अन्ना करेनिना (रूसी उपन्यास) : लेव तोल्सतोय
Anna Karenina (Russian Novel in Hindi) : Leo Tolstoy
उन्नीसवीं सदी के उच्चवर्गीय रूसी समाज में एक दिलकश अदाओं वाली कुलीन सुंदरी आन्ना केरेनिना अपने से बीस साल बड़े सीनियर स्टेट्समैन अलेक्सेई अलेक्ज़ेंड्रोविच केरेनिन से विवाह तो रचा लेती है, लेकिन उसके जज़्बात और बेचैनी उसे इस बंधन से निकलने को मजबूर कर देते हैं। वह एक युवा और अमीर सैन्य अधिकारी काउंट ब्रोंस्की के प्रेमपाश में बँध जाती है और अपने नीरस वैवाहिक जीवन से बाहर निकलना चाहती है। केरेनिन अलग होने से इंकार कर देता है और आन्ना अभिशप्त ज़िंदगी जीने को विवश हो जाती है। कठोर सामाजिक नियमों, क़ानूनों और ऑर्थोडॉक्स चर्च के बीच फँसी आन्ना को अपराधबोध की भावना और अकेलापन घेर लेता है। अपनी लालसाओं और रूसी रस्म-रिवाजों के बीच संघर्ष कर रहे पात्रों के साथ टॉलस्टॉय की यह रचना उस काल के सामंतवादी रूसी समाज की पड़ताल करती है। इन पात्रों को बड़े सूक्ष्म विवरण के साथ गढ़ा गया है। इस पुस्तक की आज भी सर्वत्र प्रशंसा की जाती है। टॉलस्टॉय ने इसे अपना पहला सच्चा उपन्यास माना था। फ़िल्मों, ओपेरा, बैले और टीवी-रेडियो नाटकों में भी इसका रूपांतरण हो चुका है। यह उपन्यास आज भी पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं को पहले जितना ही लुभाता है।
आन्ना करेनिना : (अध्याय 1-भाग 1)
सभी सुखी परिवार एक जैसे हैं और हर दुःखी परिवार अपने ढंग से दुःखी है। ओब्लोन्स्की के घर में सब कुछ गड़बड़ हो गया था। पत्नी को यह पता चल गया था कि बच्चों की भूतपूर्व शिक्षिका, फ्रांसीसी महिला के साथ पति के अनुचित सम्बन्ध थे। उसने पति से कह दिया कि वह उसके साथ एक ही घर में नहीं रह सकती। तीन दिन से यह किस्सा चल रहा था और स्वयं दम्पति, परिवार के सभी सदस्य और घर के बाकी सभी लोग भी बड़े दुःखी थे। सभी यह महसूस करते थे कि उनके एकसाथ रहने में कोई तुक नहीं है कि किसी सराय में संयोग से इकठे हो जानेवाले लोगों में भी ओब्लोन्स्की परिवार और उसके घर के सभी लोगों की तुलना में अधिक निकटता होती है। पत्नी अपने कमरों से बाहर नहीं निकली थी और पति तीन दिन से घर पर नहीं था। परेशान-से बच्चे सारे घर में दौड़ते रहते थे, अंग्रेज़ शिक्षिका का गृह-प्रबन्धिका से झगड़ा हो गया था और उसने अपनी सहेली को भी दूसरी जगह ठीक कर देने का पत्र लिख दिया था। बावर्ची तो पिछले दिन के दोपहर के खाने के वक़्त ही चला गया था और रसोई के काम-काज में सहायता करनेवाली नौकरानी तथा कोचवान ने हिसाब चुकता कर देने को कह दिया था।
झगड़े के तीसरे दिन प्रिंस स्तेपान अर्काद्येविच ओब्लोन्स्की, जिसे ऊँची सोसाइटी में स्तीवा के नाम से पुकारा जाता था, अपने हर दिन उठने के वक़्त यानी सुबह के आठ बजे पत्नी के कमरे में नहीं, बल्कि अपने अध्ययन-कक्ष में बढ़िया चमड़े के सोफे पर जागा। उसने अपने गदराए और अच्छी तरह से पाले-पोसे गए शरीर से सोने के स्प्रिंगों पर करवट ली और मानो फिर से देर तक सोने का इरादा रखते हुए तकिए को ज़ोर से अपने साथ चिपका लिया और उस पर गाल टिका दिया। लेकिन वह अचानक उछला, उठकर सोफे पर बैठ गया और उसने आँखें खोल लीं।
'हाँ, हाँ, कैसे था वह ?' स्वप्न को याद करते हुए वह सोचने लगा। 'हाँ, कैसे था ? हाँ ! अलाबिन ने दार्मश्ताद में दोपहर का भोज आयोजित किया था। नहीं, दार्मश्ताद में नहीं, बल्कि किसी अमरीकी शहर में। हाँ, सपने में दार्मश्ताद अमरीका में ही था। हाँ, अलाबिन ने शीशे की मेज़ों पर दोपहर के भोज की व्यवस्था की थी और हाँ, मेजें गाती थीं-II mio tesoro (मेरी जान-इतालवी), नहीं, II mio tesoro नहीं, इससे कुछ बढ़कर। कुछ छोटी-छोटी सुराहियाँ थीं और वे भी नारियाँ थीं, वह याद कर रहा था।
ओब्लोन्स्की की आँखें खुशी से चमक उठीं और वह मुस्कुराते हुए विचारों में खो गया। 'हाँ, अच्छा था, बहुत अच्छा था। वहाँ तो और भी बहुत कुछ बढ़िया था, जिसे न तो शब्दों में बयान किया जा सकता है और अब जाग जाने पर विचारों के रूप में भी स्पष्ट अभिव्यक्ति नहीं दी जा सकती है।' बनात के मोटे पर्दे की बगल के कमरे में आ जानेवाली प्रकाश-रेखा की ओर ध्यान जाने पर उसने प्रफुल्ल मन से सोफ़े से पैर नीचे उतारे और पत्नी के हाथों सिले तथा बढ़िया, सुनहरे चमड़े से मढ़े जूते खोजने लगा (जो पत्नी ने पिछले वर्ष उसके जन्मदिन पर उपहारस्वरूप दिए थे) और अपनी नौ साल की पुरानी आदत के मुताबिक़ उठे बिना ही उस जगह की तरफ़ हाथ बढ़ाया, जहाँ सोने के कमरे में उसका ड्रेसिंग गाउन लटका रहता था। इसी वक़्त उसे अचानक यह याद आया कि कैसे और किस कारण वह पत्नी के सोने के कमरे में नहीं, बल्कि अपने अध्ययन-कक्ष में सोया रहा है। उसके चेहरे पर से मुस्कान गायब हो गई और माथे पर बल पड़ गए।
'ओह, ओह ! आह !' जो कुछ हुआ था उसे याद करके वह दुःखी मन से कराह उठा। उसके मानस-पट पर पत्नी के साथ हुए झगड़े की सभी तफ़सीलें, अपनी स्थिति की सारी लाचारी फिर से उभर उठी और सबसे अधिक यातना तो उसे अपने अपराध के कारण अनुभव हुई।
'हाँ। वह मुझे माफ़ नहीं करेगी और कर भी नहीं सकती। सबसे बुरी बात तो यह है कि इस सारी चीज़ के लिए मैं ही दोषी हूँ, मेरा ही कसूर है, लेकिन फिर भी मैं कसूरवार नहीं हूँ। यही तो सारा ड्रामा है, वह सोच रहा था। 'ओह, ओह !' अपने लिए इस झगड़े के सबसे दुःखद प्रभावों को याद करते हुए वह हताशा से कहता रहा।
उसके लिए सबसे अप्रिय तो वह पहला क्षण था, जब वह पत्नी के लिए बड़ी-सी नासपाती हाथ में थामे बहुत खुश, बहुत ही रंग में थिएटर से घर लौटा था और पत्नी दीवानखाने में नहीं मिली थी। बड़ी हैरानी की बात थी कि वह अध्ययन-कक्ष में भी नहीं थी। आखिर सोने के कमरे में दिखाई दी थी और उसके हाथ में मुसीबत का मारा हुआ वह रुक्का था, जिसने सारा पर्दाफ़ाश कर दिया था।
वही डॉली, जो हमेशा काम-काज में उलझी और दौड़-धूप करती रहती थी और जिसे वह कम समझ रखनेवाली औरत मानता था, हाथ में रुक्का थामे निश्चल बैठी थी और चेहरे पर भय, हताशा और क्रोध का भाव लिए उसकी तरफ़ देख रही थी।
'यह क्या है ? यह ?' रुक्के की तरफ़ इशारा करते हुए उसने पूछा था।
यह याद आने पर, जैसाकि अक्सर होता है, ओब्लोन्स्की को इस घटना से इतनी यातना नहीं हो रही थी, जितनी उस जवाब से, जो उसने उस वक़्त पत्नी को दिया था।
उस क्षण उसके साथ वही हुआ था, जो लोगों के साथ तब होता है, जब उन्हें कोई बहुत ही शर्मनाक काम करते हुए अचानक पकड़ लिया जाता है। वह अपने चेहरे को उस स्थिति के अनुरूप, जिसमें अपराध का भंडाफोड़ हो जाने पर उसने अपने को पत्नी के सामने पाया था. तैयार नहीं कर सका था। बुरा मानने, इनकार करने, अपनी सफ़ाई देने, माफ़ी माँगने, यहाँ तक कि उदासीन रहने के बजाय-यह सभी कुछ उससे बेहतर होता, जो उसने किया-उसका चेहरा अनचाहे ही (शरीर-विज्ञान को पसन्द करनेवाले ओब्लोन्स्की ने इसे 'मस्तिष्क की सहज प्रतिक्रिया' माना), बिल्कुल अचानक ही अपनी सामान्य, उदारतापूर्ण और इसलिए मूर्खतापूर्ण मुस्कान के साथ खिल उठा।
इस मूर्खतापूर्ण मुस्कान के लिए वह अपने को क्षमा नहीं कर सकता था। यह मुस्कान देखकर डॉली ऐसे सिहरी मानो उसे बड़ी शारीरिक पीड़ा हुई हो और अपने गर्म मिज़ाज के मुताबिक़ कटु शब्दों की बौछार करके कमरे से बाहर चली गई। तब से वह अपने पति की सूरत नहीं देखना चाहती थी।
'यह मूर्खतापूर्ण मुस्कान ही इस सारी मुसीबत के लिए जिम्मेदार है,' ओब्लोन्स्की सोच रहा था।
'तो क्या किया जाए ? क्या किया जाए ?' हताश मन से वह अपने से यह पूछ रहा था और उसे कोई जवाब नहीं मिल रहा था।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 2-भाग 1)
ओब्लोन्स्की खुद अपने प्रति ईमानदार आदमी था। वह अपने आपको इस बात का धोखा नहीं दे सकता था कि उसे अपनी करतूत का अफ़सोस है। वह अब इस बात के लिए पश्चात्ताप नहीं कर सकता था कि वह, चौंतीस साल का सुन्दर और रसिक प्रवृत्ति का व्यक्ति, पाँच जीवित और भगवान को प्यारे हो गए दो बच्चों की माँ और उससे केवल एक साल छोटी अपनी बीवी को प्यार नहीं करता था। उसे सिर्फ इस बात का अफ़सोस था कि बीवी से अपने इस गुनाह को ज्यादा अच्छी तरह नहीं छिपा पाया था। किन्तु वह अपनी स्थिति की सारी विकटता को अनुभव करता था और उसे पत्नी, बच्चों और खुद अपने पर तरस आ रहा था। यदि उसे ऐसी सम्भावना की चेतना होती कि इस समाचार का पत्नी पर इतना गहरा असर होगा, तो शायद उसने अपने गुनाहों को उससे अधिक अच्छी तरह छिपा लिया होता। ज़ाहिर था कि इस सवाल पर उसने कभी सोच-विचार नहीं किया था, लेकिन उसे धुंधला-सा आभास अवश्य था कि पत्नी बहुत पहले से ही उसकी गैरवफ़ादारी का अनुमान लगाती थी और उसकी तरफ़ से आँखें मूंदे हुए थी। उसे तो ऐसा भी लगा कि दुबली-पतली हो जाने और बुढ़ा चुकनेवाली इस नारी को, जो सुन्दर भी नहीं रही थी, बड़ी साधारण थी और जिसमें कोई खास गुण नहीं था और जो केवल परिवार की दयालु माँ ही थी, न्याय भावना के अनुसार उदार भी होना चाहिए। लेकिन स्थिति इसके बिल्कुल प्रतिकूल सिद्ध हुई।
'आह, बड़ी भयानक स्थिति है ! ओह, ओह ! बड़ी भयानक ! ओब्लोन्स्की मन-ही-मन दोहरा रहा था और उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। इसके पहले सब कुछ कितना अच्छा था, कितने मजे में हम सब जी रहे थे ! वह बच्चों में मस्त थी, उनके साथ खुश रहती थी। मैं उसके मामलों में कोई दखल नहीं देता था, जैसे चाहती थी, वैसे ही बच्चों और घर-गिरस्ती में उलझी रहती थी। बेशक यह अच्छा नहीं है कि 'वह' हमारे घर में बच्चों की शिक्षिका थी। बिल्कुल अच्छी बात नहीं है ! बच्चों की शिक्षिका से इश्क लड़ाने में कुछ ओछापन, कुछ घटियापन है। लेकिन क्या खूब थी वह शिक्षिका ! (M-lle Roland की मुस्कान और काली, शरारत-भरी आँखें उसकी स्मृति में सजीव हो उठीं।) लेकिन जब तक वह हमारे यहाँ रही, मैंने इस तरह की कोई हरकत नहीं की। सबसे बुरी बात तो यह है कि अब तो वह...इस मुसीबत को तो जैसे जान-बूझकर आना ही था ! हाय, हाय, हाय ! क्या किया जाए, क्या किया जाए ?'
ज़िन्दगी सबसे पेचीदा और हल न हो सकनेवाले सवालों का जो जवाब देती है, इसका उसके सिवा कोई जवाब नहीं था। वह जवाब यही था-अपनी हर दिन की ज़िन्दगी चलाते जाओ, यानी अपने को भूल जाओ। लेकिन चूंकि ऐसा करना सम्भव नहीं था, कम-से-कम रात होने तक तो ऐसा नहीं हो सकता था, सुराही रूपी औरतों के गानों की दुनिया में भी नहीं लौटा जा सकता था, इसलिए जीवन के स्वप्न से ही मस्त रहना ज़रूरी था।
'जो होगा, सो देखा जाएगा,' ओब्लोन्स्की ने अपने आपसे कहा, उठकर आसमानी रंग के रेशमी अस्तरवाला भूरा ड्रेसिंग गाउन पहना, फुन्दोंवाली डोरी को गाँठ लगाई, मज़बूत फेफड़ों से ज़ोरदार साँस ली और उन टाँगों से, जो उसके स्थूल शरीर का भार आसानी से वहन करती थीं, आदत के मुताबिक उत्साहपूर्वक, पंजों को फैलाकर डग भरता हुआ खिड़की के करीब गया और भारी पर्दा ऊपर उठाकर ज़ोर से घंटी बजाई। घंटी बजते ही उसका पुराना दोस्त और नौकर मात्वेई मालिक की पोशाक, घुटनों तक के बूट और एक तार लिए हुए भीतर आया। उसके पीछे-पीछे हजामत का सामान लिए हुए नाई भी पहुंच गया।
"दफ़्तर के कोई कागज़-पत्र हैं ?" ओब्लोन्स्की ने तार लेकर दर्पण के पास बैठते हुए पूछा।
"मेज पर रखे हैं." मात्वेई ने जवाब दिया। सहानुभूति के साथ प्रश्नसूचक दृष्टि से मालिक की तरफ़ देखा और तनिक रुकने के बाद चालाकी-भरी मुस्कान चेहरे पर लाकर इतना और कह दिया : "घोडागाड़ी के मालिक का आदमी आया था।"
ओब्लोन्स्की ने कोई जवाब नहीं दिया और केवल दर्पण में मात्वेई पर नजर डाली। दर्पण में मिलनेवाली उनकी नजरों से स्पष्ट था कि वे एक-दूसरे को खूब अच्छी तरह समझते हैं। ओब्लोन्स्की की नज़र मानो पूछ रही थी-'किसलिए तुम मुझसे यह कह रहे हो ? क्या तुम नहीं जानते कि क्या हो रहा है?'
मात्वेई ने अपनी जाकेट की जेबों में हाथ डाल लिए, पाँव को ज़रा दूर खिसका लिया और चुपचाप, खुशमिज़ाजी से तथा कुछ-कुछ मुस्कुराते हुए अपने मालिक की तरफ़ देखा।
"मैंने उससे अगले इतवार को आने के लिए और यह भी कह दिया है कि तब तक आपको और अपने को बेकार परेशान न करे," उसने सम्भवतः पहले से सोचा हुआ वाक्य कह दिया।
ओब्लोन्स्की समझ गया कि मात्वेई मज़ाक करना और अपनी तरफ़ ध्यान आकर्षित करना चाहता है। उसने तार खोला और जैसाकि हमेशा होता है, शब्दों के गलत हिज्जों को अनुमान से ठीक करते हुए पढ़ा और उसका चेहरा खिल उठा।
“मात्वेई, बहन आन्ना अर्काद्येला कल यहाँ पहुँच रही है," क्षण-भर को नाई का नर्म और गदगदा हाथ रोकते हुए, जो घुंघराले गलमुच्छों के बीच की गुलाबी जगह साफ़ कर रहा था, उसने कहा।
“शुक्र है भगवान का," मात्वेई ने कहा। इन शब्दों से उसने यह स्पष्ट कर दिया कि अपने मालिक की भाँति वह भी आन्ना आर्कायेना के आने का महत्त्व समझता है, यानी ओब्लोन्स्की की प्यारी बहन आन्ना पति-पत्नी की सुलह कराने में सहायक हो सकती है। "अकेली आ रही हैं या पति के साथ " मात्वेई ने पूछा।
ओब्लोन्स्की कोई जवाब नहीं दे सका, क्योंकि नाई ऊपरवाले होंठ पर कुछ कर रहा था। इसलिए उसने एक उँगली ऊपर उठा दी। मात्वेई ने दर्पण में ही सिर झुका दिया।
"अकेली ही आ रही हैं। तो क्या उनके लिए ऊपरवाले कमरे में प्रबन्ध कर दिया जाए ?" "दार्या अलेक्सान्द्रोना को बता दो। जहाँ वे कहें, वहीं प्रबन्ध कर देना।"
"दार्या अलेक्सान्द्रोन्ना को ?" मात्वेई ने मानो सन्देह प्रकट करते हुए इन शब्दों को दोहराया।
"हाँ, उन्हें बता दो। लो, यह तार ले जाकर दे दो और वे जो कहें, मुझे बताना।"
'टोहना चाहते हैं,' मात्वेई समझ गया, लेकिन जवाब में सिर्फ इतना ही कहा : "जो हुक्म।"
ओब्लोन्स्की हाथ-मुँह धोकर बाल सँवार चुका था और कपड़े पहनने ही वाला था, जब मात्वेई अपने चरमराते जूतों से धीरे-धीरे डग भरता और हाथ में तार लिए हुए कमरे में वापस आया। नाई जा चुका था।
“दार्या अलेक्सान्द्रोना ने आपसे यह कहने का आदेश दिया है कि वे जा रही हैं। वे यानी आप जैसा चाहें, वैसा करें," उसने केवल आँखों में हँसते हुए कहा और जेबों में हाथ डाले तथा सिर को एक ओर को झुकाए हुए अपने मालिक पर नज़र टिका दी।
ओब्लोन्स्की चुप रहा। कुछ देर बाद उसके सुन्दर चेहरे पर दयालुतापूर्ण और कुछ-कुछ दयनीय मुस्कान दिखाई दी।
"देखा, मात्वेई ?" उसने सिर हिलाते हुए कहा।
"कोई बात नहीं, हुजूर, सब ठीक-ठाक हो जाएगा।" मात्वेई ने कहा। "ठीक-ठाक हो जाएगा ?" "ज़रूर सब ठीक-ठाक हो जाएगा, हुजूर।"
"तुम ऐसा मानते हो ? यह वहाँ कौन है ?" ओब्लोन्स्की ने दरवाजे के बाहर किसी नारी के फ्रॉक की सरसराहट सुनकर पूछा।
"यह मैं हूँ, मालिक," दृढ़ और मधुर नारी स्वर में उत्तर मिला तथा दरवाजे के पीछे से बच्चों की आया मात्र्योना फ़िलिमोनोना का कठोर तथा चेचकरू चेहरा सामने आया।
"क्या बात है, मात्र्योना ?" दरवाज़े पर उसके पास जाकर ओब्लोन्स्की ने पूछा।
इस चीज़ के बावजूद कि ओब्लोन्स्की पूरी तरह से अपनी पत्नी के सामने दोषी था और खुद भी ऐसा महसूस करता था, फिर भी घर के सभी लोग, यहाँ तक कि दार्या अलेक्सान्द्रोना की सबसे बड़ी मित्र यानी बच्चों की आया मात्र्योना भी ओब्लोन्स्की के पक्ष में थी।
"क्या बात है ?" उसने उदासी से पूछा।
"मालिक, आप उनके पास जाइए, अपने क़ुसूर के लिए फिर से क्षमा माँग लीजिए। शायद भगवान मदद करेंगे। बहुत दुःखी हैं वे, देखकर जी को कुछ होता है और फिर घर में भी सब कुछ गड़बड़ हो गया है। मालिक, बच्चों पर रहम करना चाहिए। माफ़ी माँग लें, हुजूर। और कोई चारा भी तो नहीं। जो करता है, वही भरता है..."
