अपराध और दंड (रूसी उपन्यास) : फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की - अनुवाद : नरेश नदीम

Crime and Punishment (Russian Novel in Hindi) : Fyodor Dostoevsky

अपराध और दंड : (अध्याय 2-भाग 1)

वह बहुत देर तक उसी तरह लेटा रहा। बीच-बीच में लगता कि उसकी नींद टूट गई है, और ऐसे पलों में उसे लगता जैसे रात बहुत बीत चुकी है, लेकिन उसे उठ बैठने की बात नहीं सूझती थी। आखिर उसने देखा कि दिन निकल आया है। अपनी कुछ देर पहले की तंद्रा से अभी तक मूढ़ बना वह पीठ के बल लेटा हुआ था। सड़क से भयभीत, निराशा में डूबी कर्कश चीखें ऊपर आ रही थीं, वैसे ही आवाजें जिन्हें अपनी खिड़की के नीचे वह रोज रात को दो बजे के बाद सुनता रहता था। अब इन आवाजों को सुन कर उसकी नींद खुल गई। 'ओह! नशे में धुत शराबी अब शराबखानों से बाहर आ रहे हैं,' उसने सोचा, 'दो बज चुके हैं,' और यह सोच कर वह फौरन उछल पड़ा, जैसे किसी ने उसे झिंझोड़ कर सोफे पर से घसीट लिया हो। 'अरे दो बज गए क्या?' वह उठ कर सोफे पर बैठ गया और अचानक हर बात उसे याद आती चली गई! एक क्षण में, बिजली के कौंधे की तरह हर बात उसे याद आ गई!

पहले पल में उसे लगा, गोया वह पागल होता जा रहा है। भयानक सिहरन से उसका बदन काँप उठा, लेकिन यह सिहरन उस बुखार की वजह से थी, जो उसे बहुत पहले, नींद के ही दौरान चढ़ आया था। अब अचानक उसके बदन में इतने जोर की कँपकँपी पैदा हुई कि उसके दाँत बजने लगे, हाथ-पाँव काँपने लगे। उसने दरवाजा खोला और कान लगा कर सुनने लगा। पूरा घर नींद में डूबा हुआ था। हैरान हो कर वह अपने आपको और कमरे की हर चीज को घूरने लगा। उसे इस बात पर ताज्जुब हो रहा था कि पिछली रात अंदर आ कर वह दरवाजे की कुंडी चढ़ाना कैसे भूल गया था और कपड़े उतारे बिना, हैट तक उतारे बिना, सोफे पर कैसे ढेर हो गया था। हैट सोफे से लुढ़क कर नीचे फर्श पर तकिए के पास पड़ा था। 'अगर कोई अंदर आ जाता तो क्या सोचता कि मैं पिए हुए हूँ, लेकिन... वह लपक कर खिड़की के पास गया। रोशनी काफी थी। वह जल्दी-जल्दी सर से पाँव तक अपने आपको, अपने सारे कपड़ों को देखने लगा : कहीं कोई निशान तो नहीं रह गया है! लेकिन इस तरह यह काम तो नहीं किया जा सकता था। काँपते-ठिठुरते हुए उसने हर चीज को उतारना और एक बार फिर से देखना शुरू किया। उसने हर चीज के एक-एक रेशे को, एक-एक धागे को ध्यान से देखा। पर भरोसा न रह जाने के कारण उसने हर चीज की अच्छी तरह, तीन बार छानबीन की। कहीं कुछ भी नहीं था, कोई भी निशान नहीं था। बस एक जगह पतलून की मोरी के निचले सिरे पर, जो घिस कर फट चला था, खून की कुछ जमी हुई बूँदें चिपकी थीं। उसने एक बड़ा-सा कमानीदार चाकू उठा कर लटकते हुए चीथड़े को काट डाला। अब कहीं कुछ भी नहीं रहा। अचानक याद आया उसे कि बुढ़िया के बटुए और संदूक में से उसने जो चीजें निकाली थीं, वे अभी तक उसकी जेबों में ही हैं। अब तक उसने उनको निकाल कर कहीं छिपाने की बात सोची भी नहीं थी! अपने कपड़ों की जाँच करते समय भी उसने इसके बारे में नहीं सोचा था! हो क्या गया था उसे उसने फौरन झपट कर वे सारी चीजें निकालीं और मेज पर डाल दीं। जब उसने जेबों का अस्तर तक बाहर निकाल कर पूरा-पूरा भरोसा कर लिया कि उनमें कुछ भी नहीं रहा, तब वह उस पूरे ढेर को समेट कर एक कोने में ले गया। दीवार के निचले सिरे पर कागज उखड़ा हुआ था और चीथड़ों की तरह लटक रहा था। उसने कागज के नीचे की खोखली जगह में सारी चीजें ठूँसनी शुरू कर दीं। 'सब चली गईं! अब कुछ भी नहीं दिखाई देता, बटुआ भी!' उसने बेहद खुश हो कर सोचा, उठ कर खड़ा हो गया और सूनी-सूनी आँखों से उस कोने और खोखल को घूरने लगा, जहाँ हमेशा से ज्यादा उभार दिखाई दे रहा था। अचानक खौफजदा हो कर वह सर से पाँव तक काँप गया। 'हे भगवान!' उसने निराशा में डूबी हुई कमजोर आवाज में कहा, 'मुझे हो क्या गया है? क्या सब कुछ छिप गया? क्या चीजें छिपाने का तरीका यही है?'

उसने नहीं सोचा था कि उसे छोटे-छोटे माल-जेवर भी छिपाने पड़ेंगे। उसने तो बस पैसों की बात सोची थी, और इसलिए छिपाने की कोई जगह भी तैयार नहीं की थी। 'लेकिन अब... अब मैं इतना खुश किस बात पर हो रहा हूँ?' उसने सोचा। 'क्या इसे ही चीजें छिपाना कहते हैं मेरी समझ जवाब देती जा रही है, और कुछ नहीं!' वह निढाल हो कर सोफे पर धम से बैठ गया और अचानक नाकाबिले-बर्दाश्त कँपकँपी के एक और दौरे ने उसे आन दबोचा। मशीनी ढंग से उसने बगल में पड़ी कुर्सी पर से अपना पुराना, छात्रोंवाला, जाड़े का लंबा गर्म कोट खींचा जो अब तार-तार हो चुका था, उसे सर तक ओढ़ा और एक बार फिर बेहोशी और बेहवासी में डूब गया। अब गहरी नींद सो रहा था।

पाँच मिनट भी नहीं बीते थे कि वह एक बार फिर उछल कर खड़ा हो गया, और उन्मादियों की तरह एक बार फिर अपने कपड़ों पर झपटा। 'कुछ किए बिना ही मैं दोबारा कैसे सो गया अरे हाँ, कोट की बगल में से मैंने वह फंदा तो निकाला ही नहीं है! एकदम भूल गया था, वह भी ऐसी बात! एकदम पक्का सबूत!' उसने खींच कर फंदा उखाड़ा, जल्दी-जल्दी काट कर उसके टुकड़े किए और उन टुकड़ों को तकिए के नीचे रखे कपड़ों के ढेर के बीच डाल दिया। 'कुछ भी हो, फटे कपड़ों की चिंदियों से कोई शक पैदा नहीं हो सकता। हाँ, यही ठीक है!' कमरे के बीचोंबीच खड़े हो कर उसने कई बार दोहराया और तकलीफदेह हद तक अपना ध्यान केंद्रित करके एक बार फिर अपने चारों ओर घूरने लगा। फर्श पर और हर जगह। कहीं कोई बात भूल तो नहीं रहा है! उसे पक्का विश्वास हो चला था कि उसकी सारी चेतनाएँ, उसकी यादें और सोचने की मामूली-सी शक्ति भी जवाब देती जा रही थी और यह बात उसके लिए असहनीय यातना का सबब बन गई थी। 'कहीं ऐसा तो नहीं कि इसका सिलसिला शुरू हो चुका हो! कहीं ऐसा तो नहीं कि मुझे मेरा दंड मिलने लगा हो! यही बात है!' उसने अपनी पतलून से जो घिसी हुई चिंदियाँ काटी थीं वे कमरे के बीचोंबीच फर्श पर ही पड़ी हुई थीं, जहाँ अंदर आनेवाला कोई भी आदमी उन्हें देख सकता था! 'मुझे हो क्या गया है?' वह एक बार फिर चिल्लाया, जैसे बदहवास हो गया हो।

फिर एक अजीब-सा विचार उसके दिमाग में आया : शायद उसके सारे कपड़े खून में सने हुए हैं, शायद उन पर बहुत सारे धब्बे हैं लेकिन उसे दिखाई नहीं दे रहे हैं, वह उन्हें इसलिए नहीं देख पा रहा कि उसके हवास जवाब देते जा रहे हैं, वे बिखरते जा रहे हैं... उसकी सोचने की शक्ति धुँधलाती जा रही है... अचानक उसे याद आया कि खून बटुए पर भी तो लगा था... 'अरे! तब तो जेब में भी लगा होगा, क्योंकि मैंने गीला बटुआ अपनी जेब में ही रख लिया था!' पलक झपकते उसने जेब का अस्तर बाहर निकाला। हाँ, उस पर निशान थे, जेब के अस्तर पर धब्बे थे! 'तो मेरी अक्ल ने पूरी तरह मेरा साथ नहीं छोड़ा है। अभी तक कुछ अक्ल और याद बाकी है, क्योंकि यह बात मुझे खुद सूझी थी,' उसने राहत की गहरी साँस ले कर विजयी भावना के साथ सोचा, 'बस बुखार की कमजोरी है, एक पल की बेहोशी।' यह सोचते ही उसने अपने पतलून की बाईं जेब का सारा अस्तर नोच डाला। उसी पल धूप की किरण उसके बाएँ जूते पर पड़ी। उसे अब शक हुआ कि उसके मोजे पर, जो बूट के बाहर झाँक रहा था, कुछ निशान थे। उसने झटके से अपना बूट उतार फेंका, 'सचमुच निशान थे! मोजे का सिरा खून में लथपथ था,' उसका पाँव अनजाने ही फर्श पर जमे खून में पड़ गया होगा, 'लेकिन अब मैं इसका क्या करूँ अब मैं यह मोजा, ये फटी हुई चिंदियाँ और जेब का अस्तर कहाँ रखूँ'

वे सब चीजें अपने हाथों में बटोरे हुए वह कमरे के बीचोबीच खड़ा था। 'आतिशदान में! लेकिन आतिशदान की तलाशी तो वे सबसे पहले लेंगे। जला दूँ लेकिन इन चीजों को जलाऊँ किस तरह माचिस भी तो नहीं है। नहीं, बेहतर तो यह होगा कि बाहर जा कर यह सब कहीं फेंक आऊँ। हाँ, इन्हें कहीं फेंक आना ही बेहतर होगा,' उसने सोफे पर फिर बैठते हुए दोहराया, 'और फौरन, इसी दम बिना कोई देर किए...' लेकिन इसकी बजाय उसका सर तकिए पर जा टिका। एक बार फिर बर्फ जैसी ठंडी असहनीय कँपकँपी ने उसे दबोचा लिया और अपना कोट एक बार फिर ओढ़ लिया। बड़ी देर तक, कई घंटों तक, यह बेचैनी भूत की तरह उस पर सवार रही कि वह 'फौरन, इसी वक्त, कहीं चला जाए और ये सारी चीजें फेंक आए, ताकि वे हमेशा के लिए उसकी आँखों से ओझल हो जाएँ और उनका नाम-निशान भी बाकी न रहे। फौरन!' कई बार उसने सोफे से उठने की कोशिश की लेकिन उठ नहीं पाया। आखिरकार किसी के जोरों से दरवाजा खटखटाने की आवाज सुन कर वह पूरी तरह जाग गया।

'दरवाजा तो खोल, जिंदा है कि नहीं पड़ा-पड़ा सोता रहता है!' नस्तास्या मुक्के से दरवाजा पीटते हुए चिल्लाई। 'दिन-दिन भर पड़ा कुत्ते की तरह खर्राटे लेता रहता है! है भी बिलकुल कुत्ता! मैं कहती हूँ, दरवाजा खोल! दस बज चुके!'

'हो सकता है घर से बाहर हो,' किसी मर्द की आवाज सुनाई दी।

'अरे, यह तो दरबान की आवाज है... उसे क्या चाहिए?'

वह उछल पड़ा और सोफे पर बैठ गया। अपने दिल की धड़कन उसके लिए तकलीफ का सबब बन गई थी।

'फिर अंदर से कुंडी किसने लगाई, यह तो बताओ,' नस्तास्या ने पलट कर पूछा। 'अच्छा सिलसिला शुरू किया है! अंदर से कुंडी चढ़ाने का! डरता है कोई उसे उठा ले जाएगा! दरवाजा खोल नासमझ, उठ भी जा!'

'इन्हें क्या चाहिए? दरबान क्यों आया है? मेरी हर बात का पता लग गया! टक्कर लूँ या दरवाजा खोल दूँ खोल देना ही ठीक रहेगा! जो होना है, हो...'

वह आधा उठ कर आगे की ओर झुका और दरवाजे की कुंडी खोल दी।

उसका कमरा इतना छोटा था कि बिस्तर से उठे बिना ही वह कुंडी खोल सकता था।

उसका खयाल सही था : दरबान और नस्तास्या वहाँ खड़े थे।

नस्तास्या अजीब ढंग से उसे घूर रही थी। दरबान को उसने बड़ी ढिठाई और बेबसी से, कनखियों से देखा। उसने बिना कुछ कहे, एक तह किया हुआ बादामी कागज उसकी तरफ बढ़ा दिया जिसे लाख से मुहरबंद कर दिया गया था।

'दफ्तर से सम्मन आया है,' दरबान ने कागज आगे बढ़ाते हुए कहा।

'किस दफ्तर से?'

'पुलिस थाने से। वहीं से बुलावा आया है। ये तो तुम्हें पता होगा कि वह किस तरह का दफ्तर है।'

'पुलिस से... किसलिए भला...'

'कौन जाने तुम्हें तलब किया है तो जाना तो पड़ेगा।' उस आदमी ने उसे बड़े ध्यान से देखा, कमरे में चारों ओर नजर दौड़ाई और मुड़ कर जाने लगा।

'बहुत बीमार जान पड़ता है!' नस्तास्या ने उस पर नजरें जमाए रह कर अपना मत व्यक्त किया। दरबान ने एक पल के लिए सर घुमा कर देखा। 'कल से बुखार है,' नस्तास्या ने आगे कहा।

रस्कोलनिकोव ने कोई जवाब नहीं दिया। कागज को खोले बिना हाथ में लिए बैठा रहा।

'उठने की जरूरत नहीं,' नस्तास्या ने उसे सोफे पर से पाँव नीचे उतारते देख कर दया-भाव से कहा। 'तुम बीमार हो, सो जाने की कोई जरूरत नहीं। कोई ऐसी जल्दी नहीं मची है। वह तुम्हारे हाथ में क्या है?'

रस्कोलनिकोव ने देखा : अपने दाहिने हाथ में उसने पतलून से काटी हुई लटकनें, मोजा और जेब का फटा हुआ अस्तर पकड़ रखा था। तो वह उन्हें हाथ में लिए-लिए सो गया था! बाद में इसके बारे में सोचते हुए उसे याद आया कि बुखार में जब उसकी नींद उचटती थी तो वह इन चीजों को मजबूती से हाथ में जकड़ लेता था और फिर उसी तरह सो जाता था।

'देखो तो, जाने कहाँ-कहाँ के चीथड़े उठा लाता है और उन्हें ले कर सो जाता है, जैसे कोई बहुत बड़ी दौलत मिल गई हो...' नस्तास्या दीवानों की तरह खिलखिला कर हँसी। फौरन उसने वे सारी चीजें अपने लंबे कोट के नीचे घुसेड़ लीं और नजरें गड़ा कर बड़े गौर से नस्तास्या को देखता रहा। उस दम उसमें समझ-बूझ के साथ सोचने की ताकत तो कम ही रह गई थी, लेकिन उसने महसूस किया कि एक ऐसे आदमी के साथ, जो किसी भी पल गिरफ्तार किया जा सकता हो, कोई इस तरह पेश नहीं आ सकता। 'लेकिन... पुलिस?'

'चाय पिओगे? एक प्याली जी चाहे तो मैं अभी लिए आती हूँ। थोड़ी-सी बची हुई है।'

'नहीं... मैं जा रहा हूँ; मैं अभी जाऊँगा,' उसने खड़े होते हुए बुदबुदा कर कहा।

'अरे, तुम तो सीढ़ियों के नीचे तक भी नहीं पहुँच पाओगे!'

'मैं तो जाऊँगा...'

'जैसी तुम्हारी मर्जी।'

दरबान के पीछे-पीछे वह भी बाहर चली गई। वह मोजे और उन चीथड़ों की पड़ताल करने के लिए झपट कर रोशनी में पहुँच गया... 'धब्बे हैं तो लेकिन आसानी से दिखाई नहीं देते। सब पर मिट्टी जमी है, और रगड़ खा कर वे बदरंग हो चुके हैं। जिस आदमी को पहले से कोई शक न हो, वह कुछ पहचान नहीं सकता। खैरियत है कि नस्तास्या ने दूर से कुछ नहीं देखा होगा!' फिर काँपते हाथों से उसने नोटिस पर लगी हुई मुहर तोड़ी और पढ़ने लगा। वह बड़ी देर तक पढ़ता रहा, तब जा कर कुछ समझ में आया। कोतवाली से मामूली सम्मन था कि उसी दिन साढ़े नौ बजे उसे थानेदार के दफ्तर में हाजिर होना था।

'मेरे साथ ऐसा तो कभी नहीं हुआ; पुलिस से मेरा कभी कोई वास्ता नहीं रहा! तो फिर आज क्यों?' उसने दुखी हो कर आश्चर्य से सोचा। 'हे भगवान, बस सब कुछ जल्दी निबट जाए!' वह प्रार्थना के लिए घुटने टेक कर बैठने जा रहा था कि अचानक ठहाका मार कर हँस पड़ा - प्रार्थना करने के विचार पर नहीं, बल्कि अपने आप पर। उसने जल्दी-जल्दी कपड़े पहनते हुए सोचना शुरू किया; 'मिटना है तो मिट ही जाऊँ, कोई चिंता मुझे नहीं। मोजा पहन लूँ!' वह अचानक सोच में पड़ गया। 'उस पर और धूल जम जाएगी और सारे निशान मिट जाएँगे।' लेकिन मोजा पहनते ही उसने घृणा और आतंक से घबरा कर उसे फिर उतार दिया लेकिन यह सोच कर कि उसके पास कोई दूसरा मोजा नहीं था, उसे फिर उठाया और पहन लिया। वह एक बार फिर हँस पड़ा।

'ये सब तो रस्मी बातें हैं, दिखावे की, और कुछ नहीं,' उसके दिमाग में यह विचार बिजली की तरह कौंध गया, लेकिन केवल ऊपरी सतह पर। सारा शरीर थर-थर काँप रहा था, 'यह लो, झगड़ा ही खत्म हो गया! मैंने उसे पहन कर झगड़ा ही सारा निबटा दिया!' लेकन इस हँसी के फौरन बाद उस पर घोर निराशा छा गई। 'नहीं, यह मेरे बूते के बाहर है...' उसने सोचा। उसके पाँव काँप रहे थे। 'डर के मारे,' वह बुदबुदाया। सर चकराने लगा और बुखार की वजह से उसमें दर्द होने लगा। 'यह चाल है! वे लोग मुझे तिकड़म से वहाँ बुलाना चाहते हैं,' बाहर सीढ़ियों से उतरते हुए उसने सोचा, 'सबसे बुरी बात यह है कि मुझे खुद अपने दिमाग पर लगभग काबू नहीं रहा... शायद खुद मेरे मुँह से कोई बेवकूफी की बात निकल जाए...'

सीढ़ियों पर उसे याद आया कि वह सारी चीजें दीवार के खोखल में ज्यों की त्यों छोड़े जा रहा था। 'बहुत मुमकिन है कि उनकी चाल यही हो कि तब तलाशी लें जब मैं बाहर निकल जाऊँ,' उसने सोचा और ठिठक गया। लेकिन उसे ऐसी घोर निराशा ने, और आनेवाली तबाही से मुतल्लिक ऐसी बेफिक्री ने आ दबोचा कि हवा में हाथ झटक कर वह आगे बढ़ता रहा।

'किसी तरह यह झंझट तो मिटे!'

सड़क पर वही असहनीय गर्मी थी; इतने दिनों से एक बूँद पानी भी नहीं बरसा था। फिर वही धूल, ईंटें, गारा, फिर वही दुकानों और शराबखानों की बदबू, फिर वही शराबी, वही फेरीवाले और टूटी-फूटी घोड़ागाड़ियाँ। सूरज की तेज चमक सीधी उसकी आँखों में इस तरह पड़ रही थी कि उसे किसी भी चीज को देखने में तकलीफ हो रही थी। उसका सर घूम रहा था - उसी तरह जैसे उस आदमी का घूमता है जो बुखार में पड़ा रहा हो और अचानक तेज धूप में बाहर सड़क पर निकल आए।

जब वह उस सड़क के मोड़ पर पहुँचा तो खौफजदा हो कर उसने उस पर नजर डाली... उस घर पर नजर डाली... और फौरन ही अपनी आँखें फेर लीं।

'अगर मुझसे पूछेंगे तो शायद मैं सब कुछ साफ-साफ बता दूँ,' थाने के पास पहुँचते-पहुँचते उसने सोचा।

थाना वहाँ से कोई चौथाई वेर्स्त दूर रहा होगा। अभी हाल ही में हटा कर एक नई इमारत की चौथी मंजिल पर लाया गया था। एक बार थोड़ी देर के लिए वह पुराने पुलिस स्टेशन में तो गया था, लेकिन वह बहुत पहले की बात थी। फाटक में मुड़ने पर उसे दाहिनी तरफ सीढ़ियाँ नजर आईं जिन पर एक आदमी हाथ में किताब लिए नीचे उतर रहा था। 'जरूर दरबान होगा; तो थाना यहीं है,' और वह इसी अटकल के आधार पर सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। वह किसी से कोई बात नहीं पूछना चाहता था।

'मैं अंदर जाऊँगा, घुटने टेक दूँगा और सारी बातें मान लूँगा...' उसने चौथी मंजिल पर पहुँचते हुए सोचा।

सीढ़ियाँ बहुत खड़ी और तंग थीं और उन पर गंदा पानी बहने की वजह से फिसलन थी। चारों मंजिलों के फ्लैटों के रसोईघरों के दरवाजे सीढ़ियों की तरफ खुलते थे और लगभग दिन भर खुले ही रहते थे। इसलिए वहाँ बुरी तरह गंध थी और गर्मी छाई रहती थी। सीढ़ियों पर बगल में किताबें दबाए चढ़ते-उतरते दरबानों, चपरासियों और तरह-तरह के मर्दों-औरतों की रेल-पेल रहती थी। थाने का दरवाजा पूरा खुला हुआ था। अंदर आ कर वह ड्योढ़ी में रुक गया। अंदर कई किसान खड़े राह देख रहे थे। गर्मी की वजह से यहाँ बेहद घुटन थी और नए पुते कमरों से ताजे रंग-रोगन और सड़े हुए तेल की बू आ रही थी, जिससे मतली होने लगती थी। कुछ देर इंतजार करने के बाद उसने अगले कमरे में जाने का फैसला किया। सभी कमरे छोटे-छोटे थे और उनकी छतें नीची थीं। एक अंदर से जलानेवाली बेचैनी के साथ वह आगे बढ़ता रहा। किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। दूसरे कमरे में कुछ लोग बैठे हुए कुछ लिख रहे थे। उनके कपड़े उससे कुछ खास अच्छे नहीं थे, और देखने में वे बहुत विचित्र किस्म के लोग लगते थे। वह उनमें से एक के पास गया।

'क्या है?'

उसने सम्मन दिखाया, जो उसे मिला था।

'तुम छात्र हो!' उस आदमी ने नोटिस पर नजर दौड़ाते हुए पूछा।

'पहले था।'

क्लर्क ने उसकी ओर देखा जरूर लेकिन उसमें जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। वह बहुत ही मैला-कुचैला आदमी था और उसकी आँखों से लगता था कि उसके दिमाग में कोई एक ही बात बैठी हुई है।

'इससे कोई काम नहीं बनने का; क्योंकि इसे किसी चीज में कोई दिलचस्पी ही नहीं,' रस्कोलनिकोव ने सोचा।

'अंदर बड़े बाबू के पास जाओ,' क्लर्क ने सबसे दूरवाले कमरे की तरफ इशारा करते हुए कहा।

वह उस कमरे में गया - लाइन से बने हुए कमरों से चौथा कमरा। छोटा-सा कमरा था और लोग ठसाठस भरे हुए थे। ये बाहरवाले कमरों के लोगों से कुछ बेहतर पोशाक पहने हुए थे। उनमें दो औरतें भी थीं। एक तो किसी का सोग मना रही थी और बहुत मामूली कपड़े पहने हुए थी, बड़े बाबू की मेज पर उसके ठीक सामने बैठी थी, और वह जो कुछ बताता जा रहा था, उसे लिखती जा रही थी। दूसरी बहुत हट्टी-कट्टी, गदराई हुई, ऊदी-ऊदी चित्तियोंवाले चेहरे की औरत थी। वह बहुत बढ़िया कपड़े पहने थी और उसने अपने सीने पर तश्तरी जितनी बड़ी एक जड़ाऊ पिन लगा रखी थी। जाहिर है एक ओर खड़ी वह किसी चीज का इंतजार कर रही थी। रस्कोलनिकोव ने अपना सम्मन बड़े बाबू के सामने सरका दिया। बड़े बाबू ने उस पर एक नजर डाली और बोला, 'एक मिनट ठहरो,' और फिर उस शोकग्रस्त महिला के काम की ओर ध्यान देने लगा।

रस्कोलनिकोव की जान में जान आई। 'वह बात नहीं हो सकती!' धीरे-धीरे उसमें फिर से भरोसा आता गया। वह अपने आपको हौसला और सुकून रखने के लिए प्रेरित करता रहा।

'किसी भी बेवकूफी से एक जरा-सी लापरवाही से मेरा सारा भाँडा फूट जाएगा! हुँह... कितनी बुरी बात है कि यहाँ एकदम हवा नहीं है,' वह अपने मन में कहता रहा, 'बड़ी घुटन है... सर पहले से भी ज्यादा... चकराने लगता है... और आदमी का दिमाग भी...'

उसे इस बात का एहसास था कि उसके अंदर एक भयानक तूफान मचा हुआ था। वह डर रहा था; ऐसा न हो कि उसे अपने आप पर काबू न रहे। उसने कोई चीज ढूँढ़ कर उस पर अपना ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की, कोई ऐसी चीज जिसका इन बातों से कोई संबंध न हो, लेकिन इसमें वह असफल रहा। फिर भी बड़े बाबू में उसे बड़ी दिलचस्पी पैदा हुई : वह उम्मीद करता रहा कि किसी तरह वह उसके अंदर की थाह पा ले और उनके चेहरे से कुछ अनुमान लगा ले। वह एक नौजवान शख्स था, लगभग बाईस साल का होगा, साँवला, चंचल चेहरा जिससे वह अपनी उम्र से बड़ा लगता था। वह बहुत फैशनेबुल कपड़े पहने था और बहुत बना-ठना हुआ था। बालों में अच्छी तरह कंघी करके बीच में से माँग निकाल रखी थी और क्रीम लगा कर उन्हें चिपका भी रखा था। उसने बहुत रगड़-रगड़ कर साफ की हुई उँगलियों पर कई अँगूठियाँ पहन रखी थीं और वास्कट में सोने की जंजीरें लगा रखी थीं। उसने एक विदेशी से, जो उस कमरे में था, फ्रांसीसी में कुछ शब्द कहे और उनका उच्चारण काफी सही ढंग से किया।

'आप बैठ जाइए लुईजा इवानोव्ना,' उसने लगे हाथ बढ़िया पोशाक पहने ऊदी-ऊदी चित्तियोंदार चेहरेवाली महिला से कहा, जो अभी तक खड़ी हुई थीं, गोया उनकी बैठने की हिम्मत न हो रही हो, हालाँकि उनकी बगल में ही एक कुर्सी पड़ी हुई थी।

'प्बी कंदाम1,' उन महिला ने कहा और बहुत आहिस्ता से, रेशम की सरसराहट के साथ उस कुर्सी पर बैठ गईं। उसकी सफेद लैस लगी आसमानी रंग की पोशाक मेज के पास से हवा भरे गुब्बारे की तरह लहराती हुई कुर्सी के चारों और फैल गई और उसने लगभग आधा कमरा घेर लिया। वह इत्र से महक रही थीं। लेकिन साफ मालूम हो रहा था कि आधा कमरा घेर लेने और इस तरह इत्र की खुशबू बिखेरने पर वह कुछ अटपटा महसूस कर रही थीं। हालाँकि उनकी मुस्कराहट में ढिठाई भी थी और गिड़गिड़ाहट भी, लेकिन साफ जाहिर हो रहा था कि वह कुछ बेचैन-सी हैं।

शोकग्रस्त महिला का काम आखिर खत्म हो गया और वह उठ खड़ी हुईं। अचानक कुछ शोर-गुल के साथ एक अफसर बहुत अकड़ता हुआ, हर कदम पर अपने कंधों को एक खास तरीके से झटकता हुआ अंदर आया। उसने अपनी बिल्ला लगी टोपी मेज पर फेंकी और एक आरामकुर्सी पर बैठ गया। उसे देखते ही वह बनी-सँवरी महिला फुदक कर उठ खड़ी हुईं और गद्गद हो कर, झुक-झुक कर उसे सलाम करने लगीं; लेकिन अफसर ने उनकी ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया, और उसके सामने उसकी भी दोबारा बैठने की हिम्मत नहीं पड़ी। वह असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट था। उसकी मूँछें मेहँदी के रंग की थीं और चेहरे पर दोनों ओर आड़ी-आड़ी निकली हुई थीं। उसके नाक-नक्शे में हर चीज बेहद छोटी थी और उससे थोड़े-से अक्खड़पन के अलावा और किसी बात का पता नहीं चलता था। उसने तिरछी नजर से और कुछ गुस्से से रस्कोलनिकोव को देखा : रस्कोलनिकोव बहुत गंदे कपड़े पहने हुए था और अपनी अपमानजनक स्थिति के बावजूद उसके तेवर उसकी पोशाक से कोई मेल नहीं खा रहे थे। रस्कोलनिकोव अनजाने ही बड़ी देर तक और नजरें जमा कर उसे घूरता रहा, जिसकी वजह से वह निश्चित ही नाराज हो गया।

'क्या चाहिए तुम्हें?' वह चिल्लाया। साफ मालूम हो रहा था : उसे इस बात पर बड़ी हैरत थी कि ऐसे फटे-पुराने कपड़े पहननेवाला आदमी उसकी नजरों के रोब में नहीं आया था।

'मुझे यहाँ बुलाया गया था... सम्मन भेज कर...' रस्कोलनिकोव ने झिझकते हुए कहा।


1. धन्यवाद (जर्मन)।


'बकाया रकम की वसूली के लिए इस छात्र से,' बड़ा बाबू जल्दी से अपने कागजात की ओर से ध्यान हटा कर बीच में बोला। 'यह लो!' उसने एक दस्तावेज रस्कोलनिकोव की ओर बढ़ा दिया और उसके एक हिस्से की तरफ इशारा किया। 'पढ़ो! इसे।'

'रकम, कैसी रकम,' रस्कोलनिकोव ने सोच, 'लेकिन... इसका मतलब है... यह यकीनन वह वाला मामला नहीं है।' वह खुशी के मारे काँप उठा। अचानक उसने ऐसी गहरी राहत महसूस की कि बयान नहीं कर सकता था। सर से एक बोझ हट गया था।

'तो जनाब, आपसे आने को किस वक्त कहा गया था?' असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट दहाड़ा। न जाने क्यों उसकी नाराजगी लगातार बढ़ती जा रही थी। 'कहा गया था नौ बजे आने को, और अब बारह बज रहे हैं!'

'सम्मन अभी पंद्रह मिनट पहले मिला है,' रस्कोलनिकोव ने अफसर से ऊँचे स्वर में कहा, जो उसकी ओर पीठ किए हुए था। उसे खुद भी इस बात पर ताज्जुब हो रहा था कि अचानक उसे गुस्सा आ गया था और इसमें उसे कुछ आनंद भी मिल रहा था। 'यह क्या कम है कि तेज बुखार में भी मैं यहाँ चला आया।'

'मेहरबानी करके चीखिए मत!'

'मैं चीख नहीं रहा, मैं तो शांत भाव से बोल रहा हूँ; चीख आप रहे हैं मुझ पर। मैं कॉलेज में पढ़ता हूँ और किसी को इस बात की इजाजत नहीं देता कि वह मुझ पर चीखे।'

असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट को इतना ताव आया कि एक मिनट तक वह अटक-अटक कर बोलता रहा, इस तरह कि कुछ समझ ही में नहीं आता था कि क्या कह रहा है। वह अपनी कुर्सी से उछल कर खड़ा हो गया।

'खामोश रहिए जनाब! आप एक सरकारी दफ्तर में हैं,' बदतमीजी मत कीजिए, जनाब!'

'आप भी सरकारी दफ्तर में हैं,' रस्कोलनिकोव भी चिल्लाया, 'और आप चीखने के अलावा सिगरेट भी पी रहे हैं और इस तरह हम सब लोगों की तौहीन कर रहे हैं।' यह कह कर उसने अद्भुत आनंद महसूस किया।

बड़े बाबू ने मुस्करा कर उनकी ओर देखा। जाहिर था कि बिफरा हुआ असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट सिटपिटा गया।

'इससे आपको कोई मतलब नहीं!' आखिर वह अस्वाभाविक रूप से ऊँचे स्वर में चिल्लाया। 'लेकिन आपसे जो कहा जा रहा है। उसे लिख कर दीजिए। दिखा दो इन्हें, अलेक्सांद्र ग्रिगोरियेविच। आपके खिलाफ शिकायत है! आप अपना कर्जा नहीं चुकाते! खूब आदमी हैं आप भी!'

लेकिन रस्कोलनिकोव उसकी बात नहीं सुन रहा था। उसने बड़ी उत्सुकता से वह कागज ले लिया। उसे यह पता लगाने की जल्दी थी कि बात क्या है। उसने उस कागज को एक बार पढ़ा, दूसरी बार पढ़ा, लेकिन उसकी समझ में कुछ न आया।

'यह है क्या?' उसने बड़े बाबू से पूछा।

'प्रोनोट पर दिए गए पैसे की वसूली का सम्मन है। या तो सारे खर्चे, जुर्माने वगैरह के साथ भुगतान करो या लिख कर दे दो कि रकम कब तक अदा कर सकते हो, और साथ ही यह भी लिख कर दो कि पैसा चुकाए बिना राजधानी छोड़ कर कहीं जाओगे नहीं, और अपनी जायदाद न किसी को बेचोगे न छिपाओगे। लेनदार को तुम्हारी जायदाद बिकवा देने और तुम्हारे खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने की छूट होगी।'

'लेकिन मैं... मैं तो किसी का कर्जदार नहीं!'

'इससे हमें कोई मतलब नहीं। यह हमारे सामने है एक सौ पंद्रह रूबल का प्रोनोट, पक्का कानूनी दस्तावेज, जिसकी मियाद पूरी हो चुकी है। यह हमारे पास वसूली के लिए लाया गया है। यह प्रोनोट तुमने नौ महीने पहले असेसर जारनीत्सिन की विधवा को दिया था, और विधवा जारनीत्सिन ने यह प्रोनोट चेबारोव नामक कोर्ट कौंसिलर को दे दिया था। इसलिए तुम्हारे नाम सम्मन जारी किया जाता है।'

'लेकिन वह तो मेरी मकान-मालकिन है!'

'तुम्हारी मकान-मालकिन है तो क्या हुआ?'

बड़े बाबू ने दया के भाव से मुस्कराते हुए उसकी ओर देखा, गोया उस पर कुछ उपकार कर रहा हो। लेकिन उस मुस्कराहट में कुछ विजय का भाव भी था, गोया वह किसी ऐसे नौसिखिए पर मुस्करा रहा हो, जो पहली बार जाल में फँसा हो - गोया उससे कहना चाहता हो : 'कहो, अब कैसा लग रहा है?' लेकिन अब रस्कोलनिकोव को प्रोनोट की, वसूली के सम्मन की, क्या परवाह थी क्या यह सब कुछ अब इस लायक रह गया था कि उसकी चिंता की जाए, उसकी ओर ध्यान दिया जाए वह वहाँ खड़ा रहा, उसने पढ़ा, उसने सुना, उसने जवाब दिया, उसने खुद सवाल भी पूछे, लेकिन सब कुछ मशीनी ढंग से सुरक्षा की, एक बहुत बड़े खतरे से छुटकारा पाने की, विजय भरी भावना उस पल उसकी सारी आत्मा में व्याप्त थी। उसमें भविष्य का कोई अनुमान नहीं था, कोई विश्लेषण नहीं था, कोई अटकल, कोई शंका न थी, कोई सवाल नहीं था। वह संपूर्ण, प्रत्यक्ष, शुद्ध रूप से सहज उल्लास का पल था। लेकिन उस पल थाने में ऐसी घटना हुई जैसे बिजली टूटी हो। रस्कोलनिकोव की बदतमीजी पर असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट अभी तक तिलमिला रहा था, अभी तक गुस्से से खौल रहा था और स्पष्ट था कि अपनी आहत प्रतिष्ठा को फिर से कायम करने के लिए बेचैन था। वह उस बेचारी बनी-सँवरी महिला पर झपट पड़ा, जो दफ्तर में उसके घुसने के समय से ही बेहद बेवकूफी भरी मुस्कराहट के साथ उसे घूरे जा रही थीं।

'सुनो फलाँ-फलाँ-फलाँ,' वह अचानक अपनी पूरी आवाज से चिल्लाया (शोकग्रस्त महिला दफ्तर से जा चुकी थीं), 'तुम्हारे घर पर कल रात हो क्या रहा था? क्यों, फिर वही बेहूदगी तुम्हारी वजह से पूरे मोहल्ले की नाक में दम है। फिर वही लड़ाई-झगड़ा, पीना-पिलाना। जेल जाना चाहती हो क्या मैं दस बार तुम्हें चेतावनी दे चुका हूँ कि ग्यारहवीं बार नहीं छोड़ूँगा। और तुम... फिर... फिर वही हरकत करने लगीं... बदचलन कहीं की!'

ताज्जुब के मारे रस्कोलनिकोव के हाथों से कागज गिर पड़ा। उसने बौखला कर उस बनी-सँवरी महिला को देखा, जिसके साथ ऐसा अभद्रता का व्यवहार किया जा रहा था। लेकिन जल्दी ही उसकी समझ में आ गया कि यह सारा किस्सा क्या था, और उसे वाकई इस पूरे कांड में मजा आने लगा। वह मजे ले कर सुनने लगा। उसका जी चाहा कि जी खोल कर खूब हँसे... वह बेहद तनाव से भरा हुआ था।

'इल्या पेत्रोविच!' बड़े बाबू ने चिंतित हो कर कुछ कहना शुरू किया था लेकिन बीच में ही रुक गया, क्योंकि वह अपने अनुभव से जानता था कि भड़के हुए असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट को जोर-जबर्दस्ती से काबू में नहीं किया जा सकता।

जहाँ तक उस बनी-ठनी महिला का सवाल था, शुरू में वह इस तूफान के आगे जरूर काँपी। लेकिन अजीब बात थी कि गालियों की विविधता और उनकी सख्ती जितनी बढ़ती जाती थी, वह उतनी ही विनम्र होती जाती थीं और उस रोबदार असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट पर जो मुस्कराहटें वह बिखेर रही थीं, उनमें रिझाने का गुण और बढ़ता जाता था। वह बड़ी बेचैनी से कसमसा रही थीं, लगातार झुक-झुक कर सलाम कर रही थीं, बड़ी बेताबी से अपनी बात कहने के मौके की ताक में थीं, और आखिरकार वह मौका उसे मिल भी गया।

'अपुन का घर में किसी माफिक शोर-फोर या दंगा-पंगा नईं होएला, कप्तान साब,' उसने एक साँस में अपनी सारी बात पटर-पटर कही। लगता था जैसे मटर के दाने टपक रहे हों। वह बड़े भरोसे के साथ रूसी बोल रही थी, हालाँकि उसके उच्चारण में गहरा जर्मन पुट था, 'होर हंगामे भी कोई नहीं होएला, और साब बहादुर नशे में टाइट आएला होता। हम सब बात सच्ची-सच्ची बोलता, कप्तान साब। अपुन का राई-रत्ती भी मिश्टेक नईं होएला उसमें... अपुन का घर सरीफ लोगों का घर होता और सारा बात पूरा जैसा सरीफ लोग का होता कप्तान साहब। अपुन तो खुद नईं माँगता कबी कोई दंगा-पंगा, शोर-फोर होने का। पन वह आया होता एकदम नसे में टाइट और बोलने को लगा तीन बोतल और चाहिए; वह एक टाँग उठाया ऊपर और पाँव से पियानो को बजाने लगा। सरीफ का घर में कोई ऐसा करने सकता! अपुन का फस्ट क्लास पियानो खलास कर डाला। ऐसा बदतमीजी नईं करना माँगता सो, अपुन उसको साफ-साफ बोला यह बात। पन वह एक बोतल उठाता, इसको मारता, उसको मारता। अपुन क्या करने सकता... दरबान को ताबड़तोड़ बुलाया, और कार्ल बरोबर आया। पन, साब, कार्ल को वह पकड़ा और उसका आँख को चोट करने होता और हेनरिएट का भी आँख को चोट करने मारता होता और अपुन का गाल ऊपर पाँच तमाचा... तड़-तड़ मारने होता। कप्तान साब, किसी सरीफ का घर में कोई ऐसा करने को बोलता कबी। अपुन तो रोने को लगा, पन वह नहर साइड का खिड़की खोलने को होता और खिड़की के पास में जाने होता और सुअर की माफिक घुर्र-घुर्र करने होता; कैसा बड़ा सरम का बात होता। खिड़की के सामने में खड़ा होने का... फेर सड़क की साइड मुँह उठाने का और सुअर की माफिक घुर्र-घुर्र बोलने का। ऐसे भी करने सकता कोई जंटलमैन आदमी! छिः-छिः! कार्ल उनका कोट पकड़ लेने होता और खिड़की का साइड से इधर को घसीटने होता... अपुन सच्ची-सच्ची बोलता, कप्तान साब, इसमें कोट उसका पीछू से छोटा-सा फट जाता होता। बस वह क्या बमकने को होएला। बोलने को लगा कोट फाड़ा तो पंद्रह रूबल जुर्माना देने को होता। और कप्तान साब, उसको पाँच रूबल भी दिएला, कोट फाटने का। बिलकुल जंटलमैन सरीफ आदमी नहीं होता वह और सारा खिट-पिट जो होएला उसी का कारन से। अपुन को बोलता होता कि अपुन का बारे में सारा बुरा-बुरा बात पेपर में लिखने का, काहे से कि वह सारा पेपर को अपुन का बारे में कुछ भी लिखने को सकता।'

'तो वह कलमची था?'

'हाँ, कप्तान साब, बरोबर जंटलमैन आदमी नहीं वो... किसी सरीफ आदमी का घर में।'

'बस-बस! बहुत हो गया! मैं तुझे पहले भी बता चुका हूँ...'

'इल्या पेत्रोविच!' बड़े बाबू ने एक बार फिर अर्थपूर्ण ढंग से कहा। असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट ने तेजी से उसे एक नजर देखा; बड़े बाबू ने अपना सर थोड़ा-सा हिला दिया।

'...तो शरीफों की शरीफ लुईजा इवानोव्ना, मैं यह बात तुम्हें बताए देता हूँ और आखिरी बार बता रहा हूँ,' असिस्टेंट का चरखा चलता रहा। 'अगर फिर कभी तुम्हारे शरीफोंवाले घर में कोई हंगामा हुआ तो मैं तुम्हीं को, वो जिसे शरीफों की जबान में कहते हैं न, हवालात में डलवा दूँगा। सुन लिया तो एक आलिम-फाजिल आदमी ने, कलमची लेखक ने, 'शरीफोंवाले घर' में अपना कोट फटने पर पाँच रूबल वसूल कर लिए... कमाल के होते हैं ये कलमची लोग भी!' और उसने रस्कोलनिकोव पर फिर तिरस्कारभरी नजर डाली। 'अभी उस दिन एक रेस्तराँ में हंगामा हुआ। एक लेखक साहब ने खाना खा लिया और पैसे नहीं निकाले थे; बोले : 'मैं एक व्यंग्य तुम्हारे बारे में लिखूँगा।' इसी तरह एक स्टीमर पर पिछले हफ्ते ऐसे ही एक साहब ने एक सिविल कौंसिलर साहब के खानदान, उनकी बीवी-बेटी के बारे में निहायत बेहूदा बातें कीं। और इसी बिरादरी के एक सज्जन को अभी उस दिन मिठाई की एक दुकान से निकाला गया था। ये लोग होते ही ऐसे हैं, लेखक हुए, साहित्यकार हुए, छात्र हुए, ढिंढोरची हुए... छिः! तुम फूटो अब यहाँ से! मैं खुद तुम्हारे यहाँ एक दिन मुआइना करने आऊँगा। सो इसका खयाल रखना! सुन लिया?'

बड़े अदब से जल्दी-जल्दी हर तरफ झुक कर सलाम करती हुई लुईजा इवानोव्ना पीछे हटते-हटते दरवाजे तक पहुँच गई। लेकिन दरवाजे पर वह खिले हुए किताबी चेहरे और घने सुनहरे गलमुच्छोंवाले एक खूबसूरत अफसर से टकरा गई। यह उसी मोहल्ले के सुपरिंटेंडेंट थे, निकोदिम फोमीच। लुईजा इवानोव्ना ने जल्दी से लगभग जमीन तक झुक कर सलाम किया और छोटे-छोटे कदमों से तितली की तरह पर फड़फड़ाती, दफ्तर के बाहर निकल गई।

'फिर वही गरज, वही कड़क, वही तूफान!' निकोदिम फोमीच ने इल्या पेत्रोविच से शरीफाना और दोस्ताना अंदाज में कहा। 'फिर तुम भड़क उठे, फिर तुम्हारा ज्वालामुखी फूट पड़ा! मैंने सीढ़ियों पर से सुना!'

'किसे परवाह है!' इल्या पेत्रोविच ने शब्दों को खींच कर शरीफाना लापरवाही से कहा और कुछ कागज ले कर, हर कदम पर अकड़ से कंधों को झटका देता हुआ दूसरी मेज पर चला गया। 'जरा तुम्हीं इस मामले को देखो : एक लेखक या छात्र या जो कभी छात्र रह चुका है, अपना कर्ज अदा नहीं करता, प्रोनोट लिख कर दे रखे हैं, कमरा खाली नहीं करता, और उसके खिलाफ लगातार शिकायतें आती रहती हैं, और ऊपर से उसे अपने सामने मेरे सिगरेट पीने पर भी एतराज है! खुद कमीनों जैसी हरकतें करते हैं हजरत, जरा इनकी सूरत तो देखो। ये हैं वह साहब, कैसी खूबसूरत शक्ल पाई है!'

'गरीबी कोई ऐब नहीं है दोस्त, लेकिन यह बड़ी आसानी से भड़क उठता है, बारूद की तरह, और मैं समझता हूँ कि किसी बात पर चिढ़ गया होगा। और शायद आप,' सुपरिंटेंडेंट रस्कोलनिकोव से बड़ी शिष्टता से बात कर रहा था, 'आपने भी बुरा माना होगा और अपने आपको काबू में न रख सके होंगे। लेकिन मैं आपको यकीन दिलाता हूँ साहब, बुरा मानने की कोई तुक नहीं थी, यह असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट आदमी बड़ा लाजवाब है। बस मिजाज का गर्म है, बहुत जल्दी भड़क उठता है! जल्दी भड़क उठता है, गुस्सा फूट पड़ता है और फिर तो जल कर राख हो जाता है! फिर थोड़ी ही देर में सब मामला ठंडा भी हो जाता है! बुनियादी तौर पर, दिल का हीरा आदमी है। रेजिमेंट में इसका नाम लोगों ने रख छोड़ा था : बारूदी लेफ्टिनेंट1...'

