अँधेरे बंद कमरे (उपन्यास-भाग 1) : मोहन राकेश
Andhere Band Kamre (Hindi Novel-Part 1) : Mohan Rakesh
नौ साल में चेहरे काफी बदल जाते हैं और कोई-कोई चेहरा तो इतना बदल जाता है कि पहले के चेहरे के साथ उसकी कोई समानता ही नहीं रहती।
मैं नौ साल के बाद दिल्ली आया तो मुझे महसूस हुआ जैसे मेरे लिए यह एक बिल्कुल नया और अपरिचित शहर हो। जिन लोगों के साथ कभी मेरा रोज़ का उठना-बैठना था, उनमें से कई-एक तो अब बिल्कुल ही नहीं पहचाने जाते थे; उनके नयन-नक्श वही थे, मगर उनके चेहरे के आसपास की हवा बिल्कुल और हो गयी थी। हम लोग कभी आमने-सामने पड़ जाते, तो हल्की-सी ‘हलो-हलो’ के बाद एक-दूसरे के पास से निकल जाते। और ‘हलो’ कहने में भी केवल होंठ ही हिलते थे, शब्द बाहर नहीं आते थे। कई बार मुझे लगता कि शायद मेरे चेहरे की हवा भी इस बीच इतनी बदल गयी है कि परिचय का सूत्र फिर से जोडऩे में दूसरे को भी मेरी तरह ही कठिनाई का अनुभव होता है।
हालाँकि कुछ लोग ऐसे भी थे जो काफ़ी खुलकर मिले और जिनसे काफ़ी खुलकर बातें हुईं मगर उनके पास बैठकर भी मुझे महसूस होता रहा कि हम लोगों के बीच कहीं एक लकीर है—बहुत पतली-सी लकीर, जिसे हम चाहकर भी पार नहीं कर पाते और उसके इधर-उधर से हाथ बढ़ाकर ही आपस में मिलते हैं। कहाँ क्या बदल गया है, यह ठीक से मेरी समझ में नहीं आता था, क्योंकि कुछ लोग तो ऐसे थे कि उनके चेहरे-मोहरे में ज़रा भी फ़र्क़ नहीं आया था। मेरे बाल कनपटियों के पास से सफ़ेद होने लगे थे, मगर उनके बाल अब भी उतने ही काले थे जितने नौ साल पहले, यहाँ तक कि कभी-कभी मुझे शक होता था कि वे सिर पर ख़िज़ाब तो नहीं लगाते। मगर उनके गालों की चमक भी वैसी ही थी और उनके ठहाकों की आवाज़ भी उसी तरह गूँजती थी, इसलिए मुझे मजबूरन सोचना पड़ता था कि ख़िज़ाबवाली बात भी गलत ही होनी चाहिए। फिर भी कई क्षण ऐसे आते थे जब वे परिचित चेहरे मुझे बहुत ही अपरिचित और बेगाने प्रतीत होते थे।
हरबंस को नौ साल के बाद मैंने पहली बार देखा उसका चेहरा मुझे और चेहरों की बनिस्बत कहीं ज़्यादा बदला हुआ लगा। उसके गालों का मांस कुछ थलथला गया था जिससे वह अपनी उम्र से काफ़ी बड़ा लगने लगा था (उसे देखते ही पहला विचार मेरे दिमाग में यह आया कि क्या मैं भी अब उतना ही बड़ा लगने लगा हूँ?)। उसके सिर के बाल काफ़ी उड़ गये थे, जिससे उसे देखते ही सिलविक्रिन के विज्ञापन की याद हो आती थी। मैं उस समय सिन्धिया हाउस के स्टॉप पर बस से उतरा था और कॉफ़ी की एक प्याली पीने के इरादे से कॉफ़ी हाउस की तरफ़ जा रहा था। तभी पीछे से अपना नाम सुनकर मैं चौंक गया। पीछे मुडक़र देखते ही हरबंस पर नज़र पड़ी, तो मैं और भी चौंक गया। मुझे ज़रा भी आशा नहीं थी कि इस बार दिल्ली में उससे मुलाकात होगी। नौ साल पहले जब मैं यहाँ से गया था, तब से मेरे लिए वह विदेश में ही था। मैं सोचता था कि मेरे एक और दोस्त की तरह, जिसने पोलैंड की एक विधवा से शादी करके वहीं घर बसा लिया है, वह भी शायद बाहर ही कहीं बस-बसा गया होगा। जाने से पहले वह कहता भी यही था कि अब वह लौटकर इस देश में कभी नहीं आएगा।
“हरबंस, तुम?” मैं ठिठककर उसके लम्बे डीलडौल को देखता रह गया। वह हाथों में दो-एक पैकेट सँभाले बहुत उतावली में मेरी तरफ़ आ रहा था। उसकी चाल में वही पुरानी लचक थी जिससे मुझे उसका बदला हुआ चेहरा भी उस समय बदला हुआ नहीं लगा। मैंने अपना हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाया, तो उसने मेरा हाथ नहीं पकड़ा, अपनी पैकेटवाली बाँह मेरे कन्धे पर रखकर मुझे अपने साथ सटा लिया।
“अरे, तुम यहाँ कैसे, मधुसूदन?” उसने कहा, “मैंने तो समझा था कि तुम अब बिल्कुल अख़बारनवीस ही हो गये हो और दिल्ली में तुम्हारा बिल्कुल आना-जाना नहीं होता। तीन साल में आज मैं पहली बार तुम्हें यहाँ देख रहा हूँ।”
हम लोग जनपथ के चौराहे पर खड़े थे और मैं बत्ती का रंग बदलने की राह देख रहा था। बत्ती का रंग बदलते ही मैंने उसकी बाँह पर हाथ रखकर कहा “आओ, पहले सडक़ पार कर लें।”
मेरा यह सुझाव उसे अच्छा नहीं लगा मगर उसने चुपचाप मेरे साथ सडक़ पार कर ली। सडक़ पार करते ही वह रुक गया जैसे कि अपनी सीमा से बहुत आगे चला आया हो।
“मैं एक तरह से नौ साल के बाद यहाँ आया हूँ।” मैंने कहा, “बीच में मैं दो-चार बार एक-एक दिन के लिए आया था, मगर वह आना तो न आने के बराबर ही था।”
मगर मुझे लगा कि उसने मेरी बात की तरफ़ ध्यान नहीं दिया। उसकी आँखें मेरे कन्धों के ऊपर से सडक़ के पार किसी चीज़ को खोज रही थीं।
“तुम बाहर से कब आये हो?” मैंने पूछा, “मैंने तो सोचा था कि तुम अब बाकी ज़िन्दगी लन्दन या पेरिस में ही कहीं काट दोगे। जाने से पहले तुम्हारा इरादा भी यही था।” यह कहते हुए मुझे सहसा नीलिमा के नाम लिखे उसके पत्रों की याद हो आयी, और मेरा मन एक विचित्र उत्सुकता से भर गया।
“मुझे आये तीन साल हो गये।” वह उसी तरह मोटरों और बसों की भीड़ में कुछ खोजता हुआ बोला, “बल्कि अब यह चौथा साल जा रहा है? मुझे किसी ने बताया था कि तुम लखनऊ के किसी दैनिक में हो। दैनिक का नाम भी उसने बताया था। मैंने एकाध बार सोचा भी कि तुम्हें चिट्ठी लिखूँ, मगर ऐसे ही आलस में बात रह गयी। तुम जानते हो चिट्ठियाँ लिखने के मामले में मैं कितना आलसी हूँ।”
मुझे फिर उन दिनों की याद हो आयी जब वह अभी बाहर गया ही था। उन दिनों भी क्या वह चिट्ठियाँ लिखने के बारे में ऐसी बात कह सकता था? मेरे होंठों पर मुस्कराहट की एक हल्की-सी लकीर आ गयी और मैंने कहा, “हो सकता है, मगर इसमें सिर्फ नीलिमा की बात तुम्हें छोड़ देनी चाहिए।”
वह इससे थोड़ा सकपका गया। सहसा उसके हाथ इस तरह हिले जैसे अपनी खोयी हुई चीज़ उसे भीड़ में नज़र आ गयी हो मगर दूसरे ही क्षण उसके कन्धे ढीले हो गये और उसके चेहरे पर निराशा की लहरें खिंच गयीं।
“तुम किसी को ढूँढ़ रहे हो?” मैंने पूछा।
“नहीं, देख रहा हूँ कि कोई स्कूटर मिल जाए, तो तुम्हें अपने घर ले चलूँ।”
उसका यह सोच लेना कि मुझे साथ घर ले जाने के लिए उसका मुझसे पूछना ज़रूरी नहीं है मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने तुरन्त ही मन में निश्चय कर लिया कि मैं उसके साथ नहीं जाऊँगा।
“आज हमारे यहाँ कुछ लोग खाने पर आ रहे हैं, इसलिए मेरा जल्दी घर पहुँचना ज़रूरी है।” वह बोला, “नीलिमा तुम्हें देखकर बहुत ख़ुश होगी। अभी आठ ही दस दिन हुए जब हम लोग तुम्हारी बात कर रहे थे। मैं उससे कह रहा था कि जीवन भार्गव की तरह यह आदमी भी ज़िन्दगी के दलदल में फँसकर रह गया। घर चलो, तो वहाँ तुम्हें एक नया व्यक्ति भी मिलेगा जिससे मिलकर तुम्हें ख़ुशी होगी।”
“नया व्यक्ति?”
“हमारा लडक़ा अरुण। वह अब तीन साल का होने जा रहा है। एक बार तुम्हें पहचान लेगा, तो फिर तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगा। आओ, उधर स्कूटर स्टैंड पर चलते हैं। यहाँ पर खड़े-खड़े कोई स्कूटर नहीं मिलेगा।”
“मैं इस समय तुम्हारे साथ नहीं चल सकूँगा,” मैंने कहा। “फिर किसी दिन चलूँगा। या तुम मुझे घर का पता बता दो, मैं अपने आप किसी दिन पहुँच जाऊँगा। तुम्हारे यहाँ आने में मुझे कोई तकल्लुफ तो है नहीं।” और यह कहते हुए मुझे उलझन हुई कि मेरी यह बात भी तकल्लुफ नहीं, तो और क्या है?
“फिर किसी दिन खाक आओगे!” वह थोड़ा खीझ गया, “कल-परसों जाकर लखनऊ से चिट्ठी लिख दोगे कि मुझे अफ़सोस है कि मैं तुमसे मिलने नहीं आ सका। और हो सकता है कि चिट्ठी भी न लिखो।”
“नहीं, अब इस तरह का मौका नहीं आ सकता।” मैंने कहा, “मैं लखनऊ छोडक़र दिल्ली में ही आ गया हूँ।”
“क्या!” आश्चर्य से उसके हाथ का पैकेट गिरने को हो गया जिसे उसने किसी तरह सँभाल लिया, “तुम लखनऊ से नौकरी छोड़ आये हो?”
“हाँ।”
“कब से?”
“वहाँ से रिलीव हुए मुझे दस दिन हो गये। पिछले मंगल से मैंने यहाँ ‘न्यू हैरल्ड’ में जॉइन कर लिया है। अब दूसरा मंगल है।”
“सच?”
“हाँ, सच नहीं तो क्या?”
“यह सुनकर नीलिमा तो बहुत ही ख़ुश होगी।” उसने दोनों पैकेट एक हाथ में लेकर दूसरे हाथ से मेरी बाँह को पकड़ लिया, “इस वक़्त तो तुम्हें हर हालत में मेरे साथ चलना ही है। नीलिमा को पता चलेगा कि तुम दिल्ली में हो और फिर भी मेरे साथ घर नहीं आये, तो वह कितना बुरा मानेगी? आओ, चलो...।”
“नहीं, इस वक़्त मैं सचमुच नहीं चल सकूँगा।” मैंने अपनी बाँह उसके हाथ से छुड़ाते हुए कहा, “अभी मैं बस से उतरा ही हूँ और पहले कॉफ़ी की एक प्याली पीना चाहता हूँ। और कॉफ़ी हाउस में मैंने किसी से मिलने के लिए भी कह रखा है।”
“ऐसा कौन आदमी है जिससे मिलना इतना ज़रूरी है?”
“है एक आदमी।” मैंने कहा, “तुम उसे नहीं जानते।” मुझे अपने पर गुस्सा आया कि मैंने फट से किसी का भी नाम क्यों नहीं ले दिया। झूठ बोलते वक़्त जाने ज़बान कुछ जकड़ क्यों जाती है? इससे झूठ बोलने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है और दूसरे को भी फ़ौरन पता चल जाता है कि बात झूठ कही गयी है।
“तो चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।” वह बोला, “कॉफ़ी की एक प्याली पी लो और उस आदमी को जिस किसी तरह टाल दो। घर तुम्हें मैं अपने साथ लेकर ही जाऊँगा।”
मैं अपना हठ दिखा चुका था और किसी से मिलने की बात थी नहीं इसलिए मेरा मन हुआ कि अब मैं सीधा उसके साथ चला जाऊँ। मगर अपनी बात मुझे रखनी थी, इसलिए मैंने कहा, “अच्छा आओ, वहाँ चलकर देख लेते हैं। उससे छ: बजे मिलने की बात थी। वह नहीं मिला, तो मैं तुम्हारे साथ चला चलूँगा। अपनी तरफ़ से तो मैं उसके सामने सच्चा रहूँगा कि मैं वक़्त पर पहुँच गया था।”
हरबंस और उसके सारे साहित्य और कला सम्बन्धी ज्ञान की बात मैं बम्बई में ही भूल आया था। दिल्ली आकर मैं अपने मित्र अरविन्द के पास ठहरा था जो उन दिनों एक हिन्दी दैनिक में सहायक सम्पादक के रूप में काम कर रहा था। अरविन्द क़स्साबपुरा में अपने प्रेस के एक दफ़्तरी के साथ रहता था। दफ़्तरी जिसे वहाँ सब लोग ठाकुर साहब कहकर बुलाते थे, क़स्साबपुरा के उस मुसलमान मुहल्ले में एक टूटे-फूटे घर में नीचे की दो कोठरियों पर कब्ज़ा किये हुए था, जिनमें से आगे की कोठरी में अरविन्द रहता था और पीछे की कोठरी में वह स्वयं अपनी पत्नी और सात-आठ साल की लडक़ी के साथ रहता था। अरविन्द खाना भी उसके यहाँ से ही खाता था, और उसे कुल मिलाकर पचहत्तर रुपये महीने देता था। मेरे आने पर पच्चीस रुपये महीने और देकर उसने मेरे खाने की व्यवस्था भी साथ ही कर दी। दफ़्तरी की पत्नी, जिसे हम कभी ठकुराइन और कभी भाभी कहकर बुलाते थे, बहुत स्नेह और चाव से हमें खिलाती थी। कभी-कभी तो मुझे लगता था कि वह अपने ठाकुर साहब को उतना अच्छा खाना नहीं देती जितना अच्छा हमें देती है। अरविन्द की जब दिन की ड्यूटी होती थी, तो वह दोपहर का खाना साथ दफ़्तर ले जाता था और जब रात की ड्यूटी होती थी तो ठकुराइन बारह-एक बजे आने पर भी उसे खाना गरम करके ही खिलाती थी। खाना खाते समय अरविन्द ठकुराइन से कुछ न कुछ चुहल करता रहता था। “ठकुराहन, तर माल तो तुम सब ठाकुर साहब को दे देती हो; हमारे आगे तो जो रूखा-सूखा बच जाता है वही रख देती हो।” वह कहता।
“अभी तुम तर माल के लायक हो कहाँ लाला?” ठकुराइन हँसकर कहती, “अभी तो तुम बच्चे हो। तर माल खाओगे, तो बिगड़ नहीं जाओगे?”
“तुम तो ठकुराइन सारी उम्र हमें बच्चा ही बनाये रखोगी।” अरविन्द कहता, “आखिर हमें किसी तरह बड़े भी तो होना है। हमें कभी तो कुछ खिलाया करो।”
“जब खाने लायक हो जाओगे, तो माँगकर नहीं खाओगे।” ठकुराइन हँसती रहती, “पतीली में से निकालकर खा जाया करोगे। जिस दिन इतनी हिम्मत आ जाएगी, उस दिन ठकुराइन को नहीं पूछोगे। जहाँ पतीली देखोगे, वहीं मुँह मारने लगोगे।” कहते-कहते ठकुराइन को न जाने क्या लगता कि वह सिर पर कपड़ा ठीक कर लेती। अपनी मैली धोती के सूराख भी वह जिस किसी तरह ढक लेती।
“इस तरह कहीं मुँह मारेंगे, तो जूती नहीं खाएँगे?” अरविन्द कहता।
“पकड़े जाओगे तो जूती भी खाओगे। मगर जो जूती से डरता हो, उसे तर माल की बात नहीं करनी चाहिए। क्यों, छोटे लाला?”
मैं हूँ-हाँ में उत्तर देकर कम्बल ओढ़ लेता। ठकुराइन फिर कहती “हमारे छोटे लाला तो बिल्कुल साधु-सन्त आदमी हैं। इन्हें तो रूखा-सूखा भी न मिले, तो भी इनका पेट भरा रहता है। मेरा तो ख़याल है इन्हें भूख लगती ही नहीं।”
अरविन्द मेरे चिकुटी काट देता। “क्यों बे, बोलता क्यों नहीं?”
“ठकुराइन ठीक कहती है,” मैं कम्बल उतारकर कहता।
“क्या ठीक कहती है?”
“कि मुझे भूख नहीं लगती। आज सुबह गोभी की सब्ज़ी इतनी अच्छी बनी थी, फिर भी मुझसे सिर्फ़ दो ही रोटी खायी गयीं।”
“धत्तेरे की!” अरविन्द मेरे बालों में उँगलियाँ उलझाकर मेरे सिर को अच्छी तरह मल देता, “तुझे गोभी के सिवा कुछ सूझता भी है?”
मैं चुप रहता क्योंकि मुझे उस समय यह सूझ रहा होता कि कहीं साथ की कोठरी में ठाकुर साहब के खर्राटे सहसा बन्द न हो जाएँ और मुँह से कुछ कहते न कहते मुँह का जायका ही न बदल जाए।
ठकुराइन सिर पर कपड़ा फिर ठीक करती और आँखों ही आँखों में मुस्कराती हुई कहती “ये देखने में जितने सीधे लगते हैं, असल में उतने सीधे हैं नहीं। दुनिया-भर के सब माल खाये हुए हैं। बम्बई रहकर आये हैं। यहाँ तो सुना है कि भाँत-भाँत के पदारथ मिलते हैं।”
अरविन्द एक हाथ से कौर मुँह में डालता और दूसरे हाथ से फिर मुझे थोड़ा गुदगुदा देता और कहता “ठकुराइन, हमारी न सही, कभी तुम इसकी ही कुछ ख़ातिर करो। यह भी क्या कहेगा कि हाँ बम्बई के बाद दिल्ली में भी कुछ दिन रहे थे...”
“इनसे कहो, ये कहें अपने मुँह से! बस एक बार कह दें, तो देखो ठकुराइन इनकी ख़ातिरदारी के लिए क्या-क्या नहीं करती? रोज़ कहें तो रोज़ उन्हें घी की पूरी बनाकर खिलाऊँ।”
“क्यों बे!” अरविन्द अपने जूठे गिलास में हाथ धोकर मुँह पर फेरता हुआ कहता, “एक बार कह क्यों नहीं देता? तेरे बहाने हमें भी कभी घी की पूरी मिल जाएगी। भाभी को तुम ऐसी-वैसी मत समझना। इसका दिल-गुर्दा बहुत बड़ा है।”
“किससे कह रहे हो लाला?” ठकुराइन उसके जूठे बरतन उठाकर चल देती। “बेचारे सन्त-महात्मा के पेट में क्यों चूहे दौड़ाते हो? अभी तो इन्हें तुम नौकरी की ही बात सोचने दो। नौकरी हो जाएगी, तो दुनिया-भर के तर माल भी अपने आप उड़ाने को मिल जाएँगे। अभी इन्हें तुम रूखे-सूखे पर ही रहने दो।”
ठकुराइन जाकर अपनी कोठरी का किवाड़ बन्द कर लेती तो अरविन्द कम्बल ओढक़र लम्बा होता हुआ धीरे से कहता, “ठकुराइन है रंगीन-मिज़ाज! है कि नहीं?”
“हाँ, है।” मैं कुढ़े हुए स्वर में कहता, “अब मुझे सोने दो।”
“अच्छा बताओ, तुम क्या सोच रहे हो?” अरविन्द करवट बदलकर मेरे ऊपर को झुक आता।
“नौकरी की बात सोच रहा हूँ।”
“धत्त!” वह मेरी जाँघ को हाथ से मसल देता, “जैसे नौकरी की बात सोचने का यही वक़्त है।”
“तुम्हें पता होना चाहिए कि बेकार आदमी हर वक़्त एक ही बात सोचता है।”
“अच्छा यार एक बात बताओ।” उसका स्वर बहुत धीमा और रहस्यपूर्ण हो जाता।
“अगर ठकुराइन को थोड़ा और टटोला जाए, तो तुम्हारा क्या ख़याल है इसे पटाया जा सकता है?”
मैं उसे गुस्से में परे धकेल देता “अब तुम सो जाओ और मुझे भी सोने दो।”
“मैं तो समझता हूँ कि बस दाना डालने की बात है।” वह सीधा पड़ा-पड़ा कहता, “अगर ठीक से दाना डाला जाए तो ऐसी कोई बात नहीं कि ठकुराइन मान न जाए।”
“मुझे नींद आ रही है, इसीलिए कम से कम मुझे सो जाने दो,” कहकर मैं करवट बदल लेता।
“लानत है ऐसी नींद पर,” अरविन्द भी निराश होकर करवट बदल लेता, “मुझे नहीं पता था कि तुम इतने बोदे आदमी हो।”
और बहुत जल्दी ही उस कम्बल से खर्राटे भरने की आवाज़ सुनायी देने लगती। मैं देर तक जागता हुआ आनेवाले कल की बात सोचता रहता। उन दिनों एक-एक दिन मैं बहुत जुगत-ब्योंत से काट रहा था। मासिक ‘इरावती’ के दफ़्तर में डेढ़-दो सौ की नौकरी मिलने की आशा थी, मगर सम्पादक महोदय हर रोज चाय-कॉफ़ी पिलाकर विदा कर देते थे और निश्चित बात का कुछ पता नहीं देते थे। शायद उन्होंने मेरी तरह किसी और को भी लटका रखा था और अपने मन में तय नहीं कर पा रहे थे कि किसे रखें ओर किसे मना करें। मेरी कुछ-एक कविताएँ उस पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थीं, इसलिए वे बात बहुत मुलायम ढंग से करते थे। जितनी देर मैं उनके सामने की कुरसी पर बैठा उनसे बात करता रहता, उतनी देर मुझे यही लगता कि कल नहीं तो परसों से वह नौकरी मुझे ज़रूर मिल जाएगी, मगर उनके दफ़्तर की सीढिय़ाँ उतरते ही मन पर निराशा का भूत सवार हो जाता। बम्बई से आते समय जो सौ-सवा सौ रुपये जेब में थे, वे अब समाप्त होने को थे और मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जब जेब बिल्कुल खाली हो जाएगी, तो एक दिन भी किस तरह काटूँगा। इसलिए ठकुराइन के साथ अरविन्द की चुहल से कभी-कभी मेरा मन बहुत झुँझला उठता था। नफ़्स की भूख से पेट की भूख बड़ी होती है,यह सूत्र उन दिनों मुझे बहुत सार्थक प्रतीत होता था। मुझे गुस्सा आता था कि इतने बड़े सूत्र का अर्थ अरविन्द की समझ में क्यों नहीं आता।
कोठरी में रात को चूहे बहुत शोर मचाते थे। कभी कोई चूहा पैरों की तरफ़ चीं-चीं करता और फिर कम्बल के ऊपर से गुज़रकर सिर की तरफ़ आ जाता। अरविन्द बिल्कुल निश्चिन्त और बेखटके खर्राटे भरता रहता। साथ के कमरे में कोई कटोरी गिरकर झनझना उठती या ठाकुर साहब की चारपाई चरमराने लगती। मुझे वहाँ लेटे-लेटे कई बार बहुत घुटन महसूस होने लगती थी। मैं कम्बल से सिर निकालकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगता क्योंकि मुझे अपना दम रुकता-सा प्रतीत होता था। अरविन्द और ठकुराइन के सारे मज़ाक चूहों की चीं-चीं के साथ मिलकर मेरे दिमाग़ की नसों को कुतरते रहते थे। मैं सोचता था कि क्या ठकुराइन सचमुच वही चाहती है जो अरविन्द समझता है कि वह चाहती है? क्या अरविन्द के मन में सचमुच ठकुराइन को उस रूप में पाने की कामना जागती है? ठकुराइन का झाइयों से लदा हुआ चेहरा और ढीला पड़ा हुआ शरीर क्या सचमुच उसके मन में इस तरह की कामना जगा देते हैं? और ठाकुर साहब के होते हुए ठकुराइन के मन में ऐसी कामना क्यों उठती है? तो क्या...?
और यह सब सोचते हुए मेरे शरीर में एक झुरझुरी-सी भर जाती। मुझे अपने गाँव का वह पोखर याद आ जाता जिसके कीचड़ मिले पानी में सूअर मुँह मारते रहते थे और मैं उन्हें पत्थर मार-मारकर भगाया करता था मगर मेरे मारे हुए पत्थरों का उन पर उल्टा ही असर होता था। वे पोखर में उतरकर अपने को और भी कीचड़ में लथपथ कर लेते थे। तब मैं चाहा करता था कि वह पोखर किसी तरह सूख जाए जिससे सूअरों का उसमें उतरकर अपने को कीचड़ में लथपथ करना बन्द हो जाए। गरमी के दिनों में मैं रोज़ देखता था कि पोखर कितना सूख गया है। कई बार यह देखने के लिए ही मैं तेज़ धूप में भी वहाँ चला जाता था, मगर पोखर अभी एक-चौथाई भी नहीं सूख पाता था कि फिर बारिश हो जाती थी और पोखर फिर उसी तरह लबालब भर जाता था। पोखर में उतरते हुए सूअर अपनी थूथनियाँ उठाकर मेरी तरफ़ मुँह चिढ़ाने लगते थे और मैं अपनी बेबसी से खीझकर उन्हें और पत्थर मारने लगता था। घर लौटने तक मेरे सब कपड़े कीचड़ से लथपथ होते और दहलीज़ से अन्दर दाख़िल होते ही मुझे ताई की डाँट सुननी पड़ती थी, “तू नहीं मानेगा कीचड़ से खेले बिना गधू (गधे का यह रूपान्तर उन्होंने मधु के वज़न पर कर रखा था)। इतनी बार मार खायी, फिर भी तेरा वही हाल है। सूअरों के बीच एक सूअर तू भी है।”और मैं थप्पड़ खाने से पहले ही थप्पड़ के डर से रोना शुरू कर देता था।
कभी-कभी रात की खामोशी में एक आवाज़ कोठरी की घुटन को कुछ कम कर देती थी। घर पर ऊपरी मंज़िल पर बुड्ढा इबादत अली कभी-कभी आधी रात को सितार बजाने लगता था। इबादत अली उस घर का मालिक था मगर वह वहाँ किरायेदारों से बदतर हालत में रहता था। जब पाकिस्तान बना था, तो वह भी और कई लोगों की तरह अपना घर छोडक़र लाहौर चला गया था—शायद अपनी लडक़ी खुरशीद की वजह से, कि हो सकता है अब हिन्दुस्तान में रहकर वह उसकी ठीक से हिफ़ाज़त न कर सके। इबादत अली की बीवी एक वर्ष पहले गुज़र चुकी थी और खुरशीद के अलावा उसके जो एक लडक़ा हुआ था, वह भी चार साल का होने से पहले ही चल बसा था। विभाजन से पहले वह खुद खुरशीद के साथ घर के उस हिस्से में रहता था जो अब ठकुराइन के पास था और बाकी हिस्सों में मुसलमान किरायेदार रहते थे। वह घर उसके परदादा या लकड़दादा को मुग़ल दरबार से बख्शीश में मिला था और तब से वे लोग उसी घर में रहते आ रहे थे। सितार बजाना उनका ख़ानदानी पेशा था। इबादत अली के पास वह तमग़ा भी सुरक्षित था जो उसके पूर्वज इम्तियाज़ अली को शहनशाह जहाँगीर ने अपने हाथों से दिया था। सितम्बर सन् सैंतालीस के दंगों में जब घर के सब किरायेदार घर खाली करके चले गये, तो आसपास के लोगों के विश्वास दिलाने पर भी कि जब तक वे वहाँ हैं, कोई उसका बाल बाँका नहीं कर सकता, वह निश्चिन्त नहीं हो सका था और एक शाम चुपचाप घर छोडक़र अपनी लडक़ी के साथ वहाँ से चला गया था। इस बीच पाकिस्तान से आये हुए हिन्दू शरणार्थियों ने उसके घर पर कब्ज़ा कर लिया। तीन महीने लाहौर में रहकर जब उसका दिल वहाँ किसी तरह नहीं लगा, तो वह जिस तरह एक शाम गया था, उसी तरह एक शाम अपनी लडक़ी को लिये हुए दिल्ली लौट आया। आते हुए उसने शायद यह नहीं सोचा था कि उसके अपने घर में ही उसके लिए जगह खाली नहीं होगी। यहाँ आकर जब उसने देखा कि उसके अपने घर में आये हुए मेहमान अब उस घर के मालिक बने हुए हैं, तो उसे बहुत नागवार गुज़रा और तभी से उसे दिल के दौरे पडऩे लगे। वह कुछ दिन पीछे की गली में मजीद क़स्साब के यहाँ रहा। बाद में कस्टोडियन को अर्ज़ियाँ दे-देकर उसने किसी तरह का घर का ऊपर का हिस्सा खाली करा लिया और अपनी लडक़ी के साथ वहाँ चला आया। घर के हिन्दू किरायेदार उससे यूँ भी खार खाते थे और मुसलमान का छुआ पानी पीने में उनका धर्म भी जाता था, इसलिए वे उसे या उसकी लडक़ी को आँगन के पम्प से पानी नहीं भरने देते। बुड्ढा इबादत अली तो इस पर सब्र कर जाता था, मगर उसकी लडक़ी को यह बरदाश्त नहीं था। वह कई बार जान-बूझकर ऊपर के पम्प को छोडक़र नीचे के पम्प से पानी भरने चली आती थी जिससे सारे घर में कोहराम मच जाता था। खुरशीद की उम्र मुश्किल से पन्द्रह या सोलह साल की थी, मगर उसका शरीर इतनी जल्दी निखर आया था कि वह देखने में उन्नीस-बीस से कम की नहीं लगती थी। वह तंग मोरी का पाजामा और लहरिया दुपट्टे के साथ आधी बाँहों की कमीज़ पहने गरदन तानकर घर में चलती थी और अपनी हर अदा से यह ज़ाहिर कर देना चाहती थी कि वह उस घर की मालकिन है? ठकुराइन, गोपाल की माँ और घर की दूसरी लड़कियाँ और स्त्रियाँ उससे बहुत जलती थीं। दोपहर को जब वे ड्योढ़ी में बैठकर चावल छाँट रही होतीं, या मसाला कूट रहीं होतीं, तो वह आकर चुपचाप ड्योढ़ी की चौखट पर खड़ी हो जाती और मूँगफली छीलकर उसके छिलके इधर-उधर फेंकती हुई कोई गीत गुनगुनाने लगती। कस्टोडियन का फैसला था कि उस घर के किरायेदार किराया इबादत अली को ही देंगे, इसलिए हर पहली तारीख़ को कापी-पेंसिल लिये हुए वह एक-एक के कमरे में जाकर कुर्की का वारंट लेकर आये सिपाही की तरह कहती थी, “बराये मेहरबानी किराया अदा कर दीजिए।” स्त्रियाँ इस बात पर झींकती थीं कि उनके आदमियों को अभी तनख़ाह तो मिली नहीं, और वह किराया लेने पहले ही आ पहुँची है। जब वे विरोध में कुछ भी कहतीं, तो खुरशीद चुपचाप बाँहों के तिकोन बनाये खड़ी रहती और सब सुनकर अन्त में फिर यही कह देती, “आज पहली तारीख है, आप किराया दे दीजिए।” उससे किराये के लिए मोहलत माँगी जाए, यह उसे अच्छा लगता था और वह सबको दो-दो, तीन-तीन दिन की मोहलत दे भी देती थी। मगर अगली पहली को फिर उसी तरह कॉपी-पेंसिल लिये वह सबके सिर पर आ सवार होती थी, “माईजी, आज पहली तारीख़ है, किराया दे दीजिए।” ठकुराइन और गोपाल की माँ उसके ‘माईजी’ कहकर बुलाने से भी चिढ़ती थीं। गोपाल की माँ कहती थी, “मरी की आँख में ज़रा भी लाज-लिहाज़ नहीं। जाने इसे कहाँ का जवानी का ज़ोर चढ़ा है! इसके लिए और सब तो ‘माईजी’ हैं! दुनिया में एक जवान है, तो यह अकेली ही है। किराया लेकर खिलाएगी अपने खसम को! सारा दिन जाने कहाँ-कहाँ के चक्कर पर चढ़ी रहती है, छिनाल!”