"लेकिन वे तो मुझसे मिलेंगी नहीं..."
"आप अपना ज़ोर लगा लीजिए। भगवान दयालु हैं, भगवान का नाम लीजिए, मालिक, भगवान का नाम लीजिए।"
"अच्छी बात है, अब तुम जाओ," ओब्लोन्स्की ने अचानक अरुणाभ होते हुए कहा। "तो लाओ, पहनाओ कपड़े," उसने मात्वेई को सम्बोधित किया और एक झटके से ड्रेसिंग गाउन उतार फेंका।
मात्वेई किसी अदृश्य चीज़ को फूंक मारकर उड़ाते हुए पहले से ही तैयार की गई कमीज़ को स्पष्ट प्रसन्नता के साथ अपने मालिक के बड़े स्वस्थ शरीर पर पहनाने लगा।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 3-भाग 1)
कपड़े पहनने के बाद ओब्लोन्स्की ने अपने ऊपर इत्र छिड़का, कमीज़ की आस्तीनें ठीक की, अभ्यस्त ढंग से सिगरेटों, बटुए, दियासलाई की डिबिया और दोहरी जंजीर तथा मुहरोंवाली घड़ी को विभिन्न जेबों में डाला। इसके बाद उसने रूमाल को झटककर झाड़ा, खुद को साफ-सुथरा, इत्र से महकता तथा बड़ी मुसीबत के बावजूद स्वस्थ तथा प्रसन्नचित्त अनुभव करते हुए और टाँगों को तनिक डोलाते हुए खाने के कमरे में चला गया। वहाँ कॉफ़ी और कॉफ़ी के करीब ही खत और दफ़्तर के कागज़ात उसकी राह देख रहे थे।
ओब्लोन्स्की ने खत पढ़े। उनमें से एक बहुत ही अप्रिय था। यह पत्र उस सौदागर का था, जो बीवी की जागीर पर जंगल खरीदनेवाला था। इस जंगल को बेचना ज़रूरी था, लेकिन अब बीवी के साथ सुलह होने तक ऐसा करने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। इसमें सबसे अप्रिय बात तो यह थी कि पैसों का मामला बीवी के साथ सुलह करने के किस्से के साथ जुड़ गया था। और यह ख्याल कि पैसों के सवाल को ध्यान में रखते हुए, कि जंगल को बेचने के लिए ही वह बीवी से सुलह करना चाहेगा, यह ख्याल उसे अपमानजनक लग रहा था।
खत पढ़ने के बाद ओब्लोन्स्की ने दफ़्तर के कागजात अपने नजदीक खींच लिए। उसने जल्दी-जल्दी दो मामलों की फ़ाइलों को उलटा-पलटा, बड़ी-सी पेंसिल से कुछ निशान लगाए और फ़ाइलों को दूर हटाकर कॉफ़ी पीने लगा। कॉफ़ी पीते हुए उसने सुबह का, अभी कुछ-कुछ गीला अख़बार भी खोल लिया और उसे पढ़ने लगा।
ओब्लोन्स्की उदार विचारोंवाला, सो भी अति उदार विचारोंवाला नहीं, बल्कि ऐसे झुकाव का अखबार मँगवाता और पढ़ता था, जो बहुमत के विचारों को अभिव्यक्त करता था। इस चीज़ के बावजूद कि न तो विज्ञान, न कला और न राजनीति में ही उसकी कोई खास दिलचस्पी थी, वह इन सब विषयों के बारे में दृढ़तापूर्वक वही दृष्टिकोण रखता था, जो बहुमत और उसके अखबार के थे। इन दृष्टिकोणों को वह तभी बदलता था, जब बहुमत ऐसा करता था, या यह कहना अधिक सही होगा कि वह उन्हें नहीं बदलता था, बल्कि अनजाने और अपने आप ही परिवर्तन हो जाता था।
ओब्लोन्स्की न तो विचारधारात्मक झुकाव और न दृष्टिकोण ही चुनता था। ये झुकाव और दृष्टिकोण उसे अपने आप उसी तरह मिलते थे, जैसे प्रचलित फैशन का टोप और फ़्राककोट । वह इनके रूप चुनता नहीं था, बल्कि जो दूसरे पहनते थे, वही ले लेता था। जाने-माने समाज में रहने के कारण और हमेशा परिपक्व आयु में विकसित हो जानेवाली चिन्तन शक्ति की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए भी उसका कोई दृष्टिकोण रखना उतना ही ज़रूरी था, जितना कि उसके पास टोप का होना। अगर वह उदारतावादी प्रवृत्ति को रूढ़िवादी धारा से बेहतर मानता था, जिसका उसके सामाजिक क्षेत्र में बहुत से लोग अनुकरण करते थे, तो इसका कारण यह नहीं था कि उसे उदारतावादी प्रवृत्ति अधिक समझ-बूझवाली लगती थी, बल्कि इसलिए कि यह प्रवृत्ति उसके जीवन-ढंग के अधिक अनुरूप थी। उदारपन्थी पार्टी यह कहती थी कि रूस में सब कुछ बहुत बुरा है, और सचमुच ओब्लोन्स्की के सिर पर कर्ज़ का बहुत भारी बोझ था और पैसों की ज़बर्दस्त तंगी थी। उदारपन्थी पार्टी का कहना था कि शादी की संस्था बीते जमाने की कहानी बन चुकी है और उसे नया रूप दिया जाना चाहिए। और सचमुच पारिवारिक जीवन से ओब्लोन्स्की को कोई बहुत खुशी नहीं मिलती थी। वह उसे झूठ बोलने और ढोंग करने को विवश करता था और उसे इन चीजों से नफ़रत थी। उदारपन्थी पार्टी कहती थी या यों कहना बेहतर होगा कि उसका ऐसा आशय था कि धर्म आबादी के बर्बर भाग के लिए ही लगाम है और सचमुच छोटी-सी प्रार्थना के समय खड़े रहने पर भी ओब्लोन्स्की की टाँगों में दर्द होने लगता था और वह किसी तरह भी यह नहीं समझ पाता था कि दूसरी दुनिया के बारे में इतने भयानक और भारी-भरकम शब्द किसलिए कहे जाते हैं: जबकि इस दुनिया में ही बड़े मजे की जिन्दगी बिताई जा सकती थी। साथ ही खुशी-भरा मज़ाक़ पसन्द करनेवाले ओब्लोन्स्की को किसी भोले-भोले आदमी को कभी यह कहकर परेशान करने में लुत्फ़ आता था कि अगर नसल का ही अभिमान करना है, तो रयूरिक पर ही बात समाप्त न करके अपने सबसे पहले पूर्वज यानी बन्दर से भी इनकार नहीं करना चाहिए। इस तरह उदारतावादी प्रवृत्ति ओब्लोन्स्की की आदत-सी बन गई थी और वह अपने अखबार को वैसे ही प्यार करता था जैसे दोपहर के खाने के बाद सिगार को, जो उसके दिमाग में हल्की-सी धुन्ध पैदा करता था। उसने अग्रलेख पढ़ा, जिसमें यह स्पष्ट किया गया था कि हमारे दिनों में बिल्कुल बेमतलब ही यह शोर मचाया जा रहा है मानो उग्रवाद सभी रूढ़िवादी तत्त्वों को हड़प जाने का खतरा पेश करता है और यह कि सरकार को क्रान्तिकारी सर्प को कुचलने के लिए अवश्य ही कदम उठाने चाहिए। इसके विपरीत, 'हमारे मतानुसार ख़तरा तो काल्पनिक क्रान्तिकारी सर्प से नहीं, बल्कि रूढ़िवादिता के कट्टरपन से है, जो प्रगति के मार्ग में बाधा बनता है, आदि। उसने दूसरा, वित्तसम्बन्धी लेख भी पढ़ा, जिसमें बैंथम और मिल का उल्लेख था तथा मन्त्रालय पर छींटाकशी की गई थी। बात को जल्दी से समझ जाने की अपनी क्षमता के अनुसार वह हर छींटाकशी का महत्त्व और यह समझता था कि वह किसकी तरफ़ से, किस पर और किस सन्दर्भ में की गई है और इससे उसे कुछ खुशी हासिल होती थी। लेकिन आज इस खुशी में मात्र्योना फ़िलिमोनोना की सलाहों और इस बात की स्मृति की कटुता घुल गई थी कि घर में सभी कुछ गड़बड़ हुआ पड़ा है। उसने यह भी पढ़ा कि प्राप्त समाचार के अनुसार काउंट बेस्त विसबादेन के लिए रवाना हो गया है। अखबार में यह विज्ञापन भी था कि 'यूरिक-कुछ इतिहासज्ञों के दृष्टिकोण के अनुसार वार्यागों (स्कैंडिनेवियनों) का वह प्रिंस, जो अपने दो भाइयों और सेना के साथ 9वीं शताब्दी में रूस के उत्तर में आया; रूसी प्रिंसों की वंशावली का आरम्भकर्ता था। सफ़ेद बालों से मुक्ति पाई जा सकती है, कि एक हल्की घोड़ा-गाड़ी बिकाऊ है, कि एक जवान नारी वर की तलाश में है। लेकिन इन समाचारों से उसे हर दिन की तरह आज हल्का और व्यंग्यपूर्ण आनन्द नहीं मिला।
अखबार, कॉफ़ी का दूसरा प्याला और मक्खन के साथ बढिया डबलरोटी खत्म करने के बाद वह उठा, उसने अपनी वास्कट पर गिर गए रोटी के कण झाड़े, चौड़ा सीना सीधा किया और प्रफुल्लता से मुस्कुराया। उसकी मुस्कान का कारण यह नहीं था कि दिल में कोई खास खुशी थी, नहीं, नाश्ते के अच्छी तरह हज़म होने से ही यह प्रफुल्ल मुस्कान झलक उठी थी।
किन्तु इस खुशी-भरी मुस्कान ने उसे सभी चीजों की याद दिला दी और वह सोच में डूब गया।
दरवाजे के पार दो बच्चों की आवाजें सुनाई दीं। ओब्लोन्स्की ने छोटे बेटे ग्रीशा और बड़ी बेटी तान्या की आवाजें पहचान लीं। वे कोई चीज़ ले जा रहे थे, जो गिर गई थी।
"मैंने कहा था कि मुसाफ़िरों को छत पर नहीं बिठाना चाहिए," लड़की अंग्रेज़ी में चिल्ला रही थी, “अब उठाओ इन्हें !"
'सब कुछ गड़बड़ हो गया,' ओब्लोन्स्की ने सोचा. 'बच्चे अकेले भागते फिर रहे हैं। दरवाजे के पास जाकर उसने उन्हें पुकारा। उन्होंने उस-डिब्बे को फेंक दिया, जिसे रेलगाड़ी बना रखा था और पिता के पास आए।
लड़की, जो अपने पिता की सबसे अधिक लाड़ली थी, बेधड़क भागती हुई कमरे में चली गई, उसने हँसते हुए पिता के गले में बाँहें डाल दी, गर्दन से लटक गई और उसे पिता की गलमुच्छों से आनेवाली इत्र की सुगन्ध से सदा की भाँति खुशी हुई। आखिर गर्दन झुकाने के कारण लाल और स्नेह से चमकते हुए पिता के चेहरे को चूमने के बाद उसने गले से बाँहें हटाईं और वापस भाग जाना चाहा। लेकिन पिता ने उसे रोक लिया।
"माँ कैसी हैं ?" बेटी की चिकनी और नाजुक गर्दन पर हाथ फेरते हुए उसने पूछा। “नमस्ते," उसने मुस्कुराते हुए बेटे के अभिवादन का जवाब दिया।
उसे इस बात की चेतना थी कि वह बेटे को बेटी से कम प्यार करता है, फिर भी हमेशा अपने को एक जैसा ज़ाहिर करने की कोशिश करता था। लेकिन लड़का यह महसूस करता था और इसलिए वह पिता की उत्साहहीन मुस्कान के जवाब में मुस्कुराया नहीं।
"माँ ? वे जाग गई हैं।" बेटी ने जवाब दिया। ओब्लोन्स्की ने गहरी साँस ली। इसका मतलब है कि फिर सारी रात नहीं सोई,' उसने सोचा। "वे खुश तो हैं न " ।
लड़की जानती थी कि पिता और माँ के बीच झगड़ा हुआ है, कि माँ खुश नहीं हो सकतीं और पिताजी को यह मालूम होना चाहिए, कि ऐसे हल्के-फुल्के ढंग से इस बारे में पूछते हुए वे ढोंग कर रहे हैं। वह पिता के कारण शर्म से लाल हो गई।
ओब्लोन्स्की फ़ौरन यह समझ गया और बेटी की तरह खुद भी शर्म से लाल हो गया।
“मालूम नहीं," उसने जवाब दिया। “माँ ने आज पढ़ने को मना कर दिया है और मिस गूल के साथ नानी के यहाँ घूमने-फिरने के लिए जाने को कहा है।"
"तो जाओ, मेरी प्यारी बिटिया तान्या। हाँ, ज़रा रुको," पिता ने फिर भी उसे रोकते और उसके छोटे-से कोमल हाथ को सहलाते हुए कहा।
ओब्लोन्स्की ने आतिशदान की कार्निस पर से मिठाइयों का डिब्बा उठाया, जो उसने पिछले दिन वहाँ रखा था, और चाकलेट तथा क्रीमवाली उसकी मनपसन्द दो मिठाइयाँ उसे दीं।
"यह ग्रीशा के लिए है ?" बेटी ने चाकलेटवाली मिठाई की तरफ़ संकेत करते हुए पूछा।
"हाँ, हाँ।" और एक बार फिर से उसके नाजुक-से कन्धे को सहलाकर, बालों तथा गर्दन को चूमकर उसे जाने दिया।
"बग्घी तैयार है," मात्वेई ने कहा। “हाँ, एक औरत मिलने के लिए आई है।" उसने इतना और जोड़ दिया।
"बहुत देर से है यहाँ ?" ओब्लोन्स्की ने पूछा। "आध घंटे से।" "तुमसे कितनी बार कहा है कि फ़ौरन मुझे इसकी खबर दिया करो!"
"आपको कम-से-कम कॉफ़ी तो पी लेने देना चाहिए." मात्वेई ने ऐसे मैत्रीपूर्ण और गँवारू अन्दाज़ में जवाब दिया कि उस पर बिगड़ा नहीं जा सकता था।
"तो बुलाओ जल्दी से," परेशानी से माथे पर बल डालते हुए ओब्लोन्स्की ने कहा।
यह औरत छोटे कप्तान कालीनिन की पत्नी थी और एक बिल्कुल असम्भव तथा बेतुकी बात के लिए प्रार्थना कर रही थी। लेकिन ओब्लोन्स्की ने अपने सामान्य ढंग से उसे बिठाया, टोके बिना उसकी पूरी बात सुनी, विस्तारपूर्वक यह सलाह दी कि किससे और कैसे अपनी बात कहे। इतना ही नहीं, उसने बड़े उत्साह और अच्छे ढंग से अपनी बड़ी-बड़ी, फैली-फैली, मगर साफ़ लिखावट में उसे उस आदमी के नाम पर एक रुक्का भी लिख दिया, जो उसकी मदद कर सकता था। इससे फुरसत पाकर ओब्लोन्स्की ने अपना टोप लिया और यह याद करने के लिए रुका कि कुछ भूल तो नहीं गया। हाँ, वह कुछ भी नहीं भूला था, उसके सिवा जो भूलना चाहता था यानी पत्नी के सिवा।
'अरे, हाँ !' उसका सिर झुक गया और चेहरे पर दुःख का भाव उभर आया। 'जाऊँ या न जाऊँ ?' उसने अपने आपसे पूछा। उसकी आत्मा की आवाज़ ने उससे कहा कि जाने की ज़रूरत नहीं, कि ढोंग के सिवा यह और कुछ नहीं हो सकता, कि उनके आपसी सम्बन्धों को फिर से ठीक करना, उन्हें सुधारना सम्भव नहीं। कारण कि उसकी बीवी को फिर से आकर्षक और प्यार की प्यास जगानेवाली और खुद को बूढ़ा तथा प्यार करने के अयोग्य बनाना मुमकिन नहीं। अब ढोंग और झूठ के सिवा कुछ नहीं हो सकता था और इन दोनों चीज़ों से उसे नफ़रत थी।
'लेकिन फिर भी कभी तो ऐसा करना ही होगा। आखिर मामले को ऐसे ही तो नहीं छोड़ा जा सकता,' अपने में साहस पैदा करने के लिए उसने कहा। सीना तानकर उसने सिगरेट निकाली, जलाई, दो कश खींचे, सीप की राखदानी में उसे फेंका, तेज़ क़दमों से उदास-से दीवानखाने को लाँघा और पत्नी के सोने के कमरे का दरवाज़ा खोला।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 4-भाग 1)
ब्लाउज़ पहने और गुद्दी पर अपने विरले बालों (जो कभी घने और सुन्दर थे) की चोटियों में सुइयाँ लगाए तथा बहुत ही दुबलाए-फंसे चेहरे पर असाधारण रूप से बड़ी दिखती आँखोंवाली डॉली कमरे में इधर-उधर बिखरी चीज़ों के बीच कपड़ों की खुली हुई खानेदार अलमारी के सामने खड़ी थी और उसमें से कुछ निकाल रही थी। पति के क़दमों की आहट पाकर उसने दरवाज़े की तरफ़ देखते हुए काम बन्द कर दिया और अपने चेहरे पर व्यर्थ ही कठोरता तथा तिरस्कार का भाव लाने का यत्न किया। वह अनुभव कर रही थी कि पति और कुछ ही क्षण बाद उसके साथ होनेवाली भेंट से घबराती है।
अभी-अभी वह वही करने की कोशिश कर रही थी, जिसके लिए पिछले तीन दिनों में दसियों बार प्रयास कर चुकी थी यानी अपनी और बच्चों की वे चीजें अलग कर ले, जो अपने साथ माँ के घर ले जाएगी। इस बार भी वह ऐसा इरादा नहीं बना पाई। पहले की भाँति इस बार भी उसने अपने आपसे यही कहा कि यह सब ऐसे ही नहीं रह सकता कि उसे कुछ-न-कुछ तो करना चाहिए, उसे दंड देना, कलंकित करना चाहिए, उसने उसे जो पीड़ा दी है, उसका कुछ तो बदला लेना चाहिए। वह अभी भी खुद से यह कह रही थी कि उसे छोड़कर चली जाएगी, लेकिन दिल में महसूस कर रही थी कि ऐसा करना असम्भव है। ऐसा इसलिए असम्भव था कि वह उसे अपना पति मानना और उसे प्यार करना नहीं छोड़ सकती थी। इसके अलावा वह यह भी अनुभव करती थी कि अगर यहाँ, अपने घर में ही वह बड़ी मुश्किल से अपने पाँच बच्चों की देख-भाल कर पाती है, तो वहाँ, जहाँ वह उन्हें लेकर जाएगी, उनका और भी बुरा हाल होगा। इन तीन दिनों के दौरान ही छोटा बेटा इसलिए बीमार हो गया था कि उसे खराब हो चुका शोरबा खिला दिया गया था और बाकी बच्चों को पिछले दिन खाना ही नहीं मिला था। वह अनुभव करती थी कि जाना सम्भव नहीं है, फिर भी अपने को धोखा देती हुई चीजें छाँट रही थी और यह ढोंग कर रही थी कि यहाँ से चली जाएगी।
पति को देखकर उसने अलमारी के खाने में हाथ डाल दिया मानो कुछ ढूँढ रही हो और उसकी तरफ़ तभी मुड़ी, जब वह उसके बिल्कुल करीब आ गया। किन्तु उसका चेहरा, जिस पर वह कठोरता और दृढ़ निर्णय का भाव लाना चाहती थी, अनिश्चय और व्यथा की झलक दे रहा था।
"डॉली !" ओब्लोन्स्की ने धीमी और सहमी-सी आवाज में कहा। उसने अपना सिर कन्धों के बीच फँसा लिया था और वह अपने को दयनीय तथा विनम्र ज़ाहिर करना चाहता था, लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर ताज़गी और तन्दुरुस्ती चमक रही थी।
डॉली ने ताज़गी और तन्दुरुस्ती से चमकते हुए उसके व्यक्तित्व को सिर से पाँव तक उड़ती नज़र से निहारा। 'हाँ, वह सुखी और प्रसन्न है। उसने सोचा। लेकिन मैं ?...और उसकी वह दयालुता, जिसके लिए सभी उसे इतना चाहते हैं और उसकी इतनी प्रशंसा करते हैं, मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाती,' उसने मन-ही-मन सोचा। उसके होंठ भिंच गए और पीले तथा उत्तेजित चेहरे के दाएँ गाल की एक मांसपेशी फड़कने लगी।
"क्या चाहिए आपको ?" उसने जल्दी-जल्दी, परायी और घुटी-सी आवाज़ में पूछा।
"डॉली !" उसने पुनः काँपती-सी आवाज़ में उत्तर दिया। “आन्ना आज आ जाएगी।"
"तो मुझे इससे क्या ? मैं उससे नहीं मिल सकती !" वह चिल्ला उठी।
"फिर भी मिलना ही चाहिए, डॉली..."