'और रेजिमेंट थी भी कैसी!' इल्या पेत्रोविच अपने मतलब की इस दोस्ताना छेड़छाड़ पर खुश हो कर चिल्लाया, हालाँकि उसका मुँह अब भी कुछ फूला हुआ था।


1. उसका असली नाम पोरोख था, जिसका अर्थ 'बारूद' होता है।


अचानक रस्कोलनिकोव का जी चाहा कि उन सबसे कोई खास तौर पर खुशगवार बात कहे।

'माफ कीजिएगा, कप्तान साहब,' उसने एकाएक निकोदिम फोमीच को संबोधित करके कहना शुरू किया, 'आप अपने आपको मेरी जगह पर रख कर देखिए, मैंने अगर कोई बदतमीजी की हो, तो मैं माफी माँगने को तैयार हूँ। मैं एक गरीब छात्र हूँ, बीमार और गरीबी से चकनाचूर।' (उसने 'चकनाचूर' शब्द का ही इस्तेमाल किया था।) 'अभी पढ़ाई भी नहीं कर रहा हूँ, क्योंकि आजकल मैं अपना खर्च तक नहीं चला सकता। लेकिन मुझे पैसा मिलनेवाला है... मेरी माँ और बहन रियाजान प्रांत में रहती हैं... वे मुझे पैसा भेजेंगी, तब मैं... भुगतान कर दूँगा। मेरी मकान-मालकिन दिल की बड़ी नेक औरत है, लेकिन मेरे ट्यूशन छूट जाने की वजह से और पिछले चार महीने से मुझसे कुछ न मिलने की वजह से इतनी तंग आ चुकी है कि मेरे लिए ऊपर खाना भेजना भी बंद कर दिया है ...और यह प्रोनोट तो एकदम मेरी समझ में नहीं आता। वह मुझसे इस प्रोनोट का भुगतान करने को कहती है। मैं कहाँ से अदा करूँ आप खुद ही फैसला कीजिए...'

'लेकिन हमें इससे कोई मतलब नहीं, समझे न,' बड़े बाबू ने अपनी राय दी।

'हाँ, आपकी यह बात मैं मानता हूँ। लेकिन मुझे पूरी बात समझाने का मौका दीजिए...' रस्कोलनिकोव ने फिर कहा। वह अभी तक निकोदिम फोमीच को संबोधित कर रहा था, लेकिन अपनी बात इल्या पेत्रोविच के कानों तक भी पहुँचा देने की कोशिश कर रहा था, हालाँकि वह लगातार अपने कागजात को उलटने-पुलटने में व्यस्त मालूम होता था और तिरस्कार के साथ उसकी ओर जरा-सा भी ध्यान नहीं दे रहा था। 'मैं आपको इतना बता दूँ कि मैं उसके यहाँ लगभग तीन साल से रह रहा हूँ, जब मैं एक कस्बे से आया तभी से, और शुरू में... शुरू-शुरू में... मेरे लिए यह बात मान लेने में बुराई ही क्या है, शुरू में मैंने उसकी बेटी से शादी करने का वादा भी किया था। मैंने जबानी वादा किया था, और अपनी मर्जी से किया था... अच्छी लड़की थी... सचमुच मुझे अच्छी लगती थी, हालाँकि मुझे उससे कोई प्यार नहीं था... सच पूछिए तो जवानी के जोश का मामला था... मेरे कहने का मतलब यह कि मेरी मकान-मालकिन उन दिनों मुझे बेझिझक कर्ज दिया करती थी, और मेरे दिन भी... मैं बहुत लापरवाही बरतता था...'

'आपकी निजी जिंदगी की ये बातें आपसे किसने पूछीं साहब, हमारे पास बेकार की बातों में खोटा करने के लिए वक्त नहीं है।' इल्या पेत्रोविच बड़ी रुखाई से और कुछ जोर दे कर बात काट कर बोला। रस्कोलनिकोव ने उसे गर्मजोशी से बीच में ही रोक दिया, हालाँकि अचानक उसे ऐसा लगा कि उसे बोलने में कठिनाई हो रही थी।

'लेकिन मुझे यह तो कहने दीजिए... कि यह सब कुछ कैसे हुआ... हालाँकि अपनी हद तक... आपकी यह बात मैं मानने को तैयार हूँ कि... यह गैर-जरूरी है। लेकिन एक साल हुआ वह लड़की टाइफस से मर गई। मैं पहले की तरह वहीं रहता रहा, और जब मेरी मकान-मालकिन घर बदल कर इस नई जगह में आई तो मुझसे कहा... और बड़े दोस्ताना ढंग से कहा... कि उसे तो मुझ पर पूरा भरोसा है पर फिर भी मैं एक सौ पंद्रह रूबल का प्रोनोट लिख कर दे दूँ, उस पूरी रकम का जो मेरी तरफ निकलती थी। उसने कहा कि अगर मैं यह प्रोनोट लिख कर दे दूँ, तो वह मुझ पर फिर जितना भी मैं चाहूँगा, कर्ज दे देगी, और यह कि वह तब तक उस प्रोनोट को हरगिज-हरगिज - ये खुद उसके शब्द थे - इस्तेमाल नहीं करेगी, जब तक कि मैं पैसा चुकाने की हालत में न हो जाऊँ... और अब, जबकि मेरे ट्यूशन छूट गए हैं और मेरे पास खाने तक को नहीं है, उसने मेरे ऊपर यह नालिश कर दी है। मैं इसे क्या कहूँ?'

'इस दर्दभरी दास्तान से हमें कोई सरोकार नहीं है,' इल्या पेत्रोविच बड़े रूखेपन से बीच में बोल पड़ा। 'आपको लिख कर पक्का वादा करना होगा; जहाँ तक आपके इश्क-मुहब्बत के किस्सों और इन दुख भरी दास्तानों का सवाल है, हमें उनसे कोई मतलब नहीं है।'

'जाने दो... तुम जरूरत से ज्यादा सख्ती कर रहे हो,' निकोदिम फोमीच ने मेज पर बैठते हुए बुदबुदा कर कहा और वह भी कुछ लिखने लगा। वह कुछ शर्मिंदा-सा लग रहा था।

'लिखो,' बड़े बाबू ने रस्कोलनिकोव से कहा।

'क्या लिखूँ?' उसने झल्ला कर पूछा।

'मैं बताता हूँ।'

रस्कोलनिकोव को लगा कि उसके भाषण के बाद बड़े बाबू उसके साथ ज्यादा बेरुखी और हिकारत के साथ पेश आ रहा था। लेकिन अजीब बात यह थी कि अचानक उसे लगा उसे किसी की राय की रत्ती भर भी परवाह नहीं रह गई थी। यह विरक्ति उसमें पलक झपकते, एक पल में, पैदा हो गई थी। अगर उसने जरा भी सोचने की कोशिश की होती तो उसे इस बात पर सचमुच ताज्जुब होता कि अभी एक ही मिनट पहले उन लोगों से वह उस तरह की बातें कर ही कैसे सका, उन पर ही भावनाएँ थोप कैसे सका फिर ये भावनाएँ भी पैदा कहाँ से हुई थीं अगर उस वक्त उस कमरे में पुलिस अफसरों की बजाय उसके अपने करीबी दोस्त-रिश्तेदार भी होते, तो उसके पास उनसे कहने के लिए इनसानोंवाली एक भी बात न होती। उसका दिल किस कदर खाली हो चुका था। उसकी आत्मा में चिरस्थायी अकेलापन और दुराव की संवेदना चेतन रूप धारण करती जा रही थी। उसके मन में यह विरक्ति पैदा होने की वजह न तो इल्या पेत्रोविच के सामने व्यक्त किए गए भावों की तुच्छता थी, और न ही उस पर एक पुलिस अफसर की विजय की तुच्छता। आह, लेकिन अब उसे स्वयं अपनी तुच्छता से, अहंकार की इन छोटी-मोटी बातों से, अफसरों से, जर्मन औरतों से, कर्जों से, पुलिस थानों से क्या लेना-देना था उस पल अगर उसे जिंदा जलाए जाने की सजा भी सुना दी जाती, तब भी वह विचलित न होता, वह सजा आखिर तक सुनता भी नहीं। उसे कुछ ऐसा हो रहा था, जो पहले कभी नहीं हुआ था, जो अचानक हो रहा था और जिससे वह एकदम परिचित नहीं था। ऐसा नहीं था कि वह इस बात को समझ रहा था, लेकिन संवेदना की भरपूर तीव्रता के साथ वह इस बात को साफ महसूस कर रहा था कि जिस तरह के उद्गार अभी कुछ देर पहले फूट पड़े थे, वह थाने के लोगों के आगे अब कभी उस तरह के भावुक उद्गारों का या किसी चीज का भी सहारा ले कर गिड़गिड़ा नहीं सकता था, और यह कि अगर वे पुलिस के अफसर न हो कर उसके अपने भाई-बहन होते तो भी किसी भी परिस्थिति में उनके सामने गिड़गिड़ाने का कोई सवाल नहीं उठता था। उसने पहले कभी ऐसी अजीब और भयानक संवेदना अनुभव नहीं की थी। पर सबसे अधिक दुखदायी बात यह थी कि यह एक संकल्पना या विचार की अपेक्षा एक संवेदना अधिक थी। एक प्रत्यक्ष संवेदना, अपने जीवन में उसने जितनी संवेदनाएँ झेली थीं उन सबसे अधिक दुखदायी!

बड़ा बाबू उसे बँधा-टँका बयान लिखाने लगा : कि वह अभी रकम अदा नहीं कर सकता, कि आगे चल कर यह रकम चुका देने का वादा करता है, कि वह शहर छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा, न अपनी जायदाद बेचेगा, न किसी के नाम करेगा, वगैरह-वगैरह।

'लेकिन तुमसे तो लिखा भी नहीं जा रहा है, कलम भी ठीक से नहीं पकड़ पा रहे हो,' बड़े बाबू ने बड़े कौतूहल से रस्कोलनिकोव को देखते हुए कहा। 'तबीयत ठीक नहीं है?'

'हाँ... और चक्कर भी आ रहा है... आप बोलते जाइए!'

'बस इतना ही। इस पर दस्तखत कर दो।'

बड़े बाबू ने कागज ले लिया, और किसी दूसरे काम की ओर ध्यान देने लगा।

रस्कोलनिकोव ने कलम लौटाया, लेकिन उठ कर चले जाने की बजाय अपनी कुहनियाँ मेज पर टिका दीं और हाथों से सर को कस कर थाम लिया। लग रहा था जैसे उसकी खोपड़ी में कोई कील ठोंक रहा है। अचानक एक अजीब विचार उसके मन में उठा, कि उठ कर फौरन निकोदिम फोमीच के पास जाए, कल जो कुछ हुआ था, सब साफ-साफ बता दे, फिर उसके साथ अपने कमरे पर जाए और उसे कोनेवाले खोखल में रखी हुई सारी चीजें दिखा दे। यह भाव इतना प्रबल था कि वह उसे पूरा करने के लिए अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। 'क्या यह न होगा कि एक पल इसके बारे में सोच लूँ' उसके दिमाग में बिजली की तरह यह विचार कौंधा। 'नहीं, बिना सोचे ही सारा बोझ उतार फेंकना अच्छा रहेगा!' लेकिन वह पत्थर की तरह उसी जगह गड़ा रह गया। निकोदिम फोमीच बड़ी तल्लीनता से इल्या पेत्रोविच से कुछ बातें कर रहे थे, और उनके शब्द उसके कानों तक पहुँचे :

'हो ही नहीं सकता ऐसा, दोनों छोड़ दिए जाएँगे। पहली बात यह कि सारी दलील अपनी काट खुद करती है। अगर यह काम उन्होंने किया होता तो दरबान को बुला कर क्यों लाते अपने खिलाफ मुखबिरी करने के लिए या आँख में धूल झोकने के लिए लेकिन यह तो हद से ज्यादा धूर्तता की बात होती! और फिर उस पेस्त्र्याकोव को दोनों दरबानों ने और एक औरत ने फाटक से अंदर आते हुए देखा था। वह तीन दोस्तों के साथ आया था, जिन्होंने उसे फाटक पर ही छोड़ा था, और उसने अपने दोस्तों के सामने दरबानों से किराए के किसी कमरे के बारे में पूछा था। सो तुम्हीं बताओ : अगर वह इस इरादे से जा रहा होता तो दरबानों से कमरे की बात पूछता जहाँ तक कोख का सवाल है, ऊपर बुढ़िया के यहाँ जाने से पहले वह नीचे आधे घंटे तक सुनार के यहाँ बैठा रहा और उसके यहाँ से वह ठीक पौने आठ बजे उठा। जरा सोचो...'

'लेकिन माफ कीजिएगा, अपने बयान में ये दोनों जो एक-दूसरे से उलटी बातें हैं, उनका क्या जवाब आपके पास है वे खुद कहते हैं कि उन्होंने दरवाजा खटखटाया और दरवाजा बंद था, लेकिन तीन मिनट बाद ही जब दरबान को ले कर ऊपर गए तो कुंडी खुली हुई थी।'

'असल बात यही तो है। हत्यारा वहीं होगा और दरवाजा अंदर से बंद कर रखा होगा। सो कोख अगर इतना बड़ा गधा न होता कि दरबान को खोजने खुद भी चला जाता तो वे लोग हत्यारे को पकड़ भी लेते। उसने जो वक्त बीच में मिला, उसका फायदा उठाया और नीचे उतर कर, किसी तरह उन्हें चकमा दे कर खिसक गया। कोख कसमें खा-खा कर कहता है : अगर मैं वहाँ मौजूद होता तो वह झपट कर बाहर निकलता और उसी कुल्हाड़ी से मुझे भी मार डालता। अब वह जान बचने पर चर्च में प्रसाद बँटवाएगा - ही-ही-ही!'

'और किसी ने हत्यारे को देखा तक नहीं?'

'उनका उसे न देखना कोई बड़ी बात नहीं है। वह जगह तो एकदम भानुमती का पिटारा है,' बड़े बाबू ने कहा। वह सारी बातें सुन रहा था।

'बात साफ है, एकदम साफ,' निकोदिम फोमीच ने जोश से अपनी बात दोहराई।

'नहीं बिलकुल साफ नहीं है,' गोया इल्या पेत्रोविच ने बात का निचोड़ पेश किया।

रस्कोलनिकोव अपना हैट उठा कर दरवाजे की ओर चला लेकिन वहाँ तक पहुँच नहीं पाया...

होश आया तो उसने देखा कि वह एक कुर्सी पर बैठा हुआ है, किसी ने दाहिनी ओर से उसे सहारा दे रखा है, एक दूसरा आदमी बाईं ओर पीले रंग के गिलास में पीले रंग का पानी लिए खड़ा है, और निकोदिम फोमीच सामने खड़ा उसे गौर से देख रहा है। वह कुर्सी से उठा।

'क्या बात है तबीयत खराब है क्या?' निकोदिम फोमीच ने कुछ तीखेपन से पूछा।

'दस्तखत करते वक्त कलम भी ठीक से पकड़ नहीं पा रहा था,' बड़े बाबू ने अपनी जगह बैठते हुए और अपना काम फिर से सँभालते हुए कहा।

'बहुत दिन से बीमार हो क्या?' इल्या पेत्रोविच जहाँ कुछ कागज उलट-पुलट कर देख रहा था, वहीं से ऊँची आवाज में बोल उठा। जब रस्कोलनिकोव बेहोश हुआ था, तब वह उसे देखने जरूर उठा था, लेकिन उसके होश आते ही वह फिर अपनी जगह वापस चला गया था।

'कल से,' रस्कोलनिकोव ने बुदबुदा कर जवाब दिया।

'कल तुम कहीं बाहर गए थे?'

'हाँ।'

'इस बीमारी की हालत में?'

'हाँ।'

'किस वक्त?'

'कोई सात बजे।'

'मैं क्या पूछ सकता हूँ कि कहाँ गए थे?'

'सड़क पर।'

'दो-टूक और साफ-साफ।'

रस्कोलनिकोव ने, जिसका रंग एकदम सफेद पड़ गया था, तीखे स्वर में, कुछ झटके के साथ जवाब दिए थे। इल्या पेत्रोविच के घूरने के बावजूद उसने अपनी जलती हुई काली-काली आँखें नहीं झुकाई थीं।

'उससे सीधे तो खड़ा हुआ नहीं जा रहा, और तुम...' निकोदिम फोमीच ने कुछ कहना शुरू किया।

'कोई बात नहीं,' इल्या पेत्रोविच ने कुछ अजीब ढंग से फैसला सुनाया। निकोदिम फोमीच कुछ और भी जोड़नेवाला था लेकिन बड़े बाबू पर एक नजर डालने के बाद, जो उसे नजरें जमाए घूर रहा था, वह कुछ नहीं बोला। कमरे में एक अजीब-सी खामोशी फैल गई थी।

'अच्छी बात है फिर,' इल्या पेत्रोविच ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, 'हम तुम्हें अब और ज्यादा नहीं रोकेंगे।'

रस्कोलनिकोव बाहर चला आया। वहाँ से जाते हुए उसने उन लोगों को बड़ी उत्सुकता से आपस में बातें करते हुए सुना; निकोदिम फोमीच की सवाल करती हुई आवाज सबकी आवाजों के ऊपर सुनाई दे रही थी। सड़क पर पहुँच कर उसकी बेहवासी एकदम दूर हो चुकी थी।

'तलाशी होगी, यकीनन तलाशी होगी,' उसने जल्दी-जल्दी घर की ओर कदम बढ़ाते हुए मन में दोहराया 'बदमाश कहीं के! उन्हें मुझ पर शक हो गया है!' एक बार फिर पहलेवाली दहशत ने आन दबोचा।

अपराध और दंड : (अध्याय 2-भाग 2)

'और अगर उस जगह की तलाशी हो भी चुकी हो तो मैं अपने कमरे पर पहुँचूँ और वे लोग वहाँ मौजूद हों तो?'

उसका कमरा आ गया था। उसमें कुछ भी नहीं था, कोई भी नहीं था। किसी ने उसमें झाँका तक नहीं था। नस्तास्या तक ने किसी चीज को हाथ नहीं लगाया था। लेकिन, हे भगवान, वह खोखल में उन सब चीजों को छोड़ कर चला कैसे गया था!

वह लपक कर कोने में पहुँचा, कागज के नीचे अपना हाथ डाला, सब चीजें बाहर निकालीं, और उन्हें अपनी जेबों में भर लिया। कुल मिला कर आठ नग थे : कान की बालियों या इसी तरह की किसी और चीज की दो छोटी-छोटी डिबियाँ - उसने ठीक से देखा भी नहीं; फिर चमड़े के चार छोटे-छोटे केस थे। एक जंजीर भी थी, जिसे अखबार के एक टुकड़े में यूँ ही लपेटा हुआ था। अखबार में ही लिपटी हुई एक और चीज थी, जो कोई तमगा मालूम होती थी...

उसने उन सब चीजों को अपने ओवरकोट की अलग-अलग जेबों में और अपने पतलून की बच रही दाहिनी जेब में रख लिया और इस बात की पूरी कोशिश की कि उन पर किसी की नजर न पड़े। बटुआ भी ले लिया। फिर दरवाजा खुला छोड़ कर वह कमरे से बाहर निकल गया।

वह जल्दी-जल्दी सधे कदमों के साथ चल रहा था। हालाँकि वह पूरी तरह टूटा हुआ महसूस कर रहा था पर उसकी सारी चेतनाएँ सजग थीं। पीछा किए जाने का डर लगा हुआ था; वह डर रहा था कि अभी आधे घंटे या पंद्रह मिनट में ही उसका पीछा करने का हुक्म जारी हो जाएगा, इसलिए उसे सारे सबूत उससे पहले ही, हर कीमत पर छिपा देने चाहिए। जब तक उसके शरीर में थोड़ी-बहुत ताकत बाकी थी, जब तक उसकी अक्ल थोड़ा-बहुत काम कर रही थी, उसे सब कुछ ठीक कर देना चाहिए... लेकिन वह जाए तो कहाँ

उसका इरादा बहुत पहले ही पक्का हो चुका था, 'उन्हें नहर में फेंक दूँगा, सारे सबूत पानी में छिप जाएँगे और किस्सा ही खत्म हो जाएगा।' यह फैसला उसने रात को सरसाम की हालत में ही कर लिया था, जब कई बार उसके दिल में यह जोश पैदा हुआ था कि उठे, चल दे और जल्दी-से-जल्दी उन सब चीजों से छुटकारा पा ले। लेकिन उनसे छुटकारा पाना टेढ़ी खीर निकला।

वह आधे घंटे तक या उससे भी ज्यादा समय तक एकतेरीनिंस्की नहर के किनारे टहलता रहा। उसने कई बार उन सीढ़ियों को देखा जो पानी की सतह तक चली गई थीं, लेकिन अपनी योजना पूरी करने की बात वह सोच भी नहीं सका। या तो सीढ़ियों के छोर पर कोई-न-कोई बेड़ा खड़ा होता था या औरतें वहाँ बैठी कपड़े धो रही होती थीं, या कोई न कोई नाव वहाँ लगी होती थीं, और हर जगह लोगों के झुंड मँडराते होते थे। इसके अलावा किनारे पर हर तरफ से उसे देखा जा सकता था और उसको पकड़ा जा सकता था। किसी का इरादा करके नीचे उतरना, वहाँ रुकना और पानी में कोई चीजें फेंकना शक पैदा कर सकता था। और अगर डब्बे डूबने की बजाय तैरते रहे तो वे तैरेंगे तो जरूर। हर कोई देखेगा। यूँ भी, जो उसे रास्ते में मिलता था वह उसे घूरता हुआ और गौर से उसे देखता हुआ ही मालूम होता था, गोया उसे उस पर नजर रखने के अलावा कोई काम न हो। 'ऐसा क्यों है या यह सिर्फ मेरा वहम है' उसने सोचा।

उसे आखिरकार यह बात सूझी कि नेवा नदी पर जाना ही सबसे सही होगा; वहाँ इतने सारे लोग नहीं होते, उस पर लोगों की नजर भी कम पड़ेगी, और वहाँ हर तरह से ज्यादा सुविधा रहेगी। सबसे बड़ी बात यह कि वह जगह और भी दूर थी। उसे ताज्जुब हो रहा था कि वह पूरे आधे घंटे तक इस खतरनाक जगह में परेशानी और चिंता में डूबा फिरता रहा और उसे यह बात नहीं सूझी! यह आधा घंटा उसने एक बेतुकी योजना में खो दिया था, महज इसलिए कि वह उसे सरसाम की हालत में सूझ गई थी! वह बदहवास होता जा रहा था और हर बात जल्दी ही भूल जाता था; उसे इस बात का एहसास हुआ। उसे अब जल्दी करनी ही होगी।

वह व. प्रॉस्पेक्ट से होता हुआ नेवा की ओर चला, लेकिन रास्ते में उसे एक और बात सूझ गई : 'नेवा की ओर क्यों? पानी में क्यों? क्या ज्यादा बेहतर यह न होगा कि कहीं और दूर निकल चलें, शायद द्वीपों की ओर, और वहाँ किसी सुनसान जगह पर, जंगल में या किसी झाड़ी में, इन चीजों को छिपा दें और पहचान के लिए उस जगह पर कोई निशान लगा दें' यूँ तो वह महसूस कर रहा था कि उसमें साफ-साफ कोई बात तय करने की क्षमता नहीं है, फिर भी उसे यह विचार बहुत जँचा।

लेकिन संयोग ने उसे वहाँ तक पहुँचने नहीं दिया। व. प्रॉस्पेक्ट से निकल कर चौक की तरफ आते वक्त उसे बाईं ओर एक गलियारा दिखाई दिया, जो दो सपाट दीवारों के बीच से हो कर एक दालान की ओर जाता था। दाहिनी ओर एक चौमंजिले मकान की सपाट, बिना पुती दीवार दालान में दूर तक चली गई थी। बाईं ओर उसके समानांतर लकड़ी का बड़ा-सा बाड़ा दालान में कोई बीस कदम की दूरी तक जा कर अचानक बाईं ओर को घूम गया था। यह जगह चारों ओर से घेर कर अलग कर दी गई थी और वहाँ हर तरह की फालतू चीज इधर-उधर पड़ी थी। दालान के सिरे पर, लकड़ी की बाड़ के पीछे से नीची छतवाली एक कालिख लगी पत्थर की इमारत झाँक रही थी। जो देखने से किसी कारखाने का हिस्सा मालूम होती थी। वह शायद किसी गाड़ी बनानेवाले या किसी बढ़ई का शेड था। फाटक से ले कर वहाँ तक हर जगह कोयले की गर्द बिछी थी। 'यहाँ फेंकने लायक कोई जगह होगी,' उसने सोचा। दालान में किसी को न देख कर वह चुपके से अंदर गया। फाटक के पास ही उसे लोहे की एक खुली नाली नजर आई, जैसी कि अकसर उन जगहों में होती है, जहाँ बहुत से मजदूर या कोचवान रहते हैं। उसके ऊपर लकड़ी के तख्ते पर खड़िया से वही युगों पुराना नारा लिखा हुआ था : 'यहाँ पेशाब करना मना है!' यह तो अच्छी बात थी, क्योंकि यहाँ अंदर जाने पर किसी को शक नहीं होगा। 'मैं सब कुछ यहीं कहीं इस ढेर में फेंक कर चुपचाप निकल जाऊँगा।'

जेब में अपना हाथ डाले हुए उसने एक बार फिर चारों ओर नजर दौड़ाई। दालान की दीवार के पास, फाटक और नाली के बीच की लगभग एक गज सँकरी जगह में एक बड़ा-सा अनगढ़ पत्थर पड़ा नजर आया, जिसका वजन शायद साठ पौंड रहा हो। दीवार की दूसरी ओर एक सड़क थी। उसे राहगीरों की आवाजें सुनाई दे रही थीं, जिनकी वहाँ कभी कोई कमी नहीं रहती थी, लेकिन जब तक वह सड़क से अंदर न आ रहा हो, जैसा कि किसी वक्त भी हो सकता था, उसे फाटक के पीछे कोई देख नहीं सकता था। इसलिए जल्दी जरूरी थी।

वह पत्थर पर झुका, उसका ऊपरी सिरा कस कर दोनों हाथों से पकड़ा और पूरी ताकत लगा कर उसे पलट दिया। पत्थर के नीचे, जमीन में एक छोटा-सा गड्ढा था और उसने अपनी जेबें फौरन उसमें खाली कर दीं। बटुआ सबसे ऊपर था। फिर भी गड्ढा पूरी तरह भरा नहीं। उसने एक बार फिर पत्थर को पकड़ कर हिलाया-डुलाया और उसे एक ही झटके में फिर सीधा कर दिया। पत्थर अब अपनी पहलेवाली हालत में आ गया, बस बहुत थोड़ा-सा ऊँचा हो गया था। लेकिन उसने उसके चारों ओर की मिट्टी खुरची और अपने पाँव से पत्थर के चारों ओर दबा दी। अब किसी को हरकत का कुछ भी सुराग नजर नहीं आ सकता था।

इसके बाद बाहर जा कर वह चौक की ओर मुड़ा। एक बार फिर पल भर के लिए उस पर बहुत गहरा, लगभग असहनीय आनंद छा गया, जैसा कि थाने में हुआ था। 'मैंने सारे सुराग दफन कर दिए हैं! पत्थर के नीचे देखने की बात भला किसके दिमाग में आएगी शायद जबसे यह घर बना है, यहीं पड़ा है और इतने ही बरसों तक अभी और पड़ा रहेगा। अगर पता लग भी गया तो मुझ पर किसे शक होगा सारा किस्सा खलास रहा! कोई सुराग बाकी नहीं!' वह हँसा। आगे भी उसे याद रहा कि उसने एक महीन-सी, घबराई हुई, बिना आवाज की हँसी हँसना शुरू किया था और चौक पार करते हुए पूरे वक्त इस तरह हँसता रहा था। लेकिन क. बुलेवार पर पहुँच कर, जहाँ दो दिन पहले वह लड़की उसे मिली थी, उसकी हँसी अचानक रुक गई। दिमाग में धीरे-धीरे दूसरे विचार आने लगे। उसे लगा उस बेंच के सामने से गुजरते उसे घिन आएगी, जिस पर लड़की के चले जाने के बाद वह बड़ी देर तक बैठा सोचता रहा था, और उस गलमुच्छोंवाले सिपाही से मिल कर भी बड़ी नफरत होगी, जिसे उसने बीस कोपेक दिए थे : 'भाड़ में जाए!'

वह विक्षिप्त हो कर खाली दिमाग अपने चारों ओर देखता हुआ चलता रहा। लग रहा था उसके सारे विचार किसी एक ही बिंदु के चारों ओर चक्कर काट रहे हैं। उसे महसूस हुआ कि सचमुच एक ऐसा बिंदु है और यह कि अब, इस समय वह उसी बिंदु के सामने खड़ा है। पिछले दो महीनों में ऐसा पहली बार हुआ था।

'भाड़ में जाए सब कुछ!' एकाएक अदम्य क्रोध में भर कर उसने सोचा। 'जो कुछ अब शुरू हो चुका है, शुरू हो चुका है। उस पर भी भेजो लानत और एक नई जिंदगी पर भी। हे भगवान, कैसी नादानी है! ...मैं भी आज कैसे-कैसे झूठ बोल गया! कैसे घिनौने ढंग से मैंने उस कमबख्त इल्या पेत्रोविच की खुशामद की! यह सब कुछ बेवकूफी ही तो थी। मुझे उन सब लोगों की, उनकी खुशामद करने की अब क्या परवाह! नहीं-नहीं, बात यह है ही नहीं!'

अचानक वह रुक गया। एक नया, बिलकुल अप्रत्याशित और बेहद सीधा-सादा सवाल उसे परेशान करने लगा और उसे बुरी तरह उलझन में डाल दिया :

'यह सब कुछ अगर बूझ-समझ कर किया गया था, न कि मूर्खों की तरह, अगर सचमुच मेरा कोई निश्चित और पक्का मकसद था, तो फिर क्या वजह भी इसकी कि मैंने बटुए में भी झाँक कर नहीं देखा और मुझे यह भी नहीं मालूम कि उसके अंदर था क्या, जिसके लिए मैंने ये सारी तकलीफें सहीं और जान-बूझ कर इस नीच, गंदे और घिनौने काम का बीड़ा उठाया मैं उस बटुए को और उसके साथ ही उन सारी चीजों को फौरन पानी में फेंक भी देना चाहता था, जिन्हें मैंने ठीक से देखा तक नहीं था... क्या वजह थी इसकी?'

फिर भी मामला ऐसा ही था। वैसे ये सारी बातें उसे पहले से मालूम थीं; उसके लिए यह कोई नया सवाल नहीं था, उस वक्त भी नहीं, जब रात को किसी झिझक या किसी दुविधा के बिना उसे पानी में फेंकने का फैसला किया गया था, गोया ऐसा ही होना चाहिए, गोया इसके अलावा कुछ और हो ही न सकता हो। हाँ, उसे यह सब कुछ मालूम था, और उसने यह सब कुछ अच्छी तरह समझ लिया था। यह सब कुछ तो पक्के तौर पर कल उसी वक्त तय हो गया था, जब वह बक्स पर झुका हुआ उसमें से गहनों की डिब्बियाँ निकाल रहा था... बिलकुल यही बात थी...

'इस सबकी वजह यह है कि मैं बहुत बीमार हूँ,' आखिरकार उसने उदास मन से फैसला किया। 'मैं चिंता करता रहा हूँ, अंदर-ही-अंदर कुढ़ता रहा हूँ और यह भी नहीं जानता कि कर क्या रहा हूँ... कल और परसों और इस पूरे दौरान मैं अपने आपको चिंता की आग में जलाता रहा हूँ... मैं ठीक हो जाऊँगा और मैं चिंता नहीं करूँगा... लेकिन अगर मैं बिलकुल ही ठीक न हुआ तो हे भगवान, मैं इस सबसे कितना तंग आ चुका हूँ!'

यह बिना रुके चलता रहा। उसका जी बेहद चाह रहा था कि ध्यान बँटाने के लिए कोई चीज मिल जाए, लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, किस बात की कोशिश करे। हर पल एक नई, बहुत ही शक्तिशाली संवेदना उसे अधिकाधिक अपने शिकंजे में कस रही थी। यह थी अपने चारों ओर की हर चीज से अथाह, और लगभग शारीरिक विरक्ति नफरत की एक जड़ और घिनौनी भावना। जो भी उसे दिखाई देता था, वही उसे घिनौना मालूम होता था-उसे उसकी सूरत से, उसकी चाल-ढाल से, उसके हाव-भाव से घिन आती थी। लग रहा था कि उनमें से कोई अगर उसे संबोधित करता, तो वह उसके मुँह पर थूक देता, या उसे काट भी खाता...

वसील्येव्स्की ओस्त्रोव में छोटी नेवा के किनारे पहुँच कर पुल के पास वह अचानक रुक गया। 'वह तो यहीं रहता है, इसी घर में,' उसने सोचा, 'हे भगवान, मैं रजुमीखिन के यहाँ तो नहीं पहुँच गया लो, फिर वह सिलसिला शुरू... काश मुझे मालूम होता कि मैं यहाँ जान-बूझ कर आया हूँ खैर, कोई बात नहीं। मैंने अभी परसों ही तो कहा था कि उससे मिलने मैं उसके बादवाले दिन जाऊँगा; तो अब जा कर उससे मिल ही क्यों न आऊँ'

वह चौथी मंजिल पर रजुमीखिन के कमरे तक गया और रजुमीखिन को उसके दड़बे में ही देखा। वह उस समय बड़ी एकाग्रता से कुछ लिख रहा था। दरवाजा उसने खुद खोला। वे दोनों चार महीने से एक-दूसरे से नहीं मिले थे। रजुमीखिन एक झीना, फटीचर ड्रेसिंग गाउन और अपने नंगे पाँवों में चप्पलें पहने बैठा था। बिखरे हुए बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, लगता था उसने मुँह-हाथ भी नहीं धोया है; उसके चेहरे से हैरत टपक रही थी।

'तुम हो!' वह चिल्लाया। उसने अपने साथी को सर से पाँव तक देखा, फिर कुछ देर रुक कर सीटी बजाई।

'ऐसी कंगाली आ गई! यार, तुमने तो हम सबको मात कर दिया!' उसने रस्कोलनिकोव के तार-तार कपड़ों को देखते हुए आगे कहा। 'आओ बैठो, एकदम थके हुए लगते हो।' फिर जब वह मोमजामा मढ़े हुए सोफे में धँस कर बैठ गया, जिसकी हालत उसके अपने सोफे से भी बदतर थी, तब रजुमीखिन ने अचानक देखा कि उसका मेहमान बीमार है।

'कुछ खबर भी है कि तुम बहुत बीमार हो' उसने उसकी नब्ज देखते हुए कहना शुरू किया। रस्कोलनिकोव ने अपना हाथ खींच लिया।

'कोई बात नहीं,' वह बोला, 'मैं यहाँ आया था; बात यह है कि मेरे पास कोई ट्यूशन नहीं है... मैं चाहता था... नहीं, दरअसल मुझे पढ़ाने का काम नहीं चाहिए...'

'लेकिन, तुम्हें सरसाम हो गया है, कुछ पता भी है!' रजुमीखिन ने उसे गौर से देखते हुए अपना विचार व्यक्त किया।

'नहीं, सरसाम नहीं है।' रस्कोलनिकोव उठ खड़ा हुआ। रजुमीखिन के कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ते समय उसने यह तो नहीं सोचा था कि अपने दोस्त से उसका आमना-सामना होगा। अब पलक झपकते वह समझ गया था कि उस पल जो चीज वह सबसे कम चाहता था, वह यह थी कि दुनिया में किसी से भी उसका सामना न हो। उसका पित्त खौलने लगा। रजुमीखिन के कमरे की चौखट पार करते ही उसे अपने आप पर इतना गुस्सा आया कि दम घुटने लगा।

'तो मैं चला, फिर मिलेंगे,' उसने एकाएक कहा और दरवाजे की ओर चल दिया।

'ठहरो! तुम भी अजीब आदमी हो!'

'मेरा जी नहीं चाहता,' रस्कोलनिकोव ने फिर अपना हाथ खींचते हुए कहा।

'तो फिर कमबख्त यहाँ आए क्यों थे? पागल हुए हो क्या? अरे, यह तो... सरासर मेरे मुँह पर तमाचा है! मैं तुम्हें इस तरह नहीं जाने दूँगा।'

'खैर, बात यह है कि मैं तुम्हारे पास इसलिए आया था कि तुम्हारे अलावा मैं ऐसे किसी दूसरे को नहीं जानता जो मेरी मदद कर सके... शुरुआत के लिए चूँकि तुम औरों से ज्यादा नेक हो, मेरा मतलब है समझदार हो, और भले-बुरे की परख कर सकते हो... और अब मैं समझता हूँ कि मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। सुन रहे हो न कुछ भी नहीं... न किसी की मदद... न किसी की हमदर्दी। मैं खुद... बस खुद... अकेला। खैर, बहुत हो चुका! मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।'

'पल-भर तो ठहर, बाँगड़ू! तू तो बिलकुल पागल है। वैसे तुम्हारी मर्जी, मेरा क्या। बात यह है कि मेरे पास भी कोई ट्यूशन नहीं है, और मुझे इसकी परवाह भी नहीं है, लेकिन किताबें बेचनेवाला एक आदमी है, खेरुवीमोव... उसने ट्यूशनों की कमी पूरी कर दी है। उसे छोड़ कर तो मैं सेठों के घर पाँच-पाँच बच्चों के ट्यूशन भी न लूँ।' वह प्रकाशन का थोड़ा-बहुत काम करता है। प्रकृति विज्ञान की छोटी-छोटी किताबें भी छापता है, और क्या बिक्री होती है उनकी! उनके नाम पढ़ कर ही पैसे वसूल हो जाते हैं! तुम हमेशा कहा करते थे कि मैं बेवकूफ हूँ, लेकिन भगवान जानता है मेरे यार कि इस दुनिया में मुझसे भी बड़े बेवकूफ पड़े हैं! अब वह भी प्रगतिशील बनने की सोच रहा है, इसलिए नहीं कि उसे किसी रुझान का पता है, बल्कि, दरअसल मैं ही उसे उकसाता रहता हूँ। ये रहे मूल जर्मन पुस्तक के दो फरमे - मेरी राय में इससे भोंडी धूर्तता नहीं हो सकती : इसमें इस सवाल पर बहस की गई है कि क्या औरत इनसान है और बड़े कायदे के साथ साबित किया गया है कि वह है। खेरुवीमोव नारी-समस्या के समाधान में अपने योगदान के रूप में इसे प्रकाशित करनेवाला है। मैं इसका अनुवाद कर रहा हूँ; वह इन ढाई फरमों को फैला कर छह देगा; हम लोग इसका कोई भारी-भरकम नाम, कोई आधे पन्ने का रख देंगे और आधे रूबल में किताब हाथों-हाथ बिक जाएगी। वह मुझे एक फरमे के छह रूबल देता है, इस तरह पूरे काम के पंद्रह रूबल बनते हैं, और छह रूबल मुझे पेशगी मिल चुके हैं। इस काम के खत्म होने के बाद हम लोग ह्वेल मछलियों के बारे में एक किताब का अनुवाद शुरू करनेवाले हैं, और फिर स्वीकारोक्तियाँ1, भाग दो में से कुछ बेहद नीरस किस्से, जो हमने अनुवाद करने के लिए छाँट लिए हैं। किसी ने खेरुवीमोव को बता दिया है कि रूसो बहुत कुछ रदीश्चेव2 जैसा आदमी था। और जाहिर है मैं उसकी किसी बात का खंडन नहीं करता। मेरी बला से! तुम 'क्या औरत इनसान है' का दूसरा फरमा करना चाहोगे अगर चाहो तो मूल जर्मन, कलम और कागज लेते जाओ... यह सब कुछ वहीं से मिलता है, और तीन रूबल भी लेते जाओ क्योंकि मुझे शुरू में पूरे काम के पेशगी छह रूबल मिले थे - तुम्हारे हिस्से के तीन रूबल बनते हैं। तुम जब यह फरमा पूरा कर लोगे तो तुम्हें तीन रूबल और मिलेंगे। अब मेहरबानी करके यह न समझना कि मैं तुम्हारे ऊपर कोई एहसान कर रहा हूँ। बात बल्कि उलटी है। जैसे ही तुमने अंदर कदम रखा था, मैंने सोच लिया था, मुझे तुमसे क्या मदद लेनी है। पहली बात तो यह है कि मेरे स्पेलिंग कमजोर है, और दूसरे, जर्मन भाषा में भी बिलकुल भटक जाता हूँ, इसलिए अनुवाद करते-करते बीच-बीच में ज्यादातर अपनी तरफ से ही घुसेड़ता जाता हूँ। तसल्ली की बात बस यह है कि वह मूल से सब यकीनन अच्छा ही होता होगा। लेकिन कौन जाने, शायद वह बेहतर नहीं बल्कि बदतर ही हो... ले जाओगे... या नहीं?'


1. ज्यॉ जाक रूसो की आत्मकथा।

2. अलेक्सांद्र रदीश्चेव (1749-1820) : रूसी लेखक, भूदास प्रथा का आलोचक।


रस्कोलनिकोव ने चुपचाप जर्मन रचना के पन्ने ले लिए, तीन रूबल भी ले लिए, और कुछ कहे बिना बाहर निकल गया। रजुमीखिन अचरज से उसे जाते हुए, एकटक देखता रहा। लेकिन रस्कोलनिकोव अगली सड़क पर पहुँच कर वापस लौटा, रजुमीखिन के कमरे की सीढ़ियाँ फिर चढ़ा, और जर्मन लेख और तीन रूबल मेज पर रख कर फिर बाहर चला आया। इस बार भी उसने कोई शब्द नहीं कहा।

'कुछ दीवाने तो नहीं हो गए?' रजुमीखिन आखिरकार गुस्से में आ कर जोर से चिल्लाया। 'यह क्या नाटक है! तुम मुझे भी पागल बना दोगे... कमबख्त, मेरे पास फिर आए ही क्यों थे?'

'मुझे नहीं चाहिए... कोई अनुवाद का काम,' रस्कोलनिकोव ने सीढ़ियों पर से बुदबुदा कर कहा।

'तो फिर कमबख्त, क्या चाहिए तुम्हें?' रजुमीखिन ने ऊपर से चिल्ला कर कहा। रस्कोलनिकोव चुपचाप सीढ़ियाँ उतरता रहा।

'अरे, सुनो! कहाँ रहते हो तुम?'

कोई जवाब नहीं मिला।

'जाओ, फिर भाड़ में जाओ!'

लेकिन अब तक रस्कोलनिकोव सड़क पर पहुँच चुका था। निकोलाएव्स्की पुल पर पहुँच कर उसे एक अप्रिय घटना की वजह से फिर जा कर पूरी तरह होश आया। एक कोचवान ने उस पर तीन-चार बार चीखने के बाद उसकी पीठ पर एक चाबुक जोर से जड़ दी, क्योंकि वह उसके घोड़े की टापों के नीचे कुचलते-कुचलते बचा था। चाबुक पड़ते ही वह गुस्से से ऐसा तिलमिला उठा कि झपट कर सीधे पुल के कगार की तरफ जा पहुँचा। वह न जाने क्यों गाड़ियों की उस आवाजाही में पुल के बीचोंबीच चल रहा था। गुस्से से वह दाँत पीसने लगा। जाहिर है उसने लोगों को हँसने का सामान थमा दिया था।

'अच्छा हुआ!'

'बदमाश!'

'पुरानी तिकड़म है, नशे में होने का बहाना करो और जान-बूझ कर पहियों के नीचे आ जाओ ताकि हर्जाने का दावा कर सको।'

'धंधा बना लिया है, यही काम है इसका।'

वह कगार के पास खड़ा गुस्से से, भौंचक्का हो कर दूर जाती हुई गाड़ी को देख रहा था, और अपनी पीठ सहला रहा था कि इतने में उसने किसी को अपने हाथ में कुछ पैसे रखते महसूस किया। उसने देखा सर पर रूमाल बाँधे और पाँवों में बकरी की खाल के जूते पहने एक अधेड़ उम्र की औरत थी; उसके साथ एक लड़की थी, शायद उसकी बेटी होगी, जो हैट लगाए हुए थी और हरे रंग की छतरी लिए थी। 'ले, भले आदमी, मसीह के नाम पर ये ले!' उसने पैसे ले लिए और वे दोनों आगे बढ़ गईं। बीस कोपेक का सिक्का था। उसके कपड़ों और सूरत-शक्ल से लोगों ने उसे सड़क का भिखारी समझा होगा। तो बीस कोपेक का यह दान उसे चाबुक खा कर मिला था, जिसकी वजह से उन्हें उस पर दया आ गई थी।

सिक्के को अपनी मुट्ठी में बंद करके वह दस कदम चला, और फिर मुड़ कर नेवा नदी की ओर मुँह करके खड़ा हो गया और शरद महल की ओर देखने लगा। आसमान पर एक भी बादल नहीं था और नदी का पानी गहरा नीला लग रहा था, जो कि नेवा नदी में कभी-कभार होता है। गिरजाघर का गुंबद, जिसका सबसे अच्छा दृश्य छोटे गिरजाघर से कोई बीस कदम दूरी पर पुल से दिखाई देता है, धूप में चमक रहा था और साफ हवा में उसकी सजावट की एक-एक तफसील अलग-अलग पहचानी जाती थी। चाबुक की मार का दर्द दूर हो गया और रस्कोलनिकोव उसके बारे में भूल भी गया। इस समय उसके दिमाग पर एक बेचैन करनेवाला विचार पूरी तरह छाया हुआ था। जो पूरी तरह स्पष्ट भी नहीं था। वह शांत खड़ा, देर तक टकटकी बाँधे क्षितिज को घूरता रहा। इस जगह से वह बखूबी परिचित था। जब वह यूनिवर्सिटी में पढ़ता था, तब सैकड़ों बार आम तौर पर अपने घर जाते हुए - इस जगह शांत खड़ा रह कर इस भव्य दृश्य को टकटकी बाँधे देखता रहता था। यह दृश्य उसके अंदर एक अस्पष्ट-सी, रहस्यमयी भावना पैदा करता था, जिस पर वह हमेशा ही आश्चर्य करता रहता था। उसे देख कर उस पर एक विचित्र उदासीनता छा जाती थी; यह शानदार रंगारंग चित्र उसे गूँगा और बेजान लगता था। हर बार उसे अपने मन पर पड़नेवाली इस धुँधली, रहस्यमयी छाप पर हैरत होती थी, और अपने आप पर विश्वास न करके वह इसका कारण जानने का काम फिर कभी के लिए टाल देता था। अब उसे अपनी पुरानी शंकाएँ और उलझनें साफ-साफ याद आ रही थीं और उसे लग रहा था कि इस समय उनका याद आना केवल संयोग नहीं था। यह बात उसे कुछ अजीब और बेतुकी लग रही थी कि वह पहले की ही तरह ठीक उसी जगह आ कर रुका था, गोया उसने यह कल्पना की हो कि वह उन्हीं विचारों को सोच सकेगा, उन्हीं मान्यताओं और चित्रों में दिलचस्पी ले सकेगा जिनमें... थोड़े समय पहले ही... उसे दिलचस्पी थी। यह बात उसे कुछ हास्यास्पद लगी पर फिर भी उसका दिल तड़प उठा। तब उसे यह सब कुछ बहुत दूर गहराई में, कहीं उसके पाँवों के नीचे ही, आँखों से ओझल मालूम हो रहा था। उसका सारा अतीत, पुराने विचार, पुरानी समस्याएँ और मान्यताएँ, पुरानी स्मृतियाँ और यह चित्र, और वह स्वयं-सब कुछ। ...उसे लगा वह ऊपर की ओर उड़ा चला जा रहा है और आँखों से हर चीज ओझल होती जा रही है... अनजाने ही हाथ को हवा में घुमाते हुए, उसे अचानक मुट्ठी में बंद उस सिक्के की याद आई। उसने मुट्ठी खोल दी, कुछ देर सिक्के को घूरता रहा, और फिर जोर-से बाँह घुमा कर उसे पानी में फेंक दिया। फिर वह मुड़ा और घर की ओर चल पड़ा। उसे लग रहा था उस पल उसने अपने आपको हर आदमी से और हर चीज से चाकू से काट कर अलग कर लिया है।

जब वह घर पहुँचा तो दिन ढल रहा था। इसका मतलब है कि वह छह घंटे तक चला होगा। कैसे और कहाँ-कहाँ हो कर वह वापस आया, यह सब उसे याद नहीं था। कपड़े उतार कर बुरी तरह काँपता हुआ, वह सोफे पर लेट गया। हालत दौड़ा-दौड़ा कर निढाल कर दिए गए घोड़े जैसी हो रही थी। उसने अपना ओवरकोट ओढ़ लिया और फौरन फरामोशी के गर्त में डूब गया...

