अन्ना करेनिना (रूसी उपन्यास) : लेव तोल्सतोय
Anna Karenina (Russian Novel in Hindi) : Leo Tolstoy
अन्ना करेनिना : (अध्याय 21-भाग 1)
बड़ों के चाय पीने के वक़्त डॉली अपने कमरे से बाहर निकली। ओब्लोन्स्की बाहर नहीं आया। वह शायद पत्नी के कमरे के पीछेवाले दरवाज़े से बाहर निकल गया था।
"मुझे डर है कि तुम्हें ऊपर ठंड लगेगी," डॉली ने आन्ना को सम्बोधित करते हुए कहा। "मैं तुम्हें नीचे ले आना चाहती हूँ और इस तरह हम एक-दूसरी के निकट भी हो जाएँगी।"
"ओह, कृपया तुम मेरी चिन्ता नहीं करो," आन्ना ने डॉली के चेहरे को ध्यान से देखते और यह समझने की कोशिश करते हुए कि सुलह हुई या नहीं हुई, जवाब दिया।
“यहाँ रोशनी भी ज़्यादा रहेगी," भाभी बोली। “मैं तुमसे कह रही हूँ कि मैं हर जगह और हमेशा ही जंगली चूहे की तरह बहुत गहरी नींद सोती हूँ।"
“क्या चर्चा हो रही है ?" ओब्लोन्स्की ने अपने अध्ययन-कक्ष से बाहर आते और पत्नी को सम्बोधित करते हुए पूछा।
ओब्लोन्स्की के बात करने के अन्दाज़ से कीटी और आन्ना, दोनों ही फ़ौरन समझ गईं कि सुलह हो गई है।
“मैं आन्ना को नीचे लाना चाहती हूँ, लेकिन परदों को दूसरी जगह लटकाना चाहिए। और कोई तो यह कर नहीं सकता, मुझे खुद ही करना होगा।" डॉली ने पति को जवाब दिया।
"ओह डॉली, तुम तो हर चीज़ को मुश्किल बना देती हो,” पति ने कहा। “कहो तो, मैं यह सब कर देता हूँ.."
'हाँ, सुलह हो गई लगती है,' आन्ना ने सोचा।
"जानती हूँ, कैसे तुम सब कुछ कर दोगे," डॉली ने जवाब दिया, “मात्वेई से वह करने को कह दोगे, जो वह कर नहीं सकता, खुद चले जाओगे और वह सब कुछ गड़बड़-झाला कर देगा," डॉली जब यह कह रही थी, तो उसके होंठों के कोनों पर आदत के मुताबिक़ व्यंग्यपूर्ण मुस्कान झलक उठी।
'पूरी, पूरी सुलह हो गई,' आन्ना ने सोचा, 'शुक्र है खुदा का !' और इस बात से खुश होते हुए कि वह इस सुलह का आधार है, उसने डॉली के क़रीब जाकर उसे चूम लिया।
"क़तई ऐसी बात नहीं है। तुम मुझे और मात्वेई को इतना गया-बीता क्यों मानती हो?" ओब्लोन्स्की ने हल्की मस्कान के साथ पत्नी को सम्बोधित करते हुए जवाब दिया।
हमेशा की तरह डॉली सारी शाम पति के मामले में हल्की चुटकियाँ लेती रही और ओब्लोन्स्की खुश तथा रंग में बना रहा, किन्तु उस हद तक ही, जिससे यह ज़ाहिर न हो कि अब माफ़ कर दिए जाने पर वह अपना क़सूर भूल गया है।
ओब्लोन्स्की परिवार में चाय की मेज़ के गिर्द चल रही शाम की बहुत ही सुखद और मनोरंजक पारिवारिक बातचीत में एक अत्यन्त साधारण घटना से बाधा पड़ गई। किन्तु न जाने क्यों, यह साधारण घटना सभी को बड़ी अजीब-सी लगी। पीटर्सबर्ग के साझे परिचितों की चर्चा करते हुए आन्ना जल्दी से उठी।
"उसका फ़ोटो मेरे एल्बम में है," वह बोली, “हाँ, और साथ ही मैं अपना सेर्योझा भी आपको दूँगी," उसने माँ की गर्वीली मुस्कान के साथ इतना और जोड़ दिया।
आन्ना आमतौर पर रात के दस बजे के करीब बेटे से रात-भर के लिए जुदा होती थी और खुद बॉल में जाने के पहले अक्सर उसे सोने के लिए बिस्तर पर लिटा देती थी। आज इस वक़्त मन उदास हो गया, क्योंकि वह उससे इतनी दूर थी और चाहे कोई भी बात क्यों न होती रहती, वह मन-ही-मन घुँघराले बालोंवाले अपने सेर्योझा के बारे में ही सोचने लगती। उसका मन हुआ कि बेटे का फ़ोटो देखे और उसकी चर्चा करे। इसकी सम्भावना मिलते ही वह उठी और अपनी फुर्तीली तथा दृढ़ चाल से एल्बम लाने चल दी। उसके कमरे की ओर ऊपर जानेवाला जीना घर के बड़े गर्म जीने के चबूतरे से शुरू होता था।
आन्ना जब मेहमानखाने से निकली, तो ड्योढ़ी में घंटी सुनाई दी। "यह कौन हो सकता है ?" डॉली ने कहा।
"मुझे इतनी जल्दी घर लिवा ले जाने को कोई नहीं आएगा और किसी अन्य व्यक्ति के आने का यह वक़्त नहीं है," कीटी ने राय जाहिर की।
"हाँ, दफ़्तर से कोई कागज़ात लाया होगा," ओब्लोन्स्की ने कहा। आन्ना जब जीने के करीब से गुज़र रही थी, तो नौकर आगन्तुक के बारे में सूचना देने के लिए ऊपर को भागा आ रहा था और स्वयं आगन्तुक लैम्प के पास खड़ा था। आन्ना ने नीचे देखते ही व्रोन्स्की को पहचान लिया और उसने अपने हृदय में अचानक खुशी तथा साथ ही डर की एक अजीब-सी भावना अनुभव की। व्रोन्स्की ओवरकोट उतारे बिना ही वहाँ खड़ा था और जेब से कुछ निकाल रहा था। आन्ना जब जीने के मध्य में पहुंची, तो व्रोन्स्की ने नज़र ऊपर उठाई और आन्ना को देखकर उसके चेहरे पर शर्म और भय का सा भाव आ गया। आन्ना तनिक सिर झुकाकर आगे बढ़ गई और उसी वक़्त ओब्लोन्स्की की ऊँची आवाज़ सुनाई दी। उसने उसे भीतर आने को पुकारा था, किन्तु व्रोन्स्की ने धीमे, कोमल और शान्त स्वर में इनकार कर दिया।
आन्ना जब एल्बम लेकर लौटी, तो व्रोन्स्की जा चुका था और ओब्लोन्स्की यह बता रहा था कि वह अगले दिन किसी जानी-मानी गायिका के सम्मान में दी जानेवाली दावत के बारे में जानने के लिए आया था।
"किसी भी हालत में भीतर आने को तैयार नहीं हुआ। कैसा अजीब है वह !" ओब्लोन्स्की ने इतना और जोड़ दिया।
कीटी के चहरे पर लाली दौड़ गई। वह सोच रही थी कि केवल वही यह समझ पाई है कि व्रोन्स्की क्यों आया था और किसलिए भीतर आने को राजी नहीं हुआ। 'वह हमारे यहाँ गया होगा, वह सोच रही थी, और मुझे वहाँ न पाकर उसे ख़याल आया होगा कि मैं यहाँ हूँ। लेकिन भीतर यह सोचकर नहीं आया होगा कि देर हो चुकी है और फिर आन्ना भी तो यहाँ है।'
सभी ने कुछ कहे बिना एक-दूसरे की तरफ़ देखा और आन्ना का एल्बम देखने लगे। इसमें कोई साधारण या अजीब बात नहीं थी कि कोई व्यक्ति रात के साढ़े नौ बजे अगले दिन की जानेवाली दावत की तफ़सील जानने के लिए दोस्त के यहाँ चला आया और भीतर आने को राजी नहीं हुआ। लेकिन सभी को यह अजीब-सा प्रतीत हुआ। आन्ना को ही यह सबसे ज़्यादा अजीब और अटपटा लगा।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 22-भाग 1)
अपनी माँ के साथ कीटी जब फूलों से सजे और रोशनी में नहाए बड़े जीने पर पहुँची, जिसके दोनों ओर पाउडर लगाए और लाल कुरते पहने नौकर खड़े थे, तो बॉल शुरू ही हुआ था। कमरों से चलने-फिरने की मक्खी के छत्ते जैसी समलय की सरसराहट सुनाई दे रही थी। जब तक माँ-बेटी ने जीने के निकट वृक्षों के बीच दर्पण के सामने खड़े होकर अपना केश-विन्यास और पोशाकें ठीक की, हॉल से आर्केस्ट्रा की वायलिनों की सधी-स्पष्ट आवाज़ सुनाई दी और पहला वॉल्ज़ नृत्य शुरू हुआ। एक नाटा-सा गैरफ़ौजी बूढ़ा, जो दूसरे दर्पण के सामने खड़ा हुआ अपनी पकी कनपटियों को ठीक कर रहा था और इत्र से महक रहा था, सम्भवतः अपरिचित कीटी को मुग्ध होकर देखता हुआ जीने पर इनसे टकराया और एक ओर को हट गया। बिना दाढ़ी के एक तरुण, ऊँचे समाज के उन तरुणों में से एक ने, जिन्हें बूढ़े प्रिंस श्चेर्बात्स्की ने 'बाँके-छैलों' की संज्ञा दी थी, बहुत ही खुली जाकेट पहने और चलते-चलते ही अपनी सफ़ेद टाई को ठीक करते हुए इन दोनों का अभिवादन किया, पास से भागता हुआ निकला गया, लौटा और कीटी को काड्रिल नाच नाचने के लिए आमन्त्रित किया। पहला काड्रिल नाचने का वचन तो वह व्रोन्स्की को दे चुकी थी और इसलिए इस तरुण के साथ उसने दूसरा काड्रिल नाचने का वादा किया। दस्ताने के बटन बन्द करता हुआ फ़ौजी अफ़सर दरवाजे के करीब एक तरफ़ को हट गया और मूंछों पर हाथ फेरता गुलाब की तरह खिली कीटी को मुग्ध होकर देखता रहा।
इस बात के बावजूद कि बॉल के लिए पोशाक, केश-विन्यास और बाक़ी सारी तैयारी के काम में कीटी को बड़ी मेहनत करनी पड़ी थी, बहुत सूझ-बूझ से काम लेना पड़ा था, अब वह गुलाबी अस्तर और रेशम की जालीवाले अपने सजीले फ़्रॉक में ऐसी स्वाभाविकता और सरलता से बॉल में जा रही थी मानो गुलाब के आकृतिवाले आभूषणों, लैसों, पोशाक की सभी छोटी-मोटी चीज़ों पर उसने और उसके घर के सभी लोगों ने ज़रा भी वक़्त न ख़र्च किया हो, मानो वह रेशम की जालीवाली इस पोशाक और लैसों में, चोटी पर गुलाब तथा दो पत्तियोंवाले केश-विन्यास में ही जन्मी हो।
हॉल में दाखिल होने के पहले बूढ़ी प्रिसेंस ने जब कीटी की पेटी का तनिक मुड़ जानेवाला फ़ीता ठीक करना चाहा, तो वह ज़रा एक तरफ़ को हट गई। वह अनुभव कर रही थी कि उसके शरीर पर हर चीज़ अपने आप ही सुन्दर और मनोरम होनी चाहिए तथा कुछ भी ठीक-ठाक करने की ज़रूरत नहीं है।
कीटी के लिए यह एक सबसे सुखद दिन था। फ्रॉक कहीं पर भी तंग नहीं था, लैस कहीं पर ढीली नहीं थी, पोशाक के सजावटी गुलाब कहीं भी मुड़े-मुड़ाए नहीं थे, टूटकर गिरे नहीं थे, वक्ररेखावाली ऊँची, एड़ी के सेंडल पाँव नहीं दबाते थे, बल्कि चैन दे रहे थे। सुनहरे बालों का घना जूड़ा छोटे-से सिर पर स्वाभाविक लग रहा था। उसके हाथ पर चढ़े लम्बे दस्ताने के तीनों बटन बन्द हो गए थे, टूटे नहीं थे और दस्ताने से उसके हाथ की बनावट में अन्तर नहीं आया था। लॉकेट का काला मखमली फ़ीता तो विशेष रूप से गर्दन की शोभा बढ़ा रहा था। बहुत ही प्यारा था यह फ़ीता और घर पर दर्पण में अपनी गर्दन को देखते हुए उसे लगा था मानो यह फ़ीता बोलता हो। बाक़ी सभी चीजों के बारे में तो सन्देह हो सकता था, लेकिन फ़ीता बहुत ही प्यारा था। यहाँ बॉल में भी इसे दर्पण में देखकर कीटी मुस्करा दी। कीटी अपने उघाड़े कन्धों और बाँहों पर संगमरमर की सी ठंडक महसूस कर रही थी। यह अनुभूति कीटी को विशेषतः बहुत प्रिय थी। आँखें चमक रही थीं और लाल होंठ अपने आकर्षण की चेतना से मुस्कुराए बिना नहीं रह सकते थे। उसके हॉल में दाखिल होते ही और नृत्य के निमन्त्रण की प्रतीक्षा कर रही रेशम की जाली, फ़ीता और लैसोंवाली महिलाओं की रंग-बिरंगी भीड़ (कीटी कभी इस भीड़ में खड़ी नहीं होती थी) तक पहुँचने के पहले ही उसे वाल्ज़ नाच के लिए आमन्त्रित कर लिया गया। उसे निमन्त्रित भी किया नाच के सर्वश्रेष्ठ साथी, बॉलों में प्रमुख नायक, बॉलों के जाने-माने निदेशक, कार्यक्रम के संचालक, विवाहित, सुन्दर और सुडौल मर्द येगोर कोर्सून्स्की ने। काउंटेस बानिना के साथ अभी-अभी वाल्ज़ नृत्य का पहला चक्र समाप्त करने के बाद उसने अपने साम्राज्य यानी नाच के लिए मैदान में आ चुके कुछ जोड़ों पर नज़र डाली, हॉल में दाखिल होती कीटी की तरफ़ देखा और उस विशेष चुस्त-फुर्तीली चाल से उसकी ओर भागकर गया, जो बॉलों के निदेशकों का ही विशेष लक्षण है, सिर झुकाकर उसका अभिवादन किया और यह पूछे बिना ही कि वह नाचना चाहती है या नहीं, उसकी पतली कमर के गिर्द डालने के लिए अपनी बाँह बढ़ा दी। कीटी ने इधर-उधर नज़र घुमाई कि अपना पंखा किसे दे और गृह-स्वामिनी ने उसकी ओर मुस्कुराकर पंखा ले लिया।
"कितनी अच्छी बात है कि आप वक़्त पर आ गईं," कीटी की कमर के गिर्द बाँह डालते हुए उसने कहा, "वरना यह भी क्या ढंग है लोगों का देर से आने का !"
कीटी ने अपना बायाँ हाथ उसके कन्धे पर रख दिया और गुलाबी सेंडलों में अपने छोटे-छोटे पाँव तख्तों के चिकने फ़र्श पर संगीत की लय के साथ तेज़ी, फुर्ती और नपी-तुली गति से थिरकने लगे।
“आपके साथ वाल्ज़ नाचते हुए तो बड़ा चैन मिलता है," वाल्ज़ के आरम्भिक क़दम उठाते हुए उसने कीटी से कहा। “कमाल है, कितना हल्का-फुल्कापन है, कितनी precision (अचूकता-फ्रांसीसी) है," उसने कीटी से भी वही कहा, जो अपने साथ नाचनेवाली सभी अच्छी परिचितों से कहा करता था।
कीटी उसकी प्रशंसा से मुस्कुरा दी और उसके कन्धे के ऊपर से हॉल में नज़र दौड़ाती रही। वह बॉल में पहली बार आनेवाली नहीं थी, जिसके लिए सभी चेहरे एक जादुई प्रभाव का रूप ले लेते हैं, वह बॉलों में इतनी अधिक जा चुकनेवाली लड़की भी नहीं थी कि बॉल के सभी चेहरों से उसका मन ऊब गया हो। वह इन दोनों के बीच की थी। वह उत्तेजित भी थी और साथ ही अपने पर इतना नियन्त्रण भी कर सकती थी कि इधर-उधर देख सके। हॉल के बाएँ कोने में उसे समाज के सबसे महत्त्वपूर्ण लोग जमा दिखाई दिए। वहाँ कोर्सून्स्की की बीवी, औचित्य की सीमा से कहीं अधिक उघाड़े अंगोंवाली बहुत सुन्दर लिदी थी, गृह-स्वामिनी थी, क्रीविन भी, जो हमेशा समाज के सबसे महत्त्वपूर्ण घेरे में रहता था, अपनी चाँद की चमक दिखा रहा था। तरुण लोग उधर देख रहे थे, किन्तु उनके निकट जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। वहीं उसने नज़रों से स्तीवा को ढूँढ़ लिया और उसके बाद वहीं उसे काले मखमली फ़्रॉक में आन्ना की सुन्दर आकृति तथा सिर दिखाई दिया। 'वह' भी वहीं था। कीटी ने उस शाम के बाद, जब उसने लेविन का प्रस्ताव ठुकराया था उसे नहीं देखा था। अपनी तेज़ नज़र से कीटी ने उसे फ़ौरन पहचान लिया और यह भी देख लिया कि वह उसकी तरफ़ देख रहा है।
“क्या ख़याल है, एक और चक्र हो जाए ? आप थकीं तो नहीं ?" कोर्सून्स्की ने थोड़ा हाँफते हुए पूछा।
"नहीं, धन्यवाद।"
"तो कहाँ पहुँचा दूँ आपको ?"