"जाइए, जाइए, जाइए यहाँ से !" पति की ओर देखे बिना वह ऐसे चीखी, मानो यह चीख शारीरिक पीड़ा का परिणाम हो।
ओब्लोन्स्की जब पली के बारे में सोचता था, तो शान्त रह सकता था, मात्वेई के शब्दों के मुताबिक यह आशा कर सकता था कि 'सब ठीक-ठाक हो जाएगा', चैन से अखबार पढ़ और कॉफ़ी पी सकता था। लेकिन जब उसने उसका बहुत ही व्यथित और पीडायुक्त चेहरा देखा, भाग्य और हताशा के सामने पुटने टेकती-सी उसकी यह आवाज़ सुनी, तो उसके लिए साँस लेना कठिन हो गया, गले में फाँस-सी अनुभव हुई और आँखों में आँसू चमक उठे।
"हे भगवान, यह क्या कर डाला मैंने ! डॉली ! भगवान के लिए !...आखिर सोचो तो..." वह अपनी बात जारी न रख सका, सिसकियों से उसका गला रुंध गया।
डॉली ने फटाक से अलमारी बन्द कर दी और पति की तरफ़ देखा।
"डॉली, मैं कह ही क्या सकता हूँ? बस, इतना ही-माफ़ कर दो, मुझे माफ़ कर दो...ध्यान करो, क्या हमारे जीवन के नौ वर्ष कुछ क्षणों का प्रायश्चित्त नहीं कर सकते..."
पत्नी ने आँखें झुका लीं और पति आगे क्या कहेगा, यह सुनने की प्रतीक्षा करने लगी। वह तो मन-ही-मन मानो उससे अनुरोध कर रही थी कि वह किसी प्रकार उसे यह यक़ीन दिला दे कि उसने उसके साथ बेवफ़ाई नहीं की है।
"क्षणिक भटकाव..." ओब्लोन्स्की ने कहा और अपनी बात आगे बढ़ानी चाही। किन्तु यह शब्द सुनकर मानो शारीरिक पीड़ा से डॉली के होंठ फिर भिंच गए और दाएँ गाल की मांसपेशी फिर से फड़क उठी।
"जाइए, जाइए यहाँ से !" वह और भी जोर से चिल्ला उठी, “और अपने भटकाव तथा गन्दी हरकतों के बारे में मुझसे कुछ नहीं कहिए !"
डॉली ने जाना चाहा, लेकिन लड़खड़ा गई और सहारा लेने के लिए उसने कुर्सी की टेक थाम ली। ओब्लोन्स्की का चेहरा फैल गया, होंठ फूल गए और आँखों में आँसू छलछला आए।
"डॉली !" उसने अब सिसकते हुए कहा। "भगवान के लिए बच्चों का खयाल करो, उनका कोई क़सूर नहीं है। मैं कसूरवार हूँ, तुम मुझे सज़ा दो, कहो कि मैं अपने अपराध का प्रायश्चित्त करूँ। जैसे भी इसका प्रायश्चित्त हो सकता हो, मैं उसके लिए तैयार हूँ ! मैं अपराधी हूँ, अपने अपराध को व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। लेकिन, क्षमा कर दो, डॉली !"
वह बैठ गई। पति को उसकी भारी और ऊँची साँस की आवाज़ सुनाई दे रही थी और उसे उस पर इतना तरस आया कि बयान से बाहर। डॉली ने कई बार बात शुरू करनी चाही, मगर नहीं कर पाई। ओब्लोन्स्की इन्तज़ार करता रहा।
"तुम्हें बच्चों के साथ खेलने-कूदने के लिए उनका ध्यान आता है, लेकिन मुझे हर वक़्त उनका ध्यान रहता है और मैं जानती हूँ कि वे अब कहीं के नहीं रहे," उसने कहा। यह सम्भवतः उन वाक्यों में से एक था, जिसे पिछले तीन दिनों में उसने अपने आपसे कई बार कहा था।
डॉली ने उसे 'तुम्हें कहा था, जो अपनत्व का द्योतक था, और इसलिए उसने कृतज्ञता से उसकी ओर देखा तथा उसका हाथ थामने के लिए उसकी तरफ़ बढ़ा। लेकिन वह नफ़रत से दूर हट गई।
"मुझे बच्चों का ध्यान है और इसलिए उन्हें बचाने को सब कुछ करूँगी। लेकिन मैं खुद यह नहीं जानती कि उन्हें पिता से दूर ले जाकर या व्यभिचारी पिता, हाँ, व्यभिचारी पिता के साथ छोड़कर मैं उनकी रक्षा कर सकूँगी...कहिए कि जो कुछ हुआ है, जो हुआ है, उसके बाद भी क्या हम साथ रह सकते हैं ? क्या यह सम्भव है ? कहिए, क्या यह सम्भव है ?" वह यह दोहराती और अपनी आवाज़ ऊँची करती गई। "इसके बाद कि मेरा पति, मेरे बच्चों का बाप अपने बच्चों की शिक्षिका के साथ इश्क़-मुहब्बत के रिश्ते-नाते जोड़े..."
"लेकिन क्या किया जाए ? क्या किया जाए ?" उसने दयनीय आवाज़ में कहा। वह खुद नहीं समझ रहा था कि क्या कह रहा है और अपना सिर अधिकाधिक नीचे झुकाता जा रहा था।
"मैं आपसे घृणा करती हूँ, नफ़रत करती हूँ !" अधिकाधिक गुस्से में आती हुई वह चिल्ला उठी। "आपके आँसू-सिर्फ पानी हैं ! आपने मुझे कभी प्यार नहीं किया, आपके पास न दिल है और न शराफ़त ! मेरी नज़र में आप कमीने, दुष्ट और पराये हैं। हाँ, बिल्कुल पराये !" अपने लिए भयानक इस ‘पराये' शब्द को उसने गुस्से से और बड़ी पीड़ा के साथ कहा।
ओब्लोन्स्की ने पत्नी की तरफ़ देखा और उसके चेहरे पर झलकनेवाले क्रोध से भयभीत और आश्चर्यचकित रह गया। वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उसके दयाभाव से उसे झल्लाहट महसूस हो रही थी। उसकी दया में वह अपने प्रति अफ़सोस, मगर प्यार नहीं अनुभव कर रही थी।
'नहीं, वह मुझसे नफ़रत करती है। वह मुझे माफ़ नहीं करेगी,' ओब्लोन्स्की ने सोचा।
"यह भयानक बात है! बड़ी भयानक बात है।" वह कह उठा।
इसी वक़्त दूसरे कमरे में सम्भवतः गिर जानेवाला बच्चा ज़ोर से रो पड़ा। दार्या अलेक्सान्द्रोला ने ध्यान से यह आवाज़ सुनी और उसके चेहरे पर अचानक नर्मी आ गई। शायद उसे संभलने में, यह जानने में कि वह कहाँ है और उसे क्या करना चाहिए, कुछ क्षण लग गए और फिर झटपट उठकर दरवाज़े की तरफ़ लपकी।
'मेरे बच्चे को तो वह प्यार करती है,' उसने बच्चे के रो उठने पर पत्नी के चेहरे के भाव-परिवर्तन को देखकर सोचा। 'मेरे बच्चे को। तो फिर मुझसे कैसे नफ़रत कर सकती है वह ?'
"डॉली. एक शब्द और..." पत्नी के पीछे-पीछे जाते हुए उसने कहा।
"अगर आप मेरे पीछे-पीछे आएँगे, तो मैं लोगों को, बच्चों को पुकार लूँगी ! अच्छा होगा कि वे सब यह जान जाएँ कि आप नीच हैं। मैं आज जा रही हूँ और आप यहाँ अपनी प्रेमिका के साथ रह सकते हैं !" और वह दरवाजे को फटाक से बन्द करके बाहर चली गई।
ओब्लोन्स्की ने गहरी साँस ली, चेहरा पोंछा और धीरे-धीरे दरवाजे की तरफ़ बढ़ने लगा। 'मात्वेई कहता है कि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा। लेकिन कैसे ? मुझे तो इसकी सम्भावना ही दिखाई नहीं देती। ओह, ओह, कैसा गज़ब हो गया है ! कितने ओछे ढंग से वह चिल्ला रही थी, उसकी चीख और 'नीच' तथा 'प्रेमिका' शब्दों को याद करते हुए उसने अपने आपसे कहा-'हो सकता है कि नौकरानियों ने सुन लिया हो ! बड़ा ओछापन है यह, बड़ा ओछापन है। ओब्लोन्स्की कुछ क्षण तक अकेला खड़ा रहा, उसने आँखें पोंछी, गहरी साँस ली और तनकर कमरे से बाहर निकल गया।
शुक्रवार का दिन था और खाने के कमरे में जर्मन घड़ीसाज़ घड़ी को चाबी दे रहा था। ओब्लोन्स्की को वक्त के बहुत ही पाबन्द इस गंजे घड़ीसाज़ के बारे में अपना यह मज़ाक याद आ गया कि घड़ी को चाबी देने के लिए खुद इस जर्मन में भी जीवन-भर के लिए चाबी भरी हुई है, और वह मुस्कुरा दिया। ओब्लोन्स्की को अच्छे मज़ाक़ पसन्द थे। हो सकता है कि सब कुछ ठीक-ठाक हो जाएगा! अच्छा शब्द है यह-'ठीक-ठाक', उसने सोचा। 'किसी को बताना चाहिए।'
"मात्वेई ।" उसने आवाज़ दी। "तो तुम मारीया के साथ मिलकर आन्ना अर्कायेना के लिए मेहमानखाने में सब प्रबन्ध कर दो।" उसने मात्वेई के सामने आने पर कहा।
"जो हुक्म।" ओब्लोन्स्की ने फ़र का कोट पहना और डयोढ़ी में आ गया। "खाना खाने तो आएँगे न ?" मात्वेई ने उसे विदा करते हुए पूछा।
"मालूम नहीं। हाँ, खर्च के लिए ये पैसे ले लो," बटुए से दस रूबल का नोट निकालकर देते हुए उसने कहा। "काफ़ी रहेंगे न ?"
"काफ़ी रहेंगे या नहीं, मगर लगता है कि इन्हीं में काम चलाना पड़ेगा।" मात्वेई ने गाड़ी का दरवाज़ा बन्द करते और ड्योढ़ी में वापस जाते हुए कहा।
इसी बीच बच्चे को शान्त करके और बग्घी की आवाज़ से यह समझकर कि पति चला गया है, डॉली अपने सोने के कमरे में लौट आई। उसके लिए घर की चिन्ताओं से बचने की, जो उसे बाहर निकलते ही घेर लेती थीं, यही एक जगह थी। इस थोड़ी-सी देर में ही, जब वह बच्चों के कमरे में गई, अंग्रेज़ शिक्षिका तथा मात्र्योना फ़िलिमोनोना ने उससे कुछ ऐसी बातें पूछ लीं, जिन्हें टालना सम्भव नहीं था और जिनका सिर्फ वही जवाब दे सकती थी-बच्चों को सैर के वक्त क्या पहनाया जाए? उन्हें दूध दिया जाए या नहीं ? क्या कोई दूसरा बावर्ची बुला लिया जाए ?
"ओह, मुझे परेशान नहीं करें, परेशान नहीं करें!" उसने जवाब दिया और सोने के कमरे में लौटकर वहीं बैठ गई, जहाँ बैठकर उसने पति से बातें की थीं। उसने अपने उन कमज़ोर हाथों को, जिनकी हड़ीली उँगलियों से अंगूठियाँ निकल-निकल जाती थीं, एक-दूसरे के साथ सटा लिया और पति के साथ हुई अपनी सारी बातचीत पर विचार करने लगी। 'चला गया ! तो 'उसका' उसने क्या किया ? उसने सोचा। 'क्या वह अभी भी 'उससे मिलता है ? मैंने यह क्यों नहीं पूछा उससे ? नहीं, नहीं, सुलह नहीं करनी चाहिए। अगर हम एक ही घर में रह भी गए, तो भी पराये रहेंगे। हमेशा के लिए पराये !' उसने विशेष अर्थ के साथ अपने लिए इस भयानक शब्द को फिर से दोहराया। और कितना प्यार करती थी, हे भगवान, कितना प्यार करती थी मैं उसे!...कितना प्यार करती थी ! क्या मैं अब उसे प्यार नहीं करती ? क्या पहले से भी ज्यादा प्यार नहीं करती हूँ मैं उसे ? सबसे भयानक बात यह है...' उसने कहना शुरू किया, लेकिन अपनी बात को समाप्त नहीं कर पाई, क्योंकि मात्र्योना फ़िलिमोनोना ने दरवाज़े में से सिर भीतर घुसेड़ लिया था।
"अब मेरे भाई को बुलवा भेजने का हुक्म दीजिए," उसने कहा। "वह खाना तैयार कर देगा। नहीं तो कल की तरह बच्चे आज भी शाम के छः बजे तक भूखे रहेंगे।"
"अच्छी बात है, मैं अभी बाहर आकर सब कुछ तय कर दूंगी। ताज़ा दूध के लिए तो किसी को भेज दिया न ?"
और डॉली दिन-भर की घरेलू चिन्ताओं में खो गई और वक़्ती तौर पर उसने अपने दुःख को उसमें डुबो दिया।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 5-भाग 1)
जन्मजात योग्यता की बदौलत ओब्लोन्स्की स्कूल की पढ़ाई में अच्छा था, लेकिन काहिल और शरारती होने के कारण पिछड़े हुओं में रह गया। फिर भी अपनी सदा की रंगरलियोंवाली ज़िन्दगी, छोटे रुतबे और बुजुर्ग न होने के बावजूद मास्को के एक दफ्तर में संचालक के प्रतिष्ठित पद पर काम करता था और अच्छा वेतन पाता था। यह नौकरी उसे अपने बहनोई यानी आन्ना के पति अलेक्सेई अलेक्सान्द्रोविच कारेनिन की सहायता से मिली थी। कारेनिन उस मन्त्रालय में, जिसके अधीन यह दफ़्तर था, बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान पर नियुक्त था। अगर कारेनिन अपने साले को यह जगह न भी दिलवाता, तो भी स्तीवा ओब्लोन्स्की सैकड़ों अन्य लोगों, भाइयों, बहनों, सगे-सम्बन्धियों, दूर के रिश्ते के चाचाओं-मामाओं और बुआओं-मौसियों की मदद से यही या छः हज़ार वार्षिक आयवाली ऐसी कोई दूसरी नौकरी पा लेता। इतना वेतन तो उसे चाहिए ही था, क्योंकि बीवी की काफ़ी सम्पत्ति के बावजूद उसकी माली हालत ख़ासी पतली थी।
मास्को और पीटर्सबर्ग के आधे लोग ओब्लोन्स्की के रिश्तेदार या यार-दोस्त थे। उसका उन लोगों के बीच जन्म हुआ था, जो इस पृथ्वी के बड़े लोग थे या बन गए थे। सरकारी लोगों का एक-तिहाई भाग यानी बुजुर्ग उसे पिता के दोस्त थे और उसे बचपन से जानते थे। दूसरे तिहाई के लोग उसके यार-दोस्त थे और तीसरी तिहाईवाले अच्छे परिचित। इसलिए ज़ाहिर है कि नौकरियों, ठेकों और कंसेशनों आदि के रूप में दौलत बाँटनेवाले सभी लोग उसके दोस्त थे और अपने आदमी की अवहेलना नहीं कर सकते थे। ओब्लोन्स्की को अच्छी जगह हासिल करने के लिए खास कोशिश करने की ज़रूरत नहीं थी। उसे तो सिर्फ़ इनकार और ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए थी, झगड़ना और बुरा नहीं मानना चाहिए था और वह अपनी स्वाभाविक उदारता के फलस्वरूप कभी ऐसा करता भी नहीं था। अगर उससे यह कहा जाता कि जिस नौकरी की उसे ज़रूरत है, वह उसे नहीं मिलेगी, तो उसे यह बात हास्यास्पद लगती। खासतौर पर इसलिए कि वह किसी असाधारण चीज़ की माँग नहीं कर रहा था। वह तो उतना ही चाहता था, जितना कि उसके हमउम्र पा रहे थे और ऐसी नौकरी के फ़र्ज़ भी वह दूसरों की तरह ही निभा सकता था।
ओब्लोन्स्की को जाननेवाले सभी लोग उसे उसके दयालु, हँसोड़ स्वभाव और सन्देहहीन ईमानदारी के लिए प्यार ही नहीं करते थे, बल्कि उसमें, उसके बाहरी सुन्दर और मधुर व्यक्तित्व, चमकती आँखों, काली भौंहों, गोरे-चिट्टे और गालों पर खिले गुलाबोंवाले चेहरे में कुछ ऐसा भी था, जो उससे मिलनेवाले लोगों पर मैत्रीपूर्ण तथा सुखद प्रभाव डालता था। अहा ! स्तीवा ! ओब्लोन्स्की ! यह रहा वह !' उससे मुलाकात होने पर लगभग हमेशा ही खुशीभरी मुस्कान के साथ लोग कहते। अगर कभी ऐसा हो भी जाता कि उसके साथ बातचीत करने के बाद ऐसा प्रतीत होता कि कोई खास खुशी की बात नहीं हुई, तो भी अगले दिन या उसके अगले दिन उससे भेंट होने पर फिर सभी उसी भाँति खुश होते।
मास्को के एक कार्यालय में तीन सालों से संचालक के पद पर काम करते हुए ओब्लोन्स्की ने प्यार के अतिरिक्त अपने सहयोगियों, अपने अधीन काम कारनेवालों और अपने से बड़े अधिकारियों अर्थात उन सभी का आदर भी प्राप्त कर लिया था, जिनका उससे वास्ता पड़ता था। दफ्तर में सभी का आदर प्राप्त करने में जिन गुणों ने उसकी सहायता की थी, उनमें सबसे पहला तो लोगों के प्रति अत्यधिक विनयशीलता थी, जो अपनी त्रुटियों की चेतना का परिणाम थी। दूसरा गुण था-उसकी उदारता की भावना। यह वह उदारता नहीं थी, जिसके बारे में वह अखबारों में पढ़ता था, बल्कि वह, जो उसके खून में थी और जिसके फलस्वरूप वह अमीर-गरीब और छोटे-बड़े यानी सभी लोगों के साथ समान व्यवहार करता था। तीसरा और मुख्य गुण था-उस काम के प्रति, जिसे वह करता था, पूर्ण अनासक्ति का भाव । इसके परिणामस्वरूप वह उसमें कभी डूबता-खोता नहीं था और इसलिए गलतियाँ भी नहीं करता था।
ओब्लोन्स्की के दफ्तर पहुँचने पर दरबान ने उसका सादर स्वागत किया और वह थैला लिए हुए अपने छोटे-से कमरे में गया, उसने वर्दी पहनी और दफ़्तर में दाखिल हुआ। मुंशी और दूसरे सभी कर्मचारी उठकर खड़े हो गए और सभी ने खुशमिज़ाजी तथा आदर से सिर झुकाया। ओब्लोन्स्की सदा की भाँति जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता अपनी जगह पर चला गया और सदस्यों से हाथ मिलाकर बैठ गया। जितना मुनासिब था, उसने हँसी-मज़ाक़ किया और बातचीत की तथा काम शुरू कर दिया। ओब्लोन्स्की आज़ादी, सादगी और औपचारिकता की उस हद को बहुत अच्छी तरह जानता था, जो दफ़्तर के काम को दिलचस्प ढंग से चलाने के लिए ज़रूरी होती है। जैसाकि अन्य सभी लोग भी ओब्लोन्स्की की उपस्थिति में करते थे, सेक्रेटरी भी खुशमिज़ाजी और आदर से, कागजात लिए हुए उसके पास आया और बेतकल्लुफ़ तथा खुले अन्दाज़ में, जिसकी ओब्लोन्स्की ने ही परम्परा डाली थी, बात करने लगा।
"आखिर तो हमने पेंज़ा गुबेर्निया के दफ्तर से ज़रूरी सूचना हासिल कर ली है। देखना चाहेंगे न..."
