसे कही, दूनिया' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने भाव से विभोर हो कर कहना शुरू किया। 'बात यह है कि यहाँ आते वक्त रेलगाड़ी में मैं रास्ते-भर यही सोचती आ रही थी कि हम लोग मिलेंगे कैसे, कैसे मिल कर हर चीज के बारे में बातें करेंगे... और मैं इतनी खुश थी, इतनी खुश कि रास्ता कब और कैसे कट गया, कुछ पता ही नहीं चला। लेकिन मैं कह क्या रही हूँ। मैं अब भी बहुत खुश हूँ... ऐसी बात तुम्हें नहीं कहनी चाहिए दूनिया! मैं अब भी बहुत खुश हूँ - मैं तो तुम्हें देख कर ही निहाल हो गई, रोद्या...'

'बस, माँ बस,' वह सिटपिटा कर बुदबुदाया। माँ की ओर देखे बिना ही उसने चुपके से उसका हाथ दबाया। 'हर चीज के बारे में खुल कर बातें करने का वक्त भी आएगा!'

यह कहते-कहते अचानक वह सिटपिटा गया और उसका रंग पीला पड़ गया। एक बार फिर भयानक संवेदना, जिसका वह कुछ समय से अनुभव करता आ रहा था, उसकी आत्मा पर छा गई। वह सिहर उठा। एक बार फिर अचानक यह बात साफ-साफ उसकी समझ में आने लगी कि अभी-अभी उसने एक भयानक झूठ बोला था क्योंकि अब वह कभी हर चीज के बारे में खुल कर बातें नहीं कर सकेगा, क्योंकि अब फिर कभी ऐसा नहीं होगा कि वह किसी से भी, किसी भी चीज के बारे में बात कर सके। इस विचार से उसे ऐसी भयानक तकलीफ का एहसास हुआ कि एक पल के लिए वह अपने आपको भूल ही गया। वह अपनी जगह से उठा और किसी की ओर देखे बिना दरवाजे की ओर बढ़ा।

'करने क्या जा रहे हो?' रजुमीखिन उसकी बाँह पकड़ कर चीखा।

वह फिर बैठ गया और चुपचाप चारों ओर देखने लगा। सब लोग परेशान हो कर देख रहे थे।

'लेकिन तुम सब इतने गुमसुम क्यों हो?' वह अचानक चीखा। किसी को इसकी उम्मीद भी नहीं थी। 'कुछ तो बोलो! इस तरह बैठे रहने से फायदा बोलो, कुछ तो बोलो! आओ, बातें करें... आपस में हम लोग मिलें और चुप बैठे रहें, यह तो कोई बात न हुई... कुछ तो बोलो!'

'भगवान की दया है! मैं तो समझी कि वही कलवाला सिलसिला फिर शुरू हो गया,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने सीने पर सलीब का निशान बनाते हुए कहा।

'बात क्या है, रोद्या?' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने शंका के साथ पूछा।

'कुछ तो नहीं! बस कुछ याद आ गया था,'उसने जवाब दिया और अचानक हँस पड़ा।

'चलो, अच्छा है। अगर कुछ याद आ गया तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। मैं तो सोचने लगा था...' जोसिमोव सोफे पर से उठते हुए बुदबुदाया। 'अच्छा, मैं चलूँगा। अगर हो सका... तो शायद फिर आऊँ... मगर तब तक आप घर पर ही रहें...' बारी-बारी सबकी ओर झुक कर वह बाहर चला गया।

'कितना अच्छा है!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने राय जाहिर करते हुए कहा।

'हाँ, अच्छा, उम्दा, पढ़ा-लिखा, खूब समझदार,' रस्कोलनिकोव अचानक बेहद तेजी से बोलने लगा। उसमें ऐसी चुस्ती और फुर्ती आ गई जैसी अभी तक नजर नहीं आई थी। 'मुझे याद नहीं पड़ता कि अपनी बीमारी से पहले मैं कहाँ इससे मिला था... मुझे लगता है, मैं इससे कहीं जरूर मिला हूँ...यह भी बहुत अच्छा आदमी है,' उसने सर के झटके से रजुमीखिन की तरफ इशारा किया। 'यह तुम्हें अच्छा लगता है, दूनिया' उसने अपनी बहन से पूछा और न जाने क्यों यकायक हँस पड़ा।

'बहुत,' दूनिया ने जवाब दिया।

'उफ! तुम भी कैसे सुअर हो!' रजुमीखिन ने सिटपिटा कर उसे झिड़का। उसकी कान की लवें लाल हो गई थीं। कुर्सी से वह उठ खड़ा हुआ। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना धीरे से मुस्कराईं, लेकिन रस्कोलनिकोव जोर से हँसा।

'कहाँ चले?'

'मुझे भी... जाना है।'

'नहीं, कोई जरूरत नहीं! ठहरो! जोसिमोव चला गया, इसलिए तुम्हें भी जाना है। अभी क्यों जाओ... अभी बजा क्या है अभी बारह तो नहीं बजे दूनिया, तुम्हारी यह छोटी-सी घड़ी कितनी खूबसूरत है! लेकिन तुम सब लोग फिर से चुप क्यों हो गए मैं अकेले ही बातें किए जा रहा हूँ।'

'मार्फा पेत्रोव्ना ने दी थी,' दूनिया ने जवाब दिया।

'पर बहुत महँगी है!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने इतना और बताया।

'अच्छा! लेकिन है इतनी बड़ी कि जनानी घड़ी बिल्कुल नहीं लगती।'

'ऐसी घड़ी मुझे अच्छी लगती है,' दूनिया बोली।

'तो यह मँगेतर का तोहफा नहीं है,' रजुमीखिन ने सोचा। न जाने क्यों इस बात से उसे खुशी हुई।

'मैं समझे था लूजिन ने दिया होगा,' रस्कोलनिकोव ने अपना विचार व्यक्त किया।

'नहीं, अभी तक दूनिया को उन्होंने कोई तोहफा नहीं दिया है।'

'अच्छा! तुम्हें याद है माँ, मुझे भी किसी से प्यार हो गया था और मैं उससे शादी करना चाहता था!' वह यकायक माँ की ओर देख कर बोला। अचानक बातचीत का विषय इस तरह बदल जाने से, और जिस तरह वह इस नए विषय पर बोल रहा था उससे, माँ कुछ उलझन में पड़ गईं।

'हाँ, बेटा!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने कनखियों से दूनिया और रजुमीखिन को देखा।

'हुँह, अच्छा। मैं क्या बताऊँ! ज्यादा कुछ याद ही नहीं है। वह मरी-मरी, बीमार-सी लड़की थी,' यादों में खोया हुआ वह बोलता रहा और एक बार फिर जमीन की ओर देखने लगा था। 'एकदम बीमार थी। उसे गरीबों को भीख देने का शौक था और हमेशा किसी मठ में जा कर रहने के सपने देखा करती थी। एक बार वह मुझसे इस बारे में बातें करने लगी तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। हाँ, हाँ, याद है मुझे... बहुत अच्छी तरह याद है। देखने में यूँ ही, मामूली-सी थी। मुझे सचमुच याद नहीं कि उस वक्त किस चीज ने मुझे उसकी ओर खींचा था... मैं समझता हूँ इसलिए कि हमेशा वह बीमार रहती थी। अगर वह लँगड़ी या कुबड़ी होती तो मैं समझता हूँ, मुझे और भी अच्छी लगती,' वह सपनों में खोया हुआ, मुस्कराया। 'वह तो... एक तरह का मौसमी बुखार था...'

'नहीं, सिर्फ मौसमी बुखार नहीं था,' दूनिया ने जोश के लहजे में कहा।

वह अपनी बहन को आँखें गड़ा कर देखने लगा लेकिन न तो उसकी बात सुनी और न उसकी समझ में कुछ आया फिर वह पूरी तरह विचारों में डूबा हुआ उठा, माँ के पास गया, उसे प्यार किया, और वापस आ कर अपनी जगह पर बैठ गया।

'तुम्हें उससे अब भी प्यार है!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने हमदर्दी से कहा।

'उससे अब हाँ... तो उसके बारे में पूछती हो! नहीं... वह सब तो अब, एक तरह से, दूसरी दूनिया की बात लगती है... वह भी बहुत पहले की। पर सच तो यह है कि यहाँ भी जो कुछ हो रहा है, वह भी जाने क्यों बहुत दूर की चीज लगता है।'

उसने उन लोगों को ध्यान से देखा।

'जैसे तुम्हीं हो, अब... लगता है मैं तुम्हें हजार मील की दूरी से देख रहा हूँ... लेकिन हम ये सब बातें कर क्यों रहे हैं! उसके बारे में पूछने से फायदा ही क्या?' उसने कुछ झुँझला कर कहा और दाँतों से नाखून कुतरते हुए एक बार फिर खयालों की खामोशी में खो गया।

'यह तुम्हारा रहने का कमरा भी कैसा मनहूस है रोद्या, मकबरा लगता है,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने अचानक घुटन भरी खामोशी को तोड़ते हुए कहा। 'मुझे पक्का यकीन है कि तुम अगर इतने उदास रहने लगे हो, तो इसकी आधी वजह तो तुम्हारा यह रहने का कमरा है।'

'मेरा रहने का कमरा!' उसने मरी-मरी आवाज से कहा। 'हाँ, इस कमरे का भी इसमें बड़ा हाथ था... यही तो मैं भी सोचता था। ...हालाँकि, तुम्हें शायद मालूम नहीं माँ, कि तुमने अभी-अभी कैसी अजीब बात कही है,' उसने अजीब ढंग से हँसते हुए कहा।

वह तो बस थोड़ी ही कसर रह गई थी। अगर यह सिलसिला कुछ देर और चलता तो उनका यह साथ, उसकी माँ और बहन जो उससे तीन साल बाद मिली थीं, और किसी भी चीज के बारे में खुल कर बात करने की पूरी-पूरी असंभावना के बावजूद बातचीत में आत्मीयता का यह भाव, यह सब कुछ उसके बर्दाश्त से बाहर हो जाता। लेकिन एक जरूरी सवाल ऐसा भी था जिसका फैसला, इस पार या उस पार, उसी दिन होना था - यह बात उसने सुबह आँखें खुलते ही तय कर ली थी। अब उसे खुशी हो रही थी कि उसे बच निकलने की राह की शक्ल में उसे इस बात की याद आ गई थी।

'सुनो दूनिया,' उसने गंभीर और रूखे स्वर में कहना शुरू किया, 'कल जो कुछ हुआ उसके लिए मैं तुमसे माफी माँगता हूँ। फिर भी तुम्हें यह बता देना एक बार फिर मैं अपना फर्ज समझता हूँ कि मैंने जो खास बात उठाई थी उससे पीछे हटने को मैं हरगिज तैयार नहीं। या तो मैं या लूजिन। मैं भले ही दुष्ट हूँ, लेकिन तुम्हें ऐसा नहीं बनना है। बात यह है कि तुम हम दोनों में से एक को चुन लो। तुमने अगर लूजिन से शादी की तो तुम्हें अपनी बहन मानना मैं छोड़ दूँगा।'

'रोद्या, रोद्या! यह कलवाली बात तो कल ही खत्म हो चुकी थी,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना कातर स्वर में चिल्लाईं। 'और तुम अपने आपको दुष्ट क्यों कहते हो मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकती। यही बात कल भी तुमने कही थी।'

'भैया,' दूनिया ने भी सधे लहजे में और रूखेपन से जवाब दिया। 'इसमें तुम्हारी एक गलती है। रात मैंने इसके बारे में बहुत सोचा, और उस गलती का पता लगाया। इस सबकी जड़ में यह बात है कि लगता है तुम यह समझते हो कि मैं अपने आपको किसी के सामने और किसी की खातिर कुरबान कर रही हूँ। ऐसी बात हरगिज नहीं है। मैं महज अपनी खातिर यह शादी कर रही हूँ क्योंकि जिंदगी में मुझे बहुत-सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। यूँ मैं अगर अपने परिवारवालों के किसी काम आ सकूँ तो मुझे खुशी होगी, लेकिन यह मेरे फैसले का अहम मकसद नहीं है...'

'झूठ बोल रही है,' रस्कोलनिकोव ने जल-भुन कर नाखून कुतरते हुए, मन ही मन सोचा। 'घमंडी लड़की! कभी नहीं मानेगी कि वह परोपकार के लिए ऐसा कर रही है! जिद्दी है बहुत! नीच लोग! प्यार भी ऐसे करते हैं जैसे नफरत कर रहे हों!... उफ, मुझे इन सबसे कितनी नफरत है...'

'मतलब यह कि,' दूनिया ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, 'मैं प्योत्र पेत्रोविच से इसलिए शादी कर रही हूँ कि दो बुरी चीजों में से कम बुरी को मैंने चुन लिया है। उन्हें मुझसे जो भी उम्मीदें हैं उन सबको मैं ईमानदारी के साथ पूरी करने का इरादा रखती हूँ, इसलिए मैं उन्हें किसी तरह का धोखा नहीं दे रही। ...अभी तुम किस बात पर मुस्करा रहे थे?'

उसका चेहरा भी तमतमा उठा और आँखें गुस्से से चमकने लगीं।

'सब कुछ पूरा करोगी?' रस्कोलनिकोव ने जहरीली मुस्कान के साथ पूछा।

'एक हद के अंदर। लेकिन विवाह का प्रस्ताव रखने का ढंग और उस प्रस्ताव की शक्ल, इन सबसे मुझे फौरन पता चल गया कि वे चाहते क्या हैं। वे यकीनन अपने आपको तीसमार खाँ समझते हैं, लेकिन मुझे उम्मीद है कि उनकी नजर में मेरी भी कुछ इज्जत होगी... तुम अब किस बात पर हँस रहे हो?'

'और तुम लजा किस बात पर रही हो तुम झूठ बोल रही हो, मेरी बहन। जान-बूझ कर तुम झूठ बोल रही हो, सिर्फ तिरियाहठ में मेरे सामने अपनी बात ऊँची रखने के लिए... तुम लूजिन की इज्जत नहीं कर सकती। मैंने उसे देखा है और उससे बातें की हैं। बात तो यह है कि तुम अपने आपको पैसे के लिए बेच रही हो और इसलिए हर तरह से बहुत ही घटिया हरकत कर रही हो, पर मुझे इसी बात की खुशी है कि तुम्हें इस पर कम-से-कम शर्म तो आती है।'

'यह बात सच नहीं है। मैं झूठ नहीं बोल रही,' दूनिया संतुलन खो कर ऊँची आवाज में बोली। 'मुझे अगर इस बात का यकीन न होता कि वे मेरी कद्र करते हैं और मेरे बारे में अच्छी राय रखते हैं तो मैं उनसे कभी शादी न करती। अगर मुझे इसका पूरा-पूरा विश्वास न होता कि मैं खुद भी उनका आदर कर सकती हूँ तो मैं उनसे कभी शादी न करती। सौभाग्य से मुझे इस बात का पक्का सबूत आज ही मिल जाएगा... और इस तरह की शादी कोई नीचता नहीं है, जैसाकि तुम कहते हो! पर अगर तुम्हारी बात सच भी होती, अगर मैंने कोई नीच काम करने की सचमुच ही ठान ली होती, तो भी क्या तुम्हारा इस तरह मुझसे बात करना बेरहमी नहीं है तुम मुझसे ऐसी बहादुरी दिखाने का क्यों तकाजा करते हो जैसी कि शायद तुममें भी नहीं है यह सरासर चंगेजशाही है, जुल्म है! अगर मैं किसी को तबाह करूँगी तो सिर्फ अपने को। ...मैं कोई कत्ल नहीं कर रही! ...तुम मुझे इस तरह देख क्यों रहे हो तुम्हारा रंग पीला क्यों पड़ गया रोद्या, भैया, क्या... बात क्या है?'

'हे भगवान् तुमने फिर उसे बेहोश कर दिया,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना घबरा कर चीखी।

'नहीं नहीं, कुछ भी नहीं हुआ! कुछ भी तो नहीं। बस जरा-सा चक्कर आ गया - बेहोशी नहीं थी। तुमको तो बेहोशी का खब्त हो गया है। ...हाँ, तो मैं कह क्या रहा था अरे, हाँ। तो आज इस बात का पक्का सबूत किस तरह तुम्हें मिलेगा कि तुम उसकी इज्जत कर सकती हो और वह... तुम्हारी कद्र करता है मैं समझता हूँ, तुमने आज ही के लिए कहा था... या मैंने गलत सुना था'

'माँ, रोद्या को प्योत्र पेत्रोविच का खत तो दिखाओ,' दूनिया ने कहा।

पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने उसे काँपते हाथों एक खत दे दिया। उसने उसे उत्सुकता से ले तो लिया लेकिन खोलने से पहले दूनिया की तरफ कुछ हैरत से देखा।

'अजीब बात है,' उसने धीमे-धीमे कहना शुरू किया, मानो कोई नया विचार उसके दिमाग में आया हो, 'मैं इतना बखेड़ा आखिर किस बात पर खड़ा कर रहा हूँ? आखिर क्यों? तुम्हारा तो जिससे जी चाहे, शादी करो!'

उसने यह बात कही इस तरह से, गोया अपने से बातें कर रहा हो, लेकिन कही ऊँचे स्वर में। फिर वह थोड़ी देर तक असमंजस में पड़ा बहन की ओर देखता रहा।

आखिर उसने खत खोला; चेहरे पर अब भी वही अजीब-सी हैरत थी। फिर उसने धीरे-धीरे और ध्यान से पढ़ना शुरू किया और खत को दो बार पूरा पढ़ गया। पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना के चेहरे पर चिंता की साफ झलक थी, और सच बात यह है कि सभी को किसी बात की उम्मीद थी।

'मुझे जिस बात पर ताज्जुब होता है,' उसने माँ को खत देते हुए, थोड़ी देर रुक कर कहना शुरू किया, लेकिन वह अपनी बात खास किसी को संबोधित करके नहीं कह रहा था, 'वह यह है कि वह कामकाजी आदमी है, वकील है, और बातचीत का ढंग तो... बहुत दिखावेवाला है ही, और फिर भी ऐसा... जाहिलों जैसा खत लिखता है।'

सभी लोग चौंक पड़े। उन्हें कोई दूसरी ही बात सुनने की उम्मीद थी।

'लेकिन, तुम तो जानते हो, वे सब इसी तरह लिखते हैं,' रजुमीखिन ने संक्षेप में अपनी राय दी।

'तुमने इसे पढ़ा है?'

'हाँ।'

'इन्हें दिखाया था, रोद्या हमने... इनसे भी सलाह ली थी,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने सिटपिटा कर कहा।

'यही तो अदालती जबान है,' रजुमीखिन बीच में बोला। 'आज भी सारे कानूनी दस्तावेज इसी जबान में लिखे जाते हैं।'

'कानूनी हाँ, कानूनी या कारोबारी जबान-न ज्यादा जाहिलों की जबान न अदीब लोगों जैसी जबान... कारोबारी!'

'प्योत्र पेत्रोविच ने यह बात छिपाने की कोई कोशिश नहीं की है कि उनकी पढ़ाई-लिखाई बहुत ही सस्ती और घटिया किस्म की हुई थी। उन्हें तो बल्कि इस खत पर गर्व भी है कि वह अपने बल पर यहाँ तक पहुँचे हैं,' अव्दोत्या रोमानोव्ना ने भाई के लहजे का कुछ बुरा मानते हुए अपनी बात कही।

'खैर, उसे अगर इस बात पर गर्व है तो बिलकुल ठीक ही है। मैं इस बात से इनकार नहीं करता। लगता है, मेरी बहन, तुम्हें यह बात बुरी लगी है कि मैंने इस खत पर बस इतनी हल्की-फुल्की राय दी। तुम शायद यह भी सोचती होगी कि मैं जान-बूझ कर, तुम्हें चिढ़ाने के लिए टुच्ची चीजों के बारे में बात कर रहा हूँ। बात इसकी एकदम उलटी है। खत लिखने के ढंग पर जो राय मैंने दी उसका, हालात को देखते हुए, इस मामले से एकदम कोई संबंध न हो, ऐसी बात नहीं है। इसमें बहुत गहरे मतलब के साथ और साफ-साफ एक बात कही गई है, कि 'इसके लिए केवल आप ही दोषी होंगी', और इसके साथ ही इसमें यह धमकी भी है कि अगर मैं वहाँ पर मौजूद हुआ तो वह वहाँ से फौरन उठ कर चला जाएगा। इस चले जाने की धमकी का मतलब यही है कि अगर तुम दोनों ने उसका हुक्म न माना तो वह तुम दोनों से नाता तोड़ लेगा, और तुम लोगों को यहाँ पीतर्सबर्ग बुलाने के बाद तुम्हें बेसहारा छोड़ देगा। बोलो, क्या खयाल है तुम्हारा? क्या लूजिन की कलम से निकली इस बात का हम उसी तरह बुरा मान सकते हैं, जैसे उस हालत में बुरा मानते अगर यही बात इसने,' उसने रजुमीखिन की तरफ इशारा किया, 'लिखी होती या जोसिमोव ने या हममें से किसी ने?'

'न...हीं,' दूनिया ने कुछ ज्यादा मुस्तैदी से जवाब दिया। 'यह चीज तो मुझे भी साफ नजर आई थी कि यह बात बहुत ही फूहड़ तरीके से कही गई थी, और यह कि शायद उन्हें लिखने का सलीका नहीं आता... तुम्हारा यह विचार सही है, भैया। सचमुच मुझे उम्मीद नहीं थी कि...'

'बात कानूनी ढंग से कही गई है, और शायद इसीलिए जितना कि उनका इरादा था उससे ज्यादा फूहड़ और भोंडी लगती है। लेकिन मैं तुम्हारी गलतफहमी थोड़ी-सी दूर कर दूँ। इस खत में एक और बात लिखी गई है। मेरे खिलाफ एक तोहमत है और बहुत ही घटिया किस्म की तोहमत है। मैंने कल रात पैसा उस विधवा को, एक ऐसी औरत को दिया था, जो तपेदिक की मारी हुई है, जिसके सर पर मुसीबत का पहाड़ टूटा है, और मैंने वह पैसा, 'कफन-दफन के बहाने,' नहीं दिया बल्कि कफन-दफन का खर्च पूरा करने के लिए ही दिया। मैंने वह पैसा उसकी बेटी को नहीं दिया - जो उसने लिखा है कि एक 'बदचलन', नौजवान औरत है (जिसे मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार कल रात देखा) -बल्कि उस विधवा को दिया। इस सबसे मुझे यह मालूम पड़ता है कि उसे मुझको बदनाम करने और हम लोगों में झगड़ा पैदा करने की जल्दी मची हुई थी। और यह बात भी घिसी-पिटी कानूनी जबान में लिखी गई है, यानी कि जो बात वह कहना चाहता था, वह जरूरत से ज्यादा साफ हो गई है, और वह भी बहुत ही फूहड़ किस्म की बेताबी के साथ लिखी गई है। उसमें अकल तो है लेकिन समझदारी के साथ काम करने के लिए सिर्फ अकल काफी नहीं होती। इन सब बातों से उस आदमी की हकीकत का पता चलता है और... और मुझे नहीं लगता कि उसके दिल में तुम्हारे लिए कुछ खास कद्र है। मैं यह बात तुम्हें सिर्फ चेताने के लिए बता रहा हूँ, क्योंकि मैं सचमुच भलाई चाहता हूँ...' दूनिया ने कोई जवाब नहीं दिया। वह अपना फैसला कर चुकी थी। और बस शाम की राह देख रही थी।

'तो तुम्हारा फैसला क्या है, रोद्या?' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने पूछा। वह उसकी बातचीत में अचानक यह नया कारोबारी लहजा पा कर पहले से भी ज्यादा परेशान हो गई थी।

'कौन-सा फैसला?'

