अँधेरे बंद कमरे (उपन्यास-भाग 2) : मोहन राकेश

Andhere Band Kamre (Hindi Novel-Part 2) : Mohan Rakesh

नौ साल के बाद मैं और हरबंस आमने-सामने बैठे थे और कॉफ़ी की प्यालियों से उठता हुआ धुआँ हमारी आँखों के बीच एक परदे का काम कर रहा था।

इन नौ सालों में मैंने बहुत कुछ बदलते देखा था, अपने से बाहर भी और अपने अन्दर भी। मैं दिल्ली से जाकर छ: महीने गाँव में रहा था और फिर मुझे लखनऊ के एक प्रकाशक के यहाँ प्रेस का काम देखने की नौकरी मिल गयी थी। मुझे याद है कि लखनऊ जाते समय मेरे मन में एक बात यह भी थी कि मॉरिस कॉलेज लखनऊ में है और हो सकता है कि...। चार साल प्रकाशक के पास काम करने के बाद मैं वहीं एक अँग्रेज़ी दैनिक में सहायक सम्पादक के रूप में काम करने लगा था और सवा चार साल उस नौकरी में काटकर एक साथ दो सौ रुपये की तरक्की का अवसर मिलने से फिर दिल्ली चला आया था।

एक दैनिक पत्र में काम करने से आदमी जो कुछ सीखता है, शायद अन्यत्र कहीं नहीं सीख सकता। उसे हर समय तेज़ी से बदलती हुई ज़िन्दगी पर आँख रखनी होती है, उसकी हर धडक़न का विश्लेषण करते हुए उसके अर्थ को समझना होता है और कई बार उस अर्थ के बीच एक आशय ढूँढऩा पड़ता है, इसलिए उसके लिए कल्पना की दुनिया फीकी और बेगानी होने लगती है। वह जीवन के यथार्थ को यथार्थ रूप में देखने लगता है, इसलिए उससे कम या अधिक को मान्यता नहीं दे पाता। दैनिक पत्र के कार्यालय में बिताये हुए चार वर्षों में मेरा कविता लिखने का मोह लगभग छूट गया था और अब मैं ‘स्टोरी’ की बात करने लगा था। हालाँकि हमारी भाषा में ‘स्टोरी’ का अर्थ कुछ दूसरा ही था। परन्तु मुझे यही अर्थ अधिक संगत और अधिक ठोस प्रतीत होता था। ‘स्टोरी’—अर्थात् जीवन की एक निश्चित संगति, एक निश्चित घटना-क्रम; वह घटना-क्रम जो तथ्य पर आश्रित हो, और तथ्य के अतिरिक्त, या उससे बड़ी और वास्तविकता थी ही क्या...?

और मेरा मन उन छायाओं से भी बहुत हद तक मुक्ति पा चुका था जो कभी उस पर मँडराया करती थीं। मुझे भावुकता की बात से ही चिढ़ होने लगी थी। भावुकता क्या मन की एक अस्वस्थ वृत्ति ही नहीं थी? जिस मन:स्थिति में मैं दिल्ली छोडक़र गया था, वही मन:स्थिति अब मुझे किसी दूसरे में नज़र आती, तो मेरा हँस देने को मन होता था। उसके लिए मुझे एक ही शब्द सूझता था, और वह था ‘एडोलेसेंट!’ मैं सोचता था पुरुष और स्त्री का पारस्परिक आकर्षण क्या है, केवल एक घटना ही तो! और ऐसी घटना अब मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखती थी, क्योंकि उसमें कोई ‘विशेषता’ नहीं थी। घटना में यदि कुछ ‘विशेष’ न हो, तो उसका महत्त्व ही क्या है? बिना किसी ‘विशेषता’ के घटना ‘स्टोरी’ नहीं बनती। साधारण प्रेम की सार्थकता में मुझे कोई आस्था नहीं रही थी। वह तो केवल एक जीव-धर्म मात्र था, मात्र शारीरिक और मानसिक तृप्ति की एक प्राकृतिक आवश्यकता। उसमें ‘विशेषता’ तभी मानी जा सकती थी जब वह अन्तर्राष्ट्रीय, या कम से कम राष्ट्रीय मंच पर कुछ हलचल उत्पन्न करे, कई और महत्त्वपूर्ण घटनाओं का सूत्रपात करे जिससे वास्तविक अर्थ में एक ‘स्टोरी’ बन सके, जैसे प्रिंसेस मार्गरेट या जापान के शाहज़ादे का प्रेम। वरना तो वह एक निरर्थक पुनरावृत्ति ही थी। उस पुनरावृत्ति में ‘स्कैंडल वैल्यू’ हो, तो भी कोई बात है। बिना ‘स्कैंडल वैल्यू’ के उसमें क्या सार्थकता थी...?

और यह तजरबा प्राप्त करने में मैंने अपनी कनपटियों के थोड़े से बाल सफ़ेद कर लिये थे, चश्मे का नम्बर बढ़ा लिया था और मेरी उँगलियाँ चार-मीनार पी-पीकर ज़र्द से काली होने लगी थीं। लखनऊ में मेरी गणना वयस्क पत्रकारों में होती थी।

“तो?” हरबंस ने धुएँ के उस तरफ़ से मुझे देखते हुए कहा।

“तो?” मैंने धुएँ के इस तरफ़ से उसे देखते हुए कहा।

“तुम्हें जिससे मिलना था, वह तो अभी तक आया नहीं।”

“हाँ, अभी तो नहीं आया।”

“तो चलें?”

“नहीं, थोड़ी देर और इन्तज़ार कर लेते हैं।”

और हम कुछ देर चुपचाप बैठे रहे। वर्षों के बाद मिलने पर दो व्यक्तियों को धुएँ के परदे को बीच से हटाने में थोड़ा समय लगता है। इकत्तीस जनवरी सन् इक्यावन की रात को जिस व्यक्ति को मैंने देहरादून एक्सप्रेस में बिठाया था, तेरह अक्तूबर सन् उनसठ के दिन उसके सामने बैठे हुए मुझे उस लम्बे अन्तराल को पार करके उस तक पहुँचना था। इस बीच उसके और उससे सम्बन्धित अन्य लोगों के जीवन में क्या-क्या हुआ, इसका मुझे कुछ पता नहीं था। पाँच साल पहले एक बार जब मैं एक दिन के लिए दिल्ली आया था, तो, मैंने शुक्ला को सुरजीत के साथ कनॉट प्लेस में से जाते देखा था। उस दिन पहली बार मैंने उस लडक़ी को मेकअप किये और साड़ी बाँधे देखा था और मुझे लगा था कि उसके चेहरे का रंग पहले से कुछ साँवला पड़ गया है। उसके चेहरे का आकर्षण तब भी वैसा ही था, हालाँकि वह ताज़गी उसके चेहरे पर नहीं रही थी और वह पहले की तरह लडक़ी सी न लगकर उस समय एक महिला सी लग रही थी। उस दिन शायद भद्रसेन ने ही कॉफ़ी-हाउस में बिना किसी प्रसंग के उसकी बात चलायी थी, “सुरजीत आजकल तुम्हारी उसको हर वक़्त साथ लिये घूमता है। कभी ‘मेट्रो’ में उसे साथ लिये बैठा होता है और कभी ‘पैलेस हाइट्स’ में। लगता है आजकल वह उसे ज़िन्दगी का असली सबक दे रहा है।”

मैंने माथे पर हल्की-सी त्योरी डाले भद्रसेन की बात सुन ली थी और चुप रहा था। मुझे अच्छा नहीं लगा था कि वह व्यक्ति ख़ामख़ाह मुझसे उन लोगों के बारे में बात क्यों कर रहा है। मेरी उन लोगों में क्या दिलचस्पी थी? मेरी तरफ़ से सुरजीत उसे कोई भी सबक दे, मुझे उससे क्या लेना-देना था? मैं अपनी अलग दुनिया में रहता था जहाँ मुझे उन लोगों के इतिहास से कोई मतलब नहीं था। तब तक क्योंकि मैं एक पत्रकार के रूप में वयस्क नहीं हुआ था, इसलिए ‘स्कैंडल वैल्यू’ में भी मेरी बहुत कम दिलचस्पी थी। मैं एक दिन के लिए दिल्ली घूमने के लिए आया था, मुझे इन सब बातों से क्या लेना था कि सुरजीत क्या कर रहा है, शुक्ला कैसे जी रही है और नीलिमा और हरबंस उन दिनों कहाँ हैं! मगर भद्रसेन को जैसे उन लोगों की बात करने का ही मेनिया था और मेरे साथ बैठकर बात करने का और कोई विषय उसे सूझता नहीं था। मैं जितनी देर उसके पास बैठा रहा, वह उन्हीं की बात करता रहा, “तुम्हें पता है कि नीलिमा भी लन्दन चली गयी है?” उसने पूछा।

“नहीं, मुझे उन लोगों के बारे में कुछ पता नहीं है।”

“उसे गये भी मेरा ख़याल है दो-ढाई साल हो गये हैं। जाने से पहले वह एक बार मिली थी, तो कह रही थी कि वे लोग अब वहीं रहेंगे क्योंकि हरबंस वहाँ से लौटकर नहीं आना चाहता।”

“उन्हें अपने लिए जैसे ठीक लगता है, वैसे ही करना चाहिए।” मैं चाह रहा था कि किसी तरह वह यह समझ जाए कि उन लोगों के मामले में मैं बिल्कुल उदासीन हूँ और वह जो भी सूचनाएँ दे रहा है, वे मेरे लिए बिल्कुल व्यर्थ हैं।

“मेरे ख़याल में हरबंस ने गलती की है।” वह फिर भी उस विषय से नहीं हटा।

“अच्छा?”

“सुरजीत जैसे आदमी के भरोसे वह नीलिमा और शुक्ला को छोडक़र चला गया, यह उसने अच्छा नहीं किया।”

“उसे अपने घर के लोगों की अच्छाई-बुराई का हमसे ज़्यादा ख़याल होना चाहिए।”

“हरबंस बहुत सीधा आदमी है और यही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। वह झट से जिस किसी पर भी विश्वास कर लेता है। एक तरह से यह एक गुण भी है, मगर आज की दुनिया में...”

“आज की दुनिया को क्या हुआ है? वह भी तो आज की दुनिया का ही आदमी है।”

“मगर यह उसने अच्छा नहीं किया। तुम्हें शायद पता नहीं कि सुरजीत अब तक दो बार ब्याह कर चुका है और अपनी दूसरी पत्नी को उसने जालन्धर में अपने बाप के घर में छोड़ा हुआ है।”

“होगा,” मैंने कहा, “हमें उससे क्या लेना है!” मगर यह कहते हुए मेरी उदासीनता में एक बेचैनी की लहर दौड़ गयी। तो क्या...? मगर मैंने जल्दी से अपने को सँभाल लिया। मैं नहीं चाहता था कि फिर वही छायाएँ मेरे मन पर मँडराने लगें जिनसे मैंने इतने सालों में बड़ी मुश्किल से छुटकारा पाया था।

“मेरा ख़याल है कि हरबंस को शायद इस बात का पता नहीं था,” भद्रसेन बोला।

“उसे पता था या नहीं, यह सोचकर हमें परेशान होने की क्या ज़रूरत है!” मैंने थोड़ा झुँझलाकर कहा, “मेरा ख़याल है कि अब यहाँ से चला जाए। मुझे नौ बजे लखनऊ एक्सप्रेस पकडऩी है।”

समय और स्थान के अन्तर का जितना अनुभव इधर की सीमा पर होता है, उतना शायद उधर की सीमा पर पहुँचकर नहीं रहता। कम से कम मुझे वे बीते हुए नौ वर्ष बहुत ही छोटे प्रतीत हो रहे थे, शायद इसलिए कि मेरे जीवन में उस अरसे में बहुत एकतारता रही थी और प्रतिदिन के बदलते हुए घटना-चक्र के बीच भी मैं धुरी से निकले हुए कील की तरह पड़ा रहा था। मैं पहले से बड़ा हो गया था, अपने को पहले से अनुभवी समझने लगा था, मगर मेरे जीवन में और क्या हुआ था? और जो कुछ हुआ, उसमें भी प्राप्ति की जगह अप्राप्ति ही क्या अधिक नहीं थी?

“तुम अब भी वैसे ही लगते हो,” हरबंस ने मुझसे कहा तो समय का अन्तराल और भी कम हो गया।

“मेरा तो ख़याल है मैं पहले से काफ़ी बदल गया हूँ।”

“बिल्कुल नहीं। मुझे तो लगता ही नहीं कि तुम्हें नौ साल के बाद देख रहा हूँ।”

“मेरा तो ख़याल है कि मैं भी पहले से बदल गया हूँ, और तुम भी।”

शायद यही बात थी जो वह मुझसे नहीं सुनना चाहता था। इससे उसका चेहरा कुछ लटक गया, तो मैंने कहा, “अब पहले से काफ़ी स्वस्थ लगते हो। लगता है लन्दन की आबोहवा तुम्हें बहुत मुआफ़िक आयी है।” इसकी उस पर तुरन्त प्रतिक्रिया हुई। उसके चेहरे का लटका हुआ भाव ठीक हो गया।

“ठंडा मुल्क है।” उसने कहा, “यहाँ की और वहाँ की आबोहवा में फ़र्क तो है ही।”

मुझे इससे ठंडे गोश्त की बात याद हो आयी।

“तुम कितना अरसा वहाँ रहे?”

“लगभग छ: साल।”

“मैंने सुना था कि बाद में नीलिमा भी वहाँ तुम्हारे पास चली गयी थी।”

“हाँ, साल-भर बाद वह भी वहाँ आ गयी थी।”

“तुमने इस बीच अपना डॉक्टरेट का थीसिस तो पूरा कर ही लिया होगा।”

हरबंस सहसा मेरी तरफ़ से आँखें हटाकर बैरे की तरफ़ देखने लगा जो हमारी मेज़ की तरफ़ आ रहा था। “यहाँ का बिल ले आना,” उसने बैरे से कहा, “और ज़रा जल्दी!”

“नहीं, अभी बिल रहने दो।” मैंने बैरे से कहा, “और एक-एक गरम कॉफ़ी और ले आओ और साथ ही पानी के गिलास। जल्दी!” और हरबंस से मैंने फिर पूछा, “तुम्हारे थीसिस का विषय क्या था?”

“गदर के बाद का भारत।”

“और तुम छ: साल इस पर काम करते रहे?”

“नहीं, मैं वहाँ...कुछ दूसरा काम भी करता रहा हूँ।”

“दूसरा काम—मतलब?”

“मतलब नौकरी करता रहा हूँ।”

“थीसिस लिखने के साथ-साथ, या उसके बाद?”

“नहीं, साथ-साथ ही करता रहा हूँ। थीसिस मैं पूरा नहीं कर सका। तुम्हें पता ही है मैं वहाँ इस इरादे से नहीं गया था। मैं यूनिवर्सिटी में जाता था, कुछ काम किया भी था, मगर...पूरा नहीं कर सका।”

“तो अब यहाँ से पूरा करोगे?”

“हाँ, देखो। वैसे अब नौकरी का काम ही इतना रहता है कि और किसी भी चीज़ के लिए बहुत कम वक़्त मिल पाता है। वैसे ख़याल तो है...।”

उसकी आँखों से लग रहा था कि मेरा उस विषय में पूछताछ करना उसे अच्छा नहीं लग रहा, इसलिए मैंने विषय बदल दिया, “नीलिमा ने वहाँ जाने से पहले अपनी भरतनाट्यम की ट्रेनिंग पूरी कर ली थी?”

“हाँ, वह ट्रेनिंग लेकर ही वहाँ आयी थी। उसने वहाँ कई जगह नृत्य का प्रदर्शन भी किया—लन्दन के अलावा मेड्रिड, पैरिस, बर्न और बॉन वगैरह में भी। वह काफ़ी दिन वहाँ उमादत्त के ट्रुप के साथ रही है। उमादत्त की मुख्य पार्टनर उर्वशी उसे छोडक़र चली आयी थी। उसके बाद उसकी जगह यही उमादत्त के साथ सारे यूरोप का चक्कर लगाती रही है।”

“अच्छा?” मेरे मन में इससे कुछ ईर्ष्या जाग आयी कि मेरे परिचित लोग तो इस बीच जाने क्या से क्या हो गये और मैं अभी तक उन कलम-घसीट नौकरियों के चक्कर में ही हूँ। “यह तो बहुत ही ख़ुशी की बात है,” मैंने कहा।

हरबंस कुछ क्षण सिगरेट के लम्बे-लम्बे कश खींचता रहा।

“इस तरह तुम भी उसके साथ सारा यूरोप घूम आये होगे।” मैंने उसी ईर्ष्या के साथ कहा।

“पहली बार मैं उसके साथ नहीं जा सकता था।” वह बोला, “मगर दूसरी बार गया था। पहली बार मुझे अपने काम में लन्दन में रुके रहना पड़ा था। उन दिनों मैं काफ़ी ज़ोर-शोर से अपने थीसिस में लगा हुआ था और मुझे रोज अपने सुपरवाइज़र के पास जाना होता था।”

“वैसे तुम्हारे ख्याल से नीलिमा के प्रदर्शन कैसे रहे? खूब सफल?”

“हाँ, काफ़ी सफल रहे।”

“यहाँ आने के बाद भी उसने कोई शो दिया है?”

“नहीं, अभी नहीं...” वह थोड़ा अटककर बोला, “मगर अब सोच रही है। मैं ही बोझ उठाने से डरता हूँ। तुम जानते हो इसमें कितनी परेशानी उठानी पड़ती है, नहीं तो वह तो कब से कह रही है!”

“मगर जहाँ तक मैं समझता हूँ, उसे यूरोप से आने के बाद ही यहाँ दो-एक प्रदर्शन कर देने चाहिए थे।”

हरबंस फिर कुछ न कहकर लम्बे कश खींचता रहा। तब तक वह जल्दी-जल्दी तीन-चार सिगरेट बुझा चुका था।

“तुम सिगरेट बहुत पीने लगे हो।” मैंने कहा।

“हाँ,” वह बोला, “पहले से कुछ ज़्यादा ही पीने लगा हूँ। अब यहाँ से चलोगे नहीं?”

मुझे अब उसे और लटकाये रखना ठीक नहीं लगा, इसलिए मैंने बिल अदा किया और उसके साथ चलने के लिए उठ खड़ा हुआ। “मुझे अब तक घर पहुँच जाना चाहिए था,” उसने उठते हुए कहा।

हम लोग बाहर आ गये, तो बैरे से पीछे से जल्दी-जल्दी आकर कहा, “साहब, आपके पैकेट!” हरबंस ने कुछ घबराहट के साथ अपने दोनों पैकेट बैरे के हाथ से ले लिये।

“पहले से एब्सेंट-माइंडिड भी हो गये हो।” मैंने कहा।

हरबंस ने इस पर कुछ नहीं कहा और दोनों पैकेट सँभाले हुए चुपचाप फुटपाथ पर चलता रहा। थोड़ी दूर चलकर उसने जैसे मन ही मन कुछ सोचते हुए कहा, “तुमसे इन दिनों किसी ने मेरे बारे में कुछ बात तो नहीं की?”

“कैसी बात?” मैंने पूछा।

“ऐसी ही कोई बात, जैसे कि लोगों की आदत होती है।”

“मैंने तुम्हारा मतलब नहीं समझा।” मैंने कहा।

“मतलब यही कि...लोग हरएक के बारे में कुछ न कुछ फिज़ूल की बातें करते रहते हैं। यहाँ एक मिस श्रीवास्तव हैं, सुषमा श्रीवास्तव। आजकल कुछ लोग उसके साथ मेरा नाम जोडक़र कुछ बे-सिर-पैर की बातें किया करते हैं। मुझे कुछ दिन हुए न जाने कौन बता रहा था!”

“यह मिस श्रीवास्तव कौन है?”

“एक जर्नलिस्ट लडक़ी है। पिछले एक-डेढ़ साल से उसकी काफ़ी गुड्डी चढ़ी हुई है। यहाँ ‘नेशनल स्टार’ में काम करती है। तुम्हारा अभी उससे परिचय नहीं हुआ?”

“नहीं, मेरा उससे परिचय नहीं हुआ और न ही मैंने तुम्हारे और उसके बारे में कोई बात सुनी है। मेरी अभी लोगों से भेंट ही बहुत कम हुई है।”

“लोग ऐसे ही बकवास करते रहते हैं। तुम आजकल की दुनिया को जानते ही हो...।”

“मगर लोगों की बकवास से हमें क्या लेना-देना है?”

“कुछ नहीं, मगर सुनकर तकलीफ़ तो होती ही है।”

“तकलीफ़ तो होती है मगर ऐसी बातों की तरफ़ ज़्यादा ध्यान न देना ही अच्छा है।”

“हाँ, मगर...एक बात यह है कि मुझे खुद उस लडक़ी के तौर-तरीके पसन्द नहीं हैं। उसकी रेप्यूटेशन भी कुछ अच्छी नहीं है।”

“मतलब चरित्र के मामले में?”

“नहीं, चरित्र के मामले में भी और वैसे भी उसकी रेप्यूटेशन कुछ और तरह की है।”

“कुछ और तरह की, यानी...?”

“लोग उसके बारे में कई तरह की बातें करते हैं।”

“ख़ैर होगा, छोड़ो। हमें क्या लेना-देना है?”

“तुमने सचमुच उसके बारे में कोई बात नहीं सुनी?”

“नहीं, अब तक तो नहीं सुनी। अब तुमसे सुन रहा हूँ।”

“वैसे कई लोग हैं जो उसकी बहुत तारीफ़ भी करते हैं। पिछले दिनों सुरजीत के यहाँ उसका काफी आना-जाना रहा है। तुम्हें पता है शुक्ला ने सुरजीत के साथ शादी कर ली थी?”

“अच्छा? मुझे नहीं पता था...।” और न जाने किस चीज़ से ठोकर खाकर मेरा पैर लडख़ड़ा गया। ठोकर इस बुरी तरह लगी थी कि काफ़ी देर तक मेरी साँस ठिकाने पर नहीं आयी और मैं कुछ बात भी नहीं कर सका। स्कूटर स्टैंड पर पहुँचने तक हरबंस ही बात करता रहा, “मेरे लौटकर आने से पहले ही उन लोगों की शादी हो गयी थी। वह लडक़ी अपनी ज़िन्दगी में अगर कोई सबसे बुरी गलती कर सकती थी, तो वह यही थी। अगर तुम मुझसे पूछो, तो गलती उससे ज़्यादा उसकी बहन की थी जो उसे यहाँ इस आदमी के भरोसे अकेली छोड़ गयी थी, हालाँकि वह जानती भी थी कि यह आदमी कैसा है।”

वह कुछ देर चुप रहा, इस आशा से कि शायद मैं कोई बात करूँ। मगर मैंने कोई बात नहीं की, तो वह फिर कहने लगा, “मैंने नीलिमा को लन्दन में ही बता दिया था कि हमारे पीछे यह घटना होगी। वह वहाँ से लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ लिखकर शुक्ला को समझाने का प्रयत्न किया करती थी। मगर तुम इनकी बात देखो कि इनमें से किसी ने वहाँ हमें इसकी सूचना तक नहीं दी। सब कुछ चुपचाप ऐसे हो गया जैसे कि यह एक षड्यन्त्र हो। बीजी ने या सरोज ने किसी ने भी हमें नहीं लिखा। अब वे कहती हैं कि शुक्ला ने ही हमें क़सम देकर मना कर दिया था और कहती थी कि मैं हरबंस भापाजी के आने पर उनकी इजाज़त लेकर उनके सामने नये सिरे से ब्याह करूँगी; यह ब्याह तो ऐसे ही है, असली ब्याह तो तब होगा...।”

मैंने फिर भी कुछ नहीं कहा, तो उसने पूछा, “तुम कोई और बात सोच रहे हो?”

“हाँ...नहीं...,” मैंने कहा, “मैं तुम्हारी बात सुन रहा हूँ।”

“नहीं, तुम कुछ और सोच रहे हो।”

“नहीं, मैं तुम्हारी बात सुन रहा हूँ।”

वह पल-भर गम्भीर होकर मुझे देखता रहा, मगर इससे पहले कि वह कुछ और कहता, एक स्कूटर स्टैंड आ गया और मैं उसका हाथ पकड़े हुए उसे स्कूटर में ले गया।

शिमला की बरफ़ानी हवा राजधानी में उतर आयी थी।

वे दिन आ गये जब कभी-कभी पहाड़ी अबाबीलों के बोल राजधानी में भी सुनायी दे जाते हैं, मगर राजधानी में किसी को उन्हें सुनने की फुरसत नहीं होती। राजधानी में जीवन की गति इन दिनों इतनी तेज़ हो जाती है कि एक दिन का समय दिन-भर के कार्यों के लिए बहुत कम प्रतीत होता है। एक पत्रकार की डायरी के पन्ने ऊपर से नीचे तक घिचपिच हुए रहते हैं। सुबह इम्पीरियल होटल में न्यूज़ीलैंड से आये हुए घुमक्कड़ दम्पती के साथ नाश्ता। दस बजे रूस के कठपुतली-चालकों से भेंट। साढ़े ग्यारह से एक बजे तक दफ़्तर में जाकर रिपोर्ट। डेढ़ बजे सुब्बास्वामी एम. पी. के साथ खाना और तमिलनाडु के भाषा-सम्बन्धी आन्दोलन पर बातचीत। तीन से साढ़े चार बजे तक दफ़्तर। अपने दिये हुए प्रेस मैटर पर एक नज़र। पाँच बजे यूनिवर्सिटी कन्वोकेशन। सात बजे रूमानी दूतावास में रिसेप्शन। नौ बजे उपमन्त्री...से उनके घर पर भेंट। ग्यारह बजे दिल्ली देखने के लिए आये हुए मेहमान के साथ खाना। फिर सुबह...