“आखिर तो हासिल कर ली ?" कागज़ पर उँगली रखते हुए ओब्लोन्स्की कह उठा। “तो महानुभावो..." और कार्रवाई शुरू हो गई।
'काश, इन्हें मालूम होता कि आध घंटा पहले इनका अध्यक्ष कैसा कसूरवार लड़का-सा बना हुआ था !' उसने रिपोर्ट सुनते हुए एक ओर सिर झुकाकर तथा चेहरे पर गम्भीरता का भाव लाते हुए मन-ही-मन सोचा। और रिपोर्ट पढ़े जाने के वक़्त उसकी आँखें हँस रही थीं। दिन के दो बजे तक ऐसी कार्रवाई चलती थी और इसके बाद कुछ खाने-पीने के लिए अन्तराल होता था। अभी दो नहीं बजे थे कि दफ्तर के बड़े हॉल के शीशे के दरवाजे अचानक खुले और कोई भीतर आया। सभी सदस्यों ने इस मनबहलाव की सम्भावना से खुश होते हुए दरवाज़े की तरफ़ मुड़कर देखा, जिसके सामने ज़ार का छविचित्र लगा था। लेकिन दरवाजे के करीब खड़े चौकीदार ने आगन्तुक को फ़ौरन बाहर करते हुए शीशे का दरवाजा बन्द कर दिया।
जब रिपोर्ट पढ़ी जा चुकी, ओब्लोन्स्की उठकर खड़ा हआ, उसने अंगड़ाई ली, अपने जमाने की उदारतावादी प्रवृत्ति के अनुरूप दफ़्तर में ही सिगरेट निकाली और अपने कमरे में चला गया। उसके दो साथी, अर्से से यहीं काम करनेवाला निकीतिन और कैमरजंकर ग्रिनेविच भी उसके साथ बाहर आ गए।
"नाश्ते-पानी के बाद इस मामले को खत्म कर लेंगे," ओब्लोन्स्की ने कहा। "जरूर कर लेंगे !" निकीतिन ने पुष्टि की।
"यह फ़ोमीन बड़ा धूर्त होगा," ग्रिनेविच ने विचाराधीन मामले से सम्बन्धित एक व्यक्ति के बारे में कहा।
ग्रिनेविच के इन शब्दों को सुनकर ओब्लोन्स्की के माथे पर बल पड़ गए। इस तरह उसने यह ज़ाहिर कर दिया कि वक्त से पहले कोई नतीजा निकालना अच्छी बात नहीं है और जवाब में खुद कुछ नहीं कहा।
"कौन भीतर आया था ?" उसने चौकीदार से पूछा।
"कोई अजनबी था, हुजूर। मेरा मुँह दूसरी तरफ़ होते ही पूछे बिना घुस गया। आपके बारे में पूछा रहा था। मैंने कहा कि जब सदस्य बाहर आएँगे, तब..."
"कहाँ है वह ?"
"अभी-अभी डयोढ़ी में चला गया है, नहीं तो लगातार यहीं पर इधर-उधर टहल रहा था। वह रहा," चौकीदार ने मज़बूत और चौड़े-चकले कन्धों तथा घुंघराली दाढ़ीवाले व्यक्ति की तरफ़ इशारा करके कहा। वह व्यक्ति भेड़ की खाल की टोपी उतारे बिना ही पत्थर के जीने की घिसी हुई पैड़ियों पर जल्दी-जल्दी और फुर्ती से ऊपर चढ़ रहा था। थैला हाथ में लिए नीचे उतरते हुए एक दुबले-पतले कर्मचारी ने रुककर ऊपर भागे जाते इस व्यक्ति की टाँगों को भर्त्सनापूर्वक देखा और फिर ओब्लोन्स्की पर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली।
ओब्लोन्स्की जीने के सिर पर खड़ा था। वर्दी के सुनहरी पट्टीवाले कालर के ऊपर खुशमिज़ाजी से खिला हुआ उसका चेहरा सीढ़ियाँ चढ़ते आदमी को पहचानकर और भी अधिक खिल उठा। "वही है ! आखिर तो लेविन आ गया !" नज़दीक आते लेविन को गौर से देखते हुए उसने मैत्री और तनिक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ कहा। "इस गड़बड़झाले में मुझे ढूँढ़ते हुए तुम्हें नफ़रत नहीं महसूस हुई?" हाथ मिलाकर ही सन्तुष्ट न होते हुए उसने अपने दोस्त को चूमा। "बहुत देर हो गई क्या तुम्हें यहाँ आए ?"
"मैं अभी आया हूँ और तुमसे मिलने को बहुत ही उत्सुक था," लेविन ने शरमाते, साथ ही झल्लाते और बेचैनी से इधर-उधर नज़र दौड़ाते हुए जवाब दिया।
"तो आओ, मेरे कमरे में चलें !" अपने दोस्त की आत्मसम्मानी और खीजभरी संकोचशीलता से परिचित ओब्लोन्स्की ने कहा। और उसका हाथ थामकर अपने पीछे-पीछे ऐसे ले चला मानो उसे खतरों के बीच से बचाकर ले जा रहा हो।
अपने लगभग सभी परिचितों के साथ ओब्लोन्स्की की 'तुम' के स्तर पर बेतकल्लुफ़ी थी। इन परिचितों में साठ साल के बूढ़े, बीस साला छोकरे, अभिनेता, मन्त्री, व्यापारी और ज़ार के जनरल-एडजुटेंट भी थे। इस तरह 'तुम' के स्तर पर उससे घनिष्ठता रखनेवाले सामाजिक सीढ़ी के दो सिरों पर खड़े थे और उन्हें यह जानकर बहुत हैरानी होती कि ओब्लोन्स्की के माध्यम से उनके बीच कोई तार जुड़ा हुआ है। वह जिन लोगों के साथ शेम्पेन पीता था, और शेम्पेन वह बहुतों के साथ पीता था, उन सभी को 'तुम' कहता था। इसलिए अपने अधीन काम करनेवालों की उपस्थिति में जब 'तुम' की श्रेणी में आनेवाले इन 'लज्जाजनक यार-दोस्तों' से, जैसे वह मज़ाक में ऐसे अधिकतर लोगों को कहता था, उसकी भेंट होती तो अपनी नीतिकुशलता के अनुसार अपने मातहतों के लिए इस प्रभाव की अप्रियता को कम करने में समर्थ रहता था। लेविन 'लज्जाजनक यार-दोस्तों' में से नहीं था, लेकिन ओब्लोन्स्की अपनी नीतिकुशलता से लेविन के मन का भाव भाँप गया। उसने महसूस किया कि लेविन समझता है कि मैं अपने मातहतों के सामने उसके साथ अपनी निकटता नहीं जाहिर करना चाहूँगा और इसलिए जल्दी से उसे अपने कमरे में ले गया।
लेविन और ओब्लोन्स्की लगभग हमउम्र थे और उनके बीच केवल शेम्पेन की वजह से ही 'तुम' के स्तर पर सम्बन्ध नहीं थे। लेविन उसका साथी और चढ़ती जवानी के दिनों का दोस्त था। स्वभावों और रुचियों के अन्तर के बावजूद वे एक-दूसरे को वैसे ही प्यार करते थे, जैसा चढ़ती जवानी के दिनों में मिल जानेवाले लोगों के बीच हो जाता है। किन्तु इसके बावजूद, जैसाकि विभिन्न किस्म की गतिविधियाँ चुननेवाले लोगों के साथ अक्सर होता है, इनमें से हरेक चाहे दूसरे के कार्य पर सोच-विचार कर उसकी सफ़ाई पेश करता था, फिर भी दिल में उसे तिरस्कार की दृष्टि से देखता था। प्रत्येक को ऐसा प्रतीत होता था कि जो जीवन वह बिता रहा है, वही वास्तविक है और उसके मित्र का जीवन छलना है। लेविन से मुलाकात होते ही ओब्लोन्स्की के चेहरे पर हल्की व्यंग्यपूर्ण मुस्कान आए बिना नहीं रहती थी। लेविन बार-बार गाँव से आता था, जहाँ वह कुछ करता था, लेकिन क्या करता था, ओब्लोन्स्की ढंग से नहीं समझ सका और न ही वह इस मामले में कोई गहरी दिलचस्पी लेता था। लेविन हमेशा ही उत्तेजित, हड़बड़ाया, कुछ घबराया और इस घबराहट के कारण झल्लाया हुआ और जीवन के बारे में नया तथा अप्रत्याशित दृष्टिकोण लेकर मास्को आता। ओब्लोन्स्की इस पर हँसता और उसे यह अच्छा लगता। ठीक इसी भाँति लेविन अपने मित्र के शहरी जीवन और उसके काम को, जिसे फ़िज़ूल की चीज़ मानता था, मन-ही-मन तिरस्कार की दृष्टि से देखता और इसका मज़ाक उड़ाता। लेकिन फ़र्क यह था कि ओब्लोन्स्की वह करते हुए, जो सभी करते हैं, आत्मविश्वास और खुशमिज़ाजी से हँसता, जबकि लेविन आत्मविश्वास के बिना और कभी-कभी झल्लाते हुए।
"हम बहुत दिनों से तुम्हारी राह देख रहे थे," ओब्लोन्स्की ने अपने कमरे में दाखिल होते और लेविन का हाथ छोड़ते तथा इस तरह मानो यह ज़ाहिर करते हुए कहा कि अब खतरा खत्म हो गया। "बहुत, बहुत खुशी हुई तुम्हारे आने से," वह कहता गया। "तो तुम कैसे हो? क्या हाल है तुम्हारा ? कब आए हो ?"
ओब्लोन्स्की के दो साथियों के अपरिचित चेहरों और खासतौर पर बाँके-छैले ग्रिनेविच के हाथ को गौर से देखता हुआ लेविन खामोश रहा। ग्रिनेविच के हाथों की ऐसी गोरी और लम्बी उँगलियाँ थीं, उनके सिरों पर ऐसे लम्बे, पीले और मुड़े हुए नाखून थे, कमीज़ के कफ़ों में ऐसे चमकते और बड़े-बड़े कफ़-लिक लगे हुए थे कि सम्भवतः इन हाथों ने ही उसका सारा ध्यान अपनी तरफ़ खींच लिया था और वे उसे स्वतन्त्रता से सोचने नहीं दे रहे थे। ओब्लोन्स्की ने फ़ौरन यह ताड़ लिया और मुस्कुराया।
"अरे हाँ, मैं आपका परिचय तो करा दूं." उसने कहा। "मेरे साथी फ़िलीप इवानोविच निकीतिन और मिखाइल स्तनिस्लावोविच ग्रिनेविच ।" इसके बाद लेविन की ओर इशारा करते हुए बोला, "जेम्सत्वो-परिषद का कार्यकर्ता, इस प्रणाली का एक नया व्यक्ति, मेरा कसरती दोस्त कोन्स्तान्तीन मीत्रियेविच लेविन, जो एक हाथ से एक सौ किलोग्राम वज़न उठा लेता है, पशुपालक और शिकारी है तथा सेर्गेई इवानोविच कोज्निशेव का छोटा भाई।"
"आपसे मिलकर बहुत खुशी हुई," बूढ़े निकीतिन ने कहा।
"मुझे आपके भाई सेर्गेई इवानोविच से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त है," लम्बे नाखूनोंवाला पतला-सा हाथ लेविन की तरफ़ बढ़ाते हुए ग्रिनेविच ने कहा।
लेविन के माथे पर बल पड़ गए, उसने रूखाई से हाथ मिलाया और इसी क्षण ओब्लोन्स्की की तरफ़ देखा। यह सही है कि सारे रूस में लेखक के नाते प्रसिद्ध अपने भाई के लिए उसके दिल में बड़ी इज़्ज़त थी, फिर भी जब उसे कोन्स्तान्तीन लेविन के रूप में नहीं, बल्कि विख्यात कोनिशेव के भाई के रूप में सम्बोधित किया जाता था, तो उसे बहुत बुरा लगता था।
"नहीं, मैं अब जेम्सत्वो-परिषद का कार्यकर्ता नहीं रहा। मेरा सबसे झगड़ा हो गया और अब मैं परिषद की बैठकों में नहीं जाता," उसने ओब्लोन्स्की को सम्बोधित करते हुए कहा।
"इतनी जल्दी ही!" ओब्लोन्स्की ने मुस्कुराकर कहा। "लेकिन कैसे ? क्या हुआ?"
"यह लम्बी कहानी है। फिर कभी सुनाऊँगा," लेविन ने कहा, लेकिन उसी वक़्त सुनाने लगा। "थोड़े में, मुझे यह यकीन हो गया कि जेम्सत्वो-परिषद न तो कुछ करती है और न कर ही सकती है," उसने ऐसे कहना शुरू किया मानो किसी ने इसी वक़्त उसे नाराज़ कर दिया हो। “एक तरफ़ तो यह खिलौना है, संसद में होने का खेल खेला जाता है। लेकिन मैं न तो इतना जवान हूँ और न इतना बूढ़ा ही कि खिलौनों से खेलूँ। दूसरी तरफ़ (वह हकलाया) यह ज़िले के coterie (गिरोह-फ्रांसीसी) के लिए पैसा निचोड़ने का साधन है। पहले संरक्षण-संस्थाएँ और अदालतें थीं और अब ये परिषदें रिश्वत के रूप में नहीं, बल्कि अनुचित वेतन के रूप में पैसा पाती हैं," उसने ऐसे जोश में कहा मानो उपस्थित लोगों में से कोई उसके मत का खंडन कर रहा हो।
“अरे ! मैं देख रहा हूँ कि तुम फिर से एक नए, रूढ़िवादी रंग में सामने आए हो,” ओब्लोन्स्की ने कहा। "खैर, इसकी हम बाद में चर्चा करेंगे।"
"हाँ, बाद में। लेकिन मेरे लिए तुमसे मिलना ज़रूरी था," लेविन ने ग्रिनेविच के हाथ की ओर घृणा से देखते हुए कहा।
ओब्लोन्स्की के चेहरे पर हल्की मुस्कान दिखाई दी।
"तुमने तो कहा था कि अब कभी तुम यूरोपीय पोशाक नहीं पहनोगे ?" लेविन के नए, सम्भवतः फ्रांसीसी दर्जी के हाथ से सिले सूट को ध्यान से देखते हुए ओब्लोन्स्की ने कहा। "तो मैं देख रहा हूँ कि यह भी एक नया रंग है।"
लेविन अचानक शरमा गया। लेकिन ऐसे नहीं, जैसे बालिग ज़रा-सा शरमाते हैं और उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता। वह तो लड़कों की तरह शरमाया, जो यह अनुभव करते हैं कि अपने शर्मीलेपन के कारण वे हास्यास्पद प्रतीत होते हैं और इसलिए और भी ज्यादा शरमाते तथा लाल होते जाते हैं और लगभग आँसुओं की अवस्था तक पहुँच जाते हैं। लेविन के बुद्धिमत्ता और साहसपूर्ण चेहरे को बालकों जैसी स्थिति में देखना इतना अजीब लग रहा था कि ओब्लोन्स्की ने नज़र दूसरी तरफ़ कर ली।
"तो कहाँ मिलेंगे हम ? मुझे तो तुमसे बहुत ही ज़रूरी बात करनी है," लेविन ने कहा।
ओब्लोन्स्की मानो सोचने लगा।
"तो ऐसा करते हैं-गरिन के पास नाश्ता-पानी करने चलते हैं और वहीं बातचीत कर लेंगे। मुझे तीन बजे तक फुर्सत है।"
"नहीं," कुछ सोचकर लेविन ने जवाब दिया, “मुझे अभी कहीं और जाना है।"
"तो हम शाम का खाना एकसाथ खा लेंगे।"
"शाम का खाना ? देखो न, मुझे कुछ खास तो कहना नहीं, सिर्फ दो शब्द कहने हैं, कुछ पूछना है और बाकी बातें हम बाद में कर लेंगे।"
"तो अभी कह दो वे दो शब्द और बाक़ी बातचीत खाने के वक्त कर लेंगे।"
"दो शब्द ये हैं," लेविन ने कहा, "वैसे, कोई खास बात नहीं है।"
उसके चेहरे पर सहसा झल्लाहट झलक उठी। यह अपने शर्मीलेपन पर काबू पाने की उसकी कोशिश का परिणाम थी।
"श्चेर्बात्स्किी परिवारवालों का क्या हालचाल है ? सब कुछ पहले की तरह ही है ?" उसने पूछा।
ओब्लोन्स्की को बहुत अर्से से यह मालूम था कि लेविन उसकी साली कीटी को प्यार करता है। इसलिए अब वह तनिक मुस्कुराया और उसकी आँखें खुशमिज़ाजी से चमक उठीं।
"तुमने कहा 'दो शब्द,' लेकिन मैं दो शब्दों में जवाब नहीं दे सकता, क्योंकि...एक मिनट के लिए माफ़ करना।"
बेतकल्लुफ़ी और साथ ही आदर का भाव तथा दफ़्तरी मामलों के बारे में संचालक की तुलना में अपनी जानकारी की श्रेष्ठता की चेतना के साथ, जो सभी सेक्रेटरियों का सामान्य लक्षण है, ओब्लोन्स्की का सेक्रेटरी कागजात लिए हुए क़रीब आया और सवाल पूछने का बहाना करते हुए कोई कठिनाई स्पष्ट करने लगा। ओब्लोन्स्की ने अन्त तक उसकी बात सुने बिना ही स्नेहपूर्वक अपना हाथ सेक्रेटरी की आस्तीन पर रख दिया।
"नहीं, आप वैसा ही करें, जैसाकि मैंने कहा था," मुस्कुराकर अपनी टिप्पणी को नर्म बनाते और संक्षेप में इस मामले के बारे में अपने विचार स्पष्ट करते हए उसके कागजात अपने सामने से हटा दिए और कहा, "वैसे ही कीजिए, जाखार निकीतिच ! कृपया वैसे ही कीजिए।"
सिटपिटाया हुआ सेक्रेटरी बाहर चला गया। सेक्रेटरी के साथ ओब्लोन्स्की की बातचीत के दौरान अपनी झेंप से पूरी तरह मुक्त हो चुका लेविन कुर्सी पर दोनों कोहनियाँ टिकाए खड़ा था और उसके चेहरे पर व्यंग्पूर्ण एकाग्रता का भाव था।
"समझ में नहीं आता, कुछ समझ में नहीं आता," उसने कहा।
"क्या समझ में नहीं आता ?" पहले की तरह ही खुशमिज़ाजी से मुस्कुराते और सिगरेट निकालते हुए आब्लान्स्की ने पूछा। वह लेविन के मुंह से कोई अजीब और अटपटी बात सुनने की उम्मीद कर रहा था।
“समझ में नहीं आता कि आप लोग क्या करते हैं," लेविन ने कन्धे झटककर कहा। "कैसे तुम यह सब संजीदगी से कर सकते हो?"