"लगता है कि कारेनिना यहीं है...उसी के पास पहुँचा दीजिए मुझे।"
"जैसा चाहें।"
और कोर्सून्स्की अपनी गति धीमी करके नाच जारी रखता तथा 'pardon, mesdames, pardon, . pardon, mesdames' (क्षमा कीजिए, श्रीमती, क्षमा करें, क्षमा करें, श्रीमती-फ्रांसीसी) कहता हुआ हॉल के बाएँ कोने की भीड़ की ओर बढ़ चला तथा लैसों, रेशम की जालीवाली पोशाकों और फ़ीतों के बीच से रास्ता बनाता और कहीं भी अटके-भटके बिना उसने अपनी नृत्य-संगिनी को ज़ोर से घुमाया कि जालीदार जुर्राबों में अपनी टाँगें झलक उठीं तथा ऐसे पोशाक के लटकते हुए दामन ने फहरकर क्रीविन के घुटनों को ढक दिया। कोर्सून्स्की ने सिर झुकाया, सीधा हुआ और कीटी का हाथ थाम लिया ताकि उसे आन्ना के पास पहुँचा दे। गालों पर लालिमा लिए कीटी ने अपनी पोशाक का लटकता दामन क्रीविन के घुटनों से हटाया और सिर को तनिक चकराता-सा अनुभव करते हुए आन्ना को खोजने के लिए इधर-उधर नज़र दौड़ाई। आन्ना बैंगनी पोशाक में नहीं थी, जैसा कि कीटी बहुत चाहती थी। वह गले की नीची काटवाला काला मखमली फ्रॉक पहने थी, जिससे उसके मानो पुराने हाथी दाँत को काटकर बनाए गए सुघड़ और गदराए हुए कन्धे तथा उरोज, पतली, छोटी-सी कलाई और गोल हाथ नज़र आ रहे थे। सारा फ़ॉक वेनिस की लैस से सजा हुआ था। उसके काले बालों में, जिनमें किसी तरह के दूसरे बालों की मिलावट नहीं थी, पेन्सी फूलों का छोटा-सा हार सजा था और ऐसा ही एक हार सफ़ेद लैसों के बीच पेटी की काले फ़ीते की शोभा बढ़ा रहा था। उसका केश-विन्यास ऐसा नहीं था, जो नज़र में आए, मगर दूसरों का ध्यान खींचती थीं घुँघराले बालों की वे धृष्ट लटें, जो गुद्दी तथा कनपटियों पर हमेशा लहराती रहती थीं। उसकी मज़बूत और सुघड़ गर्दन में मोतियों की लड़ी थी।
कीटी हर दिन आन्ना को देखती रही थी, उसे प्यार करती थी और अनिवार्य रूप से बैंगनी पोशाक में ही उसकी कल्पना करती थी। किन्तु अब उसे काली पोशाक में देखकर उसने यह महसूस किया कि उसकी पूरी मनोरमता को वह नहीं समझती थी। कीटी ने उसे अब एकदम नए और अप्रत्याशित रूप में देखा। वह अब यह समझ गई कि आन्ना बैंगनी पोशाक में नहीं आ सकती थी और मनोरमता इसी बात में निहित थी कि वह हमेशा अपनी पोशाक से उभरकर सामने दिखाई देती थी, कि पोशाक कभी उस पर विशेष रंग नहीं जमाती थी। लैसों से मढ़ा हुआ काला फ़्रॉक भी उस पर हावी नहीं हो रहा था। वह तो केवल चौखटा था और नज़र आ रही थी केवल आन्ना, सीधी-सरल, स्वाभाविक, बड़ी सजीली और साथ ही खुश तथा सजीव।
आन्ना हमेशा की भाँति तनकर सीधी खड़ी थी और कीटी जब इस भीड़ के पास पहुंची, तो आन्ना गृह-स्वामी की ओर थोड़ा सिर घुमाकर उससे बातचीत कर रही थी।
"नहीं, मैं छींटाकशी नहीं करूँगी," उसने गृह-स्वामी की किसी बात का जवाब देते हुए कहा, "यद्यपि मैं यह समझती नहीं हूँ," वह कन्धे झटककर कहती गई और इसी समय कोमल, कृपालु मुस्कान के साथ कीटी की ओर घूमी। कीटी की पोशाक पर उड़ती-सी नारी-सुलभ दृष्टि डालकर उसने सिर के हल्के से झटके से, जो बहुत प्रकट न होते हुए भी कीटी की समझ में आ गया, कीटी की पोशाक तथा सुन्दरता की प्रशंसा की। “आप तो हॉल में भी नाचती हुई दाखिल होती हैं," आन्ना ने इतना और कह दिया।
"ये मेरी एक ऐसी सहायिका हैं, जिन पर मैं भरोसा कर सकता हूँ," आन्ना के सामने, जिसे उसने अभी तक नहीं देखा, सिर झुकाते हुए कोर्सान्स्की ने कहा। "प्रिंसेस बॉल को खुशी-भरा और बहुत बढ़िया बना देती हैं। आन्ना अर्काद्येवना, वाल्ज़ का एक चक्र हो जाए आपके साथ," बहुत झुकते हुए उसने कहा।
“आप इनसे परिचित हैं ?" गृह-स्वामी ने पूछा।
"हम किससे परिचित नहीं हैं ? मैं और मेरी बीवी तो सफ़ेद भेड़ियों जैसे हैं, हमें सभी जानते हैं," कोर्सून्स्की ने जवाब दिया। "वाल्ज़ का एक चक्र हो जाए, आन्ना अर्काद्येवना।"
"जब नाचे बिना काम चल सकता हो, तब मैं नहीं नाचती हूँ," वह बोली।
"लेकिन आज तो नाचना ही होगा," कोर्सन्स्की ने उत्तर दिया। इसी वक़्त व्रोन्स्की निकट आ गया।
"अगर आज नाचना ही होगा, तो चलिए," उसने कहा और व्रोन्स्की के अभिवादन की ओर ध्यान दिए बिना जल्दी से कोर्सून्स्की के कन्धे पर हाथ रख दिया।
'किस कारण वह इससे नाखुश है ?' कीटी ने यह देखकर सोचा कि आन्ना ने व्रोन्स्की के अभिवादन का उत्तर नहीं दिया। व्रोन्स्की कीटी के पास आ गया, उसने उसे अपने साथ पहला काड्रिल नाचने की याद दिलाई और इस बात के लिए अफ़सोस ज़ाहिर किया कि पिछले दिनों में उसे उससे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। कीटी वाल्ज़ नाचती हुई आन्ना को मुग्ध दृष्टि से देख रही थी और व्रोन्स्की की बातें सुन रही थी। वह प्रतीक्षा में थी कि व्रोन्स्की उसे वाल्ज़ नाचने को कहेगा, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया और कीटी ने हैरानी से उसकी तरफ़ देखा। वह शर्म से लाल हो गया और झटपट उसे वाल्ज़ नाचने को निमन्त्रित किया। किन्तु उसने कीटी की पतली कमर में बाँह डालकर पहला कदम उठाया ही था कि अचानक संगीत रुक गया। कीटी ने व्रोन्स्की के चेहरे की ओर देखा, जो उसके बहुत निकट था और बाद में लम्बे अर्से तक, कई सालों तक प्यार से भरी यही नज़र, जिससे उसने व्रोन्स्की को देखा था और जिसका उसने जवाब नहीं दिया था, यातनापूर्ण लज्जा बनकर उसका हृदय चीरती रही।
"Pardon, Pardon ! वाल्ज़, वाल्ज़ !" हॉल के दूसरे कोने से कोर्सून्स्की चिल्ला उठा और सामने आ जानेवाली किसी भी पहली जवान औरत को साथ लेकर खुद नाचने लगा।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 23-भाग 1)
व्रोन्स्की ने कीटी के साथ वाल्ज़ के कई चक्र लगाए। वाल्ज़ के बाद कीटी अपनी माँ के पास आई और काउंटेस नोर्डस्टोन के साथ कुछ क्षण ही बात कर पाई थी कि व्रोन्स्की पहला काड्रिल नाचने के लिए उसे बुलाने आ गया। काड्रिल नाचते समय कोई महत्त्वपूर्ण बातचीत नहीं हुई। किसी सिलसिले के बिना कभी कोर्सून्स्की दम्पति की चर्चा हुई, जिन्हें व्रोन्स्की ने दिलचस्प ढंग से चालीस साला प्यारे बच्चे कहा, इसके बाद भावी सार्वजनिक थिएटर की बात चल पड़ी और सिर्फ एक बार ही ऐसा ज़िक्र आया, जिसने कीटी को उत्तेजित किया, यानी जब उसने पूछा कि लेविन यहाँ है या नहीं और यह भी कहा कि उसे वह बहुत अच्छा लगा है। कीटी ने काड्रिल से बहुत आशा भी नहीं की थी। वह धड़कते दिल से माज़ूर्का नाच शुरू होने की प्रतीक्षा कर रही थी। उसे लग रहा था कि माज़ूर्का नाच के समय सब कुछ तय हो जाएगा। काड्रिल नाचते समय व्रोन्स्की ने उसे माज़ूर्का के लिए निमन्त्रित नहीं किया, लेकिन इससे कीटी को कोई घबराहट नहीं हुई। उसे यक़ीन था कि पहले के बॉलों की भाँति वह आज भी व्रोन्स्की के साथ ही माज़ूर्का नाचेगी और इसलिए उसने पाँच लोगों को यह कहकर इनकार कर दिया कि किसी दूसरे के साथ नाचनेवाली है। अन्तिम काड्रिल नाच तक पूरा बॉल कीटी के लिए सुखद रंगों, ध्वनियों और गतियों का जादुई स्वप्न-सा था। वह सिर्फ तभी नहीं नाचती थी, जब बहुत थकान महसूस करती और आराम करना चाहती थी। ऊब पैदा करनेवाले एक तरुण के साथ, जिसे इनकार करना सम्भव नहीं था, अन्तिम काड्रिल नाचते समय कीटी के लिए व्रोन्स्की और आन्ना के vis-avis (आमने-सामने-फ्रांसीसी) होने का संयोग हुआ। बॉल में आने के समय से कीटी आन्ना के निकट नहीं हो पाई थी और अब अचानक उसने उसे फिर से एक बिल्कुल नए तथा अप्रत्याशित रूप में देखा। उसने सफलता के कारण उत्पन्न होनेवाली उत्तेजना का वही लक्षण आन्ना में देखा, जिससे वह स्वयं बहुत अच्छी तरह परिचित थी। उसने देखा कि आन्ना अपनी प्रशंसा की शराब के नशे में मस्त है। कीटी इस भावना और इसके लक्षणों को जानती थी और उन्हें आन्ना में देख पा रही थी-आँखों में सिहरती और भड़कती चमक तथा उत्तेजना और सुख की मुस्कान, अनचाहे-अनजाने ही मुड़ जानेवाले होंठ, अत्यधिक स्पष्ट सजीलापन, चाल-ढाल में विश्वास और फुर्तीलापन।
'किसकी प्रशंसा से ?' कीटी अपने आपसे पूछ रही थी। ‘एक या सभी की प्रशंसा से ?' और नाच के यातनाग्रस्त अपने तरुण साथी की बातचीत में मदद किए बिना, जिसका सूत्र वह खो बैठा था और जोड़ नहीं पा रहा था, तथा बाहरी तौर पर कोर्सून्स्की के ऊँचे, खुशीभरे आदेशों का पालन करते हुए, जो कभी तो सभी को grand rond (बड़ा घेरा-फ्रांसीसी) और कभी chaine (पाँत-फ्रांसीसी) बनाने को कहता था, वह ध्यान से उन दोनों की तरफ़ देख रहा था और उसका दिल डूबता जाता था। 'नहीं, सभी लोगों की मुग्ध नज़रों से नहीं, बल्कि एक की प्रशंसा से ही वह नशे में आई है। और यह एक ? क्या यह वही है ?' हर बार जब वह आन्ना से बात करता, उसकी आँखों में खुशी की लौ जल उठती और सुखद मुस्कान से उसके लाल होंठ मुड़ जाते। आन्ना मानो पूरा जोर लगाती कि उल्लास के ये लक्षण प्रकट न हों, किन्तु वे अपने आप ही उसके चेहरे पर झलक उठते थे। “और उसका क्या हाल है ?" कीटी ने व्रोन्स्की की तरफ़ गौर से देखा और सन्नाटे में आ गई। कीटी को आन्ना के चेहरे के दर्पण में जो कुछ साफ़ तौर पर दिखाई दिया था, वही उसे व्रोन्स्की के चहरे पर भी नज़र आया। उसका हमेशा शान्तिपूर्ण और दृढ़ अन्दाज़ और चेहरे पर लापरवाही तथा शान्ति का भाव कहाँ गया ? नहीं, अब वह हर बार ही जब उससे बात करता था, तो अपने सिर को तनिक झुका लेता था मानो उसके सामने बिछ जाना चाहता हो और उसकी नज़र में केवल अधीनता और भय का भाव था। 'मैं आपको नाराज़ नहीं करना चाहता, उसकी नज़र मानो हर बार यही कहती थी, 'किन्तु अपने को बचाना चाहता हूँ और नहीं जानता कि कैसे।' व्रोन्स्की के चेहरे पर ऐसा भाव था, जो उसने पहले कभी नहीं देखा।
उन दोनों के बीच साझे परिचितों के बारे में बातचीत हो रही थी, वे बहुत ही मामूली बातों की चर्चा कर रहे थे, किन्तु कीटी को ऐसा लग रहा था कि उनके द्वारा कहा जानेवाला हर शब्द उन दोनों तथा उसके भाग्य का भी फैसला कर रहा था। और यह अजीब बात थी कि वे बेशक इस बात की चर्चा कर रहे थे कि अपनी फ्नांसीसी भाषा के साथ इवान इवानोविच कितना हास्यास्पद है और यह कि येलेत्स्काया को अधिक अच्छा पति मिल सकता था, फिर भी ये शब्द उनके लिए कुछ विशेष महत्त्व रखते थे और वे भी कीटी की तरह ही यह अनुभव कर रहे थे। पूरा बॉल, सभी लोग, सभी कुछ उस कुहासे से ढक गया, जो कीटी की आत्मा पर छा गया था। केवल कठोर पालन-शिक्षण ने ही उसे सहारा दिया और उससे जो अपेक्षा की जाती थी, उसे करने को विवश किया, यानी वह नाचती रही, प्रश्नों के उत्तर देती रही, बातचीत करती रही, यहाँ तक कि मुस्कुराती भी रही। लेकिन माजूर्का शुरू होने के पहले, जब कुर्सियों को ढंग से रखा जाने लगा और कुछ जोड़े छोटे हॉल से बड़े हॉल में आ गए, कीटी हताश और बुरी तरह से परेशान हो उठी। वह पाँच लोगों को इनकार कर चुकी थी और अब माजूर्का नाच में शामिल नहीं हो रही थी। अब तो इस बात की आशा भी नहीं की जा सकती थी कि कोई उसे आमन्त्रित करेगा, क्योंकि ऐसी महफ़िलों में लोग उसे हाथों हाथ लेते थे और किसी के दिमाग में यह ख़याल तक भी नहीं आ सकता था कि उसे अभी तक आमन्त्रित नहीं किया गया। उसे माँ से यह कहना चाहिए था कि उसकी तबीयत अच्छी नहीं है और वह घर जाना चाहती है, लेकिन ऐसा कर पाने की शक्ति उसमें नहीं थी। वह अपने को बेजान-सी अनुभव कर रही थी।
वह छोटे से मेहमानख़ाने के कोने में जाकर आराम-कुर्सी में ढह पड़ी। फ़्रॉक का हवाई स्कर्ट उसकी दुबली-पतली आकृति के गिर्द बादल की तरह ऊपर को उठ गया। दस्ताने के बिना एक कमज़ोर-सा, तरुणी-सुलभ कोमल हाथ, जो निर्जीव-सा नीचे लटक गया था, गुलाबी रंग के लबादे की चुनटों में डूब गया था। उसके दूसरे हाथ में पंखा था, जिससे वह हल्के-हल्के, किन्तु जल्दी-जल्दी अपने तमतमाए चेहरे को शान्ति दे रही थी। घास पर अभी-अभी बैठ और अपने रंग-बिरंगे पंखों को फैलाकर उड़ने को तैयार तितली जैसी प्रतीत होनेवाली कीटी के हृदय को भारी हताशा कचोट रही थी।
"हो सकता है कि मुझसे भूल हो रही है, मुमकिन है कि ऐसा न हुआ हो ?" और उसे फिर से वह सब कुछ याद हो आया, जो उसने देखा था।
"कीटी, यह क्या मामला है ?" कालीन पर आहट किए बिना उसके पास आकर काउंटेस नोर्डस्टोन ने कहा। “मेरी समझ में यह नहीं आ रहा।"
कीटी का अधर काँपा। वह जल्दी से उठकर खड़ी हो गई। “कीटी, तुम माजूर्का नहीं नाच रही हो ?"
"नहीं, नहीं," कीटी ने आँसुओं के कारण काँपती आवाज़ में जवाब दिया। "उसने मेरे सामने उसे माजूर्का नाचने को आमन्त्रित किया," नोर्डस्टोन ने यह जानते हुए कि कीटी समझ जाएगी कि वह किसका ज़िक्र कर रही है, कहा। "उसने पूछा, 'क्या आप कीटी श्चेर्बात्स्काया के साथ नहीं नाच रहे हैं ?"
"ओह, मेरी बला से !" कीटी ने जवाब दिया।
स्वयं कीटी के अतिरिक्त कोई भी उसकी स्थिति को नहीं समझता था, कोई भी तो यह नहीं जानता था कि कल उसने उस आदमी को, जिसे शायद वह प्यार करती थी, इसलिए इनकार कर दिया था कि किसी दूसरे पर भरोसा करती थी।
काउंटेस नोर्डस्टोन ने कोर्सून्स्की को ढूँढा, जिसके साथ उसे माजूर्कानाचना था, और उसे कीटी को आमन्त्रित करने को कहा।
कीटी पहले जोड़े में नाच रही थी और यह उसकी खुशकिस्मती ही कहिए कि उसे बातचीत करने की ज़रूरत नहीं पड़ रही थी, क्योंकि कोर्सून्स्की अपने प्रबन्ध-क्षेत्र में व्यवस्था करने के लिए लगातार इधर-उधर भागता रहता था। व्रोन्स्की और आन्ना उसके लगभग सामने बैठे थे। अपनी तेज़ नज़र से उसने उन्हें दूर से देखा, जोड़ों के रूप में बिल्कुल सामने आने पर निकट से देखा और जितना अधिक वह उन्हें देखती थी, उतना अधिक ही उसे यह विश्वास होता जाता था कि क़िस्मत का तारा डूब गया है। उसने देखा कि लोगों से भरे हुए इस हॉल में वे दोनों अपने को एकान्त में अनुभव कर रहे हैं। व्रोन्स्की के सदा दृढ़ और आत्मविश्वासी चेहरे पर कीटी को चकित करनेवाले खोएपन तथा अधीनता का वैसा ही भाव नज़र आया, जो दोषी होने पर समझदार कुत्ते के चेहरे पर दिखाई देता है।
आन्ना मुस्कुराती, तो वह भी मुस्कुराता। आन्ना कुछ सोचने लगती, तो व्रोन्स्की भी गम्भीर हो जाता। कोई दैवी शक्ति कीटी की आँखों को आन्ना के चेहरे की तरफ़ खींच रही थी। वह अपने साधारण काले फ़्रॉक में बहुत सुन्दर लग रही थी, बाजूबन्दों से सुशोभित उसकी गदराई बाँहें भी बहुत सुन्दर थीं, मोतियों की लड़ी से सजी उसकी मज़बूत गर्दन भी बहुत सुन्दर थी, उसके बिखरे घुंघराले बाल भी बहुत सुन्दर लग रहे थे, उसके छोटे-छोटे हाथों-पैरों की हल्की-फुल्की और सजीली गतिविधि भी बहुत सुन्दर थी, अपनी सजीवता के साथ उसका प्यारा चेहरा भी बहुत सुन्दर लग रहा था, मगर उसके इस सारे सौन्दर्य में कुछ भयानक और कठोर भी था।
कीटी पहले से भी अधिक मुग्ध होकर आन्ना को निहार रही थी और अधिकाधिक व्यथित हो रही थी। कीटी अनुभव कर रही थी मानो उसे कुचल दिया गया है और उसका चेहरा यह व्यक्त कर रहा था। माजूर्का नाचते हुए व्रोन्स्की ने जब निकट आने पर कीटी को देखा, तो पहली नज़र में उसे पहचान नहीं पाया-इतनी बदल गई थी वह।
"गज़ब का बॉल है !" व्रोन्स्की ने उससे कुछ कहने के लिए कहा।
"हाँ," कीटी ने जवाब दिया।
माजूर्का नाच के दौरान कोर्सून्स्की द्वारा सोची गई नई जटिल मुद्रा को दोहराते हुए आन्ना घेरे के बीच आ गई, दो नर्तक-साथियों को उसने अपने साथ ले लिया तथा एक महिला और कीटी को अपने पास बुला लिया। कीटी उसके क़रीब जाते हुए कातर दृष्टि से उसे देख रही थी। आन्ना ने आँखें सिकोड़कर उसे देखा और उसका हाथ दबाते हुए मुस्कुरा दी। किन्तु अपनी मुस्कान के जवाब में कीटी के चेहरे पर केवल हताशा और हैरानी का भाव देखकर उसने कीटी की ओर से मुँह मोड़ लिया और खुशमिज़ाजी से दूसरी महिला के साथ बात करने लगी।
“हाँ, इसमें कुछ अजीब, शैतानी और अद्भुत चीज़ है," कीटी ने अपने आपसे कहा। आन्ना खाने के लिए नहीं रुकना चाहती थी, लेकिन गृह-स्वामी उससे बहुत अनुरोध करने लगा।
"मान भी जाइए, आन्ना अर्काद्येवना," कोर्सन्स्की ने बिना दस्ताने के आन्ना का हाथ अपने फ़्रॉक-कोट की आस्तीन के नीचे लेते हुए कहा। “कातिल्योन नाच के बारे में कितना बढ़िया विचार है मेरे दिमाग में ! Un bijou!'' (बस, कमाल है !-फ्रांसीसी)
और आन्ना को अपने साथ ले जाने की कोशिश करते हुए वह थोड़ा आगे बढ़ा। गृह-स्वामी अनुमोदन करते हुए मुस्कुराया।
"नहीं, मैं नहीं रुकूँगी," आन्ना ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। किन्तु मुस्कान के बावजूद कोर्सून्स्की और गृह-स्वामी आन्ना के जवाब देने के दृढ़ अन्दाज़ से यह समझ गए कि वह नहीं रुकेगी।
"नहीं, मैं तो आपके यहाँ मास्को के इस एक बॉल में उससे कहीं ज्यादा नाची हूँ, जितना सारे जाड़े में पीटर्सबर्ग में," आन्ना ने अपने पास खड़े व्रोन्स्की की ओर देखते हुए कहा। “सफ़र से पहले आराम करना ज़रूरी है।"
"और आप निश्चय ही कल जा रही हैं ?" व्रोन्स्की ने पूछा।
“हाँ, ख़याल तो ऐसा ही है," आन्ना ने मानो उसके प्रश्न की साहसिकता से हैरान होते हुए जवाब दिया। किन्तु जब उसने यह कहा तो उसकी आँखों की अदम्य चमक और मुस्कान ने उसे डंक-सा मार दिया।
आन्ना खाने के लिए नहीं रुकी और घर चली गई।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 24-भाग 1)
'हाँ, मुझमें कुछ घृणित है, कुछ ऐसा है, जो लोगों को मुझसे दूर भगाता है, श्चेर्बात्स्की परिवार के यहाँ से निकलकर भाई के घर की तरफ़ पैदल जाते हुए लेविन ने सोचा। और मैं दूसरे लोगों को रास नहीं आता। कहते हैं कि मैं आत्माभिमानी हूँ। नहीं, मुझमें आत्माभिमान भी नहीं है। अगर आत्माभिमान होता, तो मैं अपने को ऐसी परिस्थिति में न डालता। उसने व्रोन्स्की की कल्पना की, सुखी, उदार, बुद्धिमान और शान्त व्रोन्स्की की, जिसे सम्भवतः कभी ऐसी परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा होगा, जैसी परिस्थिति में आज.उसने अपने को पाया था। 'हाँ, उसे व्रोन्स्की को ही चुनना चाहिए था। ऐसा ही उचित है और मुझे किसी के भी विरुद्ध और किसी भी चीज़ के लिए शिकायत करने का अधिकार नहीं है। मैं खुद ही इसके लिए दोषी हूँ। मुझे ऐसा सोचने का क्या हक़ था कि वह अपना जीवन मेरे जीवन से जोड़ना चाहेगी ? कौन हूँ मैं ? क्या हूँ मैं ? बहुत तुच्छ व्यक्ति, जिसकी किसी को और किसी चीज़ के लिए भी ज़रूरत नहीं है। उसे अपने भाई निकोलाई की याद आ गई और उसने खुश होते हुए इसी याद का सहारा ले लिया। 'क्या वह सही नहीं है कि दुनिया में सब कुछ बुरा और घृणित है ? भाई निकोलाई के बारे में तो हमारी राय शायद ही पहले और अब भी ठीक है। ज़ाहिर है कि प्रोकोफ़ी की दृष्टि से, जिसने उसे फटा फ़र-कोट पहने और शराब के नशे में धुत् देखा, वह तिरस्कृत व्यक्ति है, लेकिन मैं उसे दूसरे रूप में जानता हूँ। मैं उसकी आत्मा को पहचानता हूँ और जानता हूँ कि हम दोनों एक जैसे हैं। और मैं उसे ढूँढ़ने के लिए जाने के बजाय होटल में खाना खाने गया और फिर यहाँ चला आया।' लेविन लैम्प के क़रीब गया, भाई का पता पढ़ा, जो उसके बटुए में रखे पुर्जे पर लिखा था और उसने एक बग्घी बुला ली। भाई के घर तक के लम्बे रास्ते में लेविन ने अपने भाई निकोलाई के जीवन की उन सभी घटनाओं को अपने स्मृति-पट पर सजीव किया, जिनसे वह परिचित था। उसे याद आया कि कैसे उसका भाई विश्वविद्यालय में और विश्वविद्यालय के एक साल बाद साथियों के व्यंग्य-उपहासों के बावजूद साधु का सा जीवन बिताता रहा, बड़े उत्साह से सभी धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन और गिरजे में जाकर पूजा-पाठ करता रहा, व्रत रखता रहा और सभी तरह के मनोरंजन-खुशियों, विशेषकर नारियों से मुँह मोड़े रहा और फिर अचानक मानो उसके भीतर कुछ फट गया, बहुत ही घटिया लोगों के साथ उसकी यारी-दोस्ती हो गई और वह बुरी तरह ऐयाशी में डूब गया। इसके बाद उसे उस लड़के का क़िस्सा याद आया, जिसे पालन-शिक्षण के लिए वह गाँव से लाया था और फिर गुस्से के दौरे में उसने उसे ऐसे पीटा था कि बच्चे के अंग-अंग के अपराध में उस पर मुक़दमा चल गया था। इसके पश्चात् उसे एक पत्तेबाज़ के साथ घटी घटना याद आई, जिसे वह जुए में काफ़ी पैसे हार गया था, उसके नाम हुंडी लिख दी थी और फिर खुद ही यह साबित करते हुए, कि पत्तेबाज़ ने उसे धोखा दिया है, उसके ख़िलाफ़ नालिश कर दी थी। (कोज़्निशेव ने यही रकम चुकाई थी।) इसके बाद उसे याद आया कि कैसे मार-पीट के लिए वह एक रात कोतवाली में रहा था। उसे याद आया, भाई कोज़्निशेव के विरुद्ध इस आधार पर लज्जाजनक मुक़दमा चलाना मानो उसने माँ की जागीर से उसे उसका हिस्सा न दिया हो। आख़िरी किस्सा भी उसे याद आया, जब वह पश्चिमी इलाके में सरकारी नौकरी के लिए गया था और गाँव के मुखिया को पीट डालने के जुर्म में उस पर मुक़दमा चलाया गया था...यह सब कुछ बहुत बुरा था, लेकिन लेविन को इतना बुरा प्रतीत नहीं होता था, जितना उन्हें प्रतीत होना चाहिए था, जो निकोलाई लेविन को नहीं जानते थे, उसके बारे में सारी सच्चाई को नहीं जानते थे, उसके दिल को नहीं जानते थे।
लेविन को याद था कि कैसे उस वक़्त जब निकोलाई भगवान की पूजा करता था, व्रत रखता था, साधुओं के पास और गिरजों की प्रार्थनाओं में जाता था, जब वह धर्म में सहारा ढूँढ़ता था, अपने आवेशपूर्ण स्वभाव के लिए लगाम खोजता था, न केवल यह कि किसी ने उसकी पीठ नहीं ठोंकी, बल्कि सभी ने, खुद उसने भी, उसका मज़ाक़ उड़ाया था। सब उसे चिढ़ाते थे, उसे साधु और हज़रत नूह कहते थे। और जब उसका बाँध टूटा, तब भी किसी ने उसकी मदद नहीं की, सभी ने सन्नाटे में आकर नफ़रत से मुँह फेर लिया।
लेविन महसूस कर रहा था कि अपने जीवन की सभी ऊट-पटाँग हरकतों के बावजूद उसका भाई । निकोलाई अपनी आत्मा में, आत्मा की गहराई में उन लोगों से कुछ अधिक गलत या बुरा नहीं था, जो उसको तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। इसके लिए वह तो दोषी नहीं था कि उग्र स्वभाव और मस्तिष्क में कुछ सूझ-बूझ लेकर पैदा हुआ था। लेकिन वह हमेशा अच्छा बनना चाहता था। 'सब कुछ कहूँगा, उसे भी सब कुछ कहने को विवश करूँगा और उसे यह स्पष्ट कर दूंगा कि मैं उसे प्यार करता हूँ और इसलिए उसे समझता हूँ,' लेविन ने रात के दस बजे के बाद पते में लिखे होटल के पास पहुँचते हुए मन-ही-मन यह तय किया।
"ऊपर बारहवाँ और तेरहवाँ कमरा," दरबान ने लेविन के प्रश्न का उत्तर दिया।
“घर पर हैं ?"