शाम ढल रही थी, जब वह एक भयानक चीख सुन कर जाग उठा। हे भगवान, कैसी भयानक चीख थी! ऐसी अजीब आवाजें, ऐसी चीख-पुकार, ऐसा रोना-पीटना, ऐसी मार-पीट, ऐसे आँसू, ऐसे लात-घूँसे और ऐसी गालियाँ उसने पहले कभी नहीं सुनी थीं। ऐेसे जंगलीपन, ऐसे जुनून की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। दहशत के मारे वह उठ कर पलँग पर बैठ गया, और तीखे दर्द के मारे उस पर बेहोशी-सी छाने लगी। लेकिन लड़ने, रोने और गाली-गलौज की आवाज तेज होती जा रही थी। फिर वह अपनी मकान-मालकिन की आवाज पहचान कर हक्का-बक्का रह गया। वह दहाड़ें मार कर चिल्ला रही थी, चीख रही थी और रो-रो कर तेजी से जल्दी-जल्दी उखड़े-उखड़े शब्दों में कुछ कह रही थी। इसलिए वह क्या कह रही है, उसकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। यह तो जाहिर था कि वह गिड़गिड़ा रही थी कि उसे पीटा न जाए, क्योंकि उसे सीढ़ियों पर बड़ी बेरहमी से पीटा जा रहा था। जो आदमी उसे मार रहा था उसकी आवाज चिढ़ और क्रोध के कारण इतनी भयानक हो गई थी कि मेंढक की टर्र-टर्र जैसी लग रही थी। लेकिन वह भी उतनी ही तेजी से, उतने ही अस्पष्ट ढंग से, जल्दी-जल्दी और हकला-हकला कर कुछ कह रही थी। एकाएक रस्कोलनिकोव सिहर उठा। इल्या पेत्रोविच यहाँ! और वह मकान-मालकिन को मार रहा था! वह उसे ठोकरों से मार रहा था और उसका सर सीढ़ियों पर पटक रहा था, रोने की और धड़-धड़ की आवाजों से इतना तो पता चल ही रहा था। बात क्या है, सारी दुनिया यूँ उलट-पुलट क्यों होती जा रही है सभी मंजिलों और सभी सीढ़ियों पर उसे झुंड के झुंड लोगों के भागने की आवाज सुनाई दे रही थी। उसे लोगों के बोलने की, भय और आश्चर्य से चिल्लाने की, टकराने की और दरवाजे भड़भड़ाने की आवाजें आ रही थीं। 'लेकिन क्यों, आखिर क्यों और यह सब हुआ कैसे?' उसने कई बार दोहराया और सचमुच सोचने लगा कि वह पागल हो गया है। लेकिन नहीं, उसने एकदम साफ सुना था! और फिर इसके बाद वे लोग उसके पास आएँगे, 'क्योंकि इसमें कोई शक ही नहीं है... कि यह सब कुछ उसी सिलसिले में है... कल के बारे में... हे भगवान!' उसने अपने दरवाजे की कुंडी चढ़ा ली होती, लेकिन वह तो अपना हाथ भी नहीं उठा पा रहा था... और इससे फिर फायदा ही क्या था! दहशत ने उसके दिल को अपने शिकंजे में जकड़ लिया, जैसे बर्फ की सिल के अंदर कोई चीज जम गई हो। खौफ उसे दहलाता रहा और वह चेतनाशून्य हो गया। आखिर कोई दस मिनट के बाद धीरे-धीरे यह सारा शोर-गुल ठंडा पड़ने लगा। मकान-मालकिन सिसक-सिसक कर रो रही और कराह रही थी; इल्या पेत्रोविच अब भी उसे धमका रहा था और गालियाँ दे रहा था। लेकिन, आखिरकार लगा कि वह भी शांत हो गया। अब उसकी आवाज नहीं सुनाई पड़ रही थी। 'चला गया क्या चलो, जान छूटी!' हाँ, और मकान-मालकिन भी अब जा रही है। वह अभी भी रो रही है, बिलख रही है... फिर उसका दरवाजा भी धड़ से बंद हो गया। ...अब भीड़ सीढ़ियों से अपने-अपने कमरों की ओर जा रही थी; लोग जोर-जोर से बोल रहे थे, आपस से बहसें कर रहे थे, एक-दूसरे को पुकार रहे थे। कभी उनकी आवाज ऊँची हो कर चीख की शक्ल ले लेती थी, और कभी इतनी धीमी हो जाती थी कि लगता था वे कानाफूसी कर रहे हैं। बहुत से लोग रहे होंगे - उस मकान में रहनेवाले लगभग सभी लोग। 'लेकिन, हे भगवान, यह हो कैसे सकता है और वह यहाँ आया क्यों था, किसलिए?'

कमजोरी के मारे रस्कोलनिकोव सोफे पर दराज हो गया, लेकिन अपनी आँखें नहीं बंद कर सका। ऐसी वेदना से, अपार भय की ऐसी असहनीय अनुभूति से तड़पता हुआ, जैसी उसने पहले कभी अनुभव नहीं की थी, वह आधे घंटे तक सोफे पर पड़ा रहा। अचानक उसकी कोठरी में एक तेज रोशनी चमकी। नस्तास्या एक हाथ में मोमबत्ती और दूसरे में सूप की प्लेट ले कर आई थी। उसे ध्यान से देख कर और इस बात का भरोसा करके कि वह सो नहीं रहा है, उसने मोमबत्ती मेज पर रख दी और जो कुछ लाई थी, उसे मेज पर सजाने लगी-रोटी, नमक, प्लेट और चम्मच।

'मैं महसूस करती हूँ कि तुमने कल से कुछ खाया नहीं। दिन-भर इधर-उधर मारे फिरे हो, और बुखार से सारा बदन कैसा बुरी तरह काँप रिया है।'

'नस्तास्या... वे लोग मकान-मालकिन को पीट क्यों रहे थे?'

नस्तास्या ने उसे घूर कर देखा।

'उसको पीटा कौन?'

'अभी... असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट इल्या पेत्रोविच ने, कोई आधा घंटा हुआ, सीढ़ियों पर... उसके साथ वह क्यों इतनी बुरी तरह पेश आ रहा था, और... यहाँ क्यों आया था'

नस्तास्या ने कुछ कहे बिना आँखें, सिकोड़ कर उसे ऊपर से नीचे तक देखा, और देर तक देखती रही। उसकी तीखी नजरों के आगे वह बेचैनी-सी महसूस करने लगा, बल्कि उसे उससे कुछ हौल-सा लगने लगा।

'नस्तास्या, तुम कुछ बोलती क्यों नहीं' उसने आखिरकार कमजोर आवाज में, डरते-डरते पूछा।

'खून का मामला होता है,' आखिर उसने बहुत धीमे से जवाब दिया, गोया अपने आपसे कुछ कह रही हो।

'खून कैसा खून?' दीवार की ओर सरकते हुए वह बुदबुदाया। रंग बिलकुल सफेद पड़ गया था। नस्तास्या अब भी कुछ बोले बिना एकटक उसे देखे जा रही थी।

'मकान-मालकिन को कोई भी पीट नहीं रहा था,' आखिरकार उसने सधी हुई, भरपूर आवाज में कहा।

रस्कोलनिकोव नजरें जमाए उसे घूरता रहा। उसे साँस लेने में कठिनाई हो रही थी।

'खुद सुना था मैंने... सो नहीं रहा था मैं... उठ कर बैठा हुआ था,' उसने और भी दबी जबान में डरते-डरते कहा। 'बड़ी देर तक मैंने सुना... असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट आया था... सभी घरों से लोग भाग कर सीढ़ियों पर आ गए थे...'

'यहाँ तो कोई भी नहीं आएला, बस तुम्हारा खून बोलने रहा है। उसे जब निकासी का कोई रास्ता नहीं मिलेंगा और वह जम जाएला है तब ऐसा ही होएला है। तुम यह सब अपना मन में सोचेला है... कुछ खाएगा?'

उसने कोई जवाब नहीं दिया। नस्तास्या अब भी उसके ऊपर झुकी खड़ी थी और उसे गौर से देख रही थी।

'मुझे पीने को कुछ दे दो... नस्तास्या।'

वह नीचे गई और चीनी के सफेद मग में पानी ले आई। लेकिन इसके बाद क्या हुआ, उसे कुछ भी याद नहीं रहा। रस्कोलनिकोव को बस इतना याद था कि उसने एक घूँट पानी पिया था और कुछ पानी अपने सीने पर छलका दिया था। इसके बाद वह फिर फरामोशी की गोद में चला गया।

अपराध और दंड : (अध्याय 2-भाग 3)

लेकिन बीमारी के पूरे दौर में वह चेतनाशून्य रहा हो, ऐसी बात नहीं थी। उसे तेज बुखार था, कभी सरसाम की हालत भी हो जाती थी, कभी नीम-बेहोशीवाली हालत रहती थी। बाद में उसे उस समय की बहुत-सी बातें याद रह गईं। कभी लगता उसके चारों ओर बहुत-से लोग थे; उसे कहीं ले जाना चाहते थे, उसके बारे में काफी बहस हुई और काफी झगड़ा हुआ। फिर वह कमरे में अकेला रह जाता था; सब लोग उससे डर कर चले जाते थे और बीच-बीच में दरवाजे को थोड़ा-सा खोल कर उसे देख लेते थे। वे उसे धमकाते थे, मिल कर कोई साजिश करते थे, हँसते और उसे मुँह चिढ़ाते थे। उसे याद आता कि नस्तास्या अकसर इसके बिस्तर के पास होती थी। वह एक और शख्स को भी पहचानता था, जिसके बारे में उसे लगता था कि वह उसे बहुत अच्छी तरह जानता था, पर उसे यह याद नहीं आता था कि वह कौन था। इस बात पर वह बहुत झुँझलाता था और रो भी पड़ता था। कभी लगता कि वह महीने भर से वहाँ पड़ा था; और फिर लगने लगता कि वही दिन है। उसकी उस बात की उसे कोई याद नहीं थी; फिर भी वह हर पल महसूस करता था कि वह कोई ऐसी बात भूल गया है, जो उसे याद रहनी चाहिए थी। याद करने की कोशिश में वह परेशान हो जाता था, अपने आपको यातना देता था, कराहता था, गुस्से में भड़क उठता था या भयानक असहनीय आतंक से दब जाता था। तब वह उठने के लिए पूरा जोर लगाता था, भाग जाना चाहता था, लेकिन हर बार कोई उसे जबरन रोक लेता था, और वह फिर बेहद कमजोरी और बेहोशी का शिकार हो जाता था। आखिरकार उसे काफी हद तक होश आ गया।

यह सुबह दस बजे की बात थी। आसमान जब खुला होता था, तब उस कमरे में धूप आती थी और दाहिनी ओर की दीवार पर और दरवाजे के पास वाले कोने में रोशनी की एक पट्टी दिखाई देती थी। नस्तास्या किसी और आदमी के साथ उसकी बगल में खड़ी थी। वह शख्स एकदम अजनबी था और बड़ी जिज्ञासा से उसे देख रहा था। यह एक दाढ़ीवाला नौजवान था, पिंडलियों तक का लंबा कोट पहने था और देखने से कारीगर लगता था। मकान-मालकिन अधखुले दरवाजे से झाँक रही थी। रस्कोलनिकोव उठ कर बैठ गया।

'यह कौन है, नस्तास्या?' उसने नौजवान की तरफ इशारा करके पूछा।

'इसे सचमुच होश आने गया है!' वह बोली।

'हाँ, आ गया है,' उस आदमी ने बात दोहराई। इस नतीजे पर पहुँच कर कि उसे होश आ गया है, मकान-मालकिन दरवाजा बंद करके खिसक गई। वह हमेशा से बहुत शर्मीली थी और बातचीत या बहस से बहुत घबराती थी। वह कोई चालीस साल की थी; सूरत-शक्ल की बुरी भी नहीं थी। मोटा, गदराया हुआ शरीर, काली आँखें और भवें, मोटापे और काहिली की वजह से स्वभाव की अच्छी, और बेतुकेपन की हद तक लजीली।

'कौन...हो तुम?' उस आदमी को संबोधित करके वह कहता रहा। लेकिन उसी समय दरवाजा धड़ से खुला और रजुमीखिन अंदर आया। लंबा होने की वजह से उसे कुछ झुकना पड़ा।

'खूब कबूतरखाना है यह भी!' वह जोर से चीखा। 'हर बार मेरा सर टकरा जाता है। यह भी कोई रहने की जगह है! तो तुम्हें होश आ गया, जिगर! मुझे पाशेंका ने अभी-अभी बताया।'

'हाँ, अभी-अभी आएला है,' नस्तास्या बोली।

'हाँ, एकदम अभी होश आया है,' उस आदमी ने मुस्कराते हुए फिर उसकी बात दोहराई।

'पर आप कौन हैं, जनाब?' रजुमीखिन ने अचानक उसकी ओर मुड़ते हुए कहा। 'मेरा नाम व्रजुमीखिन है, आपका सेवक। रजुमीखिन नहीं, जैसा कि लोग मुझे हमेशा कहते हैं, बल्कि व्रजुमीखिन, छात्र और शरीफजादा, और ये हैं मेरे दोस्त पर आप कौन हैं?'

'मुझे अपने दफ्तर की तरफ से भेजा गया है। सेठ शेलोपाएव के दफ्तर से। और मैं एक काम से आया हूँ।'

'यहाँ तशरीफ रखिए।' रजुमीखिन मेज की दूसरी तरफ बैठ गया। 'जिगर, अच्छा हुआ कि तुम्हें होश आ गया,' वह रस्कोलनिकोव से कहता रहा। 'चार दिन से तुमने न कुछ खाया है न पिया है। हम लोगों को तुम्हें चम्मच से चाय पिलानी पड़ी। मैं दो बार जोसिमोव को तुम्हें देखने के लिए लाया। जोसिमोव की याद है तुम्हें उसने तुम्हें अच्छी तरह देख कर फौरन बता दिया कि घबराने की कोई बात नहीं - कोई बात तुम्हारे दिमाग को लग गई है। उसका कहना है कि कोई नसों की गड़बड़ी है, ठीक से खाना न खाने की वजह से, तुम्हें पर्याप्त बियर और मूली नहीं मिली है। लेकिन कोई खास बीमारी नहीं है। कुछ दिनों में दूर हो जाएगी और तुम एकदम ठीक हो जाओगे। जोसिमोव बहुत बढ़िया आदमी है, काफी नाम कमा रहा है। अच्छा यह बताओ, मैं तुम्हें बहुत ज्यादा देर नहीं रोकना चाहता,' उसने फिर उस आदमी की ओर मुड़ते हुए कहा। 'बताओ, क्या काम है तुम्हें मालूम हो रोद्या कि उस दफ्तर से दूसरी बार कोई आया है। पिछली बार कोई और आदमी आया था, मैंने उससे बात भी की थी। पहले कौन आया था?'

'जनाब, मैं यह बता दूँ कि वह परसों की बात है। वह अलेक्सेई सेम्योनोविच था, हमारे ही दफ्तर में काम करता है।'

'तुमसे ज्यादा समझदार था वह, मानते हो न?'

'हाँ, जनाब, यह तो है, उसका रुत्बा भी तो मुझसे ऊपर है।'

'एकदम ठीक कहते हो; खैर, बताते जाओ।'

'आपकी माँ की हिदायत पर, अफनासी इवानोविच बाखरूशिन के जरिए, मेरा खयाल है, उनकी चर्चा आपने पहले भी कई बार सुना होगा, हमारे दफ्तर से आपके लिए कुछ रकम भेजी गई है,' उस आदमी ने रस्कोलनिकोव को संबोधित करते हुए कहना शुरू किया। 'अगर आप बातें समझने की हालत में हैं, तो मुझे आपको पैंतीस रूबल देने हैं क्योंकि, पहले कई बार की तरह, आपकी माँ की खास हिदायत पर सेम्योन सेम्योनोविच को अफनासी इवानोविच से यह रकम मिल चुकी है। आप उन्हें जानते हैं जनाब?'

'हाँ, मुझे... वाखरूशिन की याद है...', रस्कोलनिकोव ने सोच में डूबे हुए कहा।

'सुना तुमने व्यापारी वाखरूशिन को पहचानता है यह।' रजुमीखिन खुशी से उछल पड़ा। 'कौन कहता है कि यह फिर अपने आपे में नहीं आएगा? मैं देखता हूँ कि तुम भी समझदार आदमी हो। बहरहाल, अक्लमंदी की बात सुन कर मुझे हमेशा बड़ी खुशी होती है।'

'हाँ, वही बाखरूशिन, अफनासी इवानोविच। और आपकी माँ के कहने पर, जिन्होंने पहले भी एक बार उनके जरिए आपके लिए इसी तरह रकम भेजी थी, इस बार भी उन्होंने इनकार नहीं किया। उन्होंने सेम्योन सेम्योनोविच को अब से कुछ दिन पहले हिदायत भेजी थी कि आपको पैंतीस रूबल अदा कर दिए जाएँ। आप आगे चल कर इससे भी ज्यादा की उम्मीद रख सकते हैं।'

'तुम्हारी 'आगे चल कर इससे भी ज्यादा की उम्मीद' वाली बात आज की बढ़िया बात है, हालाँकि 'आपकी माँ' वाली बात भी कुछ बुरी नहीं रही। तो बोलो, क्या कहते हो यह पूरी तरह होश में है कि नहीं?'

'सो तो ठीक है। आप बस इस कागज पर दस्तखत कर दें।'

'हाँ, अपना नाम तो लिख ही लेंगे। तुम्हारे पास किताब है?'

'हाँ, यह रही।'

'लाओ, मुझे दो। यह लो रोद्या, जरा उठ कर बैठो। मैं तुम्हें पकड़े रहूँगा। कलम ले कर 'रस्कोलनिकोव' घसीट तो दो। इस वक्त तो जिगर, पैसा मिल जाए तो क्या कहने!'

'मुझे नहीं चाहिए,' रस्कोलनिकोव ने कलम दूर हटाते हुए कहा।

'क्या नहीं चाहिए?'

'मैं इस पर दस्तखत नहीं करूँगा।'

'अरे ओ कमबख्त, दस्तखत किए बिना कैसे काम चलेगा?'

'मुझे नहीं चाहिए... यह पैसा।'

'पैसा नहीं चाहिए! अरे भाई यह सब झूठ है - मैं गवाह हूँ! तुम परेशान न हो। बात बस यह है कि यह जरा फिर बहकने लगा है। लेकिन इसके लिए यह कोई नई बात नहीं, हमेशा ही होता रहता है। तुम समझदार आदमी हो; हम लोग अभी इसे काबू में किए लेते हैं। मेरा सीधा-सा मतलब यह है कि हम इसका हाथ पकड़ कर दस्तखत करवा देंगे। काम बस झटपट निबटा दो।'

'अरे, मैं कभी फिर आ जाऊँगा।'

'नहीं, नहीं। तुम परीशानी क्यों उठाओ तुम तो समझदार आदमी हो। ...चलो रोद्या, इन्हें बेकार क्यों रोक रखा है। देखो तो कब से बेचारे इंतजार कर रहे हैं,' और यह कह कर वह सचमुच रस्कोलनिकोव का हाथ पकड़ने के लिए बढ़ा।

'तुम रहने दो, मैं खुद...' रस्कोलनिकोव ने कलम ले कर दस्तखत करते हुए कहा। गुमाश्ते ने पैसे निकाल कर मेज पर रखे और चला गया।

'शाबाश! अच्छा जिगर, तुम्हें कुछ भूख तो लगी होगी?'

'हाँ,' रस्कोलनिकोव ने जवाब दिया।

'कोई सूप है?'

'कल का थोड़ा-सा बचेला है,' नस्तास्या ने जवाब दिया; वह सारे वक्त वहीं खड़ी थी।

'आलू और चावल उसमें पड़ा है न?'

'हाँ, आलू और चावल है।'

'मुझे तो रत्ती-रत्ती सब पता है। ठीक है, सूप ले आओ और हम लोगों को थोड़ी-सी चाय पिला दो।'

'अच्छी बात बोलता है।'

'रस्कोलनिकोव बड़ी हैरत से और एक दबी-दबी, बेबुनियाद दहशत के साथ सब कुछ देखता रहा। उसने फैसला कर लिया था कि एकदम चुप रह कर देखता रहेगा कि होता क्या है। 'मेरा खयाल है कि मैं बहक नहीं रहा। मैं समझता हूँ यह सब कुछ सचमुच हो रहा है,' उसने सोचा।

कुछ ही मिनटों में नस्तास्या सूप ले कर लौटी और ऐलान किया कि चाय अभी तैयार हुई जाती है। सूप के साथ वह दो चम्मच, दो प्लेटें, नमक, मिर्च, गोश्त के लिए पिसी हुई राई वगैरह भी लाई थी। खाने की मेज कुछ इस तरह सजाई गई थी कि वैसे बहुत दिन से सजाई नहीं गई थी। मेजपोश भी साफ था।

'मेरी प्यारी नस्तास्या, अगर प्रस्कोव्या पाव्लोव्ना हमें दो-तीन बोतल बियर भिजवा दें तो कुछ बेजा बात तो नहीं होगी। हम उन्हें खाली कर देंगे।'

'तुम बी कोई मौका चूकेला नईं,' नस्तास्या ने मुँह-ही-मुँह में कहा, और हुक्म बजा लाने को चली।

रस्कोलनिकोव फटी-फटी आँखों से घूरे चला जा रहा था; ध्यान कहीं केंद्रित रखने के लिए उसे जोर लगाना पड़ रहा था। इसी बीच रजुमीखिन सोफे पर बगल में आ कर बैठ गया और अपने बाएँ हाथ से बड़े भोंडे तरीके से, जैसे किसी को भालू ने दबोचा हो, रस्कोलनिकोव के सर को सहारा दे कर दाहिने हाथ से चम्मच से सूप ले कर पिलाने लगा हालाँकि वह अपने आप बैठ सकता था। सूप को वह फूँक मार कर ठंडा करता जाता था कि कहीं मुँह न जल जाए। लेकिन सूप गर्म नहीं था। रस्कोलनिकोव तरसे हुए आदमी की तरह एक चम्मच सूप निगल गया, फिर दूसरा, फिर तीसरा। लेकिन उसे कुछ और चम्मच सूप पिलाने के बाद रजुमीखिन अचानक रुक गया और बोला उसे जोसिमोव से पूछना होगा कि तुम्हें और सूप दिया जाए या नहीं।

नस्तास्या बियर की दो बोतलें ले आई।

'चाय तो पियोगे?'

'हाँ।'

'नस्तास्या, भाग कर जा और थोड़ी चाय ले आ, क्योंकि चाय तो हम बिना किसी से पूछे भी पी सकते हैं। मगर बियर आ गई है!' वह वापस अपनी कुर्सी पर जा कर बैठ गया। सूप और गोश्त सामने खींच कर वह इस तरह खाने लगा गोया तीन दिन से खाना छुआ तक न हो।

'मैं तुम्हें बता दूँ, रोद्या, कि अब मैं रोज यहाँ इसी तरह खाता हूँ।' वह मुँह में गोश्त भरे कुछ इस तरह बोल रहा था कि आधी बात समझ में ही नहीं आती थी। 'और यह सब मेहरबानी तुम्हारी प्यारी मकान-मालकिन पाशेंका की है, जो इसका पूरा बंदोबस्त कर देती है। वह मेरे लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है। मैं उससे यह सब करने को तो कहता नहीं, लेकिन जाहिर है कि मैं उसे रोकता भी नहीं। लो, नस्तास्या चाय भी ले आई। बड़ी चुस्त लड़की है! नस्तास्या, मेरी प्यारी नस्तास्या, थोड़ी-सी बियर तो पिओगी?'

'बस, रहने दो अपना बकवास!'

'एक प्याली चाय ही पी लो।'

'चाय मैं पिएँगी।'

'तो बनाओ! खैर, रहने दो, मैं खुद बनाता हूँ। तुम बैठ जाओ।'

उसने दो प्याली चाय बनाई, और खाना छोड़ कर फिर सोफे पर आन बैठा। पहले की ही तरह उसने अपने बीमार दोस्त के सर को बाएँ हाथ से सहारा दे कर उठाया और चम्मच से उसे चाय पिलाने लगा। इस बार भी वह बहुत सँभाल कर, बड़ी लगन के साथ, हर चम्मच को इस तरह फूँक मार-मार कर पिला रहा था जैसे उसके दोस्त को चंगा करने का खास और सबसे कारगर तरीका यही हो। रस्कोलनिकोव कुछ नहीं बोला और जो कुछ वह कर रहा था, उसे करने दिया। यूँ वह अपने बदन में इतनी ताकत महसूस कर रहा था कि सोफे पर बिना सहारे के बैठ सकता था, और न सिर्फ चम्मच या प्याला पकड़ सकता था, बल्कि उठ कर शायद चल-फिर भी सकता था। लेकिन किसी अजीब, जानवरों जैसी चालाकी की वजह से उसने तय किया कि किसी को अपनी ताकत का पता न लगने दे, कुछ समय के लिए ऐसे ही चुपका पड़ा रहे, जरूरत हो तो यह ढोंग भी करे कि अभी उसके हवास पूरी तरह ठीक नहीं हुए हैं, और उस बीच कान लगा कर सुनता रहे और मालूम करता रहे कि हो क्या रहा है। फिर भी वह अपनी तीखी नफरत की भावना पर काबू न पा सका। चाय के लगभग एक दर्जन चम्मच धीरे-धीरे पीने के बाद उसने अपना सर छुड़ा लिया और अचानक न जाने क्या उसके जी में आया कि चम्मच दूर हटा कर फिर तकिए पर लुढ़क गया। अब उसके सर के नीचे सचमुच के तकिए थे, साफ गिलाफ चढ़े हुए, चिड़ियों के पंख भरे हुए तकिए। उसने यह बात देखी और उसे अच्छी तरह अपने मन में बिठा लिया।

'आज पाशेंका को चाहिए थोड़ा-सा रसभरी का मुरब्बा भेज दे, फिर हम इसे रसभरी की चाय पिलाएँ,' रजुमीखिन ने अपनी कुर्सी पर वापस जाते हुए और सूप और बियर पर फिर धावा बोलते हुए कहा।

'तुम्हारा लिए उसे रसभरियाँ कहाँ से मिलेंगा?' नस्तास्या ने अपनी पाँचों फैली हुई उँगलियों पर तश्तरी टिका कर, शकर की डली मुँह में रख कर चाय पीते हुए पूछा।

'दुकान से मिलेंगी भलीमानस, और कहाँ से। बात यह है रोद्या कि जब से तुम बीमार पड़े हो, तब से बहुत कुछ होता ही रहा है, जिनके बारे में तुम नहीं जानते। जब तुम बदमाशी दिखा कर, अपना पता छोड़े बिना, मेरे यहाँ से भाग आए तो मुझे इतना गुस्सा आया कि मैंने तुम्हें खोज निकालने और सजा देने का फैसला किया। मैं उसी दिन इस काम से जुट गया। तुम्हारा पता लगाने के लिए कहाँ-कहाँ मैं नहीं गया। मैं तुम्हारी यह रहने की जगह भूल गया था, सच तो यह है कि मुझे यह कभी याद ही नहीं थी, क्योंकि मैं इसे जानता ही नहीं था। रहा तुम्हारी पुरानी जगह का सवाल, तो मुझे बस इतना याद है कि वह पंचकोण में थी, खर्लामोव के मकान में। मैं खर्लामोव का यह घर खोजते-खोजते हार गया और बाद में पता चला कि वह खर्लामोव का नहीं बल्कि बुख का घर था। कभी-कभी सुनने में कैसी गड़बड़ी हो जाती है! मैं गुस्से के मारे आपे से बाहर हो गया और अगले ही दिन यूँ ही किस्मत आजमाने पतोंवाले दफ्तर चला गया। फिर कमाल यह हुआ कि दो मिनट में उन्होंने तुम्हारा पता ढूँढ़ निकाला! तुम्हारा नाम वहाँ चढ़ा हुआ है।'

'मेरा नाम चढ़ा हुआ है?'

'सौ फीसदी लेकिन यह भी तो देखो कि जब मैं वहाँ था, तो वे लोग किसी जनरल कोबेलेव का पता नहीं ढूँढ़ पाए। खैर छोड़ो, यह बहुत लंबा किस्सा है। लेकिन इस जगह कदम रखते ही, थोड़े ही देर में मुझे तुम्हारा सारा कच्चा चिट्ठा मालूम हो गया - सब कुछ, एक-एक बात। मुझे सब मालूम है, जिगर, यह नस्तास्या तुम्हें बताएगी। मैंने निकोदिम फोमीच से और इल्या पेत्रोविच से और दरबान से और मिस्टर जमेतोव से, वही अलेक्सांद्र ग्रिगोरियेविच, जो पुलिस के दफ्तर में बड़ा बाबू है, और सबसे बढ़ कर, पाशेंका से जान-पहचान पैदा की। नस्तास्या को सब मालूम है...'

'इनने उनका ऊपर कोई मंतर फूँकेला है,' नस्तास्या ने शरारत से मुस्करा कर दबी जबान से कहा।

'तुम शकर अपनी चाय में क्यों डाल नहीं लेती, नस्तास्या निकीफोराव्ना?'

'तुम बी एक ही आदमी होएला है!' नस्तास्या अचानक हँसी से दोहरी हो कर बोली। 'निकीफोरोव्ना नहीं, मैं पेत्रोव्ना होएला,' अपनी हँसी रोक कर वह तपाक से बोली।

'सो मैं याद रखूँगा। खैर अच्छा जिगर, लंबा किस्सा छोड़ो, असल बात यह है कि मैं तो यहाँ के सारे मकड़जाल पैदा करनेवाले हालात उखाड़ फेंकने के लिए बम का धमाका करनेवाला था, लेकिन पाशेंका के आगे मेरी एक न चली। मैंने कभी सोचा भी नहीं था जिगर कि वह ऐसी... लाजवाब औरत होगी। क्यों, तुम्हारा क्या खयाल है?'

रस्कोलनिकोव कुछ नहीं बोला। उसकी दहशत भरी आँखें उस पर जमी रहीं।

'सच तो यह है कि हर बात में उसने किसी तरह की कोई कमी रहने नहीं दी, 'रस्कोलनिकोव की खामोशी से जरा भी परेशान हुए बिना रजुमीखिन अपनी बात कहता रहा।

'ये बड़ा चलता पुर्जा आदमी होएला!' नस्तास्या एक बार फिर खुशी से चिल्लाई। उसे इस बातचीत में बेहद मजा आ रहा था।

'बड़े अफसोस की बात है, जिगर कि शुरू से तुमने कुछ सही ढंग से इस सिलसिले को नहीं सँभाला। तुम्हें उनके साथ कुछ अलग ढंग का रवैया अपनाना चाहिए था। उसका स्वभाव, बस यूँ समझ लो कि आसानी से समझ में नहीं आता। खैर, उसके स्वभाव के बारे में हम फिर कभी बातें करेंगे। ...तुमने नौबत यहाँ तक पहुँचने ही कैसे दी कि उसने तुम्हारा खाना तक भेजना बंद कर दिया और वह प्रोनोट! तुम्हारा दिमाग एकदम ही खराब रहा होगा कि तुमने उस प्रोनोट पर दस्तखत कर दिए! और जब उसकी वह बेटी, नताल्या येगोरोव्ना, जिंदा थी, तब उससे शादी करने का वादा ...सब कुछ मालूम है मुझे! पर मैं देखता हूँ कि यह एक नाजुक मामला है और मैं भी बहुत बड़ा गधा हूँ; मुझे माफ करना। लेकिन अब बेवकूफी की चर्चा चली है तो मैं इतना बता दूँ कि प्रस्कोव्या पाव्लोव्ना उतनी बेवकूफ नहीं है जितना कि पहली बार देखने में लगती है। यह बात क्या मालूम है तुम्हें?'

'मालूम है,' रस्कोलनिकोव मुँह फेर कर बुदबुदाया। लेकिन वह महसूस कर रहा था कि बातचीत का सिलसिला जारी रखना ही अच्छा है।

'सही है, है न?' उसके मुँह से जवाब में कुछ अलफाज सुन कर रजुमीखिन खुशी के मारे उछल पड़ा। 'लेकिन वह बहुत चालाक भी नहीं है, है न? बुनियादी तौर पर वह एक पहेली है! मैं तुमसे सच कहता हूँ, कभी-कभी तो मैं दंग रह जाता हूँ... चालीस की तो होगी पर कहती है कि छत्तीस की है, और उसे ऐसा कहने का पूरा अधिकार है। लेकिन मैं कसम खा कर कहता हूँ कि मैं उसे बौद्धिकता की कसौटी पर परखता हूँ, केवल आध्यात्मिक दृष्टिकोण से। देखो जिगर बात यह है कि हम दोनों के बीच जो संबंध है, उसकी बुनियाद प्रतीकों पर है। एकदम तुम्हारी बीजगणित की तरह! मैं इस बात को पूरी तरह नहीं समझ पाता! खैर छोड़ो, यह सब तो बकवास है। बात बस इतनी है कि उसने जब देखा कि तुम अब पढ़ते भी नहीं हो, तुम्हारे ट्यूशन भी छूट गए हैं और तुम्हारे पास ढंग के कपड़े तक नहीं रहे, और उस लड़की के मर जाने की वजह से अब उसे तुम्हारे साथ रिश्तेदारों जैसा बर्ताव रखने की भी जरूरत नहीं रही, तो यकायक उसे डर लगने लगा। सो जब तुम भी मुँह छिपा कर अपनी माँद में दुबक कर बैठ रहे और उसके साथ अपने सारे संबंध तुमने तोड़ लिए तो उसने भी तुमसे छुटकारा पाने की ठान ली। उसने यह बात ठानी तो बहुत पहले ही थी, लेकिन उसे अफसोस इस बात का था कि उसकी रकम मारी जाएगी। इसके अलावा, तुम खुद उसे यकीन दिला चुके थे कि तुम्हारी माँ कर्ज चुका देंगी।'

'हाँ, यह बात कहना सरासर मेरा कमीनापन था। ...मेरी माँ खुद ही लगभग कंगाल हैं... मैंने तो वह झूठ इसलिए बोला था कि रहने की जगह बनी रहे और... खाना मिलता रहे,' रस्कोलनिकोव ने ऊँचे स्वर में साफ-साफ कहा।

'हाँ, सो तो तुमने समझदारी की। लेकिन सबसे बुरी बात यह हुई कि उसी वक्त मिस्टर चेबारोव आ पहुँचे। कोई व्यापारी हैं और कोर्ट कौंसिलर भी। पाशेंका तो अपनी तरफ से कार्रवाई करने की बात सोचती भी नहीं, हद से ज्यादा संकोची है बेचारी; लेकिन व्यापारी तो संकोची नहीं होता। इसलिए उन्होंने पहला काम यह किया कि एक सवाल पूछा : 'क्या प्रोनोट की वसूली की उम्मीद है?' जवाब मिला, 'है तो, क्योंकि उसकी माँ है, जो अपनी सवा सौ रूबल की पेंशन के सहारे अपने रोद्या को जरूर बचाने की कोशिश करेगी, चाहे इसके लिए उसे भूखा ही क्यों न रहना पड़े, और फिर उसकी एक बहन भी है जो उसकी खातिर अपने आपको भी गिरवी रख देगी।' वह इसी की आस लगाए थे। ...तुम चौंके क्यों अब मुझे तुम्हारा सारा कच्चा चिट्ठा पता चल चुका है, जिगर। जब तुम पाशेंका के होनेवाले दामाद थे, तब तुम खुल कर उससे सारी बातें कह देते थे; मैं यह सब कुछ एक दोस्त की हैसियत से तुम्हें बता रहा हूँ। लेकिन मैं तुम्हें बताऊँ कि बात क्या है : ईमानदार और दर्दमंद आदमी खुले दिल से बात करता है, और व्यापारी तुम्हारी बात सुनता रहता है और अंदर-ही-अंदर जुगाली करता रहता है ताकि उस ईमानदार बंदे को चबा सके। खैर हुआ यह कि उसने वह प्रोनोट किसी भुगतान के बदले इसी चेबारोव को दे दिया, और उन्होंने आव देखा न ताव, बाकायदा वसूली के लिए उसे दाखिल कर दिया। जब मुझे यह सब कुछ मालूम हुआ तो मेरा तो जी चाहा कि अपना जमीर पाक रखने के लिए मैं उसकी भी धज्जियाँ उड़ा दूँ, लेकिन तब तक मेरे और पाशेंका के बीच गहरा दोस्ताना हो गया था। मैंने इस पूरे सिलसिले को खत्म करने पर जोर दिया, और यह जिम्मा लिया कि तुम रकम चुका दोंगे। मैंने तुम्हारी जमानत ली, जिगर। समझ रहे हो न हमने चेबारोव को बुलवाया, दस रूबल उसके मुँह पर फेंक मारे और प्रोनोट उससे वापस ले लिया, और मैं वही प्रोनोट अब आपकी खिदमत में पेश कर रहा हूँ। पाशेंका को तुम्हारे ऊपर पूरा भरोसा है। लो, यह लो, मैंने इसे फाड़ दिया।' रजुमीखिन ने प्रोनोट मेज पर रख दिया। रस्कोलनिकोव ने उसकी ओर देखा और कुछ भी कहे बिना दीवार की तरफ मुँह फेर कर लेट गया। रजुमीखिन तक को भी थोड़ा बुरा लगा।

'मेरी समझ में तो यही आ रहा है जिगर,' एक पल बाद वह बोला, 'कि मैं फिर बेवकूफी कर रहा हूँ। मैंने सोचा था कि अपनी बकबक से तुम्हारा कुछ दिल बहलाऊँ, पर लग रहा है कि तुम्हें मेरी बातों से कोफ्त हो रही है।'

'जब मैं सरसाम की हालत में था, तब तुम ही आए थे क्या, जिसे मैंने पहचाना नहीं था?' रस्कोलनिकोव ने अपना सर घुमाये बिना ही एक पल ठहर कर पूछा।

'हाँ, मैं ही था। और तुम तब तो भड़क ही उठे थे, जब मैं खास तौर पर एक दिन जमेतोव को लाया था।'

'जमेतोव वह बड़ा बाबू किसलिए?' रस्कोलनिकोव ने जल्दी से करवट बदली और रजुमीखिन को नजरें गड़ा कर घूरने लगा।

'तुम्हें हो क्या गया है आखिर ...आखिर इतना परेशान क्यों हो वह तुमसे तो यूँ ही मिलना चाहता था क्योंकि मैंने उससे तुम्हारे बारे में बहुत-सी बातें की थीं... वरना मुझे इतनी सारी बातें मालूम कैसे होतीं बड़ा लाजवाब आदमी है, जिगर एकदम पक्का... जाहिर है, अपने ढंग से। अब हमारी दोस्ती हो गई है... लगभग रोज मुलाकात होती है। जानते हो, मैं इसी इलाके में आ गया हूँ हाल ही में अभी मैं उसके साथ एक-दो बार लुईजा इवानोव्ना के यहाँ भी गया था... लुईजा की याद है, लुईजा इवानोव्ना की?'

'सरसाम में मैंने कुछ कहा था क्या?'

'बहुत कुछ कहा था! अपने होश में नहीं थे तुम।'

'किस चीज के बारे में बड़बड़ा रहा था?'

'अब क्या पूछते हो, किस चीज के बारे में बड़बड़ा रहे थे लोग काहे के बारे में बड़बड़ाते हैं... अच्छा जिगर, अब मैं चलता हूँ। अब गँवाने को मेरे पास और वक्त नहीं है।'

वह उठा और अपनी टोपी उठा ली।

'मैं किस चीज के बारे में बड़बड़ा रहा था?'

'क्या रट लगा रखी है भला! तुम्हें डर है क्या कि कहीं तुमने कोई भेद तो नहीं खोला? परेशान न हो, तुमने किसी शहजादी के बारे में कुछ नहीं कहा। लेकिन तुम कुछ बक रहे थे; किसी बुलडाग के बारे में, कानों की बालियों और जंजीरों के बारे में, क्रेस्तोव्स्की द्वीप के बारे में, किसी दरबान के बारे में, निकोदिम फोमीच और असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट इल्या पेत्रोविच के बारे में न जाने क्या-क्या बक रहे थे। और एक चीज थी जिसमें तुम्हें खास दिलचस्पी थी, अपने मोजे के बारे में! तुम कराह-कराह कर कह रहे थे; 'मुझे मेरे मोजे दो दो!' जमेतोव ने पूरे कमरे में तुम्हारे मोजे ढूँढ़े और खुद अपने इत्र से महकते हुए और अँगूठियों से सजे हुए हाथों से कहीं से खोज कर वह चीथड़ा तुम्हें दिया था। तब जा कर तुम्हें तसल्ली हुई और अगले चौबीस घंटे तुमने उन मनहूस मोजों को अपनी मुट्ठी में दबोचे रखा; लाख कोशिश करने पर भी हम उन्हें नहीं ले सके। इस वक्त भी वे तुम्हारी रजाई के अंदर ही कहीं होंगे। फिर तुम दर्द भरी आवाज में अपने पतलून की मोरी माँगने लगे, जो हमारी समझ में कुछ भी नहीं आया। खैर, अब कुछ काम की बातें करें! ये पैंतीस रूबल हैं। इनमें से दस मैं लिए लेता हूँ, और घंटे दो घंटे में तुम्हें इसका हिसाब दे दूँगा। साथ ही मैं जोसिमोव को भी बता दूँगा, हालाँकि उसे यहाँ बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था, क्योंकि अब तो बारह बज रहे हैं। और तुम, नस्तास्या, मेरे जाने के बाद जितनी बार भी हो सके, बीच-बीच में आ कर झाँक लेना कि इसे कुछ पीने के लिए या कोई और चीज तो नहीं चाहिए। और जिन चीजों की जरूरत है। वह मैं पाशेंका से अभी कहे जाता हूँ। तो मैं चला!'

'उनका पाशेंका कहेला है! अरे, बहुत पहुँचा होएला है!' उसके बाहर निकलते-निकलते नस्तास्या ने कहा। फिर उसने दरवाजा खोला और कान लगा कर खड़ी सुनती रही, लेकिन भाग कर सीढ़ियाँ उतरते हुए उसके पीछे-पीछे गए बिना रह न सकी। उसे यह सुनने की उत्सुकता थी कि वह मकान-मालकिन से क्या कह रहा है। साफ जाहिर था कि वह रजुमीखिन पर काफी रीझ गई थी।

नस्तास्या के जाते ही मरीज ने रजाई वगैरह किनारे फेंकी और पागलों की तरह बिस्तर से उछला। बेचैनी के मारे वह अंदर-ही-अंदर फुँका जा रहा था, उसका अंग-अंग फड़क रहा था। कब से वह इंतजार में था कि ये लोग टलें तो वह अपना काम शुरू करे। लेकिन कौन-सा काम, अब गोया उसे चिढ़ाने के लिए यही बात उसके दिमाग से निकल गई थी। 'हे भगवान, मुझे बस एक बात बता दो : उन लोगों को पता चल चुका है या नहीं अगर उन्हें मालूम हो गया है और वे सब दिखावा कर रहे हैं, मुझे मेरी बीमारी में चिढ़ा रहे हैं, और फिर वे अचानक आ धमकेंगे और मुझसे कहेंगे कि पता तो बहुत पहले चल गया था और यह कि वे लोग तो बस... मैं अब करूँ तो क्या यही तो मैं भूल गया हूँ, गोया जान-बूझ कर; और वह भी एकदम से; अभी पल भर पहले तक तो याद था...'

वह कमरे के बीच में खड़ा दुखी मन भौंचक्का, इधर-उधर देखता रहा। चल कर वह दरवाजे तक गया, उसे खोला और कान लगा कर सुनने लगा, लेकिन यह तो वह काम नहीं था जो वह करना चाहता था। अचानक, उसे जैसे किसी चीज की याद आ गई हो, वह भाग कर उस कोने में गया जहाँ कागज के नीचे खोखल था और उसकी छानबीन करने लगा। उसने खोखल में हाथ डाला, यह टटोला, वह टटोला, लेकिन वह काम तो यह भी नहीं था। आतिशदान के पास गया, उसे खोला और राख कुरेद कर देखने लगा : उसके पतलून के लत्ते और जेब में से निकाले गए चीथड़े अभी तक वहाँ उसी तरह पड़े थे, जिस तरह उन्हें उसने फेंका था। तो फिर... किसी ने वहाँ तलाशी नहीं ली है! फिर उसे उस मोजे की याद आई, जिसके बारे में रजुमीखिन उसे बता रहा था। हाँ, वह वहीं सोफे पर, रजाई के नीचे पड़ा था, लेकिन उस पर इतनी गर्द जम गई थी कि जमेतोव को उस पर कुछ दिखाई नहीं पड़ा होगा।

'ओह हाँ, जमेतोव! ...थाना! ...मुझे थाने क्यों बुलाया गया है? सम्मन कहाँ है? लानत है! मैं सब बातों को एक में मिलाए दे रहा हूँ : वह तो तब की बात है! मैंने तब भी अपने मोजे को देखा था, लेकिन अब... अभी तो मैं बीमारी से उठा हूँ। लेकिन जमेतोव क्यों आया था? रजुमीखिन क्यों उसे लाया था...' वह लाचार हो कर फिर सोफे पर बैठते हुए बुदबुदाया। 'मतलब क्या है इसका? अभी तक मैं अपने होश में नहीं हूँ?, या यह सब सच है मैं समझता हूँ यह सब कुछ सच है... ओह, अब याद आया : मुझे भाग जाना चाहिए! हाँ, मुझे यही करना चाहिए, भाग जाना चाहिए! हाँ... लेकिन कहाँ मेरे कपड़े कहाँ गए? मेरे पास जूते भी नहीं हैं! वे लोग ले गए उन्होंने छिपा दिए सब समझता हूँ मैं! ओह, यह रहा मेरा कोट - यह उनकी नजर से चूक गया! और ये मेज पर पैसे भी रखे हैं, भगवान उनका भला करे! प्रोनोट भी यह रहा। ...मैं पैसे ले कर चला जाता हूँ और रहने की कोई दूसरी जगह किराए पर लिए लेता हूँ। मुझे वे लोग ढूँढ़ नहीं सकेंगे! ...हाँ, लेकिन पतोंवाला दफ्तर वे लोग यकीनन मुझे खोज निकालेंगे, रजुमीखिन मुझे ढूँढ़ लेगा। बेहतर यही होगा कि एकदम भाग लूँ... कहीं बहुत दूर... अमेरिका। फिर चाहे वे अपना सर फोड़ते रहें! और प्रोनोट भी लेता जाऊँ... वहाँ काम आएगा। और क्या-क्या ले जाना है मुझे ये लोग समझते हैं कि बीमार हूँ मैं! उन्हें यह भी नहीं मालूम कि मैं चल-फिर सकता हूँ, ही-ही-ही! उनकी आँखों से तो मुझे लगा गोया उन्हें सब कुछ मालूम है! बस नीचे किसी तरह उतर पाऊँ! और अगर उन्होंने पहरा बिठा रखा हो, पुलिसवाले हों तो! यह क्या है, चाय आह, और यह कुछ बियर भी बची है। आधी बोतल... ठंडी!'