"क्यों नहीं कर सकता ?"
"इसलिए कि करने को कुछ है ही नहीं।"
"तुम ऐसा समझते हो, लेकिन हमारा तो काम के कारण बुरा हाल है।"
"कागजी काम के कारण। हाँ, तुममें तो इसकी विशेष योग्यता है," लेविन ने इतना और जोड़ दिया।
“मतलब यह है कि तुम्हारे खयाल में मुझमें कुछ कमी है ?"
"शायद, और है भी," लेविन ने कहा। "फिर भी मैं तुम्हारी ऐसी प्रतिष्ठा पर मुग्ध हूँ और गर्व करता हूँ कि मेरा दोस्त इतना बड़ा आदमी है। लेकिन तुमने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया," ओब्लोन्स्की से यत्नपूर्वक नज़र मिलाते हुए उसने कहा।
"खैर. कोई बात नहीं, कोई बात नहीं। थोड़ा सब्र करो और फिर तुम्हें भी इसी रास्ते पर आना पड़ेगा। तुम तो ऐसा कहोगे ही, क्योंकि तुम्हारे पास कराज़ीन्स्की उयेज़्द में लगभग आठ हज़ार एकड़ जमीन है, ऐसी मजबूत मांसपेशियाँ और बारह साल की लड़की जैसी ताज़गी है। फिर भी तुम हमारे पास आओगे। हाँ, और रहा तुम्हारे सवाल का जवाब। परिवर्तन वहाँ कोई नहीं हुआ, मगर अफ़सोस की बात है कि तुम इतने समय से नहीं आए।"
"क्या बात है ?" लेविन ने घबराकर पूछा।
"बात तो कुछ नहीं," ओब्लोन्स्की ने जवाब दिया। "हम बाद में बातचीत करेंगे। हाँ, तुम आए किसलिए हो ?"
"ओह, इसकी भी बाद में चर्चा करेंगे," फिर शर्म से बुरी तरह लाल होते हए लेविन ने उत्तर दिया।
"अच्छी बात है। समझ गया," ओब्लोन्स्की ने कहा। "वैसे तो मैंने तुम्हें घर पर बुला लिया होता, लेकिन मेरी बीवी की तबीयत अच्छी नहीं है। अच्छा सुनो-अगर तुम उनसे मिलना चाहते हो, तो सम्भवतः वे लोग चार से पाँच बजे तक चिड़ियाघरवाले बाग में मिलेंगे। कीटी वहाँ स्केटिंग करती है। तुम वहाँ चले जाओ, बाद में मैं भी वहीं आ जाऊँगा और हम कहीं एक साथ खाना खा लेंगे।"
"अच्छी बात है, तो नमस्ते।"
"लेकिन तुम याद रखना। मैं तुम्हें जानता हूँ, तुम भूल जाओगे या अचानक गाँव चले जाओगे !" ओब्लोन्स्की ने हँसते हुए चिल्लाकर कहा।
“नहीं, ऐसा नहीं होगा।"
लेविन ओब्लोन्स्की के साथियों को नमस्ते किए बिना ही बाहर चला गया। केवल दरवाजे तक पहुँचने पर ही उसे यह याद आया कि ऐसा करना भूल गया है।
"बड़ा उत्साही श्रीमान लगता है यह," लेविन के जाने पर ग्रिनेबिच ने कहा।
"हाँ, दोस्त," ओब्लोन्स्की ने सिर हिलाते हुए कहा। "ऐसे को कहते हैं खुशकिस्मत ! लगभग आठ हज़ार एकड़ जमीन है कराज़ीन्स्की ज़िले में, अभी सब कुछ आगे है और कितनी ताज़गी है । कोई हम जैसा थोड़े ही है !"
“आप क्यों शिकवा-शिकायत करते हैं, स्तेपान अर्काद्येविच ?"
"बड़ी मुश्किल का सामना है, बुरा हाल है," ओब्लोन्स्की ने गहरी साँस लेकर कहा।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 6-भाग 1)
ओब्लोन्स्की ने लेविन से जब यह पूछा कि वह किसलिए आया है, तो लेविन शर्म से लाल हो गया और उसे अपने पर इसलिए गुस्सा आया कि ऐसे शरमा गया। कारण कि वह उसे यह जवाब तो नहीं दे सकता था : 'मैं तुम्हारी साली के सामने अपने साथ विवाह का प्रस्ताव रखने आया हूँ,' यद्यपि वह आया तो सिर्फ इसीलिए था।
लेविन और श्चेर्बात्स्की परिवार मास्को के पुराने कलीन परिवार थे और उनके बीच हमेशा घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे थे। लेविन के विद्यार्थी-जीवन के समय में ये सम्बन्ध और भी दृढ़ हो गए थे। उसने डॉली और कीटी के भाई, नौजवान प्रिंस श्चेर्बात्स्की के साथ ही विश्वविद्यालय में दाखिला पाने की तैयारी की और वे दोनों एकसाथ ही दाखिल हुए। उस वक़्त लेविन श्चेर्बात्स्किी परिवार में अक्सर आता था और उसे इस परिवार से प्यार हो गया। बेशक यह कितना ही अजीब क्यों न लगे, फिर भी कोन्स्तान्तीन लेविन इस घर, इस पूरे परिवार को, खासतौर पर श्चेर्बात्स्किी परिवार के आधे भाग यानी नारियों को प्यार करता था। लेविन को अपनी माँ की याद तक नहीं थी और उसकी एकमात्र बहन उससे बड़ी थी। इस तरह श्चेर्बात्स्किी परिवार में उसे पहली बार पुराने, सुशिक्षित और भले लोगों का वह वातावरण देखने को मिला, जिससे माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण वह बंचित रहा था। इस परिवार के सभी लोग, विशेषकर नारियाँ उसे किसी रहस्यपूर्ण और काव्यमय आवरण में लिपटी-सी प्रतीत होती थीं। उसे इनमें न सिर्फ कोई कमी ही नहीं महसूस होती थी, बल्कि इस काव्यमय आवरण की बदौलत वह उनमें उच्चतम भावनाओं और सभी तरह की पूर्णता की कल्पना करता था। किसलिए ये तीनों लड़कियाँ एक दिन फ्रांसीसी और दूसरे दिन अंग्रेजी में बातचीत करती थीं, किसलिए वे नियत समय पर बारी-बारी से पियानो बजाती थीं, जिसकी ध्वनियाँ ऊपर भाई के कमरे में, जहाँ लड़के पढ़ते थे, सुनाई देती थीं, किसलिए फ्रांसीसी साहित्य, संगीत, चित्रकारी और नृत्य के शिक्षक यहाँ आते थे, किसलिए तीनों सुन्दरियाँ साटिन के लबादे पहने, डॉली लम्बा, नताली अधलम्बा और कीटी बहुत छोटा, जिससे लम्बी लाल जुर्राबों में कसी हुई उसकी टाँगें साफ़ दिखाई देती थीं, m-lle Linon के साथ बग्घी में बैठकर त्वेरस्कोई बुलवार जाती थीं, किसलिए टोप पर सुनहरा तुर्रा लगाए नौकर के साथ वे त्वेरस्कोई बुलवार में टहलती थीं-यह सब कुछ और इस रहस्यपूर्ण संसार में होनेवाली अन्य बहुत-सी चीजें भी वह नहीं समझता था, लेकिन इतना जानता था कि वहाँ जो कुछ भी होता था, अद्भुत था और यहाँ होनेवाली चीज़ों की रहस्यपूर्णता को प्यार करता था।
अपने विद्यार्थी जीवन में उसे सबसे बड़ी बहन यानी डॉली से लगभग प्यार हो चला था लेकिन उसकी जल्द ही ओब्लोन्स्की से शादी कर दी गई। इसके बाद वह दूसरी बहन की ओर खिंचने लगा। वह मानो यह महसूस करता था कि उसे इन तीनों में से किसी एक बहन को प्यार करना चाहिए, लेकिन किससे, इतना समझ नहीं पा रहा था। नताली भी ज्यों ही ऊँचे समाज में लोगों के सामने आई, त्यों ही कूटनीतिज्ञ ल्वोव के साथ उसकी शादी ही गई। लेविन ने जब विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त की, तो कीटी बालिका ही थी। नौजवान श्चेर्बात्स्की जहाज़ी बेड़े में चला गया, बाल्टिक सागर में डूब गया और ओब्लोन्स्की के साथ लेविन की दोस्ती के बावजूद श्चेर्बात्स्की परिवार में उसका आना-जाना कम हो गया। लेकिन इस साल के जाड़े के आरम्भ में लेविन जब एक साल गाँव में बिताकर मास्को आया और श्चेर्बात्स्की परिवार में गया, तो यह बात उसकी समझ में आ गई कि तीनों बहनों में से किसके साथ उसके भाग्य में प्यार करना बदा था।
ऐसा प्रतीत हो सकता है कि बत्तीस साल के, अच्छे घराने के और धनी लेविन के लिए प्रिंसेस श्चेर्बात्स्काया के सामने अपने साथ विवाह करने के प्रस्ताव से और अधिक आसान बात क्या हो सकती है। सम्भवतः उसे तत्काल अच्छा वर-पक्ष मान लिया जाएगा। किन्तु लेविन कीटी को प्यार करता था और इसलिए उसे लगता था कि वह हर दृष्टि से इतनी पूर्ण है, धरती की हर चीज़ से इतनी ऊपर है और वह खुद इतना तुच्छ तथा सामान्य है कि अन्य लोग और स्वयं कीटी भी उसे अपने योग्य मान ले, उसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती।
स्वप्न की भाँति मास्को में दो महीने बिताकर और लगभग हर दिन ऊँचे समाज में कीटी से मिलकर, जहाँ वह केवल उसी से मिलने के उद्देश्य से जाता था, लेविन ने अचानक यह फैसला कर लिया कि ऐसा होना असम्भव है और गाँव चला गया।
कीटी के साथ उसके विवाह के असम्भव होने का लेविन का विश्वास इस बात पर आधारित था कि उसके रिश्तेदारों की नजरों में वह बहुत ही प्यारी कीटी के लिए बढ़िया और उपयुक्त वर नहीं है और खुद कीटी उससे प्यार कर नहीं सकती। रिश्तेदारों की नज़र में वह कोई ढंग का और निश्चित काम नहीं कर रहा था और ऊँचे समाज में कोई स्थान भी नहीं रखता था, जबकि बत्तीस साल की उम्रवाले उसके साथियों में से इस वक़्त कोई कर्नल और ज़ार का एड-डी-कैम्प, कोई प्रोफ़ेसर, कोई बैंक या रेलवे कम्पनी का डायरेक्टर या ओब्लोन्स्की की तरह किसी सरकारी दफ्तर का अध्यक्ष था। लेकिन वह खुद (वह अच्छी तरह से जानता था कि दूसरों को कैसा प्रतीत होता होगा) ज़मींदार था, जो गउएँ पालता था, कुनालों का शिकार करता था, खेतीबारी से सम्बन्धित इमारतें बनवाने के काम में लगा था। दूसरे शब्दों में किसी काम-काज का आदमी नहीं था और वही कुछ करता था, जो ऊँचे समाज की दृष्टि में, किसी भी चीज़ के योग्य न होनेवाले लोग करते हैं। ऐसी प्यारी और रहस्यमयी कीटी उस जैसे बदसूरत आदमी को. जैसा कि वह अपने को मानता था, और मुख्यतः तो ऐसे साधारण तथा किसी भी तरह से कोई विशेष महत्त्व न रखनेवाले आदमी को खुद तो प्यार कर नहीं सकती थी। इसके अलावा कीटी के प्रति उसका पहले का रवैया, जो उसके भाई के साथ दोस्ती के परिणामस्वरूप वयस्क का बच्चे के प्रति रवैया था, उसे प्यार के रास्ते में नई बाधा प्रतीत हुआ। उसका खयाल था कि उस जैसे असुन्दर और भले आदमी को दोस्त की तरह तो प्यार किया जा सकता था, लेकिन जैसे वह कीटी को प्यार करता था, वैसा ही प्यार पाने के लिए आदमी को बहुत ही खूबसूरत, और मुख्यतः तो कोई खास हस्ती होना चाहिए।
उसने यह सुना था कि औरतें अक्सर असुन्दर और सीधे-सादे लोगों को प्यार करती हैं, लेकिन वह इस पर यकीन नहीं करता था। कारण कि वह अपने ही मापदंड से इसका निर्णय करता था। वह खुद भी तो सिर्फ सुन्दर, रहस्यमयी और कोई खास बात रखनेवाली औरतों को ही प्यार कर सकता था।
लेकिन दो महीने तक गाँव में अकेले रहने के बाद उसे यह विश्वास हो गया कि वह वैसा ही प्यार नहीं, जैसा उसने चढ़ती जवानी के दिनों में अनुभव किया था, कि यह भावना उसे पल-भर को चैन नहीं लेने देती, कि वह इस प्रश्न को हल किए बिना ज़िन्दा नहीं रह सकता कि कीटी उसकी बीवी बनेगी या नहीं, कि उसकी हताशा उसकी कल्पना का परिणाम है, कि उसे इनकार कर दिया जाएगा, उसके पास इसका कोई प्रमाण नहीं है। इसलिए अब वह विवाह का प्रस्ताव करने का पक्का इरादा बनाकर मास्को आया था और अगर उसका प्रस्ताव मान लिया गया, तो वह शादी कर लेगा। या फिर...वह यह सोच नहीं पाता था कि अगर उसे इनकार कर दिया गया, तो उसके साथ क्या बीतेगी !
अन्ना करेनिना : (अध्याय 7-भाग 1)
सुबह की गाड़ी से मास्को पहुँचकर लेविन अपने बड़े भाई कोज़्निशेव के यहाँ ठहरा। इन दोनों की माँ एक, पर पिता अलग-अलग थे। कपड़े बदलकर वह इस इरादे से भाई के कमरे में गया कि उसे अपने आने का कारण बताए और उसकी सलाह ले, लेकिन भाई अकेला नहीं था। उसके पास दर्शनशास्त्र का एक प्रसिद्ध प्रोफ़ेसर बैठा था। प्रोफ़ेसर विशेष रूप से इसलिए खार्कोव से आया था कि उस गलतफ़हमी को दूर कर सके, जो दर्शन-सम्बन्धी एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर उनके बीच पैदा हो गई थी। प्रोफेसर भौतिकवादियों के विरुद्ध पत्र-पत्रिकाओं में बहुत जोरदार बहस चला रहा था और सेर्गेई कोज़्निशेव इस वाद-विवाद में बड़ी दिलचस्पी ले रहा था। प्रोफ़ेसर का अन्तिम लेख पढ़कर उसने एक खत में अपनी आपत्तियाँ लिख भेजीं। कोज़्निशेव ने भौतिकवादियों को बहुत बड़ी रियायतें देने के लिए प्रोफ़ेसर की भर्त्सना की थी। इसलिए प्रोफेसर मामले पर विचार-विमर्श करने के लिए तुरन्त यहाँ आ पहुंचा था। बातचीत उस समय के प्रचलित प्रश्न पर हो रही थी कि मानव की मनोवैज्ञानिक और शारीरिक गतिविधियों के बीच कोई सीमा है और वह सीमा कहाँ है। कोज़्निशेव ने अपनी सामान्य, उत्साहहीन और स्नेही मुस्कान के साथ भाई का स्वागत किया और प्रोफ़ेसर से उसका परिचय कराकर बातचीत जारी रखी।
नाटे, कम चौड़े माथे, पीले चेहरेवाले और चश्माधारी प्रोफ़ेसर ने अभिवादन का उत्तर देने के लिए क्षण-भर को अपने विषय की चर्चा बन्द की और फिर लेविन की तरफ़ कोई ध्यान दिए बिना उसे जारी रखा। लेविन बैठकर प्रोफ़ेसर के जाने का इन्तज़ार करने लगा, लेकिन जल्द ही खुद उसे भी बातचीत के विषय में दिलचस्पी महसूस होने लगी।
लेविन ने पत्र-पत्रिकाओं में वे लेख देखे थे, जिनकी चर्चा चल रही थी। उसने उनमें दिलचस्पी ली थी और वह उन्हें प्रकृतिविज्ञान के, जिसके मूलभूत नियमों से वह विश्वविद्यालय में परिचित हो चुका था, विकास के रूप में पढ़ता था। लेकिन उसने पशु के रूप में मानव के उद्भव, उसकी सहज प्रतिक्रिया, जीवविज्ञान और समाजविज्ञान से निकाले गए निष्कर्षों को खुद अपने लिए जीवन और मृत्यु के महत्त्व से सम्बन्धित उन प्रश्नों के साथ कभी नहीं जोड़ा था, जो अधिकाधिक बार उसके दिमाग में आने लगे थे।
प्रोफ़ेसर के साथ अपने भाई की बातचीत सुनते हुए उसने इस चीज़ की ओर ध्यान दिया कि वे वैज्ञानिक प्रश्नों को निजी प्रश्नों से जोड़ देते हैं। कई बार वे इन प्रश्नों के लगभग निकट तक पहुँचे, लेकिन ज्यों ही वे उस चीज़ के निकट पहुँचते थे, जो उसे मुख्यतम प्रतीत होती थी. झटपट उससे दूर हट जाते और फिर से सूक्ष्म भेदों, शर्तों, उद्धरणों, संकेतों, अधिकारी नामों के उल्लेखों के क्षेत्र में गहरे उतर जाते और वह मुश्किल से समझ पाता कि वे किस बात की चर्चा कर रहे हैं।
"मैं ऐसा नहीं मान सकता," कोज़्निशेव ने अभिव्यक्ति की अपनी सामान्य स्पष्टता और अचूकता तथा उच्चारण की सुन्दरता के साथ कहा, "मैं किसी हाल में भी कैस के साथ सहमत नहीं हो सकता कि बाहरी जगत के बारे में मेरी सारी धारणा प्रभावों का फल होती है। मुझे अस्तित्व की मुख्य धारणा इन्द्रियानुभव से प्राप्त नहीं होती, क्योंकि इस धारणा को प्रेषित करने के लिए कोई विशेष इन्द्रिय नहीं है।"
"यह ठीक है, लेकिन वूर्स्ट, क्नाउस्ट और प्रीपासोव आपको इसका यह जवाब देते हैं कि अस्तित्व की आपकी चेतना सभी इन्द्रियानुभवों से संचित रूप से जन्म लेती है, कि अस्तित्व की यह चेतना इन्द्रियानुभवों का परिणाम है। वूर्स्ट तो साफ़ की कहते हैं कि अगर इन्द्रियानुभव नहीं है, तो अस्तित्व की धारणा भी नहीं हो सकती।"
"मैं इसके उलट यह कहूँगा," कोज़्निशेव ने कहना शुरू किया...