"घर पर ही होना चाहिए।"
बारह नम्बर के कमरे का दरवाज़ा अधखुला था और वहाँ से प्रकाश-रेखा में घटिया और हल्के तम्बाकू का घना धुआँ बाहर आ रहा था तथा एक अपरिचित स्वर सुनाई पड़ रहा था। किन्तु लेविन तुरन्त ही यह जान गया कि उसका भाई वहीं है-उसे उसकी खाँसी सुनाई दे गई थी।
लेविन जब दरवाज़े में दाखिल हुआ, तो अपरिचित व्यक्ति को यह कहते सुना :
"सब कुछ इस बात पर निर्भर है कि धन्धे को कितनी समझदारी और लगन से चलाया जाएगा।"
कोन्स्तान्तीन लेविन ने दरवाज़े में से झाँककर देख लिया कि बहुत ही घने बालोंवाला एक जवान आदमी, जो देहाती कोट पहने है, बोल रहा है और कालर तथा आस्तीनों के बिना ऊनी फ़्रॉक पहने हुए एक जवान, चेचक-रू औरत सोफे पर बैठी है। भाई दिखाई नहीं दे रहा था। यह ख़याल आने पर लेविन का दिल टीस उठा कि उसका भाई किस तरह के अजनबी लोगों के बीच रहता है। किसी को भी उसकी आहट नहीं मिली और कोन्स्तान्तीन अपने गैलोश उतारते हुए वह सुनता रहा, जो देहाती कोट पहने व्यक्ति कह रहा था। वह किसी उद्यम की चर्चा कर रहा था।
"बेड़ा गर्क हो जाए इन विशेषाधिकारोंवाले वर्गों का," लेविन के भाई ने खाँसते हुए कहा। "माशा ! तुम हमारे लिए खाने का प्रबन्ध करो और अगर बच रही हो तो शराब भी ले आओ। नहीं तो, मँगवा लो।"
नारी उठी, पर्दे के पीछे से सामने आई और उसने लेविन को देखा।
"निकोलाई मीत्रियेविच, कोई साहब आया है," औरत ने कहा।
"किससे मिलना है ?" निकोलाई लेविन ने झल्लाए हुए स्वर में पूछा।
"यह मैं हूँ," कोन्स्तान्तीन लेविन ने रोशनी में सामने आते हुए जवाब दिया।
"कौन, मैं ?" निकोलाई ने और भी अधिक खीज से साथ पूछा। वह जल्दी से उठा, उसने किसी चीज़ के साथ ठोकर खाई और अगले क्षण लेविन के सामने दरवाज़े पर थी बहुत ही जानी-पहचानी, बड़ी-बड़ी भयभीत आँखों और अपने उजड्डपन और बीमारी से चकित करनेवाली भाई की लम्बी, दुबली-पतली और झुकी हुई आकृति।
कोन्स्तान्तीन लेविन ने अपने भाई को तीन साल पहले जैसा देखा था, वह अब उससे भी अधिक दुबला हो गया था। वह जाकेट पहने था। उसके हाथ और शरीर की बड़ी-बड़ी हड्डियाँ और भी बड़ी लग रही थीं। बाल बहुत कम रह गए थे, पहले जैसी सीधी मूंछे होंठों पर लटक रही थीं, वही परिचित आँखें आगन्तुक को अजीब ढंग और भोलेपन में ताक रही थीं।
"अरे, कोस्त्या !" भाई को पहचानकार वह अचानक कह उठा और उसकी आँखें खुशी से चमक उठीं। किन्तु इसी क्षण उसने अपने नौजवान मेहमान की तरफ़ घूमकर देखा और लेविन के लिए अत्यधिक परिचित ढंग से सिर तथा गर्दन को ऐसे ऐंठन के साथ घुमाया मानो टाई उसे परेशान कर रही हो और उसके दुबले-पतले चेहरे पर एक अन्य भयानक, यातनापूर्ण और कठोर भाव अंकित हो गया।
"मैंने आपको और सेर्गेई इवानोविच को लिखा था कि मैं आपको नहीं जानता हूँ और जानना नहीं चाहता हूँ। तुम्हें, आपको क्या चाहिए ?"
लेविन ने जिस रूप में उसकी कल्पना की थी, वह बिल्कुल वैसा नहीं था। उसके स्वभाव का सबसे बुरा और भयानक लक्षण, जो उसके साथ मिलना-जुलना इतना कठिन बना देता था, लेविन ने तब भुला दिया था, जब उसने उसके बारे में सोचा था। किन्तु अब, जब उसने उसका चेहरा और विशेषतः ऐंठन के साथ सिर को हिलाते देखा, तो उसे यह सब कुछ याद आ गया।
“मुझे किसी काम के लिए तुमसे नहीं मिलना है," लेविन ने कातरता से उत्तर दिया। "मैं तो ऐसे ही तुमसे मिलने आ गया।"
भाई की कातरता ने स्पष्टतः निकोलाई को नर्म कर दिया। उसने होंठों को सिकोड़ा।
"ओह, तुम ऐसे ही आए हो ?" वह बोला। "तो भीतर आ जाओ, बैठो। खाना खाओगे ? माशा, तीन लोगों के लिए खाना ले आओ। नहीं, रुको। जानते हो, ये कौन हैं ?" देहाती कोट पहने महानुभाव की ओर संकेत करते हुए उसने भाई से पूछा। "ये कीएव के वक़्त से ही मेरे दोस्त, श्रीमान क्रीत्स्की हैं, बहुत बढ़िया आदमी हैं। ज़ाहिर है कि पुलिस इन्हें तंग करती है, क्योंकि ये नीच नहीं हैं।"
और उसने अपनी आदत के मुताबिक़ कमरे में उपस्थित सभी लोगों पर दृष्टि डाली। यह देखकर कि दरवाजे के पास खड़ी नारी ने जाने के लिए कदम बढ़ाया है, उसने उसे आवाज़ दी, "रुको, मैं कह चुका हूँ न।" और बातचीत के पहले जैसे अटपटे और भद्दे ढंग से, जिससे लेविन इतनी अच्छी तरह परिचित था, फिर सभी पर नज़र डालकर वह भाई को क्रीत्स्की की कहानी सुनाने लगा। उसने बताया कि कैसे क्रीत्स्की को गरीब विद्यार्थियों की मदद करने का संगठन बनाने और रविवारीय विद्यालयों का आयोजन करने के लिए विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया, कैसे इसके बाद वह जन-विद्यालय में अध्यापक बना और वहाँ से उसकी छुट्टी कर दी गई तथा इसके बाद किसी-न-किसी चीज़ के लिए उस पर मुक़दमा चलाया गया।
"आप कीएव विश्वविद्यालय में पढ़ते रहे हैं ?" लेविन ने अटपटी ख़ामोशी को तोड़ने के लिए पूछा।
“हाँ, कीएव विश्वविद्यालय में," क्रीत्स्की ने नाक-भौंह सिकोड़कर झल्लाहट के साथ उत्तर दिया।
"और यह औरत," निकोलाई ने क्रीत्स्की को टोकते और नारी की ओर संकेत करते हुए कहा, "यह मेरी जीवन-मित्र मारीया निकोलाएव्ना है। मैं इसे चकले से लाया हूँ," उसने यह कहते हुए गर्दन को झटका दिया। “लेकिन इसे प्यार और इसका आदर करता हूँ और जो कोई भी मुझसे वास्ता रखना चाहता है," आवाज़ को ऊँची करते और त्योरी चढ़ाते हुए उसने इतना और जोड़ दिया, "उससे इसे प्यार तथा इसका आदर करने का अनुरोध करता हूँ। वह मेरी बीवी जैसी ही है, बिल्कुल वैसी है। तो अब तुम जानते हो कि किसके साथ तुम्हारा वास्ता है। और अगर तुम यह समझते हो कि इससे तुम्हारी हेठी होती है, तो तुम्हारा भला करे खुदा और जाओ अपनी राह।"
फिर से उसने प्रश्नसूचक दृष्टि से सबकी ओर देखा। "मेरी किसलिए हेठी होगी, मेरी समझ में नहीं आ रहा।"
"तो माशा, खाना लाने को कह दो-तीन आदमियों के लिए, वोदका और शराब भी...नहीं, रुको...नहीं...जाओ।"
अन्ना करेनिना : (अध्याय 25-भाग 1)
"देखो न," निकोलाई लेविन ने यत्नपूर्वक माथे पर बल डालकर और गर्दन को झटका देते हुए कहा। सम्भवतः उसके लिए यह समझ पाना कठिन हो रहा था कि वह क्या कहे और क्या करे। “देखो न," उसने कमरे के कोने में रखी हुई रस्सियों से बँधी लोहे की छड़ों की ओर संकेत किया। “देख रहे हो न उन्हें ? यह नया धन्धा है, जिसे हम शुरू कर रहे हैं। एक उत्पादन-संघ..."
लेविन भाई की बात लगभग नहीं सुन रहा था। वह उसके तपेदिक़ से ग्रस्त चेहरे को ध्यान से देख रहा था, उसे उस पर अधिकाधिक दया आ रही थी और भाई उत्पादन-संघ के बारे में जो कुछ कह रहा था, वह उसे सुनने के लिए अपने को किसी तरह भी विवश नहीं कर पा रहा था। वह समझ रहा था कि यह उत्पादन-संघ अपने प्रति तिरस्कार-भावना से बचने का ही एक साधन है। निकोलाई कहता गया-
"तुम्हें मालूम है कि पूँजी कामगार को कुचलती है, हमारे यहाँ कामगार और किसान श्रम का सारा बोझ सहन करते हैं और उनकी स्थिति ऐसी है कि वे चाहे कितनी भी मेहनत क्यों न करें, अपनी जानवरों जैसी हालत से मुक्ति नहीं पा सकते। उत्पादन से जितना नफ़ा होता है, जिससे वे अपनी हालत सुधार सकते हैं, उन्हें कुछ फुर्सत मिल सकती है और इसके परिणामस्वरूप वे शिक्षा पा सकते हैं, वह सारा नफ़ा उनसे पूँजीपति छीन लेते हैं। इस तरह हमारे समाज का कुछ ऐसा ढाँचा बन गया है कि वे जितनी अधिक मेहनत करेंगे, व्यापारी और भूमिपति उतने ही अधिक धनी होते जाएँगे और वे हमेशा काम करनेवाले जानवर बने रहेंगे। इस व्यवस्था को बदलना चाहिए," उसने अपनी बात ख़त्म करते हुए भाई की तरफ़ प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा।
"हाँ, सो तो ज़ाहिर ही है," लेविन ने भाई के गालों की बड़ी हड्डियों के नीचे उभर आनेवाले लाली की तरफ़ देखते हुए कहा।
"और हम धातुकर्म का धन्धा शुरू कर रहे हैं, जहाँ सारा उत्पादन और मुनाफ़ा और सबसे बढ़कर यह कि उत्पादन के उपकरण, सभी कुछ साझा होगा।"
“यह उत्पादन-संघ होगा किस जगह ?" लेविन ने पूछा।
"कज़ान गुबेर्निया के वोज्द्रेम गाँव में।"
“गाँव में किसलिए ? मुझे लगता है कि गाँव में तो वैसे ही बहुत काम है। गाँव में धातुकर्म के संघ की क्या ज़रूरत है ?"
"इसलिए कि किसान आज भी पहले जैसे ही दास हैं और उन्हें इस दासता से मुक्ति दिलाने की कोशिश ही तुम्हें और सेर्गेई इवानोविच को अच्छी नहीं लगती," निकोलाई लेविन ने भाई की आपत्ति से चिढ़कर कहा।
लेविन ने गहरी साँस ली और इसी वक्त अँधेरे और गन्दे कमरे में नज़र दौड़ाई। इस उच्छ्वास ने निकोलाई को मानो और अधिक चिढ़ा दिया।
“तुम्हारे और सेर्गेई इवानोविच के रईसोंवाले एतराज़ों को जानता हूँ मैं। जानता हूँ कि वह इस वक़्त कायम बुराई की सफ़ाई पेश करने के लिए ही अपने दिमाग का पूरा ज़ोर लगाता है।"
“मैं ऐसा नहीं मानता, और फिर तुम सेर्गेई इवानोविच की किसलिए चर्चा कर रहे हो ?" लेविन ने मुस्कुराते हुए कहा।
“सेर्गेई इवानोविच की ? इसलिए कर रहा हूँ उसकी चर्चा !" सेर्गेई इवानोविच का नाम आने पर निकोलाई लेविन अचानक चिल्ला उठा। "इसलिए कर रहा हूँ उसकी चर्चा...लेकिन क्या तुक है यह बताने में ? तुम इतना बाताओ...किसलिए आए हो तुम मेरे पास ? तुम्हें यह सब कुछ घटिया लगता है, बहुत अच्छी बात है, तो जाओ भगवान के लिए।" वह कुर्सी से उठते हुए चिल्ला पड़ा। “तो जाओ, जाओ!"
"मुझे यह ज़रा भी घटिया नहीं लगता," लेविन ने कातरता से कहा। "मैं तो इसका खंडन भी नहीं कर रहा हूँ।"
इसी वक़्त मारीया निकोलाएव्ना कमरे में वापस आ गई। निकोलाई लेविन ने झल्लाकर उसकी तरफ़ देखा। वह जल्दी से उसके पास गई और कुछ फुसफुसाई।
"मेरी तबीयत अच्छी नहीं है। मैं चिड़चिड़ा हो गया हूँ," निकोलाई लेविन ने शान्त होते और हाँफते हुए कहा, “और फिर तुम मुझसे सेर्गेई इवानोविच और उसके इस लेख की बात करते हो। वह लेख तो एकदम बकवास, बड़ा झूठ और खुद अपनी आँखों में धूल झोंकनेवाला मामला है। जो आदमी खुद न्याय को नहीं जानता, वह उसके बारे में लिख ही क्या सकता है ? आपने उसका लेख पढ़ा है ?" उसने फिर से मेज़ के पास बैठते और जगह बनाने के लिए उस पर फैली आधी खाली सिगरेटों को परे हटाते हुए क्रीत्स्की से पूछा।
"मैंने नहीं पढ़ा," क्रीत्स्की ने उदासी से जवाब दिया, जो स्पष्टतः इस बातचीत में हिस्सा नहीं लेना चाहता था।
"भला क्यों ?" निकोलाई लेविन ने झुंझलाते हुए अब क्रीत्स्की से पूछा।
"इसलिए कि उस पर अपना वक़्त बर्बाद करने की ज़रूरत नहीं समझता।"
“यह भी खूब रही, आपको कैसे मालूम है कि आप अपना वक़्त बर्बाद करेंगे ? बहुतों के लिए तो यह लेख उनकी पहुँच के बाहर है, यानी उनकी समझ में नहीं आता। लेकिन मेरी बात दूसरी है। मैं तो उसके विचारों को आर-पार देख सकता हूँ और जानता हूँ कि यह लेख क्यों कमज़ोर है।"
सभी ख़ामोश हो गए। कीत्स्की धीरे से उठा और उसने अपनी टोपी ले ली।
"खाना नहीं खाएँगे ? अच्छी बात है, जाइए। कल फ़िटर को साथ लेकर आ जाइएगा।"
क्रीत्स्की के बाहर निकलते ही निकोलाई लेविन मुस्कुराया और आँख मारकर बोला : “यह भी किसी काम का नहीं है। मैं देख रहा हूँ..." लेकिन क्रीत्स्की ने इसी वक़्त उसे दरवाज़े पर से आवाज़ दी।
“और किस चीज़ की ज़रूरत है आपको ?" निकोलाई लेविन ने कहा और बाहर बरामदे में चला गया। मारीया निकोलाएव्ना के साथ अकेला रह जाने पर लेविन ने पूछा :
"क्या बहुत अर्से से हैं आप मेरे भाई के साथ ?"
"दूसरा साल चल रहा है। उनकी सेहत बहुत खराब हो गई है। यह बहुत ज़्यादा पीते हैं," उसने कहा।
"क्या मतलब ?" “वोद्का पीते हैं और वह उनके लिए बुरी है।"
"बहुत पीते हैं क्या ?" लेविन फुसफुसाया।
“हाँ," घबराहट से दरवाज़े की ओर देखते हुए, जहाँ निकोलाई लेविन की झलक मिल रही थी, उसने कहा।
"किस बात की चर्चा कर रहे थे तुम ?" निकोलाई लेविन ने नाक-भौंह सिकोड़ते और डरी-सी आँखें एक के बाद दूसरे की तरफ़ घुमाते हुए पूछा। "किस बात की ?"
"किसी भी बात की नहीं," कोन्स्तान्तीन ने परेशान होते हुए जवाब दिया।
"नहीं बताना चाहते, तो न बताओ। तुम्हारा इससे बात करने का कोई मतलब नहीं है। यह बाज़ारी औरत है और तुम रईस हो,” उसने गर्दन को झटका देते हुए कहा।
"मैं देख रहा हूँ कि तुम सब कुछ समझ गए, तुमने सब कुछ जाँच-परख लिया है और मेरी भूलों-भटकावों के लिए तुम्हें अफ़सोस हो रहा है," अपनी आवाज़ को ऊँचा करते हुए निकोलाई लेविन ने फिर से कहना शुरू किया ।
"निकोलाई, द्मीत्रियेविच, निकोलाई द्मीत्रियेविच," मारीया निकोलाएव्ना फिर से उसके निकट होते हुए फुसफुसाई।
“अच्छी बात है, अच्छी बात है...खाने का क्या हुआ ? लो, वह आ गया लेकर," उसने ट्रे लिए हुए नौकर को आते देखकर कहा। "इधर, इधर रख दो," उसने झुंझलाहट से कहा और तुरन्त वोदका का एक जाम ढालकर बेसब्री से पी गया। "चाहते हो पीना ?" इसी क्षण कुछ रंग में आते हुए उसने भाई से कहा। "बस, काफ़ी चर्चा हो चुकी सेर्गेई इवानोविच की। तुमसे मिलकर तो मुझे खुशी हुई है। कुछ भी क्यों न हो, फिर भी हम पराये नहीं हैं। लो, पियो। बताओ, तुम क्या करते हो ?" बेसब्री से रोटी का टुकड़ा चबाते और दूसरा जाम भरते हुए वह कहता गया। “कैसे चल रही है तुम्हारी ज़िन्दगी ?"
