अन्ना करेनिना (रूसी उपन्यास) : लेव तोल्सतोय

Anna Karenina (Russian Novel in Hindi) : Leo Tolstoy

अन्ना करेनिना : (अध्याय 1-भाग 2)

जाड़े के अन्त में यह तय करने के लिए कि कीटी की सेहत का क्या हाल है और उसके गिरते स्वास्थ्य को ठीक करने की खातिर क्या किया जाए, श्चेर्बात्स्की परिवार में डॉक्टरों को मशविरे के लिए बुलाया गया। कीटी बीमार रहती थी और वसन्त के निकट आने पर उसकी सेहत और भी ज़्यादा ख़राब हो गई थी। परिवार के डॉक्टर ने उसे कॉर्ड लिवर ऑयल पिलाया, उसके बाद आयरन खिलाया और इसके पश्चात चाँदी का घोल पीने को दिया, किन्तु किसी भी दवाई से कोई लाभ नहीं हुआ। चूँकि उसने वसन्त में विदेश जाने की सलाह दी, इसलिए एक जाने-माने डॉक्टर से सलाह लेने का निर्णय किया गया। इस प्रसिद्ध डॉक्टर ने, जो अभी जवान और ख़ासा खूबसूरत मर्द था, रोगी का पूरी तरह मुआयना करना चाहा। वह तो मानो विशेष आनन्द के साथ इस बात पर जोर देता था कि लड़की की लाज-शर्म बीते ज़माने की असभ्यता का अवशेष है और इससे अधिक स्वाभाविक कुछ नहीं हो सकता कि वह मर्द, जो अभी खुद भी बूढ़ा नहीं हुआ, जवान नंगी लड़की के शरीर को जाँचे-परखे। वह इसलिए इसे स्वाभाविक मानता था कि हर दिन ही ऐसा करता था और ऐसा करते हुए न तो कुछ महसूस करता था और, जैसाकि उसे प्रतीत होता था, न कोई बुरा विचार ही उसके मन में आता था। इसलिए लड़की के लजाने-शरमाने को वह न केवल जहालत का अवशेष, बल्कि अपना अपमान भी मानता था।

इस डॉक्टर की इच्छा के सामने झुकना ज़रूरी था। कारण कि यद्यपि सभी डॉक्टरों ने एक ही विद्यालय में, एक ही जैसी किताबों से पढ़ाई की थी, वे एक जैसी ही विद्या जानते थे और यद्यपि कुछ ऐसा भी कहते थे कि यह किसी काम का डॉक्टर नहीं है तथापि प्रिसेंस श्चेर्बात्स्काया के घर और उसकी जान-पहचान के लोगों में ऐसा माना जाता था कि यह विख्यात डॉक्टर कोई खास चीज़ जानता है और सिर्फ़ वही कीटी को बचा सकता है। परेशान और शर्म से बेहाल हुई कीटी की अच्छी तरह से जाँच करने और उसकी पसलियों पर उँगलियाँ बजाने तथा खूब अच्छी तरह से हाथ धोने के बाद प्रसिद्ध डॉक्टर मेहमानखाने में खड़ा हुआ प्रिंस से बातचीत कर रहा था। प्रिंस डॉक्टर की बातें सुनते हुए तनिक खाँसते थे और नाक-भौंह सिकोड़ रहे थे । वे काफ़ी ज़िन्दगी देख चुके थे, ख़ासे समझदार और स्वस्थ व्यक्ति थे, चिकित्साशास्त्र में विश्वास नहीं करते थे और मन-ही-मन इस सारे तमाशे पर झल्ला रहे थे। ख़ासतौर पर इसलिए कि वे अकेले ही तो कीटी की बीमारी के कारण को अच्छी तरह से जानते थे । 'बातूनी कहीं का,' बेटी की बीमारी के लक्षणों के बारे में उसकी बक-बक को सुनते हुए वे मन-ही-मन इस प्रसिद्ध डॉक्टर की तुलना खाली हाथ लौटने, किन्तु बढ़-चढ़कर बातें बनानेवाले शिकारी के साथ कर रहे थे। दूसरी तरफ़ डॉक्टर भी बड़ी मुश्किल से इस बूढ़े कुलीन के प्रति अपनी तिरस्कार भावना पर क़ाबू पा रहा था और कठिनाई से ही उनकी समझ के नीचे स्तर पर बातचीत कर रहा था । वह अच्छी तरह से जानता था कि बूढ़े से बात करने में कोई तुक नहीं और घर में माँ ही सब कुछ हैं। वह उन्हीं के सामने अपने क़ीमती मोती बिखेरना चाहता था। इसी समय प्रिंसेस परिवार के डॉक्टर के साथ मेहमानख़ाने में आईं। प्रिंस इस बात को छिपाने की कोशिश करते हुए कि उन्हें यह सारा तमाशा कितना हास्यास्पद लग रहा है, परे हट गए। प्रिसेंस बहुत परेशान थीं और समझ नहीं पा रही थीं कि क्या करें। वे अपने को कीटी के सामने दोषी अनुभव करती थीं ।

"तो डॉक्टर कीजिए हमारी क़िस्मत का फ़ैसला,"प्रिंसेस ने कहा । "मुझे सब कुछ बताइए।"'कोई उम्मीद है या नहीं ?' उन्होंने कहना चाहा, किन्तु उनके होंठ काँप गए और वे यह सवाल नहीं पूछ पाईं।

"हाँ, तो डॉक्टर ?”

“प्रिंसेस, मैं ज़रा अपने सहयोगी के साथ बात कर लूँ और तब आपकी सेवा में अपनी राय पेश करूँगा।"

"तो हम आपको अकेले छोड़ दें ?"

"जैसा ठीक समझें ।"

प्रिंसेस निःश्वास छोड़कर बाहर चली गईं।

जब दोनों डॉक्टर ही कमरे में रह गए, तो परिवार का डॉक्टर अपना यह मत बताने लगा कि तपेदिक़ की शुरुआत है, लेकिन... इत्यादि । प्रसिद्ध डॉक्टर ने उसकी बात सुनते हुए बीच में ही अपनी सोने की बड़ी-सी घड़ी पर नज़र डाली ।

“हाँ,” प्रसिद्ध डॉक्टर ने कहा । "लेकिन...”

परिवार का डॉक्टर आदरपूर्वक बीच में ही चुप हो गया ।

“जैसाकि आप जानते हैं, तपेदिक़ की शुरुआत को हम निश्चित तो कर नहीं सकते, कैविटी के प्रकट होने तक कुछ भी स्पष्ट नहीं हो सकता। किन्तु हम ऐसा सन्देह कर सकते हैं। इसके लिए आधार भी हैं - भूख की कमी, चिड़चिड़ापन दूर किया जाए, तो हमारे सामने सवाल यह है - तपेदिक की प्रक्रिया के आरम्भ का सन्देह होने पर भूख को बढ़ाने के लिए क्या किया जाए ?”

“किन्तु, जैसाकि आप जानते हैं, इसके पीछे हमेशा नैतिक और मानसिक कारण छिपे रहते हैं, "परिवार के डॉक्टर ने हल्की सी मुस्कान के साथ इतना तो कह ही दिया ।

“हाँ, सो तो है ही,” नामी डॉक्टर ने फिर से अपनी घड़ी पर नज़र डालकर जवाब दिया । "माफ़ी चाहता हूँ, लेकिन क्या याउज़ा पुल बन गया या अभी तक बड़ा चक्कर काटकर जाना पड़ता है ?” उसने पूछा। “अच्छा, बन गया ! तब तो मैं बीस मिनट में पहुँच सकता हूँ। हाँ, हम कह रहे थे कि हमारे सामने सवाल यह है- भूख बढ़ाई जाए और चिड़चिड़ापन दूर किया जाए। ये दोनों चीजें, एक-दूसरी से सम्बन्धित हैं और हमें दोनों की ओर ध्यान देना चाहिए।”

"किन्तु विदेश जाने के बारे में आपकी क्या राय है ?"परिवार के डॉक्टर ने पूछा ।

"मैं विदेश जाने का बड़ा विरोधी हूँ । आप इस बात पर ध्यान दें कि अगर तपेदिक़ की प्रक्रिया का आरम्भ ही है, जो हम निश्चित नहीं कर सकते, तो विदेश यात्रा से कोई लाभ नहीं होगा। ऐसे इलाज की ज़रूरत है, जिससे भूख बढ़े और हानि किसी तरह की न हो।"

नामी डॉक्टर ने सोडेन खनिज जल से इलाज करने की योजना बताई। ऐसे इलाज का सुझाव देने का सम्भवतः मुख्य कारण यही था कि इससे किसी तरह की हानि नहीं होगी ।

परिवार का डॉक्टर बहुत ध्यान और बड़े आदर से उसकी बात सुन रहा था।

"किन्तु विदेश यात्रा के पक्ष में मैं यह कहना चाहूँगा कि उससे अभ्यस्त जीवन में कुछ परिवर्तन होगा, यादों को ताज़ा करनेवाला वातावरण नहीं रहेगा। इसके अलावा उसकी माँ ऐसा चाहती भी हैं, "उसने कहा ।

"समझा ! अगर ऐसा है, तो जाएँ, लेकिन ये जर्मन नीम-हकीम नुक़सान ही पहुँचाएँगे...ज़रूरत इस बात की हैं कि वे मेरी बातों पर कान दें।"

उसने फिर से घड़ी पर नज़र डाली।

"ओह ! जाने का वक़्त हो गया..."और दरवाज़े की तरफ़ चल दिया ।

नामी डॉक्टर ने प्रिंसेस से कहा (शायद शिष्टतावश ऐसा करना ज़रूरी था कि उसके लिए रोगी को फिर से देखना ज़रूरी है।

"क्या मतलब ! फिर से देखना ज़रूरी है ?” प्रिंसेस घबराकर चिल्लाईं ।

"नहीं, नहीं, मेरा मतलब यह है कि कुछ तफ़सीलें जानना ज़रूरी है।”

"कृपया पधारिए।"

और माँ डॉक्टर को मेहमानख़ाने में कीटी के पास ले चलीं । दुबलाई और दहकते गालों तथा आँखों में उस शर्म के कारण, जो उसे सहन करनी पड़ी थी, विशेष प्रकार की चमक लिए कीटी कमरे के मध्य में खड़ी थी। डॉक्टर के कमरे में दाखिल होने पर वह बिल्कुल लाल हो गई और उसकी आँखें छलछला आईं। उसे अपनी सारी बीमारी और उसका इलाज एक बेवकूफ़ी, यहाँ तक कि हास्यास्पद भी लग रहा था । उसे अपना इलाज टूटे हुए फूलदान के टुकड़ों को जोड़ने के समान बेहूदा प्रतीत हो रहा था। उसके दिल के टुकड़े हो गए थे। तो क्या वे दवाई की गोलियों और पाउडरों से उसका इलाज करना चाहते हैं ? लेकिन वह माँ के दिल को ठेस नहीं लगा सकती थी, ख़ासतौर पर जबकि माँ अपने को दोषी अनुभव करती थीं।

“प्रिंसेस, ज़रा बैठ जाने की कृपा करें,"नामी डॉक्टर ने कहा ।

डॉक्टर मुस्कुराता हुआ उसके सामने बैठ गया, उसने नब्ज़ हाथ में ले ली और फिर से ऊब भरे सवाल पूछने लगा । कीटी ने उत्तर दिए और अचानक नाराज़ होकर खड़ी हो गई ।

“क्षमा चाहती हूँ, डॉक्टर, किन्तु इस सबसे कोई लाभ नहीं होगा। आप मुझसे वही बात तीसरी बार पूछ रहे हैं।"

नामी डॉक्टर ने बुरा नहीं माना।

“यह चिड़चिड़ापन बीमारी के कारण है,” कीटी के बाहर चली जाने पर उसने माँ से कहा। “वैसे, मैं अपना काम पूरा कर चुका हूँ..."

डॉक्टर ने एक असाधारण सूझ-बूझ वाली नारी के रूप में माँ के सामने बेटी की हालत को वैज्ञानिक ढंग से स्पष्ट किया और अन्त में यह बताया कि कैसे वह खनिज जल पिया जाए, जिसे पीने की कोई आवश्यकता नहीं थी। यह पूछे जाने पर कि विदेश जाएँ या नहीं, डॉक्टर ऐसे गहरी सोच डूब गया मानो कोई मुश्किल सवाल हल कर रहा हो । आखिर उसने अपना यह फ़ैसला सुनाया- जाएँ, किन्तु नीम-हकीमों पर विश्वास न करें और हर बात के लिए उसकी सलाह लें ।

डॉक्टर के जाने के बाद मानो खुशी-सी छा गई। बेटी के पास लौटने पर माँ खुश-खुश - सी दिखाई दीं और बेटी ने भी यह ढोंग किया कि वह अच्छे मूड में है। कीटी को अक्सर, लगभग हर समय ही अब ढोंग करना पड़ता था ।

“सच कहती हूँ कि मैं भली-चंगी हूँ, maman. किन्तु यदि आप चाहती हैं, तो हम विदेश चल सकती हैं,” कीटी ने कहा और यह दिखाने की कोशिश करते हुए कि निकट भविष्य में होनेवाली यात्रा में उसकी दिलचस्पी है, उसकी तैयारी की चर्चा करने लगी ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 2-भाग 2)

डॉक्टर के जाने के फ़ौरन बाद डॉली आ गई । उसे मालूम था कि इस दिन डॉक्टरों से सलाह-मशविरा किया जाएगा और इस चीज़ के बावजूद कि उसने कुछ ही दिन पहले प्रसूति से मुक्ति पाई थी (जाड़े के अन्त में उसने एक और बेटी को जन्म दिया था), और इस बात की भी परवाह न करते हुए कि खुद उसे भी कुछ कम परेशानियाँ और चिन्ताएँ नहीं थीं, वह अपनी दूधपीती बच्ची और दूसरी बीमार बालिका को छोड़कर कीटी के भाग्य निर्णय के बारे में जानने का, जो आज तय हो रहा था, यहाँ आई थी।

"तो क्या कहा डॉक्टरों ने ?” उसने टोपी उतारे बिना ही मेहमानखाने में दाखिल होते हुए पूछा । "आप सभी खुश नज़र आ रहे हैं। सब कुछ ठीक-ठाक है न ?”

नामी डॉक्टर ने जो कुछ कहा था, उन्होंने उसे वह बताने की कोशिश की । किन्तु, यद्यपि डॉक्टर बहुत सुन्दर ढंग से और देर तक अपनी बात कहता रहा था, वे किसी तरह भी डॉली को यह न बता सकीं कि उसने क्या कहा था। दिलचस्प बात सिर्फ़ इतनी ही थी कि विदेश जाने का निर्णय कर लिया गया था।

डॉली ने अनचाहे ही गहरी साँस ली। उसकी सबसे अच्छी मित्र, उसकी बहन विदेश जा रही थी । और डॉली का अपना जीवन सुखी नहीं था । सुलह के बाद ओब्लोन्स्की के साथ उसके सम्बन्ध अपमानजनक हो गए थे। आन्ना ने जो सन्धि करवाई थी, वह बहुत पक्की साबित नहीं हुई और पारिवारिक मेल-मिलाप में उसी जगह फिर से दरार पड़ गई थी। ख़ास बात तो नहीं हुई थी, किन्तु ओब्लोन्स्की घर पर लगभग कभी नहीं रहता था, घर में पैसे भी लगभग कभी नहीं होते थे, पति की बेवफ़ाई के सन्देह डॉली को निरन्तर यातना देते रहते थे और डॉली ईर्ष्या भाव की पीड़ा से डरती हुई इन सन्देहों को अपने से दूर भगाती रहती थी । ईर्ष्या का जो पहला विस्फ़ोट वह सहन कर चुकी थी, अब उसकी पुनरावृत्ति नहीं हो सकती थी और बेवफ़ाई की जानकारी होने पर भी अब उस पर वैसा ही असर न होता, जैसा पहली बार हुआ था। ऐसी जानकारी होने पर उसका केवल अभ्यस्त पारिवारिक जीवन की गड़बड़ा जाता और वह उसे तथा इस दुर्बलता के लिए अपने से और भी अधिक घृणा करती हुई अपने को धोखा देने देती । इस परेशानी के अलावा बड़े कुनबे की चिन्ताएँ उसे निरन्तर घेरे रहती थीं -कभी तो बच्ची को दूध पिलाने में कठिनाई होती, फिर आया चली गई और फिर कभी कोई बच्चा बीमार हो जाता, जैसा आज था।

"तुम्हारे बच्चों का क्या हालचाल है ?"माँ ने पूछा ।

“ओह, maman, आपकी अपनी परेशानियाँ ही बहुत हैं। लिली बीमार हो गई है और मुझे डर है कि उसे लाल बुख़ार है। मैं कीटी के बारे में जानने को अभी चली आई, नहीं तो भगवान न करें, अगर उसे लाल बुखार होगा, तो मेरा घर से निकलना ही नहीं हो सकेगा ।"

बूढ़े प्रिंस भी डॉक्टर के जाने के बाद अपने कमरे से बाहर निकल आए और डॉली से अपने गाल पर चुम्बन पाने तथा उससे बातचीत करने के बाद पत्नी से बोले :

"तो क्या जाने का फ़ैसला कर लिया ? मेरे बारे में क्या विचार है ?"

“मैं समझती हूँ कि तुम्हें यहीं रहना चाहिए, अलेक्सान्द्र"बीवी ने जवाब दिया । "जैसा ठीक समझें ।"

“Maman, पापा भी क्यों न चलें हमारे साथ ?” कीटी ने कहा । "ये भी खुश रहेंगे और हम भी।"

बूढ़े प्रिंस उठे और उन्होंने कीटी के बाल सहलाए। कीटी ने मुँह ऊपर को किया और यत्नपूर्वक मुस्कुराकर पापा की तरफ़ देखा । कीटी को हमेशा ऐसा लगता था कि यद्यपि पापा उससे बहुत कम बात करते थे, वही उसे परिवार में सबसे ज़्यादा अच्छी तरह समझते थे। सबसे छोटी होने के नाते वह पापा की लाड़ली थी और कीटी को ऐसा प्रतीत होता था कि उसके प्रति पापा के प्यार ने उन्हें सूक्ष्मदर्शी बना दिया है। उसे एकटक देखती हुई पापा की नीली और दयालु आँखों से जब उसकी आँखें मिलीं तो उसे लगा कि पापा उसे आर-पार देख रहे हैं और उसकी आत्मा की हर बेचैनी को समझते हैं। कीटी लज्जारुण होते हुए इस आशा से पापा की ओर झुकी कि वे उसे चूमेंगे, किन्तु उन्होंने केवल उसके बाल थपथपा दिए और बोले :

“ये मूर्खतापूर्ण पराये बाल ! अपनी बिटिया के बाल सहलाने के बजाय किन्हीं मृत बुढ़ियाओं के बालों कोही सहला पाता हूँ। हाँ, तो डॉली,” उन्होंने बड़ी बेटी को सम्बोधित किया, "तुम्हारा वह तुरुप का इक्का क्या तीर मार रहा है ?"

"ठीक है, पापा,” डॉली ने यह समझते हुए कि उसके पति की चर्चा हो रही है, जवाब दिया । "हमेशा बाहर ही रहता है, मैं तो उसे लगभग घर में नहीं देख पाती,” वह व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ इतना और कहे बिना न रह सकी ।

"तो क्या वह अभी तक जंगल बेचने के लिए गाँव नहीं गया ?"

"नहीं, सोच रहा है जाने की।"

“अच्छा !” प्रिंस ने कहा । "तो क्या मुझे भी जाने की तैयारी करनी चाहिए ? मैं हुक्म बजाने को तैयार हूँ,” उन्होंने बैठते हुए अपनी बीवी से कहा । "और कीटी, तुम ऐसा करो,” वे छोटी बेटी से बोले, “किसी एक शुभ दिन तुम आँख खोलते ही अपने आपसे कहना - मैं बिल्कुल स्वस्थ और ख़ूब मज़े में हूँ और फिर से पापा के साथ तड़के ही जाड़े पाले में सैर को जाया करूँगी। क्या ख़याल है ?"

पापा ने जो कुछ कहा था, वह यों तो बहुत सीधा-सादा प्रतीत होता था, किन्तु ये शब्द सुनकर कीटी एक अपराधी की तरह बेचैन और परेशान हो उठी। "हाँ, पापा सब कुछ जानते, सब कुछ समझते हैं और इन शब्दों द्वारा मुझसे यह कह रहे हैं कि बेशक तुम्हें शर्मिन्दगी का सामना करना पड़ रहा है, फिर भी तुम्हें उससे निजात पानी चाहिए।"वह उन्हें जवाब देने की हिम्मत नहीं बटोर पाई। उसने कुछ कहना शुरू किया, लेकिन अचानक रो पड़ी और कमरे से बाहर भाग गई ।

"यह नतीजा होता है तुम्हारे मज़ाक़ों का !” प्रिंसेस पति पर बरस पड़ीं। "तुम हमेशा ..."उन्होंने पति को डाँट पिलानी शुरू कर दी।

प्रिंस देर तक पत्नी की डाँट सुनते हुए चुप रहे, किन्तु उनके तेवर चढ़ते चले गए।

“वह इतनी ज़्यादा दुःखी है, इतनी ज़्यादा दुःखी है, बेचारी, लेकिन तुम यह महसूस नहीं करते कि उसे असली वजह की तरफ़ ज़रा-सा इशारा करने पर भी कितनी ठेस लगती है । आह ! कितना धोखा खा जाते हैं हम लोगों के बारे में !” प्रिंसेस ने कहा और उनका अन्दाज़ बदलने से डॉली तथा प्रिंस समझ गए कि अब वे व्रोन्स्की की चर्चा कर रही हैं। "मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसे दुष्ट और बुरे लोगों के ख़िलाफ़ कोई क़ानून-क़ायदे क्यों नहीं हैं ?"

“आह, यह तुम क्या कह रही हो !” प्रिंस ने दुःखी होते और मानो बाहर जाने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए कहा। लेकिन वे दरवाज़े के पास जाकर रुक गए। "क़ानून तो हैं और अब अगर तुमने मुझे ज़बान खोलने को मजबूर कर ही दिया है, तो सुनो कि इस सबके लिए तुम, और केवल तुम ही दोषी हो। ऐसे छैल-छबीलों के विरुद्ध क़ानून सदा थे, और हैं ! हाँ, अगर वैसा न होता, जैसाकि नहीं होना चाहिए था, तो मैं, बूढ़ा होते हुए भी, उस शैतान को द्वन्द्व-युद्ध की चुनौती देता । और अब इसका इलाज करवाइए, इन ढोंगी नीम-हकीमों के फेर में पड़िए !"

प्रिंस सम्भवतः और भी बहुत कुछ कहना चाहते थे, किन्तु प्रिंसेस ने जैसे ही उनका बात कहने का यह अन्दाज़ देखा, वैसे ही, जैसेकि हमेशा सभी गम्भीर मामलों में होता था, फ़ौरन झुक गईं और पश्चात्ताप करने लगीं ।

“अलेक्सान्द्र, अलेक्सान्द्र,” पति की ओर बढ़ती हुई प्रिंसेस फुसफुसाईं और रो पड़ीं ।

पत्नी के रो पड़ते ही प्रिंस चुप हो गए। वे पत्नी के पास जाकर बोले:

“बस, बस करो ! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे मन पर भी भारी गुज़र रही है । किया क्या जाए ? कोई बड़ी मुसीबत नहीं है। भगवान दयालु हैं..."खुद यह न समझते हुए कि वे क्या कह रहे हैं तथा हाथ पर पत्नी के आँसू भीगे चुम्बन को अनुभव करके और धन्यवाद देकर वे कमरे से बाहर चले गए।

कीटी जैसे ही आँखों में आँसू भरे हुए कमरे से निकली, डॉली ने स्वयं माँ और पारिवारिक जीवन की अभ्यस्त होने के नाते फ़ौरन यह समझ लिया कि अब नारी के रूप में उसे कुछ करना चाहिए और उसने अपने को इसके लिए तैयार कर लिया। उसने अपनी टोपी उतार दी और मन-ही-मन मानो आस्तीने चढ़ाकर मैदान में उतरने को तत्पर हो गई। माँ जब पिता पर बरस रही थीं, तो उसने बेटी के नाते जहाँ तक उचित था, माँ को रोकने की कोशिश की। पिता के फट पड़ने पर वह ख़ामोश रही। उसे माँ के लिए शर्म और पिता के प्रति, उनकी उसी क्षण लौट आनेवाली दयालुता के कारण प्यार की अनुभूति हो रही थी। किन्तु पिता के बाहर चले जाने पर वह सबसे महत्त्वपूर्ण चीज़ यानी कीटी के पास जाकर उसे शान्त करने की सोचने लगी।

"Maman, मैं बहुत दिनों से आपको एक बात कहना चाहती थी-आपको यह मालूम है या नहीं कि लेकिन जब आखिरी बार यहाँ था, तो वह कीटी से विवाह का प्रस्ताव करना चाहता था ? उसने स्तीवा से यह कहा था।"

"तो क्या हुआ ? तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आ रही..."

"हो सकता है कि कीटी ने उसे इनकार कर दिया हो ? उसने आपसे नहीं कहा ?"

"नहीं, उसने दोनों में से किसी के बारे में भी कुछ नहीं कहा, वह बड़ी गर्वीली है। लेकिन मैं जानती हूँ कि यह सब कुछ इसी बात के कारण है..."

“हाँ, आप कल्पना करें कि अगर उसने लेविन को इनकार कर दिया है, किन्तु वह उसे कभी इनकार न करती अगर वह दूसरा न होता। मैं जानती हूँ...और बाद में इसने उसे कैसे धोखा दिया ?"

प्रिंसेस के लिए यह सोचना बड़ा भयानक था कि कीटी के सामने वे कितनी अधिक दोषी हैं और इसलिए वे झल्ला उठीं।

"ओह, मेरी समझ में अब कुछ नहीं आ रहा ! आजकल सब अपनी ही अक्ल से जीना चाहते हैं और माँ को कुछ भी नहीं बताते। इसीलिए बाद में यह..."

"Maman, मैं उसके पास जाती हूँ।"

“जाओ। मैं क्या तुम्हें मना कर रही हूँ ?"माँ ने जवाब दिया।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 3-भाग 2)

कीटी के सुन्दर, गुलाबी रंगवाले और सैक्सोनी चीनी मिट्टी की गुड़ियाओं सहित छोटे कमरे में दाख़िल होने पर, जो दो महीने पहले की कीटी के समान की ताज़गी, गुलाबीपन और प्रफुल्लता लिए हुए था, डॉली को यह याद हो आया कि पिछले साल कैसे दोनों बहनों ने मिलकर कितनी खुशी और प्यार से इस कमरे को सजाया-सँवारा था । उसने जब कीटी को दरवाज़े के क़रीब नीची-सी कुर्सी पर बैठे और क़ालीन के एक कोने पर निश्चल दृष्टि जमाए देखा, तो उसका दिल बैठ गया । कीटी ने अपनी बहन की तरफ़ नज़र उठाई और उसके चेहरे पर रुखाई, बल्कि कुछ कठोरता का भाव नहीं बदला।

“मैं अभी चली जाऊँगी, फिर घर से निकल नहीं सकूँगी और तुम मेरे पास आ नहीं सकोगी, "डॉली ने कीटी के निकट बैठते हुए कहा । "मैं तुम्हारे साथ कुछ बातचीत करना चाहती हूँ ।"

“किस बारे में ?” घबराकर सिर ऊँचा करते हुए कीटी ने झटपट पूछा ।

"अगर तुम्हारे दुःख के बारे में नहीं तो और किस बारे में ?"

"मुझे कोई दुःख नहीं है ।"

"हटाओ, कीटी ! क्या तुम यह सोचती हो कि मुझसे यह सब छिपा रह सकता है ? मैं सब कुछ जानती हूँ। और मुझ पर यक़ीन करो कि यह इतनी तुच्छ चीज़ है...हम सभी को इसका अनुभव हुआ है ।"

कीटी ख़ामोश रही और उसके चेहरे पर कठोरता का भाव बना रहा था ।

“वह इसके लायक़ नहीं है कि तुम उसके लिए अपना मन दुःखाओ,"डॉली ने सीधे-सीधे मतलब की बात कह दी।

“हाँ, क्योंकि उसने मेरी उपेक्षा कर दी है,” कीटी काँपती आवाज़ में कह उठी । “कुछ नहीं कहो ! कृपया इस बारे में कुछ नहीं कहो !"

“ऐसा तुमसे किसने कहा है ? किसी ने भी ऐसा नहीं कहा। मुझे विश्वास है, वह तुमसे प्यार करता था और अब भी करता है, किन्तु...”

“आह, ये सहानुभूति के प्रदर्शन ही सबसे ज़्यादा भयानक होते हैं !” कीटी अचानक गुस्से में आकर चिल्ला उठी। उसने कुर्सी पर घूमकर मुँह दूसरी ओर कर लिया, गुस्से से लाल हो गई और उँगलियों को जल्दी-जल्दी हिलाते हुए कभी एक, तो कभी दूसरे हाथ से पेटी के उस बकसुए को दबाने लगी, जो वह हाथ में लिए थी। गुस्से में आने पर हाथों को ऐसे पकड़ने - दबाने की कीटी की आदत से डॉली परिचित थी। उसे यह भी मालूम था कि क्रोध के ऐसे क्षणों में कीटी को भले-बुरे का कुछ भी ध्यान नहीं रहता और वह बहुत-सी अवांछित तथा कड़वी बातें भी कह सकती है। डॉली ने उसे शान्त करना चाहा, किन्तु देर हो चुकी थी ।

"क्या, तुम क्या अनुभव करवाना चाहती हो मुझे ?"कीटी जल्दी-जल्दी कह रही थी ।

"यही कि मैं ऐसे आदमी को प्यार करती थी, जिसने मेरी रत्ती भर परवाह नहीं की और यह कि मैं उसके प्यार में मरी जा रही हूँ ? और मुझसे ऐसा मेरी बहन कह रही है, जो यह समझती है कि... कि वह मेरे प्रति सहानुभूति प्रकट कर रही है !... मुझे नहीं चाहिए ऐसी सहानुभूति और ऐसा ढोंग !”

"कीटी, यह तुम्हारी ज़्यादती है !”

“किसलिए तुम मुझे यह यातना दे रही हो ?"

“मैं तो उल्टे... मैं देख रही हूँ कि तुम दुःखी हो..."किन्तु कीटी ने अपने गुस्से में उसकी बात नहीं सुनी।

"मेरे लिए दुःखी होने और सान्त्वना पाने का कोई कारण नहीं है। मैं इतनी गर्वीली हूँ कि कभी ऐसे आदमी को प्यार नहीं करूँगी, जो मुझे प्यार नहीं करता।”

"मैं तो यह कह ही नहीं रही हूँ...तुम एक बात मुझे सच सच बताओ,” कीटी का हाथ अपने में लेकर डॉली बोली, “मुझे बताओ, क्या लेविन ने तुमसे अपने इरादे का ज़िक्र किया था ?..."

लेविन की याद दिलाने पर तो कीटी मानो बिल्कुल आपे से बाहर हो गई । वह उछलकर कुर्सी से उठ खड़ी हुई, उसने बकसुआ ज़मीन पर दे मारा और हाथों को तेज़ी से हिलाते-डुलाते हुए कह उठी :

“लेविन का यहाँ क्या सवाल पैदा होता है ? समझ में नहीं आता कि तुम किसलिए मुझे सताना चाहती हो ? मैं कह चुकी हूँ और दोहराती हूँ कि मुझमें आत्माभिमान है और कभी, कभी भी वह नहीं करूँगी, जो तुम करती हो - उस आदमी के पास कभी नहीं लौटूंगी, जिसने मेरे साथ बेवफ़ाई की है और किसी दूसरी नारी को प्यार करने लगा है। यह मेरी समझ में नहीं आता, नहीं आता। तुम ऐसा कर सकती हो, मैं नहीं कर सकती !”

ये शब्द कहकर उसने बहन पर नज़र डाली और यह देखकर कि डॉली सिर झुकाए हुए ख़ामोश है, कीटी कमरे में बाहर आने के बजाय, जैसाकि उसका इरादा था, दरवाज़े के पास बैठ गई और मुँह को रूमाल से ढँककर उसने सिर झुका लिया ।

कोई दो मिनट तक ख़ामोशी बनी रही। डॉली अपने बारे में सोच रही थी। अपना यही अपमान, जो वह हमेशा अनुभव करती थी, बहन के याद दिलाने पर विशेषतः ज़ोर से टीस उठा। उसने बहन से ऐसी निर्ममता की आशा नहीं की थी और वह उससे नाराज़ हो गई। किन्तु अचानक उसे पोशाक की सरसराहट और साथ ही दबी-घुटी सिसकियों की आवाज़ सुनाई दी और किसी ने नीचे की तरफ़ से उसके गले में बाँहें डाल दीं । कीटी उसके सामने घुटने टेके हुए थी ।

"प्यारी डॉली, मैं इतनी दुःखी हूँ, इतनी अधिक दुःखी हूँ !” वह दोषी की तरह फुसफुसाई । कीटी ने आँसुओं से तर अपना प्यारा चेहरा डॉली के स्कर्ट में छिपा लिया ।

आँसू तो मानो उस ज़रूरी तेल के समान थे, जिनके बिना दोनों बहनों के आपसी मेल-मिलाप की गाड़ी सफलतापूर्वक नहीं चल सकती थी । आँसुओं के बाद बहनों ने उस बात की चर्चा नहीं की, जिसमें उन दोनों की दिलचस्पी थी। किन्तु दूसरी बातों की चर्चा करते हुए भी वे एक-दूसरी को समझ गईं। कीटी समझ गई कि उसने गुस्से में डॉली के पति की बेवफ़ाई और उसके अपमान के बारे में जो कुछ कहा था, उससे बेचारी बहन के दिल को गहरी ठेस लगी है, मगर उसने उसे क्षमा कर दिया है। दूसरी तरफ़ डॉली वह सब समझ गई, जो जानना चाहती थी। उसे यक़ीन हो गया कि उसके अनुमान बिल्कुल सही थे, कीटी का दुःख, वह दुःख, जिसका कोई इलाज नहीं था, इसी बात में निहित था कि लेविन ने उससे विवाह का प्रस्ताव किया और उसने उसे इनकार कर दिया, किन्तु व्रोन्स्की ने उसे धोखा दिया और वह लेविन को प्यार करने को तैयार थी तथा व्रोन्स्की से घृणा करती थी । कीटी ने इस सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं कहा, उसने तो केवल अपनी मानसिक स्थिति की चर्चा की ।

“मुझे किसी तरह कोई दुःख नहीं है,” शान्त होने पर उसने कहा, "लेकिन तुम समझ सकती हो कि मुझे कुछ गन्दा, घिनौना और बेहूदा लगता है और सबसे पहले मैं खुद अपनी नज़रों में ही ऐसी हो गई हूँ। तुम कल्पना भी नहीं कर सकतीं कि सभी चीज़ों के बारे में मेरे दिल में कैसे बुरे विचार आते हैं।"

"कैसे बुरे विचार हो सकते हैं तुम्हारे मन में ?"डॉली ने मुस्कुराते हुए पूछा ।

"बहुत, बहुत ही बुरे और बेहूदा । मैं तुम्हें बता भी नहीं सकती। यह बेचैनी नहीं, ऊब नहीं, बल्कि इससे कहीं अधिक बुरी चीज़ है। ऐसे लगता है कि मानो मेरे भीतर जो कुछ भी अच्छा था, सब गायब हो गया और सिर्फ़ सबसे बुरा ही बाक़ी रह गया है। कैसे समझाऊँ मैं तुम्हें यह ?” बहन की आँखों में यह भाव देखकर मानो वह उसे समझ न पा रही हो, वह कहती गई । “पापा अभी मुझसे कहने लगे...मुझे लगता है, वे केवल यही समझते हैं कि मुझे शादी करनी चाहिए । अम्मा मुझे बॉल में ले जाती हैं- मुझे लगता है, वे इसीलिए मुझे वहाँ ले जाती हैं कि जल्दी से मेरी शादी करके मुझसे पिंड छुड़ा लें। मैं जानती हूँ कि यह सच नहीं है, किन्तु ऐसे विचारों को दिल से खदेड़ नहीं पाती। तथाकथित वरों को तो मैं फूटी आँखों नहीं देख पाती। ऐसा लगता है कि वे मानो मेरी माप लेते हैं। पहले तो बॉल की पोशाक पहनकर कहीं जाना मेरे लिए बड़ी खुशी की बात होती थी, मैं अपने पर मुग्ध हुआ करती थी, किन्तु अब मुझे शर्म आती है, अटपटापन महसूस होता है। तो क्या करूँ मैं ? और डॉक्टर... हाँ..."

कीटी झिझक गई। वह आगे यह कहना चाहती थी कि जिस समय से उसमें यह परिवर्तन हुआ है, स्तेपान अर्काद्येविच उसकी नज़र में बुरी तरह खटकने लगा है और वह बहुत ही बुरे और घिनौने विचारों के बिना उसकी कल्पना नहीं कर सकती।

“हाँ, सब कुछ बहुत बुरे और घिनौने रूप में मेरे सामने आता है,"वह कहती गई । "यही मेरी बीमारी है। शायद यह दूर हो जाएगी..."

"तुम सोचा न करो...'

"मैं ऐसा नहीं कर पाती। सिर्फ़ बच्चों के साथ, सिर्फ़ तुम्हारे यहाँ ही मैं खुश रहती हूँ ।"

"दुःख की बात है कि तुम मेरे यहाँ नहीं आ सकतीं।”

"नहीं, मैं आऊँगी। मुझे लाल बुखार हो चुका है और मैं maman से तुम्हारे यहाँ जाने की अनुमति ले लूँगी।”

कीटी ने अपनी बात मनवा ली, बहन के यहाँ चली गई और लाल बुख़ार के दौरान, जो सचमुच ही प्रकट हो गया था, बच्चों की देखभाल करती रही। दोनों बहनों ने छः के छः बच्चों को इस रोग के संकट से सही-सलामत उबार लिया, किन्तु कीटी का स्वास्थ्य बेहतर नहीं हुआ। लेन्ट पर्व के अवसर पर श्चेर्बात्स्की परिवार विदेश चला गया ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 4-भाग 2)

पीटर्सबर्ग का ऊँचा सामाजिक हलक़ा वास्तव में एक ही है- सभी एक-दूसरे को जानते हैं, एक-दूसरे के यहाँ आते-जाते भी हैं । किन्तु एक बड़े हलके में अपने छोटे-छोटे दायरे भी हैं। आन्ना अर्काद्येव्ना कारेनिना के तीन विभिन्न दायरों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध थे और वहाँ उसकी सहेलियाँ और मित्र थे । एक दायरा तो उसके पति का सरकारी और औपचारिक दायरा था, जिसमें उसके साथ काम करनेवाले तथा उसके मातहत लोग शामिल थे। ये लोग अत्यधिक विविधतापूर्ण और अजीब ढंग से सामाजिक सम्बन्धों में बँधे या बँटे हुए थे । आन्ना अब मुश्किल से ही उस लगभग पावन सम्मान की भावना को याद कर सकती थी, जो शुरू में वह उन लोगों के प्रति अनुभव करती थी। अब तो वह उन सभी को वैसे ही जानती थी, जैसे छोटे से शहर में एक-दूसरे को जानते हैं । उसे मालूम था कि किसकी कैसी आदतें और कमज़ोरियाँ हैं, किसको किसके कारण परेशानी होती है, एक-दूसरे और मुख्य केन्द्र के प्रति उनके रवैये से परिचित थी। उसे पता था कि कौन किसका, कैसे और किस चीज के बल पर दामन थामे है और कौन किस चीज़ में सहमत और असहमत है। लेकिन काउंटेस लीदिया इवानोव्ना के समझाने-बुझाने के बावजूद इन सरकारी हितों वाले मर्दों का यह दायरा उसे कभी अच्छा नहीं लगता था, और वह उससे कतराती थी ।

आन्ना के मेल-जोल का दूसरा दायरा वह था, जिसके ज़रिये उसके पति कारेनिन ने अपनी नौकरी में तरक़्क़ी की थी। काउंटेस लीदिया इवानोव्ना इस दायरे का केन्द्र-बिन्दु थी । यह बूढ़ी, बदसूरत, सदाचारी और धर्म-कर्म में डूबी हुई औरतों और समझदार, विद्वान तथा महत्त्वाकांक्षी मर्दों का दायरा था। इस दायरे से सम्बन्ध रखनेवाले एक बुद्धिमान व्यक्ति ने इसे 'पीटर्सबर्ग के समाज की आत्मा' की संज्ञा दी थी। कारेनिन इस दायरे को बहुत महत्त्व देता था और सबके साथ निबाह कर लेनेवाली आन्ना ने पीटर्सबर्ग के अपने प्रारम्भिक जीवन में इस दायरे में भी मित्र बना लिए थे। अब मास्को से लौटने पर यह दायरा उसे बहुत ही बुरी तरह से अखरने लगा। उसे प्रतीत होता कि वह खुद और बाक़ी सभी लोग भी ढोंग करते हैं। इसलिए इस दायरे में वह बड़ी ऊब तथा अटपटापन अनुभव करने और काउंटेस लीदिया इवानोव्ना के यहाँ कम-से-कम जाने लगी ।

तीसरा, आखिरी दायरा, जिसके साथ उसके सम्बन्ध थे, बॉलों, दावतों और शानदार पोशाकों का दायरा था । यह वह कुलीन समाज था, जो एक हाथ से दरबार को थामे रहता था, ताकि अपने से नीचे के समाज में न खिसक जाए। इस कुलीन समाज के लोग अपने ख़याल में इस नीचेवाले समाज को तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे, किन्तु उसके साथ उनकी रुचियाँ न केवल मिलती-जुलती ही, बल्कि सर्वथा समान थीं। इस दायरे के साथ प्रिंसेस बेत्सी त्वेरस्काया के ज़रिये उसका सम्बन्ध बना हुआ था। प्रिंसेस बेत्सी उसके चचेरे भाई की पत्नी थी, उसकी एक लाख बीस हज़ार की आमदनी थी, और आन्ना के कुलीन समाज में प्रकट होते ही उसे उससे विशेष अनुराग हो गया था । वह आन्ना की बहुत ख़ातिरदारी करती थी और काउंटेस लीदिया इवानोव्ना के दायरे का मज़ाक़ उड़ाते हुए उसे अपने दायरे में खींच लाई थी ।

"बूढ़ी- खूसट और बदसूरत होने पर मैं भी उसके जैसी ही हो जाऊँगी,” बेत्सी कहती, "लेकिन आपके जैसी जवान और सुन्दर नारी के लिए अभी उन बूढ़ी औरतों के आश्रम में जाने का वक़्त नहीं आया ।"

पहले कुछ समय में तो आन्ना ने प्रिंसेस बेत्सी त्वेरस्काया के दायरे से यथासम्भव दूर रहने का प्रयास किया, क्योंकि इसके लिए जितने ख़र्च की ज़रूरत थी, वह उसके साधनों से बाहर की बात थी और वैसे दिल से भी वह पहले दायरे को ही तरजीह देती थी। लेकिन मास्को से लौटने के बाद उसका रुख़ बिल्कुल दूसरा हो गया। वह अपने नैतिक झुकाववाले मित्रों से कन्नी काटती और ऊँचे कुलीन समाज में जाती। वहाँ व्रोन्स्की से उसकी भेंट होती और ऐसी भेंटें उसे उत्तेजनापूर्ण खुशी प्रदान करतीं । बेसी के यहाँ तो विशेषतः उसकी व्रोन्स्की से अक्सर मुलाक़ात होती । बेत्सी भी व्रोन्स्की परिवार में ही जन्मी थी और उसकी चचेरी बहन थी । व्रोन्स्की हर उस जगह पर पहुँचता, जहाँ उसे आन्ना से मिलने की आशा होती और जब भी सम्भव होता, उससे अपने प्यार की चर्चा करता । वह उसे किसी भी तरह का बढ़ावा न देती, किन्तु उससे होनेवाली हर मुलाक़ात के समय उसे वैसी ही सजीवता की अनुभूति होती, जैसी उसने उस दिन रेलगाड़ी में व्रोन्स्की को पहली बार देखने पर अनुभव की थी । आन्ना ने खुद यह महसूस किया था कि उसे देखते ही उसकी आँखों में खुशी की चमक आ जाती है, होंठों पर मुस्कान खिल उठती है और अपनी खुशी की इस अभिव्यक्ति को वह किसी तरह भी छिपा नहीं पाती है।

शुरू-शुरू में आन्ना सच्चे मन से यह विश्वास करती थी कि व्रोन्स्की का हर जगह उसके पीछे-पीछे पहुँच जाना उसे अच्छा नहीं लगता है। किन्तु मास्को से लौटने के कुछ ही दिन बाद जब वह एक समारोह में गई, जहाँ उसे उससे मिलने की आशा थी, किन्तु वह वहाँ नहीं आया था, तो उस पर हावी हो जानेवाले निराशा भाव से वह स्पष्टतः यह समझ गई कि अपने को धोखा देती रही है, कि व्रोन्स्की द्वारा हर जगह उसके पीछे-पीछे जाना न केवल उसे रुचिकर है, बल्कि उसके जीवन का सबसे बड़ा सुख है।

प्रसिद्ध गायिका दूसरी बार गा रही थी और सारा ऊँचा समाज थिएटर में था। पहली क़तार में बैठे व्रोन्स्की ने चचेरी बहन बेत्सी त्वेरस्काया को बॉक्स में बैठे देख लिया और अन्तराल की प्रतीक्षा किए बिना ही उसके पास चला गया।

"आप दोपहर के खाने पर क्यों नहीं आए ?"बेत्सी ने पूछा । "प्रेमियों के दिलों में एक समान बजनेवाले तारों से हैरानी होती है,” उसने मुस्कुराकर ऐसे धीरे से कि केवल व्रोन्स्की को ही सुनाई दे, इतना और जोड़ दिया । "वह भी नहीं आई। लेकिन ऑपेरा के बाद आ जाइए।”

व्रोन्स्की ने प्रश्नसूचक दृष्टि से बेत्सी की ओर देखा । उसने सिर झुकाया । व्रोन्स्की ने मुस्कुराकर आभार प्रकट किया और उसके निकट बैठ गया ।

“मुझे याद आता है कि कैसे आप दूसरों का मज़ाक़ उड़ाया करते थे,” प्रिंसेस बेत्सी ने कहा, जिसे इस प्रेम-लीला की प्रगति की चर्चा में विशेष सुख मिलता था। “कहाँ हवा हो गया अब वह सब कुछ ! प्रेम जाल में फँस गए हो।"

“मैं सिर्फ़ यही तो चाहता हूँ कि जाल में फँस जाऊँ,” व्रोन्स्की ने अपने शान्त और खुशमिज़ाजी की द्योतक मुस्कान के साथ कहा। अगर सच कहूँ, तो मुझे सिर्फ़ यही शिकायत है कि जाल में बहुत कम फँसा हूँ। मैं तो निराश होने लगा हूँ।”

“आप आशा ही कैसे कर सकते हैं ?” बेत्सी ने अपनी सहेली के लिए बुरा मानते हुए कहा ।

"Entendons nous..."(एक-दूसरे को समझ लें-फ्रांसीसी) लेकिन उसकी आँखों में ऐसी लौ थी, जो कह रही थी कि वह बहुत अच्छी तरह, ठीक वैसे ही जैसे व्रोन्स्की, यह समझती है कि उसे क्या आशा हो सकती है।

"कुछ भी नहीं,” व्रोन्स्की ने हँसते और अपने सुन्दर दाँतों की झलक दिखाते हुए कहा । "माफ़ी चाहता हूँ,” बेत्सी के हाथ से दूरबीन लेते और उसके उघाड़े कन्धे के ऊपर से सामनेवाले बॉक्सों पर उसे केन्द्रित करते हुए व्रोन्स्की ने इतना और जोड़ दिया । "मुझे लगता है कि मैं उपहास-पात्र बनता जा रहा हूँ ।"

व्रोन्स्की बहुत अच्छी तरह से यह जानता था कि बेत्सी और उसके दायरे के अन्य सभी लोगों की नज़रों में उसके उपहास - पात्र बनने का कोई ख़तरा नहीं था । उसे बहुत अच्छी तरह से यह मालूम था कि इन लोगों की दृष्टि में किसी युवती या किसी आज़ाद नारी के बदक़िस्मत प्रेमी की भूमिका उपहासजनक हो सकती है, किन्तु उस व्यक्ति की भूमिका, जो किसी विवाहिता पर बुरी तरह लट्टू हो और हर क़ीमत पर उसे अपने प्रेम-पाश में बाँधना चाहता हो, सुन्दर और गरिमापूर्ण भूमिका है और कभी भी उपहासजनक नहीं हो सकती। इसीलिए अपनी मूँछों के नीचे होंठों पर गर्वीली और सुखद मुस्कान के साथ उसने दूरबीन नीचे की और चचेरी बहन की ओर देखा ।

"तो आप दोपहर के खाने पर क्यों नहीं आए ?"मुग्ध भाव से उसे देखते हुए उसने फिर पूछा ।

"यह तो मुझे आपको बताना ही चाहिए। मैं व्यस्त था । और जानती हैं किस चीज़ में ? आप सौ बार, एक हज़ार बार कोशिश कर लीजिए, फिर भी अनुमान नहीं लगा सकेंगी। मैं एक पत्नी का अपमान करनेवाले के साथ उसके पति की सुलह करवा रहा था। हाँ, बिल्कुल सच कहता हूँ !”

"तो करवा दी सुलह ?"

"लगभग ।"

“आपको यह तो सारा क़िस्सा मुझे सुनाना चाहिए,” प्रिंसेस बेत्सी ने उठते हुए कहा । "अगले अन्तराल में आ जाइएगा।"

"यह मुमकिन नहीं । मैं फ़्रांसीसी थिएटर में जा रहा हूँ ।"

"निल्सोन को छोड़कर ?"बेत्सी ने स्तब्ध होते हुए पूछा, यद्यपि वह निल्सोन और किसी मामूली सहगान-गायिका में किसी तरह भी अन्तर नहीं कर सकती थी।

"लेकिन किया क्या जाए ? मुझे अपने सुलह-सफ़ाई के इसी काम के सिलसिले में वहाँ किसी से मिलना है।"

"खुदा की रहमत हो इन सुलह करवानेवालों पर, उनकी बदौलत वे बच जाएँगे,"बेत्सी ने किसी के मुँह के सुने-सुनाए कुछ इसी तरह के शब्दों को याद करते हुए कहा। "तो बैठिए, सुनाइए कि यह क्या क़िस्सा है ?"

और वह फिर बैठ गई।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 5-भाग 2)

"यह किस्सा कुछ बेहूदा, मगर इतना दिलचस्प है कि सुनाने को बहुत ही मन हो रहा है,"हँसती आँखों से बेत्सी की ओर देखते हुए व्रोन्स्की ने कहा। "मैं नाम नहीं बताऊँगा।"

"लेकिन मैं बूझूँगी और यह तो और भी ज्यादा अच्छा रहेगा।"

"तो सुनिए-रंग में आए हुए दो जवान आदमी घोड़ों पर जा रहे थे..."

"ज़ाहिर है, आपकी रेजिमेंट के अफ़सर ।"

"मैं अफ़सर नहीं कह रहा हूँ, बस, नाश्ता करने के बाद दो जवान आदमी...”

"कहिए-पिए हुए।”

"मुमकिन है । वे बहुत खुशी के मूड में एक दोस्त के यहाँ दोपहर का खाना खाने जा रहे थे । क्या देखते हैं कि एक बहुत ही प्यारी सी औरत किराए की बग्घी में उनसे आगे निकली जाती है, मुड़कर देखती है और कम-से-कम उन्हें तो ऐसा लगता है कि उनकी ओर सिर हिलाकर इशारा करती और हँसती है। ज़ाहिर है कि वे उसके पीछे हो लिए। ख़ूब ज़ोर से घोड़े दौड़ाने लगे। उन्हें बड़ी हैरानी हुई कि इस सुन्दरी की बग्घी उसी घर के सामने रुकी, जहाँ वे जा रहे थे । सुन्दरी जल्दी से सबसे ऊपरवाली मंज़िल पर भाग गई। उन्हें उसके छोटे-से झीने आवरण में से सिर्फ़ लाल होंठों और छोटे-छोटे, सुन्दर पैरों की ही झलकी मिली।"

“आप ऐसे मज़े ले-लेकर यह सुना रहे हैं कि मुझे ऐसे लग रहा है मानो आप इन दोनों में से एक हों।"

“और आपने मुझसे अभी क्या कहा था ? तो ये दोनों जवान आदमी अपने दोस्त के यहाँ पहुँचे और वहाँ विदाई-भोज था। वहाँ उन्होंने निश्चय ही पी और सम्भव है कि कुछ ज़्यादा ही पी हो, जैसा कि विदाई की दावतों में हमेशा होता है। खाना खाते हुए उन्होंने यह पूछताछ की कि इस घर में ऊपर की मंज़िल पर कौन रहता है। किसी को भी यह मालूम नहीं था और मेज़बान के नौकर से यह पूछने पर कि ऊपर mademosielles रहती हैं या नहीं, उन्हें जवाब मिला कि यहाँ तो वे बहुत-सी हैं। खाना ख़त्म होने पर ये दोनों जवान आदमी मेज़बान के लिखने-पढ़ने के कमरे में चले गए और वहाँ बैठकर उन्होंने इस अनजानी औरत को ख़त लिखा । उन्होंने प्रेम-मुहब्बत और अपने दिल की हालत की चर्चा की और खुद ही उसे ख़त देने के लिए ऊपर गए, ताकि वह स्पष्ट कर सकें, जो पत्र से पूरी तरह समझ में न आ पाए।"

"आप मुझे ऐसी गन्दी बातें क्यों सुना रहे हैं ? तो आगे क्या हुआ ?"

"उन्होंने दरवाज़े की घंटी बजाई। एक लड़की बाहर निकली, उन्होंने उसे ख़त दिया और यह यक़ीन दिलाने लगे कि दोनों इस बुरी तरह उसके प्रेम में पागल हो रहे हैं कि इसी वक़्त दरवाज़े पर ही जान दे देंगे। हकबकाई-सी लड़की उनसे बातचीत कर रही थी। अचानक सासेजों जैसी क़लमोंवाला तथा केंकड़े की तरह लाल एक हज़रत नमूदार हुआ और यह कहते हुए कि उसकी बीवी के सिवा घर में और कोई नहीं रहता, उसने उन दोनों को बाहर निकाल दिया । "

"आपको यह कैसे मालूम है कि उसकी क़लमें सासेजों जैसी हैं ?”

“खैर, आप सुनिए। तो मैं आज उनकी सुलह करवाने गया ।”

"तो क्या नतीजा निकला ?”

“यहीं तो सबसे दिलचस्प बात शुरू होती है। पता चला कि यह खुशक़िस्मत दम्पति उपाधिप्राप्त कौंसिलर और उसकी पत्नी हैं। कौंसिलर ने शिकायत कर दी और मैं सुलह करवानेवाला बन गया। सो भी कैसा ! तैलीराँ भी मेरा क्या मुक़ाबला करेगा !”

"तो मुश्किल क्या सामने आई ?”

“सुनिए, बताता हूँ...हमने, जैसे होना चाहिए था, अच्छी तरह माफ़ी माँगी - 'हमें बहुत ही ज़्यादा अफ़सोस है, हमसे होनेवाली इस गलतफ़हमी के लिए माफ़ी चाहते हैं।' साजेसों जैसी क़लमोंवाला कौंसिलर कुछ नर्म होने लगा, लेकिन वह भी अपनी भावनाएँ व्यक्त करना चाहता था । ज्योंही वह उन्हें व्यक्त करना आरम्भ करता आग-बबूला होने और भला-बुरा कहने लगता, मुझे फिर से अपनी व्यवहार कुशलता दिखानी पड़ती। 'मैं मानता हूँ कि यह बुरी हरकत है, लेकिन आपसे इस बात को ध्यान में रखने का अनुरोध करता हूँ कि ग़लतफ़हमी हो गई, जवानी ठहरी। इसके अलावा जवान लोग नाश्ता करते ही घर से निकले थे। आप समझते हैं न ! बे सच्चे दिल से माफ़ी चाहते हैं, क़सूर माफ़ करने की प्रार्थना करते हैं !' कौंसिलर फिर से नर्म पड़ जाता - 'मैं सहमत हूँ, काउंट, और माफ़ करने को तैयार हूँ। लेकिन आप इस बात को समझिए कि मेरी बीवी, जो शरीफ़ औरत है, मेरी बीवी का पीछा किया जाता है, उसे किन्हीं छोकरों के बुरे बर्ताव और बेहूदा हरकतों का सामना करना पड़ता है, कमीने कहीं के...आप ज़रा ख़याल करें कि एक बेहूदा छोकरा वहीं खड़ा था । और मुझे उनकी सुलह करवानी थी। मैं फिर से अपनी व्यवहार कुशलता दिखाता और जैसे ही मामला ख़त्म होने को आता, कौंसिलर फिर से गर्म हो उठता, लाल हो जाता, उसकी सासेजें ऊपर को उठतीं और मैं फिर से व्यवहार कुशलता की बारीकियों का जाल बुनने लगता ।”

"आह, यह क़िस्सा तो आपको ज़रूर सुनना चाहिए,"बेत्सी ने हँसते हुए अपने बॉक्स में आनेवाली महिला को सम्बोधित करके कहा । "इन्होंने मुझे ऐसे हँसाया है कि कुछ न पूछो।"

“तो bonne chance,’ (सफलता की कामना करती हूँ-फ्रांसीसी ) हाथ में थामे हुए पंखे से मुक्त एक उँगली व्रोन्स्की की ओर बढ़ाते हुए उसने कहा और कन्धे को ऐसे हिलाया कि उसके लॉक की ऊपर को उठी हुई चोली नीचे हो जाए, ताकि जब वह स्टेज लाइटों और गैस की रोशनी में आगे जाए और सबकी नज़रों के समाने आए, तो पूरी तरह से नग्न दिखाई दे ।

व्रोन्स्की फ़्रांसीसी थिएटर में चला गया, जहाँ उसे सचमुच ही रेजिमेंट के कमांडर से मिलना था, जो हर फ़्रांसीसी तमाशा ज़रूर देखता था। व्रोन्स्की उससे अपने उस सुलह सम्बन्धी काम की चर्चा करना चाहता था, जिसमें वह पिछले तीन दिनों से व्यस्त रहा था और जिससे उसका काफ़ी मनोरंजन हुआ था । इस क़िस्से में एक तो पेत्रीत्स्की उलझा हुआ था, जिसे वह प्यार करता था और दूसरा अफ़सर था जवान, बड़ा प्यारा तथा बहुत अच्छा साथी प्रिंस केद्रोव, जो कुछ ही समय पहले इनकी रेजिमेंट में आया था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि रेजिमेंट की इज़्ज़त का सवाल था ।

ये दोनों अफ़सर व्रोन्स्की के दस्ते में थे। सरकारी अधिकारी, कौंसिलर वेन्देन रेजिमेंट के कमांडर से इन दोनों की, जिन्होंने उसकी पत्नी का अपमान किया था, शिकायत करने आया था । वेन्देन ने बताया था कि केवल छः महीने पहले ही उसने शादी की है और उसकी जवान बीवी अपनी माँ के साथ गिरजाघर गई थी । वहाँ अचानक उसकी तबीयत ख़राब हो गई, क्योंकि वह गर्भवती है और अधिक देर तक खड़ी रहने में असमर्थ थी । इसलिए किराए की पहली बग्घी सामने आते ही वह उसमें बैठकर घर को चल दी। अफ़सरों ने उसका पीछा किया, वह डर गई और पहले से भी ज़्यादा बुरी तबीयत के साथ भागती हुई सीढ़ियाँ चढ़कर घर पहुँची। खुद वेन्देन दफ़्तर से लौटा और दरवाज़े पर घंटी तथा कुछ आवाजें सुनकर बाहर निकला और पत्र लिए हुए नशे में धुत अफ़सरों को देखकर उसने उन्हें बाहर धकेल दिया। उसने कमांडर से अनुरोध किया कि इन दोनों अफ़सरों को कड़ी सज़ा दी जाए।

"नहीं, आप चाहे कुछ भी क्यों न कहें,"रेजिमेंट ने व्रोन्स्की को अपने पास बुलाकर कहा, "पेत्रीत्स्की तो बर्दाश्त के बाहर होता जा रहा है। हर हफ़्ते ही कोई-न-कोई बखेड़ा खड़ा कर देता है। यह कौंसिलर मामले को यहीं नहीं छोड़ेगा, ऊपर तक ले जाएगा।"

व्रोन्स्की इस क़िस्से के सभी मुमकिन बुरे नतीजों को समझ रहा था कि द्वन्द्व-युद्ध नहीं हो सकता, कि कौंसिलर को ठंडा और मामले को रफ़ा - दफ़ा करने के लिए पूरा ज़ोर लगाना चाहिए । रेजिमेंट के कमांडर ने व्रोन्स्की को इसीलिए बुलाया था कि वह उसे नेक और समझदार आदमी मानता था और मुख्यतः तो इसलिए कि व्रोन्स्की अपनी रेजिमेंट के नाम को बहुत महत्त्व देता था। इन दोनों ने इस मसले पर गौर करके यह फ़ैसला किया कि पेत्रीत्स्की और केद्रोव को व्रोन्स्की के साथ जाकर कौंसिलर से माफ़ी माँगनी चाहिए। रेजिमेंट का कमांडर और व्रोन्स्की दोनों ही यह समझते थे कि व्रोन्स्की के नाम और ज़ार के एड-डी. कैम्प के रूप में उसके पद चिह्न से कौंसिलर को शान्त करने में बड़ी सहायता मिलेगी। वास्तव में ही इन दोनों बातों का प्रभाव पड़ा, लेकिन सुलह करवाने का नतीजा साफ़ नहीं हो पाया था, जैसाकि व्रोन्स्की ने बताया था ।

फ्रांसीसी थिएटर में व्रोन्स्की रेजिमेंट कमांडर के साथ लॉबी में चला गया और उसने उसे अपनी सफलता या असफलता के बारे में बताया। मामले पर सभी पहलुओं से विचार करने के बाद रेजिमेंट- कमांडर ने उसे जहाँ का तहाँ छोड़ देने का फ़ैसला किया। लेकिन बाद में महज़ मज़ा लेने के लिए वह व्रोन्स्की से कौंसिलर के साथ हुई बातचीत की तफ़सीलें पूछने लगा और व्रोन्स्की से यह सुनकर देर तक हँसता रहा कि कुछ शान्त होनेवाला कौंसिलर मामले के सभी ब्योरों को याद करके फिर-फिर भड़क उठता था और कैसे व्रोन्स्की ने सुलह के अन्तिम शब्द कहकर अपनी होशियारी दिखाते हुए पेत्रीत्स्की को आगे की तरफ़ धकेला और खुद पीछे हट गया था ।

"बड़ा बेहूदा, मगर मज़ेदार क़िस्सा है यह। केद्रोव उस कौंसिलर महोदय से द्वन्द्व-युद्ध तो नहीं कर सकता न, तो इतना अधिक लाल-पीला हो उठा था वह ?” कमांडर ने हँसते हुए पूछा । "और क्लेर आज कैसी लग रही है ? अद्भुत !” उसने नई फ्रांसीसी अभिनेत्री के बारे में कहा । "बेशक कितनी बार ही देखो, हर बार नई दिखाई देती है । सिर्फ़ फ़्रांसीसी ही ऐसा कर सकते हैं।"

अन्ना करेनिना : (अध्याय 6-भाग 2)

अन्तिम अंक की समाप्ति की प्रतीक्षा किए बिना ही प्रिंसेस बेत्सी थिएटर से चली गई। शृंगार-कक्ष में जाकर उसने अपने लम्बोतरे तथा पीले चेहरे पर पाउडर लगाया, केश-विन्यास ठीक किया और बड़े मेहमानखाने में चाय का प्रबन्ध करने का आदेश दिया ही था कि बोल्शाया मोर्काया सड़क पर उसके बड़े घर के सामने एक के बाद एक बग्घियाँ आकर रुकने लगीं। मेहमान बड़े-से दरवाजे पर बग्घी से उतरते और भारी-भरकम दरबान, जो सुबह के वक़्त शीशे के दरवाज़े के पीछे राहगीरों पर प्रभाव डालने के लिए अख़बार पढ़ता रहता था, किसी तरह की आवाज़ के बिना धीरे से इस बड़े दरवाज़े को खोल देता और मेहमान भीतर चले जाते।

केश-विन्यास को सँवारने और चेहरे पर ताज़गी लाने के बाद गृह-स्वामिनी और मेहमान लगभग एक ही समय अलग-अलग दरवाज़ों से बड़े मेहमानखाने में दाखिल हुए। मेहमानख़ाने की दीवारें गहरे रंग की थीं, उसमें गुदगुदे कालीन बिछे थे और वह मोमबत्तियों की रोशनियों, मेज़ पर बिछे सफ़ेद मेज़पोश, चाँदी के समोवार और चीनी मिट्टी के पारदर्शी बर्तनों की चमक से चमचमा रहा था।

गृह-स्वामिनी समोवार के पास बैठ गई और उसने दस्ताने उतार लिए। अपनी उपस्थिति का भास न देनेवाले नौकरों की मदद से कुर्सियों को खिसकाकर मेहमान दो भागों में बँटकर बैठ गए। कुछ लोग तो गृह-स्वामिनी के साथ समोवार के क़रीब और बाक़ी एक राजदूत की सुन्दर पत्नी के निकट बैठ गए, जो मख़मल की काली पोशाक पहने थी और जिसकी कमान जैसी काली भौंहें थीं। जैसाकि हमेशा होता है, दोनों ही जगहों पर शुरू में बातचीत का रंग नहीं जम सका, क्योंकि और लोगों के आने, दुआ-सलाम तथा चाय के पेश किए जाने आदि से खलल पड़ जाता था, मानो यह खोज हो रही हो कि किस विषय पर रुका जाए।

"वह कमाल की अभिनेत्री है। साफ़ ही पता चलता है कि उसने काउलबाख का अध्ययन किया है,” राजदूत की बीवी के मंडल में बैठे एक कूटनीतिज्ञ ने कहा । "आपने ध्यान दिया कि वह कैसे गिरी थी..."