मगर खुरशीद उनकी बातों की ज़रा भी परवाह नहीं करती थी और उनके हज़ार झींखने पर भी उसकी गरदन में खम नहीं आता था। वह जब सुर्ख या सब्ज़ ओढऩी लिये ड्योढ़ी में से गुज़रती तो वहाँ के वातावरण में एक हलचल-सी मच जाती। वह खूब उजले कपड़े पहनकर शायद सब पर यह साबित करना चाहती थी कि वह उनमें से एक नहीं है, उनसे अलग और कहीं ऊँचे रुतबे की है, और उन लोगों से उसकी कोई निस्बत नहीं हो सकती। उसके शरीर का निखार उसकी ऊँचाई की भावना को और भी पुष्ट करता था, और जब वह आती, तो जो कोई भी ड्योढ़ी में खड़ा होता, वह अनायास ही एक तरफ को हट जाता था।
खुरशीद जितनी ही चुस्त थी और जिस तरह तडक़-भडक़ के साथ रहती थी, बुड्ढा इबादत अली उतना ही पस्त और खस्ताहाल नज़र आता था। घर के बाहर उसके नाम की लकड़ी की तख्ती लगी थी जो धूप और बरसात में आधी से ज़्यादा गल चुकी थी। उस पर लिखे हुए नाम में से भी इबादत का हुलिया बिल्कुल बिगड़ गया था और अली ही अली बाकी रह गया था और वह भी बिल्कुल बुझा हुआ-सा। इबादत अली का अपना व्यक्तित्व की तख्ती पर लिखे नाम से ज़्यादा भिन्न नहीं था। वक़्त की मार से ज्यों-ज्यों तख्ती पर लिखे हुए नाम की हालत ज़ेर होती जा रही थी, त्यों-त्यों उसकी अपनी हालत भी ज़ेर होती जा रही थी। उसकी कमर झुक गयी थी और पुरानी शेरवानियाँ उसके शरीर पर बहुत ढीली आती थीं। उसके व्यक्तित्व में एक ही चीज़ थी जिसकी नोक अब भी तीखी नज़र आती थी और वह थी उसकी कामदार टोपी। वह जब भी खाँसता हुआ ऊपर से नीचे आता, तो उसकी वह टोपी उसके व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग किसी और के सिर से उतारकर उसके सिर पर रखी हुई प्रतीत होती थी। वह इस तरह डरा हुआ-सा लोगों के बीच से गुज़रता था जैसे उन सब पर उसे जल्लाद होने का शुबहा हो जो कटारें ताने खड़े हों। कोई सामने से आ रहा होता, तो वह थोड़ा झुककर उसे सलाम भी कर देता, जाने आदत की वजह से या अपनी लाचारी के अहसास से। लोग खुरशीद का बदला अकसर उससे निकाल लेते थे। “मियाँ साहब, रास्ते से हट जाइए, हमारा राशन आ रहा है।” मियाँ पर ऐसी बात का तुरन्त असर होता और वह रास्ते से हटने की जगह कई बार वापस ऊपर चला जाता।
मजीद क़स्साब और कुछ और लोगों ने मियाँ को भडक़ाने की कोशिश की थी कि वह कस्टोडियन को दरख़्वास्त देकर अपने मकान का पूरा कब्जा ले ले और इशारे में उससे यह भी कहा था कि अगर हिन्दू किरायेदारों ने किसी तरह की शरारत की, तो वे वहाँ फ़साद करा देंगे। मगर मियाँ ने उस बारे में कोई कार्रवाई नहीं की। खुरशीद अपने बाप के इस दब्बूपन से बहुत चिढ़ती थी और कई बार उस पर बुरी तरह बिगड़ भी उठती थी। मगर मियाँ बिना किसी हील-हुज्जत के उसकी बात सुन लेता था और उसके बाद या तो नमाज़ पढऩे लगता था, या सितार लेकर बैठ जाता था। जब उसे दिल का दौरा पड़ता, तो वह कई-कई दिन ऊपर से नीचे नहीं आता था। खुरशीद भी उन दिनों ज़्यादा वक़्त उसके पास ही रहती थी। वह नीचे उतरती, तो सिर्फ़ दवाई लाने के लिए या मजीद को बुलाने के लिए। मजीद आकर काफ़ी-काफ़ी देर मियाँ के पास बैठा रहता था और कई बार तो रात खूब गहरी होने लगती थी, तब लौटकर वहाँ से जाता था। घर की स्त्रियों में इस बात को लेकर भी बहुत चर्चा होती थी कि मजीद वहाँ क्यों आता है और इतनी-इतनी रात तक ऊपर क्या करता रहता है। खुरशीद से वह उम्र में कम से कम बीस साल बड़ा था, फिर भी लोग उसके आने का कारण मियाँ इबादत अली को नहीं, खुरशीद को ही समझते थे। “नहीं तो वह लाल-पीले दपुट्टे किसके लिए ओढ़ती है?” गोपाल की माँ कहती थी, “बुड्ढे बाप की तो आँखें हैं नहीं जो उसे दिखाएगी। कमजात दवाई के बहाने इस मरदूद को दिखाने के लिए ही तो ओढ़-ओढक़र जाती है। बाप सिर पर न होता, तो जाकर किसी कोठे पर बैठ जाती।”
“अब भी तो कोठे पर ही रहती है।” ठकुराइन बात का रस लेती हुई कहती, “बस इतना ही फर्क है कि यह कोठा आगे को नहीं बना, पीछे को बना है। क्यों!” इस पर वे दोनों हँस-हँसकर लोट-पोट होने लगतीं, और गोपाल की माँ ठकुराइन के पेट में ठोंगा मारकर कहती, “तू ठकुराइन, एक ही बदमास है!”
“और तू कहाँ की भलीमानस है?” ठकुराइन चट से जवाब देती, “तेरे किस्से तो घर-घर में मशहूर हैं।” और इस पर वे इस तरह हँसती रहतीं जैसे दोनों ने एक-दूसरी की बहुत प्रशंसा की हो।
रात की खामोशी में जब इबादत अली सितार बजाता था तो मेरी नसों में भरी हुई ऊब और झुँझलाहट धीरे-धीरे कम होने लगती थी। सितार के तारों से निकले हुए स्वर मन को एक और ही तरह के भारीपन से लाद लेते थे—मन कुछ हल्की-हल्की परतों के नीचे दबता जाता था और अपनी तरफ से कुछ सोचने की बात ही मन से निकल जाती थी। नन्ही-नन्ही बूँदों की तरह वे स्वर मन को एक भीगे से पुलक से भरने लगते थे। जिस तरह हवा के झोंकों में फुहार की बूँदें काँपती हैं, उसी तरह वे स्वर कभी तेज़ और कभी मद्धिम हो जाते थे और मेरा मन भी उन स्वरों में भीगता हुआ उस कोठरी की चारदीवारी से निकल खुले आकाश में ही कहीं मँडराने लगता था, आँखें मूँद लेने पर अँधेरे की स्याह स्लेट पर उन स्वरों से कुछ लिपियाँ-सी बनने लगतीं—दूर के सितारों की तरह झिलमिलाती हुई लिपियाँ, जो कि बनने के साथ-साथ ही मिटती जाती थीं, एक मुग्ध चेहरे पर आते-जाते भावों की तरह। परन्तु उनके मिटने के बाद भी कुछ शेष रह जाता था, हवा में, आकाश में, मन में। मन में उसका रूप एक उदासी का होता था। मैं आँखें खोलता और बन्द करता, और धीरे-धीरे मुझे नींद आ जाती।
मेरा कई बार मन होता था कि किसी समय बुड्ढे इबादत अली के पास बैठकर उससे सितार सुनूँ मगर लोगों की टीका-टिप्पणी के डर से मैं मन को रोक लेता था। मगर एक बार बहुत ही मन हुआ, तो मैं धूप में टहलने के बहाने ऊपर चला गया। इबादत अली उस समय खाना खा रहा था और खुरशीद उसके पास बैठी उसकी उधड़ी हुई शेरवानी को सी रही थी। मुझे देखकर उन दोनों को आश्चर्य हुआ, क्योंकि निचली मंज़िलों से कोई भी ऊपर आता था, तो उसकी तरफ़ से आँखें फेरकर उनकी कोठरी के पास से निकल जाता था। इबादत अली का हाथ रुक गया, जैसे उसे शक हुआ हो कि मैं भी हाथ में कटार लेकर ही तो नहीं आया। खुरशीद ने शेरवानी एक तरफ़ रख दी और सीधी नज़र से मुझे देखती हुई बोली, “कहिए!”
“मैं मियाँ साहब से मिलने के लिए आया हूँ,”मैंने कहा।
“फ़रमाइए!” मियाँ के चेहरे की तरह उसकी आवाज़ में भी एक आशंका थी, एक सन्देह था।
“मैं अक्सर रात को आपका सितार सुना करता हूँ।” मैंने कहा, “चाहता था कि किसी वक़्त आपके पास बैठकर भी सुनूँ।”
मियाँ ने अपनी सन्देह भरी आँखें मेरे चेहरे से हटाकर खुरशीद की तरफ़ देखा तो उसने कहा, “अब्बा, ये निचली मंज़िल में हमारे वाली कोठरी में रहते हैं।” और फिर आँखें उठाकर मुझसे बोली, “अब्बा अब अपने शौक के लिए ही कभी-कभार बजा लेते हैं। किसी की फ़रमाइश के लिए बजाना इन्होंने एक मुद्दत से छोड़ दिया है।” उसने बात सहज ढंग से कही, फिर भी उसके शब्दों में एक तीखापन था जो मुझे नश्तर की तरह चुभ गया। “आइए, तशरीफ़ रखिए।” मियाँ ने कौर तोड़ते हुए कहा, “मैं इस वक़्त खाना खा रहा था। आप हमारे हाथ का खाएँगे नहीं, नहीं तो मैं कहता कि आप भी थोड़ा-सा नोश फरमाएँ।”
खुरशीद को उसकी यह बात अच्छी नहीं लगी और उसने एक अवज्ञा और उपेक्षा भरी नज़र से मुझे देखकर मियाँ से कहा “अब्बा, आप खाना खाकर थोड़ी देर आराम करें। फिर आपकी दवाई का वक़्त हो जाएगा।” और फिर मेरी तरफ़ देखकर बोली, “हकीम साहब ने कह रखा है कि खाने के बाद इन्हें कम से कम एक घंटा आराम करना चाहिए। इनकी सेहत दिन-ब-दिन गिरती जा रही है, इसलिए आराम इनके लिए बहुत ज़रूरी है। साज़ बजाने में इन्हें काफ़ी मेहनत पड़ती है। हकीम साहब का तो कहना है कि इन्हें अब बजाना बिल्कुल छोड़ देना चाहिए। मगर ये हैं कि किसी की बात सुनते ही नहीं।”
संकेत स्पष्ट था। मुझे लगा कि मेरा वहाँ और रुकना ठीक नहीं। मैंने जान-बूझकर अपने को उस भद्दी स्थिति में डाल लिया था और अब मुझे उसके लिए अफ़सोस हो रहा था। मगर एकदम वहाँ से चल देना भी ठीक नहीं लगता था इसलिए मैं क्षण-भर एक असमंजस में खड़ा कोठरी के फटे-पुराने सामान को देखता रहा। जिस सितार के स्वर रात को आकाश में कँपकँपी पैदा कर देते थे, वह देखने में बहुत टूटा-फूटा-सा था। चारपाई पर बिछी हुई चादरों में जगह-जगह पैबन्द लगे थे और खूँटियों से लटके हुए कपड़े बरसों से धुल-धुलकर अब तार-तार हो रहे थे। खाना पकाने के एल्यूमीनियम के बरतन जाने कितनी-कितनी आँचों की कालिख अपने में समेटे हुए थे! खुरशीद की वे ओढ़नियाँ उस समय न जाने कहाँ थीं जिनके बल पर वह अपनी गरदन अकड़ाकर चला करती थी! उसकी गरदन अलबत्ता उस समय भी अकड़ी हुई थी और उसकी आँखों में शरारों की सी चमक नज़र आ रही थी।
“अच्छा, आप इस वक़्त आराम फ़रमाएँ, “मैंने मियाँ से कहा। “मैंने आकर नाहक आपको तकलीफ़ दी, इसके लिए शर्मिन्दा हूँ।”
“आप तशरीफ़ रखिए।” बुड्ढा इबादत अली जल्दी-जल्दी कौर निगलता हुआ बोला, “आपको साज़ सुनने का शौक है, तो मैं आपके लिए...”
“नहीं अब्बा, आप इस वक़्त साज़ नहीं बजाएँगे।” खुरशीद ने उसकी बात बीच में ही काट दी, “आपकी सेहत इसकी इजाज़त नहीं देती और यह वक़्त आपके आराम करने का है।” उसकी आँखों में एक प्रतिहिंसा का भाव स्पष्ट झलक आया था। मुझे और एक पल भी वहाँ रुकना मुनासिब नहीं लगा, इसलिए मैंने कहा, “हाँ, ठीक है। यह इनके आराम का वक़्त है। इस वक़्त इन्हें आराम ही करना चाहिए।” और मियाँ को सलाम करके मन में अपमान और तिरस्कार की चुभन लिये हुए मैं वापस चला आया। शायद इस बात को लेकर बाद में मियाँ की खुरशीद के साथ कुछ कहा-सुनी भी हुई, क्योंकि उसके बाद कई रातों तक मियाँ ने सितार नहीं बजाया। जब मैं ऊपर से लौटकर अपनी कोठरी में पहुँचा, तो ठकुराइन झट से अपनी कोठरी की दहलीज़ पर आ खड़ी हुई। “क्यों लाला, तुम भी अब ऊपर के चक्कर काटने लगे?” उसने कहा।
“मैं ज़रा धूप में टहलने के लिए गया था,”मैंने कहा और चुपचाप एक किताब लेकर बैठ गया।
“टहलने न टहलने गये थे।” ठकुराइन बोली, “औरों से झूठ बोलो तो बोलो, भाभी से भी झूठ बोलते हो?”
मुझे अपनी खीझ की वजह से ताव आ गया और मैंने किताब ज़ोर से बन्द करके रख दी। “तुम्हें भाभी, हर वक़्त बस एक ही बात सूझती है।” मैंने कहा। ठकुराइन का चेहरा सहसा फीका पड़ गया और वह चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाकर बोली, “अरे, तुम तो बुरा मान गये, लाला! मैं सचमुच थोड़े ही कह रही थी। मैं क्या जानती नहीं कि तुम्हारा उन लोगों से क्या वास्ता हो सकता है? तुम कोई ऐसे-वैसे हो जो जाकर उस फूटी हँडिया को सूँघोगे? मैंने तो ऐसे ही बात के लिए बात कह दी। आजकल सरदी के दिन हैं, आदमी का घड़ी-भर धूप में टहलने को मन कर ही आता है। हम जब किराया देते हैं, तो छत पर जाकर धूप क्यों नहीं सेकें? परमात्मा की बनायी हुई चीज़ है, उस पर मियाँ का राज थोड़े ही है? मैं तो खुद गोपाल की माँ से कह रही थी कि गोपाल की माँ, कभी-कभी हम लोग भी जाकर ऊपर धूप में क्यों न बैठ जाया करें?”
मैंने चुप रहकर किताब फिर उठा ली तो ठकुराइन थोड़ा पास आकर बोली, “देखो लाला, तुमने मेरी बात का बुरा तो नहीं मान लिया? मुझे तुम चाहे जिसकी सौगन्ध खिला लो, मैं तो हँसी में कह रही थी।”
“खैर, इस बात को अब जाने दो भाभी।” मैंने उसी रूखे स्वर में कहा, “इस वक़्त मैं थोड़ा कुछ पढऩा चाहता हूँ।”
“हाँ-हाँ, तुम बैठकर पढ़ो, मैं उधर जा रही हूँ।” ठकुराइन चलती हुई बोली, “तुम्हारी भाभी तो तुम्हारी तरह पढ़ी-लिखी है नहीं। वह कभी बेवकूफी की बात भी कह दे, तो बुरा मत मान जाया करो। जिस मरदूद का सारे घर में कलंक फैला है, उसके साथ मैं तुम्हारा नाम कभी ले भी सकती हूँ? मैं तो अपनी ज़बान काटती हूँ कि यह मरी बिना समझे-बूझे जो मुँह में आता है, कह जाती है? तुम मेरी बेवकूफी की बातों पर ध्यान न दिया करो। कहो, तो तुम्हारे लिए चाय बना दूँ?”
मैंने सिर हिलाकर मना कर दिया तो भाभी वहाँ से चली गयी। मेरी आँखों के सामने किताब की पंक्तियाँ आड़ी-तिरछी होकर एक-दूसरी में उलझ रही थीं, और मैं फिर-फिर खुरशीद के शब्दों और उसकी आँखों के अवज्ञा के भाव से तिरस्कृत होता हुआ भी बार-बार उन्हीं आँखों को अपने सामने देख रहा था।
और बहुत जल्दी ही वह दिन भी आ गया जब मेरी जेब बिल्कुल खाली हो गयी। आखिरी छ: आने जेब मे लिये हुए मैं आखिरी बार ‘इरावती’ के सम्पादक से पूछने गया कि अब भी उसने कुछ निश्चय किया है या नहीं। मैंने तय कर लिया था कि उससे मिलने के बाद मैं घड़ी बेचकर जो भी तीस-चालीस मिलेंगे उन्हें लेकर सीधा गाँव चला जाऊँगा। मगर उस दिन सम्पादक श्री भास्कर काफ़ी अच्छे मूड में थे, इसलिए उन्होंने मुझे पहली तारीख से नौकरी पर आने के लिए कह दिया, जिससे मुझे घड़ी की कलाई से उतारने की नौबत नहीं आयी। मैं जब ‘इरावती’ के कार्यालय से लौटकर घर आया, तो मुझे अपना आपा और दिनों की अपेक्षा बहुत हल्का लग रहा था और मैं चाह रहा था कि किसी के साथ बैठकर कुछ देर खुलकर हँसूँ। ठकुराइन उस समय शाम को रोटी के लिए चूल्हा जला रही थी। उसकी मैली धोती कन्धे से उतरी हुई थी, बाल उड़े हुए थे और चूल्हे में फूँक मारने की वजह से आँखों में पानी आ रहा था। मुझे देखकर उसने आँखें मिचमिचाते हुए पूछा, “क्यों लाला, चाय बना दूँ?”
“हाँ भाभी, आज खूब गरम चाय की प्याली बनाकर दो।” मैंने कहा, “आज तो चाय के साथ कोई गरम-गरम नमकीन चीज़ भी बनाकर खिला सको, तो खिलाओ। खूब गरम और नमकीन!”
ठकुराइन ने चूल्हे के पास से हटकर आँखें पोंछ लीं और कुछ आश्चर्य के साथ मेरी तरफ़ देखा। उसे शायद समझ नहीं आ रहा था कि यह आदमी जो हर रोज़ रोटी भी अनमने ढंग से खाता है, ऐसे जैसे कोई बेगार टाल रहा हो, आज अचानक गरम और नमकीन चीज़ की फ़रमाइश कैसे करने लगा। वह पास आकर खड़ी हो गयी, तो मुझे न जाने क्यों उसका शरीर अस्वाभाविक रूप से छोटा लगा, जैसे वह एक छोटी-सी बच्ची हो और आँखें फैलाये हुए अपने सामने कोई कौतुक की चीज़ देख रही हो।
“क्या बात है लाला, आज नमकीन की फ़रमाइश कर रहे हो?” वह बोली, “आज कोई पुरानी दोस्त तो नहीं मिल गयी?”
“तुमने ठीक ही सोचा है भाभी।” मैंने हँसकर कहा, “बड़ी मुद्दत से उसके इन्तज़ार में था।”
“कौन है, हमें नहीं बताओगे? कोई तुम्हारी बम्बई की वाकिफ़ है?”
“नहीं भाभी, जो बात तुम सोचती हो, वह बात नहीं है। मुझे पहली तारीख़ से नौकरी मिल गयी है।”
“सच?” ठकुराइन का चेहरा एकदम खिल गया, “तब तो तुम दुनिया की जो चीज़ कहो, वही चीज़ तुम्हें बना दूँ। कितने की मिली है?”
“एक सौ साठ की।” और मैं हाथ-मुँह धोने के लिए पम्प पर चला गया। पैर धोते हुए मैंने आवाज़ दी, “भाभी, चाय ज़रा जल्दी तैयार कर देना। मैं अभी घूमने के लिए भी जाऊँगा। जब से आया हूँ, एक बार भी कनॉट प्लेस नहीं गया। सोचता हूँ कि आज उधर का चक्कर भी लगा आऊँ।”
गोपाल की माँ हैरान-सी अपने कमरे से निकल आयी कि जो आदमी कभी अपने कमरे में भी ऊँची बात नहीं करता था वह आज पम्प के पास से कैसे चिल्ला रहा है।
ठकुराइन ने चाय बनाकर दी तो वह काफ़ी गरम थी। पीतल का गिलास रोज़ की तरह मैला था मगर मैंने रोज़ की तरह चाय को अन्दर उँडेला नहीं, धीरे-धीरे चुस्कियाँ लेकर पीता रहा। ठकुराइन जल्दी से पकौड़े भी बनाना चाहती थी, मगर मैंने उसे मना कर दिया, क्योंकि मुझे अपने अन्दर तुरन्त वहाँ से चल देने की जल्दबाज़ी महसूस हो रही थी। ठकुराइन का चेहरा भी उस समय चूल्हे की रोशनी में रोज़ की तरह मुरझाया हुआ न लगकर काफ़ी सजीव और ताज़ा लग रहा था। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि उसके चेहरे की झुर्रियाँ एकदम हल्की कैसे पड़ गयीं और वह अचानक अपनी उम्र से छोटी कैसे लगने लगी। उसकी गरदन के नीचे जो गड्ढा था, वह भी उस समय आकर्षक लग रहा था। मगर उसकी आँखों में जो भाव था, वह न जाने कैसा था! उससे लगता था जैसे वह मुझसे एक गज के फ़ासले पर न होकर, कई गज़ के फ़ासले पर बैठी हो और इस तरह मुझे देख रही हो जैसे एक बच्चा दूर आकाश में गुम होते हुए गुब्बारे को देखता है।
मैं जल्दी-जल्दी चाय पीकर जब चलने के लिए तैयार हो गया तब मुझे ध्यान आया कि मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं है। इससे सहसा मेरे बाहर जाने के उत्साह पर पानी पड़ गया। ठकुराइन ने जाने कैसे ताड़ लिया कि पैसे की वजह से मैं अपना जाने का इरादा बदल रहा हूँ। उसने अपनी कोठरी की दहलीज़ के पास आकर कहा, “क्यों लाला, जा नहीं रहे हो क्या?”
“सोच रहा हूँ कि आज न ही जाऊँ।” मैंने कहा, “दिन-भर बसों में धक्के खाकर परेशान हुआ हूँ। कुछ देर यहीं बैठकर कोई किताब पढ़ता रहूँ। थोड़ी देर में अरविन्द भी दफ़्तर से आ जाएगा।”
“अभी तो इतनी खुशी में जा रहे थे, और अब कह रहे हो कि बैठकर किताब पढ़ूँगा?” ठकुराइन ने अपना मैला-कुचैला रूमाल निकाल लिया और उसकी गाँठ खोलने लगी, “आज जाकर जो कुछ खाओ-पीओगे, उसका खर्चा मेरे सिर। तुम्हारी नौकरी लगी है, तो भाभी को भी तो कुछ खर्च करना चाहिए। यह लो, मेरे पास कुल ढाई रुपये हैं। पाँच होते, तो आज मैं तुम्हें पाँच ही दे देती।”
मैं क्षण-भर ठकुराइन के चेहरे को देखता रहा। एक बार फिर मेरे दिमाग़ में वही बात घूम गयी कि क्या सचमुच ठकुराइन वही कुछ चाहती है जो अरविन्द सोचता है कि वह चाहती है? मगर अरविन्द तो उसे दाना डालने की बात किया करता था, और वह थी कि...शायद मुझी को दाना डाल रही थी। मेरा एक बार मन हुआ कि पैसे लेने से मना कर दूँ और खाली जेब वहाँ से चल दूँ, मगर फिर कनॉट प्लेस की बत्तियाँ मेरी आँखों के सामने जगमगा गयीं और मैं मन की उस कमज़ोरी पर काबू न पा सका। मैंने कुछ संकोच के साथ उसके रूमाल से पैसे उठा लिये और कहा, “ऐसे तो मैं नहीं लूँगा, मगर उधार मानकर लेता हूँ। आज मेरी जेब बिल्कुल खाली है। जिस दिन तनखाह मिलेगी, उस दिन ब्याज समेत अदा कर दूँगा।”
“जिस दिन तुम्हें तनखाह मिलेगी, उस दिन मैं तुमसे ढाई रुपल्ली लूँगी?” ठकुराइन रूमाल झाडक़र उसे नेफ़े में खोंसती हुई बोली, “उस दिन तो मैं तुमसे साड़ी लूँगी, साड़ी। कम से कम बीस रुपये वाली। तुम्हारे साथ कनॉट प्लेस जाकर लाऊँगी।”
“हाँ-हाँ, साड़ी छोडक़र तुम जो चाहो ले लेना।” मैंने एकदम निरुत्साह होकर कहा और वहाँ से चल दिया। कोठरी से निकलते समय मुझे ठकुराइन के चेहरे की झाइयाँ फिर बहुत गहरी लगीं और उसका नेफ़े में खोंसा हुआ मैला रूमाल देर तक मेरी आँखों के सामने फडफ़ड़ाता रहा। मेरा मन यह सोच-सोचकर खीझ रहा था कि जो ढाई रुपये उसने मुझे दिये हैं, वे स्नेह या ममता के कारण नहीं दिये, आनेवाले कल को उनके बदले बीस रुपये वाली साड़ी वसूल करने के लिए दिये हैं। और मैं अपनी खीझ में अपने को समझा रहा था कि मैं ही बेवकूफ़ हूँ, बात दरअसल वही है जो अरविन्द कहता था...।
बम्बई से आने के बाद उस दिन पहली बार मैं कॉफ़ी हाउस में दाखिल हुआ तो सबसे पहले मेरी नज़र हरबंस पर पड़ी। अन्दर जाते ही दरवाज़े के पास जो पहली मेज़ थी, उसके इर्द-गिर्द सात-आठ व्यक्ति बैठे थे। उन्हीं में वह भी था। बाकी लोगों में तीन लड़कियाँ थीं। मैं हरबंस से आँख बचाकर आगे निकल जाता, मगर वह मुझे देखते ही इस तरह कुरसी से उठ खड़ा हुआ जैसे वह मेरे इन्तज़ार में ही बैठा हो और अपने बायीं तरफ़ बैठी लडक़ी से बोला, “लो, यह रहा वह!”