लपक कर उसने बोतल उठा ली, जिसमें अब भी एक गिलास बियर बची हुई थी और उसे गट-गट पी गया जैसे सीने के अंदर कोई आग बुझा रहा हो। लेकिन अगले ही पल बियर उसके सर चढ़ गई, और एक हलकी-सी, बल्कि यूँ कहिए कि सुखद, सिहरन उसकी रीढ़ में दौड़ गई। वह लेट गया और रजाई अपने ऊपर खींच ली। उसके बीमार और बिखरे विचार और भी तितर-बितर थे। जल्दी ही हलकी, सुखद तंद्रा ने उसे आ घेरा। आराम महसूस करते हुए उसने अपना सर तकिए में धँसा लिया। उस नर्म, गुलगुली रजाई को, जिसने उसके फटे-पुराने ओवरकोट का स्थान ले लिया था, उसने अपने शरीर पर और कस कर लपेटा, हलकी-सी आह भरी और गहरी, ताजगी लानेवाली नींद सो गया।

किसी के अंदर आने की आहट सुन कर वह जागा। आँख खोली तो देखा कि रजुमीखिन चौखट पर संकोच में खड़ा है : कि अंदर आए या न आए। रस्कोलनिकोव जल्दी से उठ कर सोफे पर बैठ गया और उसे घूरने लगा, गोया कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो।

'आह तो तुम सो नहीं रहे! मैं आ गया! नस्तास्या, बंडल यहाँ अंदर लाओ!' रजुमीखिन ने सीढ़ियों से नीचे पुकार कर कहा। 'हिसाब मैं तुम्हें अभी दिए देता हूँ।'

'क्या बजा है?' रस्कोलनिकोव ने बेचैनी से चारों ओर देखते हुए पूछा।

'तुम तो अच्छी नींद सोए, जिगर अब तो शाम होने को आई। थोड़ी देर में छह बजनेवाले हैं। तुम छह घंटे से ज्यादा सोए।'

'कमाल हो गया! सचमुच मैं इतना सोया!'

'इसमें गलत ही क्या है अच्छा ही है तुम्हारे लिए। जल्दी भी क्या है किसी से मिलने जाना है या कोई और बात हमारे पास वक्त-ही-वक्त है। मैं पिछले तीन घंटे से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ। ऊपर दो बार आया और देखा, तुम सो रहे हो। दो बार जोसिमोव के यहाँ हो आया, पर वह घर पर नहीं था कोई बात नहीं, आ जाएगा! ...खैर फिर थोड़ी देर के लिए अपने काम से भी गया था। आज मैं घर बदल रहा हूँ, अपने चचा के साथ रहने आ रहा हूँ। अब मेरे साथ मेरे एक चचा रहते हैं। लेकिन छोड़ो यह बात, काम की बात करें! नस्तास्या, मुझे बंडल तो देना। अब तुम्हारा जी कैसा है, जिगर?'

'मैं तो एकदम ठीक हूँ, अब बीमार थोड़े ही हूँ... रजुमीखिन, तुम्हें यहाँ आए क्या बहुत वक्त हो गया?'

'मैंने कहा न, पिछले तीन घंटे से इंतजार कर रहा हूँ।'

'नहीं, अभी नहीं। पहले?'

'मतलब क्या है तुम्हारा?'

'यहाँ तुम कब से आ-जा रहे हो?'

'अरे, सबेरे ही तो तुम्हें सब कुछ बताया। याद भी नहीं?'

रस्कोलनिकोव कुछ सोचने लगा। सुबहवाली बात उसे सपना लग रही थी। कोई याद न दिलाए तो उसे कुछ नहीं याद आ रहा था। रजुमीखिन की तरफ उसने सवालिया नजरों से देखा।

'हूँ!' रजुमीखिन बोला, 'तो भूल गए! मैंने उसी वक्त समझ लिया था कि तुम पूरी तरह होश में नहीं हो। अब थोड़ा सोने के बाद तुम्हारी हालत पहले से बहुत अच्छी है... सचमुच पहले से बहुत अच्छे नजर आ रहे हो। बहुत बढ़िया! खैर, अब कुछ तो काम की बात! अभी सब कुछ याद आ जाएगा। यह देखो, जिगर।'

उसने बंडल खोलना शुरू किया। साफ लग रहा था कि इस काम में वह भारी दिलचस्पी ले रहा था।

'यकीन जानो, यार, यह एक ऐसी बात है, जो खास मेरे अपने दिल की बात है, क्योंकि तुमको इनसान बनाना हमारा काम है। तो आओ, ऊपर से शुरू करते हैं। यह टोपी देखी?' उसने बंडल से सस्ती और मामूली-सी पर काफी अच्छी टोपी निकाली। 'आओ, आजमा कर तो देखूँ।'

'थोड़ी देर बाद,' रस्कोलनिकोव ने चिड़चिड़ा कर उसे दूर हटाते हुए कहा।

'आओ भी यार, जिद न करो। बाद में बहुत देर हो जाएगी और मुझे सारी रात नींद नहीं आएगी, क्योंकि इसे मैंने अंदाजे से बिना नाप के खरीदा है। एकदम ठीक!' उसे टोपी पहनाते हुए वह जोर से चिल्लाया जैसे कोई मैदान मार लिया हो, 'ठीक तुम्हारे नाप की है! लिबास में पहली बात देखने की यह होती है कि सर पर पहनने की चीज ठीक हो। एक तरह से आदमी की पहचान उसी से होती है। मेरा एक दोस्त है, तोल्स्त्याकोव। जब भी किसी ऐसी जगह जाता है, जहाँ सभी लोग हैट या टोपियाँ पहने रहते हैं, तो उसे हमेशा अपना तसला उतार लेना पड़ता है। लोग समझते हैं कि वह दासों जैसी विनम्रता के कारण ऐसा करता है, लेकिन इसकी सीधी-सी वजह यह है कि उसे अपने उस चिड़िया के घोंसले पर शर्म आती है। ऐसा झेंपू आदमी है कि बस! देखो, नस्तास्या, ये रहे टोपियों के दो नमूने : यह पामर्स्टन हैट,' यह कह कर उसने कोने में से रस्कोलनिकोव की पुरानी टूटी हुई हैट उठाई, जिसे वह न जाने क्यों पामर्स्टन कहता था, 'और यह नगीना! कीमत का अंदाजा लगाओ, रोद्या... तुम्हारा क्या खयाल है नस्तास्या, मैंने इसके क्या दाम दिए होंगे' यह देख कर कि रस्कोलनिकोव कुछ नहीं बोला, उसने नस्तास्या की ओर मुड़ कर पूछा।

'ज्यास्ती से ज्यास्ती बीस कोपेक, मैं दावों के साथ कह सके हूँ,' नस्तास्या ने जवाब दिया।

'बीस कोपेक... बेवकूफ कहीं की!' वह झुँझला कर जोर से चिल्लाया। 'अरे, आजकल तो तेरा ही मोल इससे ज्यादा होगा। ...अस्सी कोपेक! और वो भी इसलिए कि सेकेंड-हैंड है। यह इस जमानत पर खरीदी गई है कि फट जाएगी तो अगले साल वे लोग दूसरी टोपी मुफ्त में देंगे। हाँ, मेरी बात मानो! खैर, अब आओ अमेरिका के नक्शे पर, जैसा कि हम लोग स्कूल में कहा करते थे। मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि मुझे इस पर बहुत नाज है,' यह कह कर उसने रस्कोलनिकोव को ऊनी कपड़े की स्लेटी हलकी, गर्मी में पहनने की एक पतलून दिखाई। 'न कोई सूराख, न कहीं धब्बा और देखने में बहुत शरीफाना लगती है, हालाँकि थोड़ी पहनी हुई है। और यह रही इसी के जोड़ की वास्कट, एकदम आजकल के फैशन के मुताबिक से। यह थोड़ी-सी पहनी हुई होने की वजह से तो और भी अच्छी हो गई है, ज्यादा नर्म और मुलायम। देखो रोद्या, मैं समझता हूँ कि इस दुनिया में निभाने के लिए सबसे बड़ी जरूरत इसकी है कि आदमी मौसम के हिसाब से चले। अगर जनवरी में खाने का शौक नहीं तो पैसे बचा कर बटुए में रखो। यही बात इस सौदे के बारे में सच है। आजकल गर्मी है, इसलिए मैं गर्मी की चीजें खरीद कर लाया हूँ। पतझड़ में इससे ज्यादा गर्म कपड़ों की जरूरत पड़ेगी, तब ये चीजें यों भी फेंक ही देनी पड़ेंगी... अगर तुम्हारा ऐश-आराम का स्तर ऊँचा हो जाने की वजह से न भी हो तो भी खास तौर पर इसलिए कि खुद इनमें इतना कसाव बाकी नहीं रहेगा। अच्छा, इनकी कीमत लगाओ! सिर्फ दो रूबल पच्चीस कोपेक! वह जमानत याद रहे : अगर पहनते-पहनते फट जाएँ तो अगले साल दूसरा मुफ्त मिलेगा! इस तर्ज का कारोबार सिर्फ फेद्यायेव के यहाँ होता है : एक बार कोई चीज खरीद ली तो उमर-भर की तसल्ली, क्योंकि अपनी मर्जी से तो आप फिर वहाँ जाने से रहे! अब जूतों पर आइए। क्या कहते हो थोड़े से घिसे हुए तो हैं लेकिन दो-चार महीने चल जाएँगे। इसलिए कि विलायती कारीगर का काम है, और चमड़ा भी विलायती है। इंगलैंड की एंबेसी के सेक्रेटरी ने पिछले हफ्ते बेचे थे। उसने इन्हें महज छह दिन पहना लेकिन फिर उसे पैसों की तंगी हो गई। कीमत-डेढ़ रूबल। है न किस्मत की बात?'

'लेकिन शैद इसका पाँव में ठीक नहीं आएगा,' नस्तास्या ने अपनी राय दी।

'ठीक नहीं आएँगे!' रजुमीखिन ने अपनी जेब से रस्कोलनिकोव का पुराना, टूटा हुआ जूता निकाला जिस पर कीचड़ की पर्त जमी हुई थी। 'खाली हाथ नहीं गया था मैं, इस जिन्नाती जूते से नाप कर दिया उन लोगों ने। हम सबने अपने तरफ से अच्छे से अच्छा माल लाने की कोशिश की है। रहा तुम्हारे दूसरे कपड़ों का सवाल, तो तुम्हारी मकान-मालकिन ने उसका बंदोबस्त कर दिया है। ये लो, पहले तो यह रहीं तीन कमीजें, हैं तो मोटे कपड़े की लेकिन अगला बाजू बहुत फैशनेबुल है... तो अब, अस्सी कोपेक टोपी के; दो रूबल पच्चीस कोपेक सूट के... तो कुल मिला कर हुए तीन रूबल पाँच कोपेक, डेढ़ रूबल जूतों के क्योंकि देखो तो सही, हैं बहुत बढ़िया... तो ये हो गए चार रूबल पचपन कोपेक। पाँच रूबल अंदर पहनने के कपड़ों के जो थोक भाव से खरीदे गए थे। इनको मिला कर हुए पूरे नौ रूबल पचपन कोपेक। और यह रही पैंतालीस कोपेक की रेजगारी... ताँबे के सिक्कों में। तो रोद्या, अब तुम्हारा सारा पहनावा-लिबास हो गया नया। तुम्हारा ओवरकोट तो अभी काम देगा, और उसकी है भी अपनी एक अलग शान। यही होता है जब आदमी शार्मेर के यहाँ से कपड़ा खरीदता है! रहा तुम्हारे मोजों और दूसरी चीजों का सवाल, तो वह तुम्हारे ऊपर छोड़ा; अभी हमारे पास पच्चीस रूबल बचे हैं। जहाँ तक पाशेंका की और यहाँ रहने के पैसे देने की बात है, तुम उसकी चिंता न करो। मैं कहता हूँ, वह तुम्हारा किसी चीज के लिए भरोसा कर लेगी। और अब जिगर, तुम्हारे कपड़े बदलवा दूँ, क्योंकि मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि कमीज उतार कर फेंकते ही तुम्हारी बीमारी भी छू हो जाएगी।'

'रहने दो! मुझे नहीं चाहिए!' रस्कोलनिकोव ने उसके मश्विरे को रद्द कर दिया। रजुमीखिन अपनी खरीदारी के बारे में जिस तरह मसखरेपन की बातें कर रहा था, उसे उसने बहुत खीझ कर सुना था।

'उठो भी यार, तुम्हें छोड़ जाऊँ, यह तो होने से रहा। यह तो मत कहना, मैं बेकार इतनी देर अपनी टाँगे घिसता रहा,' रजुमीखिन ने जोर दे कर कहा।

'शर्माओ नहीं नस्तास्या, आ कर मेरी मदद करो... यह हुई न बात,' रस्कोलनिकोव के विरोध के बावजूद उसकी कमीज उसने बदलवा ही दी। रस्कोलनिकोव ने अपना सर फिर तकियों से धँसा लिया और एक-दो पल तक कुछ नहीं बोला।

'इनसे पिंड छुड़ाने में बहुत वक्त लगेगा,' उसने सोचा। 'यह सब कुछ खरीदा गया है तो पैसा कहाँ से आया?' उसने आखिरकार दीवार को घूरते हुए पूछा।

'पैसा क्यों, तुम्हारा ही पैसा था, वही जो वाखरूशिन का आदमी लाया था, जो तुम्हारी माँ ने भेजा है। यह भी भूल गए?'

'याद आया,' रस्कोलनिकोव ने देर तक उदासी के साथ चुप रहने के बाद कहा। रजुमीखिन माथे पर तेवर लिए बेचैनी से उसे देखता रहा।

इतने में दरवाजा खुला और एक तगड़ा आदमी अंदर आया रस्कोलनिकोव को उसकी कुछ सूरत पहचानी-पहचानी लग रही थी।

'जोसिमोव! आ गए आखिर!' रजुमीखिन खुशी से चिल्लाया।

अपराध और दंड : (अध्याय 2-भाग 4)

जोसिमोव एक लंबा और मोटा-सा शख्स था। फूला-फूला, बेरंग, सफाचट चेहरा और सीधे, सन जैसे बाल। चश्मा लगाता था और अपनी मोटी-सी उँगली पर सोने की एक बड़ी-सी अँगूठी पहनता था। वह सत्ताईस साल का था। वह हलके सुर्मई रंग का फैशनेबुल ढीला-ढीला कोट और गर्मियोंवाला हल्का पतलून पहने हुए था। उसकी हर चीज ढीली-ढाली, फैशनेबुक और एकदम नई थी। कमीज पर कोई उँगली नहीं उठा सकता था; घड़ी की चेन भी भारी-भरकम थी। वह एक सुस्त और बहुत कुछ लापरवाह शख्स था, लेकिन साथ ही उसमें बहुत कोशिश से पैदा की हुई बेतकल्लुफी और बेबाकी भी थी। वह अपने गुरूर को छिपाने की कोशिश तो करता था, लेकिन हर क्षण वह उभर कर सामने आ जाता था। जान-पहचानवाले सभी लोग उसे टेढ़ा आदमी समझते थे, लेकिन यह जरूर मानते थे कि वह अपने काम में होशियार था।

'यार, आज मैं तुम्हारे यहाँ दो बार गया। देख रहे हो न, इसे होश आ गया है,' रजुमीखिन जोश से बोला।

'हाँ, हाँ, और अब कैसा जी है, क्यों?' जोसिमोव ने रस्कोलनिकोव को ध्यान से देखते हुए, और सोफे के सिरे पर जितने भी आराम से मुमकिन हो सका, बैठते हुए, उससे पूछा।

'अभी भी तबीयत कुछ गिरी हुई ही है,' रजुमीखिन कहता रहा। 'अभी हमने इसके कपड़े बदलवाए तो लगभग रो पड़ा।'

'यह तो समझ की बात है : अगर इसका जी नहीं चाह रहा था तो न बदलवाते। नब्ज तो बहुत बढ़िया चल रही है। सर में दर्द अब भी है, क्यों?'

'मैं ठीक हूँ, एकदम ठीक हूँ!' रस्कोलनिकोव ने भरोसे के साथ और कुछ चिढ़ कर कहा। वह सोफे पर थोड़ा-सा उठा और उन्हें चमकती हुई आँखों से देखने लगा, लेकिन फिर फौरन ही तकिए में सर धँसा कर दीवार की ओर मुँह कर लिया। जोसिमोव गौर से उसे देखता रहा।

'बहुत अच्छा है... ठीक जा रहा है जैसा जाना चाहिए' उसने अलसाए स्वर में कहा। 'कुछ खाया?'

उन लोगों ने बताया और फिर पूछा कि खाने को क्या-क्या दिया जा सकता है।

'कुछ भी खा सकता है... सूप, चाय... अलबत्ता मशरूम और खीरा न देना। अच्छा हो कि अभी गोश्त भी न खाएँ, और... लेकिन वह बताने की तो तुम्हें कोई जरूरत नहीं!' रजुमीखिन और जोसिमोव ने एक-दूसरे को देखा। 'अब कोई दवा या कोई और चीज नहीं देनी। मैं कल फिर देखने आऊँगा। शायद, आज ही आऊँ... लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं है...'

'मैं इसे कल शाम टहलाने ले जाऊँगा,' रजुमीखिन ने कहा। 'हम लोग युसूपोव बाग जाएँगे, फिर रंगमहल जाएँगे।'

'मेरी राय में कल तो इसे एकदम न छेड़ा जाए, लेकिन मैं ठीक से कह नहीं सकता... हो सकता है थोड़ा-सा चलने में कोई हर्ज न हो... खैर, कल की कल देखेंगे।'

'यह तो दिल दुखानेवाली बात हुई। आज मैंने गृह-प्रवेश की दावत रखी है। यहाँ से बस दो कदम पर। इसे नहीं ले जा सकते वहीं सोफे पर लेटा रहेगा। तुम तो आ रहे रहो न?' रजुमीखिन ने जोसिमोव से कहा। 'भूलना नहीं, तुमने वादा किया था।'

'अच्छी बात है, लेकिन आऊँगा जरा देर से। क्या-क्या कर रखा है?'

'कुछ नहीं यार, यही चाय, वोद्का, नमक-लगी मछली। एक केक होगा... बस हमारे दोस्त होंगे।'

'कौन-कौन?'

'सब यहीं के रहनेवाले हैं और लगभग सभी नए हैं। मेरे बूढ़े चाचा को छोड़ कर... और वह भी तो नए ही हैं... अपने किसी काम के सिलसिले में अभी कल ही तो पीतर्सबर्ग आए हैं। हम लोगों की मुलाकात पाँच बरस में कहीं एक बार होती है।'

'करते क्या हैं?'

'उमर भर जिला पोस्टमास्टर की नौकरी में सड़ते रहे, अब थोड़ी-बहुत पेंशन मिलती है। पैंसठ के हैं... कोई खास बात उनके बारे में चर्चा करने लायक नहीं है... लेकिन मुझे उनसे बहुत लगाव है। पोर्फिरी पेत्रोविच भी आएगा। यहाँ की छानबीन करनेवाला अफसर, कानून का ग्रेजुएट... उसे तो जानते हो तुम।'

'वह भी रिश्तेदार है तुम्हारा?'

'बहुत दूर का। तुम इस तरह मुँह क्यों बना रहे हो एक बार कभी उससे झगड़ा हो गया था, इसलिए तुम नहीं आओगे, क्यों?'

'मैं उसकी रत्ती बराबर परवाह नहीं करता!'

'तब तो और अच्छी बात है। फिर कुछ लड़के होंगे, एक मास्टर, एक सरकारी क्लर्क, एक गानेवाला, एक अफसर, और जमेतोव।'

'अच्छा, यह बताओ, जमेतोव से तुम्हारा या इसका,' जोसिमोव ने सिर हिला कर रस्कोलनिकोव की तरफ इशारा किया, 'क्या साथ है!'

'आह रे तुम शरीफ लोग! भाड़ में गए तुम्हारे सिद्धांत। बँधे हुए हो तुम लोग उनसे, कमानियों की तरह। तुम लोग अपने आप तो घूमने की हिम्मत भी नहीं कर सकते। मेरा तो यह सिद्धांत है कि आदमी भला हो और इतना ही काफी है। जमेतोव बहुत ही उम्दा आदमी है।'

'रिश्वत लेना पसंद करता है।'

'अच्छा, लेता है, तो! क्या होता है उससे वह अगर रिश्वत लेता भी है तब भी इसकी मुझे परवाह नहीं,' रजुमीखिन बेहद चिढ़ कर, जोर से बोला। 'रिश्वत लेने के लिए मैं उसकी तारीफ तो नहीं करता, पर इतना कहूँगा कि अपने ढंग का बहुत अच्छा आदमी है! अब अगर हर आदमी को हर पहलू से देखा जाए... तो कितने आदमी अच्छे बचेंगे मैं तो समझता हूँ, मुझे कोई एक टके को भी नहीं पूछेगा, और पूछेगा तो तभी जब तुम्हें मुफ्त जोड़ दिया जाए।'

'यह तो बहुत कम है। मैं ही तुम्हारे दो देने को तैयार हूँ।'

'और मैं तुम्हारे लिए एक से ज्यादा न दूँ। अच्छा, बस अब अपने ये मजाक रहने दो! जमेतोव अभी कल का लड़का है, मैं उसके कान खींच सकता हूँ, और आदमी को दूर नहीं भगाना चाहिए, अपनी ओर लाना चाहिए। दूर भगा कर आप किसी आदमी को नहीं सुधार सकते, खास तौर पर अगर वह अभी लड़का हो। लड़के के साथ तो और भी सावधानी बरतनी पड़ती है। तुम प्रगतिशील बुद्धू लोग तुम कुछ नहीं समझते। दूसरे आदमी की निंदा करके तुम अपने आपको नुकसान पहुँचाते हो... लेकिन अगर जानना ही चाहते हो तो सुनो, हम लोग मिल कर एक काम कर रहे हैं।'

'मैं जानना चाहूँगा कि वह क्या है।'

'कुछ नहीं यार, एक घर की पुताई करनेवाले का मामला है... झंझट में फँस गया था, हम लोग उसे छुड़ाने की कोशिश कर रहे हैं, हालाँकि अब कोई डरने की बात नहीं। मामला एकदम साफ है! हमें बस थोड़ा-सा जोर लगाना होगा।'

'किस पुताई करनेवाले की बात करते हो?'

'क्यों, मैंने तुम्हें उसके बारे में बताया नहीं था तो फिर मैंने तुमको चीजें गिरवी रखनेवाली उस बुढ़िया के कत्ल के बारे में शुरू का किस्सा ही बताया होगा। इसी में वह पुताई करनेवाला फँस गया है...'

'उस कत्ल के बारे में तो मैंने पहले भी सुना था और मुझे उसमें कुछ दिलचस्पी भी पैदा हुई थी... कुछ-कुछ... एक खास वजह से... मैंने उसके बारे में अखबारों में भी पढ़ा था! लेकिन...'

'लिजावेता का भी तो कतल होएला है,' नस्तास्या भी अचानक रस्कोलनिकोव को संबोधित करते हुए बोली। वह तमाम वक्त दरवाजे के पास खड़ी सब सुनती आ रही थी।

'लिजावेता' रस्कोलनिकोव इतने धीरे-से बुदबुदाया कि मुश्किल से ही कोई सुन सकता था।

'वही, जो पुराना कपड़ा बेचेली थी। तुम उसे जानता नहीं था क्या? यहाँ भी आया करे थी। तुम्हारा एक कमीज भी मरम्मत किएली थी उसने।'

रस्कोलनिकोव ने दीवार की ओर मुँह कर लिया और मैले, पीले कागज पर छपे एक भद्दे से सफेद फूल को ताक कर, कि जिस पर कत्थई लकीरें बनी थीं, वह यह देखने लगा कि उसमें कितनी पत्तियाँ हैं, पत्तियों में कितने कंगूरे हैं और उन पर कितनी लकीरें हैं। उसे अपनी बाँहें और टाँगें बेजान लग रही थीं, जैसे शरीर से काट कर अलग कर दी गई हों। उसने हिलने-डुलने की कोई कोशिश नहीं की, बस एकटक उस फूल को घूरता रहा।

'लेकिन उस पुताई करनेवाले का क्या हुआ?' नस्तास्या की बकबक को बीच में काट कर जोसिमोव ने खुली नाराजगी के साथ कहा। वह आह भर कर चुप हो गई।

'यार, उस पर तो कत्ल का इल्जाम लगाया गया था,' रजुमीखिन उत्तेजित हो कर बोलता रहा।

'तो उसके खिलाफ कोई सबूत रहा होगा?'

'सबूत की भी अच्छी कही! सबूत ऐसा था जो कोई सबूत ही नहीं था, और यही हमें साबित करना था! बिलकुल वैसे ही जैसे उन लोगों ने शुरू में कोख और पेस्त्र्याकोव को धर लिया था। छिः! कितनी बेवकूफी से यह सब काम किया जाता है... मतली होने लगती है, हालाँकि हमारा कोई लेना-देना नहीं है इस बात से! पेस्त्र्याकोव शायद आज रात को आए... अरे हाँ, रोद्या, तुमने तो इस मामले के बारे में सुना होगा। यह तुम्हारे बीमार पड़ने से पहले की बात है। जब वे लोग उसके बारे में थाने में बातें कर रहे थे और तुम बेहोश हो गए थे, उससे बस एक दिन पहले की।'

जोसिमोव बड़ी जिज्ञासा से रस्कोलनिकोव को देखता रहा। रस्कोलनिकोव हिला तक नहीं।

'मैं तो कहता हूँ, रजुमीखिन, मुझे तुम्हारे ऊपर हैरत होती है। जरूरत से ज्यादा जोश दिखाते हो तुम!' जोसिमोव ने अपना विचार व्यक्त किया।

'हो सकता है, लेकिन हम लोग उसे छुड़ा कर दम लेंगे,' मेज पर मुक्का मार कर जोर से चिल्लाया। 'रजुमीखिन सबसे ज्यादा बुरी जो बात लगती है, यह नहीं है कि वे झूठ बोलते हैं। झूठ बोलने को तो हमेशा माफ किया जा सकता है, झूठ बोलना तो अच्छी बात है क्योंकि उसी के सहारे हम सच्चाई तक पहुँचते हैं... बुरी लगनेवाली बात यह है कि वे झूठ बोलते हैं और अपने झूठ बोलने को सराहते हैं, उसकी पूजा करते हैं... मैं पोर्फिरी की इज्जत करता हूँ, लेकिन... उन्हें सबसे पहले किस बात ने चक्कर में डाला दरवाजा बंद था, और जब वे दरबान को ले कर लौटे तो दरवाजा खुला था। इससे नतीजा यह निकला कि कोख और पेस्त्र्याकोव ने कत्ल किया है... यह थी उनकी दलील!'

'ज्यादा ताव न खाओ। उन्हें उन लोगों ने सिर्फ पकड़ा ही तो था, और यह तो उन्हें करना ही पड़ता... और हाँ, मैं इस कोख से मिल चुका हूँ। वह उस बुढ़िया से गिरवी रखी हुई ऐसी चीजें खरीदता था जिन्हें छुड़ाया न गया हो, है न?'

'हाँ, वह जालिया है। प्रोनोट भी खरीदता है। उसका धंधा यही है। लेकिन उसकी बात छोड़ो! जानते हो, मुझे गुस्सा किस बात पर आता है उनकी उस घिनौनी, सड़ी हुई, घिसी-पिटी खानापूरी पर... और यह मामला कोई नया तरीका लागू करने की बुनियाद बन सकता है। हम मनोवैज्ञानिक तथ्यों के सहारे ही बता सकते हैं कि असली आदमी का पता कैसे लगाया जाए। 'हमारे पास तथ्य हैं,' वे लोग कहते हैं। लेकिन तथ्य ही तो सब कुछ नहीं होते-कम से कम आधा दारोमदार तो इस बात पर होता है कि उन तथ्यों का मतलब किस तरह निकाला जाता है!'

'तो तुम जानते हो कि उनका मतलब कैसे निकालें?'

'बहरहाल, आदमी अगर यह महसूस करता हो, और ठोस बुनियाद पर महसूस करता हो कि वह शायद कुछ मदद कर सकता है, अपनी जबान तो नहीं बंद रख सकता अगर सिर्फ... क्यों तुम्हें पूरा किस्सा मालूम है?'

'मैं तो यह सुनने की राह देख रहा हूँ कि उस पुताई करनेवाले का क्या हुआ।'

'हाँ! तो वह किस्सा इस तरह है। कत्ल के तीसरे दिन सबेरे, जब वे अभी भी कोख और पेस्त्र्याकोव को रगड़ रहे थे - हालाँकि उन्होंने अपने एक-एक कदम का पूरा हिसाब दे दिया था और बात बिल्कुल साफ हो चुकी थी! - अचानक एक ऐसी बात सामने आई जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं था। दूश्किन नाम का एक किसान, जो उसी घर के सामने एक शराबखाना चलाता है, थाने में जेवर की एक डिबिया ले कर आया, जिसमें कानों की कुछ बालियाँ थीं। तो उसने एक लंबा-चौड़ा किस्सा सुनाया। 'परसों शाम को, ठीक आठ बजे के बाद' - दिन और वक्त पर जरा ध्यान दीजिए! - 'घरों की पुताई करनेवाला मिकोलाई, एक मामूली मजदूर, जो उस दिन पहले भी मेरे यहाँ आ चुका था, सोने की बालियों और नगीनों की यह डिबिया ले कर आया, और मुझसे कहने लगा कि उसे इसके दो रूबल दे दूँ। जब मैंने उससे पूछा कि ये चीजें उसे कहाँ मिलीं, तो उसने बताया कि सड़क पर पड़ी पाई हैं। मैंने उससे ज्यादा कुछ नहीं पूछा।' यह तुम्हें दूश्किन का बयान किया हुआ किस्सा बता रहा हूँ मैं। 'मैंने उसे एक नोट दिया' - यानी, एक रूबल - 'क्योंकि मैंने सोचा अगर मेरे पास नहीं तो किसी और के पास गिरवी रखेगा। बात तो वही होगी - पैसा तो वह दारू में ही उड़ाएगा, तो चीज मेरे ही पास रहे तो क्या बुरा है। जितना ही छिपाओ उतनी ही जल्दी उसका पता लगेगा, और अगर कोई ऐसी-वैसी बात हुई, अगर मैंने कोई उड़ती हुई बात सुनी, तो सारी चीजें ले कर पुलिस के पास चला जाऊँगा। 'जाहिर है, यह सब उसकी गप है; साफ झूठ बोलता है और पलक तक नहीं झपकाता। मैं इस दूश्किन को अच्छी तरह जानता हूँ; चीजें गिरवी रखता है, चोरी का माल खरीदता है, और उसने तीस रूबल का वह माल मिकोलाई को झाँसा दे कर इसलिए नहीं हथियाया था कि आखिर में ले जा कर पुलिस को दे दे, सो वह डर गया। खैर, दूश्किन का किस्सा सुनो। 'मैं इस किसान मिकोलाई देमेंत्येव को बचपन से जानता हूँ; वह भी हमारे प्रांत और उसी जरायस्क जिले का रहनेवाला है; हम दोनों रियाजान के हैं। यह मिकोलाई शराबी तो नहीं मगर थोड़ी-बहुत पी लेता है, और मैं जानता था कि वह उस घर में मित्रेई के साथ पुताई का काम कर रहा है। मित्रेई भी उसी गाँव का रहनेवाला है। रूबल पाते ही उसे उसने भुनाया, दो-एक गिलास पी और बाकी पैसे ले कर चलता बना। उस वक्त मैंने मित्रेई को उसके साथ नहीं देखा था। पर अगले दिन मैंने सुना कि अल्योना इवानोव्ना और उसकी बहन लिजावेता इवानोव्ना को किसी ने कुल्हाड़ी से कत्ल कर दिया है। हम लोग उन्हें जानते थे और मुझे फौरन उन बालियों के बारे में शक हुआ क्योंकि मुझे पता था कि जो औरत मारी गई थी, वह सामान गिरवी रख कर कर्ज देती थी। मैं उस घर में गया, और किसी से कुछ कहे बिना बड़ी सावधानी से पूछताछ करने लगा। सबसे पहले मैंने पूछा : 'मिकोलाई है? मित्रेई ने मुझे बताया कि मिकोलाई कहीं मौज कर रहा है; वह भोर पहर शराब पिए हुए घर आया था, वहाँ कोई दस मिनट रुका होगा और फिर निकल गया। उसके बाद मित्रेई ने उसे नहीं देखा और अब अकेले ही काम पूरा कर रहा है। वे लोग जिस फ्लैट में काम कर रहे थे। वह भी उन्हीं सीढ़ियों पर है जहाँ कत्ल हुआ था, दूसरी मंजिल पर। मैंने जब यह सब सुना तो किसी से कुछ भी नहीं कहा - यह दूश्किन का कहना है - 'लेकिन उस कत्ल के बारे में जो कुछ भी मैं पता लगा सका, मैंने लगाया और पहले की तरह ही शक में डूबा हुआ घर चला गया। और आज सबेरे आठ बजे' - वह तीसरा दिन था, आप समझ रहे हैं न - 'मैंने मिकोलाई को अंदर आते देखा। पूरी तरह होश में तो नहीं था, लेकिन सच पूछिए तो बहुत पिए हुए भी नहीं था - जो बात उससे कही जाती थी, उसे समझ लेता था। वह बेंच पर बैठ गया और कुछ नहीं बोला। शराबखाने में उस वक्त बस एक अजनबी था। एक और आदमी, जिसे मैं जानता था, बेंच पर सो रहा था और हमारे यहाँ काम करनेवाले दो छोकरे थे। 'तुमने मित्रेई को देखा है मैंने पूछा। 'नहीं, मैंने तो नहीं देखा,' वह बोला। 'और यहाँ भी तुम नहीं आए 'परसों के बाद नहीं,' वह बोला। 'और कल रात तुम सोए कहाँ थे 'पेस्की में।' 'तो कानों की बालियाँ तुम्हें कहाँ मिली थीं मैंने पूछा। 'मुझे सड़क पर पड़ी मिली थीं।' पर जिस तरह यह बात उसने कही, वह मुझे कुछ अजीब लगी। उसने मेरी ओर देखा भी नहीं। 'तुमने कुछ सुना है कि उसी दिन शाम को, उसी वक्त, उन्हीं सीढ़ियों पर क्या हुआ था मैंने पूछा। 'नहीं,' वह बोला, 'मैंने तो कुछ नहीं सुना।' वह जितनी देर ये सारी बातें सुनता रहा, उसकी आँखें अपने गड्ढों में से बाहर निकली पड़ रही थीं और रंग एकदम चूने की तरह सफेद पड़ गया था। मैंने उसे सारी बात बताई और वह अपना हैट उठा कर चल पड़ा। मैं उसे वहीं रोके रखना चाहता था। 'जरा ठहरो मिकोलाई,' मैंने कहा, 'कुछ पियोगे नहीं और मैं छोकरे को दरवाजा रोके रहने का इशारा करके गल्ले के पीछे से निकल कर बाहर आ गया। मगर वह तीर की तरह सड़क पर निकल गया और भागता हुआ मोड़ पर पहुँच कर गली में गायब हो गया। तब मेरे सारे शक दूर हो गए। यह उसी की हरकत थी, इसमें अब कोई शक ही नहीं रह गया था...'

'सो तो है,' जोसिमोव ने कहा।

'ठहरो, पूरी बात सुन लो। जाहिर है कि उन लोगों ने मिकोलाई को ढूँढ़ने के लिए कुओं में बाँस डलवा दिए, दूश्किन को पकड़ कर थाने ले जाया गया, उसके घर की तलाशी ली गई; मित्रेई को भी गिरफ्तार कर लिया गया, जहाँ उसने रात गुजारी थी, उसे उलट-पलट कर दिया गया। फिर उन लोगों ने मिकोलाई को परसों शहर के छोर पर एक शराबखाने में गिरफ्तार किया। वहाँ उसने गले से चाँदी का सलीब उतार कर उसके बदले थोड़ी-सी शराब माँगी थी। उन लोगों ने शराब उसे दे दी। कुछ ही मिनट बाद शराबवाले की औरत मवेशी बाँधने की छप्पर में गई, और वहाँ उसने दीवार की एक दरार में से देखा कि बगलवाले अस्तबल में उसने छत की शहतीर में कमरबंद बाँध कर एक फंदा बना रखा है और लकड़ी के एक कुंदे पर खड़ा हो कर उस फंदे में गर्दन फँसाने की कोशिश कर रहा है। पूरा जोर लगा कर वह औरत चीखी; लोग भाग कर वहाँ पहुँचे। 'तो अब पता चली तुम्हारी असलियत!' 'मुझे ले चलो', वह बोला, 'फलाँ थाने में; मैं सब कुछ सच-सच बता दूँगा।' तो उसे कुछ लोगों की निगरानी में थाने से जाया गया - मतलब कि यहाँ लाया गया। उससे इधर-उधर की बहुत-सी बातें पूछी गईं। 'क्या उम्र है, बाईस साल, वगैरह-वगैरह। जब उससे पूछा गया, 'जब तुम मित्रेई के साथ काम कर रहे थे, तब तुमने किसी को फलाँ वक्त सीढ़ियों पर देखा था, तब उसने जवाब दिया : 'लोग जरूर ऊपर-नीचे आते-जाते रहे होंगे, लेकिन मैंने उनकी ओर ध्यान नहीं दिया।' 'तुमने कुछ सुना भी नहीं, कोई शोर वगैरह? 'हमने कोई खास बात नहीं सुनी।' 'और, मिकोलाई, तुमने क्या यह सुना कि उसी दिन फलाँ विधवा और उसकी बहन का कत्ल हुआ था और उन्हें लूट लिया गया था? 'मुझे उसके बारे में रत्ती भर भी कुछ नहीं मालूम था। इसके बारे में मैंने पहली बार परसों ही अफनासी पाव्लोविच से सुना।' 'ये कानों की बालियाँ तुम्हें कहाँ मिली थीं? 'सड़क की पटरी पर पड़ी पाई थीं।' 'अगले दिन तुम मित्रेई के साथ काम करने क्यों नहीं गए थे? 'इसलिए कि शराब पी रहा था।' 'और शराब कहाँ पी रहे थे? 'अरे, फलाँ जगह।' 'पर तुम दूश्किन के यहाँ से भाग क्यों आए थे? इसलिए कि बहुत डर लग रहा था।' 'तुम्हें डर किस बात का लग रहा था? 'कि मुझी पर इल्जाम लगाया जाएगा।' 'जब तुम्हारा कोई कुसूर नहीं था तो फिर तुम्हें डर कैसे लग रहा था? अब तो जोसिमोव, तुम मेरी बात पर यकीन करो या न करो लेकिन यह सवाल हू-ब-हू इन्हीं शब्दों में पूछा गया था। मैं इस बात को पक्की तरह जानता हूँ : वह सवाल ज्यों का त्यों मेरे सामने दोहराया गया था! इसके बारे में क्या कहते हो?'

'बहरहाल, कुछ सबूत तो है।'

'मैं अभी सबूत की बात नहीं कर रहा हूँ, उस सवाल की बात कर रहा हूँ, वे लोग खुद अपने बारे में जो कुछ समझते हैं, उसकी बात कर रहा हूँ। खैर, वे लोग उसे रगड़ते रहे, रगड़ते रहे, यहाँ तक कि आखिरकार उसने मान लिया : 'मुझे सड़क पर नहीं मिली थीं बल्कि उस फ्लैट में मिली थीं जहाँ मैं मित्रेई के साथ काम कर रहा था।' 'मतलब 'मतलब यह कि मित्रेई और मैं दिन भर पुतार्ई करते रहे और काम खतम करके हम लोग चलने की तैयारी कर रहे थे कि मित्रेई ने ब्रश ले कर मेरे मुँह पर रंग लगा दिया। फिर वह भागा और उसके पीछे मैं भागा। मैं पूरी ताकत से चिल्लाता हुआ उसके पीछे भागा, और सीढ़ियों के नीचे पहुँच कर मेरी मुठभेड़ सीधे दरबान से और कुछ और भलेमानुसों से हो गई... कितने लोग थे, यह मुझे याद नहीं। दरबान ने मुझे गाली दी, दूसरे दरबान ने भी गाली दी, दरबान की औरत बाहर निकल आई, और वह भी हम लोगों को गालियाँ देने लगी। एक साहब इतने में एक मेम साहब को साथ लिए अंदर आए, और उन्होंने भी हमें गालियाँ दीं क्योंकि मित्रेई और मैं बीच रास्ते में पड़े हुए थे। मित्रेई के बाल मेरे हाथ में आ गए थे; मैंने उसे पटक दिया था और उसे पीट रहा था। उधर मित्रेई ने भी मेरे बाल पकड़ रखे थे और मुझे मारने लगा था। लेकिन हम यह सब गुस्से में आ कर नहीं कर रहे थे, बल्कि दोस्तों की तरह, खिलवाड़ कर रहे थे। और उसके बाद मित्रेई हाथ छुड़ा कर सड़क पर भागा। मैं भी उसके पीछे भागा लेकिन उसे पकड़ नहीं पाया और फ्लैट में अकेला ही वापस चला गया; मुझे अपना सामान समेटना था। मैं सारी चीजें समेट कर रखने लगा, यह सोच कर कि मित्रेई आएगा; कि उसी वक्त मेरा पाँव दरवाजे के पासवाले कोने में डिबिया पर पड़ा। मैंने देखा कि कागज में लिपटी हुई कोई चीज पड़ी है। मैंने कागज उतारा तो कुछ छोटी-छोटी कंटियाँ दिखाई दीं; मैं खोला तो देखा कि डिबिया में कानों की बालियाँ थीं...'

'दरवाजे के पीछे, ठीक दरवाजे के पीछे क्या कहा, दरवाजे के पीछे...' अचानक रस्कोलनिकोव जोर से चीखा, आतंक भरी सूनी-सूनी नजरों से रजुमीखिन को घूरता रहा और धीरे-धीरे हाथ का सहारा ले कर सोफे पर बैठ गया।

'हाँ... तो फिर बात क्या है हुआ क्या?' रजुमीखिन भी अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ।

'कुछ नहीं,' रस्कोलनिकोव ने फिर तकिए पर सर टिका कर, दीवार की ओर मुँह फेरते हुए धीमी आवाज में जवाब दिया कुछ देर तक सभी चुप रहे।

'आँख लग गई है... शायद सोते में बड़बड़ाया होगा,' आखिरकार रजुमीखिन ने सवालिया नजरों से जोसिमोव को देखते हुए कहा। जोसिमोव ने धीरे से अपना सर हिला कर खंडन किया।

'खैर, आगे बढ़ो,' जोसिमोव बोला। 'फिर क्या हुआ?'

'फिर क्या हुआ बालियाँ देखते ही फ्लैट और मित्रेई सब कुछ भूल कर उसने सीधे अपनी टोपी उठाई और भाग कर दूश्किन के यहाँ जा पहुँचा और जैसा कि हमें मालूम है, उससे उसने एक रूबल पाया। वह झूठ बोला कि उसने सड़क पर पड़ी पाई थीं, और जा कर पीने लगा। कत्ल के बारे में वह अपनी शुरूवाली बात ही दोहराता रहता है : 'मैं उसके बारे में कुछ नहीं जानता, परसों से पहले मैंने उसके बारे में कभी सुना तक नहीं था।' 'तो तुम अभी तक पुलिस के पास क्यों नहीं आए? 'डर लगता था।' 'पर तुमने फाँसी लगाने की कोशिश क्यों की? 'चिंता के मारे।' 'काहे की चिंता? 'यही कि मेरे ऊपर दूसरा इल्जाम लगाया जाएगा।' तो यह रहा सारा किस्सा। खैर तुम्हारे खयाल से उन लोगों ने इससे क्या नतीजा निकाला?'

'इसमें मेरे खयाल करने की कोई बात ही नहीं। सुराग मौजूद हैं, जैसे भी हैं, पर हैं। तुम यह उम्मीद तो नहीं कर रहे होगे कि तुम्हारे उस पुताई करनेवाले को छोड़ दिया जाए?'

'अब उन्होंने तो उसे सीधे-सीधे कातिल समझ लिया है! इसमें उन्हें रत्ती भर शक नहीं है।'

'ये सब बेतुकी बातें हैं। तुम बिला वजह उबल रहे हो। लेकिन तुम्हें उन बालियों के बारे में क्या कहना है? यह तो मानना होगा कि अगर बुढ़िया के संदूक में से बालियाँ उसी दिन और उसी वक्त मिकोलाई के हाथों में पहुँचीं तो किसी न किसी तरह तो पहुँची होंगी। इस तरह के मामले में यह एक बड़ी बात होती है।'

'वहाँ कैसे पहुँचीं? वहाँ कैसे पहुँचीं...' रजुमीखिन चीखा। 'तुम एक डॉक्टर हो, जिसका काम यह होता है कि वह मनुष्य का अध्ययन करे और जिसे मनुष्य के स्वभाव का अध्ययन करने के सबसे ज्यादा अवसर मिलते हैं, तो तुम इस पूरे किस्से में उस आदमी के चरित्र को क्यों नहीं देख पाते? क्या यह बात तुम्हें नहीं दिखाई देती कि छानबीन के दौरान उसने जो जवाब दिए, वे परम सत्य हैं बालियाँ उसके हाथों में उसी तरह पहुँचीं जिस तरह उसने हमें बताया - उसका पाँव डिबिया पर पड़ा और उसने उसे उठा लिया।'

'परम सत्य! पर क्या उसने खुद यह बात नहीं मानी कि पहले वह झूठ बोला था?'

'मेरी बात सुनो, ध्यान से। दरबान, कोख और पेस्त्र्याकोव, दूसरा दरबान और पहले दरबान की बीवी और वह औरत जो दरबान के घर पर बैठी थी और वह सरकारी अफसर क्रियूकोव, जो उसी क्षण गाड़ी में से उतरा था और एक मेम साहब के हाथ में हाथ डाले बड़े फाटक से अंदर गया था, मतलब यह कि आठ-दस गवाह सब यह बात मानते हैं कि मिकोलाई ने मित्रेई को जमीन पर गिरा रखा था, उसके ऊपर चढ़ा बैठा था और उसे पीट रहा था, और मित्रेई ने भी उसके बाल कस कर पकड़ रखे थे और वह भी उसे पीट रहा था। दोनों सड़क के ठीक बीच में पड़े हुए थे और उन्होंने आवाजाही का रास्ता रोक रखा था। उन्हें चारों ओर से गालियाँ मिल रही थीं और वे 'बच्चों की तरह' (गवाहों के शब्द यही थे) एक-दूसरे को पटकनियाँ दे रहे थे, किलकारियाँ मार रहे थे, लड़ रहे थे, अजीब-अजीब सूरतें बना कर हँस रहे थे, और बच्चों की तरह एक-दूसरे का पीछा करते हुए बाहर सड़क पर निकल गए थे। समझे अब जरा ध्यान दे कर सुनो। ऊपर लाशों में गर्मी बाकी थी... समझे, जब उन लोगों ने उन्हें देखा तब उनमें गर्मी बाकी थी! अगर उन्होंने, या अकेले मिकोलाई ने, उनको कत्ल किया होता और संदूक तोड़े होते, या सिर्फ डाका ही डाला होता, तो मैं तुमसे एक सवाल पूछना चाहूँगा : क्या उनकी उस वक्त की दिमागी हालत, फाटक पर उनका किलकारियाँ मारना और हँसना और झगड़ा करना, क्या वे बातें कुल्हाड़ियों, खून-खच्चर, शैतानों जैसी चालाकी या डाकाजनी से मेल खाती हैं? उन्होंने उन दोनों औरतों को अभी-अभी कत्ल किया था, पाँच या दस मिनट पहले भी नहीं, क्योंकि उस वक्त तक भी लाशों में गर्मी बाकी थी, और फौरन फ्लैट खुला छोड़ कर, यह जानते हुए भी कि लोग जल्द ही वहाँ पहुँच जाएँगे, वे अपना लूट का माल वहीं फेंक कर बच्चों की तरह लुढ़क रहे थे, हँस रहे थे, सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। ऐसे दर्जन भर गवाह हैं जो कसम खा कर ये बातें कहने को तैयार हैं!'

'बात सचमुच कुछ अजीब तो है! बेशक यह नामुमकिन है, मगर...'