"ओह, कृपया निल्सोन की चर्चा नहीं कीजिए ! उसके बारे में नया कुछ भी नहीं कहा जा सकता !” एक मोटी, लाल चेहरे, बिना भौंहों और बिना नक़ली बालोंवाली स्वर्णकेशी महिला ने कहा, जो पुरानी रेशमी पोशाक पहने थी । यह प्रिंसेस म्याग्काया थी, जो अपनी सादगी तथा बातचीत के फूहड़पन के लिए मशहूर थी और जिसे लोग enfant terrible (हुल्लड़बाज़-फ़्रांसीसी) कहते थे। प्रिंसेस म्याग्काया दोनों दलों के बीच बैठी थी और दोनों तरफ़ कान लगाए हुए कभी इस, तो कभी उस दल की बातों में हिस्सा लेती थी। “काउलबाख़वाला वाक्य मुझसे आज तीन आदमी कह चुके हैं, मानो उन्होंने आपस में यह तय कर रखा हो । समझ में नहीं आता कि उन्हें यह वाक्य किसलिए इतना पसन्द आया है !"

इस टिप्पणी से बातचीत का सार टूट गया और अब फिर से नया विषय ढूँढ़ना ज़रूरी था ।

"हमें कोई दिलचस्प बात सुनाओ, लेकिन वह निन्दा चुगली नहीं होनी चाहिए,"राजदूत की बीवी ने कूटनीतिज्ञ को सम्बोधित करते हुए कहा, जिसे ऐसी सुन्दर बातें करने में, जिन्हें अंग्रेज़ी में small talk कहा जाता है, कमाल हासिल था। कूटनीतिज्ञ की समझ में भी नहीं आ रहा था कि वह क्या बात शुरू करे ।

"कहते हैं कि यह बहुत मुश्किल काम है, कि सिर्फ़ निन्दा-चुगली ही मज़ेदार होती है,"कूटनीतिज्ञ मुस्कुराते हुए कहना शुरू किया। “लेकिन मैं कोशिश करता हूँ। कोई विषय सुझाइए । असली बात तो विषय ही है। विषय बता देने पर उसके इर्द-गिर्द ताना-बाना बुनना आसान हो जाता है। मेरे दिमाग़ में अक्सर ऐसा ख़याल आता है कि पिछली सदी के जाने-माने बातूनियों के लिए अब कोई अक़्लमन्दी की बात कहना मुश्किल होता । अक़्लमन्दी की सभी बातों से लोग बुरी तरह ऊब चुके हैं..."

"यह तो बहुत पहले कही जा चुकी है,"राजदूत की बीवी ने हँसते हुए उसे टोक दिया।

प्यारी बातचीत शुरू हुई, लेकिन चूँकि वह बहुत ही प्यारी थी, इसलिए फिर से बीच में ही बन्द हो गई। सबसे ज़्यादा भरोसे के साधन का ही, जो कभी धोखा नहीं देता था, उपयोग ज़रूरी था । यह साधन था - निन्दा - चुगली ।

“आपको ऐसा नहीं लगता कि तुश्केविच में लुई 15वें जैसा कुछ है ?” उसने मेज़ के क़रीब खड़े सुनहरे बालोंवाले सुन्दर नौजवान की तरफ़ आँखों से इशारा करके कहा ।

"अरे हाँ ! उसमें मेहमानख़ाने के साथ जँचनेवाली कोई चीज़ है और इसीलिए वह इतना अक्सर - यहाँ आता है।"

यह बातचीत कुछ देर तक चलती रही, क्योंकि संकेतों से वह चर्चा की जा रही थी, जो इस मेहमानखाने में नहीं की जानी चाहिए थी, यानी घर की मालकिन के साथ तुश्केविच के सम्बन्ध की।

इसी बीच संमोवार और गृह स्वामिनी के निकट भी शुरू में बातचीत तीन अनिवार्य विषयों - नवीनतम सामाजिक समाचार, थिएटर और निन्दा - चुगली के बीच डाँवाडोल होती रही और आखिर अन्तिम विषय यानी निन्दा - चुगली से उसका रंग जम गया।

"आप लोगों ने माल्तीश्चेवा- बेटी नहीं, माँ के बारे में सुना है कि वह अपने लिए diable rose (चटख गुलाबी-फ्रांसीसी) फ्रॉक बनवा रही है ?"

"यह असम्भव है ! बहुत खूब !”

"मैं हैरान हूँ कि उसकी अक़्ल को क्या हो गया है, वह बुद्धू तो नहीं है- क्या इतना भी नहीं समझती कि वह कितनी हास्यास्पद लगती है ?"

बदक़िस्मत माल्तीश्चेवा की भर्त्सना और उसका उपहास करने के लिए सभी के पास कुछ-न-कुछ मसाला था और बातचीत दहकते अलाव की तरह बड़े मज़े से चलने लगी ।

प्रिंसेस बेत्सी का पति, जो खुशमिज़ाज, मोटा आदमी और रेखाचित्रों के संग्रह का दीवाना था, यह मालूम होने पर कि पत्नी के पास अतिथि आए हैं, क्लब जाने से पहले कुछ देर को मेहमानख़ाने में आया। नर्म क़ालीन पर आहट किए बिना वह प्रिंसेस म्याग्काया के पास पहुँचा ।

“निल्सोन कैसी लगी आपको ?” उसने पूछा ।

“आह, कोई ऐसे दबे पाँव भी आता है ! कैसे डरा दिया आपने मुझे !” उसने जवाब में कहा । "कृपया मेरे साथ ऑपेरा की चर्चा नहीं करें, आप तो संगीत के बारे में कुछ भी नहीं समझते। यही ज़्यादा अच्छा रहेगा कि मैं आपके स्तर पर उतर आऊँ और आपसे रेखाचित्रों तथा मेजोलिकों के बारे में ही बातचीत करूँ। तो बताइए, हाल में कौन-सी अनूठी चीज़ ख़रीदी है आपने कबाड़ियों के बाज़ार से ?"

"चाहती हैं, तो दिखाऊँ ? लेकिन आप कुछ जानती तो हैं नहीं।”

“दिखाइए। मैंने...उनसे, क्या कहते हैं उन्हें... बैंकरों से कुछ सीख लिया है ... उनके यहाँ रेखाचित्रों के बहुत बढ़िया नमूने हैं। उन्होंने हमें दिखाए थे।"

"तो क्या आप शुत्सबुर्ग के यहाँ गई थीं ?” समोवार के पास बैठी गृह स्वामिनी ने पूछा।

“हाँ, ma chère, उन्होंने हम पति-पत्नी को खाने पर बुलाया था। मुझे बताया गया कि उनके खाने में परोसी गई चटनी पर एक हज़ार रूबल खर्च हुआ है,"म्याग्काया ने यह महसूस करते हुए कि सभी उसकी बात सुन रहे हैं, ऊँचे स्वर में कहा, “और बहुत ही बेहूदा थी वह चटनी, हरी-सी । हमारे लिए भी उन्हें बुलाना ज़रूरी था, मैंने पचासी कोपेक की चटनी बनाई और सबने खुश होकर खाई। मैं तो एक हज़ार रूबलोंवाली चटनियाँ नहीं बना सकती।”

"इसकी कोई मिसाल नहीं !” गृह स्वामिनी ने कहा ।

“अद्भुत है !” किसी अन्य ने ज़ाहिर की ।

प्रिंसेस म्याग्काया की बातें हमेशा एक जैसा ही प्रभाव पैदा करती थीं और उसके द्वारा पैदा किए जानेवाले असर का राज़ इस बात में छिपा था कि वह बेशक मौत के मुताबिक़ बात नहीं कहती थी, जैसाकि इस वक़्त हुआ था, लेकिन वह समझदारी की और सीधी-सादी होती थी। वह जिस सामाजिक हलके में रहती थी, उसमें ऐसे शब्द सूझ-बूझवाले मज़ाकों का प्रभाव पैदा करते थे। प्रिंसेस म्याग्काया यह समझने में असमर्थ थी कि ऐसा क्यों होता था, लेकिन इतना जानती थी कि ऐसा असर होता है और वह इसका फायदा उठाती थी।

चूँकि प्रिंसेस म्याग्काया के बात करने के वक़्त सभी उसे सुन रहे थे और राजदूत की पत्नी के आस-पास बातचीत बन्द हो गई थी, इसलिए गृह-स्वामिनी ने सभी लोगों को एक ही जगह पर एकत्रित करने की इच्छा से राजदूत की पत्नी को सम्बोधित किया :

“आप सचमुच बिल्कुल चाय नहीं पीना चाहतीं ? आप भी यहाँ, हमारे पास ही आ जाइए।"

"नहीं, हम यहाँ मज़े में हैं,"राजदूत की बीवी ने मुस्कुराकर जवाब दिया और शुरू की हुई बातचीत जारी रखी।

बातचीत बहुत दिलचस्प थी। कारेनिन दम्पति पर टीका-टिप्पणी हो रही थी।

"अपनी मास्को-यात्रा के बाद आन्ना बहुत बदल गई है। उसमें कुछ अजीब-सा प्रतीत होता है,"उसकी एक सहेली ने कहा।

"सबसे बड़ी तब्दीली यह है कि वह अपने साथ अलेक्सेई व्रोन्स्की की छाया लेकर आई है,"राजदूत की बीवी ने कहा।

"तो क्या हुआ ? ग्रीम का एक क़िस्सा है-छाया के बिना, छाया से वंचित व्यक्ति । और यह उसके लिए किसी चीज़ का दंड होता है । मेरी समझ में कभी नहीं आया कि यह दंड क्या है । लेकिन औरत को तो छाया के बिना बुरा लगना चाहिए।"

“हाँ, लेकिन छायावाली औरतों का अक्सर बुरा अन्त होता है,” आन्ना की सहेली ने कहा ।

"आपकी ज़बान जल जाए,"इन शब्दों को सुनकर प्रिंसेस म्याग्काया ने अचानक कहा । "आन्ना बहुत ही बढ़िया औरत है। उसका पति मुझे अच्छा नहीं लगता, लेकिन उसे मैं बहुत प्यार करती हूँ।”

“उसका पति क्यों अच्छा नहीं लगता आपको ? बहुत अच्छा आदमी है वह,” राजदूत की बीवी ने कहा। “मेरे पति का कहना है कि यूरोप में इस जैसे राजकीय कार्यकर्त्ता बहुत कम हैं।"

“मेरा पति भी मुझसे ऐसा ही कहता है, लेकिन मुझे यक़ीन नहीं होता,” प्रिंसेस म्याग्काया ने कहा । “अगर हमारे पति यह सब न कहते, तो हम वह देख लेतीं, जो वास्तव में है । मेरे ख़याल में तो अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच बुद्धू है। मैं फुसफुसाकर यह कह रही हूँ... सच है न कि ऐसा करने में सब कुछ स्पष्ट हो जाता है ? पहले जब मुझसे उसमें समझदारी देखने को कहा जाता था, तो मैं खोजती रहती और यह महसूस करती कि मैं खुद बुद्धू हूँ, क्योंकि उसकी अक़्ल को नहीं देख पाती हूँ। लेकिन ज्यों ही मैंने फुसफुसाकर कहा- वह बुद्धू है - तो सब कुछ बिल्कुल स्पष्ट हो गया । सच है न ?”

"कैसी जली-कटी बातें कर रही हैं आज आप !”

“ज़रा भी नहीं ! मेरे लिए और कोई चारा ही नहीं। हम दोनों में से एक तो बुद्धू है ही । लेकिन आप यह जानती हैं कि अपने बारे में आदमी यह कभी नहीं कह सकता।"

“अपनी दौलत से कोई खुश नहीं, मगर अक़्ल से हर कोई खुश है,"कूटनीतिज्ञ ने फ्रांसीसी कविता की पंक्ति सुनाई ।

“बिल्कुल, बिल्कुल यही बात है,” प्रिंसेस म्याग्काया जल्दी से अपनी ओर मुड़ी। "लेकिन यह जान लीजिए कि आन्ना पर मैं आपको उँगली नहीं उठाने दूँगी । वह इतनी अच्छी, इतनी प्यारी है। वह कर ही क्या सकती है, अगर सभी उसे प्यार करते हैं और उसके इर्द-गिर्द छायाओं की तरह मँडराते हैं ?"

“मैं उस पर उँगली उठाने की सोच ही कब रही हूँ,"आन्ना की सहेली ने अपनी सफ़ाई पेश की।

“अगर हमारे पीछे-पीछे कोई छाया की तरह नहीं घूमता तो इसका यह मतलब नहीं है कि हमें दूसरों पर छींटे फेंकने का हक़ हासिल है।"

आन्ना की सहेली की अच्छी तरह से तबीयत साफ़ करने के बाद प्रिंसेस म्याग्काया उठी और राजदूत की बीवी के साथ उस मेज़ पर जा बैठी, जहाँ प्रशा के बादशाह के बारे में आम बातचीत हो रही थी।

“वहाँ आप लोगों ने किसकी निन्दा-चुगली की ?"बेत्सी ने पूछा।

"कारेनिन दम्पति की। प्रिंसेस ने अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच का बढ़िया खाका खींचा,"राजदूत की बीवी ने मेज़ पर बैठते हुए मुस्कुराकर जवाब दिया।

"अफ़सोस की बात है कि हम नहीं सुन सकीं,"घर की मालकिन ने दरवाज़े की तरफ़ देखते हुए कहा। “आख़िर आप आ ही गए,"उसने भीतर आते व्रोन्स्की को सम्बोधित करते हुए मुस्कुराकर कहा।

व्रोन्स्की यहाँ उपस्थित सभी लोगों को न सिर्फ़ जानता था, बल्कि इनसे हर दिन मिलता था। इसलिए वह ऐसे इत्मीनान से अन्दर आया, जैसे आदमी उन लोगों के पास आता है, जिन्हें छोड़कर अभी बाहर गया हो।

“मैं कहाँ से आया हूँ ?"उसने राजदूत की बीवी के सवाल के जवाब में कहा। “क्या हो सकता है, बताना ही पड़ेगा। बुफ़ थिएटर से। शायद सौवीं बार, फिर भी नई खुशी लेकर। कमाल है ! मैं जानता हूँ कि यह शर्म की बात है, फिर भी मानना पड़ेगा कि ऑपेरा में मुझे नींद आ जाती है, लेकिन बुफ़ थिएटर में अन्तिम क्षण तक बड़े मज़े से बैठा रहता हूँ। आज..."

उसने फ्रांसीसी अभिनेत्री का नाम लिया और उसके बारे में कुछ कहना चाहा, लेकिन राजदूत की बीवी ने मज़ाकिया ढंग से घबराहट ज़ाहिर करते हुए उसे रोक दिया :

“कृपया, ये भयानक बातें नहीं सुनाइए !"

"अच्छी बात है, नहीं सुनाऊँगा, ख़ासतौर पर जबकि सभी ये भयानक बातें जानते हैं।”

"और अगर उसे भी ऑपेरा की भाँति माना जाता तो सभी वहाँ जाते,” प्रिंसेस म्याग्काया ने इतना और जोड़ दिया।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 7-भाग 2)

दरवाज़े पर पैरों की आहट सुनाई दी और प्रिसेंस बेत्सी ने यह जानते हुए कि आन्ना आई है, व्रोन्स्की पर नज़र डाली। वह दरवाज़े की तरफ़ देख रहा था और उसके चेहरे पर अजीब, नया-सा भाव था । वह खुशी से, टकटकी बाँधे और साथ ही सहमा हुआ सा भीतर आती आन्ना को देख रहा था और धीरे-धीरे उठकर खड़ा हो गया । आन्ना मेहमानखाने में दाखिल हुई। हमेशा की भाँति बिल्कुल सीधी तनी हुई और अपनी तेज़, दृढ़ और हल्की-फुल्की चाल से, जो उसे ऊँचे समाज की दूसरी महिलाओं से अलग करती थी, और अपनी दृष्टि को एक ही दिशा में रखते हुए वह कुछ क़दम बढ़ाकर गृह-स्वामिनी के पास पहुँची और उससे हाथ मिलाया, मुस्कुराई और इसी मुस्कान के साथ उसने व्रोन्स्की की ओर देखा । व्रोन्स्की ने सिर झुकाया और उसकी तरफ़ कुर्सी बढ़ा दी ।

आन्ना ने सिर्फ़ सिर ही झुकाया, लज्जारुण हो गई और भौंहें सिकोड़ लीं। किन्तु इसी समय जल्दी से परिचितों को सिर झुकाकर और अपनी ओर बढ़े हाथों से हाथ मिलाकर उसने गृह स्वामिनी को सम्बोधित किया:

"मैं काउंटेस लीदिया के यहाँ गई थी और जल्दी ही यहाँ आ जाना चाहती थी, मगर ज़्यादा देर तक बैठी रही। उसके यहाँ सर जॉन आया हुआ था । बहुत दिलचस्प आदमी है वह ।”

"अरे, वही मिशनरी ?"

“हाँ, वह रेड इंडियनों के जीवन के बारे में बहुत दिलचस्प बातें सुनाता रहा।”

आन्ना के आने से बातचीत का तार टूट गया था, मगर अब उसमें बुझाए जाते लैम्प की फड़फड़ा उठनेवाली लौ की तरह फिर से जान आ गई।

“सर जॉन ! हाँ, सर जॉन । मैंने उसे देखा है। उसका बयान करने का अन्दाज़ बहुत अच्छा है। व्लास्येवा तो उस पर जान छिड़कती है।"

"क्या यह सच है कि छोटी व्लास्येवा तोपोव से शादी कर रही है ?"

"हाँ, कहते हैं कि यह बिल्कुल तय हो चुका है ।"

"मुझे तो माँ-बाप पर हैरानी होती है। सुनते हैं कि यह प्रेम-विवाह होगा ।"

“प्रेम-विवाह ? कैसे बाबा आदम के ज़माने के ख़याल हैं तुम्हारे ! आजकल कौन प्रेम की चर्चा करता है ?” राजदूत की बीवी ने कहा ।

"क्या हो सकता है ? यह बेवकूफ़ी भरा पुराना फ़ैशन अभी तक ख़त्म होने का नाम नहीं लेता," व्रोन्स्की ने कहा ।

"यह उनके लिए और भी बुरा है, जो इस फ़ैशन के फेर में पड़े हुए हैं। मैं तो केवल ऐसे सुखी विवाह ही जानती हूँ, जो भौतिक लाभ के लिए किए गए हैं।"

“हाँ, लेकिन दूसरी तरफ़ भौतिक लाभ के लिए किए गए विवाह अक्सर इसीलिए धूल की तरह हवा में उड़ जाते हैं कि वही प्रेम प्रकट हो जाता है जिसकी अवहेलना की गई थी," व्रोन्स्की ने कहा ।

“लेकिन हम भौतिक लाभवाले विवाह उन्हें कहते हैं, जब दोनों अपने जनून से निजात पा चुकते हैं । यह तो जैसे लाल बुखार है, जिसको भुगतना ही पड़ता है।"

“तब तो प्रेम से बचने के लिए चेचक की तरह कृत्रिम ढंग से टीका लगाना सीखना चाहिए ।"

“अपनी जवानी के दिनों में मैं एक डीकन को प्यार करती थी,” प्रिंसेस म्याग्काया ने कहा । " मालूम नहीं, मुझे इससे कोई फ़ायदा हुआ या नहीं ।"

“मैं मज़ाक़ के बिना ऐसा सोचती हूँ कि प्यार को जानने के लिए भूल करना और फिर उसे सुधारना ज़रूरी है,” प्रिंसेस बेत्सी ने कहा ।

"शादी के बाद भी ?” राजदूत की पत्नी ने मज़ाक़ किया ।

"भूल जब सुधार ली जाए तभी अच्छा है," कूटनीतिज्ञ ने एक अंग्रेज़ी कहावत का हवाला दिया।

“बिल्कुल सही,” बेत्सी ने झटपट पुष्टि की, “भूल करना और फिर उसे सुधारना ज़रूरी है । आपका इस बारे में क्या ख़याल है ?” उसने आन्ना से पूछा, जो तनिक दिखाई देनेवाली विश्वासपूर्ण मुस्कान के साथ इस बातचीत को चुपचाप सुन रही थी ।

“मैं सोचती हूँ,” आन्ना ने हाथ से उतारे हुए दस्ताने के साथ खिलवाड़ करते-करते कहा, “मैं सोचती हूँ...कि जितने सिर हैं उतनी ही अक़्लें, तो जितने दिल हैं, उतनी ही क़िस्म के प्रेम हैं।"

व्रोन्स्की आन्ना को देख रहा था और धड़कते दिल से उसके जवाब का इन्तज़ार कर रहा था । आन्ना के जवाब के बाद उसने ऐसे राहत की साँस ली मानो ख़तरा टल गया हो । आन्ना ने अचानक उसे सम्बोधित किया :

“मेरे पास मास्को से पत्र आया है। उसमें लिखा है कि कीटी श्चेर्बात्स्काया बहुत बीमार है ।"

"सच ?" व्रोन्स्की ने माथे पर बल डालकर कहा ।

आन्ना ने कड़ी नज़र से उसकी तरफ़ देखा ।

"आपको इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ?"

"उल्टे, बेहद दिलचस्पी है। अगर मैं पूछ सकता हूँ, तो बताइए कि क्या लिखा है उन्होंने आपको ?” उसने कहा ।

आन्ना उठी और बेत्सी के पास चली गई।

"मुझे चाय की प्याली दीजिए,” उसकी कुर्सी के पीछे खड़े होकर वह बोली ।

प्रिंसेस बेत्सी ने जब तक चाय डाली, इसी बीच व्रोन्स्की आन्ना के पास आ गया। "क्या लिखा है उन्होंने आपको ?” व्रोन्स्की ने दोहराया।

"मैं अक्सर ऐसा सोचती हूँ कि भोंडी हरकत किसे कहते हैं, मर्द लोग यह नहीं समझते, गो वे इसकी बहुत चर्चा करते हैं,” आन्ना ने व्रोन्स्की को जवाब दिए बिना कहा । "मैं बहुत दिनों से आपसे यह कहना चाहती थी,” उसने इतना और कहा तथा कुछ क़दम चलकर कोनेवाली उस मेज़ के पास जा बैठी, जिस पर एल्बम रखे थे ।

“मैं आपके शब्दों का अर्थ पूरी तरह नहीं समझ पा रहा हूँ," चाय की प्याली उसे देते हुए व्रोन्स्की ने कहा ।

आन्ना ने अपने पासवाले सोफ़े की तरफ़ देखा और वह फ़ौरन वहाँ बैठ गया ।

“हाँ, मैं आपसे यह कहना चाहती थी,” व्रोन्स्की की तरफ़ देखे बिना आन्ना ने कहा ।

"आपने बुरा व्यवहार किया, बुरा, बहुत बुरा व्यवहार किया ।"

“क्या मैं यह नहीं जानता हूँ कि मैंने बुरा व्यवहार किया है ? लेकिन मेरे ऐसा व्यवहार करने का कारण कौन है ?"

“आप मुझसे यह क्यों कह रहे हैं ?" कड़ाई से उसकी ओर देखते हुए आन्ना ने कहा ।

“आप जानती हैं कि क्यों कह रहा हूँ,” व्रोन्स्की ने आन्ना से नज़रें मिलाते और उन्हें झुकाए बिना दिलेरी तथा खुशी से जवाब दिया ।

व्रोन्स्की नहीं, आन्ना परेशान हो उठी।

"इसमें सिर्फ़ इसी बात का सबूत मिलता है कि आपके सीने में दिल नहीं है,” आन्ना ने कहा । लेकिन उसकी नज़र कह रही थी कि वह जानती है कि उसके पास दिल है और इसीलिए वह उससे डरती है।

"वह जिसकी आपने अभी चर्चा की है, प्रेम नहीं था, भूल थी।"

"याद है न कि मैंने आपको यह शब्द, यह घिनौना शब्द मुँह से निकालने की मनाही कर दी थी," आन्ना ने सिहरते हुए कहा । किन्तु इसी क्षण उसने यह अनुभव किया कि केवल इस एक 'मनाही' शब्द से उसने यह ज़ाहिर कर दिया है कि उसे उस पर कुछ विशेष अधिकार प्राप्त हैं और इसी से वह उसे प्रेम के बारे में चर्चा करने को प्रोत्साहित करती है । "मैं बहुत पहले ही आपसे यह कहना चाहती थी,” वह दृढ़ता से उससे नज़र मिलाते हुए कहती गई और उसका चेहरा तमतमाहट से लाल होता जा रहा था, "और आज तो मैं यह जानते हुए कि आपसे यहाँ भेंट हो सकेगी, जान-बूझकर यहाँ आई हूँ। मैं आपसे यह कहने आई हूँ कि इस क़िस्से को ख़त्म होना चाहिए। कभी और किसी के सामने भी मेरी आँखें शर्म से नहीं झुकीं, लेकिन आप मुझे किसी बात के लिए अपने को अपराधी अनुभव करने को विवश करते हैं ।"

व्रोन्स्की ने आन्ना की ओर देखा और उसके चेहरे के नए आत्मिक सौन्दर्य से चकित रह गया। "आप मुझसे क्या चाहती हैं ?" व्रोन्स्की ने सरलता और गम्भीरता से पूछा ।

"मैं चाहती हूँ कि आप मास्को जाएँ और कीटी से क्षमा-याचना करें,” उसने जवाब दिया ।

"आप ऐसा नहीं चाहतीं," व्रोन्स्की ने कहा।

व्रोन्स्की देख रहा था कि आन्ना जो कहना चाहती है, वह नहीं, बल्कि वह कह रही है, जो अपने को कहने के लिए मजबूर कर रही है।

“अगर मुझसे प्रेम करते हैं, जैसा कि आप कहते हैं," आन्ना फुसफुसाई, "तो ऐसा करें, कि मुझे चैन मिल सके।"

व्रोन्स्की का चेहरा खिल उठा।

"क्या आप यह नहीं जानतीं कि मेरे लिए आप मेरी ज़िन्दगी हैं ? लेकिन चैन तो न मैं खुद जानता हूँ और न आपको ही दे सकता हूँ। हाँ...पूरी तरह अपने को और अपना प्रेम दे सकता हूँ। मैं अपने और आपके बारे में अलग-अलग सोच ही नहीं सकता। मेरे लिए मैं और आप एक ही हैं। और मुझे न तो अपने लिए और न आपके लिए ही चैन की सम्भावना दिखाई देती है। मैं हताशा और दुःख की सम्भावना देखता हूँ...या मुझे सुख की सम्भावना नज़र आती है, कैसे सुख की !...क्या वह सम्भव नहीं ?" उसने केवल होंठ हिलाकर इतना और कह दिया, किन्तु आन्ना ने उसे सुन लिया।

आन्ना अपनी बुद्धि का सारा ज़ोर लगा रही थी ताकि वह कहे, जो उसे कहना चाहिए, किन्तु इसके बजाय उसने अपनी प्रेम-भरी नज़र उसके चेहरे पर टिका दी और कुछ भी जवाब नहीं दिया।

'तो यह बात है !' व्रोन्स्की आह्लादपूर्वक सोच रहा था। 'उस क्षण, जब मैं हताश हो रहा था और जब मुझे ऐसा लग रहा था कि इस क़िस्से का कोई अन्त नहीं होगा-तो यह बात है ! वह मुझसे प्रेम करती है ! वह इसे स्वीकार करती है!'

"तो मेरे लिए इतना कीजिए कि कभी भी मुझसे ये शब्द नहीं कहिए और हम अच्छे मित्र बने रहेंगे," उसने कहा, किन्तु उसकी नज़र कुछ दूसरा ही कह रही थी।

"मित्र हम नहीं बनेंगे, यह तो आप स्वयं जानती हैं। किन्तु हम या तो सबसे सुखी अथवा दुःखी लोग होंगे-यह आपके हाथ में है।"

आन्ना ने कुछ कहना चाहा, मगर व्रोन्स्की ने उसे इसका अवसर नहीं दिया।

"मैं आपको कहीं भी भगाना नहीं चाहती।"

"केवल कुछ भी बदलिए नहीं। जैसा है, सब कुछ वैसा ही रहने दीजिए," उसने काँपती आवाज़ में कहा। “लीजिए, आपके पति आ गए।"

सचमुच इसी समय अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच अपनी शान्त और अटपटी चाल से मेहमानख़ाने में दाखिल हुआ।

अपनी पत्नी और व्रोन्स्की पर नज़र डालकर वह गृह-स्वामिनी के पास गया और चाय का प्याला लेकर बैठने के बाद उसने अपने धीमे-धीमे, किन्तु सदा सुनाई देनेवाले और किसी को निशाना बनाते हुए मज़ाकिया अन्दाज़ में बोलना शुरू किया।

"आपकी राम्बुल्ये (महफ़िल) तो खूब अच्छी तरह जमी हुई है," उसने लोगों पर दृष्टि दौड़ाते हुए कहा, "रूप का निखार और कला का श्रृंगार भी है।"

किन्तु प्रिंसेस बेत्सी उसके इस sneering (फ़बतियाँ कसने का-अंग्रेज़ी) लहजे को, जैसा वह कहती थी, बर्दाश्त ही नहीं कर सकती थी और एक अच्छी मेज़बान के नाते उसने बातचीत को अनिवार्य सैनिक सेवा के गम्भीर विषय की ओर मोड़ दिया। अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच फ़ौरन इस चर्चा में उलझ गया और नए आदेश का, जिसकी प्रिंसेस बेत्सी ने आलोचना की थी, गम्भीरता से पक्ष-पोषण करने लगा।

व्रोन्स्की और आन्ना छोटी मेज़ पर ही बैठे रहे।

"यह तो अशिष्ट मामला होता जा रहा है," एक महिला ने व्रोन्स्की, आन्ना और उसके पति की ओर आँखों से संकेत करते हुए फुसफुसाकर कहा।

"मैंने क्या कहा था आप लोगों से ?” आन्ना की सहेली ने जवाब दिया ।

लेकिन इन्हीं महिलाओं ने नहीं, बल्कि मेहमानख़ाने में बैठे सभी लोगों, यहाँ तक कि प्रिंसेस म्याग्काया और खुद बेत्सी ने भी अन्य सभी से दूर बैठे हुए इन दोनों व्यक्तियों की ओर कई बार देखा, जो मानो बाक़ी लोगों की उपस्थिति के कारण बाधा अनुभव कर रहे हों। सिर्फ़ कारेनिन ने ही एक बार भी उधर नज़र नहीं डाली और शुरू हुई बातचीत में ही दिलचस्पी लेता रहा ।

प्रिंसेस बेत्सी ने सभी पर पड़नेवाले बुरे प्रभाव की ओर ध्यान देते हुए किसी अन्य को कारेनिन की बातें सुनने के लिए अपनी जगह पर बिठा दिया और आन्ना के पास गई।

“आपके पति की अभिव्यक्ति की स्पष्टता और अचूकता से मैं हमेशा दंग रह जाती हूँ," बेत्सी ने कहा । "जब वह बात करते हैं, तो बहुत ही उलझी - उलझाई बातें भी अच्छी तरह से मेरी समझ में आ जाती हैं।"

"अरे, हाँ !” आन्ना ने खुशी से चमकते और बेत्सी ने जो कुछ कहा था, उसका एक भी शब्द समझे बिना कहा । वह बड़ी मेज़ पर आ बैठी और साझी बातचीत में हिस्सा लेने लगी ।

आध घंटे तक बैठने के बाद कारेनिन पत्नी के पास गया और उससे अपने साथ घर चलने को कहा। किन्तु आन्ना ने उसकी तरफ़ देखे बिना ही यह जवाब दिया कि वह खाना खाने के लिए रुक रही है। कारेनिन ने सिर झुकाकर विदा ली और चला गया।

चमड़े की चमकती हुई जाकेट पहने आन्ना कारेनिना का बूढ़ा और मोटा तातार कोचवान बाईं ओर से घोड़े को बड़ी मुश्किल से क़ाबू में रख पा रहा था, जो ठिठुर जाने के कारण उछलता और दुलत्ती चलाता था। नौकर बग्घी का दरवाज़ा खोले खड़ा था । दरबान बाहर जाने का दरवाज़ा थामे था । आन्ना अपने छोटे और फुर्तीले हाथ से आस्तीन के लैस को फ़र-कोट की हुक में से छुड़ा रही थी और सिर झुकाए हुए खुशी से व्रोन्स्की की बातें सुन रही थी, जो उसे बाहर पहुँचाने आया था।

"आपने कुछ भी तो नहीं कहा। खैर, मैं ऐसी कोई माँग भी नहीं करता, " व्रोन्स्की कह रहा था, "लेकिन आप जानती हैं कि मुझे दोस्ती की ज़रूरत नहीं है । मेरी ज़िन्दगी में केवल एक ही खुशी मुमकिन है और यह वह शब्द है, जो आपको इतना नापसन्द है...हाँ, प्रेम...”

“प्रेम,” उसने अपने लिए ही धीमे-धीमे इसे दोहराया और अचानक उसी समय, जब उसने लैस को हुक से छुड़ा लिया, यह और कह दिया, "मैं इसलिए इस शब्द को नापसन्द करती हूँ कि यह मेरे लिए बहुत ज़्यादा मानी रखता है, उससे कहीं अधिक, जितना कि आप समझ सकते हैं,” और उसने बहुत गौर से व्रोन्स्की के चेहरे को देखा । “नमस्ते !”

उसने व्रोन्स्की से हाथ मिलाया और तेज़, लचीला क़दम बढ़ाकर दरबान के पास से गुज़री और बग्घी में जाकर ओझल हो गई ।

आन्ना की दृष्टि और उसके हाथ के स्पर्श से व्रोन्स्की मानो झुलस गया । आन्ना ने जिस जगह उसकी हथेली को छुआ था, उसने उस जगह को चूमा और यह सुखद चेतना लिए कि पिछले दो महीनों की तुलना में आज की शाम वह अपनी लक्ष्य-सिद्धि के कहीं निकट पहुँच गया है, घर को चल दिया ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 8-भाग 2)

कारेनिन को इस चीज़ में कुछ अजीब और बुरा दिखाई नहीं दिया कि उसकी बीवी एक अलग मेज़ पर बैठकर बड़ी ज़िन्दादिली से व्रोन्स्की के साथ बातें कर रही थी। लेकिन उसने देखा कि मेहमानख़ाने में बैठे दूसरे लोगों को यह कुछ अजीब और बुरा लग रहा था और इसलिए उसे भी भद्दा प्रतीत हुआ । उसने तय किया कि उसके बारे में बीवी से कहना चाहिए ।

घर लौटने पर कारेनिना, जैसाकि वह हमेशा करता था, अपने अध्ययन कक्ष में चला गया और पोपवाद के बारे में किताब को उसी जगह पर खोलकर, जहाँ काग़ज़ काटने का चाकू रखा हुआ था, आरामकुर्सी में बैठकर उसे पढ़ने लगा । जैसाकि वह आमतौर पर करता था, रात के एक बजे तक उसका पढ़ना जारी रहा। केवल कभी-कभी वह अपने ऊँचे माथे को हाथ से मसलता और सिर को झटकता मानो किसी चीज़ को दूर भगा रहा हो। हर दिन के नियत समय पर वह उठा और बिस्तर में जाने के लिए तैयार हुआ । आन्ना अभी तक नहीं आई थी । किताब बग़ल में दबाए वह ऊपर गया, लेकिन आज आम विचारों और दफ़्तरी मामलों से सम्बन्धित ख़यालों के बजाय उसके दिमाग में बीवी और उसके बारे में कुछ बुरे विचार भरे हुए थे। आदत के मुताबिक़ बिस्तर में लेटने की जगह वह पीठ पीछे अपने दोनों हाथ बाँधकर एक सिरे से दूसरे सिरे तक कमरों में आने-जाने लगा। यह महसूस करते हुए कि उसे पैदा हो जानेवाली परिस्थितियों पर एक बार फिर से अच्छी तरह सोच-विचार करना चाहिए, वह बिस्तर पर नहीं जा सकता था।

कारेनिन ने जब मन-ही-मन यह तय किया था कि बीवी के साथ बात करनी चाहिए, तो उसे यह बहुत आसान और मामूली बात लगी थी। लेकिन अब, जब उसने पैदा हुई परिस्थिति पर फिर से सोच-विचार करना शुरू किया, तो उसे यह बहुत पेचीदा और मुश्किल प्रतीत हुई ।

कारेनिन शक्की तबीयत का आदमी नहीं था । उसके विश्वास के अनुसार शक करने का मतलब बीवी का अपमान करना था और उसे उस पर भरोसा करना चाहिए। उसे क्यों भरोसा करना चाहिए यानी उसे क्यों इस बात का पूरा यक़ीन होना चाहिए कि उसकी जवान बीवी उसे हमेशा प्यार करेगी, यह वह अपने से नहीं पूछता था। लेकिन उसे सन्देह की अनुभूति भी नहीं होती थी, क्योंकि वह यक़ीन करता था और अपने आपसे कहता था कि उसे यक़ीन करना चाहिए। यद्यपि उसकी यह आस्था कि बीवी पर शक करना एक लज्जाजनक भावना है और उसे उस पर यकीन करना चाहिए, अभी तक खंडित नहीं हुई थी, फिर भी अब वह यह अनुभव करता था कि उसे बेतुकी और समझ में न आनेवाली परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा है और यह नहीं जानता था कि क्या करे। कारेनिन को जीवन का सामना करना पड़ रहा था, उसे यह सम्भावना दिखाई दे रही थी कि उसकी बीवी उसके सिवा किसी और से भी प्यार कर सकती है, और यह उसे बेहद उलझी तथा समझ में न आनेवाली बात प्रतीत हो रही थी, क्योंकि यह तो खुद ज़िन्दगी थी। कारेनिन ने अपना सारा जीवन सरकारी काम-काज के क्षेत्रों में, जिनका केवल जीवन की परछाइयों से सम्बन्ध था, बिता दिया था। और जब कभी उसे जीवन से दो-चार होना पड़ता था, वह दामन बचाकर निकल जाता था। अब उसे कुछ ऐसा महसूस हो रहा था, जैसाकि वह आदमी अनुभव कर सकता है, जो बड़े चैन से पुल पर चलता हुआ खड्ड पार कर लेता है और फिर अचानक यह देखता है कि वहाँ पुल नहीं रहा और नीचे खड्ड है। स्वयं जीवन ही वह खड्ड था और पुल था वह अवास्तविक जीवन, जो कारेनिन ने बिताया था। उसकी बीवी के किसी दूसरे आदमी को प्यार कर सकने की सम्भावना के सवाल पहली बार उसके सामने आए थे और वह स्तब्ध रह गया था।

कपड़े उतारे बिना वह केवल एक लैम्प से प्रकाशित भोजन कक्ष के आवाज़ पैदा करते तख़्तों से फ़र्श पर, अँधेरे मेहमानख़ाने के क़ालीन पर, जिसमें कुछ ही समय पहले बनाए गए और सोफ़े के ऊपर लटके हुए उसके अपने बड़े चित्र पर रोशनी पड़ रही ही, और फिर आन्ना के कमरे में, जहाँ दो मोमबत्तियाँ आन्ना के रिश्तेदारों और सहेलियों के चित्रों तथा लिखने की मेज़ पर रखी हुई उसकी सुन्दर और चिरपरिचित छोटी-मोटी चीज़ों को रौशन कर रही थीं, सधे हुए क़दमों से जाता । आन्ना के कमरे से वह सोने के कमरे तक जाकर वापस लौट आता ।

अपने ऐसे हर चक्कर में और अधिकतर रौशन भोजन कक्ष के तख़्तोंवाले फ़र्श पर वह रुकता और अपने आपसे कहता : 'हाँ, इस मामले को तय और ख़त्म करना ज़रूरी है, मेरे लिए अपनी राय ज़ाहिर करना और अपना फ़ैसला बताना ज़रूरी है। और इसके बाद वह वापस चल देता । 'लेकिन क्या बताऊँ ? कैसा फ़ैसला ?' वह मेहमानखाने में अपने से पूछता और उसे कोई जवाब न मिलता । 'आख़िर हुआ ही क्या है ?' आन्ना के कमरे की ओर मुड़ने के पहले वह यह सवाल करता । 'कुछ भी तो नहीं। उसने उससे देर तक बातचीत की। तो क्या हुआ ? लोगों से मिलने-जुलनेवाली औरत किसी से भी बातचीत कर सकती है। और फिर शक करना - यह तो खुद अपना और उसका अपमान करना है,' आन्ना के कमरे में दाखिल होते हुए वह अपने आपसे कहता । किन्तु वह दलील, जो पहले उसके लिए इतना अथक वज़न रखती थी, अब बेमानी और महत्त्वहीन हो गई थी। और वह सोने के कमरे के दरवाज़े से फिर हॉल की तरफ़ मुड़ जाता । किन्तु जैसे ही वह अँधेरे मेहमानख़ाने में दाखिल होता, कोई आवाज़ उससे कहती कि वह मामला सीधा-सादा नहीं है और अगर दूसरों का इसकी तरफ़ ध्यान गया है, तो इसका मतलब है - कुछ तो है ही । और भोजन कक्ष में आकर वह फिर अपने से कहता : 'हाँ, इस मामले को तय और ख़त्म करना तथा अपनी राय ज़ाहिर करना ज़रूरी है...' और फिर आन्ना के कमरे की ओर मुड़ने से पहले वह मेहमानखाने में अपने से पूछता: 'क्या तय किया जाए ?' इसके बाद अपने से सवाल करता : 'क्या हुआ है ?' और जवाब देता : 'कुछ नहीं,' तथा उसे यह याद आ जाता कि शक की भावना तो पत्नी का अपमान करनेवाली भावना है, किन्तु मेहमानखाने में उसे फिर से यक़ीन हो जाता कि कुछ तो हुआ है। उसके शरीर की तरह उसके विचार भी चक्कर पूरा करते और उन्हें कुछ भी नया न सूझता । इस बात की ओर उसका ध्यान गया, उसने अपने माथे को हाथ से रगड़ा और आन्ना के कमरे में बैठ गया ।

यहाँ, उसकी मेज़ पर मेलाकाइट की फ़ाइलवाली लेखन सामग्री और अधूरे पत्र को देखते हुए उसके विचारों में अचानक परिवर्तन हो गया। वह आन्ना के बारे में, इस बारे में सोचने लगा कि वह क्या सोचती और अनुभव करती है। उसने पहली बार आन्ना के व्यक्तिगत जीवन, उसके विचारों, उसकी इच्छाओं की मूर्त कल्पना की और यह ख़याल कि उसका कोई अपना अलग जीवन हो सकता है और होना चाहिए, उसे इतना भयानक प्रतीत हुआ कि उसने उसे जल्दी से दूर भगा दिया। यह वही खड्ड था, जिसमें झाँकते हुए उसका दिल डरता था । विचार और भावना से अपने को किसी अन्य व्यक्ति की आत्मा में ले जाना एक ऐसी आत्मिक क्रिया थी, जिससे कारेनिन अनजान था । वह ऐसी आत्मिक क्रिया को हानिकारक और कल्पना की ख़तरनाक उड़ान मानता था ।

'और सबसे बुरी बात तो यह है,' वह सोच रहा था, 'कि इस वक़्त, जब मेरा काम ख़त्म होने को आ रहा है (वह उस परियोजना के बारे में सोच रहा था, जिसे इस समय अमली शक्ल दे रहा था), जब मुझे पूरी शान्ति और मानसिक शक्ति की आवश्यकता है, इस बेहूदा परेशानी ने मुझे आ घेरा है। लेकिन क्या हो सकता है ? मैं तो इन लोगों में से नहीं हूँ, जो परेशानी और चिन्ता को बर्दाश्त करते हैं तथा उनका सामना करने की हिम्मत नहीं रखते ?'

“मुझे अच्छी तरह सोच-विचार करना, निर्णय पर पहुँचना और इस चीज़ को दिमाग़ से निकाल फेंकना चाहिए,” उसने ऊँचे-ऊँचे कहा ।

‘उसकी भावनाओं के प्रश्नों और इस बात का मुझसे कोई वास्ता नहीं है कि उसकी आत्मा में क्या हुआ है या हो रहा है। यह उसकी आत्मा का मामला है और धर्म के अन्तर्गत आता है,' उसने इस चेतना से राहत महसूस करते हुए अपने आपसे कहा कि उसे नैतिक नियमावली का वह बिन्दु मिल गया है, जिसके अन्तर्गत इस समय पैदा होनेवाली यह परिस्थिति आती है ।

'तो' कारेनिन ने अपने आपसे कहा, 'उसकी भावनाओं आदि के प्रश्न उसकी आत्मा के ही प्रश्न हैं और मुझे उनसे कुछ मतलब नहीं। मेरा उत्तरदायित्व बिल्कुल स्पष्ट है। परिवार के मुखिया के नाते मैं वह व्यक्ति हूँ, जिसे उसका निदेशन करना चाहिए और इसीलिए मैं वह व्यक्ति हूँ, जो कुछ हद तक उसके लिए ज़िम्मेदार हूँ । मुझे उस ख़तरे की तरफ़ इशारा करना चाहिए, जो मुझे नज़र आ रहा है, उसे सावधान और यहाँ तक कि अपने प्रभाव का भी उपयोग करना चाहिए। मुझे उससे साफ़-साफ़ कह देना चाहिए।' और कारेनिन के दिमाग़ में वह सब कुछ स्पष्ट हो गया, जो अब वह अपनी बीवी से कहेगा । यह सोच-विचार करते हुए कि वह क्या कहेगा, उसे इस बात का अफ़सोस हो रहा था कि उसे घरेलू मामले के लिए अपने समय और शक्ति का उपयोग करना पड़ रहा है और जिसका लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, मगर उसके बावजूद उसके मस्तिष्क में उन सभी बातों का, जो वह अपनी बीवी से कहेगा, रूप और क्रम ऐसे स्पष्ट होने लगा मानो वह कोई सरकारी रिपोर्ट पेश करनेवाला हो। 'मुझे यह सब कुछ कहना और पूरी तरह से स्पष्ट कर देना चाहिए एक, जनमत और शिष्टाचार का महत्त्व; दो, विवाह के महत्त्व का धार्मिक पक्ष तीन, आवश्यक होने पर यह भी कि इससे बेटे को कैसे दुर्भाग्य का शिकार होना पड़ सकता है; चार, खुद उसके लिए भी क्या दुर्भाग्य हो सकता है।' और उसने हथेलियों को नीचे की ओर करके उँगलियों को उँगलियों में डालकर दबाया और वे चटक उठीं।

उँगलियों के चटखाने की इस हरकत, इस बुरी आदत से वह हमेशा शान्त हो जाता था और उसे वह मानसिक सन्तुलन प्राप्त होता था, जिसकी उसे इस वक़्त वेहद ज़रूरत थी। घर के प्रवेश द्वार के निकट आती बग्घी की आवाज़ सुनाई दी। कारेनिन हॉल के बीचोबीच खड़ा हो गया ।

ज़ीने पर औरत के क़दमों की आहट मिल रही थी। अपना भाषण देने के लिए तैयार कारेनिन अपनी गुँथी हुई उँगलियों पर ज़ोर डालते हुए यह प्रतीक्षा कर रहा था कि उनमें से कोई और भी चटकती है या नहीं । आखिर एक उँगली चटकी ।

ज़ीने पर हल्के क़दमों की आहट से उसने अनुभव किया कि वह निकट आ रही है और यद्यपि वह अपने सोचे हुए भाषण से सन्तुष्ट था, तथापि कुछ क्षण बाद पत्नी से होनेवाली बातचीत के विचार से उसे दहशत महसूस हुई...।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 9-भाग 2)

आन्ना सिर झुकाए और अपने हुड के फुंदनों से खिलवाड़ करती चली आ रही थी। उसका चेहरा तेज़ चमक से दीप्तिमान था, किन्तु यह उल्लासपूर्ण दीप्ति नहीं थी । यह अँधेरी रात में आग की भयानक चमक की याद दिलाती थी। पति को देखकर आन्ना ने सिर ऊपर किया और मानो नींद से जागते हुए मुस्कुराई ।

“तुम बिस्तर में नहीं गए ? यह भी कमाल है !” आन्ना ने कहा, हुड उतार फेंका और रुके बिना अपने शृंगार-कक्ष की ओर आगे बढ़ गई । “सोने का वक़्त हो गया, अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच,” उसने दरवाज़े के पीछे से कहा ।

"आन्ना, मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।"

“मुझसे ?” उसने हैरान होते हुए कहा और दरवाज़े के पीछे से सामने आकर उसकी तरफ़ देखा । "क्या बात है ? किस बारे में ?” आन्ना ने बैठते हुए पूछा। “अगर ज़रूरी है, तो आओ कर लें बात । लेकिन शायद बेहतर होगा कि सोया जाए ।" आन्ना के मुँह में जो कुछ आ रहा था, वह वही कहती जा रही थी और अपने को सुनते हुए उसे झूठ बोलने की अपनी क्षमताओं से आश्चर्य हो रहा था। कितने सीधे-सादे और स्वाभाविक थे उसके शब्द तथा कितना अधिक ऐसा प्रतीत हो रहा था कि वह सोना चाह रही है ! वह ऐसा अनुभव कर रही थी मानो झूठ का अभेद्य कवच पहने हो । उसे लग रहा था मानो कोई अदृश्य शक्ति उसकी मदद कर रही है, उसे सहारा दे रही है । I

“आन्ना, मेरे लिए तुम्हें सावधान करना ज़रूरी है," पति ने कहा ।

“सावधान करना ?” उसने पूछा । " किस बात के लिए ?”

वह ऐसी मासूमियत, ऐसी खुशमिज़ाजी से उसकी तरफ़ देख रही थी कि जो व्यक्ति उसे उसके पति की भाँति ही अच्छी तरह नहीं जानता पहचानता था, न तो उसके अन्दाज़ और न ही उसके शब्दों के अर्थ में कोई बनावटीपन महसूस कर सकता था। लेकिन उसके लिए, जो उसे अच्छी तरह से जानता था, जो यह जानता था कि अगर वह पाँच मिनट भी देर से बिस्तर पर जाता था, तो आन्ना का इस चीज़ की ओर ध्यान जाता था और वह उसका कारण पूछती थी, उसके लिए, जो यह जानता था कि अपनी सभी खुशियों, सभी मनोरंजनों और दुःख - मुसीबतों की वह फ़ौरन उससे चर्चा करती थी- उसके लिए अब यह देखना कि वह उसकी मानसिक स्थिति को अनदेखा करना चाहती है, अपने बारे में एक शब्द भी नहीं कहना चाहती, बहुत माने रखता था । वह देख रहा था कि उसकी आत्मा की गहराई, जो पहले हमेशा उसके सामने खुली रहती थी, अब उसके लिए पर्दे से ढकी हुई है। इतना ही नहीं, उसके बात करने के अन्दाज़ से वह देख रहा था कि इससे उसे किसी प्रकार की घबराहट भी नहीं महसूस हो रही, बल्कि मानो वह साफ़ कह रही थी 'हाँ, मेरे दिल का दरवाजा बन्द कर दिया गया है और यह ऐसे ही होना चाहिए तथा आगे भी ऐसा ही होगा।' अब उसे उस आदमी जैसी अनुभूति हो रही थी, जो घर लौटने पर वहाँ ताला लटकता देखता है। लेकिन हो सकता है कि अभी भी चाबी मिल जाए,' कारेनिन सोच रहा था।

"मैं तुम्हें इस बारे में सावधान करना चाहता हूँ,” उसने धीमी आवाज़ में कहा, "कि असावधानी और गम्भीरता की कमी के कारण तुम सोसाइटी को अपने सम्बन्ध में चर्चा करने का मौक़ा दे सकती हो। काउंट व्रोन्स्की (उसने दृढ़ता और शान्ति से इस नाम पर जोर दिया) के साथ आज तुम्हारी बहुत ही सजीव बातचीत ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया।"

वह अपनी बात कह तथा आन्ना की हँसती और अभेद्यता के कारण अब भयानक बनी आँखों को देख रहा था और बोलते हुए अपने शब्दों की पूरी व्यर्थता तथा निरर्थकता को अनुभव कर रहा था।

"तुम्हारा हमेशा ऐसा ही हाल रहता है," उसने ऐसे कहा मानो उसकी बात बिल्कुल न समझ रही हो और उसने जो कुछ कहा, उसमें से अन्तिम बात को ही जान-बूझकर समझा हो। “कभी तुम्हें यह अच्छा नहीं लगता कि मैं ऊबी-ऊबी रहूँ, तो कभी यह अखरता है कि मैं खुश हूँ। मैं ऊब महसूस नहीं कर रही थी। तुम्हें यह बुरा लगा ?"

कारेनिन सिहरा और उसने उँगलियाँ चटकाने के लिए हाथों को नीचे की ओर झुकाया।

"ओह, कृपया उँगलियाँ नहीं चटकाना, मुझे यह बिल्कुल पसन्द नहीं," उसने कहा।

“आन्ना, यह तुम ही हो ?" कारेनिन ने जैसे-तैसे अपने पर काबू पाते और हाथों की हरकत को रोकते हुए धीमी आवाज़ में कहा।

“पर यह मामला क्या है ?" आन्ना ने बड़े निष्कपट और हास्यपूर्ण आश्चर्य के अन्दाज़ में पूछा। "क्या चाहते हो तुम मुझसे ?"

कारेनिन ख़ामोश रहा और माथे पर तथा आँखों पर हाथ फेरा। वह स्पष्टतः यह समझ रहा था कि जो कुछ करना चाहता था वह न करते हुए, यानी पत्नी को सोसाइटी की दृष्टि में भूल करने से बचाने के बजाय अनचाहे ही उस चीज़ के लिए परेशान हो रहा है, जिसका आन्ना की आत्मा से सम्बन्ध था और अपने द्वारा कल्पित किसी दीवार के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है ।

"मैं यह कहना चाहता हूँ,” उसने रुखाई और शान्ति से अपनी बात जारी रखी, “और मैं तुमसे पूरी बात सुन लेने का अनुरोध करता हूँ। जैसाकि तुम जानती हो, मैं शक करने को अपमानजनक और तिरस्कारपूर्ण भावना मानता हूँ तथा कभी भी इसे अपने पर हावी नहीं होने दूँगा । किन्तु शिष्टाचार के कुछ नियम हैं, जिनके उल्लंघन का अनिवार्य रूप से दंड भुगतान पड़ता है। आज मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा, किन्तु सोसाइटी पर पड़े प्रभाव के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि सभी ने इस बात की ओर ध्यान दिया कि तुमने वैसा व्यवहार नहीं किया, जैसाकि करना चाहिए था ।”

"मैं बिल्कुल कुछ भी नहीं समझ पा रही हूँ,” आन्ना ने कन्धे झटककर कहा । 'इसके लिए सब बराबर है,' आन्ना ने सोचा । 'लेकिन दूसरे लोगों ने ध्यान दिया और इससे इसे परेशानी हो रही है ।' "तुम स्वस्थ नहीं हो, अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच,” उसने इतना और कहा, उठी और दरवाज़े की तरफ़ जाना चाहा, किन्तु कारेनिन मानो उसे रोकने के लिए आगे बढ़ा।

उसका चेहरा ऐसा विकृत और उदास था, जैसाकि आन्ना ने पहले कभी नहीं देखा था । आन्ना रुकी और सिर को पीछे की ओर तनिक टेढ़ा झुकाकर फुर्ती से उँगलियाँ चलाती हुई बालों में से सूइयाँ निकालने लगी ।

“तो मैं सुनने को तैयार हूँ, जो कहना है कहो,” आन्ना शान्त और उपहासपूर्ण ढंग से बोली । “यहाँ तक कि दिलचस्पी से सुनूँगी, क्योंकि जानना चाहती हूँ कि मामला क्या है ।" अपने स्वाभाविक, शान्त तथा विश्वासपूर्ण अन्दाज़ और शब्दों के चुनाव से उसे हैरानी हो रही थी ।

"तुम्हारी भावनाओं की सारी तफ़सीलों में जाने का मुझे अधिकार नहीं है और वैसे भी मैं इसे बेकार, यहां तक कि हानिकारक भी मानता हूं," कारेनिन ने कहना शुरू किया । "अपनी आत्मा की छान- बीन करने पर हम अक्सर कुछ ऐसा खोज निकालते हैं, जो वहां अनदेखा ही पड़ा रहता है। तुम्हारी भावनायें – तुम्हारी आत्मा का मामला है, लेकिन मैं तुम्हारे, अपने और भगवान के सामने इस बात के लिये उत्तरदायी हूं कि तुम्हें तुम्हारी ज़िम्मेदारियों का एहसास कराऊं । हमारा जीवन आपस में बंधा हुआ है और इसे लोगों ने नहीं, बल्कि भगवान ने बन्धन में बांधा है । कोई अपराध ही इस बंधन को तोड़ सकता है और इस तरह के अपराध के लिये कड़ा दण्ड अनिवार्य होता है ।"

"मेरे तो कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा । हे भगवान, फिर यह नींद भी मुसीबत बनी जा रही है !” उसने बालों में से बाक़ी सूइयां निकालने के लिये उनमें जल्दी-जल्दी उंगलियां चलाते हुए कहा ।

"आन्ना, भगवान के लिये ऐसे नहीं कहो, ” उसने नम्रता से आपत्ति की। “ हो सकता है कि मुझसे भूल हो रही हो, किन्तु विश्वास करो कि मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह उतना ही अपने लिये कह रहा हूं जितना तुम्हारे लिये। मैं तुम्हारा पति हूं और तुम्हें प्यार करता हूं। क्षण भर को आन्ना का चेहरा उतर गया और उसकी आंखों में से उपहास की चमक ग़ायब हो गयी। लेकिन प्यार करता हूं” इन शब्दों से वह फिर भड़क उठी। उसने सोचा : "प्यार करता है? क्या वह प्यार कर भी सकता है ? अगर उसने यह सुना न होता कि प्यार जैसी कोई चीज़ होती है, तो उसने इन शब्दों का कभी उपयोग न किया होता। वह क्या जाने कि प्यार किसे कहते हैं !"

“ अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच, सचमुच मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा, आन्ना बोली । तुम मुझे साफ़-साफ़ समझाओ कि तुम क्या महसूस कर रहे हो ..."

"कृपया मुझे अपनी बात कह लेने दो। मैं तुम्हें प्यार करता हूं । लेकिन मैं अपनी बात नहीं कर रहा हूं - इस मामले में मुख्य तो है हमारा बेटा और तुम खुद । मैं दोहराता हूं, बहुत सम्भव है कि तुम्हें मेरे शब्द बिल्कुल व्यर्थ और अनुचित प्रतीत हों, हो सकता है कि वे मेरी भूल का परिणाम हों। ऐसा होने पर मैं क्षमा चाहता हूं। लेकिन अगर तुम खुद यह महसूस करो कि कहीं ज़रा-सा भी आधार है, तो मैं तुमसे अनुरोध करूंगा कि तुम सोचो- विचारो और अगर तुम्हारा मन ऐसा करना चाहे, तो मुझसे कहो..."

कारेनिन ने जो कुछ सोचा था, वह उससे बिल्कुल भिन्न बात कह रहा था और ऐसा अनुभव भी नहीं कर रहा था ।

"मुझे कुछ भी तो नहीं कहना । और फिर... मुश्किल से अपनी मुस्कान पर क़ाबू पाते हुए आन्ना अचानक तेज़ी से कह उठी, " सच, सोना चाहिये । "

कारेनिन ने गहरी उसांस छोड़ी और इसके बाद और कुछ भी कहे बिना सोने के कमरे की तरफ चल दिया । आन्ना जब सोने के कमरे में आई, तो कारेनिन बिस्तर पर लेट चुका था । वह अपने होंठ कसकर भींचे था और उसने आन्ना की तरफ़ नहीं देखा। आन्ना अपने पलंग पर जाकर लेट गयी और हर क्षण यह आशा कर रही थी कि वह उसके साथ फिर बातचीत करने लगेगा । आन्ना इससे घबरा भी रही थी और ऐसा चाह भी रही थी। मगर वह खामोश रहा। आन्ना हिले-डुले बिना देर तक इन्तज़ार करती रही और फिर उसके बारे में भूल गयी । वह अब दूसरे के बारे में सोच रही थी, उसे अपनी कल्पना में देख और यह अनुभव कर रही थी कि उसके ख़्याल से कैसे उसका मन बेचैनी और अपराधपूर्ण हर्ष से भर उठता था। अचानक उसे स्थिर और शान्त ढंग से नाक बजती सुनाई दी। पहले क्षण में कारेनिन मानो अपनी नाक बजने से डर गया और यह आवाज़ बन्द हो गयी । किन्तु दो सांसों के बाद वह फिर से शान्त लय में लगातार बजने लगी ।

" देर हो चुकी है, देर हो चुकी है, देर हो चुकी है, ” आन्ना मुस्कराते हुए फुसफुसायी । वह हिले-डुले बिना देर तक आंखें खोले लेटी रही और उसे लगा कि मानो अंधेरे में वह खुद अपनी आंखों की चमक देख रही है ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 10-भाग 2)

इस शाम से कारेनिन और उसकी पत्नी का एक नया जीवन आरम्भ हुआ। कोई खास बात नहीं हुई थी । आन्ना हमेशा की तरह ऊंची सोसाइटी में जाती थी, प्रिंसेस बेत्सी के यहां उसका बहुत अक्सर जाना होता और हर जगह व्रोन्स्की से उसकी भेंट होती । कारेनिन यह देखता, मगर कुछ भी नहीं कर सकता था। इस सिलसिले में बातचीत शुरू करने की उसकी सारी कोशिशों के जवाब में आन्ना उसके सामने उल्लासपूर्ण आश्चर्य की अभेद्य दीवार खड़ी कर देती । बाहरी तौर पर सब कुछ वैसे ही था, मगर उनके आन्तरिक सम्बन्ध पूरी तरह बदल गये थे । अपने सरकारी काम-काजों में इतना सशक्त कारेनिन इस मामले में अपने को बिल्कुल असहाय अनुभव करता था। एक सांड़ की तरह वह चुपचाप सिर झुकाये हुए उस डंडे की चोट पड़ने की प्रतीक्षा कर रहा था, जिसे वह अपने ऊपर उठा हुआ अनुभव कर रहा था। जब भी वह इस बारे में सोचने लगता, हर बार यही अनुभव करता कि एक बार फिर कोशिश करनी चाहिये कि उदारता और प्यार मुहब्बत से तथा समझा-बुझाकर अभी भी उसे बचाने की उम्मीद की जा सकती है, उसे होश में लाया जा सकता है और वह हर दिन उससे बात करने की सोचता । लेकिन हर बार, जब भी वह उससे बातचीत शुरू करता, उसे महसूस होता कि आन्ना को अपनी गिरफ़्त में ले लेनेवाली बदी और छल-कपट की भावना उस पर भी हावी हो गयी है और वह उससे न तो अपने मन की बात तथा न उस अन्दाज़ में ही उसे कह रहा है, जिसमें कहना चाहता था । वह उसके साथ अनचाहे ही उनका मज़ाक़ उड़ाने के अपने उसी अभ्यस्त ढंग में बात करता, जो ऐसे बात करते थे । और इस अन्दाज़ में वह नहीं कहा जा सकता था, जिसे आन्ना से कहने की ज़रूरत थी ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 11-भाग 2)

व्रोन्स्की के जीवन की लगभग एक साल तक जो एकमात्र चाह बनी रही थी और जिसने उसकी पहले की सभी चाहों की जगह ले ली थी, वह, जो आन्ना के लिये असम्भव, अत्यधिक भयानक और इसीलिये सुख की मनमोहिनी कल्पना बनी रही थी, वह चाह पूरी हो गयी थी। व्रोन्स्की का चेहरा पीला था, उसकी ठोड़ी कांप रही थी और वह आन्ना के पास खड़ा हुआ उससे शान्त होने का अनुरोध कर रहा था, मगर स्वयं यह नहीं जानता था कि वह क्यों और कैसे शान्त हो ।

"आन्ना ! आन्ना !"वह कांपती हुई आवाज़ में कह रहा था । "आन्ना, भगवान के लिये...."

व्रोन्स्की का स्वर जितना अधिक ऊंचा होता था, आन्ना का कभी गर्वीला, उल्लासमय और अब लज्जित सिर उतना ही अधिक नीचे कता जाता था । वह अधिकाधिक नीचे को धसकती और जिस सोफ़े पर बैठी थी, उससे फ़र्श पर व्रोन्स्की के पैरों की ओर गिरती जा रही थी। अगर व्रोन्स्की ने उसे थाम न लिया होता, तो वह क़ालीन पर गिर पड़ती ।

" हे भगवान! मुझे क्षमा करो !” उसने सिसकियां भरते और व्रोन्स्की के हाथों को अपने वक्ष पर दबाते हुए कहा ।

आन्ना अपने को इतनी अपराधिनी और दोषी अनुभव कर रही थी कि उसके लिये विनीत होकर क्षमा-याचना के अतिरिक्त कोई चारा नहीं थी। चूंकि उसके जीवन में व्रोन्स्की के अलावा अब और कोई नहीं रह गया था, इसलिये वह क्षमादान की अपनी प्रार्थना भी उसी को सम्बोधित कर रही थी । व्रोन्स्की की ओर देखते हुए वह शारीरिक रूप से अपने पतन को अनुभव कर रही थी और इससे अधिक कुछ भी नहीं कह सकी । व्रोन्स्की को वैसी ही अनुभूति हो रही थी, जैसी हत्यारे को वह शव देखकर होती है, जिसके उसने प्राण लिये होते हैं। उसने जिस शरीर के प्राण लिये थे, वह उनका प्रेम था, पहली अवस्था में प्रेम । उस चीज़ को याद करने में कुछ भयानक और घृणित था, जिसके लिये शर्म की यह भारी क़ीमत चुकानी पड़ी थी। अपनी आत्मिक नग्नता के कारण अनुभूत शर्म उसे कुचल रही थी और व्रोन्स्की को भी प्रभावित कर रही थी। अपने शिकार की लाश को सामने देखकर हत्यारे द्वारा अनुभूत सारी अरुचि के बावजूद उसके टुकड़े तो किये ही जाने चाहिये, उसे छिपाना तो चाहिये ही, हत्यारे ने हत्या करके जो कुछ प्राप्त किया है, उसका उपयोग तो करना ही चाहिये ।

और जैसे हत्यारा बड़ी झुंझलाहट से, मानो आवेश में आकर लाश पर झपटता है, उसे घसीटकर ले जाता है और उसके टुकड़े कर डालता है, वैसे ही व्रोन्स्की ने उसके चेहरे और कंधों को चुम्बनों से ढंक दिया। आन्ना उसका हाथ थामे थी, निश्चल थी। हां, ये चुम्बन ही तो हैं, जो शर्म की क़ीमत देकर खरीदे गये हैं। हां, और यह हाथ भी, जो हमेशा मेरा होगा - मेरे सहपराधी का हाथ है। उसने इस हाथ को ऊपर उठाकर चूमा । व्रोन्स्की घुटनों के बल हो गया और उसने आन्ना का चेहरा देखना चाहा, लेकिन उसने उसे छिपा लिया और ख़ामोश रही । आखिर मानो मन मारकर वह उठी और उसने व्रोन्स्की को परे धकेल दिया । उसका चेहरा पहले की तरह सुन्दर था, किन्तु इसीलिये अधिक दयनीय भी।

"सब कुछ ख़त्म हो गया," उसने कहा । " तुम्हारे सिवा मेरे पास कुछ भी नहीं रहा । यह याद रखना । "

" जो मेरी ज़िन्दगी ही है, उसे मैं कैसे भूल सकता हूं । सुख के इस क्षण के लिये ..."

" कैसा सुख !” आन्ना ने घृणा और वितृष्णा से कहा और यह वितृष्णा अपने आप ही व्रोन्स्की को संप्रेषित हो गयी । "भगवान के लिये एक भी शब्द, एक भी और शब्द नहीं कहना ।" वह जल्दी से उठी और उससे दूर हट गयी ।

"एक भी और शब्द नहीं कहना," आन्ना ने दोहराया और चेहरे पर व्रोन्स्की को अजीब लगनेवाला रुखाई भरी हताशा का भाव लिए हुए चली गयी। वह अनुभव कर रही थी कि इस नये जीवन की दहलीज़ पर पांव रखने से उसे लज्जा, खुशी और भय की जो अनुभूति हुई है, उसे इसी क्षण शब्दों में व्यक्त करने में असमर्थ थी, वह इसकी चर्चा नहीं करना चाहती थी, अनुपयुक्त शब्दों के उपयोग से इस भावना को भ्रष्ट नहीं करना चाहती थी । किन्तु बाद में दूसरे और तीसरे दिन भी उसे न केवल वे शब्द ही नहीं मिले, जिनसे वह इन भावनाओं की सारी जटिलता को व्यक्त कर सकती, बल्कि वे विचार तक नहीं ढूंढ़ सकी, जिनसे जो कुछ उसकी आत्मा में था, उस पर अपने आप चिन्तन ही कर पाती ।

वह अपने आपसे कहती : " नहीं, इस वक़्त मैं इस बारे में सोच- विचार नहीं कर सकती। बाद में, जब मैं अधिक शान्त हो जाऊंगी ।" लेकिन सोचने-समझने के लायक़ होने की यह शान्ति उसे कभी नसीब नहीं हुई। हर बार, जब उसे अपनी करनी का और यह ध्यान आता कि आगे उसका क्या होनेवाला है तथा उसे क्या करना चाहिये, तो घबराहट से उसका बुरा हाल हो जाता और वह इन विचारों को अपने से दूर खदेड़ देती।

बाद में, बाद में, " वह कहती, वह कहती, "जब मैं अधिक शान्त हो जाऊंगी।"

किन्तु सपनों में, जब अपने विचारों पर उसका कोई वश न रहता, वह अपनी स्थिति को पूरी घिनौनी नग्नता के साथ देख पाती। लगभग हर रात को वह एक ही स्वप्न देखती । स्वप्न में उसे नज़र आता कि दोनों एक साथ उसके पति हैं, कि दोनों उस पर खुले दिल से अपना प्यार लुटाते हैं । कारेनिन उसके हाथों को चूमता हुआ रोता और कहता कितना अच्छा है अब ! और अलेक्सेई व्रोन्स्की भी वहीं नज़र आता और वह भी उसका पति होता । वह इस बात से हैरान होते हुए कि पहले उसे यह असम्भव प्रतीत होता था, हंसते हंसते उन्हें यह स्पष्ट करती रहती कि अब मामला कहीं अधिक सीधा- सादा है और अब वे दोनों ही सन्तुष्ट और सुखी हैं। किन्तु यह दुःस्वप्न उसके मन पर भारी बोझ बन जाता और वह बहुत घबराकर जाग उठती ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 12-भाग 2)

मास्को से लौटने के पहले दिनों में ही, जब लेविन कीटी द्वारा उसके विवाह-प्रस्ताव को ठुकराने के कारण अनुभूत शर्म की याद करके कांप उठता था और लज्जारुण हो जाता था, वह अपने आपसे कहता : “ मैं तब भी ऐसे ही शर्म से लाल होता और कांप उठता था तथा सब कुछ खत्म हुआ मानता था, जब भौतिकशास्त्र में मुझे बहुत बुरे अंक मिले थे और मैं एक साल के लिये उसी कक्षा में रह गया था । इसी तरह मैं तब भी अपना सत्यानास हुआ समझता था, जब मैंने वह सारा काम-काज चौपट कर दिया था, जो बहन ने मुझे सौंपा था। और वास्तव में हुआ क्या ? -अब जब बहुत-से साल गुज़र चुके हैं, तो मैं इन बातों को याद करके हैरान होता हूं कि मुझे इनके कारण इतना दुःख हो सकता था। इस ग़म का भी यही हाल होगा । वक़्त बीतेगा और मैं इसे भी महसूस नहीं करूंगा । "

लेकिन तीन महीने गुज़रने पर भी ऐसा नहीं हुआ और उसे इसकी याद आने पर पहले दिनों की भांति ही पीड़ा अनुभव होती थी। उसे चैन नहीं मिल रहा था, क्योंकि इतने समय से पारिवारिक जीवन का सपना देखते, अपने को पूरी तरह विवाह के योग्य अनुभव करते हुए भी शादी नहीं कर सका था और पहले की तुलना में अब इससे कहीं दूर था। जैसे कि उसके इर्द-गिर्द के सभी लोग, वैसे ही वह खुद भी यह अनुभव करते हुए दुखी होता था कि उसकी उम्र में आदमी का अविवाहित रहना अच्छी बात नहीं है। उसे याद था कि मास्को जाने के पहले कैसे उसने अपने पशुपालक निकोलाई से, जो सीधा-सादा किसान था और जिससे उसे बातचीत करना अच्छा लगता था, यह कहा था : तो निकोलाई ! मैं शादी करना चाहता हूं !” और कैसे निकोलाई ने ऐसे झटपट जवाब दिया था मानो इस बारे में शक - शुबहा की कोई गुंजाइश ही न हो : अब तक तो ब्याह कर भी लेना चाहिये था, कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच । ” लेकिन अब पहले किसी भी वक़्त की तुलना में शादी उससे कहीं दूर हो गयी थी । दिल में जगह खाली नहीं रही थी और अब जब वह अपनी जान-पहचान की लड़कियों में से किसी अन्य की इस जगह पर कल्पना करता, तो उसे अनुभव होता कि ऐसा करना बिल्कुल नामुमकिन है। इसके अलावा कीटी के इन्कार और इस सिलसिले में उसकी अपनी भूमिका की याद उसे लज्जा से व्यथित करती। वह अपने आपसे चाहे कितना भी क्यों न कहता कि उसका इस मामले में कोई क़सूर नहीं है, यह स्मृति, इसी तरह की अन्य लज्जाजनक स्मृतियों की भांति उसे सिहरने और शर्म से लाल होने को विवश कर देती। हर अन्य व्यक्ति की भांति उसके अतीत में भी कुछ ऐसी हरकतें थीं, जिनके बुरा होने की उसे चेतना थी और जिनसे उसकी आत्मा को संतप्त होना चाहिये था, किन्तु इन बुरी हरकतों की यादें उसे इन तुच्छ, किन्तु लज्जाजनक अनुभवों की तुलना में कहीं कम व्यथित करती थीं। इन यादों के घाव कभी नहीं भरे थे । इन यादों में ही अब कीटी का इन्कार और वह दयनीय स्थिति, जिसमें वह उस शाम को दूसरों को प्रतीत हुआ होगा, शामिल हो गयी थी । लेकिन समय और काम ने अपना रंग दिखाया । ग्राम-जीवन की साधारण, किन्तु महत्वपूर्ण घटनायें कटु स्मृतियों को अधिकाधिक धुंधली बनाती चली गयीं। बीतनेवाले हर सप्ताह से कीटी की याद कम होती जाती थी। वह बड़ी बेचैनी से इस ख़बर का इन्तज़ार कर रहा था कि कीटी की शादी हो गयी है या कुछ दिनों में होनेवाली है और उसे आशा थी कि ऐसी खबर दुखता हुआ दांत निकलवा देने की भांति उसे पूरी तरह शान्त कर देगी ।

इसी बीच वसन्त आ गया था, सुन्दर और मधुर, वसन्त की प्रत्याशाओं और छल-कपटों के बिना वसन्त, कभी-कभार आनेवाला ऐसा वसन्त, जिससे वनस्पतियों, जानवरों और इन्सानों को समान रूप में खुशी होती है । ऐसा प्यारा वसन्त लेविन को और अधिक उत्प्रेरित करता था और उसके इस इरादे को और ज़्यादा पक्का बनाता था कि वह पहले के सब मंसूबों को त्याग कर अपने एकाकी जीवन को दृढ़ और स्वतंत्र रूप दे। यह सही है कि वह जो इरादे बनाकर गांव लौटा था, उनमें से अनेक को अमली शक्ल नहीं दे पाया था, फिर भी सबसे मुख्य बात यानी जीवन को पवित्र ढंग से बिताने का निश्चय बनाये रहा था। उसे वह लज्जा अनुभव नहीं होती थी, जो पतन के बाद उसे यातना देती थी और वह बेझिझक लोगों से आंखें मिला सकता था। फ़रवरी में ही उसे मारीया निकोलायेव्ना का इस आशय का पत्र मिला था कि भाई निकोलाई की सेहत ज़्यादा बिगड़ती जा रही है, लेकिन वह इलाज नहीं करवाना चाहता । यह पत्र पाने के बाद लेविन अपने भाई के पास मास्को गया और उसे इस बात के लिये राज़ी करने में कामयाब हो गया कि वह किसी डाक्टर की सलाह ले और विदेश के किसी खनिज जल-केन्द्र में इलाज कराने जाये। भाई को राज़ी करने और उसे नाराज़ किये बिना खर्च के लिये क़र्ज़ देने में उसे इतनी अधिक सफलता मिली कि इस दृष्टि से उसने अपने प्रति बड़ा सन्तोष अनुभव किया । अध्ययन और खेतीबारी के अलावा, जो वसन्त में विशेष ध्यान की मांग करती है, लेविन ने इस जाड़े में खेतीबारी पर एक निबन्ध भी लिखना शुरू कर दिया था, जिसका मुख्य भाव यह था कि खेतीबारी में मज़दूर के चरित्र को जलवायु और भूमि की भांति अभिन्न अंग के रूप में मानना चाहिये और इसलिये खेतीबारी के विज्ञान के सम्बन्ध में सभी परिणाम जलवायु और भूमि के तथ्यों के आधार पर ही नहीं, बल्कि भूमि, जलवायु तथा खेत-मज़दूर के पूर्व-स्वीकृत अपरिवर्तनीय चरित्र के तथ्यों के आधार पर निकालने चाहिये। तो इस तरह एकाकीपन के बावजूद या उसके परिणामस्वरूप लेविन का जीवन बहुत भरा-पूरा था और केवल कभी-कभी ही उसे अपने दिमाग़ में घूमनेवाले विचारों को अगाफ़्या मिखाइलोव्ना के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से कहने की इच्छा की अतृप्ति की अनुभूति होती । वैसे तो अगाफ़्या मिखाइलोव्ना के साथ भी वह बहुत बार भौतिकशास्त्र, खेतीबारी के सिद्धान्तों और विशेषकर दर्शनशास्त्र पर, जो अगाफ़्या मिखाइलोव्ना का प्रिय विषय था, विचार-विनिमय करता था ।

वसन्त देर तक खुलकर सामने नहीं आया । लेण्ट के अन्तिम सप्ताहों में निर्मल और पालेवाला ठण्डा मौसम बना रहा। दिन को धूप में बर्फ़ पिघलती और रात को शून्य से सात दर्जे नीचे तक की ठण्ड होती । जमी हुई बर्फ़ की सतह इतनी सख्त थी कि उस पर रास्ते के बिना भी हर जगह घोड़ा - गाड़ियां चल सकती थीं । ईस्टर के वक़्त भी बर्फ़ बनी रही। तब अचानक ईस्टर के सोमवार को तेज़ी से गरम हवा चलने लगी, काले मेघ घिर आये और तीन दिन तथा तीन रातों तक खूब ज़ोर से गुनगुनी बारिश हुई । बृहस्पति के दिन हवा शान्त हो गयी और सलेटी रंग का घना कुहासा छा गया, जो मानो प्रकृति में होनेवाले परिवर्तनों को छिपा रहा हो । कुहासे में हिम - जल की धारायें बह चलीं, नदियों पर जमी बर्फ़ की तहें चटकीं और बहने लगीं, गंदली और फेनिल प्रचण्ड धारायें तेज़ी से भागने लगीं और अगले इतवार की शाम को ही कुहासा छंटा बादल ऊन के फूले-फूले गोलों की तरह इधर-उधर भाग चले, आसमान साफ़ हुआ और असली वसन्त प्रकट हुआ। सुबह को गर्म सूरज निकला, वह पानी की सतह पर छाई बर्फ़ की पतली तह को जल्दी से निगल गया और सारी गुनगुनी हवा जागकर सांस लेती धरती की भाप से दोलायमान हो उठी। पुरानी घास हरी हो गयी और नयी घास की सूइयों जैसी नुकीली पत्तियां निकल आयीं, गल्दर रोज़ वृक्षों, फलदार झाड़ियों और चिपचिपे भोज वृक्षों के अंकुर फूल गये और सुनहरे फूलों से ढके बेंत के वृक्ष पर अपने छत्ते से अभी बाहर आनेवाली मधुमक्खी भिनभिना उठी। खेतों की हरी मखमल और बर्फ़ ढके डंठलों वाले मैदानों के ऊपर अदृश्य लवा पक्षियों के तराने गूंजने लगे। नदियों के ढालू स्थानों तथा दलदलों के ऊपर, जो पानी भरपूर थे, टिटिहरियां शोर मचा रही थीं और सारस तथा हंस वसन्त के दिनों की अपनी आवाजें गुंजाते हुए आकाश में बहुत ऊंचे उड़ रहे थे। जाड़े में अपने रोयें बदल देने और कहीं-कहीं पर रोयों के बिना हो जानेवाली गउएं चरागाहों में रम्भा रही थीं, टेढ़ी-मेढ़ी कमज़ोर टांगोंवाले मेमने अपनी मिमियाती और ऊन गिराती मांओं के गिर्द फुदक रहे थे, तेज़ दौड़नेवाले बालक पद - चिह्नों वाली सूखी जाती पगडंडियों पर दौड़ रहे थे, पोखर पर लिनन धोती देहाती औरतों के हंसी-खुशी से बोलने - बतियाने की आवाजें सुनाई दे रही थीं और अहातों में हलों और हेंगों की मरम्मत कर रहे किसानों के हथौड़े बज रहे थे। सचमुच वसन्त आ गया था।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 13-भाग 2)

लेविन ने घुटनों तक के बूट चढ़ाये और पहली बार फ़र के कोट के बजाय बनाती अंगरखा पहनकर अपने फ़ार्म का चक्कर लगाने चल दिया, धूप में आंखों को चकाचौंध करती जल-धाराओं में से क़दम बढ़ाते हुए कभी तो बर्फ़ पर और कभी चिपचिपे कीचड़ में उसका पांव पड़ता।

वसन्त - यह योजनाओं और सम्भावनाओं के अनुमान का समय होता है। उस पेड़ की भांति जिसे वसन्त में यह मालूम नहीं होता कि उसके फूले अंकुरों में छिपी हुई नई जड़ें और शाखायें किस दिशा में तथा कैसे बड़ी होंगी, लेविन को भी अहाते में आने पर इस बात का स्पष्ट ज्ञान नहीं था कि अपने प्यारे फ़ार्म में अब वह किस काम को शुरू करेगा। किन्तु वह अनुभव कर रहा था कि उसके दिमाग़ में ढेरों योजनायें और बहुत ही बढ़िया स्कीमें हैं। सबसे पहले तो वह पशुशाला की तरफ़ गया। गउओं को बाहर अहाते में छोड़ दिया गया था और वे अपनी मुलायम खाल की चमक दिखाती तथा धूप से गर्मायी हुई रम्भा रही थीं, चरागाहों में जाना चाह रही थीं । मुग्ध होकर अपनी गउओं को देखने के बाद, जिनके बारे में वह हर छोटी से छोटी बात भी जानता था, लेविन ने उन्हें चरागाहों में ले जाने और बछिया- बछड़ों को अहाते में छोड़ने का आदेश दिया । चरवाहा बहुत खुश होता हुआ चरागाहों में जाने की तैयारी करने के लिये भाग गया। पशुओं की देख-भाल करनेवाली औरतें अपने स्कर्टों को नंगी, गोरी टांगों पर ऊपर उठाये, जो अभी तक धूप में संवलायी नहीं थीं, तथा हाथों में कमचियां लिये रम्भाते और वसन्त की खुशी से मतवाले हुए बछड़े- बछियों को अहाते में हांकने के लिये कीचड़ में इधर-उधर भागती फिर रही थीं ।

इस वर्ष जन्मे बछड़े - बछियों को, जो असाधारण रूप से बहुत अच्छे थे – पहले जन्मी बछियां किसानों की गउओं के समान हो चुकी थीं और पावा की तीन महीने की बछिया क़द में एक साल की गाय के बराबर थी - मुग्ध होकर निहारने के बाद लेविन ने यह आदेश दिया कि उनके लिये नांद बाहर लाई जाये और सूखी घास भाबों में डाल दी जाये। लेकिन पता चला कि जाड़े में इस्तेमाल में न लाये जानेवाले अहाते में पतझर के दिनों में बनाये गये झाबे टूटे हुए हैं। उसने बढ़ई को बुलवा भेजा, जिसे मांड़ने की मशीन की मरम्मत करते होना चाहिये था। लेकिन मालूम हुआ कि बढ़ई हेंगों की मरम्मत कर रहा था, जिन्हें श्रोवटाइड के त्यौहार तक तैयार हो जाना चाहिये था । लेविन को इससे बड़ी खीझ महसूस हुई। खीझ इसलिये महसूस हुई कि फ़ार्म के काम में यह बेढंगापन, जिसके विरुद्ध वह अपनी पूरी ताक़त लगाकर कई सालों से संघर्ष कर रहा था, लगातार दोहराया जाता था। मालूम करने पर उसे पता चला कि जाड़े में काम न आने- वाले झाबों को जुतनेवाले घोड़ों के अस्तबल में ले जाया गया था और वहां वे टूट गये थे, क्योंकि बछड़े - बछियों के लिये उन्हें कच्चे ढंग से बनाया गया था। इसके अलावा यह भी पता चला कि हेंगे और खेतीबारी के दूसरे औज़ार, जिन्हें उसने जाड़े में ही जांचने और मरम्मत करने का आदेश दिया था और जिनके लिये तीन बढ़इयों को ख़ास तौर से काम पर रखा गया था, अभी तक वैसे ही पड़े थे और हेंगों की उस वक़्त मरम्मत की जा रही थी, जब उन्हें खेतों में होना चाहिये था । लेविन ने अपने कारिन्दे को बुलवा भेजा, लेकिन उसी वक़्त खुद उसे ढूंढ़ने चल दिया। इस दिन अन्य सभी चीजों की भांति चमकता हुआ कारिन्दा मेमने के फ़र से सजा भेड़ की खाल का कोट पहने और फूस को हाथों में मरोड़ता हुआ खलिहान से चला आ रहा था।

" मांड़ने की मशीन पर बढ़ई क्यों नहीं है ?"

“ मैं कल आपको यह बताना चाहता था कि हेंगों की मरम्मत करना ज़रूरी है । जुताई का वक़्त तो आ भी गया है।"

" लेकिन जाड़े में क्या होता रहा ?"

"आपको बढ़ई की किसलिये ज़रूरत है ?"

"बछड़े-बछियों के अहाते के झाबे कहां हैं ?"

"मैंने उन्हें उनकी जगह पर रख देने को कह दिया था । कैसे निपटे कोई इन लोगों से !" कारिन्दे ने हाथ झटक कर कहा ।

"इन लोगों से नहीं, बल्कि इस कारिन्दे से ! " लेविन ने भड़कते हुए कहा । "आखिर तुम किस मर्ज़ की दवा हो !" वह चिल्ला उठा । लेकिन यह ध्यान आने पर कि इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा, उसने इस बात को बीच में ही छोड़ दिया और केवल गहरी सांस ली। " तो बुवाई शुरू की जा सकती है ?” उसने कुछ क्षण चुप रहकर पूछा।

"तुर्कीनो के परे कल या परसों शुरू कर सकते हैं।"

"और तिपतिया घास ?

" वसीली और मीशा को भेज दिया है, बो रहे हैं, मालूम नहीं वे जा भी सकेंगे या नहीं - बेहद कीचड़ है ।"

" कितने देसियातीना1 में ?"

1. देसियातीना - रूस में भूमि की पुरानी नाप, जो 1,09 हेक्टर के बराबर है।

"छः में। "

"सारी ज़मीन में क्यों नहीं ?" लेविन चिल्लाया ।

तिपतिया घास बीस के बजाय केवल छः देसियातीना में बोयी जा रही है, यह और भी ज़्यादा खीझ पैदा करनेवाली बात थी । सैद्धान्तिक ज्ञान और व्यक्तिगत अनुभव से लेविन यह जानता था कि तिपतिया घास की बुवाई केवल तभी अच्छी होती थी, जब उसे यथा- सम्भव जल्दी, लगभग बर्फ़ में ही बोया जाता था । किन्तु लेविन को ऐसा कर पाने में कभी कामयाबी नहीं मिली थी ।

" लोग नहीं हैं। क्या करे कोई इन लोगों का ? तीन आये नहीं । सेम्योन को ही लीजिये..."

"आप छप्पर डालने के काम से कुछ को रोक लेते ।"

"वही तो मैंने किया है।"

"कहां हैं लोग ? "

"पांच खाद बना रहे हैं, चार जई को पलट रहे हैं, नहीं तो वह फूटने लग सकती है, कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच ।"

लेविन बहुत अच्छी तरह से जानता था कि " जई फूटने लग सकती है” का मतलब यह था कि बुवाई के लिये रखी गयी अंग्रेज़ी जई का सत्यानास हो चुका है, यानी फिर उसके आदेश को पूरा नहीं किया गया ।

मैंने तो लेण्ट के वक़्त ही कहा था न कि पाइपों से हवा भरो! .." वह चिल्लाया ।

"कोई फ़िक्र नहीं करें, सब कुछ वक़्त पर कर देंगे ।"

लेविन ने गुस्से से हाथ झटका, जई को देखने के लिये खत्ती में गया और फिर अस्तबल की ओर चला गया। जई अभी ख़राब नहीं हुई थी। लेकिन मज़दूर उसे फावड़ों से पलट रहे थे, जबकि उसे निचली खत्ती में ही सीधे डाला जा सकता था । ऐसा करने का आदेश देकर और दो मज़दूरों को तिपतिया घास की बुवाई के लिये यहां से भेजने के बाद कारिन्दे के ख़िलाफ़ लेविन का गुस्सा ठण्डा हो गया । फिर दिन भी तो इतना प्यारा था कि नाराज़ होना सम्भव नहीं था ।

"इग्नात !” उसने सईस को आवाज़ दी, जो आस्तीनें ऊपर चढ़ाये हुए कुएं के पास बग्घी को धो रहा था । " मेरे लिये घोड़े पर ज़ीन कस दो ..."

"किस पर, हुजूर?”

" कोल्पिक पर ही सही ।"

"जो हुक्म ।"

जब तक घोड़े पर जीन कसा गया, तब तक लेविन ने आंखों के सामने इधर-उधर चक्कर काटते हुए कारिन्दे को फिर से अपने पास बुला लिया, ताकि उससे सुलह कर ले और उसके साथ वसन्त में किये जानेवाले कामों तथा खेतीबारी की योजनाओं की चर्चा करने लगा ।

खाद को ले जाने का काम कुछ पहले शुरू किया जाना चाहिये, ताकि प्रारम्भिक घास काटने के वक़्त तक यह काम पूरा हो जाये । साथ ही दूर के खेत को हलों से जोता जाना चाहिये और उसे बुवाई के बिना छोड़ दिया जाये । घास को अपने लोगों की मदद से नहीं, जो आधी घास ले लेंगे, बल्कि मज़दूरों की सहायता से समेटा जाना चाहिये ।

कारिन्दे ने ध्यान से यह सब सुना और मन मारकर प्रकटतः मालिक के सुझावों का अनुमोदन भी किया। लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर निराशा और उदासी का वह भाव अंकित था, जिससे लेविन भली भांति परिचित था और जिससे उसे हमेशा झल्लाहट होती थी । चेहरे का यह भाव कह रहा था कि यह सब कुछ तो ठीक है, मगर होगा वही, जो भगवान चाहेगा ।

लेविन को और किसी भी चीज़ से इतना ज़्यादा रंज नहीं होता था, जितना इस अन्दाज़ से। उसके यहां जितने भी कारिन्दे आ चुके थे, यह अन्दाज़ उन सभी का सामान्य लक्षण था। उसके सुझावों के प्रति भी उन सबका ऐसा ही रवैया था और इसलिये अब वह नाराज़ नहीं, बल्कि दुखी होता था और मानो प्रकृति की इस अंधी ताक़त के विरुद्ध, जिसे वह " भगवान जो करेगा, वही होगा " के अतिरिक्त कोई दूसरी संज्ञा नहीं दे सकता था और जो हमेशा उसके आड़े आती थी, डटकर संघर्ष करने का और अधिक उत्साह अनुभव करता था।

" देखें, कितना कुछ कर पाते हैं, कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच," कारिन्दे ने कहा।

"कर क्यों नहीं पायेंगे ?"

“ कम से कम पन्द्रह् मज़दूर तो और रखने ही चाहिये। लेकिन वे लोग आते ही नहीं । आज आये थे, गर्मी भर के लिये सत्तर-सत्तर रूबल मांगते हैं।"

लेविन चुप रहा । फिर से वही शक्ति सामने आ खड़ी हुई थी । वह जानता था कि वे चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न करें, सैंतीस, अड़तीस या चालीस से ज़्यादा मज़दूरों को ठीक मज़दूरी पर हासिल नहीं कर सकते थे। चालीस रखे जा चुके थे और इससे अधिक नहीं मिल रहे थे। फिर भी वह संघर्ष किये बिना नहीं रह सकता था ।

"सूरी और चेफ़ीरोव्का गांवों में किसी को भेजिये । मज़दूरों को ढूंढ़ना चाहिये । "

"भेजने को तो भेज दूंगा, " वसीली फ्योदोरोविच ने मरी- सी आवाज़ में कहा। लेकिन घोड़े भी तो मरियल हो गये हैं ।"

" और ख़रीद लेंगे। मैं तो जानता हूं, " लेविन ने हंसकर इतना और जोड दिया, "आप तो बस, कम और घटिया के फेर में ही रहते हैं। लेकिन इस साल मैं आपको मनमानी नहीं करने दूंगा । सब कुछ खुद करूंगा ।"

"मेरे ख़्याल में आप अभी भी पूरी तरह नहीं सोते हैं । मालिक के सामने रहने पर हमें तो खुशी ही होती है ...."

"तो भोज-घाटी के परे तिपतिया घास बोयी जा रही है न ? जाकर देखता हूं,” लेविन ने सईस द्वारा लाये गये छोटे-से कुम्मैत घोड़े पर सवार होते हुए कहा ।

" नाले में से नहीं जा सकेंगे, कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच, " सईस ने पुकारकर कहा।

"तो जंगल में से चला जाऊंगा ।"

और तेज़ दुगामा चाल से चलनेवाले अपने अच्छे से घोड़े पर जो देर तक अस्तबल में ही बंधा रहा था और डबरों पर भर्राटा लेता तथा लगाम की छूट चाहता था, लेविन अहाते के कीचड़ से फाटक पर पहुंचा और फिर खेत को चल दिया ।

लेविन को अगर पशुओं के बाड़े और खलिहान में जाकर खुशी हुई थी, तो खेत में उसे और भी ज़्यादा अच्छा लग रहा था। दुगामा चाल वाले अपने अच्छे घोड़े पर समगति से डोलते, जंगल लांघते समय गुनगुनी बर्फ़ तथा हवा की ताज़गी लिये गंध को सांसों में भरते और कहीं-कहीं रह गयी टूटती, धंसती और पिघलते चिह्नोंवाली बर्फ़ पर से गुज़रते हुए वह फूले अंकुरों और छाल पर सजीव हो उठी काईवाले अपने हर वृक्ष को देखकर खुश हो रहा था । जंगल से बाहर आने पर उसे बहुत बड़े विस्तार में खाली जगह के एक भी धब्बे के बिना मखमली क़ालीन की तरह हरियाली फैली दिखाई दी । केवल कहीं-कहीं गड्ढों में ही पिघलती बर्फ़ के धब्बे बाक़ी रह गये थे । न तो किसान के घोड़े और बछेड़े को देखकर ही, जो उसकी नयी, हरी फ़सल को कुचल रहे थे ( उसने सामने आ जानेवाले एक किसान को उन्हें खदेड़ देने का ( आदेश दिया ) और न ही इपात नाम के किसान से मुलाक़ात हो जाने तथा यह पूछने पर “ तो इपात, जल्द ही बुवाई होगी ?" और उसके हास्यास्पद तथा मूर्खतापूर्ण यह जवाब देने पर ही - " पहले तो जुताई करनी चाहिये, कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच", उसे गुस्सा आया । वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जा रहा था, उसका मन त्यों-त्यों और अधिक खिलता जाता था तथा खेतीबारी सम्बन्धी एक से एक बढ़िया योजना उसके दिमाग़ में आती जा रही थी । सभी खेतों में मध्याह्न - रेखाओं पर बेंत के वृक्ष उगा दिये जायें, ताकि उनके नीचे बहुत देर तक बर्फ़ न पड़ी रहे, खेतों को विभाजित कर दें - छ: में खाद डाली जाये और तीन पर तिपतिया घास उगायी जाये, खेत के दूरस्थ सिरे पर पशुशाला और एक तालाब बनाया जाये तथा खाद के लिये पशुओं के वहनशील बाड़े बनाये जायें। तब तीन सौ देसियातीना जमीन में गेहूं, सौ में आलू और डेढ़ सौ में तिपतिया घास उगायी जाये और इस तरह एक देसियातीना भूमि का भी उपजाऊपन नष्ट नहीं हो पायेगा ।

इस तरह के सपने देखते और बड़ी सावधानी से मेंडों के बीच घोड़े को मोड़ते हुए, ताकि अपनी हरी फ़सल को न कुचल दे, वह तिपतिया घास बोनेवाले मज़दूरों के पास पहुंचा। बीजोंवाली गाड़ी मेंड़ पर नहीं, बल्कि जुती हुई ज़मीन पर खड़ी थी और गेहूं की रबी की फ़सल गाड़ी के पहियों तथा घोड़े के सुमों से रौंदी हुई थी। दोनों मज़दूर मेंड़ पर बैठे हुए सम्भवतः एक ही पाइप से तम्बाकू के कश खींच रहे थे। गाड़ी में पड़ी बीज - मिश्रित मिट्टी मली हुई नहीं थी, बल्कि टिकियों या जमकर गोलों का रूप लिये थी । मालिक को देखकर खेत-मज़दूर वसीली गाड़ी की तरफ़ चल दिया और मीशा बुवाई करने लगा । यह कोई अच्छी बात तो नहीं थी, मगर लेविन मज़दूरों पर बहुत कम ही बिगड़ता था । वसीली के निकट आने पर लेविन ने उसे घोड़े को मेंड़ पर ले जाने को कहा ।

"कोई बात नहीं, हुजूर, फ़सल फिर से खड़ी हो जायेगी," वसीली ने जवाब दिया ।

" कृपया बहस में नहीं पड़ो, " लेविन ने कहा, "जो कहा गया है, वही करो। "

"जो हुक्म, " वसीली ने उत्तर दिया और घोड़े की लगाम पकड़ ली । "बुवाई तो कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच," उसने खुशामदी ढंग से कहा, "अव्वल दर्जे की हो रही है। लेकिन यहां चलना मुसीबत है ! छाल के जूते एक-एक मन के भारी हो जाते हैं।"

"यह मिट्टी छनी हुई क्यों नहीं है ?" लेविन ने पूछा ।

"हम इसे मल लेते हैं, " वसीली ने बीज - मिश्रित मिट्टी लेकर उसे हाथों से मलते हुए जवाब दिया ।

वसीली का इसमें कोई क़सूर नहीं था कि उसे बिना छनी मिट्टी दे दी गयी थी, फिर भी थी तो यह दुःख की बात ।

अपनी खीझ पर क़ाबू पाने और बुरी प्रतीत होनेवाली चीज़ को फिर से अच्छा बनाने के एक ज्ञात उपाय को लेविन कई बार सफल- तापूर्वक आजमा चुका था और उसने अब भी इसी का उपयोग किया । उसने ध्यान से देखा कि मीशा अपने हर पांव के साथ चिपक जानेवाले मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों को घसीटता हुआ कैसे चलता था, घोड़े से उतरा और वसीली से बुवाई की टोकरी लेकर बोने चल दिया ।

"तुम कहां रुके थे ? "

वसीली ने पांव से निशान की तरफ़ इशारा किया और लेविन अपनी पूरी कोशिश से बुवाई करने लगा । चलने में दलदल जैसी ही कठिनाई होती थी और लेविन एक क़तार पूरी करते-करते पसीने से तर हो गया, रुका और बीजों की टोकरी उसने वसीली को दे दी।

"हुजूर, गर्मी में मुझे इस क़तार के लिये भला-बुरा नहीं कहियेगा ।"

"क्यों, क्या बात है ?" अपने उपाय के अनुकूल प्रभाव को अनुभव करते हुए लेविन ने खुशमिजाजी से पूछा ।

"गर्मियों में देखियेगा । वह भिन्न होगी । ज़रा उधर नज़र दौड़ाइये, जहां मैंने पिछले वसन्त में बुवाई की थी । कितना बढ़िया काम किया है ! मुझे लगता है, कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच, मैं तो ऐसे ही पूरा ज़ोर लगाता हूं, जैसे कि यह मेरे अपने सगे बाप का काम हो । मुझे खुद बुरा काम करना पसन्द नहीं और दूसरों को भी नहीं करने देता। मालिक का भला, तो हमारा भला । जैसे ही उधर नज़र जाती है, वसीली ने खेत की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, " दिल खुश हो जाता है ।"

"यह वसन्त बहुत प्यारा है, वसीली।"

“ ऐसा वसन्त तो बड़े-बूढ़ों को याद ही नहीं। मैं घर होकर आया हूं, वहां हमारे बूढ़े ने भी एक एकड़ ज़मीन में गेहूं बोया है। उसका कहना है कि उसमें और रई में भेद नहीं किया जा सकता ।"

"बहुत अर्से से गेहूं बो रहे हैं क्या आप लोग ? "

"पार साल की गर्मी में आप ही ने तो यह सिखाया था । आप ही ने तो दो बोरी गेहूं दिया था, जिसका एक-चौथाई हमने बेच दिया और बाक़ी बो दिया ।"

"तो देखो, ढेलों को तोड़ देना " लेविन ने घोड़े के पास जाते हुए कहा । "और मीशा का भी ध्यान रखना। अगर घास अच्छी हुई, तो हर देसियातीना के पीछे तुम्हें पचास कोपेक मिलेंगे । "

"बहुत बहुत शुक्रिया । आपकी तो हम पर योंही बड़ी मेहरबानी है।"

लेविन घोड़े पर सवार होकर उस खेत में गया, जहां पिछले साल की तिपतिया घास थी और इसके बाद उस खेत में जिसे खरीफ़ का गेहूं बोने के लिये जोता जा चुका था ।

डंठलों वाले खेत में तिपतिया घास खूब बढ़िया ढंग से बढ़ रही थी । वह काफ़ी मज़बूत थी और पिछले वर्ष के गेहूं की टूटी खूंटियों के बीच बहुत हरी दिख रही थी । घोड़ा टखने तक धंस जाता था और आधी पिघली हुई ज़मीन में से उसके सुम बाहर निकालने पर छप की आवाज़ होती। जोते हुए खेत को लांघना तो बिल्कुल असम्भव था - घोड़ा सिर्फ़ वहीं चल सकता था, जहां बर्फ़ की सख्त सतह थी, लेकिन पिघली हुई हल - रेखाओं में तो घोड़े की टांग टखने से ऊपर तक धंस जाती थी। जुताई बहुत कमाल की हुई थी, दो दिन में हेंगा फेरना और बुवाई करना सम्भव होगा। सब कुछ बहुत बढ़िया था, सब कुछ मन को खुश करनेवाला था । लेविन यह आशा करते हुए कि नाले में पानी उतर गया होगा वापसी पर उसी में से लौटा । सचमुच ऐसा ही था और नाले को पार करते हुए उसने दो बत्तखों को डरा दिया । "तो कुनाल भी होने चाहिये, ” उसने सोचा और घर की तरफ़ मुड़ते हुए वन के चौकीदार से उसकी मुलाक़ात हो गयी, जिसने कुनालों के बारे में उसके अनुमान की पुष्टि की।

लेविन दुलकी चाल से घोड़े को दौड़ाता हुआ घर गया, ताकि दोपहर का खाना खाने के बाद शाम को शिकार के लिये बन्दूक भी तैयार कर ले ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 14-भाग 2)

बहुत ही खुशी के मूड में घर के क़रीब पहुंचने पर लेविन ने मुख्य रास्ते की ओर से घंटी की आवाज़ सुनी ।

"हां, यह तो कोई स्टेशन की तरफ़ से आ रहा है, ” उसने सोचा, मास्को से आनेवाली गाड़ी का वक्त हुआ है ... कौन हो सकता है ? सम्भव है कि भाई निकोलाई हो ? उसने तो कहा भी था - खनिज जल के इलाज के लिये भी जा सकता हूं और तुम्हारे पास भी आ सकता हूं । पहले क्षण में उसे यह बुरा लगा और इस बात का भय अनुभव कि भाई निकोलाई की उपस्थिति से उसका वसन्त का ऐसा बढ़िया मूड ख़राब हो जायेगा । किन्तु ऐसी भावना के कारण उसे लज्जा की अनुभूति हुई और उसने उसी समय मानो अपने मन की बांहें फैला दीं और स्नेहपूर्ण प्रसन्नता के साथ उसकी प्रतीक्षा तथा जी-जान से यह कामना करने लगा कि आगन्तुक उसका भाई ही हो। उसने घोड़े को बढ़ाया और अकासिया को लांघते ही उसे रेलवे स्टेशन से किराये की स्लेज गाड़ी आती दिखाई दी, जिसमें फ़र-कोट पहने एक साहब बैठा था। यह उसका भाई नहीं था । "काश, कोई अच्छा आदमी हो, जिससे बातें की जा सकें, " उसने सोचा ।

"भई वाह ! लेविन दोनों हाथ ऊपर को उठाकर खुशी से चिल्ला उठा । " यह है खुशी लेकर आनेवाला मेहमान ! ओह, कितना खुश हूं मैं तुम्हारे आने से ! " ओब्लोन्स्की को पहचान लेने के बाद उसने ऊंची आवाज़ में कहा ।

" पूरी तरह से यह मालूम कर लूंगा कि उसकी शादी हो गयी या नहीं या कब होनेवाली है," लेविन ने मन ही मन सोचा ।

और वसन्त के इस अद्भुत दिन में उसे लगा कि उसकी स्मृति उसे तनिक भी नहीं खटकी ।

" तुमने ऐसी उम्मीद नहीं की होगी ?" ओब्लोन्स्की ने स्लेज से बाहर निकलते हुए कहा । उसकी नाक की नोक, गाल और भौंहों पर कीचड़ के छींटे पड़े हुए थे, मगर वह खुशी तथा स्वास्थ्य से चमक रहा था। तुम से मिल लूं - एक चीज़, " उसने लेविन को गले लगाते और चूमते हुए कहा, कुछ शिकार कर लूं – दो, और येर्गूशोवो गांव का जंगल बेच दूं - तीन । "

"बहुत खूब ! वसन्त तो कितना प्यारा है! लेकिन स्लेज में यहां कैसे पहुंच गये ?”

"पहियों वाली गाड़ी में और भी बुरा हाल होता, कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच," परिचित कोचवान ने जवाब दिया ।

"तुम्हारे आने से बहुत बहुत ही खुश हूं मैं, " लेविन ने निश्छल और बाल-सुलभ खुशी भरी मुस्कान के साथ कहा ।

लेविन अपने मेहमान को अतिथियों के ठहरने के कमरे में ले गया । उसका सामान – बड़ा थैला, गिलाफ़ चढ़ी बन्दूक़ और सिगार केस वहां पहुंचा दिये गये । उसे नहाने-धोने और कपड़े बदलने के लिये छोड़कर लेविन जुताई तथा तिपतिया घास के बारे में बताने को अपने कार्यालय की ओर चल दिया । अगाफ़्या मिखाइलोव्ना, जिसे घर की इज़्ज़त का हमेशा बहुत ध्यान रहता था, उससे खाने के बारे में पूछ- ताछ करने के लिये ड्योढ़ी में मिली ।

" जो भी चाहें पका लें, लेकिन जल्दी से " उसने कहा और कारिन्दे की तरफ़ चल दिया ।

जब वह लौटा, तो ओब्लोन्स्की नहाने धोने और बाल संवारने के बाद मुस्कान बिखराता हुआ अपने कमरे से बाहर निकल रहा था । वे दोनों एक साथ ऊपर गये ।

"ओह, कितना खुश हूं मैं कि तुम्हारे यहां आ पहुंचा। तुम यहां जो रहस्यपूर्ण चीजें करते रहते हो, अब मैं उन्हें समझ जाऊंगा । सच कहता हूं, मुझे तुमसे ईर्ष्या होती है। कितना अच्छा घर है, कितना बढ़िया है सब कुछ । कितना उजला, कितना खुशी में डूबा हुआ," ओब्लोन्स्की यह भूलकर कि न तो हमेशा वसन्त होता है और न आज के समान उजले दिन ही होते हैं, कहता जा रहा था । " और तुम्हारी आया कितनी अच्छी है ! वैसे तो पेशबन्द बांधे हुए कोई प्यारी-सी नौकरानी बेहतर रहती, लेकिन तुम्हारे सन्यासीपन और कठोर जीवन- ढंग को ध्यान में रखते हुए यह आया बहुत अच्छी है ।"

ओब्लोन्स्की ने बहुत-सी दिलचस्प खबरें बतायीं और लेविन के लिये यह समाचार विशेष रूप से दिलचस्प था कि उसका भाई सेर्गेई इवानोविच इस गर्मी में उसके पास गांव आनेवाला है ।

ओब्लोन्स्की ने कीटी और श्चेर्बात्स्की परिवार के बारे में एक भी शब्द नहीं कहा । केवल अपनी पत्नी की ओर से नमस्कार कह दिया । उसके इस समझदारी के लिये लेविन ने कृतज्ञता अनुभव की और वह उसके आने से बहुत खुश था । हमेशा की भांति अब भी उसके एकान्तवास के दौरान बहुत से विचार और भाव उसके दिमाग़ में जमा हो गये थे, जिनकी वह अपने इर्द-गिर्द के लोगों से चर्चा नहीं कर सकता था और अब उन्हें ओब्लोन्स्की पर लादता जा रहा था। उसने वसन्त के काव्यमय उल्लास को अभिव्यक्ति दी, अपनी असफलताओं और खेतीबारी की योजनाओं तथा उन किताबों के बारे में अपनी टिप्पणियों और विचारों का उल्लेख किया, जो उसने पढ़ी थीं तथा विशेष रूप से उसे अपने उस निबन्ध का भाव बताया, जिसका आधार, यद्यपि वह स्वयं ऐसा नहीं समझ रहा था, खेतीबारी सम्बन्धी सभी पुरानी पुस्तकों की आलोचना ही था । हमेशा बहुत मधुर और इशारे से ही हर बात को समझनेवाला ओब्लोन्स्की इस बार विशेष रूप से बहुत मधुर था और लेविन ने उसमें एक नया लक्षण, अपने प्रति आदर और मानो प्यार का भाव देखा, जो उसे अच्छा लगा ।

अगाफ़्या मिखाइलोव्ना और बावर्ची की ख़ास तौर पर अच्छा खाना बनाने की कोशिशों का अन्त यह हुआ कि दोनों बेहद भूखे दोस्तों ने असली गर्म खाने के पहले हल्का कलेवा करते हुए ही मक्खन-रोटी, दम किये हुए हंस के मांस और अचारी खुमियों से अपना पेट भर लिया और फिर लेविन ने कचौडियों के बिना ही, जिनसे बावर्ची मेहमानों को विशेषतः चकित करना चाहता था, शोरबा परोसने का आदेश दिया। लेकिन ओब्लोन्स्की को, जो दूसरे ढंग के भोजन का आदी था, सभी कुछ जड़ी-बूटियों की ब्रांडी, डबलरोटी, मक्खन, खास तौर पर दम किया हुआ हंस का मांस खुमियां, बिच्छूबूटी का शोरबा, सफ़ेद चटनी के साथ मुर्गी और क्रीमिया की सफ़ेद अंगूरी शराब - - बहुत जायकेदार और अद्भुत प्रतीत हो रहा था ।

"बहुत बढ़िया, बहुत ही बढ़िया, " तला हुआ मांस खाने के बाद मोटी-सी सिगरेट के कश खींचते हुए उसने कहा । तुम्हारे यहां तो मैं बिल्कुल ऐसे महसूस कर रहा हूं मानों जहाज़ के शोर-शराबे झटकों के बाद शान्त तट पर जा उतरा हूं। तो तुम्हारा कहना है कि खेतीबारी के तरीक़ों का चुनाव और फ़ैसला करते समय मज़दूर का एक स्वतन्त्र कारक के रूप में अध्ययन किया जाना चाहिये। मैं तो इस मामले में बिल्कुल कोरा हूं, लेकिन मुझे लगता है कि सिद्धान्तों और उनके व्यावहारिक उपयोग का मज़दूर पर भी असर होना चाहिये ।"

"तुम ज़रा रुको- मैं राजनीतिक अर्थशास्त्र की नहीं, बल्कि कृषिविज्ञान की बात कर रहा हूं। उसे प्राकृतिक विज्ञान के समान होना चाहिये और विशेष परिघटनाओं तथा मज़दूर का उसके आर्थिक तथा नृवंशीय दृष्टिकोण से निरीक्षण ..."

अगाफ़्या मिखाइलोव्ना इसी समय मुरब्बा लेकर आ गयी ।

"ओह अगाफ़्या मिखाइलोव्ना, " ओब्लोन्स्की ने अपनी मोटी- मोटी उंगलियों के सिरों को चूमते हुए कहा, " कितना बढिया है दम किया हुआ हंस का मांस, कितनी बढ़िया है जड़ी-बूटियों की ब्रांडी ! .. कोस्त्या, क्या हमारे चलने का वक़्त नहीं हो गया ?" उसने इतना और जोड़ दिया।

लेविन ने खिड़की में से निपत्ते जंगल की फुनगियों के पीछे डूबते सूरज पर नज़र डाली ।

"हां, हो गया, चलने का वक़्त हो गया, " उसने कहा । "कुज़्मा, छोटी गाड़ी तैयार करो !” और यह कहकर नीचे भाग गया।

ओब्लोन्स्की ने नीचे जाकर पालिश किये हुए डिब्बे पर से गिलाफ़ को बहुत सावधानी से खुद उतारा और डिब्बे को खोलकर अपनी क़ीमती, नवीनतम माडल की बन्दूक़ को व्यवस्थित करने लगा । कुज़्मा, जिसने यह भांप लिया था कि उसे ओब्लोन्स्की से वोदका पीने के लिये बड़ी बख्शीश मिलने वाली है, उसके पास से हटता ही नहीं था और उसने उसे खुद ही मोज़े तथा घुटनों तक के बूट पहनाये और ओब्लोन्स्की ने खुशी से उसे ऐसा करने दिया ।

"कोस्त्या, कह दो कि अगर व्यापारी रियाबीनिन आये - मैंने उसे आज आने को कहा है - तो वह यहां बैठकर इन्तज़ार करे ...."

"तो तुम क्या रियाबीनिन को जंगल बेच रहे हो ?"

"हां, क्या तुम उसे जानते हो ?"

"बेशक जानता हूं। मैंने उसके साथ धंधा किया है- 'पक्का और मुकम्मल तौर पर '।"

ओब्लोन्स्की हंस पड़ा । "पक्का और मुकम्मल तौर पर " – ये शब्द व्यापारी के तकिया कलाम थे ।

"हां, वह बहुत ही मज़ेदार ढंग से बातें करता है। समझ गई कि मालिक किधर जा रहा है !" उसने कुतिया लास्का को थपथपाते हुए कहा, जो कूं-कूं करती हुई लेविन के आस-पास उछल रही थी और कभी उसके हाथ, कभी बूटों और कभी बन्दूक़ को चाट रही थी।

छोटी-सी घोड़ा गाड़ी बाहर खड़ी थी ।

"बेशक दूर तो नहीं है, फिर भी मैंने गाड़ी जोतने को कह दिया था। शायद हम पैदल चलेंगे ? "

"नहीं, सवारी ही बेहतर रहेगी, " ओब्लोन्स्की ने गाड़ी के क़रीब जाकर कहा। वह गाड़ी में बैठ गया, चीते की खाल से उसने अपने पैर ढक लिये और सिगार सुलगा लिया । "अजीब बात है कि तुम तम्बाकू- नोशी नहीं करते। सिगार - यह तो खुशी नहीं, बल्कि खुशी का ताज, उसका प्रतीक है। इसे कहते हैं ज़िन्दगी ! कितना मज़ा है ! काश, मैं भी ऐसे ही जी सकता !"