ज़िन्दगी इतनी तेज़ रफ़्तार से चलती जाती थी कि अबाबीलों की आवाज़ सुनने या घास पर चमकती हुई धूप में सुस्ताने या बिना बरसे सिर पर से गुज़र जानेवाले बादलों को देखने की बात मन में उठती ही नहीं थी। जीवन का हर क्षण आगे आनेवाले किसी और क्षण की तरफ़ दौड़ा जाता था और वहाँ पहुँचते न पहुँचते आगे के किसी और क्षण की ओर दौड़ आरम्भ हो जाती थी। समय एक ऐसी गति से दौड़ता चलता था कि अपने आपका भी कुछ पता नहीं चलता था कि हम उस दौड़ में कहाँ हैं। हर क्षण यह आशंका बनी रहती थी कि हम समय से पीछे तो नहीं छूट गये। इस गति में कभी विराम आ जाता था तो वह विराम बहुत अस्वाभाविक लगता था। अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर बहुत तेज़ी से घटनाएँ घटित हो रही थीं, उनमें से हर घटना की हल्की गहरी प्रतिक्रियाएँ अपने आसपास दिखायी देती थीं और हर समय एक प्रश्नचिह्न मन में बना रहता था कि आनेवाले कल को उस मंच पर कहाँ क्या होगा! बीच-बीच में मंच के सूत्रधार मंच पर भाषण दे जाते थे जिससे हर घटना की संगति और अर्थ को नये सिरे से पकडऩा और समझना होता था। यह उसी तरह था जैसे आदमी बहुत तेज़ी से आकाश में उड़ता जाए, उड़ता जाए और आख़िर फिर वहीं पहुँच जाए जहाँ से उसने उडऩा आरम्भ किया था, मगर उस अनुभव के प्रकाश में वह फिर आगे उडऩे लगे और उड़ता जाए, उड़ता जाए जब तक कि फिर घूमकर पहली जगह पर न आ जाए।

ऐसे में आदमी कैसे सोच सकता है कि पहाड़ से अबीबीलें कब आती हैं और कब वापस जाने की तैयारी करती हैं; कब बाँसों में फूल आते हैं और कब झड़ जाते हैं?

और ऐसे में आदमी अपने मित्रों के यहाँ आने-जाने का फ़र्ज भी कैसे पूरा कर सकता है?

हरबंस को इस बात की बहुत शिकायत थी कि मैं एक बार उसके यहाँ जाने के बाद—और यह भी जब वह मुझे ज़बरदस्ती ले गया था—फिर दूसरी बार उसके यहाँ नहीं आया। दो-एक बार दफ़्तर में उसके फ़ोन आये थे, एक बार नीलिमा का भी फ़ोन आया था। मगर मैं उनके यहाँ नहीं जा सका। एक बार खाना खाने आने के लिए कहकर भी नहीं पहुँच सका, दूसरी बार कनॉट प्लेस में मिलने के लिए कहकर भी नहीं मिल पाया। उस दिन हरबंस ने फिर फ़ोन किया, तो वह बहुत नाराज़ था। उसने कहा कि मैं उस रात भी उनके यहाँ नहीं आया, तो वह आइन्दा कभी मुझे फ़ोन नहीं करेगा, कभी मुझसे बात नहीं करेगा, कभी मेरी सूरत नहीं देखेगा। मेरी डायरी में रात के नौ बजे के लिए लिखा था—पत्रकार क्लब में स्थानीय पत्रकारों का सहभोज। मैंने वहाँ काटकर लिख दिया था—हरबंस के यहाँ जाकर उसके साथ सुख-दुख चर्चा। हरबंस ने फ़ोन पर कहा था, “तुम जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी आ जाना। मैं छ: बजे के बाद घर पर ही रहूँगा। देखना आज जैसे भी हो, तुम्हें हर हालत में पहुँचना ही है। वर्षा हो, तूफ़ान हो, तुम छ: बजे यहाँ ज़रूर पहुँच जाओ, बस!”

मैं अपने नोट्स तैयार करता हुआ मन ही मन अनुमान लगाता रहा कि रात को उसकी और मेरी क्या-क्या बातें होंगी। वह पहली बार जब मुझे अपने साथ ले गया था, तभी मुझे उसके मन में झाँकने का एक अवसर मिल चुका था। उसके बाद मैं जो इतने दिन उसके यहाँ नहीं गया, उसका कारण व्यस्तता के अतिरिक्त शायद यह भी था कि मैं अपने अन्दर कहीं उसके यहाँ जाने से बचना चाहता था। उस दिन रात के ग्यारह बजे तक उसने मुझे अपने यहाँ रोके रखा था। मैं एक मौका पाकर उठ न आता, तो शायद वह और दो घंटे बात करता रहता। उसकी बातचीत लन्दन और डोवर से लेकर नयी दिल्ली तक के विस्तार को छूती रही थी, मगर मुझे लग रहा था कि उसकी सारी बातचीत का केन्द्र एक ही है और वह है सुरजीत। बातचीत में वह किसी न किसी तरह उसका ज़िक्र ले आता था और जैसे राह चलता आदमी एक काँटे पर पैर पडऩे से रुक जाता है, उसी तरह वह सुरजीत का ज़िक्र आने पर वहीं रुक जाता था।

“मैं इस आदमी से सख़्त नफ़रत करता हूँ।” वह कहता रहता था, “मेरा बस हो तो मैं ज़िन्दगी में कभी इसकी सूरत तक न देखूँ। मैं कितनी बार इस औरत से (मतलब नीलिमा से) कह चुका हूँ कि हम लोग यहाँ से घर बदल लें, मगर यह मेरी बात सुनती ही नहीं। इसे ज़िन्दगी में सिर्फ़ अपनी ख़ुशी से मलतब है, मेरी ख़ुशी-नाख़ुशी से कोई मतलब नहीं!”

यह मुझे डिफेंस कॉलोनी में उनके घर जाकर ही पता चला था कि सुरजीत का घर उनके घर के बिल्कुल बराबर है। इनका नम्बर था डी एन 31 और सुरजीत का नम्बर था डी एन 32 । साथ-साथ घर होने से नीलिमा और शुक्ला का एक-दूसरी के घर में काफ़ी आना-जाना रहता था जो हरबंस कहता था उसे बिल्कुल पसन्द नहीं है। यह बात मेरी समझ में नहीं आयी कि ऐसी स्थिति में उसने वहाँ घर लिया ही क्यों था। सुरजीत और शुक्ला तो चार महीने से पहले से ही डिफ़ेन्स कॉलोनी में घर लेकर रह रहे थे।

“मैं उस लडक़ी को (यहाँ उसका मतलब शुक्ला से था) रात-दिन अपने घर में आते-जाते नहीं देखना चाहता। मुझे जो लोग अच्छे नहीं लगते, उनकी मैं सूरत भी देखना पसन्द नहीं करता। यह छोटी-सी बात जाने इस औरत की समझ में क्यों नहीं आती!”

“मगर तुम्हें सुरजीत से अब इतनी चिढ़ क्यों है?” मैंने जैसे एक प्रतिशोध लेने के लिए कहा, “सुरजीत को मैं तुम्हारे जितना तो नहीं जानता, मगर वह काफ़ी हँसमुख और मिलनसार आदमी है और...और मैं समझता हूँ काफ़ी इंटेलिजेंट भी है। एक पत्रकार के रूप में वह कैसा है, यह मैं नहीं कह सकता। लेकिन मैं समझता हूँ कि उस रूप में भी उसे काफ़ी सफल होना चाहिए।” हरबंस सुरजीत के विषय में कोई अच्छी बात कहता, तो शायद मैं उसका विरोध करके अपने मन की भड़ास निकाल लेता। मगर उसे विषय में जो बातें मेरे मन में आती थीं, उन्हें हरबंस कहे जा रहा था। मुझे बात करते हुए स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि जिस व्यक्ति के कारण मैंने कई साल एक घुटन में काटे थे और जिसके कारण मैं नौ साल पहले दिल्ली छोडक़र चला गया था, अब उसी के पक्ष की बात मैं अपने मुँह से कैसे कर रहा हूँ।

“इंटेलिजेंट! आह!” हरबंस ने अपनी अस्थिरता को छिपाने के लिए ह्विस्की के गिलास की तरफ़ हाथ बढ़ा दिया और बोला, “वह कीचड़ का एक कीड़ा है, मैं बस इतना ही उसके बारे में कह सकता हूँ। अगर दुनिया में मैं किसी से सबसे ज़्यादा नफ़रत करता हूँ, तो वह यही आदमी है।”

“मगर विलायत जाने से पहले तो तुम्हारी उसके बारे में ऐसी राय नहीं थी।”

“तब मैं उसे जानता ही कहाँ था! मैं उसे बिल्कुल और तरह का आदमी समझता था।”

“यह तुम कैसे कह सकते हो कि तुम उसे जानते नहीं थे? तुम उसके ऊपर एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी छोड़ गये थे।” और यह कहते हुए मुझे नीलिमा की नौ साल पहले कही हुई बात याद हो आयी कि जाने क्यों हरबंस इस आदमी से हम लोगों की देखभाल करने के लिए कह गया है। उसने सुरजीत के बारे में अपनी भी राय व्यक्त की थी और मैंने जब उससे कुरेदकर पूछना चाहा था, तो उसने बात को टाल दिया था।

“मुझे पता होता कि वह मेरे पीछे इस तरह की हरकत करेगा, तो मैं कभी ऐसा करता?” कहते हुए उसने अपने गिलास का आख़िरी घूँट पी डाला। दो पेग ह्विस्की पी लेने के बाद उसकी आँखों का भाव बहुत विषादपूर्ण हो गया था। वह इस तरह एकटक मेरी तरफ़ देखने लगा था जैसे मुझी से उसके प्रति कोई अपराध बन पड़ा हो।

“ख़ैर जो होना था, हो चुका।” मैंने कहा, “अब तुम्हारे इस तरह शिकायत करने का अर्थ ही क्या है? जो भी स्थिति है, अब तुम्हें उसे स्वीकार करके ही चलना चाहिए।”

“मैं इस स्थिति को स्वीकार कैसे कर सकता हूँ?” वह कुछ आवेश के साथ बोला, “मेरे पीछे इस आदमी ने इस लडक़ी की ज़िन्दगी तबाह कर दी है। मैं उसे माफ़ कैसे कर सकता हूँ?”

“लडक़ी उसे चाहती थी और उसने अपनी इच्छा से उससे ब्याह कर लिया है। इसमें मुझे तो तबाह करने या तबाह होने की कोई बात नज़र नहीं आती।”

“तुम कुछ नहीं जानते।” हरबंस अपने दोनों हाथों को हवा में झुलाकर बोला, “बिल्कुल कुछ नहीं जानते। तुम्हें पता है कि उस लडक़ी को मजबूरन उससे ब्याह करना पड़ा है, क्योंकि...क्योंकि...”

“क्योकि...?”

“क्योंकि उसके लिए और कोई चारा नहीं रहा था। तुम इन हिन्दू लड़कियों को तो जानते ही हो। वह यह समझती थी कि वह अब...अब और किसी से ब्याह करने के लायक नहीं रही। वह उसे इस हद तक ले जा चुका था कि उसके लिए, मेरा मतलब है वह समझती थी कि उसके लिए और कोई रास्ता नहीं है। उसे इस आदमी ने फुसलाकर अपने जाल में फँसाया है और अब यह दूसरों के सामने मेरा मज़ाक उड़ाता है। मैं इसे कभी माफ़ नहीं कर सकता। मैं यहाँ होता, तो कभी यह शादी न होने देता। मैं उसे समझा देता कि इन झूठे संस्कारों में कुछ नहीं रखा है। वह चाहे ज़िन्दगी-भर क्वाँरी रहती, मगर मैं उसे इस शख्स से, कम से कम इस शख्स से, कभी, कभी शादी न करने देता।”

वह नशे की वजह से और अपनी उत्तेजना के कारण इतना असंयत होता जा रहा था कि मुझे डर लग रहा था कि वह अभी गालियाँ ही न बकने लगे।

मेरा अपना मन बहक रहा था, मगर मैंने किसी तरह अपने पर वश किये हुए कहा, “देखो, तुम इस बात को लेकर ज़्यादा बहको नहीं। तुम्हें यह पता नहीं कि तुम इन बातों से उस लडक़ी की ज़िन्दगी खराब ही कर सकते हो। तुम्हें समझना चाहिए कि उस लडक़ी की भलाई अब इसी में है कि तुम इस स्थिति को खुले दिल से स्वीकार कर लो। तुम उसे माफ़ नहीं कर सकते, तो भी तुम्हारा फ़र्ज है कि उस लडक़ी की ख़ातिर उसे माफ़ कर दो और उसके साथ पहले की तरह ही दोस्ती का व्यवहार रखो।”

“दोस्ती का व्यवहार? उसके साथ?” वह गिलास में और ह्विस्की डालता हुआ बोला, “कभी नहीं। वह गुंडा है। मैं उससे नफ़रत करता हूँ। वह नरक का कुत्ता है। वह नाली में रेंगनेवाला कीड़ा है। क्या तुम समझते हो कि मैं ज़िन्दगी में कभी उसके साथ उठना-बैठना स्वीकार कर सकता हूँ? कभी नहीं।”

बोलते-बोलते उसके मुँह में झाग-सा आने लगा था। उसने रूमाल निकालकर अपना मुँह पोंछते हुए कहा, “मैं उस आदमी को और उसके साथ इस लडक़ी को ज़िन्दगी में ऐसी सज़ा दूँगा, ऐसी सज़ा दूँगा कि ये लोग याद रखेंगे। तुम समझते हो कि में इन्हें ऐसे ही माफ़ कर दूँगा?”

मेरे दिमाग़ पर भी नशे का असर चढ़ रहा था और मुझे अपने सामने की दीवारें लचककर गोल होती नज़र आ रही थीं। हरबंस उस वक़्त जो भी बात कहता था, मेरा मन होता था कि मैं उसका विरोध करूँ, वह जितना बुरा-भला सुरजीत को कह रहा था, मैं उतना ही बुरा-भला उसे कहना चाहता था। मेरे मन में एक दबी हुई प्रतिशोध की भावना थी जो उस समय उभरकर ऊपर आ रही थी। “तुम सुरजीत को सज़ा दो, मगर शुक्ला को तुम किस बात की सज़ा दोगे?” मैंने कहा, “उसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?”

“उसने कुछ नहीं बिगाड़ा?” उसने अपने हाथ का गिलास पटककर मेज़ पर रख दिया, “उसने नहीं, तो किसने बिगाड़ा है? यह शख्स आज अपने को मेरा सम्बन्धी कह सकता है, तो किसकी वजह से? मैं इस लडक़ी से भी आज उतनी ही नफ़रत करता हूँ।”

दीवारें गोल होकर मेरे ऊपर को झुकी आ रही थीं और मेरे दिमाग़ में तेज़-तेज लहरें दौड़ रही थीं जैसे कि वहाँ एक गरम लावा उमड़ आया हो। जिस तरह हरबंस ने अपना गिलास पटककर मेज़ पर रखा था, उसी तरह मैंने भी अपना गिलास पटककर मेज़ पर रख दिया।

“मैं उस लडक़ी को बिल्कुल बेकसूर समझता हूँ।” मैंने कहा, “वह उस शख्स को तुम्हारी ज़िन्दगी में नहीं लायी, तुम उस शख्स को उसकी ज़िन्दगी में लाये हो। वह आज उसका पति है, मगर पहले वह तुम्हारा दोस्त था। तुम्हीं पहली बार उसे उनके घर में लेकर गये थे। तुम्हीं उसके ऊपर शुक्ला और नीलिमा की देखरेख की ज़िम्मेदारी छोडक़र गये थे। तुम्हें उन दिनों वही एक अपना मित्र और हितचिन्तक नज़र आता था। जब तुम उसे सब मित्रों से बढक़र मानते थे, तो उस लडक़ी को अब उससे ब्याह करने के लिए कसूरवार क्यों ठहराते हो? तुम्हें ही जब इन्सान की पहचान नहीं थी, तो उस लडक़ी को कैसे हो सकती थी? तुम पुरुष थे और तब तीस बरस के थे। वह एक लडक़ी थी और उस समय कुल सत्रह बरस की थी। तुम्हारे ही कहने से उसने जीवन भार्गव के साथ अपना सम्बन्ध तोड़ लिया था। तुम्हें खुद आदमी की पहचान कितनी थी? तुम्हें जीवन भार्गव छोटा और ओछा लगता था, क्योंकि वह सीधा और ख़ामोश आदमी था। यह आदमी तुम्हें बहुत अच्छा लगता था जो रोज़ रंडियों के कोठों पर जाता था और जिसने अपनी एक पत्नी लाहौर में छोड़ दी थी और दूसरी जालन्धर में छोड़ रखी है।” मैं उस लावे के जोश में शायद और भी बहुत कुछ कह जाता, मगर सहसा दाँतों में ज़बान के कट जाने से मैं बोलते-बोलते रुक गया। मुझे बोलते समय अपने को लग रहा था कि जीवन भार्गव का नाम केवल एक ओट है और वास्तव में मेरा अभिप्राय जीवन भार्गव से न होकर अपने से ही है।

“मैं नहीं जानता था कि उसका रंडियों के यहाँ आना-जाना है।” वह मर्माहत-सा बोला, “मुझे तब किसी ने यह नहीं बताया था।”

“और यह भी तुम्हें किसी ने नहीं बताया था कि उसने अपनी एक पत्नी को लाहौर में छोड़ दिया था, और उसकी दूसरी पत्नी जालन्धर में है?”

“मैं इतना ही जानता था कि वह शादीशुदा है।” उसने इस तरह उत्तर दिया जैसे एक अभियुक्त वकील को जिरह का उत्तर देता है।

“तुम यह बात जानते थे, फिर भी तुमने...?” मुझे लगा जैसे दीवारें टूटकर मेरे ऊपर गिरने जा रही हों। मैं नहीं जानता था कि मैंने जो सबसे पैना अस्त्र प्रयोग किया था, वह इतना कुन्द साबित होगा। मैं फटी-फटी आँखों से भौंचक्का-सा उसकी तरफ़ देखता रहा। मेरी उत्तेजना के सामने उसकी उत्तेजना फीकी पड़ गयी थी और वह एकदम मुरझा-सा गया था।

“मैंने सोचा था कि वह ज़िम्मेदार आदमी है, इसलिए...।” और वह हाथों और आँखों से कुछ टटोलता हुआ-सा चुप कर गया। वह जाने उस समय क्या ढूँढऩा चाहता था—सिगरेट की डिब्बी या ह्विस्की का गिलास! मगर वे दोनों चीज़ें तो बिल्कुल उसके सामने ही रखी थीं।

“इसलिए...?” और सारी परिस्थिति का एक बिल्कुल नया ही अर्थ मेरे मस्तिष्क में कौंध गया। मेरा मन हुआ कि मैं अपनेवाला गिलास उठाकर ज़मीन पर पटक दूँ या उसके मुँह पर दे मारूँ।

“मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि वह मेरी अनुपस्थिति का इस तरह लाभ उठाएगा।” वह बोला, “मगर फिर भी मुझे सबसे ज़्यादा शिकायत इस लडक़ी से है कि इसने मेरे लौटकर आने का इन्तज़ार क्यों नहीं किया। कम से कम इसे एक बार चिट्ठी लिखकर मुझसे पूछ तो लेना ही चाहिए था। अगर इसके मन में मेरे लिए ज़रा भी कद्र होती, तो क्या यह मुझसे पूछे बिना इस तरह का क़दम उठाती? इसने मेरी राय न पूछकर एक ऐसा अपराध किया है जिसके लिए मैं इसे कभी क्षमा नहीं कर सकता।”

“तुम्हें यही नज़र आता है कि उसने एक अपराध किया है, यह नज़र नहीं आता कि तुमने उसके प्रति उससे कहीं भारी, कहीं बड़ा, अपराध किया है?”

उसका सिर झूलकर गरदन पर आ गया। वह कुछ देर मेरी तरफ़ इस तरह देखता रहा जैसे कि सीज़र ने ब्रूटस का खंजर खाने के बाद उसकी तरफ़ देखा होगा। उसे मुझसे इस तरह की सख़्त बात सुनने की आशा नहीं थी।

“कम से कम तुम इस बात से तो सहमत हो कि जो कुछ हुआ है वह नहीं होना चाहिए था,” आख़िर उसने कहा।

“मैं तो समझता हूँ कि जो हुआ है ठीक हुआ है, और ऐसे ही होना चाहिए था।”

उसका सिर ज़रा-सा उठा और फिर उसी तरह झूल गया, “तुम मेरे साथ अन्याय कर रहे हो।” उसने कहा, “मैंने नहीं सोचा था कि तुम भी मुझसे इस तरह की बातें कहोगे।”

मेरे दिमाग़ का लावा धीरे-धीरे शान्त हो रहा था और मुझे कुछ अफ़सोस भी हो रहा था कि मैंने अपने को उन बहाव में क्यों बह जाने दिया। आख़िर वह उन लोगों का व्यक्तिगत मामला था और मैं उसमें एक बाहर का व्यक्ति ही था। मुझे उससे यह सब कहने का क्या अधिकार था? यह सोचकर मन कुछ बेचैन होने लगा, तो मैं सोचने लगा कि मैं तुरन्त वहाँ से उठकर चल दूँ। उसके लिए बहाना मुझे नीलिमा के आने से मिल गया। वह सहसा साथ के कमरे से आँखें मलती हुई उस कमरे में आ गयी और हाथ से अपनी जम्हाई को रोकती हुई बोली, “तुम लोग क्या सारी रात बातें ही करते रहोगे? मैंने तो इस बीच थोड़ी देर सो भी लिया है।”

“तुम जाकर सो रहो,” हरबंस अपना गुस्सा उस पर उतारने लगा, “हम लोग आज नौ बरस के बाद मिले हैं। हो सकता है हम सुबह तक बातें करते रहें।”

मगर मैं उस अवसर का लाभ उठाकर उठ खड़ा हुआ। हरबंस ने उसके बाद बहुत कहा कि मैं और रुक जाऊँ। उसके मन में शायद कहने को अभी बहुत कुछ बाकी था। मगर मैं एक बार उठ खड़ा हुआ, तो फिर नहीं बैठा। आखिर हरबंस ने अपना ड्रेसिंग गाउन पहना और बस स्टॉप तक मुझे छोडऩे चला आया। मेरे बस में चढऩे तक वह अनुरोध करता रहा कि मैं फिर जल्दी ही किसी दिन वहाँ आऊँ। जब मेरी बस इंडिया गेट के पास पहुँची, तो मुझे सहसा वह बात याद हो आयी जो उसने अपने और किसी मिस श्रीवास्तव के सम्बन्ध में कही थी। मुझे अफ़सोस हुआ कि उस विषय में तो मैंने उससे कुछ पूछा ही नहीं। उससे बात करते समय मैं इस तरह अपने व्यक्तिगत संस्कार के वश में पड़ गया था कि अपनी पत्रकार की रुचि को भूल ही गया था। परन्तु जब उस दिन पत्रकार क्लब का सहभोज छोडक़र मैंने उसके यहाँ जाने की बात तय की, तो उस विषय में मेरी रुचि एक और कारण से पहले से कहीं बढ़ गयी थी। वह मिस श्रीवास्तव के सम्बन्ध में कहना क्या चाहता था? इस बीच पत्रकार क्लब में मेरा मिस श्रीवास्तव के साथ परिचय हो चुका था और दो-एक बार मैं उससे बात भी कर चुका था। अपने हल्के साँवले रंग के बावजूद वह लडक़ी देखने में काफ़ी आकर्षक थी। उसकी सधी हुई बात में जितना आत्मविश्वास था, उतना ही उसके बात करने के ढंग में भी था। वह अपने कोट की जेब में हाथ डाले हुए पीछे को थोड़ा झुककर जब हँसती थी, तो उसमें एक ऐसी सहजता होती थी कि जान पड़ता था उसके मन में कहीं कोई कुंठा या रुकावट नहीं है। वह जिन लोगों के बीच खड़ी होती थी, उनमें इस तरह घुल-मिल जाती थी जैसे उनसे अलग उसकी और कोई दुनिया है ही नहीं। अपने दो बार के परिचय में ही उसने मुझे कुछ ऐसा आभास दिया था जैसे हम एक अरसे से एक-दूसरे को जानते हों, और मैं जितना ही उसे देखता था, उतना ही मुझे हरबंस की उसके बारे में कही हुई बात असंगत लगती थी।

शाम को जब मैं दफ़्तर की वैन में हरबंस के घर की तरफ़ चला, तो यह बात बार-बार मेरे मन में आ रही थी कि हरबंस ने जो बात कही थी, आखिर उसका आधार क्या था!