'नहीं यार, कोई अगर-मगर नहीं। माना कि कत्ल जब हुआ था, उसी दिन और उसी वक्त कानों की बालियों का मिकोलाई के हाथों में पाया जाना उसके खिलाफ एक बहुत बड़ा परिस्थितिजन्य साक्ष्य बन जाता है - हालाँकि उसने जो सफाई दी है, उससे इसकी वजह अच्छी तरह साफ हो गई है और इसलिए अगर कोई दूसरा सबूत हो तो भी यह बात उसकी पुष्टि करनेवाला सबूत नहीं हो सकती। ऐसी हालत में हमें उन बातों पर भी ध्यान देना चाहिए, जिनसे वह बेकसूर साबित होता है, खास तौर पर इसलिए कि वे ऐसी बातें हैं जिनसे इनकार नहीं किया जा सकता। पर हमारी कानून-व्यवस्था के चरित्र को देखते हुए, तुम क्या समझते हो कि वे लोग इस बात को मानेंगे, या वे इसे मानने की स्थिति में भी हैं - जिसका आधार केवल मनोविज्ञान की दृष्टि से उसका असंभव होना है - कि यह बात अभियोग पक्ष के परिस्थितिजन्य साक्ष्य को सोलह आने पक्के तौर पर चूर-चूर कर देती है नहीं, वे इस बात को नहीं मानेंगे, कतई नहीं मानेंगे, क्योंकि उन्हें जेवर की डिबिया उस आदमी के हाथ में मिली थी और उस आदमी ने अपने फाँसी लगाने की कोशिश की थी, जो कि अगर वह अपने आपको अपराधी न समझता तो कभी न करता। यही बात है जिस पर मुझे ताव आता है, और तुम्हें समझनी चाहिए!'

'आह, मैं देख रहा हूँ कि तुम्हें ताव आ रहा है! पर ठहरो। मैं तुमसे एक बात पूछना भूल गया : इस बात का क्या सबूत है कि वह डिबिया बुढ़िया के यहाँ से ही आई थी?'

'यह तो साबित हो चुका है,' रजुमीखिन ने त्योरियों पर बल डाल कर साफ झिझकते हुए जवाब दिया। 'कोख ने जेवर की वह डिबिया पहचानी थी और उसके असली मालिक का नाम भी बताया था, जिसने पक्के तौर पर साबित कर दिया था कि वह उसी की थी।'

'सो तो बुरा हुआ। अब एक बात और। क्या किसी ने मिकोलाई को उस वक्त देखा था जब कोख और पेस्त्र्याकोव पहली बार ऊपर जा रहे थे क्या उसके बारे में कोई सबूत नहीं है?'

'असली बात यही तो है कि किसी ने नहीं देखा,' रजुमीखिन ने चिढ़ कर जवाब दिया। 'सबसे बुरी बात यही है। ऊपर जाते हुए कोख और पेस्त्र्याकोव ने भी उन्हें नहीं देखा था, हालाँकि अब उनकी गवाही को बहुत वजनदार माना भी नहीं जाएगा। उन्होंने कहा कि वह फ्लैट खुला था और वहाँ जरूर कोई काम हो रहा होगा, लेकिन उन्होंने इस बात की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया था और उन्हें यह याद नहीं था कि वहाँ आदमी सचमुच काम कर रहे थे या नहीं।'

'हूँ! ...तो सफाई में अकेला सबूत यही है कि वे एक-दूसरे को पीट रहे थे और हँस रहे थे। मान लेते हैं कि इस बात में दम काफी है, लेकिन... जो सच्चाइयाँ सामने आई हैं, उनको तुमने किस तरह समझा है मेरा मतलब यह है कि तुम्हारी समझ में वे बालियाँ वहाँ कैसे पहुँचीं यानी जैसा कि वह कहता है अगर वे उसे सचमुच वहीं मिली थीं तो?'

'मेरी समझ में इसमें समझ का क्या सवाल है बात एकदम साफ है! बहरहाल, जिस कोण से इस बात को समझने की कोशिश की जानी चाहिए वह बिलकुल साफ है और जेवर की डिबिया उसी तरफ इशारा करती है। कानों की वे बालियाँ असली कातिल ने गिराई थीं। जिस वक्त कोख और पेस्त्र्याकोव ने दरवाजा खटखटाया उस वक्त कातिल ऊपर ही था, कमरे में बंद। कोख ने यह गधापन किया कि वहीं दरवाजे पर खड़ा नहीं रहा। फिर कातिल भी सरपट निकल कर बाहर नीचे भागा, क्योंकि उसके लिए भागने का कोई दूसरा रास्ता था ही नहीं। मिकोलाई और मित्रेई उस खाली फ्लैट में से भाग कर बाहर निकले तब कोख, पेस्त्र्याकोव और दरबान की नजरें बचा कर वह उसी फ्लैट में जा छिपा। जिस वक्त दरबान और दूसरे लोग ऊपर जा रहे थे, उस वक्त वह वहीं छिपा हुआ रहा और उनके इतनी दूर निकल जाने की राह देखता रहा कि उन्हें उसकी आहट सुनाई न दे। उसके बाद वह चुपचाप ठीक उस वक्त नीचे उतर गया, जब मिकोलाई और मित्रेई भाग कर सड़क पर पहुँच चुके थे और फाटक पर कोई नहीं था। उसे शायद किसी ने देखा भी हो, लेकिन किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। बहुत से लोग अंदर-बाहर आते-जाते ही रहते हैं। बालियाँ उसकी जेब से उसी वक्त गिरी होंगी जब वह दरवाजे के पीछे खड़ा था पर उसे पता नहीं चला कि वे गिर गई हैं, क्योंकि वह बहुत-सी दूसरी बातों के बारे में सोच रहा था। जेवर की डिबिया इस बात का पक्का सबूत है कि वह उस जगह खड़ा हुआ था। यह है सारी बात का निचोड़।'

'यह कुछ ज्यादा ही सोच-विचार कर कही गई बात है! नहीं, मेरे भाई, तुमने जरूरत से ज्यादा ही सोच-विचार से काम लिया है! बहुत होशियारी दिखा दी है!'

'लेकिन क्यों आखिर क्यों?'

'इसलिए कि हर चीज जरूरत से ज्यादा ही फिट बैठ रही है... इसमें नाटक कुछ जरूरत से ज्यादा ही है।'

'ओफ!' रजुमीखिन अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने ही वाला था कि उसी पल दरवाजा खुला और एक बंदा अंदर आया जो वहाँ पर मौजूद सभी लोगों के लिए एकदम अजनबी था।

अपराध और दंड : (अध्याय 2-भाग 5)

वह सज्जन नौजवानी की उम्र पार कर चुके थे। कुछ अकड़ा हुआ, भारी-भरकम डील, कुछ काइयाँ और कुछ चिढ़ी हुई-सी सूरत। सबसे पहला काम उन्होंने यह किया कि दरवाजे पर ही ठिठके और अपने चारों ओर तौहीन भरी और खुली हैरानी से गौर से देखा, गोया अपने आपसे पूछ रहे हों कि वह भला कहाँ आ गए। उन्होंने रस्कोलनिकोव की उस नीची-सी, सँकरी 'चूहेदानी' को संदेह भरी नजरों से देखा, और कुछ ऐसे भाव से, गोया दंग रह गए हों और अपमान का अनुभव कर रहे हों। हैरत के उसी भाव से उन्होंने रस्कोलनिकोव को घूर कर देखा, जो अपने मैले-से फटीचर सोफे पर लेटा उन्हें एकटक देखे जा रहा था। उसने ठीक से कपड़े भी नहीं पहने थे, बाल बिखरे हुए थे और कई दिन से मुँह भी नहीं धोया था। फिर उन्होंने रजुमीखिन को उसी तरह ध्यान से सर से पाँव तक देखा - मैली-कुचैली वेश-भूषा, बिखरे बाल, चेहरे पर दाढ़ी बढ़ी हुई। रजुमीखिन भी उनकी आँखों में आँखें डाल कर ढिठाई से इस तरह देखता रहा, जैसे उनसे कोई सवाल पूछ रहा हो। कुछ पल खामोशी छाई रही और फिर जैसी कि आशा की जा सकती थी, दृश्य में कुछ परिवर्तन आया। शायद कुछेक, काफी असंदिग्ध संकेतों के आधार पर यह सोच कर कि उन लोगों पर अपना रोब डालने की कोशिश करके उन्हें यहाँ इस 'चूहेदानी' में कुछ नहीं मिलेगा, वह कुछ नर्म पड़े और बड़ी शिष्टता से, हालाँकि उसमें कुछ सख्ती भी थी, अपने सवाल के हर शब्द के एक-एक टुकड़े पर जोर देते हुए, उन्होंने जोसिमोव को संबोधित किया :

'रोदिओन रोमानोविच रस्कोलनिकोव छात्र, या पहले शायद छात्र रहा हो।'

जोसिमोव धीरे-से कसमसाया और सवाल का जवाब देने ही वाला था कि रजुमीखिन, जिसका इससे कोई वास्ता न था, उससे पहले ही बोल पड़ा :

'यह रहा, सोफे पर लेटा हुआ! आपको चाहिए क्या?'

यूँ लगा गोया इस जाने-पहचाने सवाल 'आपको चाहिए क्या' ने सज्जन के पाँव तले की जमीन ही खिसका दी। वह रजुमीखिन की ओर मुड़नेवाले थे कि उन्होंने समय रहते अपने आपको सँभाल लिया और एक बार फिर जोसिमोव की ओर मुड़े।

'यही है रस्कोलनिकोव,' जोसिमोव उसकी ओर सर हिला कर इशारा करते हुए बुदबुदाया। इसके बाद उसने अपना मुँह जहाँ तक हो सकता था, पूरा खोल कर लंबी जम्हाई ली। फिर अलसाए हुए ढंग से अपनी वास्कट की जेब में हाथ डाल कर उसने सोने की एक बड़ी-सी घड़ी निकाली, उसे खोल कर देखा और उतने ही धीरे-धीरे और अलसाए ढंग से उसे वापस अपनी जेब में रखने लगा।

रस्कोलनिकोव खुद कुछ बोले बिना, चित लेटा, बिना कुछ समझे हुए, लगातार अजनबी को घूरे चला जा रहा था। उसका चेहरा, जिसे उसने दीवार के कागज पर बने बेहद आकर्षक फूल की ओर से फेर लिया था, बेहद पीला पड़ गया था। उस पर वेदना की झलक साफ थी, गोया उसका कोई बहुत पीड़ाजनक ऑपरेशन हुआ हो या उसे अभी-अभी सूली पर से उतारा गया हो। लेकिन धीरे-धीरे उसे उस अजनबी में दिलचस्पी पैदा होने लगी, फिर आश्चर्य का भाव जागा, फिर संदेह का, यहाँ तक कि आतंक का भी। जब जोसिमोव ने कहा, 'यही है रस्कोलनिकोव' तो वह उछल कर सोफे पर बैठ गया और लगभग चुनौती देते हुए, लेकिन कमजोर और टूटे-टूटे लहजे में बोला :

'जी हाँ, रस्कोलनिकोव मैं ही हूँ। क्या चाहिए आपको?'

आनेवाले ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा और बड़े रोब से ऐलान किया :

'प्योत्र पेत्रेविच लूजिन। मैं समझता हूँ मेरी यह उम्मीद बेबुनियाद नहीं है कि आप मेरे नाम से एकदम अनजान तो नहीं ही होंगे?'

लेकिन रस्कोलनिकोव, जो कोई दूसरी ही बात सोचे बैठा था, खाली-खाली नजरों से टकटकी बाँधे देखता रहा। उसने कोई जवाब नहीं दिया, गोया प्योत्र पेत्रोविच का नाम उसने पहली बार सुना हो।

'क्या ऐसा हो सकता है कि अभी तक कोई खबर आपको न मिली हो?' प्योत्र पेत्रोविच ने कुछ बिगड़ कर पूछा।

जवाब में रस्कोलनिकोव धीरे-धीरे अपने तकिए पर फिर झुक गया। उसने अपने हाथ सर के पीछे रख लिए और एकटक छत को देखता रहा। लूजिन के चेहरे पर उदासी का भाव उभर आया। जोसिमोव और रजुमीखिन उन्हें पहले से भी अधिक जिज्ञासा से घूरने लगे। आखिरकार एकदम साफ नजर आने लगा कि वे कुछ अटपटा महसूस कर रहे हैं।

'मैं यह मान कर आया था और मैंने हिसाब भी लगाया था,' वे अटक कर बोले, 'कि डाक में जो खत पंद्रह दिन पहले नहीं तो कम से कम दस दिन पहले तो जरूर ही डाला गया था...'

'मैं कहता हूँ, आप चौखट पर क्यों खड़े हैं?,' रजुमीखिन ने अचानक उनकी बात काटते हुए कहा। 'आपको अगर कुछ कहना है तो बैठ जाइए। नस्तास्या और आप दोनों एक-दूसरे का रास्ता रोक रहे हैं। नस्तास्या, जगह देना जरा! यह रही कुर्सी, दब-सिमट कर अंदर आ जाइए!'

अपनी कुर्सी उसने मेज के पास से कुछ पीछे सरका ली, मेज और अपने घुटनों के बीच थोड़ी-सी जगह बना दी, और सिकुड़ा-सिमटा बैठा इस बात की राह देखता रहा कि आनेवाला 'दब-सिमट कर अंदर' आ जाए। उसने अपनी बात कहने के लिए ऐसा पल चुना था कि इनकार किया ही नहीं जा सकता था। आनेवाला गिरता-पड़ता किसी तरह रास्ता बना कर अंदर घुस आया। कुर्सी के पास पहुँच कर वह उस पर बैठा और संदेह भरी नजरों से रजुमीखिन को देखने लगा।

'घबराने की कोई जरूरत नहीं,' रजुमीखिन अनायास ही बोला। 'रोद्या पिछले पाँच दिन से बीमार है और तीन दिन तो सरसाम की हालत में रहा है, लेकिन अब ठीक हो रहा है और उसे भूख भी लगने लगी है। ये हैं उसके डॉक्टर जिन्होंने अभी-अभी उसे देखा है। मैं रोद्या का साथी हूँ और उसी की तरह मैं भी पहले पढ़ता था, पर आजकल इसकी तीमारदारी में लगा हूँ। लिहाजा आप हमारी परवाह किए बिना अपना काम कीजिए।'

'शुक्रिया। लेकिन यहाँ मेरी मौजूदगी और मेरी बातचीत से मरीज को तो कोई परेशानी नहीं होगी' प्योत्र पेत्रोविच ने जोसिमोव से पूछा।

'न...हीं,' जोसिमोव ने बुदबुदा कर कहा, 'आपसे कुछ दिल ही बहलेगा।' उसने फिर जम्हाई ली।

'यह तो काफी देर से होश में है, सबेरे से,' रजुमीखिन कहता रहा। उसकी बेतकल्लुफी दिल की ऐसी सादगी का पता दे रही थी कि प्योत्र पेत्रोविच अधिक प्रसन्नचित्त दिखाई देने लगे। शायद कुछ हद तक इसलिए भी कि इस मैले-कुचैले और ढीठ आदमी ने अपना परिचय छात्र के रूप में कराया था।

'आपकी माँ...,' लूजिन ने कहना शुरू किया।

'हूँ!' रजुमीखिन जोर से खखारा। लूजिन ने उसे चकरा कर देखा।

'कोई बात नहीं, आप कहिए।'

लूजिन ने कंधे बिचकाए।

'आपकी माँ ने, जिन दिनों मैं उनके पड़ोस में रह रहा था, आपको एक खत लिखना शुरू किया था। यहाँ पहुँचने पर मैं जान-बूझ कर कुछ दिन आपसे मिलने नहीं आया ताकि मुझे इस बात का पक्का भरोसा हो जाए कि आपको पूरी खबर मिल गई है। लेकिन अब यह जान कर मुझे हैरत हो रही है कि...।'

'मालूम है, सब मालूम है!' रस्कोलनिकोव अचानक बड़ी बेचैनी से झुँझला कर चीखा। 'तो मँगेतर आप हैं मैं जानता हूँ, और बस इतना ही काफी है!'

इसमें कोई शक नहीं था कि इस बार प्योत्र पेत्रोविच को बुरा लगा था, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं। उन्होंने इस बात को समझने की बेहद कोशिश की कि इस सबका मतलब क्या था। एक पल तक खामोशी रही।

इसी बीच रस्कोलनिकोव, जो जवाब देने के लिए जरा-सा उनकी तरफ मुड़ गया था, अचानक फिर उन्हें बड़ी जिज्ञासा से घूरने लगा, गोया अभी तक उसने उन्हें ठीक से देखा न हो, या गोया उसे कोई नई बात खटक गई हो। उसने जान-बूझ कर उन्हें घूरने के लिए तकिए पर से सर उठाया। प्योत्र पेत्रोविच की पूरी चाल-ढाल में निश्चित रूप से कोई अजीब-सी बात थी, कोई ऐसी बात जिसकी वजह से उनके लिए 'मँगेतर' की उपाधि का इतना अशिष्ट उपयोग ठीक ही लगता था। पहली बात तो यह थी कि यह एकदम साफ था, बल्कि जरूरत से ज्यादा ही साफ था, कि प्योत्र पेत्रोविच ने राजधानी में जो थोड़े से दिन गुजारे थे, उनको उन्होंने शादी की तैयारी में अपने आपको सजाने-सँवारने के लिए बड़े उत्साह और उत्सुकता से खर्च किया था - सचमुच यह एकदम निष्कपट और एकदम मुनासिब आचरण था। इस बात को देखते हुए कि प्योत्र पेत्रोविच ने मँगेतर की भूमिका अपना ली थी, इन परिस्थितियों में स्वयं उन्हें अपनी सूरत-शक्ल और चाल-ढाल में किसी सुखद सुधार की जरूरत का जो एहसास था और जिसकी वजह से शायद वह आवश्यकता से अधिक निश्चिंत हो गए थे, उन्हें क्षमा किया जा सकता था। उनके सारे कपड़े लगता था सीधे दर्जी के यहाँ से आए थे और एकदम ठीक थे। बात थी भी तो बस इतनी कि वे जरूरत से ज्यादा नए थे और हद से ज्यादा मुनासिब लग रहे थे। उसके तरहदार नए गोल हैट में भी यही खासियत थी : प्योत्र पेत्रोविच उसके साथ सम्मान का बर्ताव कर रहे थे और उसे बहुत सँभाल कर हाथ में लिए हुए थे। कासनी रंग के बेहद उम्दा फ्रांसीसी दस्ताने भी इसी बात का सबूत दे रहे थे, कम से कम इस बात से कि उन्होंने उनको पहनने की बजाय दिखाने के लिए हाथ में ले रखा था। प्योत्र पेत्रोविच के पूरे लिबास में हलके और नौजवानों लायक रंगों का जोर था। हलके बादामी रंग का खूबसूरत, गर्मियों का कोट, हलके पतले कपड़े का पतलून, उसी कपड़े की वास्कट, नई और बढ़िया कमीज, बेहद बारीक कैंब्रिक का गुलाबी धारियोंवाला गुलूबंद पर सबसे अच्छी बात तो यह थी कि यह सब कुछ प्योत्र पेत्रोविच पर फबता था। उनका खिला हुआ, बल्कि कह लीजिए कि खूबसूरत-सा चेहरा भी हर हालत में पैंतालीस साल से बहुत कम उम्र के आदमी का लग रहा था। दोनों ओर घने उगे हुए, गहरे रंग के मटनचॉप जैसे गलमुच्छे चमकदार, सफाचट चेहरे की शोभा बढ़ा रहे थे। वे अपने बालों से भी, जिनमें कहीं-कहीं सफेदी झाँक रही थी, हालाँकि उन्हें किसी नाई की दुकान में घुँघराले कराके सजाया-सँवारा गया था, देखने में बुद्धू नहीं लगते थे, जैसा कि घुँघराले बालोंवाला आदमी कुछ-कुछ जर्मन लगने की वजह से अपनी शादी के दिन हमेशा लगता है। देखने में भले और रोबदार लगनेवाले उनके चेहरे में अगर कोई चीज सचमुच अप्रिय और घृणाजनक थी, तो एकदम दूसरे कारणों से थी। बड़ी अशिष्टता से मिस्टर लूजिन को सर से पाँव तक देखने के बाद रस्कोलनिकोव दुश्मनी के भाव से मुस्कराया, फिर अपने तकिए पर लुढ़क गया और पहले की तरह छत को घूरने लगा।

मिस्टर लूजिन ने दिल कड़ा करके इन लोगों की उलटी-सीधी हरकतों की ओर ध्यान न देने का फैसला कर लिया था।

'आपको इस हालत में देख कर मुझे बेहद अफसोस है,' उन्होंने कोशिश करके खामोशी को तोड़ते हुए कहना शुरू किया। 'अगर मुझे आपकी बीमारी का पता होता तो मैं पहले आता। लेकिन आप तो कारोबार की हालत जानते हैं। इसके अलावा, सेनेट में भी एक बहुत बड़ा कानूनी मामला फँसा हुआ है और दूसरे भी बहुत-से काम हैं, जिनमें बहुत-सा वक्त निकल जाता है। आप इसका आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं। अब किसी भी वक्त आपकी माँ और बहन भी आ सकती हैं।'

रस्कोलनिकोव कुछ कसमसाया। लगा कि वह कुछ कहनेवाला है। चेहरे पर कुछ बेचैनी दिखाई दे रही थी। प्योत्र पेत्रोविच कुछ देर ठहर कर इंतजार करते रहे, लेकिन जब कुछ भी नहीं हुआ, तो उन्होंने अपनी बात जारी रखी :

'...किसी भी वक्त उनके यहाँ पहुँचने पर मैंने रहने की एक जगह भी ढूँढ़ ली है...'

'कहाँ?' रस्कोलनिकोव ने बुझी हुई आवाज में पूछा।

'पास ही में है। बकालेयेव के घर में।'

'वह तो बोज्नेसेंस्की में है,' रजुमीखिन बीच में बोला। 'उसमें दो मंजिलों पर बहुत सारे कमरे हैं जिन्हें यूशिन नाम का एक व्यापारी किराए पर उठाता है। मैं वहाँ जा चुका हूँ।'

'हाँ, सजे-सजाए कमरे...'

'बहुत ही बेहूदा जगह है। गंदी, बदबूदार और बदनाम भी। कुछ वारदातें हो चुकी हैं वहाँ, और तरह-तरह के अजीब लोग वहाँ रहते हैं! मैं भी एक लफड़े के सिलसिले में गया था। जगह सस्ती जरूर है, हालाँकि...'

'जाहिर है, मैं उस जगह के बारे में इतना कुछ मालूम नहीं कर सका, क्योंकि मैं खुद पीतर्सबर्ग में परदेसी हूँ,' प्योत्र पेत्रोविच ने झल्ला कर जवाब दिया। 'लेकिन दोनों कमरे हैं साफ-सुथरे, और हमें चाहिए भी तो थोड़े ही दिन के लिए... मैंने वैसे एक जगह पक्के तौर पर ले ली है, मतलब कि आगे चल कर हम लोगों के रहने के लिए,' उसने रस्कोलनिकोव को संबोधित करके कहा, 'और उसे मैं ठीक-ठाक करा रहा हूँ। इस बीच मैं अपने नौजवान दोस्त अंद्रेई सेम्योनोविच लेबेजियातनिकोव के साथ थोड़ी-सी जगह में किसी तरह रह रहा हूँ, मादाम लिप्पेवेख्सेल के फ्लैट में, उन्होंने ही मुझे बकालेयेव के इस घर के बारे में भी बताया था...'

'लेबेजियातनिकोव' रस्कोलनिकोव ने धीमे से कहा, जैसे कुछ याद कर रहा हो।

'हाँ, अंद्रेई सेम्योनोविच लेबेजियातनिकोव, मिनिस्ट्री में काम करता है। उसे आप जानते हैं?'

'हाँ... न... नहीं,' रस्कोलनिकोव ने जवाब दिया।

'माफ कीजिएगा, आपने जिस तरह पूछा, उससे मुझे लगा कि आप जानते हैं। किसी जमाने में मैं उसका संरक्षक था... बहुत अच्छा नौजवान है और नए विचारों का शख्स है। मुझे नौजवानों से मिल कर खुशी होती है; उनसे नई-नई बातें सीखने को मिलती हैं।' लूजिन ने बड़ी उम्मीदभरी नजरों से उन सबको देखा।

'मतलब क्या है आपका?' रजुमीखिन ने पूछा।

'सबसे ज्यादा गंभीर और बुनियादी सवालों के बारे में,' प्योत्र पेत्रोविच ने इस तरह जवाब दिया जैसे यह सवाल सुन कर वे बहुत खुश हुए हों। 'देखिए, बात यह है कि मैं दस साल बाद पीतर्सबर्ग आया हूँ। सारी नई और अनोखी चीजें, सारे सुधार, सारे विचार दूर-दराज कस्बों में हम तक पहुँच गए हैं, लेकिन इन बातों को और भी साफ तरीके से देखने के लिए आदमी को पीतर्सबर्ग आना ही चाहिए। मैं तो यह भी सोचता हूँ कि नौजवान पीढ़ी को देख कर ही हम सबसे ज्यादा समझते और सीखते हैं। और मैं तो मानता हूँ कि मुझे बड़ी खुशी हुई...'

'किस बात पर?'

'तुम्हारा सवाल बहुत लंबा-चौड़ा है। मुमकिन है मेरा खयाल गलत हो, लेकिन मैं समझता हूँ कि मुझे कहीं ज्यादा साफ विचार मिलते हैं, यूँ कहिए कि ज्यादा आलोचना सुनने को मिलती है, ज्यादा व्यावहारिकता आती है...'

'सच कहा,' जोसिमोव पटाक से बोला।

'बकवास! इसमें कहीं कोई व्यावहारिकता नहीं है,' रजुमीखिन उस पर बरस पड़ा। 'व्यावहारिकता बड़ी मुश्किल से आती है, कोई आसमान से नहीं टपकती। हमारा व्यावहारिक जीवन से पिछले दो सौ साल से कोई नाता नहीं रहा है। आप कह सकते हैं, कि ढेरों विचार पनप रहे हैं,' उसने प्योत्र पेत्रोविच से कहा, 'अच्छाई की इच्छा भी मौजूद है, हालाँकि वह अभी बचकाना शक्ल में है, और ईमानदारी भी आपको मिल सकती है, हालाँकि यहाँ लुटेरों के गिरोह भी हैं। लेकिन व्यावहारिकता कहीं नहीं है! व्यावहारिकता तो खाते-पीते लोगों के यहाँ ही होती है।'

'मैं आपकी यह बात नहीं मानता,' प्योत्र पेत्रोविच ने जवाब दिया। देखने से ही लग रहा था कि उन्हें इस बातचीत में बहुत मजा आ रहा था। 'बेशक, लोगों को कुछ ज्यादा जोश आ जाता है और वे गलतियाँ कर बैठते हैं, लेकिन हमें बर्दाश्त करना चाहिए। वह जोश अपने ध्येय के प्रति उत्साह का और उन विकृत बाहरी परिस्थितियों का ही सबूत होता है जिनमें काम-धाम चलता है। अगर काम बहुत थोड़ा हुआ है तो बहुत ज्यादा वक्त भी तो नहीं मिला है; साधनों की बात मैं नहीं करूँगा। अगर आप जानना चाहें तो मेरा निजी विचार यह है कि कुछ तो हासिल किया जा चुका है : नए उपयोगी विचार फैलने लगे हैं, पुरानी और बेहद काल्पनिक रचनाओं की जगह नई, उपयोगी रचनाओं का चलन बढ़ रहा है। साहित्य में ज्यादा परिपक्वता आती जा रही है, कितने ही हानिकारक पूर्वाग्रह उखाड़ फेंके गए हैं और उन्हें हास्यास्पद बना दिया गया है... थोड़े शब्दों में कहा जाए तो हमने अतीत से पूरी तरह अपना नाता तोड़ लिया और यह मेरी राय में बहुत बड़ी बात है...'

'सब रट रखा है रोब झाड़ने के लिए!' रस्कोलनिकोव ने अचानक फैसला सुनाया।

'क्या कहा' प्योत्र पेत्रोविच ने पूछा, वह उसकी बात ठीक से सुन नहीं सके थे। लेकिन उन्हें अपने सवाल का कोई जवाब नहीं मिला।

'आप बिलकुल ठीक फरमाते हैं,' जोसिमोव जल्दी से बीच में बोला।

'है न' जोसिमोव को बड़े दुलार से देखते हुए प्योत्र पेत्रोविच ने अपनी बात जारी रखी। 'आपको मानना पड़ेगा,' उन्होंने कुछ विजय भाव और कुछ तिरस्कार के साथ-वह बस 'नौजवान' शब्द जोड़ते-जोड़ते रह गए - रजुमीखिन को संबोधित करते हुए अपनी बात को आगे जारी रखा, 'कि विज्ञान और आर्थिक सत्य के मामले में हम आगे बढ़े हैं, या जैसा कि आजकल लोग कहते हैं, प्रगति हुई है...'

'घिसी-पिटी बातें हैं!'

'नहीं जनाब, घिसी-पिटी बातें नहीं हैं! मिसाल के लिए, अगर मुझसे कहा जाता कि अपने पड़ोसी को प्यार करो, तो उसका क्या नतीजा होता?' प्योत्र पेत्रोविच शायद जरूरत से ज्यादा जल्दबाजी में अपनी बात कहते रहे। 'इसका यह मतलब होता कि मैं अपना आधा कोट फाड़ कर अपने पड़ोसी के साथ बाँट लूँ और हम दोनों आधे-आधे नंगे रहें। जैसी कि रूसी कहावत है, अगर दो खरगोशों का पीछा करोगे तो एक भी हाथ नहीं लगेगा। अब विज्ञान हमें बताता है कि सबसे बढ़ कर अपने आपको प्यार करो, क्योंकि दुनिया में हर चीज का दारोमदार स्वार्थ पर है। अपने आपको प्यार करोगे तो अपना हर काम ठीक से चलाओगे और तुम्हारा कोट पूरा रहेगा। आर्थिक सत्य इसमें इतना और जोड़ देता है कि समाज में निजी मुआमलों की व्यवस्था जितने ही अच्छे ढंग से की जाएगी - कहने का मतलब यह कि जितने ही ज्यादा लोगों के पास पूरे कोट होंगे - उस समाज की बुनियादें उतनी ही मजबूत होंगी और लोक-कल्याण की व्यवस्था भी उतनी ही अच्छी होगी। इसलिए, सिर्फ अपने लिए दौलत जुटा कर मैं एक तरह से सबके लिए दौलत पैदा कर रहा हूँ, और ऐसी हालत पैदा करने में मदद दे रहा हूँ कि मेरे पड़ोसी को आधे कोट से ज्यादा भी कुछ मिल सके। और यह सब अलग-अलग लोगों की निजी उदारता की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए होता है कि आमतौर पर सभी ने तरक्की की है। यह विचार है बहुत सीधा-सा लेकिन अफसोस की बात यह है कि हमारे पास तक इसे पहुँचने में बहुत समय लगा, क्योंकि अस्पष्ट भावुकता और आदर्शवाद उसकी राह में रुकावट बने हुए थे। फिर भी यूँ लगता है कि इस बात को समझ सकने के लिए बहुत ज्यादा समझ की जरूरत नहीं है...'1

'माफ कीजिएगा, मेरे समझ तो खुद बहुत थोड़ी है,' रजुमीखिन ने चट से बात काट कर कहा, 'इसलिए अब इस बहस को रहने ही देते हैं। मैंने अपनी बातें एक खास मकसद से शुरू की थीं, लेकिन पिछले तीन साल के दौरान मनबहलाने की इस बकबक से, इन धाराप्रवाह घिसी-पिटी बातों से, जो हमेशा वही की वही रहती हैं, मैं इतना तंग आ चुका हूँ कि, भगवान जानता है, जब दूसरे लोग भी इसी तरह की बातें करते हैं तो मुझे शर्म आने लगती है। आपको यकीनन यह दिखाने की बेचैनी है कि आप कितने पढ़े-लिखे आदमी हैं। इस बात को माफ किया जा सकता है, और मैं आपको इसके लिए दोष भी नहीं देता, क्योंकि यह कोई ऐसी बुरी बात नहीं है। मैं तो बस यह मालूम करना चाहता था कि आप किस तरह के आदमी हैं, क्योंकि इधर कुछ दिनों से इतने सारे पाखंडी लोगों ने प्रगतिशील लक्ष्य को अपना लिया है और जिस चीज को भी हाथ लगाया है, उसे अपने निजी हितों के लिए इतना विकृत कर दिया है कि उस पूरे लक्ष्य की मिट्टी पलीद हो गई है। खैर, इतना ही काफी है!'

'माफ कीजिए, जनाब,' लूजिन ने बुरा मान कर और बेहद गरिमा के साथ बोलते हुए कहा, 'इतने दो-टूक ढंग से कहीं आप यह तो नहीं कहना चाहते कि...'

'नहीं, साहब... मेरी ऐसी मजाल ...छोड़िए, बस बहुत हो गया,' रजुमीखिन ने बात खत्म करते हुए कहा, और फिर वह अपनी पहलेवाली बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए जोसिमोव की ओर मुड़ा।


1. यहाँ प्योत्र पेत्रोविच के मुँह से लेखक ने निकोलाई चेर्नीसव्स्की के उपन्यास क्या करें में 'प्रबुद्ध स्वार्थ ' की धारणा और जान स्टुअर्ट मिल के उपयोगितावाद का विरोध किया है - अनुवादक।


प्योत्र पेत्रोविच ने उसके इस खंडन को स्वीकार कर लेने में ही भलाई समझी। उसने उन लोगों से दो-एक मिनट में विदा लेने का मन बना लिया था।

'मुझे यकीन है कि हमारी जान-पहचान,' उसने रस्कोलनिकोव को संबोधित करते हुए कहा, 'आपके अच्छे हो जाने पर और उन परिस्थितियों को देखते हुए जिनसे आप परिचित हैं, और भी गहरी होंगी... सबसे बढ़ कर तो मैं आपके फिर से स्वस्थ हो जाने की कामना करता हूँ...'

रस्कोलनिकोव ने सर तक नहीं घुमाया। प्योत्र पेत्रोविच कुर्सी से उठने लगे।

'उसे उसके किसी गाहक ने ही मारा होगा।,' जोसिमोव ने पूरे विश्वास के साथ ऐलान किया।

'इसमें कोई शक ही नहीं,' रजुमीखिन ने जवाब दिया। 'पोर्फिरी अपनी राय नहीं बताता लेकिन उन सब लोगों से पूछताछ कर रहा है जिन्होंने चीजें वहाँ गिरवी रखी थीं।'

'पूछताछ कर रहा है?' रस्कोलनिकोव ने जोर से पूछा।

'हाँ। तो?'

'कुछ भी नहीं।'

'वे लोग उसके हाथ आएँगे कैसे?' जोसिमोव ने पूछा।

'कुछ के नाम तो कोख ने दिए हैं, कुछ नाम गिरवी रखी हुई चीजों के लिफाफों पर लिखे हैं और कुछ लोग इस मामले की खबर सुन कर खुद ही आ गए हैं।'

'कोई बहुत ही चालाक, छँटा हुआ बदमाश होगा! हिम्मत तो देखो उसकी! कैसे ठंडे दिमाग से सारा काम कर गया!'

'यही बात तो बस नहीं है,' रजुमीखिन बीच में बोल पड़ा। 'यही बात है जो तुम सब लोगों को भटका देती है। मेरा कहना यह है कि वह चालाक नहीं है, मँजा हुआ नहीं है, और शायद उसका यह पहला अपराध था। गुत्थी यह मान लेने से नहीं सुलझती कि यह अपराध सोच-समझ कर किया गया था और अपराधी चालाक था। अगर अब मान लें कि वह अनाड़ी था तो यह बात साफ है कि वह संयोग से ही बच निकला - और संयोग से तो कुछ भी हो सकता है। देखते नहीं, उसे शायद पहले से अंदाजा भी नहीं था कि राह में क्या-क्या रुकावटें आएँगी! और उसने सारा काम निबटाया किस तरह दस-बीस रूबल की चीजें ले कर अपनी जेबों में ठूँसीं, बुढ़िया का संदूक, फटे-पुराने कपड़े छान मारे - और अलमारी की सबसे ऊपरवाली दराज में एक संदूकची के अंदर नोटों के अलावा पंद्रह सौ रूबल ज्यों के त्यों रखे हुए मिले! उसे चोरी करना नहीं आता था, वह सिर्फ कत्ल कर सकता था। यह उसका पहला अपराध था, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ, एकदम पहला अपराध। उसके हाथ-पाँव फूल गए और अगर वह बच निकला तो इसमें उसकी समझदारी से ज्यादा उसकी किस्मत ने साथ दिया।'

'मैं समझता हूँ आप उस बुढ़िया के कत्ल की बात कर रहे हैं, जो चीजें गिरवी रखती थी!' प्योत्र पेत्रोविच जोसिमोव को संबोधित करते हुए बीच में बोला। वह हैट और दस्ताने हाथ में लिए खड़ा था, लेकिन चलने से पहले उसका जी हुआ कि गहरी अक्ल की बातों के कुछ और मोती बिखेरते चलें। जाहिर है वह इस बात के लिए बहुत बेचैन था कि लोगों पर अपने बारे में अच्छा असर छोड़ कर जाएँ और इसीलिए उसके अहंकार ने उनके विवेक को दबोच लिया।

'जी हाँ। आप सुन चुके हैं उसके बारे में?'

'हाँ, पड़ोस में ही तो ठहरा हुआ हूँ।'

'सारी बातें आपको पता हैं?'

'यह तो मैं नहीं कह सकता। लेकिन इस मामले के एक और पहलू में बल्कि कहना चाहिए कि पूरी समस्या में - मुझे बड़ी दिलचस्पी है। इस बात से अलग कि पिछले पाँच साल के दौरान निचले वर्गों के बीच अपराध बहुत बढ़े हैं, और इस बात से भी अलग कि हर जगह डाके और आगजनी की वारदातें हो रही हैं, मुझे सबसे अजीब यह बात लगती है कि ऊँचे वर्गों में भी अपराध उतनी ही तेजी से बढ़ रहे हैं। कहीं यह सुनने को मिलता है कि किसी छात्र ने खुली सड़क पर डाल लूट ली; कहीं और भी अच्छी-खासी समाजी हैसियत के लोग जाली नोट बनाते हैं। मास्को में अभी हाल ही में एक पूरा गिरोह पकड़ा गया है जो लाटरी के जाली टिकट छापता था, और उसके सरगनों में एक तो विश्व-इतिहास का अध्यापक था। फिर किसी नामालूम फायदे के लिए विदेश में हमारे सेक्रेटरी की हत्या की गई... अब अगर चीजें गिरवी रखनेवाली इस बुढ़िया की हत्या भी समाज के ऊँचे वर्ग के किसी शख्स ने की है - क्योंकि किसान तो सोने के जेवर गिरवी रखते नहीं - तो अपने समाज के सभ्य वर्गों के इस नैतिक पतन की हम क्या वजह बयान कर सकते हैं?'

'बहुत से आर्थिक परिवर्तन हुए हैं,' जोसिमोव ने कहा।

'इसकी हम क्या वजह बयान कर सकते हैं?' रजुमीखिन ने उसे बीच से ही टोक दिया। 'इसकी वजह हमारे अंदर व्यावहारिकता का अभाव है।'

'क्या मतलब है आपका, जनाब?'

'आह, आपके उस मास्कोवाले अध्यापक ने इस सवाल का क्या जवाब दिया था कि वह जाली नोट क्यों बनाता था यही न कि 'हर आदमी किसी न किसी तरीके से अमीर बन रहा है, सो मैं भी जल्दी से अमीर बनना चाहता हूँ।' मुझे ठीक-ठीक उसके शब्द तो याद नहीं रहे, लेकिन उसका निचोड़ यह था कि वह कुछ किए बिना, धैर्य के साथ कुछ किए बिना, कोई काम किए बिना पैसा बनाना चाहता था! हम लोगों की आदत ही बन गई है और हम चाहते हैं कि हर चीज बनी-बनाई मिल जाए। हम बैसाखियों के सहारे चलना चाहते हैं, और चाहते हैं कि हमारा खाना भी कोई दूसरा चबा कर हमें खिला दे। फिर वह फैसले की घड़ी1 आई और हर आदमी की असलियत सामने आ गई।'

'लेकिन नैतिकता और वह चीज जिसे सिद्धांत कहा जाता है...?'

'आप उसकी चिंता क्यों करते हैं' रस्कोलनिकोव अचानक बीच में बोला। 'यह बात तो आपके ही सिद्धांत से मेल खाती है!'

'मेरे सिद्धांत से आपका क्या मतलब है?'

'जी, आप जिस सिद्धांत की पैरवी कर रहे थे उसे उसकी तर्कसंगत सीमा तक ले जाइए और आप इसी नतीजे पर पहुँचेंगे कि आपको दूसरों के गले काटने का हक है...'

'कमाल करते हैं आप!' लूजिन चीख पड़ा।

'नहीं, बात ऐसी नहीं है,' जोसिमोव ने कहा।

रस्कोलनिकोव पीला पड़ा हुआ था। चेहरा बिलकुल सफेद था और ऊपरवाला होठ फड़क रहा था। साँस लेने में तकलीफ हो रही थी।

'हर चीज की एक हद होती है,' लूजिन उसी तरह खंभे पर चढ़ा बोलता रहा। 'आर्थिक विचार कत्ल करने का उकसावा नहीं देते; हमें बस यह मान लेना होता है...'

'यह क्या सच है,' रस्कोलनिकोव एक बार फिर अचानक बीच में बोल पड़ा; इस बार भी गुस्से से उसकी आवाज काँप रही थी और उसे लूजिन का अपमान करने में मजा आ रहा था। 'यह क्या सच है कि आपने अपनी होनेवाली बीवी से... उसकी रजामंदी मिलने के वक्त ही... यह कहा था कि जिस बात की आपको सबसे ज्यादा खुशी थी... वह यह थी कि वह कंगाल थी... कि बीवी को गरीबी के चंगुल से छुड़ा कर लाना कहीं अच्छा होता है, ताकि वह पूरी तरह आपके बस में रहे, और आप उसके साथ उपकार करने के ताने देते रह सकें?'

'कमाल है यह तो!' लूजिन और भी गुस्से से चिढ़ कर चीखा; बौखलाहट के मारे उसका चेहरा तमतमा रहा था। 'मेरी बात को इस तरह तोड़ा-मरोड़ा गया है! माफ कीजिएगा, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि जो खबर आपके पास पहुँची है, बल्कि आप तक पहुँचाई गई है, उसकी हकीकत में कोई बुनियाद नहीं है, और मुझे... शक है यह तीर... किसने... एक शब्द में... एक शब्द में, आपकी माँ... उनकी तमाम खूबियों के बावजूद, दूसरी बातों में मुझे ऐसा लगा था कि उनका सोचने का तरीका कुछ हवाई और रोमानी किस्म का है... लेकिन मुझे दूर-दूर तक इस बात का गुमान नहीं था कि वे मेरी बात को इतना गलत समझेंगी और अपनी कल्पना के सहारे उनका ऐसा गलत मतलब लगाएँगी... आखिरकार... आखिर तो...'


1. इशारा 1861 में अर्धदासों की मुक्ति की तरफ है - अनुवादक।


'एक बात मैं आपको बता दूँ,' रस्कोलनिकोव तकिए पर से सर उठा कर तीखी और दहकती हुई नजरों से उसे घूरता हुआ चिल्लाया। 'मैं आपको एक बात बता दूँ...'

'क्या?' लूजिन चुपचाप खड़ा इंतजार करता रहा। उसके चेहरे से लग रहा था कि उसे गहरी ठेस लगी थी और वह किसी भी चीज का सामना करने को तैयार है। यह चुप्पी कुछ पल तक जारी रही।

'अगर आपने फिर कभी... मेरी माँ के बारे में... एक बात भी मुँह से निकालने की हिम्मत की... आपको मैं नीचे फेंक दूँगा।'

'तुम्हें क्या हो गया है?' रजुमीखिन जोर से चिल्लाया।

'तो यह बात है जनाब!' लूजिन का रंग पीला पड़ गया और वह अपना होठ चबाने लगा। 'मैं आपको इतनी बात बता दूँ, जनाब,' उसने सँभल कर कहना शुरू किया; वह लंबी-लंबी साँसें ले कर अपने आपको काबू में रखने की कोशिश कर रहा था, 'आते ही मैंने देख लिया था कि मेरे बारे में आपका रवैया कुछ बहुत अच्छा नहीं था। फिर भी मैं जान-बूझ कर यहाँ रुका रहा कि कुछ और बातें मालूम कर सकूँ। मैं बीमार आदमी की, और वह भी एक रिश्तेदार की, बहुत-सी बातें माफ कर सकता हूँ, लेकिन आपको... इसके बाद कभी नहीं...'

'मैं बीमार नहीं हूँ!' रस्कोलनिकोव जोरों से चीखा।

'सो तो जनाब, और भी बुरा है...'

'शैतान के घर में जाइए आप!'

लेकिन लूजिन अपनी बात पूरी किए बिना मेज और कुर्सी के बीच से रास्ता बनाते हुए वैसे भी वहाँ से चल पड़ने को तैयार हो गया था और इस बार रजुमीखिन उन्हें रास्ता देने के लिए खड़ा हो गया था। किसी की ओर देखे बिना, और जोसिमोव की ओर तो सर हिलाए बिना ही, जो काफी देर से उनको इशारा कर रहा था कि वह बीमार को उसके हाल पर छोड़ दें, लूजिन बाहर चला गया। उसने दरवाजे से बाहर निकलने के लिए झुकते समय इस डर से कि कहीं हैट दब न जाए, उसे कंधे तक ऊँचा उठा लिया था। उसकी झुकी हुई पीठ भी साफ पता दे रही थी कि उसका कैसा अपमान हुआ था।

'यही तुम्हारा व्यवहार करने का ढंग है, क्यों!' रजुमीखिन परेशान हो कर अपना सर हिलाते हुए बोला।

'मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो... तुम सब लोग... मेरे हाल पर मुझे छोड़ दो!' रस्कोलनिकोव दीवानों की तरह चिल्लाया। 'तुम लोग कभी मुझे सताना बंद भी करोगे कि नहीं मैं तुमसे डरता नहीं हूँ! अब मैं किसी से नहीं डरता, किसी से भी नहीं! मेरे पास से चले जाओ! मैं अकेला रहना चाहता हूँ, अकेला, एकदम अकेला!'

'आओ, चलें,' जोसिमोव ने सर हिला कर रजुमीखिन को इशारा किया।

'लेकिन इसे इस तरह छोड़ कर तो हम जा नहीं सकते!'

'चलो भी,' जोसिमोव ने आग्रहपूर्वक दोहराया और बाहर निकल गया। रजुमीखिन एक पल सोचता रहा और फिर उसके पीछे लपका।

'उसकी मर्जी के खिलाफ कुछ करने का नतीजा और भी बुरा हो सकता है,' जोसिमोव ने सीढ़ियों पर कहा। 'हमें कोई ऐसी बात नहीं करनी चाहिए जिस पर वह झुँझलाए।'

'आखिर उसे हो क्या गया है?'

'अगर उसे कोई ऐसा झटका अचानक लगे जिससे उसे बेहद खुशी पहुँचे, तो काम बन सकता है! घंटाभर पहले तक तो वह ठीक ही था... बात यह है कि कोई बात उसके दिमाग में समाई हुई है! कोई ऐसा विचार घर कर गया है जो उसके मन पर बोझ बन गया है... मुझे तो यही डर लगता है; कोई न कोई विचार जरूर ऐसा है!'

'शायद वह शख्स जो आया था... प्योत्र पेत्रोविच! उसकी बातों से मुझे लगा कि वह उसकी बहन से शादी करनेवाला है, और अपनी बीमारी से फौरन पहले उसे इसके बारे में एक खत मिला था...'

'हाँ, लानत पहुँचे उस आदमी पर! हो सकता है कि उसी ने सारी बात बिगाड़ दी हो। लेकिन तुमने एक बात देखी? वह किसी भी चीज में दिलचस्पी नहीं लेता, किसी भी चीज का उस पर असर नहीं होता, अलावा एक बात के जिस पर वह भड़क उठता है - और वह है वह कत्ल!'