"कौन मना करता है तुम्हें ऐसे जीने से ?” लेविन ने मुस्कराते हुए कहा ।

"सच, तुम बहुत खुशकिस्मत आदमी हो। तुम्हें जो पसन्द है, सब कुछ तुम्हारे पास है । घोड़े पसन्द हैं - वे हैं, कुत्ते पसन्द हैं - वे हैं, शिकार – सो भी है, खेतीबारी - वह भी है।"

शायद इसलिये कि मेरे पास जो कुछ है उससे खुश हूं और जो नहीं है, उसके अभाव से दुखी नहीं होता," लेविन ने कीटी का ध्यान आने पर कहा ।

ओब्लोन्स्की समझ गया, उसने लेविन की तरफ़ देखा, मगर कहा कुछ नहीं ।

लेविन ने इस बात के लिये ओब्लोन्स्की के प्रति कृतज्ञता अनुभव की कि उसने अपनी सदा की सी व्यवहारकुशलता से यह भांपकर कि वह श्चेर्बात्स्की परिवार की चर्चा से घबराता है, उनके बारे में कुछ भी नहीं कहा। मगर लेविन अब उस बारे में जानना चाहता था, जो उसे इतनी यातना दे रहा था, मगर यह चर्चा चलाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई ।

"तो यह बताओ कि तुम्हारा कैसा हाल-चाल है ?" लेविन ने यह सोचकर कि उसके लिये केवल अपनी ही चिन्ता करना अच्छी बात नहीं है, पूछा ।

ओब्लोन्स्की की आंखें खुशी से चमक उठीं ।

"तुम तो यह मानने को तैयार नहीं हो कि अपनी रोटी होने पर आदमी को केक अच्छे लग सकते हैं । तुम्हारे मुताबिक़ तो यह गुनाह है; मगर मैं प्यार मुहब्बत के बिना ज़िन्दगी को स्वीकार नहीं करता हूं, " लेविन के प्रश्न को अपने ढंग से समझते हुए उसने कहा । "लेकिन हो ही क्या सकता है, मैं ऐसी ही मिट्टी का बना हुआ हूं। और सच, इससे किसी को कोई विशेष हानि नहीं होती और स्वयं को इतनी खुशी मिलती है..."

"वही मामला है या कुछ नया है ?" लेविन ने जानना चाहा ।

"है दोस्त, नया है ! देखो न ओसियान ढंग की औरतों को तुम जानते ही हो... ऐसी औरतें, जिन्हें हम सपनों में ही देखते हैं ... लेकिन ये वास्तविक जीवन में भी होती हैं... और बड़ी भयानक हैं ये औरतें । बात यह है कि औरत तो एक ऐसी चीज़ है कि उसका चाहे कितना भी अध्ययन क्यों न किया जाये, वह हमेशा नयी ही बनी रहती है।

"तब तो अध्ययन न करना ही बेहतर होगा ।"

"नहीं । किसी गणितज्ञ ने कहा था कि सचाई जानने से नहीं, बल्कि उसकी खोज से खुशी मिलती है । "

लेविन चुपचाप सुन रहा था और बहुत कोशिश करने पर भी वह अपने मित्र की आत्मा में घुसने और ऐसी औरतों के अध्ययन के बारे में उसकी भावनाओं तथा उसके आनन्द को समझने में आसमर्थ रहा ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 15-भाग 2)

शिकार की जगह क़रीब ही थी - नदी किनारे, एस्प के नौउम्र वृक्षों के छोटे-से जंगल में। वहां पहुंच कर लेविन गाड़ी से उतरा और ओब्लोन्स्की को काई और कीचडवाले वन प्रांगन के कोने में ले गया, जो बर्फ़ से मुक्त हो चुका था । वह खुद दूसरे सिरे पर दोहरे भोज वृक्ष की तरफ़ चला गया और नीचेवाली सूखी शाखा के सहारे बन्दूक़ टिकाकर उसने अपना चोगे जैसा लम्बा कोट उतारा, पेटी कसी और हाथों को हिला-डुलाकर यह जांच लिया कि गतिविधि में किसी तरह की बाधा तो नहीं पड़ती।

बूढ़ी, पके बालोंवाली लास्का कुतिया, जो उसके पीछे-पीछे आ रही थी, सावधानी से उसके सामने बैठ गयी और उसने अपने कान खड़े कर लिये। बड़े जंगल के पीछे सूरज डूब रहा था और डूबते सूरज की रोशनी में एस्प वृक्षों के जंगल में जहां-तहां बिखरे, झुकी हुई शाखाओं और फूटने के लिये तैयार अंकुरोंवाले भोज वृक्ष बिल्कुल साफ़ नज़र आ रहे थे।

घने जंगल में से, जहां अभी भी बर्फ़ बाक़ी थी, मुश्किल से सुनाई देनेवाली आवाज़ पैदा करता हुआ पानी टेढ़ी-मेढ़ी और पतली धाराओं के रूप में बह रहा था । छोटे-छोटे पक्षी चहचहा रहे थे और कभी- कभी एक वृक्ष से उड़कर दूसरे पर जा बैठते थे।

पूर्ण निस्तब्धता के क्षणों में भूमि के पिघलने और घास के बढ़ने के कारण हिलनेवाले पिछले वर्ष के पत्तों की सरसराहट सुनाई देती । अरे वाह ! घास का उगना सुनाई पड़ रहा है और दिखाई दे रहा है !" लेविन ने एस्प के सलेटी रंग के भीगे पत्ते को घास की नयी पत्ती के पास हिलते डुलते देखकर अपने आपसे कहा । वह कान लगायं खड़ा था, कभी तो नीचे गीली तथा काई वाली ज़मीन तथा चौकन्नी लास्का को कभी अपने सामने पहाड़ी के दामन में जंगल की पातहीन फुनगियों के दूर तक फैले सागर और कभी बादलों की सफ़ेद धारियों से सजे धूसर आकाश को देखता । इतमीनान से पंख हिलाता और बहुत ऊंचा उड़ता हुआ एक बाज़ दूरस्थ जंगल के ऊपर से गुज़रा। दूसरा भी इसी तरह और उसी दिशा में उड़ता हुआ आंखों से ओझल हो गया। घने जंगल में पक्षी अधिकाधिक ज़ोर से और अधिक उत्तेजना के साथ चहचहा रहे थे। कुछ ही फ़ासले पर बड़े उल्लू की आवाज़ सुनाई दी, लास्का ने चौंककर सावधानी से कुछ क़दम बढ़ाये और एक ओर को सिर झुकाकर ध्यान से सुनने लगी । नदी के पार से कोयल की कूक सुनाई दी । वह दो बार सामान्य ढंग से कूकी, इसके बाद उसकी आवाज़ खरखरी हो गयी, जल्दी-जल्दी कूकने लगी और फिर तो कोई क्रम ही नहीं रहा ।

'सुन रहे हो न ! कोयल भी कूकने लगी है ! " ओब्लोन्स्की ने झाड़ी के पीछे से सामने आते हुए कहा ।

"हां, मैं सुन रहा हूं, " लेविन ने मन मारकर जंगल की नीरवता में खलल डालते और खुद अपनी आवाज़ को अप्रिय अनुभव करते हुए कहा ।"अब ज़्यादा इन्तज़ार नहीं करना पड़ेगा ।"

ओब्लोन्स्की की आकृति फिर से झाड़ी के पीछे ग़ायब हो गयी और लेविन को सिर्फ़ दियासलाई जलने की तेज़ रोशनी, उसके बाद सिगरेट के छोटे-से लाल अंगारे और नीले धुएं की ही झलक मिली ।

" क्लिक! क्लिक ! " ओब्लोन्स्की ने अपनी बन्दूक के घोड़े चढ़ाये ।

"यह किस की चीख है ?" ओब्लोन्स्की ने लम्बी, खेलते- मचलते बछेड़े की पतली सी हिनहिनाहट जैसी आवाज़ की ओर लेविन का ध्यान आकृष्ट करते हुए पूछा ।

"अरे, यह नहीं जानते ? यह तो नर खरगोश है। बस, अब बात खत्म करो ! सुनो, शिकार उड़ा आ रहा है !" बन्दूक के घोड़े चढ़ते हुए लेविन लगभग चीख उठा।

दूरी पर पतली सीटी सुनाई दी और ठीक उसी सामान्य विराम के बाद, जिससे शिकारी भली भांति परिचित होते हैं, दो सेकण्ड के बाद दूसरी और तीसरी सीटी सुनाई दी तथा तीसरी सीटी के बाद खरखरी चीख़ सुनाई देने लगी।

लेविन ने दायें-बायें नज़र दौड़ाई और उसे धुंधले नीले आकाश में एस्प वृक्षों के कोमल अंकुरों वाली आपस में लिपटी फुनगियों के ऊपर उड़ा आता पक्षी दिखाई दिया । वह सीधा उसी की तरफ़ उड़ा आ रहा था । खींचकर फाड़े जानेवाले कपड़े की आवाज़ जैसी निकट आती खरखरी चीख़ बिल्कुल कानों के ऊपर गूंजी। पक्षी की लम्बी चोंच और गर्दन नज़र आ रही थी और उसी क्षण, जब लेविन ने निशाना साधा, उस झाडी के पीछे से जहां ओब्लोन्स्की था, लाल बिजली-सी कौंधी । पक्षी तीर की तरह नीचे लपका और फिर ऊपर चढ़ गया। बिजली फिर से कौंधी, आघात की आवाज़ सुनाई दी और पंखों को फड़फड़ाते, मानो हवा में बने रहने की कोशिश करते हुए पक्षी रुका, घड़ी भर को ऐसे ही वहां रहा और फिर धम से कीचड़ वाली ज़मीन पर जा गिरा ।

"क्या निशाना चूक गया ? " ओब्लोन्स्की ने, जिसे धुएं के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, चिल्लाकर पूछा ।

"यह रहा ! " लेविन ने लास्का की ओर इशारा करते हुए कहा, जो एक कान उठाये और झबरीली दुम के सिरे को ऊंचा हिलाते- डुलाते, धीरे-धीरे, मानो अपने आनन्द को लम्बा करना चाहती हो और मानो मुस्कराते हुए गोली का निशाना बने पक्षी को मालिक के पास ला रही थी । "मैं खुश हूं कि तुम कामयाब रहे," लेविन ने कहा, मगर साथ ही उसने इस बात की ईर्ष्या भी महसूस की कि उसे यह कुनाल मार गिराने का मौक़ा नहीं मिला ।

"दायीं नली का निशाना तो बुरी तरह चूका, ओब्लोन्स्की ने अपनी बन्दूक़ में कारतूस भरते हुए जवाब दिया । "शी... और आ रहा है।"

सचमुच ही एक के बाद एक जल्दी-जल्दी कई तेज़ सीटियां सुनाई दीं। दो कुनाल मानो खेलते, एक-दूसरे का पीछा करते, खरखरी आवाज़ में चीख बिना केवल सीटियां बजाते हुए ही ठीक शिकारियों के सिरों के ऊपर उड़ते आये । चार गोलियां दगीं, कुनाल जल्दी से अबाबीलों की तरह घूमे और नज़र से ओझल हो गये ।

शिकार बहुत बढ़िया रहा । ओब्लोन्स्की ने दो पक्षी और मार लिये तथा लेविन भी दो का शिकार करने में सफल रहा, जिनमें से एक को खोज नहीं पाया । अंधेरा होने लगा । निर्मल और रुपहला शुक्र तारा पश्चिम में भोज वृक्षों के पीछे निचाई पर अपनी प्यारी चमक दिखाने लगा था और पूरब में मलिन स्वाति तारा काफ़ी ऊंचाई पर अपनी लाल रोशनी बिखरा रहा था । लेविन अपने सिर के ऊपर सप्तऋषि तारों को पाता और खो देता था । कुनालों ने उड़ानें भरना बन्द कर दिया था, किन्तु लेविन ने भोज वृक्ष की टहनी के नीचे नज़र आनेवाले शुक्र तारे के टहनी के ऊपर आ जाने तथा सप्तऋषियों के साफ़ दिखाई देने तक रुकने का निर्णय किया । शुक्र तारा टहनी से ऊपर जा चुका था और सप्तऋषि के सभी तारे काले-नीले आकाश में बिल्कुल साफ़ दिखाई देने लगे थे, किन्तु लेविन फिर भी प्रतीक्षा कर रहा था।

"शायद चलना चाहिये ? " ओब्लोन्स्की ने कहा ।

जंगल में बिल्कुल खामोशी थी और कहीं कोई पक्षी भी हिल-डुल नहीं रहा था ।

"कुछ देर और रुकेंगे, " लेविन ने जवाब दिया ।

"जैसा चाहो।"

वे अब एक-दूसरे से पन्द्रह क़दमों की दूरी पर खड़े थे ।

"स्तीवा ! " लेविन ने अचानक कहा, "तुम मुझे यह क्यों नहीं बताते कि तुम्हारी साली की शादी हो गयी या कब होने जा रही है ?" लेविन अपने को इतना दृढ़ और शान्त अनुभव कर रहा था कि उसे पूरा विश्वास था कि किसी भी जवाब से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा । किन्तु ओब्लोन्स्की ने जो जवाब दिया, उसकी तो उसने बिल्कुल उम्मीद नहीं की थी ।

"उसका न तो ऐसा इरादा था और न है । हां, वह सख्त बीमार है और डाक्टरों ने उसे इलाज के लिये विदेश भेज दिया है। उसकी तो जान तक ख़तरे में है।"

"यह तुम क्या कह रहे हो ! " लेविन चिल्ला उठा । "सख़्त बीमार है ? क्या हुआ है उसे ? कैसी है ...."

इसी समय, जब ये दोनों बातें कर रहे थे, लास्का ने कान खड़े करके ऊपर आसमान और फिर भर्त्सना से इन दोनों की तरफ़ देखा।

"बातें करने का भी खूब वक़्त चुना है," लास्का सोच रही थी ।

"और वह उड़ा आ रहा है ... वह रहा, हां, बिल्कुल निकट है । बचकर निकल जायेगा ..." लास्का के मन में ऐसा ही भाव आ रहा था ।

किन्तु इसी क्षण इन दोनों ने भी बड़ी तेज़ सीटी सुनी, जो मानो चाबुक की तरह इसके कानों पर पड़ी। दोनों ने सहसा अपनी बन्दूकें सम्भालीं, दो बिजलियां कौंधीं और एक साथ ही दो धमाके हुए। ऊंचाई पर उड़ते हुए कुनाल ने उसी क्षण अपने पंख समेटे और घने झुरमुट में गिरते हुए उसने पतले अंकुरों को झुका दिया ।

"बहुत खूब ! यह दोनों का साझा शिकार रहा !" लेविन ने ऊंचे कहा और लास्का को साथ लेकर घने झुरमुट में उसे खोजने भाग गया। “अरे, शायद कोई बुरी बात थी ?" उसने याद करने की कोशिश की। “ हां, कीटी बीमार है... लेकिन क्या हो सकता है, बहुत अफ़सोस है उसने सोचा।

"ढूंढ़ लाई ! बड़ी समझदार है !” उसने लास्का के मुंह से गर्म शरीरवाला पक्षी निकालते और उसे शिकारों से लगभग भरे थैले में डालते हुए कहा। “स्तीवा, मिल गया शिकार !” उसने पुकारकर कहा ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 16-भाग 2)

घर लौटते समय लेविन ने कीटी की बीमारी और श्चेर्बात्स्की परिवार की योजनाओं के बारे में सभी तफ़सीलें पूछ लीं । यह सही है कि इस बात को स्वीकार करते हुए उसे शर्म आती, फिर भी जो कुछ जान पाया, उससे खुशी हुई थी। उसे खुशी हुई थी कि अभी उसके लिये कुछ उम्मीद बाक़ी थी और इस कारण और भी ज़्यादा अच्छा लगा था कि जिसने उसे व्यथा दी थी अब वह खुद पीड़ा सह रही थी। किन्तु ओब्लोन्स्की ने जब कीटी की बीमारी के कारणों की चर्चा शुरू की और व्रोन्स्की का नाम लिया, तो लेविन ने उसे टोका :

"मुझे पारिवारिक ब्योरे जानने का कोई अधिकार नहीं है। सच कहूं तो कोई दिलचस्पी भी नहीं है । "

ओब्लोन्स्की ने लेविन के चेहरे पर आन की आन में होनेवाले और अच्छी तरह से जाने-पहचाने इस परिवर्तन को भांपा और उसके होंठों पर मुश्किल से दिखाई देनेवाली मुस्कान झलकी । लेविन का चेहरा क्षण भर पहले जितना अधिक खिला हुआ था, अब उतना ही मुरझा गया था।

"तुम रियाबीनिन से जंगल की बात पूरी तरह तय कर चुके हो ?" लेविन ने पूछा ।

"हां, तय कर चुका हूं। क़ीमत बहुत अच्छी मिली है - अड़तीस हज़ार । आठ पेशगी और बाक़ी छः साल में । मैं बहुत देर तक इस झंझट में पड़ा रहा। कोई भी इससे ज़्यादा देने को तैयार नहीं हुआ । "

"मतलब यह कि जंगल मुफ़्त दे डाला, " लेविन ने उदासी से कहा ।

"मुफ़्त क्यों ? " ओब्लोन्स्की यह जानते हुए कि लेविन को अब सब कुछ बुरा प्रतीत होगा, सौजन्यता से मुस्कराया ।

"इसलिये कि जंगल की कम से कम पांच सौ रूबल प्रात देसियातीना क़ीमत है," लेविन ने जवाब दिया ।

"ओह, तुम देहातों में रहनेवाले ज़मींदार लोग ! " ओब्लोन्स्की ने मज़ाक में कहा । "हम शहर वालों के लिये तुम्हारा तिरस्कारपूर्ण यह अन्दाज़ ! .. लेकिन जब धंधे की बात होती है, तो हम हमेशा तुम लोगों से बेहतर रहते हैं । यक़ीन करो, मैंने सभी बातों को ध्यान में रखा है," वह कहता गया, " और जंगल इतनी अच्छी क़ीमत पर बिका है कि मुझे डर है वह कहीं इन्कार न कर दे। आखिर वह पक्की लकड़ी का जंगल तो है नहीं, " लेविन को यह विश्वास दिलाने की इच्छा से कि उसके सन्देह बिल्कुल अनुचित हैं उसने 'पक्की लकड़ी' शब्दों का उपयोग किया, "बल्कि ज्यादातर तो इंधन ही है। हर देसियातीना से तीस साजेन1 से अधिक लकड़ी नहीं मिलेगी और वह हर देसियातीना के लिये दो सौ रूबल दे रहा है।"

1. साजेन - पुरानी रूसी माप, जो २.१३ मीटर के बराबर है ।

लेविन तिरस्कारपूर्वक मुस्कराया । "जनता हूं मैं" वह सोच रहा था, "केवल इसी का नहीं, सभी शहरियों का ऐसा ही ढंग है। दस सालों में एक-दो बार गांव आते हैं, गांव के दो-तीन शब्द याद कर लेते हैं और इस पक्के विश्वास के साथ कि वे सब कुछ जानते हैं, उनका उचित-अनुचित उपयोग करते हैं। 'पक्की लकड़ी, हर देसियातीना से तीस साजेन से अधिक लकड़ी नहीं मिलेगी'। मुंह से शब्द निकाल दिये और स्वयं कुछ भी नहीं समझता ।

"तुम अपने दफ़्तर में क्या लिखते रहते हो, मैं तुम्हें उसके बारे में शिक्षा नहीं दूंगा, " उसने कहा, " और अगर मुझे ऐसी ज़रूरत महसूस होगी तो तुमसे पूछ लूंगा। लेकिन तुम ऐसे यक़ीन से बात कर रहे हो मानो जंगल के बारे में सभी कुछ जानते-समझते हो। यह कठिन विद्या है। तुमने वृक्षों की गिनती की है ? "

" वृक्षों की गिनती कैसे की जा सकती है ? " ओब्लोन्स्की ने हंसकर कहा, जो अपने दोस्त का बुरा मूड ख़त्म करने को उत्सुक था । बालूकणों या नक्षत्र की किरणों को गिनना यह तो कोई बहुत पहुंचा हुआ दिमाग़ ही...."

"हां, रियाबीनिन का पहुंचा हुआ दिमाग़ यह कर सकता है। एक भी व्यापारी गिनती किये बिना जंगल नहीं खरीदेगा, बशर्ते कि उसे वह तुम्हारी तरह मुफ़्त न दिया जा रहा हो। तुम्हारे जंगल को मैं अच्छी तरह से जानता हूं। मैं हर साल वहां शिकार के लिये जाता हूं। तुम्हारे जंगल के एक देसियातीना की पांच सौ रूबल नक़द क़ीमत है और वह तुम्हें दो सौ रूबल क़िस्तों में दे रहा है। इसका मतलब यह है कि तुमने तीस हज़ार उसे भेंट कर दिये ।

"बस, बस, रहने दो," ओब्लोन्स्की ने दयनीय ढंग से कहा, "तो किसी ने अधिक दिये क्यों नहीं ?"

"इसलिये कि उसकी दूसरे व्यापारियों से मिलीभगत है, उसने इस मामले से अलग रहने के लिये उनकी मुट्टियां गर्म कर दी हैं । मेरा इन सभी से वास्ता पड़ चुका है, मैं इन्हें खूब जानता हूं। बात यह है कि ये व्यापारी नहीं, मुनाफ़ाखोर हैं । वह तो ऐसा धंधा करेगा ही नहीं, जिसमें उसे दस या पन्द्रह प्रतिशत नफा मिलने की उम्मीद हो। वह तो इस इंतज़ार में रहता है कि बीस कोपेक देकर रूबल हासिल कर ले।”

"चलो हटाओ ! तुम्हारा मूड खराब है। "

"ज़रा भी नहीं," घर के पास पहुंचते हुए लेविन ने उदासी से कहा ।

घर के मुख्य द्वार के सामने लोहे और चमड़े से खूब अच्छी तरह मढ़ी गाड़ी खड़ी थी और उसमें चौड़े पट्टों से कसा मोटा-तगड़ा घोडा जुता हुआ था। गाड़ी में रियाबीनिन का पेटी कसा हुआ, लाल-लाल गालों वाला कारिन्दा बैठा था, जो उसका कोचवान भी था। खुद रियाबीनिन घर में जा चुका था और ड्योढ़ी में दोनों मित्रों से मिला। लम्बे क़द, दुबले-पतले शरीर, मूंछों और सफाचट बड़ी ठोड़ी तथा फूली फूली, धुंधली आंखों वाला रियाबीनिन अधेड़ उम्र का आदमी था। वह लम्बा नीला फ़ाककोट, जिसके पिछले बटन बहुत नीचे थे, तथा घुटनों तक के बूट पहने था। इन बूटों पर टखनों के पास शिकनें पड़ी हुई थीं और पिंडलियों पर वे सीधे थे । बूटों पर बड़े-बड़े गैलोश चढ़े हुए थे। उसने सारे मुंह पर रूमाल फेरकर उसे पोंछा, अपने फ़ाककोट को, जो वैसे ही उस पर खूब फ़िट था, शरीर पर और अच्छी तरह से फिट कर लिया, मुस्कराकर दोनों का स्वागत किया और स्तेपान अर्काद्येविच की ओर ऐसे हाथ बढ़ाया मानो कुछ पकड़ना चाहता हो ।

“ तो आप आ गये," ओब्लोन्स्की ने उससे हाथ मिलाते हुए कहा । "बहुत अच्छा किया ।"

"हुजूर, बेशक रास्ता तो बहुत खराब है, मगर आपके हुक्म की तामील न करने की जुर्रत कैसे कर सकता था। मुकम्मल तौर पर रास्ते भर पैदल चला, मगर वक़्त पर आ पहुंचा। कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच, आपको नमस्कार करता हूं," उसने लेविन का भी हाथ पकड़ पाने की कोशिश करते हुए उसे सम्बोधित किया । किन्तु लेविन ऐसा ज़ाहिर करते हुए कि उसके हाथ की तरफ़ उसका ध्यान नहीं गया है थैले में से कुनाल निकालने लगा । " तो शिकार का मज़ा लेते रहे ? कौन-सा परिन्दा है यह ?" कुनालों की ओर तिरस्कार से देखते हुए उसने अपनी बात जारी रखी। "मज़ेदार होगा ।" और उसने ऐसे नापसन्दगी से सिर हिलाया मानो इस तुच्छ परिन्दे को पकाने के लिये साफ़ करने में भी कोई तुक हो सकती है।

"मेरे अध्ययन कक्ष में जाना चाहते हो ?" लेविन ने उदासी से नाक-भौंह सिकोड़ते हुए ओब्लोन्स्की से फ़्रांसीसी में कहा । "मेरे अध्ययन-कक्ष में चले जाइये, वहां आप मामला तय कर सकते हैं ।"

"जहां भी चाहें जनाब," रियाबीनिन ने ऐसी तिरस्कारपूर्ण गरिमा के साथ कहा, मानो यह अनुभव कराना चाहता हो, दूसरों के लिये ये मुश्किलें हो सकती हैं कि किसके साथ कैसे निपटा जाये, लेकिन उसे कभी और किसी मामले में भी मुश्किल नहीं हो सकती ।

अध्ययन-कक्ष में दाखिल होने पर रियाबीनिन ने आदत के मुताबिक़ देव-प्रतिमा को ढूंढ़ते हुए इधर-उधर नज़र दौड़ाई, मगर दिख जाने पर सलीब नहीं बनाई । उसने किताबों से भरी अलमारियों और ताकों पर नज़र डाली और कुनालों के मामले जैसे सन्देह के साथ तिरस्कारपूर्वक मुस्कराया तथा नापसन्दगी से सिर हिलाया । वह किसी तरह भी यह मानने को तैयार नहीं था कि ऐसा परिन्दा साफ़ करने के लायक़ है ।

“ तो पैसे ले आये ?” ओब्लोन्स्की ने पूछा ।

"पैसों की कोई फ़िक्र नहीं कीजिये । आपसे मिलने, बातचीत करने आया हूं।"

"क्या बातचीत करने? आप बैठिये न ।"

"हां, बैठा तो जा सकता है, " रियाबीनिन ने बैठते और बड़े अटपटे ढंग से कुर्सी की टेक पर अपनी पीठ टिकाते हुए कहा । "कुछ कम कीजिये, प्रिंस । ऐसा न करना, गुनाह होगा । पैसे बिल्कुल तैयार हैं, एक-एक कोपेक तक। पैसों के मामले में कोई झंझट नहीं है, ज़रा भी।"

लेविन इसी वक़्त अलमारी में बन्दूक़ रखकर बाहर जा रहा था, लेकिन व्यापारी के शब्द सुनकर रुक गया ।

"आपने तो यों भी जंगल मुफ़्त में ले लिया है, ” उसने कहा । "देर से आया है यह मेरे पास, नहीं तो मैंने क़ीमत तय की होती ।" रियाबीनिन उठकर खड़ा हो गया और मुस्कराते हुए लेविन को नीचे से ऊपर तक देखा ।

" बहुत ही कंजूस हैं कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच," उसने मुस्कराकर ओब्लोन्स्की को सम्बोधित किया । " मुकम्मल तौर पर इनसे कुछ भी नहीं खरीदा जा सकता । इनसे गेहूं खरीदना चाहता था, अच्छी क़ीमत भी दे रहा था।"

"मुफ़्त में भला मैं अपनी चीज़ क्यों दूंगा। मुझे वह न तो कहीं पड़ी मिली है और न ही मैंने चुराई है ।"

"माफ़ी चाहता हूं, हुजूर, आज के ज़माने में चोरी करना मुकम्मल तौर पर मुमकिन नहीं । आजकल तो सब कुछ मुकम्मल तौर पर कानून-कायदे के मुताबिक़ होता है, सब कुछ भले ढंग से किया जाता है. चोरी का सवाल ही नहीं उठता। अच्छे लोगों की तरह हमने सब कुछ तय किया है। जंगल बहुत महंगा पड़ रहा है, लागत भी पूरी नहीं होगी । बेशक थोड़ा ही, मगर कुछ ज़रूर कम कर दीजिये ।"

"आपका मामला तय हो चुका या नहीं ? अगर तय हो चुका है, तो सौदेबाज़ी बेकार है, लेकिन अगर तय नहीं हुआ, तो, " लेविन कहा, " मैं खरीदता हूं जंगल ।"

रियाबीनिन के चेहरे से मुस्कान एकदम गायब हो गयी। उसके चेहरे पर बाज़ जैसा हिंसक और कठोर भाव आ गया। उसने अपनी पतली-हडीली उंगलियों से झटपट फाककोट के बटन खोले, जिससे उसकी क़मीज, जाकेट के तांबे के बटनों और घड़ी की जंजीर की झलक मिली, और उसने जल्दी से पुराना फूला हुआ बटुआ निकाला ।

"जनाब, जंगल मेरा है," जल्दी से सलीब बनाते और हाथ बढ़ाते हुए उसने कहा । "पैसे ले लीजिये, जंगल मेरा है। रियाबीनिन ऐसे धंधा करता है, कोपेक गिनने के फेर में नहीं पड़ता," नाक-भौंह सिकोड़ते और बटुए को लहराते हुए उसने कहा ।

"तुम्हारी जगह मैंने तो ऐसी जल्दबाज़ी न की होती, " लेविन बोला ।

"लेकिन सुनो,” ओब्लोन्स्की ने हैरानी से कहा, "मैं तो वचन दे चुका हूं ।"

लेविन फटाक से दरवाज़ा बन्द करके बाहर चला गया। रियाबीनिन ने दरवाज़े की तरफ़ देखते हुए मुस्कराकर सिर हिलाया ।

"यह सब जवानी है, मुकम्मल तौर पर बचपना है । ईमानदारी से कहता हूं, सिर्फ़ इसीलिये इस नाम की खातिर खरीद रहा हूं कि और किसी ने नहीं, रियाबीनिन ने ही ओब्लोन्स्की का जंगल खरीदा है । रहा नफा तो वह तो भगवान देगा । भगवान पर भरोसा करना चाहिये । लीजिये, मेहरबानी करके क़रारनामे पर दस्तख़्त कर दीजिये ..."

एक घण्टे बाद व्यापारी रियाबीनिन क़रारनामे को जेब में डाले हुए ढंग से अपना चोग़ा लपेटकर, फ़्रॉककोट की हुकें बन्द करके लोहे से अच्छी तरह मढ़ी हुई अपनी गाड़ी में जा बैठा और घर की तरफ़ रवाना हो गया ।

"ओह, ये कुलीन लोग !" उसने अपने कारिन्दे से कहा । "ये भी खास नमूने ही हैं ।"

" सो तो है ही," कारिन्दे ने उसे लगाम थमाते और चमड़े के पेशबन्द के बटन बन्द करते हुए जवाब दिया । "तो सौदा अच्छा रहा, मिखाईल इग्नात्येविच ?"

" ठीक है, ठीक है ...."

अन्ना करेनिना : (अध्याय 17-भाग 2)

नोटों से फूली हुई जेब के साथ, जो व्यापारी ने उसे तीन महीने पहले ही दे दिये थे, ओब्लोन्स्की ऊपर गया । जंगल का सौदा हो गया था, पैसे जेब में थे शिकार बहुत अच्छा रहा था और वह बहुत रंग में था। इसीलिये वह ख़ास तौर पर लेविन के उस बुरे मूड को दूर करने को इच्छुक था, जो उस पर हावी हो गया था वह चाहता था कि रात के खाने के साथ आज का दिन उसी तरह ख़त्म हो जाये, जैसे वह शुरू हुआ था।

लेविन सचमुच ही बुरे मूड में था और अपने प्यारे मेहमान के प्रति बहुत स्नेहशील और मधुर होने की हार्दिक इच्छा के बावजूद अपने को ऐसा करने के लिये वश में नहीं कर पा रहा था । इस ख़बर का नशा कि कीटी की शादी नहीं हुई उस पर धीरे-धीरे अपना असर दिखाने लगा था।

कीटी की शादी नहीं हुई और वह बीमार है, उस व्यक्ति के प्रति प्रेम के कारण बीमार है, जिसने उसे ठुकरा दिया। इस तिरस्कार की छाया तो मानो उस पर भी पड़ती थी । व्रोन्स्की ने कीटी को ठुकराया और कीटी ने उसे यानी लेविन को । इसलिये व्रोन्स्की को उसका तिरस्कार करने का अधिकार था और इस कारण वह उसका दुश्मन था । किन्तु लेविन ने यह सब कुछ नहीं सोचा। उसे धुंधला - सा आभास हो रहा था कि इस मामले में उसके लिये कुछ अपमानजनक बात ज़रूर है और अब उस चीज़ पर झल्लाने के बजाय, जिसके कारण वह खिन्न हुआ था, दिमाग़ में आनेवाली हर बात को लेकर भुनभुना रहा था। जंगल का मूर्खतापूर्ण विक्रय, ओब्लोन्स्की का इस धोखे का शिकार होना और सो भी उसके घर में उसे इससे बड़ी खीझ महसूस हो रही थी ।

“ तो ख़त्म कर आये ?" ओब्लोन्स्की के ऊपर आने पर उसने पूछा । "भोजन करना चाहोगे ?"

"हां, इन्कार नहीं करूंगा। गांव में कितनी भूख लगती है मुझे, कमाल है ! तुमने रियाबीनिन से खाने को क्यों नहीं कहा ? "

"भाड़ में जाये वह !"

" लेकिन कुछ अजीब ही बर्ताव करते हो तुम उसके साथ," ओब्लोन्स्की ने कहा। " तुमने तो उससे हाथ भी नहीं मिलाया । किसलिये तुमने ऐसा किया ?”

"इसलिये कि मैं अपने नौकर से हाथ नहीं मिलाता और नौकर उससे सौ गुना बेहतर है ।"

"ओह, कितने पुरानपंथी हो तुम ! और श्रेणियों का विलय ?" ओब्लोन्स्की ने पूछा ।

" जिसे अच्छा लगता है, वह करे विलय, मगर मुझे तो नफ़रत है इससे।"

"मैं देख रहा हूं कि तुम बिल्कुल पुरानपंथी हो ।"

" वास्तव में मैंने इस पर कभी विचार नहीं किया कि मैं कौन हूं। मैं कोन्स्तान्तीन लेविन हूं, इससे अधिक कुछ नहीं ।"

" और वह कोन्स्तान्तीन लेविन, जिसका मूड बहुत ख़राब है, " ओब्लोन्स्की ने मुस्कराकर कहा ।

“हां, मेरा मूड ख़राब है। जानते हो क्यों ? तुम मुझे माफ़ करना, जंगल की तुम्हारी मूर्खतापूर्ण बिक्री के कारण ।"

ओब्लोन्स्की ने उस व्यक्ति की भांति, जिसे किसी क़सूर के बिना ही अपराधी ठहराया और परेशान किया जा रहा हो, खुशमिज़ाजी से नाक-भौंह सिकोड़ी ।

"हटाओ भी!" उसने कहा । "क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी ने कुछ बेचा हो और उसके फ़ौरन बाद ही उससे यह न कहा गया हो - यह तो कहीं ज़्यादा क़ीमत का था । लेकिन जब कोई बेच रहा होता है, तो ज़्यादा क़ीमत देनेवाला सामने नहीं आता ....मैं देख रहा हूं कि उस बदक़िस्मत रियाबीनिन के खिलाफ़ तुम खार खाये बैठे हो । "

"शायद ऐसा ही हो। लेकिन तुम जानते हो कि क्यों ? तुम फिर से मेरे लिये पुरानपंथी या इससे भी अधिक किसी बुरे शब्द का उपयोग करोगे। लेकिन फिर भी कुलीनों को, जिनका मैं अंग हूं, और श्रेणियों के विलय के बावजूद खुश हूं कि उनका अंग हूं, चारों तरफ़ से खस्ताहाल होते देखकर मुझे दुख होता है, मेरे दिल को चोट लगती है। यह खस्ताहाली ऐश- इशरत का नतीजा नहीं है - ऐसा होता तो कोई बात नहीं थी। ठाठ से जीना तो कुलीनों का काम है और वही ऐसा कर सकते हैं। अब किसान लोग हमारे आस-पास ज़मीन खरीदते हैं, मुझे इससे भी कोई दुख नहीं होता । रईस कुछ भी नहीं करता, किसान पसीना बहाता है और काहिल की छुट्टी कर देता है । ऐसा ही होना चाहिये। मुझे किसान के लिये बहुत खुशी होती है। लेकिन ... समझ में नहीं आता कि कैसे कहूं... बुद्धूपन के कारण कुलीनों को खस्ताहाल होते देखकर मुझे दुःख होता है। यहां पट्टे पर जमीन लेनेवाले एक पोलैंडी ने अब नीस में रहनेवाली एक रूसी कुलीना से आधी क़ीमत पर बहुत ही बढ़िया जागीर खरीद ली। यहां किसी व्यापारी को एक रूबल प्रति देसियातीना के हिसाब से ज़मीन ठेके पर दे दी जाती है, जिसके दस रूबल लिये जाने चाहिये । तुमने ही बेमतलब उस बदमाश को तीस हज़ार रूबल भेंट कर दिये ।"

"तो तुम क्या चाहते हो ! हर वृक्ष को गिना जाये ? "

" ज़रूर गिना जाये। तुमने नहीं गिना, लेकिन रियाबीनिन ने ऐसा किया। रियाबीनिन के बच्चों के पास जीने और पढ़ने-लिखने के साधन होंगे, जबकि तुम्हारे बच्चों के पास सम्भवतः यह सब नहीं होगा। ”

"तुम मुझे माफ़ करना, लेकिन इस गिनती में कुछ घटियापन है। हमारे अपने काम हैं और उनके अपने । उन्हें तो नफ़ा चाहिये । ख़ैर, सौदा हो चुका और मामला खत्म । लो, मेरे मनपसन्द तले हुए अंडे आ गये। अगाफ़्या मिखाइलोव्ना हमें जड़ी-बूटियों की वह अद्भुत ब्रांडी भी दे देगी..."

ओब्लोन्स्की मेज़ पर जा बैठा और अगाफ़्या मिखाइलोव्ना से मज़ाक़ करने तथा उसे यह यकीन दिलाने लगा कि दिन और शाम का इतना बढ़िया खाना उसने एक अर्से से नहीं खाया ।

"आप कम से कम तारीफ़ तो करते हैं," अगाफ़्या मिखाइलोव्ना ने कहा, "मगर कोन्स्तान्तीन द्मीत्रियेविच को तो चाहे कुछ भी दे दो, बेशक रोटी का टुकड़ा ही, खाया और चल दिये । "

लेविन अपने को वश में करने की बेशक बहुत कोशिश कर रहा था, मगर उदास और गुमसुम ही बना रहा । वह ओब्लोन्स्की से एक सवाल पूछना चाहता था, लेकिन ऐसा कर नहीं पा रहा था । किस रूप में और किस वक़्त कैसे और कब ऐसा करे, उसकी समझ में नहीं आ रहा था। ओब्लोन्स्की अपने कमरे में नीचे जा चुका था, कपड़े उतारकर उसने फिर से हाथ-मुंह धोया, रात की झालरदार क़मीज़ पहन ली और बिस्तर पर लेट गया । किन्तु लेविन उसके कमरे से जाने का नाम नहीं ले रहा था, इधर-उधर की बातें कर रहा था और जो पूछना चाहता था, उसे पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था ।

" कितना बढ़िया बनाते हैं यह साबुन," साबुन की खुशबूदार टिकिया का काग़ज़ उतारते और उसे ग़ौर से देखते हुए उसने कहा । अगाफ़्या मिखाइलोव्ना ने मेहमान के लिये यह टिकिया रखी थी, मगर उसने इसका इस्तेमाल नहीं किया था । "तुम देखो तो, यह तो कला-कृति है ।"

"हां, आजकल हर चीज़ को बढ़िया से बढ़िया बनाया जा रहा है," ओब्लोन्स्की ने नम और आनन्दपूर्ण जम्हाई लेते हुए कहा । "मिसाल के लिये थियेटर और ये दिल बहलाने की जगहें ... आ-आ-आ !” उसने जम्हाई ली । " हर जगह पर बिजली की रोशनी है .. आ-आ !"

"हां, बिजली की रोशनी, " लेविन ने कहा । "हां! और व्रोन्स्की अब कहां है?" उसने साबुन रखकर अचानक पूछा ।

"व्रोन्स्की ?” ओब्लोन्स्की ने जम्हाई लेना बन्द करते हुए दोहराया । वह पीटर्सबर्ग में है । तुम्हारे जाने के फ़ौरन बाद ही चला गया और उसके पश्चात एक बार भी मास्को नहीं आया । सुनो कोस्त्या, मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूं, " उसने मेज़ पर कोहनियां और एक हाथ पर अपना सुन्दर लाल गालोंवाला चेहरा टिकाते हुए, जिससे आर्द्र, दयालु और अलसायी आंखों की सितारों जैसी चमक आ रही थी, अपनी बात जारी रखी। "तुम्हारा ही क़सूर है। तुम प्रतिद्वन्द्वी से डर गये। लेकिन जैसा कि मैंने तब कहा था, मुझे मालूम नहीं कि किसकी सफलता की अधिक सम्भावना थी । तुमने सीधे टक्कर क्यों नहीं ली ? मैंने तुमसे तब कहा था कि ... " उसने मुंह खोले बिना सिर्फ़ जबड़ों से ही जम्हाई ली।

"इसे मालूम है या नहीं कि मैंने कीटी से अपने साथ विवाह करने का प्रस्ताव किया था ?" उसने उसकी ओर देखते हुए सोचा । "हां, उसके चेहरे पर चालाकी और कूटनीति की झलक है, " और यह अनुभव करते हुए कि खुद झेंप रहा है, उसने चुपचाप सीधे ओब्लोन्स्की की आंखों में झांका।

"अगर उस वक़्त कीटी किसी बात से खिंची तो वह सिर्फ़ शक्ल- सूरत का बाहरी आकर्षण था," ओब्लोन्स्की कहता गया । " उसकी इस परिष्कृत रईसी और आगे चलकर ऊंचे समाज में उसके दर्जे का उस पर नहीं, मां पर असर पड़ा था।"

लेविन के माथे पर बल पड़ गये । ठुकराये जाने का अपमान, जिसे उसने सहा था, एक ताजा, अभी - अभी लगे घाव की तरह उसके दिल में बुरी तरह टीस उठा । इस वक़्त वह अपने घर में था और घर पर तो दीवारें भी आदमी की मदद करती हैं ।

" रुको, रुको, ” उसने ओब्लोन्स्की को टोकते हुए कहा, "तुम रईसी की बात कर रहे हो। तुम मुझे यह पूछने की अनुमति दो कि व्रोन्स्की या किसी अन्य की भी यह रईसी क्या है, जिसके लिये मुझे ठुकराया जाये ? तुम व्रोन्स्की को रईस मानते हो, लेकिन मैं नहीं । यह वह आदमी है, जिसका बाप तिकड़मबाज़ी से ऊपर उठा उसकी मां की न जाने किस-किसके साथ आशनाई रही... नहीं, तुम मुझे माफ़ करना, लेकिन मैं खुद को और अपने जैसे लोगों को रईस मानता हूं, जिनके पीछे उच्चतम शिक्षा वाली ( प्रतिभा और समझ-बूझ ये दूसरी चीजें हैं ) तीन-चार ईमानदार पीढ़ियां रही हैं, जिन्होंने कभी नीचता से काम नहीं लिया, कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, जो मेरे बाप-दादा की तरह रहे। मैं ऐसे बहुत-से लोगों को जानता हूं । तुम्हें यह घटियापन लगता है कि मैं जंगल के वृक्ष गिनता हूं, जबकि तुमने रियाबीनिन को तीस हजार रूबल भेंट कर दिये । लेकिन तुम्हें लगान और इसके अलावा जाने क्या-क्या मिलता है, जो मुझे नहीं मिलता। इसलिये मैं उसे सहेजता हूं, जो मुझे बाप-दादों या अपनी मेहनत से मिला है ... हम रईस हैं, वे नहीं, जो बड़े लोगों के टुकड़ों पर पलते हैं या जिन्हें दो टके देकर खरीदा जा सकता है।"

“किस पर बरस रहे हो तुम ? मैं तुम्हारे साथ सहमत हूं," ओब्लोन्स्की ने निश्छलता और खुशी से कहा, यद्यपि वह यह अनुभव कर रहा था कि जिन्हें दो टके में खरीदा जा सकता है, लेविन उनमें उसकी गिनती भी कर रहा है । लेविन का ऐसे भड़क उठना उसे सचमुच ही अच्छा लग रहा था । "किस पर बरस रहे हो तुम ? यह सच है कि व्रोन्स्की के बारे में तुम जो कह रहे हो, उसमें बहत कुछ सही नहीं है। लेकिन मैं इस वक़्त उसकी चर्चा नहीं कर रहा हूं। तुमसे साफ़ कहता हूं कि तुम्हारी जगह मैं फिर मास्को चला गया होता ..."

"नहीं, मुझे मालूम नहीं कि तुम जानते हो या नहीं जानते हो, लेकिन मुझे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मैं तुम्हें बताता हूं कि मैं विवाह का प्रस्ताव कर चुका हूं और उसे ठुकराया जा चुका है । येकातेरीना अलेक्सान्द्रोव्ना अब मेरे लिये एक बोझिल और लज्जाजनक स्मृति ही रह गयी है ।"

"वह किसलिये ? कैसी बेतुकी बात है ! "

"लेकिन हम इस मामले पर और बातचीत नहीं करेंगे। अगर मैं तुम्हारे साथ बदतमीज़ी से पेश आया हूं, तो माफ़ करना," लेविन ने कहा। अब सब कुछ कहने के बाद वह फिर वैसा ही हो गया था, जैसा कि सुबह के वक़्त था । "तुम मुझसे नाराज़ तो नहीं हो न, स्तीवा ? कृपया नाराज़ नहीं होना, " उसने कहा और मुस्कराकर उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया ।

"अरे नहीं, ज़रा भी नाराज़ नहीं, और फिर उसका कोई कारण भी तो नहीं। मैं खुश हूं कि हमने बात साफ़ कर ली । सुनो, सुबह के वक़्त शिकार करना अच्छा रहता है | कैसा रहे, अगर हम सुबह ही चलें ? मैं तो यों भी उसके बाद नहीं सोऊंगा और शिकार से सीधे ही स्टेशन को चल दूंगा ।"

"बहुत खूब ।"

अन्ना करेनिना : (अध्याय 18-भाग 2)

इस बात के बावजूद कि व्रोन्स्की का आन्तरिक जीवन उसकी प्रेम-भावना से ओत-प्रोत था, उसका बाहरी जीवन ऊंचे समाज और रेजिमेन्ट के सम्पर्कों तथा रुचियों की पहली जैसी और अभ्यस्त लीकों पर किसी परिवर्तन और रोक-टोक के बिना चलता जा रहा था । रेजिमेन्ट सम्बन्धी दिलचस्पियों का व्रोन्स्की के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान था, क्योंकि उसे रेजिमेन्ट से प्यार था, और इससे भी ज़्यादा इसलिये कि रेजिमेन्ट में उसे प्यार किया जाता था । रेजिमेन्ट के लोग व्रोन्स्की को सिर्फ़ प्यार ही नहीं, बल्कि उस पर गर्व भी करते थे । गर्व इसलिये करते थे कि यह व्यक्ति, जो बेहद अमीर था, जो बहुत सुशिक्षित तथा सुयोग्य था तथा जिसके सामने सभी तरह की सफलता और महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति तथा नाम कमाने के लिये दरवाज़े खुले थे, इन सब चीज़ों की अवहेलना करता था और जीवन की सभी रुचियों में रेजिमेन्ट और साथियों से सम्बन्धित दिलचस्पियों को अपने दिल में सबसे ज़्यादा ऊंची जगह देता था । व्रोन्स्की को अपने बारे में साथियों के इस दृष्टिकोण की चेतना थी और इस चीज़ के अलावा कि उसे ऐसी ज़िन्दगी अच्छी लगती थी, अपने बारे में बनी हुई इस राय को बनाये रखना भी ज़रूरी समझता था ।

यह तो स्पष्ट ही है कि किसी भी दोस्त - साथी से उसने अपने प्यार की चर्चा नहीं की, शराबनोशी की ज़बर्दस्त महफ़िलों में भी इस बात को मुंह से नहीं निकलने दिया ( वैसे उसे कभी इतना ज़्यादा नशा नहीं होता था कि अपना सन्तुलन खो दे ) और उन मनचले दोस्तों की ज़बान भी बन्द कर देता था, जो उसके इस सम्बन्ध की ओर संकेत करने की कोशिश करते थे। लेकिन यह होने पर भी कि सारा शहर उसके प्यार के बारे में जानता था. आन्ना के प्रति उसके रवैये के बारे में सभी का अनुमान कमोबेश सही था - अधिकतर युवा लोग उसके प्यार के सबसे कष्टप्रद तत्त्व, अर्थात कारेनिन की ऊंची पदवी और इसके परिणामस्वरूप ऊंचे समाज में उसकी अधिकतम चर्चा के लिये ही उससे ईर्ष्या करते थे ।

आन्ना से ईर्ष्या करनेवाली अधिकांश युवा महिलायें, जो उसके बारे में “ सुचरित्रा” का विशेषण सुनते-सुनते कभी की तंग आ चुकी थीं, इसलिये खुश थीं कि उनके अनुमान सही निकले थे और इसी बात का इंतज़ार कर रही थीं कि आन्ना के बारे में लोगों की राय बदले और तब वे अपनी पूरी घृणा से उस पर टूट पड़ेंगी। उन्होंने तो कीचड़ के ऐसे गोले भी तैयार कर लिये थे, जो वक़्त आने पर वे उस पर फेकेंगी। अधिकतर बुजुर्ग और ऊंचे रुतबों वाले लोग निकट भविष्य में हो सकनेवाले इस लज्जापूर्ण हंगामे के कारण नाखुश थे।

व्रोन्स्की की मां इस सम्बन्ध के बारे में जानकारी पाकर शुरू में तो खुश हुई। वह इसलिये कि उसके मतानुसार ऊंचे समाज में ऐसे प्रेम-सम्बन्ध से बढ़कर कोई भी चीज़ बढ़िया नौजवान को इतना अच्छा अन्तिम निखार प्रदान नहीं करती, और इस कारण भी कि उसको इतनी अच्छी लगने और अपने बेटे की इतनी ज़्यादा चर्चा करनेवाली आन्ना भी आखिर सभी सुन्दर तथा उसकी धारणा के अनुसार, ढंग की औरतों जैसी थी। किन्तु पिछले कुछ समय में उसे यह पता चला था कि बेटे ने उसकी भावी प्रगति के लिये बहुत महत्व रखनेवाली नौकरी से केवल इसलिये इन्कार कर दिया है कि वह रेजिमेन्ट में ही बना रहे, जिसकी बदौलत वह आन्ना से मिल-जुल सकता था, कारण ऊंचे अधिकारी उससे नाखुश हैं और इसलिये उसने अपनी राय बदल ली। उसे यह भी अच्छा नहीं लगा कि इस सम्बन्ध के बारे में प्राप्त सारी जानकारी के अनुसार यह बहुत बढ़िया और शानदार सोसाइटी वाला वह सम्बन्ध नहीं था, जिसका उसने अनुमोदन किया होता, बल्कि बहुत ही भावुकतापूर्ण तथा दीवानों जैसा लगाव था, जो, जैसा कि उसे बताया गया था, उसके बेटे से कोई मूर्खता करवा सकता था। व्रोन्स्की के मास्को से अचानक चले जाने के बाद से उसकी उससे मुलाक़ात नहीं हुई थी और इसलिये उसने अपने बड़े बेटे के ज़रिये उससे यह मांग की कि वह उसके पास आये ।

बड़ा भाई भी छोटे से नाखुश था । उसे इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि यह किस तरह का प्यार था - बड़ा या छोटा, बहुत तीव्र या कम तीव्र, पक्का या कच्चा ( बच्चों का बाप होते हुए उसकी एक नर्तकी रखेल थी और इसलिये वह इस मामले में नर्मदिल था ), लेकिन इतना जानता था कि यह प्यार उन लोगों को पसन्द नहीं है, जिन्हें खुश रखना चाहिये और इसलिये भाई का रंग-ढंग उसे अच्छा नहीं लगा था।

रेजिमेन्ट और ऊंचे समाज के अतिरिक्त व्रोन्स्की की एक और भी दिलचस्पी थी - घोड़े । उनका वह बहुत ही शौक़ीन था ।

इसी साल अफ़सरों की बाधासहित घुड़दौड़ें होनेवाली थीं । व्रोन्स्की ने उनमें नाम लिखवा लिया था, बढ़िया नस्ल की असली अंग्रेज़ी घोड़ी ख़रीद ली थी और आन्ना के प्रति अपने प्रेम के बावजूद बहुत बेचैनी से; यद्यपि कुछ संयत रहते हुए, इन घुड़दौड़ों की राह देख रहा था...

ये दो लगाव एक-दूसरे के मार्ग में बाधा नहीं डालते थे। इसके विपरीत, उसे अपनी मुहब्बत से अलग ऐसी दिलचस्पी और ऐसे शौक़ की ज़रूरत थी, जो उसके बहुत ही भाव-विह्वल मन को ताज़गी और चैन देता ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 19-भाग 2)

क्रास्नोये सेलो में होने वाली घुड़दौड़ों के दिन व्रोन्स्की और दिनों की तुलना में कुछ पहले ही बीफ़स्टीक खाने के लिये रेजिमेन्ट के भोजन- कक्ष में आ गया। उसके लिये खाने-पीने के मामले में खास ध्यान रखने की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि उसका वज़न उतना ही था, जितना कि घुड़दौड़ के नियमों के अनुसार होना चाहिये था, यानी ७२ किलोग्राम | लेकिन साथ ही उसे और अधिक मोटे नहीं होना चाहिये था और इसी कारण वह मीठी और आटेवाली चीज़ों से परहेज़ करता था। वह सफ़ेद वास्कट पर फ़ौजी जाकेट के बटन खोले और मेज़ पर दोनों हाथ टिकाये बैठा था और आर्डर किये हुए बीफ़स्टीक के इन्तज़ार में तश्तरी पर रखे एक फ़्रांसीसी उपन्यास को देख रहा था । वह किताब पर इसलिये नज़र जमाये था कि उसे भीतर आते और बाहर जाते हुए अफ़सरों से बातचीत न करनी पड़े। वह कुछ सोच रहा था ।

व्रोन्स्की की सोच का विषय यह था कि आन्ना ने घुड़दौड़ों के बाद आज उससे मिलने का वादा किया था । किन्तु वह तीन दिनों से उससे नहीं मिला था और नहीं जानता था कि उसके पति के विदेश से लौटने के परिणामस्वरूप आज ऐसा सम्भव हो सकेगा या नहीं और किस तरह वह यह मालूम करें। पिछली बार वह अपनी चचेरी बहन बेत्सी के देहातवाले बंगले पर आन्ना से मिला था । कारेनिन परिवार के बंगले पर वह यथासम्भव बहुत कम जाता था। अब वह वहां जाना चाहता था और इस सवाल पर गौर कर रहा था कि किस तरह ऐसा करे ।

"ज़ाहिर है, मैं यह कह सकता हूं कि बेत्सी ने मुझे यह जानने के लिये भेजा है कि वह घुड़दौड़ों में आयेगी या नहीं। हां, तो मैं जाऊंगा, ” उसने पुस्तक से नज़र ऊपर उठाते हुए मन ही मन तय कर लिया। उससे मिलने की खुशी की सजीव कल्पना से उसका चेहरा खिल उठा ।

"किसी को मेरे घर यह कहने को भेज दो कि जल्दी से त्रोइका घोड़ा गाड़ी तैयार कर दी जाये," उसने चांदी की गर्म तश्तरी में बीफ़स्टीक लानेवाले बैरे से कहा और तश्तरी को अपनी तरफ खींचकर खाने लगा।

बग़ल के बिलियार्डवाले कमेर से गेंदों के टकराने की आवाज़ें, बातचीत और ठहाके सुनाई दे रहे थे । भीतर आने के दरवाज़े पर दो अफ़सर दिखाई दिये - एक तो नौउम्र कमज़ोर और पतले चेहरेवाला था तथा कुछ ही समय पहले शाही सैनिक स्कूल से उनकी रेजिमेन्ट में आया था ; दूसरा हाथ में कंगन पहने छोटी-छोटी फूली आंखों और गदराये जिस्म वाला बुर्जुग अफ़सर था ।

व्रोन्स्की ने उन पर नज़र डाली, नाक-भौंह सिकोड़ी और ऐसा ज़ाहिर करते हुए मानो उन्हें देखा ही न हो, कनखी से पुस्तक पर नज़र टिकाकर एकसाथ ही खाने और पढ़ने लगा ।

"कहो ? काम के लिये अपने को मज़बूत कर रहे हो?” गदराये अफ़सर ने उसके पास बैठते हुए पूछा ।

"देख ही रहे हो व्रोन्स्की ने माथे पर बल डालते और मुंह पोंछते हुए तथा उसकी तरफ़ देखे बिना जवाब दिया ।

" मोटा होने से नहीं डरते ?" नौउम्र अफ़सर के लिये कुर्सी को बढ़ाते हुए उसने पूछा ।

"क्या ?" व्रोन्स्की ने नापसन्दगी से मुंह बनाते और अपने मज़बूत दांत दिखाते हुए गुस्से से कहा ।

" मोटा होने से नहीं डरते ? "

“ बैरा, शेरी लाओ !" व्रोन्स्की ने सवाल का जवाब दिये बिना बैरे को पुकारा और पुस्तक को दूसरी ओर रखकर पढ़ना जारी रखा। गदराये हुए अफसर ने शराबों की सूची ली और नौजवान अफ़सर को सम्बोधित किया ।

"तुम खुद ही चुन लो कि क्या पियेंगे, ” उसने मदिरा-सूची उसकी ओर बढ़ाते और उसे देखते हुए कहा ।

"शायद राइन शराब ठीक रहेगी," नौजवान अफ़सर ने कनखी से व्रोन्स्की पर सहमी-सी नज़र डालते और अपनी कुछ भीगी मसों को उंगलियों से पकड़ने की कोशिश करते हुए कहा । यह देखकर कि व्रोन्स्की उनकी ओर मुंह नहीं कर रहा है, नौजवान अफ़सर उठ खड़ा हुआ । "आओ, बिलियार्ड के कमरे में चलें, ” उसने कहा ।

गदराया हुआ अफ़सर आपत्ति किये बिना चुपचाप उठा और वे दोनों दरवाज़े की ओर चल दिये । इसी वक़्त लम्बा-तड़ंगा और सुडौल कप्तान याश्विन कमरे में दाखिल हुआ और इन दोनों अफ़सरों की तरफ़ तिरस्कारपूर्वक सिर झटककर व्रोन्स्की के पास आया ।

" तो, यहां हो तुम ! " व्रोन्स्की की पद-चिह्नों वाली पट्टी पर ज़ोर से अपना बड़ा-सा हाथ मारते हुए उसने कहा । व्रोन्स्की ने झल्लाते हुए मुड़कर देखा, लेकिन उसी क्षण उसका चेहरा उसके स्वभाव के अनुसार शान्त और दृढ़ स्नेह भाव से चमक उठा।

"यह अक़्ल की बात है, अल्योशा," कप्तान ने अपनी ज़ोरदार आवाज़ में कहा। "अब कुछ खाकर एक जाम पी लो।"

" खाने को मन नहीं है । '

"ज़रा देखो उस जोड़ी को, " याश्विन ने इसी वक़्त कमरे से बाहर जा रहे दोनों अफ़सरों की तरफ़ देखते हुए व्यंग्यपूर्वक कहा । वह कुर्सियों की ऊंचाई की तुलना में तंग बिरजिस से कसी अपनी बहुत ही लम्बी टांगों के नुकीले कोण बनाते हुए उसके पास बैठ गया । तुम कल क्रास्नेन्स्की थियेटर क्यों नहीं आये? नूमेरोवा कुछ बुरी नहीं थी । तुम कहां थे ?"