गेट के अन्दर क़दम रखते हुए मैं हवा के झोंके से जूते के अन्दर पैर के तलवों तक काँप गया। बाहर के कमरे की बत्ती जल रही थी, मगर सारे घर में इस तरह ख़ामोशी छायी थी जैसे वहाँ कोई रहता ही न हो। मैंने बरामदे में जाकर दरवाज़ा खटखटाया। एक मिनट में ही उनके नौकर बाँके ने दरवाज़ा खोल दिया। अन्दर दीवान पर नीलिमा बैठी थी, एक पत्रिका में आँखें गड़ाये हुए। हरबंस पैर फैलाये पास की कुरसी पर बैठा था और एक किताब के पन्ने पलट रहा था। उनका लडक़ा अरुण नीचे दरी पर बैठा ड्राइंग पेपर पर सुरमे की सलाई से लकीरें खींच रहा था। उन तीनों की ख़ामोशी में एक ऐसी व्यवस्था थी कि वह कमरा कमरा न लगकर एक पिक्चर का सेट लगता था, जहाँ मेरा आना एक फ़ालतू आदमी के सेट पर चले आने की तरह था। मैं सेट पर दाख़िल होने से पहले क्षण-भर दरवाज़े के पास रुका रहा। नीलिमा ने इस बीच मेरी तरफ़ देखकर आँखें फिर पत्रिका की ओर कर लीं और हरबंस ने हाथ की पुस्तक नीचे रख दी। अरुण बिना मेरी ओर ज़रा भी ध्यान दिये अपनी लकीरें खींचता रहा।

“तुम लोगों में क्या ख़ामोश रहने की प्रतियोगिता चल रही थी?” मैंने नीलिमा के पास दीवान पर बैठते हुए कहा।

“तुमने बहुत देर कर दी।” हरबंस ने कहा। फिर कुछ देर हम चारों ही ख़ामोश रहे। मुझे नीलिमा और अरुण के कपड़ों से लगा जैसे वे कहीं जाने के लिए तैयार बैठे हों। मुझे वह ख़ामोशी बहुत विचित्र लग रही थी, इसलिए मैंने कहा, “तुम लोग कहीं जा रहे थे क्या? मुझे लगता है जैसे मैं ग़लत वक़्त पर यहाँ आया हूँ।”

“ग़लत वक़्त पर क्यों?” हरबंस बोला, “मैंने तुम्हें बुलाया था।”

“वह तो ठीक है, मगर तुम लोग इस तरह ख़ामोश बैठे हो कि...”

“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। हम लोग तुम्हारा इन्तज़ार ही कर रहे थे।”

“मुझे तो लगता है तुम लोग कहीं जा रहे थे।”

“मैं कहीं नहीं जा रहा। यह शायद जा रही है।” हरबंस ने ‘शायद’ पर इस तरह ज़ोर दिया कि नीलिमा ने सहसा तमककर पत्रिका परे हटा दी और अपनी स्वाभाविक लचक के साथ उठ खड़ी हुई।

“हाँ, में जा रही हूँ।” वह बोली, “और अरुण भी मेरे साथ जा रहा है। तुम्हारा दोस्त आ गया है, इसलिए तुम बैठकर इसके साथ बातें करो।”

जब मैं पहली बार उनके यहाँ आया था, तो भी मुझे नीलिमा के अपने प्रति व्यवहार में कुछ खिंचाव-सा महसूस हुआ था। उसकी शिष्टता और बातचीत की कोमलता में मुझे एक बनावटीपन-सा लगा था, जैसे वह शिष्टता विदेश में सीखी हुई एक कला ही हो। उसकी आँखों में कहीं एक रूखापन था जिसे वह अपनी अतिरिक्त कोमलता से छिपाना चाहती थी। मैं तब सोचता रहा था कि क्या यह इसलिए है कि वह अब तक भी नौ साल पहले की उस बात को नहीं भूली कि मैं उससे कहकर भी उस शाम उसके यहाँ नहीं गया था। मगर उतनी पुरानी बात तब तक तो उसे भूल जानी चाहिए थी।

“तुम लोगों को कहीं जाना है, तो जाओ।” मैंने कहा, “मैं भी पत्रकार क्लब के सहभोज में चला जाता हूँ। मेरी वजह से तुम लोगों को अपना कार्यक्रम बिगाडऩे की ज़रूरत नहीं।”

“हमारा कोई कार्यक्रम नहीं है।” हरबंस अपने हाथ की किताब रखता हुआ बोला, “इसे साथ के घर में एक पार्टी में जाना है, यह चली जाएगी।”

मुझे ध्यान हो आया कि वैन में आते हुए मैंने सुरजीत के घर के बाहर कुछ सजावट देखी थी और दो-तीन गाडिय़ाँ भी उसके घर के बाहर खड़ी थीं।

“क्या सुरजीत के घर में कोई पार्टी है?”

“शुक्ला की बच्ची की पहली वर्षगाँठ है।” नीलिमा बोली, “मैं कितनी देर से कह रही थी कि हम लोग थोड़ी देर के लिए वहाँ चले चलते हैं, तुम्हारे आने तक लौट आएँगे। शुक्ला ने कितनी बार कहा है कि भापाजी, कम से कम आज के दिन तो उसके यहाँ ज़रूर आ जाएँ। मैं घंटे-भर से तैयार बैठी हूँ, मगर ये साहब हैं कि यहाँ से हिल ही नहीं सकते। कह रहे थे, मैंने अपने दोस्त को वक़्त दे रखा है, इसलिए घर से बाहर नहीं जा सकता। अरुण भी कब से तैयार बैठा है। उसके लिए भी इनका कहना है कि उसे सात बजे सो जाना चाहिए, इसलिए वह भी नहीं जाएगा।”

“मेरा तो ख़याल है कि तुम लोगों को पार्टी में ज़रूर जाना चाहिए।” मैंने कहा, “मैं उतनी देर यहाँ बैठकर कोई किताब देखता हूँ। तुम लोग आध घंटे में उधर से होकर आ जाओ।”

“हा-हा! मैं, और उनके घर जाऊँगा?” हरबंस बोला।

“तुम न जाओ, मगर लडक़े को तो मेरे साथ जाने दो!” नीलिमा जैसे चीखकर बोली।

“तुम इस तरह चिल्लाओ नहीं।” हरबंस ने उसे डाँट दिया।

“तो तुम लडक़े को मेरे साथ क्यों नहीं जाने देते?”

हरबंस ने एक बार मेरी तरफ़ देखा और फिर एक बहुत बड़ा उपकार करने की तरह बोली, “उठ अरुण, चल मौसी के घर चलें। तेरी बीनू तेरा इन्तज़ार कर रही होगी।”

“बॉबी, मैं तला दाऊँ?” इतने छोटे लडक़े में परिस्थिति का इतना ज्ञान मुझे आश्चर्यजनक लगा।

“जाओ बेटे।” हरबंस ने कहा, “और जब नींद आये, तो वापस आ जाना।”

अरुण ने अपने ड्राइंग के कागज़ साथ सँभाल लिये। नीलिमा ने मुझसे कहा, “अच्छा, मैं अभी आ जाऊँगी, तुम चले नहीं जाना।” और अरुण को साथ लिये हुए वहाँ से चली गयी।

“तो?” उनके चले जाने के बाद हरबंस ने कहा।

“तुम बताओ। मैंने तो सोचा था कि आज तुम कम्बल ओढक़र पड़े हुए मिलोगे।”

“क्यों?”

“टेलीफ़ोन पर तुम्हारी आवाज़ से लग रहा था जैसे तुम बीमार हो।”

“हर बीमारी कम्बल ओढक़र पड़े रहनेवाली बीमारी नहीं होती।”

“तो कम से कम मेरा अनुमान तो ठीक ही था।”

उसके चेहरे का भाव कुछ व्यथापूर्ण हो गया। “सूदन, मैं आज तुमसे बहुत ही गम्भीर बात करना चाहता हूँ,” उसने कहा।

“मैं भी आज सुनने के लिए ही आया हूँ। आज तुम चाहे मुझे सुबह तक बिठा रखो। सुबह दस बजे मुझे दफ़्तर ज़रूर पहुँचना है।”

“तुम आज खाना यहीं खाना।”

“यह तो मैं सोचकर ही आया था।”

“और देर हो गयी, तो सो भी यहीं रहना।”

“ज़रूरत हुई, तो देखूँगा।”

“हरबंस ने एक बार अपने सिर पर हाथ फेरा और कुरसी पर सीधे होते हुए बाँके को आवाज़ दी। बाँके अपना दुबला-सहमा हुआ चेहरा लिये सामने आ खड़ा हुआ।

“देखो, ये खाना यहीं खाएँगे और इनका बिस्तर भी मेरे पढऩे के कमरे में लगा देना।”

बाँके ने ज़िम्मेवारी सँभालने के ढंग से आँखें हिलायीं और चला गया।

“तो?” बात फिर पहली जगह पर लौट आयी।

“आज तो तुम्हीं को बात करनी है। मैं तो केवल सुनने के लिए आया हूँ।”

“तुम जानते हो, तुम अकेले ही आदमी हो जिससे मैं बात कर सकता हूँ?”

मैंने सिर हिला दिया।

“मैं इस समय अपनी ज़िन्दगी के सबसे बड़े संकट में से गुज़र रहा हूँ।”

खिडक़ी का परदा हवा से हिला और मेरे शरीर में एक और ठंडी सिहरन दौड़ गयी।

“बाइ द वे, मैं इस बीच तुम्हारी मिस श्रीवास्तव से दो-एक बार मिल चुका हूँ।” मैंने कहा।

“अच्छा!” वह थोड़ा अव्यवस्थित हो गया।

“पत्रकार क्लब में किसी ने उससे परिचय कराया था।”

“तुम्हें वह कैसी लगी?”

“मुझे अच्छी लगी। देखने में भी अच्छी है और बातचीत भी बहुत समझदारी के ढंग से करती है!”

“हा-हा!” उसने कन्धे हिला दिये।

“क्यों?”

“वह बेवकूफ़ लडक़ी है। यह तुमने खूब कहा कि वह बातें समझदारी के ढंग से करती है!”

मैं चुप रहकर उसकी आँखों में उतरने का प्रयत्न करने लगा। आख़िर यह आदमी चाहता क्या है? क्या दुनिया में ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जिसकी वह खुले दिल से प्रशंसा कर सके? हरबंस के माथे पर हल्की-सी त्यौरी पड़ गयी थी और वह अपने निचले होंठ को ज़रा-ज़रा काट रहा था।

“मेरी उससे दो बार भेंट हुई है।” मैंने कहा, “हो सकता है तुम उसे ज़्यादा जानते हो।”

“वह बेवकूफ़ भी है और बदतमीज़ भी है।” वह बोला।

“तुम कहते हो, तो मैं मान लेता हूँ, मैं उसे इतना नहीं जानता।”

“मुझे सिर्फ़ उसकी आँखें पसन्द हैं, या उसका होंठ हिलाकर ‘हलो’ कहने का ढंग।”

“मुझे ये दोनों ही चीज़ें ज़्यादा पसन्द नहीं हैं।”

“हा, हा!” वह बोला, “वह अपने आपको समझती बहुत है।”

“यह मैं भी मानता हूँ, मगर तुम उस दिन उसके बारे में क्या बात कर रहे थे...?”

“कुछ नहीं, ऐसे ही।

“फिर भी कुछ बात तो होगी ही...?”

उसने सिर्फ़ कन्धे सिकोडक़र हाथ हिला दिये।

“मुझे तो वह बहुत सीधी लडक़ी लगी। हाँ, मिलनसार ज़रूर है।”

“ठीक है। मैंने तुमसे कहा था कि और भी कई लोग हैं जो उसकी तारीफ़ करते हैं।”

“मैंने और किसी के मुँह से उसके बारे में ऐसी-वैसी बात नहीं सुनी।”

“ख़ैर, तुम इस बात को अब जाने दो।” उसने अपने अन्दर से उठती हुई झुँझलाहट को दबाकर कहा।

उसकी आँखें खिडक़ी के परदे के उस तरफ़ किसी चीज़ को देखने का प्रयत्न कर रही थीं। “मैं तुमसे आज कुछ और ही बात करना चाहता था।” उसने कहा और इस तरह चुप कर गया जैसे कोई चीज़ उसके गले में अटक गयी हो।

मैंने अपना जूता उतार दिया और पैर समेटकर बैठ गया। मैं बहुत हल्के मूड में दफ़्तर से उठकर आया था, मगर हरबंस के भाव को देखते हुए मेरा भी मूड बदलने लगा। उसके चेहरे से लग रहा था जैसे वह अपने अन्दर ही अन्दर कहीं भटक रहा हो।

वह कुछ देर परदे की लकीरों को देखता रहा, फिर मेरी तरफ़ देखकर उसने कहा, “मैं बहुत दिनों से तुम्हारे साथ बैठकर बात करना चाहता था। तुम नहीं जानते कि मैं कैसे वर्षों से अपने अन्दर तिल-तिल करके गल रहा हूँ। मुझे कई बार लगता है कि मेरे लिए एक ही उपाय है और वह यह कि मैं अपने जीवन का अन्त कर दूँ।”

“अब ये फ़िजूल की बातें न करो।” मैंने कहा, “मैं तो तुम्हारा मूड ठीक रखने के लिए ही इधर-उधर की बातें कर रहा था। तुम्हारे मन में जो भी बात हो, तुम खुलकर मुझसे कहो। मैं यह तो नहीं कहता कि मैं तुम्हें कुछ राय दे सकूँगा, या तुम्हारी कुछ सहायता कर सकूँगा, मगर फिर भी...।”

“देखो सूदन।” वह अपनी तर हुई आँखों को झपकता हुआ बोला, “मुझे लगता है कि मेरे ऊपर एक तरह का अभिशाप है। मैं वर्षों से एक भी नया मित्र नहीं बना सका। लन्दन में इतने साल रहा हूँ और यहाँ आये भी इतने दिन हो गये हैं, मगर एक भी नये व्यक्ति को मैं अपना मित्र तो क्या, अच्छा परिचित भी नहीं बना सका। मुझे लगता है जैसे मैं दुनिया से बिल्कुल कट गया हूँ और अपने में बिल्कुल अकेला हूँ। हर नया आदमी मुझे बिल्कुल अपरिचित दुनिया का आदमी लगता है और मैं उससे अपने अन्दर की कोई चीज़ नहीं बाँट सकता। पुराने लोगों में तुम्हीं एक हो, और इसीलिए मैं तुमसे मिलने की इतनी उत्सुकता से प्रतीक्षा करता हूँ। तुम अकेले आदमी हो जिससे मिलने पर उन दिनों मुझे यह नहीं लगा था कि तुम मुझे मेरी वजह से न मिलकर किसी और की वजह से मिलते हो। इसीलिए शायद उन दिनों भी मैं तुमसे जितना तुम दे सकते थे, उससे ज़्यादा की आशा किया करता था। मैं अपना मन तब भी तुम्हारे सामने पूरी तरह खोलकर रखना चाहता था, मगर अपने स्वभाव के सन्देह और शंका के कारण ऐसा नहीं कर सका। हो सकता है तुम तब मुझे बाहर जाने से रोक देते और मेरे लिए परिस्थिति उतनी ख़राब न होती, जितनी कि अब हो गयी है।”

“मेरे साथ खुद भी यही बात थी।” मैंने कहा, “मैं भी उन दिनों अपने दिल की बात पूरी खोलकर तुम्हारे सामने नहीं रख सका। अगर ऐसा होता, तो शायद...।”

“आदमी एक ख़ास उम्र तक ही किसी नये आदमी को अपना मित्र बना सकता है।” वह मेरी बात की तरफ़ ध्यान न देकर अपनी ही धुन में बोला, “और मेरे लिए वह उम्र यहाँ से जाने से पहले ही बीत चुकी थी। मैं नहीं जानता था कि मैं उस उम्र में पहुँच चुका हूँ जहाँ आदमी चाहकर भी नये सिरे से ज़िन्दगी शुरू नहीं कर सकता। अगर तब मैं यह जानता, तो कभी बाहर न जाता। विदेश में बिताये हुए छ: साल मेरे लिए कितने दुख के और कितने कष्ट के रहे हैं, यह शायद मैं तुम्हें ठीक से नहीं बता सकता। अगर समय को लौटाया जा सकता, तो मैं फिर उन्हीं दिनों में लौट जाना पसन्द करता, जब मैंने सब कुछ छोड़-छाडक़र यहाँ से भाग जाने का निश्चय नहीं किया था।”

मैंने एक बार अपनी हथेलियों को मल लिया, दीवान पर रखा हुआ एक गद्दा पीछे से उठाकर अपनी गोद में रख लिया और उस पर कुहनियाँ टिकाकर अपना चेहरा हथेलियों पर रख लिया। मुझे फिर उसके नीलिमा के नाम लिखे हुए पत्रों की याद आ रही थी, मगर मैंने उनका ज़िक्र करना उचित नहीं समझा। जब-जब मुझे उन पत्रों की याद आती थी, तब-तब मेरे लिए उसके व्यक्तित्व का रूप बिल्कुल बदल जाता था। तब वह मेरे लिए उपहास और व्यंग्य का पात्र न रहकर सहानुभूति और सम्मान का पात्र बन जाता था। तब मेरा मन उसके चेहरे के साथ एक अस्थिर आकांक्षा और एक अप्राप्त विज़न का सम्बन्ध जोड़ देता था और उसके उस लटके हुए चेहरे में भी मुझे कुछ असाधारणता नज़र आने लगती थी। उसकी फ़ाइल के अधूरे और उलझे हुए पन्नों में भी तब एक सार्थकता आ जाती थी और मैं सोचने लगता था कि उन पन्नों के रिक्त कोष्ठ क्या किसी भी तरह भरे नहीं जा सकते!

“ख़ैर, गुज़रे हुए दिनों की बात करना तो बेकार है।” मैंने कहा, “मगर तुम आज जिस मन:स्थिति में हो, उसे मैं ज़रूर समझना चाहता हूँ। तुम इन दिनों इस तरह थके और निढाल से लगते हो जैसे आदमी ज़िन्दगी पर अपनी पकड़ ही छोड़ बैठा हो।”

उसने अपने सूखते हुए होंठों को ज़बान से गीला किया और अपने दोनों हाथों की उँगलियाँ उलझाकर कुछ देर उन्हें देखता रहा। वह शायद मन ही मन कुछ निश्चित करना चाह रहा था। आख़िर उसके उलझे हुए हाथ अलग-अलग हो गये।

“मैं तुम्हें पूरी बात शुरू से बताना चाहता हूँ।” उसने कहा, “हो सकता है तुम मुझे कोई ऐसा सुझाव दे सको, जिससे मैं इस दलदल से बाहर निकल सकूँ। नहीं, मुझे तो लगता है कि मैं हमेशा के लिए गुम हो गया हूँ और मेरा अतीत, वर्तमान और भविष्य सब कुछ इस दलदल में खो गया है। मैं इससे बाहर निकलने की जितनी चेष्टा करता हूँ, उतना ही इसमें और धँसता जाता हूँ।”

उसने उठकर कमरे की बीच की बत्ती बन्द कर दी और कोने का टेबललैम्प जला दिया। इससे कमरे का वातावरण कुछ उदास और कुछ रहस्यमय-सा हो गया। परदे के पीछे से खिडक़ी का जितना भाग नंगा था, उसे भी उसने अच्छी तरह ढक दिया। फिर आकर उसने तिपाई पर टाँग फैला लीं और सिगरेट सुलगाने के लिए दियासलाई जलाकर क्षण-भर उसे देखता रहा।

“तुम जानते हो कि मैं इकत्तीस जनवरी को यहाँ से गया था...।” उसने सिगरेट सुलगा ली और दियासलाई बुझा दी, “मैं उन्नीस फ़रवरी को लन्दन पहुँचा था।”

“यह मैं जानता हूँ, नीलिमा ने मुझे बताया था।”

“वैसे तो लन्दन पहुँचने के साथ ही मेरे मन में एक संघर्ष आरम्भ हो गया था, मगर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, वह संघर्ष धीरे-धीरे बढ़ता गया। मगर नीलिमा के वहाँ आने तक मैं फिर भी किसी तरह अपने को सँभाले रहा। मगर उसके आने के बाद...।” और वह रुक गया। लैम्प की रोशनी उसके चेहरे पर नहीं पड़ रही थी। उसने चुप रहकर दो-तीन लम्बे-लम्बे कश खींचे और कहा, “उसके बाद जो कुछ हुआ, उसने मेरे जीवन में उजाले की कोई किरण नहीं रहने दी। मैं तब से अब तक निरन्तर अँधेरे में भटक रहा हूँ जहाँ मुझे किसी भी तरफ़ उजाले का कोई मार्ग नज़र नहीं आता। मुझे लगता है जैसे मैं एक काल-कोठरी में बन्द हूँ और जीवन-भर मुझे उस काल-कोठरी में बन्द रहकर हाथ-पैर पटकते जाना है।”

मैंने पीछे से एक और गद्दा उठाकर पहले के गद्दे पर रख लिया और अच्छी तरह अपनी कुहनियों पर झुक गया। वह आहत दृष्टि से सामने की तरफ़ देखता हुआ बात करता रहा। टेबल-लैम्प के धूपछाँही उजाले में मेरे सामने एक अपरिचित देश के धुआँरे-से चित्र बनने लगे—सपने के चित्रों की तरह, जिनके अमूर्त यथार्थ में मन अपने-आप रंग और आकार भरने लगता है—वास्तविक यथार्थ से भिन्न, परन्तु मन की संगति में उतने ही यथार्थ। वह उस घर की बात करने लगा जिस घर में वे लोग लन्दन में रहते थे। मेरे मन में एक ऊँची पहाड़ी का चित्र बनने लगा जिसकी घुमावदार पगडंडियाँ शिखर पर जाकर एक छोटे-से घर में समाप्त होती थीं। जब कोहरा बहुत घना होता था, तो नीचे बस की सडक़ से वह घर दिखायी नहीं देता था। घर की मालकिन नीचे के दो कमरों में रहती थी और ऊपर के दो कमरे उसने इन लोगों को दे रखे थे। ये लोग अपना खाना अपने कमरे में ही बनाते थे। जब तडक़ते हुए प्याज़ की गन्ध ऊपर के कमरे से नीचे जाती थी, तो मकान-मालकिन अपने भारी कूल्हों को किसी तरह समेटती हुई ऊपर आकर इनका दरवाज़ा एक उँगली से खटखटाती थी। हर रोज़ वह इस गन्ध पर एतराज़ करती थी, हर रोज़ ये उसे वचन देते थे कि अब वहाँ प्याज़ नहीं तडक़ेंगे, मगर तीसरा दिन गुज़रते-ग़ज़रते वे फिर उबले हुए अँग्रेज़ी खाने से उकता जाते थे और सोचते थे कि चलो एक बार और मकान-मालकिन की बात सुन लें, फिर आइन्दा तडक़े हुए प्याज़वाला हिन्दुस्तानी खाना नहीं बनाएँगे। उनकी आर्थिक स्थिति काफ़ी ख़राब थी, क्योंकि हरबंस ने तब तक हाई कमीशन की नौकरी छोड़ दी थी और वे उस थोड़ी-सी आय पर ही अपना गुज़ारा करते थे जो उन्हें बी.बी.सी. के कार्यक्रमों से नीलिमा की बेबी-सिटिंग से होती थी। एक बार हाई कमीशन के किसी उत्सव में नृत्य का प्रदर्शन करने के बाद नीलिमा को बी.बी.सी. पर इक्का-दुक्का प्रोग्राम मिलने लगे थे। हरबंस को भी कभी-कभी भारतीय कार्यक्रम में वार्ताओं के लिए बुला लिया जाता था। नीलिमा बेबी-सिटिंग से बहुत कुढ़ती थी, मगर उसके सिवा कोई चारा भी नहीं था। हरबंस उन दिनों बहुत गम्भीर होकर अपने थीसिस के काम में जुटा था। नीलिमा जिस समय काम पर जाती थी, वह यूनिवर्सिटी चला जाता था। शाम को दोनों ही काम से थके हुए लौटते थे और रोज़ किसी न किसी वजह से उनकी लड़ाई हो जाती थी। लड़ाई की वजह से अक्सर तीन वक़्त में उनका एक वक़्त का खाना गोल हो जाता था। कोई-कोई दिन तो डबलरोटी के गिने हुए टुकड़ों और गिने हुए सिगरेटों पर ही निकलता था। स्याह कॉफ़ी भूख मारकर रहने में सहायता करती थी। बचत के ख़याल से वे यहाँ अपने मित्रों के ज़्यादा आने-जाने से बचते थे, मगर उनके कई मित्र अक्सर उनके यहाँ हिन्दुस्तानी खाने की माँग करते हुए आ जाते थे। मित्रों की आवभगत वे ठीक से करते, मगर उनके जाते ही फिर लड़ाई हो जाती। हरबंस गीले कपड़ों की गाँठ पीठ पर लादे हुए उन्हें लांड्री में सुखवाने ले जाता था। वहाँ दो-दो घंटे क्यू में खड़े रहने के बाद उसकी बारी आती, तो कपड़े सुखवाकर फिर गाँठ कन्धे पर लादे आधा मील चलकर वह पहाड़ी के नीचे पहुँचता। वहाँ रुककर एक सिगरेट पीता और फिर चढ़ाई आरम्भ करता। घर पहुँचकर पता चलता कि नीलिमा ने गुस्से में कॉफ़ी भी नहीं बनायी। वह गठरी रख देता और खिडक़ी के शीशों पर जमे हुए कोहरे को देखता हुआ बैठा रहता। कभी गैस सुलगाकर खुद ही कॉफ़ी बनाने लगता।

“देखो, मैं कहती हूँ मैं यहाँ से वापस जा रही हूँ।” नीलिमा ताव में उससे कहती, “मुझसे इस तरह की ज़िन्दगी नहीं जी जाती। क्या यही ज़िन्दगी जीने के लिए तुमने मुझे यहाँ बुलाया था? यही तुम्हारा वह ‘विज़न’ है जिसकी तुम लम्बी-चौड़ी बातें लिखा करते थे?” हरबंस के अन्दर से अवसाद और कटुता की न जाने कितनी-कितनी तहें उसकी आँखों में उफन आतीं।

“मैं भी तो तुम्हारे साथ यही ज़िन्दगी जी रहा हूँ।” वह कहता।

“मगर मेरी वजह से तो नहीं जी रहे। मैं यह ज़िन्दगी तुम्हारी वजह से जी रही हूँ। मैं इसीलिए पहले साल-भर वहाँ से नहीं आयी थी। मैं जानती थी कि यहाँ हम लोगों की क्या दुर्गति होगी। मगर पहले तो तुमने झूठे विश्वास देकर मुझे यहाँ बुला लिया और अब मुझसे बेबी-सिटिंग कराते हो और ख़ुद खिडक़ी के पास बैठे आसमान को घूरते रहते हो! मैं ऐसी ज़िन्दगी बरदाश्त नहीं कर सकती।”

“नहीं कर सकती, तो जैसा तुम्हारे मन में आये वैसा कर लो।” वह कहता।

“अगर मुझसे नहीं बरदाश्त होगा तो मैं ज़रूर जो मेरे मन में आएगा, वह करूँगी। तब बैठकर रोना नहीं, और न ही मुझे दोष देना।”

“मैं कौन होता हूँ तुम्हें दोष देनेवाला! मैं तुम्हारा कुछ लगता थोड़े ही हूँ!”