मगर उस लडक़ी ने उसकी बात की तरफ़ ध्यान नहीं दिया। हरबंस के पास ही एक कुरसी खाली पड़ी थी। उसने हाथ पकडक़र मुझे इस तरह अपने पास बिठा लिया जैसे मेरा वहाँ आना रोज़ की ही बात हो और बरसों से हम लोग उस तरह साथ-साथ बैठते आये हों। सामने की कुरसी पर बैठा हुआ एक नवयुवक उँगलियाँ और अँगूठे हिला-हिलाकर ‘स्टिल लाइफ़’ के बारे में कोई बात कर रहा था। बायीं तरफ़ की कुरसी पर एक और नवयुवक आँखें मूँदे हुए बैठा था। वह न जाने बहुत ध्यान से उसकी बात सुन रहा था या अपनी ही कोई बात सोच रहा था। मुझे दो-एक मिनट बैठकर लगने लगा कि मैं बिल्कुल फ़ालतू आदमी की तरह उनके बीच आ बैठा हूँ। मगर इससे पहले कि मैं वहाँ से उठने की बात सोचता, हरबंस ने बैरे को बुलाकर बिल अदा कर दिया और बिना इसका ज़रा भी लिहाज़ किये कि ‘स्टिल लाइफ़’ की बात अभी बीच में ही है, अचानक कुरसी से उठ खड़ा हुआ।
“आओ, अब चलें।” उसने इस तरह कहा जैसे एक प्रधान किसी सभा को विसर्जित करने की बात कहता है। मगर न तो किसी को इसका बुरा लगा और न किसी ने इसका विरोध किया। हम लोग वहाँ से बाहर निकल आये, तो भी वह नवयुवक ‘स्टिल लाइफ़’ की बात उसी तरह कर रहा था।
बाहर आकर उन नए लोगों से मेरा परिचय हुआ। उनमें एक तो हरबंस की पत्नी नीलिमा ही थी जो अन्दर उसके बायीं तरफ़ बैठी थी। उसके अलावा बाकी दोनों उसकी बहनें थीं शुक्ला और सरोज। सरोज शक्ल-सूरत से बाकी दोनों बहनों में बिल्कुल अलग थी और मैंने सोचा था कि वह ‘स्टिल लाइफ़’ वाले नवयुवक की बहन होगी। अँगूठे और उँगलियाँ हिलाकर ‘स्टिल लाइफ़’ की बात करनेवाला नवयुवक कलाकार शिवमोहन था जिसके विषय में बाद में मुझे पता चला कि उसके लैंडस्केप्स की उन दिनों बहुत धूम है, हालाँकि रुपये-पैसे के लिहाज़ से उसे बहुत तंगी में से गुज़रना पड़ रहा है। जो नवयुवक आँखें मूँदे हुए चिन्तन कर रहा था, उसके व्यक्तित्व की एक खास बात यह थी कि वह सफेद सलवार के साथ जोगिया रंग का खादी का कुरता पहने था और बात इतनी कम और इस तरह धीमे स्वर में करता था जैसे उसकी ज़बान में कोई तकलीफ़ हो। उसका नाम था जीवन भार्गव। वह भी शिवमोहन की तरह पेंटर था और उन दिनों एब्स्ट्रेक्ट पेटन्र्स के प्रयोग कर रहा था। इन दोनों के अलावा एक और व्यक्ति भी था जिसे नीलिमा और सरोज ‘मामाजी’ कहकर बुला रही थीं, हालाँकि उम्र में वह शिवमोहन और जीवन भार्गव से बड़ा नज़र नहीं आता था। मेरा इन सब लोगों से परिचय हुआ, यह कहना शायद ठीक नहीं, क्योंकि कॉफ़ी हाउस से बाहर आकर भी हरबंस ने किसी के साथ मेरा परिचय कराने की आवश्यकता नहीं समझी। मैं उनके सम्बन्ध में जो कुछ भी जान सका, वह सरसरी बातचीत से ही। कुछ देर बाहर बातें करके शिवमोहन और जीवन भार्गव जब चले गये, तो मैंने भी विदा लेने के लिए अपना हाथ हरबंस की तरफ़ बढ़ा दिया। मगर मेरा हाथ उसने इस तरह अपने हाथ में थाम लिया जैसे उसे जेब में डाल लेना हो, और कहा, “अरे, तुम कहाँ चल दिये? तुम्हारी वजह से तो मैं इतनी जल्दी अन्दर से उठकर चला आया हूँ। तुम हमारे साथ घर चलोगे, और खाना भी हमारे साथ ही खाओगे। मैं कई दिन से सोच रहा था कि तुम अब बम्बई से आनेवाले होगे। मुझे प्रेम ने बताया था कि तुम बहुत जल्दी बम्बई छोडक़र दिल्ली आने की सोच रहे हो और यहीं-कहीं नौकरी करने का इरादा रखते हो। मेरा तो ख़याल था कि तुम इससे पहले ही आ जाओगे। नवम्बर के शुरू से ही मैं एक तरह से तुम्हारा इन्तज़ार कर रहा था।”
“तुम्हारा अन्दाज़ा ग़लत नहीं था।” मैंने कहा, “मैं नवम्बर के शुरू में ही यहाँ आ गया था।”
“क्या?” वह एकदम जैसे आसमान से गिर पड़ा। मेरे हाथ को उसने और भी कस लिया और कहा, “तुम नवम्बर के शुरू से यहाँ हो और मुझे तुम्हारी सूरत आज नज़र आ रही है?”
मुझे लगा जैसे इतने दिन उससे न मिलकर सचमुच मुझसे एक अपराध हुआ हो। हम लोग सडक़ पार करके ‘रीगल’ की तरफ़ के फुटपाथ पर चल रहे थे। शुक्ला और सरोज मामाजी से बात करती हुई हमारे पीछे आ रही थीं। नीलिमा पर्स घुमाती हुई हम लोगों के बराबर चल रही थी। हरबंस ने उसकी तरफ़ देखकर कहा, “देखो, यह शख्स आज महीने भर से यहाँ है, और आज पहली बार इसकी सूरत दिखायी दी है। वह भी अचानक मैंने इसे देख लिया, वरना यह तो शायद आज भी आँख चुराकर निकल जाता। मैंने इसकी कविताओं की जो आलोचना की थी, वह शायद इसे बहुत बुरी लगी है।”
“तो ये वही हैं, तुम्हारे बम्बईवाले दोस्त?” नीलिमा ने कहा। मेरा परिचय हरबंस ने तब तक भी नहीं दिया था।
“तुम्हें अभी तक पता नहीं चला कि यह वही शख्स है जिसके बारे में मैंने इतने दिनों से कह रखा है कि वह बम्बई से यहाँ आ रहा है?” हरबंस ने इस तरह कहा जैसे पता न चलने में कसूर नीलिमा का ही हो।
“अच्छा?” नीलिमा ने पर्स हिलाना बन्द कर दिया और मेरी तरफ़ देखकर कहा, “हरबंस तो सचमुच बहुत दिनों से कह रहा था कि आप बम्बई से यहाँ आनेवाले हैं। बल्कि हम लोग तो आपके बारे में इसकी बातें सुन-सुनकर बोर हो चुके थे।” और वह उन्मुक्त भाव से हँस दी, “आप अच्छे आदमी हैं कि आपने आकर अपना पता ही नहीं दिया!”
“मुझे आप लोगों का पता मालूम नहीं था,” मैंने अपनी शर्मिन्दगी को किसी तरह छिपाकर कहा। मुझे यह सोचकर खुशी भी हो रही थी कि मुझसे एक ही बार मिलने के बाद हरबंस यहाँ आकर लोगों से मेरे विषय में बात करता रहा है। मैं मन ही मन कट भी रहा था और उत्साहित भी महसूस कर रहा था।
“मैंने बम्बई में अपना कार्ड तुम्हें दिया नहीं था?”हरबंस ने कहा।
“वह कार्ड मुझसे वहीं रह गया था।” मैंने कहा, “मैं यहाँ आकर इतने दिन मिलने की कोशिश इसलिए भी नहीं कर सका कि मैं आते ही एक नौकरी के पीछे लग गया था।”
“किस नौकरी के?”
“यहाँ ‘इरावती’ के कार्यालय में एक जगह थी...।”
“तो वह तुम्हें मिल गयी?”
“हाँ, आज ही उसके सम्पादक ने कहा है कि मैं पहली तारीख से काम पर आ सकता हूँ।”
“तब तो इसकी पार्टी होनी चाहिए। चलो, पहले ‘एल्प्स’ में चलकर कॉफ़ी पिलाओ।” हरबंस ने कहा और मेरा हाथ पकड़े हुए ही रुख़ पीछे की तरफ़ कर लिया। मुझे सोचने या बहाना करने का मौका उसने नहीं दिया।
‘एल्प्स’ में हरबंस, नीलिमा और मैं, हम तीन व्यक्ति हो गये, इसलिए ठकुराइन के दिये हुए ढाई रुपये कम नहीं पड़े और मुझे शर्मिन्दगी नहीं उठानी पड़ी—सिवाय इसके कि रुपये-रुपये के दोनों नोट काफ़ी मैले और मुड़े हुए थे और जब मैंने वे निकालकर बैरे की प्लेट में रखे, तो नीलिमा ने इतना कह दिया, “लगता है आप किसी हलवाई से नोट तुड़ाकर आये हैं।”और मैंने हँसकर बात टाल दी।
बात तो टल गयी मगर मन में मैं यही सोचता रहा कि अगर शुक्ला, सरोज और मामाजी भी साथ चले आते, तो मुझे कितनी भद्दी स्थिति का सामना करना पड़ता! यह तो गनीमत थी कि नीलिमा ने शुक्ला और सरोज से घर चलकर खाना तैयार कराने के लिए कह दिया और वे दोनों क्योंकि उस समय मामाजी से अलग नहीं होना चाहती थीं, इसलिए मामाजी को भी उनके साथ चले जाना पड़ा, वरना मैं उस समय कितनी मुश्किल में पड़ जाता! जब हम लोग ‘एल्प्स’ से बाहर आये, तो हवा में खुनकी काफ़ी बढ़ गयी थी। बाहर आते ही मैं एक बार सरदी से काँप गया।
“आपने तो कोट या पुलोवर कुछ भी नहीं पहन रखा,” नीलिमा ने कहा। “लौटते हुए आपको ठंड नहीं लगेगी?”
“नहीं, मुझे ठंड नहीं लगती,” मैंने कहा, और एक बार फिर काँप गया।
“जाते हुए इसे मेरा कोट दे देना,” हरबंस ने कहा।
“तुम्हारा कोट!” नीलिमा बोली। वह इन्हें घुटनों तक आएगा।” और वह न जाने क्या सोचकर अपने आप हँस दी।
मैंने किसी लडक़ी को उस तरह खुलकर हँसते नहीं देखा था जिस तरह नीलिमा हँसती थी। किसी ज़माने में मैं खुद अपने ठहाकों के लिए बहुत बदनाम रहा हूँ। कई बार मैं इतने ज़ोर का ठहाका लगाता था कि आसपास बैठे हुए लोग एकदम चौंक जाते थे। बम्बई में कई बार कॉफ़ी हाउस के बैरे मैनेजर की चिट ले आया करते थे जिस पर लिखा होता था ‘प्लीज़!’ फिर भी न जाने क्यों हँसते वक़्त मुझे यह याद नहीं रहता था कि आदमी की हँसी में भी एक सभ्यता होनी चाहिए और आदमी को गला रोककर हँसना चाहिए। उससे पहले अमृतसर के जिस घर में हम रहते थे, उसके आस-पास के घरों से कुछ बच्चे मुझे चिढ़ाने के लिए मेरे ठहाके की नक़ल किया करते थे। मुझे खुद बुरा लगता था, मगर जाने कैसी बेबसी थी कि मैं बिना ठहाका लगाये हँस ही नहीं पाता था। मुझे सभ्यता के तकाज़े की बात तभी याद आती थी जबकि आसपास का वातावरण एक बार मेरे ठहाके से चौंक जाता।
नीलिमा की हँसी के सम्बन्ध में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि वह लड़कियों की तरह न हँसकर लडक़ों की तरह हँसती थी। हँसते समय उसका मुँह पूरा खुल जाता था और वह अपनी गरदन को थोड़ा पीछे को झटका लेती थी। उसकी आवाज़ काफ़ी बारीक थी मगर हँसने में उसकी आवाज़ भी कुछ भारी हो जाती थी और उसके छोटे-छोटे दाँत पूरे बाहर दिखायी दे जाते थे। उसकी हँसी में ही नहीं, बातचीत और चलने के ढंग में एक उन्मुक्तता थी जो उस व्यक्ति को काफ़ी चौंका सकती थी जिसका उससे नया-नया ही परिचय हुआ हो। वह हर समय इतनी अस्थिर रहती थी कि लगता था जैसे उसके शरीर में एक बिजली-सी कौंधती रहती हो। जब वह मुँह से बात नहीं करती थी,तब भी उसकी आँखें और भौंहें कुछ न कुछ बात करती प्रतीत होती थीं।
उनके यहाँ जाकर मुझे पता चला कि वे लोग नीलिमा की माँ के घर में रहते हैं। हरबंस की माँ और बहन-भाई भी दिल्ली में ही थे मगर वे लोग करोल बाग की तरफ़ मॉडल बस्ती में रहते थे। नीलिमा की माँ का घर वहाँ पास ही हनुमान रोड पर था और हरबंस को दूर से आने-जाने में शायद असुविधा महसूस होती थी इसलिए वह और नीलिमा वहीं रहते थे। नीलिमा, सरोज और शुक्ला के अलावा उनकी एक चौथी बहन और थी, सरिता, जो उस समय नौ-दस वर्ष की थी। वे बस चार बहनें ही थीं, भाई कोई नहीं था। नीलिमा के अलावा तीनों बहनें कुँआरी थीं, इसलिए उस घर में हरबंस की स्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण थी। नीलिमा के पिता पक्षाघात से पीडि़त थे और हर समय एक अलग कमरे में कुरसी या पलँग पर पड़े रहते थे जिससे घर में आने-जानेवाले लोगों को उनकी उपस्थिति का पता भी नहीं चलता था। मुझे भी कई दिनों के बाद पता चला कि नीलिमा के पिता जीवित हैं और घर में ही रहते हैं। वैसे हर दृष्टि से घर का प्रमुख व्यक्ति हरबंस ही था। उस घर में आकर जब तक नीलिमा की माँ से परिचय नहीं हुआ तब तक मैं यही सोचता रहा कि वह घर हरबंस का है और सरोज, शुक्ला और सरिता उसी के घर में उसके साथ रहती हैं।
खाना बहुत अच्छा बना था। खाने के बाद काफ़ी देर तक हम लोग बाहर के कमरे में जो वास्तव में कमरा न होकर ढका हुआ बरामदा ही था, बैठकर बातें करते रहे। वह बरामदा ही उनके यहाँ बैठक और खाना खाने के कमरे के तौर पर इस्तेमाल होता था। वहाँ की सजावट बहुत सादा मगर काफ़ी सुरुचिपूर्ण थी। दीवारों पर कुछ जगह एब्स्ट्रेक्ट आकृतियों में कटी हुई पतली-पतली टहनियाँ लगी थीं। सामने की दीवार के साथ गौतम बुद्ध की पत्थर की मूर्ति रखी थी जिसके सिर के पीछे दीवार पर एक छोटा-सा रंगीन मोढ़ा लगा था। यही एक चीज़ वहाँ अखरती थी। फ़र्श के कालीन और बैठने की कुरसियों की व्यवस्था काफ़ी अच्छे ढंग की थी और पर्दों के साथ दूसरी चीज़ों के रंगों का मिलान काफ़ी सूझ-बूझ से किया गया था। कमरे की एक विशेषता यह भी थी कि जब मैं कमरे में दाख़िल हुआ, तो मुझे वहाँ उस बेगानेपन का अनुभव नहीं हुआ जो बहुत बार एक नए घर में जाकर होता है। उस जगह की अपनी ही एक आत्मीयता थी। कुछ व्यक्तियों की तरह कुछ जगहों में भी क्या ऐसी विशेषता नहीं होती कि वे पहले परिचय में ही बहुत परिचित और बहुत आत्मीय लगने लगें?
नीलिमा की बीजी और तीनों बहनें खाना खाने के बाद तुरन्त ही अन्दर के कमरे में चली गयी थीं और उनके मामाजी भी दो-एक बार जम्हाइयाँ लेकर उठ गये थे। बीजी जितनी देर बैठी रही थीं उन्होंने बहुत कम बात की थी। वे बहुत छोटे-छोटे वाक्य बोलती थीं और जब तक मतलब न हो, तब तक कोई बात नहीं करती थीं। उन्होंने ज़्यादातर बातें प्लेटें रखने, डूँगे उठाने और मेज़ साफ़ करने के बारे में ही की थीं। उनके चेहरे से मुझे यह भी लगा था कि उन्हें नए लोगों से मिलना-जुलना पसन्द नहीं है। उन्हें जैसे ज़िन्दगी में जितना कुछ देखना था, वे देख चुकी थीं और अब उन्हें और किसी नए अनुभव की अपेक्षा नहीं थी। उनकी खामोशी से मुझे लगा जैसे हर नया व्यक्ति उनके लिए एक ऐसे अजनबी की तरह है जो आधी रात को आराम से सोये हुए एक आदमी का दरवाज़ा खटखटाकर उसकी नींद में खलल डाल देता है। वे जैसे न तो अपने इर्द-गिर्द खिंचे हुए दायरे से बाहर कदम रखे। मुझे उनका भाव एक जीवन से सन्तुष्ट व्यक्ति का भाव नहीं लगा, एक ऐसे व्यक्ति का भाव लगा जो अपने असन्तोष में ही सन्तुष्ट रहना चाहता है। नीलिमा की तीन बहनों में से एक ऐसी थी जिसका अपना अलग व्यक्तित्व था। वह थी शुक्ला—सरोज से छोटी और सरिता से बड़ी। मैंने उसे पहली बार देखा था, तो मेरी आँखें उसके चेहरे से फिसलकर किसी और की तरफ़ मुड़ गयी थीं। और यह अनुभव मुझे पहली बार ही नहीं, उसके बाद भी कई बार हुआ। कह नहीं सकता कि उसके चेहरे में ऐसा क्या था कि आँखें अनायास ही उसकी ओर खिंच जाती थीं, मगर वहाँ टिकी नहीं रहती थीं। क्या यह उसके आकर्षण के कारण ही था? मगर शायद कारण उसके आकर्षण के अतिरिक्त कुछ और भी था—एक सहज आत्मविश्वास और दुनिया-भर के प्रति अवहेलना का भाव; अपने आकर्षण की एक सहज अनुभूति और उसमें मिली-जुली एक मासूमियत; जैसे उसे इसका तो बहुत गहरा अहसास हो कि वह युवा है, परन्तु इसका ज़रा भी अहसास न हो कि यौवन का अर्थ क्या है। उसके चेहरे का कुछ खोजता हुआ-सा भाव उसे और भी सुन्दर बना देता था। किसी-किसी समय उसकी आँखों से लगता था जैसे वह अपने से बाहर कम और अपने अन्दर ही ज़्यादा देखती हो। अपने चुस्त पंजाबी लिबास में वह बहुत बार जैसे अपने को अपनी नज़र से न देखकर दूसरों की नज़र से देखने लगती थी। कहीं ज़रा-सी भी शिकन या सलवट देखते ही उसकी आँखें बेचैन हो उठती थीं। उसने हमारे साथ बैठकर खाना भी इस तरह खाया जैसे हम लोगों पर एक तरह का अहसान कर रही हो और खाना खाते ही सबसे पहले उठकर अन्दर चली गयी।
कमरे में गौतम बुद्ध के बस्ट से थोड़ा हटकर एक तरफ़ ईज़ेल पर एक कैनवस लगा था और पास ही फ़र्श पर कुछ कूचियाँ और रंग बिखरे थे। “तुम खुद भी पेंट करते हो क्या?” मैंने हरबंस से पूछा, “तुमने बम्बई में तो नहीं बताया था।”
“यह कैनवस मेरा नहीं है,” हरबंस बोला, “नीलिमा का है।”
“इनका है?” और मैं उठकर, कैनवस के पास चला गया, “आप कब से पेंट कर रही हैं?” मैंने वहाँ से लौटकर बैठते हुए नीलिमा से पूछा।
“मैं पेंट नहीं, सिर करती हूँ!” नीलिमा ने जिस स्वर में यह कहा उसमें दिखावटीपन नहीं था, “यह मेरे पीछे पड़ा रहता है कि मैं पेंट करूँ, इसलिए मैं पेंट करती हूँ वरना मुझे न तो कुछ आता-जाता है और न ही इसमें रुचि ही है। हाँ, अब तक इतना पता चल गया है कि किस तरह के स्ट्रोक्स के लिए कौन-सा ब्रश इस्तेमाल करना चाहिए। और देखो, तुम हरबंस को तो ‘तुम’ कहते हो, और मुझे ‘आप’, यह कौन-सा तरीका है?”
उसका हरबंस के लिए एकवचन का प्रयोग मुझे स्वाभाविक नहीं लग रहा था। उससे पहले मैंने किसी स्त्री को अपने पति को इस तरह बुलाते नहीं सुना था। स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध में ‘वे’ और ‘आप’ की विनम्रता या दूरी ही मुझे स्वाभाविक लगती थी। मगर उसकी बात पर मैंने चुपचाप सहमति प्रकट कर दी, “ठीक है, मैं आगे से यह शिष्टाचार नहीं बरतूँगा।”
“इसकी एक पेंटिंग को अभी-अभी बम्बई में हुई प्रदर्शनी में विशेष पुरस्कार मिला है,” हरबंस ने इस तरह कहा जैसे उस बात का सूत्र वह छोडऩा न चाहता हो।
“पुरस्कार मिलने से क्या होता है?” नीलिमा बोली, “मैं जानती हूँ कि मैं पेंट नहीं कर सकती।”
“मगर आप अपनी दो-एक पेंटिंग्स दिखाएँ तो सही,” मैंने कहा। मन में यह भी सोचा कि अगर मुझे उसकी पेंटिंग पसन्द नहीं आएँगी, तो यह बात मैं उससे किस तरह कहूँगा!
“देखो भई, मैं कह चुकी हूँ कि मुझे यह आप-आप सुनना अच्छा नहीं लगता।” वह बोली, “बाकी दिखाने को कुछ होता,तो मैं ज़रूर दिखा देती।”
“मगर आप...”
“आप नहीं, तुम!”
“अच्छा, तुम अपनी एकाध पेंटिंग दिखा तो दो।”
“मेरे पास सचमुच ऐसी एक भी पेंटिंग नहीं है जो मैं किसी को दिखा सकूँ।” नीलिमा जैसे अपने अन्दर की हताशा से थकी हुई कुरसी की पीठ से टेक लगाकर बोली, “एक ही पेंटिंग है जिसे लोगों को इसलिए दिखा सकती हूँ कि उस पर पुरस्कार मिल गया है। मगर वह अभी बम्बई में है। यहाँ आ जाएगी, तो तुम्हें ज़रूर दिखाऊँगी।”
“यह केवल नम्रता ही है, या...?”
“नम्रता नहीं खाक!” वह बोली, “मुझे इस तरह की झूठी नम्रता बरतना आता ही नहीं। इसी बात पर तो हरबंस मेरे ऊपर कुढ़ता रहता है।”
हरबंस अचानक काफ़ी गम्भीर हो गया था। मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि जिस विषय पर बात करते हुए उसे काफ़ी उत्साहित हो उठना चाहिए था उसकी चर्चा होने पर उसका चेहरा इस तरह मुरझा क्यों गया है। वह उस समय जैसे उस कमरे के वातावरण से हटकर कहीं और पहुँच गया था और वहाँ से वापस लौटने में उसे असुविधा हो रही थी।
“अच्छा आज न सही, फिर किसी दिन सही।” मैंने वहाँ से उठने की भूमिका बाँधते हुए कहा, “आज वैसे भी काफ़ी देर हो गयी है।”
“हाँ, फिर किसी दिन आओगे, तो जो कुछ बनाया है सब दिखा दूँगी।” नीलिमा बोली, “तुम्हें खुद पता चल जाएगा कि जो बात मैं कहती हूँ वह ठीक है या नहीं। मगर ‘हबी’ ने मन में यह तय कर लिया है कि मैं पेंटर बनूँ, इसलिए जैसे भी बनेगा, मुझे इसकी बात तो रखनी ही होगी।”
मैंने उठने की तैयारी में अपने हाथों को उलझा लिया और ‘हबी’ की तरफ़ देखा। ‘हबी’ जाने हसबैंड का छोटा रूप था या हरबंस का! उसके चेहरे पर लम्बी-लम्बी लकीरें खिंच गयी थीं। मैंने अपनी उँगलियों को चटखाया और कुरसी से उठ खड़ा हुआ।
“अच्छा, अब मैं चलूँगा।” मैंने कहा, “आज की शाम आप लोगों के साथ बहुत अच्छी बीत गयी। जब से दिल्ली आया हूँ, आज पहली बार महसूस हुआ है कि हाँ दिल्ली में ही हूँ।”
“कुछ देर और नहीं बैठोगे?” नीलिमा ने पूछा।
“तुम्हें इतनी सरदी में लौटकर घर आना हो, तो तुम्हें पता चले कि कुछ देर और बैठने का क्या मतलब होता है।” हरबंस बिना कारण ही झुँझला उठा, “यही क्या कम है कि उस भले आदमी ने इतना वक़्त हम लोगों के साथ बिता दिया है?” मुझे समझ नहीं आया कि मेरे उतनी देर वहाँ वक़्त बिताने से उसे सुख मिला,या दु:ख हुआ है। कम से कम इतना ज़रूर था कि मैं ठीक वक़्त पर ही वहाँ से उठ खड़ा हुआ था।
हम लोग गेट से निकलकर सडक़ पर आ गये तो नीलिमा ने कहा, “अब तो सोचना चाहिए कि तुमसे भेंट हुआ ही करेगी, क्यों?”
“हा-हा!” हरबंस ने मुँह चिढ़ाने की तरह कहा, “जैसे तुम्हारी तरह और सब लोगों को भी रोज़-रोज़ कॉफ़ी हाउस में आने के सिवा कोई काम नहीं है।”
“इसी तरह फिर किसी दिन भेंट हो जाएगी।” मैंने उस स्थिति से बचने के लिए कहा और उनके पास से चल दिया। अभी कुछ ही कदम चला था कि पीछे से हरबंस ने कहा, “सुनो, मेरा पुलोवर लेते जाओ। इस समय बहुत ठंड हो गयी है।”
“मुझे ठंड नहीं लग रही,” मैंने कहा और हाथ हिलाकर चला आया।
पत्रिका के कार्यालय में हम चार सहायक सम्पादक थे। एक ही बड़े से कमरे में पार्टीशन के एक तरफ़ प्रधान सम्पादक बाल भास्कर बैठता था और दूसरी तरफ़ हम चार सहायक सम्पादक बैठते थे। हम चारों में भी एक प्रधान था जिसे वहाँ काम करते चार साल हो चुके थे। एक ही लम्बी डेस्क के साथ चार कुरसियों पर हम लोग बैठते थे। छोटे प्रधान की कुरसी डेस्क के सिरे पर खिडक़ी के पास थी और हम तीनों की कुरसियाँ उसके बाद वेतन के क्रम से लगी थीं। छोटे प्रधान उर्फ बड़े सहायक सुरेश का वेतन दो सौ रुपये था। उसके बाद लक्ष्मीनारायण था जिसे पौने दो सौ मिलते थे। तीसरे नम्बर पर मेरी एक सौ साठ वाली कुरसी थी और चौथे नम्बर पर डेढ़ सौ वाली कुरसी पर मनोहर बत्रा बैठता था। छोटा प्रधान सबसे ज़्यादा काम करता था क्योंकि प्रूफ़ देखने के अलावा उसे हम सब पर नज़र भी रखनी होती थी और जब सम्पादक के कमरे में घंटी बजती, तो उठकर आदेश लेने के लिए भी उसी को जाना होता था। वह दुबला-पतला हड्डियों के ढाँचे जैसा आदमी था, जिसे देखकर यह अन्देशा होता था कि बार-बार उठने-बैठने में उसकी टाँगें न चटक जाएँ। सम्पादक को हममें से किसी से भी बात करनी होती, तो पहले उसी की बुलाहट होती थी और वह वापस आकर कारखाने के फ़ोरमैन की तरह हमें आदेश देता था, “नम्बर तीन, उधर जाओ। साहब याद कर रहे हैं।” एक बार बत्रा ने उससे कह दिया कि वह साहब के लिए चपरासी का काम क्यों करता है, तो वह सप्ताह-भर बत्रा से अपने प्रूफ़ दिखाता रहा था।
“यह मेरा रुतबा है।” उसने बत्रा को डाँटकर कहा था, “मैं यहाँ पर सम्पादक का प्रधान सहायक हूँ। मैं चाहूँ, तो तुम्हें नौकरी से अलग भी करा सकता हूँ...।”
हम जानते थे कि वह किसी को नौकरी से अलग करा सकते हों या नहीं, वह अपनी नौकरी की सलामती साहब को खुश रखने में ही समझता है। दफ़्तर में एक बूढ़ा चपरासी था जिसे साहब जवाब देना चाहता था। मगर वह उसके पिता के वक़्त से काम करता रहा था और उसके पिता का चहेता चपरासी था, इसलिए वह उसे नोटिस देकर नौकरी से अलग नहीं करना चाहता था;चाहता था कि वह खुद ही किसी तरह नौकरी छोडक़र चला जाए। इसलिए साहब घंटी बजाकर सुरेश को बुलाता और उससे कहता कि वह नीचे जाकर देख आये कि सीताराम क्या कर रहा है।
“बीड़ी पी रहा है।” सुरेश नीचे से आकर उसे रिपोर्ट देता, “यह आदमी बिल्कुल हराम की तनखाह लेता है। सारा दिन कुछ काम नहीं करता।”
“जाकर उससे कह दो कि वह बीड़ी पीना छोड़ दे। दफ़्तर के वक़्त में उसे बीड़ी पीने की इजाज़त नहीं है।”
सुरेश फिर नीचे जाता और लौट आता।
“उसने बीड़ी फेंक दी है?” साहब पूछता।
“जी हाँ, फेंक दी है।”
“तो जाओ, तुम काम करो। अगले महीने की पूरी डमी मुझे शाम तक मिल जानी चाहिए।”
सुरेश साहब के केबिन से निकलकर आता तो फिर उसी फ़ोरनमैन की-सी मुद्रा में हमसे कहता, “आज शाम तक अगले महीने की डमी तैयार हो जानी चाहिए। साहब शाम को डमी देखना चाहता है।”
“साहब शाम को डमी देखकर क्या करेगा?” बत्रा धीरे-से कहता, “सारा मैटर तो उसी का दिया हुआ है।”
“यह मैं नहीं जानता।” फ़ोरमैन गरदन ताने हुए अपनी कुरसी पर जा बैठता, “साहब डमी देखना चाहता है, इसलिए शाम तक डमी तैयार हो जानी चाहिए।”
“डमी के लिए पूरी तसवीरें नहीं हैं।” हममें से कोई कह देता।
“पूरी तसवीरों की कोई ज़रूरत नहीं है।” फ़ोरमैन खिडक़ी से आती हुई हवा को रोकने के लिए खिडक़ी के किवाड़ बन्द कर देता जिससे बैठने की वह तंग गैलरी एक अँधेरी गली का रूप ले लेती, “बगैर तसवीरों के भी डमी तैयार हो सकती है।”
“वैसे तो डमी बगैर मैटर के भी तैयार हो सकती है,”लक्ष्मी धीरे-से कह देता।
“मैं ये सब बातें नहीं सुनना चाहता। अगर तुम लोग काम नहीं करना चाहते तो मुझे साहब के पास जाकर रिपोर्ट करनी पड़ेगी।”
इतने में अन्दर फिर घंटी बज उठती और सुरेश उठकर अन्दर चला जाता। वहाँ उसे आदेश मिलता नीचे जाकर एक बार फिर देख आओ कि सीताराम क्या कर रहा है।
सुरेश नीचे जाता और लौटकर कहता “एक किताब पढ़ रहा है।”
“किताब पढ़ रहा है?”