"मैं त्वेरस्की दम्पति के यहां बैठा रहा, ” व्रोन्स्की ने जवाब दिया । "ओह, हां,” याश्विन बोला ।

जुआरी, लंपट और न सिर्फ़ उसूलों के बिना, बल्कि अनैतिक उसूलोंवाला याश्विन रेजिमेन्ट में व्रोन्स्की का सबसे अच्छा दोस्त था । व्रोन्स्की उसे उसकी असाधारण शारीरिक शक्ति के लिये जो वह अक्सर घड़ों शराब पीने, सोये बिना ताज़ादम बने रहने के रूप में प्रकट करता था, नैतिक शक्ति के लिये, जो अपने संचालकों और साथियों के मामले में दिखाता था और जिससे उसके प्रति भय और आदर पैदा होता था, तथा जिसे जुआ खेलते हुए भी ज़ाहिर करता था, जहां हज़ारों की बाज़ी लगाता था और बेहद पी लेने के बावजूद इतनी दृढ़ता तथा बारीकी से खेलता था कि अंग्रेज़ी क्लब का सबसे अच्छा खिलाड़ी माना जाता था, पसन्द करता था। व्रोन्स्की ख़ास तौर पर तो याश्विन को इसलिये पसन्द तथा उसका आदर करता था कि वह उसे उसके नाम तथा दौलत के लिये नहीं, बल्कि खुद उसी के रूप में चाहता था। अपनी जान पहचान के सभी लोगों में से व्रोन्स्की केवल उसी के साथ अपने प्यार की चर्चा करना चाहता था । वह महसूस करता था कि ऐसा प्रतीत होने के बावजूद कि याश्विन किसी भी तरह की भावना को तिरस्कार की दृष्टि से देखता है, वही एक ऐसा व्यक्ति है, जो अब उसके समूचे जीवन पर छा जानेवाली तीव्र अनुराग-भावना को समझ सकता है। इसके अलावा उसे इस बात का भी पूरा यकीन था कि याश्विन अफ़वाहें फैलाने और बदनामी करने के काम में कोई दिलचस्पी नहीं लेता, बल्कि इस भावना को वैसे ही समझता है, जैसे समझना चाहिये, यानी यह जानता और विश्वास करता है कि मुहब्बत कोई मज़ाक़ या मनबहलाव न होकर कहीं अधिक गम्भीर तथा महत्त्वपूर्ण चीज़ है ।

व्रोन्स्की ने उसके साथ अपने प्यार की चर्चा नहीं की, लेकिन उसे मालूम था कि याश्विन सब कुछ जानता है और सब कुछ वैसे ही समझता है, जैसे समझना चाहिये और उसकी आंखों में ही यह भाव पढ़कर उसे ख़ुशी हुई ।

"ओह, हां!” उसने इस बात के जवाब में कहा कि व्रोन्स्की त्वेरस्की दम्पति के यहां बैठा रहा था, और काली आंखों को चमकाकर अपनी बुरी आदत के मुताबिक़ बायीं मूंछ को मुंह में घुसेड़ने लगा ।

"और तुमने कल शाम को क्या किया ? पैसे जीते ?" व्रोन्स्की ने पूछा।

"आठ हज़ार । तीन हज़ार तो कच्चे हैं, जिनके मिलने की बहुत कम उम्मीद है । "

"तो अब तुम मुझ पर हार सकते हो,” व्रोन्स्की ने हंसते हुए कहा। ( याश्विन ने उस पर बड़ी रक्म की शर्त लगा रखी थी । )

" किसी हालत में भी नहीं हारूंगा। सिर्फ़ मखोतिन से खतरा है ।"

बातचीत अपने आप ही आज होनेवाली घुड़दौड़ की ओर मुड़ गयी। व्रोन्स्की अब केवल उसी के बारे में सोच सकता था ।

"आओ चलें, मैं खाना खत्म कर चुका हूं," व्रोन्स्की ने कहा और उठकर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गया। अपनी लम्बी टांगों और लम्बी पीठ को सीधे करते हुए याश्विन भी उठकर खड़ा हो गया । " मेरा खाने का वक़्त तो अभी नहीं हुआ, मगर कुछ पीना ज़रूर चाहिये। मैं अभी आता हूं ! शराब लाओ ! " उसने परेड के मैदान में मशहूर अपनी उस ज़ोरदार आवाज़ में बैरे को पुकारा, जिससे खिड़कियों के शीशे कांप उठते थे । "नहीं रहने दो," उसने उसी वक़्त फिर से ऊंची आवाज़ में कहा । तुम घर जा रहे हो, तो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं ।"

और वे दोनों चल दिये।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 20-भाग 2)

व्रोन्स्की फ़िन्नी ढंग के एक बड़े और साफ़-सुथरे झोंपड़े में खड़ा था। झोंपड़े को बीच में दीवार डालकर दो भागों में विभाजित कर दिया गया था। पेत्रीत्स्की शिविरों में भी व्रोन्स्की के साथ ही रहता था। व्रोन्स्की और याश्विन जब झोंपड़े में आये, तो पेत्रीत्स्की सो रहा था।

"उठो, बहुत सो लिये, ” याश्विन ने बीच की दीवार के दूसरी ओर जाकर अस्त-व्यस्त बालोंवाले तथा तकिये में मुंह घुसेड़कर सो रहे पेत्रीत्स्की का कंधा झकझोरते हुए कहा ।

पेत्रीत्स्की अचानक उछलकर घुटनों के बल हो गया और उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई ।

"तुम्हारा भाई यहां आया था," उसने व्रोन्स्की से कहा । "मुझे जगा दिया, शैतान उसका बुरा करे, और कह गया है कि फिर आयेगा । " उसने फिर से कम्बल अपने ऊपर खींचा और तकिये पर जा गिरा । " परेशान नहीं करो, याश्विन, " उसने याश्विन पर झल्लाते हुए कहा, जो उसका कम्बल खींच रहा था । " ऐसे नहीं करो ! वह घूमा और उसने आंखें खोलीं : " बेहतर होगा, तुम यह बताओ कि मैं क्या पिऊं, मुंह का जायका इतना बिगड़ा - बिगड़ा-सा है कि ..."

"वोद्का सबसे अच्छी चीज़ है," याश्विन ने ज़ोरदार आवाज़ में कहा। “तेरेश्चेन्को ! अपने साहब के लिये वोद्का और खीरे लाओ," उसने चिल्लाकर कहा । स्पष्टतः उसे अपनी आवाज़ सुनना अच्छा लगता था ।

"तुम्हारे ख्याल में वोद्का ही ? वही ठीक रहेगी क्या ?" पेत्रीत्स्की ने बुरा-सा मुंह बनाते और आंखें मलते हुए पूछा । तुम भी पियोगे न? तो एक साथ पियेंगे ! व्रोन्स्की तुम भी पियोगे ? " पेत्रीत्स्की ने उठते और बग़लों के नीचे से चीते की खाल के कम्बल में अपने को लपेटते हुए कहा ।

वह बीच की दीवार के दरवाज़े से बाहर निकला, उसने हाथ ऊपर उठाये और फ़्रांसीसी में गाने लगा : "एक बादशाह था तू-ऊ-ऊ-ला में। व्रोन्स्की, पियोगे ? "

"भागो यहां से," वोन्स्की ने नौकर द्वारा दिया गया फ़ाककोटपहनते हुए कहा ।

"किधर चल दिये ?" याश्विन ने व्रोन्स्की से पूछा । “लो, त्रोइका भी आ गयी " उसने झोंपडे के क़रीब आती तीन घोडों वाली बग्घी को देखकर कहा।

"अस्तबल को। इसके अलावा मुझे घोड़ों के सिलसिले में ब्रियान्स्की के यहां भी जाना है, " व्रोन्स्की ने कहा ।

व्रोन्स्की ने सचमुच ब्रियान्स्की के यहां जाने और उसे घोड़े की क़ीमत चुकाने का वादा किया था। ब्रियान्स्की पीटरहोफ़ से कोई पन्द्रह किलोमीटर दूर रहता था और व्रोन्स्की चाहता था कि वहां हो आये ।

लेकिन उसके साथी फ़ौरन यह समझ गये कि वह केवल वहीं नहीं जा रहा है। पेत्रीत्स्की ने अपना गाना जारी रखते हुए उसे आंख मारी और होंठों को ऐसे फुला लिया मानो कह रहा हो - " मालूम है हमें, कौन है तुम्हारा यह ब्रियान्स्की । "

" देखो, कहीं आने में देर नहीं कर देना ! " याश्विन ने इतना ही कहा और बातचीत का विषय बदलने के लिये बोला : “ मेरा चितकबरा घोड़ा अच्छी ख़िदमत कर रहा है न ?" उसने खिड़की से बाहर झांककर त्रोइका गाड़ी के उस मुख्य घोड़े के बारे में पूछा, जो उसने व्रोन्स्की को बेच दिया था ।

“ ठहरो!” बाहर जाते व्रोन्स्की को रोकते हुए पेत्रीत्स्की चिल्लाया ।

"तुम्हारा भाई एक खत और तुम्हारे नाम रुक़्क़ा भी छोड़ गया है। ज़रा याद करने दो वे कहां हैं ?"

व्रोन्स्की रुक गया ।

"कहो, कहां हैं ख़त और रुक्का ? "

"कहां हैं ? यही तो सवाल है !" अपनी तर्जनी को नाक से ऊपर की ओर ले जाते हुए पेत्रीत्स्की ने गम्भीरतापूर्वक कहा ।

"बताओ भी, यह बेवकूफ़ी है !" व्रोन्स्की ने मुस्कराते हुए कहा ।

"अंगीठी तो मैंने उनसे जलायी नहीं । यहीं कहीं होंगे ।"

"बस, काफ़ी नाटक कर लिया ! कहां है ख़त ? "

"नहीं, सचमुच याद नहीं रहा । या शायद मुझे सपने में ऐसा दिखाई दिया था ? ज़रा ठहरो, ठहरो! बिगड़ क्यों रहे हो ! अगर तुमने भी अकेले ही चार बोतलें खाली कर दी होतीं, जैसे कल मेरे साथ हुआ, तो तुम भी यह भूल गये होते कि कहां लेटे हुए थे। ज़रा रुको, अभी याद कर लेता हूं ! "

पेत्रीत्स्की कमरे के अपने हिस्से में जाकर पलंग पर लेट गया ।

“ ठहरो! मैं ऐसे लेटा हुआ था, वह ऐसे खड़ा था। हां हां हां - हां ... यह रहा !” और पेत्रीत्स्की ने गद्दे के नीचे से, जहां उसने खत छिपा दिया था, उसे निकाला ।

व्रोन्स्की ने भाई का ख़त और रुक़्क़ा ले लिया । यह वही क़िस्सा था, जिसकी उसे उम्मीद थी। ख़त मां का था, जिसमें उसने लानत- मलामत की थी कि वह आया नहीं और रुक़्क़ा भाई का था, जिसमें उसने लिखा था कि कुछ बातचीत करना ज़रूरी है। व्रोन्स्की जानता था कि सब कुछ उसी मामले से सम्बन्धित है। “ इन्हें क्या मतलब है इससे ?" व्रोन्स्की ने सोचा और खत को मोड़ - माड़कर फ़्रॉककोट के बटनों के बीच घुसेड़ लिया ताकि रास्ते में उसे ध्यान से पढ़ सके। झोंपड़े की ड्योढ़ी में उसकी दो अफ़सरों से मुलाक़ात हुई – एक उनकी रेजिमेन्ट का था और दूसरा किसी दूसरी रेजिमेन्ट का ।

व्रोन्स्की का घर सदा सभी अफ़सरों का अड्डा बना रहता था।

"किधर ?”

" काम से पीटरहोफ़ !"

" त्सारस्कोये से घोडी आ गयी ? "

"आ गयी, लेकिन मैंने उसे अभी तक नहीं देखा ।"

"कहते हैं कि मखोतिन का ग्लादियातर घोड़ा लंगड़ाने लगा है।"

"बिल्कुल झूठ ! लेकिन इस कीचड़ में तुम लोग घोड़े दौड़ाओगे कैसे ?” दूसरे ने कहा ।

“लो, ये आ गये मेरे रक्षक ! " भीतर आते हुए अफ़सरों को देखकर पेत्रीत्स्की चिल्लाया। उसके सामने एक अर्दली ट्रे में वोदका और अचारी खीरा लिये खड़ा था । " देखो, याश्विन मुझे ताज़ादम होने के लिये वोदका पीने को कह रहा है।"

"आपने तो कल खूब हमारे नाक में दम किया, " आनेवालों में से एक अफ़सर ने कहा, रात भर सोने नहीं दिया ।

"लेकिन तुम यह सुनो कि कैसे हमने कल की शाम ख़त्म की, पेत्रीत्स्की ने बताना शुरू किया । वोल्कोव छत पर चढ़ गया और बोला कि उसे ऊब अनुभव हो रही है । मैंने कहा - तो लाओ संगीत शुरू करें, मातमी जुलूस के वक़्त की धुन ! वह मातमी धुन सुनते- सुनते छत पर ही सो गया ।"

"लो, पियो, अभी वोद्का पियो और इसके बाद नींबू का बहुत- सा रस डालकर सोडावाटर, " पेत्रीत्स्की के पास खडा याश्विन बच्चे को दवाई पीने के लिये मजबूर करनेवाली मां की तरह उससे कह रहा था, "और उसके बाद थोड़ी शेम्पेन पी सकते हो, कोई एक बोतल ।"

"यह हुई अक्ल की बात । रुको, व्रोन्स्की, आओ पियें ।"

"नहीं, विदा, भले लोगो । मैं आज नहीं पीता हूं । "

"इस डर से कि वज़न न बढ़ जाये ? तो हम खुद ही पियेंगे । इधर दो सोडावाटर और नींबू ।"

"व्रोन्स्की ! " कोई चिल्लाया, जब वह ड्योढ़ी में जा चुका था ।

"क्या है ?""

"तुम बाल कटवा लो। वे बहुत बढ़े हुए हैं, खास तौर से तुम्हारी चांद पर।"

व्रान्स्की वास्तव में ही वक्त से पहले गंजा होने लगा था । वह अपने सुन्दर दांत दिखाते हुए खिलखिलाकर हंस पड़ा और अपनी चांद की ओर टोपी खिसकाकर बाहर निकला तथा त्रोइका में जा बैठा ।

"अस्तबल चलो!” उसने कहा और पढ़ने के लिये पत्र निकालना चाहा, लेकिन फिर यह सोचकर कि घोड़ी को देखने से पहले किसी दूसरी तरफ़ ध्यान नहीं जाना चाहिये, इरादा बदलते हुए अपने से कहा : "बाद में !..."

अन्ना करेनिना : (अध्याय 21-भाग 2)

तख़्तों का वक़्ती अस्तबल रेस कोर्स के क़रीब ही बनाया गया था और वहीं कल व्रोन्स्की की घोड़ी लायी जानेवाली थी । उसने अभी तक उसे नहीं देखा था। पिछले कुछ दिनों में उसने खुद घोड़ी को अभ्यास नहीं कराया था और ट्रेनर को यह काम सौंप रखा था । इसलिये अब उसे बिल्कुल यह मालूम नहीं था कि उसकी घोड़ी कैसी हालत में आई है और कैसी है । व्रोन्स्की अपनी त्रोइका गाड़ी से निकला ही था कि उसके सईस ने, जो दूर से ही उसकी त्रोइका को पहचान गया था, ट्रेनर को बुला लिया । घुटनों तक के बूट और छोटी जाकेट पहने हुए दुबला-पतला अंग्रेज़, जिसकी ठोड़ी के नीचे ही बालों का एक गुच्छा-सा रह गया था, घोड़ों के ट्रेनरों की अटपटी चाल से चलता, कोहनियों को बाहर की तरफ़ निकालकर भुलाता हुआ व्रोन्स्की के सामने आया ।

“ कैसी है फ़्रू-फ़्रू ?" व्रोन्स्की ने अंग्रेज़ी में पूछा ।

“All right, sir - सब कुछ ठीक है, हुजूर," कहीं गले के भीतर से अंग्रेज़ ने जवाब दिया । "उसके पास न जाना ही बेहतर है," अपना टोप ऊपर उठाते हुए उसने इतना और जोड़ दिया । "मैंने उसे मुंहबन्द पहना दिया है और वह बेचैन है। वहां न जाना ही अच्छा होगा, इससे घोड़ी परेशान होती है । "

"नहीं, मैं तो जाऊंगा। मैं उसे देखना चाहता हूं ।"

“ तो चलिये, " पहले की तरह मुंह खोले बिना तथा नाक-भौंह सिकोड़कर अंग्रेज़ ने कहा और कोहनियां झुलाता हुआ अपनी ढीली- ढाली चाल से आगे-आगे चल दिया ।

वे बैरक के सामने छोटे से अहाते में पहुंचे । साफ़-सुथरी जाकेट पहने सजा-धजा नौजवान जो यहां ड्यूटी पर था, हाथ में झाड़ू लिये इनसे मिला और इनके पीछे-पीछे हो लिया। बैरक में पांच घोड़े अपने अलग-अलग स्टाल में खड़े थे । व्रोन्स्की को मालूम था कि उसके मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मखोतिन का ऊंचा लाल घोड़ा ग्लादियातर भी आज यहीं लाया जानेवाला था और यहीं खड़ा है। व्रोन्स्की अपनी घोड़ी से भी कहीं ज़्यादा ग्लादियातर को देखना चाहता था, जिसे उसने नहीं देखा था । किन्तु व्रोन्स्की जानता था कि घुड़दौड़ की शिष्टता के नियमों के अनुसार उसे उस घोड़े को न केवल देखना ही नहीं चाहिये, बल्कि उसके बारे में पूछ-ताछ करना भी अनुचित है । जिस वक़्त वह बैरक के गलियारे में से जा रहा था, उस वक़्त लड़के ने बायीं ओर के दूसरे स्टाल का दरवाज़ा खोला और व्रोन्स्की को सफ़ेद टांगों वाले लाल रंग के तगड़े घोड़े की झलक मिली। उसे मालूम था कि यह ग्लादियातर है, लेकिन किसी का खुला हुआ पत्र सामने पड़ा देखकर मुंह मोड़ लेनेवाले व्यक्ति जैसी भावना के साथ उसने मुंह फेर लिया और फ़्रू-फ़्रू के स्टाल के पास गया ।

"यहां घोड़ा है माक .. माक ... का... कभी यह नाम नहीं बोल पाता," अंग्रेज़ ट्रेनर ने गन्दे नाखूनवाली लम्बी उंगली से ग्लादियातर के स्टाल की ओर संकेत करते हुए कंधे के ऊपर से कहा ।

"मखोतिन ? हां, वही मेरा एक गम्भीर प्रतिद्वन्द्वी है, " व्रोन्स्की ने कहा ।

"अगर आप इस घोड़े पर दौड़ में हिस्सा लेते होते," अंग्रेज़ ने कहा, "तो मैं पूरी तरह आपके पक्ष में होता ।"

"फ़्रू-फ़्रू ज़्यादा तेज़ मिज़ाज है और वह ज़्यादा ताक़तवर," अपनी घुड़सवारी की प्रशंसा सुनकर व्रोन्स्की ने मुस्कराते हुए कहा ।

"बाधाओंवाली घुड़दौड़ में सब कुछ अच्छी घुड़सवारी और pluck पर निर्भर करता है," अंग्रेज़ ने कहा ।

जहां तक pluck, यानी जोश और दिलेरी का सम्बन्ध था, तो उनको तो व्रोन्स्की न केवल पर्याप्त मात्रा में अनुभव करता था, बल्कि, जो और भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण था, उसे इस बात का भी पक्का यक़ीन था कि दुनिया में उससे बढ़कर pluck और किसी में नहीं हो सकता था।

"आपको पूरा यकीन है कि इसे और ज़्यादा अभ्यास कराने की ज़रूरत नहीं थी ?”

"हां, नहीं थी," अंग्रेज़ ने जवाब दिया । "कृपया, ऊंचे नहीं बोलिये। घोड़ी घबरायी हुई है, ” उसने बन्द स्टाल की तरफ़, जिसके सामने वे खड़े थे और जहां से फूस पर पांव बदलने की आवाज़ आ रही थी, इशारा करते हुए इतना और कह दिया ।

उसने दरवाज़ा खोला और व्रोन्स्की स्टाल में गया, जहां एक छोटे-से झरोखे से छननेवाली मद्धिम सी रोशनी थी। स्टाल में ताज़ा फूस पर पांव बदलती हुई काली घोड़ी खड़ी थी, जिसकी थूथनी पर मुंहबन्द चढ़ा हुआ था । स्टाल की धुंधली रोशनी का अभ्यस्त हो जाने पर व्रोन्स्की ने एक ही नज़र में अपनी प्यारी घोड़ी की सारी सुन्दरता को एक बार फिर अनुभव कर लिया। फ़ू-फ़ू मझोले क़द की थी और आकृति के लक्षणों की दृष्टि से पूरी तरह दोषहीन नहीं थी । वह पूरी की पूरी कम चौड़ी काठी की थी । यद्यपि उसकी छाती की हड्डी आगे की ओर काफ़ी उभरी हुई थी फिर भी छाती चौड़ी नहीं थी । पीछे का भाग कुछ झुका हुआ था और आगे की, तथा खास तौर पर पीछे की टांगों में काफ़ी टेढ़ापन था । उसकी अगली और पिछली टांगों की मांस-पेशियां विशेषतः बड़ी नहीं थीं, लेकिन दूसरी तरफ़ ज़ीनवाले स्थान पर उसकी पीठ असाधारण रूप से चौड़ी थी और यह चीज़ उसके कड़े अभ्यास तथा पेट के बहुत पतले हो जाने से अब ख़ास तौर पर हैरान करती थी। घुटनों से नीचे उसकी टांगों की हड्डियां सामने से देखने पर उंगली से ज़्यादा मोटी नहीं लगती थीं, लेकिन बग़ल से देखने पर असाधारण रूप से चौड़ी थीं । पसलियों को छोड़कर वह अग़ल-बग़ल से मानो दबा दी गयी थी और लम्बाई में फैला दी गयी थी। किन्तु उसमें एक बहुत बड़ा गुण था, जो उसकी सभी त्रुटियों को भूल जाने को विवश करता था । यह गुण था उसका खून, जो अंग्रेज़ी भाषा की एक कहावत के अनुसार अपना रंग दिखाता है। पतली, गतिशील और मखमल की तरह चिकनी त्वचा में फैली हुई शिराओं के जाल के नीचे से साफ़ नज़र आनेवाली मांस-पेशियां भी उसकी हड्डियों की तरह ही मज़बूत प्रतीत होती थीं । फूली फूली चमकती और खुशीभरी आंखों सहित उसका पतला-सा सिर थूथनी के पास आकर आगे को बढ़ी हुई नासिकाओं के रूप में, जिनके भीतर लाल झिल्लियां थीं, चौड़ा हो गया था । घोड़ी की पूरी आकृति, विशेषतः उसके सिर की बनावट में एक निश्चित उत्साह और साथ ही कोमलता लक्षित होती थी । वह उन पशुओं में से थी, जो ऐसा लगता है, केवल इसीलिये नहीं बोलते कि उनके मुंह की रचना उन्हें ऐसा नहीं करने देती ।

कम से कम व्रोन्स्की को तो ऐसा प्रतीत हुआ कि उसने वह सब कुछ समझ लिया, जो उसे देखते हुए वह इस वक़्त अनुभव कर रहा था ।

व्रोन्स्की ज्यों ही स्टाल में दाखिल हुआ, घोड़ी ने गहरी सांस ली और अपनी फूली-सी आंख को कनखी से ऐसे घुमाया कि उसमें सफ़ेदी की जगह लाली आ गयी तथा मुंहबन्द को झटकते और लचीले ढंग से पांव बदलते हुए उसने दूसरी दिशा से भीतर आनेवालों की तरफ़ देखा ।

"देख रहे हैं न, कितनी उत्तेजित है घोड़ी," अंग्रेज़ ने कहा ।

"ओ, मेरी प्यारी, ओ !" व्रोन्स्की ने घोड़ी के पास जाते और उसे तसल्ली देते हुए कहा ।

किन्तु व्रोन्स्की उसके जितना अधिक निकट जा रहा था, वह उतनी ही ज़्यादा उत्तेजित होती जा रही थी। हां, जब वह उसके सिर के नज़दीक पहुंच गया, तो घोड़ी अचानक शान्त हो गयी और उसकी पतली तथा कोमल चमड़ी के नीचे उसकी मांस-पेशियां कांप उठीं। व्रोन्स्की ने उसकी मजबूत गर्दन सहलायी, दूसरी ओर को गिरी हुई अयालों की एक लट को ठीक किया और चमगादड़ के पंखों जैसे पतले, फैले हुए नथुनों वाली थूथनी की ओर अपना मुंह किया । घोड़ी ने तने हुए नथुनों से आवाज़ निकालते हुए गहरी सांस ली और छोड़ी, सिहर कर नुकीले कान को दबाया और अपने मज़बूत काले होंठ को व्रोन्स्की की तरफ़ ऐसे बढ़ाया मानों उसकी आस्तीन पकड़ना चाहती हो । किन्तु मुंहबन्द का ध्यान आने पर उसने उसे झटका और फिर से अपनी सुघड़ टांगों को बदलने लगी ।

"शान्त हो जाओ, मेरी प्यारी, शान्त हो जाओ ! " उसने घोडी के पुट्टे को फिर सहलाते हुए कहा और इस सुखद चेतना के साथ कि घोड़ी बहुत अच्छी हालत में है, स्टाल से बाहर आ गया ।

घोडी की उत्तेजना ने व्रोन्स्की को भी प्रभावित कर दिया। उसने अनुभव किया कि उसके दिल की धड़कन तेज़ हो गयी है और घोड़ी की भांति वह भी हिलना-डुलना किसी को काटना चाहता है। उसे इससे खुशी भी अनुभव हो रही थी और डर भी ।

"तो मैं आप पर भरोसा करता हूं," उसने अंग्रेज़ से कहा ।

" साढ़े छः बजे वहां पहुंच जाइये ।"

"बिल्कुल इतमीनान रखिये," अंग्रेज़ ने कहा । " लेकिन आप कहां जा रहे हैं, मी लार्ड ?" उसने अचानक my-Lord का यह सम्बोन्धन इस्तेमाल करते हुए, जैसा कि वह लगभग कभी नहीं करता था, पूछा।

व्रोन्स्की ने हैरानी से सिर ऊपर उठाया और उसके सवाल की दिलेरी से चकित होते हुए ऐसे, जैसे कि वह देखना जानता था, उसकी आंखों में न देखकर माथे पर नज़र डाली । किन्तु यह समझकर कि उसने मालिक से नहीं, बल्कि घुड़ सवार व्रोन्स्की से यह सवाल पूछा है, उत्तर दिया :

"मुझे ब्रियान्स्की के यहां कुछ काम है। एक घण्टे बाद मैं घर पहुंच जाऊंगा।”

"कितनी बार मुझसे आज यह सवाल पूछा गया है ! उसने अपने आपसे कहा और शर्मा गया, जैसा कि उसके साथ बहुत कम होता था। अंग्रेज़ ने उसे बहुत ग़ौर से देखा और मानो यह जानते हुए कि व्रोन्स्की कहां जा रहा है, उसने इतना और जोड़ दिया :

"घुड़दौड़ से पहले शान्तचित्त होना तो सबसे ज़रूरी बात है,"आपको किसी भी हालत में परेशान और बुरे मूड में नहीं होना चाहिये ।" उसने कहा ।

“All right,” व्रोन्स्की ने मुस्कराकर जवाब दिया और बग्घी में बैठकर पीटरहोफ़ चलने को कहा ।

बग्घी कुछ ही दूर गयी थी कि बादल, जो सुबह से ही बरसने की धमकी दे रहे थे, फट पड़े और मूसलधार बारिश शुरू हो गयी ।

"यह बुरा हुआ ! " बग्घी का हुड ऊपर करते हुए व्रोन्स्की ने सोचा। " यों ही कीचड़ था और अब तो बिल्कुल दलदल जैसा हाल हो जायेगा । " बन्द बग्घी में अकेले बैठे हुए उसने मां का खत और भाई का रुक़्क़ा निकाला तथा उन्हें पढ़ा ।

हां, यह सब कुछ वही था, उसी मामले के बारे में था । उसकी मां, उसका भाई, सभी उसके दिल से सम्बन्धित मामलों में दखल देना ज़रूरी समझते थे । उनकी इस दखलंदाज़ी से उसे गुस्सा आता था - गुस्से की इस भावना को वह बहुत कम ही महसूस किया करता था। “ उन्हें क्या मतलब है इस मामले से ? क्यों हर कोई मेरी चिन्ता करना अपना कर्त्तव्य मानता है ? किसलिये मेरे पीछे पड़ते हैं ये सब ? इसलिये कि वे देखते हैं कि यह कुछ ऐसा मामला है, जो उनकी समझ के बाहर है। अगर यह ऊंचे समाज का तुच्छ और साधारण सम्बन्ध होता, तो वे मुझे परेशान न करते । वे अनुभव करते हैं कि यह कुछ दूसरी ही बात है, कि यह खिलवाड़ नहीं, कि यह औरत मुझे जान से भी ज़्यादा प्यारी है। यही उनकी समझ में नहीं आता और इसीलिये उन्हें झल्लाहट होती है । चाहे जैसा भी है, और जैसा भी होगा हमारा भाग्य, हमने खुद उसे बनाया है और हम उसकी कोई शिकायत नहीं करते हैं," वह अपने आपसे कह रहा था । "हम " शब्द में उसने आन्ना को अपने साथ जोड़ लिया था । "नहीं, उनके लिये हमें यह सिखाना ज़रूरी है कि हमें कैसे जीना चाहिये । सुख क्या होता है, वे तो इसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। वे नहीं जानते कि इस प्यार के बिना हमारे लिये न सुख है, न दुख है - ज़िन्दगी ही नहीं है," वह सोच रहा था।

व्रोन्स्की को इस दखलंदाज़ी पर इसलिये खीझ आती थी कि अपनी आत्मा में वह अनुभव करता था कि ये सभी लोग सही थे । वह अनुभव करता था कि आन्ना के साथ उसे जोड़नेवाला प्यार वह क्षणिक आकर्षण नहीं था, जो वैसे ही समाप्त हो जायेगा, ऊंचे समाज के ऐसे सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं और जो एक या दूसरे व्यक्ति के जीवन में मधुर या कटु स्मृतियों के अतिरिक्त और कोई भी चिह्न नहीं छोड़ते हैं। वह अपनी और आन्ना की स्थिति की यातना और ऊंचे समाज की नज़र में आने के कारण पैदा हुई उस कठिनाई को अनुभव करता था कि उन्हें अपना प्यार छिपाना, झूठ बोलना और दूसरों को धोखा देना पड़ता था, और उन्हें तब झूठ बोलना, धोखा देना, चालाकी करना तथा लगातार दूसरों के बारे में सोचना पड़ता था, जब उन्हें सूत्रबद्ध करनेवाला अनुराग इतना तीव्र होता था कि उन दोनों को अपने प्यार के सिवा और किसी चीज़ की सुध-बुध ही नहीं रहती थी ।

झूठ और छल-फ़रेब को, जिनसे उसे बेहद नफ़रत थी, ज़रूरी बनाने वाली घटनायें उसकी स्मृति में पूरी तरह सजीव हो उठीं। इस छल-फ़रेब और झूठ की ज़रूरत के कारण आन्ना में कई बार प्रकट होनेवाली शर्म की भावना की तो उसे विशेषतः सजीव रूप में याद आई। आन्ना के साथ उसका नाता जुड़ जाने के बाद उसे अपने पर कभी-कभी हावी हो जानेवाली एक अजीब भावना की अनुभूति होती थी । यह किसी चीज़ के प्रति घृणा की भावना थी – कारेनिन के प्रति, अपने प्रति या सारी सोसाइटी के प्रति यह वह अच्छी तरह से नहीं जानता था। लेकिन वह इस अजीब भावना को हमेशा अपने से दूर भगा देता था । अब भी उसने अपने को झटका देकर ऐसा किया और अपने विचारों के प्रवाह को आगे बढ़ाता चला गया ।

"हां, वह पहले सुखी नहीं थी, किन्तु शान्त और गर्वीली थी। मगर अब वह शान्त और गर्वीली नहीं हो सकती, यद्यपि यह प्रकट नहीं होने देती। हां, इस स्थिति का अन्त करना चाहिये, " उसने मन ही मन तय किया ।

पहली बार उसके दिमाग़ में यह स्पष्ट विचार आया कि इस झूठ को खत्म करना चाहिये और जितनी जल्दी ऐसा कर दिया जाये, उतना ही ज़्यादा अच्छा होगा । “ उसे और मुझे सब कुछ छोड़-छाड़ कर अपना प्यार सहेजे हुए कहीं जा छिपना चाहिये," उसने अपने आपसे कहा ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 22-भाग 2)

मूसलधार बारिश बहुत देर तक नहीं चली। बग्घी का मुख्य घोडा तेज़ दुलकी चाल से दौड़ता और अगल-बगल के घोड़ों को लगामों के निर्देशन के बिना कीचड़ में सरपट दौड़ाता हुआ जब व्रोन्स्की की मंज़िल के क़रीब पहुंचा, तो सूरज फिर से झांकने लगा । देहाती बंगलों की छतों तथा मुख्य सड़क के दोनों ओर पुराने लाइम वृक्षों पर नम चमक दिख रही थी, शाखाओं से पानी की सुखद बूंदें टपक रही थीं और छतों से पानी बह रहा था । व्रोन्स्की अब यह नहीं सोच रहा था कि इस मूसलधार बारिश से रेस कोर्स कितना ख़राब हो जायेगा, बल्कि इस ख़्याल से खुश हो रहा था कि बारिश की बदौलत आन्ना उसे घर पर मिल जायेगी, सो भी अकेली, क्योंकि उसे मालूम था कि कुछ ही समय पहले विदेश से लौटने वाला कारेनिन पीटर्सबर्ग से यहां नहीं आया है ।

आन्ना को अकेली पाने की आशा करते हुए व्रोन्स्की सदा की भांति, ताकि लोगों का उसकी ओर कम ध्यान जाये, छोटे से पुल को लांघे बिना ही बग्घी से उतरकर पैदल चल दिया। वह सड़क की ओर से न जाकर अहाते की तरफ़ से घर में गया ।

"तुम्हारे साहब आ गये ?” उसने माली से पूछा ।

"नहीं तो। मेम साहब घर में हैं । आप मेहरबानी करके मुख्य दरवाज़े की तरफ़ से जाइये, वहां नौकर हैं, दरवाज़ा खोल देंगे," माली ने जवाब दिया ।

"नहीं, मैं बगीचे में से ही चला जाऊंगा ।"

यह यक़ीन करके कि वह अकेली है और उसे आश्चर्यचकित करने की इच्छा से, क्योंकि उसने आज आने का वादा नहीं किया था और आन्ना ने घुड़दौड़ से पहले उसके आने के बारे में निश्चय ही सोचा भी नहीं होगा, वह अपनी तलवार को सम्भाले तथा रेतीली पगडंडी पर, जिसके किनारे पर फूलों के पौधे लगे थे, सावधानी से पांव रखते हुए बगीचे की ओर बने बरामदे की दिशा में बढ़ चला । व्रोन्स्की अपनी स्थिति के बोझ और कठिनाई के बारे में रास्ते में जो कुछ सोचता रहा था, अब सब भूल गया । वह केवल एक ही बात सोच रहा था कि अभी उसे केवल कल्पना में नहीं, बल्कि जीती-जागती तथा उसी रूप में पूरी की पूरी देख सकेगा, जैसी कि वह वास्तव में है । वह बरामदे की चौड़ी पैड़ियों पर पूरा पांव रखता हुआ, ताकि शोर न हो, भीतर दाखिल हो ही रहा था कि उसे अचानक वह याद हो आया, जिसे हमेशा भूल जाता था और जो आन्ना के साथ उसके सम्बन्धों का सबसे यातनाप्रद पक्ष था । उसे याद आया उसका बेटा, अपनी प्रश्नसूचक और, जैसा कि व्रोन्स्की को लगता था, शत्रुतापूर्ण दृष्टि से उसकी ओर देखता हुआ ।

अन्य सभी की तुलना में यह लड़का उनके सम्बन्धों में कहीं अक्सर बाधा सिद्ध होता था । जब वह सामने होता, तो न केवल यह कि व्रोन्स्की और आन्ना कोई ऐसी बात न करते, जो वे सबके सामने न कर सकते हों, बल्कि इशारों से भी ऐसा कुछ न कहते जिसे बालक समझ न पाये। उन्होंने आपस में ऐसा तय नहीं किया था, बल्कि अपने आप ही ऐसा हो गया था। इस बालक को धोखा देना वे स्वयं अपने लिये अपमान की बात मानते। उसकी उपस्थिति में वे परिचितों की भांति आपस में बातचीत करते । किन्तु इस सावधानी के बावजूद व्रोन्स्की अक्सर इस लड़के को बहुत ध्यान और उलझन भरी दृष्टि से अपने को एकटक देखते पाता और अपने प्रति लड़के के व्यवहार में एक अजीब भीरुता, उतार-चढ़ाव, कभी स्नेह, तो कभी रुखाई और शर्मीलापन अनुभव करता। लड़का मानो यह महसूस करता था कि इस व्यक्ति और उसकी मां के बीच कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है, जिसकी महत्ता को समझने में वह असमर्थ है।

वास्तव में ही बालक यह अनुभव करता था कि वह इस सम्बन्ध को समझ नहीं सकता। वह बहुत कोशिश करता मगर उस भावना को अपने लिये स्पष्ट न कर पाता, जो इस व्यक्ति के प्रति उसके दिल में होनी चाहिये। अनुभूति - अभिव्यक्तियों के प्रति बालक की सहज सुग्रा- ह्यता के अनुरूप वह स्पष्टतः यह देखता था कि पिता, शिक्षिका और आया – ये सभी लोग व्रोन्स्की के बारे में चाहे कभी कहते कुछ नहीं थे, मगर उसे न केवल पसन्द ही नहीं करते थे, बल्कि उसके प्रति घृणा और भय का भाव भी दिखाते थे। दूसरी ओर मां उसे अपने सबसे अच्छे मित्र के रूप में देखती थी ।

इसका क्या मतलब है? कौन है यह ऐसा व्यक्ति ? कैसे मुझे उसे प्यार करना चाहिये? अगर मैं नहीं समझता, तो मैं दोषी हूँ, या मैं बुद्धू या बुरा लड़का हूं वह सोचता । यही कारण था उसकी दृष्टि के कुछ खोजते, प्रश्नसूचक और कुछ हद तक शत्रुतापूर्ण भाव का, उसकी उस भीरुता और व्यवहार के उतार-चढ़ाव का, जिनसे व्रान्स्की को इतनी अधिक परेशानी होती थी। इस बालक की उपस्थिति से व्रोन्स्की को हमेशा और अनिवार्य रूप से उस अजीब तथा अकारण घृणा - भावना की अनुभूति होती, जो वह पिछले कुछ समय से अनुभव करने लगा था। इस बालक की उपस्थिति से व्रोन्स्की और आन्ना के दिल में उस जहाज़ी जैसा ही भाव आता, जिसे कम्पास पर नज़र डालने से यह पता चल जाता है कि जिस दिशा में उसका जहाज़ तेज़ी से बढ़ता जा रहा है, वह सही दिशा से बहुत दूर है, लेकिन जहाज़ को रोकना उसके बस की बात नहीं, कि हर क्षण वह सही दिशा से अधिकाधिक दूर होता चला जा रहा है और उसके लिये यह स्वीकार करना कि वह रास्ते से भटक गया है वैसा ही है, जैसे कि अपने नाश को मान लेना ।

जीवन के प्रति अपनी भोली-भाली दृष्टि सहित यह बालक वह कम्पास था, जो उन्हें यह दिखाता था कि वे जिस सही दिशा को जानते हैं, किन्तु जिसे जानना नहीं चाहते, उससे कितना दूर हो गये हैं ।

इस बार सेर्योझा घर पर नहीं था । आन्ना एकदम अकेली थी और बरामदे में बैठी हुई बेटे के लौटने की राह देख रही थी, जो घूमने गया था और बारिश के कारण कहीं अटक गया था । आन्ना ने एक नौकर और नौकरानी को उसे ढूंढ़ने भेजा था और अब बैठी हुई इन्तज़ार कर रही था । वह कशीदकारी वाला सफ़ेद फ़ाक पहने पौधों के पीछे बरामदे में बैठी थी और उसे व्रोन्स्की के पैरों की आहट नहीं मिली। काले घुंघराले बालोंवाला अपना सिर झुकाये हुए वह जंगले की मुंडेर पर रखे पौधे सींचने के ठण्डे जल - पात्र से माथा सटाये थी और अपने सुन्दर हाथों से, जिनमें पहनी अंगूठियों से वह इतनी अच्छी तरह परिचित था, उसे थामे थी। आन्ना की सारी आकृति, उसके सिर, गर्दन, हाथों की सुन्दरता ने व्रोन्स्की को आज भी वैसे ही अप्रत्याशित रूप से चकित किया, जैसे कि हर बार करती थी। वह मुग्ध होकर उसे देखता हुआ रुक गया । व्रोन्स्की ने उसके नज़दीक होने के लिये क़दम बढ़ाना ही चाहा था कि आन्ना ने उसकी निकटता को अनुभव कर लिया, जल- पात्र को पीछे हटा दिया और अपना तमतमाया हुआ चेहरा उसकी ओर किया।

"क्या हुआ है आपको ? क्या तबीयत ठीक नहीं है ?" व्रोन्स्की ने उसकी तरफ़ बढ़ते हुए फ़्रांसीसी में कहा । वह भागकर उसके पास पहुंचना चाहता था, लेकिन यह ख्याल करके कि आस-पास दूसरे लोग भी हो सकते हैं, उसने छज्जे के दरवाज़े की ओर देखा और शर्म से लाल हो गया, जैसे कि हर बार ही यह अनुभव करते हुए कि उसे डरना और इधर-उधर देखना चाहिये, उसके चेहरे पर शर्म की लाली दौड जाती थी ।

"नहीं, मैं ठीक-ठाक हूं," उसने उठते और व्रोन्स्की का अपनी ओर बढ़ा हुआ हाथ ज़ोर से दबाते हुए कहा । “मैंने ... तुम्हारे आने की उम्मीद नहीं की थी ।"

"हे भगवान! कैसे ठण्डे हाथ हैं ! " व्रोन्स्की ने कहा ।

"तुमने मुझे डरा दिया वह बोली । “मैं अकेली हूं और सेर्योझा के आने का बाट जोह रही हूं। वे लोग यहीं से आयेंगे ।"

बेशक वह शान्त रहने की कोशिश कर रही थी, फिर भी उसके होंठ कांप रहे थे ।

"क्षमा कीजिये कि मैं यहां आ गया, लेकिन आपसे मिले बिना मेरे लिये दिन बिताना सम्भव नहीं था, वह फ्रांसीसी में कहता गया, जैसा कि हमेशा करता था, ताकि अपने सम्बन्धों में रूसी भाषा के औपचारिक “आप" तथा खतरनाक "तुम" से बच सके ।

"क्षमा करने की कौन-सी बात है ? मैं तो बहुत खुश हूं !"

"लेकिन या तो आपकी तबीयत अच्छी नहीं या आप किसी कारण परेशान हैं, " उसके हाथों को थामे हुए और उस पर झुककर व्रोन्स्की ने कहा ।

"किस चीज़ के बारे में सोच रही थीं आप ?"

"हमेशा एक ही चीज़ के बारे में सोचती हूं," आन्ना ने मुस्कराकर जवाब दिया ।

आन्ना ने बिल्कुल सच कहा था । उससे कभी, किसी भी क्षण क्यों न पूछा जाता कि वह किस चीज़ के बारे में सोच रही है, तो वह किसी भी तरह की भूल के बिना यह जवाब दे सकती थी - एक ही चीज़ के बारे में – अपने सुख और अपने दुख के बारे में। व्रोन्स्की के आने के समय वह सोच रही थी कि क्यों दूसरे लोगों के लिये, मसलन बेत्सी के लिये ( आन्ना ऊंचे समाज की नज़र से छिपे हुए तुश्केविच के साथ उसके सम्बन्ध के बारे में जानती थी ) यह सब कुछ इतना आसान था, जबकि उसके लिये इतना यातनाप्रद ? कुछ कारणों से यह विचार आज उसे ख़ास तौर पर यातना दे रहा था । आन्ना ने उससे घुड़दौड़ों के बारे में पूछा । व्रोन्स्की ने उसे जवाब दिया और यह देखते हुए कि आन्ना परेशान है, उसका ध्यान बंटाने के लिये वह बहुत ही साधारण अन्दाज़ में उसे घुड़दौड़ की तैयारियों के बारे में बताने लगा ।

"बताऊं या न बताऊं ? " व्रोन्स्की की शान्त और प्यार भरी आंखों में झांकते हुए वह सोच रही थी । वह इतना खुश है, अपनी घुड़दौड़ों में इतना व्यस्त है कि इस बात को जैसे समझना चाहिये, नहीं समझेगा, हमारे लिये इस घटना के पूरे महत्त्व को नहीं समझ पायेगा ।

"लेकिन आपने यह नहीं बताया कि जब मैं आया, तो आप किस बारे में सोच रही थीं," अपनी बात को अधूरी छोड़ते हुए उसने कहा कृपया, बताइये !

आन्ना ने जवाब नहीं दिया और थोड़ा सिर झुकाकर तथा भौंह चढ़ाकर लम्बी-लम्बी बरौनियों के पीछे चमकती आंखों से उसकी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा । तोड़े हुए पत्ते से खिलवाड़ करता हुआ उसका हाथ कांप रहा था । व्रोन्स्की ने यह देखा और उसके चेहरे पर आज्ञाकारिता, दासतापूर्ण अनुराग का वह भाव आ गया था, जो आन्ना को मुग्ध कर लेता था।

"मैं देख रहा हूं कि कोई बात हो गयी है । यह जानते हुए कि आप किसी ऐसी मुसीबत में हैं, जिसका मैं भागीदार नहीं हूं, क्या मैं क्षण भर को भी चैन अनुभव कर सकता हूं? भगवान के लिये बताइये ! " उसने मिन्नत करते हुए दोहराया ।

“हां, अगर वह इस बात के पूरे महत्त्व को नहीं समझेगा, तो मैं इसे क्षमा नहीं कर सकूंगी । न बताना ही बेहतर होगा, किसलिये इसकी परीक्षा ली जाये ?" उसी भांति व्रोन्स्की की ओर देखते और यह अनुभव करते हुए कि वह हाथ, जिसमें पत्ता है, अधिकाधिक कांप रहा है, आन्ना मन ही मन सोच रही थी ।

"भगवान के लिये !" उसने आन्ना का हाथ अपने हाथ में लेकर अपना अनुरोध दोहराया ।

"बताऊं ? "

"हां, हां, हां..."

"मुझे गर्भ रह गया है," आन्ना ने धीमी आवाज़ में धीरे-धीरे कहा । पत्ता उसके हाथ में और ज़ोर से सिहर उठा, मगर वह उसके चेहरे पर नज़र गड़ाये रही, ताकि यह देख सके कि इस खबर का उस पर क्या असर होता है । व्रोन्स्की के चेहरे का रंग उड़ गया, उसने कुछ कहना चाहा, मगर रुक गया, उसका हाथ छोड़ दिया और सिर झुका लिया । "हां, उसने इस घटना के सारे महत्त्व को समझ लिया है," आन्ना ने सोचा और कृतज्ञता से उसका हाथ दबाया ।

लेकिन उसका ऐसा सोचना गलत था कि व्रोन्स्की ने इस खबर का महत्त्व वैसे ही समझा था, जैसे वह एक नारी के रूप में समझती थी। इस ख़बर से उसने पिछले कुछ समय से किसी के प्रति अनुभव होनेवाली घृणा की अजीब भावना को दस गुना अधिक तीव्रता के साथ महसूस किया। लेकिन साथ ही वह यह भी समझ गया कि वह जिस संकट की राह देख रहा था, वह अब आकर रहेगा, कि उसके पति से अब और अधिक छिपाव सम्भव नहीं था तथा इस अस्वाभाविक स्थिति को किसी न किसी तरह ख़त्म करना होगा। लेकिन इसके अलावा आन्ना की बेचैनी को उसने शारीरिक रूप से अनुभव किया । उसने प्यार और अधीनता की दृष्टि से आन्ना की ओर देखा, उसका हाथ चूमा, उठा और चुपचाप बरामदे का चक्कर लगाया।

"हां," दृढ़ता से उसके पास आकर उसने कहा। न तो आपने और न ही मैंने हमारे सम्बन्धों को खेल समझा था और अब हमारे भाग्य का निर्णय हो गया है। हमें उस झूठ को ख़त्म करना होगा, उसने इधर-उधर नज़र दौड़ाई, “ जिसमें हम जी रहे हैं ।"

"खत्म करना होगा ? लेकिन कैसे ख़त्म किया जाये, अलेक्सेई ?" उसने धीमे से पूछा ।

वह अब शान्त हो चुकी थी और उसके चेहरे पर स्निग्ध मुस्कान की चमक थी ।

"पति को छोड़ दो और हम दोनों बन्धन में बंध जायें ।"

"हम तो वैसे ही बंधे हुए हैं," मुश्किल से सुनाई देनेवाली धीमी आवाज़ में उसने जवाब दिया ।

"हां, लेकिन पूरी तरह बिल्कुल पूरी तरह ।"

"मगर, अलेक्सेई, यह बताओ कि कैसे ?" अपनी स्थिति की लाचारी पर उदासी भरी व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ उसने कहा । "क्या ऐसी परिस्थिति में भी कोई रास्ता है ? क्या मैं अपने पति की पत्नी नहीं हूं ?"

"हर परिस्थिति से निकलने का कोई न कोई रास्ता होता है। हमें निर्णय करना चाहिये," उसने कहा । "उस परिस्थिति से, जिसमें तुम जी रही हो, सभी कुछ बेहतर होगा। क्या मैं यह नहीं देख रहा हूं कि कैसे तुम सभी बातों के बारे में, ऊंचे समाज, बेटे और पति के सिलसिले में यातना सह रही हो ? "

"आह, पति के बारे में नहीं,” उसने सरल मुस्कान के साथ कहा । " मैं उसे नहीं जानती, मैं उसके बारे में नहीं सोचती। मेरे लिये उसका अस्तित्व ही नहीं है ।"

"तुम दिल की बात नहीं कह रही हो । मैं तुम्हें जानता हूं। तुम उसके बारे में भी यातना सहती हो ।"

"वह तो कुछ जानता ही नहीं, " उसने कहा और अचानक उसके चेहरे पर गहरी सुर्खी छाने लगी- उसके गाल, माथे और गर्दन पर । आंखों में शर्म के आंसू छलछला आये। “हम उसकी चर्चा नहीं करेंगे ।"

अन्ना करेनिना : (अध्याय 23-भाग 2)

व्रोन्स्की कई बार ऐसी कोशिश कर चुका था, यद्यपि इस समय जैसी दृढ़ता से नहीं, कि आन्ना को अपनी स्थिति पर विचार करने को विवश करे और हर बार उसे ऐसे ही सतही तथा हल्के-फुल्के विचारों का सामना करना पड़ा था, जैसे उसकी चुनौती के जवाब में उसने इस वक़्त व्यक्त किये थे। इसमें मानो कुछ ऐसा था, जिसे वह अपने लिये स्पष्ट करने में असमर्थ थी या ऐसा नहीं चाहती थी, मानो वह जैसे ही इसकी चर्चा शुरू करती थी, वह असली आन्ना, कहीं अपने में ही सिकुड़-सिमट जाती थी और कोई दूसरी, अजीब तथा उसके लिये परायी औरत सामने आ जाती थी, जो उसे अच्छी नहीं लगती थी, जिससे वह डरता था और जो उसका मुंह बन्द कर देती थी । लेकिन व्रोन्स्की ने आज सभी कुछ कह देने का निर्णय कर लिया ।

"वह जानता है या नहीं जानता," अपने सामान्य रूप से दृढ़ और शान्त अन्दाज़ में उसने कहा, "वह जानता है या नहीं, हमें इससे मतलब नहीं। हम ऐसे ... आप ऐसे नहीं रह सकतीं, खासकर अब।"

"तो आपके ख्याल में क्या करना चाहिये ?” आन्ना ने पहले जैसे हल्के व्यंग्यात्मक अन्दाज़ में पूछा। आन्ना, जिसे इस बात का डर था कि वह कहीं उसके गर्भवती हो जाने के बारे में लापरवाही न दिखाये, अब इस बात से परेशान हो रही थी कि इससे उसने कोई क़दम उठाने की ज़रूरत का नतीजा निकाला है ।

"उससे सब कुछ कह दो और उसे छोड़ दो।"

"चलिये, मान लीजिये कि मैं ऐसा करती हूं," उसने कहा, "जानते हैं कि इसका क्या नतीजा निकलेगा ? मैं आपको पहले से ही सब कुछ बता देती हूं," -और एक ही क्षण पहले उसकी स्नेहपूर्ण आंखों में द्वेषपूर्ण चमक आ गयी । "' तो आपने किसी दूसरे को प्यार करती हैं और उसके साथ आपने अपराधपूर्ण सम्बन्ध जोड़ा है ?'" ( वह अपने पति की नक़ल कर रही थी और उसी भांति जैसे कारेनिन करता, उसने “ अपराधपूर्ण " शब्द पर जोर दिया। ) "'मैंने आपको धार्मिक, नागरिक और पारिवारिक दृष्टियों से इसकी चेतावनी दे दी थी। आपने मेरी बात पर कान नहीं दिया। अब मैं अपने ...' 'और अपने बेटे के...'" - उसने कहना चाहा, मगर बेटे के बारे में मज़ाक़ नहीं कर सकती थी- "'नाम को बेइज़्ज़त नहीं होने दे सकता । मैं अपने नाम को बेइज़्ज़त नहीं करूंगा' और ऐसा ही कुछ और कहेगा," उसने जोड़ा। "कुल मिलाकर वह अपने राजकीय ढंग, स्पष्टता और अचूकता से कहेगा कि मुझे जाने नहीं देगा, मगर बदनामी से बचने के लिये वे सभी उपाय करेगा, जो उसके लिये सम्भव हैं । वह जो कुछ कहेगा, उसे बड़े शान्त और अच्छे ढंग से पूरा करेगा । तो यह होगा। वह इन्सान नहीं, मशीन है, और जब गुस्से में हो, तो क्रूर मशीन है,” उसने कारेनिन की आकृति, बातचीत के ढंग और स्वभाव की सभी तफ़सीलों को याद करके और उसमें जो कुछ भी बुरा मिल सकता था, उसके मत्थे मढ़कर तथा उसके सम्मुख अपने भयानक अपराध के लिये उसे कुछ भी क्षमा न करते हुए उक्त शब्द और जोड़ दिये ।

“ लेकिन आन्ना,” व्रोन्स्की ने उसे शान्त करते हुए आग्रहपूर्ण और कोमल आवाज़ में कहा, "फिर भी उसे बताना और वह जो क़दम उठायेगा, उसके मुताबिक़ कुछ करना होगा ।"

"तो क्या भाग चलें ? "

"क्यों न भागा जाये ? मैं ऐसी स्थिति को बनाये रखना सम्भव नहीं समझता । सो भी सवाल मेरा नहीं है - मैं देख रहा हूं कि आप यातना सहती हैं । "

“हां, भाग जायें और मैं आपकी रखेल बन जाऊं ?” उसने द्वेषपूर्वक कहा ।

"आन्ना !" व्रोन्स्की ने प्यार से उसकी भर्त्सना की ।

"हां," वह कहती गयी, "आपकी रखेल बन जाऊं और सब कुछ तबाह कर डालूं .."

आन्ना ने फिर से "बेटा" कहना चाहा, मगर यह शब्द उसके मुंह से निकल नहीं सका ।

व्रोन्स्की यह नहीं समझ पा रहा था कि अपने इतने दृढ़ और निष्कपट स्वभाव के बावजूद वह छल-फ़रेब की इस स्थिति को कैसे बर्दाश्त कर सकती थी और इससे मुक्त नहीं होना चाहती थी । लेकिन वह यह नहीं भांप सका कि इसका मुख्य कारण वह "बेटा" शब्द था, जिसे आन्ना कह नहीं पायी थी। जब वह बेटे और उसके बाप को छोड़ देनेवाली मां के प्रति उसके भावी रुख के बारे में सोचती थी, तो अपनी करनी के लिये उसे इतना डर महसूस होता था कि सोच-विचार करने के बजाय नारी की भांति अपने को झूठे तर्कों और शब्दों से इसी हेतु तसल्ली देने की कोशिश करती कि सभी कुछ पहले की तरह ही बना रहे और इस भयानक प्रश्न को भुलाया जा सके कि बेटे का क्या होगा ।

"मैं तुमसे अनुरोध, तुम्हारी मिन्नत करती हूं," अचानक व्रोन्स्की का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उसने बिल्कुल दूसरी, निश्छल और प्यार भरी आवाज़ में कहा, "मुझसे इस बारे में कभी बात नहीं करना !"

"लेकिन, आन्ना ... "

"कभी भी नहीं । यह मुझ पर छोड़ दो। अपनी स्थिति की तुच्छता, उसकी सारी भयानकता मैं जानती हूं, लेकिन यह सवाल हल करना उतना आसान नहीं, जितना तुम समझते हो। यह मुझ पर छोड़ दो और जो मैं कहती हूं, वह करो। मेरे साथ कभी इसकी चर्चा नहीं करना। वादा करते हो ? ...नहीं, नहीं, तुम वादा करो !..."

"मैं हर चीज़ का वादा करता हूं, लेकिन मुझे चैन नहीं मिल सकता, ख़ास तौर पर उसके बाद, जो तुमने कहा है । जब तुम्हें चैन नहीं है, तो मैं कैसे चैन से रह सकता हूं..."

"मुझे ! " आन्ना ने दोहराया । "हां, मैं कभी-कभी बहुत परेशान हो उठती हूं। लेकिन अगर तुम मुझसे इस बारे में कोई बात नहीं करोगे, तो यह परेशानी दूर हो जायेगी । जब तुम मुझसे इसकी चर्चा करते हो, केवल तभी मैं इससे संतप्त होती हूं ।"

"मैं समझ नहीं पा रहा हूं,” उसने कहा।

"मैं जानती हूं, आन्ना ने उसकी बात काटी, " तुम्हारे निश्छल स्वभाव के लिये झूठ बोलना कितना बोझिल होता होगा और मुझे तुम पर तरस आता है। मैं अक्सर यह सोचती हूं कि मेरे लिये कैसे तुमने अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर डाली है ।"

"मैं भी अभी यही सोच रहा था," व्रान्स्की ने कहा, " कैसे तुमने मेरे लिये सब कुछ कुर्बान कर दिया ? तुम्हारी बदकिस्मती के लिये मैं अपने को क्षमा नहीं कर सकता ।"

"मैं बदक़िस्मत हूं ?" उसने व्रोन्स्की के निकट होते हुए कहा और प्यार की उल्लासपूर्ण मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा, " मैं उस भूखे आदमी जैसी हूं, जिसे खाना दिया गया है। मुमकिन है कि उसे ठण्ड लगती हो, उसकी पोशाक फटी-पुरानी हो, उसे शर्म आती हो, मगर वह बदक़िस्मत नहीं हो सकता। मैं बदक़िस्मत हूं ? नहीं, यह रहा मेरा सुख-सौभाग्य ..."

आन्ना को घर लौटते हुए बेटे की आवाज़ सुनाई दी और वह बरामदे में तेज़ी से इधर-उधर नज़र दौड़ाकर झटपट उठी। उसकी आंखों में व्रोन्स्की की जानी-पहचानी चमक आ गयी, उसने फुर्ती से अपने सुन्दर, अंगूठियों से सुशोभित हाथ ऊपर उठाये, व्रोन्स्की का सिर अपने हाथों में साधा, देर तक उसे ध्यान से निहारा और खुले तथा मुस्कराते होंठों वाला अपना चेहरा नज़दीक ले जाकर उसका मुंह चूमा, दोनों आंखें चूमीं और उसे परे धकेल दिया । उसने जाना चाहा, मगर व्रोन्स्की ने उसे रोक लिया ।

"कब ?” उसने आन्ना की ओर उल्लासपूर्वक देखते हुए फुसफुसाकर पूछा।

"आज रात के एक बजे," आन्ना फुसफुसायी और गहरी सांस लेकर अपनी हल्की-फुल्की और तेज़ चाल से बेटे की तरफ़ चल दी । जब बारिश आयी, तो सेर्योझा बड़े बाग़ में था और आया के साथ कुंज में बैठा रहा था।

"तो नमस्ते," आन्ना ने व्रोन्स्की से कहा । "अब जल्द ही घुड़दौड़ों के लिये जाना होगा । बेत्सी ने वादा किया है कि वह मुझे अपने साथ ले जायेगी । "

"व्रोन्स्की ने घड़ी पर नज़र डाली और तेज़ी से बाहर चल दिया ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 24-भाग 2)

व्रोन्स्की ने जब कारेनिनों के छज्जे में घड़ी पर नज़र डाली थी, तो वह इतना अधिक परेशान और अपने ख़्यालों में खोया हुआ था कि उसने सुइयां तो देखीं, मगर यह समझ नहीं पाया कि क्या वक़्त हुआ है। वह सड़क पर गया और कीचड़ को सावधानी से लांघता हुआ अपनी बग्घी की ओर बढ़ चला। वह आन्ना के प्रति भावनाओं से इतना ओत-प्रोत था कि उसने यह सोचा ही नहीं कि क्या बजा है और उसके पास ब्रियान्स्की के यहां जाने का वक़्त है या नहीं । जैसा कि बहुधा होता है, उसकी स्मृति की वह बाहरी क्षमता ही बनी रही, जो यह संकेत करती है कि किस चीज़ के बाद क्या करने का निर्णय किया गया है। वह अपने कोचवान के पास पहुंचा, जो घने लाइम वृक्ष की तिरछी हो चुकी छाया में अपने बक्स पर ऊंघ रहा था, उसने पसीने से तर घोड़ों के ऊपर बादलों की तरह मंडराते छोटे मच्छरों के झुण्डों को मुग्धता से निहारा, कोचवान को जगाकर बग्घी में सवार हुआ और ब्रियान्स्की के यहां चलने का आदेश दिया। कोई दस किलोमीटर का रास्ता तय करने पर ही उसे घड़ी देखने का होश आया, वह यह समझ पाया कि साढ़े पांच बजे हैं और उसे देर हो गयी है।

उस दिन कई घुड़दौड़ें होनेवाली थीं- घुड़सवार रक्षकों की घुड़दौड़, उसके बाद ढाई किलोमीटर की अफ़सरों की घुड़दौड़ और पांच किलोमीटर की वह घुड़दौड़, जिसमें उसे हिस्सा लेना था । अपनी घुड़दौड़ शुरू होने के वक़्त तक वह पहुंच सकता था, लेकिन अगर ब्रियान्स्की के यहां गया, तो केवल तभी पहुंचेगा, जब राजदरबार के सभी लोग वहां आ चुके होंगे। यह अच्छा नहीं था । किन्तु उसने ब्रियान्स्की को वचन दिया था कि उसके यहां आयेगा और इसलिये आगे चलने का ही निर्णय किया और कोचवान से यह कह दिया कि घोड़ों पर दया न करे ।

वह ब्रियान्स्की के यहां पहुंचा, पांच मिनट वहां रुका और वापस हो लिया। इस तेज़ सवारी ने उसे शान्त कर दिया । आन्ना के साथ उसके सम्बन्धों में जो कुछ बोझिल था, उनकी बातचीत के बाद जो कुछ अस्पष्ट और अनिश्चित रह गया था, वह सब उसके दिमाग़ से निकल गया। वह आनन्दित और उत्तेजित होकर अब घुड़दौड़ के बारे में तथा यह सोचने लगा कि आखिर तो वक़्त पर पहुंच जायेगा और कभी-कभी आज रात को होनेवाले मधुर मिलन की खुशी प्रखर प्रकाश की भांति उसकी कल्पना में कौंध जाती ।

जैसे-जैसे पीटर्सबर्ग और देहाती बंगलों से रेस कोर्स की ओर जाने- वाली बग्घियों को पीछे छोड़ता हुआ वह घुड़दौड़ के वातावरण में अधिकाधिक पहुंचता जा रहा था, कुछ देर बाद होनेवाली घुड़दौड़ की उत्तेजना उस पर अधिकाधिक हावी होती जा रही थी ।

अपने घर पर उसे कोई भी नहीं मिला - सभी रेस कोर्स में जा चुके थे और उसका अर्दली फाटक के पास उसका इन्तज़ार कर रहा था। व्रोन्स्की जब कपड़े बदल रहा था, तो अर्दली ने खबर दी कि दूसरी घुड़दौड़ शुरू हो चुकी है, कि बहुत से लोग उसके बारे में पूछने आ चुके हैं और अस्तबल का लड़का दो बार यहां चक्कर लगा गया है। उतावली किये बिना ( व्रोन्स्की कभी उतावली नहीं करता था और आत्मसंतुलन नहीं खोता था ) उसने कपड़े बदले और बैरकों की ओर चलने का आदेश दिया। बैरकों से उसे रेस कोर्स को घेरे हुए बग्घियों, पैदल लोगों और सैनिकों का सागर तथा दर्शक- मंडपों मैं ठसाठस भरे लोग दिखाई दे रहे थे। सम्भवतः दूसरी घुड़दौड़ चल रही थी, क्योंकि जब वह बैरक में दाखिल हुआ, तो उसे घण्टी सुनाई दी। अस्तबल के निकट पहुंचने पर उसे रेस कोर्स की ओर ले जाया जानेवाला मखोतिन का सफ़ेद टांगों वाला लाल घोड़ा, ग्लादियातर, दिखाई दिया। उस पर नारंगी - नीले रंग का भूल बिछा था और उसके कान नीली झालर के कारण बड़े-बड़े लग रहे थे ।

" कोर्ड कहां है ?"

