अपनों का सच (कहानी) : गोनू झा

Apnon Ka Sach (Maithili Story in Hindi) : Gonu Jha

गोनू वृद्ध हो चले थे। महाराज के दरबार में वे एक हस्ती बन चुके थे। एक दिन महाराज ने अपने पिता की पुण्य तिथि पर एक आयोजन किया । बृहद आयोजन था यह । ऐसे आयोजनों को गोनू झा व्यर्थ मानते थे। भोज के बाद गोनू झा ने विनयपूर्वक महाराज से पूछा-“महाराज ! इस आयोजन पर कितना व्यय हुआ ?"

महाराज ने सरलता से उत्तर दिया -” यही कोई दस हजार।"

गोनू झा ने उनसे कहा-“महाराज! मैं वृद्ध हो चला हूँ। कभी भी यह मिट्टी की काया मिट्टी में मिल जाएगी । तब क्या आप मेरे श्राद्ध के लिए इतनी ही बड़ी राशि मेरे परिवार के लोगों को दे सकेंगे?"

महाराज द्रवित हो उठे । उन्होंने कहा-“पंडित जी ! ऐसी बातें न करें । आप जीएँ और हमारे राजकाज में अपना सुझाव देते रहें ।"

गोनू ने उनसे कहा -" महाराज ! आप मेरे प्रश्न को टाल रहे हैं ।"

महाराज थोड़ी देर चुप रहे फिर कहा -”मेरा वादा है पंडित जी, यदि ऐसा हुआ तो दस हजार अविलम्ब आपके परिजनों तक भेजने की व्यवस्था हो जाएगी।"

इस घटना के कुछ दिन बाद ही अपने भाई भोनू झा के साथ गोनू झा नदी किनारे पहुंचे। नदी में बाढ़ आई थी और पानी की तेज धारा किनारे की मिट्टी का कटाव कर रही थी । भोनू झा कटाव देखने में मग्न थे । गोनू झा ने एक बड़ासा पत्थर उठाकर पानी में उछाल दिया और खुद को पेड़ की ओट में छुपा लिया । भोनू झा ने छपाक की ध्वनि सुनी। फिर अपने पास भाई को नहीं पाकर बेचैन होकर इधरउधर देखने लगे । जब उन्हें गोनू झा दिखाई नहीं पड़े तो उन्होंने मान लिया कि गोनू झा को नदी लील गई है। वे विलाप करते हुए अपने घर लौट आए । घटना की जानकारी मिलने पर घर में मातम छा गया । घटना की जानकारी महाराज को भी मिली तो उन्होंने गोनू झा के श्राद्ध के लिए दस हजार रुपए राजकोष से अविलम्ब उनके परिजनों को सौंपने का निर्देश जारी कर दिया ।

महाराज के निर्देश के बाद खजांची का एक अर्दली गोनू झा के घर भेजा गया कि कोई आकर रुपए ले जाए। गोनू झा की पत्नी ने अपने पुत्र को भेजा । पुत्र ने शीघ्र पैसे प्राप्त करने के लिए खजांची को एक हजार रुपए देने का प्रलोभन दिया । बात बन गई। आननफानन में खजांची ने गोनू झा के पुत्र को नौ हजार रुपए थमाए और एक कागज ब-सजय़ाते हुए कहा कि इस कागज पर कोष मंत्री के मुहर लगवा लो । गोनू झा के पुत्र से मंत्री जी ने भी मुहर लगाने के लिए एक हजार रुपए ले लिये। फिर गोनू झा के पुत्र ने भी शेष रुपयों में से एक हजार रुपए निकालकर अपनी दूसरी जेब में रख लिया और घर पहुँचकर अपनी माँ को सात हजार रुपए दिए । गोनू झा की पत्नी ने भी सोचा कि अब तो स्वामी रहे नहीं सामने पड़ी है पहाड़ जैसी जिन्दगी। कुछ पैसे दुर्दिन के लिए बच जाएँ तो अच्छा । उसने इन सात हजार रुपयों में से तीन हजार अपनी साड़ी के खुंट में बाँधा और चार हजार रुपए भोनू झा को थमा दिए और कहा कि अपने भैया का श्राद्ध ठीक-तरह से करो । भोनू झा भी कम न थे। उन्होंने सोचा कि जानेवाला तो जा चुका अब उसके नाम पर दिखावे में फिजूलखर्ची करना व्यर्थ है। उसने दो हजार रुपए अपनी जेब में रखे और दो हजार में श्राद्ध के कर्मकांड निपटा लिए ।

इसके दो दिन बाद ही गोनू झा दरबार में उपस्थित हो गए । उन्हें देखकर महाराज सहित सभी दरबारी हत्प्रभ रह गए। तब गोनू झा ने महाराज को बताया -"मरने के बाद कोई भी अपना, अपना नहीं रह जाता । महाराज, आपने तो दस हजार श्राद्ध के लिए देकर अपना वचन पूरा किया लेकिन खजांची, मंत्री, मेरे पुत्र, मेरी पत्नी और मेरे भाई ने जो किया वह आँखें खोल देने वाली घटना है । मैंने मरने का स्वांग रचने से पहले तय कर लिया था कि राज्य के उच्चस्तरीय प्रशासन में घुस आए इस भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करके रहूँगा। में बहुत पहले से इस बात की खबर थी कि मंत्री और खजांची क्या गुल खिला रहे हैं इसलिए मैंने निजी तौर पर गुप्तचर लगा दिए थे। श्राद्ध के नाटक के दौरान में एकएक घटना की जानकारी मिलती रही... फिर उन्होंने अपने मरने के नाटक का भी खुलासा महाराज के सामने किया और कहा -” महाराज ! सत्ता जब भ्रष्ट हो जाती है तो जनता भी भ्रष्ट हो जाती है । अब हमें स्वच्छ प्रशासन के लिए कठोर कदम उठाने होंगे ।"

महाराज ने तत्काल प्रभाव से मंत्री और खजांची को बर्खास्त कर उन्हें कारागार में डाल दिया ।

जब गोनू झा अपने घर गए तब उनके पुत्र, पत्नी और भाई ने उनके पैर पकड़ लिए और बिलखबिलखकर रो पड़े । तब गोनू झा ने सबको सीने से लगाकर कहा -"पश्चात्ताप से आत्मा पवित्र होती है। भूल जाओ। जो हुआ सो हुआ ।"

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