“पहले की तरह अब भी गाँव में अकेला रहता हूँ, खेतीबारी की देखभाल करता हूँ," भाई जिस बेसब्री से खा-पी रहा था, स्तब्ध होकर उसे देखते तथा अपनी दृष्टि को छिपाने की कोशिश करते हुए कोन्स्तान्तीन ने जवाब दिया।
"तुम शादी क्यों नहीं करते ?"
"ऐसा मौक़ा ही नहीं बना," कोन्स्तान्तीन ने शर्म से लाल होते हुए जवाब दिया।
"भला क्यों ? मेरा तो क़िस्सा तमाम हो चुका है ! मैंने तो अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर ली। मैं पहले कह चुका हूँ और अब फिर कहूँगा कि अगर मुझे उस वक़्त मेरा हिस्सा मिल जाता, जब मुझे उसकी ज़रूरत थी, तो मेरी सारी ज़िन्दगी ही दूसरी होती।"
लेविन ने झटपट बातचीत बदली।
"तुम्हें मालूम है या नहीं, कि तुम्हारा वान्या मेरे पोक्रोस्कोये गाँव में मुनीम का काम करता है ?" उसने कहा।
निकोलाई ने गर्दन को झटका दिया और विचारों में डूब गया।
“हाँ, तुम मुझे बताओ कि पोक्रोस्कोये में क्या हो रहा है ? घर अभी भी खड़ा है, भोजवृक्ष भी हैं और हमारा पढ़ाई का कमरा भी ? क्या माली फ़िलीप भी जिन्दा है ? कितनी अच्छी तरह याद है मुझे कुंज और सोफ़ा ! देखो, घर में कोई तब्दीली नहीं करना, लेकिन जल्दी से शादी कर लो और पहले की तरह ही रहने लगो। अगर तुम्हारी बीवी अच्छी होगी, तो मैं तुमसे मिलने आऊँगा।"
"तो तुम अभी मेरे पास आ जाओ," लेविन ने कहा। "कितने अच्छे ढंग से हम-तुम रहेंगे !"
"अगर मैं यह जानता कि सेर्गेई इवानोविच से वहाँ मेरी मुलाक़ात नहीं होगी, तो तुम्हारे पास आ गया होता।"
"तुम्हारी उससे वहाँ मुलाक़ात नहीं होगी। मैं उससे पूरी तरह स्वतन्त्र जीवन बिताता हूँ।"
“हाँ, लेकिन तुम चाहे कुछ भी क्यों न कहो, तुम्हें हम दोनों में से एक को चुनना होगा," भीरुता से भाई की आँखों में झाँकते हुए उसने कहा। उसकी इस भीरुता ने कोन्स्तान्तीन के हृदय को छू लिया।
“अगर इस मामले में तुम ईमानदारी से मेरी राय जानना चाहते हो, तो मैं तुमसे यही कहूँगा कि सेर्गेई इवानोविच के साथ तुम्हारे झगड़े में मैं न तुम्हारा और न उसका पक्ष लेता हूँ। तुम दोनों ही गलत हो। तुम बाहरी तौर पर अधिक गलत हो और वह भीतरी तौर पर।"
"तो, तो तुम यह समझ गए, तुम यह समझ गए !" निकोलाई खुशी से चिल्ला उठा।
“लेकिन अगर तुम जानना चाहते हो, तो सुनो कि व्यक्तिगत रूप से मैं तुम्हारे साथ अपनी दोस्ती को ज़्यादा वज़न देता हूँ, क्योंकि..."
"क्यों ? क्यों ?"
कोन्स्तान्तीन यह नहीं कह सका कि वह इसलिए इस दोस्ती को ज़्यादा वज़न देता है कि निकोलाई क़िस्मत का मारा हुआ है और उसे इस दोस्ती की ज़रूरत है। लेकिन निकोलाई समझ गया कि भाई यही कहना चाहता था और नाक-भौंह सिकोड़कर फिर से वोदका ढालने लगा।
"बस, काफ़ी पी चुके, निकोलाई द्मीत्रियेविच !" मारीया निकोलाएव्ना ने अपना गुदगुदा-सा हाथ सुराही की ओर बढ़ाते हुए कहा।
"हाथ हटा लो ! परेशान नहीं करो ! पीट डालूँगा !" वह चिल्ला उठा।
मारीया निकोलाएव्ना खुशमिज़ाजी से तनिक मुस्कुराई, जिससे निकोलाई भी मुस्कुरा दिया और उसने उसके हाथ से वोद्का की सुराही ले ली।
"तुम क्या सोचते हो कि यह कुछ नहीं समझती ?" निकोलाई ने कहा। “यह इन चीज़ों को हम सबसे कहीं ज़्यादा अच्छी तरह समझती है। सच है न कि इसमें कुछ बहुत अच्छा, बहुत प्यारा है ?"
“आप मास्को में पहले कभी नहीं आईं ?" कोन्स्तान्तीन ने कहने के लिए ही कहा।
"तुम इसे 'आप' नहीं कहो। वह इससे डरती है। इसे न्यायाधीश के अलावा, जिसने इस पर उस समय मुक़दमा चलाया था, जब वह चकला छोड़ना चाहती थी, कभी किसी ने 'आप' नहीं कहा। हे भगवान, कितना बेतुकापन है इस दुनिया में !" निकोलाई लेविन अचानक चिल्ला उठा। "ये नई संस्थाएँ, ये न्यायाधीश, जेम्सत्वो-परिषदें-यह सब कुछ क्या बकवास है !"
और उसने नई संस्थाओं के साथ अपने टकरावों का ज़िक्र करना शुरू किया।
कोन्स्तान्तीन लेविन उसकी बातें सुन रहा था और सभी सामाजिक संस्थाओं के बेतुकेपन के जिस विचार का वह स्वयं समर्थक था और अक्सर उसे व्यक्त करता था, अब भाई के मुँह से वही कुछ सुनना उसे अच्छा नहीं लग रहा था।
"उस दुनिया में समझ पाएँगे हम यह सब कुछ," कोन्स्तान्तीन ने मज़ाक़ करते हुए कहा।
"उस दुनिया में ? ओह, वह दुनिया मुझे पसन्द नहीं है ! पसन्द नहीं है !" भाई के चेहरे पर डरी-सहमी और वहशत-भरी नज़रों को टिकाए हुए उसने कहा। "बेशक ऐसा प्रतीत होता है कि सभी तरह के घटियापन, अपने और पराये गड़बड़झाले से बच जाना अच्छा होगा, लेकिन मैं मौत से डरता हूँ, बेहद डरता हूँ मौत से।" वह काँप उठा। “कुछ पियो न ? शेम्पेन पीना पसन्द करोगे ? या फिर आओ, कहीं बाहर चलें। बंजारों के यहाँ चलें। जानते हो, बंजारे और रूसी लोकगीत मुझे बेहद पसन्द हैं।"
उसकी ज़बान लड़खड़ाने लगी और वह एक विषय से दूसरे विषय पर छलाँगें लगाने लगा। मारीया निकोलाएव्ना की मदद से कोन्स्तान्तीन ने उसे कहीं भी न जाने के लिए मनाया और पूरी तरह से नशे में धुत् बिस्तर पर लिटा दिया।
मारीया निकोलाएव्ना ने लेविन से वादा किया कि ज़रूरत होने पर उसे पत्र लिखेगी और निकोलाई लेविन को भाई के पास जाकर रहने के लिए राज़ी करने की कोशिश करेगी।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 26-भाग 1)
कोन्स्तान्तीन लेविन अगली सुबह को मास्को से रवाना हुआ और शाम होने तक घर पहुँच गया। रास्ते में रेलगाड़ी के डिब्बे में बैठे लोगों के साथ राजनीति और नए रेल-मार्गों के बारे में उसकी बातचीत हुई और मास्को की भाँति विचारों की गड़बड़, अपने प्रति खीज और लज्जा की अस्पष्ट भावना उस पर हावी हो गई। लेकिन जब वह अपने स्टेशन पर उतरा, कुरते के उठे हुए कालरवाले अपने काने कोचवान इग्नात को पहचाना, स्टेशन की खिड़कियों से छन रही मद्धिम रोशनी में जब उसने क़ालीनवाली अपनी स्लेज और छल्लों तथा फुँदनेवाले साज़ तथा ढंग से बँधी पूँछोंवाले घोड़े देखे और फिर सामान आदि रखकर चलने की तैयारी करते समय जब इग्नात ने उसे गाँव की ख़बरें सुनाईं, ठेकेदार के आने और पावा गाय के ब्याने के बारे में बताया, तो उसे लगा कि दिमागी उलझाव कुछ-कुछ कम हो रहा है और अपने प्रति खीज तथा शर्म की भावना दूर होती जा रही है। ऐसा तो उसने इग्नात और घोड़ों को देखते ही महसूस किया, किन्तु जब उसने अपने लिए लाया गया भेड़ की खाल का कोट पहन लिया, अपने को अच्छी तरह ढक-ढकाकर स्लेज में बैठकर चल दिया तथा स्लेज में एक ओर को जुते दोन प्रदेश के तेज़, किन्तु अब मरियल घोड़े को देखते हुए, जो कभी उसकी सवारी का घोड़ा होता था, जब वह यह सोचने लगा कि गाँव पहुंचते ही उसे क्या आदेश देने होंगे, तो उसके साथ जो कुछ बीती थी, उसे बिल्कुल दूसरे ही रूप में देखने लगा। उसने अपने व्यक्तित्व को अनुभव किया और यह कि वह किसी दूसरे जैसा नहीं होना चाहता था। वह जैसा पहले था, उससे बेहतर बनने को इच्छुक था। पहले तो, इस दिन से उसने यह फैसला किया कि किसी ऐसे असाधारण सुख की आशा नहीं करेगा, जैसाकि उसे शादी से मिलना चाहिए और इसके नतीजे के तौर पर वर्तमान की अवहेलना नहीं करेगा। दूसरे, वह अपने को कभी भी तुच्छ वासनाओं का शिकार नहीं होने देगा, जिनकी याद आने से विवाह का प्रस्ताव करते समय उसे इतनी यातना अनुभव हुई थी। इसके बाद, भाई निकोलाई का ध्यान आने पर उसने मन-ही-मन यह भी फैसला किया कि अब कभी उसे नहीं भूलेगा, लगातार उसकी खैर-खबर लेता रहेगा, उससे सम्पर्क नहीं टूटने देगा और मुसीबत के वक़्त उसकी मदद करने को तैयार रहेगा। वह महसूस कर रहा था कि उसकी मदद करने का वक़्त बहुत जल्द ही आनेवाला है। फिर उसे भाई के साथ कम्युनिज़्म के बारे में हुई बातचीत याद आई, जिसकी ओर उस समय उसने ख़ास ध्यान नहीं दिया था। उस बातचीत ने अब उसे सोचने को मजबूर कर दिया। आर्थिक परिस्थितियों को बदल देने की बात वह बेकार समझता था, किन्तु आम जनता की गरीबी की तुलना में अपनी समृद्धि को वह हमेशा अन्यायपूर्ण अनुभव करता रहा था और इसलिए उसने अपने दिल में यह तय किया कि यद्यपि वह पहले भी बहुत काम करता था तथा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन नहीं बिताता था, फिर भी अपने को न्यायसंगत अनुभव करने के लिए अब पहले से भी ज्यादा काम और पहले से भी कम सुख-सुविधाओं का उपभोग करेगा। उसे यह सब कुछ करना बहुत आसान लगा और मधुर कल्पनाओं में ही उसका सारा रास्ता गुज़र गया। नए और बेहतर जीवन की उत्साहपूर्ण तथा सुखद भावनाएँ हृदय में सँजोए हुए वह रात के आठ बजने के बाद घर पहुंचा।
लेविन की गृह-प्रबन्धिका की भूमिका निभानेवाली बूढ़ी आया अगाफ़्या मिखाइलोव्ना के कमरे की खिड़कियों से घर के सामनेवाले अहाते में बर्फ पर रोशनी पड़ रही थी। वह अभी सोई नहीं थी। उसने कुज्मा नौकर को जगाया, जो नींद में ऊँघता-सा नंगे पाँव ही बाहर भागा आया। शिकारी कुतिया लास्का भी कुज्मा को लगभग गिराते हुए उछलकर बाहर भागी, खुशी से कूँ-कूँ करते हुए उसने लेविन के घुटनों से अपने को रगड़ा, उसकी छाती पर अपने अगले पंजे टिकाने की इच्छा रखते, किन्तु हिम्मत न कर पाते हुए ऊपर को उछली।
"जल्द ही लौट आए, मालिक !" अगाफ़्या मिखाइलोव्ना ने कहा।
“घर की बेहद याद आने लगी थी, अगाफ़्या मिखाइलोव्ना। जो सुख अपने चौबारे, वह न बलख न बुखारे," उसने जवाब दिया और अपने अध्ययन-कक्ष में चला गया।
मोमबत्ती लाई गई और कमरा धीरे-धीरे रौशन होने लगा। जानी-पहचानी चीजें-हिरन के सींग, पुस्तकों से भरे ताक़, वायु-छिद्र सहित अँगीठी, जिसकी अर्से से मरम्मत करवाने की ज़रूरत थी, पिता का सोफ़ा, बड़ी मेज़, मेज़ पर खुली हुई पुस्तक, टूटी हुई राखदानी और उसकी अपनी लिखावटवाली कॉपी। लेविन ने जब यह सब कुछ देखा, तो घड़ी भर के लिए उसे नई ज़िन्दगी को शुरू कर पाने की सम्भावना के बारे में सन्देह हुआ, जिसकी वह रास्ते-भर कल्पना करता रहा था। उसके जीवन के इन सभी चिह्नों ने मानो उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया और वे यह कहते प्रतीत हुए-'नहीं, तुम हमें छोड़कर नहीं जाओगे और बदलोगे भी नहीं, बल्कि जैसे थे, वैसे ही रहोगे-सन्देहों से ग्रस्त, अपने प्रति हमेशा खीज महसूस करते हुए, सुधार की व्यर्थ कोशिश करते और पतित होते तथा सुख की निरन्तर प्रतीक्षा करते हुए, जो तुम्हारी किस्मत में नहीं है और जिसे पाना तुम्हारे लिए सम्भव नहीं है।'
ऐसा कह रही थीं उसकी चीजें, लेकिन उसकी आत्मा में कोई दूसरी आवाज़ यह कह रही थी कि अतीत के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिए और आदमी में सभी कुछ कर पाने की क्षमता है। इसी आवाज़ पर कान देते हुए वह उस कोने की तरफ़ बढ़ गया, जहाँ सोलह-सोलह सेर वज़न के दो डम्बेल रखे हुए थे और अपने में ताज़गी तथा स्फूर्ति लाने के लिए वह उनसे कसरत करने लगा। दरवाज़े पर पैरों की आहट सुनाई दी। उसने जल्दी से डम्बेल नीचे रख दिए।
कारिन्दे ने भीतर आकर यह बताना शुरू किया कि भगवान की दया से सब कुछ ठीक-ठाक है, लेकिन अनाज सुखाने के नए भट्ठे में कोटू कुछ जल गया है। इस ख़बर से लेविन झल्ला उठा। अनाज सुखाने का नया भट्ठा उसने खुद बनवाया था और कुछ हद तक उसके अपने दिमाग की उपज था। कारिन्दा हमेशा ही इस अनाज-सुखाऊ भट्ठे के ख़िलाफ़ रहा था और अब अपने ख़याल की जीत को बुरे ढंग से छिपाते हुए उसने यह घोषणा की कि कोटू जल गया। लेविन को इस बात का पक्का यक़ीन था कि अगर कोटू जल गया है, तो सिर्फ इसलिए कि सतर्कता के वे उपाय नहीं किए गए होंगे, जिनके बारे में वह सैकड़ों बार आदेश दे चुका था। उसे बहुत बुरा लगा और उसने कारिन्दे को डाँटा-डपटा। । लेकिन एक महत्त्वपूर्ण और बड़ी खुशी की बात भी हुई थी-सबसे बढ़िया, महँगी और पशुओं के मेले में खरीदी गई पावा नामक गाय ने बछड़ा जना था।
"कुज्मा, भेड़ की खाल का मेरा कोट तो देना। और आप लालटेन लाने को बोल दीजिए," उसने कारिन्दे से कहा, "मैं जाकर उसे देखता हूँ।"
महँगी, गउओं की पशुशाला घर के बिल्कुल ही पीछे थी। अहाते को लाँघकर, जहाँ लिलक झाड़ियों के क़रीब बर्फ़ का ढेर था, वह पशुशाला तक पहुंच गया। जब उसने ठंड से अकड़े हुए दरवाज़े को खोला तो गोबर की गर्म भाप की गन्ध आई और लालटेन की रोशनी की अनभ्यस्त गउएँ हैरान होकर ताज़ा फूस पर हिलीं-डुलीं। हालैंडी नस्ल की गाय की चौड़ी और मुलायम काली-चितकबरी पीठ की झलक मिली। बेकूत साँड, जिसके होंठ में छल्ला था, लेटा हुआ था। उसने उठना चाहा, मगर फिर अपना इरादा बदल लिया और जब ये लोग उसके क़रीब से गुज़रे, तो उसने सिर्फ दो बार साँस ही छोड़ी। बहुत ही सुन्दर और दरियाई घोड़े की तरह विशालकाय पावा आनेवालों की तरफ़ पुट्ठा करके अपने बछड़े को ओट में किए हुए सूंघ रही थी।
लेविन ने बाड़े में जाकर पावा को गौर से देखा और लाल-चितकबरे बछड़े को उसकी लम्बी, लड़खड़ाती टाँगों पर खड़ा किया। पावा घबराकर रम्भाने को हुई, मगर जब लेविन ने बछड़े को उसकी तरफ़ बढ़ा दिया, तो शान्त हो गई और गहरी साँस लेकर उसे अपनी खुरदरी ज़बान से चाटने लगी। बछड़े ने थनों को ढूँढ़ते हुए अपनी थूथनी माँ के पेट के नीचे घुसेड़ दी और पूँछ हिलाई।
"हाँ, इधर रोशनी करो, फ़्योदोर, इधर लालटेन बढ़ाओ," लेविन ने बछड़े को ध्यान से देखते हुए कहा। “माँ पर गया है। रंग बाप का पाया है। बहुत ही सुन्दर है। बड़े आकार का, चौड़े पुट्ठेवाला। वसीली फ़्योदोरोविच, है न बढ़िया ?" लेविन ने बछड़े की खुशी के प्रभाव में कोटू की बात को पूरी तरह भूलकर कारिन्दे से पूछा।
"बुरा क्यों होने लगा था ? सिम्योन ठेकेदार आपके जाने के अगले दिन ही आ गया था। उसके साथ मामला तय करना होगा, कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच," कारिन्दे ने कहा। "मैं तो मशीन के बारे में आपसे पहले ही कह चुका हूँ।"
एक इसी सवाल से अपने बड़े और जटिल धन्धे की सारी तफ़सीलें लेविन के सामने उभर आईं और वह पशुशाला से सीधा अपने दफ्तर में गया, वहाँ कारिन्दे तथा ठेकेदार के साथ बातचीत करके घर लौटा और ऊपर, मेहमानखाने में चला गया।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 27-भाग 1)
मकान बड़ा और पुराना था और यद्यपि लेविन अकेला था, फिर भी सारे घर को गर्म करवाता था और उसने पूरे घर पर अधिकार जमा रखा था। वह जानता था कि यह मूर्खता है, कि उसकी नई योजनाओं को ध्यान में रखते हुए ऐसा करना बुरा और उनके विरुद्ध भी है, लेकिन उसके लिए यह घर एक पूरी दुनिया के समान था। यह वह दुनिया थी, जिसमें उसके माता-पिता रहे और पूरे हुए थे। उन्होंने ऐसा जीवन बिताया था, जो लेविन को पूर्णता का आदर्श प्रतीत होता था और जिसे वह अपनी पत्नी, अपने परिवार के साथ पुनर्जीवित करने का सपना देखता था।
लेविन को अपनी माँ की बहुत ही कम याद थी। माँ के बारे में उसकी धारणा पावन स्मृति के रूप में थी और उसकी कल्पना में उसकी भावी पत्नी को नारी के उसी श्रेष्ठ और पावन आदर्श का प्रतिरूप होना चाहिए था, जैसीकि उसके लिए उसकी माँ थी।
शादी के बिना वह न केवल नारी के प्रति प्यार की ही कल्पना नहीं कर सकता था, बल्कि परिवार के बाद ही उस नारी की कल्पना करता था, जो उसका परिवार बनाएगी। इसीलिए विवाह के बारे में उसकी धारणाएँ उसके अधिकांश परिचितों से भिन्न थीं, जो शादी को ज़िन्दगी की मामूली बातों में से एक मानते थे। लेविन के लिए तो यह जीवन की मुख्य बात थी, जिस पर उसका सुख-सौभाग्य निर्भर था। और अब उसे इससे इनकार करना पड़ रहा था !
