अनेकों हिटलर (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्जी'
Anekon Hitler (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'
वे पाँचों ही इनसान थे। कोई उम्र में छोटा, कोई बड़ा । सब तीस और पचास के बीच में थे। सबसे बड़े के बालों में कहीं-कहीं सफेदी झाँकने लगी थी। बाकी सभी के बाल एकदम काले थे। चेहरे इनसान जैसे ही थे । आँखों की जगह आँखें । नाक की जगह नाक । दाँतों की जगह दाँत । हाथ-पैरों की जगह हाथ-पैर ताँबाई रंग | सबके सफेद पगड़ियाँ । कोई नई, कोई पुरानी । लट्ठे के सफेद चोले और सफेद ही धोतियाँ । कानों में सोने की साँकलियाँ और मुरकियाँ । तीन के गले में काले डोरे से बँधी सोने की मूरतें। सभी इनसान की बोली बोलते थे और इनसान की ही चाल चलते थे !
वे सभी खेतिहर थे। खेतों में मेहनत करते थे और फसलें लेते थे । गेहूँ, जीरा, राई, सौंफ या मेथी वगैरह के जरिए सूखी धरती की कोख सब्ज करते थे । देश की आजादी के बाद बड़े किसानों के पौ-बारह हो गये हैं । आँखें मूँदकर धूल में बीज डालते हैं और दोनों हाथों से कमाई बीनते हैं ।
उन पाँचों के हुलिये से ऐसा लगता था, जैसे उन्होंने किसी औरत की कोख से जनम न लेकर धरती की कोख से जनम लिया हो । करील, आक, खेजड़ी और बबूल की तरह धीरे-धीरे बढ़े और फले हों। जैसे कुदरत की वन-पाती ही उनकी बिरादरी हो ।
वे पाँचों चचेरे भाई थे। साझे में ट्रैक्टर खरीदने के लिए गाँव से जोधपुर जा रहे थे। चोले के नीचे बण्डियों की जेबों में नोट भरे हुए थे। सबके चेहरों पर उनकी गर्मी साफ दिख रही थी । दौलत की जड़ें वैसे तो कलेजे की गहराई में होती हैं, पर उसके अदीठ फलों की आब चेहरों पर झलकती है !
बस से उतरते ही वे जेबों पर हाथ फेरते हुए सीधे ट्रैक्टर की तयशुदा दुकान की ओर, तेज कदमों से चल पड़े। सड़क पर पाँव पड़ते ही अदेर वापस उठ जाते । उनके वश में होता तो वे काली-कलूटी सड़क पर पाँव रखते ही नहीं।
पहली सीढ़ी चढ़ते ही काँच के पार दुकान के मालिक का सर दिख पड़ा । चमकती चाँद पर नजर पड़ते ही सभी एक साथ चहके, “किस्मत की बात ! खुद ओमजी यहाँ मौजूद हैं!”
दरवाजा उघाड़ते ही बर्फ - सी हवा का झोंका आया । पाँचों ने एक साथ गहरी आहें भरीं। एक बोला, “स्वर्ग के मजे तो ये ले रहे हैं! हम तो जानवरों की जिन्दगी गुजारते हैं ।”
ओमजी मुस्कराते हुए पतले और रस - भीने सुर में बोले, “तुम्हारी खेती-बाड़ी से मेरी दुकान की अदल-बदल करना चाहो तो मेरी मनाही नहीं है ।"
“देखो, पछताओगे ।”
“देखी जाएगी।"
बड़ा भाई बोला, “ शुरू में ही पछतावे की बात लेकर बैठ गये! यह तो अपने-अपने करम और अपने-अपने काम हैं और उन्हीं को शोभा देते हैं । "
गद्दीदार कुर्सियों पर बैठने पर उन्हें ऐसा लगा, जैसे वे बैठे ही न हों। यकीन करने के लिए गद्दियों को तीन-चार बार हाथों से दबाकर देखा, तब कहीं इत्मीनान हुआ। फिर कुर्सियों के हत्थों पर कुहनियाँ टेककर आराम से बैठ गए।
दुआ सलाम के बाद एक भाई बोला, “आखिर जैसे-तैसे हमारा भी नम्बर आया। आज ही ट्रैक्टर दे दो । बढ़िया महूरत देखकर घर से चले हैं। दिन ढले वापस गाँव पहुँचना है । हम समझेंगे कि ट्रैक्टर आपने इनायत ही किया ।”
“यहाँ तो हर कोई इसी तरह ताकीद करता हुआ आता है। दो बरस बारी का इन्तजार किया तो अब दो दिन भी सब्र नहीं कर सकते ?”