'देखो न, प्योत्र पेत्रोविच ने लिखा है कि तुमको आज शाम हम लोगों के साथ नहीं रहना है, और अगर तुम आए तो वे उठ जाएँगे। तो तुम क्या... आओगे?'

'जाहिर है, इसका फैसला मुझे नहीं करना बल्कि तुम्हें पहले यह तय करना है कि इस तरह की माँग तुम्हें बुरी तो नहीं लगी; और फिर दूनिया को फैसला करना है कि उसे भी यह माँग बुरी तो नहीं लगी। मैं वैसा ही करूँगा जैसा तुम लोग बेहतर समझो,' उसने बड़ी रुखाई से अपनी बात खत्म करते हुए कही।

'दूनिया ने फैसला कर लिया है, और इसमें मैं पूरी तरह उसके साथ हूँ,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने जल्दी से ऐलान किया।

'मैंने तुमसे यह कहने का, तुमको इस बात पर राजी करने का फैसला किया है रोद्या, कि आज शाम हमारी इस मुलाकात के वक्त तुम हमारे साथ मौजूद रहोगे... जरूर,' दूनिया ने कहा। 'आओगे न?'

'हाँ।'

'मैं आपसे भी कहना चाहती हूँ कि आप भी आठ बजे हमारे यहाँ आ जाइए,' उसने रजुमीखिन से कहा। 'माँ, मैंने इनको भी बुला लिया।'

'बहुत अच्छा किया, दुनेच्का! जैसा तुम लोगों ने फैसला कर लिया है,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने कहा, 'वैसा ही होगा। मुझे भी परीशानी कम रहेगी। किसी का चोरी-छिपे कुछ करना और झूठ बोलना मुझे अच्छा नहीं लगता। बेहतर यही है कि सारी सच्चाई सामने आ जाए... प्योत्र पेत्रोविच चाहे नाराज हों या न हों!'

अपराध और दंड : (अध्याय 3-भाग 4)

उसी समय दरवाजा धीरे-से खुला और एक नौजवान लड़की चारों ओर सहमी-सहमी नजरों से देखती हुई कमरे में आई। सबने आश्चर्य और जिज्ञासा से उसकी ओर देखा। पहली नजर में रस्कोलनिकोव उसे पहचान भी नहीं सका। सोफ्या सेम्योनोव्ना मार्मेलादोवा थी। उसने उसे पहली बार कल ही देखा था, लेकिन ऐसे वक्त, ऐसे माहौल में और ऐसी पोशाक में देखा था कि उसकी याद में उसकी कोई और ही तसवीर बाकी रह गई थी। इस समय वह बहुत ही मामूली गरीबों जैसे कपड़ों में मलबूस एक छोटी-सी लड़की लग रही थी। बहुत ही छोटी, सच पूछें तो बच्चों जैसी। चाल-ढाल से बहुत विनम्र और तमीजदार। चेहरा निष्कपट लेकिन कुछ भयभीत-सा लग रहा था। उसने घर में पहनने की एक बहुत सादी-सी पोशाक पहन रखी थी और सर पर पुराने ढंग की मुड़ी-तुड़ी हैट लगा रखी थी, लेकिन इस वक्त भी छतरी लिए हुए थी। कमरे में इतने लोगों को देख कर वह सिटपिटाई जरूर पर उतना नहीं जितना कि छोटे बच्चे की तरह शरमा गई। उलटे पाँव वापस होने के लिए पलटी।

'अरे... तुम!' रस्कोलनिकोव ने बेहद ताज्जुब से कहा और खुद भी कुछ सकुचा गया। उसे एकदम याद आया कि उसकी माँ और बहन को लूजिन के खत से किसी 'बदलचन' नौजवान लड़की के बारे में पता चल चुका था। थोड़ी ही देर पहले वह लूजिन की इस तोहमत के खिलाफ आवाज उठा रहा था और यह कह रहा था कि उसने उस लड़की को पहली बार कल रात ही देखा था, और अब वही लड़की अचानक आ पहुँची थी। उसे यह भी याद आया कि उसके 'बदलचन' कहे जाने के खिलाफ उसने आवाज नहीं उठाई थी। यह सब उसके दिमाग से धुँधले-धुँधले तरीके से पर तेजी से गुजरा। लेकिन उसने उसे ज्यादा गौर से देखा तो लगा कि वह डरी-सहमी-सी बच्ची शरमिंदगी महसूस कर रही है। अचानक उसे उस पर तरस आने लगा। अब वह डर कर वापसी के लिए पीछे हटी तो रस्कोलनिकोव के दिल में टीस-सी उठी।

'मैंने तो सोचा भी नहीं था कि तुम यहाँ आओगी,' उसने जल्दी-जल्दी उसे कुछ इस तरह देख कर कहा कि वह ठिठक गई। 'बैठ जाओ। जाहिर है, तुम्हें कतेरीना इवानोव्ना ने भेजा होगा। नहीं, वहाँ नहीं। यहाँ बैठो...'

सोन्या के अंदर आते ही रजुमीखिन, जो दरवाजे के पास रस्कोलनिकोव की तीन कुर्सियों में से एक पर बैठा हुआ था, उसे रास्ता देने के लिए उठ खड़ा हुआ। रस्कोलनिकोव ने पहले तो उसे सोफे पर उसी जगह बैठने का इशारा किया था जहाँ जोसिमोव बैठा हुआ था। लेकिन यह सोच कर कि उसे सोफे पर बिठाना, जिसे वह पलँग की तरह इस्तेमाल करता था, बहुत ज्यादा बेतकल्लुफी का सबूत देना होगा, उसने जल्दी से रजुमीखिन की कुर्सी की तरफ इशारा किया।

'तुम वहाँ बैठ जाओ,' उसने रजुमीखिन को सोफे के उसी सिरे पर बैठने को कहा, जहाँ जोसिमोव बैठा था।

सोन्या डर के मारे लगभग काँपती हुई बैठ गई और सहमी-सहमी हुई नजरों से दोनों औरतों को देखती रही। साफ लगता था वह यह बात सोच भी नहीं पा रही थी कि क्या वह उनकी बगल में बैठ सकती है। यह सोचते ही वह इतना डर गई कि जल्द ही फिर उठ खड़ी हुई और बेहद घबरा कर रस्कोलनिकोव से कुछ कहने लगी।

'मैं... मैं... बस एक पल के लिए आई हूँ। माफ कीजिएगा, आप लोगों को मैंने परेशान किया,' उसने अटक-अटक कर बोलना शुरू किया। 'मुझे कतेरीना इवानोव्ना ने भेजा है; कोई और भेजने को था भी नहीं। मुझसे कतेरीना इवानोव्ना ने आपसे यह प्रार्थना करने के लिए कहा है... कि कल सबेरे... मित्रोफानियेव्स्की में... दफन के वक्त जरूर आइएगा... और फिर... उसके बाद... हमारे यहाँ... उनके यहाँ... उन्हें यह इज्जत बख्शिएगा... उन्होंने मुझसे आपसे गुजारिश करने के लिए कहा था...'

'मैं जरूर कोशिश करूँगा... यकीनन,' रस्कोलनिकोव ने जवाब दिया। वह भी उठ खड़ा हुआ और कुछ ऐसा सिटपिटाया कि बात भी पूरी नहीं कर सका। 'बैठ तो जाओ,' उसने अचानक कहा। 'तुमसे मुझे कुछ बातें करनी हैं। तुम्हें शायद जल्दी है, लेकिन मेहरबानी करके बस दो मिनट का वक्त दो,' यह कह कर उसने उसके लिए एक कुर्सी खींची।

सोन्या फिर बैठ गई और एक बार फिर सहम कर दोनों महिलाओं को उड़ती मगर भयभीत नजरों से देखा। फिर उसने अपनी आँखें झुका लीं।

रस्कोलनिकोव का पीला चेहरा तमतमा उठा। शरीर में कँपकँपी-सी दौड़ गई; आँखें चमकने लगीं।

'माँ,' उसने सधे स्वर में और जोर दे कर कहा, 'यह सोफ्या सेम्योनोव्ना मार्मेलादोवा है, उन बदनसीब मार्मेलादोव साहब की बेटी, जो कल मेरी आँखों के सामने गाड़ी से कुचल गए थे, और जिनके बारे में मैं तुम्हें बता रहा था।'

पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने आँखें तरेर कर एक नजर सोन्या को देखा। रोद्या की उतावली, चुनौती भरी नजरों के सामने कुछ अटपटा-सा महसूस करने के बावजूद वह अपने आपको इस सुख से वंचित न रख सकीं। दूनिया उस बेचारी लड़की के चेहरे को गंभीरता से नजरें गड़ा कर देखती रही, और आश्चर्यचकित हो कर उसकी थाह लेने की कोशिश करती रही। सोन्या ने यह सुन कर कि उसका परिचय कराया जा रहा है, अपनी आँखें फिर उठाने की कोशिश की, लेकिन पहले से भी ज्यादा अटपटा महसूस करने लगी।

'मैं तुमसे यह पूछना चाहता था,' रस्कोलनिकोव ने जल्दी से कहा, 'आज सब कुछ ठीक-ठाक तो निबट गया था न! मसलन पुलिस ने तुम लोगों को तंग तो नहीं किया?'

'नहीं, वह सब ठीक ही है... यह तो एकदम साफ था कि मौत किस वजह से हुई... उन लोगों ने हमें तंग नहीं किया... बस वहाँ रहनेवाले लोग नाराज हैं।'

'क्यों?'

'लाश को वहाँ इतनी देर रखने पर। देखिए, बात यह है कि आज गर्मी भी तो बहुत है... और घुटन। इसलिए आज उसे कब्रिस्तान ले जा कर कल तक के लिए वहीं के गिरजाघर में रख दिया जाएगा। कतेरीना इवानोव्ना इसके लिए पहले तो तैयार नहीं लेकिन अब उनकी समझ में भी आ गया है कि यह जरूरी है।'

'तो आज?'

'आपसे उन्होंने खास तौर पर गुजारिश की है कि कल गिरजाघर में कफन-दफन के वक्त जरूर आइएगा, और फिर उसके बाद जनाजे की दावत में भी।'

'जनाजे की दावत भी कर रही हैं?'

'हाँ... बस छोटी-सी... उन्होंने मुझसे आपकी कल की मदद के लिए शुक्रिया अदा करने को भी कहा था। आप न होते तो हमारे पास तो कफन-दफन के लिए भी कुछ न था।'

उसके होठों और उसकी ठोड़ी में अचानक कँपकँपी पैदा हुई। पर उसने कोशिश करके अपने आपको सँभाला और जमीन की ओर ताकने लगी।

बातचीत के दौरान रस्कोलनिकोव उसे ध्यान से देख रहा था। उसका चेहरा पतला, बहुत ही पतला, पीला और छोटा-सा था, कुछ नुकीला-सा और बहुत सुडौल भी नहीं। छोटी-सी तीखी नाक और ठोड़ी। उसे खूबसूरत नहीं कहा जा सकता था, लेकिन उसकी नीली आँखें बेहद साफ थीं और जब वे चमकती थीं तो चेहरे पर ऐसी नेकी और सादगी की छाप आ जाती थी कि देखनेवाला बरबस उसकी ओर खिंच जाता था। उसके चेहरे में, बल्कि पूरे डीलडौल में, एक और अजीब खूबी थी : अठारह साल की होने के बावजूद वह छोटी-सी लड़की लगती थी - बच्ची जैसी। उसकी कुछ मुद्राओं में तो यह बचपना लगभग बेतुका-सा लगता था।

'लेकिन कतेरीना इवानोव्ना ने इतने थोड़े से पैसों में सब बंदोबस्त कैसे कर लिया क्या वह जनाजे की दावत सचमुच रखना चाहती हैं' रस्कोलनिकोव ने बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए पूछा।

'जाहिर है ताबूत बहुत मामूली होगा... फिर बाकी हर चीज भी मामूली होगी, इसलिए ज्यादा खर्च नहीं बैठेगा। कतेरीना इवानोव्ना ने और मैंने सारा हिसाब लगा लिया है, सो दावत के लिए भी पैसा बच जाएगा... कतेरीना इवानोव्ना की बहुत ख्वाहिश थी कि दावत हो। आप जानते हैं कि इसके बगैर उनके दिल को राहत नहीं पहुँचेगी... वह हैं ही ऐसी, आप जानते ही हैं।'

'मैं समझता हूँ, समझता हूँ... जाहिर है... तुम मेरे कमरे को इस तरह क्यों देख रही हो मेरी माँ कह रही थीं कि यह एकदम मकबरा मालूम होता है।'

'आपके पास था जो कुछ, आपने कल हमें दे दिया,' सोन्या ने अचानक दबी जबान में, तेजी से बोलते हुए कहा और एक बार फिर सिटपिटा कर जमीन को घूरने लगी। ठोड़ी और होठ एक बार फिर काँपने लगे थे। रस्कोलनिकोव जिस गरीबी में रह रहा था, उसका उस पर इतना गहरा असर हुआ था कि ये शब्द अपने आप उसके मुँह से निकल गए थे। थोड़ी देर तक सब लोग चुप रहे। दूनिया की आँखों में एक चमक थी; पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना भी बड़े स्नेह से सोन्या की ओर देखने लगीं।

'रोद्या,' उन्होंने उठते हुए कहा, 'हम लोग दोपहर का खाना तो साथ ही खाएँगे। चलो दूनिया, चलें। ...और रोद्या, तुम थोड़ी देर बाहर घूम आओ; फिर हमारे यहाँ आने से पहले थोड़ी देर आराम कर लो। ...मुझे लगता है तुम हम लोगों की वजह से काफी थक गए हो...'

'हाँ, हाँ, जरूर आऊँगा,' उसने हड़बड़ा कर उठते हुए जवाब दिया। 'लेकिन पहले कुछ काम निबटाना है।'

'लेकिन तुम खाना अलग तो नहीं खाओगे न?' रजुमीखिन ने ताज्जुब से रस्कोलनिकोव को देखते हुए कहा। 'क्या है तुम्हारा इरादा?'

'हाँ, हाँ, आऊँगा... जरूर, जरूर आऊँगा! तुम जरा एक पल ठहरो। अभी तो तुम्हें इससे कोई काम नहीं है माँ, कि है ऐसा तो नहीं कि मैं तुमसे इसे छीने ले जा रहा हूँ?'

'नहीं रे, नहीं। और द्मित्री प्रोकोफिच, तुम भी मेहरबानी करके हम लोगों के साथ ही खाना।'

'जरूर आइएगा,' दूनिया ने अपनी ओर से आग्रह किया।

झुक कर रजुमीखिन ने शुक्रिया अदा किया; खुशी उसके चेहरे से फूटी पड़ रही थी। पलभर के लिए सभी कुछ अजीब ढंग से भौंचक रह गए।

'तो, विदा, रोद्या, मतलब यह कि अगली मुलाकात तक के लिए हालाँकि मेरा जी विदा कहने को नहीं चाहता। विदा, नस्तास्या। आह, मैंने फिर वही 'विदा' कह दिया!'

पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना सोन्या से भी कुछ शब्द विदाई के कहना चाहती थीं। लेकिन जाने क्यों शब्द उनके मुँह से निकले ही नहीं। वे जल्दी से कमरे के बाहर निकल गईं।

लेकिन लग रहा था कि अव्दोत्या रोमानोव्ना अपनी बारी का इंतजार कर रही थी। माँ के पीछे-पीछे कमरे से बाहर जाते हुए उसने सोन्या की ओर ध्यान से देखा और उससे शिष्टता से झुक कर विदा ली। सोन्या ने भी सिटपिटा कर जल्दी से, कुछ सहमे हुए ढंग से झुक कर उसका जवाब दिया। उसके चेहरे पर एक तकलीफदेह उलझन का भाव था, मानो अव्दोत्या रोमानोव्ना के सलाम करने और उसकी ओर ध्यान देने से उसे घुटन और तकलीफ हो रही हो।

'फिर मिलेंगे दूनिया,' रस्कोलनिकोव ने ड्योढ़ी में आ कर जोर से कहा। 'मुझसे हाथ तो मिला!'

'अभी तो मिलाया था। भूल गए' दूनिया ने बड़े तपाक से कुछ अटपटा कर उसकी ओर घूमते हुए कहा।

'कोई बात नहीं, फिर मिला लो!' यह कह कर उसने अपने हाथ में उसकी उँगलियाँ दबा लीं।

दूनिया मुस्कराई, शरमाई और अपना हाथ खींच कर खुशी-खुशी वहाँ से चली गई।

'चलो, यह भी अच्छा ही हुआ,' उसने कमरे में वापस आ कर और प्रसन्नता से सोन्या को देखते हुए कहा। 'भगवान मरनेवालों को शांति दे पर जीनेवालों को तो जीना ही है! बात ठीक है न कि नहीं?'

सोन्या उसके चेहरे पर अचानक ऐसी प्रसन्नता देख कर हैरान रह गई। वह कुछ पल उसे चुपचाप देखता रहा। उन कुछ पलों के दौरान सोन्या के बाप ने बेटी के बारे में जो कुछ सुनाया था, वह रस्कोलनिकोव की यादों के पर्दे पर किसी फिल्म की तरह घूम गया...

'भगवान जानता है, दुनेच्का,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने बाहर सड़क पर आते ही कहना शुरू किया, 'वहाँ से आ कर मुझे सचमुच ऐसा लग रहा है जैसे कोई बोझ उतरा हो... ज्यादा राहत महसूस हो रही है। कल रेलगाड़ी में मैंने सोचा तक नहीं था कि मुझे इस कारण से भी खुशी होगी।'

'तुमसे मैं फिर कहती हूँ माँ कि अभी भी वह बहुत बीमार है। तुमने देखा नहीं शायद हम लोगों की चिंता कर-करके वह बहुत उलझ गया है। हमें धीरज रखना चाहिए, और बहुत कुछ माफ कर देना चाहिए।'

'मगर तुमने तो बहुत धीरज नहीं दिखाया!' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने कुछ भड़क कर उसकी बात पकड़ते हुए कहा। 'तुम हू-ब-हू उसकी नकल हो; सूरत-शक्ल में उतनी नहीं जितनी कि आत्मा में। तुम दोनों उदास स्वभाव के हो, दोनों में एक रूखापन है और दोनों को जल्दी गुस्सा आ जाता है, दोनों स्वाभिमानी हो और उदार दिल के। ...ऐसा तो हो नहीं सकता दुनेच्का कि वह अपने अलावा और किसी के बारे में सोचता ही न हो। क्यों यह सोच कर मेरा तो दिल ही बैठा जाता है कि आज शाम को हम लोगों पर क्या बीतेगी!'

'परेशान न हो माँ। जो होना होगा, सो होगा।'

'बेटी, जरा सोचो कि हम लोगों की क्या हालत है! प्योत्र पेत्रोविच ने रिश्ता अगर तोड़ दिया तो क्या होगा' यह बात बेचारी पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना के मुँह से असावधानी में निकल गई।

'अगर रिश्ता तोड़ा तो वे इस लायक भी नहीं हैं कि उनकी परवाह की जाए,' दूनिया ने कुछ सख्ती से, तिरस्कार के भाव से जवाब दिया।

'अच्छा किया हमने कि चले आए,' पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना ने जल्दी से बात बदली। 'उसे किसी न किसी काम की जल्दी थी। वह अगर किसी तरह बाहर जा कर खुली हवा में थोड़ी देर घूम ले... उसके कमरे में तो काफी घुटन थी... लेकिन यहाँ खुली हवा मिलेगी कहाँ यहाँ सड़कें भी तो बंद कोठरियों जैसी लगती हैं। हे भगवान! कैसा शहर है! जरा देखके... हट जाओ... कुचली जाओगी... देखती नहीं वे लोग कोई चीज ले जा रहे हैं! अरे, यह तो पियानो है, सच कहती हूँ... किस बुरी तरह ढकेल रहे हैं! ...मुझे तो उस नौजवान लड़की से भी बड़ा डर लगता है।'

'कौन-सी नौजवान लड़की, माँ?'

'अरे, वही सोफ्या सेम्योनोव्ना जो वहाँ आई थी।'

'क्यों?'

'मुझे तो दाल में कुछ काला लगता है, दूनिया। तुम मानो या न मानो, लेकिन जैसे ही वह आई, उसी दम मुझे लगा कि सारी मुसीबत की जड़ वही है...'

'ऐसी कोई भी बात नहीं,' दूनिया ने झल्ला कर कहा। 'एकदम बेसर-पैर की बातें करती हो... तुम्हें तो वहम हो गया है माँ! भैया अभी कल रात ही उससे पहली बार मिले थे, और जब वह अंदर आई तो फौरन उसे पहचान भी नहीं सके।'

'खैर, देख लेना! ...उसकी वजह से मुझे बड़ी चिंता है। देखना, तुम देख लेना! मुझे तो बहुत डर लग रहा था। मुझे वह घूर कैसी आँखों से रही थी! उसने जब उसका परिचय कराया तो मैं अपनी कुर्सी पर चैन से बैठी भी नहीं रह पा रही थी, याद है न बड़ा अजीब लगता है कि प्योत्र पेत्रोविच ने उसके बारे में ऐसी बात लिखी, और इसने उसे हम लोगों से, तुमसे बाकायदा मिलवाया! मतलब यह है कि वह उसके काबू में होगा।'

'लिखने को लोग कुछ भी लिखते रहते हैं। हमारे बारे में भी बहुत-सी बातें कही गईं और बहुत कुछ लिखा गया। भूल गईं तुम मुझे तो यकीन है कि वह बहुत भली लड़की है, और ये सारी बातें कोरी बकवास हैं।'

'भगवान करे ऐसा ही हो।'

'यह प्योत्र पेत्रोविच भी तो बहुत ही नीच किस्म का, दूसरों पर कीचड़ उछालनेवाला शख्स है,' दूनिया ने अचानक बिगड़ कर कहा।

पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना जमीन में गड़ी रह गईं। फिर आगे बातचीत नहीं हुई।

'मैं बताता हूँ, तुमसे मुझे क्या काम है,' रजुमीखिन को खिड़की के पास ले जाते जाते हुए रस्कोलनिकोव ने कहा।

'तो कतेरीना इवानोव्ना से मैं कह दूँ कि आप आएँगे,' सोन्या ने जल्दी से कहा और चलने को तैयार हो गई।

'एक मिनट, सोफ्या सेम्योनोव्ना। हम कोई ऐसी बातें नहीं कर रहे जो तुम्हारे सुनने की न हो... तुम्हारे यहाँ मौजूद रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता। तुमसे मुझे एक-दो बातें और भी करनी हैं। ...सुनो!' वह अचानक फिर रजुमीखिन की ओर मुड़ा। तुम जानते हो... क्या नाम है उसका... पोर्फिरी पेत्रोविच?'