"अस्तबल में, ज़ीन कस रहे हैं ।"

फ़्रू-फ़्रू के स्टाल का दरवाज़ा खुला था। उस पर ज़ीन कसा जा चुका था और वह बाहर लायी जाने वाली ही थी ।

"मुझे देर तो नहीं हो गयी ?"

“All right! All right ! सब ठीक है, सब ठीक है, " अंग्रेज़ ने कहा, "उत्तेजित नहीं होइयेगा ।"

व्रोन्स्की ने सिर से पांव तक कांपती घोड़ी की सुन्दर अंग - रचना पर एक बार फिर दृष्टि डाली और मुश्किल से नज़र हटाकर अस्तबल से बाहर निकला। इस दृष्टि से कि उसकी ओर किसी का ध्यान न जाये, वह बहुत अनुकूल समय पर दर्शक - मंडपों के पास पहुंचा। ढाई किलोमीटर की घुड़दौड़ खत्म हो रही थी और सभी की नज़रें घुड़सेना के गार्ड अफ़सर, जो आगे था, और शाही हुस्सार पर, जो उसके पीछे था, जमी हुई थीं । वे दोनों अपने घोड़ों की बची - बचायी अन्तिम शक्ति पर ज़ोर डालते हुए उन्हें समाप्ति-स्तम्भ की ओर दौड़ा रहे थे। घेरे के बीच और बाहर से सभी लोग समाप्ति - स्तम्भ के गिर्द जमा हो गये थे और घुड़सेना के गार्ड के फ़ौजी तथा अफ़सर अपने अफ़सर और साथी की जीत की आशा करते हुए ऊंचे-ऊंचे चिल्लाकर अपनी खुशी ज़ाहिर कर रहे थे । व्रोन्स्की किसी की नज़र में आये बिना चुपके से उस समय भीड़ में घुस गया, जब दौड़ की समाप्ति की घण्टी बजी और लम्बा-तड़गा गार्ड अफ़सर, जो प्रथम रहा था और जिस पर कीचड़ के धब्बे पड़े हुए थे, काठी पर झुककर पसीने से तर होने के कारण काला दिखने तथा बुरी तरह हांफते हुए भूरे घोड़े की लगाम ढीली छोड़ रहा था ।

ज़ोर से पांव रखते हुए बड़े शरीर वाले घोड़े ने अपनी चाल धीमी की और गार्ड अफ़सर ने मानो बोझिल नींद के बाद जागते हुए अपने इर्द-गिर्द नज़र घुमाई तथा यत्न करके मुस्कराया। अपनों और परायों की भीड़ ने उसे घेर लिया था ।

व्रोन्स्की चुने हुए ऊंचे समाज की उस भीड़ से जान बूझकर बचा, जो दर्शक-मण्डपों के सामने संयत और मुक्त ढंग से चल-फिर तथा बातचीत कर रही थी । उसे मालूम था कि आन्ना, बेत्सी और उसकी अपनी भाभी भी वहां है, मगर जान-बूझकर, ताकि उसका ध्यान दूसरी ओर न जाये, वह उनके क़रीब नहीं गया। लेकिन लगातार मिलनेवाले जान-पहचान के लोग उसे रोकते, अब तक हो चुकी घुड़दौड़ों की ताफ़सीलें बताते और उससे पूछते कि उसे आने में क्यों देर हो गयी ।

जिस समय दौड़ में भाग ले चुके घुड़सवारों को इनाम देने के लिये दर्शक - मण्डप में बुलाया गया और सभी लोगों का ध्यान उधर केन्द्रित हो गया, तो व्रोन्स्की का बड़ा भाई कर्नल अलेक्सान्द्र, जिसके कंधों पर पद चिन्हों के भारी झब्बे लगे थे, उसके पास आया। मझोले क़द और अलेक्सेई की ही भांति मज़बूत काठी वाला उसका बड़ा भाई उससे अधिक सुन्दर और लाल-लाल गालोंवाला था, उसकी नाक भी लाल थी और उसके निश्छल चेहरे पर नशे की साफ़ झलक मिल रही थी । तुम्हें मेरा रुक़्क़ा मिला ?” उसने पूछा । "तुम तो कभी मिलते ही नहीं । "

अलेक्सान्द्र व्रोन्स्की अपनी लंपट, विशेषकर पियक्कड़पन की ज़िन्दगी के बावजूद, जिसके लिये मशहूर था, राजदरबार का आदमी था । इस समय छोटे भाई के साथ सर्वथा कटु बातचीत करते और यह जानते हुए कि बहुत से लोगों की नज़रें उन पर केन्द्रित हो सकती हैं, वह मुस्कराने का भाव बनाये रहा ताकि लोग यही समझें कि किसी मामूली-सी बात पर भाई के साथ हंसी-मज़ाक चल रहा है।

"तुम्हारा रुक़्क़ा मुझे मिल गया और सचमुच समझ में नहीं आता कि तुम किस बात के लिये परेशान हो, ” अलेक्सेई ने कहा ।

"मैं इस बात के लिये परेशान हूं कि अभी मुझे यह बताया गया कि तुम यहां नहीं आये और यह कि सोमवार को तुम्हें पीटरहोफ़ में देखा गया ।"

"कुछ ऐसे मामले होते हैं, जिन पर प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखनेवाले लोगों को ही विचार-विनिमय करना चाहिये और तुम जिस मामले के बारे में चिन्तित हो रहे हो, ऐसा ही है ..."

"हां, लेकिन तब सेना से भी अलग हो जाना चाहिये, तब ..."

"मैं तुमसे इस मामले में दखल न देने का अनुरोध करता हूं बस इतना ही।"

तनी हुई भौंहों वाले अलेक्सेई व्रोन्स्की का चेहरा पीला पड़ गया और उसका आगे को निकला हुआ निचला जबड़ा कांप उठा, जैसा कि उसके साथ बहुत कम होता था । बहुत दयालु हृदयवाले व्यक्ति के नाते उसे बहुत कम गुस्सा आता था, लेकिन जब उसे गुस्सा आता था और उसकी ठोड़ी कांपने लगती थी, तो जैसा कि अलेक्सान्द्र जानता था, वह ख़तरनाक आदमी होता था । अलेक्सान्द्र व्रोन्स्की खुश- मिज़ाजी से मुस्करा दिया ।

"मैं तो सिर्फ़ मां का खत तुम्हें देना चाहता था । उसे जवाब लिख भेजना और घुड़दौड़ से पहले अपना मूड ख़राब नहीं करो। Bonne chance1,” उसने मुस्कराकर इतना और कहा तथा उससे दूर हट गया ।

1. सफलता की कामना करता हूं । ( फ़्रांसीसी )

लेकिन उसके फ़ौरन बाद ही दोस्ताना ढंग की सलाम- दुआ ने उसे फिर रोक लिया ।

"यार-दोस्तों को पहचानना नहीं चाहते ! नमस्ते, mon cher1!” ओब्लोन्स्की ने कहा और यहां, पीटर्सबर्ग की चमक-दमक में भी उसका लाल-लाल गालोंवाला चेहरा तथा ढंग से संवारी हुई लम्बी-मोटी, चमकीली क़लमें मास्को की तुलना में कुछ कम लौ नहीं दे रही थीं । " मैं कल आया था और मुझे इस बात की बहुत खुशी है कि तुम्हारी जीत का झण्डा लहराया जाता देखूंगा। कब मुलाक़ात होगी ?”

1. मेरे प्यारे। ( फ़ांसीसी )

"कल हमारे सैनिक भोजनालय में आ जाना," व्रोन्स्की ने कहा और ओब्लोन्स्की के कोट की आस्तीन दबाकर क्षमा मांगते हुए रेस-कोर्स के बीच चला गया, जहां बाधाओं सहित बड़ी घुड़दौड़ के लिये घोड़े लाये जाने लगे थे । घुड़दौड़ में हिस्सा ले चुके पसीने से तर और बुरी तरह थके-हारे घोड़ों को उनके सईस वापस ले जा रहे थे और अगली घुड़दौड़ के लिये एक के बाद एक नया और ताज़ादम घोड़ा सामने आ रहा था । इनमें से अधिकांश अंग्रेज़ी घोड़े थे और हुडों तथा कसे हुए पेटों वाले ये घोड़े अजीब क़िस्म के विराट पक्षियों जैसे लगते थे। दायीं ओर दुबली-पतली और सुन्दर फ़्रू-फ़्रू को इधर-उधर ले जाया जा रहा था, जो अपने लचीले तथा काफ़ी लम्बे टखनों पर ऐसे चल रही थी मानो वहां स्प्रिंग लगे हों। उसके क़रीब ही लम्बे कानोंवाले ग्लादियातर का झूल उतारा जा रहा था। उसकी सुन्दर, सुघड़ आकृति तथा मज़बूत पुट्ठों और असाधारण रूप से छोटे, सुमों के ऊपर ही सटे हुए टखनों ने बरबस व्रोन्स्की का ध्यान अपनी ओर खींच लिया । व्रोन्स्की अपनी फ़्रू-फ़्रू के पास जाना चाहता था, मगर जान-पहचान के किसी आदमी ने उसे फिर रोक लिया।

" लो, वह रहा कारेनिन !" उस परिचित ने कहा, जिससे वह बातचीत कर रहा था । "बीवी को ढूंढ़ रहा है और वह दर्शक-मण्डप के मध्य में है । आपने उसे नहीं देखा ?"

"नहीं, नहीं देखा, " व्रोन्स्की ने जवाब दिया और उस दर्शक- मण्डप की ओर मुड़कर देखे बिना ही जिधर कारेनिना की ओर संकेत किया गया था, वह अपनी घोड़ी के पास गया ।

व्रोन्स्की ने काठी की जांच की ही थी, जिसके बारे में कुछ हिदायत देना ज़रूरी था, कि घुड़दौड़ में हिस्सा लेनेवालों को अपने नम्बर निकालने और घुड़दौड़ शुरू करने के लिये मण्डप में बुला लिया गया । गम्भीर, कठोर और कुछ ज़र्द चेहरों के साथ सत्रह अफ़सर मण्डप में आये और उन्होंने अपने नम्बर निकाले । व्रोन्स्की को सात नम्बर मिला ।

"सवार हो जाइये !” आदेश सुनाई दिया।

यह अनुभव करते हुए कि घुड़दौड़ में हिस्सा लेनेवाले अन्य लोगों के साथ वह सभी की नज़रों का केन्द्र बिन्दु है, व्रोन्स्की तनाव की उस स्थिति में, जिसमें आम तौर पर उसकी गतिविधि धीमी और शान्त हो जाती थी, अपनी घोड़ी के क़रीब आया । कोर्ड घुड़दौड़ के समारोह के सम्मान में खूब बना-ठना हुआ था। वह बटन बन्द काला फ़्रॉककोट, कलफ़ लगा अकड़ा हुआ कालर, जो उसके गालों को छू रहा था, गोल काला टोप और घूटनों तक के बूट पहने था। वह हमेशा की भांति शान्त और धीर - गम्भीर था और स्वयं ही घोड़ी की दोनों लगामों को थामकर उसके सामने खड़ा था। फ़्रू-फ़्रू ऐसे ही कांपती जा रही थी मानो उसे जूड़ी आ रही हो। उसने निकट आते व्रोन्स्की को अपनी दहकती - सी आंख की कनखी से देखा । व्रोन्स्की ने ज़ीन की पेटी के नीचे उंगली घुसेड़ी। घोड़ी ने उस पर और अधिक तिरछी नज़र डाली, दांत दिखाये और कान दाबे । अंग्रेज़ ने होंठों पर बल डाल लिये और इस बात पर मुस्कराना चाहा कि उसके कसे हुए जीन को भी कोई जांचने की ज़रूरत महसूस कर सकता है ।

"सवार हो जाइये, कम उत्तेजना अनुभव करेंगे। "

व्रोन्स्की ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों की ओर अन्तिम बार दृष्टि घुमायी । वह जानता था कि दौड़ के समय उन्हें नहीं देख पायेगा । उनमें से दो अपने घोड़ों पर सवार दौड़ शुरू होने की जगह की तरफ़ जा भी रहे थे । व्रोन्स्की का दोस्त और एक खतरनाक प्रतिद्वन्द्वी गालत्सिन अपने कुम्मैत घोड़े के इर्द-गिर्द, जो उसे सवार नहीं होने दे रहा था, चक्कर काट रहा था। तंग बिरजिस पहने नाटा हुस्सार अफ़सर अपने घोड़े को सरपट दौड़ाता और अंग्रेज़ों के ढंग की नक़ल करने की इच्छा से बिल्ले की भांति उसके पुट्ठे पर झुका हुआ था। प्रिंस कुज़ोव्लेव बढ़िया, ग्राबोव्स्की नसल की घोड़ी पर ज़र्द चेहरा लिये बैठा था और एक अंग्रेज़ लगामें थामे उसे ले जा रहा था । व्रोन्स्की और उसके सभी साथी कुज़ोव्लेव तथा उसकी " कमज़ोर स्नायुओं" और अत्यधिक अहंमन्यता की विशेषता से परिचित थे । उन्हें मालूम था कि वह सभी चीज़ों से डरता है, फ़ौजी घोड़े पर सवारी करते हुए घबराता है, लेकिन अब इसीलिये कि यह खतरनाक था कि लोग अपनी गर्दनें तोड़ लेते थे और हर बाधा के पास डाक्टर था, रेडक्रास के निशान वाली एम्बुलेन्स गाड़ी और नर्स खड़ी थी, उसने घुड़दौड़ में हिस्सा लेने का निर्णय किया था। उनकी नज़रें मिलीं और व्रोन्स्की ने स्नेहपूर्वक तथा उसकी हिम्मत बढ़ाते हुए उसे आंख मारी । किन्तु ग्लादियातर घोड़े पर सवार अपना प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी मखोतिन उसे दिखाई नहीं दिया।

"उतावली नहीं कीजिये " कोर्ड ने व्रोन्स्की से कहा, " और एक बात याद रखिये - बाधा के निकट इसे न तो रोकिये और न तेज़ी से बढ़ाइये, इसे अपनी इच्छानुसार कूदने दीजिये । "

" ठीक है, ठीक है, " लगामें थामते हुए व्रोन्स्की ने कहा ।

"अगर सम्भव हो, तो सबसे आगे रहिये, लेकिन अगर आप पीछे भी हों, तो अन्तिम क्षण तक हिम्मत नहीं हारिये ।"

घोड़ी हिल-डुल भी नहीं पायी कि व्रोन्स्की बड़ी फुर्ती और लचीलेपन से दांतेदार इस्पाती रकाब में खड़ा हो गया और जीन के चरमराते चमड़े पर उसने आसानी से अपने सुगठित शरीर का आसन जमा लिया । दायां पांव भी रकाब में डालने के बाद उसने अभ्यस्त ढंग से दोनों लगामों को उंगलियों के बीच बराबर किया और कोर्ड ने अपने हाथ हटा लिये। फ़्रू-फ़्रू जैसे यह न जानते हुए कि कौन-सा क़दम पहले आगे बढ़ाये अपनी लम्बी गर्दन से लगाम को खींचते हुए मानो स्प्रिंगों पर आगे बढ़ी, जिससे उसकी लचीली पीठ पर बैठा सवार कुछ डोल गया। तेज़ी से क़दम बढ़ाता हुआ कोर्ड इनके पीछे-पीछे चलने लगा । उत्तेजित घोड़ी सवार को धोखा देने की कोशिश करते हुए कभी एक, तो कभी दूसरी लगाम को खींचती और व्रोन्स्की अपनी आवाज़ तथा हाथ से उसे शान्त करने का बेकार यत्न कर रहा था।

वे उस स्थान की ओर जाते हुए, जहां से दौड़ शुरू होनी थी, बांधवाली नदी के क़रीब पहुंच चुके थे । घुड़दौड़ में भाग लेनेवाले बहुत-से सवार आगे और बहुत-से पीछे थे कि अचानक व्रोन्स्की को अपने पीछे कीचड़ में से सरपट दौड़े आते घोड़े की टापें सुनाई दीं और सफ़ेद टांगों तथा बड़े कानोंवाले ग्लादियातर पर मखोतिन उससे आगे निकल गया। मखोतिन अपने लम्बे-लम्बे दांत दिखाता हुआ मुस्कराया, लेकिन व्रोन्स्की ने गुस्से से उसकी तरफ़ देखा । व्रोन्स्की उसे यों भी पसन्द नहीं करता था और अब उसे सबसे ज़्यादा ख़तरनाक प्रतिद्वन्द्वी मानता था। उसे उस पर इसलिये गुस्सा आ रहा था कि वह क़रीब से सरपट घोड़ा दौड़ाते हुए निकल गया था और इस तरह उसने उसकी घोड़ी को उत्तेजित कर दिया था। फ़ू-फ़ू ने सरपट दौड़ने के लिये बायां पांव आगे बढ़ाया और दो बार उछली तथा कसी हुई लगामों पर झुंझलाते हुए सवार को झकझोरनेवाले झटकों की दुलकी चाल से दौड़ने लगी। कोर्ड की भी त्योरी चढ़ गयी और लगभग दुगामा चाल से ही वह व्रोन्स्की के पीछे-पीछे दौड़ने लगा ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 25-भाग 2)

कुल सत्रह अफ़सर घुड़दौड़ में भाग ले रहे थे । घुड़दौड़ कोई पांच किलोमीटर के बड़े अण्डाकार घेरे में दर्शक - मण्डप के सामने होनेवाली थी। इस घेरे में नौ बाधायें बनायी गयी थीं - नदी, दर्शक-मण्डप के सामने कोई डेढ मीटर ऊंचा अवरोध, सूखी खाई, पानी से भरी खाई. ढाल, आयरलैंडी बैंक ( एक सबसे कठिन बाधा ), जिसमें टहनियों से ढका हुआ पुश्ता, और उसके पीछे घोड़े को नज़र न आनेवाली एक अन्य खाई थी, जहां घोड़े को या तो दोनों बाधाओं को लांघना या अपनी जान गंवानी थी, उसके बाद पानी से भरी हुई दो अन्य खाइयां और एक सूखी खाई थी । घुड़दौड़ को दर्शक मण्डप के सामने खत्म होना था। लेकिन घुड़दौड़ घेरे से नहीं, बल्कि उससे दो सौ मीटर से कुछ अधिक की दूरी पर शुरू होनेवाली थी। इस फ़ासले में पहली बाधा थी – दो मीटर से अधिक चौड़ी बांधवाली नदी । घुड़सवार अपनी इच्छानुसार नदी के पार घोड़े को कुदा सकते थे या उसे पानी में से ले जा सकते थे।

घुड़सवार तीन बार क़तार में खड़े हुए, लेकिन हर बार किसी का घोड़ा दौड़ शुरू करने के संकेत से पहले ही आगे बढ़ गया और उन्हें फिर से क़तार में खड़े होना पड़ा। दौड़ का माहिर कर्नल सेस्त्रीन झल्लाने भी लगा और आखिर जब चौथी बार उसने " शुरू करो !” कहा, तो दौड़ आरम्भ हुई ।

घुड़सवार जब क़तार में खड़े थे, तो सभी की नज़रें और सभी दूरबीनें उन्हीं पर केंद्रित थीं ।

" दौड़ शुरू हो गयी ! बढ़े आ रहे हैं !" प्रतीक्षा की निस्तब्धता के बाद सभी ओर से यह सुनाई दिया ।

लोगों के जमघट या अकेले- दुकेले लोग दौड़ को अच्छी तरह देख पाने के लिये एक जगह से दूसरी जगह भागने लगे। पहले मिनट में ही घुड़सवार फैल गये और यह साफ़ नज़र आने लगा कि कैसे वे दो-दो, तीन-तीन और एक के बाद एक नदी के क़रीब पहुंच रहे हैं । दर्शकों को तो ऐसे प्रतीत हुआ था कि उन सभी ने एक ही समय पर घुड़दौड़ शुरू की है, लेकिन घुड़सवारों के लिये कुछ सेकण्डों का अन्तर जो बहुत अधिक महत्त्व रखता था।

बहुत अधिक उत्तेजित और घबरायी हुई फ़्रू-फ़्रू ने पहला क्षण गंवा दिया और कुछ घोड़े उससे आगे निकल गये। लेकिन नदी तक पहुंचने के पहले ही व्रोन्स्की पूरी ताक़त से घोड़ी की लगामें खींचते हुए आसानी से तीन को पीछे छोड़ गया और मखोतिन का लाल ग्लादियातर, जिसके पुट्ठे हल्की-फुल्की और समगति से व्रोन्स्की के बिल्कुल सामने हिल-डुल रहे थे, तथा सबसे आगे जानेवाली सुन्दर डायना ही रह गयी, जिस पर सवार कुज़ोव्लेव की सांस गले में अटकी हुई थी ।

पहले क्षणों में व्रोन्स्की न खुद को और न अपनी घोड़ी को ही वश में कर पाया। पहली बाधा यानी नदी तक वह अपनी घोड़ी की गतिविधि को निर्देशित करने में असमर्थ रहा।

ग्लादियातर और डायना एकसाथ, लगभग एक ही क्षण में नदी के ऊपर से कूदे और दूसरे किनारे पहुंच गये । उनके पीछे-पीछे फ़्रू-फ़्रू ऐसे हल्के-फुल्के ढंग से मानो हवा में उड़ रही हो, उछली । किन्तु उसी समय, जब व्रोन्स्की ने अपने को हवा में महसूस किया, उसने अचानक लगभग अपनी घोड़ी के पैरों के नीचे कुज़ोव्लेव को देखा, जो डायना के साथ नदी के दूसरी ओर लुढ़कता चला जा रहा था ( कुज़ोव्लेव ने छलांग के बाद लगामें छोड़ दीं और घोड़ी के साथ वह भी कलाबाज़ी खाते हुए नीचे जा गिरा था ) । ये तफ़सीलें व्रोन्स्की को बाद में मालूम हुईं, लेकिन इस समय तो वह यही देख रहा था कि जहां फ़्रू-फ़्रू के पांव ज़मीन को छुएंगे, ठीक वहीं डायना की टांग या सिर हो सकता है। लेकिन नीचे जाती हुई फ़्रू-फ़्रू ने बिल्ली की भांति अपनी छलांग में टांगों और पीठ का ज़ोर लगाया तथा डायना से बचकर आगे निकल गयी ।

"ओ मेरी प्यारी !" व्रोन्स्की ने सोचा ।

नदी के बाद व्रोन्स्की ने घोड़ी को पूरी तरह अपने वश में कर लिया और इस इरादे से उसे तेज़ होने से रोकने लगा कि मखोतिन के पीछे रहते हुए बड़े अवरोध को लांघे तथा अगले, लगभग ४०० मीटर लम्बे बाधाहीन फ़ासले में उससे आगे निकलने की कोशिश करे ।

बड़ा अवरोध ज़ार के मण्डप के बिल्कुल सामने था। जब वे शैतान ( बड़े अवरोध का यही नाम था ) के क़रीब पहुंचे, तो ज़ार, सभी दरबारियों और आम लोगों की भीड़ की नज़रें इन दोनों यानी व्रोन्स्की और उससे कुछ आगे मखोतिन पर जमी हुई थीं । व्रोन्स्की सभी दिशाओं से अपने पर केन्द्रित इन नज़रों को अनुभव कर रहा था, किन्तु अपनी घोड़ी के कानों और गर्दन, अपनी तरफ़ भागी आती ज़मीन तथा तेज़ी से आगे दौड़ते और एक जैसा फ़ासला बनाये रखते हुए ग्लादियातर के पुट्टे और सफ़ेद टांगों के सिवा वह और कुछ नहीं देख रहा था । ग्लादियातर उछला, किसी भी चीज़ के साथ नहीं टकराया, उसने अपनी छोटी-सी पूंछ हिलाई और व्रोन्स्की की नज़र से ओझल हो गया ।

"शाबाश !" एक आवाज़ सुनाई दी ।

इसी क्षण व्रोन्स्की की आंखों के सामने खुद उसके सम्मुख अवरोध के तख़्ते झलक उठे। अपनी गति में तनिक परिवर्तन किये बिना ही घोड़ी उसके ऊपर उछली, तख़्ते ग़ायब हो गये और केवल पीछे किसी चीज़ के टकराने की आवाज़ सुनाई दी। आगे जा रहे ग्लादियातर के कारण जोश में आयी घोड़ी ने अवरोध के पहले कुछ अधिक जल्दी ही छलांग लगा दी और इसलिये उसका पिछला सुम तख़्तों से टकरा गया। लेकिन उसकी गति में कोई अन्तर नहीं हुआ, व्रोन्स्की के मुंह पर कीचड़ का गोला आ लगा और वह समझ गया कि ग्लादियातर पहले जितने फ़ासले पर ही है । उसका पुट्ठा, छोटी-सी पूंछ और तेज़ी से हिलती-डुलती सफ़ेद टांगें फिर से उसी फ़ासले पर दिखाई दीं ।

व्रोन्स्की ने जिस क्षण यह सोचा कि अब मखोतिन से आगे निकलना चाहिये, फ़्रू-फ़्रू खुद ही उसके मन की बात को भांप गयी, किसी तरह के बढ़ावे के बिना उसने अपनी चाल काफ़ी तेज़ कर दी और सबसे अधिक अनुकूल यानी रस्सेवाली दिशा से मखोतिन के निकट होने लगी । मखोतिन उसे ऐसा नहीं करने दे रहा था । व्रोन्स्की ने यह सोचा ही था कि बाहर की ओर से भी आगे निकला जा सकता है कि फ़्रू-फ़्रू रास्ता बदल लिया और इसी ढंग से आगे निकलने लगी । पसीने से काला होता हुआ फ़्रू-फ़्रू का कन्धा ग्लादियातर के पुट्ठे के बराबर हो गया। कुछ देर तक वे एक-दूसरे के क़रीब दौड़ते रहे। लेकिन उस बाधा के पहले, जिसके निकट वे पहुंच रहे थे, व्रोन्स्की यह चाहते हुए कि बड़ा चक्कर न काटने पड़े, लगामों से काम लेने लगा और तेज़ी से ढाल पर ही मखोतिन से आगे निकल गया । व्रोन्स्की को मखोतिन के चेहरे की, जिस पर कीचड़ के छींटे पड़े हुए थे, हल्की झलक मिली । उसे लगा कि वह मुस्कराया भी है । व्रोन्स्की उससे आगे तो निकल गया, किन्तु उसे अपने निकट ही पीछे अनुभव करता रहा और अपनी पीठ के पीछे उसे ग्लादियातर की लयबद्ध टापें और तनिक रुक-रुककर, अभी भी ताज़ा सांसें भी लगातार सुनाई दे रही थीं ।

अगली दो बाधायें - खाई और अवरोध - आसानी से पार कर ली गयीं, लेकिन व्रोन्स्की को ग्लादियातर की टापें और सांसें अधिक नज़दीक सुनाई देने लगीं । उसने घोड़ी को कुछ और तेज़ किया और उसे इस बात की खुशी हुई कि घोड़ी ने आसानी से अपनी गति और बढ़ा ली तथा ग्लादियातर की टापें फिर से पहले जितने फ़ासले पर ही सुनाई देने लगीं ।

व्रोन्स्की घुड़दौड़ में सबसे आगे जा रहा था - वह यही तो करना चाहता था और कोर्ड ने भी उसे यही सलाह दी थी। अब उसे अपनी सफलता का विश्वास हो गया था । उसकी उत्तेजना, खुशी और फ़्रू-फ़्रू के प्रति उसका प्यार बढ़ता जा रहा था । उसका पीछे मुड़कर देखने को मन हो रहा था, लेकिन वह ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सकता था। उसने अपने को शान्त करने की कोशिश की और घोड़ी की रफ़्तार नहीं बढ़ाई, ताकि उसमें उतनी ही शक्ति बची रहे, जितनी वह ग्लादियातर में बाक़ी रह गयी अनुभव करता था। एक और सबसे मुश्किल बाधा बाक़ी थी। अगर वह दूसरों से पहले उसे लांघ लेगा, तो वही प्रथम रहेगा । उसकी घोड़ी आयरलैंडी बैंक के क़रीब पहुंच रही थी। फ़्रू-फ़्रू के साथ उसने दूर से ही इस बैंक को देखा और एक साथ ही, उसके तथा घोड़ी के दिमाग़ में घड़ी भर को सन्देह ने सिर उठाया। उसने घोड़ी के कानों में हिचकिचाहट देखी और अपना चाबुक ऊपर उठाया । किन्तु उसी क्षण यह महसूस किया कि सन्देह निराधार था - घोड़ी जानती थी कि उसे क्या करना चाहिये। उसने गति बढ़ाई और बहुत ही नपे-तुले ढंग से, जैसी कि व्रोन्स्की ने आशा की थी, पांव मारकर ऊपर उछली और अपने को छलांग की वाहक - शक्ति के सुपुर्द कर दिया, जो उसे खाई से कहीं दूर ले गयी। उसी रफ़्तार से, किसी प्रयास के बिना और पहले वाली चाल से ही फ़्रू-फ़्रू ने दौड़ जारी रखी।

"शाबाश, व्रोन्स्की !” उसे कुछ लोगों की आवाजें सुनाई दीं - उसे मालूम था कि ये उसकी रेजिमेन्ट के लोग और यार-दोस्त हैं, जो इस बाधा के निकट खड़े थे। उसने याश्विन की आवाज़ पहचान ली, लेकिन उसे देख नहीं पाया ।

"ओ, मेरी बांकी ! " व्रोन्स्की ने फ़्रू-फ़्रू के बारे में मन ही मन सोचा। साथ ही इस बात पर कान लगाये रहा कि उसके पीछे क्या हो रहा है। "लांघ गया ! " उसने अपने पीछे ग्लादियातर की टापें सुनकर सोचा। पानी से भरी हुई कोई डेढ़ मीटर चौड़ी एक खाई ही बाक़ी रह गयी थी। व्रोन्स्की ने उसकी तरफ़ तो कोई ध्यान ही नहीं दिया और बहुत पहले ही समाप्ति - रेखा पर पहुंचने की इच्छा से लगामों को चक्राकार ढंग से संचालित करने तथा घोड़ी की छलांगों की गति के साथ उसका सिर ऊपर उठाने तथा नीचे झुकाने लगा । वह अनुभव कर रहा था कि घोड़ी अपनी अन्तिम शक्ति का उपयोग कर रही है - न केवल उसकी गर्दन और कंधे ही पसीने से भीगे हुए थे, बल्कि उसकी गर्दन, सिर और नुकीले कानों पर भी पसीने की बूंदें उभर आई थीं और वह बहुत तेज़ी से तथा छोटी-छोटी सांसें ले रही थी । लेकिन व्रोन्स्की जानता था कि उसकी बची हुई शक्ति बाक़ी रह गये चार सौ मीटर के फ़ासले को तय करने के लिये बहुत काफ़ी होगी । केवल इसलिये कि व्रोन्स्की अपने को भूमि के निकट और घोड़ी की गति में विशेष समलयता अनुभव कर रहा था, वह जानता था कि उसकी घोड़ी ने अपनी चाल कितनी अधिक बढ़ा दी है। खाई की मानो परवाह किये बिना ही वह उसे लांघ गयी । परिन्दे की भांति वह उसके ऊपर से कूद गयी, मगर इसी वक़्त व्रोन्स्की ने घबराकर यह अनुभव किया कि घोड़ी की गति का साथ न देते और खुद भी न समझ पाते हुए उसने ज़ीन पर बैठते समय एक बड़ी बेहूदा और अक्षम्य हरकत कर दी थी । अचानक उसकी स्थिति बदल गयी और वह समझ गया कि कोई भयानक बात हो गयी है । वह अभी यह नहीं समझ पा रहा था कि हुआ क्या है कि इसी समय खुद उसके क़रीब लाल घोड़े की सफ़ेद टांगें झलकीं और मखोतिन बहुत तेज़ी से घोड़ा कुदाता हुआ पास से निकल गया । व्रोन्स्की का एक पांव ज़मीन को छू रहा था और उसकी घोड़ी उसी पांव पर गिर रही थी । व्रोन्स्की ने अपना पांव हटाया ही था कि वह बुरी तरह हांफती और पसीने से तर अपनी पतली गर्दन से उठने की बेकार कोशिश करते हुए उसी पहलू लुढ़क गयी। वह ब्रोन्स्की के पैरों के पास घायल पक्षी की भांति तड़प रही थी । व्रोन्स्की की अटपटी हरकत से घोड़ी की पीठ टूट गयी थी । लेकिन यह बात तो बहुत देर बाद उसकी समझ में आई। इस समय तो वह केवल यही देख रहा था कि मखोतिन तेज़ी से दूर होता जा रहा है और वह लड़खड़ाता हुआ कीचड़ सनी तथा गतिहीन ज़मीन पर अकेला खड़ा है, बुरी तरह हांफती हुई फ़्रू-फ़्रू उसके सामने पड़ी है तथा उसकी ओर सिर झुकाकर उसे अपनी सुन्दर आंख से देख रही है। अभी भी यह न समझ पाते हुए कि क्या हुआ है, व्रोन्स्की ने घोड़ी को लगाम से खींचा। वह काठी के किनारों को चरमराते हुए फिर से मछली की भांति छटपटायी, उसने अगली टांगें फैलायीं, लेकिन पुट्ठे को उठाने में असमर्थ रहने के कारण लड़खड़ायी और फिर से उसी पहलू गिर गयी । व्रोन्स्की का चेहरा गुस्से से विकृत और पीला था तथा ठोड़ी कांप रही थी । व्रोन्स्की ने घोड़ी के पेट में एड़ी मारी और फिर लगाम से उसे खींचने लगा। लेकिन वह हिली नहीं और नथुनों को ज़मीन पर टिकाकर अपनी बोलती-सी नज़र से मालिक को एकटक देखती रही ।

"आह ! " व्रोन्स्की अपना सिर थामते हुए बुदबुदाया । "आह ! यह मैंने क्या कर डाला !" वह चिल्ला उठा । "घुड़दौड़ में हार भी गया ! सो भी अपनी लज्जाजनक और अक्षम्य भूल के कारण ! और यह बदक़िस्मत और प्यारी घोड़ी भी तबाह हो गयी ! आह ! यह क्या किया मैंने ! "

लोग, डाक्टर और उसका सहायक तथा उसकी रेजिमेन्ट के अफ़सर भागे हुए उसके पास आये । उसे इस बात का बड़ा अफ़सोस था कि वह सही-सलामत था । घोड़ी की पीठ टूट गयी थी और इसलिये उसे गोली मार देने का निर्णय किया गया । व्रोन्स्की किसी के सवालों का जवाब नहीं दे सका, किसी से भी बातचीत नहीं कर सका। वह मुड़ा और ज़मीन पर जा गिरी टोपी को उठाये बिना और यह न जानते हुए कि किधर जा रहा है, रेस कोर्स से चल दिया । बहुत ही दुखी मन था उसका। ज़िन्दगी में पहली बार उसे बहुत गहरे और ऐसे दुर्भाग्य की अनुभूति हुई, जिस पर किसी तरह भी क़ाबू पाना सम्भव नहीं था और जिसके लिये वह खुद दोषी था ।

टोपी लिये हुए याश्विन उसके पास पहुंचा, उसने व्रोन्स्की को घर तक पहुंचा दिया। आध घण्टे बाद व्रोन्स्की के होश-हवास ठिकाने हुए । लेकिन घुड़दौड़ की स्मृति उसकी आत्मा में बहुत समय तक उसके जीवन की सबसे कटु और यातनाप्रद स्मृति बनी रही ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 26-भाग 2)

आन्ना के साथ कारेनिन के सम्बन्ध बाहरी तौर पर पहले जैसे ही बने रहे। सिर्फ़ इतना ही फ़र्क़ पड़ा कि वह पहले से भी ज़्यादा व्यस्त रहने लगा। अन्य सालों की भांति इस साल भी वह वसन्त आ जाने पर जल-चिकित्सा द्वारा अपने स्वास्थ्य को सुधारने के लिये, जो हर जाड़े में बढ़ते श्रम के कारण बिगड़ जाता था, विदेश गया । हमेशा की तरह वह जुलाई में घर लौटा और उसी समय अधिक उत्साह के साथ अपने सामान्य काम में जुट गया । हमेशा की तरह उसकी बीवी गर्मियों के लिये देहाती बंगले में रहने चली गई और वह पीटर्सबर्ग में ही रह गया ।

प्रिंसेस त्वेरस्काया की पार्टी के बाद हुई बातचीत के समय से उसने अपने सन्देहों और ईर्ष्या की आन्ना से कभी चर्चा नहीं की और किसी का मज़ाक उड़ाता हुआ-सा सामान्य अन्दाज़ बीवी के प्रति उसके वर्तमान रवैये के लिये बहुत उपयुक्त था । पत्नी के प्रति उसमें कुछ रुखाई आ गयी थी। उस रात को बीवी के साथ हुई पहली बातचीत के कारण, जिससे उसने बचने की कोशिश की थी, वह उससे मानो थोड़ा-सा नाराज़ था । पत्नी के प्रति उसके रवैये में थोडी-सी खीझ के सिवा और कुछ नहीं था । "तुमने मेरे साथ खुलकर बात नहीं करनी चाही," वह मानो मन ही मन उसे सम्बोधित करते हुए कहता, "यह तुम्हारे लिये ही बुरा है। अब तुम मुझसे ऐसा करने का अनुरोध करोगी, मगर मैं ऐसा नहीं करूंगा । यह तो तुम्हारे लिये ही और अधिक बुरा है," वह अपने दिल में उस आदमी की तरह कहता, जिसने आग बुझाने की बेसूद कोशिश की हो, अपनी इस नाकाम कोशिश पर झल्ला उठा हो और फिर बोला हो : “तुम इसी लायक़ हो ! तो जल जाओ !"

सरकारी काम-काज में बहुत ही समझदार और सूक्ष्म दृष्टि रखने वाला यह व्यक्ति अपनी पत्नी के प्रति ऐसे रवैये के सारे पागलपन को समझने में असमर्थ था । वह इसलिये यह नहीं समझता था कि अपनी वर्त्तमान स्थिति को समझना उसके लिये बहुत ही भयानक था और उसने अपनी आत्मा के उस डिब्बे को, जिसमें परिवार यानी पत्नी और बेटे के प्रति उसकी भावनायें संचित थीं, बन्द करके उसमें ताला लगा दिया था, उसे मुहरबन्द कर दिया था । वह, जो बहुत ही चिन्ताशील पिता था, इस जाड़े के अन्त से बेटे के प्रति विशेषतः उदासीन हो गया और पत्नी की भांति उसके प्रति भी उसका खिल्ली - सी उड़ाने का रवैया हो गया । "अहा ! नौजवान !" वह उसे इस तरह से सम्बोधित करता ।

कारेनिन ऐसा सोचता और कहता भी था कि अन्य किसी भी साल में उसके पास इतना अधिक काम नहीं था, जितना इस साल में । उसे इस बात की चेतना नहीं थी कि इस साल उसने खुद अपने लिये काम ढूंढ़ निकाले थे और यह उस डिब्बे को बन्द रखने का एक उपाय था, जिसमें पत्नी और परिवार के बारे में उसकी भावनायें और विचार बन्द थे, और वे जितनी ज़्यादा देर तक वहां पड़े रह रहे थे, उतने ही अधिक भयानक होते जाते थे। अगर किसी को कारेनिन से यह पूछने का अधिकार होता कि अपनी पत्नी की गतिविधि के बारे में उसकी क्या राय है, तो विनम्र और शान्त कारेनिन कुछ भी जवाब न देता, लेकिन ऐसा सवाल करनेवाले व्यक्ति से बेहद नाराज़ हो गया होता । इसीलिये जब उससे पत्नी के स्वास्थ्य के बारे में पूछा जाता, तो उसके चेहरे पर हठ और कठोरता का सा भाव आ जाता । कारेनिन अपनी पत्नी की गतिविधियों और भावनाओं के बारे में कुछ भी नहीं सोचना चाहता था और वास्तव में ही वह इस सिलसिले में कुछ नहीं सोचता था ।

कारेनिन का स्थायी देहाती बंगला पीटरहोफ़ में था और काउंटेस लीदिया इवानोव्ना भी आम तौर पर पड़ोस में तथा आन्ना के साथ निरन्तर सम्पर्क रखते हुए वहीं गर्मी बिताती थी। इस साल काउंटेस लीदिया इवानोव्ना ने पीटरहोफ़ में रहने से इन्कार कर दिया, एक बार भी आन्ना से मिलने नहीं आई और कारेनिन को बेत्सी तथा व्रोन्स्की के साथ आन्ना की घनिष्ठता के अनौचित्य के बारे में संकेत किया । कारेनिन ने यह विचार व्यक्त करके कि उसकी पत्नी किसी भी तरह के सन्देह से ऊपर है, कड़ाई से उसकी ज़बान बन्द कर दी और उस समय से काउंटेस लीदिया इवानोव्ना से कन्नी काटने लगा । वह यह नहीं देखना चाहता था और देखता भी नहीं था कि ऊंचे समाज में बहुत-से लोग उसकी पत्नी को बुरी नज़र से देखते थे। वह यह समझना नहीं चाहता था और समझता भी नहीं था कि उसकी पत्नी त्सारस्कोये सेलो में रहने के लिये क्यों ज़ोर दे रही थी, जहां बेत्सी रहती थी और जहां से व्रोन्स्की की रेजिमेन्ट का शिविर भी बहुत दूर नहीं था। वह अपने को यह सोचने नहीं देता था और सोचता भी नहीं था, लेकिन इसके साथ ही किसी तरह के प्रमाणों या सन्देहों के न होते हुए भी अपनी आत्मा की गहराई में निश्चित रूप से यह जानता था कि उसके साथ बेवफ़ाई की गयी है और इसलिये दिल में बहुत ही दुःखी था ।

अपनी पत्नी के साथ आठ साल के सुखी जीवन में उसने अनेक बार पराई बेवफ़ा पत्नियों और धोखे के शिकार होनेवाले पतियों को देखते हुए अपने दिल में यह सोचा था : "कैसे मामले को इस हद तक जाने दिया गया ? इस बेहूदा स्थिति को ठीक क्यों नहीं किया जाता ?” लेकिन अब जब खुद उसके सिर पर मुसीबत आई थी, तो वह न केवल यह नहीं सोचता था कि इस स्थिति को कैसे ठीक करे बल्कि इसे जानना तक नहीं चाहता था । इसलिये जानना नहीं चाहता था कि वह बहुत ही भयानक बहुत ही अस्वाभाविक स्थिति थी ।

विदेश से लौटने के बाद कारेनिन दो बार अपने देहातवाले बंगले पर गया था। एक बार उसने दोपहर का खाना वहां खाया और दूसरी बार मेहमानों के साथ शाम बिताई । लेकिन एक बार भी वह रात को वहां नहीं सोया, जैसा कि पिछले सालों में आम तौर पर करता था ।

घुड़दौड़ों वाला दिन कारेनिन के लिये बहुत व्यस्त दिन था । लेकिन सुबह ही अपनी दिन भर की कार्य-सूची बनाते हुए उसने यह तय कर लिया कि दोपहर का खाना हमेशा से कुछ पहले खाने के बाद वह देहातवाले बंगले में बीवी के पास और वहां से घुड़दौड़ देखने जायेगा, जहां राजदरबार के सभी लोग होंगे और जहां उसे भी होना चाहिये। बीवी के पास वह इसलिये जायेगा कि उसने जग-दिखावे के लिये सप्ताह में एक बार वहां जाने का निर्णय किया था। इसके अलावा उस दिन उसे निश्चित व्यवस्था के अनुसार खर्च के लिये पैसे भी देने थे ।

पत्नी के बारे में यह सब सोचने के बाद उसने अपने विचारों पर सामान्य नियंत्रण के अनुसार उससे सम्बन्धित अन्य किसी बात की ओर अपने विचारों को नहीं बढ़ने दिया ।

कारेनिन की यह सुबह बहुत व्यस्त थी । काउंटेस लीदिया इवानोव्ना ने पिछली शाम को चीन यात्रा के बाद पीटर्सबर्ग आनेवाले एक प्रसिद्ध यात्री की पुस्तिका के साथ एक पत्र भी भेजा था, जिसमें यह अनुरोध- किया था कि विभिन्न कारणों से बहुत दिलचस्प और बहुत ही काम के इस व्यक्ति से वह खुद भी मिले । कारेनिन इस पूरी पुस्तिका को रात को नहीं पढ़ सका और उसे सुबह खत्म किया। इसके बाद प्रार्थी आ गये, रिपोर्टें पेश की जाने लगीं, मिलनेवाले आये, नियुक्तियों और कार्य से हटाने के निर्णय किये गये, पुरस्कारों, पेंशनों और वेतनों पर विचार किया गया, पत्र पढ़े गये - मतलब यह कि उसने हर दिन का वह काम निबटाया, जो उसका इतना अधिक वक़्त ले लेता था। इसके बाद कुछ निजी काम भी था - डाक्टर और कारिन्दा आया । कारिन्दे ने बहुत समय नहीं लिया । उसने कारेनिन को उसकी ज़रूरत की रकम दी और संक्षेप में हिसाब-किताब समझा दिया, जिससे यह पता चला कि इस साल सफ़र पर ज़्यादा खर्च हो गया था और आमदनी से खर्च अधिक था। लेकिन पीटर्सबर्ग के प्रसिद्ध डाक्टर ने जिसका कारेनिन के साथ दोस्ताना सम्बन्ध था बहुत वक्त लिया। कारेनिन ने उसके आज आने की आशा नहीं की थी और उसके आने तथा इस बात से वह और भी ज़्यादा हैरान हुआ कि डाक्टर ने बहुत ही ध्यान से कारेनिन से उसकी तबीयत के बारे में सवाल किये, दिल- छाती की जांच की, उंगलियां बजाकर फेफड़े जांचे और जिगर को छूकर देखा । कारेनिन को मालूम नहीं था कि उसकी मित्र लीदिया इवानोव्ना ने यह देखकर कि इस साल कारेनिन की सेहत अच्छी नहीं है, डाक्टर से अनुरोध किया था कि वह जाकर उसकी जांच करे । “मेरी खातिर यह कीजिये," काउंटेस लीदिया इवानोव्ना ने उससे कहा था ।

" मैं रूस के लिये ऐसा करूंगा, काउंटेस," डाक्टर ने जवाब दिया था ।

"हीरा आदमी है !" काउंटेस लीदिया इवानोव्ना ने राय जाहिर की थी ।

कारेनिन की जांच के बाद डाक्टर बहुत असन्तुष्ट था । उसने पाया कि उसका जिगर बहुत काफ़ी बढ़ा हुआ है, भूख और खुराक कम हो गयी है और जल-चिकित्सा का कोई प्रभाव नहीं हुआ है। उसने बताया कि जितना भी मुमकिन हो ज़्यादा शारीरिक श्रम और जितना भी सम्भव हो सके, कम मानसिक श्रम किया जाये तथा सबसे प्रमुख चीज़ तो यह है कि किसी भी तरह की चिन्ता में न घुला जाये, जो अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच के लिये वैसे ही असम्भव था, जैसे कि सांस न लेना । डाक्टर चला गया और कारेनिन के मन में यह अप्रिय-सी चेतना रह गयी कि उसके अन्दर कहीं कुछ गड़बड़ है, जिसे ठीक करना सम्भव नहीं ।

कारेनिन के यहां से बाहर निकलते हुए डाक्टर की कारेनिन के निजी सेक्रेटरी स्लूदिन से, जिसे डाक्टर बहुत अच्छी तरह जानता था, भेंट हो गयी । वे दोनों विश्वविद्यालय के ज़माने के साथी थे और यद्यपि कभी-कभार ही मिलते थे, फिर भी एक-दूसरे की इज़्ज़त करते थे और अच्छे दोस्त थे । जाहिर है कि स्लूदिन से अधिक अच्छा और कौन आदमी हो सकता था, जिसके सामने डाक्टर रोगी के बारे में अपनी साफ़-साफ़ राय जाहिर करता ।

"मैं बहुत खुश हूं कि आप उनकी जांच करने आये," स्लूदिन ने कहा । “ उनकी तबीयत अच्छी नहीं है और मुझे लगता है ... हां, तो आपका क्या ख़्याल है ? "

“मेरा ख्याल यह है," डाक्टर ने स्लूदिन के सिर के ऊपर से हाथ हिलाकर अपने कोचवान को बग्घी लाने का इशारा करते हुए कहा, “ मेरा ख्याल यह है,” डाक्टर ने अपने मुलायम दस्ताने की उंगली को गोरे-गोरे हाथों में लेते और उसे ऊपर खींचते हुए कहा, "तार को कसे बिना उसे तोड़ने की कोशिश कीजिये - यह बहुत मुश्किल है, लेकिन उसे पूरी तरह कस दीजिये, तो ऐसे बेहद कसे तार पर उंगली रख देने से भी वह टूट जायेगा । कारेनिन अपने कड़े श्रम और काम के प्रति ईमानदारी के कारण तनाव की आखिरी हद तक पहुंचा हुआ है। बाहरी तनाव भी है, सो भी बहुत ज्यादा," भौंहों को अर्थपूर्ण दृष्टि से ऊपर चढ़ाते हुए डाक्टर ने अपनी बात खत्म की। "घुड़दौड़ों में आयेंगे ?" अपनी बग्घी की ओर बढ़ते हुए उसने पूछा। “हां, सो तो ज़ाहिर ही है, बहुत वक़्त लग जाता है," डाक्टर ने स्लूदिन की कही हुई किसी बात के जवाब में कहा, जिसे वह सुन नहीं पाया था ।

डाक्टर के बाद, जिसने इतना अधिक समय ले लिया था, प्रसिद्ध यात्री आ गया और कारेनिन ने उसी सुबह को पढ़ी गयी पुस्तिका तथा इस विषय से सम्बन्धित अपनी पहली जानकारी का उपयोग करते हुए यात्री को इस विषय - सम्बन्धी अपने ज्ञान और प्रबुद्ध दृष्टि-विस्तार से चकित कर दिया ।

यात्री के साथ ही पीटर्सबर्ग आनेवाले गुबेर्निया के कुलीन - मुखिया के आगमन की भी सूचना दी गयी थी और उसके साथ बातचीत करना भी ज़रूरी था। उसके जाने के बाद सेक्रेटरी के साथ रोज़मर्रा का काम-काज निपटाना था और उसके बाद एक गम्भीर तथा महत्त्वपूर्ण काम के सिलसिले में एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के यहां जाना था । कारेनिन कहीं दिन के खाने वक़्त यानी पांच बजे लौटा और सेक्रेटरी के साथ खाना खाने के बाद उसने उसे देहातवाले बंगले और फिर घुड़दौड़ पर चलने के लिये आमन्त्रित कर लिया ।

इस बात को स्वीकार किये बिना कारेनिन अब इसके लिये यत्नशील रहता कि पत्नी से मिलन के समय कोई न कोई तीसरा व्यक्ति उपस्थित रहे ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 27-भाग 2)

आन्ना ऊपर वाले कमरे में दर्पण के सामने खडी थी. आन्नुश्का की मदद से फ़ाक पर अन्तिम रिबन लगा रही थी, जब उसे बाहर दरवाज़े पर रोड़ी को कुचलते हुए पहियों की आवाज़ सुनाई दी।

"बेत्सी तो इतनी जल्दी नहीं आ सकती," उसने सोचा और खिड़की से झांकने पर उसे बग्घी तथा उसमें से कारेनिन का बाहर आता काला टोप और जाने-पहचाने बड़े-बड़े कान दिखाई दिये । " कैसे बेमौके आया है, कहीं रात को तो यहीं नहीं रहेगा ?” उसने सोचा और इसके सम्भव नतीजे उसे इतने भयानक और खतरनाक प्रतीत हुए कि एक मिनट को भी कुछ सोचे-समझे बिना वह खुशी से चमकता चेहरा लिये उसके स्वागत को बढ़ गयी । अपने भीतर झूठ और कपट की परिचित भावना की उपस्थिति को अनुभव करते हुए उसने फ़ौरन अपने को उसके अधीन कर दिया और खुद यह न जानते हुए कि क्या कहने जा रही है, बोलने लगी ।

"कितनी मेहरबानी की है !” उसने पति से हाथ मिलाते और घर के व्यक्ति के रूप में स्लूदिन का मुस्कराकर स्वागत करते हुए कहा। "आशा करती हूं कि तुम रात तो यहीं विताओगे ?” यही वे पहले शब्द थे, जिन्हें कपट भावना ने उसे कहने को प्रेरित किया, और अब हम एक साथ जायेंगे। लेकिन अफ़सोस की बात है कि मैंने बेत्सी से वादा कर रखा है। वह मुझे लेने आयेगी ।"

बेत्सी का नाम सुनकर कारेनिन के माथे पर बल पड़ गये ।

"ओ, मैं कभी न अलग होनेवालों को अलग नहीं करूंगा," उसने अपने सामान्य मज़ाकिया अन्दाज़ में कहा । "मैं तो मिखाईल वसील्येविच के साथ जाऊंगा। मुझे तो डाक्टर भी पैदल चलने की सलाह देते हैं। मैं कुछ दूर तक पैदल चलूंगा और यह कल्पना करूंगा कि जल-चिकित्सा वाले स्वास्थ्य - नगर में हूं।

"कोई जल्दी तो है नहीं, " आन्ना ने कहा । चाय पियेंगे न ? " उसने घण्टी बजायी ।

"चाय ले आइये और सेर्योझा से कहिये कि अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच आये हैं । तो कहो, कैसी सेहत है तुम्हारी ? मिखाईल वसील्येविच, आप तो कभी यहां नहीं आये। देखिये तो मेरे यहां छज्जे में कैसी बहार है, " आन्ना कभी पति और कभी उसके सेक्रेटरी को सम्बोधित करते हुए कह रही थी ।

आन्ना बड़े साधारण और स्वाभाविक ढंग से, किन्तु बहुत अधिक तथा बहुत जल्दी-जल्दी बोल रही थी। वह खुद भी यह महसूस कर रही थी और इस कारण उसे इस बात की और भी अधिक चेतना हो गयी थी कि उसका ध्यान स्लूदिन की उस जिज्ञासु दृष्टि की ओर गया था, जिससे मानो वह उसे आंक रहा था ।

स्लूदिन फ़ौरन बाहर छज्जे में चला गया।

आन्ना पति के पास बैठ गयी ।

"तुम स्वस्थ नहीं दिख रहे हो," आन्ना ने कहा ।

"'हां," उसने जवाब दिया, "आज डाक्टर आया था, एक घण्टे का समय ले लिया उसने। मुझे लगता है कि मेरे किसी मित्र ने ही उसे भेजा था - इतना बहुमूल्य जो है मेरा स्वास्थ्य..."

"तुम यह बताओ कि उसने क्या कहा ? "

आन्ना ने पति से उसकी सेहत और काम-काज के बारे में पूछ-ताछ की, उससे आराम करने और यहां देहातवाले बंगले में आकर रहने का अनुरोध किया ।

आन्ना ने यह सब कुछ खुशमिजाजी से, जल्दी-जल्दी और आंखों में विशेष चमक के साथ कहा। लेकिन कारेनिन उसके बात करने के इस ढंग में कोई अर्थ नहीं खोजता था । वह केवल उसके शब्दों को सुनता था और उन्हें सिर्फ़ उनका प्रत्यक्ष, सतही अर्थ ही प्रदान करता था। वह सीधे-सादे ढंग से, यद्यपि कुछ मज़ाक़ करते हुए उसे जवाब देता था। इस सारी बातचीत में कुछ भी तो खास चीज़ नहीं थी, लेकिन बाद में आन्ना इसे लज्जा की यातनाप्रद पीड़ा के बिना कभी याद नहीं कर पायी ।

अपनी शिक्षिका के पीछे-पीछे सेर्योझा भीतर आया । कारेनिन ने अगर ध्यान दिया होता, तो वह ज़रूर यह देख पाता कि सेर्योझा ने कैसी सहमी-सहमी और खोयी खोयी दृष्टि से पहले पिता तथा फिर मां की ओर देखा था । लेकिन वह कुछ भी देखना नहीं चाहता था और उसने देखा भी नहीं ।

"अहा, नौजवान । वह बड़ा हो गया है... सचमुच, बिल्कुल मर्द बनता जा रहा है । नमस्ते, नौजवान । "

और उसने सहमे हुए सेर्योझा की तरफ़ हाथ बढ़ा दिया ।

पिता के मामले में सेर्योझा पहले भी कुछ झेंपता-सा रहता था और अब, जब से कारेनिन उसे नौजवान कहने लगा था और उसके दिमाग़ में इस पहेली ने जन्म ले लिया था कि व्रोन्स्की दोस्त है या दुश्मन, वह पिता से कतराने लगा था । उसने मानो अपने लिये रक्षा का कवच ढूंढ़ते हुए मां की तरफ़ देखा। सिर्फ़ मां के साथ ही वह अपने को खुश महसूस करता था । कारेनिन इसी समय शिक्षिका से बात करते हुए बेटे का कंधा थामे रहा और सेर्योझा ऐसा यातनापूर्ण अटपटापन महसूस कर रहा था कि आन्ना को लगा वह किसी क्षण भी रो पड़ेगा ।

आन्ना, जिसके चेहरे पर बेटे के भीतर आने के समय लाली दौड़ गयी थी, यह देखकर कि सेर्योझा का बुरा हाल है, झटपट उठी उसने बेटे के कंधे से कारेनिन का हाथ हटाया, बेटे को चूमा, उसे छज्जे में ले गयी और उसी क्षण लौट आयी ।

"तो चलने का वक़्त हो गया," अपनी घडी पर नज़र डालते हुए आन्ना ने कहा, "न जाने, बेत्सी अभी तक क्यों नहीं आई ...."