जब वह छोटे मेहमानखाने में दाखिल हुआ, जहाँ हमेशा चाय पीता था, और किताब लेकर अपनी आरामकुर्सी में बैठ गया तथा अगाफ़्या मिखाइलोव्ना उसके लिए चाय ले आई और वही वाक्य, जो आमतौर पर कहती थी-'मालिक, मैं भी बैठ जाती हूँ'-कहकर खिड़की के क़रीब कुर्सी पर बैठ गई, तो उसने महसूस किया कि चाहे यह कितनी ही अजीब बात क्यों न हो, लेकिन उसने सपनों से नाता नहीं तोड़ा था और यह कि वह उनके बिना ज़िन्दा नहीं रह सकता। कीटी या किसी अन्य के साथ, लेकिन ऐसा होकर ही रहेगा। वह किताब पढ़ रहा था, जो पढ़ता था, उस पर विचार करता था और बीच-बीच में अगाफ़्या मिखाइलोव्ना को सुनने के लिए, जो लगातार बोलती जा रही थी, रुक जाता था। साथ ही खेतीबारी के धन्धे और भावी पारिवारिक जीवन के असम्बद्ध चित्र भी उसकी कल्पना में उभरते आते थे। उसे अनुभव हो रहा था कि उसकी आत्मा की गहराई में कोई चीज़ जड़ जमा रही है, सन्तुलित और सशक्त हो रही है।
उसने अगाफ़्या मिखाइलोव्ना की यह बात सुनी कि कैसे प्रोखोर भगवान को भूलकर उस रकम से, जो लेविन ने उसे घोड़ा ख़रीदने को उपहारस्वरूप दी थी, लगातार पीता रहता है और उसने बीवी को पीट-पीटकर मौत के मुँह तक पहुँचा दिया है। वह सुनता हुआ किताब पढ़ता रहा और पढ़ने से मन में पैदा होनेवाले सभी विचारों को उसने एक सिलसिले में जोड़ लिया। वह ताप के सम्बन्ध में टिंडाल की किताब पढ़ रहा था। टिंडाल ने अपने प्रयोगों के परिणामों पर जो गर्व प्रकट किया था, लेविन को उसके बारे में अपनी आलोचनाएँ और यह याद आ गया कि उसके पास दार्शनिक दृष्टिकोण की कमी है। अचानक यह खुशी-भरा ख़याल उसके दिमाग में कौंध गया : 'दो साल बाद मेरे पशुओं के झुंड में दो हालैंडी गउएँ होंगी, हो सकता है कि खुद पावा भी तब तक जीती रहे, बेकूत की बारह बेटियाँ और यह तीन भी इस झुंड में शामिल हो जाएँगी-कमाल हो जाएगा ! वह फिर से किताब पढ़ने लगा।
'चलो, मान लिया कि विद्युत और ताप एक ही चीज़ है। किन्तु क्या प्रश्न को हल करने के लिए समीकरण में एक की जगह पर दूसरा परिमाण रखा जा सकता है ? नहीं। तो बात क्या बनी ? प्रकृति की सभी शक्तियों के बीच सम्बन्ध की तो सहज ज्ञान से ही अनुभूति होती है...यह बात तो विशेष रूप से सुखद है कि जब पावा की लाल-चितकबरी बछिया गाय बन जाएगी, तो इन तीनों के साथ मेरा पशु-झुंड कैसा होगा...बहुत ही बढ़िया ! पशुओं के लौटने के समय मैं अपनी पत्नी और मेहमानों के साथ बाहर जाऊँगा...पत्नी कहेगी : 'इस बछिया को तो मैंने और कोस्त्या ने बच्चे की तरह पाला-पोसा है। कोई मेहमान पूछेगा : 'आपको भला इसमें इतनी दिलचस्पी कैसे हो सकती है ?' वह जवाब देगी : 'जो कोस्त्या को अच्छा लगता है, मुझे भी अच्छा लगता है। लेकिन 'वह' कौन होगी ?' और उसे यह याद आ गया, जो उसके साथ मास्को में हुआ था... लेकिन हो ही क्या सकता है ?...मेरा तो कोई क़सूर नहीं है। हाँ, अब सब कुछ नए ढंग से होगा। यह बकवास है कि जीवन ऐसा नहीं होने देगा, कि अतीत वर्तमान को बदलने नहीं देगा। आदमी को बेहतर, पहले से कहीं अच्छी ज़िन्दगी बिताने के लिए संघर्ष करना चाहिए...' लेविन ने अपना सिर ऊपर उठाया और विचारों में डूब गया। बूढ़ी शिकारी कुतिया लास्का, जो अभी तक मालिक के लौटने की खुशी को पूरी तरह पचा नहीं पाई थी, अहाते में इधर-उधर दौड़ने और भौंकने के बाद लौट आई, बाहर की ताज़ा हवा की गन्ध लिए और दुम हिलाती हुई लेविन के पास गई, अपना सिर उसके हाथ के नीचे घुसेड़ दिया और शिकायती अन्दाज़ में कूँ-कूँ करते हुए यह माँग करने लगी कि वह उसे सहलाए, प्यार करे।
"बस, बोल नहीं सकती," अगाफ़्या मिखाइलोव्ना ने कहा। “लेकिन कुतिया...वह भी यह समझती है कि मालिक लौट आया है और उसे ऊब महसूस हो रही है।"
"ऊब किसलिए महसूस होगी ?"
"मेरी क्या आँखें नहीं, मालिक ? अब भी अपने मालिकों को नहीं समझूँगी, तो कब समझूँगी ? बचपन से ही मालिकों के बीच बड़ी हुई हूँ। कोई बात नहीं, मालिक। अच्छी सेहत और दिल साफ़ होना चाहिए।"
लेविन इस बात से हैरान होते हुए कि कैसे उसने उसके दिल के भावों को पढ़ लिया था, उसे एकटक देख रहा था।
"तो क्या थोड़ी और चाय ले आऊँ ?" अगाफ़्या मिखाइलोव्ना ने कहा और प्याला लेकर बाहर चली गई।
लास्का अभी तक अपना सिर उसके हाथ के नीचे घुसेड़े थी। लेविन ने उसे सहला दिया और वह उसी समय अपने एक पिछले पंजे पर सिर टिकाकर लेविन के पैरों के पास गुड़ी-मुड़ी होकर लेट गई। इस बात को ज़ाहिर करने के लिए कि अब सब कुछ ठीक है, बहुत अच्छा है। उसने थोड़ा-सा अपना मुँह खोला, होंठों से चटखारा-सा भरा और अपने लसलसे होंठों को पुराने दाँतों के करीब ढंग से टिकाकर आनन्द-चैन की दुनिया में खो गई। लेविन लास्का की इस अन्तिम चेष्टा को बहुत ध्यान से देखता रहा।
मैं भी ऐसा ही चैन चाहता हूँ !' उसने अपने आपसे कहा, 'मैं भी ऐसा ही चैन चाहता हूँ ! कोई बात नहीं...सब ठीक है।'
अन्ना करेनिना : (अध्याय 28-भाग 1)
बॉल के बाद की सुबह को आन्ना ने अपने पति के नाम तार भेजकर यह सूचना दी कि वह उसी दिन मास्को से रवाना हो रही है।
“नहीं, मुझे जाना, जाना ही चाहिए,” उसने अपने इरादे की तब्दीली को ऐसे अन्दाज़ में अपनी भाभी के सामने स्पष्ट किया मानो उसे ढेरों काम याद आ गए हों। “नहीं, आज ही जाना ज़्यादा अच्छा होगा !"
ओब्लोन्स्की दोपहर के खाने के लिए घर नहीं आया, लेकिन वादा किया कि शाम के सात बजे बहन को विदा करने आ जाएगा।
कीटी भी दोपहर के खाने के वक़्त नहीं आई और उसने यह रुक्का लिख भेजा कि उसके सिर में दर्द है। डॉली और आन्ना ने बच्चों तथा उनकी अंग्रेज़ शिक्षिका के साथ खाना खाया। या तो इस कारण कि बच्चों के व्यवहार में स्थिरता नहीं होती या इसलिए कि वे हर चीज़ को बहुत जल्दी भाँप जाते हैं और इसी वजह से उन्होंने यह महसूस कर लिया कि आन्ना आज वैसी ही नहीं थी, जैसीकि अपने मास्को आने के दिन थी, जब उन्हें उससे इतना अधिक प्यार हो गया था, कि अब उसे उनमें कोई दिलचस्पी नहीं है-कारण कुछ भी हो, लेकिन उन्होंने बूआ के साथ अचानक ही अपना खेल और उसके प्रति प्यार भी खत्म कर दिया। उन्हें इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं थी कि वह जा रही है। आन्ना सारी सुबह जाने की तैयारियों में व्यस्त रही। उसने मास्को के परिचितों को रुक़्क़े लिखे, अपना हिसाब नोट किया और सामान बाँधा। डॉली को लगा कि आन्ना मन में बहुत बेचैन है, कि वह ऐसी चिन्ताओं-परेशानियों में डूबी हुई है, जिन्हें डॉली अपने अनुभव से बहुत अच्छी तरह जानती थी, जो अकारण ही नहीं होती और जिनमें अक्सर अपने प्रति असन्तोष और खीज का भाव छिपा रहता है। दोपहर के खाने के बाद आन्ना कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में गई और डॉली भी उसके पीछे-पीछे वहाँ जा पहुंची।
"आज तुम कैसी अजीब-अजीब-सी हो !" डॉली ने उससे कहा।
"मैं ? तुम्हें ऐसा लगता है ? मैं अजीब-अजीब-सी नहीं हूँ, लेकिन मेरा मूड बहुत ख़राब है। मेरे साथ कभी-कभी ऐसा होता है। जी चाहता है कि खूब रोऊँ। यह निरा पागलपन है, लेकिन जल्द ही यह दूर हो जाता है," आन्ना ने जल्दी से कहा और अपने लाल हुए चेहरे को उस छोटी-सी थैली में छिपा लिया, जिसमें वह अपनी रात की टोपी और महीन रूमाल रख रही थी। उसकी आँखें विशेष रूप से चमक रही थीं और उनमें लगातार आँसू उमड़ते आ रहे थे। “ऐसे ही मैं पीटर्सबर्ग से नहीं आना चाहती थी और अब यहाँ से जाने को मन नहीं होता।"
"तुमने यहाँ आकर एक नेक काम किया है," बहुत ध्यान से आन्ना को देखते हुए डॉली ने कहा।
आन्ना ने आँसुओं से भीगी हुई आँखों से उसकी तरफ़ देखा।
"ऐसा नहीं कहो, डॉली। मैंने कुछ नहीं किया और कुछ भी नहीं कर सकती थी। मैं अक्सर यह सोचकर हैरान होती रहती हूँ कि लोगों ने मुझे बिगाड़ने की साज़िश-सी क्यों कर रखी है ? मैंने क्या किया है और कर ही क्या सकती थी ? यह तो तुम्हारे दिल में ही इतना प्यार बाक़ी था कि तुम उसे माफ़ कर सकीं..."
"भगवान ही जानता है कि तुम्हारे बिना क्या होता। तुम कितनी खुशक़िस्मत हो, आन्ना !" डॉली ने कहा। "तुम्हारी आत्मा में सब कुछ स्पष्ट और अच्छा है।"
"हर किसी की आत्मा में, जैसा कि अंग्रेज़ कहते हैं, अपने skeletons (पंजर यानी परेशानियाँ-अंग्रेज़ी) होते हैं।"
"तुम्हारी आत्मा में कैसे skeletons हो सकते हैं ? तुम्हें सब कुछ स्पष्ट है।"
"हैं, skeletons हैं," आन्ना ने अचानक कहा और आँसुओं के बाद बिल्कुल अप्रत्याशित ही उसके होंठों पर धूर्तता और उपहासपूर्ण मुस्कान झलक उठी।
"तो तुम्हारे ये skeletons मनोरंजक हैं, दुःखद नहीं," डॉली ने मुस्कुराते हुए कहा।
"नहीं, दुःखद हैं। जानती हो कि मैं कल के बजाय आज क्यों जा रही हूँ ? यह वह स्वीकारोक्ति है, जो मेरे पर बोझ बनी हुई थी। मैं उसे तुम्हारे सामने मानना चाहती हूँ," आन्ना ने कुर्सी पर सीधे बैठते और डॉली से आँखें मिलाते हुए दृढ़तापूर्वक कहा।
डॉली ने बहुत हैरान होते हुए देखा कि आन्ना शर्म से बिल्कुल लाल हो गई है, कि यह लाली उसकी गर्दन पर लहराते काले केश-कुंडलों तक जा पहुँची है।
तो सुनो," आन्ना ने कहना जारी रखा। "तुम जानती हो कि कीटी दोपहर के खाने पर क्यों नहीं आई ? वह मुझसे ईर्ष्या करती है। मैंने सब गड़बड़ कर दिया...मैं ही इसका कारण थी कि बॉल उसके लिए खुशी न होकर यातना बन गया। लेकिन यह सच है, बिल्कुल सच है कि इसके लिए मैं दोषी नहीं हूँ या थोड़ी-सी दोषी हूँ," उसने पतली-सी आवाज़ में 'थोड़ी-सी' शब्दों को खींचते हुए कहा।
"ओह, कैसे स्तीवा की तरह ही तुमने यह कहा है !" डॉली हँसते हुए कह उठी।
आन्ना को बुरा लगा।
"ओह, नहीं; ओह, नहीं ! मैं स्तीवा जैसी नहीं हूँ," वह नाक-भौंह सिकोड़ते हुए बोली। “मैं इसलिए तुमसे कह रही हूँ कि मैं एक क्षण के लिए भी स्वयं को संशय का शिकार नहीं होने देती," आन्ना ने कहा।
लेकिन वह जब ये शब्द कह रही थी, तो उसने अनुभव किया कि वे सही नहीं हैं। उसे अपने मन में न केवल संशय की ही अनुभूति हो रही थी, बल्कि व्रोन्स्की का विचार आने पर बेचैनी भी महसूस करती थी और सिर्फ इसीलिए वक़्त से पहले यहाँ से जा रही थी कि उससे फिर भेंट न हो।
“हाँ, स्तीवा ने मुझे बताया था कि तुम उसके साथ माजूर्का नाच नाची थीं और यह कि वह..."
"तुम तो कल्पना भी नहीं कर सकतीं कि यह सारा क़िस्सा कितना अटपटा था। मैंने तो उन दोनों की जोड़ी मिलानी चाही और अचानक बिल्कुल उल्टा ही मामला हो गया। हो सकता है कि मैं अनचाहे ही..."
आन्ना के चेहरे पर लाली दौड़ गई और उसने अपनी बात पूरी नहीं की। "अरे, वे ऐसी बातें फ़ौरन भाँप जाते हैं !" डॉली ने कहा।
"अगर उसने संजीदगी से कुछ ऐसा इरादा ज़ाहिर करना चाहा, तब तो मुझे बहुत दुःख होगा," आन्ना ने डॉली की बात बीच में ही काट दी। “मुझे विश्वास है कि यह सब आई-गई बात हो जाएगी और कीटी मुझसे नफ़रत करना बन्द कर देगी।"
“वैसे आन्ना, तुमसे सच कहूँ, मैं तो चाहती भी नहीं कि उसके साथ कीटी की शादी हो। अगर वह यानी व्रोन्स्की एक ही दिन में तुम्हारा प्रेम-दीवाना हो सकता है, तो मैं तो यही चाहूँगी कि यह किस्सा खत्म हो जाए।"
“आह, मेरे भगवान, यह बड़ी बेवकूफ़ी की बात होगी !" आन्ना ने कहा और उसी विचार को, जो उसके दिल-दिमाग पर छाया हुआ था, डॉली के मुँह से शब्दों में सुनकर उसके चेहरे पर फिर से खुशी की गाढ़ी लालिमा छा गई। "तो कीटी को, जिससे मुझे इतना अधिक प्यार हो गया था, अपनी दुश्मन बनाकर मैं यहाँ से जा रही हूँ। ओह, कितनी प्यारी है वह ! लेकिन तुम इस मामले को ठीक-ठाक कर दोगी न, डॉली ? कर दोगी न?"
डॉली ने बड़ी मुश्किल से अपनी मुस्कान पर काबू पाया। वह आन्ना को प्यार करती थी, लेकिन यह देखकर उसे खुशी हुई कि उसकी भी अपनी कमज़ोरियाँ हैं।
"दुश्मन ? ऐसा नहीं हो सकता।"
"कितना अधिक मैं यह चाहती हूँ कि तुम सब मुझे वैसे ही प्यार करो, जैसे मैं तुम सबको करती हूँ। और अब तो मैं तुम सबको और भी ज़्यादा चाहने लगी हूँ,” उसने डबडबाई आँखों से कहा। “आह, कितनी बुद्धू हूँ मैं आज !"
आन्ना ने रूमाल से मुँह पोंछा और कपड़े पहनने लगी।
ओब्लोन्स्की ने आने में देर कर दी और रवाना होने के वक़्त ही घर पर पहुँचा। उसका चेहरा लाल और खिला हुआ था तथा उसके मुँह से सिगार तथा शराब की गन्ध आ रही थी।
आन्ना की भावुकता डॉली के मन पर भी हावी हो गई और ननद के जाने के पहले जब उसने उसे आखिरी बार गले लगाया, तो फुसफुसाई :
"मेरे ये शब्द याद रखना, आन्ना, तुमने मेरे लिए जो कुछ किया है, मैं उसे कभी नहीं भूलूंगी। और यह भी याद रखना कि मैं तुम्हें प्यार करती थी और हमेशा एक सबसे अच्छे मित्र के रूप में प्यार करती रहूँगी !"
"मेरी समझ में नहीं आ रहा कि किसलिए," आन्ना ने भावज को चूमते और अपने आँसू छिपाते हुए कहा।
"तुम जानती हो और तुमने मेरी बात समझ ली है। विदा, मेरी प्यारी रानी !"