'जानता तो हूँ! मेरा रिश्तेदार है! क्यों?' रजुमीखिन ने दिलचस्पी से कहा।

'वह मामला वही निबटा रहा है... तुम जानते हो, वही कत्लवाला मामला ...तुम कल इस बारे में कुछ चर्चा कर रहे थे।'

'तो फिर?' रजुमीखिन की आँखें फटी रह गईं।

'वह उन लोगों का पता लगा रहा था, जिन्होंने वहाँ चीजें गिरवी रखी थीं, और कुछ चीजें मेरी भी वहाँ गिरवी रखी हैं। छोटी-मोटी चीजें... एक अँगूठी जो मेरी बहन ने घर से चलते वक्त मुझे निशानी दी थी, और मेरे बाप की चाँदी की घड़ी कुल मिला कर पाँच-छह रूबल की होंगी... लेकिन मेरे लिए तो वे बहुत कीमती चीजें हैं। तो अब क्या करूँ मैं उन चीजों को मैं खोना नहीं चाहता, खास तौर पर घड़ी को। मैं तो तब थरथर काँपने लगा था, जब हम लोग दूनिया की घड़ी की बात कर रहे थे कि माँ कहीं वह घड़ी देखने को न माँग ले। हम लोगों के पास मेरे बाप की वही एक चीज बची है। अगर वह खोई तो माँ को बहुत सदमा गुजरेगा! तुम जानते हो न इन औरतों की आदत! तो बताओ, क्या किया जाए। मैं जानता हूँ कि मुझे थाने में खबर करनी चाहिए थी, लेकिन क्या सीधे पोर्फिरी के पास जाना बेहतर न होगा क्यों क्या राय है तुम्हारी इस तरह मुमकिन है मामला जल्दी तय हो जाए। बात यह है कि माँ शायद दोपहर के खाने से पहले घड़ी माँग बैठे।'

'थाने तो हरगिज नहीं जाना चाहिए। यकीनन पोर्फिरी के पास ही जाना बेहतर है,' रजुमीखिन ने बेहद जोश में आ कर कहा। 'कितनी खुशी मुझे हो रही है। चलो, फौरन चलें। यहाँ से दो ही कदम पर तो है। वह वहाँ जरूर होगा।'

'अच्छी बात है... चलो...'

'तुमसे मिल कर वह बहुत खुश होगा। मैंने कई मौकों पर उससे तुम्हारी चर्चा की है। कल ही मैं तुम्हारी बातें कर रहा था। तो आओ, चलें। उस बुढ़िया को तुम जानते थे तो यह बात है! अभी तक सब कुछ खुशगवार ही रहा है... अरे हाँ, सोफ्या इवानोव्ना...'

सोफ्या सेम्योनोव्ना, रस्कोलनिकोव ने उसकी गलती ठीक की। 'सोफ्या सेम्योनोव्ना, ये हैं मेरे दोस्त रजुमीखिन, बहुत ही भले आदमी हैं।'

'आप लोगों को अगर अभी जाना है...' सोन्या ने रजुमीखिन की ओर देखे बिना कहना शुरू किया, और पहले से भी ज्यादा सकपका गई।

'हाँ, हम तो चले,' रस्कोलनिकोव ने फैसला किया। 'मैं आज तुम्हारे यहाँ आऊँगा, सोफ्या सेम्योनोव्ना। बस इतना बता दो कि तुम रहती कहाँ हो।'

वह कतई झेंप नहीं रहा था लेकिन ऐसा लग रहा था कि वह जल्दी में था और सोन्या से नजरें मिलाने से कतरा रहा था। सोन्या ने शरमाते हुए अपना पता बताया। तीनों एकसाथ बाहर निकले।

'अपने कमरे में तुम ताला नहीं लगाते क्या?' उनके पीछे-पीछे सीढ़ियों पर आ कर रजुमीखिन ने पूछा।

'कभी नहीं,' रस्कोलनिकोव ने लापरवाही से जवाब दिया। 'ताला खरीदने की दो साल से सोच रहा हूँ। कितने सुखी हैं वे लोग जिन्हें ताले की जरूरत नहीं पड़ती,' उसने हँस कर सोन्या से कहा।

फाटक पर वे रुक गए।

'तुम्हें तो दाईं तरफ जाना है, सोफ्या सेम्योनोव्ना लेकिन तुम्हें मेरा पता मिला कैसे?' उसने बात को इस तरह बढ़ाया, जैसे वह कोई दूसरी ही बात कहना चाह रहा था। वह उसकी निर्मल आँखों में झाँकना चाहता था लेकिन यह तो इतना आसान नहीं था।

'क्यों, आपने पोलेंका को कल अपना पता बताया तो था।'

'पोलेंका अरे हाँ! पोलेंका, वह छोटी बच्ची! तुम्हारी बहन? मैंने उसे पता बताया था!'

'भूल गए क्या?'

'नहीं, याद है।'

'मैंने पापा से आपके बारे में सुना था... आपकी बातें वह किया करते थे। ...बस मुझे आपका नाम नहीं मालूम था, न उन्हें मालूम था। अब आज मैं आपके यहाँ आई... और चूँकि मुझे आपका नाम मालूम हो गया था, इसलिए मैंने पूछा : मिस्टर रस्कोलनिकोव कहाँ रहते हैं यह मुझे नहीं पता था कि आप भी एक किराएदार हैं। ...अच्छा, तो मैं चलती हूँ। ...मैं कतेरीना इवानोव्ना से बोल दूँगी।'

वहाँ से आखिरकार निकल कर उसे बहुत खुशी हुई और वह नजरें झुकाए चली गई। वह तेज कदमों से चल रही थी ताकि जल्दी से जल्दी आँखों से ओझल हो जाए, बीस कदम चल कर किसी तरह दाईं ओर के मोड़ तक पहुँच जाए, आखिरकार एकदम अकेली रह जाए और फिर तेजी से चलते हुए, किसी की ओर बिना देखे, किसी चीज की ओर बिना ध्यान दिए, सोचे, याद करे, एक-एक शब्द के बारे में, हर छोटी-सी-छोटी बात के बारे में अच्छी तरह विचार करे। उसे अबसे पहले कभी ऐसा एहसास नहीं हुआ था... कभी नहीं। उसके सामने धुँधले तौर पर और अनजाने ही एक नई दुनिया के दरवाजे खुलते जा रहे थे। अचानक उसे याद आया कि रस्कोलनिकोव उसके यहाँ आज ही आनेवाला था। शायद सबेरे... शायद इसी वक्त!

'बस आज नहीं, कृपा करके आज नहीं!' वह डूबते दिल से मुँह में ही बुदबुदाती रही, गोया किसी डरे-सहमे बच्चे की तरह किसी के आगे गिड़गिड़ा रही हो। 'भगवान दया करो मुझ पर! मुझसे मिलने आ रहा है... उस कमरे में... वह सब देखेगा... भगवान!'

उस घड़ी उसमें एक ऐसे अज्ञात सज्जन की ओर ध्यान देने तक का होश नहीं था जो उस पर बराबर नजर रख रहे थे और उसका पीछा कर रहे थे। फाटक के पास से ही वह उसके पीछे लग लिए थे। जिस पल रजुमीखिन, रस्कोलनिकोव और वह एक-दूसरे से विदा होने से पहले सड़क की पटरी पर खड़े थे, उसी समय यह सज्जन, जो उधर से गुजर रहे थे, सोन्या के ये शब्द सुन कर चौंके थे : 'मैंने पूछा मिस्टर रस्कोलनिकोव कहाँ रहते हैं?' उन्होंने मुड़ कर जल्दी से लेकिन ध्यान से उन तीनों को देखा, खास तौर पर रस्कोलनिकोव को जिससे सोन्या बातें कर रही थी; फिर उन्होंने मुड़ कर उस घर को अच्छी तरह देखा और यादों में बिठा लिया। यह सब कुछ उन्होंने वहाँ से गुजरते हुए पलक झपकते कर लिया था, और किसी को अपनी दिलचस्पी की भनक तक न लगने देने की कोशिश में और भी धीरे चलने लगे थे गोया किसी बात का इंतजार कर रहे हों। वे सोन्या की राह देख रहे थे। उन्होंने देखा कि वे लोग एक-दूसरे से विदा हो रहे हैं और सोन्या अपने घर जा रही है।

'पर कहाँ यह सूरत मैंने कहीं देखी है,' उसने सोन्या की सूरत याद करके सोचा। 'पता लगाना चाहिए।'

मोड़ पर वह आदमी सड़क की दूसरी तरफ चला गया, चारों तरफ नजरें दौड़ाई और देखा कि किसी भी चीज की ओर ध्यान दिए बिना सोन्या उधर ही आ रही है। वह नुक्कड़ पर मुड़ गई और यह सड़क की दूसरी पटरी पर पीछे-पीछे चलता रहा। लगभग पचास कदम के बाद वह फिर सड़क की इसी पटरी पर आ कर उसके पास तक जा पहुँचा और उससे बस पाँच कदम पीछे चलने लगा।

उसकी उम्र लगभग पचास की होगी। कद कुछ लंबा और शरीर गठा हुआ। कंधे चौड़े और ऊँचे, जिसकी वजह से देखने में लगता था कि वह कुछ झुक कर चल रहा है। वह बहुत अच्छे और फैशनेबुल कपड़े पहने हुए था और हैसियतदार, शरीफ आदमी मालूम होता था। उसके हाथ में एक खूबसूरत छड़ी थी, जिसे वह हर कदम के साथ सड़क पर टेकता हुआ चल रहा था। दस्ताने एकदम बेदाग और दूध जैसे सफेद थे। चौड़ा, खासा सुंदर चेहरा। गालों की हड्डियाँ कुछ उभरी हुई और चेहरे के रंग में ताजगी, जैसी पीतर्सबर्ग में अकसर दिखाई नहीं देती। हलके भूरे रंग के बाल अभी तक घने थे, बस बीच में कहीं-कहीं सफेदी झलकने लगी थी। घनी चौकोर दाढ़ी का रंग बालों से भी हलका था। आँखों का रंग नीला था और देखने के ढंग में कुछ कठोरता, पैनापन और विचारमग्नता का भाव था। उसके होठों का रंग लाल था। उसने अपने स्वास्थ्य को बहुत सँभाल कर रखा हुआ था, जिसके सबब वह अपनी उम्र से बहुत कम का लगता था।

सोन्या जब नहर किनारे पहुँची तब सड़क की उस पटरी पर सिर्फ वही दोनों थे। उसने ध्यान से देखा कि सोन्या अपने ही विचारों में खोई हुई है, जैसे सपना देख रही हो। जहाँ वह रहती थी, उस घर तक पहुँच कर वह फाटक में मुड़ी। वह सज्जन भी उसके पीछे मुड़े और लगा कि उन्हें कुछ ताज्जुब हो रहा था। अहाते में पहुँच कर वह दाएँ कोने की ओर मुड़ी। 'वाह!' अजनबी ने अस्फुट स्वर में कहा, और उसके पीछे ही सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। तब जा कर सोन्या का ध्यान उसकी ओर गया। तीसरी मंजिल पर पहुँच कर वह गलियारे में मुड़ी और 9 नंबर के कमरे की घंटी बजाई। दरवाजे पर खड़िया से लिखा था : कापरनाउमोव, दर्जी। 'वाह!' अजनबी ने एक बार फिर दोहराया और इस अनोखे संयोग पर आश्चर्य करने लगा। उसने अगले दरवाजे पर, 8 नंबर के कमरे की घंटी बजाई। दोनों दरवाजों के बीच कोई दो-तीन गज की फासला था।

'कापरनाउमोव के मकान में रहती हो,' उसने सोन्या की ओर देख कर हँसते हुए कहा। 'कल ही मैंने उससे अपनी एक वास्कट ठीक कराई है। मैं इधर बगल में, मादाम रेसलिख के यहाँ रहता हूँ। कैसा संयोग है!'

सोन्या ने उसे गौर से देखा।

'हम लोग पड़ोसी हैं,' वह बेहद खुश हो कर बोला। 'मैं अभी परसों ही यहाँ आया हूँ। अच्छा, फिर मिलेंगे।'

सोन्या ने कुछ जवाब नहीं दिया। दरवाजा खुला तो वह चुपके से अंदर चली गई। न जाने क्यों वह शर्म-सी महसूस करने लगी और उसे बेचैनी होने लगी।

पोर्फिरी के यहाँ जाते हुए रास्ते में रजुमीखिन खुशी से फूटा पड़ रहा था।

'यह तो शानदार बात हुई, प्यारे,' उसने कई बार दोहराया, 'आज मैं बहुत खुश हूँ, बेहद खुश!'

'किस बात पर खुश है भला?' रस्कोलनिकोव ने मन-ही-मन सोचा।

'मुझे नहीं मालूम था कि उस बुढ़िया के यहाँ तुमने भी कुछ चीजें गिरवी रखी थीं। और... क्या यह बहुत दिन की बात है मेरा मतलब है कि क्या तुम्हें वहाँ गए बहुत दिन हो गए?'

'कैसा भोला है यह भी!'

'कब की बात है,' रस्कोलनिकोव याद करने के लिए ठहर गया। 'यह बात उसके मरने के दो-तीन दिन पहले की होगी। लेकिन मैं उन चीजों को अभी नहीं छुड़ाऊँगा,' उसने उन चीजों के बारे में गहरी दिलचस्पी दिखाते हुए जल्दी से कहा, 'मेरे पास तो... कल रात के कमबख्त सरसाम के बाद... अब चाँदी का एक ही रूबल बचा है!'

'सरसाम,' पर खास तौर पर जोर दिया।

'हाँ, हाँ,' रजुमीखिन ने न जाने किस कारण से जल्दी से सहमति प्रकट की। 'अच्छा, तो यह बात थी कि तुमको... एक रट-सी लग गई थी... कुछ हद तक... बात यह है कि अपनी सरसामी हालत में तुम लगातार कुछ अँगूठियों या जंजीरों की बातें कर रहे थे! हाँ, हाँ... तो समझ में आ गया, अब सारी बात साफ हो गई।'

'सचमुच! तो यह विचार उन लोगों के बीच किस तरह फैला हुआ है! इसी को ले लो, मेरी खातिर सूली पर भी चढ़ने को तैयार, लेकिन इसे भी खुशी इस बात की है कि सरसाम की हालत में मैं अँगूठियों की इतनी चर्चा क्यों कर रहा था, यह बात साफ हो गई! उन सबके दिमाग में यह बात कितनी गहराई तक जम गई होगी!'

'इस वक्त वह मिलेगा?' उसने अचानक पूछा।

'हाँ, हाँ, मिलेगा,' रजुमीखिन ने जल्दी से जवाब दिया। 'बहुत उम्दा आदमी है यार, तुम देखना। थोड़ा-सा बेढब जरूर है, मतलब यह कि आदमी तो बहुत नफीस है लेकिन मेरा मतलब यह कि एक-दूसरे मानी में बेढब है। बहुत समझदार आदमी है, सच पूछो तो जरूरत से ज्यादा समझदार है, लेकिन उसकी कुछ हदें हैं, उनके ही अंदर सोचता है। ...कुछ शक्की है, कुछ सनकी भी है... लोगों को धोखा देना चाहता है, बल्कि उनका मजाक उड़ाना चाहता है। उसका तरीका वह पुराना, ठोस सबूतवाला तरीका है, सीधी बात को छोड़ कर बाल की खाल निकालने का... लेकिन अपना काम जानता है... एकदम पक्की तरह समझता है। ...पिछले साल उसने कत्ल का एक ऐसा मामला सुलझाया था, जिसमें पुलिस के पास कोई भी सुराग नहीं था। तुमसे मिलने के लिए बहुत ही बेचैन है!'

'किसलिए इतना बेचैन है?'

'यार, नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है... बात यह है कि जब से तुम बीमार पड़े हो, तबसे मैं कई बार उससे तुम्हारी चर्चा कर चुका... तो जब उसने तुम्हारे बारे में सुना... कि तुम वकालत पढ़ते थे और अपनी पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए तो उसने कहा : बड़े अफसोस की बात है! और इसलिए मैंने यह नतीजा निकाला... सब बातों को मिला कर, किसी अकेली एक बात से नहीं; अब कल जमेतोव... तुम तो जानते ही हो रोद्या, कल रात तुम्हारे घर जाते हुए मैंने रास्ते में, नशे में कुछ बकवास की थी। ...मुझे डर है, यार कि तुम कहीं उसका कुछ बढ़ा-चढ़ा कर मतलब न लगा लो।'

'क्या इस बात का कि वे लोग मुझे पागल समझते हैं हो सकता है वे ठीक समझते हों,' उसने कुछ थमी-थमी मुस्कराहट के साथ कहा।

'हाँ, हाँ, यही... जाने दो यह सब खुराफात, है कि नहीं लेकिन मैंने जो कुछ कहा था (और उसके अलावा कुछ बात और भी थी) वह... सब बकवास थी, और इसलिए कि मैं शराबी था।'

'लेकिन तुम इतनी माफी क्यों माँग रहे हो? मैं इस तरह की बातों से तंग आ चुका!' रस्कोलनिकोव जरूरत से कुछ ज्यादा ही चिढ़ कर चीखा। लेकिन उसका यह बर्ताव अंशतः बनावटी था।

'जानता हूँ मैं, जानता हूँ और समझता हूँ! यकीन मानो, मैं सब समझता हूँ। उसकी बात करते भी शर्म आती है।'

'शर्म आती है तो मत करो उसकी बात!'

दोनों चुप हो गए। खुशी के मारे रजुमीखिन हवा में उड़ा जा रहा था और यह देख कर रस्कोलनिकोव को खुंदक हो रही थी। रजुमीखिन ने अभी पोर्फिरी के बारे में जो कुछ कहा था उससे भी उसे परीशानी हो रही थी।

'उसके सामने भी मुझे गंभीर सूरत बनाए रखनी होगी,' उसने धड़कते हुए दिल से सोचा और उसका रंग सफेद पड़ गया, 'और सो भी इस तरह कि मालूम न हो, मैं बना कर ऐसा कर रहा हूँ। लेकिन सबसे सहज बात तो यह होगी कि कुछ किया ही न जाए। पूरी सावधानी से, कुछ भी न किया जाए! नहीं, सावधानी बरतना भी बनावटी मालूम होगा... खैर, देखा जाएगा क्या होता है... वहाँ पहुँच कर देखेंगे। लेकिन वहाँ जाना भी ठीक है या नहीं परवाना उड़ कर चिराग की तरफ जाता है। बुरी बात यह है कि मेरा दिल धड़क रहा है!'

'इस स्लेटी रंगवाले घर में,' रजुमीखिन ने कहा।

'सोचने की सबसे बड़ी बात यह है कि पोर्फिरी को क्या यह बात मालूम है कि कल मैं उस खूसट बुढ़िया के यहाँ गया था... और खून के बारे में पूछा था इस बात का मुझे फौरन पता लगाना होगा, अंदर घुसते ही उसके चेहरे से पता लगाना होगा; वरना... मुझे पता तो लगाना ही होगा, चाहे वह मेरी तबाही का सबब क्यों न बन जाए!'

'मैं कहता हूँ यार,' उसने अचानक रजुमीखिन की ओर मुड़ कर एक टेढ़ी मुस्कराहट के साथ कहा, 'मैं आज दिन भर देखता रहा हूँ कि तुममें एक अजीब-सी हुलास है। है कि नहीं?'

'हुलास नहीं तो, कतई नहीं,' रजुमीखिन ने कहा, गोया उसे किसी ने डंक मारा हो।

'नहीं दोस्त, मैं जो कहता हूँ वह साफ तौर पर सही है। अरे कुर्सी पर भी तुम इस तरह बैठे हुए थे जैसे कभी नहीं बैठते, एकदम किनारे पर टिक कर; लग रहा था पूरे वक्त तुम तिलमिला रहे हो। बिना बात बीच-बीच में उचक पड़ते थे। पलभर में नाराज होते थे और दूसरे ही पल तुम्हारा चेहरा बिलकुल खिल उठता था। तुम्हारे कान की लवें तक लाल हो जाती थीं। खास तौर पर जब तुम्हें खाने के लिए बुलाया गया था, तब तुम बेहद शरमा रहे थे।'

'ऐसी कोई बात नहीं थी... सब बकवास है! मतलब तुम्हारा क्या है?'

'पर तुम इस बात से स्कूली लड़कों की तरह कतराना क्यों चाहते हो कसम से, लो देखो, फिर शरमाने लगे!'

'तुम भी साले सुअर हो!'

'तुम लेकिन इतना झेंप क्यों रहे हो? दीवाने कहीं के बस देखते जाओ, मैं आज इसके बारे में किसी को बताऊँगा हा-हा-हा! माँ तो हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाएँगी, फिर कोई और भी...'

'देखो यार, सुनो तो मैं कहे देता हूँ यह कोई मजाक की बात नहीं है... अब तुम करनेवाले क्या हो, शैतान की दुम!' रजुमीखिन बुरी तरह झेंप रहा था। उसे डर के मारे ठंडा पसीना छूटने लगा था। 'तुम क्या कहोगे उन लोगों से? मैं तो यार... उफ! तुम भी पक्के सुअर हो!'

'एकदम गुलाब की तरह खिले जा रहे हो। काश, तुम्हें मालूम होता कि यह सब तुम पर कितना जँचता है। छह फुट्टा दीवाना! आज कैसे नहाए-धोए लग रहे हो... नाखून भी साफ किए हैं, मैं दावे के साथ कहता हूँ। क्यों आज तक तो कभी ऐसा किया नहीं! अरे, मुझे तो लगता है कि बालों में क्रीम भी लगाई है! झुक कर दिखाओ तो सही!'

'पाजी कहीं का!!'