"अरे, हां वक़्त हो गया," कारेनिन ने कहा, उठा, और हाथों को मिलाकर उसने उंगलियां चटखाईं। " मै इसलिये भी आया था कि तुम्हें पैसे दे दूं, क्योंकि सिर्फ़ तरानों से ही बुलबुलों का पेट नहीं भरता," उसने कहा । "मेरे ख्याल में तुम्हें उनकी ज़रूरत है।"

"नहीं, ज़रूरत नहीं है ... हां, है," पति की ओर देखे बिना और शर्म से पानी-पानी होते हुए उसने कहा । "हां, मेरे ख्याल में तुम घुड़दौड़ के बाद तो यहां लौट आओगे ।"

"ओ, हां," कारेनिन ने जवाब दिया । "लो, पीटरहोफ़ की शोभा प्रिंसेस त्वेरस्काया आ गयी " उसने खिडकी में से बाहर झांकते और अंग्रेज़ी ढंग की बहुत ही ऊंची तथा छोटी-सी बाडी वाली बग्घी को घर के नज़दीक आते देखकर कहा । "क्या ठाठ हैं ! बहुत खूब ! तो, हमें भी चलना चाहिये ।"

प्रिंसेस त्वेरस्काया बग्घी से बाहर नहीं निकली। केवल घुटने तक के बूट, चोग़ा और काला टोप पहने उसका नौकर बग्घी से कूदकर 'बंगले के दरवाज़े के पास आकर खड़ा हो गया ।

"मैं जा रही हूं, विदा !" आन्ना ने कहा और बेटे को चूमकर कारेनिन के पास आई तथा उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाकर बोली : " तुमने बड़ी मेहरबानी की, जो आये ।"

कारेनिन ने उसका हाथ चूमा ।

"तो फिर मुलाक़ात होगी । तुम चाय पीने आओगे, यह बहुत अच्छी बात है !" आन्ना ने कहा और बहुत खुश-खुश तथा खिले चेहरे से बाहर निकली। लेकिन ज्योंही उसका पति आंख से ओझल हुआ, उसे हाथ पर उस जगह का एहसास होने लगा, जहां पति के होंठों का स्पर्श हुआ था और वह घृणा से सिहर उठी ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 28-भाग 2)

कारेनिन जब घुड़दौड़ के मैदान में पहुंचा, तो आन्ना बेत्सी के साथ उसी दर्शक-मण्डप में बैठी थी, जहां पूरे ऊंचे समाज के लोग जमा थे। उसने पति को दूर से ही देख लिया। दो व्यक्ति, पति और प्रेमी, उसके लिये उसके जीवन के दो केन्द्र-बिन्दु थे और किसी बाहरी प्रभाव के बिना ही वह उनकी निकटता को अनुभव करती थी। उसने दूर से ही पति को निकट आते महसूस कर लिया और अनचाहे ही भीड़ की उन लहरों में, जिनके बीच वह चल रहा था, लगातार उसे देखने लगी। उसने उसे दर्शक-मण्डप के क़रीब पहुंचते देखा, वह कभी तो चापलूसी भरे अभिवादनों का कृपालु ढंग से उत्तर देता, तो कभी अपने ही समान दर्जेवाले लोगों के साथ दोस्ताना ढंग से सलाम - दुआ करता, तो कभी अपने से ऊंचे दर्जेवालों की नज़र में आने के लिये पूरी कोशिश करता और अपना बड़ा तथा गोल टोप उतार लेता, जो उसके कानों के सिरों को दबाता रहता था। आन्ना उसके इन सभी तौर-तरीक़ों से परिचित थी और उसे ये सभी बहुत अखरते थे । "सिर्फ़ महत्त्वाकांक्षा, सिर्फ़ सफलता पाने की तीव्र चाह - उसकी आत्मा में बस यही कुछ है," वह सोच रही थी, "और ऊंचे आदर्श, प्रबुद्धता तथा धर्म का प्यार – ये सब तो सफलता पाने के साधन मात्र हैं ।"

महिलाओं के दर्शक - मण्डप की ओर उठी हुई दृष्टि से वह समझ गयी कि उसी को खोज रहा है ( वह सीधे उसी की तरफ़ देख रहा था, मगर जालियों, रिबनों, परों, छतरियों और फूलों के सागर में उसे पहचान नहीं सका ), लेकिन आन्ना ने जान-बूझकर उसे देखा- अनदेखा कर दिया ।

"अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच !" प्रिंसेस बेत्सी ने पुकारकर उससे कहा, आपको निश्चय ही आपकी पत्नी दिखाई नहीं दे रही। यह रही वह ! "

वह अपनी रूखी मुस्कान के साथ मुस्करा दिया ।

"यहां इतनी चमक-दमक है कि नज़र कहीं ठहर ही नहीं पाती," उसने कहा और दर्शक - मण्डप की ओर बढ़ चला। पत्नी की तरफ़ देखकर वह वैसे ही मुस्करा दिया, जैसे ऐसा पति मुस्करायेगा, जो कुछ ही देर पहले उससे मिला हो। इसके बाद उसने प्रिंसेस और जान- पहचान के बाक़ी लोगों का अभिवादन किया, हर किसी की ओर यथा- योग्य ध्यान दिया यानी महिलाओं के साथ कुछ हंसी मज़ाक़ किया और पुरुषों को अभिवादन के शब्द कहे। नीचे, दर्शक - मण्डप के नज़दीक जार का जनरल एडजुटेंट खड़ा था, जो अपनी बुद्धिमत्ता और शिक्षा- दीक्षा के लिये विख्यात था तथा कारेनिन जिसकी बड़ी इज़्ज़त करता था । कारेनिन उससे बातचीत करने लगा । घुड़दौड़ों के बीच विराम का समय था और इसलिये बातचीत में किसी तरह की बाधा नहीं पड़ रही थी । जनरल - एडजुटेंट घुड़दौड़ों की भर्त्सना कर रहा था । कारेनिन आपत्ति करते हुए इनका पक्ष ले रहा था। आन्ना एक भी शब्द अनसुना किये बिना उसकी चिचियाती तथा समलयवाली आवाज़ को सुन रही थी, हर शब्द उसे बनावटी लग रहा था और उसके कानों को बुरी तरह् अखर रहा था।

जब बाधाओंवाली छ: किलोमीटरों की घुड़दौड़ शुरू हुई, तो आन्ना आगे को झुक गयी, घोड़े के पास आते और उस पर सवार होते व्रोन्स्की को टकटकी बांधकर देखती तथा साथ ही पति के घृणित और बन्द न होनेवाले स्वर को भी सुनती रही। वह व्रोन्स्की के लिये घबरा रही थी, लेकिन उसे लग रहा था कि परिचित उतार-चढ़ावों के साथ पति की लगातार सुनाई देनेवाली चिचियाती आवाज़ उसमें कहीं अधिक घबराहट पैदा कर रही है।

"मैं बहुत बुरी औरत हूं, मैं गयी - बीती औरत हूं," आन्ना सोच रही थी, " लेकिन मुझे झूठ बोलना अच्छा नहीं लगता, मैं झूठ बर्दाश्त नहीं कर सकती, पर उसकी ( पति की ) तो झूठ ही खुराक है। वह सब जानता है, सब कुछ देखता है, लेकिन अगर इतने इतमीनान से बातचीत कर सकता है, तो महसूस क्या करता है ? अगर वह मुझे मार डालता, व्रोन्स्की की हत्या कर देता, तो मैं उसकी इज़्ज़त करती । लेकिन नहीं, उसे तो झूठ और जग- दिखावा चाहिये, " आन्ना यह सोचे बिना कि वह पति से क्या अपेक्षा करती है, उसे कैसा देखना चाहती है, मन ही मन अपने से कह रही थी। वह यह नहीं समझ पा रही थी कि कारेनिन का आज विशेष रूप से अधिक बातें करना, जिससे उसे इतनी खीझ महसूस हो रही थी, उसकी आन्तरिक चिन्ता और घबराहट को अभिव्यक्ति दे रहा था । जैसे चोट खा जानेवाला बालक उछल-कूदकर अपनी मांस-पेशियों में हरकत लाता है ताकि दर्द को भुला सके, उसी भांति कारेनिन के लिये भी मानसिक गतिशीलता ज़रूरी थी, ताकि पत्नी के बारे में उन विचारों को भुला सके, जो पत्नी और व्रोन्स्की की उपस्थिति में तथा लगातार व्रोन्स्की का नाम दोहराया जाने पर उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते थे । बालक के लिये जैसे उछलना-कूदना स्वाभाविक है, वैसे ही कारेनिन के लिये अच्छी-अच्छी और बुद्धिमत्तापूर्ण बातें करना स्वाभाविक था । वह कह रहा था :

"फ़ौजी यानी रिसाले की घुड़दौड़ों में खतरा तो घुड़दौड़ों की एक ज़रूरी शर्त है। अगर इंगलैंड अपने सैन्य इतिहास में घुड़सेना के बहुत ही शानदार कारनामों का उल्लेख कर सकता है, तो केवल इसलिये कि उसने पुराने ज़माने से अपने लोगों और पशुओं में यह शक्ति पैदा की है । मेरे मतानुसार तो खेल-कूद का बहुत महत्त्व है, और सदा की भांति, हम केवल सतही पहलू की तरफ ध्यान देते हैं । "

"सतही पहलू की तरफ़ नहीं, " प्रिंसेस त्वेरस्काया ने कहा । " कहते हैं कि एक अफ़सर ने अपनी दो पसलियां तोड़ ली हैं। कारेनिन केवल दांतों की झलक देते हुए अपने विशेष ढंग से मुस्कराया ।

"प्रिंसेस, चलो हम मान लेते हैं कि यह सतही नहीं, बाहरी नहीं, बल्कि आन्तरिक है । किन्तु महत्त्व की बात यह नहीं है, ” और उसने फिर से जनरल को सम्बोधित किया, जिसके साथ गम्भीरतापूर्वक बातचीत कर रहा था, "यह नहीं भूलियेगा कि सैनिक ही घुड़दौड़ में हिस्सा लेते हैं, जिन्होंने इस काम को खुद अपने लिये चुना है और आपको यह भी मानना होगा कि हर पेशे का अपना बुरा पहलू भी होता है। यह तो सैनिक के प्रत्यक्ष कर्त्तव्यों में से एक है। घूंसेबाज़ी का बेहूदा खेल या सांडों के साथ लोगों की लड़ाई का स्पेनी खेल बर्बरता का लक्षण है। किन्तु विशेषीकृत खेल विकास का लक्षण है । "

“ नहीं, मैं तो फिर कभी नहीं आऊंगी। बहुत ही उत्तेजित हो जाती हूं मैं इससे,” प्रिंसेस बेत्सी ने कहा । " मैं ठीक कह रही हूं न आन्ना?”

"उत्तेजना तो होती है, मगर नज़र हटाना मुमकिन नहीं, " किसी दूसरी महिला ने ख़्याल जाहिर किया । "अगर मैं रोम-वासिनी होती, तो सरकस का हर तमाशा देखती ।"

आन्ना ने कुछ भी नहीं कहा और दूरबीन को आंखों के सामने किये हुए एक ही जगह पर दृष्टि जमाये रही ।

इसी समय ऊंचे क़द का एक जनरल दर्शक - मण्डप के बीच से गुज़रा । कारेनिन अपनी बात बीच में ही छोड़कर झटपट, किन्तु गरिमापूर्वक उठा और उसने बहुत झुककर जनरल को प्रणाम किया । "आप घुड़दौड़ में हिस्सा नहीं ले रहे हैं ?” जनरल ने उससे मज़ाक़ किया ।

"मेरी घुड़दौड़ ज़्यादा मुश्किल है," कारेनिन ने आदरपूर्वक उत्तर दिया ।

यद्यपि इस उत्तर का कोई अर्थ नहीं था, तथापि जनरल ने ऐसा ज़ाहिर किया कि उसे समझदार आदमी से समझदारी की बात सुनने को मिली है और वह उसके la pointe de la sauce1 को अच्छी तरह समझता है।

1. हाज़िरजवाबी। ( फ़्रांसीसी )

"दो पक्ष हैं, " कारेनिन ने फिर से कहना शुरू किया, "खेल में भाग लेनेवाले और दर्शक । ऐसे तमाशों का शौक़ दर्शकों के नीचे स्तर का लक्षण है, मैं इससे सहमत हूं, लेकिन ..."

"प्रिंसेस, शर्त हो जाये !" नीचे से ओब्लोन्स्की ने बेत्सी को सम्बोधित किया । "आप किसके हक़ में हैं ?"

आन्ना और मैं तो प्रिंस कुज़ोव्लेव के हक़ में हैं," बेत्सी ने जवाब दिया।

"और मैं व्रोन्स्की के । दस्तानों की जोड़ी की शर्त हो जाये ।"

"ठीक है ! "

"कितना बढ़िया है यह नज़ारा, ठीक है न ? "

जब तक उसके आस-पास दूसरे बातें करते रहे, कारेनिन ख़ामोश रहा, लेकिन उनके चुप होते ही फिर से बोलने लगा ।

"मैं सहमत हूं, किन्तु साहसपूर्ण खेल...." उसने कहना आरम्भ किया ।

मगर इसी वक़्त घुड़सवारों को दौड़ आरम्भ करने का संकेत दिया गया और सभी ने बातचीत बन्द कर दी। कारेनिन भी खामोश हो गया और हर कोई उठकर नदी की ओर देखने लगा । कारेनिन को घुड़दौड़ों में कोई दिलचस्पी नहीं थी और इसलिये वह घुड़दौड़ में भाग लेनेवालों की तरफ़ न देखते हुए खोया-खोया-सा दर्शकों पर नज़र दौड़ाने लगा। उसकी दृष्टि आन्ना पर रुक गयी ।

आन्ना के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था और उस पर कठोरता झलक रही थी। वह प्रत्यक्षतः एक को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति या चीज़ को नहीं देख रही थी । उसका हाथ पंखे को कसकर दबाये था और उसने सांस रोक रखी थी । कारेनिन ने उसकी तरफ़ देखा और झटपट नज़र हटाकर दूसरे चेहरों को देखने लगा ।

"हां, वह महिला और दूसरी महिलायें भी बहुत उत्तेजित हैं, यह बिल्कुल स्वाभाविक है," कारेनिन ने अपने आपसे कहा । उसने आन्ना की तरफ़ देखना नहीं चाहा, लेकिन उसकी दृष्टि बरबस उसकी तरफ़ खिंच गई। उसने यह कोशिश करते हुए फिर इस चेहरे को ग़ौर से देखा कि उस पर जो कुछ इतना स्पष्ट लिखा हुआ है, उसे न पढ़े, मगर अपनी इच्छा के विरुद्ध भयभीत होते हुए उस पर वह पढ़ा, जो वह पढ़ना नहीं चाहता था ।

नदी लांघते समय कुज़ोव्लेव के गिरने से सभी परेशान हो उठे, लेकिन कारेनिन ने आन्ना के पीले, उल्लासपूर्ण चेहरे पर यह साफ़ देखा कि जिसकी ओर वह देख रही थी, वह नहीं गिरा । मखोतिन और व्रोन्स्की के बड़ा अवरोध लांघने के बाद जब अगला अफ़सर सिर के बल गिरकर मौत के मुंह में पहुंच गया और सभी लोग कांप उठे, तब भी कारेनिन ने देखा कि आन्ना का इसकी ओर ध्यान तक नहीं गया और वह मुश्किल से यह समझ पाई कि लोग उसके इर्द-गिर्द क्या बात कर रहे हैं। लेकिन वह बार-बार और बड़ी दृढ़ता से आन्ना के चेहरे को ध्यानपूर्वक देखता था। सरपट घोड़ी दौड़ाते व्रोन्स्की को देखने में पूरी तरह खोई हुई आन्ना ने बग़ल से अपने चेहरे पर पति की रूखी आंखों की एकटक दृष्टि अनुभव की ।

क्षणभर को उसने मुड़कर देखा, पति के चेहरे पर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली, तनिक नाक-भौंह सिकोड़ी और फिर से मुंह फेर लिया ।

"ओह, मेरी बला से," उसने मानो उससे कहा और इसके बाद एक बार भी पति की तरफ़ नहीं देखा ।

घुड़दौड़ बड़ी मनहूस रही और सत्रह लोगों में से आधे से ज़्यादा गिरकर बुरी तरह घायल हो गये। घुड़दौड़ के अन्त में सभी बहुत परेशान थे और यह परेशानी इसलिये और अधिक बढ़ गयी कि ज़ार भी अप्रसन्न रहे थे।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 29-भाग 2)

सभी ऊंचे स्वर में अपनी नापसन्दगी जाहिर कर रहे थे, सभी किसी के द्वारा कहा गया यह वाक्य "बस, अब बबर-शेरों के साथ सरकस की ही कमी रह गयी है," दोहरा रहे थे। सभी के दिल बुरी तरह दहले हुए थे और इसलिये व्रोन्स्की के गिरने पर जब आन्ना ज़ोर से चीख उठी, तो इसमें भी किसी को कुछ असाधारण प्रतीत नहीं हुआ । किन्तु इसके फ़ौरन बाद आन्ना के चेहरे पर ऐसा परिवर्तन हो गया, जो निश्चित रूप से अशोभनीय था । वह पूरी तरह से अपना संतुलन खो बैठी और पिंजरे में बन्द कर दिये गये पंछी की तरह छटपटाने लगी - कभी उठना और कहीं जाना चाहती, तो कभी बेत्सी को सम्बोधित करती ।

"आओ चलें, चलें यहां से," वह कहती।

किन्तु बेत्सी उसकी बात नहीं सुन रही थी। वह नीचे को झुकी हुई अपने पास आनेवाले जनरल से बातें कर रही थी ।

कारेनिन आन्ना के क़रीब आया और उसने बड़ी नम्रता से उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाते हुए फ़्रांसीसी में कहा :

"अगर आपकी ऐसी इच्छा है, तो आइये चलें ।"

किन्तु आन्ना जनरल के शब्दों पर कान लगाये थी और पति की तरफ़ उसने कोई ध्यान नहीं दिया ।

"कहते हैं कि उसकी भी टांग टूट गयी है," जनरल कह रहा था। "यह तो हद ही हो गयी ।"

आन्ना ने पति को कोई जवाब दिये बिना अपनी दूरबीन ऊंची की और उस जगह को गौर से देखा, जहां व्रोन्स्की गिरा था । किन्तु वह जगह इतनी दूर थी और वहां लोगों की इतनी भीड़ जमा थी कि कुछ भी देख पाना सम्भव नहीं था । उसने दूरवीन नीचे कर ली और जाना चाहा, मगर इसी समय एक अफ़सर घोड़ा दौड़ाता हुआ आया और उसने ज़ार को कुछ सूचना दी। आन्ना सुनने की कोशिश करते हुए आगे को झुक गयी ।

"स्तीवा ! स्तीवा !” उसने अपने भाई को पुकारा ।

लेकिन भाई ने उसकी आवाज़ नहीं सुनी। आन्ना ने फिर यहां से जाना चाहा ।

"अगर आप जाना चाहती हैं, तो मैं एक बार फिर अपना हाथ आपकी ओर बढ़ाता हूं" कारेनिन ने आन्ना का हाथ छूते हुए कहा । उसने वितृष्णा से अपना हाथ हटा लिया और उसकी तरफ़ देखे बिना उत्तर दिया :

"नहीं, नहीं, मुझे परेशान नहीं कीजिये, मैं नहीं जाना चाहती ।"

आन्ना ने इस समय देखा कि व्रोन्स्की जहां गिरा था, वहां से एक अफ़सर घेरे को लांघता हुआ दर्शक - मण्डप की तरफ भागा आ रहा है । बेत्सी ने उसकी तरफ़ रूमाल हिलाया ।

अफ़सर ने यह ख़बर दी कि घुड़सवार को चोट नहीं लगी, मगर घोड़ी की पीठ टूट गयी है ।

यह सुनकर आन्ना झटपट बैठ गयी और उसने पंखे से अपना चेहरा ढक लिया। कारेनिन ने देखा कि वह रो रही है और न सिर्फ़ आंसुओं, बल्कि उन सिसकियों को भी नहीं रोक पा रही है, जिनसे उसका वक्ष हिल-डुल रहा था । कारेनिन ने उसे सम्भलने का समय देने के लिये अपनी ओट में कर लिया ।

“ मैं तीसरी बार आपको अपना हाथ थामने के लिये कहता हूं,"

"कुछ देर बाद उसने आन्ना को फिर सम्बोधित करते हुए कहा । आन्ना उसकी तरफ़ देख रही थी और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। प्रिंसेस बेत्सी ने उसकी मदद की ।

"नहीं, अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच, मैं आन्ना को अपने साथ लाई थी और मैं ही उसे पहुंचा आऊंगी," बेत्सी ने उनकी बातचीत में दखल देते हुए कहा ।

" मैं माफ़ी चाहता हूं, प्रिंसेस " उसने शिष्टता से मुस्कराकर, किन्तु दृढ़तापूर्वक उससे आंख मिलाते हुए जवाब दिया, " लेकिन मैं देख रहा हूं कि आन्ना की तबीयत अच्छी नहीं है और चाहता हूं कि वह मेरे साथ चले ।"

आन्ना ने निराशा से इधर-उधर देखा, चुपचाप उठी और पति का हाथ थाम लिया ।

"मैं अपने किसी आदमी को उसके पास भेज दूंगी, हाल-चाल मालूम करके वह तुम्हें सूचना दे जायेगा, ” बेत्सी ने फुसफुसाकर कहा ।

दर्शक-मण्डप से बाहर जाते हुए कारेनिन ने सदा की भांति मिलने- जुलनेवालों से बातचीत की और आन्ना को भी हमेशा की तरह उनके उत्तर देने और बातचीत करनी पड़ी। लेकिन उसे तो अपनी सुध-बुध ही नहीं थी और वह पति का हाथ थामे हुए मानो सपने में चली जा रही थी ।

"उसे चोट लगी या नहीं ? लोगों का कहना सच है या नहीं ? आयेगा या नहीं ? आज उससे मुलाक़ात होगी या नहीं ?" वह सोच रही थी ।

आन्ना चुपचाप कारेनिन की बग्घी में जा बैठी और चुप्पी साधे हुए ही बग्घियों के जमघट में से निकल गयी। कारेनिन ने जो कुछ देखा था उसके बावजूद अपनी पत्नी की वास्तविक स्थिति के बारे में उसने अपने को सोचने नहीं दिया। उसने केवल बाहरी लक्षणों को देखा। उसने देखा कि आन्ना ने वहां शिष्टता का परिचय नहीं दिया और उससे यह कह देना अपना कर्त्तव्य माना। लेकिन उसके लिये सिर्फ़ इतना ही कहना, इससे अधिक कुछ न कहना बड़ा मुश्किल था। उसने यह कहने के लिये कि कैसे आन्ना ने वहां अशिष्ट व्यवहार किया, मुंह खोला, लेकिन अनचाहे ही बिल्कुल दूसरी बात कह दी ।

"फिर भी ऐसे क्रूर दृश्यों के प्रति हमारा कैसा झुकाव है, उसने कहा। “ मैं देख रहा हूं..."

"क्या ? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा," आन्ना ने तिरस्कारपूर्वक कहा।

कारेनिन बुरा मान गया और उसी वक़्त वह कहने लगा, जो कहना चाहता था।

"मुझे आपसे कहना ही होगा, ” उसने शुरू किया ।

"लो, मामला सामने आने लगा," आन्ना ने सोचा और उसे दहशत महसूस होने लगी ।

"मुझे आपसे कहना ही होगा कि आज आपने अशिष्टता का परिचय दिया," कारेनिन ने फ्रांसीसी में कहा ।

"कैसे मैंने अशिष्टता का परिचय दिया ?" जल्दी से पति की ओर घूमते और उससे नज़रें मिलाते हुए उसने ऊंची आवाज़ में पूछा। इस बार उसके चेहरे पर पहले की तरह तनिक प्रसन्नतापूर्ण दुराव-छिपाव की जगह दृढ़ता का भाव था और वह बड़ी मुश्किल से अनुभूत भय को उसकी ओट में छिपा पा रही थी ।

“उसे नहीं भूलिये," उसने कोचवान के पीछे खुली हुई खिड़की की तरफ़ संकेत करते हुए कहा ।

कारेनिन ने उठकर खिड़की का शीशा चढ़ा दिया ।

"क्या अशिष्ट लगा आपको ?” आन्ना ने दोहराया ।

"वह हताशा, जो एक घुड़सवार के गिरने पर आपने प्रकट की ।" पति को आशा थी कि वह आपित्त करेगी, लेकिन आन्ना अपने सामने देखती हुई खामोश रही ।

"मैंने पहले ही आपसे यह अनुरोध किया था कि ऊंचे समाज, में आपका आचरण ऐसा होना चाहिये कि दुर्भावनापूर्ण लोग आपके बारे में कुछ बुरा न कह सकें । कभी वह वक़्त भी था, जब मैंने हमारे आपसी सम्बन्धों की बात की थी, लेकिन मैं अब उनकी चर्चा नहीं करता हूं। अब मैं बाहरी सम्बन्धों की ही ज़िक्र करता हूं। आपका आचरण अच्छा नहीं था और मैं चाहता हूं कि फिर कभी ऐसा न हो ।"

आन्ना ने उसके आधे शब्द तो सुने ही नहीं । उसे उससे भय अनुभव हो रहा था और वह यह सोच रही थी, क्या यह सच है कि व्रोन्स्की को चोट नहीं लगी। क्या उसी के बारे में यह कहा जा रहा था कि वह सही-सलामत है, मगर घोड़ी की पीठ टूट गयी ? कारेनिन की बात ख़त्म होने पर वह केवल बनावटी ढंग से व्यंग्यपूर्वक मुस्करा दी और उसने कोई जवाब नहीं दिया, क्योंकि पति जो कुछ कह रहा था, उसने सुना ही नहीं था । कारेनिन साहसपूर्वक बोलने लगा, किन्तु जब उसने साफ़ तौर पर अपने शब्दों का भाव समझा, तो उसी भय ने, जिसे आन्ना अनुभव कर रही थी, उसे भी दबोच लिया । उसने आन्ना की यह मुस्कान देखी और वह एक अजीब चक्कर में पड़ गया।

“वह मेरे सन्देहों पर मुस्करा रही है। हां, वह अभी मुझसे वही कहेगी, जो उसने तब कहा था-मेरे सन्देहों के लिये कोई आधार नहीं है, कि यह सब हास्यास्पद है ।"

अब, जबकि सारी बात स्पष्ट हो जाने का भय उसके ऊपर मंडरा रहा था, वह जी-जान से यही चाहता था कि आन्ना पहले की भांति मज़ाक़ उड़ाती हुई उसे यही जवाब दे कि उसके सन्देह हास्यास्पद हैं और उनका कोई आधार नहीं है। जो कुछ वह जानता था, इतना भयानक था कि अब सभी बातों पर विश्वास करने को तैयार था किन्तु आन्ना के डरे-सहमे और उदास चेहरे का भाव अब धोखे की भी आशा नहीं पैदा करता था ।

"मुमकिन है कि मुझसे भूल हुई हो, " उसने कहा। अगर ऐसा हो, तो माफ़ी चाहूंगा ।

"नहीं, आपसे भूल नहीं हुई," पति के कठोर चेहरे को हताशा से देखकर आन्ना ने धीरे से कहा । " आपसे भूल नहीं हुई । मैं बेहद परेशान थी और अब भी परेशान हुए बिना नहीं रह सकती। मैं आपकी बातें सुन रही हूं और उसके बारे में सोच रही हूं। मैं उसे प्यार करती हूं, मैं उसकी प्रेमिका हूं, मैं आपको बर्दाश्त नहीं कर सकती, आपसे डरती हूं, आपसे घृणा करती हूं... आप मेरे साथ जो भी चाहें, कर सकते हैं।"

बग्घी के कोने में होकर वह हाथों से मुंह ढांपकर सिसकने लगी। कारेनिन बुत बना बैठा रहा और सामने की ओर टिकी हुई दृष्टि को भी उसने नहीं बदला। किन्तु उसके चेहरे पर मुर्दे जैसी निश्चल गम्भीरता आ गयी और देहातवाले बंगले तक पहुंचने के सारे रास्ते में उसके चेहरे पर यही भाव बना रहा। घर के पास पहुंचने पर उसने इसी भाव को बनाये रखते हुए आन्ना की ओर मुंह किया ।

"तो यह बात है ! लेकिन मैं उस समय तक बाहरी शिष्टता निभाने की मांग करता हूं," उसकी आवाज़ कांप रही थी, "जब तक मैं अपनी मान-मर्यादा की रक्षा के उपाय नहीं कर लेता और आपको उनकी सूचना नहीं दे देता ।" वह बग्घी से नीचे उतरा और फिर सहारा देकर उसे उतारा । नौकरों-चाकरों की उपस्थिति में उसने चुपचाप आन्ना का हाथ दबाया, बग्घी में जा बैठा और पीटर्सबर्ग चला गया ।

कारेनिन के जाने के फ़ौरन बाद बेत्सी का नौकर आया और आन्ना के नाम यह रुक्का लाया :

"मैंने व्रोन्स्की की तबीयत के बारे में जानने को आदमी भेजा था। उसने लिखा है कि तन्दरुस्त और सही-सलामत, मगर बहुत दुखी है । "

"इसका मतलब यह है कि वह आयेगा !" आन्ना ने सोचा । "कितना अच्छा किया मैंने कि पति से सब कुछ कह दिया ।"

आन्ना ने घड़ी पर नज़र डाली । व्रोन्स्की के आने में अभी तीन घण्टे का वक़्त बाक़ी था । पिछले मिलन की तफ़सीलों की यादों से उसे अपने खून में गर्मी महसूस होने लगी ।

"हे भगवान, कैसी रोशनी है ! यह भयानक है, किन्तु मुझे उसका चेहरा देखना अच्छा लगता है और मुझे यह विलक्षण प्रकाश अच्छा लगता है ... पति ! अरे, हां ... भला हो भगवान का कि उसके साथ सब कुछ समाप्त हो गया ।"

अन्ना करेनिना : (अध्याय 30-भाग 2)

उन सभी जगहों की तरह, जहां लोग जमा होते हैं, वैसे ही छोटी-सी जर्मन जल-चिकित्सा नगरी में, जहां श्चेर्बात्स्की परिवार के लोग आये थे, समाज का मानो एक सामान्य "स्फटिकीकरण" हो गया था, जो उसके हर सदस्य का विशेष और अपरिवर्तनीय स्थान निश्चित कर देता है। जिस प्रकार ठण्ड के कारण पानी की बूंद निश्चित और अनिवार्य रूप से बर्फ़ीले स्फटिक की एक ख़ास शक्ल धारण कर लेती है, वैसे ही जल-चिकित्सा नगरी में आनेवाले हर व्यक्ति का फ़ौरन उसके अनुरूप स्थान निश्चित हो जाता था ।

फ़ूर्स्ट श्चेर्बात्स्की जाम्ट गेमालिन उन्ड टोहटेर1 – फ़्लैट, जिसमें वे आकर रहे, उनके नाम तथा उन परिचितों के अनुसार, जिनसे वे मिलते-जुलते थे, उनका निश्चित और पूर्वनियत स्थान स्पष्ट हो गया था ।

1. बीवी और बेटी के साथ प्रिंस श्चेर्बात्स्की । ( ज़र्मन )

जल-चिकित्सा नगरी में इस वर्ष एक असली जर्मन राजकुमारी आई हुई थी और इसलिये समाज का "स्फटिकीकरण" और अधिक तीव्रता से हुआ था। प्रिंसेस श्चेर्बात्स्काया ने अपनी बेटी को फ़ौरन राजकुमारी के सामने पेश करना चाहा और दूसरे ही दिन यह रस्म पूरी कर डाली। पेरिस से मंगवाया गया “ अतिसाधारण " यानी अत्यधिक बढ़िया हल्का फ़्रॉक पहने हुए कीटी ने बहुत झुककर तथा बड़े सुन्दर ढंग से राजकुमारी को प्रणाम किया। राजकुमारी ने कहा : "आशा करती हूं कि इस प्यारे चेहरे पर फिर से गुलाब खिल उठेंगे, " और श्चेर्बात्स्की परिवारवालों के लिये फ़ौरन जीवन के ऐसे विशेष पथ निश्चित हो गये, जिनसे हटना सम्भव नहीं था। एक अंग्रेज़ लेडी, एक जर्मन काउंटेस और पिछले युद्ध में घायल हुए उसके बेटे, स्वीडन के एक विद्वान और M. Canut तथा उसकी बहन से भी श्चेर्बात्स्की परिवारवालों का परिचय हो गया । किन्तु श्चेर्बात्स्की परिवार के साथ सबसे ज्यादा मिलने-जुलने वालों में अनचाहे ही मास्को की महिला मारीया येव्गेन्येव्ना र्तीश्चेवा और उसकी बेटी थीं, किन्तु कीटी को यह लड़की इसलिये अच्छी नहीं लगती थी कि वह उसकी भांति प्यार के कारण ही बीमार हुई थी । मास्को का वह कर्नल भी उनसे बहुत मिलता-जुलता था, जिसे कीटी बचपन से वर्दी पहने और पद-चिह्नों वाले झब्बे लगाये देखती रही थी और जो अपनी छोटी-छोटी आंखों और फूलदार टाई के साथ गर्दन के खुले बटन के कारण बहुत हास्यास्पद लगता था और इसलिये ही बड़ी ऊब पैदा करता था कि उससे पिंड छुड़ाना मुश्किल होता था । जब यह सब कुछ इतने दृढ़ रूप में सुनिश्चित हो गया, तो कीटी को बहुत उकताहट महसूस होने लगी, खास तौर पर इसलिये कि उसके पिता कार्ल्सबाद चले गये थे और वह मां के साथ रह गयी थी। कीटी जिन्हें जानती थी, उनमें यह अनुभव करते हुए विशेष रुचि नहीं लेती थी कि उनसे कुछ भी नया नहीं जान पायेगी। इस जल-चिकित्सा नगरी में उसकी मुख्य दिलचस्पी का विषय तो उन लोगों का निरीक्षण करना और उनके बारे में अनुमान लगाना था, जिन्हें वह नहीं जानती थी। अपने स्वभाव के अनुसार कीटी लोगों में, विशेषतः अपरिचित लोगों में, सर्वश्रेष्ठ गुणों की कल्पना करती । इसलिये अब यह अनुमान लगाते हुए कि कौन क्या है, उनके बीच कैसे सम्बन्ध हैं और वे कैसे लोग हैं, कीटी बहुत ही अद्भुत और श्रेष्ठ स्वरूपों की कल्पना करती तथा अपने निरीक्षणों द्वारा उनकी पुष्टि पाती ।

ऐसे लोगों में एक रूसी लड़की कीटी की विशेष रुचि का केन्द्र-बिन्दु बनी हुई थी। वह बीमार रूसी महिला के साथ, जिसे सभी मदाम श्ताल कहते थे, यहां आयी थी । मदाम श्ताल ऊंचे समाज से सम्बन्ध रखती थी, लेकिन अधिक बीमार होने के कारण चलने-फिरने में असमर्थ थी और कभी-कभार अच्छे मौसमवाले दिनों में ही पहियोंवाली कुर्सी में बाहर आती । किन्तु, जैसा कि प्रिंसेस श्चेर्बात्स्काया ने स्पष्ट किया, वह बीमारी के कारण उतना नहीं, जितना कि घमंड की वजह से किसी रूसी से परिचित नहीं थी । रूसी लड़की मदाम श्ताल की देखभाल करती और इसके अलावा, जैसा कि कीटी ने देखा, ज़्यादा बीमार लोगों के साथ, जिनकी यहां काफ़ी बड़ी संख्या थी, मिलती-जुलती और बहुत ही स्वाभाविक ढंग से उनकी सेवा-सुश्रूषा में लगी रहती । कीटी के निरीक्षणों के अनुसार यह रूसी लड़की मदाम श्ताल की कोई रिश्तेदार नहीं थी, मगर साथ ही वेतन पानेवाली सहायिका भी नहीं थी । मदाम श्ताल उसे वारेन्का कहकर बुलाती थी और दूसरे लोग उसे m-lle वारेन्का कहते थे। मदाम श्ताल और कीटी के लिये अपरिचित अन्य लोगों के प्रति इस लड़की के सम्बन्धों के निरीक्षणों में तो कीटी रुचि लेती ही थी, लेकिन साथ ही, जैसा कि अक्सर होता है, इस m-lle वारेन्का के प्रति वह अनबूझ आकर्षण अनुभव करती और उनकी आपस में मिलनेवाली नज़रों से यह भी महसूस करती कि वह खुद भी उसे अच्छी लगती है ।

M-lle वारेन्का कुछ ऐसी नहीं थी, जिसके यौवन का पहला उभार ढल चुका हो, बल्कि ऐसे प्राणी जैसी थी, जिसपर जवानी का रंग कभी आया ही न हो। उसकी उम्र उन्नीस भी हो सकती थी और तीस भी । नाक-नक्शे की दृष्टि से चेहरे के रोगी जैसे पीले रंग के बावजूद वह बदसूरत होने के बजाय खूबसूरत थी। अगर वह बहुत ही कृशकाय न होती और मझोले क़द के साथ उसका बहुत बड़ा सिर न होता, तो उसकी आकृति भी अच्छी लगती । किन्तु पुरुषों के लिये वह आकर्षक नहीं हो सकती थी । वह सुन्दर और बेशक पूरी पंखुड़ियोंवाले, किन्तु मुरझा चुके तथा सुगन्धहीन पुष्प के समान थी। इसके अलावा वह इस कारण भी पुरुषों के लिये आकर्षक नहीं हो सकती थी कि उसमें वह कुछ नहीं था, जो कीटी में बहुत अधिक था यानी जीवन की संयत अग्नि और अपने आकर्षण की चेतना ।

वारेन्का हमेशा काम में व्यस्त प्रतीत होती, जिसके बारे में कोई सन्देह भी नहीं हो सकता था, और इसलिये ऐसा लगता था कि अन्य किसी चीज़ में उसकी दिलचस्पी नहीं हो सकती । कीटी की तुलना में इस प्रतिकूलता के कारण वह कीटी को विशेषतः अपनी ओर खींचती थी । कीटी अनुभव करती कि उसमें उसके जीवन के ढंग में उसे वह कुछ मिल जायेगा, जिसे वह अब यातनापूर्वक ढूंढ़ रही थी यानी ऊंचे समाज में मर्दों के प्रति लड़कियों के सम्बन्धों के दायरे के बाहर, जो अब उसे ग्राहकों की प्रतीक्षा में माल के लज्जाजनक प्रदर्शन लगते थे, वह जीवन में रुचियां और जीवन की गरिमा पा सकेगी। अपनी इस अपरिचित सहेली को कीटी जितना अधिक देखती उसे इस बात का उतना ही अधिक विश्वास होता जाता था कि उसके बारे में वह जैसी कल्पना करती है, वह वैसी ही पूर्णता का आदर्श रूप है और उससे परिचित होने की उसकी इच्छा उतनी ही तीव्र होती जाती थी ।

दोनों लड़कियां दिन में कई बार एक दूसरी के सामने आतीं और हर मुलाक़ात में कीटी की आंखें यह कहती प्रतीत होतीं-"कौन हो तुम ? क्या हो तुम ? यह सच है न कि तुम वैसी ही अद्भुत हो, जैसी मैं तुम्हारी कल्पना करती हूं ? किन्तु भगवान के लिये ऐसा नहीं सोचियेगा, " उसकी नज़र इतना और कहती लगती, " कि मैं ज़बर्दस्ती आपसे जान-पहचान करना चाहती हूं। मैं तो केवल मुग्ध होकर आपको देखती और आपसे प्यार करती हूं। " " मैं भी आपको प्यार करती हूं और आप बहुत, बहुत ही प्यारी हैं। अगर मेरे पास फ़ुरसत का वक़्त होता, तो आपको और भी ज़्यादा प्यार करती, इस अज्ञात लड़की की नज़र जवाब देती । वास्तव में ही कीटी देखती कि वह हमेशा बहुत व्यस्त रहती है-या तो किसी रूसी परिवार के बच्चों को खनिज जल के स्रोतों से ले जाती होती, या किसी बीमार औरत के लिये कम्बल लाती और उसे अच्छी तरह से ओढ़ाती दिखाई देती, या खीझ उठनेवाले किसी रोगी का ध्यान किसी दूसरी ओर करने की कोशिश में लगी दिखती, या फिर किसी के लिये बिस्कुट चुनती और खरीदती होती ।

श्चेर्बात्स्की परिवार के आने के जल्द बाद ही सुबह के समय जल-स्रोतों पर दो और व्यक्ति दिखाई देने लगे, जिनकी ओर सभी अप्रिय भावना से देखते थे। इनमें से एक बहुत ही लम्बा-तड़ंगा और कुछ झुकी हुई पीठ तथा बहुत ही बड़े-बड़े हाथोंवाला पुरुष था । उसकी आंखें काली, भोली-भाली और साथ ही भयानक थीं और वह अपने क़द की तुलना में छोटा और पुराना-सा ओवरकोट पहने रहता था । उसके साथ एक चेचकरू तथा प्यारी-सी नारी थी, जो बहुत ही भद्दे तथा कुरुचिपूर्ण कपड़े पहने थी । इन दोनों को रूसियों के रूप में पहचानकर कीटी अपनी कल्पना में उनके बारे में बहुत बढ़िया और मर्मस्पर्शी प्रेम-कथा भी रचने लगी थी । किन्तु प्रिंसेस श्चेर्बात्स्काया ने आगन्तुक-सूची से यह मालूम करके कि ये दोनों निकोलाई लेविन और मारीया निकोलायेन्ना थे, कीटी को बताया कि यह लेविन कितना बुरा आदमी है और इन दोनों के बारे में उसकी सारी कल्पनायें हवा हो गयीं। मां की बातों के कारण तो इतना अधिक ऐसा नहीं हुआ, जितना इस वजह से कि वह कोन्स्तान्तीन लेविन का भाई था । कीटी के लिये ये दोनों व्यक्ति सहसा अत्यधिक अप्रिय हो गये। सिर को झटकने की अपनी आदत के कारण यह लेविन अब कीटी के हृदय में अदम्य घृणा-भाव पैदा करता ।

कीटी को लगता कि उसकी बड़ी-बड़ी और भयानक आंखें, जो उसे एकटक देखती रहती थीं, नफ़रत और व्यंग्य का भाव व्यक्त करती हैं और वह इस कोशिश में रहती कि उससे मुलाक़ात न हो ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 31-भाग 2)

बुरे मौसम का दिन था, सुबह से पानी बरस रहा था और छतरियां लिये हुए रोगी गैलरी में जमा थे। कीटी अपनी मां और मास्कोवासी कर्नल के साथ, जो फ़्रैंकफ़र्ट में खरीदे गये सिले-सिलाये यूरोपीय ढंग के फ़ाक-कोट की बड़ी खुशी से नुमाइश कर रहा था, गैलरी में टहल रही थी । ये तीनों गैलरी के एक ओर टहल रहे थे और इस तरह दूसरी ओर चल रहे लेविन से बचने की कोशिश करते थे । वारेन्का अपना काला फ़ाक और नीचे की ओर मुड़े हुए किनारोंवाली काली टोपी पहने एक अंधी फ़्रांसीसी नारी के साथ सारी गैलरी का चक्कर लगाती थी और हर बार ही जब कीटी सामने आती, तो वे मैत्रीपूर्ण दृष्टि से एक-दूसरी को देखतीं ।

"मां, मैं इससे बात कर सकती हूं ?" अपनी अपरिचिता की ओर देखती और यह महसूस करती हुई कि वह जल स्रोत के पास आ रही है और वहां वे मिल सकती हैं, उसने पूछा ।

"हां, अगर तुम ऐसा चाहती हो, तो मैं खुद उसके बारे में पहले जानकारी प्राप्त करके बात कर लेती हूं," मां ने उत्तर दिया । "क्या खास चीज़ पा ली है तुमने उसमें ? कोई सहचरी ही होगी । यदि चाहती हो, तो मैं मदाम श्ताल से परिचय कर लेती हूं। मैं उसकी belle soeur1 को जानती थी, मां ने गर्व से सिर ऊपर उठाते हुए इतना और कह दिया ।

1. भाभी। ( फ्रांसीसी )

"कीटी को मालूम था कि उसकी मां इस बात से नाराज़ है कि मदाम श्ताल मानो उससे परिचय करने से कतराती है। कीटी ने अपनी बात पर ज़ोर नहीं दिया ।

"कितनी अद्भुत, कैसी प्यारी है !” उसने वारेन्का की ओर देखते हुए कहा, जो उस समय फ़्रांसीसी नारी को पानी से भरा गिलास दे रही थी । “ देखिये तो कितनी सादगी और मधुरता है उसमें ।"

तुम्हारे ऐसे engouements1 पर मुझे हंसी आती है," प्रिंसेस ने कहा । "यही अच्छा होगा कि वापस चलें " अपनी संगिनी और एक जर्मन डाक्टर के साथ लेविन को अपनी तरफ़ आते देखकर उसने कहा। लेविन डाक्टर को ऊंची और झल्लाई हुई आवाज़ में कुछ कह रहा था।

1. आकर्षण। ( फ़्रांसीसी )

वे वापस जाने के लिये मुड़े ही थे कि अचानक ऊंची बातचीत नहीं, बल्कि चिल्लाहट सुनाई दी । लेविन वहीं रुककर चिल्ला रहा था और डाक्टर भी गुस्से से लाल-पीला हो रहा था। उनके गिर्द लोगों की भीड़ जमा होने लगी थी। प्रिंसेस और कीटी जल्दी से खिसक चलीं, लेकिन कर्नल यह जानने के लिये कि क्या मामला है, भीड़ में जा खड़ा हुआ ।

कुछ मिनट बाद कर्नल उनसे आ मिला ।

"क्या हुआ था वहां ?" प्रिंसेस ने पूछा ।

"बहुत शर्म और बेइज़्ज़ती की बात है !" कर्नल ने जवाब दिया । "एक ही चीज़ से डर लगता है-विदेश में कहीं रूसी से मुलाक़ात न हो जाये। उस लम्बे महाशय ने डाक्टर को भला-बुरा और यह कहने की हिम्मत की कि वह उसका ढंग से इलाज नहीं करता और उसे अपनी छड़ी तक उठाकर दिखाई । डूब मरने की बात है !"

"ओह, कितना बुरा हुआ यह ! " प्रिंसेस ने कहा । "तो क्या अन्त हुआ इस क़िस्से का ? "

"यही शुक्र समझिये कि इसी वक़्त उस लड़की ने आकर दखल दे दिया....क्या नाम है उसका... वह जो खुमी जैसी टोपी पहने रहती है । रूसी लगती है," कर्नल ने कहा ।

“M-lle वारेन्का ?" कीटी ने खुश होते हुए पूछा ।

"हां, हां। उसी ने सबसे पहले स्थिति को सम्भाला, उस महाशय की बांह थामकर वह उसे दूर ले गयी।

"देखा, अम्मां," कीटी ने मां से कहा, " आप हैरान होती हैं कि मैं उस पर मुग्ध हुआ करती हूं ।"

अगले दिन से अपनी इस अपरिचित सहेली की ओर ध्यान देते हुए कीटी ने देखा कि m-lle वारेन्का के लेविन और उसकी संगिनी के साथ भी वैसे ही सम्बन्ध हो गये हैं, जैसे अन्य protégés यानी उन लोगों के साथ थे, जिनकी वह चिन्ता करती थी । वह उनके पास जाती, उनसे बातचीत करती और उस नारी के लिये, जो कोई भी विदेशी भाषा नहीं जानती थी, दुभाषिये की भूमिका निभाती ।

कीटी अपनी मां से वारेन्का के साथ जान पहचान करने की अनुमति देने के लिये और अधिक अनुरोध करने लगी। प्रिंसेस को मदाम श्ताल के साथ, जो कुछ घमण्ड दिखा रही थी, परिचय करने के मामले में पहले क़दम उठाना बेशक नापसन्द था, फिर भी उन्होंने वारेन्का के बारे में जांच-पड़ताल की और सारी तफ़सीलें मालूम करके इस नतीजे पर पहुंचीं कि उससे जान-पहचान करने में यदि कोई ख़ास अच्छाई नहीं, तो कुछ बुराई भी नहीं है । इसके बाद उन्होंने स्वयं वारेन्का के पास जाकर उससे परिचय किया ।

कीटी जब जल स्रोत पर गयी थी और वारेन्का नानबाई की दुकान के सामने अकेली खड़ी थी, तो यह अच्छा मौका देखकर प्रिंसेस उसके क़रीब पहुंचीं ।

"मैं आपसे परिचय करना चाहती हूं, " प्रिंसेस ने अपनी गौरवमयी मुस्कान के साथ कहा । "मेरी बेटी तो आप पर लट्टू है," वह बोलीं । "शायद आप मुझे नहीं जानती । मैं ..."

"मैं खुद भी उन्हें बहुत चाहती हूं, प्रिंसेस,” वारेन्का ने झटपट जवाब दिया ।

"हमारे दयनीय हमवतन के लिये कितना भला काम किया कल आपने ! " प्रिंसेस ने कहा ।

वारेन्का लज्जारुण हो गयी ।

"मुझे तो कुछ याद नहीं, लगता है कि मैंने तो कुछ नही किया," वारेन्का ने जवाब दिया ।

"किया कैसे नहीं । आपने उस लेविन को कटु परिणामों से बचा लिया । "

"हां . sa compagne1 ने मुझे पुकारा और मैंने लेविन को शान्त करने का यत्न किया। वह बहुत ज़्यादा बीमार हैं और डाक्टर से बहुत नाराज़ थे। मुझे तो इन रोगियों की चिन्ता करने की आदत है ।"

1. उनकी संगिनी । ( फ़्रांसीसी )

"हां, मैंने सुना है कि आप मेन्तोन में अपनी मौसी सम्भवतः मदाम श्ताल के साथ रहती हैं। मैं उनकी belle soeur को जानती थी ।"

"नहीं, वह मेरी मौसी नहीं हैं। मैं उन्हें maman कहती हूं, लेकिन सगी बेटी नहीं हूं। उन्होंने मुझे पाला है," फिर से लज्जारुण होते हुए वारेन्का ने उत्तर दिया ।

यह इतनी सादगी से कहा गया था और उसके चेहरे का भाव इतना सच्चा और निश्छल था कि प्रिंसेस को यह समझते देर न लगी कि कीटी वारेन्का को क्यों प्यार करने लगी थी।

"तो उस लेविन का क्या हुआ ?" प्रिंसेस ने पूछा ।

"वह यहां से जा रहे हैं,” वारेन्का ने उत्तर दिया ।

इसी समय इस खुशी से बाग़-बाग़ होते हुए कि मां ने उसकी अज्ञात सहेली से जान-पहचान कर ली है, कीटी जल स्रोत से इनके पास आई।

"तो कीटी, पूरी हो गयी तुम्हारी जान पहचान करने की अति तीव्र इच्छा m-lle ..."

"वारेन्का से, ” वारेन्का ने मुस्कराकर प्रिंसेस की बात पूरी की, “ मुझे सब ऐसे ही बुलाते हैं ।"

कीटी का चेहरा खुशी से लाल हो गया और वह कुछ कहे बिना देर तक अपनी नई सहेली का हाथ दबाती रही। वारेन्का ने जवाब में कीटी का हाथ नहीं दबाया । उसका हाथ हिले-डुले बिना कीटी के हाथ में पड़ा रहा। हाथ ने तो हाथ का जवाब नहीं दिया, लेकिन m-lle वारेन्का का चेहरा शान्तिमय प्रसन्नतापूर्ण, यद्यपि कुछ उदासी भरी मुस्कान के साथ खिल उठा और उसके बड़े-बडे किन्तु सुन्दर दांतों की झलक मिली ।

"मैं तो खुद बहुत अर्से से यही चाहती थी," वारेन्का ने कहा । लेकिन आप तो इतनी व्यस्त रहती हैं ..."

"ओह नहीं, इसके विपरीत मैं तो बिल्कुल व्यस्त नहीं रहती हूं..." वारेन्का ने कहा, मगर इसी समय उसे अपने नये परिचितों को छोड़कर जाना पड़ा, क्योंकि एक रूसी रोगी की छोटी-छोटी दो बच्चियां उसके पास भागी आई थीं ।

वारेन्का, मां बुला रही हैं, ” उन्होंने चिल्लाकर कहा ।

और वारेन्का उनके पीछे-पीछे चल दी ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 32-भाग 2)

प्रिंसेस श्चेर्बात्स्काया ने वारेन्का के अतीत और मदाम श्ताल के साथ उसके सम्बन्धों तथा खुद मदाम श्ताल के बारे में जो तफ़सीलें मालूम कीं, वे निम्न थीं ।

मदाम श्ताल, जिसके बारे में कुछ लोगों का यह कहना था कि उसने अपने पति को बुरी तरह सताया था, मगर दूसरे यह कहते थे कि पति ने अपनी बदचलनी से उसके नाक में दम कर डाला था, हमेशा से ही बीमार तथा सनकी क़िस्म की औरत रही थी । पति से तलाक़ लेने के बाद ही उसने अपने पहले बच्चे को जन्म दिया। यह बच्चा उसी वक़्त मर गया और मदाम श्ताल के रिश्तेदारों ने, जो उसके अत्यधिक संवेदनशील स्वभाव से परिचित थे और डरते थे कि इस खबर से कहीं उसकी मौत ही न हो जाये, उसी रात को पीटर्सबर्ग के उसी घर में शाही बावर्ची के परिवार में पैदा हुई बेटी को लाकर मरे हुए बच्चे की जगह लिटा दिया । यह वारेन्का थी । मदाम श्ताल को बाद में पता चल गया कि वारेन्का उसकी बेटी नहीं है, मगर वह उसका पालन-पोषण करती रही, खास तौर पर इसलिये भी कि जल्द ही वारेन्का का अपना कोई सगा सम्बन्धी इस दुनिया में नहीं रह गया था।

मदाम श्ताल दस साल से अधिक समय से लगातार विदेश में दक्षिण में ही रह रही थी और उसने कभी अपना बिस्तर नहीं छोड़ा था। कुछ लोगों का कहना था कि मदाम श्ताल ने अपने को बहुत नेक और अत्यधिक धार्मिक नारी प्रकट करके ऊंची सामाजिक स्थिति प्राप्त कर ली है और दूसरों का यह मत था कि वह वास्तव में ही बहुत ऊंची नैतिकता वाली नारी है, जो अपने आस-पास के लोगों की भलाई करने के लिये ही जीती है, जैसा कि वह ज़ाहिर करती है । कोई भी यह नहीं जानता था कि किस धर्म से उसका सम्बन्ध है, वह कैथोलिक, प्रोटेस्टेन्ट या आर्थोडाक्स धर्म की अनुयायी है । मगर एक बात बिल्कुल स्पष्ट थी कि सभी धर्मों और सम्प्रदायों के सबसे बड़े लोगों के साथ उसके मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे ।

वारेन्का स्थायी रूप से उसके साथ विदेश में रहती थी और जो लोग भी मदाम श्ताल को जानते थे, m-lle वारेन्का को भी, जैसा कि सभी उसे कहते थे, जानते और प्यार करते थे।

इन सभी तफ़सीलों को जानने पर प्रिंसेस को वारेन्का के साथ अपनी बेटी के दोस्ती करने में कोई बुराई नज़र नहीं आई । विशेष रूप से इसलिये भी कि वारेन्का बहुत ही अच्छा आचार-व्यवहार जानती थी और उसका बहुत अच्छा पालन-शिक्षण हुआ था-वह बढ़िया फ़्रांसीसी और अंग्रेज़ी बोलती थी तथा सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उसने मदाम श्ताल की ओर से यह सन्देश दिया कि बीमारी के कारण वह प्रिंसेस से परिचित होने का सुख पाने में असमर्थ है।

वारेन्का से जान-पहचान होने के बाद कीटी अपनी सहेली पर अधिकाधिक मुग्ध होती गयी और हर दिन ही उसे उसमें कोई नयी खूबी दिखाई देती ।

यह मालूम होने पर कि वारेन्का अच्छा गाती है, प्रिंसेस ने उससे शाम को अपने यहां आकर गाना सुनाने का अनुरोध किया ।

"कीटी पियानो बजाती है, हमारे यहां पियानो भी है, बहुत अच्छा तो नहीं, किन्तु हम बहुत आनन्दित होंगी," प्रिंसेस ने अपनी बनावटी मुस्कान के साथ कहा, जो कीटी को इस वक़्त ख़ास तौर पर अच्छी नहीं लगी, क्योंकि उसने महसूस किया कि वारेन्का की गाने की इच्छा नहीं थी । फिर भी वारेन्का स्वर लिपियों की कापी लिये हुए शाम को आई । प्रिंसेस ने मारीया येव्गन्येव्ना, उसकी बेटी और कर्नल को भी बुला लिया था ।

वारेन्का ने इस बात की बिल्कुल परवाह नहीं की कि वहां कुछ अपरिचित लोग थे और फ़ौरन पियानो के पास चली गयी। वह पियानो पर खुद अपनी संगत नहीं कर सकती थी, लेकिन स्वर लिपि को देखकर अच्छा गा लेती थी । कीटी ने, जो अच्छा पियानो बजाती थी, उसके साथ संगत की ।

आप में तो असाधारण प्रतिभा है, वारेन्का के बहुत ही अच्छे ढंग से पहला गाना गाने के बाद प्रिंसेस ने कहा । मारीया येव्गन्येव्ना और उसकी बेटी ने वारेन्का को धन्यवाद दिया और उसकी प्रशंसा की ।

"देखिये तो, ” कर्नल ने खिड़की में से झांकते हुए कहा, " आपको सुनने के लिये कितने लोग जमा हो गये हैं । " वास्तव में खिड़की के नीचे काफ़ी भीड़ जमा हो गयी थी ।

"मैं बहुत खुश हूं कि आपको अच्छा लग रहा है," वारेन्का ने सरलता से कहा ।

कीटी ने अपनी सहेली की ओर गर्व से देखा । वह उसकी कला, उसकी आवाज़ और उसके चेहरे पर मुग्ध हो रही थी, लेकिन सबसे ज़्यादा तो उसके इस अन्दाज़ से कि वारेन्का स्पष्टतः अपने गायन को कोई विशेष महत्व नहीं देती थी और अपनी प्रशंसा के प्रति सर्वथा उदासीन थी। वह तो मानो सिर्फ़ यही पूछ रही थी-और गाऊं या इतना ही काफ़ी है ?

"अगर इसकी जगह मैं होती," कीटी अपने बारे में सोच रही थी, "तो कितना नाज़ होता मुझे अपने पर! खिड़कियों के नीचे जमा भीड़ को देखकर कितनी खुशी हुई होती मुझे ! मगर इसे कोई फर्क नहीं पड़ा। उसकी सिर्फ इतनी ही इच्छा है कि इन्कार न करे और maman को खुशी प्रदान करे। ऐसी क्या चीज़ है इसमें ? क्या चीज़ इसे सभी चीज़ों की अवहेलना करने, ऐसे आत्मनिर्भर ढंग से शान्त रहने की शक्ति प्रदान करती है ? यह जानने और इससे यह सीखने को मैं कितनी उत्सुक हूं,” वारेन्का के शान्त चेहरे को देखती हुई कीटी सोच रही थी। प्रिंसेस ने वारेन्का से और गाने को कहा तथा उसने पियानो के पास खड़े होकर अपने दुबले-पतले तथा सांवले हाथ से पियानो पर ताल देते हुए दूसरा गाना भी वैसे ही सधे, स्पष्ट और सुन्दर ढंग से गा दिया ।

स्वर-लिपियों की कापी में अगला गाना इतालवी था । कीटी ने उसका प्रारम्भिक संगीत बजाया और वारेन्का की तरफ़ देखा ।

"इसे छोड़ देते हैं," वारेन्का ने लजाते हुए कहा ।

कीटी ने अपनी चिन्तित और प्रश्नसूचक दृष्टि वारेन्का के चेहरे पर जमा दी।

"तो दूसरा ही सही," उसने पृष्ठ उलटते और उसी क्षण यह समझते हुए कि इस गाने के साथ कुछ सम्बन्धित है झटपट कहा । "नहीं,” वारेन्का ने स्वर-लिपि पर अपना हाथ रखते और मुस्कराते हुए कहा, "नहीं, यही गाऊंगी। " और उसने पहले की भांति विचलित हुए बिना शान्त और अच्छे ढंग से इसे भी गा दिया ।

गाना खत्म होने पर सबने फिर उसके प्रति आभार प्रकट किया और चाय पीने चले गये। कीटी और वारेन्का घर के पासवाले बगीचे में निकल गयीं ।

"यह सच है न कि इस गाने के साथ आपकी कोई स्मृति जुड़ी हुई है ?" कीटी ने पूछा । "आप मुझे इसके बारे में बतायें नहीं," जल्दी से इतना और जोड़ दिया, “ सिर्फ़ यही कह दें कि यह सच है ?"