'हाँ, अरे हाँ!' रजुमीखिन ने हामी भरी, 'मैंने भी इस बात पर ध्यान दिया है। वह दिलचस्पी लेता है, डरता है। जिस दिन वह बीमार था, उस दिन उसे थाने में डराया-धमकाया गया था और वह बेहोश हो गया था।'

'आज रात को मुझे इसके बारे में कुछ और बताना, फिर बाद में तुम्हें मैं कुछ बताऊँगा। उसमें मुझे काफी दिलचस्पी पैदा हो गई है! आधे घंटे में मैं उसे फिर देखने जाऊँगा... मैं तो समझता हूँ कि बुखार उसके दिमाग पर नहीं चढ़ेगा।'

'शुक्रिया! मैं पाशेंका के पास उतनी देर बैठ कर इंतजार करूँगा और नस्तास्या के जरिए उसकी खोज-खबर रखूँगा...'

अकेले रह जाने पर रस्कोलनिकोव ने बहुत बेसब्री और बेचैनी के साथ नस्तास्या को देखा। लेकिन उसे जाने की कोई जल्दी नहीं थी।

'अब थोड़ी-सी चाय चलेगी?' उसने पूछा।

'बाद में! नींद आ रही है मुझे! जाओ यहाँ से!' फिर उसने झट से अपना मुँह दीवार की ओर फेर लिया। नस्तास्या बाहर चली गई।

अपराध और दंड : (अध्याय 2-भाग 6)

नस्तास्या के बाहर जाते ही वह उठ बैठा, दरवाजे की कुंडी लगा दी, उस बंडल को खोला जो रजुमीखिन शाम को लाया था और जिसे उसने फिर से बाँध दिया था, और कपड़े पहनने लगा। अजीब बात यह हुई कि उसे फौरन लगा कि वह एकदम शांत हो गया है। अभी कुछ ही पहले की सरसामी हालत का निशान भी बाकी नहीं रहा, न उस दहशत का जो उस पर इधर कुछ समय से छाई हुई थी। वह अचानक पैदा होनेवाली एक विचित्र शांति का पहला पल था। जो कुछ भी वह कर रहा था, बहुत नपे-तुले और निश्चित ढंग से। हर काम में एक दृढ़ उद्देश्य की झलक मिलती थी। 'आज, बस आज,' वह मन ही मन बुदबुदाया। उसे पता था कि वह अब भी कमजोर है, लेकिन उसकी गहरी आत्मिक एकाग्रता पूर्ण शांति का, एक जड़ विचार का रूप धारण कर चुकी थी और वही उसे शक्ति और आत्मविश्वास प्रदान कर रही थी। इसके अलावा, उसे यह भी उम्मीद हो चली थी कि वह सड़क पर नहीं गिरेगा। नए कपड़े पहन चुकने के बाद उसने मेज पर पड़ी हुई रकम को देखा और एक पल सोचने के बाद उसे जेब में रख लिया। पच्चीस रूबल थे। रजुमीखिन ने कपड़ों पर जो दस रूबल खर्च किए थे, उनमें से बची हुई रेजगारी भी उसने ले ली। फिर उसने धीरे से दरवाजे की कुंडी खोली, बाहर निकला, चुपके से सीढ़ियाँ उतरा और इस बीच एक नजर रसोई के खुले हुए दरवाजे की ओर भी डाल ली। नस्तास्या उसकी ओर पीठ किए खड़ी थी और मकान-मालकिन के समोवार में झुक कर आग सुलगा रही थी। उसने कुछ भी नहीं सुना। यह गुमान भी भला कौन करता कि वह बाहर निकल जाएगा! एक मिनट बाद वह सड़क पर था।

लगभग आठ बजे थे। सूरज डूब रहा था। पहले जैसी ही घुटन थी, लेकिन उत्सुकता से शहर की बदबूदार, गर्दभरी हवा में वह इस तरह लंबी-लंबी साँसें लेने लगा, गोया उसे जी भर कर पी लेना चाहता हो। उसका सर कुछ-कुछ चकरा रहा था। फिर भी उसकी बुखार से बोझल आँखों में और उसके मुरझाए हुए, उदास, पीले चेहरे पर एक तरह की पाशविक शक्ति चमकी। वह कहाँ जा रहा था, यह उसे न तो मालूम था और न ही वह इसके बारे में सोच रहा था। उसके दिमाग में बस एक विचार था : 'कि यह सब कुछ आज ही खत्म कर देना होगा; हमेशा के लिए, फौरन वह इस काम को पूरा किए बिना घर नहीं लौटेगा, क्योंकि वह इस तरह का जीवन अब जीता नहीं रहेगा।' लेकिन उसे खत्म कैसे किया जाए किस चीज से उसे इसके बारे में कुछ भी अंदाजा नहीं था, वह इसके बारे में सोचना भी नहीं चाहता था। वह हर विचार को दूर भगा रहा था : विचारों से उसे बेहद तकलीफ पहुँचती थी। वह बस इतना जानता था, बस यह महसूस करता था कि हर बात को किसी-न-किसी दिशा में डाल देना होगा। उसने घोर निराशा में डूबे हुए मगर अटल आत्मविश्वास और पक्के संकल्प के साथ, इसी बात को दोहराया।

पुरानी आदत के अनुसार वह अपने सैर-सपाटे के पुराने रास्ते पर, भूसामंडी की ओर चल पड़ा। बिसाते की एक छोटी-सी दुकान के सामने सड़क पर काले बालोंवाला एक नौजवान हार्मोनियम लिए खड़ा था और विरह में डूबी हुई एक ही दर्द भरी धुन बजा रहा था। साथ में पंद्रह साल की एक लड़की थी, जो उसके सामने सड़क की पटरी पर खड़ी थी। वह क्राइनोलीन का साया, उस पर एक ढीला-सा बिना आस्तीन का कोट और दस्ताने पहने थी और तिनकों का बना हैट लगाए हुए थी जिसमें गहरे नारंगी रंग का एक पंख खोंसा हुआ था। हर चीज बहुत पुरानी और बेडौल थी। आवाज पाटदार और सुरीली थी पर सड़क पर गाते-गाते कुछ फट गई थी और भर्राने लगी थी। इसी आवाज में वह दुकान से कुछ पैसे मिल जाने की उम्मीद में गाए जा रही थी। रस्कोलनिकोव भी दो-तीन सुननेवालों के साथ जा कर खड़ा हो गया, कुछ देर गाना सुना, फिर लड़की के हाथ में पाँच कोपेक का सिक्का रख दिया। भावुकता से भरे पंचम सुर पर पहुँच कर लड़की ने गाना अचानक बंद कर दिया और तीखी आवाज में बाजा बजानेवाले साथी से चिल्ला कर बोली, 'आओ, चलो।' दोनों अगली दुकान की ओर बढ़ गए।

'आपको ऐसा सड़क छाप गाना पसंद है?' रस्कोलनिकोव ने अपने पास खड़े अधेड़ आदमी से पूछा। उसने चौंक कर बड़ी हैरत से उसे देखा।

'मुझे ऐसा गाना सुनने का शौक है,' रस्कोलनिकोव बोला और उसके बोलने का ढंग विषय से मेल खाता हुआ नहीं लग रहा था। 'मुझे पतझड़ की ठंडी, काली, भीगी-भीगी रातों को इस तरह का गाना बहुत भाता है। उनका भीगा-भीगा होना बहुत जरूरी है तब-जब सभी राहगीरों के बीमारों जैसे चेहरों पर मुर्दनी छाई हुई हो, या इससे भी अच्छा यह कि गीली-गीली बर्फ सीधी नीचे गिर रही हो, जब हवा न हो। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न... और सड़क की बत्तियाँ उसके बीच चमक रही हों।'

'मालूम नहीं... माफ कीजिएगा...' वह अजनबी बुदबुदाया और सड़क पार करके दूसरी ओर चला गया। उसे रस्कोलनिकोव के सवाल से, उसके विचित्र हुलिए से डर लगने लगा था।

रस्कोलनिकोव सीधा चलता रहा और भूसामंडी के नुक्कड़ पर उसी जगह पहुँच गया, जहाँ खोमचेवाले और उसकी औरत, जिन्होंने लिजावेता से बातें की थी, आमतौर पर मौजूद होते थे। लेकिन उस वक्त वे वहाँ नहीं थे। उस जगह को पहचान कर वह रुक गया, चारों ओर नजर दौड़ाई और एक नौजवान को संबोधित किया, जो लाल कमीज पहने एक पंसारी की दुकान के सामने मुँह फाड़े खड़ा था।

'इस नुक्कड़ पर एक आदमी और उसकी बीवी खोमचा लगाते थे न?'

'तरह-तरह के लोग यहाँ खोमचा लगाते हैं,' रस्कोलनिकोव को उचटती नजरों से देख कर नौजवान ने जवाब दिया।

'उसका नाम क्या है?'

'वही जो पादरी ने रखा होगा।'

'तुम तो जरायस्क के रहनेवाले होगे। किस सूबे के?' नौजवान ने फिर रस्कोलनिकोव की ओर देखा।

'वह सूबा नहीं है सरकार, जिला है। मेरा भाई ही वहाँ आया-जाया करता था। मैं तो यहीं का रहा, सो मुझे मालूम नहीं। गुस्ताखी माफ करें, सरकार।'

'वहाँ ऊपर शराबखाना है क्या'

'हाँ, खाने का होटल है; बिलियर्ड खेलने का कमरा भी है। कुछ शहजादियाँ आती हैं वहाँ... एकदम करारी!'

रस्कोलनिकोव ने चौक पार किया। उधरवाले नुक्कड़ पर किसानों की भारी भीड़ जमा थी। वह धक्का-मुक्की करता हुआ उस जगह पहुँच गया, जहाँ भीड़ सबसे घनी थी और लोगों के चेहरे देखने लगा। जाने क्यों उसका जी उन लोगों से बातें करने को चाह रहा था। लेकिन किसानों ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। अलग-अलग टोलियों में खड़े वे सब लोग एक साथ चिल्ला रहे थे। वह वहाँ खड़ा कुछ देर सोचता रहा और फिर दाएँ मुड़ कर व. चौक की ओर चल पड़ा। चौक पार करके वह एक गली में घुस गया।

वह पहले भी उस छोटी-सी गली को कितनी ही बार पार कर चुका था, जो तीखा मोड़ मुड़ कर मंडी से सदोवाया स्ट्रीट की तरफ चली गई थी। इधर कुछ दिनों से जब भी वह उदास होता, अकसर उसका जी इस इलाके में टहलने को होने लगता था 'ताकि वह और उदास हो सके।' इस वक्त उसने किसी भी चीज के बारे में सोचे बिना उसमें कदम रखा था। उस जगह एक बड़ी इमारत थी, जो पूरी की पूरी शराबखानों और खाने-पीने की अन्य जगहों को किराए पर चढ़ा दी गई थी; नंगे सर और घर में पहनने के कपड़ों में लिपटी औरतें लगातार वहाँ अंदर-बाहर भागती रहती थीं। कहीं-कहीं वे सड़क की पटरी पर टोलियों में जमा हो जाती थीं, खास तौर पर नीचे की मंजिलों पर बसे। रंगीन अड्डों के दरवाजों के इर्द-गिर्द इसी तरह के एक अड्डे से शोर, गाने की धुनों, गिटार की झंकार और मस्ती भरी चीख़ों की आवाज हवा की लहरों पर तैरती हुई सड़क तक आ रही थी। औरतों की एक भीड़ दरवाजे के इर्द-गिर्द जमा थी। कुछ सीढ़ियों पर बैठी थीं; कुछ सड़क की पटरी पर, और कुछ खड़ी बातें कर रही थीं। शराब के नशे में चूर एक सिपाही, सिगरेट पीता और गालियाँ बकता हुआ, उनके पास से हो कर सड़क पर जा रहा था। लगता था वह कहीं जाने का रास्ता ढूँढ़ रहा हो लेकिन भूल गया हो कि उसे कहाँ जाना है। एक भिखारी दूसरे से झगड़ रहा था, और नशे में धुत एक आदमी बीच सड़क पड़ा हुआ था। रस्कोलनिकोव भी उन औरतों की भीड़ में जा मिला जो भर्रायी आवाज में बातें कर रही थीं। वे नंगे सर थीं और उन्होंने सूती कपड़े और बकरी की खाल के जूते पहन रखे थे। उनमें चालीस साल की भी औरतें थीं पर कुछ सत्रह से ज्यादा की भी नहीं रही होंगी। लगभग सभी की आँखों के आस-पास पिटाई के निशान थे।

नीचे की मंजिल के उस अड्डे से आती गाने की आवाज और वहाँ का तमाम शोर-शराबा और हुल्लड़ उसे बरबस अपनी ओर खींचने लगे...

अंदर किसी के मस्त हो कर नाचने की आवाज सुनाई दे रही थी। वह गिटार की धुन पर एड़ियों से ताल देता जा रहा था और कोई शख्स बहुत महीन आवाज से तान ले कर एक फड़कता हुआ गीत गा रहा था। वह उदास मन से, कुछ खोया-खोया-सा बड़े ध्यान में सुनता रहा और पटरी पर खड़ा दरवाजे में झुक कर बड़ी जिज्ञासा से अंदर झाँकने लगा :

बलमा सिपहिया रे साँवरे

काहे को तोड़े मेरा हाड़ रे...

रस्कोलनिकोव गाने के बोल समझने के लिए कुलबुलाने लगा, गोया सारी बातों का दारोमदार इसी पर हो।

'अंदर जाऊँ' उसने सोचा। 'वे लोग हँस-गा रहे हैं... शराब के नशे में। मैं भी पी कर मस्त हो जाऊँ तो बुरा क्या है!'

'अंदर तो आओ जनाब!' एक औरत ने अनुरोध किया। उसकी आवाज अब भी सुरीली और दूसरों से कम भारी थी। नौजवान थी और सूरत-शक्ल की भी कोई बुरी नहीं थी। उस पूरी टोली में ऐसी वह अकेली थी।

'खासी सोहणी है,' उसने सीधे तनते हुए उसकी ओर देख कर कहा।

औरत अपनी तारीफ सुन कर मुस्करा पड़ी।

'तुम भी कुछ कम सुंदर तो नहीं,' वह बोली।

'मगर कितना दुबला-पतला है!' एक दूसरी औरत ने भारी गूँजती आवाज में कहा। 'अस्पताल से उठ कर अभी आए हो क्या?'

'लगता है सब जरनैलों की ही बेटियाँ हैं, लेकिन हैं सब नकचपटी,' नशे में झूमता एक किसान, जो ढीला-ढाला कोट पहने था, अपने चेहरे पर शरारतभरी मुस्कराहट ला कर बीच में बोला। 'देखो तो, चहक कैसे रही हैं!'

'तुम आ गए हो तो चलो, साथ चलें!'

'क्यों नहीं, मैं तो जा ही रहा हूँ।'

यह कह कर वह नीचे उतरा और तीर की तरह सीधे अड्डे में घुस गया। रस्कोलनिकोव आगे बढ़ गया।

'मैं कहती हूँ, जनाब,' लड़की ने पीछे से उसे आवाज दी।

'क्या चाहती है?'

वह सकुचा गई।

'दो घड़ी आपके साथ बिता लेती तो जी निहाल हो जाता, मेहरबान, मगर अभी तो आपसे मुझे शरम आवे है। पीने को बस छह कोपेक तो देते जाओ। तुम कितने अच्छे हो!'

रस्कोलनिकोव ने जो सिक्के हाथ में आए उसे दे दिए - पंद्रह कोपेक थे।

'आह! क्या भलामानुस आदमी है!'

'तुम्हारा नाम क्या है?'

'दुक्लिदा कह कर पूछ लेना।'

'अरे, इसने तो हद कर दी,' एक औरत ने दुक्लिदा की ओर सर हिलाते हुए अपनी राय जाहिर की। 'समझ में नहीं आता; इस तरह से पैसे भला कहीं माँगा जावे है। मैं तो शरम के मारे वहीं गड़ जाऊँ...'

रस्कोलनिकोव ने जिज्ञासा से उस औरत की तरफ देखा। तीस साल की जनानी थी। मुँह पर चेचक के दाग, चेहरे पर जगह-जगह नील पड़े हुए, ऊपर का होठ सूजा हुआ। उसने बड़े शांत भाव से और संजीदगी से यह आलोचना की थी।

'कहाँ पढ़ा था,' रस्कोलनिकोव आगे चलते हुए सोचने लगा, 'कहीं पढ़ा था मैंने कि जब किसी को मौत की सजा दी जाती है तो मौत से घंटे भर पहले वह कहता या सोचता है कि अगर उसे किसी ऊँची चट्टान पर, किसी पतली-सी कगार पर भी रहना पड़े, जहाँ सिर्फ खड़े होने की जगह हो, चारों ओर अथाह सागर हो, घोर अंधकार हो, एकदम एकांत हो, तूफान ही तूफान हो, अगर गज भर चौकोर जगह में सारे जीवन, हजारों साल अनंत काल तक रहना पड़े, तब भी फौरन मर जाने से इस तरह जिए जाना कहीं बेहतर है! बस जिए जाना, जिए जाना और जिए जाना! जिंदगी चाहे कैसी भी हो! ...कितनी सच्ची बात है! कसम से, कितना सच कहा है! आदमी भी कैसा कमीना है! ...कमीना तो वह है जो उसे इस बात पर कमीना कहता है,' उसने एक पल बाद कहा।

वह दूसरी सड़क पर मुड़ गया। 'आह, रंगमहल!' रजुमीखिन अभी इसी की बातें कर रहा था। लेकिन कमबख्त वह चीज क्या थी, जिसकी मुझे तलाश थी हाँ, पढ़ने की! ...जोसिमोव कह रहा था, उसने अखबार में पढ़ा था कि...'

'तुम्हारे यहाँ अखबार होंगे' उसने एक लंबे-चौड़े, काफी साफ-सुथरे रेस्तराँ में जा कर पूछा। रेस्तराँ में कई कमरे थे, लेकिन वे ज्यादातर खाली थे। दो-तीन लोग बैठे चाय पी रहे थे, और कुछ हट कर एक दूसरे कमरे में चार आदमी बैठे शैंपेन पी रहे थे। रस्कोलनिकोव को लगा कि उनमें से एक जमेतोव था, लेकिन इतनी दूर से वह भरोसे के साथ नहीं कह सकता था। 'हो भी तो क्या' उसने सोचा।

'वोदका लेंगे?' वेटर ने पूछा।

'थोड़ी-सी चाय ले आओ और अखबार ला दो। पुराने, पिछले पाँच दिनों के मैं तुम्हें बख्शीश भी कुछ दूँगा।'

'अच्छा जनाब, आज के तो ये रहे। वोदका नहीं लेंगे'

पुराने अखबार आए और चाय आ गई। रस्कोलनिकोव बैठ कर उनके पन्ने उलटने लगा।

'लाहौल विला कुव्वत... ये सब खबरें तो दुर्घटनाओं की हैं। कोई किसी सीढ़ी पर से लुढ़क गई, कोई ज्यादा शराब पी कर मर गया, पेस्की में आग, पीतर्सबर्ग के किसी मोहल्ले में आग... पीतर्सबर्ग के एक और मोहल्ले में आग... आह, यह रही!'

आखिरकार वह उसे मिल गया, जो वह ढूँढ़ रहा था और वह उसे पढ़ने लगा। लाइनें उसकी आँखों के सामने नाचने लगीं लेकिन वह सारा किस्सा पढ़ गया और बड़ी उत्सुकता के साथ उसके बाद के अखबारों में आगे का हाल ढूँढ़ने लगा। उसके हाथ पन्ने पलटते हुए घबराहट और बेचैनी से काँप रहे थे। इतने में कोई उसकी मेज पर आ कर बगल में धँस गया। उसने नजरें उठा कर देखा : थाने का बड़ा बाबू था, जमेतोव। उसका अब भी वही हुलिया था, उँगलियों में वही अँगूठियाँ, वही सोने के हार, घुँघराले काले बाल, बीच में माँग निकली हुई और तेल चुपड़ा हुआ, छैलों जैसी वास्कट, कुछ घिसा हुआ मलगुजा-सा कोट, कुछ मैली-सी कमीज। वह बहुत खुश नजर आ रहा था, कम से कम खिल कर और खुशमिजाजी से मुस्करा रहा था। जो शैंपेन पी थी, उसकी वजह से उसके चेहरे का साँवला रंग कुछ लाल हो आया था।

'अरे, तुम यहाँ!' उसने बड़े ताज्जुब से इस तरह बात करना शुरू किया जैसे उम्र भर से उसे जानता हो।' अभी कल ही तो रजुमीखिन ने बताया था कि तुम बेहोश थे। कैसी अजीब बात है! और, जानते हो, मैं तुमसे मिलने गया था?'

रस्कोलनिकोव जानता था कि वह उसके पास जरूर आएगा। उसने अखबार अलग रख दिए और जमेतोव की ओर मुड़ा। उसके होठों पर मुस्कराहट थी पर उस मुस्कराहट में चिड़चिड़ाहट और झुँझलाहट का रंग साफ झलक रहा था।

'मैं जानता हूँ आप आए थे,' उसने जवाब दिया। 'मैंने सुना है। आपने मेरा मोजा ढूँढ़ा था... और, आप जानते हैं, रजुमीखिन आप पर पूरी तरह लट्टू हो चुका है कहता था, आप उसके साथ लुईजा इवानोव्ना के यहाँ गए थे - जानते हैं न, वही औरत जिसकी खातिर आपने आँख मार कर उस लेफ्टिनेंट बारूद को इशारा किया था और वह आपका इशारा किसी भी तरह नहीं समझ सका था। याद है न आखिर क्यों नहीं समझ पाया वह एकदम साफ इशारा था, कि नहीं?'

'वह तो एक ही सरफिरा है!'

'कौन, वह बारूद?'

'नहीं, तुम्हारा दोस्त रजुमीखिन।'

'आपके भी बड़े ठाठ हैं, मिस्टर जमेतोव; सारी रंगीन जगहों में दाखिला मुफ्त! अभी आपके लिए वह शैंपेन कौन छलका रहा था?'

'नहीं भाई, हम लोग तो बस... साथ बैठे पी रहे थे... छलकाने की भी एक ही कही तुमने!'

'नजराने के तौर पर! आपकी तो पाँचों उँगलियाँ घी में हैं!' रस्कोलनिकोव हँसा। 'ठीक है, मेरे यार,' उसने जमेतोव के कंधे पर धौल जमा कर कहा, 'मैं गुस्से से नहीं बल्कि दोस्ताना तरीके से कह रहा हूँ, मजाक में, जिस तरह तुम्हारा वह मजदूर, उस बुढ़ियावाले मामले में, मित्रेई के साथ हाथापाई के बारे में बता रहा था।'

'तुम्हें उसके बारे में कैसे मालूम?'

'इसके बारे में शायद मुझे तुमसे भी ज्यादा मालूम हो।'

'तुम भी कैसे अजीब शख्स हो... मुझे पूरा यकीन है कि तुम्हारी तबीयत अभी तक गड़बड़ है। तुम्हें बाहर नहीं निकलना चाहिए था!'

'आह, तो मैं आपको अजीब लग रहा हूँ?'

'हाँ। पर ये कर क्या रहे हो? अखबार पढ़ रहे हो?'

'हाँ।'

'बहुत सारी खबरें तो आग लगने की हैं।'

'नहीं, मैं आग की खबरें नहीं पढ़ रहा हूँ।' यह कह कर उसने रहस्यमय ढंग से जमेतोव को देखा। उसके होठों पर फिर एक चिढ़ानेवाली मुस्कराहट खेलने लगी थी। 'नहीं, मैं आग लगने की खबरें नहीं पढ़ रहा था,' जमेतोव की ओर आँख मार कर वह कहता रहा। 'लेकिन अब मान भी लो, मेरे यार, कि तुम्हें यह जानने की बेहद फिक्र चढ़ी हुई है कि मैं किस चीज के बारे में पढ़ रहा हूँ?'

'मुझे तो रत्ती भर भी फिक्र नहीं है। मैंने यूँ ही पूछ लिया था। क्या पूछना मना है? तुम क्यों ऐसे...'

'सुनो, तुम तो पढ़े-लिखे आदमी हो न, थोड़े साहित्य-प्रेमी किस्म के?'

'हाँ, मैं छह साल जिम्नेजियम स्कूल में पढ़ा हूँ,' जमेतोव ने शान से कहा।

'छह साल! अरे वाह रे मेरे तंदूरी मुर्ग! बालों की माँग और जमावट से और अपनी अँगूठियों से तुम खासे दौलतवाले आदमी मालूम होते हो। वाह! कैसा बाँका लड़का है!' यह कह कर रस्कोलनिकोव ने जमेतोव के मुँह के ठीक सामने एक जोरदार ठहाका लगाया। जमेतोव पीछे हट गया। उसने इस बात का बुरा उतना नहीं माना था जितना कि इस पर दंग रह गया था।

'वाह! तुम हो एक अजीब आदमी!' जमेतोव ने बहुत गंभीर हो कर एक बार फिर दोहराया। 'मैं मान ही नहीं सकता कि तुम अभी तक सरसाम हालत में नहीं हो।'

'मैं सरसाम की हालत में हूँ मजाक न करो, मेरे तंदूरी मुर्ग तो मैं अजीब हूँ तुमको अजीब लगता हूँ, क्यों?'

'हाँ, एकदम अजीब।'

'मैं बताऊँ तुम्हें, मैं किस चीज के बारे में पढ़ रहा था और क्या ढूँढ़ रहा था देखो, मैंने कितने सारे अखबार मँगवा रखे हैं! शक हो रहा है, क्यों?'

'खैर बताओ तो क्यों?'

'कान खड़े होने लगे?'

'कान खड़े होने से क्या मतलब है तुम्हारा?'

'बाद में समझाऊँगा। अभी तो, मेरे यार, मैं तुम्हारे सामने ऐलान करता हूँ... नहीं, यह कहना बेहतर होगा कि मैं इकबाल करता हूँ, ...नहीं, यह भी ठीक नहीं है, मैं हलफ उठा कर कहता हूँ... तुम उसे लिख लो, मैं हलफ उठा कर कहता हूँ... कि मैं पढ़ रहा था, कि मैं देख रहा था और खोज रहा था,' उसने अपनी आँखें सिकोड़ीं और रुक गया। 'मैं वही खबरें खोज रहा था - और यहाँ खास इसी काम से आया था - चीजें गिरवी रखनेवाली उस बुढ़िया के कत्ल की खबरें,' आखिरकार उसने अपना मुँह जमेतोव के मुँह के पास ला कर यह बात कह ही दी, कुछ इस तरह जैसे कानाफूसी कर रहा हो। जमेतोव नजरें जमाए उसे देखता रहा; न तो अपनी जगह से हिला और न ही अपना मुँह पीछे हटाया। जमेतोव को बाद में इस सबमें जो बात सबसे अजीब लगी, यह थी कि इसके बाद पूरे एक मिनट तक खामोशी रही और इस पूरे दौरान वे एक-दूसरे को घूरते रहे।

'अगर तुम उसके बारे में पढ़ते भी रहे तो क्या हुआ?' आखिरकार वह हैरत से और बेचैन हो कर चिल्लाया। 'उससे मुझे क्या लेना-देना! ऐसी क्या बात है उसमें?'

'वही बुढ़िया,' जमेतोव के हैरत की ओर कोई ध्यान दिए बिना रस्कोलनिकोव उसी तरह कानाफूसी में कहता रहा, 'जिसके बारे में तुम थाने में बातें कर रहे थे, याद है, जब मैं बेहोश हो गया था। बोलो, अब तुम्हारी समझ में आया?'

'क्या मतलब तुम्हारा? 'क्या समझ में आया?' जमेतोव ने बौखला कर किसी तरह अपनी बात पूरी की।

रस्कोलनिकोव का सधा हुआ गंभीर चेहरा अचानक बदल गया, और वह एक बार फिर, पहले की ही तरह अचानक ठहाका मार कर खिसियाई हँसी हँसने लगा, जैसे वह अपने आपको काबू में न रख पा रहा हो। पलक झपकते संवेदना की असाधारण स्पष्टता के साथ उसे अभी हाल का वह बीता हुआ पल याद आया, जब वह कुल्हाड़ी लिए दरवाजे के पीछे खड़ा था, दरवाजे की कुंडी काँप रही थी, बाहर खड़े हुए लोग गालियाँ दे रहे थे और दरवाजे को जोर-जोर से हिला रहे थे, और अचानक उसका जी चाहा था कि उन लोगों पर चिल्लाए, उन्हें गालियाँ दे, अपनी जीभ बाहर निकाल कर उन्हें दिखाए, उन्हें मुँह चिढ़ाए, हँसे, और हँसे, और भी हँसे!

'तुम या तो पागल हो, या...' जमेतोव ने कहना शुरू किया लेकिन बीच में ही रुक गया, गोया जो विचार अभी उसके दिमाग में बिजली की तरह कौंधा था, उससे वह स्तब्ध रह गया हो।

'या 'या' क्या क्या बोलो!'

'कुछ नहीं,' जमेतोव ने गुस्से से कहा, 'सब बकवास है!'

दोनों चुप रहे। हँसी का दौर पड़ने के बाद रस्कोलनिकोव अचानक एकदम विचारमग्न और उदास हो गया। मेज पर कुहनी रख कर उसने अपना सर हाथों पर टिका लिया। लग रहा था वह जमेतोव को एकदम भूल गया है। यह खामोशी कुछ देर तक जारी रही।

'अपनी चाय क्यों नहीं पीते ठंडी हुई जा रही है,' जमेतोव ने कहा।

'क्या! चाय अरे हाँ...' रस्कोलनिकोव चुस्की ले कर चाय पीने लगा। उसने मुँह में रोटी का एक टुकड़ा रखा और अचानक जमेतोव को देख कर उसे लगा जैसे सब कुछ याद आ गया हो, और उसने अपने आपको सँभाल लिया। इसके साथ ही उसके चेहरे पर फिर वही पहलेवाला भाव आ गया, जैसे वह किसी को मुँह चिढ़ा रहा हो। वह चाय पीता रहा।

'पिछले कुछ दिनों में इस तरह की बहुत-सी जालसाजियाँ हुई हैं,' जमेतोव बोला। 'अभी उसी दिन मैंने मास्को पत्रिका में पढ़ा था कि मास्को में जालसाजों का एक गिरोह पकड़ा गया है। उन लोगों की एक अच्छी-खासी तादाद थी और वे लोग जाली नोट छापते थे!'

'आह, लेकिन वह तो बहुत पुरानी बात है! उसके बारे में मैंने महीना भर पहले ही पढ़ा था,' रस्कोलनिकोव ने शांत भाव से जवाब दिया। 'तो तुम उन लोगों का जालसाज समझते हो?' उसने मुस्करा कर इतना और कहा।

'तो और क्या हैं वे लोग?'

'वे... वे बच्चे हैं, एकदम बुद्धू। जालसाज नहीं हैं! ऐसे काम के लिए पचास आदमियों को जुटाना - यह भी कोई बात हुई! भाँडा फोड़ देने के लिए तीन भी काफी होते, और फिर भी उन्हें अपने आपसे ज्यादा भरोसा एक-दूसरे पर होना चाहिए था। नशे में किसी के मुँह से जरा-सी भी बात निकल जाती और सब कुछ ढह जाता। बेवकूफ कहीं के! उन्होंने नोट भुनाने के काम पर ऐसे लोगों को लगाया था जिन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता था - ऐसा काम कहीं किसी निरे अजनबी को सौंपा जाता है! अच्छा, मान लीजिए कि ये बेवकूफ कामयाब हो जाते और उनमें से हर आदमी लखपति हो जाता, तो फिर बाकी जिंदगी उनका क्या हाल होता उनमें से हर एक उम्र भर दूसरों की दया पर रहता! इससे अच्छा तो यह है कि आदमी फौरन फाँसी लगा कर मर जाए! अरे उन्हें तो नोट भुनाना भी नहीं आता था। जो आदमी नोट भुनाने गया था उसने पाँच हजार रूबल लिए और उसके हाथ काँपने लगे। उसे रकम अपनी जेब में डाल कर भाग जाने की ऐसी जल्दी पड़ी थी कि उसने पहले चार हजार तो गिने, लेकिन पाँचवाँ हजार नहीं गिना। जाहिर है, लोगों को शक हो गया और एक बेवकूफ की वजह से सब कुछ खलास हो गया! यह भी कुछ करने का कोई ढंग है?'

'इसलिए कि उसके हाथ काँपने लगे थे' जमेतोव ने अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा, 'हाँ हो सकता है। पूरा यकीन है मुझे कि ऐसा हो सकता है। कभी-कभी आदमी बर्दाश्त नहीं कर पाता।'

'ऐसी चीज बर्दाश्त नहीं कर पाता?'

'अच्छा बताओ, क्या तुम बर्दाश्त कर लेते, सौ रूबल की खातिर ऐसे भयानक अनुभव से गुजरना, मैं तो न कर पाता! जाली नोट ले कर बैंक में जाना, जहाँ इस तरह की चीजों को पकड़ना उन लोगों को खूब आता है! नहीं, ऐसा करने की मेरी तो हिम्मत नहीं पड़ती। तुम्हारी पड़ती?'

रस्कोलनिकोव का एक बार फिर बेहद जी चाहा कि वह 'जीभ निकाल कर उसे चिढ़ाए'। उसकी रीढ़ में ऊपर से नीचे तक सिहरन की लहरें दौड़ रही थीं।

'मैं होता तो इस काम को एकदम दूसरे ढंग से करता,' रस्कोलनिकोव ने कहना शुरू किया। 'मैं नोट इस तरह भुनाता : पहले एक हजार तो मैं तीन-चार बार गिनता, कभी सीधी तरफ से कभी उलटी तरफ से। एक-एक नोट को अच्छी तरह देख-देख कर। तब मैं दूसरे हजार को हाथ लगाता। मैं वह गड्डी आधी गिनता, फिर पचास रूबल का एक नोट उसमें से निकाल कर रोशनी के सामने करके देखता, फिर उसे उलटता और दोबारा उसे रोशनी के सामने करके देखता - यह मालूम करने के लिए कि वह ठीक है कि नहीं। 'बुरा न मानिएगा', मैं कहता, 'अभी कुछ ही दिन पहले मेरे एक रिश्तेदार को एक जाली नोट की वजह से पच्चीस रूबल की चोट लगी है,' और तब मैं उन्हें सारा किस्सा बताता। फिर तीसरा हजार गिनना शुरू करने के बाद मैं कहता, 'नहीं, एक पल ठहरिएगा, मुझे लगता है दूसरे हजार के सातवें सैकड़े में मुझसे गिनने में गलती हो गई है, मैं ठीक से कह नहीं सकता।' तब मैं तीसरा हजार बीच में छोड़ कर फिर दूसरा हजार गिनना शुरू करता और इसी तरह आखिर तक गिनता रहता। और जब सारे गिन लेता तो एक नोट पाँचवें हजार में से और एक नोट दूसरे हजार में से निकाल कर रोशनी के सामने करके देखता और फिर कहता, 'मेहरबानी करके इन्हें बदल दीजिए,' और वहाँ बैठे हुए क्लर्क को ऐसे चक्कर में डाल देता कि मुझसे पिंड कैसे छुड़ाए, यह उसकी समझ में न आता! अपना काम पूरा करके बाहर जाने के बाद मैं फिर लौट कर आता। पर नहीं, माफ कीजिएगा, मैं उससे कोई बात समझाने को कहता। मैं तो अपना काम इसी तरह करता!'

'वाह! कैसी अजीब बातें करते हो तुम भी!' जमेतोव ने हँस कर कहा। 'लेकिन ये सब तो बस कहने की बातें हैं। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जब वक्त आता, तो तुम भी कोई गलती जरूर कर बैठते। मैं तो समझता हूँ कि बहुत अनुभवी आदमी भी, जिसने सब कुछ दाँव पर लगा दिया हो, हमेशा अपने आप पर भरोसा नहीं कर सकता, तुम्हारी और मेरी तो बात ही क्या है। दूर क्या जाना, पास की ही एक मिसाल ले लो - उस बुढ़िया की, जिसका हमारे इलाके में कत्ल हुआ है, लगता है कातिल जिंदगी से हारा हुआ एक शख्स था। उसने यह सारा जोखिम दिन-दहाड़े उठाया, और यह चमत्कार ही था कि वह बच गया - लेकिन हाथ तो उसके भी काँप गए थे। वह उस जगह को ठीक से लूट नहीं सका, उससे बर्दाश्त नहीं हो सका। यह बात इससे साफ जाहिर होती है कि...'

लगा कि रस्कोलनिकोव को कोई बात बुरी लगी है।

'साफ जाहिर होती है तो फिर उसे पकड़ क्यों नहीं लेते?' वह जल-भुन कर जमेतोव को ताना देते हुए चीखा।

'जरूर पकड़ लेंगे।'

'कौन तुम समझते हो कि उसे तुम लोग पकड़ सकते हो बड़ा मुश्किल है तुम्हारे लिए! तुम लोगों के लिए यही एक बहुत बड़ा सुराग होता है कि आदमी पैसा खर्च कर रहा है या नहीं। पहले अगर उसके पास पैसा न रहा हो और वही अचानक हाथ खोल कर खर्च करने लगे, तो फिर तो कातिल वही आदमी होगा। इसीलिए तो एक बच्चा भी तुम लोगों के तर्क की धज्जी उड़ा सकता है!'

'असलियत यही है कि वे लोग हमेशा यही करते हैं,' जमेतोव ने जवाब दिया। 'एक आदमी जान जोखिम में डाल कर चालाकी से कत्ल तो कर डालता है लेकिन फौरन किसी शराबखाने में पकड़ा जाता है। ऐसे लोग पैसा खर्च करते ही पकड़े जाते हैं। सब तुम्हारे जैसे चालाक नहीं होते। जाहिर है, तुम शराबखाने तो नहीं जाओगे?'

रस्कोलनिकोव त्योरियों पर शिकन लिए एकटक जमेतोव को देखता रहा।

'लगता है तुम्हें इस चर्चा में बहुत मजा आ रहा है और तुम जानना चाहोगे कि मैं इस मामले में क्या करता?' उसने कुछ चिढ़ कर पूछा।

'जरूर जानना चाहूँगा,' जमेतोव ने दृढ़ता और गंभीरता से जवाब दिया। उसके शब्दों और उसकी मुद्रा में जरूरत से कुछ ज्यादा ही उत्सुकता झलकने लगी थी।

'बहुत ज्यादा?'

'बहुत ज्यादा!'

'अच्छी बात है, तो सुनो कि मैं क्या करता,' रस्कोलनिकोव एक बार फिर उसे घूरते हुए, कानाफूसी में कहना शुरू किया। 'मैं तो यूँ करता : मैं पैसे और जेवर ले लेता और वहाँ से निकल कर सीधा किसी सुनसान जगह में जाता, जो चहारदीवारी से घिरी होती और जहाँ कोई भी आसानी से दिखाई न देता। किसी के घर के पिछवाड़े का बगीचा या इसी तरह की कोई और जगह। मन-डेढ़ मन का कोई पत्थर मैं पहले से देख रखता, जो घर बनने के समय से वहाँ किसी कोने में पड़ा होता। मैं उस पत्थर को उठाता जिसके नीचे जरूर एक गड्ढा होता, और मैं उसी गड्ढे में जेवर और पैसे रख देता। इसके बाद मैं पत्थर को लुढ़का कर फिर वही पहुँचा देता ताकि वह देखने में पहले की तरह ही लगे, और फिर उसे अपने पाँव से दबा कर चला आता। उसके बाद साल या दो साल तक, या शायद तीन साल तक भी, मैं उसे हाथ तक नहीं लगाता। अब कोई कातिल को तलाश करता फिरे, वह तो बस छूमंतर हो जाता।'

'पागल हो तुम,' जमेतोव ने कहा। न जाने क्यों वह भी कानाफूसी में बोला और रस्कोलनिकोव से दूर हट गया, जिसकी आँखें दहकते अंगारों की तरह चमक रही थीं। वह बेहद पीला पड़ गया था। उसका ऊपरवाला होठ फड़क रहा था और काँप रहा था। वह जितना भी मुमकिन हो सका, जमेतोव की ओर झुका और उसके होठ एक शब्द भी निकाले बिना चलने लगे। कोई आधे मिनट तक यही सिलसिला चलता रहा। वह जानता था कि वह क्या कर रहा है लेकिन अपने आपको वह रोक नहीं पा रहा था। वह भयानक शब्द उसके होठों पर काँप रहा था, एकदम उसी दरवाजे की कुंडी की तरह। अगले ही क्षण वह उसके होठ से अलग हो जाएगा, किसी भी क्षण वह उसे मुक्त कर देगा, वह बोल पड़ेगा!

'अब अगर उस बुढ़िया को और लिजावेता को मैंने ही कत्ल कर दिया हो तो?' उसने अचानक कहा और महसूस किया कि वह क्या कर बैठा है।

जमेतोव ने आँखें फाड़ कर उसे देखा और उसका रंग मेजपोश की तरह सफेद हो गया। उसके चेहरे पर एक विकृत मुस्कराहट थी।

'क्या यह सचमुच मुमकिन है?' वह बहुत धीमी आवाज में बड़ी मुश्किल से बोला। रस्कोलनिकोव ने उसे बिफर कर देखा।

'अब मान भी लो कि इस बात पर तुम्हें यकीन आ गया था। आ गया था न?'

'एकदम नहीं। अब तो इस पर मुझे पहले जितना भी यकीन नहीं रहा,' जमेतोव जल्दी से चीखा।

'गया काम से। पकड़ लिया बुलबुल को! यानी कि पहले तुम्हें यकीन था सो अब पहले जितना भी यकीन नहीं रह गया है?'

'एकदम नहीं,' जमेतोव जोर से बोला। साफ मालूम हो रहा था कि वह इस बात से सिटपिटा गया है। 'क्या तुम यही कहलवाने के लिए मुझे अभी तक डरा रहे थे?'

'तो इस बात पर तुम्हें यकीन नहीं है? जब मैं थाने से चला आया था तब तुम मेरी पीठ पीछे क्या बातें कर रहे थे और मेरे बेहोश होने के बाद उस बारूदी लेफ्टिनेंट ने मुझसे सवाल-जवाब क्यों किए थे तो सुनो,' उसने अपनी टोपी उठा कर खड़े होते हुए वेटर से चिल्ला कर कहा, 'कितना हुआ?'

'कुल तीस कोपेक जनाब,' वेटर ने भाग कर आते हुए जवाब दिया।

'और यह रहे बीस कोपेक वोदका के लिए। देखो, कितना पैसा है!' उसने अपना काँपता हुआ हाथ, जिसमें उसने नोट पकड़ रखे थे, जमेतोव की ओर बढ़ा कर कहा। 'लाल नोट और नीले, पच्चीस रूबल। कहाँ से आए मेरे पास और मेरे ये नए कपड़े कहाँ से आए तुम्हें मालूम है कि मेरे पास एक कोपेक भी नहीं था! मैं दावे से कह सकता हूँ कि तुम मेरी मकान-मालकिन से पूछताछ कर चुके हो... अच्छा बस बहुत हुआ! फिर मिलेंगे!'

वह एक तरह से गहरे जुनून की हालत में, जिसमें घोर आनंद का भी पुट था, सर से पाँव तक काँपता हुआ बाहर निकल गया। फिर भी वह उदास और थका हुआ था। उसका चेहरा यूँ ऐंठा हुआ था जैसे अभी उसे दौरा पड़ चुका हो। उसकी थकान बड़ी तेजी से बढ़ती गई। कोई भी चोट, कोई भी चिड़चिड़ी बनानेवाली भावना उसकी सारी शक्तियों को फौरन उत्तेजित कर देती थी और उनमें फिर से जान डाल देती थी, लेकिन जैसे ही उत्तेजना का वह स्रोत हटा लिया जाता था, उसकी सारी शक्ति उतनी ही जल्दी हवा भी हो जाती थी।

जमेतोव अकेला देर तक विचारों में डूबा हुआ उसी जगह बैठा रहा। रस्कोलनिकोव ने अनजाने ही उसके दिमाग में एक बात के बारे में हलचल पैदा कर दी थी और उसका एकदम इरादा पक्का कर दिया था।

'इल्या पेत्रोविच तो गधा है!' उसने अपना फैसला सुनाया।

रस्कोलनिकोव ने अभी रेस्तराँ का दरवाजा खोला ही था कि सीढ़ियों पर उसकी मुठभेड़ रजुमीखिन से हो गई। उन्होंने एक-दूसरे को उस समय तक नहीं देखा था, जब तक वे लगभग टकरा नहीं गए। पलभर दोनों एक-दूसरे को ऊपर से नीचे तक देखते रहे। रजुमीखिन को बेहद हैरत हो रही थी। फिर उसकी आँखों में क्रोध की, सचमुच के क्रोध की, भयानक चमक दिखाई दी।

'तो तुम यहाँ हो!' वह गला फाड़ कर चीखा। 'तुम अपने बिस्तर से उठ कर भाग आए! और मैं तुम्हें सोफे के नीचे तक ढूँढ़ रहा था! ऊपर अटारी भी देखी। तुम्हारी वजह से मैंने नस्तास्या को मारते-मारते रद्द दिया। और तुम यहाँ मिले! रोद्या, इस सबका क्या मतलब है मुझे सच-सच बता दो! जो बात हो, साफ बता दो! सुना?'

'इसका मतलब यह है कि मैं तुम सबसे तंग आ चुका हूँ और चाहता हूँ कि मुझे मेरे हाल पर अकेला छोड़ दिया जाए,' रस्कोलनिकोव ने शांत भाव से उत्तर दिया।

'अकेला? जबकि तुझसे ठीक से चला भी नहीं जाता, जबकि तुम्हारा चेहरा चादर की तरह सफेद हो रहा है और तुम्हारी साँस भी ठीक से चल नहीं रही है! बेवकूफ! ...तुम यहाँ रंगमहल में क्या कर रहे थे फौरन सब सच बता दो!'

'मुझे जाने दो!' रस्कोलनिकोव ने कहा और उससे कतरा कर निकलना चाहा। यह रजुमीखिन की बर्दाश्त के बाहर था; उसने कस कर रस्कोलनिकोव का कंधा पकड़ लिया।

'जाने दूँ तुम्हारी यह हिम्मत कि मुझसे कहते हो 'मुझे जाने दो' जानते हो, मैं अभी, इसी वक्त तुम्हारे साथ क्या करनेवाला हूँ? मैं अभी तुम्हें उठा कर, तुम्हारा गट्ठर बनाऊँगा, बगल में दबा कर घर ले जाऊँगा और ताले में बंद करूँगा!'

'सुनो रजुमीखिन,' रस्कोलनिकोव ने धीमे से और देखने में काफी शांत भाव से कहा, 'क्या तुम्हारी समझ में यह भी नहीं आता कि मुझे तुम्हारा उपकार नहीं चाहिए यह एक अजीब इच्छा है तुम्हारे मन में कि तुम सारे उपकार एक ऐसे आदमी पर लुटाना चाहते हो जो... जो उन्हें धिक्कारता है, जो उन्हें दरअसल एक बोझ समझता है! मेरी बीमारी की शुरुआत में तुमने मुझे क्यों खोज निकाला कौन जाने, मर कर मुझे खुशी होती! आज मैंने तुम्हें क्या यह बात साफ-साफ नहीं बता दी थी कि तुम मुझे सता रहे हो, कि मैं... मैं तुमसे तंग आ गया हूँ! लगता है, तुम भी लोगों को सताना चाहते हो! मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि इन सब बातों से मेरे ठीक होने में रुकावट पड़ रही है, क्योंकि इससे मुझे हरदम कोफ्त होती रहती है। तुमने देखा, जोसिमोव अभी इसीलिए चला गया कि मुझे कोफ्त न हो। तुम भी मेरे हाल पर रहम खाओ और मुझे अकेला छोड़ दो! मुझको जबरदस्ती अपने कब्जे में रखने का तुम्हें क्या हक है? तुम देखते नहीं कि अब मेरे सारे हवास ठीक हैं मैं तुम्हें किस तरह, आखिर किस तरह समझाऊँ कि तुम मुझे अपनी नेकी से मत सताओ। हो सकता है एहसानफरामोश हूँ, हो सकता है मैं कमीना हूँ, लेकिन मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो... खुदा के वास्ते मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो! अकेला छोड़ दो, मुझे अकेला छोड़ दो!'