“हाँ, कुरसी पर बैठा किताब पढ़ रहा है, जैसे बड़ा साहब वही हो।”
“तुम जाकर उसके हाथ से किताब ले लो, और उससे कहो कि कुरसी उठाकर ऊपर रख जाए। उसे किताब पढऩे या कुरसी पर बैठने की इजाज़त नहीं है। उसे खड़े होकर ड्यूटी देनी चाहिए।”
सुरेश केबिन से निकलता और हाथ मलता हुआ फिर नीचे चला जाता।
वापस आकर वह फिर साहब के कमरे में जाता तो साहब उससे पूछता, “अब वह क्या कर रहा?”
“खड़ा है।”
इसके आगे साहब का वश चलता तो वह सुरेश को उसकी कुरसी पर वापस भेज देता।
लंच के समय सुरेश को यह आदेश होता था कि वह अपना खाना लेकर साहब के कमरे में आ जाए। वहाँ उस समय साहब उसके साथ पॉलिसी मैटर्स डिस्कस करता था। हम लोग उस समय नीचे चाय की दुकान में चले जाते थे। लक्ष्मीनारायण घर से अपना खाना लेकर आता था और बत्रा और मैं वहीं से कुछ खाने को ले लेते थे क्योंकि खाना हम खाकर आते थे। लक्ष्मी किसी ज़माने में नारायणस्वामी के नाम से कहानियाँ भी लिखा करता था। अब उसका लिखना-लिखाना छूट गया था और वह अपनी घर-गृहस्थी की चिन्ताओं से ही परेशान रहता था। “तुम देखो, यह आदमी कैंसर से मरेगा,” वह खाना खाते हुए कहता।
“कौन?”
“यह बी.बी. लाल भास्कर, प्रधान सम्पादक।”
“क्यों?”
“यह जिस तरह सबको तंग करता है, उससे मुझे यही लगता है कि इसके पेट में कैंसर है।”
हम दोनों हँस देते मगर लक्ष्मी गम्भीर बना रहता।
“बेचारे का इस तरह रोग से छुटकारा हो जाए, यही अच्छा है,” वह कहता।
“कैंसर बहुत बुरी बीमारी है।”
“उसे तो रोग से छुटकारा मिल जाएगा, मगर तुम्हें क्या मिलेगा?” मैं पूछता।
“मैं इसकी जगह प्रधान सम्पादक हो जाऊँगा। तुम्हारा क्या खयाल है, इसके मरने के बाद वह घोंचू प्रधान सम्पादक बनेगा?”
“इसके मरने के बाद इसका लडक़ा प्रधान सम्पादक होगा।” बत्रा कहता, “वह अब दसवीं में है, तब तक बी.ए. पास कर जाएगा। एक दिन वह कह भी रहा था कि उसके पिताजी कहते हैं कि जब वह बी.ए. पास कर जाएगा, तो दस दिन में उसे पत्रिका का सारा काम सिखा देंगे। ससुरे के घर की पत्रिका है, इसका प्रधान सम्पादक कोई बाहर का आदमी थोड़े ही हो सकता है!”
“तब तो इसके पेट में कैंसर बना ही रहे, तो अच्छा है।” लक्ष्मी उँगलियाँ चाटता हुआ कहता।
“क्यों?”
“मुझे इसका लडक़ा बिल्कुल ही पसन्द नहीं है। वह तो इससे भी ज़्यादा नाक में बोलता है।”
लंच का वक़्त ही ऐसा था जो कुछ ठीक से कट जाता था वरना दफ़्तर में बैठने के सात घंटे हमें यूँ लगता था जैसे हमें एक ब्लैक होल में बन्द कर दिया गया हो और हमें वहाँ ज़बान हिलाने की भी इज़ाजत न हो। जिस नौकरी को पाने के लिए मैं पहले इतना बेचैन था उसे पाकर अब एक और ही तरह की बेचैनी बनी रहती थी। जब सम्पादक के कमरे की घंटी बजती और सुरेश उधर चला जाता तो हम लोग आँखों ही आँखों में आपस में कुछ बात कर लेते थे। हमें वहाँ बैठे हुए ज़िन्दगी में आगे-पीछे अँधेरा ही अँधेरा नज़र आता था। खिडक़ी बन्द होने पर गैलरी में एक ऐसी घुटन छा जाती थी कि सरदी के दिनों में भी मुझे वहाँ उमस प्रतीत होने लगती थी।
दफ़्तर से निकलकर बस-स्टैंड तक मैं और बत्रा साथ-साथ आते थे। बत्रा देखने में हल्का-फुल्का आदमी था और प्राय: बहुत बढिय़ा सिले हुए कपड़े पहनता था। दिन-भर तो हम इन्तज़ार करते थे। कब पाँच बजें और दफ़्तर से निकलें मगर पाँच बजे जब हम बाहर निकलते, तो हमारे चेहरे पर गहरी मुर्दनी छायी होती। बत्रा अपने चौड़े माथे पर बल डालकर कहता, “मेरा बस हो, तो मैं एक दिन भी यहाँ नौकरी न करूँ। यह नौकरी तो अन्दर ही अन्दर मेरी जान पी रही है। और यहाँ दस साल भी नौकरी करके क्या होगा? एक सौ साठ के एक सौ पचहत्तर हो जाएँगे; बस!”
“अच्छी नौकरी के लिए कहीं अच्छी वाक़फ़ियत भी तो होनी चाहिए,” मैं कहता।
“उससे क्या होता है?” वह कहता, “मेरी इतने लोगों से वाक़फ़ियत है, मगर कोई मेरे लिए कुछ करता है? अच्छी नौकरी के लिए अच्छी तिकड़म आनी चाहिए, या एक अच्छे बाप के घर पैदा होना चाहिए।”
“मतलब बी.बी. के?”
हम एक ठहाका लगाकर हँस देते। बत्रा चलते-चलते कहता “सच कहता हूँ तुम्हारी वजह से ही मैं यहाँ नौकरी कर रहा हूँ। तुम न होते, तो मैं किसी भी दिन यह नौकरी छोडक़र चला जाता।”
मैं भी ऐसे ही शब्दों में अपनी भावना प्रकट कर देता और हम लोग हाथ मिलाकर अपनी-अपनी बस के क्यू में जा खड़े होते।
रोज़ हम उसी तरह मिलते थे और हर दूसरे-तीसरे दिन मैं उनके यहाँ से होता हुआ घर वापस आता था। थोड़े ही दिनों में यह क्रम इतना स्वाभाविक हो गया था कि जिस दिन मैं कॉफ़ी-हाउस न जा पाता या उन लोगों से वहाँ भेंट न होती, उस दिन मुझे लगता कि दिन का एक महत्त्वपूर्ण काम पूरा नहीं हुआ। यह एक विचित्र बात थी कि सुरजीत कॉफ़ी-हाउस में तो उन लोगों के साथ नहीं बैठता था, मगर उनके घर पर उससे गाहे-बगाहे भेंट हो जाती थी। वह वहाँ भी बहुत व्यस्तता प्रकट करता हुआ आता था, कुछ इस अन्दाज़ से जैसे कि वह उसके लिए बहुत पराया घर हो, और बहुत जल्दी ही वहाँ से लौट जाता था। मुझसे वह बाहर अब उतना खुलकर भी नहीं मिलता था जैसे पहले मिला करता था। मुझसे वह हरबंस और नीलिमा वगैरह के बारे में बात करता था, तो इस तरह जैसे उनसे उसका बहुत ही कम परिचय हो। वह बल्कि कुछ इस तरह बात करता था जैसे उन लोगों के साथ अपने परिचय को वह ज़रा भी महत्त्व न देता हो। मगर मैं जब भी उसे उनके यहाँ देखता, वह हाथ में कोई न कोई चीज़ लिये रहता था और इस तरह उसे वहाँ छोडक़र चला जाता था जैसे वह उतने-भर के लिए ही वहाँ आया हो।
“बीजी, यह बारह औंस ऊन है।” वह नीलिमा की माँ से कहता, “और चाहिए, तो और बता दीजिएगा, मैं ला दूँगा। शुक्ला और सरोज ने कहा था कि उन्हें छ:-छ: औंस ऊन मोज़ों के लिए चाहिए। मैंने कहा था कि आर्मी के स्टोर से सस्ती मिल जाएगी, मैं ला दूँगा। जितनी और चाहिए, बता दीजिएगा। एक मेजर अपना अच्छा वाकिफ़ है। अच्छा, मैं चल रहा हूँ...”
और वह चला जाता।
जीवन भार्गव उन दिनों बहुत उखड़ा-उखड़ा और उदास रहता था। वह कॉफ़ी-हाउस में बैठा जिस तरह खोयी-खोयी नज़र से शुक्ला की तरफ़ देखता रहता उससे शुक्ला को शायद अच्छा नहीं लगता था। वह कई बार जान-बूझकर उसके प्रति उपेक्षा प्रकट करती थी, और जब वह धीमे स्वर में उससे कोई बात कहने लगता तो बीच में ही किसी और से बात करने लगती थी। कभी हम कॉफ़ी-हाउस से निकलकर कनॉट प्लेस में चक्कर लगाते, तो वह जान-बूझकर यह चेष्टा करती कि उसे भार्गव के साथ न चलना पड़े और मुझे या शिवमोहन को रोककर कहती, “तुम मेरे साथ आओ, मुझे उस दुकान से एक चीज़ खरीदनी है; इन लोगों को आगे जाने दो।”
भार्गव ऐसे अवसरों पर यूँ महसूस करता जैसे हम लोग शुक्ला के साथ पीछे रुककर उसके साथ दुश्मनी कर रहे हों और सिर झुकाए चुपचाप चलता जाता। कई बार उसे यह ध्यान भी नहीं रहता कि उसके साथ के और लोग कहाँ हैं और वह सबसे अलग होकर अकेला ही चलता जाता। उसके इस तरह खो जाने पर नीलिमा उसका उद्धार करती और उसे भीड़ में से ढूँढक़र उसके कन्धे को थपथपाती हुई कहती, “तुम्हें क्या हुआ है, भार्गव? तुम अफ़ीम तो नहीं खाने लगे?”
भार्गव चौंक जाता और कानों तक लाल होकर कहता “नहीं, मैं कुछ सोच रहा था।”
“सोचने के लिए क्या यही जगह है?” नीलिमा कहती, “तुम सारी शाम में एक बार भी खुलकर हँस नहीं सकते? तुम कैसे आदमी हो!”
इतने में हम लोग पास पहुँच जाते और शुक्ला भार्गव को सुनाकर कहती “दीदी, देखो यह कितना सुन्दर रिबन है! यह मुझे शिवमोहन ने लेकर दिया है।”
भार्गव उसके हाथ की चीज़ पर नज़र तक नहीं डालता और फिर सीधा चल पड़ता। नीलिमा हँसकर कहती “बेचारा भार्गव! यह लडक़ी जान-बूझकर उसे तंग करती है।”
“क्यों? मैं उसे कैसे तंग करती हूँ?” शुक्ला इस तरह कहती जैसे उसे इस बात में कोई तुक ही नज़र न आती हो, “मुझे किसी को तंग करने से क्या मलतब है?”
“तुझे नहीं, तो और किसे मतलब है? वह बेचारा तेरी ज़रा-ज़रा-सी बात से इतना दुखी हो जाता है।”
“किसी को दुखी होने की आदत ही हो, तो मैं क्या कर सकती हूँ?” कहकर शुक्ला भी अलग हटकर चलने लगती और कुछ देर के लिए सब पर एक खामोशी छायी रहती।
“शुक्ला की यह बात मेरी समझ में नहीं आती।” नीलिमा ने एक बार मुझसे कहा, “या तो उसे साफ़ जवाब ही दे दे कि मुझे तुमसे ब्याह नहीं करना है, या उससे ठीक से बात किया करे। वह बेचारा इतना सेंसिटिव है कि इसकी ज़रा-ज़रा-सी बात से उसकी आँखें भर आती हैं। कई दिनों से वह कुछ पेंट भी नहीं कर रहा। उसका एब्स्ट्रैक्ट आजकल इस लडक़ी की चिन्ता में ही घुला जा रहा है।”
“मगर इन दोनों की तो सगाई हो चुकी है न...?”मैंने कहा।
“सगाई-अगाई नहीं हुई, वैसे ही एक अंडरस्टैंडिंग-सी है। भार्गव ने एक बार मुझसे कहा था और मैंने शुक्ला से पूछ दिया था। तब इसने हामी भर दी थी। उन दिनों हरबंस भार्गव से अच्छी तरह बोला करता था। मगर जब से हरबंस उससे चिढऩे लगा है, तब से शुक्ला का रुख भी बदल गया है। बात दरअसल यह है...,” वह पल-भर के लिए रुकी और कुछ सोचती हुई-सी बोली, “बात दरअसल यह है कि शुक्ला हरबंस की बात को बहुत मानती है। हरबंस ने भी इसे अपने लाड़ से बहुत सिर पर चढ़ा रखा है और यह अपने सामने किसी को कुछ समझती ही नहीं। मैं हरबंस से कहती हूँ कि तुम इस तरह इस लडक़ी की ज़िन्दगी ख़राब कर रहे हो, तो वह उलटा मुझी को डाँटने लगता है। यह लडक़ी जिससे भी ब्याह करेगी, हरबंस की मरज़ी से ही करेगी। बल्कि अगर वह इससे कह दे कि तुझे ज़िन्दगी-भर क्वारी रहना चाहिए, तो यह क्वारी ही बैठी रहेगी।”
मुझे इससे सुरजीत की कही हुई बात याद हो आयी। उसने भी एक बार कुछ ऐसी बात कही थी। “मुझे लगता है,” उसने कहा था, “कि इस लडक़ी को अपने बहनोई का फ़िक्सेशन है। हर लिहाज़ से यह उसी को अपना आइडियल मानती है। वह कल को अगर कबूतरों से प्यार करने लगे, तो यह लडक़ी घर में कबूतर पालने लगेगी।”
“हमारे जाननेवाले लोगों में तो इस बात की बहुत चर्चा है।” मैंने नीलिमा से कहा, “कि बहुत जल्द ही शुक्ला का भार्गव के साथ ब्याह होनेवाला है।”
“मुझे पता है कि लोग ऐसा सोचते हैं।” नीलिमा बोली, “मगर हरबंस होने देगा ब्याह तभी तो! आजकल तो वह भार्गव का नाम सुनते ही एकदम भडक़ उठता है।”
हमारे परिचितों में भी बहुत शीघ्र ही इस बात की चर्चा होने लगी कि भार्गव के साथ शुक्ला के ब्याह की बात टूट रही है। जाने क्यों ज़्यादातर लोगों को इससे ख़ुशी ही हुई और लोग इस सम्बन्ध में अनुमान लगाने लगे कि भार्गव के बाद अब नया उम्मीदवार कौन होगा।
“भार्गव की जगह अब कौन ले रहा है?” एक दिन भद्रसेन ने मुझसे पूछा।
“मैं यह कैसे कह सकता हूँ?” मैंने कहा, “यह उन लोगों का व्यक्तिगत मामला है।”
“मगर हमने तो सुना है कि भार्गव का पत्ता तुम्हारी वजह से कटा है।”
“मेरी वजह से?”
“तुम्हारी वजह से नहीं तो शिवमोहन की वजह से कटा होगा। आजकल वह तुम्हीं दोनों से घुल-मिलकर बातें किया करती है।”
“हो सकता है।” मैंने कहा, “मुझसे तुमने पूछ लिया है, अब शिवमोहन से भी एक दिन पूछ लेना।”
“यार, लडक़ी बहुत अच्छी है।”
“इसमें क्या शक है!”
“जिसके साथ भी उसकी शादी होगी, वह एक बार तो निहाल हा जाएगा।”
“इसमें क्या शक है!”
“तुम मज़ाक समझ रहे हो?”
“बिल्कुल नहीं। यह तुमने कैसे सोच लिया?”
“ऐसे ही। भई, हम तो चाहते हैं कि उसकी जिस किसी के साथ भी शादी हो, वह कॉफ़ी-हाउस में आती रहे और हमेशा इतनी ही सुन्दर दिखायी देती रहे।”
मैं हँस दिया “उससे तुम्हें क्या मिलेगा?”
“कुछ नहीं।” वह बोला, “मैं तो एब्स्ट्रेक्ट में बात कर रहा हूँ।”
शिवमोहन भी उन दिनों काफ़ी परेशान था मगर अपने ही कारण से। उसकी तसवीरें ख़ास बिक नहीं रही थीं,और वह अपना ख़र्च चलाने के लिए आर्ट स्कूल में नौकरी करता था। उन दिनों आर्ट स्कूल के प्रिंसिपल से उसकी अनबन हो गयी थी और वह चाहता था कि नौकरी छोड़ दे। मगर रोटी खाने और रंग ख़रीदने के लिए उसे और कोई ज़रिया भी नज़र नहीं आता था। होशियारपुर के पास उसकी कुछ पुश्तैनी ज़मीन थी और वह सोच रहा था कि या तो होशियारपुर में ही जा बसे या होशियारपुर में ज़मीन बेचकर अपनी माँ और बहन-भाइयों को अपने पास दिल्ली ले आये।
“मगर मुझे डर यह है।” उसने एक बार कहा, “कि मैं उन्हें साथ दिल्ली से आया, तो मुझे घर-गृहस्थी की चिन्ताएँ झेलनी पड़ेंगी। अगर यही सब चिन्ताएँ उठानी हैं तो ब्याह ही क्यों न कर लूँ? मुझसे न तो इस छछूँदर को निगलते बनता है और न ही इसे छोड़ते बनता है।”
“तो तुम ब्याह कर क्यों नहीं लेते?” मैंने कहा।
“ब्याह?” वह ऐसे चौंक गया जैसे मैंने कोई बहुत ही अनहोनी बात कह दी हो, “मैं और ब्याह? नामुमकिन बात है! मैं इतना कमज़ोर आदमी हूँ कि मेरी बीवी आकर एक दिन मुझे घुडक़ी देगी कि यह पेंटिंग-एंटिंग का चक्कर छोड़ो और भले आदमियों की तरह सरकारी नौकरी करो, तो मैं चुपचाप उसी दिन से सरकारी नौकरी के लिए अ$िर्जयाँ देने लगूँगा। मुझसे इन बातों के लिए किसी से बहस नहीं की जाती। मैं उसे यह कैसे समझाऊँगा कि जो गमले और लंगूर मैं कैनवस पर बनाता हूँ उनमें कहीं मेरी आत्मा भी है? वह कहेगी कि गमला गमला है और लंगूर लंगूर है, इसलिए इन्सान का फ़र्ज़ है कि सरकारी नौकरी करे।”
“तो तुम अपने लिए क्या रास्ता सोचते हो?”
“भूखा मरूँगा और क्या रास्ता है?” और वह बच्चों की तरह हँस पड़ा, “मेरे जैसे आदमी के लिए और क्या रास्ता हो सकता है? ये गमले और लंगूर मुझे रोटी थोड़े ही देंगे? ये रोटी देंगे, तो किसी आर्ट-डीलर को जो मेरे मरने के बाद मेरी तसवीरें बेचेगा।”
हरबंस शिवमोहन की किस बात पर चिढ़ता है यह मेरी समझ में नहीं आता था। मुझे शिवमोहन की बातों में इतनी सादगी और मासूमियत लगती थी कि ख़ामख़ाह उसके लिए मेरे मन में प्यार उमड़ आता था। कई बार मेरा ध्यान उसकी बात से भी हट जाता था और मैं केवल उसके चेहरे की भाव-भंगिमाओं को और उन हिलते हुए हाथों की आवेशपूर्ण अस्थिरता को देखता रहता था। उसके जीवन का सारा उत्साह जैसे उसकी उँगलियों में सिमट आता था और वह जो कुछ मुँह से कहता था, उससे कहीं अधिक कुछ उसकी उँगलियाँ और आँखें कहने लगती थीं। बल्कि कई बार तो उसकी बातें जितनी सादा होती थीं, उसकी आँखें उतनी ही गम्भीर हो जाती थीं। मुझे उसकी आँखों को देखकर लगा करता था जैसे उनके पीछे एक लावा छिपा हो जो उस गम्भीरता की तह के नीचे भूचाल पैदा करता हो। उन आँखों में एक कोमलता भी थी और एक हलचल भी। मैं आज भी समझता हूँ कि मैं यह सब लिखकर उसकी आँखों का ठीक वर्णन नहीं कर रहा। मैं जब भी उसकी आँखों की तरफ़ देखता तो एक ऐसी वादी में जा पहुँचता जहाँ ऊपर से एक बड़ा-सा प्रपात गिर रहा हो और उसकी आवाज़ सारे वातावरण में गूँज रही हो, मगर फिर भी जहाँ एक शान्ति छायी हो—गहरी ख़ामोशी शान्ति—और जहाँ पहुँचकर आदमी हवा में तैरती हुई चीलों को देखता हुआ घंटों अपने को भूला रह सकता हो।
हरबंस भार्गव और शिवमोहन से जितना दूर हट रहा था मेरे साथ उसका व्यवहार उतना ही घनिष्ठ और आत्मीयतापूर्ण होता जा रहा था। वह मुझे कुछ इस तरह का भी आभास देता था जैसे वह मेरे ऊपर किसी बात के लिए निर्भर कर रहा हो। अपने उपन्यास की चर्चा उसके बाद उसने बहुत दिनों तक नहीं चलायी। एक बार मेरे पूछने पर भी उसने इतना ही कहा कि वह अपने दोस्त रमेश खन्ना के जीवन को लेकर कुछ लिखना चाहता है, मगर भाषा पर पूरा अधिकार न होने से उसने लिखने का इरादा लगभग छोड़ दिया है। रमेश खन्ना कई साल एक लडक़ी को पाने के लिए बेचैन रहा था, और अब जब उसकी उस लडक़ी के साथ शादी हो गयी थी, तो वह उससे दूर भागने के लिए बेचैन था। “मैं सोचता था कि शायद मैं इस थीम को लेकर कुछ लिख सकूँ,” हरबंस ने कहा, “मगर मुझसे कुछ भी बन नहीं पड़ता। मैं कई तरह से आरम्भ करके देख चुका हूँ, मगर जिस किसी तरह आरम्भ करता हूँ वही आरम्भ मुझे ग़लत लगने लगता है। कोई मुझे इतना बता दे कि मैं कैसे आरम्भ करूँ, तो मेरा ख़याल है कि मैं वह किताब पूरी कर सकता हूँ। जहाँ तक भाषा का सवाल है, वह मैं बाद में किसी से ठीक करा सकता हूँ। यह मेरे साथ बहुत बड़ी ट्रेजेडी है कि मुझे हिन्दी, उर्दू और अँग्रेज़ी में से कोई भी भाषा ठीक से नहीं आती। इनमें से कोई भी भाषा मेरी अपनी नहीं।”
एक बार उसने अपनी फ़ाइलें मुझे दिखा भी दीं। इनमें दो-तीन जगह पचास-पचास पन्ने रखे हुए थे—कहीं हिन्दी और कहीं अँग्रेज़ी में लिखे हुए। कई जगह वाक्य भी अधूरे ही लिखे हुए थे, जैसे कि वे एक व्यक्तिगत डायरी के संकेत हों। उन पन्नों से कुछ पता नहीं चलता था कि उनका आरम्भ कहाँ से है और उनमें कोई क्रम भी है या नहीं। “ऐसी ही दो फ़ाइलें और भी हैं।” उसने कहा, “मगर वह मैं फिर किसी समय ढूँढक़र निकालूँगा। शायद वह मेरे उस सामान में बन्द हैं जो मॉडल बस्ती के घर में रखा है। मैं किसी दिन जाऊँगा, तो निकालकर ले आऊँगा।”
उन पन्नों को देखकर किसी तरह की राय देना असम्भव था इसलिए मैंने उन पर कोई टिप्पणी नहीं की। इतना ही कह दिया कि वह जब दूसरी फाइलें ले आएगा, तो मैं उस विषय में कुछ कहूँगा। वह इतने से ही काफ़ी सन्तुष्ट हो गया। उसे शायद इतना ही बहुत लगा कि मैंने नीलिमा की तरह उसके लिखे का मज़ाक नहीं उड़ाया, और गम्भीरतापूर्वक इस बारे में बात करता रहा हूँ। जब उसने वे फ़ाइलें समेटकर रख दीं, तो उसके तुरन्त बाद ही कहा, “मुझे लगता है मेरे सिर से एक बोझ उतर गया है। चलो, अब कहीं चलकर एक-एक प्याला कॉफ़ी पीते हैं।”
यह प्रकरण दो-एक बार से ज़्यादा नहीं उठा इसलिए मेरे ऊपर उसकी निर्भरता का यह कारण तो हो नहीं सकता था। वह कारण क्या हो सकता है, यह मैं बहुत बार सोचकर भी नहीं समझ पाता था। शायद उसे अपने अन्दर इस बात की ज़रूरत महसूस होती थी कि कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसका उसके साथ उठना-बैठना नीलिमा और शुक्ला की वजह से न होकर उसकी अपनी वजह से ही हो और जो कम से कम एक व्यक्ति के रूप में तो उसे गम्भीरतापूर्वक ले। उसकी यह भूख इससे शायद और भी बढ़ जाती थी कि नीलिमा बात-बात पर उसका मज़ाक उड़ाने लगती थी। हरबंस को शायद ख़याल था उसकी इस भूख को मैं मिटा सकता हूँ। मगर मैं अपने मन को टटोलता कि क्या मैं हरबंस की वजह से ही उन लोगों में उठता-बैठता हूँ, तो मुझे इसका ठीक और स्पष्ट उत्तर नहीं मिलता था। इसमें तो कोई सन्देह नहीं था कि हरबंस ही उस दायरे का सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति था। नीलिमा और शुक्ला आख़िर उसी की कुछ लगती थीं, और उसी की वजह से हम लोगों से मिलती-जुलती थीं। हरबंस का उन लोगों से चिढऩा भी अस्वाभाविक नहीं था जो उसे एक स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में न लेकर नीलिमा और शुक्ला के साथ संलग्न एक इकाई के रूप में लेते थे। मगर मैं भी क्या उन्हीं लोगों में से नहीं था? क्या मैं भी किसी और की वजह से ही उसके साथ नहीं उठता-बैठता था? मैं इस सवाल को अपने मन से हटाये रखना चाहता था, मगर वह बार-बार वहाँ लौट आता था। क्या सचमुच...?
इतवार का दिन था और सुबह से ही आकाश में कोहरा छाया था। मैंने सुबह से शाम तक वही कुछ किया था जो हर भला आदमी ऐसे दिन में करता है अर्थात् सुबह देर से उठा था और देर तक बिना नहाये पड़ा रहा था; फिर बिस्तर में ही नाश्ता किया था और उसके बाद देर तक अरविन्द से गप करता रहा था। मेरा घर से निकलने को ज़रा भी मन नहीं था, मगर अरविन्द दो बजे के बाद ड्यूटी पर चला गया, तो (मेरे लिए आइन्स्टाइन के सिद्धान्त के अनुसार) समय के क्षण बहुत लम्बे होने लगे और मैं चार बजे तक एक उपन्यास के पन्ने पलटने के बाद बेमन से तैयार होकर घर से निकल पड़ा। इतवार की शाम को कनॉट प्लेस में तब भी आज की तरह वीरानी छायी रहती थी। दुकानें बन्द थीं और कोहरे की वजह से घूमनेवाले लोग भी बहुत ही कम नज़र आ रहे थे। कनॉट प्लेस उस समय एक बड़े से स्टेडियम की तरह लग रहा था जिसमें खेल समाप्त हो चुका हो और पीछे छिलके बटोरनेवाले लोग ही रह गये हों। तब तक कनॉट प्लेस से शरणार्थियों के स्टॉल अभी उठाये नहीं गये थे। वे लोग अपना-अपना सामान फैलाये जैसे एक उजड़े हुए मीना बाज़ार में बैठे आकाश के बदले हुए रंग को देख रहे थे। उन स्टॉलों के पास से गुज़रते हुए अचानक एक जगह मेरी नज़र हरबंस पर पड़ गयी। वह एक किताबें बेचनेवाले के स्टॉल पर झुका हुआ कुछ किताबें देख रहा था। मैं उसके पास जा खड़ा हुआ, तो भी कुछ देर उसका ध्यान मेरी तरफ़ नहीं गया। आख़िर जब मैंने उसकी पीठ पर हाथ रखा, तो उसने चौंककर मेरी तरफ़ देखा और सीधा खड़ा हो गया। “अरे, तुम?” उसने कहा।
“तुम इस वक़्त अकेले कैसे निकल आये?” मैंने पूछा।
“ऐसे ही...घर बैठे-बैठे ऊब गया था। सोचा चलकर कुछ किताबें ही देखूँ।”
“तो चलो, कुछ देर तुम्हारे यहाँ चलकर ही बैठते हैं। मैं भी घर पर काफ़ी ऊब गया था। आज दिन ही कुछ ऐसा है।”
“नहीं, घर नहीं चलेंगे।” वह हाथ में ली हुई किताब को वापस रखता हुआ बोला, “कहीं और चलते हैं।”
“और कहाँ चलेंगे?”
“जहाँ भी चलो।”
“मैंने घर के लिए इसलिए कहा था कि इस कोहरे में बाहर तो कहीं बैठा नहीं जाएगा। घर में कुछ रिकॉर्ड सुन सकते हैं और साथ में...।”
“रिकॉर्ड जाएँ भाड़ में! मैं रोज़-रोज़ वे रिकॉर्ड सुनकर तंग आ गया हूँ।” वह बोला, “हम बाहर कहीं क्यों नहीं बैठ सकते? इस मौसम में बल्कि बाहर बैठना ज़्यादा अच्छा लगेगा। मैं इस वक़्त घर तो बिल्कुल ही नहीं जाना चाहता।” उसने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया और सामने टैक्सी स्टैंड की तरफ़ चलते हुए कहा, “यह बहुत ही अच्छा हुआ जो तुम मिल गये। मैं इस वक़्त बहुत-बहुत अकेला महसूस कर रहा था।”
“क्यों?”
“मैं ठीक से तुम्हें बता नहीं सकता। मैं जब घर से निकला, तो यह महसूस कर रहा था कि मेरा कोई घर-बार नहीं है, कोई सगा-सम्बन्धी नहीं है, और मैं बिल्कुल अकेला हूँ। मुझे लगता है मेरे साथ अन्दर ही अन्दर कोई दुर्घटना हो रही है!”
“तुम्हारा मतलब है कि तुम इस समय किसी मानसिक संकट में हो?”
“तुम इसे मानसिक संकट कह लो या कुछ भी कह लो। मुझे लग रहा है कि मैं धीरे-धीरे अपने वश से बाहर होता जा रहा हूँ। कोई चीज़ मुझे अन्दर से धकेल रही है और मुझे लग रहा है कि मैं...”
मैं उसके वाक्य पूरा करने की प्रतीक्षा करता रहा मगर वह वाक्य पूरा न करके टैक्सी से बाहर जाने क्या देखने लगा। हम लोग जब टैक्सी छोडक़र इंडिया गेट के लॉन में आ गये, तो भी उसकी खामोशी उसी तरह बनी रही।
“लगता है आज तुम बहुत उदास हो।” जब काफ़ी देर उसने कोई बात नहीं की, तो मैंने कहा।
वह लॉन की घास पर लेट गया था और शायद उसे यह अहसास भी नहीं रहा था कि मैं उसके पास बैठा हूँ। उसने कुछ चौंककर मेरी तरफ़ देखा और कहा “कितना अच्छा होता अगर बात सिर्फ़ उदास होने तक ही होती!”
“तो क्या कोई बहुत बड़ी बात हो गयी है जिससे तुम इतने परेशान हो?”
वह कुछ देर चुपचाप कोहरे से लदे हुए आकाश को कुछ खोजती हुई सी आँखों से देखता रहा। फिर बोला “एक बात है जो मैं तुम्हीं को बता रहा हूँ। बहुत जल्दी ही मैं यहाँ से बाहर चला जाऊँगा।”
“मतलब, दिल्ली छोडक़र और कहीं नौकरी कर लोगे?”
“मेरा मतलब है मैं इस देश से बाहर चला जाऊँगा।”
मुझे कुछ आश्चर्य हुआ और मैं उसका वास्तविक अभिप्राय समझने के लिए पल-भर उसके चेहरे की तरफ़ देखता रहा “मतलब बाहर जाकर डॉक्टरेट-ऑक्टरेट करने का इरादा है, या...?” एक बार बातों ही बातों में उसने कहा था कि वह डॉक्टरेट के लिए इंग्लैंड जाना चाहता है।
“नहीं, मैं इस मतलब से नहीं, वैसे ही जाना चाहता हूँ।”
“वैसे ही, मतलब घूमने के लिए, या...?”
“घूमने के लिए आदमी इस तरह जाता है? और मेरे पास इतना पैसा कहाँ कि सिर्फ़ घूमने के लिए बाहर जा सकूँ?”
मैं उसकी आर्थिक स्थिति के सम्बन्ध में विशेष कुछ नहीं जानता था। मुझे अपने रोज़ के अनुभव से इतना ही पता था कि वह काफ़ी ख़र्चीली ज़िन्दगी बिताता है।
“तो आख़िर कुछ तो इरादा होगा?” मैंने कहा।
“इरादा कुछ भी नहीं है।” वह धीरे से आँखें झपककर बोला, “सिर्फ़ जा रहा हूँ।”
“मतलब अकेले ही जा रहे हो, या नीलिमा को साथ लेकर...?”
“मैं अकेला जा रहा हूँ और इसीलिए जा रहा हूँ कि घर के लोगों से दूर रह सकूँ।”
“मगर आख़िर क्यों?” मेरी आँखों के सामने नीलिमा का हँसता हुआ चेहरा आ गया, “यह तो बहुत अजीब-सी बात लगती है कि तुम बिना किसी उद्देश्य के विदेश जा रहे हो, और बिल्कुल अकेले जा रहे हो।”
“चाहे कितनी भी अजीब लगे, मगर बात यही है कि मैं यहाँ से जा रहा हूँ और बिल्कुल अकेला ही जा रहा हूँ। मैं अब बिल्कुल अकेला रहना चाहता हूँ और अपनी ज़िन्दगी बिल्कुल नए सिरे से आरम्भ करना चाहता हूँ।”
“मतलब?” मुझे विश्वास नहीं हुआ कि उसने जो बात कही है, उसका वही मतलब हो सकता है।
“क्यों मुझे यह हक नहीं है कि मैं अपनी ज़िन्दगी नए सिरे से आरम्भ कर सकूँ?”
“मगर अचानक ऐसी बात क्या हो गयी? कल तक तो सब कुछ ठीक-ठाक था।”
“ऊपर से ज़रूर ऐसा लगता होगा।” वह थोड़ा चिढक़र बोला, “मगर मेरे अन्दर यह कशमकश न जाने कब से है! तुमने मेरी फ़ाइलों में लगे हुए वे पन्ने देखे थे न?”
मैं थोड़ा सावधान हो गया कि कहीं घुमा-फिराकर वह बात अपने उपन्यास पर ही तो नहीं ला रहा।
“हाँ-हाँ...।”
“मैंने तुमसे कहा था कि मैं वह उपन्यास एक आदमी के मानसिक संघर्ष को लेकर लिख रहा हूँ।”
“हाँ, मुझे याद है। रमेश खन्ना कई साल तक एक लडक़ी के प्रेम में तड़पता रहा और जब उस लडक़ी से उसका ब्याह हो गया, तो वह सोच-सोचकर तड़पने लगा कि उससे किस तरह छुटकारा पाये।”
“मैंने रमेश खन्ना का नाम ऐसे ही ले दिया था।” वह बोला, “मैं वह उपन्यास दरअसल अपने बारे में ही लिखना चाहता था।”
मेरे अन्दर कोई चीज़ सहसा झनझना गयी और मैं चुपचाप उसके चेहरे की तरफ़ देखता रहा। वह भी चुप रहकर कुछ देर कोहरे के अन्दर उसी तरह कुछ खोजता रहा। मैं इतने दिनों से उसके साथ घूमता था और कई बार उनके घर गया था मगर उसकी और नीलिमा की ज़िन्दगी को देखकर मेरी यही धारणा बनी थी कि वे दोनों दो अच्छे मित्रों की तरह रहते हैं और उनका जीवन बहुत सुखी है। बल्कि मैं तो सोचता था कि वास्तव में सुखी विवाहित जीवन हो सकता है, तो उसी तरह का हो सकता है।
“मगर मैं तो कभी सोच भी नहीं सकता था कि...”
उसने मेरी बात पूरी नहीं होने दी और बीच में ही बोल उठा “हममें से हर आदमी दूसरे आदमी की ज़िन्दगी के बारे में यही कहता है। मगर सच बात तो यह है कि मुझे आज से एक-डेढ़ साल पहले ही यह निश्चय कर लेना चाहिए था और यहाँ से चले जाना चाहिए था।”
“मगर क्या सचमुच तुम समझते हो कि स्थिति इतनी ही गम्भीर है, या...?”
उसने केवल कन्धे हिला दिये और फिर कुछ देर कुहरीले बादलों में खोया रहा। मैं भी कुहनियों पर झुककर उन बादलों को ही देखने लगा जो अपने आपमें एक भरी-पूरी दुनिया की तरह थे हल्के और गहरे रंगों की एक उदास और खामोश दुनिया की तरह जो हर क्षण अपना रूप बदल रही थी, फिर भी अपने अवसाद में जड़-सी प्रतीत होती थी। उसमें एक अथाह गहराई तो थी जिसका कोई आर-पार नहीं था, मगर ऐसी घनता नहीं थी जो उसे बरसा देती। मैं कोहरे के अन्दर तरह-तरह की तसवीरें बनते देखता रहा,जैसे बचपन में स्कूल में ब्लैकबोर्ड के सामने बैठा मन ही मन उसमें से हाथी-घोड़े और न जाने क्या-क्या तराशता रहता था।
हम काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। मैं घास की तिगलियों को अपनी उँगलियों में मसलता रहा। हरबंस कुछ देर बाद घास पर उलटा लेट गया कुहनियों के बल होकर बात करता रहा। उसके जीवन में वास्तविक उलझन कहाँ है, यह उसकी सब बातें सुनकर भी मुझे पता नहीं चल सका। वह जो बातें बहुत गम्भीर होकर कह रहा था, वे मुझे बहुत ऊपरी और बहुत सतही लग रही थीं। परन्तु उनके भीतर शायद कहीं कुछ था, सतह से बहुत नीचे, गहरे पानी में कुलबुलाती हुई नन्ही-नन्ही मछलियों की तरह, जिनके अस्तित्व का सतह से देखने पर बिल्कुल आभास नहीं होता। उसने जो कुछ कहा, वह बहुत साधारण था, मगर जिस तरह कहा उससे मुझे लगा कि अपने अन्दर ही अन्दर बहुत गहरे में कहीं वह बुरी तरह रिस रहा है, और जो कुछ वह कहना चाहता है,उससे शब्दों में व्यक्त नहीं हो पाता। शायद बात करने में भी उसके साथ वही कठिनाई थी जो लिखकर भाव प्रकट करने में थी।
जो कुछ उसने बताया वह यही था कि पिछली रात घर में उसकी नीलिमा से कुछ कहा-सुनी हो गयी थी। कुछ दिनों से उन लोगों की जीवन भार्गव से भेंट नहीं हुई थी। पिछली रात जब वे खाना खा रहे थे, तो भार्गव उनके यहाँ आया और आग्रह करके उसे अपने साथ कॉफ़ी पीने के लिए बाहर ले गया। वह उस समय सरदी में बाहर नहीं जाना चाहता था, मगर भार्गव ने बहुत ही हठ किया कि वह उसके साथ एक बहुत ज़रूरी बात करना चाहता है। नीलिमा ने भी कहा कि भार्गव इतनी ठंड में उससे कोई बात करने के लिए आया है, तो उस बेचारे को निराश नहीं करना चाहिए। वह जब भार्गव के साथ बाहर आ गया, तो उसे ध्यान आया कि वह खाली चप्पल पहने हुए ही बाहर आ गया है, मगर वह मोजा या जूता पहनने के लिए लौटकर नहीं गया। उसका मन जो पहले ही खीझा हुआ था, इससे और खीझ गया। भार्गव उसे अपने साथ ‘वोल्गा’ में ले गया। वहाँ जाकर काफ़ी देर भार्गव इधर-उधर की बातें करता रहा पर आखिर जब तंग आकर वह उठने की सोचने लगा, तो भार्गव ने हिचकिचाते हुए उससे कहा कि वह शुक्ला के साथ ब्याह करने के लिए उसकी अनुमति चाहता है।
इस प्रकरण पर आकर हरबंस कुछ उत्तेजित होकर बैठ गया। “मैंने उससे कहा कि तुम्हें यह बात कहते हुए शरम नहीं आती? तुम्हें पता है शुक्ला की उम्र क्या है? वह मुश्किल से अभी सत्रह बरस की हुई है, और इस कच्ची उम्र में तुम चाहते हो कि उसका तुम्हारे साथ ब्याह कर दिया जाए? मैं नहीं जानता था कि तुम इतने ओछे और इतने स्वार्थी हो? तुम इतने दिनों से मेरे साथ इसीलिए दोस्ती का स्वाँग भर रहे थे?”
“मगर...” मैं कुछ कहने लगा,तो हरबंस ने मेरी बात बीच में ही काट दी।
“मैंने उससे कहा कि मैं आज से तुम्हारे साथ उठने-बैठने का भी सम्बन्ध नहीं रखना चाहता। तुम आज से कभी न तो हमारे यहाँ आओगे, और न ही बाहर हममें से किसी से मिलोगे। मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि लोग मेरे साथ बैठकर कला-संस्कृति की बातें करें और वास्तव में उनकी आँख मेरे घर की लड़कियों पर हो।”
“यह क्या एक तरह से तय ही नहीं था कि...”
“यह तुमसे किसने कहा है कि ऐसी कोई बात कभी तय हुई थी?” वह उसी उत्तेजना में कहता गया, “तुम समझते हो कि मैं यह बरदाश्त कर सकता हूँ कि वह लडक़ी इस उम्र में ब्याह, करके बाल-बच्चे सँभालने लग जाए? मैंने उसके बारे में जाने क्या-क्या सोच रखा है! सबसे पहले तो मैं उसे मॉरिस कॉलेज में संगीत की शिक्षा के लिए भेजना चाहता हूँ।”
एक तरफ़ तो वह विदेश जा रहा है और दूसरी तरफ़ वह शुक्ला को संगीत की शिक्षा के लिए भेजना चाहता हूँ।”
एक तरफ़ तो वह विदेश जा रहा है और दूसरी तरफ़ वह शुक्ला को संगीत की शिक्षा के लिए मॉरिस कॉलेज भेज रहा है—इसमें जो असंगति थी, उसकी तरफ़ उसका ध्यान नहीं गया। उसका चेहरा इस तरह तमतमा रहा था जैसे जीवन भार्गव उस समय भी उसके सामने बैठा हो और वह उसी को सम्बोधित करके बात कर रहा हो।
“खैर, यह तो तुम्हारे और शुक्ला के सोचने की बात है। “मैंने कहा, “मगर इससे तुमने विदेश जाने का निश्चय कैसे कर लिया?”
“मगर बात वहीं तो समाप्त नहीं हो गयी।” वह बोला, “आज सावित्री ने इस बात को लेकर एक तूफ़ान खड़ा कर दिया है।” नीलिमा का वास्तविक नाम यही था। ‘नीलिमा’ यह नाम उसने बाद में अपने लिए चुन लिया था। मगर हरबंस के मुँह से अब भी कई बार उसका पूरा नाम ही निकल पड़ता था। यह ज़्यादातर तब होता था जब वह उत्तेजित होता।
सुबह की उसने जो बात बतायी वह इस तरह थी कि रात को उसने नीलिमा को भार्गव के साथ हुई अपनी बातचीत के विषय में नहीं बताया था। सुबह नाश्ते के समय उसने नीलिमा को बताया कि उसने भार्गव को उस घर में आने-जाने से मना कर दिया है, इसलिए उसकी अनुपस्थिति में भी भार्गव को वहाँ नहीं आना चाहिए। नीलिमा इस पर एकदम भडक़ उठी और उसने कहा कि वह उसके पिता का घर है, उस घर में किसी को आने-जाने से रोकनेवाला वह कौन है! नीलिमा ने उससे यह भी कहा कि शुक्ला के भविष्य के बारे में निर्णय करने का उसे कोई अधिकार नहीं है। यदि किसी को अधिकार है, तो शुक्ला को है, या बीजी और बाबूजी को है। हरबंस इस पर नाश्ता बीच में ही छोडक़र उठ खड़ा हुआ और यह कसम खाकर वहाँ से चला आया कि अब वह उस घर में कभी क़दम नहीं रखेगा। तब से लेकर मुझे मिलने तक वह इधर-उधर घूमता रहा था। अब रात को भी वह न तो लौटकर उस घर में जाना चाहता था, और न ही मॉडल बस्ती में अपनी माँ के घर।
“मैं यही सोच रहा था कि तुम मिल जाओ, तो मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे घर चला चलूँगा और बाहर जाने से पहले जितने दिन यहाँ हूँ, उतने दिन तुम्हारे साथ ही काट लूँगा। मुझे जाने से पहले पैसे का प्रबन्ध करना है। इसके लिए मैं कल से ही दौड़-धूप शुरू करूँगा। हो सकता है रमेश खन्ना डेढ़-दो हज़ार रुपये का प्रबन्ध कर दे। मेरा पासपोर्ट बना हुआ है, इसलिए उसकी मुझे चिन्ता नहीं है। मुझे आज अच्छी तरह पता चल गया है कि जिस घर में मैं रहता हूँ, वह मेरा घर नहीं है और जिसे मैं अपनी पत्नी समझता हूँ, वह मेरी पत्नी नहीं है। मैंने आज तक इन लोगों के लिए जो कुछ किया है, उसके लिए भी मुझे अफ़सोस है। अपने पिता के गुज़रने पर मुझे घर से अपने हिस्से के जो दस हज़ार मिले थे, वे दस्र के दस हज़ार मैंने एक-डेढ़ साल में इन लोगों के ऊपर खर्च कर दिये हैं। इसके नृत्य के अभ्यास पर ही हर महीने तीन सौ रुपया खर्च होता रहा। उस रुपये से मैंने अपने लिए एक पैसे की चीज़ नहीं ख़रीदी। आज भी अगर मेरी सारी तनख़ाह चार दिन में ख़र्च हो जाती है, तो किसके ऊपर होती है? इन्हीं लोगों पर या किसी और पर? अगर मेरी उस घर में कोई आवाज़ नहीं है, तो ठीक है। मैं भी उस घर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।”
वह उस समय इतना भरा हुआ था कि अगर मैं उसे न मिलता तो शायद वह बैठकर हवा से ही बात करता रहता। मेरा ध्यान कुछ देर उसकी बातों से हटा रहा और मैं अपने आसपास खेलते हुए बच्चों को देखता रहा। वे हवा में गेंद उछालते थे और उसे दबोचने के लिए किलकारियाँ मारते हुए दौड़ पड़ते थे। कुहरीली शाम के धुँधलके में उन्हें ऊपर से आती हुई गेंद न जाने कैसे दिखायी दे जाती थी। मुझे हर बार लगता जैसे गेंद ऊपर ही कहीं उस रुई जैसे कोहरे में दुबककर रह गयी हो,मगर बच्चे उसे न जाने कहाँ से दबोच लाते थे और क्षण-भर के बाद वह फिर उसी तरह ऊपर को उछाल दी जाती थी। तभी सहसा सडक़ की बत्तियाँ जल उठीं। सडक़ का अँधेरे में खोया हुआ व्यक्तित्व फिर बाहर निकल आया। उससे अगले ही क्षण इंडिया गेट के फ़व्वारों की बत्तियाँ भी जगमगा उठीं। हम लोगों के आसपास अँधेरा पहले से गहरा हो गया।
मैं सोच रहा था कि हरबंस को मैं अपने साथ घर कैसे ले जाऊँगा। तब तक हम लोगों में कभी यह बात नहीं उठी थी कि मैं कहाँ और किस घर में रहता हूँ। क्या सचमुच वह क़स्साबपुरा के उस घर में मेरे साथ रह सकता था और ठकुराइन और गोपाल की माँ की रामायण सुनकर वहाँ आत्मीयता का अनुभव कर सकता था?
“तुम चलना चाहो, तो बेशक मेरे साथ चलो।” मैंने कहा, “मैं कस्साबपुरा की एक छोटी-सी गली में अपने एक मित्र के पास ठहरा हुआ हूँ। हम लोग रात को ज़मीन पर सोते हैं क्योंकि वहाँ दो चारपाइयाँ ठीक से नहीं बिछ सकतीं। तुम तकलीफ़ महसूस न करो, तो मेरी तरफ़ से तुम चाहे जितने दिन वहाँ रहो!”
हरबंस इस तरह मेरी तरफ़ देखने लगा जैसे नक़ाब हटाने से उसे मेरा कोई और ही चेहरा नज़र आ रहा हो। कुछ देर वह चुपचाप सोचता रहा।
“वैसे मैं रमेश के यहाँ भी रह सकता हूँ।” वह बोला, “सिर्फ़ उसकी पत्नी की बातें मुझसे बरदाश्त नहीं होतीं। वह औरत अपने को जाने क्या समझती है! उसे हर समय यह सोचने से ही फुरसत नहीं मिलती कि ब्याह से पहले वह कितनी सुन्दर थी और कितने लोग उससे ब्याह करने के लिए उत्सुक रहते थे।”
“तुम अपने मन में फ़ैसला कर लो।” मैंने कहा, “मेरे साथ चलना हो, तो चाहे अभी चलो।”
“अच्छा, मैं अभी सोचकर बताऊँगा।” उसने कहा और घास पर पीठ के बल सीधा लेट गया। उसकी सिगरेट का धुआँ अँधेरे और कोहरे के बीच अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता हुआ धीरे-धीरे ऊपर उठता और विलीन होता रहा। मैं चुपचाप बैठा सडक़ से गुज़रती हुई गाडिय़ों को देखता रहा।
उस दिन हरबंस काफ़ी गम्भीर होकर बात कर रहा था फिर भी मैंने यह नहीं सोचा था कि वह सचमुच बाहर चला जाएगा। उस दिन इंडिया गेट से लौटने पर कॉफ़ी-हाउस में हमारी नीलिमा से भेंट हो गयी थी और वह उसे मनाकर अपने साथ घर ले गयी थी। जीवन भार्गव का उसके बाद हम लोगों से मिलना-जुलना बिल्कुल बन्द हो गया। शुक्ला ने स्वयं ही अगले दिन उससे कह दिया था कि वह उसके साथ ब्याह नहीं करना चाहती, इसलिए अच्छा होगा कि वह उनके यहाँ आना-जाना बन्द कर दे। उस दिन भार्गव दो घंटे शुक्ला के सामने बैठा चुपचाप आँसू बहाता रहा, और उसके बाद न जाने वह दिल्ली से चला गया, या क्या हुआ कि उसकी सूरत ही दिखायी नहीं दी। कह नहीं सकता कि वह अपना जी हल्का करने के लिए एब्स्ट्रेक्ट की दुनिया में लौट गया, या बाद में भी उस चोट की वजह से आँसू ही बहाता रहा। दो साल बाद जब एक बार मेरी उससे लखनऊ स्टेशन पर भेंट हुई, तो उसकी नई ब्याहता पत्नी उसके साथ थी और एक चपरासी उसका बैग सँभाले था। उसका लिबास भी तब तक बदल गया था और सलवार और कुरते की जगह वह कोट-पतलून पहने था। उससे मिलने पर पता चला कि उसने एक सरकारी महकमे में आर्ट-डिज़ाइनर के रूप में नौकरी कर ली है। अगर उस दिन मैं ही उसे पहचानकर न बुला लेता, तो शायद वह मेरे पास से बिल्कुल एक अजनबी की तरह गुज़रकर चला जाता। उसके चेहरे से मुझे स्पष्ट लगा कि मुझसे मिलकर और बात करके उसे ख़ुशी नहीं हुई।
इंडिया गेट पर हुई बातचीत के बाद कई दिन गुज़र गये। हरबंस से फिर कभी उस विषय में बात नहीं हुई। मैंने इससे सोचा कि वह एक क्षणिक उबाल था जो अब शान्त हो गया है। रोज़ की ज़िन्दगी लगभग वही थी—वही घर, वही दफ़्तर, वही कॉफ़ी-हाउस और वही बातें। भार्गव की बात हम लगभग भूल गये थे। केवल नीलिमा ही थी जो कभी-कभी उसका ज़िक्र कर देती थी। “बेचारा भार्गव!” वह कहती, “उसके साथ सचमुच बहुत बुरा हुआ है!” इस पर हम लोग चुप रहते, हरबंस की भौंहें कुछ तन जातीं और शुक्ला गरदन घुमाकर दूसरी तरफ़ देखने लगती। मगर यह ऐसे ही होता जैसे झरने के पानी में एक छोटा सा पत्थर गिरे और तब तक उससे एक लहर पैदा हो तब तक बहाव उस लहर को बहाकर ले जाए। भार्गव की स्थिति उस क्यूरियो पीस की तरह थी जिसका सिर हमारे सामने टूटा था, मगर जिसे चुपचाप उसकी जगह पर छोडक़र हम आगे चले आये थे।
इसलिए जब एक दिन नीलिमा ने मुझसे कहा कि हरबंस दस-पन्द्रह दिन में बाहर जा रहा है तो मुझे विश्वास नहीं आया।
“कहाँ जा रहा है?” मैंने बहुत सरसरी तौर पर और लगभग मज़ाक में पूछ लिया।
“अभी तो लन्दन जा रहा है,” उसने अपने होंठों को एक करवट देते हुए कहा।
“इन दिनों? इस सरदी में?”
नीलिमा ने चुपचाप सिर हिलाया और अपने नाखूनों को देखती रही।
“कितने अरसे के लिए जा रहा है?”
“यह उसी से पूछ लेना।” वह बोली, “मुझसे तो उसने यही कहा है कि वह फ़िलहाल दो-एक साल बाहर रहना चाहता है। हो सकता है वहाँ रहकर डॉक्टरेट कर ले।”
“मगर मुझसे तो उसने कहा था कि...” मैं कहते-कहते रुक गया।
“तुमसे उसने क्या कहा था?” नीलिमा की आँखें एक उत्सुकता के साथ मेरे चेहरे पर स्थिर हो गयीं। मुझे उस समय उसके सामने झूठ बोलने के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ा।
“कि अभी उसका बाहर जाने का इरादा नहीं है।”
“यह उसने कब कहा था?”
“बहुत दिन हो गये।”
“मैं तुम्हें आज की बात बता रही हूँ। आज उसने सचमुच फ़ैसला कर लिया है कि फ़रवरी के शुरू में वह यहाँ से चला जाएगा।”
“और तुम?”
“मैं यहीं रहूँगी।”
“मगर...”
“मगर क्या?”
“मगर ये तो यहाँ से जाने के दिन नहीं हैं। अगर उसे डॉक्टरेट ही करना है, तो उसके लिए, उसे एडमिशन लेकर जून-जुलाई में यहाँ से जाना चाहिए।”
“यह बात तो वही बता सकता है। कहता है पहले जाकर कोई नौकरी करूँगा और जब ख़र्च का कुछ प्रबन्ध हो जाएगा, तो एडमिशन ले लूँगा।”
“तो यहाँ से नौकरी छोडक़र जाएगा?”
“यहाँ से उसने त्यागपत्र दे दिया।”
“दे दिया है?”
“हाँ, आज सुबह वह अपना त्यागपत्र दे आया है।”
“बगैर नोटिस के ही त्यागपत्र दे आया है?”
“कहता है कि उसने प्रिंसिपल को पीछे की तारीख़ डलवाकर त्यागपत्र लेने के लिए राज़ी कर लिया है। वह तीन फ़रवरी के जहाज़ के लिए सीट भी बुक करा आया है।”
“इतनी जल्दी? क्या और सारा इन्तज़ाम उसने कर लिया?”
“उसने हज़ार रुपया रमेश से क़र्ज़ लिया है। जाने तक शायद उसे कॉलेज से अपने प्राविडेंट फ़ंड के पैसे भी मिल जाएँगे।”
नीलिमा काफ़ी तटस्थ रहकर बात करने का प्रयत्न कर रही थी जैसे चर्चा हरबंस के जाने की न होकर किसी और के जाने की हो रही हो। मैं देखता रहा कि उसके चेहरे पर दुख या क्षोभ की कोई रेखा नज़र आती है या नहीं, परन्तु ऐसी कोई रेखा उस समय मुझे वहाँ नज़र नहीं आयी। वह इस तरह सरसरी तौर पर बात कर रही थी जैसे सुबह के अख़बार में पढ़ी हुई कोई ख़बर सुना रही हो।
“मगर इस तरह अचानक ही उसने जाने का निश्चय कैसे कर लिया?” मैं भी उस समय यह बिल्कुल ज़ाहिर नहीं होने देना चाहता था कि मुझे उस बारे में कुछ मालूम है।
वह कुछ देर अपने में गुम होकर सोचती रही—उसे इस तरह सोचते मैंने कभी नहीं देखा था; और क्षण-भर एक हाथ को दूसरे हाथ में उलझाए रही। फिर बोली, “अगर सच पूछते हो, तो मुझे लगता है वह मेरी वजह से ही यहाँ से जा रहा है। यहाँ रहकर शायद उसे लगता है कि वह जो कुछ करना चाहता है, वह मेरी वजह से नहीं कर पा रहा। मैं भी सोचती हूँ कि अगर सचमुच ऐसा है और मेरी वजह से ही उसे अपनी ज़िन्दगी में रुकावट महसूस होती है तो मैं उसके रास्ते में रुकावट क्यों बनूँ? वह कुछ अरसा मुझसे दूर रहेगा, तो उसके मन से यह बात तो निकल जाएगी। मैं भी इस बीच देख लूँगी कि अकेली रहकर मुझे कैसा लगता है। मैं इस बीच दक्षिण चली जाऊँगी और वहाँ नृत्य का अभ्यास करूँगी। बीजी कह रही हैं कि वे मुझे वहाँ जाने का ख़र्च दे देंगी। मैंने तय कर लिया है कि मैं उसे एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहूँगी।”
और तब पहली बार मुझे नीलिमा के चेहरे की गहराई में एक ऐसी रेखा नज़र आयी जो एक दर्द या व्याकुलता की रेखा हो सकती थी। परन्तु तुरन्त ही उसने अपने को झटककर ठीक कर लिया और बोली “तुम तो हरबंस के जाने के बाद हम लोगों से मिला करोगे न?”
“हाँ, क्यों नहीं मिला करूँगा?”
“हरबंस तुमसे बात करे, तो तुम भी उसे यही राय देना कि वह ज़रूर चला जाए।” वह बोली, “वह आजकल तुम्हारी बात की बहुत क़द्र करता है। हो सकता है तुम उसे रुकने के लिए कहो, तो वह रुक जाए और उसके बाद रात-दिन उसी तरह झींकता रहे। मैं अब इस निष्कर्ष पर पहुँच गयी हूँ कि कुछ दिनों के लिए उसका चले जाना ही हम लोगों के लिए हितकर है।”
“मगर बात यह है नीलिमा कि...”
“मैं तुम्हें एक बात बता दूँ सूदन।” वह बोली, “वह मुँह से चाहे जो कहे, मगर मुझसे अलग होकर वह नहीं रह सकता। मैं यह बात बहुत अच्छी तरह जानती हूँ। मगर मैं चाहती हूँ कि वह एक बार कुछ दिनों के लिए यह प्रयोग करके देख ले, नहीं तो वह ज़िन्दगी-भर कुढ़ता रहेगा कि मेरी वजह से वह यह नहीं कर सका, वह नहीं कर सका। बाकी जहाँ तक शुक्ला की ज़िन्दगी का सवाल है, उसमें उसका दख़ल मुझे ज़रा भी पसन्द नहीं है। मैं आज भी सोचती हूँ कि शुक्ला का भार्गव के साथ ब्याह हो जाना चाहिए था। चाहे अभी न होता, दो साल बाद होता।”
“मगर शुक्ला ने उसे खुद ही मना कर दिया था। जब वह खुद ही नहीं चाहती थी, तो...?”
“वह क्या चाहती है और क्या नहीं, यह वह खुद भी नहीं जानती। सरोज एक मैकेनिक से ब्याह करना चाहती है जिसके पास न सूरत है न पैसा है, और न ही वह ज़्यादा पढ़ा-लिखा है। हम लोग उसके हक में नहीं थीं, मगर उसे तो हरबंस बढ़ावा देता रहा है कि जिस आदमी को वह चाहती है, उसी से उसे ब्याह करना चाहिए। मगर शुक्ला के मामले में—मैं नहीं जानती कि इसने इस तरह की दख़लअन्दाज़ी क्यों की है। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि कहीं...?”
मुझे अपने अन्दर एक झनझनाहट-सी महसूस हुई मगर मैंने बहुत जल्दी अपने को सँभाल लिया। “तुम सचमुच ऐसा समझती हो?” मैंने पूछा।
“मैं कह नहीं सकती।” वह बोली, “मगर ऐसे ही कभी-कभी मुझे लगता है...।”
“मेरा ख़याल है, यह सिर्फ़ तुम्हारा वहम है।”
“हो सकता है ऐसा ही हो।” नीलिमा कुछ क्षणों के लिए फिर अन्तर्मुख हो गयी, “शुक्ला अभी बिल्कुल बच्ची है। उसके लिए हरबंस भापाजी की इच्छा से बड़ी दुनिया में कोई चीज़ नहीं है। जो हरबंस भापाजी के लिए अच्छा है, वही उसके लिए अच्छा है और जो उनकी नज़र में बुरा है, वह उसके लिए भी बुरा है। मैं कहती हूँ कि हरबंस भापाजी के साथ उसका यही लगाव रहा, तो ब्याह के बाद वह किसी के यहाँ जाकर कैसे सुखी हो सकेगी?”
उसने हँसने का प्रयत्न किया मगर ठीक से हँस नहीं सकी। वह उस हँसी से अपने अन्दर के किसी भाव को छिपाने का प्रयत्न कर रही थी, जो कि उसके स्वभाव के विपरीत था। आम तौर पर वह अपने किसी भी भाव को छिपाती नहीं थी—छिपा सकती ही नहीं थी। जो कुछ वह महसूस करती थी,वही बात अक्सर उसकी ज़बान पर भी आ जाती थी। छिपाने का प्रयत्न उसके लिए एक बहुत बड़ा प्रयास था।
जिस दिन हमने हरबंस को विदा किया उस दिन हल्की-हल्की फुहार पड़ रही थी। स्टेशन पर आने से पहले हरबंस मुझे अपने साथ एक जगह ह्विस्की पीने के लिए ले गया। वहाँ जाज़ चल रहा था और हमें सीट भी ऐसी मिली कि अपनी कही हुई बात अपने को ही सुनायी नहीं देती थी। हम लोगों ने ह्विस्की का एक-एक पेग ख़ामोश रहकर पिया। जब दूसरा पेग भी आधा-आधा पी चुके और हमारी आँखें सुर्ख होने लगीं, तो हरबंस ने कहा, “देखो, ज़िन्दगी में आदमी कैसे फ़ैसला करता है!”
मैंने सुना कि वह कह रहा है कि ज़िन्दगी में आदमी कैसे हौसला करता है। “किस चीज़ का हौसला?” मैंने पूछा।
“मैं आज यहाँ से जा रहा हूँ।” वह बोला, “शायद हमेशा के लिए! यह इतना बड़ा फ़ैसला कितनी आसानी से हो गया!”
“तुम सचमुच समझते हो कि यह फ़ैसला बहुत आसानी से हो गया है?” मैंने कहा।
“बिल्कुल आसानी से।” वह बोला, “जब तक मैंने फ़ैसला नहीं किया था, तब तक मेरे मन में उलझन थी। अब कोई उलझन नहीं है।”
“अगर सचमुच तुम्हारे मन में कोई उलझन नहीं है, तो मुझे इसकी ख़ुशी है।”
“तुम्हें ख़ुशी है न?” वह बोला, “मैं जानता था तुम्हें ख़ुशी होगी।”
मुझे लगा कि मैं बात का सूत्र ठीक से पकड़ नहीं पाया “तुम क्या बता कर रहे हो?” मैंने कहा।
“मैं तुम्हारी ख़ुशी की बात कह रहा हूँ।” वह बोला, “मुझे पता था तुम्हें ख़ुशी होगी।”
“किस बात की ख़ुशी?” मैंने फिर बात का सूत्र पकडऩे की कोशिश की।
“मेरे जाने की! और किस बात की?” उसने आख़िरी घूँट भरकर गिलास रख दिया और सहसा उठ खड़ा हुआ, “आओ चलें...।”
उसकी बात का सूत्र तब तक मेरी पकड़ में नहीं आया जब तक हम बाहर आकर टैक्सी में नहीं बैठ गये। तब तक मुझे अपना आपा ह्विस्की की वजह से काफ़ी हल्का लग रहा था मगर बात का सूत्र पकड़ में आते ही मेरे मन पर ही नहीं, शरीर पर भी एक भारीपन छाने लगा। तो क्या...नीलिमा जो बात सोचती थी, वह सच थी? हरबंस को जीवन भार्गव से ही नहीं, मुझसे भी ईर्ष्या थी? उस हर व्यक्ति से ईर्ष्या थी जो किसी भी तरह शुक्ला के निकट रह सकता था?
“तुम यह कैसे कह रहे थे कि मुझे तुम्हारे जाने की ख़ुशी है?” मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। मैं उसके जाने से पहले उस पर अपनी पारसाई की छाप बैठा देना चाहता था, “तुम ऐसी बात सोच भी कैसे सकते हो?”
उसने मेरी तरफ़ एक अभियोगपूर्ण दृष्टि से देखा और कन्धे हिला दिये “मैं जा रहा हूँ और कभी लौटकर नहीं आऊँगा।” उसने कहा, “आज मैं हमेशा के लिए इस शहर से विदा ले रहा हूँ। आज से इस शहर और इसकी ख़ुशियों में मेरा कोई हिस्सा नहीं होगा।”
“क्या इसका यही मतलब नहीं कि तुम जाना न चाहते हुए भी ज़बरदस्ती जा रहे हो?”
उसने मुँह बिचकाकर कन्धे हिला दिये और टैक्सी के मीटर को देखने लगा।
“अगर तुम ऐसे ही महसूस करते हो तो रुक क्यों नहीं जाते?”
उसने एक बार घूरकर मेरी तरफ़ देखा और एक हल्की-सी ‘हुँह’ के बाद उसी तरह टैक्सी के मीटर को देखता रहा।
“सच, अभी तो कुछ नहीं बिगड़ार।” मैंने कहा, “तुम्हारा टिकट अब भी वापस हो सकता है और...।”
“टिकट वापस नहीं हो सकता।” वह बोला, “मैंने वापस करने के लिए टिकट नहीं ख़रीदा था।”
“मगर मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि तुम्हारा जाने को मन नहीं है।”
“तुम मेरे मन की बात मुझसे ज़्यादा जानते हो?” वह बोला, “मैं जानता हूँ कि मैं ज़िन्दगी में क्या चुन सकता हूँ और मुझे क्या चुनना चाहिए। यह भी जानता हूँ कि मेरे आसपास की दुनिया में किसे मेरी ज़रूरत है और किसे नहीं है। मैं सब कुछ जानता हूँ। खूब अच्छी तरह जानता हूँ। हर एक को जानता हूँ। खूब अच्छी तरह जानता हूँ।”
खिडक़ी से फुहार के साथ बहुत ठंडी हवा आ रही थी। मैं खिडक़ी का शीशा चढ़ाने लगा मगर टैक्सी तब तक हनुमान रोड पर पहुँच गयी।
उसके बाद हरबंस से मेरी अलग से कोई बात नहीं हुई। स्टेशन पर उसे छोडऩे के लिए हम तीन व्यक्ति ही गये थे—नीलिमा, शुक्ला और मैं। और लोगों को हरबंस ने स्वयं ही मना कर दिया था कि उस खराब मौसम में किसी को स्टेशन पर आने की ज़रूरत नहीं। अपनी माँ और बहन-भाइयों से भी वह घर पर ही मिल आया था और उन्हें भी स्टेशन पर आने से मना कर आया था। यह शायद उसकी सनक ही थी, या शायद वह जाते समय अपने आसपास ज़्यादा भीड़ नहीं देखना चाहता था। गाड़ी के चलने तक हम तीनों के बीच भी वह जैसे बिल्कुल अकेला और पराया-सा ही खड़ा रहा। किसी से भी उसने ज़्यादा बात नहीं की। गाड़ी स्टेशन से दस मिनट लेट चली और वे दस मिनट उसने बहुत ही बेचैनी में काटे। कभी वह घड़ी की तरफ़ देखता, कभी सिग्नल की तरफ़ और कभी अपने जूते के फ़ीते को खोलकर बाँधने लगता। भाप छोड़ते हुए इंजन की तरफ़ वह बार-बार इस तरह देखने लगता जैसे गाड़ी को लेट करने का दोष उसी पर हो। आख़िर जब गार्ड ने सीटी दी,तो उसने एक बार मुस्कराकर हम सबकी तरफ़ देखा और फिर चुपचाप गाड़ी में सवार होकर दरवाज़े के पास खड़ा हो गया। वहाँ से वह इस तरह इंजन की तरफ़ देखने लगा जैसे उसे याद ही न हो कि कोई उसके साथ उसे छोडऩे के लिए भी आया है।
“जाती बार तुम ठीक से मिलकर भी नहीं जाओगे?”नीलिमा ने कुछ चोट खाये स्वर में उससे कहा। वह काफ़ी देर से बहुत गम्भीर दृष्टि से उसके चेहरे की तरफ़ देख रही थी।
वह बहुत खोया-खोया-सा जल्दी से गाड़ी से उतरा। पहले उसने मुझसे हाथ मिलाया। फिर उसने नीलिमा का हाथ पकड़ा तो वह उसके गले में बाँहें डालकर उससे लिपट गयी। उसी तरह शुक्ला भी उसके गले में बाँहें डालकर उसे मिली।
तभी इंजन की चीख वातावरण में फैल गयी। हरबंस ने एक झटके के साथ शुक्ला को अपने से अलग किया और जल्दी से फिर गाड़ी के दरवाज़े पर जा खड़ा हुआ। इंजन ने दो-एक बार फफककर भाप छोड़ी पटरियों पर पहिये चिलके, और एक हल्के-से झटके के साथ गाड़ी चल पड़ी। मैं न जाने क्यों गाड़ी के चलने तक अपने मन में कहीं आशा कर रहा था कि हरबंस नहीं जाएगा, नहीं जाएगा; जब गाड़ी चलने लगेगी, तो वह अचानक अपना मन बदलकर उतर पड़ेगा। मगर वह अपनी जगह पर उसी तरह खड़ा रहा, गाड़ी की चाल धीमे से तेज़ होती गयी और कुछ ही देर में प्लेटफॉर्म खाली रह गया।
गाड़ी प्लेटफॉर्म से निकल गयी तो नीलिमा हम दोनों से पहले गेट की तरफ़ चल दी। मैंने उसकी तरफ़ देखा कि शायद उसकी आँखों मे कहीं आँसू अटके हों। मगर उसकी आँखें बिल्कुल सूखी थीं और चेहरे के भाव में भी विशेष अन्तर नहीं था। शायद वह अपने मन के भाव को बाहर प्रकट नहीं होने देना चाहती थी। अचानक मेरे कानों में सुबकने की सी आवाज़ पड़ी तो मैंने चौंककर फिर उसकी तरफ़ देखा। वह अपने स्वाभाविक अन्दाज़ में उसी तरह चल रही थी और कहीं कोई अन्तर नहीं था। तभी मेरी नज़र शुक्ला पर पड़ी। मैंने देखा कि उसकी आँखें भीगी हैं और उसके होंठ भी ज़रा-ज़रा हिल रहे हैं। मुझे नीलिमा की स्थिरता उस समय अच्छी नहीं लगी। क्या सचमुच उसे हरबंस के चले जाने से कोई अन्तर नहीं पड़ा था, या उसकी स्थिरता एक अभिनय थी—केवल एक कुशल अभिनय? यह भी सम्भव था कि वह केवल यह दिखाना ही चाहती थी कि वह किसी भी स्थिति में अपने को विचलित नहीं होने देती; हर स्थिति में अपने पर पूरा काबू रख सकती है। या शायद कमज़ोर पडक़र वह अपने उस विश्वास को खोना नहीं चाहती थी जिसकी वह मेरे सामने घोषणा कर चुकी थी। क्या उसे पता था कि हरबंस कभी लौटकर वहाँ न आने का निश्चय करके गया है? या कि उसका विश्वास उस जानकारी से कहीं बड़ा था? या उसे इसकी परवाह ही नहीं थी और वह अपने को पूरी तरह अपने ही ऊपर निर्भर मानती थी? उसकी सधी हुई चाल, तनी हुई गरदन और चमकती हुई आँखें—कुछ भी तो उस समय की स्थिति के अनुकूल नहीं था। क्या सचमुच उसमें वह दुर्बलता नहीं थी जो हर स्त्री में होती है?
हम अभी बाहर निकले ही थे कि स्टेशन के टैक्सी स्टैंड से मुझे एक परिचित आकृति अपनी ओर आती दिखायी दी। मैं उसे देखकर चौंक गया मगर नीलिमा और शुक्ला को उसे देखकर आश्चर्य नहीं हुआ। सुरजीत जैसे वहाँ खड़ा हमारे बाहर निकलने की ही प्रतीक्षा कर रहा था।
वह बहुत तेज़-तेज़ चलता हुआ हमारे पास आ गया। उसके ताजा कटे हुए बाल बारिश में भीग रहे थे। वह कुछ घबराया हुआ-सा बोला “गाड़ी चली गयी?”
“हाँ,” नीलिमा ने कहा, “गाड़ी तो दस मिनट लेट गयी है।”
“मुझे गाड़ी के वक़्त का ठीक पता नहीं था।” वह जल्दी-जल्दी और बहुत व्यस्त ढंग से बोला, “मैं अन्दाज़े से ही टैक्सी लेकर आया हूँ। एक चाय पार्टी थी, वहाँ से उठने-उठने में ही देर हो गयी। मैं उनसे कहता भी रहा कि मेरे एक दोस्त को बाहर जाना है, इसलिए मुझे जल्दी उठ जाने दो। मगर तुम्हें इन पार्टियों का पता ही है। लोग विदा लेने-देने में ही एक घंटा लगा देते हैं।”
“ख़ैर, गाड़ी तो अब चली ही गयी है।” नीलिमा ने जैसे बात को समाप्त करने के लिए कहा।
“मुझे बहुत अफ़सोस है कि इतनी जल्दी करके भी लेट हो गया,” वह बोला, “अच्छा, अब तुम लोगों का क्या प्रोग्राम है? तुम्हें सीधे घर ही चलना है न?”
उसके हाथ जल्दी-जल्दी हिल रहे थे और वह बात करते थोड़ा हकला भी रहा था। उसके चौड़े-चकले चेहरे पर इतनी व्यस्तता और घबराहट मैंने पहले नहीं देखी थी। वह जैसे सचमुच एक अफ़रा-तफ़री में था और उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या करना चाहिए?
“हाँ, अब घर ही चलना है, और हम कहाँ जाएँगी?” नीलिमा ने कहा।
“और तुम?” सुरजीत ने पहली बार यह ज़ाहिर किया कि उसे मेरी उपस्थिति का भी पता है, “तुम भी हमारे साथ ही चलोगे या...?”
“मैं सदर की तरफ़ रहता हूँ, इसलिए मैं अलग से चला जाऊँगा।” मैंने कहा।
“अच्छा!” और उसने तुरन्त मेरी तरफ़ हाथ बढ़ा दिया। नीलिमा ने चलते-चलते मुझसे कहा, “देखो, हरबंस चला गया है, इसका यह मतलब नहीं कि तुम अब दिखायी देना ही बन्द कर दो।”
“यह कैसे हो सकता है?” मैंने खोखली आवाज़ में कहा।
“अच्छा!” सुरजीत ने मेरा हाथ हिला दिया और टैक्सी-स्टैंड की तरफ़ चल दिया। शुक्ला ने किसी से भी बात नहीं की। वह पहले जड़-सी खड़ी रही और जब चलने की बात आयी, तो चुपचाप चल दी। मैं अपनी जगह पर रुका रहा। वे लोग टैक्सी लेकर चले गये, तो भी मैं कुछ देर वहीं फुहार में भीगता रहा। फुहार की बूँदें बिना शब्द किये, बिना चोट किये, मुझे बाहर से अन्दर तक भिगोती रहीं और मैं न जाने उस भीगी हवा में क्या ढूँढ़ता खड़ा रहा। मेरे आसपास कई लोग आ-जा रहे थे, मगर मेरे लिए वहाँ जैसे कोई भी नहीं था। गाडिय़ों की एक भीड़ स्टेशन के अहाते में से गुज़र रही थी, मगर मेरे लिए उनकी चमकती हुई बत्तियों और गुर्राते हुए इंजनों का जैसे अस्तित्व ही नहीं था। मैं रुका हुआ था, तो मेरे साथ मेरे अन्दर और बाहर सभी कुछ रुका हुआ था। आसपास जो कुछ था, वह एक चौखट में जड़ा हुआ दृश्य था जो उस चौखट से बाहर नहीं निकल पाता था। हर चीज़ अपनी गति के बावजूद उस चौखट में कसी हुई थी। मैं फुहार में भीगता रहा और यह सोचने की चेष्टा करता रहा कि मैं क्या सोच रहा हूँ! क्या मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत महसूस हो रही थी? क्या मुझे भूख लग आयी थी? या, क्या मुझे सरदी लग रही थी और मैं उस सरदी से बचना चाह रहा था? आखिर वह अनुभूति क्या थी? जड़ता या विह्वलता? और विह्वलता कैसी? मेरे चारों तरफ़ से एक भरी-पूरी, ठसाठस लदी हुई, दुनिया गुज़र रही थी और मैं अपने अन्दर एक अभाव का, एक शून्य का अनुभव कर रहा था। वह अभाव क्या था? वह शून्य कहाँ था?
मैंने तय कर लिया कि मैं नौकरी छोडक़र दिल्ली से चला जाऊँगा। दिल्ली छोड़े बिना मेरी उन धुन्ध के गोलों से मुक्ति नहीं हो सकती। हालाँकि आगे के लिए सब कुछ अनिश्चित था और दिल्ली छोडक़र गाँव चले जाने से केवल नई समस्याएँ ही खड़ी हो सकती थीं फिर भी मुझे अपने को सँभालने का यही एक उपाय नज़र नहीं आता था। मेरे पास जीवन के जो सीमित साधन थे, उनमें मुझे यह कदापि सम्भव नज़र आता था कि मैं उस पंक्ति में और लोगों से आगे आ सकता हूँ; मेरे अन्दर ऐसी आशा करने का साहस ही नहीं था। और मैं अपने को जीवन भार्गव की स्थिति में नहीं देखना चाहता था। मुझे उस कल्पना से ही ग्लानि होती थी। मैं यह सोच ही नहीं सकता था कि मैं उस तरह की स्थिति में से गुज़रकर भी आईने में अपना चेहरा देख सकता हूँ। जीवन भार्गव तो उसके बाद एब्स्ट्रेक्ट पेंटिंग की दुनिया को छोडक़र इंडस्ट्रियल डिज़ाइनर बन गया था, मगर मैं ज़रूर उसके बाद अपने को बिल्कुल एब्स्ट्रेक्ट में ले जाता। इसलिए मैंने तय कर लिया कि जितने दिन मैं दिल्ली में हूँ, उतने दिन भी मुझे उन लोगों से दूर ही रहना चाहिए। मैं न केवल नीलिमा के बुलाने पर भी उनके घर नहीं गया, बल्कि मैंने शाम को नई दिल्ली घूमने जाना भी बन्द कर दिया। मैं नहीं चाहता था कि मैं वहाँ जाऊँ और सुरजीत उसी अन्दाज़ में यह कहकर कि ‘शो’ में देर हो रही है, उठ खड़ा हो और नीलिमा भी मुझसे फिर कभी मिलने के लिए कहकर साथ ही उठ जाए, और शुक्ला चलते-चलते मुझसे रास्ते पर उगे हुए पेड़ के पत्तों को सहलाने की तरह कहे, “अच्छा जी!” मेरे लिए वह स्थिति उतनी ही असह्य थी जितनी भार्गव के बहाये हुए आँसुओं की याद। जब नीलिमा ने मुझे बताया था कि भार्गव शुक्ला के सामने बैठकर आँसू बहाता रहा है, तो मैं मन ही मन एक बार उस स्थिति पर हँस लिया था, “उस जनखे के साथ यही होना चाहिए था।” मैंने सोचा था। यह कोई बात थी कि मर्द होकर वह एक लडक़ी के सामने बैठकर आँसू बहाता रहा! मगर अब उसकी बात सोचकर मेरे मन में सहानुभूति उमडऩे लगती थी और मेरा अपना मन भी भर आता था। बल्कि मैं मन ही मन भार्गव की कुछ कद्र करने लगा था कि कम से कम उसमें इतना साहस तो था कि उसने अपने मन की बात बाहर प्रकट कर दी थी और एक हद तक वह अपनी कामना में सफल भी हो गया था। अगर हरबंस बीच में अड़चन न डाल देता, तो क्या अधिक सम्भव यह नहीं था कि सन् बावन की सर्दियों तक शुक्ला का उससे ब्याह हो जाता और उस साल वह पहाड़ से हमें अपने हनीमून की तस्वीरें भेजता? दूसरी तरफ मैं था जो लोगों की उपस्थिति में चेहरे पर एक खोल चढ़ाये रखता था, एक झूठी हँसी हँसता था, एक झूठी उपेक्षा प्रकट करता था, और इस तरह हर समय अपने को एक यन्त्रणा में रखता था। क्या इस झूठ को मैं अपनी सहिष्णुता कह सकता था?
उन रातों को मुझे अपनी कोठरी का वातावरण भी रुका हुआ और उदास प्रतीत होता था। जीवन के पहले के अभाव इस नए अभाव के कारण और भी बड़े प्रतीत होते थे। वह आदमी जिसे कुल एक सौ आठ रुपये तनखाह मिलती थी और उसमें से भी उसे अस्सी रुपये महीना घर पर अपनी विधवा माँ और भाई-बहनों के खर्च के लिए भेजना होता था, इस परिस्थिति में सिवाय एक व्याकुलता का अनुभव करने के और कर भी क्या सकता था? मुझे अपने में साहस की कमी अखरती थी, मगर वह साहस मुझे केवल दूसरों की हँसी का विषय ही तो बना सकता था! रात को इबादत अली सितार बजाने लगता, तो भी मुझे अपने मन में किसी पुलक का अनुभव न होता, बल्कि उससे उदासी और भी गहरी हो जाती, नींद और भी उड़ जाती, शून्य और भी बड़ा होने लगता। मैं आँखें खोलकर पड़ा रहता और छत को देखता रहता, यहाँ तक कि गली में सुबह जल्दी उठनेवाले लोगों का आना-जाना आरम्भ हो जाता। सुबह के करीब कहीं मेरी आँख लग पाती। मगर मुझे गहरी नींद कभी नहीं आती थी। एक सपना था जो बार-बार दिखायी देता था, हर रात को दिखायी देता था और कई रातों को तो कई बार दिखायी देता था। मैं देखता कि एक बड़ा-सा इंजन है, जिसके पीछे गाड़ी के कई-एक डिब्बे लगे हैं। वह इंजन पटरी से उतरकर चलता है। वह घने जंगलों से गुजरता है, लम्बी सुरंगों में से होकर जाता है और गाड़ी को एक प्लेटफॉर्म से दूसरे प्लेटफॉर्म पर भी ले जाता है, मगर पटरी पर नहीं आता। मुझे हर समय लगता रहता है कि वह अभी गिरा, कि अभी गिरा अभी उलटा और सब कुछ चकनाचूर हुआ, मगर न जाने कैसे गिरते-गिरते उसका सन्तुलन फिर ठीक हो जाता है और वह उसी तरह बिना पटरी के अपने रास्ते पर चला चलता है। मैं बहुत चाहता हूँ कि वह पटरी अब चढ़े, अब चढ़े, और कई बार सोचता हूँ कि थोड़ी दूर और जाकर उसे पटरी मिल जाएगी, मगर वह पटरी के पास पहुँचकर भी नीचे ही चलता है, उसके ऊपर नहीं जाता। मैं अपने को इंजन में बैठे हुए ही पाता हूँ। मेरा शरीर आग की भभक से तपता रहता है; इंजन की गति को मैं एक खतरे की आशंका के साथ महसूस करता हूँ,उसके हर मोड़ को उसी आशंका के साथ देखता हूँ मगर कुछ कर नहीं पाता।
मैं उस सपने से बहुत परेशान रहता था और रात को कई-कई बार जागकर यह निश्चय करता था कि मैं इंजन में नहीं अपनी कोठरी में हूँ जो कि जहाँ की तहाँ खड़ी है और पटरी पर या बिना पटरी के किसी भी तरह अपनी जगह से नहीं चलती। मैं तब साथ सोये हुए अरविन्द की तरफ देखता और मुझे उससे चिढ़ होने लगती कि मेरी तरह वह सपना उसे भी क्यों नहीं दिखायी देता। मुझे अरविन्द से इस बात की भी ईर्ष्या होती कि उसके जीवन में मेरे जितनी समस्याएँ क्यों नहीं हैं, और उसे हर रोज़ इतनी गहरी नींद क्यों आ जाती है। मुझे बल्कि अरविन्द से ही नहीं, हर ऐसे व्यक्ति से ईर्ष्या होने लगती जिसे तकिये पर सिर रखते ही नींद आ जाती हो और जिसे रात को कभी एक के बाद दो और दो के बाद तीन के घंटे न सुनने पड़ते हों। रात को दूर से मुझे इंजन की चीख या गाड़ी के चलने की आवाज़ सुनायी देती, तो भी मैं घबराकर उठ जाता कि कहीं यह वही गाड़ी न हो। जहाँ यह जानकर मन आश्वस्त होता कि वह गाड़ी दूसरी है, वहाँ इस बात से मन निराश भी होता कि दुनिया की और सब गाडिय़ाँ ठीक से अपनी पटरी पर चलती हैं तो मेरे सपने की गाड़ी ही क्यों हमेशा पटरी से उतरी रहती है!
दिन गुज़र रहे थे। दफ़्तर में काम दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था। या शायद मुझे ही लगता था कि काम बढ़ता जा रहा है क्योंकि मैं अपना काम कभी वक़्त से पूरा नहीं कर पाता था। उस मन:स्थिति में मेरे लिए दिन और वार सब निरर्थक से थे और मुझे कुछ अनुमान नहीं था कि समय बहुत धीरे-धीरे बीत रहा था या बहुत जल्दी-जल्दी बीत रहा था। समय समय है और बीत रहा है, इसी का अहसास मुझे नहीं था। मेरे लिए महीने के तीसों दिन एक दिन के बराबर थे और एक दिन तीस दिनों के बराबर, क्योंकि उनमें सब कुछ एक-सा और एक तरह का था और अगर कहीं गति थी, तो उस पटरी से उतरे हुए इंजन में थी जो कि न सँभलता था, न ही रुकने में आता था। मैं तो यहाँ तक चाहता था कि वह इंजन एक बार गिरकर टूट-फूट ही जाए, तो झंझट मिटे, मगर मेरे चाहने से यह भी तो नहीं होता था...? आख़िर हालत यहाँ तक पहुँच गयी कि मैंने नींद की टिकियाँ लेकर सोना शुरू कर दिया।
दिन में हल्की-हल्की गरमी होने लगी थी और रात को क़स्साबपुरा में भी जो हवा आती थी उसमें जाने कहाँ से रात की रानी की गन्ध मिल जाती थी! वसन्त की रातों के शरीर से उठती हुई वह सोंधी गन्ध हर उम्र में मेरे मन पर एक अलग प्रभाव डालती रही है। उम्र के साथ जैसे चेहरा बदलता है वैसे ही शायद मन की दुनिया का बाहर की दुनिया के साथ सम्बन्ध भी बदल जाता है, और वही चीज़ें जिनकी मन पर कभी एक प्रतिक्रिया होती थी, आगे चलकर मन पर और ही तरह की प्रतिक्रिया उत्पन्न करने लगती हैं। जाने उम्र के बढऩे के साथ मन में कहाँ और क्या बदल जाता है कि वे पहले की अनुभूतियाँ अपनी होती हुई भी बहुत दूर की लगने लगती हैं, जैसे कि उनका अस्तित्व हमारे व्यक्तित्व का एक भाग न होकर आईने में दीखते हुए चेहरे—जैसे किसी और ही व्यक्तित्व का भाग हो—चलती गाड़ी में सैकड़ों मील पीछे छूटे हुए, धुन्ध में लिपटे शहरों की तरह उनका अस्तित्व केवल उनके आभास में ही हो! बचपन में रातरानी की गन्ध मन में एक विस्मय भर देती थी—पहाड़ी मज़दूरों के डेरे से आती हुई बाँसुरी की आवाज़ से मन की ज़मीन बहुत कोमल हो उठती थी और मन के अन्दर से जाने कौन-कौन-से अंकुर बाहर फूटने के लिए व्याकुल होने लगते थे। विस्मय की उस उम्र में उस गन्ध में भीगा हुआ आकाश अपना सहयोगी लगता था और उसमें टिमटिमाते हुए तारे उसके हल्के-हल्के संकेत। आकाश नीचे को झुका-झुका लगता था और आँखें उसमें बादलों के पशु और बादलों के दैत्य बनाती और मिटाती रहती थीं। फिर जब कॉलेज में पढ़ते थे, उन दिनों उस गन्ध का एक और ही अर्थ हो गया था। बैडमिंटन कोर्ट में सामने से आती हुई चिडिय़ा को ज़ोर से ज़मीन पर दे मारने के लिए कलाई घूमती थी, तो सूर्यास्त के वातावरण की वह गन्ध मन में एक विचित्र पुलक और उत्साह भर देती थी। लगता था कि दुनिया का सब कुछ अपने और केवल अपने लिए है—अपने ही लिए सूर्य उगता है, धूप ढलती है और हवा चलती है। कलाई तब तक घूमकर सामने से चिडिय़ा को रास्ते में पा लेती थी और एक सामूहिक आवाज़ उस सुगन्धित वातावरण में गूँज जाती थी, “शॉट!” मगर अब वही गन्ध न जाने कितनी गलियां और मुहल्ले लाँघकर क़स्साबपुरा की उस कोठरी में आती हुई, अनायास ही मन को उदास कर देती थी—जाने कितनी-कितनी गीली परतें मन पर घिर आती थीं और अपना आप एक अवश भारीपन से दबा-सा, टूटता-सा लगता था। अरविन्द कहता था कि यह फ्लू की वजह से है, इसलिए इन दिनों एहतियात से रहना चाहिए।
उस दिन भी इतवार था। मैं हर इतवार की तरह नौ बजे उठकर तब तक नहाया नहीं था। बाहर गली में सब्ज़ी बेचनेवालों ने वही हो-हल्ला मचा रखा था और उनके साथ उनके ग्राहकों की ‘कें-कें में-में’ चल रही थी। ड्योढ़ी से आता हुआ धुआँ कोठरी में भर रहा था। तभी एक सजी-सँवरी आकृति आकर कोठरी के दरवाज़े के पास खड़ी हो गयी, तो मैं सहसा उसे पहचान नहीं सका। मैंने सोचा कि वह भी ठकुराइन की रामायण की ही कोई उर्मिला या मांडवी होगी। मगर जब उसने मेरा नाम लेकर पूछा, तो मैं एकदम चौंक गया। नीलिमा मुझे पूछती हुई वहाँ आ सकती है, इसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मुझे शरम भी आयी, क्योंकि मैं जो बनियान पहने था,वह तीन जगह से फटी हुई थी और लगातार तीन-चार दिन पहनने से काफ़ी मैली भी हो रही थी। मुझे मन में बहुत अफ़सोस हुआ कि मैंने अपना नहाने का इरादा दूसरे दिन पर मुलतवी क्यों नहीं कर दिया जैसे कि मैं करने की सोच रहा था। उससे कम से कम मैं अपनी कमीज तो पहने होता जिससे वह बनियान छिपी रहती।
“देखिए, मधुसूदन यहीं पर रहते हैं?” नीलिमा ने भी पहले मुझे नहीं पहचाना और मुझसे न पूछकर जैसे किसी अनजबी से ही पूछा। यह विश्वास करने में उसे कुछ समय लगा कि उसके सामने खड़ा बनियानवाला आदमी मैं ही हूँ।
“नीलिमा, तुम?” मैंने अपनी घबराहट को छिपाने की चेष्टा में खासी बेतकल्लुफी के साथ कहा, “तुम यहाँ कैसे पहुँच गयीं?”मगर उसके कुछ कहने से पहले ही मुझे इस सवाल का जवाब मिल गया था। अपनी नीले पन्नोंवाली डायरी उसने खोलकर हाथ में ली हुई थी।
“तुम यहाँ रहते हो?” वह पाँव रखने की पटरी से उचककर कोठरी में आ गयी, “उफ़! यह कैसी जगह तुमने ले रखी है!”
“मैं भाई गरीब आदमी हूँ।” मैं अपने संकोच को छिपाने की चेष्टा में एक हाथ बगल में दबाये हुए खूँटी से कमीज उतारकर पहनने लगा।
“मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि तुम ऐसी जगह पर रहते हो।” वह बोली, “मैंने समझा था कि क़स्साबपुरा कोई अच्छीख़ासी बस्ती होगी। इट्स हॉरीबल! ऐसी जगह पर इन्सान रह कैसे सकता है?”
“कैसे रह सकता है?” मैं थोड़ा हँसा, “तुमने देखा नहीं कि यहाँ कितने लोग रहते हैं? ऐसी जगहें रहने के लिहाज़ से बहुत लोकप्रिय होती हैं। यहाँ आठ फुट और दस फुट के रक़बे में एक-एक पूरा परिवार रहता है।”
“इट्स हॉरीबल!” उसने फिर कहा और जाने सचमुच सिहर गयी, या उसने सिहरने का अभिनय किया। मैंने ड्योढ़ी के दरवाज़े की तरफ़ देखा, तो वहाँ से ठकुराइन, गोपाल की माँ और कई छोटी लड़कियाँ कोठरी में झाँक रही थीं। मेरी नज़र पड़ते ही वे सब दरवाज़े के पास से हट गयीं, सिर्फ़ ठकुराइन वहाँ खड़ी रही।
“लाला, कुछ चाय-वाय बनाऊँ?” ठकुराइन $गौर से नीलिमा के चेहरे को देखती हुई कोठरी में आ गयी।
“नहीं भाभी,” मैंने कहा। घबराहट में मेरा हाथ सन्दूक पर रखी हुई लालटेन को जा लगा जिससे वह नीचे गिरकर टूट गयी। “ओह!” मैंने कहा, “तुम्हारी लालटेन टूट गयी, भाभी!” और मैं सहसा बैठकर टूटे हुए काँच के टुकड़े बटोरने लगा।
“टूट गयी, तो क्या हुआ?” ठकुराइन अचानक ही बहुत ऊँची उठकर बोली, “छ: आने की चिमनी है, ये जाकर और ले आएँगे।” यह ठकुराइन ने शायद इसलिए कहा कि उसके ‘ये’ उस समय ड्योढ़ी से गुज़र रहे थे और उनकी आँखें इस तरह दायें को मुड़ी हुई थीं जैसे मार्च पास्ट करते समय सिपाहियों की मुड़ी रहती हैं। ‘ये’ ड्योढ़ी से गुज़रकर गली में पहुँच गये, तो भाभी स्वयं बैठकर काँच बटोरने लगी। मेरा हाथ पकडक़र उसने मुझे उठा दिया, “तुम क्यों ये शीशियाँ उठाते हो, लाला?” वह बोली, “तुम रहने दो, मैं सब उठा दूँगी। तुम्हारी मेज़बान आयी हैं (ठकुराइन न जाने क्यों मेहमान को मेज़बान कहती थी!)। तुम इनसे बात करो।”
“तुम जल्दी से तैयार हो जाओ और मेरे साथ चलो।” नीलिमा कुछ उतावली के साथ बोली, “मुझे तुमसे कुछ ज़रूरी बात करनी है।”
“मैं अभी एक मिनट में तैयार हुआ।” कहकर मैंने किताबों के नीचे से अपना मुचड़ा हुआ सीलदार तौलिया निकाला और अन्दर पम्प की तरफ़ भाग गया। जब तक मैं तैयार हुआ तब तक घर के किरायेदारों और कुछ मुहल्लेदारों की भीड़ ड्योढ़ी में जमा होकर अचम्भे के साथ नीलिमा को देखती रही और उनमें न जाने क्या खुसर-पुसर चलती रही। मैं शायद ही कभी इतनी जल्दी तैयार हुआ हूँगा, जितनी जल्दी उस दिन हुआ। मगर फिर भी मुझे लगता रहा कि मुझे तैयार होने में बहुत समय लग रहा है और मुझे अपने आस-पास की हर चीज़ पर गुस्सा आता रहा। मैंने जल्दी में सिर पर तेल भी नहीं लगाया और ऐसे ही रूखे बालों पर कंघी कर ली। तेल के लिए मुझे ठकुराइन से कहना पड़ता और मुझे पता था कि जिस गिलास में ठकुराइन तेल रखी है, वह महीनों के मैल से काला पड़ा हुआ है। कंघी एक तरफ से टूटी हुई थी, मगर मैं उस पूरे हिस्से को ही हाथ में पकड़े रहा जिससे वह दिखायी न दे। आईने में तीन जगह दरारें पड़ी थीं, इसलिए मैंने उसे भी इस्तेमाल नहीं किया। जब मैं बिल्कुल तैयार हो गया, तो मुझे पता चला कि ठकुराइन ने पत्ती, दूध और चीनी मिलाकर हमारे लिए चाय पतीली में चढ़ा रखी है। मैंने बड़ी मुश्किल से ठकुराइन को बताया कि इस समय हम चाय नहीं पियेंगे। चलते समय ठकुराइन ने मुझे अपनी कोठरी में बुला लिया और बहुत धीरे से पूछा, “क्यों लाला, ये तुम्हारी बम्बई की कोई हैं?”
“नहीं भाभी, यहाँ मेरे एक दोस्त हैं, उनकी पत्नी हैं,” मैंने कहा और जल्दी से चलने को हुआ।
“बाहर जा रहे हो?” ठकुराइन ने मुझे हाथ से पकडक़र रोक लिया, “साथ में कुछ पैसा-वैसा तो नहीं चाहिए?” और वह झट से अपने रूमाल की गाँठ खोलने लगी, “मेरे पास हैं चार-पाँच रुपये, चाहिए, तो ले जाओ।”
“नहीं भाभी, मेरे पास हैं पैसे।” मैंने फिर उसी तरह जल्दी में कहा और बाहर निकल आया। जब हम लोग गली में आये, तो ड्योढ़ी की भीड़ उसी तरह उचककर गली में देखने लगी। खोमचों के पास खड़ी भीड़ की नज़रें भी हमारी तरफ घूम गयीं। नीलिमा सिर से पैर तक बहुत चुस्त कपड़े पहने थी; उसके बाल बहुत ढंग से बने हुए थे और उसके चेहरे का मेकअप उस सारे वातावरण में बहुत अलग और बहुत विचित्र लग रहा था। उसके कानों में जो सोने की बालियाँ थीं, वे भी उस समय बहुत ही बड़ी लग रही थीं। नीलिमा ने चलते-चलते मुझसे कहा, “मुझे पता होता कि मुझे ऐसी जगह पर आना है, तो मैं कभी न आती। जब तुम नहाने चले गये थे, तो एक मोटी-सी औरत पता है मुझसे क्या पूछ रही थी? पूछ रही थी कि तुम इन बाबू साहब की क्या लगती हो!”
मुझे हँसी आ गयी। “तो तुमने क्या कहा?” मैंने पूछा।
“मैंने यही कहा कि तुम हमारे दोस्त हो। और क्या कहती?”
मुझे लगा कि पूछनेवाली औरत गोपाल की माँ ही रही होगी। मुझे फिर हँसी आने को हुई क्योंकि जिन दिनों मुझे बुखार चढ़ा था और मैं दिन-भर कोठरी में अकेला पड़ा रहता था, उन दिनों गोपाल की माँ कभी-कभी अचानक ही मेरे सिर पर आ खड़ी होती थी और आँखों से मेरे शरीर को निगलती हुई-सी कहा करती थी, “लालाजी, दिल्ली में तुम्हारी कोई दोस्त भी नहीं है जो बीमारी के दिनों में आकर तुम्हारा सिर दबा दिया करे?” और फिर कहती थी, “मैं दबा दूँ?”और मैं बड़ी खुशामद से उसे सिर दबाने से रोकता था।
“ये जितनी औरतें और लड़कियाँ ड्योढ़ी में खड़ी थीं, वे सबकी सब इसी घर में रहती हैं?”नीलिमा ने पूछा।
“यही क्यों, इनके बाप-भाई और दूसरे बच्चे भी हैं।”
“इतने लोग एक साथ एक घर में रहते हैं?”
मुझे उसका इस तरह पूछना अच्छा नहीं लगा। क्या सचमुच वह इस ज़िन्दगी से इतनी दूर थी कि उसे इसका पता ही नहीं था या वह सिर्फ़ बनने की चेष्टा कर रही थी?
“मेरे लिए तो यहाँ दस मिनट रुकना भी मुश्किल हो गया था।” उसने कहा और एक बार फिर सिहर गयी।
हम लोग खोमचों की भीड़ से निकलकर गली के नुक्कड़ पर आ गये थे। जब हम बस्ती हरफूल की तरफ़ मुड़े तो नुक्कड़ पर बैठा हुआ समूद पानवाला पान पर कत्था लगाता हुआ फ़जल पहलवान से (जो हड्डियों की एक मूठ होता हुआ भी इसलिए पहलवान कहलाता था कि वह पहलवानों के खानदान से था) कहने लगा, “पहलवान, औरतें हैं, तो बस नई दिल्ली की! अपने मुहल्लों की औरतें तो बस गाय-भैंसें हैं। जैसे गाय दुह ली, वैसे...।”
बस्ती हरफूल की अपेक्षाकृत चौड़ी गली में आकर नीलिमा ने कुछ आराम की साँस ली और कन्धे सिकोडक़र इस तरह जैसे वह अँधेरे कुएँ से बाहर निकली हो कहा, “उफ़्!”
जब हम सडक़ पर आ गये तो भी काफ़ी देर उसका ध्यान अपने सैंडलों पर लगे हुए कीचड़ से नहीं हटा।
घर पहुँचकर नीलिमा ने पहले चाय बनायी और एक प्याली पी चुकने के बाद क़स्साबपुरा की गली को जैसे अपने दिमाग़ से बुहारती हुई बोली “मैं आज तुम्हारे पास इसलिए गयी थी कि मैं एक उलझन में हूँ और फ़ैसला नहीं कर पा रही कि मुझे क्या करना चाहिए। तुमसे मैंने कहा था कि कभी यहाँ आना मगर तुम आये ही नहीं।”
“आजकल दफ़्तर में काम बहुत बढ़ गया है।” मैंने कहा, “इसलिए शाम को मैं कई बार बहुत देर से वहाँ से उठता हूँ।” और यह बात ग़लत भी नहीं थी। अभी पिछले दिन ही मैं शनिवार होने के बावजूद साढ़े छ: बजे दफ़्तर से निकला था और तब भी अभी डेढ़ $फॉर्म के प्रूफ़ अगले दिन पढऩे के लिए छोड़ आया था।
“हरबंस ने मुझे लिखा है कि मैं भी वहाँ चली आऊँ, मगर मैं तय नहीं कर पा रही कि मुझे जाना चाहिए या नहीं।” वह बोली।
“उसने तुम्हें वहाँ आने के लिए लिखा है?” मुझे हैरानी हुई कि हरबंस ने मुझे जो अपना इरादा बताया था, वह इतनी जल्दी कैसे बदल गया।
“इधर मैंने मैसूर जाने का सारा इन्तज़ाम कर लिया है। अगर मैं अब न जा सकी, तो फिर कभी नहीं जा सकूँगी। मैं जानती थी कि हरबंस वहाँ जाकर बहुत अकेला महसूस करेगा। मगर तुम जानते ही हो कि मैंने जान-बूझकर उसे जाने से नहीं रोका था। मैं यही सोचती थी कि अलग रहकर उसका दिमाग़ कुछ शान्त हो जाएगा और मैं भी इस बीच अपनी भरत-नाट्यम की ट्रेनिंग पूरी कर लूँगी। मुझे मैसूर में बहुत अच्छे गुरु के पास सीखने का मौक़ा मिल रहा है और मैं इस मौक़े को खोना नहीं चाहती।”
“तुम्हें मैसूर में कितने दिन लगेंगे?”
“छ: महीने तो कम से कम लगेंगे ही। मेरे लिए यह मौक़ा बहुत कीमती है। फिर मुझे जीवन में सचमुच ऐसा मौक़ा नहीं मिलेगा। मगर मैं यह सब छोडक़र उसके पास जा भी सकती हूँ, अगर मुझे विश्वास हो कि मेरे वहाँ जाने से उसे ख़ुशी मिलेगी। यही बात है जो मैं तय नहीं कर पा रही हूँ।”
“मगर तुमने कुछ तो सोचा होगा!”
“मैं बहुत सोचकर भी कुछ फ़ैसला नहीं कर सकी। हरबंस के जाने के बाद मुझे यहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति नज़र नहीं आता जो मुझे ठीक सलाह दे सके। जब हरबंस यहाँ था, तो लगता था कि यहाँ बहुत से लोग हैं जो अपने हैं। उसके जाने के बाद सभी लोग बहुत पराये से हो गये हैं। शिवमोहन बम्बई चला गया है और तुम हो, जो कभी दिखायी ही नहीं देते।”
“मेरे पास तो आजकल काम बहुत है, वरना...”
“वजह कुछ भी सही। मगर मैंने नहीं सोचा था कि हरबंस के जाने के बाद मैं इतनी अकेली रह जाऊँगी। ले-देकर एक ही आदमी है और वह है सुरजीत...”
सुरजीत के नाम से मैं सहसा खामोश हो गया। मुझे डर लगा कि मेरी आँखों के सामने फिर धुन्ध के गोले न तैरने लगें।
“तुमने सुरजीत से सलाह की थी?” मैंने अपने गले में उगते हुए काँटों को निगलकर पूछा।
“उससे मैं क्या सलाह कर सकती हूँ? वह तो आदमी ही ऐसा है कि...।”
“क्यों?” सहसा मेरे दिल की धडक़न कुछ तेज़ हो गयी और मैं कुरसी पर थोड़ा आगे को सरक आया।
“मैं उस आदमी को ज़्यादा पसन्द नहीं करती।”
“मगर वह तो...।”
“वह जैसा भी है, मैं उस आदमी को ज़्यादा पसन्द कर ही नहीं सकती। मगर हरबंस उससे कह गया कि वह उसके पीछे हम लोगों की देखभाल करता रहे।”
“अच्छा? मगर जहाँ तक मैं उस आदमी को जानता हूँ...” और मैंने अपनी ज़बान को रोक लिया। मुझे लगा कि मुझे उस विषय में टिप्पणी नहीं करनी चाहिए।
“मुझे वह आदमी ज़्यादा अच्छा नहीं लगता।” नीलिमा बोली, “मगर शुक्ला की वजह से मैं उसे बरदाश्त कर लेती हूँ। शुक्ला के लिए तो हरबंस की बात से बड़ी कोई बात नहीं है न! क्योंकि हरबंस कह गया है, इसलिए वह समझती है कि दुनिया में कोई अच्छा आदमी है, तो वह सुरजीत ही है।”
“मगर तुम्हें वह अच्छा क्यों नहीं लगता?”
“मुझे?” वह कठिनाई से अपनी उसाँस को दबाकर बोली, “ऐसी खास वजह कुछ भी नहीं है। मुझे वह आदमी वैसे ही अच्छा नहीं लगता। अगर मुझे शुक्ला के विरोध का ख़याल न होता, तो मैं उसे ज़्यादा घर में आने-जाने न देती। मगर वह शुक्ला के कहने पर उसके लिए अपना रिकॉर्ड प्लेयर यहाँ रख गया है और उसके लिए और भी छोटी-छोटी चीज़ें खरीदता रहता है, इसलिए वह समझती है कि हरबंस के बाद दुनिया में कोई अच्छा आदमी है, तो वही है।”
“मगर हरबंस तो रिकार्ड प्लेयर के लिए कहता था कि...”
“तुम हरबंस की बातों को जाने दो! वह सबसे यही कहता था कि सुरजीत यह रिकॉर्ड प्लेयर ज़बरदस्ती यहाँ रख गया है। मगर बात सच यही है कि शुक्ला ने उससे कहा था, इसलिए वह रिकॉर्ड प्लेयर यहाँ छोड़ गया है। शुक्ला देखने में बड़ी लगती है, मगर उसका दिमाग़ उसकी उम्र के लिहाज़ से भी बहुत छोटा है। जैसे बच्चे खिलौनों को ही सब कुछ समझते हैं, उसी तरह वह भी छोटी-छोटी चीज़ों को ही सब कुछ समझती है। कोई उसे लॉलीपाप्स का पैकेट ले दे, तो वह अब भी बहुत खुश होती है।”
अचानक वह बात करते-करते रुक गयी और पल-भर मेरे चेहरे की तरफ़ देखकर बोली “अरे, तुम्हें क्या हुआ है? तुम्हारा चेहरा इस तरह ज़र्द क्यों हो रहा है? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?”
“मैं चाय की एक प्याली और लूँगा।” मैंने किसी तरह अपने को सँभालते हुए कहा।
“मैं तुम्हारे लिए गरम चाय लाती हूँ और साथ ही तुम्हें हरबंस की चिट्ठियाँ भी पढऩे के लिए देती हूँ।” वह उठती हुई बोली, “तुम सलाह दो कि मुझे क्या करना चाहिए!”
थोड़ी देर में चाय की दूसरी प्याली उसने बनाकर मेरे सामने रख दी और हरबंस की चिट्ठियों का पुलिन्दा मेरे हाथ में दे दिया (वे चिट्ठियाँ आज भी नीलिमा के पास सुरक्षित हैं और उसकी अनुमति से मैं उन्हें यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।)। पहले उसने चिट्ठियों के कुछ अंश मोड़ देने चाहे, मगर बाद में यह ख़याल छोड़ दिया।
“तुम पढ़ रहे हो, तो सभी कुछ पढ़ लो।” उसने कहा, “इसमें छिपाने को ऐसा क्या है! वही बातें हैं जो एक पति अपनी पत्नी को लिख सकता है...।”
मैं एक-एक करके उन चिट्ठियों को पढऩे लगा। पढ़ते समय और बातों का ध्यान मुझे बिल्कुल भूल गया यहाँ तक कि मेरे सामने रखी हुई चाय भी ज्यों की त्यों पड़ी हुई ठंडी हो गयी।
जितनी देर मैं पढ़ता रहा था उतनी देर नीलिमा आँखें फैलाये मेरे चेहरे की तरफ़ देख रही थी जैसे कि वह उस बीच मेरे चेहरे के मज़मून को पढ़ती रही हो। उसकी आँखों में उत्सुकता के साथ एक आशंका नज़र आ रही थी और उस आशंका में मिली-जुली एक उदासीनता...।
“तो?” उसने कहा।
मैं पत्र पढ़ते हुए साथ ही बहुत कुछ सोचता भी रहा था जिससे मेरा सिर भारी हो रहा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उससे क्या कहूँ। मैं कुछ क्षण खिडक़ी की तरफ़ देखता रहा वहाँ जहाँ से एक दिन नन्हे-नन्हे सफ़ेद पंख हवा में तैरते हुए नीचे आ रहे थे। मगर उस समय वहाँ पंख नहीं उतर रहे थे, केवल धूप में चमकते हुए ज़र्रे ही नज़र आ रहे थे।
“तुम्हारा ख़याल है मुझे चली जाना चाहिए?”उसने इस तरह पूछा जैसे मेरे हाँ या न कहने पर ही सब कुछ निर्भर करता हो।
“मेरा तो ख़याल है कि चली जाना चाहिए।” मैंने कहा, “अगर रुपये का प्रबन्ध हो सकता है, तो और कोई बाधा तुम्हें नहीं होनी चाहिए।”
“रुपये का प्रबन्ध तो हो जाएगा।” वह बोली, “बीजी मुझे मैसूर जाने के लिए जो पैसे दे रही हैं, उनसे लन्दन तक तो पहुँचा ही जा सकता है। मगर सवाल तो उसके बाद का है।”
“मतलब उतने पैसे से तुम दोनों लन्दन पहुँच जाओगी, सवाल लन्दन के खर्च का है?” मैं अपने मन की अनिश्चितता को दूर कर लेना चाहता था। वह लन्दन जाएगी, तो क्या अकेली ही जाएगी, या...?
“दोनों से तुम्हारा मतलब मुझसे और शुक्ला से है?” वह बोली, “शुक्ला वहाँ कैसे जा सकती है? वह तो हर हालत में बीजी के पास ही रहेगी। मैं अगर वहाँ गयी, तो हरबंस की वजह से जाऊँगी, शुक्ला को बीजी क्यों जाने देंगी? वह अभी पढ़ रही है और कल को उसका ब्याह भी करना है। लन्दन में हमसे अपना खर्च ही नहीं उठाया जाएगा, उसकी पढ़ाई का खर्च हम कैसे उठाएँगे? पढ़ाई छोडक़र वह वहाँ चली जाए, इसलिए कि हमारे साथ रह सके, इसमें क्या तुक है? हरबंस तो पागल है जो ऐसी बात सोचता है।”
मैंने फिर चिट्ठियों के पुलिन्दे की तरफ़ देखा जैसे कि उस पुलिन्दे की जगह स्वयं हरबंस मेरे सामने हो और मुझे उससे अनुरोध करना हो कि जैसे भी हो सके, वह नीलिमा के साथ शुक्ला को भी ज़रूर लन्दन बुला ले जिससे वह चार-पाँच साल वहाँ काट ले, ताकि इस बीच...।
“तुम्हारी चाय ठंडी हो गयी है।” नीलिमा बोली, “तुम मुझे सोचकर ठीक राय दो। मैं तब तक तुम्हारे लिए और चाय बना लाती हूँ।”
कह नहीं सकता कि वह मेरी वजह से उठकर चली गयी या अपनी वजह से ही। मैंने चिट्ठियों के पुलिन्दे को फिर उठा लिया और इस तरह एक-एक पन्ने को पलटने लगा जैसे परीक्षा से पहले एक परीक्षार्थी जल्दी-जल्दी अपनी पाठ्य-पुस्तक को देखता है। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि क्या वे सब पत्र हरबंस के ही लिखे हुए हैं उस व्यक्ति के जिसकी फ़ाइलों में आधी हिन्दी और आधी अँग्रेज़ी में लिखे हुए कितने ही उलझे हुए पन्ने मैंने देखे थे! उन पन्नों के अटपटे और उलझे हुए वाक्यों का लेखक यह सब कैसे लिख सकता था? उसकी फ़ाइलों में तो हर वाक्य के ऊपर लाल पेंसिल से एक प्रश्नचिह्न बना हुआ था, और इन पत्रों में...? क्या वे पत्र उसके अन्दर के किसी और व्यक्ति ने लिखे थे? या कि उसके अन्दर की छटपटाहट ने स्वयं ही अपने लिए मार्ग बना लिया था और वह बिना जाने ही वह सब लिख गया था? क्योंकि वह ढंग से सँवारकर लिखने का प्रयत्न करता, तो ज़रूर उन्हें भी अपनी फ़ाइलों के पन्नों की तरह अटपटा बना देता। यदि वे पत्र इतने व्यक्तिगत न होते, तो शायद मैं यह भी सोचता कि वे उसने किसी और की फ़ाइल से ही न उड़ाये हों। ‘तुम्हारे साथ, और तुम्हारे बिना, दोनों ही तरह ज़िन्दगी मुझे असम्भव प्रतीत होती है।’ ‘यहाँ तो बर्फ़ है, कोहरा है और धुआँ है। लगता है, जैसे यह शहर ठोस धुएँ का ही बना हो।’ ‘मेरे अन्दर कहीं एक खालीपन है जो धीरे-धीरे इतना बढ़ता जा रहा है कि मेरे व्यक्तित्व के सब कोमल रेशे झड़ते जा रहे हैं।’ ‘मैं केवल छानबीन और छीछालेदर ही कर सकता हूँ, कुछ निर्माण नहीं कर सकता।’ ‘यदि तुम्हें नृत्य में सचमुच इतनी रुचि है, और तुम समझती हो कि तुम अपने में इस कला को इतना विकसित कर सकती हो कि वह सच्चे सौन्दर्य की प्रतीक बन जाए, तो वह भी मेरे लिए एक मार्ग हो सकता है, उस उपलब्धि तक जाने का जिसे मैं स्वयं नहीं समझता।’ क्या यह उसी हरबंस की भाषा थी?
नीलिमा चाय ले आयी तो मैंने पुलिन्दा फिर रख दिया और दोनों हाथों की उँगलियाँ उलझाकर कुछ सोचता हुआ सा बैठा रहा। नीलिमा अपने ढंग से शरीर को एक लचक देकर बैठती हुई बोली, “मैं आज ही उसे उत्तर देना चाहती हूँ, क्योंकि मुझे मैसूर जाना हो, तो दो-एक दिनों में ही मुझे चली जाना चाहिए, जिससे मैं सर्दियों में यहाँ आकर एकाध प्रदर्शन भी कर सकूँ।”
“तुम बताओ, तुम्हारा अपना मन क्या कहता है?”
“मैं अपने आप सोचकर तय कर सकती, तो तुम्हें बुलाने के लिए इतनी दूर क्यों जाती?” वह प्यालियों में चाय डालकर चीनी हिलाने लगी, “मैं तो तुमसे जानना चाहती हूँ कि तुम्हारे ख़याल में क्या करना ठीक है। मुझे अपने अलावा शुक्ला की बात भी सोचनी है जो मेरे पीछे यहाँ बहुत अकेली पड़ जाएगी। इसलिए सोचती हूँ कि मेरा अपना मन जो राय देता है, वह शायद ठीक नहीं है।”
“मगर यह तो बताओ कि तुम्हारा मन राय देता क्या है?”मैं उससे कैसे कहता कि मेरी दिलचस्पी उसकी समस्या से ज़्यादा एक और ही समस्या से है और मैं उसकी बात न सोचकर अपनी ही बात सोच रहा हूँ।
“चाय ले लो।” उसने कहा।
मैं चाय की बात भी भूल गया था। मैंने चौंककर प्याली उठा ली।
“मेरा मन क्या राय देता है?” वह कुछ समय लेकर बोली, “मेरा मन यही कहता है कि मुझे वहाँ चली जाना चाहिए। हो सकता है वह वहाँ सचमुच ही बहुत दुखी हो।”
“मेरी भी यही राय थी।” मैंने कहा। सोचा कि शायद इतने से अब वह प्रकरण समाप्त हो जाएगा और मैं दूसरी बात सोचता रह सकूँगा।
“तुम सचमुच यही समझते हो कि मुझे वहाँ चली जाना चाहिए?” नीलिमा के लिए मगर बात अब भी वहीं थी जहाँ पत्र मुझे पढऩे के लिए देने से पहले थी।
“क्यों, क्या यही ठीक नहीं है? तुम भी तो यही कह रही थीं।”
“मैं हरबंस के अकेलेपन की बात सोचकर कह रही थी। मगर तुम यह भी तो सोचो कि मेरे लिए मैसूर जाकर सीखने का यही एक चांस है।”
“हाँ, यह भी बात है।”मैं बार-बार अपने मन को धकेलकर उस विषय पर लाता था और वह बार-बार भटककर अपने दर्द की पगडंडी पर चला जाता था।
“हरबंस ने अपने पहली अप्रैल के पत्र में लिखा भी है कि मैं अपनी कला का ठीक से विकास कर सकूँ, तो उसे बहुत खुशी होगी। मैं छ: महीने मैसूर में रहकर फिर उसके पास जाऊँ, तो यह ज़्यादा अच्छा नहीं होगा?”
“मगर वह इतने दिन वहाँ अकेला रह लेगा? उसके आख़िरी पत्र से तो लगता है कि वह वहाँ बहुत ही बेचैन है।”
“उस पत्र की बात तुम जाने दो! वह तो उसने कुछ घबराहट में लिखा है। मैंने उसे वैसे ही सुरजीत की एक बात लिख दी थी जिसका अपने मन में पता नहीं उसने क्या मतलब लगा लिया है। मैं इस बार उसे लिख दूँगी कि वैसी कोई बात नहीं है, तो उसका दिमाग़ फिर ठीक हो जाएगा।” और हाथ की प्याली छलक न जाए, इसलिए उसे नीचे रखती हुई वह एक रूखी-सी हँसी हँसकर बोली, “मुझे डर है कि मैं अभी वहाँ चली गयी, तो उसका मन फिर वही खुराफ़ात सोचने लगेगा कि उसका विज़न एक गोल अँधेरी दीवार से टकराकर टूट रहा है। इसलिए मैं अभी कुछ दिन उससे दूर ही रहूँ, तो अच्छा है।” और पल-भर रुककर उसने फिर कहा, “मैं सच कहती हूँ कि अगर मुझे यह विश्वास हो कि मेरे तुरन्त वहाँ पहुँच जाने से उसे सचमुच सुख मिलेगा, तो मैं आज ही चली जाऊँ। मगर मैँ जानती हूँ कि ऐसा नहीं होगा।”
“तो इसका मतलब तो यही है कि तुम्हारे ख़याल में तुम्हारा मैसूर जाना ही ठीक है।”
“मैं कहती हूँ कि वह गया है, तो अब उसे कुछ दिन अकेले रहना ही चाहिए। वह बहुत दिनों से इस तरह की ज़िन्दगी के लिए बेचैन था। मैं चाहती हूँ कि इस ज़िन्दगी से उसका मन पूरी तरह भर जाए, तभी मैं यहाँ से जाऊँ। इतने में मेरी ट्रेनिंग भी पूरी हो जाएगी।”
“और हो सकता है कि उतनी देर में वह ऊबकर वहाँ से वापस ही चला आये।”
“नहीं, वापस वह नहीं आएगा। अपनी ज़िद का वह बहुत पक्का है। और अगर आ जाए, तो और भी अच्छा।”
मैं उससे बात कर रहा था मगर मेरा दिमाग़ उसके उस एक वाक्य पर ही अटका हुआ था, “मैंने उसे वैसे ही सुरजीत की एक बात लिख दी थी,” और मैं यही सोच रहा था कि उसने हरबंस को सुरजीत की ऐसी क्या बात लिखी थी जिससे वह एकदम बेचैन हो उठा था! अपने दर्द की पगडंडी पर भटका हुआ मेरा मन इस वाक्य को सुनने के बाद सहसा एक जगह ठिठक गया था,जैसे उसे लगा हो कि उसके सामने के झाड़-झंखाड़ के उस तरफ़ शायद कहीं एक सुरम्य वादी भी है और वह पथरीली पगडंडी एक विल्लौरी झील के तट पर जाकर भी समाप्त हो सकती है...।
“सुरजीत के बारे में तुमने उसे क्या बात लिखी थी?”मैंने कुछ रुकते-रुकते पूछा। चाहा कि मेरे स्वर से यह बिल्कुल प्रकट न हो कि उस सवाल में मेरी ज़रा भी दिलचस्पी है।
“ऐसी कोई ख़ास बात नहीं थी।” वह बोली, “उसने मुझसे एक दिन कोई अटपटी बात कह दी थी और बाद में उसके लिए माफ़ी माँग ली थी।”
“तुम इसीलिए कह रही थीं कि वह आदमी तुम्हें पसन्द नहीं है?”
“हाँ-हाँ। वह हर समय बहुत हल्के ढंग से बातें करता है और मुझे यह अच्छा नहीं लगता। बहुत हल्के ढंग से कही हुई बात दूसरे को कभी लग भी जाती है। मगर उसकी जो आदत मुझे पसन्द नहीं, शुक्ला को उसकी वही आदत सबसे अच्छी लगती है। वह उसकी हल्की-फुल्की बातें सुनकर लोट-पोट होती रहती है। आज सुरजीत सिनेमा के टिकट लेकर आया था। मैंने मना भी किया, मगर वह हठ करके बीजी, सरोज और सरिता को लेकर उसके साथ चली गयी है।”
मैं कुरसी पर थोड़ा पीछे को सरक गया। झाडिय़ों के उस पार से झील सहसा अदृश्य हो गयी थी और पगडंडी इतनी बीहड़ हो गयी थी कि मेरे लिए अपने को झेलना कठिन हो गया था।
“क्या बात है? तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है?” नीलिमा ने पूछा।
“नहीं, तबीयत ठीक है।” मैंने कहा, “रात को ठीक से सोया नहीं, इसलिए आँखें कुछ भारी हो रही हैं।”
“तुम्हें कोई टिकिया दूँ? आजकल फ़्लू से अपने को बचाते रहना चाहिए...।”
मुझे इससे अरविन्द की और अपनी कोठरी की याद हो आयी और मेरी आँखों का भारीपन अपने आप कम होने लगा।
“नहीं, दवाई की ज़रूरत नहीं।” मैंने कहा, “यह सिर्फ़ उनींदेपन की वजह से है। रात को सोकर ठीक हो जाऊँगा।”
“फिर भी एक टिकिया मैं तुम्हें दे देती हूँ।” कहती हुई वह उसी लचक के साथ उठी और अन्दर चली गयी। मैं कुछ देर आँखें बन्द किये बैठा रहा। फिर बाहर अहाते में पैरों की आहट सुनकर मैंने आँखें खोल लीं। शुक्ला और सब लोग सिनेमा से लौट आये थे। सरिता सबसे आगे थी और सुरजीत सबसे पीछे। मैं उस मन:स्थिति में सुरजीत से तो बिल्कुल ही नहीं मिलना चाहता था, मगर उस समय वहाँ बैठे रहने के सिवा और कर भी क्या सकता था?सुरजीत भी मुझे देखकर दरवाज़े के परदे के पास ही ठिठक गया।
“हलो!” उसने कहा, “तुम यहाँ हो?” और फिर मुझे बिल्कुल भूलकर बीजी से बोला, “अच्छा बीजी, मैं अब चल रहा हूँ। एक ऑस्ट्रेलियन संवाददाता आया हुआ है। उसके साथ मेरा चेम्सफोर्ड क्लब में खाना है। अगर हो सका, तो मैं शाम को आकर आपकी दाँतों की दवाई दे जाऊँगा। न आ सका, तो कल दिन में दे जाऊँगा।” और बिना उनके उत्तर की आशा किये, वह एक बार सबकी तरफ़ हाथ हिलाकर दहलीज़ से ही वापस चला गया।
“कहिए जी!” शुक्ला ने पास से गुज़रते हुए मुझसे कहा और बड़ी मेज़ से अख़बार उठाकर अन्दर चली गयी। सरोज और सरिता पहले ही चली गयी थीं। “आप कब से आये हुए हैं?” बीजी ने चलते-चलते पूछ लिया, “नीलिमा ने आपको चाय-वाय पिलायी कि नहीं?” और मेरे सिर हिला देने पर वे भी कर्तव्य से मुक्त होकर अन्दर चली गयीं। मैं जब अकेला रह गया तो मेरा मन हुआ कि मैं चुपचाप उठकर वहाँ से चला जाऊँ, मगर तभी नीलिमा अन्दर से आ गयी।
“यह रही तुम्हारे लिए दवाई की टिकिया।” उसने कहा, “बीजी की रखी हुई चीज़ें मुझे कभी मिलती ही नहीं। अब सरोज ने आकर निकालकर दी है।”
चाय की प्याली में जो दो घूँट बचे थे उनके साथ मैंने टिकिया जल्दी से निगल ली और तुरन्त ही वहाँ से चलने के लिए उठ खड़ा हुआ।
“तुम जा रहे हो?” नीलिमा कुछ आश्चर्य के साथ बोली।
“हाँ, मुझे एक काम याद आ गया है।” मैंने कहा, “एक बजे मुझे किसी के यहाँ पहुँचना है।”
“तो अब किस समय मिलोगे? मुझे तो अभी तुमसे और भी बात करनी थी।”
“मैं कल या परसों किसी समय फिर आ जाऊँगा।”
“तुम शाम को ही क्यों नहीं आते? मैं तुमसे बात करने के बाद ही हरबंस को चिट्ठी लिखूँगी।”
“देखो, कोशिश करूँगा, अगर आ सका तो।”
“नहीं, कोशिश की बात नहीं, तुम्हें ज़रूर आना है। मुझे एक और भी ज़रूरी बात करनी है।...वैसे तुम्हारा यही ख़याल है न कि मुझे छ: महीने मैसूर में रहकर ही हरबंस के पास जाना चाहिए?”
“हाँ, यही ठीक है।”
“मगर शाम को तुम्हें आना ज़रूर है। उसे चिट्ठी मैं उसके बाद ही लिखूँगी।”
“अच्छा!”
“देखो, भूल नहीं जाना!”
मैं तब तक दरवाज़े के पास पहुँच गया था। उसने मेरे बाहर निकलने के लिए परदा उठा दिया।
“नहीं, भूलूँगा नहीं।”
“शाम को मैं तुमसे कॉफ़ी पियूँगी। ठीक है?”
“हाँ, ठीक है।”
“तो किस समय तक आओगे? छ: बजे तक?”
“हाँ, छ: बजे तक आ जाऊँगा।”
“अच्छा...!”
मैं बाहर निकल आया तो उसने परदा गिरा दिया।
मगर मैं छ: बजे उससे मिलने नहीं गया। उस शाम मैं कहीं भी नहीं गया हालाँकि रात होने तक मैंने लगभग सारी दिल्ली की ख़ाक छान ली। मैं कहाँ-कहाँ गया, मुझे ठीक याद नहीं। जो बस जहाँ तक ले गयी, उसमें वहाँ तक चला गया और लौटने के लिए जो बस मिली, उसमें बैठकर उसके टर्मिनस पर जा उतरा। खाने को जहाँ जो मिला, वह मैंने कई बार बिना भूख के भी खा लिया। उस दिन की मुझे इतनी ही याद है कि कुछ देर मैं राजघाट जाकर बैठा रहा था, कुछ देर जमुना ब्रिज पर खड़ा रेत के फैलाव में से गुजरती हुई पतली-पतली पानी की धारों को देखता रहा था और बाद में उधर से मुँह फेरकर एक अक्खड़ गति से पुल को हिलाकर जाते हुए ट्रैफिक को देखता रहा था। कुछ देर मैं इंडिया गेट के पास घास पर भी लेटा रहा था। मैं घर जाने से पहले अपने मन में एक निश्चय कर लेना चाहता था, मगर उस निश्चय के रास्ते में कई एक रुकावटें थीं जिनकी वजह से मेरा मन डावाँडोल हो रहा था। जब मैं इंडिया गेट से उठकर आया, तो मैं अपनी एक मुट्ठी में घास की तिगलियाँ दबाये था। रास्ते में मैंने जब अपनी मुट्ठी में वे तिगलियाँ देखीं, तो मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि मुझे पता नहीं था कि मैंने वे तिगलियाँ कब तोड़ी थीं और कब उन्हें मुट्ठी में भींच लिया था।
मैं अपने मन में निश्चय करने से पहले लौटकर घर नहीं जाना चाहता था। मुझे खाने से अरुचि हो रही थी फिर भी मैं कुछ-कुछ खाना चाहता था। मैं उस समय कुछ न कुछ करते रहना चाहता था। मुझे मालूम था कि मैं बिना चाहे, और बहुत हद तक बिना जाने, एक शिखर पर पहुँच गया हूँ जहाँ मैं ठिठककर नहीं रह सकता, और न ही नीचे खाई की तरफ़ झाँककर देखने का साहस कर सकता हूँ। इसलिए मैं घूमता रहा, घूमता रहा, और जब घूम-घूमकर बहुत थक गया, तो मैं उसी बार में जा बैठा जहाँ हरबंस के साथ उसके जाने के दिन बैठा था। मगर दो पेग ह्विस्की पीकर मेरा दिल वहाँ से भी उखड़ गया और मैं वहाँ से बाहर निकल आया।
तो? इस ‘तो’ का कोई उत्तर, कोई हल, मेरे पास नहीं था। मेरा मन जिस पगडंडी पर भटक गया था, वह मुझे एक गहरे दलदल में ले आयी थी। वहाँ बस, व्याकुलता के सिवा कुछ नहीं था। क्या वह व्याकुलता मैं एक छूत के रोग की तरह हरबंस के पत्रों से ले आया था? परन्तु उन पत्रों ने शायद उस व्याकुलता का मुँह खोल दिया था; वैसे वह व्याकुलता वहीं थी, बहुत दिनों से थी।
हरबंस एक ऐसा व्यक्ति था जिससे मुझे उस समय सबसे अधिक सहानुभूति हो रही थी और जिस पर मुझे सबसे अधिक गुस्सा आ रहा था। वह व्यक्ति उस समय दिल्ली में होता और मैं एक बार उसे बाँह से पकडक़र अच्छी तरह झिंझोड़ सकता, तो शायद मेरा मन कुछ शान्त हो जाता। वह व्यक्ति बम्बई में मुझसे मिलने के लिए क्यों आया था? मेरा उससे परिचय न हुआ होता, तो क्या मुझे उस समय इतनी असमर्थता और इतनी हताशा की अनुभूति में से गुज़रना पड़ता? मैंने जेब में हाथ डाला, तो मुझे पता चला, कि मैंने घास की तिगलियाँ फेंकने की बजाय जेब में भर ली हैं। मैंने उन्हें निकालकर फुटपाथ पर बिखेर दिया। एक बार मेरे क़दम हनुमान रोड की तरफ़ मुडऩे को हुए, मगर मैं उधर न जाकर ऊपर से होता हुआ चेम्सफ़ोर्ड रोड की तरफ़ आ गया। उस समय मुझे ताँगा मिल सकता था। मगर न जाने क्यों मुझे पैदल चलना ही ठीक लगा। मुझे लग रहा था जैसे वह रात सरदी की वही रात हो जिस रात मैं गुमराह होने के बाद चेम्सफ़ोर्ड रोड से होकर पैदल घर गया था; जैसे वह रात भविष्य का एक सपना ही थी जिसे यथार्थ में मुझे उस समय अनुभव करना था; जैसे मेरा रास्ता काठ बाज़ार में से होकर ही था और मुझे वहाँ से गुज़रते हुए अभी पहलवान का सामना करना था, उसकी बाई को सिगरेट ख़रीदकर देना था, फिर उसकी गाली सुननी थी और कुढ़ते हुए घर जाना था। ताँगेवाले दो-दो आने की सवारी की आवाज़ देते हुए सदर की तरफ़ जा रहे थे, मगर मैं अपने पैदल चलने के हठ से नहीं हटा। मुझे इस बात से कुछ उलझन हो रही थी कि वह रात पहले की रात की तरह ठंडी और अँधेरी क्यों नहीं है, वह रास्ता उतना ही वीरान क्यों नहीं है, और मैं भी उसी तरह पैर पटकता हुआ क्यों नहीं चल रहा।
मैं जब काठ बाज़ार के मोड़ पर आया तो ह्विस्की की गरमी मेरे सारे शरीर में भर रही थी; मन में एक निश्चय हो चुका था। मुझे क़स्साबपुरा के घर में जाने से पहले किसी और के घर की पनाह लेनी थी जहाँ मैं अपने मन की कटुता और हताशा से कुछ हद तक मुक्ति पा सकूँ, जहाँ मेरा दिल और दिमाग़ कुछ देर के लिए सुन्न हो जाएँ और मैं अपने अन्दर की चुभन और अपने अन्दर उबलते हुए लावे की गरमी को कुछ देर के लिए भूल जाऊँ। मुझे लग रहा था कि ज्यों ही नकली सोने के बटनोंवाला पहलवान मुझे सामने नज़र आएगा, त्यों ही मैं हाथ बढ़ाकर एक पुराने दोस्त की तरह उससे मिलूँगा और कहूँगा कि आज मैं कनॉट प्लेस से नहीं आया, क़स्साबपुरा से आया हूँ और मेरी जेब में चवन्नी नहीं, पाँच-पाँच रुपये के दो नोट हैं जिन्हें मैं तुम्हारे देखते-देखते टुकड़े-टुकड़े करके फेंक सकता हूँ।
मगर काठ बाज़ार में मुड़ते ही वह पहलवान नज़र नहीं आया इससे मुझे निराशा हुई। बाज़ार में उस दिन की सी चमक-दमक भी नहीं थी जिससे मुझे और भी निराशा हुई। सट्टा बाज़ार की तरह सौदा करनेवाले ग्राहक भी उस समय वहाँ नहीं थे। वे रँगी-पुती औरतें भी अपनी पिंजरानुमा कोठरियों के बाहर नहीं खड़ी थीं। कुछ घरों की ड्योढिय़ों में बहुत हल्का-हल्का उजाला नज़र आ रहा था। मगर वह उजाला नहीं था जिसे देखकर आदमी उन घरों की दहलीज़ लाँघकर अन्दर जा सकता है। मेरे माथे पर पसीना आ गया। आख़िर उस बाज़ार को उस समय हुआ क्या था?
मैं कुछ क्षण जकड़ा-सा उस चौड़े अहाते में खड़ा रहा। ज़्यादातर सींखचोंवाले दरवाज़े अन्दर से बन्द थे।
अचानक अँधेरे में मेरे पास ही एक बीड़ी सुलग उठी तो मेरा ध्यान उसकी तरफ़ चला गया। मैं बीड़ी पीनेवाले व्यक्ति के पास चला गया। “आज यह बाज़ार बन्द है?”मैंने उससे पूछा।
उसने धीरे से सिर हिला दिया। “आज यह बाज़ार मातम की वजह से बन्द है। आज यहाँ एक मौत हो गयी है। एक लडक़ी कुछ दिनों से बीमार थी, वह आज गुज़र गयी है।”
मेरे घुटनों के जोड़ ढीले होने लगे। उस बाज़ार का मौत के साथ भी कुछ नाता-रिश्ता है यह बात कभी ज़हन में नहीं आयी थी। मैं चुपचाप उस व्यक्ति के पास से चल दिया। जब मैं गली से निकलकर सडक़ पर आया, तो मेरा गला फिर इतना ख़ुश्क हो रहा था कि उसमें काँटे से चुभ रहे थे। मुझे अपने दर्द और बेचैनी की बात कुछ भूली-सी लग रही थी और उस अहाते की तसवीर ही मेरे ज़हन में घूम रही थी। उन घरों में लालटेनों से आती हुई हल्की-हल्की रोशनी—जैसे मौत से उन घरों का कायाकल्प करके उन्हें आम घरों जैसा बना दिया हो—और उस अहाते में ठिठकी हुई एक अकेली छाया...! मैं बार-बार अपने से कहना चाहता था कि वह छाया मैं नहीं हूँ, मैं वह छाया बिल्कुल नहीं हूँ। मैं अपने को विश्वास दिलाना चाहता था कि मैं तो उस दिन उस अहाते में से गुज़रा ही नहीं हूँ। मैं तो वहाँ जीवन में एक बार, सिर्फ़ एक ही बार गया था, जब मेरा वहाँ पहलवान से सामना हुआ था और मैं मन में एक गहरी कटुता लिये हुए उस गली से बाहर निकल आया था। उसके बाद मैं वहाँ से नहीं गुज़रा, कभी नहीं गुज़रा—अगर कोई गुज़रा था, तो वह मैं नहीं था, मैंने तो उसे वहाँ से गुज़तरे देखा-भर था...।
मैंने इकन्नी की गँडेरियाँ ले लीं और उनसे अपने खुश्क गले को तर करता हुआ क़स्साबपुरा में अपनी गली में आ गया।
हमारे घर से भी लालटेन की मद्धिम रोशनी नज़र आ रही थी। दरवाज़ा खटखटाया तो ठकुराइन ने लालटेन लिये हुए दरवाज़ा खोल दिया। उसने दरवाज़ा खोलते हुए कहा कि आज फिर मैंने बहुत देर कर दी है और कि अरविन्द की उस दिन डबल ड्यूटी है, वह सुबह पाँच बजे आएगा। ठाकुर साहब खाना खाकर शायद बाहर दालान में चारपाई निकलवकर सो गये थे,और ठकुराइन सिर्फ़ मेरी वजह से ही जाग रही थी। उसकी आँखें नींद से भारी हो रही थीं।
“कहाँ-कहाँ हो आये?” उसने चेष्टा करके अपनी आँखें पूरी खोल लीं, “आज तो मुझे मालूम था कि तुम देर से आओगे।”
मैंने कुछ न कहकर हाथ की गँडेरियाँ उसकी तरफ़ बढ़ा दीं।
“ये गँडेरियाँ कहाँ से ले आये?” ठकुराइन हँसकर बोली, “आज के दिन भी तुम्हें गँडेरियाँ ही चूसने को मिलीं?”
मुझे यह ख़याल था कि मेरे मुँह से बू न आ रही हो इसलिए मैं बहुत कम बात करना चाहता था। बात करते समय भी मुझे ध्यान रहता था कि होंठ कम से कम खुलें। इसलिए मैंने सिर्फ़ इतना ही कहा, “ये यहीं से ले ली थीं।”
“अच्छा, यह बताओ, तुम्हारी उसने तुम्हें आज क्या खिलाया-पिलाया है?” ठकुराइन गँडेरी चूसती हुई बोली।
“किसने?” मैंने एक बार होंठों पर हाथ भी रख लिया कि ठकुराइन पिलाने की बात क्यों कर रही है।
“अब बनो नहीं।” ठकुराइन रसिकता के साथ बोली, “तुम्हारी उसी ने, जो सवेरे तुम्हें लेने आयी थी। लाला, हम तो तुम्हें ऐसे ही समझी थीं, पर तुम तो पूरे वह निकले! दिल्ली में कितनी हैं तुम्हारी ऐसी-ऐसी?”
मैं भूल गया था कि सुबह नीलिमा वहाँ आयी थी और मैं उसके साथ ही घर से गया था। इस बीच मैं एक पूरी ज़िन्दगी की मंज़िलें तय कर आया था और मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि सुबह से अब तक एक ही दिन बीता है।
“वह मेरे एक दोस्त की पत्नी थी, भाभी।” मैंने कहा, “उसे कुछ काम था, इसलिए मुझे बुलाने आयी थी।” और बिल्कुल भूख न होते हुए भी मैंने कहा, “मेरा खाना रखा हो, तो दे दो।”
“वह तो कह रही थी कि तुम उसके दोस्त हो!” ठकुराइन ने मुँह का फोक गली में फेंककर किवाड़ बन्द कर दिया, “अब हमसे छिपाओगे, तो हम तुमसे कभी बात नहीं करेंगे।”
“भाभी, वह मेरे दोस्त की पत्नी थी और मैं...” सहसा मेरे दिमाग़ में फिर कोई चीज़ लहरा गयी और मैं ठकुराइन की तरफ़ देखता रह गया। ठकुराइन उस समय इतनी उजली कैसे लग रही थी?
“तुम मेरा खाना दे दो।” मैंने कहा।
“मैंने तो तुम्हारे लिए खाना आज बनाया ही नहीं।” ठकुराइन बोली, “मैंने सोचा कि अपनी दोस्त के साथ गये हो, तो वहाँ से खा-पीकर ही आओगे। मैं तो इसलिए बैठी थी कि कहीं तुम्हारी दोस्त तुम्हें छोडऩे आ जाए, तो घर में बिल्कुल अँधेरा ही दिखायी न दे। तुम मुझे पहले बता देते, तो मैं सवेरे उठते ही तुम्हारे कमरे को ठीक कर छोड़ती। मैं भी उस वक़्त गन्दे कपड़े पहने बैठी थी। मुझे क्या पता था? सचमुच मुझे बहुत ही शरम आयी। अब मैंने इसीलिए तुम्हारे वाली यह साड़ी निकालकर पहन ली थी कि क्या पता वह फिर तुम्हारे साथ चली आये।”
मेरा ध्यान इस तरफ़ नहीं गया कि ठकुराइन नई साड़ी बाँधे हुए है। पहली तनख़ाह मिलने के दिन ही मैं उसके लिए छ: रुपये में वह साड़ी ख़रीद लाया था और तब से शायद वह उसके ट्रंक में बन्द ही पड़ी थी। ठकुराइन की बात से मेरे दिमाग़ में दिन-भर की घटनाएँ फिर ताज़ा होने लगी थीं और मेरे दिमाग़ में एक भँवर-सा घूम रहा था। मेरे अन्दर का लावा मेरी भूख, मेरा दर्द फिर मेरे अन्दर तड़पने लगे। मैं कई क्षण जड़-सा चुपचाप ठकुराइन की तरफ़ देखता रहा। लालटेन की रोशनी में उसका खिला हुआ चेहरा बहुत ही मासूम लग रहा था और उसके चेहरे की झाइयाँ उस समय न जाने कहाँ गायब हो गयी थीं। वह अपनी उम्र से बहुत छोटी लग रही थी। मुझे अपना गला फिर बहुत ख़ुश्क लगने लगा और मेरे माथे की नसें फडक़ने लगीं।
“तो खाना सचमुच नहीं है?” मैंने कहा।
“तुम क्या सचमुच भूखे आये हो?” ठकुराइन जैसे मेरी भूख का अनुमान लगाने के लिए एक क़दम पास आ गयी और उसके चेहरे पर अपराध की छाया घिर आयी। “मैंने तो सच, नहीं सोचा था कि तुम खाकर नहीं आओगे।”
“अगर नहीं बना तो रहने दो।” मैंने कहा, “मुझे ऐसी भूख नहीं।”
“अगर भूख हो, तो मैं अभी बना देती हूँ।”
ठकुराइन मेरे बहुत पास आकर खड़ी थी। मेरी कनपटियाँ फडक़ रही थीं और आँखों से चिनगारियाँ-सी निकल रही थीं। मेरे मन में कोई चीज़ कुलाँचें भर रही थीं। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि ठकुराइन इतनी छोटी इतनी मासूम और इतनी सुन्दर होती हुई भी पहले ऐसी क्यों नहीं लगती थी। सहसा मेरा एक पैर थोड़ा लडख़ड़ा गया और मैंने अपना हाथ ठकुराइन के कन्धे पर रख दिया। “अब रहने दो न।” मैंने कहा, “गरम बनाने का तरद्दुद क्या करोगी?”
मगर मेरा हाथ कन्धे पर कसते न कसते ठकुराइन ने अपना कन्धा छुड़ा लिया और एकदम छिटककर कई क़दम दूर जा खड़ी हुई। उसकी आँखें गुस्से से लाल हो गयीं। “तो तुम आज सचमुच पीकर आये हो!” उसने कुछ सख़्त स्वर में कहा, “मुझे पहले ही पता था।”
मैं हतप्रभ-सा खड़ा उसकी तरफ़ देखता रहा तो उसने कहा, “अब सो जाओ, रात बहुत हो गयी है।” और उसने अपनी कोठरी में जाकर उसी क्षण अन्दर का किवाड़ बन्द कर लिया। मैं जहाँ खड़ा था, कई क्षण पत्थर के बुत की तरह वहीं खड़ा रहा। शायद बहुत देर खड़ा रहा, क्योंकि समय का ज्ञान उस समय मुझे बिल्कुल नहीं रहा था। मुझे इतना ही याद है कि कुछ देर बाद बाहर से ठाकुर साहब की आवाज़ सुनायी दी थी, ‘सरस्वती एक गिलास पानी दे जा।’ और ठकुराइन ने कोठरी में से कहा था, “ला रही हूँ!”फिर कुछ देर की गहरी ख़ामोशी के बाद कोठरी का किवाड़ खुला था और ठकुराइन की लडक़ी निम्मा आँखें मलती हुई आकर मेरे पास से लालटेन उठाकर ले गयी थी।
उससे अगले ही दिन मैंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। दिल्ली छोडऩे से पहले मैं फिर हनुमान रोड पर नहीं गया। जिस दिन मैं दिल्ली से चला उस दिन बत्रा मेरी जगह एक सौ साठ वाली कुरसी पर आ गया था। चार साल बाद जब मैं एक दिन के लिए दिल्ली आया, और पत्रिका के कार्यालय में लोगों से मिलने के लिए गया, तो बत्रा एक सौ पहचत्तर वाली कुरसी पर बैठा था,क्योंकि लक्ष्मीनारायण भी इस बीच प्रधान सम्पादक बनने का मोह छोडक़र वहाँ से चला गया था।
मगर उस बार आने पर ठकुराइन के घर मिलने जाने का मेरा हौसला नहीं हुआ।