लेकिन यहीं पर लेविन को फिर से ऐसा प्रतीत हुआ कि वे मुख्य बात तक आकर फिर उससे दूर हट रहे हैं और इसलिए उसने प्रोफेसर से यह सवाल पूछने का फैसला किया।
"तो ऐसा मानना चाहिए कि अगर मेरी ज्ञानेन्द्रियाँ नष्ट हो गई हैं, अगर मेरा शरीर निर्जीव हो गया है, तो किसी तरह का कोई अस्तित्व सम्भव नहीं हो सकता ?"
प्रोफ़ेसर ने हताशा से, मानो इस बाधा के कारण बौद्धिक पीड़ा अनुभव करते हुए इस अजीब प्रश्नकर्ता की तरफ़ देखा, जो दर्शनशास्त्री के बजाय बजरे खींचनेवाला अधिक प्रतीत होता था। इसके बाद प्रोफ़ेसर ने कोज़्निशेव की ओर नज़र घुमाई मानो पूछ रहा हो-क्या जवाब दे कोई ऐसे सवाल का ? लेकिन कोज़्निशेव, जो प्रोफ़ेसर की तरह बहुत ज़ोर देकर तथा एकपक्षीय बात नहीं कर रहा था और जिसके दिमाग में प्रोफ़ेसर को जवाब देने तथा साथ ही उस सीधे-सादे और स्वाभाविक दृष्टिकोण को समझने के लिए, जिससे यह प्रश्न किया गया था, स्थान रह गया था, मुस्कुराया और बोला-
"इस सवाल को हल करने का अभी हमें हक़ नहीं है..."
"हमारे पास आवश्यक तथ्य नहीं हैं," प्रोफ़ेसर ने पुष्टि की और अपनी दलीलों की चर्चा जारी रखी। “नहीं," उसने कहा, "मैं इस बात की ओर संकेत करता हूँ कि अगर, जैसा कि प्रीपासोव साफ़ कहते हैं, अनुभूति ही हमारे इन्द्रियानुभव का आधार है, तो हमें इन दोनों धारणाओं के बीच बहुत ही स्पष्ट भेद करना चाहिए।"
लेविन अब और अधिक नहीं सुन रहा था तथा प्रोफेसर के जाने की राह देख रहा था।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 8-भाग 1)
प्रोफ़ेसर के चले जाने पर कोज़्निशेव ने भाई को सम्बोधित करते हुए कहा : "मुझे बहुत खुशी है कि तुम आए हो। क्या बहुत दिनों के लिए ? खेतीबारी का क्या हाल है ?"
लेविन जानता था कि खेतीबारी में बड़े भाई की बहुत कम दिलचस्पी है और उसने सिर्फ उसका लिहाज़ करते हुए उससे इसके बारे में पूछा है। इसलिए उसने केवल गेहूँ की बिक्री और पैसों की ही चर्चा की।
लेविन बड़े भाई से अपने शादी करने के इरादे की चर्चा करना और उसकी सलाह भी लेना चाहता था। उसने तो इसका पक्का फ़ैसला भी कर लिया था। लेकिन जब वह भाई से मिला, प्रोफ़ेसर के साथ उसकी बातचीत सुनी, जब उसे अनजाने ही उस सरपरस्ती के अन्दाज़ में बोलते सुना, जिसमें उसने खेतीबारी के बारे में पूछताछ की (माँ की जागीर साझी थी और लेविन दोनों भागों में देख-भाल करता था), तो लेविन ने महसूस किया कि किसी कारणवश वह भाई के साथ अपने शादी करने के इरादे की चर्चा नहीं कर सकता। उसे अनुभव हुआ कि उसका भाई इस मामले को वैसे ही नहीं देखता है, जैसे कि वह चाहता था।
"तो तुम्हारे यहाँ ज़ेम्सत्वो का क्या हाल है ?" कोज़्निशेव ने पूछा। वह ज़ेम्सत्वो में बड़ी रुचि लेता था और उसे बड़ा महत्त्व देता था।
"मुझे कुछ मालूम नहीं..."
“यह कैसे हो सकता है ? तुम तो उसके संचालन-मंडल के सदस्य हो ?"
"नहीं, मैं सदस्य नहीं हूँ। संचालन-मंडल से अलग हो चुका हूँ," लेविन ने जवाब दिया। "मैं अब उसकी सभाओं में नहीं जाता हूँ।"
"अफ़सोस की बात है !" कोज़्निशेवव ने माथे पर बल डालते हुए कहा।
लेविन अपनी सफ़ाई देते हुए यह बताने लगा कि उसके उयेज़्द में होनेवाली सभाओं में क्या होता था।
"हमेशा ऐसा ही होता है !" कोज़्निशेव ने लेविन को बीच में ही टोकते हए कहा। "हम रूसी हमेशा ऐसा ही करते हैं। हो सकता है, यह हमारा एक अच्छा लक्षण है कि हम अपनी त्रुटियों को देख पाने की क्षमता रखते हैं। लेकिन हम इसमें अति कर देते हैं। हम व्यंग्यों से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं, जो हमेशा हमारी ज़बान पर तैयार रहते हैं। मैं तुमसे सिर्फ इतना कहूँगा कि हमारी ज़ेम्सत्वो-परिषदों जैसे अधिकार यूरोप के किसी अन्य जनगण, जैसे कि जर्मनों और अंग्रेज़ों को दे दिए जाते, तो वे इन्हें आज़ादी में बदल डालते। लेकिन हम इनका सिर्फ मज़ाक़ ही उड़ाते हैं।"
"मगर क्या किया जाए ?" लेविन ने अपराधी की तरह कहा। "यह मेरा आख़िरी तजरबा था। मैंने जी-जान से कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सका। इसके योग्य नहीं हूँ।"
“योग्य नहीं हो," कोज़्निशेव ने कहा। "इस मामले को जैसे देखना चाहिए. वैसे देखते नहीं हो।"
"हो सकता है," लेविन ने उदासी से जवाब दिया।
"जानते हो, भाई निकोलाई फिर यहाँ है।"
निकोलाई लेविन का सगा, बड़ा भाई और सेर्गेई इवानोविच कोज़्निशेव का एक ही माँ की कोख से जन्मा भाई था। वह तबाहहाल आदमी था, जिसने सभी तरह की अटपटी और बुरी संगत में पड़कर अपनी सम्पत्ति का बहुत बड़ा हिस्सा उड़ा दिया था और भाइयों से झगड़ा कर चुका था।
“यह तुम क्या कह रहे हो ?" लेविन घबराकर चिल्ला उठा। "तुमको कैसे मालूम है ?"
"प्रोकोफ़ी ने उसे सड़क पर देखा है।"
“यहाँ, मास्को में ? कहाँ है वह ? तुम्हें मालूम है ?" लेविन कुर्सी से ऐसे उठ खड़ा हुआ मानो इसी वक्त उसके पास जाना चाहता हो।
"मुझे दुःख है कि मैंने तुमसे यह कह दिया," छोटे भाई की उत्तेजना पर सिर हिलाते हुए कोज़्निशेव ने कहा। "मैंने यह जानने के लिए एक नौकर को भेजा कि वह कहाँ रहता है और उसकी वह हुंडी भी भेजी, जो उसने त्रूबिन को दी थी और जिसका मैंने भुगतान किया है। उसने मुझे जो जवाब भेजा, वह यह है।"
इतना कहकर कोज़्निशेव ने पेपर-वेट के नीचे से एक रुक्का निकालकर उसकी तरफ बढ़ा दिया। लेविन ने अजीब और अपने लिए प्यारी लिखावट में लिखा हुआ यह रुक्का पढ़ा :
'बड़ी नम्रता से अनुरोध करता हूँ कि मुझे चैन से रहने दें। अपने मेहरबान भाइयों से मैं सिर्फ यही अनुरोध करता हूँ। निकोलाई लेविन।'
लेविन ने यह पढ़ा और सिर झुकाए तथा हाथ में रुक्का लिए कोज़्निशेव के सामने खड़ा रहा।
उसकी आत्मा में इस बदकिस्मत भाई को फ़िलहाल भूल जाने की इच्छा और इस बात की चेतना के बीच संघर्ष हो रहा था कि ऐसा करना बुरा होगा।
"वह सम्भवतः मेरा अपमान करना चाहता है," कोज़्निशेव ने अपनी बात जारी रखी। "लेकिन वह मेरा अपमान नहीं कर सकता। मैं दिल से उसकी मदद करना चाहता हूँ, लेकिन जानता हूँ कि ऐसा नहीं किया जा सकता।"
"यह ठीक है, यह ठीक है," लेविन ने दोहराया। "उसके प्रति तुम्हारे रवैए को मैं समझता हूँ और उसकी प्रशंसा करता हूँ, लेकिन मैं उससे मिलने जाऊँगा।"
"अगर तुम चाहते हो, तो जा सकते हो, मगर मैं ऐसी सलाह नहीं दूंगा," कोज़्निशेव ने कहा। "मेरा मतलब यह है कि अपने बारे में तो मुझे कोई डर नहीं है। वह मेरा और तुम्हारा झगड़ा नहीं करवा सकता। पर तुम्हारे लिए ही मैं यह कहता हूँ कि तुम उसके पास न जाओ। उसकी मदद मुमकिन नहीं। फिर भी जैसा तुम ठीक समझो, वैसा करो।"
"शायद मदद नहीं की जा सकती, लेकिन मैं खासतौर पर इस वक़्त यह महसूस करता हूँ-हाँ, यह दूसरी बात है-ऐसा महसूस करता हूँ कि मुझे चैन नहीं मिल सकेगा।"
"यह मेरी समझ के बाहर की बात है," कोज़्निशेव ने कहा। "इतना मैं ज़रूर समझता हूँ," उसने इतना और जोड़ दिया, “यह नम्रता का पाठ है। भाई निकोलाई जैसा अब बन गया है, उसके बाद तो मैं वैसे ही उस चीज़ को दूसरी, अधिक कृपालु नज़र से देखने लग गया हूँ, जिसे कमीनापन कहते हैं...तुम्हें मालूम है कि उसने क्या किया है..."
"ओह, यह बड़ी भयानक बात है, बड़ी भयानक बात है।" लेविन ने कहा।
कोज़्निशेव के नौकर से भाई का पता लेकर लेविन उसी वक्त उसके पास जाने को तैयार हो गया। किन्तु कुछ विचार करने के बाद उसने इसे शाम तक स्थगित कर दिया। मुख्यतः तो उसने इसलिए ऐसा किया कि उसका मानसिक चैन बना रहे। इस मामले को तय करना ज़रूरी था, जिसके लिए वह मास्को आया था। लेविन अपने भाई के यहाँ से ओब्लोन्स्की के दफ्तर में गया और श्चेर्बात्स्की परिवार के बारे में जानकारी पाकर वहाँ पहुँचा, जहाँ, जैसाकि उसे बताया गया था, कीटी से उसकी मुलाकात हो सकती थी।
अन्ना करेनिना : (अध्याय 9-भाग 1)
दिन के चार बजे लेविन धकड़ते दिल से चिड़ियाघर के बाग के सामने बग्घी से उतरा और सँकरे रास्ते से बर्फ ढके टीलों और स्केटिंग-रिंक की तरफ़ चल दिया। उसे यकीन था कि कीटी उसे वहाँ मिल जाएगी, क्योंकि दरवाजे के पास उसने श्चेर्बात्स्की परिवार की बग्घी देख ली थी।
पालेवाला ठंडा और उजला दिन था। दरवाजे के पास बग्घियों, स्लेजों, कोचवानों और जेनदामों की कतारें थीं। प्रवेश-द्वार के करीब और नक्काशीदार सजावटवाले छोटे-छोटे रूसी घरों के बीच झाड़े-बुहारे रास्तों पर धूप में चमकते टोपोंवाले साफ़-सुथरे लोगों की भीड़ थी। बाग के पुराने, घुँघराले भोज वृक्ष, जो धर्फ के भार से अपनी सारी टहनियाँ झुकाए हुए थे, ऐसे प्रतीत होते थे मानो वे नए समारोही परिधान पहनकर सज-धज गए हों।
लेविन सँकरे रास्ते से स्केटिंग-रिंक की तरफ़ जा रहा था और अपने आपसे कह रहा था : 'उत्तेजित नहीं होना चाहिए, शान्त रहना चाहिए। क्या परेशानी है तुझे, क्या हुआ है तुझे ? शान्त रह, बुद्धू लेविन अपने दिल को समझा रहा था। जितना अधिक वह अपने को शान्त करने की कोशिश करता था, उसके लिए साँस लेना उतना ही अधिक मुश्किल होता जा रहा था। रास्ते में एक परिचित मिल गया और उसने लेविन को पुकारा भी, किन्तु लेविन उसे पहचान तक नहीं पाया। वह उन टीलों के पास पहुँचा, जिन पर नीचे आती और ऊपर जाती स्लेजों की जंजीरें खनखना रही थीं, नीचे फिसलती स्लेजों का शोर और ठहाके गूंज रहे थे। कुछ क़दम और चलने पर उसे स्केटिंग-रिंक दिखाई दिया और स्केटिंग करनेवालों में उसने फ़ौरन 'उसे' पहचान लिया।
लेविन के हृदय को जिस भय और खुशी ने जकड़ लिया था, उसी से उसने यह जान लिया कि कीटी यहाँ है। वह स्केटिंग-रिंक के सामनेवाले सिरे पर खड़ी हुई एक महिला से बातचीत कर रही थी। कहा जा सकता है कि न तो उसकी पोशाक और न ही मुद्रा में कोई विशेष बात थी, फिर भी लेविन के लिए इस भीड़ में उसे जान लेना उतना ही आसान था, जितना बिच्छूबूटी की झाड़ियों में गुलाब को। वह हर चीज़ को आलोकित कर रही थी। वह ऐसी मुस्कान थी, जो अपने इर्द-गिर्द की हर चीज़ को लौ प्रदान कर रही थी। 'क्या यह सम्भव है कि मैं वहाँ, बर्फ पर उसके निकट जा सकता हूँ? वह सोच रहा था। कीटी जहाँ खड़ी थी, लेविन को वह जगह ऐसी पावन लगी, जहाँ कदम नहीं रखा जा सकता। ऐसा भी क्षण आया, जब वह वहाँ से लगभग चला ही गया होता। इतनी घबराहट अनुभव हुई उसे। उसे अपने आपको वश में करना और यह समझाना पड़ा कि सभी तरह के लोग उसके पास आ-जा रहे हैं, कि वह खुद भी स्केटिंग करने के लिए वहाँ जा सकता है। लेविन नीचे उतर आया था, देर तक उसकी ओर देखने से ऐसे ही नज़र बचा रहा था, जैसे कोई सूरज से नज़र बचाता है, लेकिन वह उसकी ओर देखे बिना ही उसे सूरज की तरह देख रहा था।
सप्ताह के इस दिन और इस समय स्केटिंग-रिंक पर एक ही तरह के तथा आपसी जान-पहचान वाले लोग जमा होते थे। यहाँ स्केटिंग के फ़न के माहिर भी थे, जो अपनी कला की छटा दिखा रहे थे, कुर्सियों का सहारा लेकर अटपटी और डरी-सहमी चेष्टाएँ करते हुए नौसिखुआ भी थे, लड़के और बूढ़े लोग भी थे, जो स्वास्थ्य के लिए स्केटिंग करते थे। लेविन को ये सभी बड़े भाग्यशाली प्रतीत हुए, क्योंकि वे वहाँ, उसके करीब थे। स्केटिंग करनेवाले सभी लोग मानो किसी भी तरह की दिलचस्पी के बिना उसके बराबर होते थे, उससे आगे निकलते थे, यहाँ तक कि उससे बात भी करते थे और उसकी तरफ़ कोई ध्यान दिए बिना ही बढ़िया बर्फ और अच्छे मौसम का लाभ उठाते हुए मौज मना रहे थे।
कीटी का चचेरा भाई निकोलाई श्चेर्बात्स्की ऊँची जाकेट और तंग पतलून पहने तथा टाँगों पर स्केट्स चढ़ाए बेंच पर बैठा था। लेविन को देखकर वह चिल्लाया :
"अरे, रूस के सबसे बढ़िया स्केटर ! कब आए? बर्फ बहुत बढ़िया है, झटपट स्केट्स पहन लो।"
"मेरे पास तो स्केट्स हैं ही नहीं," लेविन ने कीटी की उपस्थिति में ऐसी दिलेरी और बेतकल्लुफ़ी से हैरान होते तथा क्षण-भर को भी उसे नज़र से ओझल न करते, बेशक उसकी तरफ़ न देखते हुए, कहा। उसे लग रहा था कि सूरज उसके निकट आ रहा है। कीटी एक कोने में थी और ऊँचे बूटों में अपने छोटे-छोटे पैरों से गति को धीमी करती, सम्भवतः घबराती हुई उसकी तरफ़ स्केटिंग करती आ रही थी। रूसी पोशाक पहने, बहुत ज़ोर से बाँहें हिलाता और झुकता हुआ एक लड़का उससे आगे निकल गया। कीटी तनिक डगमगाती हुई स्केटिंग कर रही थी। उसने डोरी के साथ लटकते फ़र के छोटे से मफ़ से अपने हाथ बाहर निकालकर ऐसे तैयार कर रखे थे कि गिरने पर उनका सहारा ले सके और लेविन की तरफ़ देखते हुए, जिसे उसने पहचान लिया था, उसका अभिवादन करने के लिए और अपने भय पर मुस्कुराई। मोड़ खत्म हो जाने पर उसने पाँव की लोच के साथ अपने को ठेला और स्केटिंग करती हुई सीधी अपने चचेरे भाई श्चेर्बात्स्की के पास आई तथा उसकी आस्तीन थामकर उसने मुस्कुराते हुए लेविन को सिर झुकाया। लेविन उसकी जैसी कल्पना करता था, वह उससे कहीं अधिक सुन्दर थी।
लेविन जब कीटी के बारे में सोचता था, तो वह सारी-की-सारी मानो जीती-जागती उसकी मन की आँखों के सामने सजीव हो उठती थी। बाल-सुलभ स्पष्टता और दयालुता के भाव के साथ उसका चेहरा और तरुणी के सुघड़ कन्धों पर टिका हुआ सुनहरे बालोंवाला छोटा सा सिर-इस लालित्य को तो वह विशेष रूप से देख पाता था। उसके नाजूक शरीर की सुन्दरता और उसके साथ उसके चेहरे का बाल-सुलभ भाव उसे विशेष आकर्षण प्रदान करते थे जो उसके हृदय पर अंकित होकर रह गया था। लेकिन जो चीज़ उसे हमेशा अप्रत्याशित ही चकित करती, वह थी उसकी विनम्र, शान्त और निश्छल आँखों का भाव तथा खासतौर पर वह मुस्कान, जो लेविन को किसी जादुई दुनिया में ले जाती थी, जहाँ वह अपने को अत्यधिक स्नेहशील और नर्मदिल अनुभव करता था। छुटपन में ही उसे कभी-कभार ऐसी अनुभूति होने की याद थी।
"बहुत समय से मास्को में हैं क्या आप?" लेविन से हाथ मिलाते हुए कीटी ने पूछा। "धन्यवाद." उसने इतना और जोड़ दिया, जब लेविन ने मफ़ से गिर जानेवाला उसका रूमाल उठाकर उसे दिया।
"मैं ? नहीं, बहुत समय से नहीं, मैं कल...मेरा मतलब आज...आया हूँ," लेविन ने अचानक घबराहट के कारण उसका प्रश्न न समझते हुए उत्तर दिया। "मैं आपके यहाँ जाना चाहता था," उसने कहा और इसी वक्त यह याद करके कि किस इरादे से वह कीटी को ढूँढ़ रहा था, परेशान हो उठा और उसके चेहरे पर सुर्ख़ी दौड़ गई। “मुझे मालूम नहीं था कि आप स्केटिंग करती हैं और सो भी इतनी अच्छी तरह।"
कीटी ने बहुत ध्यान से लेविन की तरफ़ देखा मानो उसकी परेशानी का कारण समझना चाहती हो।
“आपकी प्रशंसा सचमुच बहुत महत्त्व रखती है। यहाँ लोगों से ऐसा सुनने को मिलता है कि स्केटिंग में आपका जवाब ही नहीं है," कीटी ने मफ़ पर गिर पड़े पाले को काला दस्ताना पहने छोटे हाथ से झाड़ते हुए कहा।
"हाँ, मैं कभी तो बड़े जोश के साथ स्केटिंग करता था। मैं इसमें पूर्णता पाना चाहता था।"
"लगता है कि आप सभी कुछ जोश के साथ करते हैं," कीटी ने मुस्कुराते हुए कहा। "मैं यह देखने को बहुत उत्सुक हूँ कि आप कैसे स्केटिंग करते हैं। स्केट्स पहन लीजिए और आइए, हम साथ-साथ स्केटिंग करें।"
'साथ-साथ स्केटिंग करें ! क्या यह सम्भव है ?' कीटी की ओर देखते हुए लेविन ने सोचा।
"अभी पहन लेता हूँ," उसने कहा।
और वह स्केट्स पहनने चला गया।
"बहुत दिनों से यहाँ नहीं आए, हुजूर," पाँव थामे और एड़ी का पेच कसते हुए स्केट्स पहनानेवाले ने कहा। "आपके बाद तो बड़े लोगों में से कोई भी तो ऐसा नहीं आया, जिसे आप जैसा कमाल हासिल हो। ऐसे ठीक रहेगा न ?" उसने पेटी कसते हुए पूछा।
"ठीक है, ठीक है, कृपया जल्दी कीजिए," लेविन ने चेहरे पर बरबस झलक उठने की बेचैन सुखद मुस्कान पर बड़ी मुश्किल से काबू पाते हुए कहा। 'हाँ, यह है ज़िन्दगी,' वह सोच रहा था, 'यह है खुशकिस्मती ! साथ-साथ, यही कहा है उसने-आइए, साथ-साथ स्केटिंग करें। तो क्या अब उससे अपने दिल की बात कह दूँ ? लेकिन मैं इसी कारण यह कहते हुए डरता हूँ कि इस वक़्त मैं सुखी हूँ, बेशक आशा के आधार पर ही सुखी हूँ...मगर बाद में ?...फिर भी कहना तो चाहिए। कहना तो चाहिए ही ! बस, काफ़ी हो चुकी यह भीरुता!'
लेविन स्केट्स पहनकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ, उसने ओवरकोट उतारा और घर के क़रीबवाली खुरदरी बर्फ पर भागने के बाद जमी हुई चिकनी बर्फ पर पहुँच गया और ऐसे सहजता से स्केटिंग करने लगा मानो इच्छाशक्ति से ही अपनी गति को घटा, बढ़ा और निर्देशित कर रहा हो। वह घबराता हुआ-सा कीटी के पास पहुँचा, लेकिन उसकी मुस्कान ने उसे फिर शान्त कर दिया।
कीटी ने उसे अपना हाथ थमा दिया और वे रफ़्तार बढ़ाते हुए साथ-साथ चल दिए। स्केटिंग की रफ़्तार जितनी बढ़ती जाती थी, कीटी उतने ही अधिक ज़ोर से उसके हाथ को थामती जाती थी।
“आपके साथ मैं कहीं अधिक जल्दी स्केटिंग करना सीख जाती। न जाने क्यों, मैं आप पर भरोसा करती हूँ," कीटी ने लेविन से कहा।
"और जब आप मेरा सहारा लेती हैं, तो मैं अपने पर भरोसा करने लगता हूँ." लेविन ने कहा, लेकिन उसी क्षण अपने ही शब्दों से भयभीत हो उठा और उसके चेहरे पर लाली दौड़ गई। और सचमुच जैसे ही उसने ये शब्द कहे कि अचानक मानो सूरज बादलों की ओट में हो गया हो, कीटी के चेहरे पर से मैत्री-भाव गायब हो गया। लेविन उसके चेहरे के इस परिचित परिवर्तन को पहचान गया, जो कीटी के सोच में डूबने का द्योतक था। कीटी के चिकने मस्तक पर एक झुर्री-सी उभर आई।
"आप किसी बात से परेशान हैं क्या ? खैर, वैसे मुझे यह पूछने का अधिकार नहीं है," लेविन ने जल्दी से कहा।
"ऐसा क्यों सोचते हैं आप ?...नहीं...मुझे कोई परेशानी नहीं है," उसने रुखाई से जवाब दिया और साथ ही इतना और जोड़ दिया : "m-lle Linon से नहीं मिले आप ?"
"अभी तक तो नहीं।"
"आइए उनके पास, वे आपको इतना अधिक प्यार करती हैं।"
"यह क्या हुआ ? मैंने उसे नाराज़ कर दिया। हे भगवान, मेरी मदद करो !" लेविन ने सोचा और बेंच पर बैठी हुई विरले, सफ़ेद घुंघराले बालोंवाली फ्रांसीसी बुढ़िया के पास भाग गया। बुढ़िया ने मुस्कुराते और अपने नकली दाँतों की झलक दिखाते हुए एक पुराने दोस्त की तरह उसका स्वागत किया। "हाँ, वह बड़ी हो रही है," नजरों से कीटी की तरफ़ इशारा करते हुए उसने कहा, "और मैं बुढ़ा रही हूँ। Tiny bear (छोटा भालू) बड़ा हो चुका है," फ़्रांसीसी बुढ़िया ने हँसते हुए अपनी बात जारी रखी और उसने लेबिन को तीन तरुणियों के बारे में उसका मज़ाक़ याद दिलाया। लेविन ने कभी उन्हें एक अंग्रेज़ी क्रिस्से के मुताबिक तीन भालुओं की संज्ञा दी थी। “याद है, आपने कभी तो ऐसा कहा था ?"
लेविन को यह मज़ाक कतई याद नहीं था, मगर फ्रांसीसी बुढ़िया दस सालों से इसे याद करके हँसती रहती थी और उसे यह मज़ाक़ बेहद पसन्द था।
"तो जाइए, जाकर स्केटिंग कीजिए। हमारी कीटी भी अच्छी स्केटिंग करने लगी है, ठीक है न ?"
लेविन जब फिर से कीटी के पास गया, तो उसके चेहरे पर कठोरता नहीं रही थी, आँखें सदा की भाँति निश्छल और स्नेहिल थीं। लेकिन लेविन को ऐसा प्रतीत हुआ कि उसकी स्नेहशीलता में विशेष, सोद्देश्य शान्ति का रंग है। उसका मन उदास हो गया। अपनी बूढ़ी शिक्षिका, उसकी अजीब-अजीब बातों की चर्चा करने के बाद कीटी ने लेविन से उसके जीवन के बारे में पूछ-ताछ की।
"क्या जाड़े में देहात में आपका मन उदास नहीं होता ?" कीटी ने पूछा।
"नहीं, उदास नहीं होता। मैं बहुत व्यस्त रहता हूँ," उसने यह महसूस करते हुए कि वह उसे अपने इस शान्त अन्दाज़ के अधीन कर रही है, जवाब दिया। वह जानता था कि इस अन्दाज़ के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाएगा, जैसाकि जाड़े के आरम्भ में हुआ था।
"बहुत दिनों के लिए आए हैं क्या आप ?" कीटी ने उससे पूछा।
"मालूम नहीं," उसने ये सोचे बिना ही कि क्या कह रहा है, जवाब दिया। उसके दिमाग में यह खयाल आया कि अगर वह उसके इस मैत्रीपूर्ण शान्त अन्दाज़ के प्रभाव में आ गया, तो कुछ भी तय किए बिना फिर वैसे ही लौटा जाएगा। इसलिए उसने जाने का निर्णय कर लिया।
"जानते कैसे नहीं ?"
"नहीं जानता। यह आप पर निर्भर करता है," उसने कहा और उसी क्षण अपने इन शब्दों से भयभीत हो उठा। कीटी ने उसके शब्द नहीं सुने या उन्हें सुनना नहीं चाहा, लेकिन उसने मानो ठोकर-सी खाई और दो बार बर्फ पर पाँव मारकर जल्दी-जल्दी उससे दूर हट गई। वह स्केटिंग करती हुई m-lle Linon के पास गई, उससे कुछ कहा और उस घर की तरफ़ चली गई, जहाँ महिलाएँ स्केट्स उतारती थीं।
'हे भगवान, यह मैंने क्या कर डाला ! हे भगवान ! मेरी मदद करो, मुझे राह दिखाओ,' लेविन ने भगवान को याद किया और साथ ही ज़ोरदार गतिविधि की आवश्यकता अनुभव करते हुए वह तेज़ी से दौड़ने लगा और उसने छोटे-बड़े कई चक्कर लगाए।
इसी समय नए स्केटरों में सबसे श्रेष्ठ एक नौजवान स्केट्स पहने और मुँह में सिगरेट दबाए कॉफ़ी के कमरे से बाहर निकला और दौड़ लगाकर पैड़ियों पर स्केट्स से ज़ोर की आवाज़ पैदा करता और उछलता हुआ नीचे की तरफ़ चल दिया। वह तो जैसे नीचे की ओर उड़ा जा रहा था और हाथ की ढीली-ढाली स्थिति को बदले बिना ही बर्फ पर पहुँचकर स्केटिंग करने लगा।
"अहा, यह तो नई चीज़ है !" लेविन ने कहा और इस नई चीज़ को इसी वक़्त खुद करने के लिए ऊपर भाग गया।
"कहीं गर्दन नहीं तोड़ लीजिएगा, इसके लिए अभ्यास ज़रूरी है !" निकोलाई श्चेर्बात्स्की ने पुकारकर कहा।
लेविन पैड़ियों पर चढ़ा, जितना सम्भव हुआ ऊपर से दौड़ता हुआ नीचे आया और इस अनभ्यस्त गतिविधि में हाथों से अपना सन्तुलन बनाए रहा। आखिरी पैड़ी पर वह फिसला, उसने हाथ से बर्फ को तनिक छुआ, ज़ोर लगाकर सँभला और हँसता हुआ आगे स्केटिंग करता चला गया।
'कितना भला, कैसा प्यारा आदमी है!' कीटी ने इसी वक़्त m-lle Linon के साथ घर से बाहर निकलते और प्यारे भाई की तरह हल्की, स्नेहपूर्ण मुस्कान के साथ उसकी तरफ़ देखते हुए मन में सोचा। 'क्या सचमुच मैं अपराधी हूँ, क्या सचमुच मैंने कोई बुरी बात की है ? लोग कहते हैं-यह चंचलता है। मैं जानती हूँ कि मैं उसको प्यार नहीं करती हूँ। लेकिन उसके साथ होने पर मुझे खुशी हासिल होती है और वह इतना भला है। लेकिन उसने यह क्यों कहा ?....' वह सोच रही थी।
कीटी और उसकी माँ को जाते देखकर, जो पैड़ियों पर बेटी से मिल गई थीं, तेज़ स्केटिंग के कारण लाल हुआ लेविन रुका और क्षण-भर को कुछ सोचता रहा। इसके बाद उसने स्केट्स उतारे और दरवाजे पर माँ-बेटी के पास पहुँच गया।
“आपको देखकर बहुत खुशी हुई," माँ ने कहा। "हमेशा की तरह हम बृहस्पतिवार को मेहमानों का स्वागत करते हैं।"
"इसका मतलब है कि आज ?"
"आपके आने से बहुत खुशी होगी," बूढ़ी प्रिंसेस ने रुखाई से कहा।
कीटी को माँ का यह रूखापन अखरा और वह इस बुरे प्रभाव को दूर करने की अपनी इच्छा पर काबू न पा सकी। वह मुड़ी और मुस्कुराकर बोली :
"नमस्ते।"
इसी वक्त ओब्लोन्स्की सिर पर टेढ़ा-तिरछा टोप रखे, चेहरे पर और आँखों में चमक लिए बहुत खुश-खुश तथा विजेता-सा बाग में आया। लेकिन सास के करीब पहुँचने पर उसने उदास और अपराधी का सा चेहरा बनाकर डॉली के स्वास्थ्य के बारे में उनके प्रश्नों के उत्तर दिए। सास के साथ धीमे-धीमे और उदासी से बातचीत करने के बाद उसने छाती सीधी की और लेविन का हाथ थाम लिया।
"तो हम चल रहे हैं न ?" उसने पूछा। "मैं लगातार तुम्हारे बारे में ही सोचता रहा हूँ और मुझे बहुत खुशी है कि तुम आ गए हो,” ओब्लोन्स्की ने लेविन की आँखों में झाँकते हुए विशेष अर्थपूर्ण भाव के साथ कहा।
"चल रहे हैं, चल रहे हैं," अपने को सौभाग्यशाली अनुभव करते हुए लेविन ने जवाब दिया। वह अभी तक 'नमस्ते' कहनेवाली आवाज़ को सुन रहा था और उस मुस्कान को देख रहा था, जिसे होंठों पर लाकर यह शब्द कहा गया था।
" 'इंग्लैंड' में या 'हर्मीताज' में ?"
"मेरे लिए सब बराबर है।"
"तो 'इंग्लैंड' में," ओब्लोन्स्की ने कहा। उसने 'इंग्लैंड' इसलिए चुना था कि 'हर्मीताज' की तुलना में वह 'इंग्लैंड' होटल का अधिक ऋणी था और इस कारण वह इस होटल से कन्नी काटना अच्छा नहीं समझता था। "तुम्हारी बग्घी तो है न ? बहुत अच्छी बात है, क्योंकि मैंने तो अपनी बग्घी छोड़ दी है।"
दोनों दोस्त रास्ते-भर खामोश रहे। लेविन यह सोचता रहा कि कीटी के चेहरे के भाव-परिवर्तन का क्या अर्थ हो सकता है। कभी वह अपने को विश्वास दिलाता कि उम्मीद कर सकता है, तो कभी हताश हो उठता और साफ़ तौर पर यह देखता कि आशा करना पागलपन है। फिर भी वह अपने को बिल्कुल दूसरा, उससे भिन्न व्यक्ति अनुभव कर रहा था, जैसा कि कीटी की मुस्कान और 'नमस्ते' शब्द से पहले महसूस करता था।
ओब्लोन्स्की रास्ते में मन-ही-मन खाने की सूची तैयार कर रहा था।
"तुम्हें तो ट्यूर्बो पसन्द है न ?" होटल के निकट पहुँचने पर उसने लेविन से पूछा।
"क्या ?" लेविन ने पूछा। "ट्यूर्बो ? हाँ, बहुत ही पसन्द है मुझे ट्यूर्बो।"
अन्ना करेनिना : (अध्याय 10-भाग 10)
लेविन जब ओब्लोन्स्की के साथ होटल में दाखिल हुआ, तो ओब्लोन्स्की के भावों की एक विशेषता की ओर उसका ध्यान जाए बिना न रह सका। उसे उसके चेहरे पर और समूचे व्यक्तित्व में एक तरह की संयत कान्ति की झलक मिली। ओब्लोन्स्की ने ओवरकोट उतारा, सिर पर टेढ़ा-सा टोप रखे हुए भोजनालय में गया और फ़्रॉककोट पहने तथा हाथों में नेपकिन लिए चारों ओर से घेर लेनेवाले तातार बैरों को कुछ आदेश देने लगा। सभी जगहों की तरह यहाँ भी उसकी जान-पहचान के लोग मौजूद थे, जो उसे देखकर बहुत खुश हुए। ऐसे परिचित लोगों को दाएँ-बाएँ सिर झुकाता हुआ वह रेस्त्राँ की कैंटीन में पहुँचा, जहाँ उसने वोदका का जाम पिया और मछली खाई तथा रिबनों और लेसों से सजी-बजी घुंघराले बालोंवाली फ्रांसीसी महिला से, जो काउंटर पर बैठी थी, कोई ऐसी बात कही कि वह भी ठठाकर हँस दी। लेविन ने सिर्फ इसीलिए वोदका नहीं पी कि, जैसा उसे प्रतीत हुआ, पराये बालोंवाली और पाउडर तथा शृंगार के दूसरे प्रसाधनों से रँगी-चुनी यह फ्रांसीसी महिला बड़ी अपमानजनक लगी थी। वह गन्दी जगह की तरह झटपट उससे दूर हट गया। उसकी आत्मा कीटी की याद में डूबी हुई थी और उसकी आँखों में उल्लास और सौभाग्य की चमक थी।
"यहाँ आ जाइए, हुजूर, कृपया इस जगह। यहाँ आप चैन से बैठ सकेंगे, सरकार," ओब्लोन्स्की से बहुत ही ज़्यादा चिपक गए पके बालों तथा इतने चौड़े चूतड़वाले बूढ़े तातार बैरे ने कहा, जिसके फ्रॉककोट के पल्ले दाएं-बाएँ उठे हुए थे। "इघर आइए, हुजूर," उसने ओब्लोन्स्की के प्रति आदर भाव जताने के लिए उसके मेहमान के आगे-पीछे घूमते हुए लेविन से कहा।
बैरे ने काँसे के दीवारी लैम्प के नीचे पहले से ही मेज़पोश से ढकी गोल मेज़ पर फ़ौरन एक नया मेज़पोश बिछा दिया, बैठने के लिए मख़मली कुर्सियाँ बढ़ा दी और हाथों में नेपकिन तथा भोजन-सूची लिए हुए ओब्लोन्स्की के सामने खड़ा होकर ऑर्डर का इन्तज़ार करने लगा।
"अगर हुजूर अलग कक्ष चाहते हैं, तो वह भी जल्दी ही खाली हो जाएगा। प्रिंस गोलीसिन अपनी महिला के साथ अभी वहाँ से जानेवाले हैं। ताज़ा ओयेस्टर आए हुए हैं।"
"ओह, ओयेस्टर !"
ओब्लोन्स्की सोच में पड़ गया।
"तो क्या हम अपनी भोजन की योजना न बदल दें, लेविन ?" भोजन-सूची पर उँगली रखे हुए उसने कहा। और उसके चेहरे पर गहरी सोच का भाव झलक उठा। "अच्छे हैं न ओयेस्टर ? देखो, गड़बड़ नहीं करना !"
“हुजूर, फ़्लेंसबर्ग के हैं, ओस्टेंड के तो हमारे यहाँ हैं ही नहीं।"
"फ़्लेंसबर्ग के तो फ़्लेंसबर्ग के, लेकिन ताज़ा हैं या नहीं ?"
"कल आए हैं, सरकार।"
"तो क्या खयाल है, ओयेस्टरों से ही क्यों न शुरू किया जाए और बाद में सारी योजना ही बदल ली जाए ? बताओ ?"
"मेरे लिए सब बराबर है। मुझे अगर पत्तागोभी का शोरबा और दलिया मिल जाता, तो सबसे अच्छा रहता। लेकिन यहाँ तो वह मिलेगा नहीं।"
"अ ला रूस दलिया चाहते हैं क्या, सरकार ?" तातार ने बच्चे के ऊपर झुकी हुई आया की तरह लेविन के ऊपर झुकते हुए पूछा।
"नहीं, मज़ाक को हटाओ, तुम जो कुछ चुन लोगे, वही अच्छा रहेगा। मैं स्केटिंग करके आया हूँ और मुझे बड़ी भूख लगी है। ऐसा मत समझना," ओब्लोन्स्की के चेहरे पर कुछ प्रसन्नता का भाव देखकर उसने इतना और जोड़ दिया, “कि मैं तुम्हारी पसन्द को बढ़िया नहीं मानता। मैं खुशी से पेट भरकर खाऊँगा।"
'मैं उम्मीद करता हूँ, कोई माने या न माने, यह भी हमारे जीवन का एक सुख है," ओब्लोन्स्की ने कहा। "तो तुम, भाई मेरे, हमारे लिए बीस या ये कम रहेंगे, तीस ओयेस्टर और सब्जीवाला शोरबा ले आओ..."
"प्रेन्तान्येर," तातार ने झटपट शोरबे का फ्रांसीसी नाम लिया। लेकिन ओब्लोन्स्की स्पष्टतः बैरे को खानों के फ्रांसीसी नाम लेने की खुशी प्रदान नहीं करना चाहता था।
"सब्जियों के साथ, जानते हो न ? उसके बाद गाढ़ी चटनी के साथ ट्यूर्बो, उसके बाद...रोस्टबीफ़ । देखना, अच्छा होना चाहिए। और हाँ, शायद मुर्गा भी और डिब्बाबन्द फल।"
तातार ने ओब्लोन्स्की की इस बात को ध्यान में रखते हुए कि उसे फ्रांसीसी भाषा की भोजन-सूची के अनुसार नाम लेना पसन्द नहीं है, उसके पीछे-पीछे फ्रांसीसी में दोहराने की खुशी ज़रूर हासिल कर ली, "सुप प्रेन्तान्येर, ट्यूर्बो सोस बोमार्शे, पुलार्द आ लेस्त्रागोन, मासेदुआन दे फ़्रुई..." इसके फ़ौरन बाद मानो स्प्रिंगों से गतिशील होते हुए उसने जिल्दबन्द भोजन-सूची रखकर शराबों की सूची उठा ली और उसे ओब्लोन्स्की के सामने रख दिया।
"पिएँगे क्या ?" "कुछ भी, लेकिन थोड़ी-सी। शेम्पेन मँगवा लो," लेविन ने कहा।
"क्या ? शुरू में ही ? हाँ, वैसे यह ठीक ही होगा। तुम्हें तो सफ़ेद लेबलवाली पसन्द है न ?"
"काशे ब्लान," तातार बैरे ने शेम्पेन का फ्रांसीसी नाम लिया।
"तो इसी लेबल की बोतल ओयेस्टरों के साथ ले आओ, बाक़ी बाद में देखा जाएगा।"
"जो हुक्म। खाने के साथ शराब कौन-सी पसन्द करेंगे ?"
"न्यूई ले आओ। नहीं, क्लासिकल शाब्ली बेहतर रहेगी।"
"जो हुक्म । पनीर वही, जो आप हमेशा पसन्द करते हैं ?"
"हाँ, पार्मेज़ान । या शायद तुम्हें कोई दूसरा पसन्द है ?"
"नहीं, मेरे लिए सब बराबर है," अपनी मुस्कान को छिपा पाने में असमर्थ लेविन ने कहा।
और फ़्रॉककोट के लहराते छोरोंवाला तातार बैरा भाग गया तथा पाँच मिनट बाद खुली सीपियोंवाले ओयेस्टरों की तश्तरी और उँगलियों के बीच बोतल लिए हुए आ गया।
ओब्लोन्स्की ने कलफ़ लगे नेपकिन को मोड़ा, उसे अपनी जाकेट के नीचे खोंसा और इत्मीनान के साथ टिकाकर ओयेस्टर खाने लगा।
"सचमुच बुरे नहीं हैं," चाँदी के काँटे से सीपियों में से लसलसे ओयेस्टर निकालते और एक के बाद एक को निगलते हुए उसने कहा। "बुरे नहीं हैं," अपनी नम और चमकती आँखों से कभी लेविन, तो कभी तातार बैरे की तरफ़ देखते हुए उसने दोहराया।
लेविन ओयेस्टर खा रहा था, यद्यपि पनीर के साथ रोटी उसे अधिक अच्छी लगती। लेकिन वह मुग्ध होकर ओब्लोन्स्की की तरफ़ देख रहा था। यहाँ तक कि तातार बैरे ने भी बोतल का कार्क खोलकर चौड़े मुँहवाले पतले जामों में शराब ढालते हुए खुशी की स्पष्ट मुस्कान के साथ, अपनी सफ़ेद टाई ठीक करके ओब्लोन्स्की को गौर से देखा।
तुम्हें ओयेस्टर बहुत पसन्द नहीं था ?" ओब्लोन्स्की ने अपना जाम पीते हुए कहा। "या तुम किसी चिन्ता में डूबे हुए हो ? क्यों ?"
ओब्लोन्स्की चाहता था कि लेविन रंग में आए। लेविन रंग में न हो, ऐसा नहीं था, लेकिन वह अपने को कुछ घुटा-घुटा-सा महसूस कर रहा था। उसकी आत्मा में जो कुछ था, उसके कारण उसे इस रेस्त्रों के कक्षों के बीच, जहाँ महिलाओं के साथ बैठे लोग खा-पी रहे थे, लोगों की हलचल और उनका आना-जाना, काँसे की सजावटी चीज़ों-लैम्पों, दर्पणों और तातार बैरों की उपस्थिति-यह सब कुछ बेहूदा लग रहा था। उसकी आत्मा जिस प्यार से सराबोर थी, उसे डर था कि कहीं उस पर कोई धब्बा न लग जाए।
"मैं ? हाँ, मैं चिन्ता में डूबा हुआ हूँ। लेकिन इसके अलावा मुझे इन सब चीज़ों से परेशानी होती है," उसने कहा।
"तुम तो कल्पना भी नहीं कर सकते कि मुझ, देहात के रहनेवाले आदमी के लिए, यह सब कितना बेहूदा लगता है, तुम्हारे उस महाशय के नाखूनों की तरह, जिसे मैंने तुम्हारे यहाँ देखा था..."
“हाँ, मैंने ध्यान दिया था कि बेचारे ग्रिनेविच के नाखूनों में तुम बहुत दिलचस्पी ले रहे थे," ओब्लोन्स्की ने हँसते हुए कहा।
"यह मेरे बस की बात नहीं है," लेविन ने जवाब दिया। "तुम मेरे भीतर घुसने, देहात में रहनेवाले एक आदमी के दृष्टिकोण से इसे देखने की कोशिश करो। हम गाँव में अपने हाथों को ऐसे रखने की कोशिश करते हैं कि उनसे काम करने में आसानी रहे। इसके लिए नाखून काटते और कभी-कभी आस्तीनें भी ऊपर चढ़ा लेते हैं। और यहाँ लोग जान-बूझकर अपने नाखूनों को जिस हद तक मुमकिन हो, ज़्यादा-से-ज्यादा बढ़ाते चले जाते हैं। इसके अलावा तश्तरियों जैसे बड़े-बड़े कफ़लिंक लगा लेते हैं, ताकि हाथों से कुछ भी नहीं किया जा सके।"
ओब्लोन्स्की मज़ा लेता हुआ मुस्कुराया।
"यह इस बात का लक्षण है कि उसे घटिया किस्म की मेहनत करने की ज़रूरत नहीं है। वह दिमागी काम करता है..."
"हो सकता है। लेकिन मुझे तो फिर भी यह बड़ा बेहूदा लगता है। ठीक वैसे ही, जैसे इस वक़्त यह हमारा खाना खाने का ढंग। हम गाँववाले जल्दी-जल्दी खाना खत्म करने की कोशिश करते हैं ताकि उसके बाद अपने काम में जुट सकें। मगर हम-तुम इस कोशिश में हैं कि ज़्यादा-से-ज्यादा देर तक हमारा खाना चलता रहे और इसलिए ओयेस्टर खा रहे हैं..."
“सो तो ज़ाहिर है" ओब्लोन्स्की ने बात को आगे बढ़ाया। यही तो उद्देश्य है पढ़ने-लिखने का-हर चीज़ से मज़ा हासिल किया जाए।"
"अगर यही उद्देश्य है, तो मैं जंगली रहना पसन्द करूँगा।"
"तुम तो जंगली हो ही। तुम सभी लेविन जंगली हो।"
लेविन ने गहरी साँस ली। उसे अपने निकोलाई भाई की याद आ गई, उसकी आत्मा ने उसे धिक्कारा और उसे दुःख हुआ। उसने नाक-भौंह सिकोड़ी। लेकिन ओब्लोन्स्की ने एक ऐसे विषय की चर्चा शुरू कर दी, जिससे लेविन का ध्यान फ़ौरन दूसरी तरफ़ चला गया।
"तो क्या आज रात को हमारे लोगों यानी श्चेर्बात्स्की परिवारवालों के यहाँ जाओगे ?" उसने आँखों में अर्थपूर्ण चमक लिए, ओयेस्टरों की खुरदरी खाली सीपियों को दूर हटाते और पनीर की ओर हाथ बढ़ाते हुए पूछा।
"हाँ, ज़रूर जाऊँगा," लेविन ने जवाब दिया। "बेशक मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि प्रिंसेस ने मुझे मन मारकर बुलाया है।"
"यह तुम क्या कह रहे हो ! बिल्कुल बेतुकी बात है ! यह तो उनका ऐसा अन्दाज ही है...तो भाई, शोरबा ले आओ !...यह तो उनका grande dame (महत्त्वपूर्ण महिला-फ्रांसीसी) का अन्दाज़ है," ओब्लोन्स्की ने कहा। "मैं भी आऊँगा, लेकिन मुझे रिहर्सल के लिए काउंटेस बानिना के यहाँ जाना है। तुम्हारे जंगली होने के बारे में भला कैसे शक हो सकता है ? तुम इसकी क्या सफ़ाई दोगे कि अचानक मास्को से गायब हो गए ? श्चेर्बात्स्की परिवारवाले मुझसे लगातार तुम्हारे बारे में पूछते रहे, जैसे मुझे मालूम होना ही चाहिए। लेकिन मैं तुम्हारे बारे में सिर्फ इतना ही जानता हूँ कि हमेशा वह करते हो, जो दूसरा कोई नहीं करता।"
"हाँ," लेविन ने धीरे-धीरे और बेचैन होते हुए कहा। "तुम्हारा कहना ठीक है, मैं जंगली हूँ। लेकिन मेरा जंगलीपन इसमें नहीं है कि मैं चला गया था, बल्कि इसमें कि मैं अब आ गया हूँ। अब मैं इसलिए आया हूँ कि..."
"ओह, कितने खुशकिस्मत हो तुम !" लेविन की आँखों में झाँकते हुए ओब्लोन्स्की ने उसकी बात पूरी की।
"किसलिए खुशकिस्मत हूँ मैं ?"
"घोड़े की तेज़ी पहचानता हूँ उसके खास निशानों से, जवान प्रेमियों को पहचानता हूँ उनके नयन-बाणों से," ओब्लोन्स्की ने यह पंक्ति सुना दी। "तुम्हारे लिए तो अभी सब कुछ आगे है।"
“और तुम्हारे लिए क्या सब कुछ पीछे रह गया है ?"
"नहीं, बेशक पीछे तो नहीं रह गया, मगर तुम्हारे सामने भविष्य है और मेरे सामने वर्तमान और वह भी धुंधला-सा।"
"क्यों, क्या मामला है ?"
"मामला कुछ अच्छा नहीं है। पर खैर, मैं अपनी चर्चा नहीं करना चाहता और इसके अलावा सब कुछ समझाया भी तो नहीं जा सकता," ओब्लोन्स्की ने कहा। "तो तुम किसलिए मास्को आए हो ?...अरे, यह ले जाओ !" उसने तातार बैरे को आवाज़ दी।
“भाँप नहीं सकते क्या ?" आँखों की गहराई में चमक लिए और ओब्लोन्स्की के चेहरे पर उन्हें जमाए हुए लेविन ने जवाब दिया।
"भाँप तो रहा हूँ, मगर इसकी चर्चा शुरू नहीं कर सकता। तुम इसी से जान सकते हो कि मैं सही अनुमान लगा रहा हूँ या नहीं," ओब्लोन्स्की ने तनिक मुस्कुराते और लेविन की ओर देखते हए कहा।
"तो तुम्हारी क्या राय है इसके बारे में ?" लेविन ने काँपती आवाज़ में यह महसूस करते हुए कहा कि उसके चेहरे की सभी मांसपेशियाँ सिहर रही हैं। "तुम्हारा क्या खयाल है ?"
ओब्लोन्स्की ने लेविन पर नज़र जमाए हुए अपना शराब का गिलास धीरे-धीरे खत्म कर दिया।
"मेरा खयाल ?" ओब्लोन्स्की ने यह प्रश्न दोहराया। "मैं इससे अधिक और किसी चीज़ की कामना नहीं कर सकता। मेरी दृष्टि में तो यही सबसे अच्छा हो सकता है।"
"लेकिन तुम कहीं भूल तो नहीं कर रहे हो ? इतना तो जानते हो कि हम किस बात की चर्चा कर रहे हैं ?" लेविन ने अपने मित्र की आँखों में आँखें डालकर पूछा। "तुम्हारे विचार में यह सम्भव है ?"
"मेरे विचार में तो सम्भव है। सम्भव क्यों नहीं ?"
"तुम बिल्कुल ठीक-ठीक ऐसा समझते हो कि यह सम्भव है ? नहीं, तुम जो सोचते हो, सब कुछ कह दो ! लेकिन अगर, अगर मुझे इनकार ही सुनना पड़ेगा...मुझे तो इसका यकीन भी है कि..."
"तुम ऐसा क्यों सोचते हो ?" लेविन की घबराहट पर मुस्कुराते हुए ओब्लोन्स्की ने पूछा।
"कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है। यह मेरे और उसके लिए भी भयानक बात होगी।"
"खैर, लड़की के लिए तो यह कोई भयानक बात नहीं होगी। हर लड़की इस बात पर गर्व करती है कि उससे विवाह का प्रस्ताव किया गया है।"
"हाँ, आमतौर पर लड़कियों के बारे में ऐसा सही है, लेकिन उसके बारे में नहीं।"
ओब्लोन्स्की मुस्कुराया। लेविन की इस भावना को वह बहुत अच्छी तरह जानता था। जानता था कि लेविन के लिए दुनिया की सारी लड़कियाँ दो किस्मों में बँटी हुई हैं। एक किस्म तो वह है, जिसमें 'उसे' छोड़कर दुनिया की सारी लड़कियाँ शामिल हैं। इन लड़कियों में सभी मानवीय दुर्बलताएँ हैं और वे बहुत ही सामान्य लड़कियाँ हैं। दूसरी किस्म में वह अकेली ही है, उसमें किसी तरह की कोई दुर्बलता नहीं और वह मानव की हर चीज़ से ऊपर है।
"यह क्या कर रहे हो, चटनी ले लो," लेविन का हाथ थामते हुए, जो चटनी को परे हटा रहा था, ओब्लोन्स्की ने कहा।
लेविन ने चुपचाप चटनी ले ली, लेकिन ओब्लोन्स्की को खाना जारी नहीं रखने दिया।
"नहीं, तुम रुको, ज़रा रुको," वह बोला। "तुम इतना समझ लो कि मेरे लिए यह ज़िन्दगी और मौत का सवाल है। मैंने कभी और किसी से भी इसकी चर्चा नहीं की। और अन्य किसी के साथ मैं इसकी वैसे ही चर्चा कर भी नहीं सकता, जैसे तुम्हारे साथ। यों हम एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं-हमारी रुचियाँ भिन्न हैं, दृष्टिकोण अलग-अलग हैं, कुछ भी तो एक जैसा नहीं। लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम मुझे प्यार करते और समझते हो। इसलिए मैं तुम्हें बेहद प्यार करता हूँ। लेकिन भगवान के लिए मुझसे बिल्कुल साफ़-साफ़ बात करना।"
"मैं जैसा समझता हूँ, तुमसे वैसा ही कह रहा हूँ," ओब्लोन्स्की ने मुस्कुराते हुए कहा। "मैं तुमसे इतना और भी कहूँगा-मेरी पत्नी अदभुत नारी है..." पत्नी के साथ अपने सम्बन्धों की याद आने पर ओब्लोन्स्की ने गहरी साँस ली और क्षण-भर चुप रहने के बाद अपनी बात आगे बढ़ाई। "उसमें चीज़ों को पहले से ही देखने, उन्हें भाँप लेने का गुण है। वह लोगों को आर-पार देख लेती है। लेकिन इतना ही नहीं, भविष्य में जो होनेवाला है, खासतौर पर शादी-ब्याह के मामले में, वह उसे भी पहले से ही जान जाती है। मिसाल के तौर पर उसने भविष्यवाणी की थी कि शाखोव्स्काया की ब्रेनतेल्न के साथ शादी होगी। कोई इसे मानने को ही तैयार नहीं था, लेकिन ऐसा ही हुआ। और मेरी बीवी तुम्हारे हक़ में है।"
"क्या मतलब तुम्हारा ?"
"मेरा मतलब यह कि वह न सिर्फ तुम्हें चाहती है, बल्कि यह भी कहती है कि कीटी ज़रूर तुम्हारी बीवी बनेगी।"
यह शब्द सुनकर लेविन के चेहरे पर ऐसी मुस्कान की चमक आ गई, जो स्नेहावेग के आँसुओं के निकट होती है।
"ऐसा कहती है वह !" लेविन कह उठा। "मैं हमेशा कहता रहा हूँ कि वह, तम्हारी बीवी तो बस, कमाल की औरत है। लेकिन हटाओ, हटाओ, अब यह चर्चा," अपनी जगह से उठते हुए उसने कहा।
"अच्छी बात है, मगर तुम बैठो तो।"
किन्तु लेविन बैठ नहीं सका। उसने दृढ़ क़दमों से दो बार इस छोटे-से कमरे में चक्कर लगाया, आँखों को झपकाया, ताकि आँसू नज़र न आएँ और इसके बाद ही अपनी जगह पर आकर बैठा।
"तुम इतना समझो," उसने कहा, "यह प्यार नहीं है। मैं प्यार कर चुका हूँ, किन्तु यह वह नहीं है। यह मेरी अपनी भावना नहीं, बल्कि कोई बाहरी शक्ति मुझ पर हावी हो गई है। मैं पूरी तरह यह मानकर यहाँ से चला गया था कि ऐसा नहीं हो सकता। मेरा मतलब समझते हो न, कि यह ऐसा सुख है, जो धरती पर नहीं होता। मैं अपने मन से जूझता रहा और इस नतीजे पर पहुँचा कि इसके बिना जीवन सम्भव नहीं है। और इस मामले को तय करना चाहिए..."
"तो तुम चले क्यों गए थे?"
"ओह, ज़रा रुको ! ओह, कितने विचार उमड़े आ रहे हैं मन में ! कितने सवाल पूछने हैं ! सुनो, तुम तो कल्पना भी नहीं कर सकते कि तुमने जो कुछ कहा है, वह कहकर मुझ पर कितना बड़ा एहसान किया है। मैं इतना खुश हूँ कि सचमुच घृणित हो रहा हूँ, सब कुछ भूल गया हूँ। मुझे आज ही पता चला कि मेरा भाई निकोलाई...जानते हो, वह मास्को में है...मैं उसके बारे में भूल ही गया। मुझे लगता है कि वह भी सुखी है। यह तो मानो पागलपन है। लेकिन एक बात बड़ी भयानक है...तुमने शादी की है, तुम इस भावना को जानते हो...भयानक बात यह है कि हम, जो जवानी की दहलीज़ पार कर चुके हैं, हमारा अपना अतीत है...प्यार का नहीं, गुनाहों का अतीत...अचानक हम पवित्र और निर्दोष प्राणी के निकट आते हैं। बड़ी घृणा होती है इस कारण और इसलिए अपने को उसके अयोग्य अनुभव किए बिना नहीं रह सकते।"
"हटाओ, तुमने तो बहुत गुनाह नहीं किए हैं।"
"आह, फिर भी," लेविन ने जवाब दिया, "फिर भी, 'अपने जीवन की पुस्तक घृणा से पढ़ते हुए मैं काँपता हूँ, अपने को कोसता हूँ, बहत पछताता हूँ... यह बात है।"
"क्या किया जाए, ऐसा ही है इस दुनिया का दस्तूर," ओब्लोन्स्की ने कहा।
"उस प्रार्थना की भाँति, जिसे मैं हमेशा बहुत पसन्द करता रहा हूँ, एक ही बात से अपने को तसल्ली देता हूँ कि प्रभु मेरी करनी के आधार पर नहीं, बल्कि अपने दयाभाव से मुझे क्षमा करें। वह भी मुझे केवल ऐसे ही क्षमा कर सकती है।"