“मगर मैं यह जानना चाहती हूँ कि तुमने मुझे वह सब लिख-लिखकर बुलाया क्यों था? क्या तुम यह पहले ही नहीं जानते थे कि यहाँ यह हालत होगी?”

“मैं समझता था कि तुम इस बीच काफ़ी सँभल गयी होगी, और यहाँ आकर मेरे लिए वही सिर-दर्द पैदा नहीं करोगी।”

“हाँ, मैं ही तो तुम्हारे लिए सिर-दर्द पैदा कर रही हूँ। एक तो तुम्हारे लिए कमाकर लाती हूँ, दूसरे घर में नौकरानी का सारा काम करती हूँ; उस पर भी तुम्हें यह कहने का हौसला पड़ता है कि मैं ही तुम्हारे लिए सिर-दर्द पैदा कर रही हूँ।”

“तुम्हें घर का काम करने में शरम आती है? यहाँ सब घरों मं औरतें अपने हाथ से अपना काम करती हैं।”

“और उनके ख़ाविन्द बैठकर सिगरेट पीते हैं और थीसिस लिखते हैं और वे जाकर उनके लिए बेबी-सिटिंग करती हैं!”

“हा-हा! तुम मेरे लिए कमाई करती हो? मैं जो सूखी डबलरोटी खाता हूँ, उसके पैसे मैं बी.बी.सी. से ले आता हूँ।”

“हाँ, हाँ, क्यों नहीं? तुम्हीं तो सब लाते हो? कोई दूसरा होता, तो उसे यह कहते शरम आती।”

“मैं कहता हूँ अपनी ज़बान ज़्यादा मत खोलो, नहीं तो मुझसे थप्पड़ खा बैठोगी।”

“क्या?” नीलिमा अपने हाथ की चीज़ पटककर खड़ी हो जाती, “तुम मुझे हाथ लगाकर तो देखो। मैं फिर कभी तुम्हारी सूरत भी देख जाऊँ तो...!”

“मैं कह रहा हूँ कि अब तुम मेरे पास से चली जाओ और मुझे चुपचाप बैठा रहने दो।”

“तुम चुपचाप बैठे रहने के सिवा और कर भी क्या सकते हो?”

“अगर चाहो, तो मैं वह भी तुम्हें बता सकता हूँ।”

“हाँ-हाँ, बताओ, क्या बता सकते हो?”

“मैं कहता हूँ इस वक़्त अपनी ज़बान बन्द रखो और यहाँ से चली जाओ।”

“ज़बान बन्द रखो! मुझे यहाँ परदेश में बुलाकर मेरी यह दुर्दशा कर रहे हो!”

“दुनिया में अगर सबसे मूर्ख कोई स्त्री है, तो वह तुम हो।”

“और तुम क्या हो? दुनिया के सबसे समझदार आदमी न?”

“मैं भी दुनिया का सबसे मूर्ख आदमी हूँ। न होता, तो कभी तुमसे ब्याह न करता।”

“तो अब मुझे क्यों नहीं छोड़ देते? मैं आज ही तुमसे अलग होने को तैयार हूँ।”

“मैं कह रहा हूँ इस वक़्त यहाँ से चली जाओ।”

“हाँ, मैं चली जाऊँगी। और इस तरह जाऊँगी कि तुम बस देखते रहोगे...।”

“हाँ, हाँ, मैं देखता रहूँगा। अब तुम यहाँ से साथ के कमरे में चली जाओ।”

वह गुस्से में कोई न कोई चीज़ पटककर तोड़ देती और पैर पटकती हुई साथ के कमरे में चली जाती। वह बैठा देखता रहता कि शीशों पर लगा हुआ कोहरा कैसे जमकर बरफ होता और नीचे झड़ जाता है। उसे अफ़सोस होता कि जब वह एक बार उस जीवन से हताश होकर घर से चला आया था, तो उसने फिर उस स्त्री को वहाँ क्यों बुला लिया! क्या वह पहले ही नहीं जानता था कि उसके यहाँ आने पर वही कुछ होगा? मगर फिर भी उसने कितना ज़ोर देकर उसे बुलाया था और कितनी व्याकुलता के साथ उसके आने की प्रतीक्षा की थी! नीलिमा ने अपने दो-एक पत्रों में संकेत-भर किया था कि उसे सुरजीत के व्यवहार से कुछ शिकायत है और उसे लगता है जैसे वह उसे बातों में लाकर उसके अकेलेपन का अनुचित लाभ उठाना चाहता हो। “मुझे मैसूर जाने से पहले भी ऐसा आभास था, और अब तो वह आभास और भी स्पष्ट हो गया है।” उसने लिखा था, “तुमने और शुक्ला ने उस आदमी को जितना सिर पर उठा रखा था, मुझे वह उतना ही ओछा और छोटा प्रतीत होता है। वह समझता है कि कुछ उपहार देकर और कुछ चिकनी-चुपड़ी बातें करके वह किसी भी लडक़ी को फुसला सकता है।” तब नीमिला के पत्रों को पढ़ते हुए उसका शरीर गुस्से के मारे ऐंठने लगता था और उसका मन होता था कि या तो वह स्वयं उडक़र दिल्ली पहुँच जाए, या जैसे भी हो शुक्ला और नीलिमा को अपने पास बुला ले। मगर क्योंकि शुक्ला का आना असम्भव था, इसलिए उसने नीलिमा को लिखा था कि वह आते हुए कोई न कोई ऐसी व्यवस्था कर आये, जिससे उसके पीछे सुरजीत का घर में आना-जाना बन्द हो जाये। नीलिमा ने आकर बताया था कि वह बीजी से कह आयी है कि वे शुक्ला को अकेली सुरजीत के साथ घूमने-फिरने के लिए न जाने दिया करें। इससे उसे कुछ हद तक सन्तोष हो गया था, मगर...।

वह बैठा रहता और दिन में कोहरे को हल्का उजला और रात को गहरा काला होते देखता रहता। उसके मन में भी कोहरे की ही तरह कभी हल्का-सा उजाला फैलता, मगर उसके फैलते-फैलते ही कोहरा फिर घना और अँधेरा हो जाता।

मेरी आँखों के सामने लन्दन की खिडक़ी का वह शीशा और उसके सामने बैठा हुआ वह सिगरेट फूँकता हुआ व्यक्ति—यह चित्र इतना स्पष्ट बन रहा था कि मैं डिफेंस कॉलोनी के उस कमरे के वातावरण को लगभग भूल ही गया था और यह भी भूल गया था कि वे घटनाएँ कुछ बरस पहले की हैं। मैं देख रहा था कि वह आदमी उसी तरह उदास बैठा है और उसी तरह कोहरा खिड़कियों से झड़ रहा है। नीलिमा बाहर से रेनकोट में भीगती हुई आती है, आकर अपना रेनकोट उतार देती है और उससे कहती है कि हाई कमीशन के कार्यालय में उसकी प्रसिद्ध नर्तक उमादत्त से भेंट हुई है। “उमादत्त की पार्टनर उर्वशी उसे छोडक़र भारत चली गयी है और वह चाहता है कि मैं उसके साथ उर्वशी की जगह यूरोप के दौरे पर चलूँ।”

“मगर तुम नहीं जा रही हो। तुम कैसे जा सकती हो?” हरबंस उसकी तरफ़ गम्भीर दृष्टि से देखता हुआ कहता है।

“मैं क्यों नहीं जा सकती?” नीलिमा अपनी बाँहें उलझाये हुए तनी हुई-सी खड़ी रहती है। “कुल ढाई-तीन सप्ताह की तो बात है। इतने दिन मैं लन्दन की ऊब से भी छुटकारा पा लूँगी और मुझे पैसे भी इतने मिल जाएँगे जितने लन्दन में दो महीने की बेबी-सिटिंग से नहीं मिलेंगे। वैसे भी मेरे लिए यह बहुत अच्छा आरम्भ है। मैं यह अवसर हाथ से नहीं जाने देना चाहती।”

हरबंस कुछ देर सूनी आँखों से उसकी तरफ़ देखता रहता है और फिर कहता है, “मगर मैं उतने दिन यहाँ बिल्कुल अकेला नहीं रह जाऊँगा...?”

“कुछ दिन अकेले रहना तुम्हारे लिए भी अच्छा नहीं होगा? तुम बहुत दिनों से हर रोज़ कहते भी हो कि कुछ दिनों के लिए मैं तुम्हारे पास से चली जाऊँ, तो तुम अकेले रहकर अपने थीसिस का काम ज़्यादा अच्छी तरह कर सकते हो।”

“मगर मैं नहीं चाहता कि तुम उमादत्त के या किसी और के ट्रुप के साथ इस तरह बाहर जाओ। मुझे यह अच्छा नहीं लगेगा।”

“हाँ, तुम्हें क्यों अच्छा लगेगा!” नीलिमा की आवाज़ सहसा तीखी हो जाती है, “तुम्हें तो यही अच्छा लगेगा कि मैं यहाँ रहकर दूसरों के बच्चों के मुँह और नाक तौलिये से पोंछती रहूँ। मैं इस ज़िन्दगी से बेज़ार आ चुकी हूँ। मैं एक दिन भी अब यह काम नहीं करूँगी। मैंने उमादत्त से कह दिया है कि मैं उसके साथ चलूँगी, और अब मैं अपनी बात वापस नहीं ले सकती।”

“देखो नीलिमा?” वह अपनी कुरसी से उठ खड़ा होता है, “तुम नहीं जानतीं कि तुम किस ज़िन्दगी में पैर रख रही हो। मैंने तुम्हारे लिए इस तरह की ज़िन्दगी की बात आज तक नहीं सोची।”

“मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि मैं किस तरह की ज़िन्दगी में पैर रख रही हूँ। और तुमने क्या मेरे लिए किसी भी तरह की ज़िन्दगी की बात आज तक सोची है? मैं दो साल कथक और छ: महीने भरतनाट्यम का अभ्यास इसलिए नहीं करती रही कि मैं अँग्रेज़-बच्चों को जाँघिये और निक्कर पहनाया करूँ। अगर तुम मुझे जाने से ज़बरदस्ती रोकोगे, तो मैं तुमसे कहे देती हूँ कि मैं वैसे ही चली जाऊँगी और कभी तुम्हारे पास लौटकर नहीं आऊँगी।”

वह चुपचाप उसकी तरफ़ देखता रहता है और अपना थूक निगलकर बैठ जाता है।

“तब जो तुम्हारे मन में आता हो, वह करो। तुम्हें किसी चीज़ से नहीं रोकूँगा।

“अच्छा भी यही है कि तुम मुझे न रोको, क्योंकि अब तुम्हारे रोकने से मैं रुकूँगी नहीं।”

“तो ठीक है। मैं इस विषय में अब और कुछ कहना-सुनना नहीं चाहता।”

“मैं भी यही चाहती हूँ कि इस विषय में अब और कुछ कहा-सुना न जाए।”

“तुम कब जा रही हो?”

“परसों।”

“और आओगी कब?”

“यह अभी कह नहीं सकती। उमादत्त ने कहा है कि हमें कुल अठारह-बीस दिन ही लगेंगे। मगर दो-चार दिन ज़्यादा भी लग सकते हैं।”

“मुझे यह पता चलता रहेगा कि तुम कब कहाँ हो?”

“मैं तुम्हें हर दूसरे-तीसरे दिन पत्र लिखती रहूँगी।”

“देखो, एक बार फिर सोच लो। तुम्हें इस तरह की ज़िन्दगी अपनाकर बाद में पछतावा भी हो सकता है।”

“मैं कह चुकी हूँ कि इस वक़्त हमें और कुछ कहना-सुनना नहीं चाहिए। मैं उमादत्त से वायदा कर चुकी हूँ।”

“अच्छा, तुम मुझे एक वचन दे सकती हो?”

“बताओ।”

“तुम मुझे यह वचन दे सकती हो कि इस ट्रिप के बाद दूसरे ट्रिप पर तुम उसके साथ जाने के लिए नहीं कहोगी?”

नीलिमा पल-भर सोचती रहती है। फिर आँखें झपककर कहती है, “अच्छा, नहीं कहूँगी।”

“देखो, तुम मुझे वचन दे रही हो!”

“मैंने कह दिया है कि नहीं कहूँगी।”

“यह बात तुम्हें भूल तो नहीं जाएगी?”

“तुम अब सवाल पूछना बन्द नहीं करोगे?”

“तो चलो, मैं खुद तुम्हारे साथ चलकर उमादत्त से बात कर लेता हूँ। उसने तुम्हें क्या देने को कहा है?”

“दो गिनी रोज़।”

“तुम दो गिनी रोज़ के लिए...?”

“देखो, तुम फिर बात शुरू कर रहे हो। मुझसे तो तुम इतने-इतने वचन ले रहे हो, खुद अपनी कही हुई बात पर क़ायम नहीं रह सकते?”

“ख़ैर, इस बार तुम कह आयी हो तो चली जाओ। मगर मैं दूसरी बार तुम्हें नहीं जाने दूँगा।”

वह उसके पास से हट जाती है और जाकर गैस सुलगा देती है।

“देखो नीलिमा,” वह पीछे से जाकर उसे बाँहों में ले लेता है, “तुम मुझे ग़लत मत समझो। मैं तुम्हारे नृत्य के प्रदर्शन के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। मगर मैं नहीं चाहता कि तुम्हारा इस तरह के लोगों के साथ ज़्यादा आना-जाना हो। मैं चाहता हूँ कि तुम इस कला का अच्छी तरह अभ्यास करके फिर अपना ही प्रदर्शन करो। मगर इस तरह व्यावसायिक ढंग से नहीं। यह ढंग भाँड़ों और बहुरूपियों का है। जहाँ तक मैं सोच सकता हूँ तुम्हें अभी कई बरस और अभ्यास करना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि जब भी तुम्हारे नृत्य का प्रदर्शन हो, तो ऐसे हो कि मैं उस पर गर्व कर सकूँ। अभी तुमने जितना सीखा है, वह बहुत थोड़ा है और मैं कह सकता हूँ कि यह तुम्हारा आरम्भ ही है। मैं यहीं बस जाना चाहता था, मगर तुम्हारी वजह से मैं थीसिस पूरा करके लौट भी चलूँगा। मुझसे सम्भव हुआ तो मैं जीवन में कभी तुम्हें इतने साधन जुटा दूँगा कि तुम निश्चिन्त होकर इस कला का अभ्यास कर सको। तुम अपने में जितना कुछ सीखकर सन्तुष्ट हो, मैं उतने से सन्तुष्ट नहीं हूँ। मैं इसके अतिरिक्त कुछ चाहता हूँ—वह कुछ जो दूसरों जैसा न होकर उनसे बहुत भिन्न हो।”

“मैं इतना जानती हूँ कि तुम कभी मेरी किसी चीज़ से सन्तुष्ट नहीं हो सकते।”

“तुम मुझे ग़लत समझती हो, सवि! हो सकता है कोई दिन ऐसा आये जब जो मैं चाहता हूँ, वह सम्भव हो सके। तब तुम मेरी बात मान जाओगी।”

“मैं जानती हूँ वह दिन कभी नहीं आएगा।”

“अगर हम कोशिश करें, तो क्यों नहीं आएगा? हम उसे लाने का प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। मगर सबसे पहले मुझे अपना काम पूरा करना है। तुम इस समय जो कुछ भी करती हो, वह यही सोचकर करो कि अभी तुम्हें यहाँ रहकर मेरे काम में मेरी सहायता करनी है।”

“मैं इससे ज़्यादा और क्या सहायता कर सकती हूँ?” नीलिमा का शरीर उसकी बाँहों में शिथिल नहीं होता, कसा रहता है, “मगर तुम कभी मेरे किये को समझोगे नहीं।”

“तुम यह कहकर मेरे साथ ज़्यादती कर रही हो।”

“हो सकता है मैं ज़्यादती कर रही हूँ, मगर मैं कुछ भी करूँ, तुम्हारे साथ हमेशा ज़्यादती ही होती है।”

दो दिन बाद वह बोट ट्रेन से चली जाती है। वह उसे छोडक़र घर लौटता है। ऊपर जाने से पहले उसकी मकान-मालकिन से भेंट हो जाती है।

“तुम्हारी पत्नी आज कहीं बाहर गयी है?” वह पूछती है, “वह कह रही थी कि वह मैड्रिड और पैरिस जा रही है।”

“हाँ,” हरबंस अनमना-सा उत्तर देता है, “वह अपने नृत्य के प्रदर्शन के लिए वहाँ गयी है।”

“नृत्य के प्रदर्शन के लिए?” वह कुछ आश्चर्य के साथ कहती है, “यह उसने मुझे नहीं बताया। तुम उसके साथ नहीं गये!”

“मैं अपने काम की वजह से नहीं जा सका।” वह ज़ीने की तरफ़ देखता है और गिनता है कितनी सीढिय़ाँ पार करके उसे अपने कमरे में पहुँचना है।

“वह अच्छी डांसर है?” मकान-मालकिन कुछ अविश्वास के साथ पूछती है।

“वह भारतीय नृत्य की बहुत अच्छी कलाकार है।” वह अपनी झुँझलाहट को गर्व का पुट देकर कहता है।

“वह कितने दिन बाहर रहेगी?”

“लगभग बीस दिन। ज़्यादा से ज़्यादा इक्कीस दिन।”

“तुम इन दिनों बहुत अकेले महसूस करोगे।”

“मैं इन दिनों काम करूँगा।”

“मगर देखो, मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ...।”

“हाँ-हाँ, कहो।”

“मुझसे प्याज़ की गन्ध बिल्कुल बरदाश्त नहीं होती। मेरा लडक़ा भी उससे बहुत चिढ़ता है। मैं तुमसे फिर अनुरोध के साथ कहती हूँ कि अब तुम अपने कमरे में प्याज़ न तडक़ा करो।”

“अब तुम्हें शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।”

“मैं यह नहीं कहती कि हिन्दुस्तानी खाना बुरा होता है, मगर...।”

“कम से कम बीस दिन तो तुम्हें मौका नहीं ही मिलेगा।”

“बीस दिन ही नहीं, उसके बाद भी नहीं मिलना चाहिए। मैं वह गन्ध बिल्कुल बरदाश्त नहीं कर सकती।”

वह ज़ीना पार करके अपने कमरे में आता है। गीले कपड़ों की गाँठ पड़ी है। वे कपड़े उसे सुखवाने के लिए ले जाने हैं। नीलिमा जाने की तैयारी में कई चीज़ें बिखरी छोड़ गयी है। वह उन्हें समेटने लगता है। उसे भूख लगी है। वह बासी डबलरोटी निकालकर उसे चबाने लगता है। यह निश्चित है कि बीस दिन वह प्याज़ नहीं तडक़ेगा। बस भूरी डबलरोटी खाएगा और स्याह कॉफी पिएगा...।

“बॉबी, मैं बिनी को उछके घल छे छाथ ले आया हूँ,” सहसा दरवाज़े का परदा हटाकर अरुण कमरे में आ गया। उसके आते ही धूपछाँही उजाले से अपरिचित देश का वातावरण अदृश्य हो गया। मैंने गद्दे कुहनियों के नीचे से निकालकर पीछे रख लिये। घड़ी में कुल साढ़े सात बजे थे। कुल एक-डेढ़ घंटे हम लोग ज़िन्दगी का कितना लम्बा सफ़र तय कर आये थे! कई बार दिन और महीने भी खाली-खाली से बीतते हैं और कई बार कुछ थोड़े-से क्षण ही बहुत भरपूर हो जाते हैं।

अरुण के पीछे-पीछे शुक्ला की आया उसकी बच्ची को उठाये हुए आ गयी। आया अपने नये कपड़ों में बहुत ख़ुश लग रही थी। बच्ची इस तरह घबरायी हुई थी जैसे उसके साथ कोई अनहोनी घटना घटित हो रही हो।

“बॉबी, आज इछका जमनदिन है,” अरुण बोला। मैं इछको तुमछे किछी कलाने के लिए आया दूँ। छुक्का मौछी कैती थी जाकल इछको बॉबी छे किछी कला लाओ।”

हरबंस अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ। “मैं अभी आ रहा हूँ।” उसने चलते-चलते कहा, “मुझे पेट में कुछ भारीपन महसूस हो रहा है।”

“मगर तुम बच्ची को ‘किस’ तो करते जाओ।” मैंने कहा।

“हाह!” उसने कहा और बिना बच्ची की तरफ़ देखे कमरे से चला गया।

“बॉबी!” अरुण अपने उद्देश्य में असफल होकर कुछ रुआँसा हो गया।

“मैं अभी आ रहा हूँ, बेटे।” हरबंस दूसरे कमरे से बोला, “तुम जाकर अपनी ममी को बुला लाओ।”

अरुण इस दूसरे उत्तरदायित्व की वजह से पहले उत्तरदायित्व को भूल गया और तुरन्त वापस चल पड़ा। “मैं अबी ममी को लेकल आता हूँ।” उसने कहा और लगभग दौड़ता हुआ अहाते से बाहर निकल गया। आया पल-भर भौंचक्की-सी खड़ी रही। मैंने उठकर बच्ची के गालों को सहला दिया और उसे चूम लिया। आया उसके घबराये हुए चेहरे को अपने कन्धे से सटाये हुए चली गयी।

मैंने उठकर बीच की बत्ती जला दी और कमरे की चीज़ों को देखने लगा। कमरा अच्छा सजा हुआ था, मगर न जाने क्यों यह आभास होता था कि वह जगह ज़रूरत से ज़्यादा भरी हुई है, कि उसे अपनी सामथ्र्य से ज़्यादा भार उठाना पड़ रहा है। दीवान और कुरसियों के अलावा वहाँ किताबों के दो शेल्फ़ भी रखे थे। उनमें रखी हुई किताबों को देखकर मैं सोचने लगा कि उन किताबों का चुनाव ज़्यादा मेहनत के साथ किया गया है, या उन्हें ढंग से रखने में ज़्यादा मेहनत की गयी है। किताबों के बीच-बीच में तरह-तरह के फूलदान और चीनी तथा कपड़े की गुडिय़ाएँ रखी थीं। कुछ ऐसी ही सियामी गुडिय़ाएँ और एक बड़ी-सी सियामी वॉलप्लेट एक दीवार पर लगी थीं। दूसरी दीवार पर एक हरिण की खाल की टेपेस्ट्री लगी थी जिसके ऊपर वानगो के प्रसिद्ध चित्र ‘ड्रॉब्रिज’ की छपी हुई, चित्र के वास्तविक आकार की प्रतिलिपि लगायी गयी थी। दो खुली अलमारियों में न जाने कितनी तरह के क्यूरियो सजाकर रखे हुए थे। हर चीज़ के चुनाव और व्यवस्था में एक सुरुचि का परिचय मिलता था, परन्तु यह छाप मन पर बहुत गहरी पड़ती थी कि उस कमरे में उतना कुछ नहीं होना चाहिए था। उससे मन में एक अव्यक्त रुकावट का-सा अनुभव होता था, एक ऐसे घेरे का जो खुलकर साँस लेने में बाधक हो। मन होता था कि कमरे में थोड़ी खुली जगह और होनी चाहिए—ऐसी जगह जहाँ कुछ भी न हो, जिसे उपयोग में लाने की कोई विधि न सोची गयी हो। कमरे में नज़र दौड़ाते हुए मुझे यूँ लगने लगा जैसे मैं एक घर की बैठक में न होकर किसी विचित्र वस्तुओं के संकलनकर्ता के गोदाम में या किसी आर्ट डीलर के शोरूम में खड़ा हूँ। उस वातावरण में व्यावसायिकता का आभास तो नहीं होता था, मगर वहाँ की हर चीज़ में एक ऐसी अतिरिक्तता अवश्य थी कि किसी भी चीज़ के वहाँ से हटा दिये जाने पर मन को कुछ खुलेपन का ही अनुभव होता।

मैं सब चीज़ों पर अनिश्चित-सी नज़र डालने के बाद पुस्तकों के एक शेल्फ़ के पास चला गया। रेशम की नीली जिल्द की एक चौड़ी और ऊँची पुस्तक मैंने निकाल ली। वह आर्ट पेपर पर छपी आधुनिक चित्रकला-सम्बन्धी पुस्तक थी। जिल्द खोलते ही अन्दर के पहले पन्ने पर मेरी नज़र हरबंस की लिखावट पर पड़ी। लिखा था—‘सावित्री को बहुत-बहुत प्यार के साथ, हरबंस’। नीचे तिथि थी 11 जुलाई, 1947। मैं उसमें कुछ देर पिकासो और दूसरे चित्रकारों के चित्र देखता रहा। फिर मैंने दूसरी पुस्तक निकाली। वह अमृता शेरगिल के जीवन और उसके चित्रों के सम्बन्ध में थी। वह अगस्त सन् सैंतालीस में खरीदी गयी थी और उस पर लिखा था—‘प्रिय सावित्री, अनुभूति से बड़ी कला की कोई सचाई नहीं है और मैं चाहता हूँ कि तुम इस सच्चाई को अपने में आत्मसात् कर सको। तुम्हारा...।’ एक बड़ी-सी पुस्तक में जिसमें बड़ी-बड़ी चित्रों की प्लेट्स थीं, उसने लिख रखा था—‘मैं जानता हूँ मेरे अन्दर वह कुछ नहीं है जिससे एक कलाकार की सुन्दर आत्मा का निर्माण होता है। तुम्हारे अन्दर वह कुछ है और मैं चाहता हूँ कि उसे बाहर लाने में, रूप और आकार देने में मैं कुछ सहायक हो सकूँ, जिससे मुझे इसमें गर्व का अनुभव हो कि मैंने ही अपने हाथों से तुम्हें बनाया है। तुम्हारा...।’ चित्रकला के अतिरिक्त कई-एक नृत्य-कला-सम्बन्धी पुस्तकें थीं जो इसी तरह के समर्पणों के साथ सावित्री को भेंट की गयी थीं। उन पुस्तकों से हटकर मैं दूसरे शेल्फ़ के पास पहुँचा, तो वहाँ कुछ उपन्यास थे, कुछ इतिहास सम्बन्धी पुस्तकें थीं, कुछ-एक पुस्तकें राजनीति और भूगोल जैसे विषयों की थीं। मैं उन्हें देख ही रहा था कि बाहर से कई लोगों की आवाज़ें सुनायी देने लगीं। कुछ देर में नीलिमा अरुण को साथ लिये हुए कमरे में आ गयी। उसका चेहरा उस समय बहुत लाल हो रहा था, जाने उत्साह के कारण, या आवेश के कारण।

“तो तुम यहीं हो!” उसने कहा।

“हाँ, हम लोग बातें कर रहे थे।”

“हरबंस कहाँ है?”