"न बताने की कौन-सी बात है ? मैं बताती हूं," वारेन्का ने साधारण ढंग से कहा और उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना कहती गयी : "हां, कभी तो यह स्मृति बहुत बोझिल थी । मैं एक व्यक्ति को प्यार करती थी और उसे ही यह गाना सुनाया करती थी ।"

कीटी बड़ी-बड़ी और फैली-फैली आंखों से चुपचाप और भाव-विह्वल होकर वारेन्का की ओर देख रही थी । "मैं उसे प्यार करती थी और वह मुझे। लेकिन उसकी मां को यह पसन्द नहीं था और इसलिये उसने दूसरी लड़की से शादी कर ली । अब वह हमारे नज़दीक ही रहता है और मैं कभी-कभार उसे देखती हूं। आपने ऐसा नहीं सोचा होगा कि कभी मेरी ज़िन्दगी में भी प्यार आया था ?" उसने कहा और उसके सुन्दर चेहरे पर वह हल्की-सी लौ चमक उठी, जो जैसा कि कीटी अनुभव कर रही थी कभी उसके सारे व्यक्तित्व को रोशन करती थी ।"

"सोचा कैसे नहीं था ? अगर मैं मर्द होती, तो आप को जानने के बाद अन्य किसी को प्यार ही न कर पाती । मैं समझ नहीं पा रही हूं कि अपनी मां की खुशी के लिये वह आपको कैसे भूल गया और उसने आपको दुख दिया-उसके सीने में दिल नहीं था ।"

"ओह नहीं, वह बहुत अच्छा आदमी है और मैं दुखी नहीं, बल्कि बहुत सुखी हूं। तो क्या आज और गाना-बजाना नहीं होगा ?" घर की ओर बढ़ते हुए उसने इतना और कहा ।

“कितनी अच्छी, कितनी अच्छी हैं आप ! " कीटी ज़ोर से कह उठी और उसे रोककर चूम लिया । काश कि मैं थोड़ी-सी भी आपके समान होती !

"किसी दूसरे के समान आप क्यों होना चाहती हैं ? आप जैसी हैं, वैसी ही बहुत अच्छी हैं।" अपनी विनम्र और अलस मुस्कान के साथ वारेन्का ने कहा ।

"नहीं, मैं ज़रा भी अच्छी नहीं हूं। आप मुझे बतायें... रुकिये, आइये बैठ जायें, " कीटी ने उसे फिर से बेंच पर अपने पास बिठाते हुए कहा । " कहिये, क्या यह सोचना अपमानजनक नहीं लगता कि किसी व्यक्ति ने आपका प्यार ठुकरा दिया, कि उसने आपको अपना नहीं बनाना चाहा ?.."

"नहीं, उसने ठुकराया नहीं । मुझे विश्वास है कि वह मुझे प्यार करता था, किन्तु आज्ञाकारी बेटा है ..."

"लेकिन अगर उसने मां की इच्छा को पूरा करने के लिये नहीं, बल्कि खुद ही ऐसा किया होता ? " कीटी ने कहा और यह अनुभव किया कि उसने अपना राज़ खोल दिया है और शर्म से दहकते हुए उसके चेहरे ने उसका पर्दाफ़ाश कर डाला है ।

"तब उसने बुरा किया होता और मुझे उसके लिये अफ़सोस न होता,” वारेन्का ने उत्तर दिया और सम्भवत: वह समझ गयी थी कि अब उसकी नहीं, कीटी की चर्चा हो रही है ।

"किन्तु अपमान ?” कीटी ने कहा । "अपमान को नहीं भुलाया जा सकता, नहीं भुलाया जा सकता, अन्तिम बॉल में संगीत के रुक जाने पर अपनी दृष्टि को याद करते हुए उसने कहा ।

"अपमान की कौन-सी बात है ? आपने तो कोई बुरी बात नहीं की ?"

"बुरी से भी बढ़कर – शर्मनाक ।"

वारेन्का ने सिर हिलाया और कीटी के हाथ पर अपना हाथ रख दिया ।

"शर्म किस बात की ?" वारेन्का ने कहा । "आप उस व्यक्ति से, जो आपके प्रति उदासीन है, यह तो नहीं कह सकती थीं कि उसे प्यार करती हैं ?"

"ज़ाहिर है कि नहीं। मैंने कभी एक भी शब्द नहीं कहा, लेकिन वह जानता था। नहीं, नहीं, कुछ ऐसी नज़रें, कुछ ऐसे अन्दाज़ भी होते हैं। मैं अगर सौ बरस भी जीती रही, तो भी इस बात को नहीं भूल पाऊंगी।"

"लेकिन क्यों ? मेरी समझ में नहीं आ रहा। असली चीज़ तो यह है कि आप उसे अब प्यार करती हैं या नहीं," वारेन्का ने साफ़-साफ़ कह दिया ।

"मैं उससे नफ़रत करती हूं। मैं अपने को क्षमा नहीं कर सकती ।"

"लेकिन क्यों ? '

"शर्म, अपमान।"

"आह, काश सभी आपकी तरह संवेदनशील होते, " वारेन्का ने कहा । " एक भी ऐसी लड़की नहीं होगी, जिसे ऐसा अनुभव न हुआ हो । यह सब महत्वहीन है ।"

"तो महत्वपूर्ण क्या है ? " कीटी ने जिज्ञासापूर्ण आश्चर्य से उसके चेहरे को ग़ौर से देखते हुए पूछा ।

"ओह, बहुत कुछ महत्वपूर्ण है," यह न समझ पाते हुए कि क्या कहे, वारेन्का ने उत्तर दिया। लेकिन इसी समय खिड़की से प्रिंसेस की आवाज़ सुनाई दी :

"कीटी, ठण्ड हो गयी है ! या तो शाल ले जाओ या भीतर आ जाओ।"

"हां सचमुच, चलने का वक़्त हो गया !" वारेन्का ने उठते हुए कहा। "मुझे अभी m-me Berthe के यहां भी जाना है, उन्होंने आने का अनुरोध किया है।"

कीटी उसका हाथ थामे रही और उसकी जिज्ञासापूर्ण तथा अनुनय करती हुई दृष्टि पूछ रही थी : "क्या है वह क्या है वह सबसे महत्वपूर्ण चीज़, जो ऐसा चैन देती है ? आप जानती हैं, बतायें मुझे।" लेकिन वारेन्का तो यह समझ भी नहीं पाई कि कीटी की नज़र उससे क्या पूछ रही है। उसे तो केवल यही याद था कि अभी m-me Berthe के यहां जाना है और रात के बारह बजने से पहले घर पहुंचकर maman को चाय देनी है। वह कमरे में गयी, स्वर-लिपियां उठाईं और सबसे विदा लेकर जाने को हुई ।

"अनुमति हो तो मैं आप को छोड़ आऊं," कर्नल ने कहा।

"हां, अब रात को आप अकेली कैसे जायेंगी ? " प्रिंसेस ने कहा। "और कुछ नहीं, तो मैं अपनी नौकरानी पराशा को ही भेज देती हूं ।" कीटी ने देखा कि छोड़ने के लिये जाने के बारे में शब्द सुनते हुए वारेन्का ने बड़ी मुश्किल से अपनी मुस्कान पर क़ाबू पाया।

"नहीं, मैं हमेशा अकेली जाती हूं और मेरे साथ कभी कुछ नहीं होता,” उसने टोपी उठाते हुए कहा । कीटी को एक बार फिर चूमकर और यह बताये बिना ही कि महत्वपूर्ण चीज़ क्या है, वह बग़ल में स्वर-लिपियां दबाये फुर्ती से बाहर निकली, गर्मी की रात के हल्के अंधेरे में ग़ायब हो गयी और यह रहस्य अपने साथ ही ले गयी कि क्या महत्वपूर्ण है और क्या उसे वह गरिमा और शान्ति प्रदान करता है, जिससे ईर्ष्या हो सकती है।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 33-भाग 2)

कीटी ने मदाम श्ताल से परिचय कर लिया और इस जान-पहचान तथा वारेन्का के साथ दोस्ती ने न केवल उसे बहुत प्रभावित ही किया, बल्कि उसके घाव पर मरहम भी रख दिया । उसे यह सान्त्वना इस चीज़ में मिली कि इसकी बदौलत उसके सामने एक ऐसी बिल्कुल नई दुनिया का उद्घाटन हुआ, जिसमें उसकी अतीत की दुनिया जैसा कुछ भी नहीं था। यह बहुत ऊंची और अद्भुत दुनिया थी, जिसकी ऊंचाई से इस अतीत पर चैन से दृष्टि डाली जा सकती थी । उसे यह मालूम हुआ कि सहज वृत्ति की दुनिया के अलावा, वह अब तक जिसके वश में रही थी, एक आत्मिक जीवन भी था। धर्म ने उसके सामने ऐसे जीवन के द्वार खोले । किन्तु उस धर्म ने, जो उससे कोई सम्बन्ध नहीं रखता था, जिससे कीटी बचपन से परिचित थी और जो गिरजाघर में दोपहर तथा शाम की प्रार्थना करने, वहां लोगों से मिलने-जुलने तथा पादरी के साथ स्लाव भाषा में इंजील पढ़ने के अलावा और कुछ नहीं था। यह नया धर्म ऊंचा और रहस्यपूर्ण तथा कुछ श्रेष्ठ विचारों और भावनाओं से सम्बन्धित था, जिस पर केवल इसलिये विश्वास नहीं किया जा सकता था कि ऐसा करने का आदेश दिया गया था, बल्कि जिसे प्यार करना भी सम्भव था ।

कीटी ने शब्दों से ही यह सब नहीं जाना था । मदाम श्ताल कीटी से ऐसे प्यारे बच्चे की तरह बातचीत करती थी, जिसे देखकर अपनी जवानी की यादें ताज़ा हो जाती हैं। सिर्फ़ एक बार ही उसने इस बात का उल्लेख किया कि लोगों के सभी दुःख-दर्दों में केवल प्यार और आस्था ही सान्त्वना प्रदान करते हैं और ईसा की दया के लिये कोई भी दुःख-दर्द तुच्छ नहीं होता । इतना कहने के फ़ौरन बाद ही उसने बातचीत का विषय बदल दिया । किन्तु कीटी ने उसकी हर गतिविधि, हर शब्द, हर आसमानी दृष्टि-क्षेप से, जैसा कि कीटी उसकी दृष्टि के बारे में कहती थी, तथा विशेषतः वारेन्का से सुनी हुई उसकी जीवन-गाथा से यह जान लिया कि " महत्वपूर्ण चीज़ क्या है" और जिसे वह अब तक नहीं जानती थी।

किन्तु मदाम श्ताल का चरित्र चाहे कितना ही ऊंचा क्यों न था, उसकी सारी कहानी चाहे कितनी ही मर्मस्पर्शी क्यों न थी, उसकी वाणी चाहे कितनी ही उत्कृष्ट तथा कोमल क्यों न थी, कीटी को अनचाहे ही उसमें कुछ ऐसे लक्षण दिखाई दिये, जिनसे उसे परेशानी हुई। उसने देखा कि उसके रिश्तेदारों के बारे में पूछे जाने पर मदाम श्ताल ऐसे तिरस्कारपूर्वक मुस्कराई, जो ईसाई धर्म की कल्याणकारी भावना के अनुरूप नहीं था । उसने यह भी देखा कि एक दिन मदाम श्ताल के यहां एक कैथोलिक पादरी के आने पर वह बड़े यत्न से लैम्प के शेड में अपना चेहरा किये रही और मुस्कराती भी खास ढंग से थी। इन दोनों बातों के मामूली होने पर भी कीटी को उनसे परेशानी हुई और मदाम श्ताल के बारे में कुछ सन्देहों ने उसके दिल में सिर उठा लिया। किन्तु दूसरी ओर एकदम अकेली, रिश्तेदारों और मित्रों के बिना तथा प्यार में निराश होने के बावजूद कुछ भी न चाहने तथा किसी भी बात की शिकवा-शिकायत न करनेवाली वारेन्का उस पूर्णता का आदर्श रूप थी, जिसकी कीटी कल्पना भी नहीं कर सकती थी । वारेन्का के उदाहरण से वह यह समझ गयी कि अपने को भूलने और दूसरों को प्यार करने की ही देर है कि वह अपने को शान्त, सुखी और बहुत अच्छी अनुभव करने लगेगी। कीटी ऐसी ही बनना चाहती थी। अब अच्छी तरह से यह समझने के बाद कि " सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या है " कीटी ने इस पर मुग्ध होने तक ही अपने को सन्तुष्ट नहीं कर लिया, बल्कि उसी क्षण पूरे मन से अपने सम्मुख उद्घाटित होनेवाले इस नये जीवन को अपना व्यक्तित्व समर्पित कर दिया। मदाम श्ताल और दूसरी नारियों के बारे में कहानियों के आधार पर, जिनका वारेन्का उल्लेख करती थी, कीटी ने अपने जीवन की भावी योजना बना ली। मदाम श्ताल की भानजी Aline की तरह, जिसके बारे में वारेन्का ने बहुत कुछ बताया था, वह भी हर जगह क़िस्मत के मारों को ढूंढ़ेगी, उनकी यथाशक्ति सहायता करेगी, उनमें इंजील की प्रतियां बांटेगी, बीमारों, अपराधियों और मरते हुओं को इंजील पढ़कर सुनायेगी। अपराधियों को इंजील पढ़कर सुनाने का विचार, जैसा कि Aline करती थी, उसे विशेषतः रुचा । किन्तु ये सब गुप्त योजनायें थीं, जिनका कीटी ने न तो अपनी मां और न वारेन्का से ही ज़िक्र किया ।

वैसे तो बड़े पैमाने पर अपनी योजनाओं को अमली शक्ल देने के वक़्त का इन्तज़ार करते हुए कीटी अभी यहां जल-चिकित्सा नगरी में भी, जहां बहुत-से रोगी और दुखी लोग थे, वारेन्का के ढंग से अपने नये उसूलों को व्यवहार में लाने के बड़ी आसानी से मौक़े ढूंढ़ लेती थी ।

शुरू में तो प्रिंसेस ने सिर्फ़ इसी बात की तरफ़ ध्यान दिया कि कीटी मदाम श्ताल और विशेषतः वारेन्का की ओर अपनी engouement के, जैसा कि वह कहती थीं, बहुत अधिक प्रभाव में है। उन्होंने देखा कि कीटी न केवल अपने कार्य-कलापों, बल्कि चलने-फिरने, बातचीत करने और आंखें झपकाने के ढंग में भी अनजाने ही वारेन्का की नक़ल करती है। किन्तु बाद में प्रिंसेस ने यह भी देखा कि इस मुग्धता के अलावा बेटी में कोई गम्भीर आत्मिक परिवर्तन भी हो रहा है।

प्रिंसेस ने देखा कि कीटी शामों को मदाम श्ताल द्वारा उसे भेंट की गयी फ़्रांसीसी भाषा की इंजील पढ़ती है, जो वह पहले नहीं करती थी, कि वह ऊंचे समाज के परिचितों से कन्नी काटती है तथा उन रोगियों से मिलती-जुलती है, जो वारेन्का के संरक्षण में थे । रोगी और ग़रीब चित्रकार पेत्रोव के परिवार के तो विशेष रूप से सर्पक में आती थी । कीटी स्पष्टतः इस बात पर गर्व करती थी कि इस परिवार में वह नर्स का कर्त्तव्य पूरा करती है । यह सब कुछ अच्छा था और प्रिंसेस इसके बिल्कुल खिलाफ़ नहीं थीं, खास तौर पर इसलिये कि पेत्रोव की बीवी एक बाइज़्ज़त औरत थी और जर्मन राजकुमारी ने कीटी की गतिविधियों की ओर ध्यान देते हुए उसे फ़रिश्ता कहकर उसकी तारीफ़ की थी। अगर अति न होती, तो यह सब कुछ बहुत अच्छा होता । किन्तु प्रिंसेस ने देखा कि उनकी बेटी अति की सीमा की ओर जा रही है और इसी की उन्होंने उसे चेतावनी दी ।

“Il ne faut jamais rien outrer 1,” उन्होंने कीटी से कहा ।

1. किसी भी चीज़ में अति अच्छी नहीं । ( फ़्रांसीसी )

परन्तु बेटी ने मां को कुछ भी जवाब नहीं दिया । वह तो केवल मन ही मन यह सोचती रही कि ईसाई धर्म से सम्बन्धित मामलों में अति की बात करना उचित नहीं । उस शिक्षा के अनुसरण में अति हो ही कहां सकती है, जिसमें यह कहा गया है कि अगर तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मारा गया है, तो तुम दूसरा गाल सामने कर दो, जब कोट उतारा जाता है, तो क़मीज़ भी दे दो ? किन्तु प्रिंसेस को उसका इस अति की ओर बढ़ना पसन्द नहीं था तथा इससे भी ज़्यादा यह पसन्द नहीं था कि कीटी, जैसा कि प्रिंसेस अनुभव करती थीं, उनके सामने अपना दिल नहीं खोलना चाहती थी । वास्तव में कीटी ने अपने दृष्टि-कोणों और भावनाओं को मां से छिपा रखा था । उसने इसलिये ऐसा नहीं किया था कि अपनी मां को प्यार या उनका आदर नहीं करती थी, बल्कि इसलिये कि वे उसकी मां थीं। वह मां की तुलना में किसी के सामने भी उन्हें आसानी से प्रकट कर देती ।

"न जाने क्यों, आन्ना पाव्लोव्ना बहुत दिनों से हमारे यहां नहीं आई," प्रिंसेस ने एक दिन पेत्रोव की पत्नी के बारे में कहा । "मैंने उसे बुलवाया था। लेकिन वह तो जैसे किसी वजह से नाखुश है ।"

"नहीं, मुझे तो ऐसा कुछ दिखाई नहीं दिया, maman,” कीटी ने शर्म से लाल होते हुए कहा ।

"बहुत दिनों से तुम उनके यहां नहीं गयीं क्या ?"

"हम कल पहाड़ों पर सैर करने के लिये जा रहे हैं," कीटी ने जवाब दिया ।

"ठीक है, जाओ," प्रिंसेस ने बेटी के परेशान चेहरे को ध्यान से देखते और उसकी परेशानी के कारण का अनुमान लगाते हुए कहा ।

इसी दिन वारेन्का दोपहर के खाने पर आई और उसने बताया कि आन्ना पाव्लोव्ना ने अगले दिन पहाड़ों पर सैर के लिये जाने का इरादा बदल लिया है। प्रिंसेस ने फिर से इस बात की तरफ़ ध्यान दिया कि कीटी के चेहरे पर लाली दौड़ गयी है ।

"कीटी, पेत्रोव परिवार में तुम्हारे साथ कोई अप्रिय बात तो नहीं हो गयी है ?" जब मां-बेटी अकेली रह गयीं, तो प्रिंसेस ने पूछा । "उसने हमारे यहां बच्चों को भेजना और खुद आना भी क्यों बन्द कर दिया ?"

कीटी ने जवाब दिया कि उनके बीच कोई ऐसी बुरी बात नहीं हुई और वह बिल्कुल यह नहीं समझ पा रही है कि आन्ना पाव्लोव्ना किस कारण उससे मानो नाराज़ है। कीटी ने बिल्कुल सच्ची बात कही थी। अपने प्रति आन्ना पाव्लोव्ना के बदले हुए रवैये का कारण वह नहीं जानती थी, मगर अनुमान लगाती थी। वह ऐसी बात का अनुमान लगाती थी, जो वह न केवल मां से, बल्कि खुद से भी नहीं कह सकती थी। यह ऐसी बातों में से एक थी, जिसे आदमी जानता होता है, मगर खुद से भी नहीं कह पाता-भूल हो जाने पर बहुत भयावह और लज्जाजनक स्थिति हो सकती है ।

कीटी ने इस परिवार के साथ अपने सम्बन्धों पर बार-बार ग़ौर किया। उसे याद आया कि कैसे भेंट होने पर आन्ना पाव्लोव्ना के गोल और दयालु चेहरे पर भोली-भाली खुशी का भाव आ जाता था । उसे याद आई रोगी के बारे में हुई उनकी गुप्त बातें, उनका यह षड्यन्त्र कि रोगी को काम से, जिसकी डाक्टरों ने मनाही कर दी थी, कैसे हटाया और घूमने के लिये ले जाया जाये। अपने प्रति छोटे लड़के के लगाव का भी ध्यान आया, जो उसे "मेरी कीटी" कहता था और उसके बिना सोना नहीं चाहता था । कितना अच्छा था यह सब ! इसके बाद उसे स्मरण हो आया कत्थई रंग के फांक कोट में पेत्रोव की दुबली-पतली आकृति का, उसकी लम्बी गर्दन का, विरले घुंघराले बालों का कुछ पूछती-सी नीली आंखों का, जो शुरू में कीटी को भयानक लगती थीं, और उसकी उपस्थिति में उसके प्रफुल्ल दिखाई देने के कष्टप्रद प्रयासों का । उसे याद आया किं तपेदिक़ के सभी मरीज़ों की भांति पेत्रोव के प्रति अनुभव होनेवाली अपनी घिन पर क़ाबू पाने के लिये कैसे उसे अपने को मजबूर करना पड़ा था और कितनी कोशिश से वह यह सोचा करती थी कि उससे क्या कहे। उसे उसकी वह सहमी और स्नेहपूर्ण दृष्टि की भी, जिससे पेत्रोव उसे देखता था, सहानुभूति और अटपटेपन की अजीब भावना तथा अपनी परोपकारिता की उस चेतना की भी याद हो आई, जो कीटी उस समय अनुभव किया करती थी। कितना अच्छा था यह सब ! किन्तु यह सब तो शुरू में था । अब, कुछ दिन पहले सब कुछ अचानक बिगड़ गया था । आन्ना पाव्लोव्ना बनावटी अनुग्रह से कीटी का स्वागत करती और लगातार अपने पति तथा कीटी पर नज़र रखती ।

"मेरे उसके नज़दीक होने पर वह जिस मर्मस्पर्शी प्रसन्नता को अनुभव करता है, क्या आन्ना पाव्लोव्ना के मेरे प्रति उदासीन हो जाने का यही तो कारण नहीं है ? "

"हां, कीटी को याद आया, "तीन दिन पहले जब उसने दुखी होते हुए यह कहा था- "आपकी ही राह देख रहा है, आपके बिना कॉफ़ी पीना नहीं चाहता, यद्यपि बेहद कमज़ोर हो गया है," तो आन्ना पाव्लोव्ना के अन्दाज़ में कुछ अस्वाभाविक और ऐसा था, जो उसके दयालु स्वभाव से मेल नहीं खाता था ।"

"हां, सम्भव है कि मेरा उसे कम्बल देना आन्ना पाव्लोव्ना को अच्छा न लगा हो। यह बहुत मामूली-सी बात थी, किन्तु उसने उसे इतने अटपटे ढंग से लिया, इतनी देर तक आभार प्रकट किया कि खुद मुझे भी अटपटापन महसूस होने लगा था । फिर वह मेरा छविचित्र, जो उसने इतना सुन्दर बनाया है । और सबसे प्रमुख बात उसकी वह नज़र है-सहमी-सहमी और प्यार भरी ! हां, हां, ऐसा ही है ! बहुत त्रस्त होते हुए कीटी ने मन ही मन दोहराया । नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, ऐसा नहीं होना चाहिये ! वह इतना दयनीय है !" एक क्षण बाद उसने अपने आपसे कहा ।

इस सन्देह ने उसके नये जीवन की खुशी को विषाक्त कर दिया ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 34-भाग 2)

जल-चिकित्सा का कोर्स समाप्त होने के पहले ही प्रिंस श्चेर्बात्स्की कार्ल्सबाद, फिर बादेन और किसिनगेन में अपने रूसी परिचितों के यहां जाने के बाद, जहां उनके शब्दों में वे कुछ रूसी हवा का आनन्द लेने गये थे, अपने परिवार में लौट आये ।

विदेश-जीवन के बारे में प्रिंस और प्रिंसेस के दृष्टिकोण एक-दूसरे के सर्वथा प्रतिकूल थे। प्रिंसेस को विदेश की हर चीज़ बहुत बढ़िया लगती थी और रूसी समाज में अपनी दृढ़ स्थिति के बावजूद वे विदेश में अपने को यूरोपीय महिला ज़ाहिर करने की कोशिश करती थीं, जो वे नहीं थीं, क्योंकि विशिष्ट रूसी महिला थीं। इसलिये उन्हें ढोंग-दिखावा करना पड़ता था और इस कारण वे परेशानी का शिकार होती थीं। इसके विपरीत प्रिंस को विदेश में सब कुछ अटपटा लगता था, यूरोपीय जीवन उन्हें बोझिल प्रतीत होता था, वे अपनी रूसी आदतों से चिपके रहते थे और विदेश में जान-बूझकर अपने को उससे कहीं कम यूरोपीय ज़ाहिर करते थे, जितने वास्तव में थे ।

प्रिंस कुछ दुबलाकर लौटे, उनके गालों की थैलियां लटक गयी थीं, मगर बहुत ही खुश थे। जब उन्होंने कीटी को बिल्कुल स्वस्थ देखा, तो उनकी खुशी का यह रंग और भी गाढ़ा हो गया । मदाम श्ताल और बारेन्का के साथ कीटी की दोस्ती की ख़बर और प्रिंसेस द्वारा दी गयी इस सूचना से कि उन्हें कीटी में कोई विशेष परिवर्तन होता दिखाई दे रहा है, प्रिंस परेशान हो उठे थे और बेटी के अपने अतिरिक्त किसी भी अन्य चीज़ की ओर आकर्षित होने पर उनके दिल में सामान्य ईर्ष्या की भावना और यह डर पैदा हो गया था कि बेटी कहीं उनके प्रभाव से निकलकर ऐसे क्षेत्र में न चली जाये, जो उनकी पहुंच के बाहर हो । लेकिन ये सभी अप्रिय खबरें खुशमिज़ाजी और प्रफुल्लता के उस सागर में डूब गयीं, जो हमेशा उनमें लहराता था और जिसे कार्ल्सबाद के स्वास्थ्यप्रद जल ने और प्रबल कर दिया था।

लौटने के दूसरे ही दिन प्रिंस अपना लम्बा ओवरकोट पहने, अपनी रूसी झुर्रियों और ढीले-ढाले गालों की झलक देते हुए, जिन्हें कलफ़ लगे कालर ने ऊपर उठा रखा था, बेटी को साथ लेकर बहुत ही अच्छे मूड में जल स्रोतों की ओर चल दिये ।

सुबह बहुत सुहावनी थी – छोटे-छोटे बगीचोंवाले साफ़-सुथरे और प्यारे घर, बीयर की शौक़ीन और खुशी-खुशी काम करती जर्मन परिचारिकाओं के लाल चेहरों और लाल बांहों तथा चमकते सूरज को देखकर मन खिल उठता था । किन्तु वे जल स्रोतों के जितना अधिक निकट पहुंचते जा रहे थे, उतने ही अधिक रोगी उन्हें मिलते थे और जर्मनी के सुखी जीवन की सामान्य परिस्थितियों में उनके चेहरे और भी अधिक दयनीय लगते थे। कीटी को तो इस असंगति से अब कोई आश्चर्य नहीं होता था। उसके लिये चमकता सूरज, हरियाली की सुखद छटा और गूंजते स्वर इन परिचित चेहरों और उनमें होनेवाले अच्छे-बुरे परिवर्तनों के, जिन पर वह नज़र रखती थी, आवश्यक अंग थे । किन्तु प्रिंस को जून के महीने की सुबह का यह उजाला और चमक, वाल्ज़ की खुशी भरी प्रचलित धुनें बजाते हुए आर्केस्ट्रा की स्वर लहरियां तथा खास तौर पर स्वस्थ नौकरानियों की सूरतें यूरोप के कोने-कोने से यहां एकत्रित और ढीली-ढाली चाल से डग भरते हुए मुर्दों जैसे रोगियों की उपस्थिति में बेहूदा और घिनौनी लगती थीं ।

अपनी प्यारी बेटी का हाथ थामकर चलते हुए प्रिंस को बेशक गर्व और यौवन के लौट आने जैसी अनुभूति हो रही थी, फिर भी अपनी दृढ़ चाल तथा चर्बी चढ़े बड़े-बड़े अंगों के कारण वे परेशानी और शर्म महसूस करने लगे थे। उन्हें कुछ ऐसा लग रहा था मानो वे नंग-धड़ंग होकर लोगों के बीच आ गये हों ।

"मिलाओ, मिलाओ मुझे अपने नये दोस्तों से," कोहनी से बेटी का हाथ दबाते हुए प्रिंस कह रहे थे । “मुझे तो तुम्हारा यह घिनौना सोडेन भी इसलिये अच्छा लगने लगा है कि इसने तुम्हें इतना स्वस्थ बना दिया है। मगर यहां उदासी, बड़ी उदासी महसूस होती है । यह कौन है ?"

कीटी अपने पिता को मिलनेवाले परिचितों और अपरिचितों के नाम बता रही थी । बाग़ के दरवाज़े के पास ही राह दिखानेवाली औरत को साथ लिये अंधी m-me Berthe से उनकी भेंट हुई और कीटी की आवाज़ सुनकर बूढ़ी फ़्रांसीसी औरत के चेहरे पर प्रकट होनेवाले स्नेहपूर्ण भाव देख कर प्रिंस को खुशी हुई। वह उसी क्षण अतिशय फ़्रांसीसी नम्रता के साथ उनसे बात करने, इतनी अच्छी बेटी के लिये उनकी प्रशंसा करने तथा कीटी की उपस्थिति में ही उसकी तारीफ़ों के पुल बांधने, उसे क़ीमती खजाना, मोती और सान्त्वना देनेवाला फ़रिश्ता कहने लगी ।

"तो यह दूसरा फ़रिश्ता है," प्रिंस ने मुस्कराते हुए कहा । "वह m-lle वारेन्का को पहला फ़रिश्ता बताती है ।"

"ओह! m lle वारेन्का-वह असली फ़रिश्ता है, allez,”1 m-me Berthe ने फ़ौरन सहमति प्रकट की ।

1. उसके बारे में तो कहना ही क्या है । ( फ़ांसीसी )

गैलरी में खुद वारेन्का से उनकी भेंट हो गयी। वह बढ़िया लाल पर्स हाथ में लिये तेज़ क़दम बढ़ाती हुई सामने से आ रही थी ।

"ये मेरे पापा आ गये ! " कीटी ने वारेन्का से कहा ।

वारेन्का ने हमेशा की तरह सादगी और स्वाभाविकता से प्रिंस का अभिवादन किया और उसी क्षण सरलता तथा संकोच के बिना उनसे बातचीत करने लगी, जैसे सभी से करती थी ।

"निश्चय ही मैं आपको जानता हूं, बहुत अच्छी तरह जानता हूं, " प्रिंस ने मुस्कराते हुए कहा, जिससे कीटी ने सहर्ष यह जान लिया कि पिता को उसकी मित्र अच्छी लगी है। "कहां जाने की उतावली में हैं आप ?"

“Maman यहां हैं, " उसने कीटी को सम्बोधित करते हुए कहा । “ वे रात भर नहीं सोईं और डाक्टर ने उन्हें बाहर जाने की सलाह दी है। मैं उनका काम लिये जा रही हूं।"

"तो यह फ़रिश्ता नम्बर एक है !" वारेन्का के जाने के बाद प्रिंस ने कहा ।

कीटी ने देखा कि वे वारेन्का का मज़ाक़ उड़ाना चाहते थे, लेकिन किसी तरह भी ऐसा नहीं कर पाये, क्योंकि वारेन्का उन्हें अच्छी लगी थी।

“तो तुम्हारे सभी मित्रों से मिल लेंगे, ” उन्होंने कहा। "मदाम श्ताल से भी, अगर वह मुझे पहचानने की मेहरबानी करेगी ।"

"तुम क्या उन्हें जानते हो पापा ?" मदाम श्ताल की चर्चा चलने पर पिता की आंखों में व्यंग्य की चमक देखकर कीटी ने घबराते हुए पूछा ।

"उसके पति और उसके पायेटिस्ट हो जाने के पहले थोड़ा-सा उसे भी जानता था ।"

"यह पायेटिस्ट कौन होता है पापा ?" कीटी ने इस बात से आशंकित होते हुए कि मदाम श्ताल की जिस खास बात का उसने इतना ऊंचा मूल्यांकन किया था, उसका कोई नाम भी है ।

"यह तो मैं खुद भी अच्छी तरह नहीं जानता। सिर्फ़ इतना जानता हूं कि वह हर चीज़ के लिये भगवान को धन्यवाद देती है, हर दुर्भाग्य के लिये, इसके लिये भी कि उसका पति चल बसा। लेकिन यह तो बेतुकी बात मालूम होती है, क्योंकि इन दोनों की बिल्कुल नहीं बनती थी ।"

"यह कौन है ? कैसा दयनीय चेहरा है !" कीटी के पिता ने कत्थई रंग का ओवरकोट और सफ़ेद पतलून पहने हुए बेंच पर बैठे मझोले क़द के रोगी को देख कर पूछा। रोगी का पतलून उसकी मांसहीन टांगों पर अजीब सी सिलवटें बना रहा था ।

इस महाशय ने तिनकों का बना अपना गर्मी का टोप ऊपर उठाया, जिससे उसके विरले घुंघराले बालों और चौड़े माथे की झलक मिली जिस पर टोप का गहरा लाल निशान पड़ा हुआ था ।

“यह चित्रकार पेत्रोव है," कीटी ने लज्जारुण होते हुए कहा । और वह उसकी बीवी है,” उसने इतना और जोड़ते हुए आन्ना पाव्लोव्ना की ओर संकेत किया, जो मानो जान-बूझकर उसी समय जब ये दोनों नज़दीक पहुंच रहे थे, सड़क पर भाग जानेवाले बच्चे के पीछे चली गयी थी ।

"कितना दयनीय है वह और कितना प्यारा है इसका चेहरा !" प्रिंस ने कहा। “तुम उसके पास क्यों नहीं गयीं ? वह तुमसे कुछ कहना चाहता था न ?"

“तो, आओ चलें," कीटी ने दृढ़ता से मुड़ते हुए कहा । "आज कैसी तबीयत है आपकी ?" कीटी ने पेत्रोव से पूछा ।

पेत्रोव छड़ी का सहारा लेकर खड़ा हो गया और उसने सहमी-सी नज़र से प्रिंस की तरफ़ देखा ।

"यह मेरी बेटी है, " प्रिंस ने कहा । "आप से मिलकर खुशी हुई ।"

चित्रकार ने सिर झुकाया और अप्रत्याशित रूप से सफ़ेद तथा सुन्दर दांतों की झलक देते हुए मुस्कराया । "प्रिंसेस, हम कल आपकी राह देखते रहे," चित्रकार ने कीटी से कहा ।

यह कहते हुए वह लड़खड़ाया और अपनी लड़खड़ाहट को फिर से दोहराते हुए यह ज़ाहिर करने की कोशिश की कि उसने जान-बूझकर ही ऐसा किया है।

"मैं आना चाहती थी, किन्तु वारेन्का ने आन्ना पाव्लोव्ना की ओर से यह सन्देश दिया था कि आप लोग नहीं जायेंगे ।"

"कैसे नहीं जायेंगे ?” पेत्रोव ने गुस्से से लाल होते और इसी क्षण खांसते तथा आंखों से पत्नी को ढूंढ़ते हुए कहा । "आनेता, आनेता !” उसने बीवी को पुकारा और ऐसा करते समय उसकी गोरी और पतली गर्दन पर रस्सी जैसी मोटी-मोटी नसें तन गयीं ।

आन्ना पाव्लोव्ना पास आई ।

"कैसे तुमने प्रिंसेस को यह कहलवा दिया कि हम नहीं जायेंगे !" वह खरखरी-सी आवाज़ में गुस्से से फुसफुसाया ।

“नमस्ते, प्रिंसेस !” आन्ना पाव्लोव्ना ने बनावटी मुस्कान के साथ, जो उसके पहले के अन्दाज़ से बिल्कुल भिन्न थी, कहा । "आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई," उसने प्रिंस को सम्बोधित किया । "बहुत दिनों से आपका इन्तज़ार हो रहा था, प्रिंस ।"

"तुमने कैसे प्रिंसेस को यह कहलवा दिया कि हम नहीं जायेंगे ?” चित्रकार और अधिक झल्लाहट से एक बार फिर खरखरी-सी आवाज़ में फुसफुसाया। स्पष्टत: वह इस कारण और भी अधिक खीझ महसूस कर रहा था कि आवाज़ उसका साथ नहीं दे रही थी और वह अपने शब्दों को वैसी अभिव्यक्ति नहीं दे पा रहा था, जैसी कि देना चाहता था।

"हे मेरे भगवान ! मैंने सोचा था कि हम नहीं जायेंगे," बीवी ने चिड़चिड़ेपन से जवाब दिया ।

"यह कैसे, कब...." वह खांसने लगा और उसने हाथ झटक दिया ।

प्रिंस ने अपना टोप ऊपर उठाया और बेटी के साथ आगे बढ़ गये ।

"ओह !" प्रिंस ने गहरी सांस ली, “कैसे क़िस्मत के मारे हैं ये ।"

"हां, पापा, कीटी ने जवाब दिया । और फिर इनके तीन बच्चे हैं, कोई नौकर-चाकर नहीं और साधन भी तो लगभग नहीं के बराबर हैं। अकादमी से उसे कुछ पैसे मिलते हैं," कीटी बड़े उत्साह से यह सब बता रही थी और ऐसे अपने प्रति आन्ना पाव्लोव्ना के रवैये में हुए अजीब परिवर्तन के कारण उत्पन्न मानसिक उथल-पुथल पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रही थी ।

"और यह रहीं मदाम श्ताल," कीटी ने पहियोंवाली आराम-कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा, जिस पर तकियों के सहारे भूरे और हल्के नीले रंग के कपड़ों में छतरी के नीचे कुछ लेटा हुआ-सा दिखाई दे रहा था ।

यह मदाम श्ताल थी । उसके पीछे इस पहिया-कुर्सी को चलानेवाला हट्टा-कट्टा और खिन्न-सा जर्मन मज़दूर खड़ा था। सुनहरे बालोंवाला स्वीडिश काउंट, कीटी जिसे नाम से जानती थी, श्ताल के नज़दीक खड़ा था। कई रोगी इस पहिया-कुर्सी के पास रुककर एक अजूबे की तरह इस महिला को देख रहे थे ।

प्रिंस उसके निकट गये। इसी क्षण कीटी ने पिता की आंखो में उसे परेशान करनेवाली व्यंग्यपूर्ण चमक देखी । मदाम श्ताल के पास जाकर वे बहुत ही शिष्ट और मधुर ढंग से ऐसी बढ़िया फ़्रांसीसी में बोलने लगे, जैसी कि आजकल बहुत कम लोग बोल पाते हैं ।

"मुझे मालूम नहीं कि आपको मेरा ध्यान है या नहीं, किन्तु अपनी बेटी के प्रति आपकी अनुकम्पा के लिये आभार प्रकट करने को मैं अपनी याद दिलाना चाहता हूं," उन्होंने अपना टोप उतारकर और उसे फिर से न पहनते हुए कहा ।

"प्रिंस अलेक्सान्द्र श्चेर्बात्स्की," मदाम श्ताल ने अपनी आसमानी आंखों को उनकी ओर उठाते हुए कहा, जिनमें कीटी को अप्रसन्नता की झलक मिली । "बहुत खुशी है मुझे। आपकी बेटी से तो मुझे बहुत ही प्यार हो गया है।"

"आपका स्वास्थ्य अभी तक सुधरा नहीं ? "

"मैं तो इसकी आदी हो गयी हूं," मदाम श्ताल ने जवाब दिया और स्वीडिश काउंट से प्रिंस का परिचय करवाया ।

"आप तो लगभग पहले जैसी ही हैं," प्रिंस ने कहा । "मुझे दस या ग्यारह साल से आपको देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ।"

"हां, भगवान सलीब देता है और उसे उठाने की शक्ति भी देता है। यह सोचकर अक्सर हैरान होती रहती हूं कि किसलिये यह ज़िन्दगी घिसटती चली जा रही है ... दूसरी तरफ़ से !" मदाम श्ताल ने खीझते हुए वारेन्का से कहा, जिसने उसके पैरों पर ठीक तरह से कम्बल नहीं लपेटा था।

"सम्भवतः नेकी करने के लिये," प्रिंस ने आंखों से हंसते हुए कहा ।

"यह निर्णय करना हमारा काम नहीं है," प्रिंस के चेहरे पर व्यंग्य का हल्का-सा पुट भांपते हुए मदाम श्ताल ने कहा । "तो प्यारे काउंट, आप मुझे यह किताब भेज देंगे न ? बहुत कृतज्ञ हूं आपकी," उसने जवान स्वीड को सम्बोधित करते हुए कहा ।

“अरे आप !” अपने नज़दीक खड़े हुए मास्को के कर्नल को देखकर प्रिंस कह उठे और मदाम श्ताल को सिर झुकाकर तथा बेटी और मास्को के कर्नल को साथ लेकर आगे बढ़ गये ।

“ ये हैं हमारे रईस लोग, प्रिंस !" चुटकी लेने की इच्छा से कर्नल ने कहा, जो मदाम श्ताल से इसलिये नाखुश था कि वह उससे परिचित नहीं थी ।

"बिल्कुल पहले जैसी ही है, " प्रिंस ने उत्तर दिया ।

"आप क्या इसे बीमार होने यानी बिस्तर थाम लेने के पहले भी जानते थे ?"

"हां। मेरे सामने ही उसकी ऐसी हालत हो गयी थी," प्रिंस ने कहा।

"कहते हैं कि वह दस साल से खड़ी नहीं हो पा रही है ।"

"इसलिये खड़ी नहीं होती कि उसकी टांगें बहुत छोटी हैं। बहुत ही भद्दी बनावट है उसके जिस्म की..."

"पापा, ऐसा नहीं हो सकता !" कीटी चिल्ला उठी ।

"दुष्ट लोग ऐसा ही कहते हैं, मेरी बिटिया । तुम्हारी वारेन्का को खूब भुगतना पड़ रहा है,” उन्होंने इतना और कह दिया । "ओह, ये बीमार रईसज़ादियां !"

"ओह नहीं, ऐसी बात नहीं है, पापा !" कीटी ने बड़े जोश से आपत्ति की ।" वारेन्का तो उनको पूजती है। फिर कितनी नेकी भी तो करती हैं मदाम श्ताल ! तुम किसी से भी पूछ सकते हो ! उन्हें और Aline श्ताल को सभी जानते हैं ।"

"हो सकता है," कोहनी से बेटी का हाथ दबाते हुए वे बोले । "किन्तु ऐसे नेकी करना ज्यादा अच्छा होता है कि किसी को भी उसके बारे में मालूम न हो ।"

कीटी इसलिये चुप नहीं हो गयी कि उसके पास कहने को कुछ नहीं था, बल्कि इसलिये कि वह पिता के सामने भी अपने गुप्त विचारों को प्रकट नहीं करना चाहती थी। लेकिन यह एक अजीब बात थी कि पिता के विचारों से प्रभावित न होने और उन्हें अपने अन्तर की पावन भावनाओं को न छूने देने का पक्का इरादा बना लेने के बावजूद मदाम श्ताल का वह दिव्य रूप, जो वह एक महीने तक अपने दिल में सहेजे रही थी, वैसे ही कभी न लौटने के लिये यों ग़ायब हो गया, जैसे लापरवाही से फेंके गये फ़्रॉक द्वारा बनायी गयी वह आकृति ग़ायब हो जाती है, जब हम यह समझ जाते हैं कि केवल फ़्रॉक ही ऐसे पड़ा हुआ है। सिर्फ़ छोटी टांगों वाली औरत ही रह गयी, जो इसलिये चारपाई से नहीं उठ पाती कि उसके शरीर की बनावट बड़ी भद्दी है और जो चुप रहनेवाली वारेन्का को इस कारण भला-बुरा कहती है कि वह कम्बल ढंग से नहीं ओढ़ाती है । कल्पना की कैसी भी उड़ान से अब पहले वाली मदाम श्ताल को वापस लाना सम्भव नहीं था ।

अन्ना करेनिना : (अध्याय 35-भाग 2)

प्रिंस ने खुशी का अपना यह रंग अपने घरवालों, परिचितों और उस जर्मन मकान-मालिक तक पर चढ़ा दिया जिसके घर में श्चेर्बात्स्की परिवार रह रहा था ।

कीटी के साथ जल स्रोतों से घर लौटते हुए कर्नल, मारीया येव्गेन्येव्ना और वारेन्का को भी अपने साथ कॉफ़ी पीने के लिये आमन्त्रित कर प्रिंस ने बगीचे में चेस्टनट के पेड़ के नीचे मेज़-कुर्सियां लगाने और वहीं नाश्ते की व्यवस्था करने का आदेश दिया। प्रिंस की खुशमिज़ाजी के असर से मकान मालिक और नौकर-चाकर भी चहक उठे थे। वे उनकी दरियादिली से परिचित थे और आध घण्टे बाद ऊपर की मंज़िल पर रहनेवाले हैमबर्ग के बीमार डाक्टर को चेस्टनट के नीचे जमा होनेवाले स्वस्थ रूसी लोगों के इस जमघट को देखकर ईर्ष्या होने लगी । सफ़ेद मेज़पोश से ढकी मेज़ के क़रीब, जिस पर कॉफ़ीदानियां, डबल रोटी मक्खन, पनीर और पक्षियों का ठण्डा गोश्त रखा था, बैंगनी रंग के फ़ीतों से सजी ऊंची टोपी पहने प्रिंसेस बैठी थीं और लोगों को कॉफ़ी के प्याले तथा सैंडविच दे रही थीं । दूसरे सिरे पर बैठे हुए प्रिंस खूब डटकर खा तथा खुशी की तरंग में ऊंचे-ऊंचे बातें कर रहे थे उन्होंने सभी जल-चिकित्सा केन्द्रों पर खरीदी गयी चीज़ें-नक्काशीवाले छोटे-छोटे डिब्बे, साधारण आभूषण और सभी तरह की कागज़-काट छुरियां-अपने पास रख ली थीं और लिसहन नाम की नौकरानी तथा मकान मालिक समेत उन्हें सभी को बांट रहे थे। वे अपनी हा-स्यास्पद रूप से बुरी जर्मन भाषा में मकान मालिक के साथ मज़ाक़ कर रहे थे और उसे इस बात का यकीन दिला रहे थे कि खनिज-जल ने नहीं, बल्कि उसके बढ़िया भोजन, खास तौर पर आलूबुखारे के शोरबे ने कीटी को स्वस्थ कर दिया था। प्रिंसेस अपने पति की रूसी आदतों का मज़ाक़ उड़ा रही थीं, किन्तु इतनी खुशी और इतने रंग-तरंग में थीं, जितनी यहां आकर अपने जीवन में कभी नहीं हो पायी थीं । कर्नल, जैसा कि सदा होता था, प्रिंस के मज़ाक़ों पर मुस्कराता था, मगर जहां तक यूरोप का सवाल था, जिसका, जैसा कि वह समझता था, गम्भीर अध्ययन करता था, प्रिंसेस के पक्ष में था । सरल मनवाली मारीया येव्गेन्येव्ना प्रिंस के हर मज़ाक़ पर हंसते-हंसते लोट-पोट होती थी और वारेन्का भी, जैसा कि कीटी ने पहले कभी नहीं देखा था, सभी को प्रभावित करनेवाले प्रिंस के मज़ाक़ों से हंसते-हंसते बेदम हो रही थी।

कीटी को इस सबसे खुशी मिल रही थी, मगर उसके लिये चिन्तित न होना सम्भव नहीं था । पिता ने अपने हास्यपूर्ण अन्दाज़ से उसकी सहेलियों तथा उस जीवन के बारे में, जिससे उसे प्यार हो गया था, अनचाहे ही जो सवाल उसके सामने पेश कर दिया था, वह उसे हल नहीं कर पा रही थी । पेत्रोव परिवार के मामले में उसके सम्बन्धों का परिवर्तन, जो आज इतने स्पष्ट और कटु रूप से प्रकट हुआ था, इस सवाल के साथ जुड़ गया था । सब खुश थे, मगर कीटी खुश नहीं हो सकती थी और यह चीज़ उसे और अधिक यातना दे रही थी । उसे लगभग वैसी ही अनुभूति हो रही थी, जैसी बचपन में तब हुई थी, जब दण्डस्वरूप उसी के कमरे में उसे बन्द कर दिया गया था और बाहर से बहनों के खुशी भरे ठहाके सुनाई देते रहे थे ।

“तो किसलिये तुमने ये ढेर सारी चीजें खरीदीं ?” प्रिंसेस ने मुस्कराते और पति की ओर कॉफ़ी का प्याला बढ़ाते हुए पूछा ।

"घूमने-फिरने के लिये निकलता, किसी दुकान में झांकता और दुकानवाले 'हुजूर, जनाब, महाराज' कहते हुए कुछ खरीदने का अनुरोध करते। जैसे ही वे 'महाराज' कहते, वैसे ही मेरे लिये इन्कार करना मुश्किल हो जाता और दस थेलर निकल जाते ।

"यह तो ऊब का नतीजा है, " प्रिंसेस ने कहा ।

"ज़ाहिर है कि ऊब का । ऐसी ऊब कि पूछो मत।"

"प्रिंस, भला ऊबना कैसे सम्भव हो सकता है ? जर्मनी में अब इतना कुछ दिलचस्प है, " मारीया येव्गन्येव्ना ने कहा ।

"हां, जो कुछ दिलचस्प है, मैं वह सब जानता हूं-आलूबुखारों का शोरबा और मटरों वाली सासेज भी जानता हूं । सब कुछ जानता हूं।"

"नहीं, आप बेशक कुछ भी कहें, प्रिंस इनकी संस्थायें दिलचस्प हैं," कर्नल ने विचार प्रकट किया ।

"ऐसी क्या दिलचस्प बात है इनमें ? सभी चमकते सिक्कों की तरह बेहद खुश हैं-सभी को जीत लिया। लेकिन मैं किस बात के लिये खुश हो सकता हूं? मैंने तो किसी को नहीं जीता, इसके अलावा खुद ही अपने बूट उतारो और खुद ही उन्हें दरवाज़े के पीछे रखो। सुबह जल्दी उठो, फ़ौरन कपड़े पहनो और घटिया चाय पीने के लिये भोजन-कक्ष में भागे जाओ । घर पर कैसे ठाठ से रहते हैं ! इतमीनान से जागो, किसी बात पर बिगड़ो, बड़बड़ाओ, अच्छी तरह नींद से मुक्ति पा लो, किसी तरह की हड़बड़ी के बिना सब बातों पर खूब सोच-विचार कर लो।"

"लेकिन वक़्त तो पैसा है, आप यह भूल जाते हैं," कर्नल ने कहा ।

"यह इस बात पर निर्भर है कि कौन-सा वक़्त है ! ऐसा वक़्त भी होता है कि पचास कोपेक के लिये सारा महीना दिया जा सकता है और ऐसा भी कि किसी क़ीमत पर आधा घण्टा भी नहीं दिया जाये। ठीक है न प्यारी कीटी ? तुम ऐसी उदास सी क्यों हो ? "

"नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं ।"

"आप कहां चल दीं ? कुछ देर और बैठिये," प्रिंस ने वारेन्का से कहा ।

"मुझे घर जाना चाहिये, ” वारेन्का ने उठते हुए कहा और फिर से हंसने लगी।

संतुलित होने पर उसने विदा ली और टोपी लेने के लिये घर के भीतर गयी । कीटी भी उसके पीछे-पीछे हो ली । उसे वारेन्का भी अब दूसरी लगती थी। वह बुरी नहीं हो गयी थी, लेकिन जिस रूप में वह पहले उसकी कल्पना करती थी, अब उससे भिन्न थी ।

"ओह, एक जमाने से मैं ऐसे नहीं हंसी !" वारेन्का ने छतरी और थैला लेते हुए कहा । "कितने प्यारे हैं आपके पापा !" कीटी चुप रही ।

"हम कब मिलेंगी ?" वारेन्का ने पूछा ।

"Maman पेत्रोव दम्पति के यहां जाना चाह रही हैं । आप वहां नहीं होंगी ?" कीटी ने वारेन्का से पूछा ।

"मैं होऊंगी, ।" वारेन्का ने जवाब दिया । "वे जाने की तैयारी कर रहे हैं और इसलिये मैंने सामान समेटने में उनका हाथ बंटाने का वादा किया है।"

"तो मैं भी आऊंगी ।"

"नहीं, आप किसलिये आयेंगी ?"

"क्यों नहीं ? क्यों नहीं ? क्यों नहीं ?" कीटी आंखों को फैलाते और वारेन्का को जाने से रोकने के लिये उसकी छतरी हाथ में लेते हुए कह उठी ।" नहीं, रुकिये, क्यों न आऊं मैं?"

"इसलिये कि आपके पापा आ गये हैं और फिर आपकी उपस्थिति में वे संकोच भी अनुभव करते हैं ।"

"नहीं, आप मुझे यह बतायें-क्यों आप ऐसा नहीं चाहतीं कि मैं पेत्रोव परिवार में अक्सर जाया करूं? आप नहीं चाहती हैं न ? मगर क्यों ?"

"मैंने ऐसा नहीं कहा," वारेन्का ने शान्ति से उत्तर दिया ।

"नहीं, कृपया बता दीजिये ! "

"सब कुछ बता दूं ?” वारेन्का ने पूछा ।

"सब कुछ, सब कुछ !" कीटी ने आग्रह किया ।

"वैसे खास बात तो कुछ नहीं है, सिर्फ़ इतनी ही कि मिखाईल अलेक्सेयेविच ( चित्रकार का यही नाम था ) पहले जल्दी जाना चाहता था, मगर अब ऐसा नहीं करना चाहता, " वारेन्का ने मुस्कराते हुए कहा।

“ तो ! तो !” कीटी ने उदासी से वारेन्का की ओर देखते हुए जल्दी से बात आगे बढाने के लिये ज़ोर दिया।

“तो, न जाने क्यों, आन्ना पाव्लोव्ना ने यह कहा कि वह इसलिये नहीं जाना चाहता कि आप यहां हैं। जाहिर है कि यह बेकार की बात थी, मगर इस कारण, आपके कारण उनके बीच झगड़ा हो गया । आप तो जानती ही हैं कि ये रोगी कितने चिड़चिड़े होते हैं ।"

कीटी और अधिक नाक-भौंह सिकोड़ते हुए खामोश रही और उसे शान्त तथा उसके गुस्से को ठण्डा करने की कोशिश करती हुई वारेन्का अकेली ही बोलती रही। वह देख रही थी कि विस्फोट होनेवाला है – आंसुओं का या शब्दों का-यह उसे ज्ञात नहीं था ।

"इसलिये आपका न जाना ही बेहतर होगा... आप तो समझती ही हैं, आप बुरा नहीं मानिये ..."

"मैं इसी के लायक़ हूं, इसी के लायक हूं !" वारेन्का के हाथ से छतरी झपटते और अपनी सहेली से नज़र न मिलाते हुए कीटी जल्दी-जल्दी कह उठी ।

अपनी सहेली के बाल-सुलभ गुस्से पर वारेन्का ने मुस्कराना चाहा, मगर उसने इस डर से ऐसा नहीं किया कि वह बुरा मान जायेगी ।

"इसी के लायक़ हूं? मेरी समझ में नहीं आ रहा," वारेन्का ने कहा ।

"इसलिये इसके लायक़ हूं कि यह सब ढोंग था, क्योंकि यह सब बनावटी था, दिल से निकला हुआ नहीं था। क्या लेना-देना था मुझे किसी पराये आदमी से ? नतीजा यह निकला कि मैं झगड़े का कारण बनी और मैंने वह किया, जिसे करने को मुझसे किसी ने नहीं कहा था। इसीलिये कि यह सब ढोंग है ! ढोंग है ! ढोंग है !"

"लेकिन ढोंग किस उद्देश्य से ?" वारेन्का ने धीमे से प्रश्न किया ।

"आह, कैसी हिमाकत है, कैसा घटियापन है ! कोई ज़रूरत नहीं थी इसकी ... सब ढोंग है!” कीटी ने छतरी खोलते और बन्द करते हुए कहा।

" लेकिन किस उद्देश्य से ? "

"इसलिये कि दूसरों की नज़र में अच्छी बन जाऊं, भगवान की नज़र में अच्छी बन जाऊं, सबकी आंखों में धूल झोंक दूं । नहीं, अब मैं इसके फेर में नहीं पडूंगी ! बुरी रहूंगी, मगर झूठी और कपटी तो नहीं बनूंगी !"

"कौन कपटी है ?" वारेन्का ने धिक्कारते हुए कहा । आप ऐसे कह रही हैं, जैसे कि .... "

लेकिन कीटी को गुस्से का दौरा पड़ा हुआ था । उसने वारेन्का को उसकी बात पूरी नहीं करने दी ।

"मैं आपके बारे में, आपके बारे में बिल्कुल नहीं कह रही हूं । आप पूर्णता का रूप हैं। हां, हां, मैं जानती हूं कि आप पूर्णता का रूप हैं। लेकिन अगर मैं बुरी हूं, तो इसका क्या किया जाये ? अगर मैं बुरी न होती, तो ऐसा कुछ न हुआ होता। इसलिये मैं जैसी हूं यही अच्छा है कि वैसी ही रहूं, मगर ढोंग नहीं करूंगी। मेरा क्या सरोकार है आन्ना पाव्लोव्ना से ! वे जैसे चाहें वैसे जियें, और मैं अपने ढंग से। मैं दूसरी नहीं हो सकती..." यह सब वैसा नहीं है, वैसा नहीं है !..."

"क्या वैसा नहीं है?" वारेन्का ने समझ न पाते हुए कहा ।

"सब कुछ वैसा नहीं है । मैं दिल के सिवा और किसी दूसरे ढंग से नहीं जी सकती, लेकिन आप नियमों-उसूलों के मुताबिक़ जीती हैं । मुझे तो आपसे यों ही लगाव हो गया, लेकिन आपने निश्चय ही केवल मुझे बचाने, मुझे कुछ सिखाने के लिये ऐसा किया !"

"आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं," वारेन्का ने कहा ।

"मैं दूसरों के बारे में कुछ नहीं कह रही हूं, अपनी बात कह रही हूं ।"

"कीटी !” मां की आवाज़ सुनाई दी। "इधर आओ, पापा को अपना मूंगे का हार दिखाओ।"

कीटी ने अपनी सहेली से सुलह किये बिना बड़े गर्वीले अन्दाज़ से मूंगे के हार का डिब्बा मेज़ से उठाया और मां की ओर चल दी।

"क्या हुआ है तुम्हें ? तुम्हारा चेहरा ऐसे क्यों तमतमाया हुआ है?" मां-बाप दोनों ने एक साथ ही उससे पूछा।

"कुछ नहीं," उसने जवाब दिया, “मैं अभी आती हूं ।" और वापस भाग गयी ।

"वह अभी यहीं है ! " कीटी ने सोचा । " क्या कहूंगी मैं उससे, हे भगवान! यह मैंने क्या कर डाला, क्या कह दिया ! किसलिये उसके दिल को ठेस लगायी ? क्या करूं मैं ? क्या कहूंगी अब मैं उससे ?" कीटी दरवाज़े के क़रीब रुककर सोच रही थी ।

वारेन्का टोपी पहने और छतरी हाथ में लिये मेज़ के पास बैठी हुई छतरी के उस स्प्रिंग को देख रही थी, जो कीटी ने तोड़ डाला था। उसने सिर ऊपर उठाया।

"वारेन्का, क्षमा कर दीजिये मुझे, क्षमा कर दीजिये !" कीटी उसके क़रीब जाकर फुसफुसायी । "मुझे याद नहीं कि मैंने क्या कहा था। मैं...."

“ मैं तो सचमुच आपको परेशान नहीं करना चाहती थी, ” वारेन्का ने मुस्कराते हुए कहा ।

दोनों के बीच सुलह हो गयी । किन्तु पिता के आ जाने से कीटी के लिये वह सारी दुनिया बदल गयी, जिसमें वह जी रही थी । उसने जो कुछ जान लिया था, उस सबसे इन्कार नहीं किया, मगर इतना समझ गयी कि ऐसा सोचते हुए अपने को धोखा दे रही थी कि वह जो बनना चाहती थी, बन सकती है । वह तो मानो होश में आ गयी थी, उसने उस ऊंचाई की सारी कठिनाई को समझ लिया, जिस पर ढोंग और शेखी के बिना पहुंचना चाहती थी। इसके अलावा उसे दुख-दर्दों रोगों और मरते हुए लोगों की इस दुनिया के पूरे अवसाद की भी अनुभूति हो गयी थी, जिसमें वह रहती रही थी । इस दुनिया को प्यार कर पाने के लिये उसे जितनी कोशिशें करनी पड़ी थीं, उसे अब वे यातनाप्रद प्रतीत होने लगीं और उसका मन जल्दी से ताजा हवा में, रूस, अपने येर्गूशोवो गांव जाने को ललकने लगा, जहां प्राप्त हुए पत्रों के अनुसार उसकी बहन डौली अपने बच्चों के साथ पहुंच चुकी थी ।

किन्तु वारेन्का के प्रति उसके प्यार में कमी नहीं आई। विदा लेते हुए कीटी ने उससे अपने यहां रूस आने का अनुरोध किया ।

"जब आपका विवाह होगा, तब आऊंगी, ” वारेन्का ने कहा । शादी तो मेरी कभी होगी ही नहीं ।"

"तो मैं भी कभी नहीं आऊंगी।"

"तो केवल इसी के लिये मुझे शादी करनी होगी । देखिये, अपना वादा याद रखियेगा !" कीटी ने कहा ।

डाक्टर ने जो कुछ कहा था, वह सही साबित हुआ । कीटी स्वस्थ होकर अपने घर, अपने रूस लौटी। वह पहले की तरह मस्त और चहकती हुई तो नहीं, किन्तु शान्त थी । मास्को की व्यथा-वेदनायें उसके लिये स्मृति ही बनकर रह गयीं ।

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