छोटा भाई बोला, “दो दिन तो बहुत, अब तो दो घण्टे भी सब्र नहीं होगा। औरतें तो हमारे घर से निकलते ही ट्रैक्टर बधाने के लिए दरवाजे पर खड़ी हो गयी होंगी। सौ-दो सौ चाहे ज्यादा लग जाएँ, पर ट्रैक्टर तो आपको आज ही देना पड़ेगा ।"
उतनी उतावली देखकर ओमजी मुस्कराए। कहने लगे, “मैं तुम गाँववालों की आदत जानता हूँ। ट्रैक्टर कल ही तैयार कर दिया था। जब मर्जी हो, ले जाओ ।"
पाँचों की खुशी और आनन्द का ओर-छोर न रहा । जैसे सारी दुनिया का राज्य हाथ लग गया हो ! मझला भाई ओमजी की चमकती चाँद की ओर देखकर बोला, “बड़भागी के हाथ भर का ललाट है, फिर कैसी ढील! जीते रहो ।”
सब भाई ओमजी को पहचानते थे। अपनी बारी की पूछताछ के लिए वे दो-दो, तीन-तीन मर्तबा यहाँ आ चुके थे । धन्धे की जरूरत मुताबिक अच्छी-खासी पहचान थी। सरल स्वभाव । मीठी बोली, हँसमुख चेहरा । अंगों की बनावट से ऐसा लगता था गोया ट्रैक्टर के पुरजों की नाईं वे भी किसी कारखाने में बनाए गए हों। मशीनों की तरह उनका शरीर तराशा गया हो । चाँद की जगह चाँद । जिसके तीन ओर खिचड़ी बालों की झालर । गले की जगह गला । जरूरत माफिक मुस्कान ।
सामने बैठे पाँचों भाइयों के चेहरे देखते हुए बोले, “अब तो तसल्ली हुई! बस के धक्के खाते आये हो, कुछ सुस्ता लो । आराम करो। ठण्डा पानी पीओ ।"
इस मान-मनुहार के साथ ही उन्होंने घण्टी बजाई । अदेर एक आदमी भीतर आया । लस्सी लाने का आदेश दिया। उसके बाहर निकलने पर ओमजी ने कहा, “तुम्हारे घर के दूध-दही का मुकाबला तो नहीं कर सकते, पर और मनुहार भी क्या करें! पानी जैसा दूध । मिचलाता दही । यहाँ तो फकत ठण्डी हवा, ठण्डा पानी, नरम गद्दियाँ और बिजली की चकाचौंध है। मिलावट के ठाठ-बाट और नकल की धूम है । पैसों के बदले भी न अनाज मिलता है, न मसाले । खाने-पीने मनुहार करते भी शर्म आती है । "
एक भाई हँसकर बोला, “अगर सच्चे मन से मनुहार करना चाहें तो बहुत-सी बढ़िया-बढ़िया चीजें हैं । स्वर्ग के देवताओं को डाह हो जैसी ! वरना लस्सी से तो कलेजा ठण्डा करना है ही... !”
इशारा एकदम साफ था। ओमजी जोर से हँसते बोले, “यहाँ दुकान पर यह सब नहीं चलता! शाम तक ठहरो तो घर पर खातिर कर सकता हूँ । ”
“ आपके कहते ही हमारी खातिर तो हो गई । इतनी मेहर ही काफी है। ट्रैक्टर कहाँ है, जरा देख तो लें !”