रस्कोलनिकोव लाख रोकने पर भी अपनी हँसी न रोका सका। वे दोनों इसी तरह हँसते हुए पोर्फिरी पेत्रोविच के फ्लैट में घुसे। यही तो रस्कोलनिकोव चाहता था। अंदर उनके हँसने की आवाज जा रही थी। वे दोनों अभी तक ड्योढ़ी में ठहाका मार कर हँस रहे थे।

'यहाँ इसके बारे में एक बात भी मुँह से निकाली तो... तुम्हारा भेजा मैं उड़ा दूँगा!' रजुमीखिन ने रस्कोलनिकोव का कंधा पकड़ कर गुस्से से उसके कान में कहा।

अपराध और दंड : (अध्याय 3-भाग 5)

रस्कोलनिकोव जब कमरे में प्रवेश कर रहा था तो उसकी सूरत से लगता था उसे अपने आपको फिर ठहाका मार कर हँस पड़ने से रोकने में भारी कठिनाई हो रही थी। उसके पीछे रजुमीखिन कुछ अटपटे और भोंडे तरीके से अंदर आया। वह कुछ शरमाया हुआ था; चेहरा टमाटर की तरह लाल हो रहा था। वह बुरी तरह झेंपा और गुस्से से भरा हुआ मालूम होता था। उस समय उसका चेहरा और उसका पूरा हुलिया सचमुच हास्यास्पद लग रहा था और रस्कोलनिकोव को अगर हँसी आ रही थी तो ठीक ही आ रही थी। रस्कोलनिकोव ने परिचय कराए जाने का इंतजार किए बिना पोर्फिरी पेत्रोविच को झुक कर सलाम किया जो कमरे के बीच में खड़ा उन्हें सवालिया नजरों से देख रहा था। रस्कोलनिकोव ने आगे बढ़ कर हाथ मिलाया। वह अभी तक अपनी फूटी पड़ रही खुशी को दबाने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा था और अपना परिचय देने के लिए कुछ कहना चाहता था। लेकिन वह गंभीर मुद्रा धारण करने और दबी जबान से कुछ कहने में अभी सफल ही हुआ था कि अचानक उसकी नजर फिर रजुमीखिन पर पड़ी और वह अपने आपको काबू में न रख सका। अपनी दबी हुई हँसी को वह जितना ही दबाने की कोशिश करता था, उतनी ही तेजी से वह फूटी पड़ती थी। रजुमीखिन को उसकी इस 'दिली' हँसी पर जिस तरह बेतहाशा गुस्सा आया, उसकी वजह से पूरे दृश्य से अत्यंत वास्तविक मनबहलाव और उससे भी बढ़ कर स्वाभाविकता का तत्व पैदा हो गया था। रजुमीखिन ने मानो जान-बूझ कर इस धारणा को और पक्का कर दिया था।

'भाड़ में जाओ!' वह अपना एक हाथ घुमा कर जोर से गरजा। हाथ एक छोटी-सी गोल मेज से टकराया, जिस पर चाय का एक खाली गिलास रखा हुआ था। मेज उलट गई और उस पर रखा काँच का गिलास झनझना कर टूट गया।

'लेकिन आप लोग कुर्सियाँ क्यों तोड़ रहे हैं? आप जानते हैं न कि इससे सरकार का नुकसान होता है,' पोर्फिरी पेत्रोविच ने मजाक के लहजे में जोर से कहा।

रस्कोलनिकोव अभी तक हँस रहा था। अभी तक उसका हाथ पोर्फिरी पेत्रोविच के हाथ में था, लेकिन वह नहीं चाहता था कि जरूरत से ज्यादा बेतकल्लुफी का परिचय दे। इसलिए वह इस सिलसिले को स्वाभाविक ढंग से खत्म करने के लिए उचित समय की प्रतीक्षा कर रहा था। मेज उलटने और काँच का गिलास टूटने से रजुमीखिन एकदम सिटपिटा गया था। बड़ी उदास नजरों से काँच के टूटे हुए टुकड़ों को देख रहा था। वह अपने आपको कोसता हुआ तेजी से खिड़की की ओर मुड़ा और बेहद गुस्से में भरा हुआ, त्योरियों पर बल डाले उन लोगों की ओर पीठ किए खड़ा रहा। वह शून्य भाव से तके जा रहा था। पोर्फिरी पेत्रोविच हँस रहा था और इसी तरह हँसते रहने को तैयार था, लेकिन जानना भी चाहता था कि यह सब क्या और क्यों हो रहा है। जमेतोव एक कोने में बैठा हुआ था, लेकिन इन लोगों के अंदर आते ही वह उठ पड़ा और होठों पर मुस्कराहट लिए हुए किसी चीज की प्रतीक्षा में खड़ा रहा। वैसे इस पूरे दृश्य को वह आश्चर्य से देख रहा था और लग रहा था कि उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा। रस्कोलनिकोव को देख कर वह कुछ खिसिया भी रहा था। वहाँ आशा के विपरीत जमेतोव की मौजूदगी रस्कोलनिकोव को कुछ अच्छी नहीं लगी।

'मुझे इस बात का ध्यान रखना होगा,' रस्कोलनिकोव ने सोचा। 'माफ कीजिएगा,' उसने बेहद अटपटा महसूस करने की मुद्रा धारण करते हुए कहना शुरू किया। 'मैं रस्कोलनिकोव हूँ।'

'इसमें माफी की क्या बात है, आपसे-मिल कर खुशी हुई... और आप आए भी तो कैसे खुशदिल ढंग से! ...अरे, वह क्या सलाम-दुआ भी नहीं करेगा?' पोर्फिरी पेत्रोविच ने सर के झटके से रजुमीखिन की तरफ इशारा करके कहा।

'कसम खा कर कहता हूँ कि मुझे नहीं पता वह क्यों मुझसे इतना बिफरा हुआ है। यहाँ आते हुए मैंने उससे बस इतना ही कह दिया था कि वह दीवाना लग रहा है... और इस बात को मैंने साबित भी कर दिया था। जहाँ तक मैं समझता हूँ, बस इतनी ही बात थी।'

'पाजी कहीं का!' रजुमीखिन ने मुड़े बिना ही, चिढ़ कर कहा।

'अगर वह इतना ही कहने पर इस तरह जामे से बाहर हो रहा है तो कोई वजह भी होगी,' पोर्फिरी ने हँस कर कहा।

'बस-बस, बड़े आए जासूस बन कर! ...तुम सब भाड़ में जाओ!' रजुमीखिन ने झिड़क कर कहा और अचानक खुद भी खिल-खिला कर हँस पड़ा। वह और भी खिले हुए चेहरे के साथ पोर्फिरी के पास गया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। 'छोड़ो इन बातों को, हम सब बेवकूफ हैं। अब कुछ मतलब की बातें करें। यह मेरा दोस्त रोदिओन रोमानोविच रस्कोलनिकोव है। पहली बात तो यह है कि तुम्हारी चर्चा इसने सुनी थी और तुमसे मिलना चाहता था। दूसरे, इसे तुमसे एक छोटा-सा काम भी है। अरे, वाह! जमेतोव, तुम यहाँ कैसे? तुम लोग क्या पहले ही मिल चुके हो? तुम दोनों एक-दूसरे को क्या बहुत दिन से जानते हो?'

'क्या मतलब हो सकता है इसका?' रस्कोलनिकोव ने बेचैन हो कर सोचा।

ऐसा लगा कि जमेतोव कुछ परेशान हो गया है, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं।

'अभी कल ही तो मुलाकात हुई थी तुम्हारे यहाँ,' उसने सहज भाव से कहा।

'भगवान की कृपा कि मैं इस जिम्मेदारी से बच गया। हफ्ते भर से यह मेरे पीछे पड़ा था कि मैं तुमसे इसे मिला दूँ। आखिरकार पोर्फिरी और तुम, दोनों एक-दूसरे तक पहुँच ही गए। अपना तंबाकू कहाँ रखते हो?'

पोर्फिरी पेत्रोविच ने अनौपचारिक ढंग की एक ड्रेसिंग गाउन, बहुत साफ कमीज और छोटी एड़ी की स्लीपर पहन रखी थी। वह लगभग पैंतीस साल का शख्स था। छोटा कद, गठा हुआ शरीर, कुछ मोटापा लिए हुए। दाढ़ी-मूँछ सफाचट। उसने बाल बहुत छोटे कटवा रखे थे और सर बहुत बड़ा और गोल था। और पीछे की ओर खास तौर पर कुछ ज्यादा ही उभरा हुआ था। फूला हुआ, गोल, जरा चपटी नाक के साथ चेहरा बीमारों की तरह पीले रंग का था, लेकिन उस पर बड़ी चुस्ती थी और कुछ व्यंग्य का भी भाव था। आँखें छोड़ कर बाकी चेहरा काफी हँसमुख और सुहृद भी था। आँखों में लगभग पूरी तरह सफेद, झपकती हुई पलकों के नीचे एक अजीब गीली-गीली फीकी-सी चमक थी; हरदम यूँ लगता था गोया वह आँख मार रहा हो। आँखों का भाव उसके कुछ-कुछ जनाने डील-डौल से मेल न खाने की वजह से कुछ अजीब-सा लगता था। पहली बार देखने पर उनमें जितनी संजीदगी मालूम होती थी उससे कहीं अधिक गंभीरता आ जाती थी।

पोर्फिरी पेत्रोविच ने जब सुना, कि उससे मिलने के लिए आनेवाले को उससे, 'एक छोटा-सा काम' है तो उसने उससे सोफे पर बैठने की प्रार्थना की और खुद सोफे के दूसरे सिरे पर बैठ कर राह देखने लगा कि रस्कोलनिकोव अपना काम उसे बताए। पोर्फिरी उसे इतनी गहराई और आवश्यकता से अधिक गंभीरता से देख रहा था कि सामनेवाला आदमी घुटन और घबराहट महसूस करने लगे, खास तौर पर तब जबकि वह अजनबी हो और उस हालत में तो और भी जब वह मामला, जिसके बारे में आप बात कर रहे हो, खुद आपकी राय में इतना कम महत्व रखता हो कि उसकी ओर इतनी असाधारण गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत ही न हो। लेकिन रस्कोलनिकोव ने बहुत थोड़े और गठे हुए शब्दों में अपनी गरज बहुत साफ-साफ और सही-सही समझाया, और अपने आपसे इतना संतुष्ट हुआ कि पोर्फिरी को नजर भर कर देख भी लिया। पोर्फिरी पेत्राविच ने उसकी ओर से एक पल के लिए नजर भी नहीं हटाई। रजुमीखिन उसी मेज के सामने बैठा हुआ जोश और अधीरता से सब कुछ सुन रहा था, और एक-एक पल पर जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी के साथ बारी-बारी कभी एक की ओर तो कभी दूसरे की ओर देखता था।

रस्कोलनिकोव ने मन-ही-मन उसकी बेवकूफी को गाली दी।

'आपको पुलिस को बयान देना होगा,' पोर्फिरी ने कारोबारी ढंग से जवाब दिया, 'कि इस मामले की, यानी इस कत्ल की, खबर मिलने पर आप इसकी छानबीन करनेवाले वकील को यह बताना चाहते हैं कि फलाँ-फलाँ चीजें आपकी हैं और आप उन्हें छुड़ाना चाहते हैं... या... बल्कि वे लोग आपको खुद लिखेंगे।'

'बात यही तो है इस... इस वक्त,' रस्कोलनिकोव ने यह जताने की भरपूर कोशिश की कि वह कुछ अटपटा-सा महसूस कर रहा है। 'मेरे पास कतई कोई पैसा नहीं है... और यह छोटी-सी रकम अदा करना भी मेरे बस से बाहर है... बात यह है कि... इस वक्त मैं सिर्फ यह दर्ज कराना चाहता हूँ कि वे चीजें मेरी हैं, और जब मेरे पास पैसा होगा तो...'

'कोई बात नहीं,' पोर्फिरी पेत्रोविच ने पैसे की तंगी के बारे में रस्कोलनिकोव के बयान पर कोई प्रतिक्रिया दिखाए बिना जवाब दिया, 'लेकिन आप चाहें तो सीधे मुझे भी लिख सकते हैं कि इस मामले की खबर मिलने पर, और फलाँ-फलाँ चीजों को अपना बताते हुए, आप चाहते हैं कि...'

'सादे कागज पर' रस्कोलनिकोव ने एक बार फिर इस सिलसिले के पैसेवाले पहलू से दिलचस्पी दिखाते हुए उत्सुकता से उनकी बात काटी।

'जी हाँ, एकदम मामूली कागज पर,' यह कह कर पोर्फिरी पेत्रोविच ने आँखें सिकोड़ कर, गोया उसकी ओर आँख मार रहा हो, खुले व्यंग्य के भाव से कहा। लेकिन यह शायद रस्कोलनिकोव का भ्रम मात्र था, क्योंकि उसका यह भाव सिर्फ एक पल रहा। लेकिन कोई बात इस तरह की जरूर थी। रस्कोलनिकोव कसम खा कर कह सकता था कि उसने उसकी तरफ आँख मारी थी; न जाने क्यों।

'सब मालूम है इसे,' उसके दिमाग में अचानक यह विचार बिजली की तरह कौंधा।

'इतनी छोटी-सी बात पर आपको परेशान करने के लिए मुझे माफ कीजिएगा,' वह कुछ घबरा कर कहता रहा, 'उन चीजों की कीमत तो होगी सिर्फ पाँच रूबल, लेकिन जिनसे वे मुझे मिली हैं, उन लोगों की वजह से मैं उनकी बहुत कद्र करता हूँ। मैं यह भी मानने को तैयार हूँ कि तब मेरे दिल में दहशत समा गई थी, जब मैंने सुना था कि...'

'इसीलिए तुम इतना चौंके थे जब मैंने जोसिमोव से कहा था कि पोर्फिरी उन तमाम लोगों के बारे में पूछताछ कर रहा है, जिन्होंने वहाँ चीजें गिरवी रखी थीं!' रजुमीखिन ने जान-बूझ कर एक खास इरादे से बात काट कर कहा।

यह बात सचमुच बर्दाश्त के बाहर थी। रस्कोलनिकोव अपनी काली-काली आँखों में प्रतिरोध से भरे गुस्से की चमक लिए हुए उसकी ओर देखे बिना न रह सका। लेकिन उसने अपने आपको फौरन ही सँभाल भी लिया।

'तुम तो लगता है मेरी खिल्ली उड़ा रहे हो यार,' उसने बनावटी चिड़चिड़ाहट की साथ कहा। 'मैं मानता हूँ कि तुम्हारे खयाल में मुझे इस तरह की छोटी-मोटी बातों में बेतुकेपन की हद तक दिलचस्पी है। लेकिन इसकी वजह से तुम कहीं यह न समझ लेना कि मैं स्वार्थी और लालची हूँ; और ये दो बातें मेरी नजरों में कतई छोटी-मोटी नहीं हैं। मैंने तुम्हें बताया था कि वह चाँदी की घड़ी भले ही दो कौड़ी की न हो, लेकिन हम लोगों के पास मेरे बाप की वही अकेली निशानी बची है। आप मेरा मजाक उड़ाएँगे लेकिन मेरी माँ यही हैं,' उसने अचानक पोर्फिरी की ओर घूम कर कहा, 'और अगर उन्हें मालूम हो गया,' वह एक बार फिर अचानक, जल्दी से रजुमीखिन की ओर घूमा और बड़ी होशियारी से उसने अपनी आवाज में कँपकँपी पैदा की, 'कि घड़ी खो गई है तो उनका दिल टूट जाएगा! औरतों की बातें तो आप जानते ही हैं!'

'नहीं, नहीं, ऐसी बात बिलकुल नहीं है! यह मेरा मतलब हरगिज न था, बल्कि बात इसकी उलटी ही थी!' रजुमीखिन ने दुखी हो कर ऊँची आवाज में कहा।

'यह क्या सही था स्वाभाविक था कहीं मैंने जरूरत से ज्यादा नाराजगी तो नहीं दिखाई,' रस्कोलनिकोव ने डर से काँपते हुए अपने आप से पूछा। 'मैंने औरतों के बारे में ऐसी बात क्यों कही?'

'तो आपकी माँ आपके पास आई हुई हैं?' पोर्फिरी पेत्रोविच ने पूछा।

'जी।'

'कब आईं?'

'कल रात।'

पोर्फिरी रुक गया, गोया कुछ सोच रहा हो।

'आपकी चीजें बहरहाल खोएँगी नहीं,' वह शांत भाव से और सर्द लहजे में कहता रहा। 'मैं काफी अरसे से यहाँ आपके आने की उम्मीद लगाए हुए था।'

यह बात इस तरह कह कर गोया इसका कोई बहुत अधिक महत्व न हो, उसने बहुत सँभाल कर ऐश-ट्रे रजुमीखिन की ओर बढ़ा दी, जो सिगरेट की राख कालीन पर अंधाधुंध बिखेरे जा रहा था। रस्कोलनिकोव सहम गया लेकिन पोर्फिरी के आचरण से ऐसा लगता था कि वह उसकी ओर देख ही नहीं रहा। अभी तक उसका ध्यान रजुमीखिन की सिगरेट की ही ओर था।

'क्या कहा? इसके आने की उम्मीद लगाए हुए थे! क्यों, तुम्हें मालूम था क्या कि इसकी चीजें वहाँ रेहन रखी हुई हैं?' रजुमीखिन ने बेचैन हो कर पूछा।

पोर्फिरी पेत्रोविच रस्कोलनिकोव से ही बातें करता रहा।

'तुम्हारी दोनों चीजें, घड़ी और अँगूठी, एक साथ लपेट कर रखी हुई थीं, पेंसिल से कागज पर तुम्हारा नाम साफ-साफ लिखा था, और साथ ही वे तारीखें भी पड़ी थीं, जब तुम वे चीजें उसके पास रख कर आए थे...'

'आपकी नजर भी कितनी तेज है!' रस्कोलनिकोव कुछ खिसियाना-सा मुस्कराया और उसकी आँखों में आँखें डाल कर देखने की भरपूर कोशिश की लेकिन ऐसा कर न सका। अचानक बातचीत का सिलसिला जारी रखते हुए वह बोला, 'मैं इसलिए ऐसा कह रहा हूँ कि वहाँ शायद बहुत-सी चीजें रेहन रखी गई होंगी... इसलिए उन सबको याद रखना जरा मुश्किल ही है... लेकिन आपको तो सब चीजें एकदम साफ-साफ याद हैं... और... और...'

'बेवकूफी की बात!' उसने सोचा। 'यह बात कहने की जरूरत ही क्या थी'

'लेकिन हमें उन सब लोगों के बारे में पता है जिनकी चीजें वहाँ रेहन रखी हुई थीं, और तुम्हीं अकेले ऐसी आदमी हो, जो अभी तक नहीं आए थे,' पोर्फिरी ने छिपे हुए व्यंग्य के साथ जवाब दिया।

'मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं थी।'

'यह बात भी मैंने सुनी थी। मैंने तो बल्कि यह भी सुना था कि किसी बात की वजह से तुम बेहद परेशान थे। अभी तक तुम्हारा रंग कुछ-कुछ पीला है।'

'नहीं, मेरा रंग तो हरगिज पीला नहीं है... नहीं, मैं एकदम ठीक हूँ,' रस्कोलनिकोव ने रुखाई और गुस्से से अपना लहजा बदलते हुए, झट से जवाब दिया। उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा था और वह उसे किसी भी तरह दबा नहीं पा रहा था। 'पर अपने गुस्से की वजह से मैं तो अपना ही भाँडा फोड़ दूँगा,' एक बार फिर यह विचार उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंधा। 'ये लोग मुझे सता क्यों रहे हैं?'

'बहुत ठीक तो नहीं है!' रजुमीखिन ने उसकी बात का खंडन करते हुए कहा। 'कम करके बता रहा है! यह अभी कल तक बेहोश था और सरसाम की हालत में था। यकीन जानो पोर्फिरी, हम लोगों के मुड़ते ही इसने कपड़े पहने, हालाँकि ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था, और हम सबको चकमा दे कर आधी रात तक न जाने कहाँ-कहाँ घूमता रहा, वह भी तमाम वक्त सरसाम की हालत में! यकीन करोगे तुम! इसने तो हद कर दी!'

'सचमुच, सरसाम की हालत में सच कह रहे हो न!' पोर्फिरी ने किसान औरतों के ढंग से सर हिलाया।

'बकवास। आप इसकी बातों में मत आइए! लेकिन आपको तो यूँ भी इस बात पर यकीन नहीं है,' रस्कोलनिकोव के मुँह से गुस्से में निकल गया। पर लगता था पोर्फिरी पेत्रोविच पर उन विचित्र शब्दों की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई थी।

'लेकिन अगर तुम सरसाम की हालत में नहीं थे तो बाहर कैसे गए?' रजुमीखिन को अचानक तैश आ गया। 'बाहर भला किसलिए गए थे काम क्या था तुम्हें? और इस तरह चोरी से क्यों गए? जिस वक्त तुमने यह किया, क्या तुम पूरी तरह होश में थे? अब चूँकि सारा खतरा दूर हो चुका है, इसलिए मैं साफ-साफ बातें कर सकता हूँ।'

'कल मैं इन लोगों से बेहद तंग आ गया था।' रस्कोलनिकोव ने अचानक ढिठाई से मुस्करा कर पोर्फिरी को संबोधित किया। 'मैं इन लोगों से भाग कर रहने की कोई ऐसी जगह तलाश करने गया था जहाँ इन लोगों को मेरा पता न चल सके। और मैं साथ में बहुत सारा पैसा भी ले गया था। वह जमेतोव साहब, जो वहाँ बैठे हैं, उन्होंने वह पैसा देखा था। मैं पूछता हूँ जमेतोव साहब, मैं कल होश में था या सरसाम में था हमारा यह झगड़ा आप ही निबटा दीजिए।'

रस्कोलनिकोव को जमेतोव की मुद्रा और खामोशी से इतनी नफरत हो रही थी कि उसका बस चलता तो वह उसका गला घोंट देता।

'मेरी राय तो यह है कि तुम भरपूर समझदारी से, बल्कि काफी होशियारी से बातें कर रहे थे, लेकिन बेहद चिड़चिड़े भी हो रहे थे,' जमेतोव ने रूखे स्वर में अपना फैसला सुनाया।

'आज निकोदिम फोमीच मुझे बता रहा था,' पोर्फिरी पेत्रोविच बीच में बोला, 'कि वह कल बहुत रात गए तुमसे उस शख्स के घर पर मिला था जो गाड़ी से कुचल गया था।'

'लो, सुन लिया,' रजुमीखिन बोला, 'उस वक्त तुम क्या पगलाए हुए नहीं थे? तुमने अपनी पाई-पाई उस विधवा को कफन-दफन के लिए दे दी! मदद ही करना चाहते थे तो पंद्रह रूबल दे देते, या बीस भी दे देते, पर अपने लिए तीन-चार रूबल तो रख लेते। लेकिन नहीं, इसने तो पूरे पच्चीस रूबल फेंक दिए!'

'हो सकता है मुझे कोई खजाना मिल गया हो और तुम्हें उसके बारे में कुछ भी पता न हो हाँ, इसीलिए मैं कल इतना दानवीर बन गया था... जमेतोव साहब को मालूम है कि मुझे खजाना मिला है! माफ कीजिएगा, हम लोग ऐसी फिजूल बातों में आधे घंटे से आपका वक्त खराब कर रहे हैं,' उसने पोर्फिरी पेत्रोविच की ओर घूम कर काँपते हुए होठों से कहा। 'आप हम लोगों की बातों से बेजार हो रहे होंगे, क्यों?'

'नहीं, बात बल्कि इसकी उलटी है, एकदम उलटी! तुम्हें नहीं मालूम कि तुम्हारी बातों में मुझे कितनी दिलचस्पी है! बैठे देखते रहने और सुनते रहने में मुझे मजा आता है... और मुझे बड़ी खुशी है कि आखिर तुम खुद आए।'

'लेकिन हमें चाय तो पिलाओ! गला सूख रहा है,' रजुमीखिन ऊँचे बोला।

'उम्दा खयाल है! शायद हम सभी लोग तुम्हारा साथ दें। चाय से पहले कुछ वह चीज तो... नहीं लेंगे'

'जो मँगाना है, जल्दी मँगाओ!'

पोर्फिरी पेत्रोविच चाय के लिए बोलने चला गया।

रस्कोलनिकोव के विचारों में बगूला-सा उठ रहा था। वह बेहद आग-बगूला हो रहा था।

'सबसे बड़ी बात तो यह है कि ये लोग कुछ छिपाते भी नहीं; उन्हें इसकी फिक्र भी नहीं है कि कुछ तकल्लुफ से ही काम लें। अब अगर आप मुझे एकदम नहीं जानते थे तो निकोदिम फोमीच से मेरे बारे में आपने बात कैसे की, यानी इन लोगों को इस बात को भी छिपाने को भी फिक्र नहीं कि ये लोग मेरे पीछे शिकारी कुत्तों की तरह पड़े हुए हैं। सरासर मेरे मुँह पर थूक रहे हैं!' वह गुस्से के मारे काँप रहा था। 'आओ, सीधी मार करो मुझ पर, मेरे साथ वैसा खेल न खेलो जैसा बिल्ली चूहे के साथ खेलती है, पोर्फिरी पेत्रोविच, और मैं शायद इसकी इजाजत भी नहीं दूँगा। मैं उठ कर सारी सच्चाई आप लोगों के इन बदसूरत चेहरों पर फेंक मारूँगा और तब आपको पता चलेगा कि आप सब से मुझे कितनी नफरत है...' साँस लेने में भी उसे कठिनाई हो रही थी। 'पर अगर यह सिर्फ मेरा भ्रम हुआ तो अगर मेरा इस तरह सोचना गलत हुआ, और अपनी नातजुर्बेकारी की वजह से मैं गुस्से में अपनी घृणित भूमिका न निभा सका तो शायद इन सब बातों के पीछे कोई इरादा हो ही नहीं इनकी सारी बातें घिसी-पिटी, पुरानी बातें हैं, लेकिन इनमें कोई बात तो है... ये सभी बातें कही जा सकती हैं, लेकिन इनमें कोई बात जरूर है। उसने इतने मुँहफट हो कर यह क्यों कहा : उसके यहाँ जमेतोव ने भी यह क्यों कहा कि मैं होशियारी से बातें कर रहा था? ऐसे लहजे में बातें ये लोग क्यों करते हैं हाँ, उनका लहजा... यहाँ रजुमीखिन भी बैठा है, उसे कुछ दिखता क्यों नहीं? इस काठ के उल्लू को कभी कुछ दिखाई नहीं देता! बुखार फिर चढ़ रहा है क्या? पोर्फिरी ने अभी मेरी ओर देख कर आँख मारी थी, क्या नहीं, सरासर बकवास है! वह आँख भला क्यों मारने लगा। ये लोग मुझे बौखला देने की कोशिश कर रहे हैं क्या, या मुझे तंग कर रहे हैं या तो यह सब कुछ मेरा भ्रम है या इन लोगों को सब कुछ मालूम है! जमेतोव भी अक्खड़ है... या नहीं है पिछली रात के बाद उसने तमाम बातों पर फिर से गौर किया है। मैं तो पहले ही समझ गया था कि वह अपनी राय बदलेगा। उसके लिए यहाँ जैसे सुकून-ही-सुकून है, और फिर भी वह यहाँ पहली बार आया है! पोर्फिरी उसे कोई ऐसा आदमी नहीं समझता जो उससे मिलने आया हो; उसकी तरफ पीठ करके बैठता है। मेरे बारे में तो उन दोनों के बीच चोरोंवाली मिलीभगत है... इसमें कोई शक ही नहीं है! न इसमें कोई शक है कि हम लोगों के आने से पहले वे मेरे ही बारे में बातें कर रहे थे। उन्हें फ्लैटवाली बात मालूम है क्या? जो कुछ भी करना हो, ये बस जल्दी से खत्म करें तो अच्छा! जब मैंने कहा कि मैं रहने की जगह किराए पर लेने के लिए अपने यहाँ से भाग आया था तो उसने इस बात को नजरअंदाज किया... वह रहने की जगहवाली बात मैंने चालाकी से कही थी, मुमकिन है बाद में काम आए... सरसामी हालत, क्या बात है... हा-हा-हा! उसे कल रात के बारे में सब कुछ मालूम है! उसे मेरी माँ के आने के बारे में नहीं पता था! ...उस चुड़ैल ने पुड़िया पर पेंसिल से तारीख लिख रखी थी! यह आप लोगों का भ्रम है, मेहरबान आप मुझे नहीं पकड़ सकते! आपके पास कोई ठोस सबूत नहीं, सब हवाई बातें हैं! पेश कीजिए कोई ठोस सच्चाई! किराएवाली बात भी ठोस सबूत नहीं है, वह तो सरसामी हालत की बात है। मैं जानता हूँ। मुझे उनसे क्या कहना है... क्या उन्हें किराएवाली बात मालूम है मुझे उनसे क्या कहना है... क्या उन्हें बात मालूम है इस बात का पता लगाए बिना तो मैं यहाँ से नहीं जाता। यहाँ मैं आया किसलिए था लेकिन मेरी इस वक्त की नाराजगी शायद एक ठोस सच्चाई है! बेवकूफ, मैं भी कितना चिड़चिड़ा हो रहा हूँ! यही शायद ठीक है; बीमारी का बहाना करते रहना... यह मेरी टोह ले रहा है। मुझे पकड़ने की कोशिश करेगा। मैं आया क्यों था यहाँ?'

उसके दिमाग में ये सारी बातें बिजली की तरह कौंधीं। पोर्फिरी पेत्रोविच जल्द ही वापस आ गया। अचानक वह पहले से भी ज्यादा हँसी-मजाक करने लगा था।

'यार, कल तुम्हारी पार्टी के बाद से मेरा तो सर जरा... मेरा अंजर-पंजर ढीला हो रहा,' उसने रजुमीखिन की ओर देख कर हँसते हुए एक-दूसरे ही लहजे में कहा।

'सचमुच दिलचस्प रही क्या कल मैं तुम्हें छोड़ कर जब आया था तब बहस बहुत दिलचस्प मुकाम पर पहुँच चुकी थी। बाजी आखिर में किसके हाथ रही?'

'जाहिर है, किसी के भी नहीं। वे लोग तो शाश्वत सवालों में उलझ गए और भटकते हुए दूर बादलों पर तैरने लगे!'

'सोचो तो, रोद्या, कल हम लोग किस तरह की बहस में उलझ गए थे : एक अपराध जैसी कोई चीज होती है क्या मैंने तुम्हें बताया था न कि हम लोग बकवास करने लगे थे।'

'इसमें क्या अजीब बात है यह तो आए दिन का एक समाजी सवाल है,' रस्कोलनिकोव ने सहज भाव से जवाब दिया।

'नहीं, सवाल को इस ढंग से नहीं रखा गया था,' पोर्फिरी ने अपनी बात कही।

'ठीक, इस ढंग से तो नहीं, यह सच है,' रजुमीखिन ने फौरन बात मान ली। वह हमेशा की तरह जोश से जल्दबाजी में बोल रहा था। 'सुनो रोदिओन, हमें तुम अपनी राय बताओ, और वह मैं सुनना चाहता हूँ। मैं उनका डट कर मुकाबला कर रहा था और मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत थी। मैंने उन लोगों से कहा भी कि तुम आ रहे हो... बहस शुरू हुई थी समाजवादियों के नजरिए से। तुम तो उन लोगों का नजरिया जानते हो : अपराध समाज के संगठन में आए विकार के खिलाफ विरोध के अलावा और कुछ भी नहीं और कुछ भी नहीं। उनके यहाँ इसके अलावा इसका और कोई कारण माना ही नहीं जाता।'

'यह तुम गलत बोल रहे हो,' पोर्फिरी पेत्रोविच ने तेज आवाज में उसका खंडन किया। देखने से ही लग रहा था कि वह जोश में था। रजुमीखिन की ओर देख कर वह बराबर हँसता रहा, जिसकी वजह से रजुमीखिन पहले से भी ज्यादा उत्तेजित हो गया।

'कुछ और तो नहीं माना जाता,' रजुमीखिन ने जोश में आ कर उसकी बात काटी। 'मैं कतई गलत नहीं कह रहा हूँ। तुम्हें मैं उनकी किताबें दिखा सकता हूँ। उनके यहाँ हर चीज 'माहौल का असर' होती है, और कुछ भी नहीं! यही उनका सबसे पसंदीदा नारा है। इससे यह नतीजा निकाला जाता है कि अगर समाज को सही ढंग से संगठित किया जाए तो सारे अपराध फौरन मिट जाएँगे, क्योंकि फिर ऐसी कोई चीज रहेगी ही नहीं जिसके खिलाफ आवाज उठाई जाए और हर आदमी पल भर में पुण्यात्मा हो जाएगा। मनुष्य के स्वभाव की ओर तो ध्यान दिया ही नहीं जाता, उसे एक सिरे से अलग कर दिया जाता है और ऐसा समझ लिया जाता है कि गोया वह है ही नहीं। वे इस बात को नहीं मानते कि मानवजाति इतिहास की एक जीवंत प्रक्रिया के अनुसार विकसित हो कर आखिर में एक सुलझा हुआ, कायदे का समाज बन जाएगा। वे लोग बल्कि यह समझते हैं कि गणित जैसी सटीकता से काम करनेवाले किसी दिमाग से निकली हुई समाज-व्यवस्था पूरी मानवता को पलक झपकते संगठित कर देगी और पल भर में, किसी भी जीवंत प्रक्रिया से ज्यादा तेजी के साथ, उसे न्याय के मार्ग पर चलनेवाला और पाप से दूर रहनेवाला बना देगी! यही वजह है कि वे अपने सहज स्वभाव से सबब इतिहास को पसंद नहीं करते, 'उसमें उन्हें बदसूरती और बेवकूफी के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता,' और वे सारे के सारे इतिहास को महज बेवकूफी साबित करते हैं! यही वजह है कि उन्हें जीवन की जीवंत प्रक्रिया से नफरत है और वे जीवंत आत्मा चाहते ही नहीं। जीवंत आत्मा के लिए जीवन की जरूरत होती है, वह मशीनों के नियमों को नहीं मानती। जीवंत आत्मा शंकाग्रस्त होती है, जीवंत आत्मा पीछे ले जानेवाली चीज है! जिस तरह की आत्मा वे चाहते हैं, उसमें भले ही मौत की बदबू आती हो, और भले ही वह रबर से बनी कोई चीज हो, लेकिन उसमें कम-से-कम जान तो नहीं होती, कम-से-कम अपनी इच्छाशक्ति तो नहीं होती। आज्ञाकारी होती है वह और विद्रोह नहीं करती। सो आखिर में नतीजा यह होता है कि वे हर चीज को एक कबीले की रिहाइशी इमारत की दीवारें खड़ी करने और उसमें कमरों और गलियारों की योजना तैयार करने की सतह पर उतार लाते हैं। तो समाजवादी कबीले के रहने के लिए इमारत तो तैयार हो गई, लेकिन मनुष्य का स्वभाव इस इमारत के लिए तैयार नहीं है। वह जीवन चाहता है, अभी उसने अपनी जीवन-लीला पूरी नहीं की है, उसके लिए अभी कब्रिस्तान में जाने का समय नहीं आया है! तर्क के सहारे मनुष्य के स्वभाव को फलाँग कर आप आगे नहीं जा सकते! तर्क कुल तीन संभावनाओं को मान कर चलता है, जबकि संभावनाएँ तो करोड़ों हैं! उन करोड़ों संभावनाओं को काट दीजिए और सारी समस्या को बस सुख-सुविधा तक सीमित कर दीजिए। यह समस्या का सबसे आसान हल है! यह हल इतना सीधा-सादा है कि बरबस आपको लुभाता है, उसके बारे में सोचने की कोई जरूरत नहीं रहती। सबसे बड़ी बात तो यही है कि सोचने की कोई जरूरत नहीं। जीवन का सारा रहस्य दो छपे हुए पन्नों में समेट दिया गया है!'

'लो, अब इनका चरखा चल गया, ढोल पीटना शुरू हो गया! अरे यार, रोको इन्हें!' पोर्फिरी ने हँस कर कहा। 'तुम भला सोच सकते हो क्या,' उसने रस्कोलनिकोव की ओर मुड़ कर कहा, 'कि कल रात छह आदमी एक कमरे में बहस में इसी तरह उलझे हुए थे और इसकी तैयारी के लिए सबके गले के नीचे काफी शराब उँड़ेल दी गई थी नहीं, यार, तुम्हारा कहना गलत है। अपराध में इर्द-गिर्द के हालात का बड़ा दखल होता है; इसका तुम्हें मैं यकीन दिला सकता हूँ।'

'अरे, मैं यह जानता हूँ कि दखल होता है, लेकिन मुझे एक बात बताओ एक चालीस साल का आदमी दस साल की बच्ची के साथ कुकर्म करता है, तो क्या उसे इर्द-गिर्द के हालात ने ऐसा करने के लिए मजबूर किया?'

'एक तरह से, सच पूछा जाए तो, किया,' पोर्फिरी ने गंभीर स्वर में अपनी राय दी, 'इस तरह के अपराध को इर्द-गिर्द के हालात का नतीजा यकीनन कहा जा सकता है।'

रजुमीखिन का जोश बढ़ कर जुनून की हद तक पहुँच गया।

'अरे, अगर तुम यह बात कह रहे हो,' उसने गरज कर कहा, 'तो मैं यह साबित कर दूँगा कि तुम्हारी पलकें सफेद होने की वजह यह है कि इवान महान का घंटाघर पैंतीस गज ऊँचा है, और मैं यह बात साफ-साफ, सही-सही और प्रगतिशील ढंग से साबित करूँगा और उसमें उदारपंथी विचारों का पुट भी होगा। मैं इसकी जिम्मेदारी लेने को तैयार हूँ! लगी शर्त?'

'शर्त लगी! जरा सुनूँ तो, कैसे साबित करते हो!'

'तुम हमेशा ऐसी ही धोखेधड़ी की बातें करते हो, भाड़ में जाओ,' रजुमीखिन उछल कर खड़ा हो गया और जोर-जोर से हाथ हिला कर ऊँची आवाज में बोला। 'तुमसे बात करने से फायदा रोदिओन, तुम नहीं जानते, ऐसी बातें यह जान-बूझ कर करता है! कल इसने उन लोगों का पक्ष उन्हें बेवकूफ बनाने के लिए ही लिया था। और कैसी-कैसी बातें कल कही थीं इसने! और वे लोग थे कि बहुत ही खुश! फिर यह शख्स भी पंद्रह दिन तक यही नाटक जारी रख सकता है। पिछले साल इसने हम लोगों को यकीन दिला दिया था कि यह संन्यास ले कर किसी मठ में जानेवाला है : और दो महीने तक इसी बात पर अड़ा रहा। अभी बहुत दिन नहीं हुए, जाने क्या सूझी इसे कि ऐलान कर दिया कि यह शादी करनेवाला है। इसने तो यहाँ तक कहा कि शादी की सारी तैयारी हो भी चुकी। सच, नए कपड़े तक सिलवा लिए। सब लोग इसे बधाइयाँ भी देने लगे। लेकिन न कहीं कोई दुल्हन, न कुछ और सब मनगढ़ंत बातें थीं!'

'नहीं, यह तुम गलत कह रहे हो! कपड़े मैंने पहले ही सिलवा लिए थे। सच बात तो यह है कि उन नए कपड़ों की वजह से ही मुझे तुम लोगों को उल्लू बनाने की सूझी थी।'

'तो ऐसा ढोंग भी आप रच सकते हैं?' रस्कोलनिकोव ने लापरवाही से पूछा।

'तुम्हारा ऐसा खयाल नहीं था, न ठहरो, मैं तुम्हें भी ऐसा ढोंग रच कर दिखाऊँगा कि याद करोगे। हा-हा-हा! नहीं, मैं तुमसे सच कहूँगा। अपराध, परिवेश, बच्ची वगैरह के बारे में इन सब सवालों से मुझे तुम्हारे एक लेख की याद आती है जिसमें मुझे उन्हीं दिनों दिलचस्पी पैदा हो गई थी। 'अपराध के बारे में'... या ऐसा ही कुछ भला-सा नाम था, नाम तो मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा, दो महीने पहले सामयिक संवाद में उसे पढ़ कर मैं बहुत खुश हुआ था।'

'मेरा लेख सामयिक संवाद में?' रस्कोलनिकोव ने हैरानी से पूछा। 'छह महीने पहले मैंने जब यूनिवर्सिटी छोड़ी थी, तब मैंने एक किताब के बारे में एक लेख जरूर लिखा था, लेकिन मैंने तो उसे साप्ताहिक संवाद में भेजा था।'

'लेकिन वह छपा सामयिक में था।'

'लेकिन साप्ताहिक तब तक बंद हो गया था, इसलिए वह लेख उस वक्त नहीं छपा था।'

'यही बात थी... लेकिन सप्ताहिक संवाद के बंद होने के बाद उसे सामयिक ने ले लिया था और इसीलिए दो महीने पहले ही उसमें तुम्हारा लेख छपा था। तुम्हें पता नहीं था?'

रस्कोलनिकोव को वाकई पता नहीं था।

'पर उस लेख के लिए तो तुम्हें उन लोगों से कुछ पैसे भी मिल सकते हैं! अजीब आदमी हो तुम भी। सबसे इतना अलग-थलग और अकेले रहते हो कि उन बातों का भी तुम्हें पता नहीं रहता, जिनसे तुम्हारा सीधा सरोकार होता है। यह बात सच है, मैं यकीन दिलाता हूँ।'

'खूब रोद्या! मुझे भी इस बारे में कुछ पता नहीं था!' रजुमीखिन यकायक बोला। 'मैं आज ही लाइब्रेरी में जा कर उसका वह अंक देखता हूँ। तो बात दो महीने पहले की है तारीख क्या थी लेकिन कोई फर्क इससे नहीं पड़ता, मैं पता लगा लूँगा। कमाल कर दिया, हमें बताया तक नहीं!'

'आपको यह कैसे पता चला कि वह लेख मेरा था उसके नीचे तो मैंने अपने नाम के सिर्फ पहले अक्षर ही लिखे थे।'

'अभी कुछ दिन हुए इत्तफाक से पता चल गया। संपादक ने बताया, मैं उन्हें जानता हूँ... मुझे बड़ी दिलचस्पी थी उस लेख में।'

'मुझे जहाँ तक याद आता है, मैंने उसमें अपराध से पहले और अपराध के बाद अपराधी की मनोदशा का विश्लेषण किया था।'

'हाँ, और उसमें जोर दे कर तुमने यह बात कही थी कि कोई भी अपराध करने पर कोई बीमारी की दशा भी साथ लगी रहती है। यह तो बहुत ही अछूता खयाल है, लेकिन... लेख के इस हिस्से में मुझे इतनी ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। हाँ, लेख के आखिर में एक विचार आया था जिसकी तरफ सिर्फ इशारा किया गया था, साफ-साफ शब्दों में और विस्तार से कुछ भी नहीं बताया गया था। अगर तुम्हें याद हो तो उसमें इस बात की तरफ इशारा किया गया है कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो... मतलब यह कि उनमें ऐसी क्षमता होती है, बल्कि उन्हें इस बात का पूरा-पूरा अधिकार होता है कि वे नैतिकता के नियमों का पालन न करें और अपराध करें, और यह कि उनके लिए कानून कोई नहीं होता।'

उसके विचार को जिस तरह अतिशयोक्ति के साथ और जाने-बूझे तोड़-मरोड़ कर पेश किया था, उस पर रस्कोलनिकोव मुस्करा पड़ा।

'क्या मतलब? क्या है तुम्हारा अपराध करने का अधिकार? लेकिन इर्द-गिर्द के 'हालात' के हानिकर प्रभाव से नहीं' रजुमीखिन ने कुछ चिंतित हो कर पूछा।

'नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता कि उन्हीं के प्रभाव से,' पोर्फिरी ने जवाब दिया। 'इनके लेख में सभी इनसानों को दो हिस्सों में बाँटा गया है : साधारण और असाधारण। साधारण लोग वे होते हैं जिन्हें दब कर रहना पड़ता है, जिन्हें कानून का उल्लंघन करने का कोई अधिकार नहीं होता क्योंकि बस समझ लो कि वे साधारण ही होते हैं लेकिन असाधारण लोगों को कोई भी अपराध करने का किसी भी तरह से कानून का उल्लंघन करने का अधिकार होता है, और ऐसा सिर्फ इसलिए कि वे असाधारण होते हैं। अगर मैं गलती पर नहीं हूँ तो यही आपका विचार था न?'

'मतलब यह बात सही तो नहीं हो सकती।' रजुमीखिन बौखला कर बुदबुदाता रहा।

रस्कोलनिकोव फिर मुस्कराया। मतलब की बात उसने फौरन पकड़ ली और समझ गया कि वे लोग उसे किधर ले जाना चाहते थे। उसे अपना लेख याद था। उसने उनकी चुनौती कबूल करने का फैसला किया।

'पूरी तरह यही मेरे कहने का मतलब नहीं था,' रस्कोलनिकोव ने सीधे ढंग से और विनम्रता के साथ कहना शुरू किया। 'मैं फिर भी मानता हूँ कि मेरी बात को आपने लगभग पूरी तरह सही-सही बयान किया है, बल्कि मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि शायद उसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं है।' (इस बात को मान कर उसे कुछ खुशी भी हुई।) 'फर्क बस एक है। मैं इस पर जोर नहीं देता कि असाधारण लोगों के लिए हमेशा उनके, जैसा कि आप कहते हैं, नैतिकता के नियमों के, खिलाफ काम करना लाजमी नहीं होता। दरअसल, मुझे तो इसमें भी शक है कि इस बात की तरफ इशारा किया था कि 'असाधारण' आदमी को इस बात का अधिकार होता है... मतलब यह कि औपचारिक रूप से अधिकार तो नहीं होता पर वास्तविकता के स्तर पर अधिकार होता है कि वह अपनी अंतरात्मा में इस बात का निश्चय कर सके कि वह कुछ बाधाओं को... पार करके आगे जा सकता है, और वह भी उस हालात में जब ऐसा करना उसके विचारों को व्यवहार का रूप देने के लिए जरूरी हो। (शायद कभी-कभी यही पूरी मानवता के हित में हो।) आपका कहना है कि मेरे लेख में यह बात स्पष्ट ढंग से नहीं कही गई है; मैं अपनी बात, जहाँ तक मेरे लिए मुमकिन है, साफ-साफ कहने को तैयार हूँ। शायद मेरा यह सोचना ठीक ही है कि आप चाहेंगे, मैं ऐसा करूँ... अच्छी बात है। मेरा कहना यह है कि अगर एक, एक दर्जन, एक सौ या उससे भी ज्यादा लोगों की जान की कुरबानी दिए बिना केप्लर और न्यूटन की खोजों को सामने लाना मुमकिन न होता, तो न्यूटन को इस बात का अधिकार होता, बल्कि सच पूछें तो उसका कर्तव्य होता कि वह पूरी मानवता तक अपनी खोजों की जानकारी पहुँचाने के लिए... उन एक दर्जन या एक सौ आदमियों का सफाया कर दे। लेकिन इससे यह नतीजा नहीं निकलता कि न्यूटन को इस बात का अधिकार था कि वह अंधाधुंध लोगों की हत्या करता चले और रोज बाजार में जा कर चीजें चुराए। फिर मुझे याद है, मैंने अपने लेख में यह भी दावा किया था कि सभी... मेरा मतलब है कि सुदूर अतीत से ले कर अभी तक कानून बनानेवाले और जनता के नेता, जैसे लाइकर्गस, सोलन, मुहम्मद, नेपोलियन, वगैरह-वगैरह सारे के सारे एक तरह से अपराधी थे, सिर्फ इस बात के सबब कि उन्होंने एक नया कानून बना कर उस पुराने कानून का उल्लंघन किया जो उनके पुरखों से उन्हें मिला था और जिसे आम लोग अटल मानते थे। अरे, ये लोग तो खून-खराबे से भी नहीं झिझके क्योंकि उस खून-खराबे से, जिसमें अकसर पुराने कानून को बचाने के लिए बहादुरी से लड़नेवाले मासूमों का खून बहाया जाता था, उन्हें अपने लक्ष्य पाने में मदद मिलती थी। जी हाँ, कमाल की बात तो यह है कि मानवता का उद्धार करनेवाले इन लोगों में से, मानवता के इन नेताओं में से ज्यादातर नेता भयानक खून-खराबे के दोषी थे। इससे मैंने यह नतीजा निकाला है कि सभी महापुरुषों को, बड़े लोगों को, और उन लोगों को भी जो आम लोगों से थोड़े भिन्न होते हैं, कहने का मतलब यह कि कोई नई बात कह सकते हैं, उन्हें जाहिर है कि कमोबेश अपराधी ही बनना पड़ता है। नहीं तो उनके लिए घिसी-घिसायी लीक से बाहर निकलना मुश्किल हो जाए, और वे कभी घिसी-घिसायी लीक पर चलते रहना बर्दाश्त नहीं कर सकते। यह भी उनके स्वभाव की वजह से ही है और मैं समझता हूँ कि दरअसल उन्हें करना भी नहीं चाहिए। आप देखेंगे कि इसमें कोई खास नई बात नहीं कही गई। पहले हजारों बार यही बात छपी और पढ़ी जा चुकी है। रहा इसका सवाल कि मैंने लोगों को साधारण और असाधारण में बाँटा है, तो मैं यह मानता हूँ कि यहाँ मैंने कुछ मनमानेपन से काम लिया है। फिर भी उनकी सही-सही संख्या कितनी होनी चाहिए। इसके बारे में मेरा कोई आग्रह नहीं है। मैं तो बस अपने इस मुख्य विचार में विश्वास रखता हूँ कि प्रकृति का एक नियम लोगों को आमतौर पर दो खानों में बाँट देता है : एक तो निम्नतर (यानी साधारण), मतलब यह कि वह माल जो सिर्फ अपनी ही किस्म का माल बार-बार पैदा करते रहने के लिए होता है, और दूसरे वे लोग जिनमें कोई नई बात कहने की प्रतिभा होती है। जाहिर है इनके और भी अनगिनत छोटे-छोटे हिस्से हैं, लेकिन इन दो तरह के लोगों को जिन गुणों की बुनियाद पर अलग-अलग पहचाना जा सकता है, वे एकदम स्पष्ट हैं। आम तौर पर, पहली किस्म में ऐसे लोग होते हैं जो स्वभाव से ही दकियानूस और कानून को माननेवाले होते हैं, आज्ञाकारी होते हैं और आज्ञाकारी रहना पसंद करते हैं। उन्हें मेरी राय में आज्ञाकारी ही होना चाहिए। क्योंकि यही उनका काम है, और इसमें उनकी कोई हेठी नहीं होती। दूसरे किस्म के लोग कानून की सीमाओं को तोड़ते हैं; अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से वे या तो चीजों को नष्ट करते हैं या उनका झुकाव चीजों को नष्ट करने की ओर होता है। जाहिर है इन लोगों के अपराध दूसरी ही तरह के होते हैं और किसी दूसरी बात से तुलना करके ही उन्हें अपराध कहा जा सकता है। ज्यादातर तो यही होता है कि वे बहुत ही भिन्न-भिन्न संदर्भों में जो कुछ मौजूद है, उसे कुछ बेहतर की खातिर नष्ट करने की माँग करते हैं। लेकिन इस तरह का एक आदमी अगर अपने विचारों की खातिर किसी लाश को रौंदने या खून की नदी से भी पार उतरने पर मजबूर हो जाए तो वह, मेरा दावा है कि अपनी अंतरात्मा में खून की इस नदी से पार उतरने को उचित ठहराने के लिए भी कोई कारण ढूँढ़ निकालेगा। इसका दारोमदार इस पर है कि उसका विचार क्या है और वह कितना व्यापक है; यही ध्यान में रखने की बात है। मैंने अपने लेख में उनके अपराध करने के अधिकार की बात सिर्फ इसी मानी में कही है (आपको याद होगा, वह लेख एक कानूनी सवाल से शुरू हुआ था)। लेकिन कुछ ज्यादा चिंता करने की बात नहीं है : आम लोग इस अधिकार

को शायद कभी मानेंगे ही नहीं। वे ऐसे लोगों को (कमोबेश) या तो मौत की सजा देते हैं या फाँसी पर लटका देते हैं, और ऐसा करके वे अपने दकियानूसी होने के फर्ज को पूरा करते हैं, जो ठीक ही है। लेकिन अगली पीढ़ी में पहुँच कर आम लोग ही (कमोबेश) इन अपराधियों की ऊँची-ऊँची मूर्तियाँ खड़ी करते हैं और उनकी पूजा करते हैं। पहली किस्म के लोगों का हमेशा केवल वर्तमान पर ही अधिकार रहता है और दूसरी किस्म के लोग हमेशा भविष्य के मालिक होते हैं। पहली किस्म के लोग दुनिया को जैसे का तैसा बनाए रखना चाहते हैं और उनकी बदौलत दुनिया चलती रहती रहती है और दूसरी तरह के लोग दुनिया को आगे बढ़ाते हैं, उसे उसकी मंजिल की ओर ले जाते हैं। हर वर्ग को जिंदा रहने का बराबर अधिकार होता है। सच तो यह है कि मेरी राय में सभी के एकदम अधिकार बराबर होते हैं - और टपअम सं हनमततम मजमतदमससम1 - जब तक कि यरूशलम में फिर कोई नया मसीहा न आ जाए।'


1. अनंत युद्ध अमर रहे। (फ्रांसीसी)


'तो यरूशलम में नए मसीहा के आने पर आपका भी विश्वास है, क्यों?'

'बिलकुल है,' रस्कोलनिकोव ने सधे स्वर में कहा। ये शब्द कहते समय और इससे पहलेवाले पूरे प्रवचन के दौरान कालीन पर एक जगह अपनी नजरें उसने जमाए रखीं थीं।

'और... ईश्वर में भी विश्वास रखते हैं आप? मुझे यह सवाल पूछने के लिए माफ कीजिएगा।'

'एकदम रखता हूँ,' रस्कोलनिकोव ने पोर्फिरी की ओर नजरें उठा कर कहा।

'और... लैजेरस के फिर से जिंदा होने में भी आपका विश्वास है?'

'मुझे... हाँ, है। यह सब आप पूछ क्यों रहे हैं?'

'आप उस किस्से पर ज्यों का त्यों, उसके एक-एक शब्द पर विश्वास रखते हैं?'

'एक-एक शब्द पर।'

'सचमुच... मैंने तो यूँ ही जानने के लिए पूछा था। माफ कीजियेगा। लेकिन आइए, हम अपने सवाल पर फिर लौटें : तो उन्हें हमेशा मौत के घाट नहीं उतारा जाता, बल्कि इसके बरखिलाफ कुछ लोग...'

'अपनी जिंदगी में ही कामयाब हो जाते हैं जी हाँ, कुछ लोग इस जिंदगी में ही अपनी मंजिल तक पहुँच जाते हैं, और फिर...'

'दूसरों को मौत के घाट उतारने लगते हैं...'

'जरूरी होता है... तो सच तो यह है कि ज्यादातर वे लोग ऐसा ही करते हैं। आपने बहुत गहरी चुटकी ली।'

'शुक्रिया। लेकिन मुझे तो आप यह बताइए कि आप इन असाधारण और साधारण लोगों को एक-दूसरे से अलग करके पहचानते कैसे हैं? क्या उनमें पैदा होते ही कुछ ऐसी निशानियाँ बन जाती हैं? मुझे लगता है कि इस बात को और भी सही-सही समझाया जाना चाहिए, कुछ ऐसे कि किसी बाहरी निशानी के सहारे उन्हें साफ-साफ पहचाना जा सके। कानून को माननेवाले और व्यावहारिक नागरिक होने के नाते मुझे जो स्वाभाविक चिंता है, उसके लिए मुझे माफ कीजिएगा। लेकिन क्या, मिसाल के लिए, उनकी कोई खास वर्दी नहीं हो सकती, क्या उन्हें अलग से कोई चीज नहीं पहनाई जा सकती, उन पर कोई निशानी नहीं लगाई जा सकती इसलिए कि, देखिए, बात यह है कि अगर कोई गड़बड़ हो जाए और एक किस्म का कोई आदमी यह समझ बैठे कि वह दूसरी किस्म का है, और बाधाओं का सफाया करना शुरू कर दे, जैसा कि आपने इस बात को बहुत अच्छे ढंग से सामने रखा है, तब...'

'जी... अकसर ऐसा ही होता है! यह चुटकी तो पहलेवाली से भी ज्यादा गहरी है।'

'शुक्रिया।'

'कोई बात नहीं। लेकिन एक बात ध्यान में रखें कि यह गलती सिर्फ पहली किस्म के लोग कर सकते हैं, यानी साधारण लोग। (जैसा कि मैंने उन्हें शायद बदकिस्मती से कहा है।) आज्ञापालन के अपने स्वभाव के बावजूद उनमें से बहुत से लोग, तबीयत में कोई शरारत पैदा होती है तो क्योंकि शरारत तो कभी-कभी गाय जैसे जानवर को भी सूझ जाती है, अपने आपको दूसरों से आगे विनाशक जताने लगते हैं और धक्का-मुक्की करके नए पैगाम से जा चिपकते हैं, और वे पूरी ईमानदारी के साथ ऐसा करते हैं। साथ ही, जो लोग सचमुच नए होते हैं वे उन्हें अकसर नजरअंदाज कर देते हैं या वे उन्हें पिछड़े हुए, जाहिल समझ कर उनसे नफरत भी करने लगते हैं। लेकिन मैं नहीं समझता कि वे कोई बहुत बड़ा खतरा हैं, और आपको उनकी तरफ से परेशान तो नहीं ही होना चाहिए - क्योंकि वे बहुत आगे तक जा नहीं सकते। कभी-कभी ऐसा जरूरी हो सकता है कि ऐसी उड़ान भरने पर उन्हें उनकी अपनी हैसियत बताने के लिए उनकी मरम्मत कर दी जाए, बस इससे ज्यादा नहीं। दरअसल जरूरत तो इसकी भी नहीं पड़ती क्योंकि वे खुद अपने आपको धिक्कारते हैं क्योंकि वे बेहद ईमानदार होते हैं। इस तरह की सेवा कुछ लोग तो एक-दूसरे के लिए करते हैं, और कुछ दूसरे लोग खुद अपने हाथों अपने को सजा देते हैं... ये लोग तरह-तरह से, सरेआम ऐसे प्रायश्चित्त करते हैं कि दूसरों पर उसका अद्भुत और बहुत अच्छा असर पड़ता है। दरअसल, इसमें आपके लिए परेशान होनेवाली कोई बात नहीं... प्रकृति का यही नियम है।'

'खैर, इस मसले के बारे में आपने मेरी परीशानी यकीनन एक बड़ी हद तक दूर कर दी; लेकिन मुझे एक और बात भी परेशान करती रहती है। मेहरबानी करके यह बताइए कि क्या इस तरह के लोग, ये 'असाधारण लोग', जिन्हें दूसरों को मार डालने का अधिकार होता है, बहुत ज्यादा होते हैं मैं उनके सामने सर झुकाने को एकदम तैयार हूँ, लेकिन यह तो आप भी मानेंगे कि इस तरह के लोग बहुत से हुए तो बात सोच कर ही दिल दहल जाए, कि नहीं?'

'अरे नहीं, आपको उससे भी परेशान होने की कोई जरूरत नहीं,' रस्कोलनिकोव उसी लहजे में कहता रहा। 'जिन लोगों के पास नए विचार होते हैं, जिन लोगों में कुछ नया कहने की जरा-सी भी लियाकत होती है, उनकी गिनती बहुत थोड़ी होती है, सच तो यह है कि ऐसे लोग इने-गिने ही होते हैं। एक बात पूरी तरह साफ है : लोगों की ये श्रेणियाँ, उपश्रेणियाँ प्रकृति के किसी नियम की पूरी तरह पाबंद रह कर ही सामने आती हैं। अभी तक उस नियम का पता, जाहिर है, नहीं चल सका है, लेकिन मुझे यकीन है कि इस तरह का कोई नियम है जरूर और एक न एक दिन उसका पता चलेगा। यह विशाल मानवजाति तो बस वह सामग्री है जिसका अस्तित्व कुल जमा इसलिए है कि किसी बहुत बड़े प्रयास से किसी रहस्यमय प्रक्रिया में, जातियों और नस्लों के आपस में घुलने-मिलने के फलस्वरूप वह इस दुनिया में हजार में से आखिरकार एक आदमी ऐसा पैदा कर सके, जिसमें आजादी की कोई चिनगारी हो। शायद दस हजार लोगों में एक - मैं तो मोटा-मोटा अंदाजा ही बता रहा हूँ - ऐसा होता है, जिसमें कुछ आजादी होती है और उससे ज्यादा आजादी तो शायद लाख में से एक में होती हो। मेधावी तो करोड़ों में एक होता है और महान मेधावी तो जो मानवजाति का सरताज हो, इस पृथ्वी पर शायद अरबों-खरबों लोगों में से कोई एक ही होता है। अब मैंने उस यंत्र में झाँक कर तो नहीं देखा, जिसमें यह प्रक्रिया चलती रहती है, लेकिन कोई पक्का नियम जरूर है और होना भी चाहिए। यह सब कुछ संयोग फालतू तो हो नहीं सकता।'

'कहना क्या चाहते हो? तुम दोनों मजाक कर रहे हो क्या?' रजुमीखिन से आखिर रहा नहीं गया और वह चीख कर बोला, 'या एक-दूसरे को बना रहे हो, बैठे बैठे एक-दूसरे का मजाक उड़ा रहे हो! रोद्या, तुम ये सब गंभीरता से कह रहे हो क्या?'

रस्कोलनिकोव ने पीला और उदास चेहरा ऊपर उठा कर उसकी ओर देखा पर कोई जवाब नहीं दिया। उसके उस शांत और उदास चेहरे के मुकाबले पोर्फिरी का खुला, लगातार खिसियाया हुआ और अशिष्ट व्यंग्य रजुमीखिन को कुछ अजीब-सा लगा।

'खैर यार, तुम अगर सचमुच गंभीरता से बात कर रहे हो... तो जाहिर है तुम्हारा यह कहना ठीक ही है कि इसमें कोई नई बात नहीं है, कि यह वैसी ही बात कोई है, जैसी हमने पहले भी हजार बार पढ़ा और सुना है। लेकिन इन सबमें एक बात सचमुच मौलिक, सचमुच अछूती है, और मैं तो यही सोच कर काँप जाता हूँ कि वह बात पूरी तरह तुम्हारी अपनी है। यह कि तुम अंतरात्मा की दुहाई दे कर और मुझे माफ करना, इतनी कट्टरता के साथ, खून-खराबे को सही ठहरा रहे हो। जहाँ तक मैं समझ सका हूँ, तुम्हारे लेख की खास बात यही है। लेकिन अंतरात्मा के नाम पर खून-खराबे को इस तरह उचित ठहराना, मेरी समझ में तो... जिस तरह खून-खराबे को सरकारी तौर पर, कानूनी तौर पर, उचित ठहराया जाता है... उससे भी ज्यादा भयानक है।'

'आप एकदम सही कहते हैं, ये तो और भी भयानक बात है,' पोर्फिरी ने सहमति जताई।

'हाँ, तुमने बात को जरूर बढ़ा-चढ़ा कर कहा होगा! कहीं कोई गलती तो है... मैं देखूँगा पढ़ कर। ऐसा तो तुम सोच नहीं सकते! मैं जरूर पढ़ूँगा।'

'यह सब उस लेख में है ही नहीं, उसमें तो इसकी तरफ इशारा ही किया गया है,' रस्कोलनिकोव ने कहा।

'हाँ, सो तो ठीक है,' पोर्फिरी बेचैन हुआ जा रहा था। 'अपराध के बारे में आपका रवैया तो मेरी समझ में काफी साफ आ गया है, लेकिन... गुस्ताखी माफ हो (मैं आपको इस तरह परेशान करने पर सचमुच शर्मिंदा हूँ!), देखिए बात यह है कि आपने दानों किस्म के लोगों के आपस में गड्डमड्ड होने के सवाल पर तो मेरी परीशानी दूर कर दी लेकिन... अमल में और भी कई तरह की बातें हो सकती हैं, जो मुझे परेशान कर सकती हैं! फर्ज कीजिए कोई आदमी या नौजवान यह समझने लगे कि वह लाइकर्गस या मुहम्मद है - मतलब कि आगे चल कर वह बन सकता है - और फर्ज कीजिए कि वह सारी रुकावटों को दूर करना शुरू कर देता है, तो क्या होगा... उसके सामने कोई बहुत बड़ा काम है और उसके लिए पैसे की जरूरत है... और वह पैसा हासिल करने की कोशिश करता है... आप समझ रहे हैं न?'

जमेतोव कोने में अपनी जगह बैठे-बैठे ही ठहाका मार कर हँसा। रस्कोलनिकोव ने उसकी तरफ आँख उठा कर देखा भी नहीं।

'मानता हूँ,' वह शांत भाव से कहता रहा, 'कि इस तरह की मिसालें हो सकती हैं। बेवकूफ और शेखचिल्ली लोग खास तौर पर इस जाल में फँस सकते हैं; खास तौर पर नौजवान।'

'जी, तो आप ही बताइए तब क्या होगा!'

'तब क्या होगा' रस्कोलनिकोव जवाब में मुस्कराया, 'इसमें तो मेरा कोई कुसूर नहीं। ऐसा है और हमेशा होता रहेगा। अभी-अभी यह कह रहा था' (उसने रजुमीखिन की तरफ सर हिला कर इशारा किया) 'कि मैं खून-खराबे को सही ठहरा रहा हूँ। तो इसमें हर्ज क्या है समाज के बचाव के लिए जेलखानों, जलावतनी, जाँच-पड़ताल और सख्त सजाओं का पक्का बंदोबस्त है। परेशान होने की कोई जरूरत नहीं। आपको तो बस चोर को पकड़ना है!'

'और हमने उसे पकड़ लिया तो फिर?'

'तो वह सजा भुगतेगा अपनी।'

'आप बात तो पक्की कहते हैं। लेकिन उसकी अंतरात्मा का क्या होगा?'

'उसकी चिंता आप क्यों करते हैं?'

'महज इनसान होने के नाते।'

'अगर उसके कोई अंतरात्मा होगी तो वह अपनी गलती पर पछताएगा। वही उसकी सजा होगी - और जेल तो है ही।'

'लेकिन जो सचमुच मेधावी हैं,' रजुमीखिन ने त्योरियों पर बल डाल कर पूछा, 'जिन्हें हत्या करने का अधिकार है, क्या उन लोगों को उस खून की भी कोई सजा नहीं मिलनी चाहिए, जो वे बहाते हैं?'

'आखिर यह चाहिए की बात क्यों? यह न इजाजत का सवाल है न पाबंदी का। उसने जिसे मारा है उसके लिए उसे जब अफसोस होगा तो उसे पछतावा होगा... जिसके ज्यादा समझ होती है, जिसके दिल में गहराई होती है, उसे हमेशा, लाजिमी तौर पर तकलीफें और मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं। मैं समझता हूँ कि जो लोग सचमुच बड़े होते हैं, इस धरती पर बेहद उदासी ही उनका नसीबा होती है,' रस्कोलनिकोव ने ऐसे लहजे में कहा, जो इस पूरी बातचीत का लहजा नहीं था। लग रहा था, वह कोई सपना देख रहा हो।

उसने नजरें उठा कर बड़ी सादगी से सबकी ओर देखा, मुस्कराया और अपनी टोपी उठा ली। वह जिस ढंग से अंदर आया था उसके मुकाबले अब वह बहुत शांत था, और उसने इस बात को महसूस भी किया। सब लोग उठ खड़े हुए।

'खैर, आप भले ही मुझे बुरा-भला कह लें या चाहें तो मुझ पर नाराज हो लें,' पोर्फिरी ने फिर कहना शुरू किया, 'लेकिन अपनी बात कहे बिना मैं नहीं रह सकता। मुझे बस एक छोटा-सा सवाल पूछने की इजाजत दीजिए। (मैं जानता हूँ कि मेरी वजह से आपको परीशानी हो रही है!) मेरे दिल में बस एक छोटी-सी बात है जो मैं कह देना चाहता हूँ, सिर्फ इसलिए कि उसे भूल न जाऊँ।'

'बहुत अच्छा, तो बताइए वह छोटी-सी बात क्या है।' रस्कोलनिकोव उसके सामने खड़ा इंतजार करता रहा। उसका चेहरा पीला और गंभीर था।

'देखिए, बात यह है... मेरी समझ में नहीं आ रहा कि दरअसल उस बात को मैं सही ढंग से कहूँ कैसे... बड़ा दिलचस्प, मनोवैज्ञानिक किस्म का विचार है। आप जब वह लेख लिख रहे थे तो आप भी ही-ही-ही... अपने बारे में यह सोचे बिना न रह सके होंगे... कि आप भी, थोड़ी-सी हद तक ही सही, एक असाधारण आदमी हैं, जो अपनी समझ में एक नई बात कह रहा है... या नहीं?'

'बहुत मुमकिन है,' रस्कोलनिकोव ने तिरस्कार से जवाब दिया।

रजुमीखिन जरा-सा कसमसाया।

'अब अगर ऐसा है तो क्या यह मुमकिन है कि रोजमर्रा की कठिनाइयों और मुसीबतों का सामना होने पर - या मानवजाति की सेवा करने के लिए - आप उन बाधाओं को चूर कर देते... मिसाल के लिए, कहीं डाका, किसी का कत्ल...'

उसने एक बार फिर अपनी बाईं आँख मारी और पहले की ही तरह एक दबी हुई हँसी हँसा।

'मैं अगर ऐसा करता भी तो क्या आपको बताने आता,' रस्कोलनिकोव ने चुनौती और दंभ भरे तिरस्कार से जवाब दिया।

'अरे नहीं, मेरी दिलचस्पी तो सिर्फ आपके लेख की वजह से, साहित्यिक दृष्टिकोण से थी...'

'उफ! किस कदर सरासर ढिठाई है!' रस्कोलनिकोव ने नफरत के साथ सोचा। उसने रूखेपन से जवाब दिया, 'मुझे यह कहने की इजाजत दीजिए कि मैं अपने आपको न तो मुहम्मद समझता हूँ न नेपोलियन, न ही उस तरह की कोई दूसरी हस्ती। अब चूँकि मैं उनमें से नहीं हूँ इसलिए मैं आपको यह नहीं बता सकता कि मैं क्या करता।'

'खैर, छोड़िए भी, आज रूस में हम सभी अपने आपको क्या नेपोलियन नहीं समझते?' पोर्फिरी पेत्रोविच ने अचानक खौफनाक बेतकल्लुफी से कहा। उसकी आवाज के उतार-चढ़ाव से निश्चित रूप से किसी भयानक एहसास का पता चलता था।

'ऐसा नहीं हो सकता क्या कि आगे चल कर नेपोलियन बनने का सपना देखनेवाले किसी ऐसे ही बंदे ने अल्योना इवानोव्ना को पिछले हफ्ते ठिकाने लगा दिया हो?' जमेतोव कोने में बैठे-बैठे बोला।

रस्कोलनिकोव कुछ बोला नहीं लेकिन नजरें गड़ा कर गौर से पोर्फिरी की ओर देखा। रजुमीखिन त्योरियों पर बल डाले निराश मुद्रा में बैठा हुआ था। इससे पहले ऐसा लग रहा था कि उसका ध्यान किसी और चीज की ओर जा रहा है। उसने गुस्से से चारों ओर देखा। कुछ पलों तक निराशा भरी खामोशी छाई रही। रस्कोलनिकोव चलने के लिए मुड़ा।

'आप जा रहे हैं क्या?' पोर्फिरी ने बेहद शिष्टता से हाथ आगे बढ़ाते हुए नर्मी से कहा। 'आपसे मिल कर भारी खुशी हुई। जहाँ तक आपकी उस समस्या का सवाल है, उसके बारे में आप कतई परेशान न हों। जैसा मैंने आपको बताया वैसी अर्जी लिख दीजिए, बल्कि बेहतर तो यह होगा कि एक-दो दिन में खुद ही वहाँ जाइए... चाहे तो कल ही आ जाइए। मैं ग्यारह बजे वहाँ यकीनन रहूँगा। हम सब बंदोबस्त कर देंगे और वहीं बातें कर लेंगे। चूँकि आप वहाँ जानेवाले आखिरी लोगों में से थे, इसलिए शायद आप हमें कुछ बता सकें,' उसने सहृदयता से कहा।

'आप बाकायदा सरकारी तौर पर सवाल-जवाब करना चाहते हैं?' रस्कोलनिकोव ने तीखे स्वर में पूछा।

'नहीं तो, किसलिए? अभी उसकी कोई जरूरत नहीं। आपने मुझे गलत समझा। देखिए, बात यह है कि मैं हाथ से कोई मौका नहीं जाने देता, और... जिन-जिन की चीजें वहाँ गिरवी थीं, उन सभी से मैंने बात की है... उनमें से कुछ की गवाहियाँ भी ली हैं, और आप आखिरी आदमी हैं... हाँ, एक बात तो बताइए,' वह अचानक गोया खुश हो कर बोला, 'अभी याद आया जाता है कि मैं सोच क्या रहा था!' वह रजुमीखिन की ओर मुड़ा। 'उस मिकोलाई के बारे में तुम मेरे कान खा रहे थे... जाहिर है मैं जानता हूँ, बहुत अच्छी तरह जानता हूँ,' यह कह कर वह रस्कोलनिकोव की ओर मुड़ा, 'कि वह आदमी एकदम बेकसूर है, लेकिन क्या किया जाए, हमें मित्का को भी हैरानी में डालना पड़ा। बात यह है, बस इतनी-सी कि जब आप सीढ़ियों से ऊपर गए थे, उस वक्त सात बज चुके थे न?'