“बाहर गया है। अभी आ जाता है।”

उसी समय हरबंस बाहर से आ गया। उसने आते ही नीलिमा से कहा, “देखो, अब लडक़े के सोने का वक़्त हो गया है। पहले जाकर इसे सुला दो।”

“तुम्हें शरम आनी चाहिए...।” नीलिमा ने कहा।

“अब क्या हुआ है?” हरबंस एकदम झुँझला उठा।

“उस छोटी-सी बच्ची ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? तुम उसके जन्मदिन पर उससे प्यार भी नहीं कर सकते थे?”

“मैंने तुमसे कितनी बार कहा है कि तुम मेरे मामलों में दख़ल मत दिया करो।” वह आकर वापस अपनी उसी कुरसी पर बैठ गया।

“तुम्हे बच्चों से भी ईर्ष्या होती है? छि:!” नीलिमा बोली।

“मैंने तुमसे कहा है कि जाकर लडक़े को सुला दो और अपनी ज़बान बन्द रखो।”

“तुम सिर्फ़ सैडिस्ट हो, और कुछ नहीं।”

“मैंने तुमसे कहा...।”

“तुमने जो कहा है, वह मैंने सुन लिया है। मुझे तुमसे कम से कम यह आशा तो नहीं थी।”

“तुम, मैं जो कह रहा हूँ, वह सुनो और जाकर लडक़े को सुला दो।”

“छि:!” नीलिमा ने कहा और अरुण की बाँह पकड़े हुए दूसरे कमरे की तरफ़ चल दी। अरुण अपने हाथों में गुब्बारे थामे हुए मुडक़र हरबंस की तरफ़ देखता रहा। वह शायद बहुत उत्साह के साथ उसे कोई बात सुनाने आया था जो उन लोगों के झगड़े में उसके मन में ही रह गयी थी।

“मैं इस ज़िन्दगी से तंग आ गया हूँ।” हरबंस ने नीलिमा के जाने के बाद कहा और सिर पर हाथ रख लिया। काफ़ी देर वह उसी तरह बैठा रहा। फिर वह उठकर साथ के कमरे में चला गया। वहाँ से नीलिमा के साथ उसके बात करने की आवाज़ सुनायी देने लगी, “सूदन रात को यहीं रहेगा। हम लोग देर तक बातें करेंगे। तुम खाना खाकर सो जाना।”

“ठीक है।”

“बाँके से कह देना, उसके लिए पाजामा और कुरता निकालकर रख दे।”

“कह दूँगी।”

“खाना हम लोग कब तक खाएँगे?”

“जब मन हो खा लेना। मैं उधर कह आयी हूँ कि मैं उधर खाऊँगी।”

“तुम उधर नहीं खाओगी, यहाँ हमारे साथ ही खाओगी।”

“मैं उधर ही खाऊँगी। मैं उनसे कह आयी हूँ। कई और लोग वहाँ खाने के लिए रुके हुए हैं। मेरी तो वह बहन लगती है।”

“लगती होगी, मगर मैं भी तो तुम्हारा कुछ लगता हूँ।”

“मैं कब कहती हूँ कि नहीं लगते! मगर इसका यह मतलब नहीं है कि दूसरे लोग मेरे कुछ नहीं लगते।”

“तो तुम्हारा यही फ़ैसला है कि तुम ज़रूर जाओगी?”

“इसमें भी कोई कहने की बात है?”

“और अगर मैं कहूँ कि मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा?”

“तुम जानते हो तुम्हें यह कहने का कोई हक नहीं है। इस बात का फ़ैसला हम लोग लन्दन से करके आये थे।”

“क्या हम लोग यह फ़ैसला करके आये थे कि तुम मेरी कोई बात नहीं मानोगी?”

“जो बातें माननी चाहिए, वे मैं मानती हूँ।”

“तुम जानती हो कि घर में एक मेहमान आया हुआ है। क्या तुम्हें उसके साथ बैठकर खाना नहीं खाना चाहिए?”

“तुम जानते हो कि तुमने आज जान-बूझकर मेहमान को घर में बुलाया है क्योंकि आज मेरी बहन की लडक़ी का जन्मदिन है।”

“मैं नहीं जानता था कि तुम इस तरह मेरी इज़्ज़त ख़राब करोगी।”

“मैं भी नहीं जानती थी कि तुम जान-बूझकर इस तरह मुझे ख्वार करोगे। खाना मैं वहीं खाऊँगी।”

“तो तुम...अच्छा, ठीक है।” कहकर हरबंस उधर से चला आया। मैंने इस तरह अपने हाथ के उपन्यास का पन्ना पलट दिया जैसे उतनी देर में उपन्यास ही पढ़ रहा था।

“थोड़ी देर बाहर घूमने चलोगे?” हरबंस ने आकर पूछा।

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं?” मेरा मन हो रहा था कि किसी तरह मैं अपनी बात वापस ले लूँ और खाना खाने के बाद वहाँ से चला जाऊँ। मगर हरबंस के चेहरे को देखकर मेरा उससे यह बात भी कहने का हौसला नहीं हुआ।

जब हम लोग घूमकर वापस आये, तो नीलिमा वहाँ से जा चुकी थी। हम लोगों में बाहर भी कोई बात नहीं हुई थी और खाना खाते समय भी हम लोग ख़ामोश रहे। सडक़ पर टहलते हुए मुझे कुछ सरदी लग गयी थी जिससे मुझे छींकें आ रही थीं। खाना खाकर मैंने कपड़े बदले और कम्बल लपेटकर अपने लिए बिछाये गये पलँग पर बैठ गया। हरबंस ने अपना ड्रेसिंग गाउन पहनकर सिगरेट सुलगा ली और कहा, “मेरा ख़याल है यहीं बैठकर बातें करें।”

“हाँ, ठीक है।” मैं तकिये के सहारे पलँग पर सीधा लेट गया।

“बत्ती बुझा दूँ?” उसने पूछा।

“हाँ, बुझा दो।”

“अँधेरे में आदमी ज़्यादा अच्छी तरह बात कर सकता है।” उसने कहा और बत्ती बुझा दी। वह भी पलँग पर आ बैठा। अँधेरे में हमारे सिगरेटों के नन्हे-नन्हे जलते हुए सिरे ही उजाला देने के लिए रह गये।

“मैंने तुम्हें कहाँ तक बताया था?” उसने पूछा।

“कि तुम नीलिमा को बोट ट्रेन पर चढ़ाकर वापस घर पहुँच गये।”

“हाँ...!” उसने एक उसाँस भरी। कमरे का ठंडा अँधेरा एक बोझ से लदने लगा। मेरा मन फिर एक अपरिचित देश के अपरिचित अतीत की धुँधली-सी कल्पना में लौटने लगा। नीलिमा को लन्दन से गये बीस की जगह चौबीस दिन हो चुके थे, मगर वह अभी लौटकर नहीं आयी थी। इस बीच उसके कुल दो ही पत्र आये थे जबकि वह हाई कमीशन से ट्रुप की स्थिति के विषय में पूछ-पूछकर उसे छ:-सात पत्र लिख चुका था। नीलिमा के दूसरे पत्र का स्वर बहुत उखड़ा-उखड़ा और रूखा-सा था। हरबंस बहुत उत्सुकता से उसके आने की, या कम से कम उसके तीसरे पत्र के मिलने की प्रतीक्षा कर रहा था। उसका मन न जाने क्यों हर समय एक अज्ञात आशंका से घिरा रहता था। उसका अपने थीसिस के काम में भी मन नहीं लगता था।

पच्चीसवें दिन उसे हाई कमीशन के कार्यालय से पता चला कि उमादत्त का ट्रुप उस दिन वापस पहुँच रहा है। उसने उस दिन वापस काफ़ी देर घर पर प्रतीक्षा की, फिर हाई कमीशन के कार्यालय में चला गया। ट्रुप लौट आया था। जिन लोगों ने उनके ट्रिप का आयोजन किया था, उनसे उन्हें पैसे नहीं मिले थे इसलिए उमादत्त बहुत परेशान था। हाई कमीशन के कार्यालय में पहुँचकर उसने अपने कलाकारों और साज़िन्दों को कुछ पैसे देने की व्यवस्था की थी। वहाँ हरबंस को पता चला कि नीलिमा उन लोगों के साथ लौटकर नहीं आयी। नीलिमा, एक तबला बजानेवाला सरदार और एक बर्मी कलाकार—ये तीन व्यक्ति पीछे पैरिस में ही रह गये थे। उमादत्त ने अपनी परेशानी में उससे इतना ही कहा कि नीलिमा उनके साथ स्टेशन तक आयी थी, मगर न जाने क्यों वहाँ से लौट गयी। हरबंस सहसा बहुत चिन्तित और परेशान हो उठा। इस बात से उसकी परेशानी और भी बढ़ गयी थी कि नीलिमा को वहाँ पैसे नहीं मिले। यह बहुत टूटा-सा घर लौट आया। मकान-मालकिन से वह कहकर गया था कि नीलिमा उस दिन लौटकर आ रही है। वह वापस पहुँचा, तो मकान-मालकिन अपने बरामदे में खड़ी थी। उसने हरबंस को देखते ही पूछा कि क्या उसकी पत्नी लौटकर नहीं आयी।

“उसे कुछ काम से पैरिस में रुक जाना पड़ा है।” हरबंस ने कहा, “वह वहाँ से कल रात की गाड़ी से आएगी।”

“सच-सच बताओ, वह कहीं तुम्हें छोडक़र तो नहीं चली गयी?” मकान-मालकिन ने हँसकर कहा, “तुम तो उसके बिना बिल्कुल बच्चों की तरह उदास रहते हो।”

“वह कल आ जाएगी।” उसने बात से बचने के लिए कहा और ऊपर चला गया। मगर उसका मन बहुत बेचैन था। उससे न कुछ पढ़ा गया, न बैठा गया, न सोया गया। वह थोड़ी ही देर में फिर घर से निकल पड़ा। बहुत दिनों से वह ममी के यहाँ नहीं गया था। नीलिमा को मिसेज़ चावला और उनकी लडक़ी अच्छी नहीं लगती थीं। इसलिए उसके आने के बाद से उसका भी उनके यहाँ आना-जाना कम हो गया था। हरबंस ने मिसेज़ चावला को फ़ोन किया, तो वे घर पर ही थीं। वह उनके यहाँ चला गया। ए.बी.सी. ने उस दिन नया पुडिंग बनाया था। वह लडक़ी अब पहले से काफ़ी ठीक हो गयी थी और साधारण व्यक्तियों की तरह व्यवहार करने लगी थी। हरबंस देर तक उन लोगों के पास बैठा रहा और उनसे बातें करता रहा। ए.बी.सी. की आँखों का भाव भी पहले से काफ़ी बदल गया था। मिसेज़ चावला ने बताया कि लगातार तीन महीने से उसका चीखना-चिल्लाना बिल्कुल बन्द है। बाला उस दिन उसके साथ बहुत आत्मीयता के साथ बातें करती रही। उस लडक़ी की बातों में इतनी मासूमियत थी कि उसका मन हुआ कि वह सारी रात वहीं बैठा रहे और उस लडक़ी से बातें करता रहे। बाला उससे नीलिमा के बारे में तरह-तरह के सवाल पूछती रही। जब उसे पता चला कि नीलिमा को उस दिन आना था और वह नहीं आयी, तो उसने सहसा चौंककर कहा, “क्यों? वह आयी क्यों नहीं?”

“यह मैं कैसे बता सकता हूँ?” हरबंस बोला, “वह जब आएगी, तो उसी से पता चलेगा।”

“वह कब आ रही है?”

“कल रात की गाड़ी से।”

“तुम उसे स्टेशन पर लेने जाओगे?”

उसने सिर हिला दिया। बाला कुछ देर चुप रही। फिर बोली, “बड़ी अजीब बात है!”

“क्या?” वह कुछ चौंक गया।

“कि वह अकेली पीछे रह गयी है और उसने तुम्हें पत्र भी नहीं लिखा।”

“कल पता चल जाएगा।” वह अनमने ढंग से बोला। इस बात से उसका मन इतना उखड़ गया कि वह फिर और उनके यहाँ नहीं बैठ सका और बहुत आकस्मिक ढंग से उनसे विदा लेकर चला आया।

“तुम्हें ठंड तो नहीं लग रही है?” हरबंस ने बीच में रुककर मुझसे पूछा। शायद इसलिए कि मुझे फिर बीच में दो-एक बार छींकें आ गयी थीं। मुझे अपने शरीर में कुछ हरारत भी महसूस हो रही थी। सिर में कुछ भारीपन और बाँहों में शिथिलता भर रही थी।

“नहीं, ऐसी ठंड नहीं लग रही।” मैंने कहा, “आते हुए रास्ते में कुछ हवा लग गयी थी, शायद उसी का असर है। मुझे नज़ला-बुख़ार बहुत जल्दी हो जाता है।”

“तुम्हें कुछ एस्परीन व$गैरह दूँ?”

“नहीं, ऐसी ख़ास ज़रूरत नहीं है। तुम बात करते रहो।”

“तुम लेट जाओ और तकिये पर सिर रख लो।”

“मैं ठीक हूँ, तुम बात करते रहो।”

मैंने कम्बल और ठीक से ओढ़ लिया और सिर तकिये पर रख लिया। हरबंस ने अपने पैर समेट लिये और सिगरेट की राख झाड़ दी।

“तो अगले दिन तुम उसे लेने स्टेशन पर गये होगे।” मैंने कहा।

सिगरेट का सिरा अँधेरे में चमका और मन्द पड़ गया। “हाँ, मैं गाड़ी के आने से काफ़ी देर पहले ही वहाँ पहुँच गया था,” उसने कहा।

“तो...” अँधेरे में मेरी आँखों के सामने एक स्टेशन की पटरियाँ बिछ गयीं। मेरी रीढ़ की हड्डी भी दर्द कर रही थी। मैंने एक हाथ पीठ के नीचे रख लिया।

एन.डी. 32 से उठी हुई हँसी की आवाज़ सडक़ पर से होती हुई एन.डी. 31 अहाते में आ गयी। “नहीं, नहीं, यह कभी नहीं हो सकता। तुम्हारा ख़याल है कि मैं इतनी ही बेवकूफ़ हूँ? तुम चाहे मुझसे लिखाकर ले लो।” नीलिमा किसी से कह रही थी, “चाहो तो मुझसे शर्त लगा लो। मैं बड़ी से बड़ी शर्त लगाने को तैयार हूँ।”

“नहीं दीदी, शर्त लगाने की क्या ज़रूरत है! यह शुक्ला की आवाज़ थी। “आपको अपने आप पता चल जाएगा, अच्छा बाई-बाई!”

“बाई-बाई!” और नीलिमा बरामदे से कमरे में आती हुई ठिठक गयी। “अरे, तुम लोग सो गये क्या?” उसने कहा। हरबंस ने उठकर कमरे की बत्ती जला दी। बत्ती के जलते ही दृश्य-पट फिर एकदम बदल गया। पश्चिमी बर्लिन की सीमा पर खड़ा ट्रक और उसके आसपास खड़े लोगों की जगह सामने आ गयीं किताबों से भरी हुई बड़ी-बड़ी अलमारियाँ, खाने की मेज़, पलँग, तिपाई, उस पर रखी हुई हँसते हुए पिशाच-जैसी एश-ट्रे और दरवाज़े के पास खड़ी नीलिमा, जो इस समय काफ़ी ख़ुश लग रही थी। हरबंस की पीठ मेरी तरफ़ थी और अपने नाइट-गाउन में वह काफ़ी लम्बा लग रहा था। मैं कुछ इस तरह की अनुभूति के साथ जैसे कि अभी आधा ही खाने पर मेरी प्लेट मेरे सामने से उठा ली गयी हो, पलँग पर सीधा बैठ गया। बात वहाँ टूटी थी जहाँ आगे की बात जानने की उत्सुकता मेरे मन में बहुत बढ़ गयी थी। मैं हरबंस की बात सुनते हुए अपनी भारी आँखों और दर्द करती हुई रीढ़ की हड्डी की बात भी भुला रहा था। मैं सोच रहा था कि एक बार बात का सूत्र टूट जाने पर फिर उसे जोडऩे का अवसर क्या आ सकेगा? उस दिन की मन:स्थिति और अँधेरे के वातावरण ने जिस आत्मीयता, निर्भरता और विश्वास को जन्म दिया था, उसे फिर से लाने के लिए वही मन:स्थिति फिर चाहिए थी। वह वातावरण तो बहुत बार प्राप्त हो सकता था—वही अँधेरा, वही एकान्त और वही अन्दर का कमरा—परन्तु वही मन:स्थिति क्या फिर लौटकर आ सकती थी?

“तुम लोग अभी बातें ही कर रहे थे?” नीलिमा अपनी उँगलियों को उलझाकर बाँहों की माला-सी बनाये हम दोनों के बीच आकर खड़ी हो गयी, “मैंने सोचा था कि तुम लोग अब तक सो गये होगे और न जाने कहाँ के सपने देख रहे होगे। मगर जर्नलिस्ट लोग तो शायद सपने नहीं देखते। क्यों जर्नलिस्ट?”

मैं उससे कैसे कहता कि मैं अभी-अभी एक सपना ही देख रहा था जिसमें मैं कई अपरिचित देशों में घूमा हूँ, कई अपरिचित व्यक्तियों से मिला हूँ और कि उसे सामने देखते हुए भी मेरे मन में अब तक यह जिज्ञासा बनी हुई है कि वह पश्चिमी बर्लिन से हरबंस के साथ चली आयी थी या वहीं रह गयी थी।

“हम लोग गुज़रे हुए दिनों की बातें कर रहे थे।” मैंने कहा, “बरसों के बाद इस तरह बैठने और बातें करने का अवसर मिला है, इसलिए सोने और सपने देखने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई। और वैसे तुम्हारी बात भी ठीक है। जर्नलिस्ट लोग सपने नहीं देखते। कम से कम नींद में तो सपने वे बहुत ही कम देखते हैं, खुली आँखों से चाहे जो सपने देखते रहें।”

“तुममें से कौन गुज़रे हुए दिनों की बातें कर रहा था?” नीलिमा बोली, “यह या तुम?”

“मैं गुज़रे हुए दिनों की बात कर रहा था।” हरबंस ने झुँझलाकर कहा, “तुम्हें इससे कुछ एतराज़ है?”

“तुम मेरे पीछे मेरी निन्दा करो, लोगों से झूठी-सच्ची बातें बनाकर कहो, तो मुझे एतराज़ नहीं होगा?” नीलिमा ने इस तरह कहा जैसे उसे दुनिया में किसी की भी परवाह न हो। फिर ज़रा-सा लडख़ड़ाकर वह मेरे नज़दीक आ गयी और बोली, “तो मेरा पति आज तुम्हें यह बताता रहा है कि मैं कितनी बुरी हूँ! और इस बेचारे को मेरी वजह से कितना परेशान होना पड़ा है! च् च् च् च्।”

“तुम आज फिर पीकर आयी हो?” हरबंस की आँखें गुस्से से लाल हो गयीं, “तुम्हें शरम तो नहीं आती होगी!”

“मैं पीकर आयी हूँ तो, और नहीं पीकर आयी तो उसमें तुम्हारा क्या आता-जाता है?” नीलिमा लापरवाही से सिर उठाकर बोली, “मेरी बहन की लडक़ी का जन्म-दिन था। मैं उसकी मेहमान थी। उसने जो कुछ खिलाया वह मैंने खा लिया। जो कुछ पीने को दिया, वह मैंने पी लिया। इसमें शरम की कौन-सी बात है? मगर तुम सब कह सकते हो। तुम एक मुंसिफ़ हो और मैं एक मुजरिम हूँ, जिसे तुम हर वक़्त अपने सामने कठघरे में खड़ी रखते हो। मगर देखो, मुझे तुम्हारा यह बात करने का तरीका पसन्द नहीं है? तुम्हें मेरे साथ इस तरह बात करने का कोई हक नहीं है।”

मुझे डर लगा कि कहीं हरबंस उस समय गुस्से में कोई और हरकत न कर बैठे। मगर उसने किसी तरह अपने पर वश किये हुए इतना ही कहा, “देखो, मैं कह रहा हूँ कि तुम इस वक़्त जाकर कपड़े बदल लो और सो जाओ।”

“मुझे नींद आएगी तो मैं जाकर सो जाऊँगी।” नीलिमा कुरसी पर बैठती हुई बोली, “और सोऊँगी, तो कपड़े बदलकर ही सोऊँगी, ऐसे थोड़े ही सो जाऊँगी, मुझे इतनी सभ्यता तो आती है।” और वह कुरसी से टेक लगाकर आँखें मूँदे हुए एक बार हँस दी।

“तुम्हें पता है कि तुम इस समय जो कुछ भी कर रही हो, वह सभ्यता नहीं है।” हरबंस खीझ, बेबसी और हताशा के साथ बोला।

“और तुम इस समय जो कुछ कर रहे हो, वह सभ्यता है!” वह फिर हँसी, “मेरे पीछे जो बातें करते रहे हो, वह सभ्यता है! सभ्यता का व्यवहार हममें से किसे आता है? वह जर्नलिस्ट जो व्यवहार करता है, वह सब सभ्यता का व्यवहार होता है? इससे पूछो, एक बार मैंने इसे शाम को घर पर बुलाया था, तो इसने उसके बाद नौ साल तक शक्ल क्यों नहीं दिखायी?”