" लस्सी आने दो। पीकर चलते हैं।”
“लस्सी भागी थोड़ी ही जाती है ! ट्रैक्टर देखने के बाद कलेजा ज्यादा ठण्डा होगा। ज्यादा मीठी लगेगी।”
ओमजी खुद साथ चले। वर्कशाप में ट्रैक्टर खड़ा था। लाल सुर्ख ‘मैसी फरगुसन' ट्रैक्टर | जैसे बीर - बहूटियों का ढेर लगा हो ! उस पर नजर पड़ते ही पाँचों का अन्तस् रंग गया।
ट्रैक्टर पर हाथ फेर, अच्छी तरह देख दाखकर सब वापस दफ्तर में आए। लस्सी की गिलासें मेज पर ढकी हुई रखी थीं ।
कुर्सी पर बैठकर ओमजी ने कहा, “ जमाना कितना बदल गया! पहले तो गाँव में एक ही ठाकुर होता था, पर अब तो तुम जैसे सभी बड़े किसान ठाकुर हो गए। आजादी की सारी मौज तुम्हीं लूट रहे हो । जहाँ पहले, लोग छाछ को भी तरसते थे, वहाँ अब 'बढ़िया-बढ़िया चीजें, पानी की तरह बरती जाती हैं । हल और फावड़ा तक खरीदना मुश्किल था, वहाँ अब हजारों रुपयों का ट्रैक्टर लेते वक्त सोचते ही नहीं! यारों, आजादी का मजा जितना लेना हो, ले लेना । मन में मत रखना । "
चौथा भाई बीच में ही बोला, “क्या खाक मजे हैं! अनाज खाकर बड़ी मुश्किल से पेट भरते हैं। हजारों पीढ़ियों तक मुसीबत और तंगी सही है । आज तुम्हें कानी का काजल भी नहीं सुहाता ! भला हो गाँधी बाबा का, जो हमें भी इनसान की ज़िन्दगी मिली। वरना गाँवों में बिजली की मोटर, ट्रैक्टर और रेडियो का क्या काम !"
“पर हमें तो अब कागज के नोट खाकर पेट भरना पड़ेगा । चन्द ही दिनों में हमें अनाज मिलना दूभर हो जाएगा।"
" आप हमें ट्रैक्टर दिए जाओ, हम आपको अनाज दिए जाएँगे । चाहो तो सही करा लो । "
बड़ा भाई बोला, “कोई किसी को कुछ नहीं देता । भैंस अपने पेट के लिए चारा खाती है। तमाम माथापच्चियाँ अपनी-अपनी गरज के लिए हैं। कोई अपने मतलब से ट्रैक्टर बेचता है और कोई अपने मतलब से ट्रैक्टर खरीदता है!”
अपने कानों से अपने ही बोल सुनकर बड़े भाई को लगा कि बात कुछ उलटी पड़ गई। वापस सँवारने की चेष्टा करते कहने लगा, “फिर भी, आपने बात तो ठीक कही । बापू की मेहरबानी से आजादी के बाद हमें भी थोड़ा सुख मिला । घर-घर अनाज के ढेर, दूध-दही की इफरात... ।”
बीच ही में खल्वाट हिलाते ओमजी बोले, “ना, घर-घर की बात झूठी है । हाँ, तुम जैसे इने-गिने बड़े किसानों की जरूर मनचाही हुई है । "
छोटा भाई कुछ पढ़ा-लिखा था । बोला, “ मनचाही तो क्या हुई, पर दुःख का फन्दा कुछ ढीला हुआ। उससे जरा आराम का साँस आया । सुख तो चाँद की तरह अभी बहुत दूर है.... !”
मझला भाई बेकार की बकवास खत्म करते कहने लगा, “चाँद के लिए तरसने से क्या फायदा ! मतलब की बात करो। जेबों से नोट निकालकर ओमजी को दो और अपनी चीजें देख-भालकर काबिज करो। वक्त तो बातों में भी बीतता है ।"
जैसे अचानक कोई भूली बात याद आ गयी हो । अदेर जेबों में हाथ घुसे । मेज पर नोटों का ढेर लग गया । पचास घोड़ों की ताकत के विलायती ट्रैक्टर के साथ ट्रॉली, तवियाँ, हल और हेरा । साठ हजार का सौदा था ।
इधर ओमजी ने नोट गिन-गिनाकर दराज के हवाले किए और उधर पाँचों भाई एक साथ उठे और अपनी चीजें काबिज करने के लिए वर्कशाप की ओर चल पड़े। बड़े भाई के कहने पर छोटा भाई मालाएँ, गुलाल, गुड़ और रम लेने के लिए बाजार की तरफ रवाना हुआ। फिर चारों भाई जुटे सो हमालों के साथ मिलकर फटाफट ट्रॉली भर ली । वे अपने काम से फारिग हुए तब तक छोटा भाई भी आ गया। खुशी-खुशी गुड़ बाँटा । मालाओं से ट्रैक्टर का सिंगार किया। उसके सामने बीचोबीच स्वस्तिक चितेरा। तीनों छोटे भाई अच्छे ड्राइवर थे ।
जल्दी मचाते हुए भी काफी दिन ढल गया था। सूरज पच्छिम की ओट में छुपने की तैयारी करने लगा था। अजमेर-जयपुर सड़क के चुंगी - नाके से आगे सड़क खाली थी। खूब चौड़ी। फरफराती मालाओं से सजा ट्रैक्टर धरर-धरर चल रहा था। उस पर बैठे पाँचों भाइयों को ऐसा लगा, जैसे सड़क की जगह आकाश उनके ट्रैक्टर तले बिछ गया हो। और सामने क्षितिज तक फैली धरती उन्हें नारियल से भी छोटी लगी - एकदम छोटी । डूबता सूरज उनके ट्रैक्टर को देखने के लिए जैसे एक ठौर रुक गया हो ! सर्र- सर करती हवाएँ मानो उनकी बलैयाँ ले रही हों ! सारी दुनिया का आनन्द उनके दिल में हिलोरें भरने लगा । सोने की मूरतों का परस पाकर ढलते सूरज की किरणें निहाल हो गईं ! जब दरख्तों और झाड़ियों में दुबके परिन्दे ट्रैक्टर की धरधराहट सुनकर इधर-उधर उड़ते, तब उन्हें ऐसा लगता गोया उनके अन्तस् का आनन्द इन पँखेरुओं के बहाने इधर-उधर उड़ रहा हो !
कि सहसा सूँ-सूँ की तीखी आवाज उनके कानों में पड़ी। चौंककर देखा । फैले डैनों को स्थिर किए एक बाज नीचे उतरा और देखते-देखते झाड़ी की ओट में दुबके एक खरगोश के बच्चे को अपने पंजों में दबोचकर वापस उड़ गया । पाँचों भाइयों ने मुस्कराकर एक-दूसरे की ओर देखा । बड़ा भाई बोला, “लेख हरगिज नहीं टलते! इसी झाड़ी के पास इसी बाज के पंजों से इसकी मौत लिखी हुई थी...!"
बाज के अदीठ होने तक वे उसे देखते रहे । ट्रैक्टर की धरधराहट जारी थी। उस समय ट्रैक्टर एक पुल के बीच से गुजर रहा था। चौथा भाई बोला, “जल्दी करते-करते भी काफी देर हो गई। फिर भी शुभ महूरत का योग अच्छा रहा। गाँव से चलते समय शकुन भी बढ़िया हुए थे !”
सामने कुछ चढ़ाई थी। उसे पार करने पर उन्हें दो-एक खेत दूर एक सा. इकिल सवार जाता हुआ नजर आया। और उधर उस साइकिल सवार को कुछ धरधराहट सुनाई दी तो उसने पीछे देखा - ट्रैक्टर आ रहा है। उसने फौरन वापस मुड़कर तेज पैडल मारे। ट्रैक्टर वालों से भी उसकी वह तेजी छुपी न रही। दूरी बढ़ते ही वे इसे ताड़ गए। ट्रैक्टर चलाता भाई बोला, “पागल कहीं का! पैडल तेज मारने से क्या होगा ! ट्रैक्टर से आगे कहाँ जाएगा...!"
उसने रफ्तार कुछ तेज कर दी। ट्रैक्टर की धरधराहट भी बढ़ गई । सा. इकिल सवार भी इसे जान गया । उसने और जल्दी-जल्दी पैडल मारे । कुछ दूरी और बढ़ गई।
दोनों के बीच बढ़ती हुई दूरी ट्रैक्टर चलाने वाले से बर्दाश्त नहीं हुई । उसने रफ्तार थोड़ी और बढ़ा दी । बोला, माँ का खसम, आखिर तो थकेगा। थोड़ी देर खुश होता है तो होने दो।”
मझला भाई बोला, “ये नंगे सिरवाले छोकरे होते ही उलटे खोपड़ी के हैं!"
धरधराता ट्रैक्टर सड़क को समेटते दौड़ रहा था। रंग-बिरंगी मालाएँ और तेजी से फरफराने लगीं। बड़ा भाई बोला, “आप ही थक जाएगा। बेकार रेस क्यों खींचता है ! ट्रैक्टर के सामने बेचारी साइकिल की क्या औकात...!”
चीं-चीं की एक तीखी आवाज उनके कानों में पड़ी। बिल में घुसते हुए एक चूहे को चील ने झपट लिया । वह चींचाहट उस मरते हुए चूहे की थी ! थोड़ी ही देर में वह चींचाहट इस दुनिया से लोप हो गई ।
सूरज आधा डूब गया था। अब वो भी रातभर के लिए ओझल हो जाएगा । डूबते सूरज के चारों ओर गुलाल-ही-गुलाल फैल गया। गोया वो ट्रैक्टर की सुर्खी का ही अक्स हो !
चारों ने डूबते सूरज से नजर हटाकर सामने देखा - अरे, दूरी तो बढ़ती ही जा रही है ! सभी के मन में एक साथ एक बात खटकी - दो सौ रुपल्ली की साइकिल और साठ हजार का ट्रैक्टर ! यह भी कोई होड़ है ! चूहा हाथी से भिड़ने चला है !
दूसरा भाई बोला, “फेफड़े फटने से मर गया तो घरवालों से भी दूरी पड़ जाएगी।"
चौथा भाई बोला, “घरवालों से राम जाने कब दूरी पड़ेगी, पर हमारे ट्रैक्टर से तो दूरी बढ़ती ही जा रही है । "
छोटे भाई ने थोड़ी रफ्तार और बढ़ा दी। ट्रैक्टर नया है। पूरी रेस खींचना ठीक नहीं।
साइकिल वाले ने पीछे मुड़कर देखा । सचमुच वो काफी आगे निकल आया था। जोश में और तेजी से पैडल मारे । पैर फिरकी की तरह घूमने लगे। पहाड़ से उतरती नदी की तरह साइकिल सड़क पर फिसल रही थी । जैसे कोई बवण्डर साइकिल में बदल गया हो या वो व्यक्ति बवण्डर पर सवार हो गया हो...!
ट्रैक्टर पर बैठे सभी भाइयों ने गौर से देखा । वाकई, दूरी काफी बढ़ गयी थी। और रफ्ता रफ्ता बढ़ती ही जा रही थी । मालाओं से सजा विलायती ट्रैक्टर ! साठ हजार की कीमत का ! और यह दो कौड़ी की साइकिल ! और यह कॉलेज का छोरा ! नंगे सर ! निकर पहने !
हवा का एक तेज थपेड़ा लगा तो एक माला का धागा टूट गया। वह चौतरफा फरफराने लगी। कभी दुहरी हो जाती, कभी सीधी। एक माला और टूट गई।
ट्रैक्टर चलाते छोटे भाई को फरफराती मालाएँ ऐसी लगीं गोया उसके कलेजे पर कँटीली बेंतें पड़ रही हों ! उसने दाँत पीसकर पूरी रेस खींच दी । तोप से छूटे गोले की तरह ट्रैक्टर दौड़ने लगा। हवा में चारों ओर धरधराहट गूँजने लगी । ट्रैक्टर तले बिछा आकाश ऊपर, और ऊपर उठ गया...!
फासला कुछ कम हुआ । और कम हुआ । हाँ, अब तो काफी कम हो गया।
नारियल की तरह छोटी दिखती दुनिया अब फकत दो बिन्दुओं में सिमट गई थी। ट्रैक्टर और साइकिल के अलावा उन्हें दुनिया की किसी चीज का ख़याल नहीं था! साठ हजार का ट्रैक्टर और यह दो कौड़ी का चरखा ...!
इत्तफाक की बात कि एक साथ दो फौजी गाड़ियाँ सामने से आईं तो ट्रैक्टर की रफ्तार कम करनी पड़ी। साइकिल सवार मौका देखकर काफी आगे निकल गया ।
मझला भाई बोला, “ये शहरी छोकरे कितने नालायक होते हैं ! गाड़ियों का फायदा उठाकर फौरन आगे निकल गया...!”
बड़ा भाई बोला, “बेचारा थोड़ी देर गुमान करता है तो करने दो। आखिर कहाँ तक जाएगा! कभी तो दम फूलेगा ! पगला, बेकार अपनी जवानी गँवा रहा है ! नसें ढीली पड़ गईं तो औरत के काम का भी नहीं रहेगा ! जवानी कहीं साइकिल पर उतारने के लिए होती है... ?"
सड़क खाली मिलते ही छोटे भाई ने फिर पूरी रेस खींच दी । गोया बारूद को पलीता दिखाया हो ! हवा को पकड़ने की चेष्टा में ट्रैक्टर आँधी बन गया था ! रफ्ता रफ्ता फासला घटता गया ।
ट्रैक्टर की धरधराहट नजदीक सुनी तो उसने पीछे मुड़कर देखा । गुस्से से झट वापस मुड़ा। फिरकी की तरह उसके पैर तेजी से घूमने लगे। वे गति में बदल गये थे ! वहाँ गति थी- सिर्फ गति...!
अब उसे कुछ पसीना होने लगा था । वो राजस्थान का सबसे तेज साइकिल चलाने वाला था । हाँ, वो भी एक इनसान था । बाँहों की जगह बाँहें। पैरों की जगह पैर । साँसों की जगह साँस । सपनों की जगह सपने!
पिछले दो महीनों से वो रोजाना साठ-सत्तर मील साइकिल चलाने का रियाज कर रहा था। अगले महीने अखिल भारतीय साइकिल दौड़ में अगवानी रहा तो शायद पेरिस जाने की बारी आ सकती है । आज इस होड़ में उसके दम-खम का पता चल जाएगा। उसने दाँत भींचकर अपनी ताकत से भी ज्यादा पैडल मारे ।
साइकिल चलाने की लक़ब और तर्ज देखकर उसके साथ पढ़ती एक लड़की ने खुद उसके सामने ब्याह का प्रस्ताव रखा, पर उससे जाहिराना तौर पर 'हाँ' या 'ना' कोई जवाब देते नहीं बना था । कुछ दिन मिलते रहने, बातचीत करने और एक-दूसरे के अन्त को अच्छी तरह पहचानने के बाद आप ही सारी बातें साफ हो गईं। अखिल भारतीय साइकिल दौड़ से फारिग होने पर ब्याह करने का वादा कर लिया। वो तंगी में पला था। वह भरे-पूरे घर में बड़ी हुई थी। पर दोनों एक-दूसरे पर जान देते थे ! एक दाँत रोटी टूटती थी! ब्याह की अनमोल रात उनकी सेज पर चाँद उतरेगा !
सहसा प्रियतमा का चेहरा उसकी आँखों के आगे झलका। जैसे वह हवा बनकर आज की यह होड़ देख रही हो ! उसकी ताकत दस गुना बढ़ गई । पाँवों के पंख लग गए ! भला, प्रियतमा की अदीठ नजर से ज्यादा इस बेजान ट्रैक्टर की क्या हस्ती ! फासला बढ़ने लगा सो बढ़ता ही गया। बढ़ता ही गया। देखते-देखते फासला पहले से भी डेढ़ा हो गया ... !
ट्रैक्टर की रेस पूरी खींची हुई थी। इससे ज्यादा उनका कोई वश नहीं था । उनका मन ऐंठने लगा । चौतरफा सरसराती हवा धरधराहट के चक्कर में फँस गई ! सारी दुनिया का राज्य देखते-देखते छिन गया...!
तोप के गोले की नाईं ट्रैक्टर दौड़ रहा था ! नंगे सिर वाले साइकिल सवार के पाँवों में जैसे बवण्डर ने शरण ले ली हो ! प्रियतमा का चेहरा उसकी आँखों के आगे जगमगा रहा था! फासला बढ़ता गया! न उसके फेफड़े फटे और न उसका साँस टूटा ।
आधी मालाएँ टूटकर नीचे गिर गईं। पर वे कर ही क्या सकते थे...!
पर अदीठ के जोर और जोग का किसी को कोई इल्म नहीं था । बवण्डर की गति बने पाँव अचानक खाली घूमने लगे । साइकिल की चेन उतर गयी थी । फिर भी वो घबराया नहीं। ट्रैक्टर की रफ्तार का कूता उसके पाँवों ने आप कर लिया था । प्रियतमा के चेहरे चौतरफा दिप-दिप कर रहे थे। इस ताकत से बढ़कर दुनिया की कोई ताकत नहीं है! वो फौरन साइकिल रोक, लपककर नीचे उतरा। साइकिल, स्टैण्ड पर खड़ी करके इत्मीनान से चेन चढ़ाने लगा।
धीरे-धीरे दूरी कम होती गई । ट्रैक्टर की धरधराहट और पाँचों भाइयों की खुशी हवा में समा नहीं रही थी ! भला, जोग के जोर का मुकाबला कौन कर सकता है ! साठ हजार रुपयों की लाज जैसे-तैसे बच गई । इस तरह के झूठे सन्तोष से कोई अपने मन को बहलाए तो भला उसे कौन रोक सकता है... ?
ट्रैक्टर की धरधराहट एकदम नजदीक आ गई। चेन चढ़ाने की हड़बड़ाहट में उलटी अधिक देर हो रही थी । देखते-देखते ट्रैक्टर बिल्कुल करीब आ गया । पर उसे अपनी ताकत और प्रियतमा के अदीठ चेहरे का पूरा भरोसा था !
धरधराता ट्रैक्टर पास आकर आगे निकल गया । पाँचों ही भाई इनसान की बोली में एक साथ कुछ चिल्लाए । उस वक्त कौवों का एक झुंड काँव-काँव करते सर से गुजर गया। ट्रैक्टर की धरधराहट और कौवों की काँव-काँव के दरमियान इनसान की बोली ठीक से सुनाई नहीं पड़ी...!
वो चेन चढ़ाकर साइकिल पर सवार हुआ तब तक ट्रैक्टर दो-एक खेत आगे निकल गया था। चारों भाइयों ने पीछे मुड़कर देखा । सोचने लगे कि साला चेन चढ़ाने का बहाना कर रहा था ! शायद होड़ करने का हौसला अब नहीं रहा !
पर वो साइकिल पर चढ़ते ही फिर बवण्डर बन गया ! और फासला रफ्ता रफ्ता कम होने लगा, सो होता ही गया !
हल्के-हल्के अँधेरे में कुदरत दफ्न होने लगी थी। चारों भाई आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। यह तो फिर आगे निकल जाएगा...!
रेस पूरी खींची हुई थी। ट्रैक्टर की गति से ज्यादा उनका कोई जोर नहीं था ! वे दाँत पीसने लगे ।
ट्रैक्टर की सुर्खी में साँवली झाँई घुलने लगी थी! छोटे भाई ने पूछा, “वो हरामी कहाँ आ रहा है?"
चारों भाई दाँत पीसते बोले, “लगता है वो फिर आगे निकल जाएगा...।”
“अब तो इसका बाप भी नहीं निकल सकता।” यह बात कहते ही छोटे भाई के कानों में बाज की सूँ- सूँ और चूहे की चीं-चीं बारी-बारी से गूंजने लगी ! कुछ देर बाद एक कान में चींचाहट और दूसरे कान में सूँसाहट की आवाज आने लगी सो रुकी ही नहीं। लगता है, समूचा ब्रह्माण्ड इस गूँज से चिर जाएगा ! ट्रैक्टर की धरधराहट भी उस गूँज में डूब गई !
और उधर उस साइकिल सवार शहरी छोकरे की आँखों के सामने एक दूसरा ही ब्रह्माण्ड जगमगा रहा था। ठौर-ठौर प्रियतमा के चेहरे झिलमिलाने लगे - इने-गिने तारों में, दरख्तों और झाड़ियों में, टीलों में, सामने जा रहे ट्रैक्टर में, ट्रॉली में । आज उसकी परख हो जानी है! अगर ट्रैक्टर से आगे निकल गया तो जल्दी ही ब्याह कर लेगा! वह मान जाए तो कल ! नहीं तो परसों ! तरसों ! जब भी वह चाहे !
अब आगे निकलने में देर ही क्या है ! तमाम दुनिया उसके हथलेवे की मुट्ठी में समा जाएगी! आँखों के आगे सुनहरे सपनों का ताना-बाना बुना जाने लगा !
और उधर बाज की सूँसाहट और चूहे की चींचाहट में हवा के रेशे - रेशे का दम घुटने लगा था...!
चारों भाई दाँत किटकिटाते बोले, “इस नंगे सिरवाले दोगले ने तो आज अपनी पगड़ियों को धूल चटा दी ... !”
फिर उन्होंने छोटे भाई को एक नयी जुगत बताई, “पास आते ही ट्रैक्टर उसकी ओर घुमा देना । वो हरामी भी क्या सोचेगा कि.... !”
बाज की सूँसाहट और चूहे की चींचाहट को इनसान की जबान मिल गई !
और उधर उसकी प्रियतमा के चेहरों का उजाला भी काफी बढ़ गया था ! एक-एक चेहरा स्पष्ट दिखने लगा...!
अब तो ट्रॉली के बराबर पहुँच गया। बाज की सूँसाहट और चूहे की चींचाहट ने ड्राइवर के सर में दुबककर खामोशी अख्तियार कर ली...!
बवण्डर के वेग से दौड़ती साइकिल सहसा ट्रैक्टर से टकराई। आँखों के सामने बिजली कौंधी! फिर दिप-दिप करता एक-एक चेहरा बुझने लगा ! ट्रैक्टर के पिछले टायर ने नंगे सर का कचूमर निकाल दिया। तमाम चेहरे एक साथ बुझ गए !!
हवा में फिर इनसान की बोली खदबदायी, “माँ का खसम, ट्रैक्टर से आगे निकलने की जुर्रत कर रहा था...!”
छोटा भाई पढ़ा-लिखा था। फौरन एक तदबीर सोच ली। कुछ आगे जाकर ट्रैक्टर रोका। थैले से बोतल निकालते बोला, “बेचारे को थोड़ी रम तो पिलाएँ ...!"
फिर इनसान के कदमों से आगे बढ़ा। साइकिल वाले के पास जाकर बोतल का ढक्कन खोला। उसके मुँह में आधी बोतल दारू उँडेली ! फिर उसके सर के पास बोतल फोड़कर वह दौड़ता हुआ ट्रैक्टर पर चढ़ गया । धरधराता ट्रैक्टर आगे बढ़ गया। दरवाजे पर खड़ी औरतें बाट जोह रही होंगी ! घर पहुँचने पर वे कितनी खुश होंगी ... !
हवा में इनसान की हँसी का ठहाका गूंजा !
और उधर सड़क पर एक चित्र किसी ऊँचे पारखी की बाट जोह रहा था ! लाल खून के बीच सफेद मगज ! बोतल के टुकड़े। एक आदमी की लाश ! सफेद निकर। फीरोजी बनियान । ठौर-ठौर खून के धब्बे सपनों का कचूमर ! मोह-प्रीत के रेले! चित्र कोई बुरा नहीं था !
पर... पर दोनों महायुद्धों के चित्र, हिरोशिमा नागासाकी के चित्र, वियतनाम के चित्र, बंगलादेश के चित्र...इस नाकुछ चित्र से बहुत - बहुत बड़े थे ! बहुत - बहुत मोहक... ! दिलकश ! यह चित्र उनका मुकाबला तो नहीं कर सकता, पर गँवार हाथों से बना यह चित्र भी कोई खास बुरा नहीं था...!
हाँ, वे पाँचों ही इनसान थे...! इनसान की बोली बोलते थे और इनसान की ही चाल चलते थे...!
11 अगस्त, 1978