उसने बहुत शांत भाव से अपनी बात शुरू की थी। जहर में बुझी ये बातें कहते हुए उसे मन ही मन खुशी हो रही थी, लेकिन जब उसने अपनी बात खत्म की तो वह जुनून के मारे बुरी तरह हाँफ रहा था, ठीक उसी तरह जैसे लूजिन के साथ उसका हाल हुआ था।

रजुमीखिन एक पल खड़ा रहा। उसने कुछ देर सोचा और फिर अपना हाथ हटा लिया।

'तो फिर जहन्नुम में जाओ,' उसने विचारमग्न, बहुत धीमे से कहा। लेकिन जैसे ही रस्कोलनिकोव चलने को हुआ, उसने गरज कर कहा : 'ठहरो! मेरी बात सुनो। मैं तुम्हें इतना बता दूँ कि तुम और तुम्हारी तरह के सबके सब लोग खाली बकबक करनेवाले, बेकार की शेखी झाड़नेवाले बेवकूफ हैं! अगर कोई जरा-सी मुसीबत आन पड़ती है तो तुम उसे ले कर ऐसे बैठ जाते हो, जैसे मुर्गी अंडे पर बैठती है। पर इसमें भी तुम लोग दूसरों की नकल ही करते हो! तुम लोगों में स्वतंत्र जीवन का नाम-निशान तक नहीं! मोम के बने हो तुम लोग और तुम्हारी नसों में खून नहीं, बलगम भरा है! मुझे तुममें से किसी एक का भी भरोसा नहीं है। हर हालत में तुम सबकी पहली कोशिश यही होती है कि इनसानों जैसे न रहने पाओ! ठहरो!' रस्कोलनिकोव को फिर खिसकने की कोशिश करते देख कर वह और भी गुस्से से चीखा, 'मेरी पूरी बात सुनते जाओ! तुम जानते हो आज रात को मेरे यहाँ गृह-प्रवेश की पार्टी है। मुझे यकीन है कि लोग अब तक आ भी गए होंगे, लेकिन मैं मेहमानों की अगवानी के लिए अपने चाचा को वहाँ छोड़ आया और भाग कर यहाँ चला आया। अब अगर तुम बेवकूफ नहीं हो, पक्के बेवकूफ नहीं हो, परले दर्जे के बेवकूफ नहीं हो, अगर तुम नकल नहीं बल्कि असल हो... देखो, रोद्या मैं जानता हूँ तुम होशियार आदमी हो, लेकिन बेवकूफ हो! अगर तुम बेवकूफ न होते तो यहाँ सड़क पर जूते घिसने की बजाय मेरे यहाँ आ जाते! अब तुम बाहर निकल ही आए हो तो क्या किया जा सकता है! मैं तुम्हें गद्देदार आरामकुर्सी दूँगा जो मेरी मकान-मालकिन के पास है, चाय पिलाऊँगा और बहुत से लोगों का साथ रहेगा... या तुम सोफे पर लेट सकते हो -बहरहाल, तुम होगे हमारे साथ ही। जोसिमोव भी वहाँ होगा। आओगे न?'

'नहीं।'

'आ...ओगे!' रजुमीखिन धीरज छोड़ कर चीखा। 'तुम्हें क्या मालूम तुम अपनी तरफ से जवाब नहीं दे सकते! तुम्हें इसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम... हजारों बार ऐसा हो चुका है कि मैं लोगों से बुरी तरह लड़ा और बाद में भाग कर फिर उन्हीं के पास गया... आदमी को बाद में अपने किए पर शर्म आती है। वह उसी आदमी के पास वापस जाता है! इसलिए याद रखना, पोचिंकोव का घर, तीसरी मंजिल पर...'

'सचमुच मिस्टर रजुमीखिन, मैं समझता हूँ कि अगर कोई तुम्हें धुन कर रख दे तो तुम महज यह जताने के लिए उसे भी चुपचाप सह लोगे कि तुमने किसी का भला किया।'

'धुन कर? किसे? मुझे? ऐसी बात किसी ने सोची भी तो मैं उसकी नाक, तोड़ कर रख दूँगा! पोचिकोव का घर, नंबर 47, बाबुश्किन का फ्लैट...'

'मैं नहीं आऊँगा, रजुमीखिन।' रस्कोलनिकोव मुड़ कर चला गया।

'मैं शर्त लगता हूँ कि आओगे,' रजुमीखिन ने पीछे से चिल्ला कर कहा। 'अगर नहीं आए तो मैं तुम्हें पहचानना भी छोड़ दूँगा! अरे, सुनो तो जमेतोव अंदर है?'

'हाँ।'

'तुम उससे मिले थे?'

'हाँ।'

'कोई बात की थी?'

'हाँ।'

'काहे के बारे में खैर, मुझे नहीं बताना चाहते तो भाड़ में जाओ। पोचिकोव का घर, नंबर 47, बाबुश्किन का फ्लैट, याद रखना!'

रस्कोलनिकोव चलता रहा और नुक्कड़ पर पहुँच कर सदोवाया शाहराह में मुड़ गया। विचारों में डूबा हुआ रजुमीखिन उसे जाते देखता रहा। फिर अपना हाथ हवा में लहरा कर वह मकान के अंदर घुसा लेकिन सीढ़ियों पर ही ठिठक गया।

'लानत है,' वह कुछ ऊँची आवाज में अपने आपसे कहता रहा। 'वह समझदारी की बातें कर रहा था, फिर भी... मैं भी बड़ा बेवकूफ हूँ! गोया कि पागल आदमी समझदारी की बातें करते ही नहीं! और जोसिमोव लगता है, इसी बात से डर रहा था।' उसने उँगली से अपने माथे पर टिकटिकाया। 'अगर कहीं... उसे मैंने अकेले जाने ही कैसे दिया कहीं जा कर डूब मरे तो... छिः कैसी भयानक गलती की मैंने! नहीं, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा।' वह रस्कोलनिकोव को पकड़ने के लिए लपका, लेकिन उसका कहीं पता नहीं था। वह अपने को कोसता हुआ, तेज-तेज कदमों से जमेतोव से पूछने के लिए रंगमहल लौट आया।

रस्कोलनिकोव सीधा चलता हुआ... पुल पर जा पहुँचा, बीच में जा कर खड़ा हो गया और रेलिंग पर दोनों कुहनियाँ टिका कर दूर क्षितिज की ओर घूरने लगा। रजुमीखिन से विदा होने के बाद वह इतनी कमजोरी महसूस कर रहा था कि यहाँ तक बड़ी मुश्किल से पहुँच सका था। वह सड़क पर ही कहीं बैठ जाने या लेट जाने के लिए तड़प रहा था। पानी के ऊपर झुक कर वह सूर्यास्त की अंतिम, हलकी गुलाबी लाली को, गहराते हुए झुटपुटे में अँधियारे होते हुए घरों की कतार को, बाएँ किनारे पर बहुत दूर एक अटारी की उस खिड़की को, जो डूबते सूरज की अंतिम किरणों में ऐसी चमक रही थी जैसे उसमें आग लगी हो, और नहर के काले पड़ते हुए पानी का यूँ ही घूरता रहा। लगता था पानी ने उसका सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया है। आखिरकार, उसकी आँखों के सामने लाल घेरे नाचने लगे। घर हिलते हुए लग रहे थे। राहगीर, नहर के दोनों किनारे, गाड़ियाँ तमाम चीजें आँखों के सामने नाच रही थीं। यकबयक वह चौंका पड़ा; शायद किसी विचित्र और भयानक दृश्य ने उसे फिर बेहोश होने से बचा लिया था। उसे एहसास हुआ कि कोई उसकी दाहिनी ओर खड़ा है। वह उधर घूमा तो लंबे, पीले, मुरझाए हुए चेहरे और धँसी हुई लाल आँखोंवाली एक लंबी-सी औरत सिर पर रूमाल बाँधे खड़ी थी। वह सीधे उसकी ओर देख रही थी, लेकिन जाहिर था कि उसे न तो कुछ दिखाई दे रहा था और न वह किसी को पहचान रही थी। अचानक उसने अपना दाहिना हाथ रेलिंग पर टिकाया, अपनी दाहिनी टाँग उठा कर रेलिंग पर रखी, फिर बाईं टाँग, और झट से नहर में कूद गई। गँदला पानी एक पल के लिए फटा और फिर अपने शिकार को निगल लिया; लेकिन एक ही पल बाद डूबती हुई औरत ऊपर उतरा आई और धीरे-धीरे धारा के साथ बहने लगी। सर और टाँगें पानी में थीं और स्कर्ट उसकी पीठ पर गुब्बारे की तरह फूली हुई थी।

'औरत कूदी! औरत कूदी!' दर्जनों आवाजें एक साथ उठीं। लोग दौड़ पड़े। दोनों किनारों पर तमाशबीनों की भीड़ जमा हो गई। पुल पर रस्कोलनिकोव के चारों ओर लोगों की भीड़ जमा हो गई थी और वे लोग उसे पीछे से धक्का दे रहे थे।

'हे भगवान! यह तो हमारी अफोसीनिया है!' पास ही खड़ी एक औरत रुआँसी आवाज में चिल्ला रही थी। 'दया करके उसे बचाओ! अरे, दयावानो, कोई तो उसे बाहर निकालो!'

'नाव लाना, नाव!' भीड़ में से कोई चिल्लाया, लेकिन नाव की जरूरत नहीं पड़ी। एक पुलिसवाला नहर की सीढ़ियों से भागता हुआ नीचे पहुँचा, अपना लंबा कोट और जूते उतारे, और झट से पानी में कूद पड़ा। उसे उस औरत तक पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं हुई : उसका शरीर सीढ़ियों से कुछ ही गज ही दूरी पर पानी पर तैर रहा था। पुलिसवाले ने उसके कपड़े दाहिने हाथ से थाम लिए और बाएँ हाथ से उस बाँस को पकड़ लिया जो उसके साथी ने उसकी ओर बढ़ाया था। डूबती हुई औरत बाहर निकाल ली गई और नहर के किनारे पत्थर के फर्श पर लिटा दी गई। जल्द ही उसे होश आ गया। उसने अपना सर ऊपर उठाया, उठ कर बैठी, छींकने और खाँसने लगी, और बेमतलब अपने गीले कपड़े दोनों हाथों से झाड़ने लगी। मगर वह बोली कुछ भी नहीं।

'पी-पी कर अपने को मौत के मुँह तक ला दिया है,' बगल में उसी औरत के रोने की आवाज सुनाई दी। 'एकदम दीवानी हो गई है। अभी उस दिन अपने को फाँसी लगा रही थी; वह तो कहो कि हम लोगों ने रस्सी काट दी। मैं अभी-अभी भाग कर जरा देर को दुकान तक गई थी, और अपनी छोटी बच्ची को इसकी निगरानी के लिए छोड़ गई थी कि इसने यह मुसीबत खड़ी कर ली अपने लिए! पड़ोसन है साहब, पड़ोसन; हम लोग पास ही तो रहते हैं, उस छोर से दूसरा घर, वहाँ ...वह रहा...'

भीड़ छँटने लगी। कुछ पुलिसवाले उस औरत को घेरे रहे; किसी ने थाने की बात कही... रस्कोलनिकोव बेजारी और उदासीनता की एक अजीब भावना से खड़ा देखता रहा। उसे नफरत-सी हो रही थी। 'नहीं, यह बहुत घिनावना है... यह पानी... और फिर इसका कुछ भरोसा भी नहीं है,' वह अपने आप बुदबुदाता रहा। 'इससे कोई काम नहीं बनने का,' वह कहता रहा, 'यहाँ इंतजार करने से कोई फायदा नहीं। थाना ...लेकिन जमेतोव थाने में क्यों नहीं है थाना दस बजे तक खुला रहता है...' पुल की रेलिंग की ओर पीठ फेर कर उसने चारों ओर नजर दौड़ाई।

'अच्छी बात है!' उसने मजबूत दिल से कहा। वह पुल छोड़ कर थाने की ओर चल पड़ा। उसे अपना दिल खोखला और खाली-खाली लग रहा था। वह कुछ भी सोचना नहीं चाहता था। उदासी भी दूर हो गई थी। जिस मुस्तैदी के साथ वह 'इस पूरे किस्से को ही खत्म कर देने के लिए' निकला था, उसका भी नाम-निशान बाकी अब नहीं रहा; उसकी जगह भरपूर उदासीनता ने ले ली थी।

'खैर, बाहर निकलने का एक रास्ता तो यह भी है,' उसने नहर के किनारे धीरे-धीरे बेजान कदमों से चलते हुए सोचा। 'जो भी हो, मैं इस झंझट को तो खत्म ही कर दूँगा, क्योंकि मैं इसे खत्म करना चाहता हूँ... लेकिन क्या यह छुटकारे का रास्ता है पर फर्क क्या पड़ता है गज भर जगह तो मिलेगी ही-हः हः! लेकिन अंत कैसा होगा! क्या वह सचमुच अंत होगा मैं उन्हें बताऊँ या नहीं आह... लानत है! कितनी बुरी तरह थक गया हूँ मैं! काश, बैठने या लेटने की कोई जगह जल्दी से कहीं मिल जाती! सबसे ज्यादा शर्म तो मुझे इस बात की है कि यह कितनी नादानी की बात है। लेकिन मुझे इसकी भी परवाह नहीं! आदमी के दिमाग में भी कैसे-कैसे बेवकूफी के विचार आते हैं।'

थाने के लिए उसे सीधे जा कर बाईं ओर की दूसरी सड़क पकड़नी थी। थाना वहाँ से कुछ ही कदम पर था। लेकिन वह पहले मोड़ पर ही रुक गया, कुछ देर सोचता रहा और एक छोटी गली में मुड़ कर अपने रास्ते से दो सड़क आगे निकल गया, शायद बिना किसी मकसद के, या शायद मिनट भर की देर करके कुछ और समय पाने के लिए। वह जमीन को देखता हुआ आगे बढ़ता रहा। अचानक उसे लगा कि किसी ने उसके कान में कुछ कहा। उसने सर उठा कर देखा तो पता चला कि वह उसी घर के सामने, ऐन फाटक के पास खड़ा था। वह उस शाम के बाद उधर से गुजरा नहीं था, कहीं उसके आस-पास भी नहीं आया था।

कोई अदम्य और अज्ञात शक्ति उसे आगे की तरफ खींचे लिए जा रही थी। वह मुड़ा, फाटक से हो कर अंदर गया, फिर दाहिनी ओर के पहले दरवाजे से ले कर जानी-पहचानी, चौथी मंजिल तक जानेवाली सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। सँकरी, खड़ी सीढ़ियों के चारों तरफ बहुत अँधेरा था। हर मंजिल पर पहुँच कर वह रुकता और चारों ओर बड़ी उत्सुकता से देखता। पहली मंजिल पर खिड़की का चौखटा निकाल दिया गया था। 'उस वक्त तो ऐसा नहीं था,' उसने सोचा। उस वक्त वह फ्लैट दूसरी मंजिल पर ही तो था जहाँ मिकोलाई और मित्रेई काम कर रहे थे। 'फ्लैट बंद कर दिया गया है और दरवाजे पर अभी नया-नया रंग किया गया है जिसका मतलब यह हुआ कि किराए पर उठाने के लिए खाली है।' फिर तीसरी मंजिल, और उसके बाद चौथी। 'यह रहा!' उसे यह देख कर बड़ी परीशानी हुई कि फ्लैट का दरवाजा पूरा खुला हुआ था। अंदर लोग थे; उसे आवाजें सुनाई दे रही थीं। उसने इसकी उम्मीद नहीं की थी। कुछ देर संकोच करने के बाद वह आखिरी सीढ़ियाँ चढ़ा और फ्लैट में चला गया।

उस फ्लैट की भी रंगाई-पुताई हो रही थी और मजदूर काम पर लगे थे। इस बात पर उसे कुछ हैरत हुई। जाने क्यों उसने सोचा हुआ था कि उसे हर चीज वैसी ही मिलेगी जैसी कि वह छोड़ गया था, यहाँ तक कि शायद लाशें भी वहीं फर्श पर पड़ी होंगी। पर अब यहाँ भी नंगी-बूची दीवारों, फर्नीचर का कहीं नाम नहीं। सब कुछ बड़ा अजीब-सा लग रहा था। खिड़की के पास जा कर वह उसकी सिल पर बैठ गया। दो मजदूर काम कर रहे थे, दोनों नौजवान, लेकिन उम्र में एक दूसरे से बहुत छोटा था। वे दीवारों पर पुराने, मैले, पीले रंग के कागज की जगह नया, कासनी फूलोंवाला सफेद कागज लगा रहे थे। रस्कोलनिकोव को न जाने क्यों इस बात पर बड़ी झुँझलाहट महसूस हुई। उसने नए कागज को बड़ी अरुचि से देखा, जैसे इस तरह हर चीज के बदल दिए जाने पर उसे बड़ा अफसोस हो रहा हो।

जाहिर था कि ये मजदूर अपने वक्त से ज्यादा देर तक काम करते आ रहे थे और अब वे जल्दी-जल्दी अपना कागज लपेट कर घर जाने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने रस्कोलनिकोव के अंदर आने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि वे आपस में बातें कर रहे थे। रस्कोलनिकोव हाथ बाँधे उनकी बातें सुन रहा था।

'वह सबेरे-सबेरे मेरे पास आई,' बड़ेवाले ने छोटे से कहा, 'बहुत सबेरे, सोलहों सिंगार किए। मैंने कहा, 'बन-ठन के ऐसा इतरा क्यों रही हो बोली, 'तित वसील्येविच, तुम्हें खुश करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।' यह भी एक तरीका होता है रिझाने का! और पहनावा ऐसा कि गोया फैशन की पत्रिका।'

'फैशन की पत्रिका भला क्या होती है, चचाजान?' छोटे मजदूर ने पूछा। उसकी बातों से मालूम होता था कि वह 'चचाजान' को हर बात में उस्ताद मानता था।

'फैशन की पत्रिका में ढेर सारी तस्वीरें होती हैं, रंगीन, और ये किताबें विलायत से हर सनीचर को डाक से यहाँ दर्जियों के पास आती हैं। उन तस्वीरों में दिखाया जाता है कि लोगों को किस तरह के कपड़े पहनने चाहिए, मर्दों को भी और औरतों को भी। देखने में प्यारी तस्वीरें होती हैं। मर्द आम तौर पर फर के कोट पहने होते हैं और, जहाँ तक औरतों के कपड़ों का सवाल है, तुम उनके बारे में तो सोच भी नहीं सकते। बस देखते ही बनता है!'

'पीतर्सबर्ग में क्या नहीं मिलता!' छोटे मजदूर ने जोश से चिल्ला कर कहा, 'बस माँ-बाप को छोड़ कर हर चीज मिलती है!'

'उन्हें छोड़ कर हर चीज मिलती है, यार,' बड़े मजदूर ने बड़े मानीखेज ढंग से ऐलान किया।

रस्कोलनिकोव उठ कर दूसरे कमरे में चला गया, जहाँ पहले वह भारी संदूक, पलँग और दराजोंवाली अलमारी थी। उसे फर्नीचर के बिना वह कमरा बेहद छोटा लगा। दीवारों पर कागज वही था। एक कोने के कागज के रंग से पता चल रहा था कि पहले वहाँ प्रतिमाओं का फ्रेम था। उसने उधर की तरफ देखा और फिर अपनी खिड़की के पास चला गया। बड़े मजदूर ने उसे आश्चर्य से देखा।

'क्या चाहिए तुम्हें?' उसने एकाएक पूछा।

उसके सवाल का जवाब देने की बजाय रस्कोलनिकोव गलियारे में जा कर घंटी बजाने लगा। वही घंटी और वही उसकी फटी हुई आवाज। उसने दोबारा घंटी बजाई, फिर तीसरी बार। वह सुनता रहा और उसे कुछ याद आता रहा। उस समय उसने जो भयानक और तड़पा देनेवाली डरावनी संवेदना झेली थी, वह फिर अधिकाधिक स्पष्ट रूप में लौट-लौट कर आने लगी। घंटी की हर आवाज पर वह काँप उठता था और उसे अधिकाधिक संतोष भी मिल रहा था।

'बोलो, तुम्हें क्या चाहिए? तुम हो कौन?' मजदूर ने उसके पास जा कर, डपट कर पूछा। रस्कोलनिकोव फिर अंदर चला गया।

'मुझे एक फ्लैट किराए पर लेना है,' वह बोला। 'बस देख रहा हूँ।'

'लोग रात को कमरे देखने आते नहीं, और तुम्हें तो दरबान के साथ आना चाहिए था।'

'फर्श तो धो दिए गए हैं, क्या उन पर पालिश भी होगी?' रस्कोलिनकोव कहता रहा। 'कहीं खून तो नहीं लगा रह गया?'

'कैसा खून?'

'क्यों, यहीं तो उस बुढ़िया और उसकी बहन को कत्ल किया गया था। यहाँ अच्छा-खासा खून जमा हो गया था।'

'भला तुम हो कौन?' मजदूर बेचैन हो कर चीखा।

'मैं?'

'हाँ।'

'जानना चाहते हो थाने चलो, वहाँ बताऊँगा।'

मजदूर उसे हैरत से देखते रहे।

'चलने का वक्त हो गया, वैसे ही देर हो गई है। चलो अलेश्का चलें। कमरा बंद करना है,' बड़े मजदूर ने कहा।

'तो फिर चलें,' रस्कोलनिकोव ने लापरवाही से कहा और सबसे पहले बाहर निकल कर धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरने लगा। 'ऐ, दरबान!' फाटक पर पहुँच कर उसने पुकारा।

फाटक पर खड़े कई लोग राहगीरों को घूर रहे थे। ये थे दोनों दरबान, एक किसान औरत, लंबा गाउन पहने एक आदमी, कुछ और लोग। रस्कोलनिकोव सीधा उनके पास गया।

'क्या चाहिए?' एक दरबान ने पूछा।

'थाने गए थे?'

'अभी वहीं से तो आया हूँ। तुम्हें चाहिए क्या?'

'थाना खुला है?'

'बरोबर खुला है!'

'असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट है वहाँ?'

'थोड़ी देर के लिए आए तो थे। आपको क्या चाहिए?'

रस्कोलनिकोव ने कोई जवाब नहीं दिया। वह विचारों में डूबा हुआ उनके ही पास खड़ा रहा।

'यह आदमी फ्लैट देखने गया था,' बड़े मजदूर ने आगे बढ़ कर कहा।

'कौन-सा फ्लैट?'

'हम जहाँ काम कर रहे हैं। 'तुमने खून धो क्यों डाला?' यह बोला 'यहाँ कत्ल हुआ था,' यह कह रहा था, और 'मैं फ्लैट किराए पर लेने आया हूँ।' फिर यह घंटी बजाने लगा। वह तो कहो, बस, तोड़ी नहीं। 'थाने चलो,' यह बोला 'वहीं सब कुछ बताऊँगा।' किसी तरह हमारा पिंड ही नहीं छोड़ता था।'

दरबान त्योरियों पर बल डाले, शकभरी नजरों से रस्कोलनिकोव को देखता रहा।

'तुम हो कौन?' उसने सख्ती से पूछा।

'मैं रोदिओन रोमानोविच रस्कोलनिकोव हूँ। पहले पढ़ता था। शिल के मकान में रहता हूँ, पास की गली में, यहाँ से दूर नहीं है। 14 नंबर के फ्लैट में। दरबान से पूछ लेना... वह मुझे जानता है।' रस्कोलनिकोव ने ये सारी बातें इधर-उधर मुड़ कर देखे बिना अलसाई हुई, खोई-खोई आवाज में कही। वह सड़क की ओर एकटक देख रहा था, जहाँ अँधेरा गहराता जा रहा था।

'फ्लैट में किसलिए गए थे?'

'उसे देखने के लिए।'

'उसमें देखनेवाली ऐसी क्या चीज है?'

'इसे सीधे थाने क्यों न ले जाओ,' लंबे गाउनवाले आदमी ने अचानक बीच में कहा और चुप हो गया।

रस्कोलनिकोव ने गर्दन घुमा कर उसे घूर कर देखा और उसी तरह धीरे-धीरे अलसाई हुई आवाज में कहा : 'आओ, चलो!'

'हाँ, ले जाओ,' वह आदमी इस बार और भी भरोसे के साथ बोला। 'यह उसके अंदर क्यों जा रहा था इसके मन में कोई बात जरूर होगी, क्यों?'

'शराब तो पिए हुए नहीं है, लेकिन भगवान जाने क्या हो गया है इसे,' मजदूर बुदबुदाया।

'तुम्हारा इरादा क्या है भला?' दरबान एक बार फिर चीखा; उसे सचमुच गुस्सा आ रहा था। 'तुम यहाँ क्यों लोगों को परेशान कर रहे हो?'

'तुम्हारा थाने चलने के नाम से दम निकलता है क्या?' रस्कोलनिकोव ने चिढ़ाते हुए कहा।

'दम क्यों निकले है भला, मगर तुम हमें परेशान क्यों कर रहे हो?'

'अरे, कोई लफंगा होगा!' किसान औरत जोर से चीखी।

'काहे को अपना वक्त इससे बात करके बर्बाद कर रहे हो' दूसरे दरबान ने ऊँचे स्वर में कहा। वह भारी-भरकम डीलडौल का आदमी था और उसने टखनों तक का लंबा कोट पहन रखा था जिसके सारे बटन खुले हुए थे। उसकी पेटी से चाभियों का गुच्छा लटक रहा था। 'चलो यहाँ से। लफंगा तो है ही! चलो, खिसको यहाँ से!'

फिर उसने रस्कोलनिकोव का कंधा पकड़ कर उसे सड़क पर ढकेल दिया। वह आगे की ओर लड़खड़ाया, सँभल कर फिर खड़ा हुआ, चुपचाप तमाशा देखनेवालों को घूरा, और वहाँ से चला गया।

'अजीब आदमी है!' मजदूर ने अपना मत व्यक्त किया।

'आजकल तो जहाँ देखो, अजीब लोग ही दिखाई देते हैं,' औरत बोली।

'तुम्हें तो हर हालत में उसको थाने ले जाना चाहिए था,' लंबे गाउनवाले ने कहा।

'उसके मुँह न लगना ही अच्छा था,' भारी डील-डौलवाले दरबान ने फैसला करते हुए कहा। 'सरासर बदमाश था! सच जानो, वह यही चाहता था। लेकिन एक बार थाने ले जाते तो पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता... हम ऐसे लोगों को खूब जाने हैं!'

'जाऊँ कि नहीं,' रस्कोलनिकोव चौराहे पर बीच सड़क खड़ा सोचता रहा। उसने चारों ओर नजर दौड़ा कर इस तरह देखा गोया किसी से इस बात का फैसला सुनने की उम्मीद कर रहा हो। लेकिन कोई आवाज नहीं आई। हर चीज उन्हीं पत्थरों की तरह मुर्दा और खामोश थी, जिन पर वह चल रहा था। हर चीज उसके लिए मुर्दा थी, सिर्फ उसके लिए। अचानक सड़क के छोर पर, वहाँ से कोई दो सौ गज दूर, गहराते हुए झुटपुटे में उसे एक भीड़ नजर आई और लोगों के बात करने और चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। भीड़ के बीच में एक गाड़ी खड़ी थी ...सड़क के बीच में एक रोशनी टिमटिमा रही थी। 'क्या बात है', रस्कोलनिकोव दाहिनी ओर मुड़ कर भीड़ की ओर बढ़ चला। वह हर चीज को पकड़ने की कोशिश कर रहा था और इसके बारे में सोच कर वह क्रूरता से मुस्कराया। इसलिए कि उसने थाने जाने का निश्चय कर लिया था और जानता था कि यह सारा मामला जल्दी ही खत्म हो जाएगा।

अपराध और दंड : (अध्याय 2-भाग 7)

बीच सड़क एक शानदार गाड़ी खड़ी थी, जिसमें दो सफेद घोड़े जुते हुए थे। गाड़ी में कोई भी नहीं था और कोचवान भी अपनी जगह से उतर कर पास ही खड़ा था। उसने घोड़ों की लगाम पकड़ रखी थी। चारों ओर बहुत से लोग जमा हो गए थे और सामने पुलिसवाले खड़े थे। उनमें से एक के हाथ में जलती हुई लालटेन थी जिसकी रोशनी वह पहियों के पास पड़ी हुई किसी चीज पर डाल रहा था। हर आदमी बातें कर रहा था, चीख रहा था, जोश में आ कर कुछ बोल रहा था। कोचवान घबराया हुआ लग रहा था और बार-बार यही कहता था :

'कैसी बदनसीबी है! हे भगवान, कितनी बड़ी बदनसीबी है!'

रस्कोलनिकोव धक्का दे कर जहाँ तक हो सका, आगे पहुँच गया। आखिर उस चीज को देखने में कामयाब रहा, जिसकी वजह से यह सारा हंगामा मचा हुआ था और जिसमें लोग इतनी दिलचस्पी ले रहे थे। एक आदमी जमीन पर पड़ा था क्योंकि वह गाड़ी के नीचे आ गया था। जाहिर था कि बेहोश था और खून में लथपथ था। उसने कपड़े बहुत ही बुरी तरह पहन रखे थे, लेकिन वे कभी सभ्य लोगों के कपड़े रहे होंगे और चेहरे से खून बह रहा था; चेहरा बुरी तरह कुचल गया और विकृत हो गया था। साफ जाहिर था कि उसे बुरी तरह चोट आई थी।

'दया करना भगवान!' कोचवान गिड़गिड़ा कर कह रहा था, 'मैं और क्या कर सकता था! अगर मैं गाड़ी तेज चला रहा होता या पुकार-पुकार कर मैंने उससे हटने को न कहा होता, तब भी कोई बात थी, लेकिन मैं तो बड़ी शांति से जा रहा था और मुझे कोई जल्दी नहीं थी। सभी ने देखा होगा : जैसे सब लोग जा रहे थे, वैसे ही मैं भी जा रहा था। मगर यह तो सभी जानते हैं कि शराबी सीधा चल नहीं सकता... मैंने इसे सड़क पार करते देखा, लड़खड़ाता हुआ चल रहा था, बिलकुल गिरा जा रहा था। मैंने आवाज दी, फिर दूसरी बार चिल्लाया, फिर तीसरी बार। फिर मैंने घोड़ों की रास खींची, लेकिन वह तो सीधा उनके पैरों के नीचे ही गिरा आ उसने या तो जान-बूझ कर ऐसा किया या फिर बहुत ही नशे में था ...घोड़े अभी जवान हैं और जरा में भड़क उठते हैं... वे चौंके, वह चीखा... फिर इस पर घोड़े और भी भड़के। बस यही है सारी कहानी!'

'एकदम यही बात थी,' भीड़ में से एक आवाज ने उसकी बात की ताईद की।

'चिल्लाया तो था, यह बात सच है। तीन बार चिल्लाया था,' एक और आवाज ने ऐलान किया।

'तीन बार चिल्लाया, हम सबने सुना,' एक तीसरा आदमी और भी जोर से बोला।

लेकिन कोचवान बहुत परेशान और डरा हुआ नहीं था। साफ दिखाई दे रहा था कि गाड़ी किसी रईस की थी, जो कहीं उसकी राह देख रहा होगा। जाहिर है पुलिस भी उसकी इस व्यवस्था में खलल डालना नहीं चाहती थी। उसे बस घायल आदमी को थाने और फिर अस्पताल ले जाना था। किसी को उसका नाम तक नहीं मालूम था।

इसी बीच रस्कोलनिकोव भीड़ में घुस चुका था और झुक कर उस आदमी को पास से देख रहा था। लालटेन की रोशनी अचानक उस अभागे आदमी के चेहरे पर पड़ी। रस्कोलनिकोव ने उसे पहचान लिया।

'मैं इसे जानता हूँ! मैं इसे जानता हूँ!' वह धक्का दे कर आगे आते हुए चीखा। 'सरकारी क्लर्क था, नौकरी से रिटायर हो चुका है, मार्मेलादोव नाम है। यहाँ पास ही कोजेल के मकान में रहता है... जल्दी से डॉक्टर बुलाओ! पैसे मैं दूँगा, लो, यह देखो।' यह कह कर उसने पुलिसवाले को जेब से पैसे निकाल कर दिखाए। वह बेहद उत्तेजित था।

पुलिस को खुशी थी कि चलो, मालूम तो हो गया कि वह आदमी है कौन। रस्कोलनिकोव ने अपना नाम-पता बताया, और पुलिसवालों से बेहोश मार्मेलादोव को फौरन उसके घर पहुँचाने के लिए ऐसा बेचैन हो कर कहने लगा जैसे उसका अपना बाप घायल हुआ हो।

'यहीं है, तीन घर छोड़ कर,' उसने बड़ी उत्तेजना में कहा, 'घर एक बहुत अमीर जर्मन का है, कोजेल का। यकीनन, शराब पिए हुए घर जा रहा था। मैं इसे जानता हूँ, बेहद शराब पीता है। परिवार के साथ रहता है, बीवी है, बच्चे हैं, उसकी एक बेटी भी है। अस्पताल ले जाने में तो बड़ा वक्त लगेगा, पर उस मकान में कोई डॉक्टर जरूर होगा। पैसे मैं दूँगा! घर पर कोई देखभाल करनेवाला तो होगा। फौरन मरहम-पट्टी हो जाएगी। अस्पताल पहुँचने तक तो यह मर ही जाएगा।'

सबकी नजरें बचा कर उसने पुलिसवाले के हाथ में चुपके से कुछ थमा दिया। लेकिन इसमें कोई बेईमानी की या गैर-कानूनी बात नहीं थी। यूँ भी, यहाँ नजदीक ही मरहम-पट्टी हो सकती थी। उन लोगों ने घायल आदमी को उठा लिया; बहुत से लोग हाथ लगाने को खुद आगे आए। कोजेल का मकान कोई तीस गज की दूरी पर था। रस्कोलनिकोव बड़ी सावधानी से मार्मेलादोव का सर पकड़े पीछे-पीछे चल रहा था और रास्ता बताता जाता था।

'इधर-इधर से! सीढ़ियों पर सर ऊपर की तरफ करके ले जाना चाहिए। घूम जाओ! पैसे मैं दूँगा, किसी को कोई शिकायत नहीं रहेगी,' वह बोलता ही रहा।

कतेरीना इवानोव्ना ने सीने पर हाथ बाँधे, अपने आपसे बातें करते और खाँसते हुए उस छोटे से कमरे की खिड़की और आतिशदान के बीच टहलना अभी शुरू ही किया था। उसे जब भी थोड़ा-सा वक्त मिलता था, वह यही करती थी। इधर कुछ समय से वह अपनी बड़ी बेटी पोलेंका से पहले से ज्यादा बातें करने लगी थी, जो अभी दस साल की बच्ची थी। हालाँकि बहुत-सी बातें ऐसी थीं जो उसकी समझ में नहीं आती थी, लेकिन वह इतना अच्छी तरह समझती थी कि उसकी माँ को उसकी जरूरत है। इसलिए वह अपनी बड़ी-बड़ी सयानी आँखों से हमेशा अपनी माँ को देखती रहती थी और यह जताने की पूरी कोशिश करती थी कि वह सब कुछ समझ रही है। इस वक्त पोलेंका अपने छोटे भाई के कपड़े उतार रही थी। जिसकी तबीयत दिन भर बिगड़ी हुई रही थी और वह अभी सोने जा रहा था। लड़का इसी का इंतजार कर रहा था कि उसकी बहन आ कर उसकी कमीज उतारे, जो रात को धोई जानेवाली थी। वह हिले-डुले बिना कुर्सी पर सीधा तना हुआ बैठा था। उसका चेहरा गंभीर था और वह एक शब्द भी नहीं बोल रहा था। उसने अपनी टाँगें सामने की तरफ फैला रखी थीं - एड़ियाँ जुड़ी हुई और अँगूठे एक-दूसरे से दूर। माँ उसकी बहन से जो कुछ कह रही थी, उसे वह होठ बाहर की ओर निकाले हुए और आँखें फाड़े हुए, चुपचाप सुन रहा था, जिस तरह सभी अच्छे बच्चों को सोने से पहले कपड़े उतरवाते वक्त बैठना पड़ता है। एक छोटी बच्ची, जो उससे भी छोटी थी, चीथड़ों में लिपटी और ओट के पास खड़ी अपनी बारी आने की राह देख रही थी। सीढ़ियों की ओर जानेवाला दरवाजा खुला था ताकि उन्हें तंबाकू के धुएँ के उन बादलों से कुछ राहत मिल सके, जो दूसरे कमरों से तैर कर उनके कमरे की ओर आते थे और जिनकी वजह से तपेदिक की मारी औरत को खाँसी के भयानक दौरे पड़ने लगते थे। लगता था पिछले एक हफ्ते के दौरान कतेरीना इवानोव्ना और भी दुबली हो गई थी। उसके गालों की तमतमाहट में पहले से भी ज्यादा चमक पैदा हो गई थी।

'तुम्हें यकीन नहीं होगा पोलेंका, तुम सोच भी नहीं सकती हो,' वह कमरे में टहल-टहल कर कह रही थी, 'कि तुम्हारे नाना के घर हम लोग कितने ऐश में, कितने खुश रहते थे और किस तरह इस शराबी ने मुझे तबाह कर दिया है और तुम सबको तबाह करेगा! मेरे पापा एक सिविल कर्नल थे, गवर्नर से एक ही ओहदा नीचे। बस एक सीढ़ी और चढ़ते तो गवर्नर हो जाते। इसलिए जो भी उनसे मिलने आता, यही कहता : 'हम तो, इवान मिखाइलोविच, आप ही को अपना गवर्नर समझते हैं!' मैं जब...' वह जोर से खाँसी, 'आह, लानत है इस जिंदगी पर,' वह खखारते हुए, हाथ से अपना सीना दबाते हुए चीखी, 'मैं जब... जब आखिरी नाच में... मार्शल साहब के यहाँ... जब राजकुमारी बेज्जेमेलनी ने मुझे देखा - जब तुम्हारे पापा के साथ मेरी शादी हुई थी पोलेंका, तब उन्होंने ही हमें आशीर्वाद दिया था - तो उन्होंने फौरन पूछा था : 'यह सुंदर लड़की वही है न जिसने सत्र की पढ़ाई के खत्म होने के वक्त शालवाला नाच दिखाया था' ('वह जहाँ फट गई है उसे ठीक कर लेना, जैसे मैंने बताया था वैसे ही सुई ले कर रफू कर लेना, नहीं तो कल वह उस छेद को और बड़ा कर देगा,' उसने खाँस-खाँस कर बड़ी मुश्किल से कहा।) 'राजकुमार श्चेगोल्सकोय, जो बादशाह के रनिवास में बहुत ऊँचे पद पर थे, उन्हीं दिनों पीतर्सबर्ग से आए थे... वह मेरे साथ माजूर्का नाचे और अगले ही दिन वह मुझसे शादी करने का पैगाम देना चाहते थे, लेकिन उन्हें प्रशंसा भरी भाषा में धन्यवाद दिया और बताया कि मैं अपना दिल बहुत पहले किसी और को दे चुकी हूँ। वह 'कोई और' तुम्हारे पापा ही थे, पोल्या; तुम्हारे नाना बेहद नाराज हुए थे... पानी गर्म हुआ अपनी कमीज और मोजे मुझे देना! लीदा,' उसने सबसे छोटी बच्ची से कहा... 'आज रात तुम बिना कुर्ती के काम चला लो... और साथ ही अपने मोजे भी रख देना... दोनों चीजें एक साथ धो दूँगी... वह आवारा शराबी भला अटक कहाँ गया, कमीज पहन-पहन कर इतनी मैली कर ली है कि डस्टर जैसा लगने लगी है। फाड़ कर एकदम चिथड़े-चिथड़े कर डाला है! मैं सब एक साथ धो डालूँगी, ताकि लगातार दो रात काम न करना पड़े। हे भगवान!' उसे अचानक खाँसी आने लगी। 'फिर! यह क्या हुआ' वह गलियारे में भीड़ को और कुछ लोगों को कोई बोझ उठाए अपने कमरे की तरफ आते देख कर चीखी। 'क्या है भला, क्या ला रहे हैं ये लोग? दया करना भगवान!'

'कहाँ लिटाएँ?' जब बेहोश और खून से लथपथ मार्मेलादोव को अंदर लाया गया तो पुलिसवाले ने चारों ओर नजर डाल कर पूछा।

'सोफे पर! सीधे ले जा कर सोफे पर लिटाओ, इधर सर करके,' रस्कोलनिकोव ने इशारा करके बताया।

'सड़क पर गाड़ी से कुचल गया! शराब पिए हुए था!' ड्योढ़ी में से कोई चिल्लाया।

कतेरीना इवानोव्ना सन्न और हाँफती हुई खड़ी रही। उसका रंग सफेद पड़ गया था और दम बुरी तरह फूल रहा था। बच्चे सहमे हुए थे। नन्ही लीदा चीख पड़ी और भाग कर पोलेंका से जा कर लिपट गई। वह थर-थर काँप रही थी।

मार्मेलादोव को लिटाने के बाद रस्कोलनिकोव लपक कर कतेरीना इवानोव्ना के पास पहुँचा।

'भगवान के लिए शांत रहो, डरो मत,' उसने जल्दी-जल्दी बोलते हुए कहा, 'सड़क पार कर रहा था, गाड़ी के नीचे आ गया। घबराओ मत, अभी होश में आ जाएगा। इन लोगों से यहाँ लाने को मैंने ही कहा था... मैं यहाँ पहले आ चुका हूँ, याद है न! अभी होश में आ जाएगा... पैसे मैं दूँगा!'

'बस यही होने को रह गया था,' कतेरीना इवानोव्ना निराशा में डूबी हुई, चीख कर अपने पति की ओर भागी।

रस्कोलनिकोव के ध्यान में फौरन यह बात आई कि वह उन औरतों में से नहीं थी जो बहुत जल्द बेहोश हो जाती हैं। उसने अपने अभागे पति के सर के नीचे तकिया रख दिया जिसका किसी को ध्यान भी नहीं आया था; उसके कपड़े उतारने लगी और अच्छी तरह देखभाल करने लगी। अपनी सुध-बुध भूल कर भी उसने सब्र का दामन नहीं छोड़ा। अपने काँपते होठों को दाँतों से दबा कर उसने अपनी उन चीखों को अंदर ही दबाए रखा, जो किसी भी पल उसके सीने से फूट निकलने को बेकरार थीं।

इस बीच रस्कोलनिकोव ने किसी को राजी करके डॉक्टर की तलाश में भेजा। पता चला कि एक मकान छोड़ कर पास ही एक डॉक्टर रहता था।

'मैंने डॉक्टर को बुलवाया है,' वह कतेरीना इवानोव्ना को तसल्ली देता रहा, 'घबराओ नहीं, पैसे मैं दूँगा। थोड़ा-सा पानी होगा ...कोई रूमाल या तौलिया भी दो, जो भी मिल जाए। जल्दी से... चोट लगी है, लेकिन मरा नहीं है। मेरी बात मानो... देखें, डॉक्टर क्या कहता है!'

कतेरीना इवानोव्ना भाग कर खिड़की के पास गई। कोने में एक टूटी कुर्सी पर मिट्टी की बड़ी-सी नाँद में पानी भरा रखा था; इसी पानी से वह रात को अपने पति और बच्चों के कपड़े धोती। कतेरीना इवानोव्ना हफ्ते में कम से कम दो बार रात को कपड़े धोती थी। परिवार की हालत ऐसी हो गई थी कि किसी के पास बदलने को दूसरा जोड़ा नहीं था, और कतेरीना इवानोव्ना गंदगी बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। घर में उससे गंदगी नहीं देखी जाती थी। रात को जब सब लोग सो जाते थे, तब अपने बूते से ज्यादा काम करना उसे मंजूर था, ताकि कपड़े धो कर रात को फैला दे तो सबेरे तक वे सूख जाएँ। रस्कोलनिकोव के पानी माँगने पर उसने नाँद तो उठा ली लेकिन उसके बोझ से गिरते-गिरते बची। रस्कोलनिकोव इसी बीच कहीं से तौलिया ढूँढ़ लाया था; उसे भिगो कर वह मार्मेलादोव के चेहरे से खून पोंछने लगा। कतेरीना इवानोव्ना हाथों से अपना सीना दबाए पास ही खड़ी रही। उसे साँस लेने में कष्ट हो रहा था और उसकी हालत खुद ही ऐसी थी कि कोई उसकी देखभाल करे। रस्कोलनिकोव को महसूस होने लगा था कि घायल को यहाँ ला कर उसने शायद गलती की है। पुलिसवाला भी कुछ संकोच में डूबा हुआ, पास ही खड़ा था।

'पोल्या,' कतेरीना इवानोव्ना ने पुकारा, 'जल्दी से सोन्या के पास जाओ। अगर वह घर पर न हो तो वहाँ किसी से कह आना कि उसका बाप गाड़ी से कुचल गया है, जैसे ही आए सीधी यहाँ आए... भाग कर जाना, पोलेंका! लो, यह शाल लपेट लो।'

'जितना तेज हो सके, भाग कर जाना!' कुर्सी पर बैठा हुआ छोटा लड़का अचानक चीखा। इसके बाद वह फिर वैसे ही गूँगों की तरह, गोल-गोल आँखें खोले, पत्थर की मूरत की तरह बैठा रहा। टाँगें सामने फैलाए, एड़ियाँ जोड़े हुए अँगूठे एक-दूसरे से दूर।

इस बीच कमरे में इतने लोग भर गए थे कि कहीं तिल धरने की जगह नहीं थी। एक को छोड़ कर बाकी सब पुलिसवाले चले गए थे; थोड़ी देर वहीं रुक कर वह सीढ़ियों पर से आते लोगों को बाहर भगाने की कोशिश कर रहा था। मादाम लिप्पेवेख्सेल की उस चाल के सभी किराएदार अपने-अपने कमरों से आ कर वहीं जमा हो गए थे। शुरू में तो वे दरवाजे के पास दबे-सिकुड़े खड़े रहे, लेकिन बाद में कमरे के अंदर आ गए। कतेरीना इवानोव्ना का गुस्सा भड़क उठा।

'कम से कम चैन से मरने तो दो,' वह भीड़ पर चीखी, 'यह भी तुम लोगों को तमाशा है क्या चले आए सिगरेट पीते हुए!' वह फिर खाँसने लगी। 'हैट भी लगा कर आते... एक तो हैट लगाए भी है! ...चलो फूटो भागो यहाँ से! कम से कम मरनेवाले का तो लिहाज करो!'

खाँसी के मारे उसका दम घुटा जा रहा था। पर उसकी डाँट-फटकार का लोगों पर असर पड़ा। साफ जाहिर था कि वे कतेरीना इवानोव्ना से थोड़ा डरते थे। सारे किराएदार एक-एक करके फिर दरवाजे के पास दुबक गए। वे लोग मन ही मन एक अजीब संतोष का अनुभव कर रहे थे। यह भावना किसी आकस्मिक दुर्घटना के समय उस दुर्घटना के शिकार व्यक्ति के प्रियजन तक में देखी जाती है और भावना से कोई भी मनुष्य मुक्त नहीं रहता, चाहे उसकी हमदर्दी और वेदना का रंग कितना ही गहरा हो।

लेकिन बाहर से अस्पताल की चर्चा करती कुछ आवाजें सुनाई पड़ीं। कुछ लोग कह रहे थे कि यहाँ यह सब बखेड़ा करने की कोई जरूरत नहीं थी।

'यह कहो कि मरने की जरूरत नहीं थी!' कतेरीना इवानोव्ना चीख कर उन लोगों पर अपना गुस्सा उतारने के लिए दरवाजे की ओर लपकी। लेकिन दरवाजे पर ही उसकी मुठभेड़ मादाम लिप्पेवेख्सेल से हो गई। उसे उसी समय दुर्घटना की खबर मिली थी और खुद सारी गड़बड़ ठीक कराने के लिए वह भागी-भागी वहाँ आई थी। वह एक झगड़ालू और बेलगाम जर्मन औरत थी।

'हे भगवान!' वह अपने हाथों को आपस में कस कर जोर से चीखी, 'तुम्हारा मरद सराब पिएला हुआ, घोड़ा ने रौंदा! अभी अस्पताल पहुँचाने का उसे ए मेरा घर होएला है!'

'अमालिया लुदविगोव्ना, मैं तुमसे कहे देती हूँ कि जरा सोच-समझ कर बातें करो,' कतेरीना इवानोव्ना ने अकड़ कर कहना शुरू किया (वह मकान-मालकिन से हमेशा अकड़ कर ही बातें करती थी ताकि वह 'अपनी हैसियत न भूले' और इस समय भी वह अपने आपको इस संतोष से वंचित नहीं रखना चाहती थी)। 'अमालिया लुदविगोव्ना...'

'मैं पहले भी एक बार बोला तुमको कि उनको अमालिया लुदविगोव्ना बोलने का हिम्मत नहीं करने का। अमारा नाम अमालिया इवानोव्ना, मालूम!'

'तुम अमालिया इवानोव्ना नहीं, अमालिया लुदविगोव्ना हो, और मैं मिस्टर लेबेजियातनिकोव जैसे लोगों में नहीं, जो तुम्हारे तलवे चाटते हैं, तुम्हारी चापलूसी करते हैं, और इस वक्त भी दरवाजे के पीछे खड़े हँस रहे हैं' (सचमुच दरवाजे के पीछे से किसी के हँसने और जोर से यह कहने की आवाज आई थी कि 'दोनों में फिर ठन गई'), 'इसलिए मैं तुम्हें हमेशा अमालिया लुदविगोव्ना ही कहूँगी, हालाँकि मेरी समझ में यह नहीं आता कि यह नाम तुम्हें क्यों इतना बुरा लगता है। तुमको खुद दिखाई नहीं देता कि सेम्योन जखारोविच का क्या हाल है वे मर रहे हैं। मैं हाथ जोड़ कर कहती हूँ कि दरवाजा फौरन बंद करो और किसी को अंदर न आने दो। कम से कम चैन से मरने तो दो! वरना मैं कहे देती हूँ कि गवर्नर-जनरल साहब को कल ही तुम्हारी हरकतों की खबर दे दी जाएगी। राजकुमार जी मुझे बचपन से जानते हैं; उन्हें सेम्योन जखारोविच की भी अच्छी तरह याद है और वह कई बार उनके साथ उपकार कर चुके हैं। सभी जानते हैं कि सेम्योन जखारोविच के बहुत से दोस्त और धनी-मानी लोग ऐसे हैं जिनसे उन्होंने, अपनी इस कमबख्त कमजोरी को समझते हुए, अपनी मान-मर्यादा और अपने अभिमान की वजह से खुद ही मिलना-जुलना छोड़ दिया था, लेकिन अब' (उसने रस्कोलनिकोव की तरफ इशारा किया) 'एक परोपकारी नौजवान हमारी मदद को आया है, जो पैसेवाला है, जिसकी दूर-दूर तक पहुँच है और जिसे सेम्योन जखारोविच बचपन से जानते हैं। तुम यकीन जानो, अमालिया लुदविगोव्ना...'

ये सारी बातें उसने बेहद तेजी से कहीं और जैसे-जैसे वह बोलती गई, उसकी रफ्तार भी बढ़ती गई। लेकिन अचानक खाँसी उठ जाने पर कतेरीना इवानोव्ना का भाषण खत्म हो गया। उसी पल मरनेवाले को होश आ गया और वह जोर से कराहा। वह भाग कर पास गई। घायल ने आँखें खोलीं और किसी को पहचाने बिना या कुछ समझे बिना रस्कोलनिकोव को घूरता रहा, जो उसके ऊपर झुका खड़ा था। वह गहरी-गहरी धीमी-धीमी साँसें ले रहा था, जिससे उसे कष्ट हो रहा था। मुँह के कोनों से खून रिस रहा था और माथे पर पसीने की बूँदें छलक आई थीं। रस्कोलनिकोव को न पहचान कर वह बेचैनी से चारों ओर देखने लगा। कतेरीना इवानोव्ना उदास मगर कठोर चेहरा लिए उसे देखती रही। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

'हे भगवान! सारा सीना कुचल कर धँस गया है! देखो तो, खून कितना बह रहा है!' उसने घोर निराशा में डूबे हुए कहा। 'कपड़े उतार दें। थोड़ा-सा उधर घूमो सेम्योन जखारोविच, घूम पाओगे?' उसने रो कर कहा।

मार्मेलादोव ने उसे पहचान लिया।

'पादरी,' उसने भर्रायी हुई आवाज में कहा।

कतेरीना इवानोव्ना चल कर खिड़की के पास गई और चौखट से सर टिका कर निराश स्वर में बोली :

'ओह, लानत है इन जिंदगी पर!'

'पादरी,' मरनेवाले ने एक पल चुप रहने के बाद फिर कहा।

'लोग बुलाने गए हैं!' कतेरीना इवानोव्ना ने ऊँचे स्वर में चीख कर कहा। उसकी चीख सुन कर वह चुप हो गया। उदास और सहमी हुई आँखों से वह उसे तलाश करता रहा और वह वापस आ कर सिरहाने खड़ी हो गई। लग रहा था उसे कुछ चैन आ गया है। लेकिन यह चैन ज्यादा देर नहीं टिका। जल्द ही उसकी नजरें अपनी लाड़ली बेटी लीदा पर टिक गई। वह कोने में खड़ी ऐसे काँप रही थी, गोया उसे दौरा पड़ा हो और अपनी आश्चर्य भरी भोली आँखों से उसे घूरे जा रही थी।

'आ-ह।' उसने बेचैन हो कर बेटी की तरफ इशारा किया। वह कुछ कहना चाहता था।

'अब क्या है भला,' कतेरीना इवानोव्ना चीखी।

'नंगे-पाँव, नंगे-पाँव!' वहशी नजरों से बच्ची के नंगे पाँवों की ओर इशारा करके वह बुदबुदाया।

'चुप रहो!' कतेरीना इवानोव्ना चिढ़ कर जोर से बोली, 'जानते तो हो न कि वह नंगे-पाँव क्यों है!'

'शुक्र है, डॉक्टर तो आया,' रस्कोलनिकोव ने राहत की साँस ले कर कहा।

डॉक्टर चारों ओर संदेहभरी नजरों से देखता हुआ अंदर आया। वह छोटे कद का एक साफ-सुथरा, बूढ़ा जर्मन था। उसने घायल के पास जा कर उसकी नब्ज देखी, सावधानी से उसके सर को टटोला और कतेरीना इवानोव्ना की मदद से उसकी खून में सनी कमीज के बटन खोल कर घायल का सीना खोला। सीना बुरी तरह जख्मी था, काफी कुचल गया था और दाहिनी ओर की कई पसलियाँ टूट गई थीं। बाईं ओर दिल के ठीक ऊपर एक बड़ा-सा; पीलापन लिए हुए काले रंग का डरावना निशान था - घोड़े की टाप की ठोकर का निशान। डॉक्टर ने भौहें सिकोड़ कर देखा। पुलिसवाले ने बताया कि वह पहिए में फँस गया था और सड़क पर कोई तीस गज तक उसके साथ घिसटता चला गया था।

'कमाल है कि फिर भी होश आ गया,' डॉक्टर ने धीरे से रस्कोलनिकोव के कान में कहा।

'आपका क्या खयाल है?' उसने पूछा।

'मर जाएगा।'

'लग रहा है, कोई उम्मीद नहीं?'

'जरा भी नहीं! आखिरी साँसें हैं... सर में भी बुरी तरह चोट आई है... हूँ... अगर चाहो तो थोड़ा-सा खून निकाल दूँ, लेकिन... फायदा कोई नहीं होगा। अगले पाँच-दस मिनट में ही टपक जाएगा।'

'खून कुछ निकाल ही दीजिए।'

'निकाल सकता हूँ... लेकिन मैं पहले ही बताए देता हूँ कि बेकार होगा।'

उसी पल कुछ और कदमों की आहट सुनाई पड़ी। ड्योढ़ी में खड़ी भीड़ ने रास्ता दिया और एक नाटा-सा, सफेद बालोंवाला बूढ़ा पादरी अंतिम संस्कार का सारा सामान लिए हुए दरवाजे पर आया। दुर्घटना जब हुई थी, तभी एक पुलिसवाला उसे बुलाने चला गया था। डॉक्टर ने पादरी के लिए जगह खाली कर दी और खुद उसकी जगह चला गया; दोनों ने एक-दूसरे को कनखियों से देखा। रस्कोलनिकोव ने डॉक्टर से कुछ देर और रुके रहने की विनती की। डॉक्टर कंधे बिचका कर ठहर गया।

सभी लोग पीछे हट गए। मरने से पहले पाप-स्वीकार का संस्कार जल्द ही पूरा हो गया। मरनेवाले की शायद कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। वह उखड़ी आवाज में कुछ टूटे-फूटे शब्द बोल रहा था, जो ठीक से सुनाई नहीं देते थे। कतेरीना इवानोव्ना ने लीदा का हाथ पकड़ा, छोटे लड़के को कुर्सी पर से उठाया, कोने में आतिशदान के पास घुटनों के बल बैठ गई और बच्चों को सामने घुटनों के बल बिठाया। छोटी बच्ची काँप रही थी। लेकिन लड़का नंगे घुटनों के बल बैठा नियमित रूप से थोड़ी-थोड़ी देर बाद हाथ उठा कर, नपे-तुले ढंग से सीने पर उँगलियों से सलीब का निशान बनाता था और झुक कर जमीन पर माथा टेक देता था। लगता था उसे इसमें कोई विशेष संतोष मिल रहा हो। कतेरीना इवानोव्ना दाँतों में होठ दबाए आँसू रोकने की कोशिश कर रही थी। वह प्रार्थना भी करती जाती थी और बीच-बीच में लड़के की कमीज खींच कर सीधी भी करती जाती थी। प्रार्थना करना बंद किए बिना और अपनी जगह से उठे बिना अलमारी पर से एक रूमाल उठा कर उसने बच्ची के कंधों पर डाल दिया था। इसी जिज्ञासावश किसी ने अंदर के कमरों की तरफवाला दरवाजा खोला। ड्योढ़ी में सीढ़ियों पर सभी कमरों से तमाशा देखने के लिए बाहर निकल आए लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी लेकिन कोई चौखट से आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर रहा था। इस पूरे दृश्य पर मोमबत्ती के एक छोटे से टुकड़े की ही रोशनी पड़ रही थी।

उसी समय पोलेंका, जो अपनी बहन को बुलाने चली गई थी, भीड़ को चीरती हुई दरवाजे पर आई। वह तेज भाग कर आने की वजह से हाँफ रही थी। उसने अपना रूमाल खोला, माँ को ढूँढ़ कर उसके पास गई और बोली : 'अभी आ रही है, रास्ते में मिली थी।' माँ ने अपने पास उसे भी घुटनों के बल बिठा लिया।

एक नौजवान लड़की सहमी-सहमी, चुपचाप भीड़ के बीच से रास्ता बनाती आगे आई। तंगी, चीथड़ों, मौत और निराशा के उस माहौल के बीच उस कमरे में उसका आना कुछ अजीब-सा लग रहा था। वह भी फटे-पुराने कपड़े ही पहने थी। सारे कपड़े एकदम सस्ती किस्म के थे लेकिन उन्हें जिस तरह सजा कर पहना गया था, उस पर बाजारू सज-सज की एक खास छाप थी, और उनके शर्मनाक मकसद के बारे में किसी तरह का शक नहीं रह जाता था। सोन्या दरवाजे पर आ कर ठिठकी और घबराई हुई, हर चीज से बेखबर, चारों ओर देखने लगी। चार बार बिकने के बाद अपने पास तक पहुँचनेवाली भड़कीली पोशाक को भी वह भूल गई थी। उस पोशाक का जमीन पर झाड़ू लगाता हुआ, पीछेवाला लंबा हिस्सा, उसका कलफ लगा हुआ घेरदार साया, जिससे पूरा दरवाजा भर गया था, उसके हलके रंग के जूते, और वह छतरी, जिसे वह अपने साथ लाई थी, जिसकी रात को कोई जरूरत नहीं थी, और तिनके की वही बेडौल, गोल टोपी जिसमें गहरे नारंगी रंग का एक पंख लगा हुआ था - सब कुछ यहाँ एकदम बेतुका लग रहा था। बड़े बाँकपन से एक ओर को झुकी हुई उस हैट के नीचे एक पीला-सा और सहमा हुआ चेहरा, खुले हुए होंठ और दहशत से फटी आँखें। सोन्या अठारह साल की दुबली-पतली, छोटी-सी लड़की थी। सुनहरे बाल, सलोनी शक्ल और बड़ी-बड़ी नीली आँखें। उसने बड़े गौर से बिस्तर की ओर और फिर पादरी की ओर देखा। वह भी भाग कर आने की वजह से हाँफ रही थी। आखिरकार उसने कुछ कानाफूसी सुनी; शायद भीड़ में लोग कुछ कह रहे थे। उसने नीचे देखा और कदम बढ़ा कर कमरे में चली गई, लेकिन दरवाजे से बहुत आगे नहीं बढ़ी।

संस्कार पूरा हो चुका था। कतेरीना इवानोव्ना फिर अपने पति के पास गई। पादरी पीछे हटा और कतेरीना इवानोव्ना से उपदेश और सांत्वना के कुछ शब्द कहने के लिए मुड़ा।

'इनका क्या करूँ मैं?' वह बच्चों की ओर इशारा करके चिढ़ कर बीच में ही कठोर स्वर में बोली।

'ईश्वर बड़ा दयालु है; उस परमपिता का आसरा लो,' पादरी ने कहना शुरू किया।

'आह, होगा दयालु लेकिन हमारे लिए नहीं है।'

'ऐसा कहना पाप है मादाम, महापाप' पादरी ने सर हिलाते हुए अपना मत व्यक्त किया।

'और यह पाप नहीं है' कतेरीना इवानोव्ना ने मरनेवाले की ओर इशारा करके कहा।

'जिन लोगों से अनजाने में यह दुर्घटना हुई है वे शायद तुम्हें हर्जाना देने को राजी हो जाएँगे, कम से कम इसकी कमाई का सहारा न रह जाने का हर्जाना तो देंगे ही।'

'मेरी बात आप समझे नहीं!' कतेरीना इवानोव्ना गुस्से से हाथ हिलाते हुए जोर से चीखी। 'मुझे किस बात का हर्जाना देंगे? शराब इसने पी रखी थी और खुद घोड़ों के नीचे आ गया! कहाँ की कमाई और कैसी कमाई हमें इसने मुसीबतों के अलावा कभी और कुछ तो दिया नहीं। सब कुछ पी गया यह शराबी। पीने की खातिर हमारी चीजें चुरा-चुरा कर हमें कंगाल कर गया। शराब के पीछे इनकी भी जिंदगी बर्बाद कर दी और मेरी भी! भगवान का शुक्र है कि अब मर रहा है! एक खानेवाला तो कम होगा!'

'मरनेवाले को क्षमा कर देना चाहिए मादाम। ऐसा कहना पाप है मादाम, मन में लाना भी पाप है।'

कतेरीना इवानोव्ना मरनेवाले में व्यस्त रही। कभी उसे पानी पिलाती, कभी उसके माथे से पसीना और खून पोंछती और कभी उसका तकिया सीधा करती। बीच-बीच में कभी-कभार उसे पादरी से कुछ कहने के लिए एक पल का समय मिल जाता। अब वह बिफर कर पागलों की तरह उस पर बरस पड़ी।

'ये सब कोरी बातें हैं फादर! क्षमा! अगर गाड़ी से कुचल न जाता तो आज यह शराब के नशे में धुत आता; उसकी अकेली कमीज मैली होती और फट कर तार-तार हो चुकी होती। वह तो आ कर काठ के कुंदे की तरह पड़ जाता और मैं भोर तक बैठी फींचती रहती, इसके चीथड़े धोती, बच्चों के चीथड़े धोती, उन्हें सूखने के लिए खिड़की के बाहर लटका देती और फिर सूरज निकलते ही गूदड़ गाँठने बैठ जाती। मेरी हर रात इसी तरह कटती है! ...क्षमा की बातें करने से क्या फायदा फादर, क्षमा तो मैं यो भी कर चुकी हूँ!'

भयानक, सूखी खाँसी आने की वजह से उसकी बात अधूरी रह गई। उसने अपना रूमाल होठों से लगा कर पादरी को दिखाया और दूसरे हाथ से अपना दुखता हुआ सीना दबाए रही। रूमाल खून में सना हुआ था...

पादरी सर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा।

मार्मेलादोव आखिरी पल की तकलीफों से छटपटा रहा था। वह अपनी नजरें कतेरीना इवानोव्ना के चेहरे पर जमाए हुए था जो फिर उसके ऊपर झुकी खड़ी थी। वह बराबर उससे कुछ कहने की कोशिश करता आ रहा था। अब मुश्किल से वह अपनी जबान हिलाने लगा और अस्फुट स्वर में कुछ शब्द कहने लगा, लेकिन कतेरीना इवानोव्ना ने यह समझ कर कि वह उससे साफ कर देने को कह रहा है, झिड़क कर कहा, 'चुप रहो! कोई जरूरत नहीं है! मैं जानती हूँ तुम क्या कहना चाहते हो!'

बीमार चुप हो गया लेकिन उसी पल उसकी भटकती हुई आँखें दरवाजे की ओर घूम गईं और उसने सोन्या को देखा।

इससे पहले तक उसे उसने नहीं देखा था क्योंकि वह एक कोने में आड़ में खड़ी थी।

'वह कौन है? कौन है वहाँ?' अचानक उसने बेचैन हो कर दरवाजे की ओर अपनी भयभीत आँखें घुमाईं, जहाँ उसकी बेटी खड़ी थी। भारी उखड़ी-उखड़ी आवाज में कुछ कहा और उठ कर बैठने की कोशिश की।

'लेटे रहो! ले...टे रहो!' केतरीना इवानोव्ना जोर से चिल्लाई। पर वह जोर लगा कर किसी तरह कुहनी के बल थोड़ा-सा उठने में सफल हो गया। कुछ देर तक वह पागलों की तरह नजरें गड़ाए अपनी बेटी को देखता, गोया उसे पहचान न पा रहा हो। उसने उसे ऐसी पोशाक पहने पहले कभी नहीं देखा था। अचानक उसने अपनी बेटी को पहचाना। इस भड़कीली सज-धज और इस अपमानित स्थिति में वह एकदम टूटी हुई और शर्मिंदा-सी लग रही थी, और बड़े दबे-दबे ढंग से मरते हुए बाप से विदाई के दो शब्द कहने के लिए अपनी बारी की राह देख रही थी। मरनेवाले के चेहरे पर गहरी तकलीफ के निशान साफ दिखाई दे रहे थे।

'सोन्या! मेरी बेटी! मुझे माफ कर देना!' वह जोर से बोला और अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाने की कोशिश की। लेकिन वह अपना संतुलन खो बैठा और सोफे से मुँह के बल फर्श पर लुढ़क गया। लोग उसे उठाने के लिए लपके, उसे उठा कर फिर सोफे पर लिटाया, लेकिन वह मर रहा था। सोन्या के मुँह से जरा-सी चीख निकल गई। वह उसकी ओर लपकी, उसे गले से लगा लिया, और बड़ी देर तक बिना हिले-डुले उसे गले से लगाए रही। उसने उसकी बाँहों में ही दम तोड़ा।

'जो उसका नसीब था, उसे मिल गया!' कतेरीना इवानोव्ना अपने पति की लाश को देख कर चीखी। 'लेकिन अब क्या किया जाए! इनका कफन-दफन कैसे करूँ? कल इन सबको क्या खिलाऊँगी?'

रस्कोलनिकोव कतेरीना इवानोव्ना के पास गया।

'कतेरीना इवानोव्ना,' उसने कहना शुरू किया, 'आपके शौहर ने पिछले हफ्ते मुझे अपनी पूरी जिंदगी और अपने हालात के बारे में बताया था... यकीन मानिए, आपकी चर्चा उसने जिस तरह की थी उससे साफ लगता था कि उसके दिल में आपके लिए बेहद गहरी इज्जत थी। उस शाम के बाद, जब मुझे पता लगा कि उसे आप सबसे कितना गहरा लगाव था, और कतेरीना इवानोव्ना, वह अपनी इस कमबख्त कमजोरी के बावजूद खास तौर पर आपसे कितना प्यार करता था, आपकी कितनी इज्जत करता था, तो हम दोस्त बन गए। ...अब मुझे मौका दीजिए कि मैं अपने मर चुके दोस्त का... कर्ज चुकाने के लिए... कुछ कर सकूँ। ये बीस रूबल हैं - मेरे खयाल से - अगर इनसे आपकी कुछ मदद हो सके, तो... मैं... मतलब यह कि... फिर आऊँगा... जरूर आऊँगा... मैं शायद कल ही आऊँ... अच्छा, तो चलता हूँ!'

यह कह कर वह जल्दी से कमरे के बाहर निकल गया और भीड़ के बीच से रास्ता बनाता हुआ सीढ़ियों की ओर चला। लेकिन भीड़ में अचानक उसकी मुठभेड़ निकोदिम फोमीच से हो गई। उन्हें दुर्घटना की खबर मिली तो वह खुद सारी हिदायतें देने वहाँ आए थे। उस दिन थाने में जो बातें हुई थीं, उसके बाद से दोनों की मुलाकात नहीं हुई थी, लेकिन निकोदिम फोमीच ने उसे फौरन पहचान लिया।

'अरे, तुम?' उन्होंने पूछा।

'मर गया,' रस्कोलनिकोव ने जवाब दिया। 'डॉक्टर और पादरी आ कर जा चुके हैं और जैसा होना चाहिए था, सब हो गया है। उस बेचारी औरत को बहुत परेशान न कीजिएगा, वह पहले से ही तपेदिक की मारी हुई है। हो सके तो उसे दिलासा दीजिएगा... मैं जानता हूँ, आप बहुत रहमदिल आदमी हैं...' रस्कोलनिकोव ने सीधे उनकी आँखों में आँखें डाल कर मुस्कराते हुए कहा।

'हुआ क्या है... लेकिन तुम्हारे कपड़ों पर खून कितना लगा है,' निकोदिम फोमीच ने लैंप की रोशनी में रस्कोलनिकोव की वास्कट पर खून के कुछ ताजे धब्बे देख कर कहा।

'हाँ... मैं खून में नहाया हुआ हूँ,' रस्कोलनिकोव ने अजीब अंदाज से कहा; फिर मुस्कराया और सर हिला कर सलाम करते हुए नीचे उतर गया।

वह धीरे-धीरे कदम रखता हुआ सीढ़ियाँ उतरने लगा। उसे बुखार चढ़ रहा था लेकिन उसे इसका एहसास नहीं था। अचानक उसके अंदर जीवन और शक्ति की जो नई भरपूर संवेदना उमड़ी थी, उसमें वह पूरी तरह डूबा हुआ था। इस संवेदना की तुलना उस आदमी की संवेदना से की जा सकती है जिसे मौत की सजा सुना दिए जाने के बाद अचानक माफ कर दिया गया हो। जब वह आधी सीढ़ियाँ उतर चुका था, तो घर लौटता हुआ पादरी उसके पास से हो कर गुजरा; रस्कोलनिकोव ने आँखों-ही-आँखों में सलाम करके उसे आगे निकल जाने दिया। वह अभी आखिरी सीढ़ियाँ उतर रहा था कि पीछे से किसी के जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ उतरने की आहट सुनाई दी। कोई उसके पीछे आ रहा था। वह पोलेंका थी। वह उसके पीछे भागती हुई पुकार रही थी, 'सुनिए! सुनिए तो!'

रस्कोलनिकोव ने मुड़ कर देखा। वह सीढ़ियों के लगभग नीचे तक पहुँच चुकी थी और उससे एक सीढ़ी ऊपर आ कर रुक गई थी। नीचे आँगन में से मद्धम रोशनी आ रही थी। रस्कोलनिकोव ने बच्ची का दुबला-पतला लेकिन छोटा-सा सुंदर चेहरा देखा; वह बच्चों जैसी खिली हुई मुस्कराहट के साथ उसे देख रही थी। वह उसके लिए एक संदेश ले कर आई थी, जिसे पहुँचा कर उसे स्पष्ट था कि बहुत खुशी हो रही थी।

'बताइए तो, आपका नाम क्या है ...और आप रहते कहाँ हैं?' उसने जल्दी-जल्दी, हाँफती हुई आवाज में कहा।

रस्कोलनिकोव ने दोनों हाथ उसके कंधों में रख दिए और खुशी के मारे निढाल हो कर उसे देखता रहा। उस बच्ची को देख कर बेहद खुशी हो रही थी पर क्यों, यह वह बता नहीं सकता था।

'तुम्हें किसने भेजा है?'

'सोन्या दीदी ने भेजा है,' लड़की ने और भी खिल कर, मुस्कराते हुए जवाब दिया।

'मुझे मालूम था कि तुम्हारी सोन्या दीदी ने ही तुम्हें भेजा है।'

'माँ ने भी भेजा है... जब सोन्या दीदी मुझे भेज रही थीं तब माँ ने भी आ कर कहा था : भाग कर जाना, पोलेंका!'

'तुम सोन्या दीदी को प्यार करती हो?'

'मुझे उनसे जितना प्यार है, उतना किसी से भी नहीं,' पोलेंका ने काफी एतमाद से जवाब दिया और अचानक उसकी मुस्कराहट अधिक गंभीर हो गई।

'तुम मुझसे भी प्यार करोगी?'

अपने सवाल के जवाब में उसने देखा : उस छोटी-सी बच्ची का चेहरा उसकी ओर बढ़ रहा था और उसने भोलेपन से अपने भरे-भरे होठ उसे प्यार करने के लिए आगे कर रखे थे। सूखी लकड़ी जैसी उसकी पतली-पतली बाँहों ने अचानक उसे कस कर जकड़ लिया, उसका सर उसके कंधे पर टिक गया और वह मासूम बच्ची अपना चेहरा उसके चेहरा से सटा कर चुपके-चुपके रोने लगी।

'मुझे पापा का बड़ा दुख है,' उसने पल-भर बाद अपना भीगा हुआ चेहरा उठा कर हाथ से आँसू पोंछते हुए कहा। 'अब तो बस मुसीबतें-ही-मुसीबतें हैं,' उसने अचानक अपनी बात में इतना और जोड़ दिया। उसके चेहरे पर वही गंभीर भाव था, जो बच्चे उस समय अपने चेहरे पर लाने की कोशिश करते हैं, जब वे बड़े लोगों की तरह कोई बात कहना चाहते हैं।

'तुम्हारे पापा तुम्हें प्यार करते थे?'

'सबसे ज्यादा प्यार लीदा से करते थे।' वह जरा भी मुस्कराए बिना गंभीर भाव से बड़े लोगों की तरह बोलती रही, 'वह इसलिए उसे प्यार करते थे कि एक तो वह बहुत छोटी है और फिर बीमार भी रहती है। हमेशा उसके लिए कोई न कोई चीज लाते रहते थे। लेकिन हम लोगों को उन्होंने पढ़ना सिखाया, मुझे व्याकरण पढ़ाया और बाइबिल भी' उसने गरिमा से कहा, 'माँ कभी कुछ नहीं कहती थी, लेकिन हम जानते थे कि उन्हें यह अच्छा लगता था और पापा भी जानते थे। माँ, मुझे फ्रांसीसी पढ़ाना चाहती है, क्योंकि मेरी पढ़ाई शुरू होने का समय अब आ गया है।'

'और तुम्हें प्रार्थना करना आता है'

'हाँ, बिलकुल आता है! बहुत दिन से। मैं अपने आप प्रार्थना कर लेती हूँ क्योंकि अब मैं बड़ी हो गई हूँ न। लेकिन कोल्या और लीदा, जो कुछ माँ बताती हैं, उसे ही जोर-जोर से दोहराते हैं। सबसे पहले तो वे 'देवी मरियम की वंदना' दोहराते हैं, फिर एक और प्रार्थना दोहराते हैं : 'प्रभु, सोन्या दीदी को क्षमा कर देना और उस पर अपनी कृपा रखना' क्योंकि हमारे बड़े पापा तो मर चुके हैं और ये दूसरेवाले हैं, लेकिन हम इनके लिए भी प्रार्थना करते हैं।'

'पोलेंका, मेरा नाम रोदिओन है। कभी-कभी मेरे लिए भी प्रार्थना कर लेना : 'और अपने सेवक रोदिओन पर भी,' बस इतना ही, और कुछ नहीं।'

'मैं जीवन-भर आपके लिए प्रार्थना करूँगी,' छोटी बच्ची ने उत्साह से हामी भरी। अचानक वह फिर मुस्करा कर उसकी ओर लपकी और तपाक से एक बार फिर उससे चिपट गई।

रस्कोलनिकोव ने उसे अपना नाम और पता बताया और अगले दिन जरूर आने का वादा किया। बच्ची उस पर बिल्कुल मुग्ध हो कर चली गई। जब वह बाहर सड़क पर आया, उस समय दस बज चुके थे। पाँच मिनट बाद वह पुल पर उसी जगह खड़ा था, जहाँ से वह औरत पानी में कूदी थी।

'बस, बहुत हो चुका,' उसने गर्मजोशी और कुछ खुशी से कहा। 'कोरे भ्रमों, काल्पनिक आतंकों, और प्रेतछायाओं से अब मेरा कोई वास्ता नहीं! जीवन सत्य है! क्या अभी-अभी मैं जीवन नहीं जी रहा था उस बुढ़िया के साथ मेरा जीवन मर तो नहीं गया। उसे स्वर्ग का राज्य मुबारक हो - और अब, मेम साहब, बहुत हो चुका, मेरा पिंड छोड़ो! अब राज विवेक और प्रकाश का होगा... और संकल्प की दृढ़ता का और शक्ति का... अब हम देख लेंगे! अब हम अपनी ताकत आजमाएँगे!' उसने विद्रोह की भावना से कहा, गोया अंधकार की किसी शक्ति को चुनौती दे रहा हो, 'और मैं तो गज भर जमीन के टुकड़े को स्वीकार करने पर भी तैयार था!

'अभी मैं बहुत ही कमजोर हूँ, लेकिन... मैं समझता हूँ मेरी बीमारी दूर हो चुकी। मैं जानता था कि बाहर निकलूँगा तो मेरी बीमारी दूर हो जाएगी। अरे हाँ, याद आया, पोचिकोव का मकान तो यहाँ से कुछ ही कदम पर है। अगर इतना पास न भी होता तो भी रजुमीखिन के पास तो मुझे जाना ही है... उसे शर्त जीत लेने दो! उसे भी कुछ संतोष मिले - कोई बात नहीं! हम शक्ति ही तो चाहते हैं, इसके बिना कुछ मिल भी नहीं सकता, पर शक्ति तो शक्ति के बल पर ही पाई जाती है - यही बात तो कोई जानता नहीं,' उसने बड़े गर्व और आत्मविश्वास के साथ अपने विचारों का क्रम आगे बढ़ाते हुए कहा और कमजोर पड़ते कदमों को बढ़ाता हुआ पुल से आगे चल पड़ा। उसके अंदर गर्व और आत्मविश्वास की भावना लगातार सबल होती जा रही थी, हर पल वह बिल्कुल दूसरा आदमी बनता जा रहा था। उसमें यह क्रांति किस चीज ने पैदा की थी यह बात वह स्वयं भी नहीं जानता था। उस डूबते हुए आदमी की तरह जो तिनके का सहारा लेना चाहता है, उसने यकायक अनुभव किया कि वह भी 'जीवित रह सकता है, कि अब भी उसके लिए जीवन बाकी है, कि उसका जीवन उस बुढ़िया के साथ ही नहीं मर गया।' अपने निष्कर्षों पर पहुँचने में शायद वह जल्दबाजी कर रहा था, लेकिन उसने इस बारे में सोचा भी नहीं।

'लेकिन मैंने उससे अपनी प्रार्थना में 'अपने सेवक रोदिओन' को याद रखने को कहा था'; अचानक उसे यह विचार खटका। 'खैर, वह तो... मौके की बात थी,' उसने तर्क करते हुए कहा और उसे अपनी इस बचकाना दलील पर खुद हँसी आ गई। उसका दिल बल्लियों उछल रहा था।

उसे रजुमीखिन का ठिकाना आसानी से मिल गया। पोचिकोव के घर में लोग इस नए किराएदार को जानते थे और दरबान ने उसे फौरन रास्ता बता दिया। आधी सीढ़ियाँ चढ़ने पर उसे लोगों के बहुत बड़े जमघटे के शोर और जोश में आ कर बातें करने की आवाजें सुनाई पड़ीं। सीढ़ियों की तरफ का दरवाजा पूरा खुला हुआ था; उसे लोगों की चिल्लाहट और बहस सुनाई दे रही थी। रजुमीखिन का कमरा काफी बड़ा था; वहाँ पंद्रह लोग जमा थे। रस्कोलनिकोव ड्योढ़ी में ही रुक गया, जहाँ मकान-मालकिन की दो नौकरानियाँ एक ओट के पीछे दो समोवार, बोतलें, प्लेटें और मकान-मालकिन की रसोई से लाए गए पकवानों की तश्तरियाँ रख कर अपने काम में व्यस्त थीं। रस्कोलनिकोव ने रजुमीखिन को बाहर बुलवाया। वह खुश हो कर भागा हुआ आया। पहली ही नजर में यह बात साफ नजर आती थी कि उसने बहुत पी रखी है। यूँ तो रजुमीखिन कितना भी पी लेता, उसे नशा ज्यादा चढ़ता नहीं था, लेकिन इस बार उसका असर साफ दिखाई दे रहा था।

'सुनो,' रस्कोलनिकोव ने जल्दी से कहा, 'मैं तुमसे बस यह कहने आया हूँ कि तुम अपनी शर्त जीत चुके और यह कि कोई भी यह नहीं कह सकता कि उसे कब क्या हो जाएगा। मैं अंदर नहीं आऊँगा : इतनी कमजोरी महसूस कर रहा हूँ कि फौरन बेहोश हो कर गिर पड़ूँगा। इसलिए सलाम भी और अलविदा भी कल आ कर मिलना, हालाँकि...'

'एक बात कहूँ, मैं तुम्हें घर पहुँचाए आता हूँ। जब तुम खुद कह रहे हो कि तुम कमजोरी महसूस कर रहे हो तो सचमुच तुम...'

'पर तुम्हारे मेहमान? वह घुँघराले बालोंवाला कौन था जो अभी बाहर झाँक रहा था?'

'वह न जाने कौन है! मेरे खयाल में चाचा का कोई जाननेवाला है, या शायद बिना बुलाए आ गया हो... मैं चाचा को उन लोगों के पास छोड़ जाऊँगा। बहुत ही हीरा आदमी हैं, पर अफसोस कि मैं तुम्हें इस वक्त उनसे नहीं मिला सकता। लेकिन अभी तो उन सबको गोली मारो! कोई मेरे मौजूद न होने की तरफ ध्यान भी नहीं देगा और मुझे थोड़ी ताजा हवा भी चाहिए, सो तुम बिलकुल ठीक वक्त पर आए... और दो मिनट बाद आते तो हाथा-पाई हो जाती! ऐसी बेसर-पैर की उड़ा रहे हैं वे लोग... तुम सोच भी नहीं सकते कि लोग कैसी-कैसी बातें कर सकते हैं! पर सोच क्यों नहीं सकते! क्या हम लोग खुद बकवास नहीं करते तो करने दो बकवास... इसी तरह तो आदमी बकवास करना सीखता है न! पलभर ठहरो... मैं जोसिमोव को बुलाए लाता हूँ।'

जोसिमोव नदीदों की तरह रस्कोलनिकोव पर टूट पड़ा। वह उसमें खास दिलचस्पी दिखा रहा था और थोड़ी ही देर में उसका चेहरा खिल उठा।

'तुम फौरन जा कर सो जाओ,' उसने बीमार को जितनी भी अच्छी तरह हो सका, देखने के बाद अपना फैसला सुनाया, 'और रात के लिए कुछ लेते जाओ। ले जाओगे न कुछ देर पहले ही मैंने तैयार करके रख ली थी... एक पुड़िया है।'

'बुरा न लगे तो दो दे दो,' रस्कोलनिकोव ने जवाब दिया। उसने पुड़िया फौरन खा ली।

'अच्छा ही है कि इसे घर पहुँचाने तुम जा रहे हो,' जोसिमोव ने रजुमीखिन से कहा, 'देखें कल कैसी रहती है तबीयत, आज तो बिलकुल ठीक लग रहा है। शाम से तो काफी फर्क है। खैर, हम जीते हैं और कुछ सीखते हैं...'

'जानते हो, जब हम बाहर आ रहे थे तो जोसिमोव ने मेरे कान में क्या कहा?' सड़क पर पहुँचते ही रजुमीखिन से कहे बिना रहा नहीं गया। 'मैं तुम्हें सारी बातें साफ-साफ बताऊँगा भाई, क्योंकि वे लोग परले दर्जे के बेवकूफ हैं। जोसिमोव ने कहा था कि रास्ते में मैं तुमसे खुल कर बातें कर लूँ, तुम्हें भी मुझसे खुल कर बातें करने दूँ, और बाद में जा कर मैं उसे सारी बातें बताऊँ क्योंकि उसके दिमाग में यह खब्त समा गया है कि तुम... या तो पागल हो चुके हो या होनेवाले हो। सोचो तो सही! पहली बात तो यह है कि तुममें कम-से-कम उसकी तीन गुनी अक्ल है; दूसरे यह कि अगर तुम पागल नहीं हो तो तुम्हें इसकी रत्तीभर परवाह नहीं करनी चाहिए कि इस तरह की बेसिर-पैर की बात उसके दिमाग में है; और तीसरे, वह दुंबा, जिसका खास काम चीर-फाड़ करना है, दिमाग की बीमारियों के बारे में दीवाना हो गया है, और जिस चीज की वजह से वह तुम्हारे बारे में इस नतीजे पर पहुँचा, वह जमेतोव के साथ तुम्हारी आज की बातचीत थी।'

'जमेतोव ने उसके बारे में तुम्हें सब कुछ बता दिया'

'हाँ, और उसने अच्छा ही किया। अब मेरी समझ में आ गया कि इस सबका मतलब क्या है, और जमेतोव की भी समझ में आ गया... तो बात यह है रोद्या... असल बात यह है कि... इस वक्त तो मैं थोड़ा नशे में हूँ... लेकिन वह... कोई ऐसी बड़ी बात नहीं... बात यह है कि यह खयाल... तुम समझते हो न उनके दिमाग में पनप रहा था... समझ रहे हो कि नहीं ...मतलब यह कि कोई खुल कर कहने की हिम्मत नहीं करता था क्योंकि यह खयाल था ही इतना बेतुका... और खास कर उस पुताई करनेवाले की गिरफ्तारी के बाद तो वह बुलबुला फूट कर हमेशा के लिए खत्म हो गया है। लेकिन ये लोग इतने बेवकूफ क्यों होते हैं उस वक्त मैंने जमेतोव को बहुत झाड़ा था - यह बात हम लोगों तक ही रहे भाई; कभी इशारे में भी यह जाहिर न होने देना कि तुम इसके बारे में जानते हो। मैंने देखा है कि वह जरा तुनक-मिजाज आदमी है; वह बात लुईजा इवानोव्ना के यहाँ की थी। लेकिन आज, आज सारी बात साफ हो गई है। इस सबकी जड़ वह इल्या पेत्रोविच है! उसने थाने में तुम्हारे बेहोश होने का फायदा उठाया, लेकिन अब वह खुद इस बात पर शर्मिंदा है। मुझे मालूम है कि...'

रस्कोलनिकोव उसका एक-एक शब्द उत्सुकता से सुन रहा था। रजुमीखिन ने इतनी पी रखी थी कि खुल कर बातें कर रहा था।

'उस वक्त मैं इसलिए बेहोश हो गया था कि वहाँ घुटन बहुत थी और रंग-रोगन की बेहद बदबू थी,' रस्कोलनिकोव ने कहा।

'सफाई देने की क्या जरूरत! और बस रंग-रोगन की बात भी नहीं थी : तुम्हें बुखार तो महीनेभर से आ रहा था; जोसिमोव इस बात का गवाह है! लेकिन अब बच्चू की ऐसी अक्ल गुम है कि तुम यकीन नहीं करोगे। कहता है : मैं उसकी कानी उँगली के बराबर भी नहीं। मतलब है, तुम्हारी। भाई, कभी-कभी उसके दिल में भी अच्छी भावनाएँ आती हैं। लेकिन वह सबक... वह सबक जो तुमने उसे आज रंगमहल में सिखाया, उसका तो जवाब नहीं! तुमने उसे इतना दहला दिया है कि जानते हो, उसे दौरा-सा पड़ गया था! तुमने एक बार फिर उसे उस सारी भयानक बकवास के सच होने का यकीन दिला दिया था, और फिर अचानक उसे ठेंगा दिखा दिया : 'अब बोलो, क्या मतलब निकालते हो इसका लाजवाब काम किया तुमने! अब वह पूरी तरह चकनाचूर हो चुका है, बिलकुल खलास! क्या उस्तादोंवाला हाथ दिखाया है, कसम से, ये लोग इसी के काबिल हैं। काश, कि मैं भी वहाँ होता! वह तुमने मिलने को बहुत बेचैन था। पोर्फिरी भी तुमसे मिलना चाहता है...'

'अच्छा! ...वह भी! ...लेकिन उन लोगों ने मुझे पागल क्यों समझ लिया था?'

'नहीं यार, पागल नहीं! शायद मैंने ही बात को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर कह दिया, मेरे भाई... देखो, जो बात उसे खटकी थी वह यह थी कि वही एक बात थी जिसमें तुम्हें कुछ दिलचस्पी मालूम होती थी। पर अब यह बात साफ हो गई कि तुम्हें उसमें दिलचस्पी क्यों थी; सारे हालात जान लेने के बाद... और उस बात से तुम्हारी चिड़चिड़ाहट कितनी बढ़ जाती थी और उसकी वजह से तुम्हारी बीमारी भी बढ़ जाती थी... मैं थोड़ा नशे में हूँ भाई, बस और कुछ नहीं। लानत हो उस पर, उसकी अपनी एक सनक है... मैं तुम्हें बताता हूँ : उसे दिमाग की बीमारियों का खब्त हो गया है। लेकिन तुम जरा भी परवाह न करना...'

कुछ पल दोनों चुप रहे।

'सुनो रजुमीखिन,' रस्कोलनिकोव ने कहा, 'मैं तुम्हें साफ-साफ बता देना चाहता हूँ : मैं अभी एक मरते हुए आदमी के पास से आ रहा हूँ। एक क्लर्क था जो मर गया... मैं अपना सारा पैसा उन लोगों को दे आया... और इसके अलावा अभी मुझे किसी ऐसे शख्स ने चूमा है कि अगर मैंने किसी की जान भी ली होती, तब भी वह... सच तो यह है कि वहाँ मुझे कोई और भी मिला था... गहरे नारंगी रंग का पर लगाए... लेकिन मैं बकवास कर रहा हूँ; मुझे बहुत-बहुत कमजोरी आ रही है, सहारा दो जरा... वो रहीं सीढ़ियाँ...'

'क्या बात है? हो क्या गया तुम्हें?' रजुमीखिन ने फिक्र में पड़ कर पूछा।

'कुछ चक्कर आ रहा है, लेकिन बात यह भी नहीं है; मैं बहुत उदास हूँ, बेहद उदास... औरतों की तरह। देखो, वह क्या है देखो, देखो!'

'क्या है?'

'दिखाई नहीं देता मेरे कमरे में रोशनी, दरार में से...'

वे लोग सीढ़ियों की आखिरी किस्त तक पहुँच चुके थे। मकान-मालकिन इसी मंजिल पर रहती थी, और नीचे से उन्हें साफ दिखाई दे रहा था कि रस्कोलनिकोव की कोठरी में रोशनी थी।

'अजीब बात है! नस्तास्या होगी,' रजुमीखिन ने अटकल लगाई।

'वह इस वक्त मेरे कमरे में कभी नहीं आती... और न जाने कब की सो गई होगी, लेकिन... मुझे कोई परवाह नहीं! तो मैं चला!'

'क्या मतलब मैं तुम्हारे साथ चल रहा हूँ... दोनों साथ चलेंगे अंदर!'

'यह तो मैं जानता हूँ कि दोनों साथ अंदर चलेंगे, लेकिन मैं यहीं तुमसे हाथ मिला लेना चाहता हूँ। हाथ लाओ। फिर मिलेंगे!'

'तुम्हें हो क्या गया है, रोद्या?'

'कुछ नहीं... आओ चलो... गवाह रहना।'

वे सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। रजुमीखिन को अचानक खयाल आया कि जोसिमोव की बात शायद ठीक ही हो। 'मैंने अपनी बकबक से उसे फिर परेशान कर दिया है!' वह मुँह-ही-मुँह में बुदबुदाया। जब वे दरवाजे के पास पहुँचे तो उन्हें कमरे में आवाजें सुनाई दीं।

'क्या हो सकता है भला?' रजुमीखिन चीखा।

रस्कोलनिकोव ने आगे बढ़ कर दरवाजे का हत्था पकड़ा, उसे पूरा खोल दिया और चौखट पर अवाक खड़ा रह गया।

उसकी माँ और बहन सोफे पर बैठी, डेढ़ घंटे से उसकी राह देख रही थीं। उसे उनके वहाँ होने की उम्मीद क्यों नहीं थी, उसने उनके बारे में क्यों नहीं सोचा, हालाँकि यह खबर उसी दिन उसे पहुँचा दी गई थी कि वे चल चुकी हैं, रास्ते में हैं और कभी भी पहुँच सकती हैं उन्होंने डेढ़ घंटा नस्तास्या से दुनिया भर के सवाल पूछने में लगा दिया था। वह इस वक्त भी उनके सामने खड़ी थी और अब तक उन्हें सब कुछ बता चुकी थी। आज बीमारी की हालत में उसके 'भाग जाने' की खबर सुन कर वे बहुत डर गई थीं। नस्तास्या के बयान से उन्हें यह भी पता चल चुका था कि वह सरसामी हालत में था! 'हे भगवान, उसे हो क्या गया!' दोनों रोती रहीं; उस डेढ़ घंटे तक दोनों न जाने किस कदर घोर तकलीफ से बेचैन रहीं।

रस्कोलनिकोव के अंदर आते ही दोनों खुशी के मारे फूली न समाईं, चीख पड़ीं। दोनों उसकी ओर लपकीं। लेकिन वह मुर्दे की तरह खड़ा रहा। अचानक एक असह्य वेदना ने उसे आन घेरा था, जैसे बिजली टूटी हो। उसने उन्हें गले लगाने के लिए अपने हाथ भी नहीं बढ़ाए; वह हाथ उठा ही नहीं पाया। माँ और बहन ने उसे अपनी बाँहों में जकड़ लिया, उसे प्यार किया, हँसने और चिल्लाने लगीं। उसने एक कदम आगे बढ़ाया, लड़खड़ाया और गश खा कर जमीन पर गिर पड़ा।

चिंता, दहशत भरी चीखें, कराहें... रजुमीखिन, जो अभी तक चौखट पर खड़ा था, झपट कर कमरे के अंदर आया। उसने बीमार को अपनी मजबूत बाँहों में उठा लिया और पल भर में सोफे पर लिटा दिया।

'कोई बात नहीं है, कोई बात नहीं!' उसने माँ और बहन से चीख कर कहा, 'गश आ गया है, कोई खास बात नहीं है! अभी-अभी डॉक्टर बता रहा था कि अब हालत पहले से बहुत अच्छी है, काफी ठीक है! थोड़ा पानी तो लाना! देखिए, इसे होश आने लगा।'

यह कह कर उसने दुनेच्का की बाँह जोर से पकड़ी, इतने जोर से कि वह लगभग उखड़ ही गई, और उसे झुका कर दिखाया कि 'वह फिर बिलकुल ठीक हो गया है'। माँ-बेटी ने विभोर हो कर कृतज्ञता के साथ उसकी ओर इस तरह देखा, गोया वह उनका त्राता हो। वे दोनों नस्तास्या से सब कुछ सुन चुकी थीं कि उनके रोद्या की बीमारी के दौरान इस 'योग्य नौजवान' ने उसके लिए क्या-क्या किया था। उस रात दुनेच्का के साथ अपनी बातचीत के दौरान पुल्खेरिया अलेक्सांद्रोव्ना रस्कोलनिकोवा उसकी चर्चा इसी नाम से करती रहीं।

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