“तुम इस वक़्त अपनी ज़बान बन्द रखो और दूसरे कमरे में जाकर सो जाओ।” हरबंस ने उसके पास जाकर उसे कन्धों से पकडक़र कुरसी से उठा दिया।

“मेरी ज़बान बन्द है।” वह ज़बान थोड़ी-सी निकालकर फिर उसे होंठों से काटकर बन्द करती हुई बोली, “और मैं यहाँ से जा रही हूँ।” कहती हुई वह दरवाज़े के पास चली गयी, “तुम यहाँ बैठकर मेरे बारे में चाहे जो बातें लोगों से करो, वह सब सभ्यता है! मगर मैं तुमसे कह रही हूँ कि मुझे ऐसी सभ्यता अच्छी नहीं लगती। ये सभ्य बने फिरते हैं! अच्छा,जर्नलिस्ट...” और मेरी तरफ़ हाथ हिलाकर वह अपने बेड-रूम में चली गयी।

“तुम देख रहे हो?” हरबंस ने बहुत हताश स्वर में कहा और निढाल-सा कुरसी पर बैठ गया। कुछ देर हम दोनों चुप बैठे रहे। फिर अचानक ही वह उठ खड़ा हुआ और बोला, “मेरा ख़याल है कि तुम भी अब सो जाओ। मैं बत्ती बुझा देता हूँ।”

“अच्छी बात है।” मैंने कहा, “मेरा भी ख़याल है कि अब सो ही जाना चाहिए! मुझे आँखों में कुछ भारीपन भी महसूस हो रहा है।”

“तुम्हें किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं?” उसने बिजली के बटन पर हाथ रखे हुए पूछा।

“नहीं।”

“ज़रूरत हो, तो बता देना। पानी का जग बाहर बरामदे में रखा है और गुसलखाना उस तरफ़ है।” और बत्ती बुझाकर वह चला गया। मैंने सोचा था कि साथ के कमरे में अब फिर नीलिमा से उसकी कुछ झड़प होगी, मगर उसके जाने के बाद वहाँ कोई बात नहीं हुई, खामोशी छायी रही। मेरी रीढ़ की हड्डी बुरी तरह दर्द कर रही थी। मैं कुछ देर करवटें बदलता रहा। फिर सो गया।

सुबह उठने पर जब यह पता चला कि हम अपने घर में नहीं, किसी और घर में हैं, तो मन कुछ उखड़ा-उखड़ा-सा हो जाता है। मन अपने घर की असुविधाओं का भी इतना अभ्यस्त हो जाता है कि सुबह-सुबह वह उन्हीं की माँग करता है। दूसरे के घर की सुविधाएँ भी अस्वाभाविक और बेगानी लगती हैं और उनसे एक तरह की असुविधा ही होती है। सुबह मेरी आँख खुलते ही बाँके आकर चाय की प्याली सागवान की चमकती हुई तिपाई पर रख गया, तो मुझे इस बेगानेपन की अनुभूति ने घेर लिया कि मेरे आसपास का वातावरण मेरा अपना नहीं है। उसमें तो उठते ही यह खीझ मन में जागनी चाहिए थी कि यह कैसी ज़िन्दगी है कि सुबह-सुबह इन्सान को बिस्तर में चाय की एक प्याली तक नहीं मिल सकती। चारपाई, मेज़ और मोढ़ों से लदे हुए अपने कमरे की जगह, जिसके बारे में एक बार मेरे एक मित्र ने कहा था कि वह एक जहाज़ के केबिन की तरह लगता है, मैं अपेक्षाकृत एक काफ़ी खुले कमरे में था जहाँ मेरी बिखरी हुई पुस्तकों की जगह सामने अलमारी में बहुत तरतीब से रखी हुई पुस्तकें नज़र आ रही थीं। मेरे कमरे में सुबह-सुबह नीचे से सोडावाटर कम्पनी के ट्रकों के गुर्राने की आवाज़ें आने लगती थीं। स्टार्ट के बाद गियर बदलने से उनके इंजन घर के नीचे आकर इस तरह आवाज़ करते थे कि मुझे लगता था जैसे वे ट्रक मेरे ऊपर से ही गुज़रकर जा रहे हों। उन आवाज़ों की जगह उस समय साथ के कमरे से तबले के साथ घुँघरुओं के छनकने की आवाज़ आ रही थी। मैंने चाय की प्याली उठाकर मुँह से लगायी, तो मुझे अहसास हुआ कि मैं काफ़ी दिन चढ़े तक सोता रहा हूँ। खिडक़ी के परदे से छनकर आती हुई धूप डाइनिंग-टेबल पर पड़ रही थी। वहाँ रखी जूठी प्लेटों और प्यालियों से लग रहा था कि सुबह का नाश्ता किया जा चुका है।

बाँके ने मेरे जागने की ख़बर साथ के कमरे में दे दी, तो वहाँ घुँघरुओं का छनकना बन्द हो गया। कुछ देर एक अपरिचित व्यक्ति के साथ नीलिमा के बात करने की आवाज़ सुनायी देती रही, फिर वह व्यक्ति भी चला गया। वह शायद उसका तबलची था। उसके जाने के बाद नीलिमा घुँघरू बाँधे हुए मेरेवाले कमरे में आ गयी।

“तो तुम जाग गये!” उसने मेरे पासवाली कुरसी पर बैठते हुए कहा।

“हाँ, जाग गया।”

“रात को नींद ठीक से आ गयी थी?”

“नहीं, ठीक से नहीं आयी। रात-भर मेरी रीढ़ की हड्डी दर्द करती रही है।”

“हरबंस ने तो कहा था कि तुम्हें जगा दिया जाए, मगर मैंने कहा कि रहने दो, जब अपने-आप तुम्हारी नींद खुलेगी, तभी चाय दे देंगे।”

“हरबंस चला गया?” मुझे कुछ शरम आ रही थी कि मैं इतनी देर क्यों सोया रहा कि हरबंस उस बीच तैयार होकर अपने दफ़्तर भी चला गया।

“उसे गये डेढ़ घंटा हो गया है।” नीलिमा अपने घुँघरुओं को खोलकर अलग रखने लगी, “उसे दस बजे दफ़्तर पहुँचना होता है, इसलिए वह नौ बजे ही घर से चला जाता है। अरुण भी अपने नर्सरी स्कूल में चला गया है।”

मुझे ठीक पता नहीं था कि हरबंस किस कार्यालय में काम करता है; इतना ही पता था कि वह जिस कार्यालय में है उसका सम्बन्ध गुप्त रिकाड्र्स से है। उसने बताया था कि वह वहाँ एक अस्थायी पद पर काम कर रहा है और उसे डर है कि थोड़े दिनों तक वह जगह उड़ा न दी जाए। उसका काम शायद ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के सम्बन्ध में परामर्श देने का था।

“मुझे जल्दी उठ जाना चाहिए था।” मैंने नीलिमा से कहा, “आज सुबह-सुबह मुझे एक जगह जाकर कुछ सूचना प्राप्त करनी थी। साढ़े दस बजे तक मुझे दफ़्तर में बैठकर रिपोर्ट लिख लेनी चाहिए थी।” और यह कहते-कहते रीढ़ की हड्डी ने फिर मुझे अपनी याद दिला दी।

“साढ़े दस बजे तक?” नीलिमा हँसी, “और इस समय कुल साढ़े दस ही बजे हैं।”

“रीढ़ में दर्द था और थकान की वजह से बुख़ार-सा भी लग रहा था, इसलिए मैं इतनी देर सोया रह गया।” मैंने कहा, “मेरा ख़याल है कि मुझे दफ़्तर से आज छुट्टी ले ही लेनी चाहिए। मेरे सम्पादक को पहले ही मुझसे शिकायत रहती है।”

“तो मैं अभी तुम्हारे दफ़्तर में फोन कर देती हूँ।” नीलिमा बोली, “या कहो, तो मैं बाँके के हाथ अरज़ी भिजवा दूँ। मगर तबीयत ठीक नहीं है तो तुम्हें आराम करने के लिए छुट्टी ले ही लेनी चाहिए, नहीं तो कहोगे कि इनके घर पर एक रात सोया और तभी बीमार पडक़र गया।”

मैंने चुपचाप उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। बिस्तर से उठने और नहा-धोकर तुरन्त तैयार हो जाने की हिम्मत उस समय मुझमें नहीं थी।

“तो मैं फ़ोन कर दूँ?” नीलिमा ने पूछा।

“हाँ, कर दो।” मैंने कहा, “कह देना कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए आज मैं दफ़्तर नहीं आ सकूँगा।”

“तो ठीक है।” वह झटके के साथ उठती हुई बोली, “तुम आराम से पड़े रहो। मैं तुम्हें अभी एक टिकिया भी दे देती हूँ। एक छोटी-मोटी डिस्पेंसरी मैं घर में ही रखती हूँ। अगर तुम कुछ ठीक हो जाओगे, तो दोपहर को हम ओखला की तरफ़ घूमने चलेंगे।...तुम कभी ओखला गये हो?”

मैंने सिर हिला दिया, “नहीं, अभी तक नहीं गया। सुना है अच्छी जगह है।”

“हाँ, बहुत अच्छी जगह है।” वह चलती हुई बोली, “मैं तुम्हें अभी टिकिया देती हूँ। तुम्हारे भाग्य में मेरे हाथ से दवाई की टिकिया खाना ही लिखा है।” जाते-जाते वह रुकी और बोली, “मैं हरबंस को फ़ोन कर दूँगी कि तुम आज यहीं हो, इसलिए अगर हो सके, तो वह दोपहर का खाना घर आकर ही खाये।”

इस बार दिल्ली में आकर मेरे लिए ऐसे दिन बहुत कम आये थे जब मैंने पूरा दिन कुछ न किया हो, खाली खाया हो, बातें की हों और घूम लिया हो। वह दिन मेरे लिए एक ऐसा ही दिन था, हालाँकि मैं यह भी कह सकता हूँ कि मेरे जीवन में बहुत कम ऐसे दिन आये हैं जो उस दिन की तरह भरे हुए रहे हों। मैंने दिन-भर कुछ नहीं किया, मगर कुछ न करते हुए भी मैंने उस दिन इतना कुछ देखा, इतना कुछ जाना कि कई बार दिनों, महीनों, बल्कि बरसों में भी उतना नहीं जान पाया। कुछ दिन होते हैं जो घटनाओं और कार्यों से लदे रहते हैं, परन्तु कुल मिलाकर उनका महत्त्व हमारे लिए शून्य के बराबर होता है—विश्व रंगमंच के वही दाँवपेंच, वही अख़बार की सुर्खियाँ, वही मुलाक़ातें और वही पार्टियाँ। कहने को हमें दम मारने की फुरसत नहीं होती, मगर वास्तव में हम पूरे दिन में दम-भर भी जिये नहीं होते, केवल पहले से एक दिन और बीत चुके होते हैं; उसी धुरी के इर्द-गिर्द एक बार और घूम लेते हैं। परन्तु एक अपने में निरर्थक और घटनाहीन दिन भी ऐसा हो सकता है जिसके छोटे से विस्तार में जीवन का इतना कुछ सिमट आये कि मन से उसे समेटते न बने। जीवन के अनेकानेक दिन अपना सारा संचय जैसे उस एक दिन में ला भरते हैं। और सब दिन जैसे प्रयत्न होते हैं, और वह एक दिन परिणाम। इस तरह देखूँ, तो मैं कह सकता हूँ कि उस दिन का आरम्भ पिछली रात उस समय से हो चुका था जब हरबंस टेबल लैम्प बुझाकर मुझे लन्दन के दिनों की बातें सुनाने लगा था। उन बातों के प्रभाव को मैं अभी मन में समेट नहीं पाया था कि और और प्रभाव मन को घेरने लगे। शाम होने तक मैं अनुभव के इतने स्तरों में से गुज़र आया कि मेरे लिए अपने मन को सँभाले रखना कठिन हो गया। पिछली रात जब मैं दफ़्तर की वैन में डिफेंस कॉलोनी की तरफ़ चला था, तो मैंने क्या यह सोचा था कि उन चौबीस घंटों में मुझे पूरे एक जीवन के-से विस्तार की कई-कई विडम्बनाओं में झाँककर देखने का अवसर मिलेगा? और क्या केवल झाँककर देखने का ही?

मैं अभी बिस्तर में ही था और नीलिमा की बनाकर दी हुई कोको की प्याली पी रहा था जब शुक्ला नीलिमा को पुकारती हुई पीछे के दरवाज़े से वहाँ आ गयी। नीलिमा उस समय नहाकर निकली थी और अपने गीले बालों को तौलिये से छटक रही थी। शुक्ला सीधे मेरे कमरे में आ गयी और मुझे देखकर सहसा ठिठक गयी, “अरे आप?” उसने कहा और शिष्टाचार का एकाध प्रश्न पूछकर तुरन्त ही लौटने को हुई, परन्तु तब तक नीलिमा अपने बाल कन्धों पर फैलाये हुए कमरे में आ गयी जिससे उसे रुक जाना पड़ा। “तुम सूदन को पहचानती हो?” नीलिमा ने उससे पूछा।

“पहचानती क्यों नहीं?” शुक्ला कुछ व्यस्त भाव से बोली, “भापाजी के लन्दन जाने से पहले ये बहुत आया करते थे। मगर बाद में तो ये एकदम गायब ही हो गये थे।”

“यह आजकल यहाँ ‘न्यू हैरल्ड’ में काम कर रहा है।”

“मुझे मालूम है।” शुक्ला ने कहा, “आपने भी बताया था और सुरजीत भी एक दिन कह रहा था।” और फिर मेरी तरफ़ मुडक़र बोली, “उन दिनों तो आपकी कविताएँ बहुत निकला करती थीं। आजकल तो शायद आपने लिखना-लिखाना बिल्कुल छोड़ दिया है।”

“आजकल मैं राजनीतिज्ञों के इंटरव्यू और सम्मेलनों की रिपोर्टें लिखता हूँ।”

“यही हाल हरबंस भापाजी का है।” वह बोली, “उन्हें भी आजकल दफ़्तर के काम के सिवा और किसी काम के लिए समय नहीं मिलता। कई सालों से उनकी फ़ाइलें जैसी की तैसी रखी हैं। अब वे कभी कुछ लिख ही नहीं पाते।”

उसके मुँह से हरबंस की फ़ाइलों की बात सुनकर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। तो उसे यह विश्वास था कि हरबंस कुछ लिख भी सकता है!

“काम-धन्धे में पडक़र ऐसा हो ही जाता है।” मैंने कहा, “आदमी नमक की खान में नमक होकर रह जाता है।”

“मेरा मन होता है कि मुझे लिखना आ जाए, तो मैं भी एक कहानी लिखूँ।” शुक्ला पढऩे की मेज़ पर रखे हुए कागज़ों को हाथ से सहलाती हुई बोली। उसका शरीर पहले से कुछ भर गया था और अब वह अच्छी-खासी गृहस्थिन नज़र आती थी। उसके चेहरे और आँखों का आकर्षण भी अब पहले जैसा न होकर कुछ और तरह का हो गया था। उसमें एक तरह का पिघलाव आ गया था, जिससे चेहरे की रेखाएँ उतनी तीखी नहीं रही थीं। परन्तु उस पिघलाव ने उसके चेहरे को जो नया रूप दे दिया था, उसमें ज़्यादा कोमलता और आत्मीयता प्रतीत होती थी। उस आकर्षण में पहले जो एक विद्युत्-सी थी, वह अब एक उष्णता में बदल गयी थी। “मैंने कहीं पढ़ा था कि हर इन्सान कम से कम एक कहानी तो लिख ही सकता है।” उसने कहा, “नहीं? अपने जीवन की घटनाओं को ही आदमी सिलसिलेवार लिख दे, तो एक कहानी बन सकती है। नहीं?”

“मैं तो अब कविता-कहानियों की दुनिया से बहुत दूर निकल आया हूँ।” मैंने कहा। मेरे लिए उसके साथ इतना खुलकर और इतना नज़दीक से बात करना एक नया अनुभव ही था। पुराने दिनों में उसने कभी मुझसे ‘अच्छा जी’ और ‘कहिए जी’ से ज़्यादा बात नहीं की थी।”

“मैं कौन लिखने जा रही हूँ!” वह बोली, “मैं भी ऐसे बात ही कर रही थी।” और फिर सहसा बात को बदलते हुए उसने कहा, “दीदी, कोई काम हो तो बता दो, नहीं तो मैं जाऊँ। घर में भी बहुत-सा काम पड़ा छोड़ आयी हूँ।”

“काम तुम अपने आप ही देख लो।” नीलिमा बोली, “पहले हर रोज़ मुझसे पूछकर करती थी?” और एक हल्की रूखी-सी हँसी के साथ उसने मुझसे कहा, “इसके हरबंस भापाजी मुझ पर खीझते रहते थे कि मैं उनकी कमीज़ों के बटन वक़्त पर लगाकर नहीं रखती, यह नहीं करती, वह नहीं करती। इसलिए उनके ये सब छोटे-मोटे काम अब इसने अपने ऊपर ले रखे हैं और उनकी $गैरहाज़िरी में आकर चुपचाप सब कर जाती है। इसके हरबंस भापाजी को किसी तरह की तकलीफ़ हो और वे खीझते रहें, यह इसे बरदाश्त नहीं। मैं कहती हूँ कि अगर कमीज़ का बटन टूटा हो, तो आदमी सूई-धागा लेकर खुद भी लगा सकता है।”

“उन्हें जैसे और तो कोई काम ही नहीं है!” शुक्ला के हाथ उसके शाल में सिमट गये, “वे बेचारे दिन-भर दफ़्तर में सिर खपाते रहें और घर आकर अपने बटन भी खुद ही लगायें। आपसे नहीं होता, तो आप इसे बहाना तो न बनाइए। लाइए, अगर कुछ है करने को, तो मैं कर दूँ और फिर जाऊँ।” तभी उसकी नज़र मेरे पलँग के नीचे रखी चप्पल पर पड़ी, तो वह कुछ चौंक गयी। “दीदी, यह चप्पल...?” उसने कहा।

नीलिमा फिर हँस दी, “क्यों, क्या यह चप्पल हरबंस भापाजी के अलावा और कोई नहीं पहन सकता? घर में आया हुआ मेहमान भी नहीं?” और मेरे चेहरे पर खिसियानेपन की रेखाएँ देखकर वह बोली, “बात असल में यह है कि यह चप्पल और एक टाई यह हरबंस के पिछले जन्मदिन पर ख़रीदकर लायी थी, हालाँकि हरबंस को आज तक इस बात का पता नहीं है। वह इसकी तरफ़ इतना रूखा हो गया है कि इससे बात करना भी पसन्द नहीं करता। उसके सामने यह ग़लती से घर में क़दम भी रख जाए तो बोल-बोलकर मेरे लिए जीना मुश्किल कर देता है। और दूसरी तरफ़ यह लडक़ी है जो उसकी छोटी से छोटी तकलीफ़ भी बरदाश्त नहीं कर सकती और उसका काम करने के लिए पागल हुई रहती है। इसने हरबंस की चप्पल टूटी हुई देखी थी, तो यह चप्पल ख़रीद लायी थी। तब से इस चप्पल को झाड़-पोंछकर साफ़ रखने का काम भी यह खुद ही करती है। इसे भला यह कैसे बरदाश्त हो सकता है कि यह चप्पल किसी और के पैरों को छुए?”

“दीदी!” शुक्ला कुछ नाराज़गी के साथ वहाँ से चल दी, “मैं इस वक़्त तो अपने घर जा रही हूँ। फिर किसी वक़्त इधर आऊँगी।”

“लेकिन हरबंस के कुरते तो देख जाती। शाम को कोई ठीक कुरता नहीं मिला, तो वह मेरी जान खाएगा। परसों जो कुरते तुमने ठीक किये थे, उनमें से एक उसने खुद पहन लिया था और दूसरा सूदन ने पहन रखा है।”

“कुरते मैं माई को भेजकर मँगवा लूँगी।” शुक्ला कमरे से निकलकर अहाते में उतरती हुई बोली, “और कोई चीज़ भेजनी हो, तो वह भी उसके हाथ भेज देना। मुझे इस वक़्त घर में बहुत काम है।” और वह चली गयी।

“मुझे इस लडक़ी के दिमाग़ की कुछ समझ नहीं आती।” नीलिमा अपने गीले बालों को हाथों से सहलाती हुई बोली, “कई बार तो सचमुच मैं सोचती हूँ कि हरबंस का ब्याह मुझसे न होकर इस लडक़ी से ही होना चाहिए था।”

मैं काफ़ी देर से कोको की ख़ाली प्याली हाथ में पकड़े था। मैंने उसे रख दिया और उठते हुए कहा, “मेरा ख़याल है कि मैं अब तैयार हो जाऊँ।” टिकिया खाने और कोको पीने के बाद मैं अपने को काफ़ी स्वस्थ महसूस कर रहा था और मुझे अफ़सोस हो रहा था कि मैंने दफ़्तर से छुट्टी क्यों ले ली। शरीर की स्वस्थता ने शायद मन को थोड़ा अस्वस्थ बना दिया था।

“तुम्हारी तबीयत अब कैसी है?” नीलिमा ने पूछा।

“पहले से काफ़ी ठीक है।”

“तो ठीक है। तुम अब तैयार हो जाओ। मैं तब तक सेंडविच बना लेती हूँ। फिर हम ओखला चलेंगे। हरबंस से मैंने फ़ोन पर पूछा था, मगर उसने कहा है कि वह खाने के वक़्त घर नहीं आ सकेगा, शाम को ही आएगा। हम लोग उसके लौटने तक वापस पहुँच जाएँगे।”

ओखला के पुल से पानी में लचकती हुई छोटी-छोटी नावों को देखते हुए नीलिमा ने कहा, “मैं जब भी यहाँ आती हूँ, न जाने क्यों मुझे सेन के तट पर बितायी हुई शामें याद आने लगती हैं। कितना फ़र्क है इस दुनिया में और उस दुनिया में। फिर भी न जाने क्यों यहाँ आते ही वहाँ की याद हो आती है!”

“तुम यहाँ बहुत बार आती हो?” मैंने पूछा।

“नहीं, बहुत बार तो नहीं।” वह बोली, “मगर कभी मेरा मन घर में बैठे-बैठे ऊब जाता है, तो मैं यहाँ चली आती हूँ। यहाँ आकर लडक़े-लड़कियों को साथ-साथ घूमते और बातें करते देखती हूँ, तो मुझे भी अपने में कुछ ताज़गी का अनुभव होता है। घर बैठे-बैठे तो मेरा मन बुढिय़ाने लगता है। यहाँ आकर मुझे लगता है कि मैं अब भी युवा हूँ, ज़िन्दगी अभी बहुत बाक़ी है और मैं अभी न जाने कितना कुछ कर सकती हूँ। जब मेरे मन पर बोझ बहुत बढ़ जाता है, तो खुली हवा में साँस लेने के लिए मुझे इसी जगह की याद आती है।”

हम लोग काफ़ी देर वहाँ टहलते रहे। जनवरी की सफ़ेद धूप पानी की सतह पर चमक रही थी। हवा में एक हल्का-सा स्पर्श वसन्त का भी था। आसपास काफ़ी चहल-पहल थी—घास पर, बेंचों पर, वृक्षों के नीचे। दायीं ओर के पतले झुरमुटों की तरफ़ से भी कई लोग आ-जा रहे थे। बुरके में से आँखें बाहर निकालकर बहुत उत्सुकता से हर चीज़ पर नज़र डालती हुई दो लड़कियों को देखकर नीलिमा पल-भर के लिए ठिठक गयी और हँसकर बोली, “सचमुच, ज़िन्दगी कितनी अच्छी चीज़ है!”

उसकी इस बात ने उन लड़कियों को काफ़ी गुदगुदा दिया और वे कुछ देर मुड़-मुडक़र हम लोगों की तरफ़ देखती रहीं। पुल से नीचे आकर पुल को देखते हुए, पानी के विस्तार और उस पर नन्ही-नन्ही नावों को देखते हुए, और बायीं ओर ऊँचे उठे हुए मिट्टी के ढूहों को देखते हुए लगता था जैसे आकाश में कई-कई गहराइयाँ हों। आकाश में चीलें तैर रही थीं। पानी की सतह से ऊपर वे एक परदे पर तैरती हुई प्रतीत होती थीं। जब भी कोई चील आकाश से ढूहों की तरफ़ उतरती, तो मन की गहराई में कहीं कोई चीज़ सिहर जाती। नीले आकाश से मटियाले ढूहों पर चील का उतरना एक विश्व की सन्धि से उसके दूसरे विश्व में उतर आने की तरह लगता था। कोई-कोई चील ढूहों के ऊपर से बहुत दूर तक उड़ती चली जाती थी, आकाश की सभी गहराइयों को लाँघती हुई ऊपर से घूमकर जो चीलें पानी की सतह के बराबर उड़ती आती थीं, वे शीशे के बरतन में बन्द मछलियों जैसी लगती थीं...।

हमने वहाँ चाय की एक-एक प्याली पी। नीलिमा ने चाय के साथ सैंडविच नहीं निकाले। कहा कि सैंडविच लौटते हुए रास्ते में कहीं खाएँगे। “मैं तुमसे एक बात जानना भी चाहती हूँ।” उसने कहा, “मगर यहाँ लोगों के बीच बैठकर मैं यह बात नहीं करूँगी।”

लौटते हुए जब हम सडक़ पर काफ़ी दूर निकल आये, तो जामिया मिलिया से थोड़ा पहले एक जगह वह रुक गयी। वहाँ से ढूहीं की तरफ़ एक पगडंडी जा रही थी। उसके मोड़ पर दो पतले-पतले बाँस के टुकड़ों पर एक छोटा-सा नीला बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था—

ग्राम जोगा बाई को

सही राम मार्ग

“चलो, सही राम मार्ग से चलते हैं।” उसने हँसकर कहा, “देखें, यह मार्ग हमें कहाँ ले जाता है।”

मगर जल्दी ही वह उस मार्ग से भी हटकर एक ऊँचे ढूह पर चढ़ गयी। वहाँ एक तरफ़ चबूतरा-सा था, पुराना, टूटा हुआ, खुदाई में ज़मीन से निकले खँडहर जैसा। एक तरफ़ जामिया मिलिया की भव्य इमारत थी और दूसरी तरफ़ नीचे क़ब्रिस्तान की सलेटी क़ब्रें नज़र आ रही थीं।

“आओ कुछ देर यहीं चबूतरे पर बैठते हैं,” उसने कहा। मगर बैठने से पहले ही वह ठिठक गयी। वहाँ बिस्कुट के टुकड़ों और चिलगोज़े के छिलकों के अलावा एक और भी चिपचिपी-सी चीज़ पड़ी थी। मैंने चबूतरे को साफ़ करने के लिए रूमाल निकाला, तो उसने कहा, “नहीं, यहाँ नहीं, चलो उधर कहीं और चलकर बैठते हैं। ओखला की सैरगाह आजकल ऐसे ही लोगों की वजह से बदनाम है।”

हम लोग वहाँ से हट आये, तो भी मेरे शरीर में एक झुरझुरी-सी भर रही थी। एक तरफ़ भुरभुरी मिट्टी के टीले, दूसरी तरफ़ जामिया मिलिया की इमारत और तीसरी तरफ़ क़ब्रिस्तान—प्रेम के उन्माद को जगाने के लिए यह भी एक उपयुक्त पृष्ठभूमि हो सकती थी।

ओखला की उस ऊबड़-खाबड़ सैरगाह में एक ढूह पर बैठकर टमाटर-सैंडविच को दाँतों से काटते हुए नीलिमा ने कहा, “एक बात पूछूँ? ठीक-ठीक बताओगे?” वह बात जैसे बहुत देर से उसके मुँह पर आ रही थी और वह जैसे-तैसे पूछने के क्षण को टाल रही थी।

“हाँ, हाँ, पूछो।”

“रात को हरबंस की तुमसे क्या-क्या बातें हुई थीं?”

“क्यों?”