'हाँ,' रस्कोलनिकोव ने जवाब दिया। लेकिन जैसे ही उसने हाँ कहा, उसके मन में एक खटक-सी पैदा हुई कि उसे यह बात नहीं कहनी चाहिए थी।

'आप जब सात और आठ के बीच ऊपर गए थे, तो आपने दूसरी मंजिल पर एक खुले हुए फ्लैट में दो मजदूरों को या कम-से-कम एक को काम करते देखा? आपको कुछ याद है वे वहाँ रंगाई-पुताई कर रहे थे, आपने उन्हें देखा था यह बात उनके लिए बहुत ही महत्व रखती है।'

'पुताई करनेवाले? नहीं, मैंने तो नहीं देखा उन्हें,' रस्कोलनिकोव ने धीरे-धीरे जवाब दिया, मानो अपनी यादों को टटोल रहा हो। साथ ही वह दिमाग का पूरा जोर लगा कर जल्द से जल्द यह सूँघने की कोशिश कर रहा था कि इसमें फंदा कहाँ पर है, और इसकी भी कि उसकी नजर से कोई बात न चूक जाए। इसकी फिक्र में उसे गश आया जा रहा था। 'नहीं, मैंने उन्हें नहीं देखा, और मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने इस तरह का कोई खुला हुआ फ्लैट देखा... लेकिन चौथी मंजिल पर।' अब फंदा उसकी समझ में आ गया था और उसे लग रहा था गोया उसे बहुत बड़ी जीत मिली हो, 'अब मुझे याद आता है कि चौथी मंजिल पर अल्योना इवानोव्ना के सामनेवाला फ्लैट छोड़ कर कोई जा रहा था... मुझे याद है... अच्छी तरह याद है। कुछ मजदूर सोफा बाहर निकाल रहे थे और उन्होंने मुझे दबाते-दबाते दीवार से भिड़ा ही दिया था। लेकिन पुताई करनेवाले... नहीं, मुझे एकदम याद नहीं आता कि वहाँ पुताई करनेवाले भी रहे हों, और मैं यह भी नहीं समझता कि कहीं कोई फ्लैट खुला हुआ था। नहीं, कोई नहीं था।'

'मतलब तुम्हारा क्या है?' रजुमीखिन अचानक चीखा, गोया उसने सोच कर कोई बात पकड़ ली हो। 'अरे, पुताई करनेवाले तो उस दिन काम कर रहे थे जिस दिन कत्ल हुआ और यह वहाँ गया था तीन दिन पहले, पूछ क्या रहे हो तुम?'

'उफ! मैं भी किस बात में उलझ गया!' पोर्फिरी ने माथा ठोंकते हुए कहा। 'लानत है! इस चक्कर में मेरा दिमाग भी कुछ फिरा जा रहा है!' उसने रस्कोलनिकोव से कुछ-कुछ माफी माँगने के अंदाज में कहा। 'हमारे लिए इसका पता लगाना बेहद जरूरी है कि सात और आठ के बीच उन्हें उस फ्लैट में किसी ने देखा था या नहीं। इसलिए मैंने सोचा कि शायद आप कुछ बता सकें... मैंने तो एकदम उलझा दिया सारी बातों को!'

'तुम्हें कुछ और सावधानी से काम लेना चाहिए,' रजुमीखिन ने गंभीरता से कहा।

ये आखिरी शब्द बाहर निकलते हुए ड्योढ़ी में कहे गए थे। जरूरत से ज्यादा शिष्टता का परिचय देते हुए पोर्फिरी पेत्रोविच उन्हें दरवाजे तक छोड़ आया।

जब वे बाहर सड़क पर निकले तो निराश और गंभीर थे। कुछ कदम तक दोनों ने एक शब्द भी नहीं कहा। रस्कोलनिकोव ने गहरी साँस ली...

अपराध और दंड : (अध्याय 3-भाग 6)

'मैं नहीं मानता, मान ही नहीं सकता!' रजुमीखिन ने परेशान हो कर रस्कोलनिकोव के तर्कों का खंडन करते हुए कहा।

वे लोग अब बकालेयेव के मकान के पास पहुँच रहे थे, जहाँ पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना और दूनिया देर से उनकी राह देख रही थीं। रजुमीखिन बहस के जोश में बार-बार रास्ते में रुक जाता था। इस बात से वह कुछ बौखलाया हुआ और उत्तेजित था कि वे पहली बार उसके बारे में खुल कर बातें कर रहे थे।

'तो न मानो!' रस्कोलनिकोव ने लापरवाही से, गैर-जज्बाती मुस्कान के साथ जवाब दिया। 'तुम हमेशा की तरह किसी भी बात पर ध्यान नहीं दे रहे थे, पर मैं एक-एक शब्द को तोल रहा था।'

'तुम हो शक्की, इसलिए उसके हर शब्द को तोल रहे थे... हुँ... मैं मानता हूँ कि पोर्फिरी का और उससे भी ज्यादा उस कमबख्त जमेतोव का बातें करने का ढंग कुछ अजीब था। ठीक कहते हो, उसके रवैए में कोई बात तो थी, लेकिन क्या किसलिए?'

'कल रात के बाद उसने अपनी राय बदल दी है।'

'बात बल्कि उलटी है! अगर उनके दिमाग में वह बेसर-पैर का खयाल होता तो वे उसे छिपाने की भरपूर कोशिश करते और तुम्हें अपने सारे पत्ते न दिखाते, ताकि बाद में तुम्हें पकड़ सकें... लेकिन सारी बातें ढिठाई और लापरवाही से भरी हुई थीं।'

'अगर उनके पास सबूत होते, मेरा मतलब है, ठोस सबूत-या कम से कम शक की कोई गुंजाइश ही होती, तो वे कुछ और बातें खोद निकालने की उम्मीद में अपनी चाल छिपाने की कोशिश जरूर करते। (इसके अलावा बहुत पहले ही वे तलाशी भी ले चुके होते!) लेकिन उनके पास कोई सबूत तो है नहीं, एक भी नहीं। सारा सिलसिला एक भ्रम है, एक छलावा। हर चीज धुँधली-धुँधली है, एक उड़ता हुआ बेबुनियाद खयाल। इसलिए ही वे लोग ढिठाई के सहारे मेरे पाँव उखाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। और वह शायद इस बात से भी चिढ़ रहा था कि उसके पास कोई ठोस सबूत नहीं। झुँझलाहट में उसने यह बात उगल भी दी... या शायद उसका कोई मंसूबा हो... आदमी बहुत तेज लगता है। यह जता कर कि वह सब कुछ जानता है, शायद वह मुझे डरा देना चाहता था। इन लोगों का सोचने का अलग ही एक ढंग होता है यार। लेकिन मुझे हर बात की सफाई देने से नफरत होती है। गोली मारो इसे!'

'और दूसरा आदमी अपमान महसूस करता है, सरासर। तुम्हारी बात मैं समझ रहा हूँ! लेकिन... चूँकि हम लोग इसके बारे में खुल कर बातें कर चुके (और यह बहुत अच्छी बात है कि आखिर ऐसा हुआ - मुझे बड़ी खुशी है!), इसलिए अब मैं भी साफ बता दूँ कि मैंने बहुत पहले ही इन लोगों में यह बात देख ली थी तब उसकी एक झलक भर थी - एक ढका-छिपा इशारा - लेकिन यह इशारा भी क्यों? उनकी हिम्मत पड़ी कैसे? उनके पास बुनियाद है! इसके लिए तुम नहीं जानते कि मैं कितना अंदर-ही-अंदर उबलता रहा हूँ। सोचने की बात है! महज इसलिए कि एक गरीब छात्र को, जो अपनी गरीबी और बीमारी के वहम की वजह से टूट चुका है, सख्त सरसामी बीमारी से फौरन पहले (ध्यान में रखने की बात है यह), एक ऐसे आदमी को जो शक्की, घमंडी और स्वाभिमानी है, जिसने छह महीने से किसी से मिल कर बात तक नहीं की, जिसके कपड़े तार-तार हो चुके और जिसके जूतों के तले तक नदारद हैं, उस आदमी को कुछ मनहूस पुलिसवालों का सामना करना और उनकी बदतमीजी को बर्दाश्त करना पड़ता है। फिर अचानक उसके सामने एक कर्ज के भुगतान का झंझट खड़ा कर दिया जाता है, वही प्रोनोट जो चेबारोव ने पेश किया था। नए रंग-रोगन की बदबू, तीस डिग्री की गर्मी और हवा में घुटन, लोगों की भीड़, एक ऐसी औरत के कत्ल की चर्चा जिसके यहाँ उससे कुछ ही अरसा पहले वह गया था, और ऊपर से खाली पेट। ऐसे में उसे गश आ गई तो कौन-सी बड़ी बात है! यही है वह कुल बुनियाद जिस पर उन्होंने ये सारा तूमार बाँधा है! गोली मारो उनको! मैं समझ रहा हूँ कि तुम्हें कितनी ठेस पहुँची होगी इस बात से लेकिन रोद्या, तुम्हारी जगह अगर मैं होता तो इन लोगों पर हँसता, उनके मनहूस मुँह पर थूकता, एक बार नहीं दर्जन बार थूकता और हर तरफ थूकता। मैं बड़ी सफाई से उन पर चौतरफा चोट करता और इस तरह सारे सिलसिले को खत्म कर देता। जाने दो उन्हें भाड़ में! हिम्मत न हारो! बड़ी शर्मनाक बात है!'

'लेकिन सारी बात को इसने लड़ी में बड़े ढंग से पिरोया है,' रस्कोलनिकोव ने सोचा।

'भाड़ में जाएँ! लेकिन जिरह कल फिर होगी!' उसने तल्खी से कहा। 'जरूरी है क्या कि मैं उन्हें हर बात की सफाई देता फिरूँ? मुझे तो इसी बात से झुँझलाहट हो रही है कि कल रेस्तराँ में मैंने जमेतोव से बात करना भी गवारा किया...'

'छोड़ो भी! मैं खुद पोर्फिरी के पास जाऊँगा, और उससे घर के आदमी की तरह सारी बातें उगलवा लूँगा। सारी बातें पूरी तरह मुझे रत्ती-रत्ती बताए बिना वह बच कर जाएगा कहाँ! रही जमेतोव की बात तो...'

'आखिरकार इसने सारी असलियत बूझ ही ली!' रस्कोलनिकोव ने सोचा।

'रुको!' रजुमीखिन एकाएक उसका कंधा पकड़ कर उत्तेजना के मारे बोला। 'एक मिनट रुको! तब तुम गलत कह रहे थे। अब सारी बात मेरी समझ में आ गई है : कि तुम्हारा कहना गलत है! वह फंदा कैसे था? तुम कहते हो कि मजदूरों के बारे में जो सवाल किया गया वह एक फंदा था, अगर वह तुम्हारा काम होता तो तुम क्या कहते कि तुमने फ्लैट की पुताई होते देखी थी... या मजदूरों को देखा था बल्कि इसके उलटे, तुमने अगर देखा भी होता तो यही कहते कि कुछ नहीं देखा! अपने खिलाफ भला कौन ऐसी बात मान लेगा?'

'अगर मैंने वह काम किया होता तो यकीनन यह कहता कि मैंने मजदूरों को देखा था और फ्लैट को भी,' रस्कोलनिकोव ने झिझकते हुए और नफरत से जवाब दिया।

'लेकिन अपने खिलाफ कुछ कहने की जरूरत क्या है?'

'क्योंकि सिर्फ किसान या एकदम नौसिखिए अनाड़ी ही जिरह में हर बात से इनकार करते हैं। आदमी अगर जरा भी समझदार और तजर्बेकार हुआ तो वह उन तमाम बातों को मान लेने की कोशिश करेगा, जिनसे बचा नहीं जा सकता, लेकिन उनके लिए वह कोई दूसरी वजह ढूँढ़ने की कोशिश करेगा। उसे कोई ऐसा नया मोड़ देने की कोशिश करेगा, जिसका किसी को गुमान भी न हो, जिसकी वजह से उन बातों का महत्व ही कुछ और हो जाए और उनका मतलब बदल जाए। पोर्फिरी को यकीनन उम्मीद रही होगी कि मैं यही जवाब दूँगा, सच्चाई का रंग पैदा करने के लिए कहूँगा कि उन्हें मैंने देखा था, और फिर इसकी कोई सफाई दूँगा...'

'लेकिन तब वह फौरन यही कहता कि दो दिन पहले तो मजदूर वहाँ हो ही नहीं सकते थे, और इसलिए तुम वहाँ कत्ल के दिन आठ बजे निश्चित ही रहे होगे। इस तरह तो वह एक छोटी-सी बात पर तुम्हें फँसा लेता।'

'हाँ, वह यही उम्मीद तो लगाए बैठा था कि मुझे सोचने का मौका न मिले, कि मैं जल्दी से सबसे साफ नजर आनेवाला जवाब दे दूँ, और इस तरह यह बात भुला बैठूँ कि मजदूर वहाँ दो दिन पहले तो हो ही नहीं सकते थे।'

'लेकिन इस बात को तुम भूल कैसे सकते थे?'

'बहुत आसान है! ऐसी ही बेवकूफी की बातों में चालाक लोग सबसे आसानी से फँसते हैं। आदमी जितना ही सयाना होता, उतना ही कम शक उसे इस बात का रहता है कि वह किसी सीधी-सादी बात पर पकड़ा जाएगा। आदमी जितना ही सयाना होता है, उतने ही सीधे-सादे फंदे में फँसता है। पोर्फिरी उतना बेवकूफ नहीं जितना तुम समझते हो...'

'ऐसी बात अगर है तो वह काइयाँ है!'

रस्कोलनिकोव अपनी हँसी न रोक सका। लेकिन उसी पल उसे यह बात भी कुछ अजीब-सी लगी कि वह खुल कर बातें कर रहा था और सफाई देने के लिए उत्सुक था, जबकि इससे पहले सारी बातचीत वह उदास भाव से और अरुचि के साथ करता आ रहा था। जाहिर था कि इसके पीछे उसका कोई उद्देश्य था और वह अपनी जरूरत से मजबूर था।

'इसके कुछ पहलुओं ने मुझे बहका दिया है!' उसने मन में सोचा।

लेकिन अचानक उसी पल वह बेचैन हो उठा, गोया उसके दिमाग में कोई भयानक विचार पैदा हो गया हो, जिसकी उसे कोई उम्मीद न थी। उसकी बेचैनी बढ़ती गई। वे बकालेयेव के मकान के फाटक तक पहुँच चुके थे।

'तुम अकेले जाओ!' रस्कोलनिकोव ने अचानक कहा।

'मैं अभी आता हूँ।'

'जा कहाँ रहे हो? हम तो यहाँ पहुँच चुके हैं!'

'...जाना ही पड़ेगा; मुझे एक काम है... मैं आधे घंटे में आता हूँ। उन लोगों से कह देना।'

'चाहे जो करो पर मैं तुम्हारे साथ रहूँगा!'

'क्यों मुझे तुम भी सताना चाहते हो!' वह इतनी कड़वाहट से चिड़-चिड़ा कर आँखों में घोर निराशा भर कर चीखा कि रजुमीखिन सहम गया। उसके हाथ-पाँव ढीले पड़े गए। कुछ देर वह उदास भाव से चौखटे पर खड़ा देखता रहा कि रस्कोलनिकोव लंबे कदम रखता हुआ अपने घर की ओर चला जा रहा है। आखिरकार दाँत पीस कर और मुट्ठियाँ भींच कर उसने कसम खाई कि वह आज ही पोर्फिरी को पूरी तरह निचोड़ कर रख देगा। फिर वह पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना को तसल्ली देने ऊपर गया, जो उन लोगों के इतनी देर तक न आने की वजह से परेशान हो रही थी।

रस्कोलनिकोव अपने घर पहुँचा तो उसका माथा पसीने से तर था और वह बुरी तरह हाँफ रहा था। तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ कर वह ऊपर गया और अपने खुले हुए कमरे में जा कर फौरन अंदर से कुंडी लगा ली। फिर वह दहशत और बदहवासी के आलम में कोने की ओर भागा, कागज के नीचे उस खोखल की ओर अपना हाथ अंदर डाला, जहाँ उसने चीजें रखी थीं और कई मिनट तक ध्यान से उस खोखल के अंदर, हर दरार को कागज की हर शिकन टटोल कर देखता रहा। वहाँ कुछ भी न मिला तो वह उठ कर खड़ा हो गया और गहरी साँस ली। बकालेयेव के मकान की सीढ़ियों तक पहुँचते-पहुँचते वह अचानक फिर सोचने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई चीज कोई जंजीर, कोई बटन, या उस कागज का कोई छोटा-सा टुकड़ा जिसमें उन चीजों को लपेटा गया था और जिस पर बुढ़िया के हाथ से कुछ लिखा हो, किसी तरह इधर-उधर खिसक गया हो, किसी दरार में जा पड़ा हो, और बाद में अचानक उसके खिलाफ एक पक्के सबूत की तरह बरामद हो जाए।

वह विचारों में खोया खड़ा रहा, और एक अजीब-सी, खिसियाई हुई, कुछ-कुछ बेमानी मुस्कान उसके होठों पर मँडलाती रही। आखिर अपनी टोपी उठा कर वह चुपचाप कमरे से बाहर चला गया। उसके विचार बुरी तरह उलझे हुए थे। वह खयालों में खोया-खोया-सा फाटक तक पहुँचा।

'लो, खुद ही आ गया!' किसी ने ऊँची आवाज में कहा। रस्कोलनिकोव ने नजरें उठा कर देखा।

दरबान अपनी कोठरी के दरवाजे पर खड़ा नाटे कद के एक आदमी को उसकी ओर उँगली से इशारा करके बता रहा था। वह आदमी देखने से शहरी लगता था, गाउन जैसा लंबा कोट और वास्कट पहने था, और दूर से देखने पर किसी किसान औरत जैसा मालूम होता था। कंधे कुछ झुके हुए थे और उसका तेल से चीकट टोपी से ढका सर लटका हुआ और पूरा बदन आगे की ओर झुका हुआ था। थुल-थुल झुर्रीदार चेहरे से उसकी उम्र पचास से ऊपर लगती थी। छोटी-छोटी आँखें चर्बी की तहों में छिप कर रह गई थीं और उन तहों के बीच से झाँक कर बड़ी उदासी कठोरता और असंतोष से सब कुछ देखती थीं।

'बात क्या है?' रस्कोलनिकोव ने दरबान की ओर बढ़ते हुए पूछा।

उस आदमी ने नजरें बचा कर रस्कोलनिकोव को गौर से, किसी निश्चित भाव से और ठहराव के साथ देखा और फिर धीरे-धीरे घूम कर एक शब्द भी कहे बिना, फाटक से बाहर सड़क पर चला गया।

'वह क्या चाहता है?' रस्कोलनिकोव जोर से चिल्लाया।

'वह तो पूछ रहा था कि यहाँ कोई छात्र रहता है, फिर उसने आपका नाम लिया और पूछा कि किराएदार किसका है। मैंने आपको आते देखा तो इशारा करके बता दिया और वह चला गया। बस इतनी-सी बात है!'

दरबान भी जरा चकराया हुआ लग रहा था, लेकिन कुछ ज्यादा नहीं। एक पल कुछ सोचने के बाद वह मुड़ कर अपनी कोठरी में चला गया।

रस्कोलनिकोव उस अजनबी के पीछे भागा और फौरन ही देखा कि वह सड़क की दूसरी पटरी पर, इसी तरह नपे-तुले कदम बढ़ाता हुआ, सधी चाल से जमीन पर नजरें गड़ाए चला जा रहा है, गोया किसी गहरे सोच में डूबा हो। रस्कोलनिकोव ने थोड़ी ही देर में उसे पकड़ लिया और कुछ देर उसके पीछे चलता रहा। आखिरकार उसने उसके बराबर आ कर उसके चेहरे की ओर देखा। उस आदमी ने भी उसे फौरन पहचान लिया, जल्दी से उस पर एक नजर डाली, लेकिन फिर अपनी नजरें झुका लीं। वे दोनों इसी तरह एक-दूसरे के साथ, एक भी शब्द बोले बिना चलते रहे।

'आप मेरे बारे में पूछ रहे थे... दरबान से?' आखिरकार रस्कोलनिकोव ने कहा, लेकिन जरा धीमे स्वर में।

उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया, रस्कोलनिकोव की तरफ देखा तक नहीं। दोनों के बीच फिर से खामोशी छा गई।

'वजह क्या है कि आप... आए, मेरे बारे में पूछा... और अब कुछ बोलते भी नहीं... आखिर मतलब क्या है इसका?' रस्कोलनिकोव की आवाज उखड़ गई। लगा कि वह शब्दों को ठीक से बोल भी नहीं पा रहा है।

अब उस आदमी ने आँखें ऊपर उठाईं और रस्कोलनिकोव को खौफनाक नजरों से देखा।

'तू हत्यारा!' उसने अचानक शांत लेकिन साफ और स्पष्ट लहजे में कहा।

रस्कोलनिकोव उसके साथ चलता रहा। उसकी टाँगें अचानक कमजोरी महसूस करने लगीं, पीठ में ऊपर से नीचे तक सिहरन-सी दौड़ गई और लगा कि उसके दिल की धड़कन एक पल के लिए रुक गई है। उसका दिल फिर अचानक इस तरह धड़कने लगा जैसे छाती फाड़ कर निकल जाएगा। दोनों चुपचाप इसी तरह एक-दूसरे के साथ कोई सौ कदम तक चलते रहे।

उस आदमी ने रस्कोलनिकोव की ओर देखा भी नहीं।

'मतलब क्या है तुम्हारा... क्या... कौन है हत्यारा?' रस्कोलनिकोव ने इतने धीमे से बुदबुदा कर कहा कि सुनना भी मुश्किल था।

'तुम हो,' उस आदमी ने और भी स्पष्ट और रोबदार स्वर में कहा। उसके होठों पर विजय की नफरत भरी मुस्कान थी। रस्कोलनिकोव के पीले चेहरे की ओर उसकी भयभीत आँखों में आँखें डाल कर उसने एक बार फिर देखा। वे दोनों चौराहे पर पहुँच चुके थे। वह आदमी पीछे की ओर देखे बिना बाईं ओर घूम गया। अब रस्कोलनिकोव वहीं खड़ा उसे घूरता रहा। उसने देखा कि पचास कदम जाने के बाद उस आदमी ने मुड़ कर उसे वहीं खड़े हुए देखा। रस्कोलनिकोव ठीक से देख तो नहीं पा रहा था लेकिन उसे लगा कि उस शख्स के होठों पर खुली नफरत और विजय की वही मुस्कराहट थी।

धीमे, लड़खड़ाते कदमों से रस्कोलनिकोव अपने कमरे की ओर वापस चला। घुटने आपस में टकरा रहे थे, और उसे लग रहा था कि सारा शरीर बरफ की तरह ठंडा पड़ गया है। कमरे में पहुँच कर उसने मेज पर टोपी उतार कर रखी और कोई दस मिनट तक बिना हिले-डुले मूर्ति की तरह खड़ा रहा। निढाल हो कर फिर वह सोफे पर बैठ गया और फिर दर्द की एक हल्की कराह के साथ टाँगें फैला कर लेट गया। उसकी आँखें बंद थीं। कोई आधे घंटे वह इसी तरह लेटा रहा।