अन्ना करेनिना : (अध्याय 29-भाग 1)
"तो सब किस्सा ख़त्म हो गया, भला हो भगवान का," तीसरी घंटी बजने पर भी डिब्बे का रास्ता रोककर खड़े हुए अपने भाई से अन्तिम बार विदा लेने पर उक्त विचार ही आन्ना के दिमाग में सबसे पहले आया। वह अपनी नौकरानी आन्नुश्का के क़रीब सोफे पर बैठ गई और मद्धिम रोशनी में डिब्बे में नज़र दौड़ाने लगी। 'शुक्र है खुदा का, कल अपने बेटे सेर्योझा और अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच को देख सकूँगी और पहले की तरह मेरा अच्छा तथा अभ्यस्त जीवन आरम्भ हो जाएगा।'
आन्ना दिन-भर जिस चिन्ताकुल मानसिक स्थिति में रही थी, उसी स्थिति में उसने बड़ी खुशी और अच्छे ढंग से यात्रा के लिए सब कुछ ठीक-ठाक किया। अपने छोटे-छोटे और फुर्तीले हाथों से उसने लाल रंग का बैग खोला और बन्द किया, उसमें में छोटा तकिया निकाला, उसे घुटनों पर रख लिया और पैरों को अच्छी तरह से ढककर चैन से बैठ गई। एक बीमार महिला सोने के लिए लेट गई थी। दूसरी दो महिलाओं ने आन्ना से बातचीत शुरू कर दी और एक मोटी बुढ़िया ने अपने पैरों को अच्छी तरह से ढकते हुए गर्माहट की कमी की शिकायत की। आन्ना ने महिलाओं को जवाब में कुछ शब्द कहे और उनकी बातचीत में कोई दिलचस्पी न महसूस करते हुए आन्नुश्का से टॉर्च निकालने को कहा, उसे कुर्सी के हत्थे पर जमाया और अपने पर्स में से काग़ज़ काटने का छोटा-सा चाकू और एक अंग्रेज़ी उपन्यास निकाल लिया। शुरू में उसका पढ़ने में मन नहीं लग सका। पहले तो हलचल और लोगों के आने-जाने से बाधा पड़ी, इसके बाद गाड़ी के चलने पर सभी तरह की आवाज़ों को सुने बिना नहीं रहा जा सकता था, इसके पश्चात बर्फ़ ने बाधा डाली, जो बाईं ओर की खिड़की पर ज़ोर से टकराकर शीशे पर चिपकती जा रही थी, इसके बाद कपड़ों से लदा-फंदा और एक पहलू बर्फ से बुरी तरह ढका हुआ कंडक्टर पास से गुज़रा और फिर इस बातचीत ने भी किताब में उसका ध्यान नहीं लगने दिया कि इस वक़्त बाहर कितना भयानक बर्फ़ का तूफ़ान चल रहा है। बाद में बार-बार यही सब कुछ होता रहा-पहियों की वही खटखट जारी थी, खिड़की पर वही बर्फ़ थी, भाप की गर्मी से ठंड और फिर से गर्मी का द्रुत परिवर्तन होता था, मद्धिम रोशनी में वही चेहरे रह-रहकर झलकते थे, वही आवाजें सुनाई देती थीं और आन्ना इनकी अभ्यस्त होकर किताब को पढ़ने तथा पढ़े हुए पृष्ठों को समझने लगी। आन्नुश्का दस्ताने लगे, जिनमें से एक फटा हुआ था, चौड़े हाथों में लाल बैग को घुटनों पर टिकाए ऊँघ रही थी। आन्ना पढ़ रही थी और यह समझ रही थी कि उसे पढ़ना अच्छा नहीं लग रहा है, यानी दूसरे लोगों के जीवन की छाया को देखना-समझना अच्छा नहीं लग रहा था। स्वयं उसका बहुत मन हो रहा था जीने को। अगर उसने यह पढ़ा कि उपन्यास की नायिका बीमार की देखभाल करती थी, तो उसका भी मन हुआ दबे पाँव रोगी के कमरे में जाने को; अगर यह पढ़ा कि संसद-सदस्य ने भाषण दिया, तो उसके मन ने भी ऐसा करना चाहा; अगर यह पढ़ा कि लेडी मेरी दरिन्दों के झुंड के पीछे साहसपूर्वक घुड़सवारी करती हुई जाती है और अपनी भाभी का मुँह चिढ़ाती है, तो उसका भी यही करने को दिल मचला। लेकिन वह कुछ भी नहीं कर सकती थी और अपने छोटे-छोटे हाथों में पॉलिश किए हुए चाकू को घुमाती हुई पढ़ने की कोशिश कर रही थी।
उपन्यास का नायक अंग्रेज़ी ढंग का अपना सुख यानी बैरोनेट का पद और जागीर पाने को था और आन्ना ने चाहा कि वह उसके साथ उस जागीर पर जाए। तभी अचानक उसने महसूस किया कि नायक को शर्म आनी चाहिए और यह कि खुद उसे भी उसकी इस शर्म की भागीदार होना चाहिए। लेकिन नायक को किस कारण शर्म आए ? 'मुझे क्यों शर्म आए ?' उसने बुरा मानते हुए आश्चर्य से पूछा। उसने पुस्तक रख दी और कागज़ काटने के चाकू को दोनों हाथों में कसकर पकड़े हुए आरामकुर्सी की टेक पर पीठ टिका दी। शर्म की कोई बात नहीं थी। उसने मास्को की अपनी सारी स्मृतियों को मन-ही-मन दोहराया। सभी अच्छी और सुखद थीं। उसे बॉल याद आया, व्रोन्स्की और उसका प्यार में डूबा हुआ विनम्र चेहरा याद आया, उसके साथ अपने सभी सम्बन्धों का ध्यान आया-शर्म की कोई भी बात नहीं थी। लेकिन फिर भी स्मृतियों की ठीक इसी जगह पर शर्म की भावना तीव्र हो गई, मानो किसी भीतरी आवाज़ ने इसी जगह पर, यानी जब उसने व्रोन्स्की को याद किया, उससे कहा : 'यही, यही शर्म की बात है।' 'तो क्या हुआ ?' उसने आरामकुर्सी में दूसरे ढंग से बैठते हुए दृढ़तापूर्वक अपने से यह पूछा। 'क्या मतलब है इसका ? क्या मैं इस बात से आँख नहीं मिला सकती ? क्या बात है इसमें ? क्या मेरे और इस अफ़सर-छोकरे के बीच उन सम्बन्धों के अतिरिक्त, जो अन्य सभी परिचितों के साथ हैं, क्या कोई दूसरे सम्बन्ध हैं या हो सकते हैं ?' वह तिरस्कारपूर्वक मुस्कुराई और उसने फिर से किताब हाथ में ले ली। किन्तु अब जो कुछ पढ़ती थी, वह बिल्कुल उसकी समझ में नहीं आ रहा था। उसने कागज़ काटने के चाकू को ठंडे शीशे से लगाया और फिर उसकी ठंडी और चिकनी सतह को अपने गाल से छुआया और अचानक अकारण ही हावी हो जानेवाली खुशी से हँसते-हँसते रह गई। उसने अनुभव किया कि उसके स्नायु किन्हीं घूमनेवाली खूँटियों पर तारों की भाँति अधिकाधिक ज़ोर से कसे जा रहे हैं। उसने महसूस किया कि उसकी आँखें अधिकाधिक विस्फारित होती जा रही हैं, कि हाथों और पैरों की उँगलियाँ घबराहट से ऐंठ रही हैं, कि भीतर से कोई चीज़ उसका दम घोंट रही है और इस हिलते-डुलते झुटपुटे में सभी बिम्ब तथा ध्वनियाँ असाधारण आकार और रूप धारण करके उसे चकित कर रही हैं। रह-रहकर शंका उसके मन में सिर उठाती कि गाड़ी आगे जा रही है या पीछे या वह चल ही नहीं रही है। उसके क़रीब आन्नुश्का है या कोई परायी औरत ? 'वहाँ, कुर्सी के हत्थे पर फ़र का कोट है या कोई जंगली जानवर ? मैं खुद तो यहाँ पर हूँ ? मैं खुद ही हूँ या यह कोई दूसरी है ? विस्मृति की इस स्थिति के सामने घुटने टेकते हुए उसे भय अनुभव हुआ। लेकिन कोई चीज़ उसे उसकी तरफ़ खींच रही थी और वह अपनी इच्छा के मुताबिक़ उसके सामने झुक भी सकती थी और उसका विरोध भी कर सकती थी। वह सँभलने के लिए उठी और उसने कम्बल तथा गर्म फ़्रॉक का केप उतार दिया। घड़ी-भर को वह सँभली और समझ गई कि लम्बा, नानकिन ओवरकोट पहने, जिसका एक बटन गायब था, भीतर आनेवाला देहाती-सा आदमी स्टोवमैन था, कि उसने थर्मामीटर को देखा था, कि हवा और बर्फ उसके साथ अन्दर घुस आई थीं; लेकिन इसके बाद उसकी चेतना में फिर से सब कुछ गड्ड-मड्ड हो गया था...लम्बे ओवरकोटवाला यह देहाती दीवार पर कुछ टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियाँ बनाने लगा, बुढ़िया पूरे डिब्बे में अपनी टाँगें फैलाने लगी और उसने डिब्बे को काले बादल से भर दिया, इसके बाद भयानक चरचराहट और ठक-ठक हुई मानो कुछ चीरा-काटा जा रहा हो, इसके पश्चात लाल रोशनी से उसकी आँखें चौंधिया गईं, इसके बाद दीवार-सी सामने आ गई और सब कुछ अँधेरे में डूब गया। आन्ना को लगा कि वह किसी गहरे खड्ड में जा गिरी है। किन्तु यह सब भयावह नहीं, बल्कि सुखद था। कपड़ों से लदा-फँदा और बर्फ से ढका आदमी उसके कानों के क़रीब कुछ चिल्लाया। आन्ना उठी और होश में आई। वह समझ गई कि गाड़ी किसी स्टेशन के करीब पहुंच गई है और यह चिल्लानेवाला आदमी कंडक्टर था। उसने आन्नुश्का से केप, जो उसने कुछ ही देर पहले उतारा था, और शॉल देने को कहा और उन्हें पहन-ओढ़कर दरवाज़े की तरफ़ चल दी।
"बाहर जाना चाहती हैं ?" आन्नुश्का ने पूछा।
"हाँ, मैं कुछ देर खुली हवा में साँस लेना चाहती हूँ। यहाँ बहुत गर्मी है।"
और उसने दरवाज़ा खोला। बर्फ़ का तूफ़ान और झंझा उस पर टूट पड़े तथा उसके दरवाज़ा खोलने का विरोध करने लगे। आन्ना को इसमें भी मज़ा आया। उसने दरवाज़ा खोला और बाहर पायदान पर आ गई। हवा तो मानो उसी की राह देख रही थी, वह खुशी से सीटी बजाने लगी और उसने आन्ना को अपनी गिरफ्त में लेकर उड़ा ले जाना चाहा। किन्तु आन्ना ने एक हाथ से ठंडा हैंडल थाम लिया और दूसरे हाथ से फ़ॉक को सँभाले हुए प्लेटफ़ॉर्म पर उतरकर डिब्बे की ओट में हो गई। पायदान पर हवा बहुत तेज़ थी, लेकिन प्लेटफ़ॉर्म पर डिब्बों की ओट में शान्ति थी। वह डिब्बे की ओट में खड़ी रहकर ठंडी और बर्फीली हवा में बड़े आनन्द में खूब लम्बी-लम्बी साँसें लेते हुए प्लेटफ़ॉर्म तथा जगमगाते स्टेशन पर सभी ओर नज़र दौड़ाने लगी।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 30-भाग 1)
बर्फ़ का भयानक तूफ़ान चल रहा था और रेल के डिब्बों के पहियों के बीच से तथा स्टेशन के कोने के पीछे खड़े खम्भों के गिर्द साँय-साँय कर रहा था। डिब्बे, खम्भे, लोग और अन्य जो कुछ भी नज़र आ रहा था, एक तरफ़ से बर्फ से ढका हुआ था तथा अधिकाधिक ढका चला जा रहा था। तूफ़ान क्षण-भर को शान्त हो गया, किन्तु फिर इतने ज़ोर से चलने लगा कि उसके सामने खड़े रहना असम्भव-सा प्रतीत होता था। फिर भी कुछ लोग हँसी-खुशी से आपस में बातें करते, प्लेटफ़ॉर्म के तख्तों को चरमराते और बड़े-बड़े दरवाज़ों को लगातार खोलते तथा बन्द करते हुए इधर-उधर भाग रहे थे। किसी झुके हुए आदमी की छाया उसके पैरों के पास से निकल गई और लोहे पर हथौड़े की चोट की आवाजें सुनाई दीं। “तार इधर दो !" अँधेरे में दूसरी ओर से किसी का खीजा हुआ स्वर सुनाई दिया। "कृपया इधर आइए ! 28 नम्बर !" दूसरी ऊँची-ऊँची आवाजें सुनाई दे रही थीं और कपड़ों से लदे-फंदे तथा बर्फ से ढके विभिन्न लोग भागते दिखाई दे रहे थे। सिगरेट पीते हुए कोई दो महानुभाव आन्ना के पास से गुज़रे। आन्ना ने ताज़ा हवा के लिए फिर लम्बी साँस ली और डिब्बे का हैंडल पकड़ने के लिए फ़र के मफ़ से हाथ बाहर निकाला ही था कि फ़ौजी ओवरकोट पहने एक अन्य व्यक्ति ने उसके क़रीब आकर लालटेन के हिलते-डुलते प्रकाश को अपनी ओट में कर दिया। आन्ना ने मुड़कर देखा और फ़ौरन व्रोन्स्की का चेहरा पहचान लिया। छज्जेदार फ़ौजी टोपी पर हाथ रखकर उसने आन्ना का अभिवादन किया और पूछा कि उसे किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं, कि क्या वह उसकी कोई ख़िदमत कर सकता है ? आन्ना कोई जवाब दिए बिना देर तक उसे देखती रही और व्रोन्स्की के अँधेरे में खड़े होने के बावजूद उसने उसके चेहरे और आँखों का भाव देख लिया या फिर उसे ऐसा प्रतीत हुआ। यह सम्मानपूर्ण मुग्धता का वही भाव था, जिसने एक दिन पहले उस पर इतना अधिक प्रभाव डाला था। इन पिछले दिनों में और अभी कुछ ही समय पहले आन्ना ने अनेक बार अपने आपसे यह कहा था कि उसके लिए व्रोन्स्की निरन्तर और सभी जगह मिलते रहनेवाले सैकड़ों जवान लोगों में से एक है और वह कभी उसके बारे में सोचेगी भी नहीं। लेकिन अब, उससे मिलन के पहले क्षण में उल्लासपूर्ण गर्व की भावना उसके मन पर छा गई। आन्ना के लिए उससे यह पूछने को कोई ज़रूरत नहीं थी कि वह यहाँ क्यों है। वह इतनी ही अच्छी तरह से इसका कारण जानती थी, जितना कि व्रोन्स्की के यह कहने पर जान पाती कि मैं इसलिए यहाँ हूँ, कि वहीं हो सकूँ, जहाँ आप हैं।
“मुझे मालूम नहीं था कि आप भी जा रहे हैं। किसलिए जा रहे हैं आप ?" आन्ना ने वह हाथ नीचे कर लिया, जिससे हैंडल को थामनेवाली थी। और उसके चेहरे पर अदम्य खुशी तथा सजीवता चमक उठी।
"मैं किसलिए जा रहा हूँ ?" आन्ना से नज़र मिलाते हुए उसने यह सवाल दोहराया। “आप जानती हैं, मैं इसलिए जा रहा हूँ कि वहीं हो सकूँ, जहाँ आप होंगी," उसने जवाब दिया। "मैं और कुछ कर ही नहीं सकता।"
इसी वक़्त हवा ने मानो सभी बाधाओं को दूर करके रेल के डिब्बों की छतों से बर्फ नीचे बिखरा दी, लोहे के किसी उखड़े हुए टुकड़े को हिलाया-डुलाया और सामने की ओर से इंजन की रुआंसी और उदासी से भरी हुई सी सीटी गूंज उठी। तूफ़ान की सारी मुसीबत अब उसे पहले से भी अधिक प्रिय प्रतीत हुई। व्रोन्स्की ने वही कहा था, जो उसकी आत्मा चाहती थी, किन्तु जिससे वह सोच-विचार करने पर डरती थी । आन्ना ने कोई उत्तर नहीं दिया और उसके चेहरे पर व्रोन्स्की को आन्तरिक संघर्ष की झलक दिखाई दी।
"मैंने जो कुछ कहा है, वह अगर आपको अच्छा नहीं लगा, तो माफ़ी चाहूँगा,” व्रोन्स्की ने नम्रता से कहा ।
व्रोन्स्की ने आदर और सम्मानपूर्वक, किन्तु ऐसी दृढ़ता और आग्रह से ये शब्द कहे कि आन्ना देर तक कोई जवाब नहीं दे पाई।
"आपने बुरी बात कही है और अगर आप भले आदमी हैं तो मैं आपसे अनुरोध करूँगी कि आपने जो कुछ कहा है, उसे भूल जाएँ और मैं भी भूल जाऊँगी,” आखिर आन्ना ने कहा ।
“आपका एक भी शब्द, आपकी एक भी अदा मैं कभी नहीं भूलूँगा और भूल ही नहीं सकता..."
“बस, बस, काफ़ी है,” वह अपने चेहरे पर, जिसे व्रोन्स्की बड़े प्यार से देख रहा था, व्यर्थ ही कठोरता का भाव लाते हुई चिल्लाई । ठंडे हैंडल को हाथ से पकड़कर वह पायदान पर चढ़ी और तेज़ी से भीतर चली गई । वहाँ, दरवाज़े के क़रीब खड़ी रहकर वह अपनी कल्पना में उस पर विचार करने लगी, जो हुआ था। वह उसके और अपने शब्दों को याद नहीं कर पाई, किन्तु अपने मन में उसने इतना अनुभव कर लिया कि उनकी क्षण-भर की इस बातचीत से वे दोनों बहुत निकट आ गए हैं। इस बात से उसने भय भी अनुभव किया और खुशी भी। कुछ क्षण तक यहीं खड़ी रहने के बाद वह डिब्बे में जाकर अपनी जगह पर बैठ गई । तनाव की वही हालत, जो शुरू में उसे यातना देती रही थी, न केवल फिर से लौट आई, बल्कि अधिक उग्र हो गई और ऐसी हद तक पहुँच गई कि उसे अपने भीतर किसी बहुत ही तने हुए तार से किसी भी क्षण टूट जाने का डर महसूस होने लगा । वह रात-भर सोई नहीं। किन्तु उन तनावों और सपनों में, जो उसके कल्पना-क्षितिज पर छाए हुए थे, थे, कुछ भी कटु और दुःखद नहीं था। इसके विपरीत, उनमें कुछ सुखद, गुदगुदाने और उत्तेजित करनेवाला था। सुबह होते-होते आन्ना की आँख लग गई और जब वह जागी तो दिन का उजाला हो चुका था और गाड़ी पीटर्सबर्ग के क़रीब पहुँच रही थी। उसी समय घर-गिरस्ती, पति और बेटे के क़रीब तथा उस दिन और उसके बाद के दिनों की चिन्ता ने उसे घेर लिया ।
पीटर्सबर्ग में गाड़ी के रुकते ही वह बाहर निकली और जो पहला चेहरा उसके सामने आया, वह पति का था। ‘हे मेरे भगवान ! उसके कान ऐसे क्यों हो गए हैं ?' पति की कठोर और रोबीली आकृति और विशेषतया गोल टोप के किनारे को टेक देनेवाली तथा उसे अब चकित करनेवाली ललरियों को देखते हुए आन्ना ने सोचा । पत्नी को देखकर वह आदत के मुताबिक़ अपने होंठों पर व्यंग्यपूर्ण मुस्कान चस्पाँ करके तथा अपनी बड़ी-बड़ी और थकी हुई आँखों को उसके चेहरे पर टिकाए हुए मिलने के लिए उसकी तरफ़ बढ़ा। पति की थकी और दृढ़ नज़र से नज़र मिलने पर उसने अपने दिल में एक अप्रिय-सी अनुभूति की टीस अनुभव की मानो वह उसे दूसरे ही रूप में देखने की आशा करती हो । अपने प्रति असन्तोष की भावना ने, जो पति से भेंट होने पर उसने महसूस की, ख़ासतौर पर उसे हैरान किया । असन्तोष की यह भावना उसमें बहुत पहले से थी, जानी-पहचानी थी, ढोंग से मिलती-जुलती थी, जो वह पति के साथ अपने सम्बन्धों में अनुभव करती थी। पहले इस भावना की ओर उसका ध्यान नहीं गया था, किन्तु अब उसे इसकी स्पष्ट और पीड़ायुक्त अनुभूति हो रही थी ।
"तो, जैसाकि तुम देख रही हो, मैं तो प्यार करनेवाला पति हूँ, वैसा ही प्यार करनेवाला, जैसा कि शादी के पहले साल में होता है, तुमसे मिलने को बेक़रार हो रहा था,” उसने अपनी पतली-सी आवाज़ और उस धीमे-धीमे अन्दाज़ में कहा, जिसका वह हमेशा उससे बातचीत करते हुए उपयोग करता था। यह अन्दाज़ ऐसे कल्पित व्यक्ति का उपहास करने का अन्दाज़ था, जो वास्तव में ही उससे ऐसे शब्द कह सकता था ।
"सेर्योझा ठीक-ठाक है ?” आन्ना ने पूछा ।
“बस, यही पुरस्कार है मेरी व्यग्रता - व्याकुलता का ?" पति ने कहा । "ठीक-ठाक है, ठीक-ठाक है...”
अन्ना करेनिना : (अध्याय 31-भाग 1)
व्रोन्स्की ने पिछली रात को सोने की कोशिश ही नहीं की। वह अपनी आरामकुर्सी में बैठे हुए कभी तो अपने सामने की ओर देखता रहता और कभी बाहर जाने तथा भीतर आनेवाले लोगों को। अगर पहले वह अपरिचित यात्रियों को अपनी दृढ़तापूर्ण शान्त मुद्रा से आश्चर्यचकित और परेशान करता रहा था, तो अब और भी अधिक घमंडी तथा आत्मतुष्ट प्रतीत होता था। लोगों को वह चीज़ों की तरह ही देखता था। जिला कचहरी में काम करनेवाला एक चिड़चिड़ा-सा नौजवान, जो उसके सामने बैठा था, उसकी ऐसी अकड़ के कारण उससे नफ़रत करने लगा। इस जवान आदमी ने व्रोन्स्की से दियासलाई लेकर सिगरेट जलाई, उससे बातचीत की, यहाँ तक कि उसे कोहनी भी मारी ताकि उसे यह महसूस करवाए कि वह कोई वस्तु नहीं, बल्कि इन्सान है, किन्तु व्रोन्स्की उसकी तरफ़ वैसे ही देखता रहा मानो वह लालटेन का खम्भा हो । युवा व्यक्ति मुँह बनाते हुए यह अनुभव करता रहा कि व्रोन्स्की द्वारा उसे मानव न मानने के कारण वह अपना मानसिक सन्तुलन खोता जा रहा है ।
व्रोन्स्की किसी को और कुछ भी नहीं देख रहा था। वह अपने को मानो ज़ार महसूस कर रहा था। सो भी इसलिए नहीं कि उसे आन्ना पर अपनी छाप डाल लेने का विश्वास था, उसे यह विश्वास नहीं था, बल्कि इसलिए कि आन्ना ने उसके दिल पर जो छाप छोड़ी थी, उससे उसे सुख और गर्व की अनुभूति हो रही थी ।
इस सबका क्या नतीजा होगा, वह यह नहीं जानता था और उसने इसके बारे में सोचा भी नहीं था । उसे महसूस हो रहा था कि अब तक विसर्जित और बिखरी - बिखराई उसकी सारी शक्तियाँ एक ही बिन्दु पर केन्द्रित हो गई हैं और बड़े ज़ोर से एक सुखद लक्ष्य की प्राप्ति में जुटा दी गई हैं। उसे इससे सुख मिल रहा था। वह तो सिर्फ़ इतना जानता था कि उसने आन्ना से सच्ची बात कह दी है, कि वह वहाँ जा रहा है, जहाँ वह होगी, कि उसके जीवन का सारा सुख, उसके जीवन का एकमात्र प्रयोजन अब इसी में निहित है कि उसे देखे, उसकी आवाज़ सुने । और जब वह बोलोगोए के स्टेशन पर खनिज जल पीने के लिए डिब्बे से बाहर निकला और उसने आन्ना को देखा, तो अपने आप ही उसके मुँह से निकले पहले शब्द ने उससे वही कह दिया, जो वह मन में सोचता रहा था । उसे इस बात की खुशी थी कि उसने उससे यह कह दिया था, कि अब वह यह जानती है और उसके बारे में सोचती है। व्रोन्स्की रात भर नहीं सोया । अपने डिब्बे में लौटकर वह लगातार उन रूपों को, जिनमें उसने आन्ना को देखा था, तथा उसके सभी शब्दों को याद करता रहा, और उसकी कल्पना में सम्भव भविष्य के ऐसे चित्र उभरते रहे, जिनसे बरबस दिल काँप उठता था ।
रात-भर जागते रहने के बावजूद जब वह पीटर्सबर्ग के स्टेशन पर डिब्बे से बाहर निकला, तो अपने को ऐसा सजीव और ताज़ादम महसूस कर रहा था मानो ठंडे पानी से नहाकर बाहर आया हो । वह अपने डिब्बे के पास खड़ा होकर आन्ना के बाहर निकलने की राह देखने लगा । 'एक बार फिर देख लूँगा,' अनजाने ही मुस्कुराकर उसने अपने आपसे कहा, 'उसकी चाल, उसका मुखड़ा देख लूँगा । हो सकता है, वह मुझसे कुछ कहे, मुड़कर देखे, मुझ पर नज़र डाले, शायद मुस्कुरा दे ।' किन्तु आन्ना को देख पाने के पहले उसे उसका पति दिखाई दिया, जिसे स्टेशन मास्टर बड़े आदर से भीड़ के बीच से निकाले लिए जा रहा था। 'अरे हाँ, पति !' व्रोन्स्की केवल अभी पहली बार स्पष्ट रूप से यह समझ पाया कि पति उससे सम्बन्ध रखनेवाला व्यक्ति है। उसे यह मालूम था कि आन्ना का पति है, किन्तु उसके अस्तित्व का उसे विश्वास नहीं था और केवल तभी उसने उसके अस्तित्व का पूरा यक़ीन किया, जब उसे सिर, कन्धों और काला पतलून पहने हुए टाँगों सहित देखा। उसे इस बात का विशेषतः तब विश्वास हुआ, जब उसने यह देखा कि कैसे पति ने निजी सम्पत्ति की तरह इत्मीनान से उसका हाथ थाम लिया था।
पीटर्सबर्गी ताज़ादम चेहरे और गम्भीर, आत्मविश्वासी आकृतिवाले कारेनिन को देखकर, जो गोल टोप पहने था और जिसकी पीठ तनिक झुकी हुई थी, उसे उसके अस्तित्व का विश्वास हो गया और उसे उस व्यक्ति जैसी ही अप्रिय अनुभूति हुई, जो प्यास से बुरी तरह परेशान होता हुआ पानी का कोई सोता ढूँढ़ ले और उसे उस सोते में कुत्ता, भेड़ या सूअर नज़र आए, जिसने उसमें से न केवल पानी पिया हो, बल्कि उसे गन्दा भी कर दिया हो। अपने पूरे चूतड़ को हिलाते-डुलाते हुए कारेनिन की बोझिल-सी चाल व्रोन्स्की को ख़ासतौर पर अखरी। वह यह मानता था कि केवल उसे ही आन्ना को प्यार करने का अधिकार है। किन्तु वह पहले जैसी ही थी और उसकी सूरत ने पहले की तरह ही उसमें शारीरिक सजीवता और सुख की अनुभूति पैदा करते तथा बढ़ाते हुए उसको अपने जादू में बाँध लिया। उसने दूसरे दर्जे के डिब्बे से भागकर आनेवाले अपने जर्मन नौकर को सामान लेकर जाने का हुक्म दिया और खुद आन्ना के पास गया। उसने पति-पत्नी को मिलते देखा और प्रेमी की पैनी दृष्टि से उस हल्की सी झिझक को भाँपा, जिससे उसने पति के साथ बातचीत की। 'नहीं, वह उसे प्यार नहीं करती और कर भी नहीं सकती,' उसने मन-ही-मन ऐसा निर्णय कर लिया।
व्रोन्स्की जिस समय पीछे से आन्ना की ओर बढ़ रहा था, उसने उसी समय इस बात की तरफ़ सहर्ष ध्यान दिया कि आन्ना ने उसे निकट आते हुए अनुभव किया, मुड़कर देखा तथा उसे पहचानकर फिर पति से बातचीत करने लगी थी।
"आपकी रात तो अच्छी तरह से बीती ?” व्रोन्स्की ने आन्ना और उसके पति का एकसाथ झुककर अभिवादन करते और कारेनिना को यह अभिवादन अपने लिए मानने तथा, जैसा भी वह उचित समझे, उसे पहचानने या न पहचानने की सम्भावना देते हुए पूछा ।
"धन्यवाद, बहुत अच्छी बीती,” आन्ना ने जवाब दिया।
आन्ना का चेहरा क्लान्त-सा प्रतीत हुआ और उस पर उस सजीवता का अभाव था, जो कभी उसकी मुस्कान, तो कभी आँखों में चमक उठती थी। किन्तु व्रोन्स्की को देखने पर क्षण-भर को उसकी आँखों में एक लौ-सी कौंधी और इस बात के बावजूद कि यह लौ फ़ौरन बुझ गई, उसे इस क्षण से अपार सुख मिला । आन्ना ने यह जानने के लिए पति की तरफ़ देखा कि वह व्रोन्स्की को जानता है या नहीं। कारेनिन कुछ झल्लाहट के साथ व्रोन्स्की को देखते हुए अन्यमनस्कता से यह याद करने की कोशिश कर रहा था कि वह कौन है। व्रोन्स्की की शान्तचित्तता और आत्मविश्वास कारेनिन के कठोर आत्मविश्वास के लिए बराबर की चोट था ।
"काउंट व्रोन्स्की,” आन्ना ने कहा ।
"ओह ! मुझे लगता है कि हम परिचित हैं,” कारेनिन ने हाथ मिलाते हुए उपेक्षा भाव से कहा । "तुम गईं माँ के साथ और लौटीं बेटे के साथ,” उसने एक-एक शब्द को ऐसे साफ़-साफ़ कहा मानो वे एक-एक रूबल के बराबर मूल्यवान हों। " आप शायद छुट्टी से लौट रहे होंगे ?” उसने व्रोन्स्की से कहा और जवाब का इन्तज़ार किए बिना अपने मज़ाक़िया अन्दाज़ में बीवी से बोला, "तो मास्को से रवाना होने के वक़्त बहुत आँसू बहाए गए न ?”
पत्नी से ऐसा कहते हुए उसने व्रोन्स्की को यह अनुभव करवाने का यत्न किया कि उसे उसकी ज़रूरत नहीं है और उसकी तरफ़ घूमकर उसने टोप को छुआ। लेकिन व्रोन्स्की ने आन्ना को सम्बोधित करते हुए कहा :
" आशा करता हूँ कि आपके यहाँ आने का सौभाग्य प्राप्त होगा ।" कारेनिन ने थकी-थकी आँखों से व्रोन्स्की को घूरकर देखा ।
“बड़ी खुशी होगी,” उसने रुखाई से जवाब दिया, “हर सोमवार को मिलने-जुलनेवाले हमारे यहाँ आते हैं।” इसके बाद व्रोन्स्की से विदा लेकर उसने पत्नी से कहा : "कितनी अच्छी बात है कि मुझे आधे घंटे की फ़ुरसत थी और मैं स्टेशन पर आ सका तथा तुम्हें अपना प्यार दिखा सका,” उसने पहले की तरह मज़ाकिया ढंग से अपनी बात जारी रखी।
"तुम तो अपने प्यार की कुछ ज़्यादा ही चर्चा कर रहे हो, ताकि मैं उसे बहुत ही मूल्यवान मानूँ," आन्ना ने उसके पीछे-पीछे आ रहे व्रोन्स्की के क़दमों की आवाज़ को अनचाहे ही सुनते हुए पति के मज़ाकिया ढंग में ही जवाब दिया । 'लेकिन मुझे क्या मतलब है इससे ?' उसने मन ही मन सोचा और पति से यह पूछने लगी कि सेर्योझा ने उसके बिना कैसे समय बिताया।
"ओ, बहुत ही अच्छे ढंग से। Mariette का कहना है कि वह बहुत ही प्यारा बच्चा बना रहा और...तुम्हें यह जानकर रंज होगा कि तुम्हारे लिए वह इतना उदास नहीं हुआ, जितना तुम्हारा पति । मेरी प्यारी, मैं एक बार फिर तुम्हें इस बात के लिए धन्यवाद देता हूँ कि तुम एक दिन पहले आ गईं। हमारा प्यारा समोवार बहुत ही खुश होगा ।" (कारेनिन प्रसिद्ध काउंटेस लीदिया इवानोव्ना को समोवार के नाम से पुकारता था, क्योंकि वह हमेशा और हर चीज़ के बारे में उत्तेजित होती और उबलती रहती थी।) “वह तुम्हारे बारे में पूछ रही थी । और अगर मैं सलाह देने की जुर्रत कर सकता हूँ, तो कहूँगा कि तुम आज ही उसके यहाँ चली जाना। तुम तो जानती ही हो कि उसका दिल हर चीज़ के लिए परेशान रहता है। अब उसे अपनी सभी चिन्ताओं के अलावा ओब्लोन्स्की दम्पति की सुलह की चिन्ता है ।"
काउंटेस लीदिया इवानोव्ना आन्ना के पति की मित्र और पीटर्सबर्ग के एक ऊँचे सामाजिक हलके की केन्द्र-बिन्दु थी । आन्ना अपने पति के कारण ही इस हलके से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित थी । " मैंने तो उसे पत्र लिखा था ।"
"लेकिन वह तो सभी कुछ तफ़सील से जानना चाहती है। मेरी प्यारी, अगर बहुत नहीं थक गई हो, तो उसके यहाँ हो आना । कोन्द्राती तुम्हारे लिए बग्घी का प्रबन्ध कर देगा और मैं कमेटी में जा रहा हूँ। आज मुझे अकेले ही खाना नहीं खाना पड़ेगा,” कारेनिन ने अब मज़ाक़ के बिना अपनी बात जारी रखी, "तुम तो सोच भी नहीं सकतीं कि मेरे लिए तुम ...”
और उसने देर तक प्यार से उसका हाथ दबाते हुए विशेष मुस्कान के साथ उसे बग्घी में बिठा दिया ।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 32-भाग 1)
घर पर बेटे से ही आन्ना की सबसे पहले भेंट हुई। शिक्षिका के चीखने-चिल्लाने के बावजूद वह बहुत खुशी से 'माँ ! माँ !' पुकारता हुआ सीढ़ियों से नीचे भागा आया। माँ के पास पहुँचकर वह उसके गले से लिपट गया।
"मैंने कहा था न आपसे कि माँ है !” उसने चिल्लाकर शिक्षिका से कहा । "मैं जानता था !” और पति की भाँति बेटे को देखकर आन्ना को कुछ निराशा - सी हुई। वह वास्तव में जैसा था, उसने कुछ बेहतर रूप में उसकी कल्पना की थी। वह जैसा था, उसे उसी रूप में देखकर खुश होने के लिए ज़रूरी था कि वह वास्तविकता के धरातल पर उतरे । किन्तु अपने इस रूप में भी, सुनहरे घुँघराले बालों, नीली आँखों और जुराबों में कसी हुई गदराई, सुघड़ टाँगों के साथ वह बहुत प्यारा था । आन्ना को उसकी निकटता और प्यार से लगभग शारीरिक आनन्द की अनुभूति हुई और उसकी निश्छल, विश्वासपूर्ण और प्यार-भरी दृष्टि से दृष्टि मिलने तथा उसके भोले-भाले सवाल सुनने से उसे नैतिक चैन मिला। आन्ना ने उसे वे उपहार दिए, जो डॉली के बच्चों ने भेजे थे और बेटे को यह बताया कि मास्को में तान्या नाम की एक लड़की है, कि यह तान्या पढ़ना जानती है और दूसरे बच्चों को भी पढ़ाती है।
"तो क्या मैं उससे बहुत बुरा हूँ ?" सेर्योझा ने कहा ।
“मेरे लिए तो तुम दुनिया में सबसे बढ़कर हो।"
"यह मुझे मालूम है,” सेर्योझा ने मुस्कुराते हुए कहा ।
आन्ना ने कॉफ़ी का प्याला ख़त्म भी नहीं किया था कि काउंटेस लीदिया इवानोव्ना के आने की ख़बर दी गई। ऊँचा, गदराया शरीर, रोगी जैसा ज़र्द चेहरा और चिन्तनशील, सुन्दर काली आँखें - ऐसी थी काउंटेस लीदिया इवानोव्ना । आन्ना उसे चाहती थी, लेकिन आज उसने उसे मानो पहली बार उसकी सभी त्रुटियों के साथ देखा ।
“हाँ, तो मेरी दोस्त, मेल-मिलाप करवा आईं ?” काउंटेस लीदिया इवानोव्ना ने कमरे में दाख़िल होते ही पूछा ।
“हाँ, वह सब कुछ ख़त्म हो गया, लेकिन मामला कुछ ऐसा बिगड़ा हुआ नहीं था, जैसाकि हमने समझा था,” आन्ना ने जवाब दिया । " कुल मिलाकर यही कहना होगा कि मेरी belle soeur (भाभी-फ्रांसीसी) बहुत जल्दबाज़ हैं।”
किन्तु कांउटेस लीदिया इवानोव्ना की यह आदत थी कि हर उस चीज़ में दिलचस्पी लेते हुए भी, जिसका उससे कोई सम्बन्ध नहीं होता था, अपनी दिलचस्पी की बात को कभी ध्यान से नहीं सुनती थी। उसने आन्ना की बात काटते हुए कहा :
"बहुत दुःख और बुराइयाँ हैं इस दुनिया में और मैं तो आज बहुत ही परेशान हूँ ।"
“क्या हो गया ?” अपनी मुस्कान को रोकने की कोशिश करते हुए आन्ना ने पूछा ।
“मैं सच्चाई के लिए अपने संघर्ष में थकने लगती हूँ और कभी-कभी तो मेरी हिम्मत बिल्कुल जवाब दे जाती है। 'नन्हीं बहनों का काम' (यह लोकोपकारी, धार्मिक- देशभक्तिपूर्ण संस्था थी) ढंग से चल निकला है, किन्तु इन महानुभावों का कोई क्या करे,” काउंटेस लीदिया इवानोव्ना ने भाग्य के सामने मानो व्यंग्यपूर्वक हथियार डालते हुए कहा । " उन्होंने एक विचार को ले लिया, उसे बुरी तरह बिगाड़ डाला और फिर बहुत घटिया और तुच्छ ढंग से उसकी समीक्षा करते हैं। आपके पति समेत दो-तीन आदमी ही इस काम के पूरे महत्त्व को समझते हैं और बाक़ी तो इसको हानि ही पहुँचाते हैं । कल मुझे प्राव्दिन का पत्र मिला।"
प्राव्दिन विदेश में विख्यात पैनस्लाव था । काउंटेस लीदिया इवानोव्ना ने उसके पत्र का सार बताया ।
इसके बाद काउंटेस ने गिरजों को सूत्रबद्ध करने के मार्ग में बाधा बननेवाली अन्य कटु बातों और साज़िशों का ज़िक्र किया और फिर हड़बड़ाती हुई चली गई, क्योंकि उसे किसी संगठन और स्लाव - कमेटी की बैठक में हिस्सा लेना था ।
'यह सब तो पहले भी था, मगर पहले इसकी तरफ़ मेरा ध्यान क्यों नहीं गया ?' आन्ना ने अपने आपसे पूछा। 'या फिर आज वह बहुत ज़्यादा झल्लाई हुई थी ? वास्तव में कैसी हास्यास्पद बात है - उसका ध्येय भलाई करना है, वह ईसाई धर्म की अनुयायी है, लेकिन वह झल्लाती रहती है, हर कोई उसका दुश्मन है और हर कोई ईसाई धर्म और नेकी के नाम पर उसका दुश्मन है।'
काउंटेस लीदिया इवानोव्ना के बाद आन्ना की एक सहेली, जो विभाग के डायरेक्टर की बीवी थी, आ गई और उसने शहर की सब ख़बरें सुना दीं। दिन के तीन बजे वह भी खाने के वक़्त आने का वादा करके चली गई । कारेनिन मन्त्रालय में था । अकेली रह जाने पर दोपहर के खाने के पहले का वक़्त उसने बेटे के भोजन करने के समय (बेटा अलग से भोजन करता था) उसके पास बैठने, अपनी चीज़ों को ठीक-ठाक करने और अपनी मेज़ पर जमा हो गए रुक़्क़ों तथा पत्रों को पढ़ने और उनके जवाब देने में लगाया ।
पीटर्सबर्ग लौटते हुए रास्ते में उसे शर्म और उत्तेजना की जो अकारण अनुभूति हुई थी, वह अब बिल्कुल लुप्त हो गई । जीवन की अभ्यस्त परिस्थितियों में उसने अपने को फिर से दृढ़ और भर्त्सना - मुक्त अनुभव किया।
पिछले दिन की अपनी स्थिति को याद करके उसे हैरानी हुई। 'क्या हुआ था ? कुछ भी नहीं । व्रोन्स्की ने कोई बेहूदा बात कही थी, जिसका आसानी से अन्त कर दिया जा सकता है और मैंने उसका वैसा ही जवाब दे दिया था, जैसाकि होना चाहिए था। पति से इसकी चर्चा करने की कोई ज़रूरत नहीं और उचित भी नहीं । इसका ज़िक्र करने का मतलब उस बात को इतना महत्त्व देना होगा, जिसके लायक़ वह नहीं है।' उसे याद आया कि कैसे उसने पति से उसके अधीन काम करनेवाले एक युवा व्यक्ति की लगभग प्रेम स्वीकारोक्ति की चर्चा की थी और कैसे कारेनिन ने जवाब में यह कहा था कि ऊँचे समाज में आने-जानेवाली हर महिला के साथ ऐसी घटना घट सकती है, किन्तु वह उसकी समझ-बूझ पर पूरा भरोसा करता है और कभी भी उसे तथा अपने को ईर्ष्या में घटिया स्तर तक नीचे नहीं आने देगा। ‘तो मतलब यह हुआ कि कहने में कोई तुक नहीं है ? और भला हो भगवान का, कहने को कुछ भी तो नहीं,' उसने अपने आपसे कहा ।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 33-भाग 1)
कारेनिन दिन के चार बजे मन्त्रालय से लौटा, किन्तु, जैसाकि अक्सर होता था, पत्नी के पास नहीं जा पाया। वह प्रतीक्षा कर रहे प्रार्थियों की बातें सुनने और सेक्रेटरी द्वारा लाए गए कुछ काग़ज़ों पर हस्ताक्षर करने के लिए अपने अध्ययन कक्ष में चला गया। दोपहर के खाने के वक़्त (इनके यहाँ कोई तीन मेहमान तो हमेशा खाना खाते थे) कारेनिन की बूढ़ी ममेरी बहन, पत्नी के साथ विभाग का डायरेक्टर और एक नौजवान, जिसकी कारेनिन के पास काम करने की सिफ़ारिश की गई थी, आ गए। आन्ना मेहमानों से बातचीत करने के लिए मेहमानखाने में चली गई। ठीक पाँच बजे, प्योतर प्रथम के समय की दीवाल - घड़ी के पाँचवीं बार टनटनाने के पहले ही कारेनिन सफ़ेद टाई लगाए और दो पदकों से सुशोभित फ्लॉक-कोट पहने हुए ( क्योंकि भोजन करने के तुरन्त बाद ही उसे कही जाना था ) मेहमानखाने में आ गया। करेनिन के जीवन का हर क्षण व्यस्त और पहले से तय होता था । उसे हर दिन जो कुछ करना होता था उसे कर पाने के लिए वह वक़्त की बड़ी पाबन्दी का ख़याल रखता था । 'न उतावली और न काहिली’–यही उसका मूलमन्त्र था। वह हॉल में गया, उसने सबका अभिवादन किया और पत्नी की ओर मुस्कुराकर झटपट बैठ गया ।
“हाँ, मेरे एकाकीपन का अन्त हो गया। तुम तो कल्पना भी नहीं कर सकतीं कि अकेले भोजन करना कितना अप्रिय ( उसने अप्रिय शब्द पर ज़ोर दिया) लगता है।"
भोजन करते समय कारेनिन ने पत्नी के साथ मास्को के मामलों के बारे में बातचीत की और उपहासपूर्ण मुस्कान के साथ ओब्लोन्स्की के बारे में पूछा। किन्तु वैसे तो पीटर्सबर्ग के सरकारी दफ़्तरों और सामाजिक मामलों के सम्बन्ध में आम बातचीत ही चलती रही। खाना ख़त्म होने के बाद उसने मेहमानों के साथ आध घंटा बिताया और फिर मुस्कुराते हुए प्यार से पत्नी का हाथ दबाकर परिषद में चला गया। इस शाम को आन्ना न तो प्रिंसेस बेत्सी त्वेरस्काया के यहाँ गई, जिसे उसके मास्को से लौटने की ख़बर मिल गई थी और जिसने उसे बुलाया था, और न ही थिएटर गई, जहाँ उस शाम के लिए उसका अलग बॉक्स था। मुख्यतः तो वह इसलिए नहीं गई कि उसने जिस पोशाक की आशा की थी, वह तैयार नहीं हुई थी। मेहमानों के जाने पर जब उसने अपने कपड़ों की तरफ़ ध्यान दिया तो बहुत परेशान हो उठी। आन्ना ने, जो कम महँगे कपड़े पहनने की कला जानती थी, मास्को जाने से पहले अपनी तीन पोशाकें दर्जिन को नए रूप में ढालने के लिए दे दी थीं। इन पोशाकों को ऐसे बदलना चाहिए था कि वे पहचानी न जा सकें और तीन दिन पहले ही उन्हें तैयार हो जाना चाहिए था। अब पता चला कि दो पोशाकें तैयार ही नहीं हुई थीं और तीसरी को वैसे नहीं बदला गया था, जैसे आना चाहती थी । दर्जिन अपनी सफ़ाई देने आई और उसने इस बात पर ज़ोर दिया कि पोशाक इसी रूप में ज़्यादा अच्छी रहेगी। आन्ना इतनी अधिक बिगड़ उठी कि बाद में इस बात का ख़याल करके उसे अपने पर शर्म आई। अपने को पूरी तरह शान्त करने के लिए वह बेटे के कमरे में चली गई और उसने सारी शाम उसी के साथ बिताई। उसने खुद ही उसे सोने के लिए बिस्तर पर लिटाया, उसके ऊपर सलीब का निशान बनाया और कम्बल ओढ़ाया। वह खुश थी कि कहीं भी नहीं गई और उसने इतने अच्छे ढंग से शाम बिताई। उसका मन इतना हल्का था, इतना चैन अनुभव कर रहा था और इतने स्पष्ट रूप में वह यह महसूस कर पा रही थी कि रेलगाड़ी में सफ़र करते हुए उसे जो कुछ इतना महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो रहा था, वह ऊँचे समाज के जीवन की एक आम तुच्छ घटना थी, कि उसके लिए किसी दूसरे या खुद अपने सामने लज्जित होने की कोई बात नहीं थी । आन्ना अंग्रेज़ी का कोई उपन्यास लेकर अँगीठी के सामने बैठ गई और पति के आने की राह देखने लगी। रात के ठीक साढ़े नौ बजे दरवाज़े पर घंटी बजी और कुछ क्षण बाद पति उसके कमरे में आया ।
"आख़िर तो तुम्हारा घर आना हुआ,” उसकी ओर अपना हाथ बढ़ाते हुए आन्ना ने कहा । पति ने उसका हाथ चूमा और उसके क़रीब बैठ गया ।
"कुल मिलाकर मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारी मास्को- यात्रा सफल रही,” उसने पत्नी से कहा ।
“हाँ, बहुत सफल रही,” आन्ना ने जवाब दिया और उसे शुरू से ही सब कुछ बताने लगी- कैसे श्रीमती ब्रोन्स्काया के साथ उसने यात्रा की, मास्को पहुँची और कैसे वहाँ स्टेशन पर एक दुर्घटना हुई। इसके बाद उसने यह बताया कि कैसे पहले तो उसे अपने भाई और फिर डॉली पर दया आई।
"मैं यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि ऐसे व्यक्ति को, चाहे वह तुम्हारा भाई ही हो, क्षमा किया जा सकता है," कारेनिन ने कहा ।
आन्ना मुस्कुराई । वह समझ गई थी कि उसने यह ज़ाहिर करने को ये शब्द कहे थे कि रिश्तेदारी को ध्यान में रखते हुए भी वह ईमानदारी की बात कहे बिना नहीं रह सकता । आन्ना अपने पति के चरित्र के इस लक्षण से परिचित थी और इसे पसन्द करती थी ।
"मैं खुश हूँ कि सब कुछ अच्छे ढंग से समाप्त हो गया और तुम आ गईं," वह कहता गया । “हाँ, यह तो बताओ कि उस नए प्रस्ताव के बारे में, जो मैंने परिषद में स्वीकार करवाया है, लोगों की क्या राय है ?"
आन्ना ने इस प्रस्ताव के बारे में कुछ भी नहीं सुना था और उसे इस बात से शर्म महसूस हुई कि उसने इतनी आसानी से उस चीज़ को भुला दिया, जो उसके पति के लिए इतना अधिक महत्त्व रखती थी।
“यहाँ तो उसने ख़ासी हलचल पैदा कर डाली," पति ने आत्मतुष्ट मुस्कान के साथ कहा ।
आन्ना ने महसूस किया कि कारेनिन इस मामले को लेकर अपने बारे में उससे कुछ सुखद बात कहना चाहता था और उसने प्रश्न पूछ-पूछकर उसे बताने को प्रेरित किया। पति ने उसी म मुस्कान के साथ उस प्रशंसा की चर्चा की, जो इस प्रस्ताव को स्वीकार करवाने पर उसे परिषद में मिली थी ।
"मुझे बहुत, बेहद खुशी हुई थी। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे यहाँ आख़िर तो इस मामले में तर्कसंगत और दृढ़ दृष्टिकोण बनने लगा है।”
क्रीम और डबलरोटी के साथ चाय का दूसरा प्याला ख़त्म करने के बाद कारेनिन उठा और अपने अध्ययन कक्ष की ओर चल दिया।
"तुम कहीं भी नहीं गईं ? तुम्हें तो ऊब महसूस होती रही होगी ?” पति ने कहा ।
"ओह, नहीं !" आन्ना ने उसके पीछे-पीछे उठते और हॉल में से उसे अध्ययन कक्ष तक पहुँचाने के लिए उसके साथ जाते हुए कहा । "क्या पढ़ रहे हो आजकल तुम ?” आन्ना ने पूछा ।
“आजकल मैं Duc de Lille, poésie des enfers (ड्यूक दे लील, 'नरक-काव्य'-फ्रांसीसी)) पढ़ रहा हूँ," पति ने जवाब दिया । "बहुत ही बढ़िया किताब है।"
आन्ना ऐसे मुस्कुरा दी, जैसे प्रिय व्यक्तियों की दुर्बलताओं पर मुस्कुराया जाता है और उसकी बाँह में अपनी बाँह डालकर उसे अध्ययन कक्ष के दरवाज़े तक पहुँचा दिया। आन्ना सोने से पहले पति की पढ़ने की आदत से, जो एकदम अनिवार्य बात हो गई थी, परिचित थी। वह जानती थी कि सरकारी नौकरी की ज़िम्मेदारियों में लगभग हर वक़्त डूबे रहने के बावजूद बौद्धिक क्षेत्र में सामने आनेवाली हर बढ़िया रचना से परिचित होना वह अपना कर्तव्य मानता था । वह यह भी जानती थी कि राजनीति, दर्शन और धर्म सम्बन्धी पुस्तकों में उसकी वास्तविक रुचि थी, कि कला उसके स्वभाव के लिए बिल्कुल परायी चीज़ थी, लेकिन इसके बावजूद या यह कहना ज़्यादा बेहतर होगा कि इसी कारण से कारेनिन इस क्षेत्र में हलचल पैदा कर देनेवाली किसी भी रचना को नज़र से ओझल नहीं होने देता था और ऐसी सभी चीज़ों को पढ़ना अपना कर्तव्य मानता था। वह जानती थी कि राजनीति, दर्शन और धर्म के क्षेत्र में कारेनिन के मन में कुछ सन्देह और संशय थे या वह कुछ खोजता रहता था, किन्तु कला और काव्य, विशेषतः संगीत के मामले में, जिसकी उसे तनिक भी समझ नहीं थी, उसके बहुत ही सुनिश्चित और दृढ़ विचार थे। उसे शेक्सपीयर, राफ़ायल और बिथोविन तथा कविता और संगीत की नई धाराओं की चर्चा करना अच्छा लगता था और इनके सम्बन्ध में उसकी बहुत ही स्पष्ट धारणाएँ बनी हुई थीं।
"तो भगवान तुम्हारा भला करें,” आन्ना ने अध्ययन कक्ष के दरवाज़े के पास पहुँचकर कहा। कमरे में आरामकुर्सी के क़रीब पहले से ही शेडवाला शमादान जल रहा था और पानी की सुराही रखी हुई थी । " और मैं जाकर मास्को के लिए पत्र लिखती हूँ।”
पति ने फिर प्यार से पत्नी का हाथ दबाया और चूमा।
'फिर भी वह भला आदमी है, सच्चा, दयालु और अपने क्षेत्र में अद्भुत,' अपने कमरे में लौटकर आन्ना ने खुद से कहा मानो उसकी आलोचना और यह कहनेवाले किसी व्यक्ति के सामने उसकी सफ़ाई पेश कर रही हो कि उसे प्यार करना सम्भव नहीं । 'लेकिन उसके कान इतने अजीब ढंग से क्यों बढ़े हुए हैं ? या फिर उसने अपने बाल बहुत छोटे करवा डाले हैं ?'
रात के ठीक बारह बजे, जब आन्ना अभी भी मेज़ पर बैठी डॉली को पत्र लिख रही थी, उसे घरेलू जूतों में नपे-तुले क़दमों की आहट मिली। कारेनिन नहा-धोकर, बाल सँवारे तथा बग़ल में किताब दबाए हुए उसके पास आया।
"बस, बस, काफ़ी वक़्त हो गया,” उसने ख़ास ढंग से मुस्कुराकर कहा और सोने के कमरे में चला गया।
'क्या हक़ था उसे इस तरह से इसकी तरफ़ देखने का ?' कारेनिन की ओर व्रोन्स्की की दृष्टि को याद करते हुए आन्ना ने सोचा।
कपड़े उतारकर वह सोने के कमरे में गई, लेकिन अब उसके चेहरे पर न केवल वह सजीवता नहीं थी, जो मास्को के दिनों में उसकी नज़र और मुस्कान में फूटी पड़ती थी, बल्कि उसके भीतर की आग भी अब या तो बुझ गई प्रतीत होती थी या कहीं दूर छिपी हुई थी।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 34-भाग 1)
पीटर्सबर्ग से रवाना होते समय व्रोन्स्की मोर्स्काया सड़क पर अपना बड़ा फ़्लैट अपने दोस्त और प्यारे साथी पेत्रीत्स्की को सौंप गया था।
पेत्रीत्स्की जवान लेफ्टिनेंट था, कोई ख़ास ख़ानदानी नामवाला नहीं था और अमीर होने की बात तो दूर रही, बुरी तरह क़र्ज़ में दबा हुआ था। शाम को वह हमेशा नशे में धुत होता था और तरह-तरह के मज़ाकों तथा गन्दे क़िस्सों-घटनाओं के कारण अक्सर फ़ौजी दंड-चौकी में पहुँचाया जाता था, लेकिन यार-दोस्त और बड़े अफ़सर भी उसे चाहते थे। सुबह के ग्यारह बजे के बाद स्टेशन से अपने घर आने पर व्रोन्स्की ने दरवाजे के सामने अपनी जानी-पहचानी किराए की बग्घी देखी। घंटी बजाते समय ही उसे भीतर से मर्दो के ठहाके, एक नारी-कंठ की चपर-चपर और पेत्रीत्स्की का चिल्लाकर यह कहना सुनाई दिया : “अगर कोई बदमाश हो, तो उसे भीतर नहीं आने दिया जाए।" व्रोन्स्की ने नौकर को अपने बारे में ख़बर देने से मना कर दिया और दबे पाँव पहले कमरे में गया । पेत्रीत्स्की की दोस्त बैरोनेस शिल्तोन बैंगनी रंग की रेशमी पोशाक और अपने गुलाबी गालोंवाले प्यारे चेहरे तथा सुनहरे बालों की छटा दिखाती और कैनरी चिड़िया की तरह पेरिसी फ़्रांसीसी बोली से कमरे को गुँजाती हुई गोल मेज़ के सामने बैठी कॉफ़ी बना रही थी। पेत्रीत्स्की ओवरकोट और रिसाले का कप्तान कामेरोव्स्की पूरी वर्दी पहने (सम्भवतः दोनों ड्यूटी से लौटे थे) उसके गिर्द बैठे थे ।
"हुर्रा ! व्रोन्स्की !” पेत्रीत्स्की उछलकर खड़ा हुआ और कुर्सी को ज़ोर से पीछे घसीटता हुआ चिल्लाया। “खुद मालिक ! बैरोनेस, इसे नए कॉफ़ीदान से कॉफ़ी पिलाओ। हमने तुम्हारी आने की तो कल्पना भी नहीं की थी। उम्मीद करता हूँ कि अपने कमरे की सजावट से तुम खुश हो,” उसने बैरोनेस की तरफ़ इशारा करते हुए कहा । "तुम तो एक-दूसरे से परिचित हो न ?”
“बेशक परिचित हैं !” व्रोन्स्की ने खुशी से मुस्कुराते और बैरोनेस के हाथ से हाथ मिलाते हुए कहा । "वास्तव में ही पुराने दोस्त हैं ।”
"आप तो सफ़र से आ रहे हैं,” बैरोनेस ने कहा, "तो मैं भाग चली। अगर मेरी वजह से कोई परेशानी हो, तो मैं इसी वक़्त चली जाती हूँ।”
“बैरोनेस, आप जहाँ भी हैं, वहीं घर पर हैं, " व्रोन्स्की ने कहा । "नमस्ते, कामेरोव्स्की,” उदासीनता से कामेरोव्स्की के साथ हाथ मिलाते हुए उसने इतना और कह दिया ।
“देखा, आप कभी ऐसी प्यारी बातें नहीं कह सकते हैं,” बैरोनेस ने पेत्रीत्स्की से कहा ।
"कह क्यों नहीं सकता ? खाने के बाद मैं इससे उन्नीस नहीं रहूँगा।"
"खाने के बाद तो यह कोई ख़ूबी नहीं रहती ! तो, मैं आपके लिए कॉफ़ी बनाती हूँ, आप जाकर हाथ-मुँह धो लीजिए और कपड़े बदल आइए," बैरोनेस ने फिर से बैठते और बड़े ध्यान में नए कॉफ़ीदान का हैंडल घुमाते हुए रहा। "पिएर, कॉफ़ी दीजिए," उसने पेत्रीत्स्की को सम्बोधित किया, जिसे वह उसके पेत्रीत्स्की कुलनाम के आधार पर पिएर कहती थी। वह उसके साथ अपने सम्बन्धों की घनिष्ठता को नहीं छिपाती थी। "मैं कुछ कॉफ़ी और डालना चाहती हूँ।"
"बिगाड़ देंगी।"
“नहीं, नहीं बिगाड़ूँगी ! अरे हाँ, और आपकी बीवी ?" बैरोनेस ने व्रोन्स्की और उसके साथी की बातचीत में खलल डालते हुए अचानक पूछा। "हमने तो यहाँ आपकी शादी कर डाली है। अपनी बीवी को लाए ?"
"नहीं, बैरोनेस। मैं बंजारे की तरह बेघरबार ही पैदा हुआ हूँ और ऐसे ही मरूँगा।"
"यह और भी अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है। लाइए, अपना हाथ दीजिए।"
और बैरोनेस व्रोन्स्की को ऐसे ही रोके हुए तरह-तरह के मज़ाक़ों के साथ उसे अपने जीवन की नवीनतम योजनाएँ बताने और उसकी सलाह लेने लगी।
“वह मुझे किसी तरह भी तलाक़ नहीं देना चाहता। तो मैं क्या करूँ ? ('वह' उसका पति था।) मैं अब मुक़दमा शुरू करना चाहती हूँ। आपकी क्या राय है ? कामेरोव्स्की, कॉफ़ी का ध्यान कीजिए-उफन रही है, आप देख रहे हैं न कि मैं व्यस्त हूँ ! मैं मुक़दमा चलाना चाहती हूँ, क्योंकि अपनी सम्पत्ति की मुझे ज़रूरत है। आप इस बेतुकी बात को समझते हैं न, यह मानते हुए कि मैंने उसके साथ बेवफ़ाई की है," उसने तिरस्कार के साथ कहा, “वह इसके आधार पर मेरी जागीर हड़प जाना चाहता है।"
व्रोन्स्की बड़े मज़े से इस प्यारी औरत की यह चुलबुली बक-बक सुन रहा था, उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था, मज़ाक़ के पुट के साथ कुछ सलाहें देता जाता था और उस ढंग की औरतों से बातचीत करने के अपने अभ्यस्त अन्दाज़ को फ़ौरन अपना लिया था। उसकी पीटर्सबर्गी दुनिया में सभी लोग एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत दो क़िस्मों में विभाजित थे । एक घटिया क़िस्म तो वह थी, जिसमें ऐसे तुच्छ, मूर्ख और सबसे बढ़कर तो यह कि वे हास्यास्पद लोग शामिल थे, जो ऐसा मानते हैं कि पति को अपनी विवाहिता पत्नी के साथ ही रहना चाहिए, कि लड़की को पाकीज़ा और औरत को शर्मलिहाज़वाली होना चाहिए, मर्द को साहसी, संयत और दृढ़ होना चाहिए, बच्चों का पालन-पोषण करना, अपनी रोज़ी-रोटी कमानी और ऋण चुकाना चाहिए तथा इसी तरह की दूसरी बेहूदा बातें करनी चाहिए। ये पुराने ढर्रे और हास्यास्पद क़िस्म के लोग थे । किन्तु एक-दूसरी बढ़िया क़िस्म भी थी, जिसमें ये सभी शामिल थे। इसके मुख्य लक्षण ये थे कि आदमी ठाट-बाट से रहे, वह सुन्दर, उदारमना, दिलेर और खुशमिज़ाज हो, किसी भी तरह की शर्म - झेंप के बिना सब तरह की मौज मनाए और बाक़ी सब चीज़ों की खिल्ली उड़ाए ।
मास्को की बिल्कुल दूसरी ही दुनिया से लाई गई छापों के कारण व्रोन्स्की शुरू में कुछ क्षण तक स्तम्भत रहा, किन्तु उसी समय, मानों पुराने जूतों में पाँव डालते ही वह अपनी प्यारी और हँसी-खुशी से भरपूर दुनिया में लौट आया।
कॉफ़ी तो तैयार ही नहीं हुई, वह सभी पर छींटे डालकर उठ गई और उसने वह काम कर दिखाया, जिसकी ज़रूरत थी, यानी उसने हँसी-मज़ाक़ और ठहाकों का मौक़ा दिया और क़ीमती क़ालीन तथा बैरोनेस की पोशाक पर धब्बे डाल दिए ।
" तो अब विदा, नहीं तो आप कभी नहाए-धोएँगे नहीं और एक भले आदमी के सबसे बड़े अपराध यानी साफ़-सुथरा न होने के लिए मुझे दोषी बनना पड़ेगा। तो आप मुझे उसके गले पर छुरी रखने की सलाह देते हैं ?"
“निश्चित रूप से। सो भी ऐसे कि आपका छोटा-सा हाथ उसके होंठों के बिल्कुल निकट हो । वह आपका हाथ चूमेगा और सब कुछ बढ़िया ढंग से ख़त्म हो जाएगा," व्रोन्स्की ने जवाब दिया।
"तो आज शाम को फ्रांसीसी थिएटर में !" और वह अपनी पोशाक को सरसराती हुई गायब हो गई।
कामेरोव्स्की भी उठ खड़ा हुआ, व्रोन्स्की ने उसके जाने की प्रतीक्षा किए बिना उससे हाथ मिलाया और हाथ-मुँह धोने चला गया। जब वह ऐसा कर रहा था, पेत्रीत्स्की ने व्रोन्स्की के जाने के बाद अपनी स्थिति में हुए परिवर्तन का संक्षिप्त वर्णन किया। उसने व्रोन्स्की को बताया कि उसके पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। पिता ने कह दिया है कि वह पैसे नहीं देगा और कर्जे नहीं चुकाएगा। उसका दर्जी उसे जेल भिजवाना चाहता है और एक अन्य भी ऐसा ही करने की धमकी दे रहा है। रेजिमेंट के कमांडर ने ऐलान कर दिया है कि अगर ये सब किस्से ख़त्म नहीं होंगे, तो रेजिमेंट से उसकी छुट्टी कर दी जाएगी। बैरोनेस से भी वह बुरी तरह उकता गया है, खासतौर पर इसलिए कि हमेशा पैसे देने की ही बात करती रहती है। लेकिन एक और है, जिसे वह व्रोन्स्की को दिखाएगा, बहुत ही कमाल की, बहुत प्यारी, बिल्कुल पूर्वी ढंग की, “दासी रिबेका जैसी, समझे ?" बेर्कोशेव से भी कल गाली-गलौज हो गई और वह द्वन्द्व-युद्ध के लिए अपने साक्षी भेजना चाहता है, मगर ज़ाहिर है, ऐसा कुछ भी नहीं होगा। कुल मिलाकर यह कि सब कुछ बहुत बढ़िया है, खूब मज़े की चल रही है उसकी ज़िन्दगी। दोस्त को अपनी परिस्थितियों की तफ़सीलों की गहराई में डूबने का मौक़ा न देते हुए पेत्रीत्स्की उसे तरह-तरह की दिलचस्प खबरें सुनाने लगा। अपने घर के इतने जाने-पहचाने वातावरण में, जहाँ वह तीन साल बिता चुका था, पेत्रीत्स्की के इतने सुपरिचित किस्से सुनकर व्रोन्स्की को पीटर्सबर्ग के अभ्यस्त और मस्ती-भरे जीवन में लौटने की अनुभूति होने लगी।
"यह असम्भव है !" वह वाश-बेसिन के पैडल से पाँव हटाकर, जहाँ वह अपनी लाल और मज़बूत गर्दन धो रहा था, चिल्ला उठा। "यह असम्भव है !" वह यह ख़बर सुनकर चिल्ला उठा कि लोरा फ़ेर्तिनगोफ़ को छोड़कर मिलेयेव के साथ रहने लगी है। “और फ़ेर्तिनगोफ़ वैसा ही बुद्धू तथा खुश है ? और बुजुलूकोव का क्या हाल है ?"
"अहा, बुजुलूकोव के साथ क्या बढ़िया क़िस्सा हुआ-बस, मज़ा ही आ गया !" पेत्रीत्स्की चिल्ला उठा । "बॉलों का तो वह दीवाना है और दरबारी बॉलों में तो वह ज़रूर ही जाता है। सो वह नया शिरस्त्राण पहनकर बड़े बॉल में चला गया। तुमने देखे हैं नए शिरस्त्राण ? बहुत अच्छे हैं, बड़े हल्के हैं। तो वह खड़ा था...नहीं, तुम मेरी बात सुनो।”
“हाँ, मैं सुन रहा हूँ,” मोटे तौलिए से हाथ-मुँह पोंछते हुए व्रोन्स्की ने जवाब दिया।
“ग्रैंड डचेस किसी राजदूत के साथ उसके पास से गुज़री और उसकी बदक़िस्मती से उनके बीच नए शिरस्त्रानों की चर्चा चल पड़ी। ग्रैंड डचेस ने राजदूत को यह नया शिरस्त्राण दिखाना चाहा.... देखा कि हमारा यह सूरमा खड़ा है। ( पेत्रीत्स्की ने मुद्रा बनाकर दिखाई कि कैसे वह शिरस्त्राण पहने खड़ा था।) ग्रैंड डचेस ने उससे शिरस्त्राण दिखाने का अनुरोध किया, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया । यह क्या मामला है ? सभी उसे आँखों और सिरों से शिरस्त्राण देने के इशारे करें, माथे पर बल डालें । दे दो। उसने नहीं दिया । बुत बना खड़ा रहा था। तुम कल्पना करो तो... तब उसने... कौन था वह... उसने शिरस्त्राण लेना चाहा... फिर भी नहीं दिया !... उसने झपट लिया और ग्रैंड डचेस को दे दिया । "यह है नया शिरस्त्राण,” ग्रैंड डचेस ने कहा । उसने शिरस्त्राण को उल्टा किया और अब तुम कल्पना करो, उसमें से धम की आवाज़ करते हुए एक नासपाती और टॉफ़ियाँ, दो पौंड टॉफ़ियाँ नीचे जा गिरीं !... हमारे इस यार ने चुपके से शिरस्त्राण में यह सब कुछ भर लिया था !”
व्रोन्स्की हँसते-हँसते लोट-पोट हो गया। बाद में किसी दूसरी बात की चर्चा करते हुए भी शिरस्त्राणवाली घटना को याद करके वह अपने सुन्दर और मज़बूत दाँतों की चमक दिखाता हुआ देर तक ज़िन्दादिली से ठहाके लगाकर लोट-पोट होता रहा।
सारी ख़बरें सुनने के बाद नौकर की मदद से व्रोन्स्की ने अपनी वर्दी पहनी और अपने आने की रिपोर्ट देने चला गया। इसके बाद उसका अपने भाई और बेत्सी तथा कुछ दूसरे लोगों के यहाँ जाने का इरादा था, ताकि उस सामाजिक हलके में आने-जाने के लिए ज़मीन तैयार करे, जहाँ कारेनिना से उसकी भेंट हो सके। जैसाकि पीटर्सबर्ग में हमेशा होता था, वह रात को काफ़ी देर से घर लौटा।