“मेरा ख़याल है कि वह मेरी वजह से बहुत दुखी है और अब मुझसे छुटकारा चाहता है।”

“यह तुम कैसे कहती हो?”

“मैं जानती हूँ। वह कई बार मुझसे कह भी चुका है। कल दिन-भर वह मुझसे उलझता रहा था और तभी फ़ोन करके उसने तुम्हें बुलाया था। मैं समझती हूँ कि उसने ज़रूर तुमसे कुछ बातें की हैं। मैं इसलिए जानना चाहती हूँ कि मुझे ठीक से पता चल जाए कि वह अपने दिल में क्या चाहता है। अगर वह सचमुच यह चाहता है कि मैं उससे अलग हो जाऊँ, तो मैं भी उसे अब ज़्यादा परेशान नहीं करूँगी। जितने दिन कट गये हैं, उतने ही बहुत हैं। मैं अकेली रहकर भी किसी तरह ज़िन्दगी काट ही लूँगी। मैं उसके ऊपर बोझ बनकर नहीं रहना चाहती।” और बात करते-करते उसकी आँखें छलछला आयीं। उसने पूरा सैंडविच मुँह में भर लिया और उसे जल्दी-जल्दी निगलने का प्रयत्न करने लगी।

मेरी समझ में नहीं आया कि मैं उससे क्या बात कहूँ। सब कुछ सच-सच बता देने में भी एक बहुत बड़ी उलझन थी। हरबंस को उसका बुरा लग सकता था। मैं पल-भर सूखी घास में चोंच मार-मारकर कुछ ढूँढ़ते हुए कौए को देखता रहा। रह-रहकर उसके पंख फडफ़ड़ा उठते थे। वह मिट्टी के अन्दर किसी चीज़ से गहरा संघर्ष करता जान पड़ता था।

“उसने मुझे लन्दन के दिनों की कुछ बातें बतायी थीं,” मैंने कहा, “कि तुम लोगों को किस तरह वहाँ तकलीफ़ में दिन काटने पड़े और किस तरह बाद में तुम लोग उमादत्त के ट्रुप के साथ यूरोप में घूमते रहे।”

“उसने तुम्हें सब बातें बतायी थीं?”

“सब बातें यानी?”

“सब बातें...जैसे कि जब मैं पहली बार उमादत्त के साथ स्पेन गयी थी, तो तीन दिन पैरिस में अकेली रुक गयी थी...?”

मुझे बहुत जल्दी अपने मन में फ़ैसला कर लेना पड़ा। मैं उस समय उसके सामने झूठ नहीं बोल सकता था। “हाँ, उसने बताया तो था...,” मैंने कहा।

“तब तो उसने तुम्हें सब कुछ बता दिया है। उसने पश्चिमी बर्लिन के बाहर अपने जन्म-दिन की घटना भी तुम्हें बतायी थी?”

“हाँ, बतायी थी।”

वह सहसा बहुत गम्भीर हो गयी। “यह उसने अच्छा नहीं किया,” उसने कहा।

“वह बहुत परेशान था और उस परेशानी में उसने वह सब कह दिया होगा। तुम्हें इससे यह नहीं सोचना चाहिए कि...।”

“मेरे सोचने न सोचने से क्या होगा?” वह बोली, “उसने अपने मन में फ़ैसला कर लिया है, तो ठीक है।”

“कैसा फ़ैसला? उसने किसी फ़ैसले की बात तो मुझे नहीं बतायी।” मैंने कहा।

“उसने तुमसे यह नहीं कहा कि वह हमेशा के लिए मुझे छोड़ देना चाहता है और किसी और के साथ...”

“किस और के साथ? किसी और की बात तो उसने मुझे नहीं बतायी और न ही यह कहा है कि वह इस तरह का कोई दूसरा ख़याल रखता है।”

“तुम सच कह रहे हो, उसने ऐसा कुछ नहीं कहा?”

“मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ।”

वह पल-भर कुछ सोचती हुई मुझे देखती रही। फिर दूसरी तरफ़ देखने लगी। “हो सकता है उसने न कहा हो।” वह बोली, “मगर मुझे लगता यही है कि वह जल्दी ही कुछ-न-कुछ करना चाहता है।”

“यह तुम्हें कैसे लगता है?”

“ऐसे ही लगता है,” वह बोली। “वह असल में मुझे बिल्कुल नहीं समझता। वह शायद सोचता है कि मैं...।”

मैं चुपचाप उसकी तरफ़ देखता रहा।

“वह शायद सोचता है कि मैं...कि मैं उसके प्रति वफ़ादार नहीं रही। पैरिस की घटना का उसने अपने मन में कुछ और ही अर्थ लगा रखा है। मेरे बार-बार विश्वास दिलाने पर भी शायद उसे विश्वास नहीं होता कि वह जो बात सोचता है, वह ग़लत है।”

बात बहुत ना$जुक जगह पर आ गयी थी, इसलिए मैं कुछ न कह सका। मैंने कौए की तरफ़ हाथ करके एक बार ताली बजायी, जिससे उसे लगे कि मेरा ध्यान उसकी बात से ज़्यादा कौए को उड़ाने की तरफ़ है।

“मैं चाहती हूँ कि वह एक झूठी बात को आधार बनाकर कोई फैसला न करे। वैसे उसे जो भी फैसला ठीक लगे, वह कर ले। मैं अपनी ज़िन्दगी अलग रहकर काट सकती हूँ, मगर अपने ऊपर झूठा लांछन बरदाश्त नहीं कर सकती...।”

“मगर मुझसे तो उसने ऐसी कोई बात नहीं कही जिससे लगता हो कि वह अपने मन में ऐसी बात सोचता है...।” मैंने ध्यान कौए पर ही रखे हुए कहा।

“मगर मुझसे वह कई बार कह चुका है।” उसने अपने ऊपर के होंठ को दाँतों में चबा लिया और आँखें बन्द करके फिर पल-भर कुछ सोचती रही, “देखो, मैंने आज तक पूरी बात उसे नहीं बतायी। इसलिए नहीं बतायी कि उसका सन्देह कम न होकर शायद बढ़ ही जाता। मैं जीवन में किसी भी परिस्थिति का सामना करने से नहीं डरती। मगर झूठा सन्देह मुझे एक ऐसे नश्तर की तरह लगता है जो घाव नहीं करता, मगर हर समय चुभता रहता है। मुझे इस तरह की परिस्थिति बहुत लिजलिजी लगती है और उसके सामने मेरा धैर्य छूट जाता है। अगर उसने तुम्हें अपने दिल की बात बतायी है, तो मैं भी तुम्हें अपनी स्थिति बता सकती हूँ। तुम जितने उसके मित्र हो, उतने ही मेरे भी हो। कम से कम उन दिनों मैं ऐसा ही समझती थी। अगर उन दिनों तुम अचानक ही ग़ायब न हो जाते, तो बहुत कुछ शायद उस तरह न होता जैसे अब हुआ है। तुम नहीं जानते कि उस शाम को तुम्हारे न आने से मेरे लिए सारी स्थिति कैसे और की और हो गयी थी। मगर वह अलग बात है। मैं इस समय दूसरी बात करना चाहती हूँ। मगर उससे पहले मैं तुमसे यह जानना चाहती हूँ कि क्या मैं आज भी तुम्हें अपना मित्र समझ सकती हूँ और तुमसे आशा कर सकती हूँ कि तुम मेरी सहायता करोगे?”

“अगर मेरे करने से कुछ हो सकता है, तो मैं ज़रूर करूँगा।” मैंने कहा, “मगर उस दिन की जो बात तुम कह रही थीं, मैं उसे भी जानना चाहता हूँ। उस दिन मेरे न आने से कैसे स्थिति और की और हो गयी थी? मैं चाह रहा था कि मेरे भाव और शब्दों से यह प्रकट न हो कि मैं किसी दिलचस्पी की वजह से यह बात कह रहा हूँ। मगर मेरे मन में वह साँझ फिर घिरने लगी थी जब सारा दिन मैं बसों में घूमता रहा था और रात होने पर...।”

“इस समय तुम उस बात को जाने दो।” वह बोली, “वह बीते हुए दिनों की बात है जो फिर भी की जा सकती है। अब हम सब लोग तब से नौ साल बड़े हो गये हैं और हम सबकी ज़िन्दगी तब से कई-कई मंज़िलें तय कर आयी है। उस दिन तुम पहली बार हरबंस के साथ आये थे, तो मेरे दिल में तुम्हारे लिए बहुत गुस्सा था। इसलिए उस दिन मैंने तुमसे ठीक से बात भी नहीं की थी। कल रात को भी मुझे तुम पर गुस्सा था क्योंकि शुक्ला के यहाँ न जाने के लिए हरबंस ने तुम्हारे आने को ही बहाना बनाया था। मगर आज सुबह तुम्हें दवाई की टिकिया देते हुए मुझे लगा कि शायद आज भी मैं उन दिनों की तरह तुमसे बात कर सकती हूँ। हो सकता है तुम्हारे उस दिन न आने की कोई ख़ास वजह रही हो।”

“तुम मुझे बात बताओ, तो मैं तुम्हें वजह भी बता दूँगा।” मैं नहीं चाहता था कि वह प्रकरण टल जाए। मेरी उत्कंठा इतनी बढ़ गयी थी कि मेरा नौ साल का सारा तजरबा उसके सामने बेकार हो रहा था।

“वह वजह भी मैं तुमसे सुन लूँगी।” वह उस ओर से उसी तरह उदासीन रहकर बोली, “मगर पहले मैं चाहती हूँ कि तुमको सारी बात बताकर अपना मन हल्का कर लूँ। तुम मुझसे वादा करते हो कि तुम यह बात किसी को नहीं बताओगे? हरबंस को भी नहीं? मतलब जब तक कि पहले मुझसे न पूछ लो?”

“मैं वादा करता हूँ कि तुमसे पूछे बिना किसी को नहीं बताऊँगा,” मैंने कहा। मैं बहुत कठिनाई से अपने मन को नौ साल पहले की साँझ से बाहर निकालने का प्रयत्न कर रहा था। फिर भी बार-बार यह विचार मन में कौंध जाता था कि साँझ को नीलिमा से मिल लिया होता, तो क्या होता! क्या तब अगले दिन सुबह मैंने त्यागपत्र न दिया होता?

“तुम मुझे एक मित्र की तरह वचन दे रहे हो?”

मैंने सिर हिलाया। मैं उसके विश्वास को तोडऩे की बात क्या सोच भी सकता था? और आज भी अगर उसकी अनुमति न होती, तो क्या मैं यह सब यहाँ लिखता?

“मैं तुम्हें सिर्फ़ इतना ही बताना चाहती हूँ कि मैं पैरिस में तीन दिन अकेली क्यों रह गयी थी और वे तीन दिन मैंने किस तरह बिताये थे।”

मेरे मन में उत्सुकता जाग आयी। दूसरों के जीवन के अन्तरंग में झाँककर देखने का अवसर मिलने पर मन में कब उत्सुकता नहीं जागती! वह बच्चा क्या सारी उम्र हमारे अन्दर जीवित नहीं रहता जिसे रोशनदान पर सीढ़ी लगाकर दूसरों की गतिविधियाँ देखने की आदत होती है?

“हम लोग स्पेन से पैरिस आये थे और सारा ट्रुप लौटकर लन्दन जा रहा था...।” नीलिमा ने अपने पैर समेट लिये और शरीर का पूरा बोझ एक हथेली पर डाल लिया। मैंने भी सुननेवाले की मुद्रा में अपना भार एक कुहनी पर डाल लिया। कौआ न जाने कब का उडक़र जा चुका था और जामिया की इमारत, कब्रिस्तान और गाँव के घरों को छोडक़र दूर तक मटियाले रंग के टीलों और गड्ढों के सिवा कुछ नज़र नहीं आता था। उस सारी ज़मीन को जैसे बरसों का घुन लगा था जिससे वह इतनी खोखली और भुरभुरी हो गयी थी। अपने आदिम रूप में एक कोढ़ी की तरह धूप में पड़ी हुई वह जमीन हवा से हाँफती और कराहती-सी जान पड़ती थी। किसी-किसी क्षण हवा से धूल उड़ आती थी, मगर रेतीली धूल ज़मीन से ज़्यादा ऊँची नहीं उठ पाती थी। बीस गज़ दूर सडक़ से कभी एक बस और कभी दो-एक कारें गुज़र जाती थीं। एक सोलह-सत्रह बरस का लडक़ा हाथ में एक पतली-सी टहनी लिये दूर से हम लोगों की तरफ़ ईर्ष्या-भरी आँखों से देख रहा था। ढूहों पर पड़ती हुई धूप का रंग पिघली हुई गन्धक जैसा था। मुझे प्यास लग आयी थी जिससे मेरे होंठ सूख रहे थे।

“स्टेशन तक मैं उन लोगों के साथ ही गयी थी और तब तक मैंने पीछे रुकने का निश्चय नहीं किया था...।”

गर्द का एक झोंका उठा जिससे आँखों में किरकिरी-सी भर गयी। मेरी एक आँख से पानी बह आया। मैं हाथ से आँख को मलने लगा।

“मुझे पता था कि मैं इसके सिवा कुछ कर ही नहीं सकती।” नीलिमा अपनी चप्पल से मिट्टी को ठोकरें लगाती हुई कह रही थी। मैं सोच रहा था कि वहीं कहीं पीने के लिए पानी मिल जाता, तो कितना अच्छा होता।

“मगर तुम्हें इसके लिए अफ़सोस तो नहीं है न?” मैंने पूछा।

“नहीं। अफ़सोस नहीं है। अफ़सोस इसलिए नहीं है कि मैं और कुछ भी करती, तो शायद बहुत दुखी होती। मगर एक बात का अफ़सोस ज़रूर है कि मैं उसके बाद भी हरबंस को ख़ुश नहीं रख सकी। बल्कि इस बात को सोच-सोचकर वह परेशान हो रहा है और आज तक मुझे कुरेदता रहता है कि कहीं मैंने...”

“मगर तुम्हें यह भी तो सोचना चाहिए कि उसकी जगह कोई और आदमी होता, तो शायद इतना भी बरदाश्त न करता और खुद परेशान रहने की जगह न जाने क्या कर डालता!”

“यह मैं जानती हूँ।” वह बोली, “और इसके लिए उसकी क़द्र भी करती हूँ। मगर फिर बीच में जाने क्या हो जाता है! मुझे लगता है जैसे हम पति-पत्नी न होकर एक-दूसरे के दुश्मन हों और साथ रहकर एक-दूसरे से किसी बात का बदला ले रहे हों। शायद उसके मन के सन्देह के कारण ही यह स्थिति पैदा होती है। अगर किसी तरह उसका मन मेरी तरफ़ से साफ़ हो जाए जिससे वह बात-बात पर मेरे ऊपर ताने कसना छोड़ दे, तो हो सकता है हम लोग ठीक से ज़िन्दगी बिता सकें। कम से कम अरुण के लिए तो हमें सोचना ही चाहिए कि उस पर इस सबका क्या असर पड़ता होगा। वह कभी हरबंस के गिर्द हो जाता है कि तुम ममी को इस तरह क्यों डाँटते हो और कभी मेरी साड़ी खींचकर फाडऩे लगता है कि तुम बाबा के सामने इस तरह क्यों बोलती हो। वह इतनी छोटी उम्र में ही सयाना होता जा रहा है और मुझे इससे डर लगता है। कभी जब हम लोग लड़ते हैं, तो वह बैठा-बैठा रोने लगता है और घर की चीज़ें तोडऩे-फोडऩे लगता है। मुझे डर लगता है कि हम लोगों की खींचतान में कहीं वह बहुत ही एबनॉर्मल न हो जाए।”

“इसके अलावा तुम समझती हो कि तुम लोगों के सम्बन्ध में और कोई लकीर नहीं है?”

“नहीं...और कोई लकीर नहीं है। कम से कम मेरे मन में तो नहीं है। मैं नहीं समझती कि...या शायद...मगर और कोई बात महत्त्वपूर्ण नहीं है। कम से कम मैं और चीज़ों को महत्त्व नहीं देती। हम लोग अब काफ़ी बड़े हो गये हैं और...हाँ, एक बात और है। मैं यह अच्छी तरह जानती हूँ कि मैं नाचने के बिना नहीं रह सकती।...सुबह घंटा-भर प्रैक्टिस कर लेती हूँ, तो उससे मेरी अच्छी कसरत भी हो जाती है और...मैं नहीं चाहती कि मेरा शरीर थुल-थुल हो जाए और मैं अभी से बूढ़ी लगने लगूँ। मुझे बुढ़ापे से बहुत डर लगता है और मैं कम से कम दस साल और ऐसी ही बनी रहना चाहती हूँ। तुम देखो, मैं अब चौंतीस की हो चुकी हूँ और मेरे पास मुश्किल से यही दस साल हैं।...लन्दन से आने के बाद मैं अरुण की वजह से एक भी शो नहीं दे सकी। मुझे यह सोचकर डर लगता है कि मैं ऐसे ही बूढ़ी होकर मर जाऊँगी और लोग यह जानेंगे भी नहीं कि मैं भी कभी थी और...देखो, मैं नाचना नहीं छोड़ सकती। उसके लिए चाहे मुझे कुछ भी क्यों न बलिदान करना पड़े। मैं मरने से पहले एक बार खूब नाम कमाना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ कि लोग मुझे जानें और...मगर यह नहीं कि मैं सिर्फ़ ख्याति चाहती हूँ। मैं जानती हूँ कि मेरे अन्दर वह चीज़ है जो मुझे इस क्षेत्र में आगे ला सकती है। तुमने कामिनी और शची के शो देखे होंगे। मैं नहीं मानती कि उनकी आज जितनी ख्याति है, वे उतनी ही बड़ी कलाकार भी हैं। दरअसल...तुम नहीं जानते कि मेरे शरीर में उन दिनों कितनी लोच और लचक थी। मैं अब भी ठीक से अभ्यास करूँ, तो...तो शची और कामिनी के बराबर तो आ ही सकती हूँ। मैं केवल ख्याति की भूखी नहीं, मगर मेरे अन्दर वह चीज़ है, तो मैं क्यों न...क्यों न उनकी तरह ही जानी जाऊँ? जहाँ तक अभिनय का सम्बन्ध है, मेरा अभिनय उन दोनों से अच्छा होता है। मेरे गुरु भी कहते थे कि मेरी जैसी भावपूर्ण आँखें और हाथ उनकी किसी शिष्या के नहीं हैं। मैं वही चीज़ पाना चाहती हूँ जो मेरा अधिकार है...।”

वह बात कर रही थी और मैं फिर आस-पास की ऊँची-नीची भुरभुरी ज़मीन को देख रहा था। चींटियों की एक पंक्ति हमारे पास से चक्कर काटकर सीधी सामने की झाड़ी की तरफ़ जा रही थी। दूर तक के झाड़-झंखाड़ ढलती धूप में सदियों के घुन खाये कंकालों जैसे नज़र आ रहे थे। सारे वातावरण में एक विरसता थी, एक उदासीनता, एक भावहीन विरक्ति। दूर सडक़ पर कितनी ही गाडिय़ाँ एक-दूसरी के पीछे आ रही थीं और वह ज़मीन जैसे कपड़े उतारकर और बाँहें फैलाकर उनके सामने एक मौन प्रदर्शन कर रही थी। वह भाव का एक विवश, हताश, व्यंग्यात्मक मुद्रा में मुँह बिचकाने जैसा था। मुझे लग रहा था कि मेरा ही नहीं, उस सारे वातावरण का गला सूखा है और उसे प्यास लग रही है।

“हमें लौटने में देर तो नहीं हो जाएगी?” मैंने कहा, “अब हम चलते-चलते बातें करें, तो कैसा है?”

नीलिमा जैसे चौंककर उठ खड़ी हुई। “अरे हाँ!” उसने कहा, “मैं तो भूल ही गयी थी कि हरबंस के दफ़्तर से आने का समय हो गया है। हमें उसके लौटने से पहले ही घर पहुँच जाना चाहिए था।”

हम लोग पैदल चलते हुए फ्रेंच कॉलोनी के पुल तक आ गये। दिन जल्दी ढल गया था और झुटपुटा-सा अँधेरा उतर आया था। फटे-फटे बादल के गेरुआ टुकड़े दूर रेल की पटरियों पर झुके हुए थे। नीलिमा चलते-चलते सहसा ठिठक गयी।

“क्या बात है?” मैंने पूछा।

“कुछ नहीं।” वह बोली, “वह गाड़ी आ रही है। उसे गुज़र जाने दो।”

दायीं तरफ़ से रेल की पटरियों पर एक स्याह इंजन हमारी तरफ़ रेंगता आ रहा था। हम लोग पुल पर रुककर देखते रहे। गाड़ी धड़धड़ाती हुई पुल के नीचे से निकलकर चली गयी, तो नीलिमा ने एक उत्तेजना में अपने दोनों हाथ भींच लिये और बोली, “मुझे गाड़ी का दूर से आना और गुज़र जाना बहुत अच्छा लगता है, जाने क्यों!”

मैंने कुछ नहीं कहा और हम लोग चुपचाप आगे चलने लगे। कुछ आगे चलकर नीलिमा फिर बोली, “मैंने आज न जाने क्यों तुमसे इतनी बातें की हैं! मैं तो जैसे किसी से यह सब कहने के लिए भरी बैठी थी। तुम भी सोचते होगे कि इसका दिमाग़ कुछ ख़राब है। नहीं?”

“इसमें दिमाग़ ख़राब होने की तो कोई बात नहीं थी,” मैंने कहा।

“मुझे खूब ख़ुश रहना और भरपूर ज़िन्दगी जीना अच्छा लगता है।” वह और उत्साहित होकर बोली, “मैं बहुत चाहती हूँ कि मेरा कोई ऐसा मित्र हो जिससे मैं अपने मन की सब बातें कह सकूँ। उस दिन भी मैं तुमसे बहुत-बहुत बातें करना चाहती थी...।”

“किस दिन?”

“उस दिन जिस दिन तुम नहीं आये थे। जिस दिन मैं तुम्हें लाने के लिए तुम्हारे कसाईपुरा या क़स्साबपुरा, क्या था वह, वहाँ गयी थी।”

उस दिन की बात याद हो आने से मेरा मन फिर एक उदासी में डूबने लगा। नीलिमा ने उस दिन की पहले भी चर्चा की थी, तो कहा था कि अगर उस शाम को मैं उससे मिलने आया होता तो शायद...।

“उस दिन मैं एक खास वजह से नहीं आ सका था।” मैंने कहा, “उसके बाद तो मैं दिल्ली से चला ही गया था।”

“उस दिन तुम आये होते, तो शायद मैं बहुत हल्के मन से मैसूर और फिर हरबंस के पास जा सकती,” उसने कहा।

“कैसे?”

“उन दिनों मैं शुक्ला की बात सोचकर बहुत परेशान थी। मैं नहीं चाहती थी कि मैं चली जाऊँ और पीछे सुरजीत को उससे घनिष्ठता बढ़ाने का मौका मिल जाए। मुझे वह आदमी अच्छा नहीं लगता था। मगर मेरा जाना ज़रूरी था और हुआ भी वही जिसका मुझे डर था। मैं चाहती थी कि...।”

वह सहसा चुप कर गयी। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धडक़ रहा था। मैं आगे की बात सुनने के लिए बहुत उत्सुक था।

“मैं चाहती थी कि मेरे जाने से पहले शुक्ला का ध्यान सुरजीत की तरफ़ से हट जाता। जीवन भार्गव चला गया था और तुम्हीं एक ऐसे व्यक्ति मुझे नज़र आते थे जिसे मैं...मगर अब बात करने में क्या रखा है! अब तो मैं यही चाहती हूँ कि उसकी ज़िन्दगी अच्छी तरह कट जाए। तुम्हें पता है सुरजीत की यह दूसरी या तीसरी शादी है?”