वह किसी भी चीज के बारे में नहीं सोच पा रहा था। कुछ विचार थे या विचारों के टुकड़े थे, कुछ अव्यवस्थित और बिखरी हुई तस्वीरें दिमाग में तैर रही थीं - उन लोगों के चेहरे जिन्हें उसने बचपन में देखा था या जिनसे कहीं एक बार मिला था, जिनकी सूरत भी वह कभी याद नहीं कर सकता था, एक गिरजाघर की वह बुर्ज, जिसमें घंटा लगा हुआ था, किसी रेस्तराँ में रखी हुई बिलियर्ड की मेज और उस पर बिलियर्ड खेलता कोई अफसर, किसी तहखाने में स्थित तंबाकू की दुकान में सिगारों की खुशबू, एक भटियारखाना अँधेरी सीढ़ियाँ जिन पर गंदा पानी बहते रहने की वजह से चिपचिपाहट और फिसलन थी और अंडों के छिलके हर तरफ बिखरे हुए थे, कहीं दूर से इतवार को गिरजाघर में बजते घंटे की आवाज हवा की लहरों पर तैरती हुई आ रही थी... ये तस्वीरें एक बवंडर की तरह चक्कर काटती हुई तेजी से एक के बाद एक चली आ रही थीं। कुछ तस्वीरें उसे अच्छी लगीं और उसने हाथ बढ़ा कर उन्हें पकड़ना चाहा लेकिन वे धुँधली होती हुई गायब हो गईं। तमाम वक्त उसके अंदर एक घुटन-सी मौजूद रही लेकिन ऐसी भी नहीं कि उसे पूरी तरह दबोच ले, वह बल्कि कभी-कभी अच्छी भी लगती थी। बदन में हलकी कँपकँपी अभी भी हो रही थी, लेकिन यह कँपकँपी भी उसे भली-सी लग रही थी।

उसे रजुमीखिन के तेज कदमों की आहट सुनाई दी। उसने आँखें बंद कर लीं और सोने का बहाना करके पड़ा रहा। रजुमीखिन ने दरवाजा खोला और कुछ देर तक गोया झिझकता हुआ दरवाजे पर ही खड़ा रहा। फिर दबे पाँव वह कमरे में आया और सावधानी से सोफे के पास गया। रस्कोलनिकोव ने नस्तास्या के चुपके-चुपके बोलने की आवाज सुनी :

'जगाने का नईं! सोने दो उसका। खाना बाद में खा लेंगा।'

'सही बात है,' रजुमीखिन ने जवाब दिया।

दबे पाँव दोनों बाहर चले गए और दरवाजा बंद करते गए। आधा घंटा और बीता। रस्कोलनिकोव ने आँखें खोलीं और करवट बदल कर सर के पीछे दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में फँसा कर पीठ के बल लेट गया।

'कौन है वह? कौन था जो धरती का सीना फाड़ कर इस तरह अचानक बाहर निकल आया था? कहाँ था वह और क्या-क्या देखा है? उसने सब कुछ देखा है, यह बात तो साफ है। उस वक्त वह कहाँ था और उसने वह सब कहाँ से देखा अब वह इसी वक्त धरती का सीना फाड़ कर बाहर क्यों निकला पर वह देख कैसे सकता था क्या यह मुमकिन है हुँह...' रस्कोलनिकोव सोचता रहा, उसका बदन ठंडा पड़ता गया और कँपकँपी बढ़ती गई। 'और वह जेवर की डिबिया जो निकोलाई ने दरवाजे के पीछे पाई थी - वह क्या मुमकिन था सुराग बाल बराबर लकीर भी नजर से चूक जाए तो पहाड़ जैसा सबूत खड़ा हो जाता है! एक मक्खी उधर से उड़ कर जा रही थी, उसने तो देखा था! क्या ऐसा मुमकिन है?'

'उसे अचानक अपने आपसे नफरत-सी होने लगी - यह महसूस करके कि वह कितना कमजोर हो गया था, उसका बदन कितना कमजोर हो गया था।'

'मुझे यह बात पता होनी चाहिए थी,' उसने तल्खी से मुस्कराते हुए सोचा। 'अपने आपको जानते हुए, और यह जानते हुए कि मुझे कैसा होना चाहिए, मैंने यह हिम्मत कैसे की भला कि कुल्हाड़ी उठाई और खून बहा दिया! मुझे पहले से पता होना चाहिए था... आह, मुझे पता तो था!' उसने निराशा के साथ बहुत धीमे स्वर में कहा।

कभी-कभी वह किसी विशेष विचार पर आ कर अटक जाता था।

'नहीं, वे लोग कुछ और ही मिट्टी के बने हुए होते हैं। जो सच्चा स्वामी होता है, जिसे हर बात की छूट होती है, वह तूलों पर तूफान की तरह चढ़ाई करता है, पेरिस में कत्लेआम करता है, मिस्र में अपनी एक पूरी फौज छोड़ आता है, मास्को के धावे में अपने पाँच लाख फौजी गँवा देता है और विएना पहुँच कर हँस कर सारी बात लफ्जों के खेल में टाल देता है। फिर उसके मरने के बाद उसके स्मारक बनाए जाते हैं और इस तरह सब कुछ माफ कर दिया जाता है। नहीं, यूँ लगता है कि ऐसे लोग हाड़-मांस के नहीं बल्कि काँसे के बने होते हैं!'

अचानक एक ऐसा फालतू विचार उसके दिमाग में आया कि उसे हँसी आ गई।

'नेपोलियन, मिस्र के पिरामिड, वाटरलू और एक कमबख्त सूखी-सी कमीनी बुढ़िया, चीजें गिरवी रखनेवाली, जिसके पलँग के नीचे एक बड़ा-सा लाल रंग का संदूक था - अच्छी खिचड़ी है पोर्फिरी पेत्रोविच जैसों के हजम करने के लिए! आखिर वे लोग ऐसी बातों को पचा कैसे जाते हैं! कितनी फूहड़ बात है। 'एक नेपोलियन घुटनों के बल रेंग कर एक खूसट बुढ़िया के पलँग के नीचे जा रहा है।' उफ, क्या बकवास है!'

कुछ पल तो ऐसे भी आते थे जब उसे लगता था कि वह पागलों की तरह बकबका रहा है। उस पर बुखार के जुनून जैसी हालत छा गई।

'बुढ़िया की कोई अहमियत ही नहीं,' उसने उत्तेजित हो कर बिना किसी प्रसंग के सोचा। 'बुढ़िया एक गलती थी शायद, लेकिन असली अहमियत उसकी है ही नहीं! बुढ़िया तो बस एक बीमारी थी... मुझे हद पार करने की जल्दी थी... मैंने एक इनसान की नहीं एक सिद्धांत की हत्या की! मैंने सिद्धांत की हत्या तो कर दी लेकिन हद के पार न जा सका, इसी तरफ रुक गया... मैं सिर्फ हत्या ही कर सकता था। पर लगता है कि मैं वह भी नहीं कर सकता था... सिद्धांत वह बेवकूफ रजुमीखिन अभी-अभी सोशलिस्टों को गाली क्यों दे रहा था, वे मेहतनी, कारोबारी लोग होते हैं, उनका नारा 'सबका सुख' है। नहीं, यह जिंदगी मुझे सिर्फ एक बार मिली है, फिर कभी नहीं मिलेगी, सो मैं 'सबके सुख' की राह नहीं देखना चाहता। अपनी जिंदगी जीना चाहता हूँ मैं, वरना बेहतर है कि जिंदा ही न रहा जाए। यह तो मैं कर ही नहीं सकता कि मेरी माँ भूखी मर रही हो और मैं अपनी जेब में रूबल रखे हुए, 'सबके सुख' की राह देखता हुआ उसके पास से हो कर आगे बढ़ जाऊँ। 'सबके सुख की इमारत खड़ी करने के लिए मैं भी उसमें अपनी एक छोटी-सी ईंट लगा रहा हूँ और इस पर मेरे मन को पूरा-पूरा संतोष है।' हा-हा! तुमने मुझे नजरअंदाज क्यों किया मुझे सिर्फ एक बार जिंदगी करनी है, मैं भी चाहता हूँ कि... छिः, मैं एक संवेदनशील जूँ हूँ, उससे ज्यादा कुछ भी नहीं,' अचानक उसने पागलों की तरह हँसते हुए कहा। 'हाँ, मैं एक जूँ हूँ,' उसके विचारों का क्रम जारी रहा। उसने इस विचार को पकड़ लिया था, मन-ही-मन उस पर खुश हो रहा था और उससे खेल रहा था। उसे इसमें ऐसी खुशी मिल रही थी जैसी किसी से बदला ले कर मिलती है। 'सबसे पहले तो इसलिए कि मैं इस बारे में तर्क दे सकता हूँ कि मैं एक जूँ हूँ, और दूसरे इसलिए कि पिछले एक महीने से मैं अपनी हितैषी नियति को परेशान करता रहा हूँ, उससे इस बात की गवाह रहने को कहता रहा हूँ कि मैंने अपनी शारीरिक वासनाओं के लिए नहीं बल्कि एक सुंदर और उदात्त उद्देश्य के लिए इस काम का बीड़ा उठाया था - हा-हा! तीसरे जहाँ तक हो सका, मैंने इस काम को पूरी तरह न्यायपूर्ण ढंग से निभाने की कोशिश की। हर चीज को अच्छी तरह नाप-तोल कर और हर बात का हिसाब करके। जितनी जूँएँ थीं उनमें से मैंने सबसे बेकार जूँ को चुना और उससे बस उतना ही लिया जितना कि मुझे पहला कदम उठाने के लिए जरूरत थी, न उससे ज्यादा और न उससे कम। इसलिए कि बाकी उसकी वसीयत के अनुसार मठ को मिल जाए, हा-हा! तो जिस बात से यह पता चलता है कि मैं सिर्फ एक जूँ हूँ वह,' उसने दाँत पीस कर मन-ही-मन कहा, 'यह है कि मैं शायद उस जूँ से भी ज्यादा नीच और ज्यादा घिनावना हूँ, जिसको मैंने मार डाला, और यह तो मैंने पहले ही सोच लिया था कि उसे मारने के बाद मैं अपने आप से यही कहूँगा! क्या कोई इससे भी भयानक बात हो सकती है! कैसा ओछापन है! कैसी नीचता है! मैं तलवार हाथ में लिए घोड़े पर सवार उस 'पैगंबर को तो समझ सकता हूँ जो कहता है : यह अल्लाह का हुक्म है और 'थरथर काँपती हुई' मखलूक को उसका हुक्म मानना चाहिए! 'पैगंबर' का कहना ठीक है और 'पैगंबर' की यह करनी भी ठीक है कि वह सड़क पर लश्कर खड़ा करके गुनहगारों और बेगुनाहों दोनों का सफाया कर दे और इसकी वजह तक न बताए कि उसने ऐसा क्यों किया! ऐ थरथर काँपती हुई मखलूक, तेरा काम हुक्म मानना है, न कि ख्वाहिशें रखना, क्योंकि वह तेरे हिस्से की चीज नहीं है! ...मैं उस बुढ़िया को कभी माफ नहीं करूँगा!'

उसके बाल पसीने में भीगे हुए थे। काँपते हुए होठ सूख गए थे और नजरें छत पर जमी हुई थीं।

'मेरी माँ, मेरी बहन... उनसे मुझे कितना प्यार था! तो अब मुझे उनसे नफरत क्यों है हाँ, मैं उनसे नफरत करता हूँ, मुझे उनकी सूरत से भी नफरत है, मैं उन्हें अपने पास बर्दाश्त नहीं कर सकता... मुझे याद है मैंने अपनी माँ के पास जा कर उन्हें प्यार किया था, तो क्या मैं उनके सीने से लग जाऊँ और सोचूँ कि अगर उन्हें मालूम होता कि... तो फिर मैं उन्हें बता ही क्यों न दूँ मुमकिन है मैं यही करूँ... हुँह! वह भी बिलकुल वैसी ही होगी जैसा मैं हूँ,' उसने दिमाग पर जोर दे कर सोचने की कोशिश करते हुए मन में कहा, गोया सरसाम की हालत से लड़ने की कोशिश कर रहा हो। 'ओह, मुझे अब उस बुढ़िया से कितनी नफरत है! मुझे तो लगता है कि अगर वह फिर जिंदा हो जाए तो मैं उसे फिर कत्ल कर दूँ! बेचारी लिजावेता! वह अंदर आई ही क्यों! ...लेकिन यह भी अजीब बात है, ऐसा क्यों है भला कि मैं उसके बारे में सोचता ही नहीं, गोया उसे मैंने कत्ल न किया हो लिजावेता! सोन्या! बेजबान बेचारी, जिनकी आँखों से हरदम नेकी बरसती है... बेचारी ये नेक औरतें! ये रोतीं क्यों नहीं कराहतीं क्यों नहीं वे हर चीज छोड़ देती हैं... उनकी आँखों में नर्मी है और नेकी है... सोन्या, सोन्या, नेक दिल सोन्या!'

वह नीम बेहोश हो गया। उसे अजीब लग रहा था कि उसे यह भी याद न था कि वह सड़क पर कैसे पहुँचा। काफी देर हो चली थी। गोधूलि की वेला बीत चुकी थी और पूनम के चाँद की चमक तेज होती जा रही थी। पर हवा में एक अजीब-सी घुटन थी। सड़क पर लोगों की भीड़ थी। मजदूर और व्यापारी अपने-अपने घर जा रहे थे; बाकी लोग टहलने निकले थे। गारे, धूल और सड़ते हुए ठहरे पानी की बू चारों तरफ फैली हुई थी। रस्कोलनिकोव उदासी और चिंता में डूबा चला जा रहा था; उसे इस बात का पूरा-पूरा एहसास था कि वह किसी उद्देश्य से निकला था, उसे जल्द ही कोई काम करना था, लेकिन वह काम था क्या, इसे वह भूल गया था। अचानक वह ठिठक कर रुक गया और देखा कि एक आदमी सड़क की दूसरी पटरी पर खड़ा उसे इशारे से बुला रहा है। सड़क पार करके वह उसके पास तक गया, लेकिन वह आदमी फौरन ही मुड़ कर सर झुकाए हुए चल पड़ा, गोया उसने उसे कोई इशारा ही न किया हो। 'गोया उसने मुझे सचमुच इशारा क्या नहीं किया था' रस्कोलनिकोव सोचने लगा, लेकिन साथ ही उसके बराबर पहुँचने की कोशिश भी करता रहा। जब वह उससे कोई दस कदम दूर रह गया तो उसे पहचाना और डर गया : वह लंबा कोट पहने वही, झुके हुए कंधोंवाला आदमी था। रस्कोलनिकोव कुछ दूरी रख कर उसके पीछे चलता रहा और उसका दिल धड़क रहा था। दोनों जब एक मोड़ पर मुड़ गए तो भी उस आदमी ने पीछे पलट कर नहीं देखा। 'उसे क्या मालूम है कि मैं उसके पीछे-पीछे आ रहा हूँ?' रस्कोलनिकोव ने सोचा। वह आदमी एक बड़े से घर के फाटक में घुसा। रस्कोलनिकोव भी जल्दी से फाटक के पास तक पहुँच गया और अंदर झाँक कर देखने लगा कि वह आदमी घूम कर उसे इशारा करता है या नहीं। अहाते में पहुँच कर वह आदमी घूमा और लगा कि उसने एक बार फिर उसे इशारे से बुलाया है। रस्कोलनिकोव फौरन उसके पीछे-पीछे अहाते में पहुँच गया, लेकिन वह जा चुका था। 'वह पहले जीने से ऊपर गया होगा।' रस्कोलनिकोव उसके पीछे लपका। उसने दो मंजिल ऊपर सधे हुए, धीमे कदमों की आहट सुनी। सीढ़ियाँ कुछ अजीब-सी पहचानी हुई लग रही थीं। वह पहली मंजिल की खिड़की के पास पहुँचा जिसके काँच में से चमकते हुए चाँद की फीकी, उदास और रहस्यमयी रोशनी दिखाई दे रही थी। फिर वह दूसरी मंजिल पर पहुँचा। वाह! वह फ्लैट यही तो है जहाँ पुताई वाले मजदूर काम कर रहे थे... इसे वह फौरन क्यों नहीं पहचान सका ऊपर से उस आदमी के कदमों की आहट आनी बंद हो गई थी। 'वह रुक गया या कहीं छिप गया होगा!' वह तीसरी मंजिल पर पहुँचा। 'क्या मैं और ऊपर जाऊँ चारों ओर भयानक सन्नाटा था... लेकिन वह आगे बढ़ता गया। उसे अपने ही कदमों की आहट से अब डर लगने लगा था। कितना अँधेरा था! यहीं किसी कोने में वह आदमी छिपा होगा। आह! फ्लैट पूरी तरह खुला हुआ था। वह झिझकते-झिझकते अंदर गया। ड्योढ़ी बहुत अँधेरी और खाली-खाली लग रही थी, जैसे हर चीज हटा दी गई हो। दबे पाँव वह धीरे-धीरे बैठक में घुसा, जिसमें भरपूर चाँदनी छिटकी हुई थी। वहाँ पहले की तरह ही हर चीज मौजूद थी : कुर्सियाँ, आईना, पीला सोफा, फ्रेमों में जड़ी तस्वीरें। खिड़कियों में से बड़ा-सा, गोल और ताँबाई लाल रंग का चाँद झाँक रहा था। 'चाँद से ही चारों ओर की इतनी शांति फूट रही है; वह भी एक रहस्य का ताना-बाना बुन रहा है,' रस्कोलनिकोव ने सोचा। वहीं खड़ा वह इंतजार करता रहा और देर तक इंतजार करता रहा। लेकिन चाँदनी की खामोशी जितनी ही बढ़ती जाती थी, उसके दिल की धड़कन भी उतनी ही तेज होती जाती थी, यहाँ तक कि उसे दर्द होने लगा। सन्नाटा वैसे ही छाया रहा। अचानक उसे सूखी लकड़ी के टूटने जैसी तेज चटकने की आवाज पल भर के लिए सुनाई दी और उसके बाद सन्नाटा फिर छा गया। अचानक एक मक्खी उड़ी और दर्द-भरी भिनभिनाहट के साथ जा कर खिड़की के काँच से टकराई। उसी पल उसे खिड़की और छोटी-सी अलमारी के बीचवाले कोने में, दीवार पर लबादे जैसी कोई चीज लटकी हुई नजर आई। 'वह लबादा यहाँ क्यों है' उसने सोचा, 'पहले तो नहीं था...' वह चुपचाप उसके पास गया और उसे लगा, उसके पीछे कोई चीज छिपी हुई है। उसने सावधानी से लबादे को हटा कर देखा। वही बुढ़िया कोने में एक कुर्सी पर कमर दोहरी किए इस तरह बैठी थी कि उसका चेहरा दिखाई नहीं दे रहा था। लेकिन वह थी वही। वह उसके पास खड़ा, झुक कर उसे देखता रहा। 'डर गई है,' उसने सोचा। उसने चुपके से फंदे में से कुल्हाड़ी निकाली और उसकी खोपड़ी पर एक वार किया, फिर दूसरा। लेकिन अजीब बात थी कि वह हिली तक नहीं, मानो लकड़ी की बनी हो। वह डर गया और पहले से भी ज्यादा झुक कर और भी पास से उसे देखने की कोशिश करने लगा; लेकिन उसने भी अपना सर और नीचे झुका लिया। वह एकदम जमीन तक झुक गया और नीचे से झाँक कर उसके चेहरे को देखने लगा। अब उसका पूरा बदन दहशत के मारे ठंडा पड़ गया। बुढ़िया बैठी हँस रही थी, उसका सारा बदन बेआवाज हँसी से हिल रहा था और वह पूरी-पूरी कोशिश कर रही थी कि उसकी हँसी उसे सुनाई न दे। अचानक रस्कोलनिकोव को लगा कि सोने के कमरे का दरवाजा थोड़ा-सा खुला और अंदर से हँसने और खुसफुसाने की आवाज आई। उस पर जुनून सवार हो गया और वह जोर लगा कर बुढ़िया के सर पर वार करने लगा, लेकिन कुल्हाड़ी के हर वार के साथ सोने के कमरे में से आनेवाली, हँसने और खुसफुसाने की आवाज और भी तेज होती गई। रही बुढ़िया तो वह तो हँस कर लोट-पोट हो रही थी। वह वहाँ से भागना चाहता था लेकिन गलियारे में लोग भरे हुए थे, हर फ्लैट का दरवाजा खुला था और बीच की खुली जगह में, सीढ़ियों पर और सीढ़ियों के नीचे भी हर जगह लोग खड़े थे। सरों की कतारें। सब लोग देख रहे थे, लेकिन एकदम चुप। किसी बात की आशा करते हुए वे लोग एक-दूसरे से सटे खड़े थे। उसके दिल को किसी चीज ने शिकंजे की तरह जकड़ लिया। पाँव वहीं जम कर रह गए, किसी तरह वे हिल ही नहीं रहे थे... उसने चीखने की कोशिश की और... जाग पड़ा।

उसने एक गहरी साँस ली। पर अजीब बात यह थी कि उसे लग रहा था वह सपना अभी तक चल रहा है। उसका दरवाजा खुला हुआ था और दरवाजे पर खड़ा एक आदमी, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था, गौर से उसे घूर रहा था।

रस्कोलनिकोव की आँखें अभी पूरी तरह खुली भी नहीं थीं कि उसने उन्हें फिर बंद कर लिया। वह चुपचाप हिले-डुले बिना पीठ के बल लेटा रहा। 'क्या मैं अभी तक सपना देख रहा हूँ!' वह सोचने लगा और उसने अपनी पलकें जरा-सी खोलीं कि कोई दूसरा न देख सके : वह अजनबी अभी तक उसे घूर रहा था। उसने अचानक सँभल कर कमरे में कदम रखा, अंदर आ कर सावधानी से दरवाजा बंद किया, मेज के पास तक गया, रस्कोलनिकोव पर नजरें जमाए हुए पल-भर के लिए रुका, और चुपचाप सोफे के पास की कुर्सी पर बैठ गया। उसने पास ही फर्श पर अपनी टोपी रख दी और अपनी छड़ी पर दोनों हाथ टिका कर उन पर अपनी ठोड़ी टिका ली। जाहिर था कि वह जितनी देर भी जरूरी हो, इंतजार करने के लिए तैयार था। रस्कोलनिकोव जहाँ तक उसे कनखियों से देख सका, वह आदमी अपनी जवानी की उम्र पार कर चुका था। बदन गठा हुआ था और चेहरे पर घनी भरपूर दाढ़ी थी जिसका बहुत ही हलका सुनहरा रंग लगभग पूरी तरह सफेद लगता था...।

कोई दस मिनट बीते। अभी तक थोड़ी-थोड़ी रोशनी थी लेकिन झुटपुटा छाने लगा था। कमरे में मुकम्मल खामोशी थी। सीढ़ियों पर से भी कोई आवाज नहीं आ रही थी। बस एक बड़ी-सी भिनभिनाती हुई मक्खी खिड़की के काँच से फड़फड़ा-फड़फड़ा कर टकरा रही थी। आखिरकार हालत जब बर्दाश्त से बाहर हो गई तो रस्कोलनिकोव अचानक उठ कर सोफे पर बैठ गया।

'हाँ तो कहिए, क्या काम है?'

'मैं जानता था कि आप सो नहीं रहे, सिर्फ सोने का बहाना कर रहे हैं,' अजनबी ने शांत भाव से हँसते हुए, अजीब ढंग से जवाब दिया। 'मैं अपना परिचय दे दूँ, मैं अर्कादी इवानोविच स्विद्रिगाइलोव...'

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