“मुझे पता है,” मैंने मरे हुए मन से कहा।

“मैं उन दिनों एक प्रयत्न करके देखना चाहती थी और उसी बारे में तुमसे बात करना चाहती थी। वैसे सोचती हूँ कि हो सकता है मेरे करने से कुछ न भी होता। अच्छा बताओ, तुम्हें शुक्ला अच्छी नहीं लगती थी? मेरा तो ख़याल था कि तुम...।” और वह अपने स्वाभाविक अन्दाज़ में हँसकर चुप कर गयी।

मेरा मन इस क़द्र गिर गया था कि मुझे बात करने के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ा। “मैंने ऐसी नज़र से कभी देखा ही नहीं था,” मैंने कहा।

“मैं बताऊँ, शुक्ला ने सुरजीत से ब्याह क्यों किया है?” वह बोली।

“क्योंकि वह उसे चाहती थी।”

“वह सुरजीत को इसीलिए चाहती थी कि वह भी हरबंस की तरह ही लम्बे-ऊँचे डीलडौल का है और हरबंस उन दिनों उसकी बहुत प्रशंसा किया करता था। तुम्हारे बारे में उसकी राय थी कि तुम्हें अपना बहुत गुमान है और तुम किसी से सीधे मुँह बात तक नहीं करते। बेचारी शुक्ला! उसे सुरजीत के पहले जीवन का तब पता चला जब वह उसे अपना सब कुछ दे चुकी थी। उस कच्ची उम्र में उसे भले-बुरे की पहचान हो ही क्या सकती थी? हरबंस भी उसे बीच में ही छोडक़र चला गया था, और मैं भी चली गयी। बाद में उसके लिए एक विचित्र परिस्थिति खड़ी हो गयी। वह शादी हम लोगों के लौटकर आने के बाद ही करना चाहती थी, मगर सुरजीत ने उससे कहा था कि नया कानून लागू हो जाएगा, तो वह उससे ब्याह नहीं कर सकेगा। तुम्हें पता है नया कानून अठारह मई सन् पचपन से लागू हुआ है और इनका ब्याह सत्रह मई सन् पचपन की रात को हुआ है? ब्याह के पहले दिन शुक्ला बीजी की गोद में सिर डालकर खूब रोयी थी। बीजी कहती हैं कि मुझे और हरबंस को बहुत याद करती रही थी।”

रास्ता बहुत बाक़ी था और मुझसे अब चला नहीं जा रहा था। मैंने सुझाव दिया कि हम लोग बस ले लें। अगले स्टाप से हमने बस पकड़ ली। जब हम लोग बस से उतरे, तो भी मुझे पैरों में इतनी थकान महसूस हो रही थी कि मुझे एक क़दम भी चलना मुश्किल लग रहा था। सडक़ पर दूर तक दिखायी देते हुए खम्भे मुझे जेल के सींखचों जैसे लग रहे थे। मेरा गला इतना ख़ुश्क हो रहा था कि एक शब्द भी मुझसे नहीं बोला जाता था। दोराहे पर आकर मैंने नीलिमा से कहा कि मैं अब उससे विदा लेना चाहूँगा।

“तुम यहाँ से कैसे जा सकते हो?” नीलिमा मेरा हाथ पकडक़र बोली, “हरबंस अगर आ गया होगा, तो मैं अकेली उसकी डाँट कैसे सुनूँगी? और तुम चाय या कॉफ़ी पिये बिना कैसे जा सकते हो?” और फिर थोड़ा हँसकर उसने कहा, “तुम्हें मैं घर पर चलकर एक टिकिया और खिला दूँगी। कहीं यही न हो कि मेरी बातें सुनने-सुनने में जाकर फिर बीमार हो जाओ...।”

उनके घर तक आधा फर्लांग रास्ता मुझे बहुत लम्बा लग रहा था। उतना लम्बा रास्ता चलकर जाना मुझे बहुत मुश्किल लग रहा था। मुझे ऐसे महसूस हो रहा था जैसे सरदी की वह शाम एक जगह ठिठककर रह गयी हो—अपने अन्दर के किसी आवेग से स्तब्ध, हैरान, खोयी हुई। सारा आकाश एक मैली चादर की तरह था जिस पर जगह-जगह सिकुडऩें पड़ी थीं। वातावरण की उस निर्जीवता को पास के किसी घर से आती हुई रेडियो की आवाज़ तोड़ रही थी। मगर वह आवाज़ भी केवल एक गूँज ही थी, भारी और बोझिल, जिसमें शब्द, अर्थ या लय, कुछ भी नहीं था...। हम लोग अभी घर के दरवाज़े के बाहर ही थे कि सडक़ की बत्तियाँ जल उठीं।

घर भी उस समय बहुत नि:स्तब्ध और ठंड में सिमटा हुआ-सा लग रहा था। किसी भी कमरे में रोशनी नहीं थी। बाँके ने दरवाज़ा खोला, तो उसका चेहरा भी इस तरह उतरा हुआ था जैसे वह कहीं से मार खाकर आया हो।

“साहब अभी नहीं आये?” नीलिमा ने उसके दरवाज़ा खोलते ही पूछा।

“आये थे,” बाँके के संक्षिप्त-से उत्तर में कुछ ऐसा था जिसने हम दोनों को चौंका दिया।

“कब आये थे और अब कहाँ गये हैं?” नीलिमा ने उतावली में पूछा।

“पहले दोपहर को खाना खाने आये थे।” बाँके ने कहा, “तब दो बजे तक घर पर रहे। मैंने उन्हें बताया था कि आप लोग ओखला गये हैं। अभी आधा घंटा हुआ फिर आये थे और यह पूछकर कि आप लोग अभी आये हैं या नहीं, उसी वक़्त वापस चले गये।”

“माई गुडनेस!” नीलिमा हताश स्वर में बोली और बैठक में जाकर टूटी-सी दीवान पर बैठ गयी, “जाते हुए कुछ कहकर नहीं गये?”

बाँके उत्तर देने से पहले क्षण-भर आँखें इधर-उधर करता रहा जैसे उत्तर देने से बचना चाहता हो। फिर उसने अपने हाथ बग़लों में दबाये हुए कहा, “कह गये थे कि वे रात को खाना नहीं खाएँगे और हो सकता है रात को घर भी न आयें।”

“मगर क्यों?” नीलिमा ने अपनी हताशा से शिथिल पडक़र पीछे टेक लगा ली। “मैं कहती हूँ कि इस आदमी का दिमाग़ बिल्कुल ख़राब हो गया है और अब कुछ नहीं हो सकता।” उसका भाव उस पिटे हुए बच्चे जैसा हो रहा था जो जैसे भी हो, पीटनेवाले पर अपने मन की खीझ निकाल लेना चाहता हो। “सिली!”

“छोटी बीबीजी कह गयी थीं कि आप आयें, तो मैं उन्हें पता दे दूँ।” बाँके बोला, “वे अरुण को भी उधर अपने यहाँ ले गयी हैं। वह उधर ही खेल रहा है।”

“उससे कह दो कि मैं आ गयी हूँ।” नीलिमा का चेहरा उस अभियुक्त की तरह हो गया जिसे निरपराध होते हुए भी किसी के सामने अपने सच की सफ़ाई देनी हो।

बाँके चला गया, तो वह मेरी तरफ़ देखकर बोली, “अब बताओ मैं क्या कर सकती हूँ?”

मैं तब तक बैठा नहीं था और दीवार पर लगी हुई सियासी गुडिय़ों को देख रहा था। मैंने सोचा था कि उसे घर पहुँचाकर मैं तुरन्त ही वहाँ से चल पड़ूँगा। मैं उस समय कुछ देर अकेला रहना चाहता था। इस नयी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिए, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा था। वहाँ से जाना चाहते हुए भी मुझे जाना सम्भव नहीं लग रहा था।

“हम लोगों को जल्दी लौट आना चाहिए था,” मैंने कहा।

“मगर वह कुछ देर यहाँ इन्तज़ार नहीं कर सकता था?” नीलिमा कुछ चिल्लाकर बोली, जैसे कि हरबंस वहाँ खड़ा उसकी बात सुन रहा हो, “दोपहर के लिए तो उसने खुद ही फ़ोन पर कहा था कि वह घर नहीं आएगा। तुम बताओ इस तरह के शक की ज़िन्दगी भी कोई ज़िन्दगी है? मैं उसके किसी दोस्त के साथ भी बाहर घूमने के लिए नहीं जा सकती? ख़ासतौर पर ऐसे दोस्त के साथ जिसे वह अपनी ज़िन्दगी की सब बातें बता सकता है? मगर उसके दिमाग़ को तो ऐसा घुन लगा है कि वह मेरे ऊपर शक किये ब$गैर रह ही नहीं सकता। मैं किसी को चाय की प्याली पकड़ाते हुए हँस भी दूँ तो उसके दिमाग़ की नसें फडक़ने लगती है। मैं कहती हूँ कि यह उसके अपने मन का पाप है जो वह मेरे अन्दर देखना चाहता है। क्योंकि खुद वह किसी स्त्री के साथ खुले मन से मित्रता का व्यवहार नहीं कर सकता, इसलिए उसे हमेशा यही सूझता है कि मैं भी अगर किसी के साथ बात करती हूँ, या किसी का हाथ छू लेती हूँ, तो इसमें मेरे मन में कोई पाप ही होना चाहिए। अब आप रात को खाना नहीं खाएँगे और नहीं आएँगे! न आयें, मेरी बला से! अगर बात सचमुच यहाँ तक पहुँच गयी है, तो मैं खुद ही उसे छोडक़र अलग हो जाऊँगी। मैंने लन्दन में हेयर ड्रेसिंग का डिप्लोमा लिया था। मैं जाकर किसी सैलून में नौकरी कर लूँगी। वह अलग रहे, मैं अपने बच्चे के साथ अलग रहूँगी। और अगर वह लडक़े को भी मुझसे छीनना चाहेगा, तो मैं उसे भी छोड़ दूँगी। मुझे अपने लिए कुछ भी नहीं चाहिए, कम से कम इसके घर की कोई चीज़ नहीं चाहिए। मैं सचमुच इस ज़िन्दगी से बेज़ार आ गयी हूँ।

मेरा मन अपने अपवाद में डूबा हुआ था और मैं तब तक भी यह तय नहीं कर पाया था कि मैं कुरसी पर बैठ जाऊँ या नहीं। मैं नौ साल पहले की शाम से उस शाम तक के सारे दु:ख-दर्द में से नये सिर से गुज़र रहा था और उस दर्द को जो नया रूप मिल गया था, उससे मैं भी अन्दर उसी तरह छटपटा रहा था जैसे नीलिमा बाहर छटपटा रही थी।

“पहली चीज़ तो यह है कि यह पता किया जाए कि वह गया कहाँ है।” मैंने फिर भी अपने पर वश किये हुए कहा और कुरसी पर बैठ गया। “अगर उसे कोई ग़लतफ़हमी हो गयी है, वह उससे मिलकर बात करने से ही दूर होगी।”

“मुझे उसकी कोई ग़लतफ़हमी दूर नहीं करनी है।” नीलिमा उसी तरह चिल्लाकर बोली, “आज एक ग़लतफ़हमी दूर करूँगी, तो कल उसे दूसरी ग़लतफ़हमी हो जाएगी। मैं कहाँ तक रोज़-रोज़ उसके सामने मुजरिम की तरह सफ़ाई देती रहूँ? मुझसे यह सब नहीं होगा। अगर वह मुझसे कुछ भी कहेगा, तो मैं आज ही उसका घर छोडक़र चली जाऊँगी।”

उसी समय अरुण एक होलाहूप को कमान की तरह कन्धे पर डाले बाहर से आ गया। “ममी!” उसने कहा और दौडक़र उससे चिपट गया। नीलिमा उसे छाती से लगाकर पागलों की तरह चूमने लगी।

“ममी,” अरुण उससे अलग होकर होलाहूप को पहिये की तरह घूमता हुआ बोला, “आज छुक्का मौछी ने बिनी के बहुत-छे खिलौने मेले को दे दिये हैं। कल उछको जो-जो प्लेजेंट मिले थे, वो आधे मैंने ले लिये हैं। यह देखो होलाहूप...!” और वह खिलखिलाकर हँस दिया।

“तुम जाओ और बाँके से कहो कि तुम्हारा मुँह साफ़ कर दे।” नीलिमा अपने स्वर को सँभालकर बोली।

“मैं मौछी के घल में जा लहा हूँ,” कहता हुआ अरुण तुरन्त कमरे से भाग गया, जैसे उसे डर हो कि ममी उसे पीछे से पकड़ न ले। उसके वहाँ से जाते न जाते शुक्ला कमरे मे आ गयी। “दीदी,” उसने कहा और मुझे देखकर ठिठक गयी।

नीलिमा ने एक बार अवज्ञा-भरी नज़र से उसकी तरफ़ देखा और बोली, “तुम देख रही हो कि मैं कैसी नरक की ज़िन्दगी जी रही हूँ!”

“आप तो पागल हो गयी हैं!” शुक्ला अब संकोच छोडक़र सामने आ गयी और मेरे साथ की कुरसी पर बैठ गयी, “आप इतने सालों में भापाजी को नहीं समझ सकीं, तो मैं नहीं जानती कि कब समझ सकेंगी।”

“मैं उसे कभी नहीं समझ सकूँगी।” नीलिमा का स्वर फिर तीखा हो गया, “और मैं ही क्या, दुनिया की कोई भी स्त्री उसे समझ सकती है, इसमें मुझे शक है।”

“आप उनके साथ ज़्यादती कर रही हैं।” शुक्ला बड़प्पन के लहज़े में बोली, “वे इतने अच्छे हैं कि दुनिया में कोई क्या होगा! आप उनके साथ इतनी ज़्यादतियाँ कर जाती हैं और वे फिर भी बरदाश्त कर लेते हैं। उनकी जगह कोई और होता, तो देखती किस तरह आपकी ज़्यादतियाँ सहता!”

“मैं ये सब बातें नहीं सुनना चाहती।” नीलिमा बोली, “मैं उसके साथ ज़्यादतियाँ करती हूँ? उसने मेरे लिए जीना मुश्किल कर रखा है और आप कहती हैं कि मैं उसके साथ ज़्यादतियाँ करती हूँ। मैं जानती हूँ कि तुम भी अपने मन से मुझसे नफ़रत करती हो; और क्यों नफ़रत करती हो, यह भी जानती हूँ।”

शुक्ला कुछ देर चुप रहकर शिकायत-भरी आँखों से उसकी तरफ़ देखती रही। सुबह मैंने उसे देखा था,तो वह सजी-सँवरी हुई नहीं थी। मगर अब वह सुबह की तरह एक गृहस्थिन न लगकर फिर एक लडक़ी-सी ही लग रही थी। वह आसमानी रंग की औरंगाबादी रेशम की प्लेन साड़ी बाँधे थी, और उसके बालों की दो-एक लटें उसके चेहरे पर आयी हुई थीं। जाने वे लटें सचमुच बहुत सुन्दर थीं या मेरे दिमाग़ का आईना ही उस समय ऐसा था कि मुझे उसकी हर छोटी से छोटी चीज़ बहुत सुन्दर लग रही थी। मुझे फिर एक बार भद्रसेन की कही हुई बात याद आ गयी, “शी रेडिएट्स ब्यूटी!” हालाँकि मेरे अन्दर का अनुभवी पत्रकार बार-बार मुझे अपने नौ वर्ष के निकाले हुए निष्कर्षों की याद दिला रहा था।

“दीदी, आप जानती हैं कि आप यह कितनी ग़लत बात कह रही हैं!” शुक्ला कुछ देर चुप रहकर बोली, “आप जानती हैं मैं आपसे कितना प्यार करती हूँ। मैं आपके दिल को भी उतनी ही अच्छी तरह समझती हूँ जितनी अच्छी तरह भापाजी के दिल को समझती हूँ। आप दिल की कितनी साफ़ हैं, यह मैं जानती हूँ और यह भी जानती हूँ कि आपको ज़रा भी लुकाव-छिपाव पसन्द नहीं। मगर आपको सिर्फ़ इतना सोचना चाहिए कि किन बातों से भापाजी को तकलीफ़ होती है। आप जानते हुए भी फिर-फिर वही बातें क्यों करती हैं? मैं नहीं समझ सकती कि उसमें आपको क्या सुख मिलता है! भापाजी दिल के इतने अच्छे हैं कि दूसरे का बड़े से बड़ा अपराध भी क्षमा कर देते हैं। उनकी जगह कोई और आदमी हो, तो कभी नहीं करेगा। आप उनके दोष ही दोष देखती हैं और उनके इस गुण को कभी नहीं देखतीं। आप मुझे चाहे जो कह लें, मगर मुझे आपकी इन बातों से तकलीफ़ ज़रूर होती है।”

“तुम्हें तकलीफ़ होती है, मैं जानती हूँ।” नीलिमा फिर उसी तरह बोली, “मगर मुझे कभी कोई तकलीफ़ नहीं होती! मुझे तकलीफ़ हो ही कैसे सकती है!”

शुक्ला ने एक बार मेरी तरफ़ देखा और फिर कुछ अव्यवस्थित होकर उठती हुई बोली, “मैं आपसे कितनी बार कह चुकी हूँ कि आप ये फ़िजूल की बातें न किया करें। मैं अपने लिए भी सोचती हूँ कि सुरजीत मेरे लिए जो कुछ करता है, मैं उसका दसवाँ हिस्सा भी उसके लिए नहीं कर पाती। लेकिन मैं यह कोशिश ज़रूर करती हूँ कि उसके लिए कुछ कर सकूँ। आपसे भी मैं यही कहती हूँ कि जितना भापाजी आपके लिए करते हैं, अगर आप उसका दसवाँ हिस्सा भी उनके लिए करें, तो...।”

“मुझमें और तुममें बहुत फ़र्क है।” नीलिमा भी साथ ही उठ खड़ी हुई। “तुम्हारे लिए घरेलू किस्म की ज़िन्दगी ही सब कुछ है, मेरे लिए नहीं है। मेरी अपनी और भी ज़रूरतें हैं।”

“तो अपनी उन ज़रूरतों के लिए अरुण की और भापाजी की ज़िन्दगी तबाह कर डालिए, और साथ ही अपनी भी।” शुक्ला सहसा गुस्से से तमतमा उठी, “मैं आपसे और क्या कह सकती हूँ? यह आपकी ज़िन्दगी है और इसे बनाने-बिगाडऩे वाली आप ही हैं।” और वह गुस्से के आवेश में कमरे से निकलकर चली गयी।

कुछ देर हम लोग ख़ामोश रहे। नीलिमा फिर अपनी जगह पर बैठ गयी और आँखें बन्द किये अपने को सहेजने का प्रयत्न करती रही। फिर सहसा वह एक उसाँस भरकर उठ खड़ी हुई और बोली, “तुम मेरे साथ चलोगे?”

“कहाँ!” मैंने पूछा।

“जहाँ कहीं भी वह हो सकता है, वहाँ? ऐसी दो-एक ही जगहें हैं जहाँ वह जा सकता है।”

“तुम समझती हो कि मेरा साथ चलना ज़रूरी है?”

“हाँ! मैं अकेली इस वक़्त उसके सामने जाऊँगी, तो बात शायद और भी बिगड़ जाएगी।”

मैं साथ नहीं जाना चाहता था, मगर उस स्थिति में उसे इनकार भी नहीं कर सकता था। मैं जैसे दो पत्थरों का वज़न अपने मन पर लिये हुए चुपचाप खड़ा हुआ था और मैंने कहा, “अच्छा चलो।”

हरबंस को जहाँ-जहाँ देखा जा सकता था, वहाँ-वहाँ वह नहीं मिला। न वह रमेश के घर गया था, न अपने बॉस के यहाँ और न ही उस स्वीडिश लेखक के यहाँ जिसके पास वह गाहे-बगाहे शराब पीने और साहित्य-चर्चा करने के लिए चला जाता था। कॉफ़ी-हाउस में भी किसी ने उसे नहीं देखा था और न ही वह मॉडल बस्ती या हनुमान रोड पर गया था। मैं जानता था कि हम लोग व्यर्थ का चक्कर लगा रहे हैं और वह स्वयं ही रात को घर पहुँच जाएगा, मगर नीलिमा उसके कहीं भी न मिलने से बहुत घबरा गयी थी और ऐसी हो रही थी जैसे उसके लिए दुनिया का अन्त अब बहुत पास आ गया हो। आख़िर जब उसे डिफेंस कॉलोनी वापस पहुँचाने के लिए मैं स्कूटर में हनुमान रोड से उसके साथ चला, तो इंडिया गेट के पास आकर मुझे बहुत दिन पहले वहाँ पर उसके साथ हुई बातचीत का ध्यान हो आया और मैंने सोचा कि कहीं वह वहीं पर न हो। मेरा अनुमान ठीक था। हम टैक्सी को रोककर जब दस मिनट वहाँ चक्कर लगा चुके, तो एक जगह वह अँधेरे में अकेला लेटा हुआ दिखायी दे गया। जिस चीज़ पर पहले मेरी नज़र पड़ी, वह सिगरेट का जलता हुआ सिरा था।

“हरबंस!” मैंने उसके पास पहुँचकर कहा, तो वह चौंककर उठ बैठा।

“तुम यहाँ पड़े हो?” नीलिमा की घबराहट गुस्से में बदल गयी, “और हम तुम्हें ढूँढ़ते हुए सारी दिल्ली छान आये हैं।”

“मैं खुली हवा के लिए यहाँ चला आया था।” हरबंस बहुत मुरझाये हुए स्वर में बोला।

“तुम्हें तो खुली हवा मिल गयी।” नीलिमा बोली, “मगर हम लोगों को तो तुमने बेहाल कर दिया।”

“क्यों? मैंने तुमसे क्या कहा है?” वह बोला।

“तुम बाँके से यह क्यों कह आये थे कि तुम रात को घर नहीं आओगे?”

“मेरा मन नहीं था।”

“तुम्हारा मन नहीं था! मैं जान सकती हूँ कि क्यों तुम्हारा मन नहीं था?”

“मुझे इसकी व्याख्या नहीं करनी है।”

“तुम्हें इसकी व्याख्या नहीं करनी है! दूसरों की तुम जान भी निकालकर रख दोगे तो कहोगे कि मुझे इसकी व्याख्या नहीं करनी है।”

“देखो, मैं इस समय बात करने के मूड में नहीं हूँ।” हरबंस शायद मेरी वजह से अपने गुस्से को दबाये हुए था।

“हाँ, तुम बात करने के मूड में क्यों होगे!” नीलिमा बोली, “तुम्हारे मन में एक कीड़ा लगा है जो तुम्हें अन्दर ही अन्दर खा रहा है।”

“मैं कह रहा हूँ, मैं इस समय यह सब बकवास नहीं सुनना चाहता।” हरबंस का स्वर तीखा होने लगा।

“तुम यह बकवास नहीं सुनना चाहते! तुम अपने दोस्तों से घंटों जो चाहो बातें कर सकते हो। मगर मैं किसी से कुछ बात करूँ, तो तुम्हें सुइयाँ चुभने लगती हैं। तुम मेरे ऊपर तो शक करते ही हो, अपने दोस्तों के ऊपर भी शक करते हो! लन्दन में तो कहा करते थे कि सूदन ही एक ऐसा आदमी था जिस पर तुम भरोसा कर सकते थे।”

“तुमको ये सब बातें करने के लिए यही मौका मिला है?” हरबंस फिर कुछ फीका पड़ गया और मुझसे बोला, “देखो सूदन, तुम इन बातों का बुरा नहंी मानना। यह जो बात कह रही है, वह बात मैं कभी सोच भी नहीं सकता। यह ख़ामख़ाह बक रही है।”

“अगर ऐसी बात तुम सोच भी नहीं सकते, तो तुम घर से क्यों चले आये थे?” नीलिमा चिल्लायी। वह उस समय यह भूल गयी थी कि वह आम लोगों के आने-जाने की जगह है।

“देखो सूदन, तुम किसी बात का बुरा नहीं मानना।” हरबंस बोला, “मैं दफ़्तर से बहुत थका हुआ आया था। पहले दोपहर को भी आया था। सोचा था लौटकर दफ़्तर नहीं जाऊँगा और तुमसे बातें करूँगा। मगर...! ख़ैर, उस बात को तुम जाने दो। मेरी आज अपने बॉस से ख़ासी झड़प हो गयी है। शायद मेरेवाली जगह बहुत जल्द ही उड़ा दी जाएगी।...तुम बुरा नहीं मानना।”

“मेरे बुरा मानने की बात नहीं।” मैंने कहा, “मगर तुम्हें अपना दिमाग़ इस तरह ख़राब नहीं करना चाहिए। जहाँ तक नौकरी का सवाल है, यह तो तुम पहले भी जानते थे कि वह जगह स्थायी नहीं है...।”

“वह तो ठीक है, मगर...,” उसने अपना सिगरेट का टुकड़ा इस तरह दूर फेंक दिया जैसे किसी को पत्थर मार रहा हो। मैं सोचता था कि शायद इसमें अभी दो-तीन साल और निकल जाएँगे। मगर बॉस की आज की बातचीत से मुझे लगा कि अब इस जगह पर साल-छ: महीने भी मुश्किल से ही निकलेंगे। मैंने नहीं सोचा था कि मुझे फिर से इतनी जल्दी सडक़ पर पहुँच जाना पड़ेगा।”

“मगर साल-छ: महीने की बात है, तो तुम अभी से क्यों परेशान होते हो? जब वक़्त आएगा, तब देखा जाएगा।”

“हा-हा।” वह बोला, “जब वक़्त आएगा, तब मैं क्या देखूँगा—आसमान? घर का ख़र्च अब भी पूरा नहीं होता और तब...? मैं बुरे दिन विदेश में बहुत देख चुका हूँ, सूदन! अब उस तरह की ज़िन्दगी की बात सोचते भी मुझे डर लगता है, ख़ासतौर पर लडक़े की वजह से। उसे मैं वैसे दिन नहीं दिखाना चाहता। तुम अन्दाज़ भी नहीं लगा सकते कि मैं इस वक़्त कितनी बड़ी कशमकश में हूँ। मैं इस वक़्त एक ऐसे दोराहे पर खड़ा हूँ कि—!”

नीलिमा ख़ामोश रहकर फ़व्वारों की तरफ़ देख रही थी। मैं सोच रहा था कि मुझे जल्द-अज़-जल्द उन दोनों को अकेले छोडक़र चल देना चाहिए। इसलिए मैंने कहा, “ख़ैर, फिर किसी दिन मिलेंगे, तो इस बारे में बात करेंगे। इस वक़्त मुझे भी जल्दी है और तुम लोगों को भी जल्दी घर जाना होगा।”

हरबंस एक झटके के साथ उठ खड़ा हुआ और क्षण-भर खड़ा रहकर आसमान की तरफ़ देखता रहा। फिर एक उसाँस के साथ बोला, “कुछ समझ में नहीं आता। शायद अब मेरे लिए वही एक रास्ता है जिस रास्ते पर मैं चलना नहीं चाहता।”

मुझे उसका बात करने का ढंग बहुत किताबी-सा लग रहा था। मैंने उससे कुछ कहा नहीं और चुपचाप उसके साथ लॉन पार करने लगा।

  • अँधेरे बंद कमरे (उपन्यास-भाग 3) : मोहन राकेश
  • अँधेरे बंद कमरे (उपन्यास-भाग 1) : मोहन राकेश
  • मुख्य पृष्ठ : हिंदी कहानियां, नाटक और उपन्यास ; मोहन राकेश
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां