अमावस की रात में भगजोगनी : रूपलाल बेदिया

Amavas Ki Raat Mein Bhagjogini : Ruplal Bediya

"तहारा नाम क्या है?"

डॉक्टर के सवाल से वह हड़बड़ा गई और बोली, "पारो, मतलब झारखंडी पारो।"

"क्या?" डॉक्टर एकदम से चौंक पड़ी। भला ऐसा भी कोई नाम होता है! वैसे वह डॉक्टर साहिबा उस कस्बे में नई-नई आई थीं। इसलिए नामों की संस्कृति से पूरी तरह परिचित नहीं थीं, फिर भी किसी का ऐसा नाम हो सकता है, उन्होंने सोचा नहीं था। वह भी हरियाणा के उस सीमावर्ती जिले (जो राजस्थान की सीमा को छूता है) के एक कस्बे में। 'झारखंडी पारो' यानी नाम के साथ सैकड़ों मील दूर के एक प्रदेश का नाम जुड़ा होना किसी के लिए भी आश्चर्य और कौतूहल का विषय हो सकता है। डॉक्टर मेघा द्वारा आश्चर्य से उसकी तरफ देखने पर उसने पुनः कहा, "हाँ मैडमजी, हमरा नाम झारखंडी पारो है।"

डॉक्टर को लगा, दक्षिण भारतीयों के नामों में जिस तरह पिता, गाँव आदि का नाम जुड़ा होता है, उसी तरह शायद झारखंड में प्रदेश का नाम जोड़ने की परंपरा हो। लेकिन अगले ही पल उनके दिमाग में यह प्रश्न उठा कि अगर यह झारखंड की है तो इस सुदूर प्रदेश में आई कैसे? देखने में तो यह पढ़ी-लिखी भी नहीं लगती कि नौकरी-पेशे में इधर आ गई हो। परंतु इन बातों को सोचने-समझने के लिए उनके पास न तो समय था और न उनके पेशे के अनुरूप। किसी के व्यक्तिगत मामलों में पड़ने से क्या फायदा! उनके सामने तो वह एक मरीज है और उनका काम उसकी जाँचकर पता लगाना कि उसे क्या बीमारी है और आवश्यक दवाइयाँ लिख देना।

उन्होंने अपने पेशे के अनुरूप सवाल पूछा, “अच्छा बताओ, क्या कष्ट है?"

"मैडमजी, हमको ई बताय दीजिए कि हमरा पेट में लड़का है कि लड़की?"

डॉक्टर फिर थोड़ी अचकचाई। आज तक यह जानने के लिए कोई अकेली औरत उनके पास नहीं आई थी। उनके पति ही मनाकर या जबरदस्ती ले आते थे। डॉक्टर इस बात से अनभिज्ञ नहीं थी कि हरियाणा के कुछ क्षेत्रों में, और खासकर देहाती इलाकों में, कन्याभ्रूण हत्याएँ सबसे अधिक होती हैं।

"तुम ये क्यों जानना चाहती हो?" "काहे कि लड़की होगी तो घरवाला सब इसको मार देगा और हम इसको बचाना चाहते हैं।"

"तुम्हारे घरवाले इसे क्यों मारेंगे?''

उसके सारे शरीर से लेकर आत्मा तक पीड़ा से भर गई। आँखों में आँसू छलछला आए। इस बारे में वह कुछ नहीं बताना चाहती थी, बताने का मन ही नहीं हो रहा था। बताती भी तो कहाँ से शुरू करती? उसकी पीड़ाओं का तो कोई ओर-छोर था नहीं। जहाँ तक नजर दौड़ाती, पीड़ा-ही-पीड़ा पसरी हुई दिखाई देती।

"बताओ न, तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि तुम्हारे घरवाले इसे मार डालेंगे?"

वह जैसे नींद से जागती हुई-सी बोली, "मैडमजी, का बतावें, ऊ लोग तो हमरा चार गो बेटी को पहिलेहें मार दिया है। ई अगर लड़की होगी तो जन्मतेहें इसको भी मार देगा। ऊ लोग कहता है कि लड़की का जनम लेना गुनाह होता है, अशुभ होता है, पाप लगता है, अपराध माना जाता है, इससे घर का इज्जत चला जाता है।" वह सिसकने लगी थी। डॉक्टर को समझ में नहीं आ रहा था कि अगला सवाल क्या करे? थोड़ी चुप्पी के बाद उन्होंने पूछा, "तुम रहनेवाली कहाँ की हो?" उसने कस्बे के पास के ही एक गाँव का नाम बता दिया। इस पर डॉक्टर ने कहा, "यहाँ का नहीं। मेरा मतलब तुम्हारा अपना घर, मतलब तुम्हारा जन्म कहाँ हुआ था? तुम्हारे माता-पिता कहाँ रहते हैं?" उसकी आँखों के सामने सहसा उस गाँव की तसवीर उभर आई, जिसकी मिट्टी में वह लोट-पोटकर बड़ी हुई थी। वहाँ के गाय-गरू, मुरगी-छगरी, खेत-टांड़ सब मूर्तिमान हो उठे, और जीवंत हो उठे उसके माँ-बाप के बदनसीब और लाचार चेहरे।

उसने बताया, "महुआ कोचा।"

"यह क्या है?"

"हमरा गाँव, जहाँ हम जनमे थे।"

"और यह गाँव कहाँ है?"

उसने डॉक्टर को अबूझ नजरों से देखा। डॉक्टर ने स्पष्ट किया, "मतलब कि यह गाँव किस जिले में और किस राज्य में है, तुमको पता है?"

उसके सामने बारह-तेरह साल के एक लड़के की धुंधली सी तसवीर उभरी। जब वह सातआठ साल की रही होगी, तब वह उसके गाँव में अपने मौसा-मौसी के यहाँ आया था। वह शायद शहर में पढ़ता था। उसी ने पहली बार पूछा था, "हम लोग किस जिले में रहते हैं, तुमको मालूम है?" वह क्या बताती, उसे तो यह भी नहीं पता था कि यह जिला होता क्या है? सच कहें तो उसे आज भी जिला, राज्य, देश, विदेश के बारे में कुछ पता नहीं है। उसके द्वारा अनभिज्ञता जाहिर करने पर उसी लड़के ने बताया था कि हम लोग राँची जिले में रहते हैं। उसने यह भी बताया था कि जिला बहुत बड़ा होता है और उससे भी बड़ा राज्य होता है। उसने जिला का नाम तो बता दिया था, परंतु राज्य का नाम नहीं बताया था। लिहाजा वह डॉक्टर को अपने राज्य का नाम नहीं बता सकी।

डॉक्टर थोड़ी देर के लिए अपने पेशे को भूल चुकी थी। उन्हें वह स्त्री बहुत रोचक लग रही थी। अतः उन्होंने उससे अपने बारे में पूरी बात बताने को कहा। थोड़ी देर खामोश रहने के उपरांत उसने जो बताया, उसे डॉक्टर साहिबा ने बाद में उसी की जुबानी, लेकिन अपने शब्दों में कुछ यों लिखा-

मैं घर की बड़ी बेटी थी। जिस दिन मेरा जन्म हुआ था, वह कौन सी तारीख, महीना या साल था, यह पता नहीं, लेकिन वार मंगल था, यह माँ ने बताया था। माँ ने ही बताया था कि मेरा जन्म फगुआ के एक हफ्ता पहले हुआ था। जाहिर है, वह फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की कोई तिथि रही होगी। ऐसा समय, जब रात में चाँदनी खिल रही होगी और दिन का मौसम सुहाना रहा होगा; न अधिक जाड़ा, न ज्यादा गरमी यानी वसंत की ऋतु। इस समय प्रकृति अपने यौवन पर रहती है। मदमाती हवा बूढ़ी हड्डियों में भी जोश भर देती है, फूलों की गमक से सबके मन में उत्साह भर जाता है, उमंग हिलोरें लेने लगती है। ऐसे समय में मेरा जन्म लेने से घर में कई गुनी खुशियाँ बढ़ गई थीं। हमारे गाँव में बेटा-बेटी किसी का भी जन्म हो, खुशियाँ ही मनाई जाती थीं। मेरे माँ-बाप ने बड़े उत्साह से मेरा नाम 'भगजोगनी' रखा था। ऐसा नाम, जो रोशनी बिखेरता रहे, नैहर और ससुराल दोनों कुलों को तारनेवाला हो। प्रकृति प्रदत्त नियमों का अनुसरण करते हुए मैं बढ़ने लगी और मेरे पीछे और तीन बहनें एवं दो भाई आ गए। हर जन्म पर उसी तरह खुशियाँ मनाई गई। किंतु धीरे-धीरे ये खुशियाँ क्षीण पड़ती गई, खाने के दाने कम पड़ते जाने लगे। खेत-टांड़, जगह-जमीन ज्यादा नहीं थी। वहाँ से जो उपज होती थी, वह छह महीने भी नहीं चलती थी। खेती-बारी के दिनों में माँ किसी की घासनिकौनी करती, तो पिताजी किसी के हल चलाते या कोड़ी-टाँगा करते। अगहन के दिनों में अपनी फसल काट लेने के बाद माँ-बाप दूसरों की धनकटनी में लग जाते। दिनभर की धनकटनी के बदले में शाम को एक बोझा धान पारिश्रमिक के रूप में मिलता था। शुरू में तो मैं गाय-गरू चराती, गीत गुनगुनाती और माँ जो खाने को देती, खाकर निश्चिन्त होकर सो जाती। किंतु थोड़ी और बड़ी होने पर मुझे भी बड़े खेतिहरों के खेतों में काम करने भेज दिया जाने लगा। संतोष की बात थी कि मेरे माँ-बाप या केवल मैं ही वैसी नहीं थी, बल्कि कुछेक बड़े खेतिहरों को छोड़कर सभी की यही दशा थी। इसलिए खेतों में काम करने में भी कई सहेलियाँ मिल जाती थीं, जिससे दिन कट जाते थे।

ज्यादा मुश्किल अगहन की धनकटनी के बाद होती थी। सिंचाई की सुविधा नहीं होने के चलते रबी की फसल नहीं हो पाती थी। इस कारण खेतों में काम भी नहीं मिल पाता था। हम जैसों के घरों में चैत चढ़ते-चढ़ते खाने के लाले पड़ने लगते थे। ऐसी स्थिति में जंगल ही एकमात्र जरिया था। माँ-बाबा के साथ मैं भी जंगल से सूखी लकड़ियाँ लाती और दूसरे दिन तीन कोस दूर हाट में बेचने चली जाती। इससे जो कुछ मिलता, उसी से माड़-पानी चलता था। इस समय गाँव के कुछ लड़के-लड़कियाँ ईट भट्ठों में या अन्य प्रदेशों में मजदूरी करने चले जाते थे। मैं अब युवावस्था को प्राप्त हो रही थी। मेरा मन भी ईंट भट्ठों में मजदूरी करने जाने का करता था। लड़कियाँ जब मजदूरी करके आषाढ़ में लौटती थीं तो रुपए-पैसे के अलावा नई-नई साड़ियाँ लाती थीं, जिन्हें देख मेरा मन भी ललचाता था। भादो महीने में करम परब के समय जब वे दामी नई साड़ियाँ पहनकर अखरा में नाचने आती थीं तो मेरा मन मसोसकर रह जाता था। वैसे मेरे माँ-बाप की भी कोशिश रहती थी कि करम में सभी बच्चों के लिए कुछ-न-कुछ खरीदा जाए, पर वे निहायत सस्ते कपड़े होते थे।

इसलिए एक बार मैंने भी ईंट भट्ठा जाने की इच्छा अपनी माँ से जाहिर की। माँ पूरी तरह सहमत नहीं थीं, फिर भी उन्होंने बाबा से बात करने का आश्वासन दिया, लेकिन बाबा ने साफसाफ मना कर दिया, "भूखे रह लेंगे, मगर हमरा बेटी परदेस कमाने जाए, ई हमको बिल्कुल मंजूर नहीं। हमरा मालूम है, परदेस में का-का होता है; हमहों आपन समय में परदेस में बहुत खटले हैं।"

और परदेस जाकर कमाने, नई साड़ी, साया-ब्लाउज खरीदने और करम की रात झकमकाकर पहन अखरा में नाचने का मेरा सपना, सपना ही रह गया। भले ही भरपेट खाना न मिलता हो, भले ही भर बदन कपड़े न दे पाते हों, पर हमारे बाबा हम भाई-बहनों से बहुत वत्सलता रखते थे, बहुत स्नेह करते थे। यही कारण है कि मैं उनका विरोध करके परदेस नहीं जाना चाहती थी।

कुछ दिनों से या यों कहें कि महीनों से मेरे माँ-बाबा कुछ ज्यादा ही चिंतित दिखाई देने लगे थे। फिर एक दिन मुझे इसका कारण भी पता चल गया। माँ कह रही थीं, "मुदा कुछो करना तो पड़बे करेगा। बढ़ गई है, आखिर कतना दिन बइठले रहेगी?'

"सब जानते हैं भागो मायं, मगर का करें? अपना बेटी है, फेंक तो नहीं न देंगे। हिंयाँ तो साँझ खाओ तो बिहान का सोचना पड़ता है। सादी का पइसा कहाँ से जोगाड़ करेंगे? आउर अइसन गरीब का बेटी से कोन सादी करेगा?" बाबा के मुँह से लाचारी के शब्द फूटे थे। सच कहती हूँ, उस दिन मुझे अपने आप पर रोना आया था। मन-ही-मन सोचने लगी थी कि इस बार जैसे भी हो, बाबा को मनाकर परदेस जरूर जाऊँगी और ढेर सारा पैसा कमाकर लाऊँगी। तब बाबा अच्छे से दूल्हे के साथ मेरी शादी कर देंगे। सोचते हुए मैं मुसकरा पड़ती।

ऐसे ही समय में न जाने किस ग्रह-गोचर का दोष था कि उनकी नजर मुझ पर पड़ गई। मिसिर बाबा ने सुकरा सोरेन को कहकर सभी गाँववालों को अपने दालान में बुलवाया, खासकर उन लोगों को, जिनके घरों में कमाऊ बेटे-बेटियाँ थे। उन्होंने युवक-युवतियों को भी बुलवाया। मिसिर बाबा के दालान में पहले से चार अनजान शहरी लोग बैठे हुए थे, जिनमें से तीन पुरुष और एक औरत थी। मिसिर बाबा ने उनसे परिचय कराते हुए कहा, "ये लोग शहर से आए हैं। इनको शहर में एक नया कारखाना लगवाना है, जिसके लिए इन्हें कुछ मजदूर चाहिए।" इसके बाद बड़ी-बड़ी मूंछोंवाला तगड़ा आदमी बोला, "इस कारखाने के लिए हमें करीब पाँच सौ मजदूरों की आवश्यकता है। कई गाँवों से करीब तीन सौ मिल चुके हैं। अगर यहाँ से कुछ मिल जाते तो...।" उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी। दूसरे आदमी ने कहा, "देखिए, हमारी योजना बहुत बड़ी है और हमने आप जैसों के लिए रोजगार के बारे में भी सोच रखा है। ठीक-ठाक काम चला तो एक-डेढ़ साल में कारखाना तैयार हो जाएगा और गरीबों को परमानेंट रोजगार मिल जाएगा।" लोगों को उसकी बात ठीक से समझ में नहीं आई। वे जिज्ञासा से एक-दूसरे को देखने लगे। इस बार गुलथुल काया की मालकिन उस अधेड़ औरत ने कहा, "मैं थोड़ा और साफ कर देती हूँ, इनके कहने का मतलब है कि कारखाना बन जाने के बाद भी मजदूरों की जरूरत रहेगी ही। इसलिए जिन मजदूरों को अभी काम में लगाएँगे, उन्हें ही हम नौकरी में रख लेंगे, एकदम परमानेंट नौकरी।"

ग्रामीणों की आँखों में चमक आ गई। युवक-युवतियों में यह चमक कुछ ज्यादा ही दिखाई दी। शायद उन्हें जिंदगी सँवारने का यह सबसे बढ़िया मौका प्रतीत हुआ, लेकिन उनमें से किसी ने कुछ नहीं कहा। उन चारों शहरी लोगों ने ग्रामीणों के चेहरे पर चढ़-उतर रहे भावों को बड़े गौर से देखा। फिर तीसरे आदमी ने, जो अभी तक चुप था और जिसकी आँखों से धूर्तता साफ दिख रही थी, कहा, "ये सही कह रही हैं। इसमें संदेह या संकोच करने की कोई बात नहीं है। जब तक कारखाना पूरी तरह बन नहीं जाता, तब तक आप सबको मजदूरी तो मिलेगी ही, खाने को अनाज और रहने के लिए घर मुफ्त में दिया जाएगा और कारखाना बन जाने के बाद आप लोग परमानेंट हो जाएँगे। फिर तो आप अपनी मरजी से खा-पी सकेंगे और रह सकेंगे। जैसाकि आपको बताया गया कि हमें पाँच सौ में से करीब तीन सौ मजदूर मिल गए हैं, उनमें से साठसत्तर तो यहीं आस-पास के गाँवों के हैं। उन्हें रेलगाड़ी से भेजा जा चुका है। वे शायद पहुँच भी गए होंगे।"

उसकी बात सच थी। अभी पिछले ही मंगलवार को साप्ताहिक हाट से लौटते समय मुझे कुछ लड़कियों ने बताया था कि उनके गाँव के बहुत से लड़के-लड़कियाँ किसी नए बन रहे कारखाने में काम करने गए हैं। बता रहे थे, डेढ़-दो सालों का काम है और मजदूरी भी अच्छीखासी। तो शक की गुंजाइश तो नहीं थी, फिर भी अभी तक किसी ने स्पष्ट स्वीकृति नहीं दी थी। किसी तरह का शक-सुबहा न रह जाए, इसलिए उन्होंने कहा, "ऐसा कीजिए, आज आप लोग अच्छी तरह सोच लीजिए और कल हमें बताइएगा।"
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दूसरे दिन बीस-बाईस लड़के-लड़कियाँ उस अनजानी राह के लिए निकल पड़े। मैं अपने घर के दरवाजे के पास खड़ी होकर उन्हें जाते हुए देखती रही और अपने भाग्य को कोसती रही तथा कोसती रही अपने बाबा को। अब गाँव में मेरे अलावा पाँच-छह उन घरों की लड़कियाँ रह गई थीं, जिनके यहाँ गरीबी और भुखमरी की मार कम पड़ती थी।

पंद्रह-बीस दिनों बाद मिसिर बाबा ने पुन: मेरे बाबा को बुलवाया। इस बार उन्होंने और किसी को नहीं बुलवाया था। बाबा ने सोचा कि मिसिर बाबा को शायद कोई काम पड़ गया होगा। जब वे पहुँचे तो दालान में मिसिर बाबा और सुकरा सोरेन के अलावा और तीन लोगों को बैठे पाया। उनमें से एक पहले मजदूर खोजने आया वही मूंछों वाला तगड़ा आदमी था, जबकि दो अपरिचित थे। दोनों अपरिचितों में एक अधेड़ था और दूसरा तेईस-चौबीस का सुंदर-सा नौजवान। मेरे बाबा, मिसिर बाबा को प्रणाम कर जमीन पर बैठने ही वाले थे कि उन्होंने मना करते हुए उनसे खाट पर बैठने को कहा। बाबा थोड़े झिझकते हुए बोले, "नहीं बाबा, हम यहीं ठीक हैं।" लेकिन मिसिर बाबा के साथ उन दो उम्रदार आगंतुकों ने आग्रहपूर्वक उन्हें खाट पर बिठा दिया। मिसिर बाबा ने बातचीत शुरू करते हुए कहा, "हाँ, तो जतरू भाई, तुम्हारी बेटी बड़ी हो गई है, इसका ध्यान तुमको है कि नहीं? शादी-वादी नहीं करोगे का?" बड़े लाचारी के स्वर में बाबा ने जवाब दिया, "कोन नहीं चाहेगा बाबा कि उसका बेटी का सादी होवे। मगर आप तो हमरा हालत जानते हैं। सादी का खर्चा कहाँ से जोगाड़ करेंगे, एहे चिंता में डूबल रहते हैं। आप ही बताइए, हमरा बेटी से सुखले-सुखल कोन सादी करेगा? अगर कोई करना चाहबो करेगा तो हम करेंगे कइसे? आउर कोनो नहिंयो तो बेटी का लूगा-झुला, चूरी-लठी, आयनाकंघी, सिंदुर-काजर तो चाहिए कि नहीं? आउर कचिम-मधिम गोतियो-नैयो को तो खियाना पड़ेगा।" कुछ पल रुककर बाबा ने मिसिर बाबा से पूछा, “ई सब में कतना खर्चा लगेगा बाबा?" मिसिर बाबा कुछ विचारने की मुद्रा बनाते हुए बोले, "नहीं भी तो चौदह-पंद्रह हजार तो लगिए जाएगा।"

"बाप रे...चौदह-पंद्रह हजा...र! तब तो बाबा, आप ही कोई उपाय बताइए? हमको तो कोनो सूझबे नहीं करता है।"

बाबा ने सर झुका लिया। उनकी आँखें डबाडबा आई। इधर बाबा का सिर झुका हुआ था और उधर उन लोगों के होंठों पर हलकी मुसकान खिल रही थी। शायद दुनिया का यही दस्तूर है कि लाचार आदमी को देखकर हर कोई हँसता है। उसके सामनेवाला लाचार नहीं होगा तो वह स्वयं लाचारी महसूस करेगा। वे पूरी तरह समझ गए थे कि बेबस मानुष कुछ भी कर सकता है, कहने से कुएँ में भी कूद सकता है अथवा किसी ऊँचे पेड़ पर चढ़कर छलाँग लगा सकता है और खासकर तब, जब कोई उसकी जवान बेटी का उद्धार करने को तैयार हो जाए, उसे जीवन साथी के रूप में स्वीकारने को तत्पर हो जाए और सारे खर्चे का भार भी स्वयं वहन कर ले।

सज्जन से लगनेवाले उस अधेड़ आदमी की ओर इशारा करते हुए मिसिर बाबा बोले, "ये तुम्हारी बेटी को बहू बनाना चाहते हैं।" फिर उन्होंने उस युवक की ओर इंगित करते हुए कहा, "ये इनका बेटा है, इसी की शादी करनी है।" मेरे बाबा की आँखों में जुगनू की तरह हलकी सी चमक आई और तुरंत बुझ गई। शायद उनके भीतर यही सवाल उमड़ रहा था कि इसके लिए खर्च कहाँ से आएगा?

इस बार मूंछोंवाले व्यक्ति ने कहा, "इन्होंने मुझसे पिछले दिनों कहा था कि भाई, आप तो सब जगह घूमते रहते हैं, कोई लड़की नजर में हो तो बताइगा। उस दिन जब मैंने आपकी बेटी को देखा था तो तत्काल मेरे दिमाग में आया कि इससे बढ़िया बहू और नहीं मिल सकती...आपको चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है...आपको एक पैसा भी खर्च करना नहीं पड़ेगा...उलटे ये लोग आपको रुपए देंगे। अब आप बताइए कि कितना रुपया लीजिएगा?"

"देखिए, हमरा बेटी का सादी हो जाएगा, इकर से बड़का बात आउर का होगा?"

इस पर तथाकथित दूल्हे के पिता ने कहा, "अरे ऐसा कैसे होगा? आखिर आपने इसे जन्म दिया है, पाला-पोसा है तो आपका हक बनता है। हम ऐसे थोड़े ले जाएँगे! उचित दाम देकर ले जाएँगे।"

"दाम देकर!" मेरे बाबा ने विस्मय से उनको देखा। वे थोड़े सकपका गए थे, मानो असावधानीवश गलत बात मुँह से निकल गई थी। मूंछोंवाले ने बात सँभाली, "इनका मतलब लालन-पालन में हुए खर्चे से है।"

मेरे बाबा स्वीकृति देने के पहले सबकुछ साफ कर लेना चाहते थे। उन्होंने जानना चाहा, "आप लोग कौन गाँव से आए हैं?"

"गाँव नहीं बाबा, हम लोग शहर में रहते हैं, आपकी बेटी शहर में रहेगी, सुख से रहेगी।"

"ओ...सहर से। अच्छा, कतना दूर होगा आप सब का देस?" बाबा ने भोला सा प्रश्न किया। यह भोलापन संभवतः उनकी समझ में नहीं आया। वे हैरत से मिसिर बाबा की ओर प्रश्नात्मक नजरों से देखने लगे, जैसे पूछ रहे हों कि इस सवाल का मतलब क्या है? मिसिर बाबा ने मेरे बाबा से कहा, "तुम नहीं जानोगे जतरू भाई! इनका देस यहाँ से बहुत दूर है।"

"हाँ-हाँ, बहुत दूर है, वहाँ जाने के लिए रेलगाड़ी पकड़ना पड़ता। रेलगाड़ी से उतरकर पानी जहाज में चढ़ना पड़ता है। तब तीन महीने में अपना देस पहुँचते हैं।" लड़के के पिता ने जवाब दिया।

"बाप रे बाप! रेलगाड़ी और पानी जहाज से जाने पर भी तीन महीने! ई दुनिया कतना बड़का है रे बाप!" मेरे बाबा सोचने पर मजबूर हुए। उनकी सोच में फाँस की तरह एक शंका आ अटकी-इतनी दूर से लड़की खोजने आए हैं ये लोग? क्या इनके देस में लड़कियाँ नहीं मिलती? फिर अपने सवाल का जवाब जैसे खुद ही दे दिया ऐसा कैसे हो सकता है। जब औरत-मरद दोनों होते हैं तो लड़कियाँ काहे नहीं होंगी? किंतु उनकी बातों से बाबा की आँखें आश्चर्य से फैल गई—"यह सच है भाई। हमारे देस में लड़कियाँ पैदा ही नहीं होती हैं इसका कारण आज तक किसी की समझ में नहीं आया, इसीलिए अपने बेटों की शादियाँ हमें दूर प्रदेशों से लड़कियाँ लाकर करनी पड़ती हैं।"

बाबा बड़े मुदित मन से घर आए, आते ही उन्होंने टहकार आवाज में माँ को पुकारा, "ए मइयाँ माय! अरे, जल्दी से आव ने हिने।"

"का बात है? काहे मुँह फाड़ रहे हैं?" माँ ने घर से निकलते हुए पूछा। बाबा ने माँ से सारी बातें विस्तार से कह सुनाई। वह शाम हमारे लिए बेहद खुशी की शाम हो गई। दरवाजे की ओट से माँ-बाबा की बात सुन मैं खुशी से फूले नहीं समा रही थी। मेरे भाई-बहन आकर मुझसे कहने लगे, "दीदी-दीदी, दीदी-दीदी, जानती है, तुम्हारी सादी होगी!" मैं थोड़ी शरमा गई थी। माँ यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्न हुई थी कि लड़केवाले उन्हें दस हजार रुपए देंगे। परंतु बेटी की शादी अपनी आँखों से न देख पाने की सोचकर उनकी आँखों में पीड़ा छलक आई। वे थोड़ी आशंकित भी हुई कि उतनी दूर दूसरे देस में ले जाकर शादी करेंगे या नहीं, कौन जानता है? "कहीं ऐसा न हो कि...।" माँ पूरी बात बोल नहीं पाई।

आखिरकार माय-बाबा के इच्छानुसार मेरी शादी अपने ही आँगन में उस युवक के साथ सारे गाँववालों एवं मिसिर बाबा की मौजूदगी में पूरे नेग-नियम के साथ हो गई और मैं चल पड़ी उस अज्ञात मार्ग पर, जिसका पता नहीं था कि वह कहाँ ले जाएगा! अंतरमन में एक अनजाना भय था, तो दूसरी ओर अपने माय-बाबा एवं संगी-साथियों से बिछड़ने का मलाल। फिर उसी
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उनकी?" मैंने नजरें झुकाए-झुकाए ही "हाँ" सूचक सिर हिला दिया। किंतु आँखों के बाँध में उफनते जल-तरंगों को रोक न पाई। वे छलककर बाहर आ गई। शायद उसके अपनेपन के स्वर ने मुझे और भावुक बना दिया था। थोड़ा नजदीक खिसक आकर उसने बड़े प्यार से मेरी ठुड्डी को थोड़ा ऊपर उठा मेरे आँसू पोंछते हुए कहा, "चिंता मत करो, अभी तो हम लोग आए ही हैं। कुछ दिन बाद हम लोग माता-पिता के पास जरूर जाएँगे।" फिर आहिस्ते से मुझे अपनी ओर खींचा। मैं एक भोली बच्ची की तरह उसकी छाती में दुबक गई। अगले ही क्षण उसके दोनों हाथ मेरी पीठ पर फिसलने लगे थे। पहली बार किसी मर्द-हाथ के स्पर्श से मेरे शरीर का रोआँ-रोआँ सिहर उठा। मैं छुई-मुई हो गई। मैं जैसे कुछ समझ-बूझ पाने की स्थिति में नहीं थी। जब वह धीरे-धीरे मेरे कपड़े उतारने का उपक्रम करने लगा तो अचानक मानो नींद से जागी। आगे होनेवाली घटना की कल्पना कर भयभीत हो गई। उसके सीने से झटके से अलग होकर दूसरी ओर नजर घुमा और सिर झुकाकर बुरी तरह हाँफने लगी।

उसने बड़ी सहजता से पूछा, "क्या हुआ?" मेरे मुँह से शब्द नहीं फूट रहे थे। उसने पुनः पूछा, "बताओ न, क्या हुआ?"

"हमको डर लगता है।" मैं बड़ी मुश्किल से बोल पाई। इस पर हँसते हुए उसने पूछा, "डर लगता है या लाज लगती है?"

मैं पुनः चुप हो गई। तत्क्षण समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दूँ! वास्तव में मुझे डर भी लग रहा था और लाज भी। यह निर्णय करना मेरे लिए कठिन था कि उन दोनों में किसकी ज्यादा और किसकी कम या दोनों की तीव्रता बराबर थी। हमारे गाँव की एक मुँहबोली भाभी के साथ मेरी शादी के करीब एक हफ्ता पहले यों ही चुहलबाजी हो रही थी। उसी दौरान मैंने यों ही जिज्ञासा प्रकट की थी, 'भौजी, आपको डर नहीं लगा था?" भाभी ने हँसते हुए जवाब दिया था, "अरे बाबा, डर! हमको तो बहुत डर लगता था, हम तो इस बात को सोचकर ज्यादा डरे हुए थे कि पता नइ कतना दरद होगा..."

"तो का दरद नइ हुआ था?" अति उत्सुकतावश मैंने उनकी बात पूरी होने के पूर्व पूछ लिया था। इस पर भाभी ने बताया था, "सच बात तो ई है भागो, कि दरद तो हुआ था, मगर ओतना नइ, जतना हम सोच रहे थे। फिर पाँच-छह दिन बीतते सबकुछ सामान्य हो गया। उकर बाद तो हमहें ई आसरा में रहते कि कब रात होगा।"

भाभी की बातों से मेरे भीतर गुदगुदी भर गई थी। अजीब सा रोमांच पूरी देह में दौड़ने लगा था। लेकिन लाज! लाज के बारे में न तो भाभी ने बताया था और न मैंने ही पूछा था। असल में मुझे इसके बारे में पूछने का ध्यान ही नहीं रहा था।

उस वक्त मैं अपने आदमी को कोई जवाब नहीं दे पाई कि मुझे डर लग रहा था या लाज। उसने मंजे हुए खिलाड़ी की तरह जल्दबाजी नहीं दिखाई। मुझे समझाने के लहजे में बोला, "देखो, डरने-घबराने की कोई बात नहीं है। शुरू में सभी लड़कियों को ऐसा ही लगता है, परंतु दो-चार दिनों में सब ठीक हो जाता हैं और मैं तो तुम्हारा पति हूँ। पति-पत्नी के बीच होनेवाली यह स्वाभाविक क्रिया है। यही एक क्रिया है, जिसमें पति-पत्नी दोनों को सुख मिलता है। जीवन को सरस बनाने के लिए पति-पत्नी के मध्य लाज-शरम जैसी कोई भी बात नहीं होती, न ही होनी चाहिए।"

और उस रात का अँधेरा मेरे जीवन का सबसे घना अँधेरा साबित हुआ। उस युवक द्वारा एक मासूम कुसुम-कली को पूरी निर्दयता के साथ मसल दिया गया था। प्यार से बातें करनेवाला वह आदमी उस वक्त एकदम पशु में बदल गया था। पशु क्या, मुझे तो लगता है, पशु भी अपने जोड़े के साथ ऐसी कठोरता से पेश नहीं आते होंगे। न चाहते हुए भी मुझे रूलाई छूट गई। तीन-चार दिनों बाद उस पीड़ा से उबर पाई। उसे शायद मुझ पर दया आ गई थी, इसलिए उसने दुबारा संबंध बनाने की कोशिश नहीं की; ऐसा मैंने सोचा था। वह मीठी-मीठी बातें करता, जिंदगी की कई गूढ़ बातें समझाने का प्रयास करता। संभवतः इसीलिए मुझे उस पीड़ा का एहसास जल्दी ही समाप्त हो गया। मन की पीड़ा खत्म होने पर तन का दर्द भी खत्म हो जाता है शायद। मैं प्रसन्न थी, सोचती थी कि मुझे प्यार करने, मेरे दुःख-सुख को समझनेवाला, मान रखनेवाला और दयालु पति मिल गया है। हालाँकि मेरे मन में रह-रहकर यह सवाल उठता रहता था कि क्या यही मेरी ससुराल है? क्या जिंदगी भर इसी सुनसान जगह में रहना पड़ेगा? मेरे आदमी के परिवार में ससुर के अलावा और कोई है या नहीं? वह व्यक्ति, जिसका परिचय मेरे ससुर के रूप में कराया गया था, दुबारा नजर नहीं आया। आखिर वह गया कहाँ? मेरे पति ने बाहर ताकझाँक न करने और बाहर न निकलने की हिदायत दे रखी थी। उसका कहना था कि पास-पड़ोस के लोग अच्छे नहीं हैं, इसलिए घर के अंदर ही रहना चाहिए। मैं अभी खुल नहीं पाई थी। सुदूर गाँव-देहात की भोली-भाली, लज्जालु, शंकालु और मासूम लड़की मैं चार-पाँच दिनों में कितना खुल पाती! फिर भी हिम्मत करके मैं उससे अपने मन में उठ रहे सवालों को पूछने का मन बना ही रही थी कि सातवें दिन उसने स्वयं ही बताया, "मुझे मालूम है, तुम्हारे मन में कई तरह के सवाल उठ रहे होंगे। यह हमारा घर यानी तुम्हारी ससुराल नहीं है। असल में हमारे यहाँ रिवाज है कि शादी के बाद लड़की को सीधे ससुरालवाले घर में नहीं ले जाया जाता है। इसी तरह उसे कहीं अन्यत्र रखा जाता है। जब अपने एवं आस-पास के गाँवों में बीस-तीस या इससे अधिक ऐसी लड़कियाँ हो जाती हैं, तब इनके सम्मान में एक मेले का आयोजन किया जाता है। इसके बाद वहीं से ससुरालवाले उन्हें अपने घर ले जाते हैं।" थोड़ी देर रुकने के बाद उसने पुनः कहा, "तुम्हारी चिंता और ऊहापोह की स्थिति अब समाप्त हो गई होगी। कल हम तुम्हें उस मेले में ले चलेंगे और वहाँ से अपने घर।" एक पैकेट से बिल्कुल नए और कीमती कपड़े निकालते हुए वह बोला, "ये सब तेरे लिए नए कपड़े हैं। कल सुबह जल्दी तैयार हो जाना, हमें मुँहअँधेरे यहाँ से निकल जाना होगा। निकलते समय किसी की नजर पड़ जाने पर अपशकुन होता है।"

मुझे अपने सवालों के जवाब मिल गए थे। वैसे उस अनोखी रीति को जानकर थोड़ा अचरज भी हुआ, लेकिन फिर मन को मना लिया कि जब चार कोस में बोली बदल जाती है तो इतनी दूर दूसरे देस में रीति-रिवाज अलग होना कोई खास बात नहीं है।

उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाई। वैसे तो उस अनजान जगह पर जब से आई थी, गहरी नींद कभी नहीं सो पाई थी। हर समय, रात-दिन, सुबह-शाम, हर पल कई तरह की आशंकाओं के घने बादलों के बीच घिरी रहती थी। लेकिन उस रात तो नींद एकदम से उचट गई थी। ससुराल पहुँचने का उत्साह अंदर-ही-अंदर उछाह मारने लगा था।

मेले में गजब की भीड़ थी। ऐसी भीड़ हमारे गाँव से एक कोस दूर अगहन पूर्णिमा के दिन लगनेवाले जतरा में ही होती थी। लेकिन हमारे गाँव के मेले जैसा इस मेले में नाच-गाना कहीं नजर नहीं आ रहा था। छोटे-मोटे मानवचालित झूले जरूर दिखाई पड़ रहे थे। गुब्बारे, खिलौने, तमाशे, तरह-तरह के सामानों की दुकानें भी सजी हुई थीं। एक तरफ पंक्तिबद्ध कई कतारों में बेंचें लगी हुई थीं। मुझे एक बेंच पर बैठने को कहा गया। तमाम बेंचों पर वैसे ही कतारों में लड़कियाँ बैठी हुई थीं। संभवतः उनमें से कुछ औरतें भी थीं। सब के सब अच्छे वस्त्रों में सजीधजी। वे सभी मेरी ही जैसी नवविवाहिता होंगी, मैंने सोचा था। वे सब मेरी ही जैसी डरी-सहमी लग रही थीं। हमें देखनेवालों का जैसे रेला था। उनमें किशोर, युवा, बूढ़े सभी थे। दुलहनों को देखने के लिए लोगों का इकट्ठा होना मुझे ज्यादा अस्वाभाविक नहीं लगा। परंतु मैंने गौर किया कि उन देखनेवालों में एक भी स्त्री या लड़की नहीं थी। इस कारण मैं आश्चर्यचकित हो रही थी, यह कैसा रिवाज है कि नवविवाहितों के लिए मेला लगा हो और केवल पुरुष ही देखने आए हों! देखनेवालों और नवविवाहितों के परिजनों के बीच बातचीत भी होती थी, पर कुछ दूरी पर होने और धीमे स्वर में बतियाने के चलते मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। मेरे पति और ससुर मुझसे कुछ दूरी पर खड़े थे। कई लोग उनके सामने आते, मेरी ओर अजीब निगाहों से देखते, फिर मेरे पति-ससुर से बात करने लगते। न जाने क्या बातें होती और कुछ देर बाद वे आगे बढ़ जाते। मैं कुछ भी समझ पाने में असमर्थ थी। लोगों का घूरना, रहस्यमय ढंग से फुसुर-फुसुर बातें करना मुझे अटपटा सा लग रहा था। बैठे-बैठे ऊबने भी लगी थी। मैं अपने पति से पूछना चाहती थी कि आखिर यह क्या रिवाज है, इसका क्या महत्त्व है और हमें कब तक यहाँ बैठे रहना होगा? लेकिन मेरा पति मेरे सामने एक बार भी नहीं आया। वह दूर ही खड़ा लोगों से बातें करता रहा। बीच-बीच में मेरी ओर चुपके से एक नजर देख लेता था।

अभी इसी तरह की ऊहापोह के सरोवर में ऊब-डूब हो रही थी कि मेरी बगल में एक और लड़की को दो लोगों ने लाकर बैठा दिया और मेरे ससुर के पास जाकर बात करने लगे। मैंने कनखी नजर से उस लड़की की ओर देखा। एकदम से चौंककर उछल पड़ी। आँखें आश्चर्य से फैल गई। मेरे मुँह से बिल्कुल अपने गाँववाली चुलबुली आवाज में निकला, "एई मैनी! तुम! हियाँ! कइसे आई री? तुम तो कारखाना में काम करने गई थी? और बाकी लोग कहाँ हैं?" मैनी का चेहरा भी अचानक फूल की तरह खिल उठा। सारे संकोच भुलाकर हम आपस में लिपट गई। अभी मैनी मुझसे कुछ कहती, कुछ जवाब देती, कुछ पूछती, उसके पहले वे चारों लोग भागे आए और हम दोनों को अलग कर दिया, जैसे दो लड़ते हुए मुरगों को हटाया जाता है। फिर जिन दोनों व्यक्तियों ने मैनी को मेरी बगल में बिठाया था, उसे कहीं दूसरी ओर ले गए। यह सब इतनी तेजी से घटा कि वह न मुझसे कुछ बोल सकी और न मैं कुछ कह पाई। मैंने उसे आवाज देना चाहा, पर मेरे पति ने मुझे डपट दिया, "चुप! एकदम चुप! किसी से कुछ मत बोलना। इस मेले में लड़कियों का आपस में बात करना अपशकुन माना जाता है।"

मैं भौंचक्क होकर अपने मरद को देख रही थी। बाप रे बाप! ये कैसी दुनिया है दइया! मुझे सबकुछ अबूझ सा लग रहा था। कहीं मैं दूसरी दुनिया में तो नहीं पहुँच गई! क्या इस दुनिया से अपनी दुनिया में, अपने माँ-बाप की दुनिया में कभी लौट पाऊँगी? यह खयाल आते ही मेरे माँबाबा, गाँव-घर, गरू-काड़ा, मुरगी-चेंगना, वन-झार, पल्हा-पतरा सब मेरी आँखों के सामने घूमने लगे। सभी के चेहरे मायूस लग रहे थे, आँखों की चमक खोई सी लग रही थी, होंठ लटके हुए लग रहे थे। ऐसे लग रहे थे मानो अभी रो पड़ेंगे। चरकी गइया ने तो मुझसे बिछड़ने के दुःख से दुखित होकर खाना-पीना तक छोड़ दिया है। उसकी आँखों से निरंतर अश्रुधारा बहती रहती है। माँ भी भीतर-ही-भीतर मेरी याद में रो रही है। बाबा चुपचाप कहीं भी बैठे रहते हैं। मेरी छोटी बहन अकसर माँ से पूछती है कि दीदी कब आएगी? और मांय कोई जवाब नहीं दे पाती। बस, धीरे से अपने सीने से लगा लेती है। ये सब देखकर मैं भी अपने आँसू नहीं रोक पा रही हूँ। आँखों से झरकर गालों से होते हुए वे छाती तक आने लगे हैं।

मेरे मरद ने पुनः फटकारा, "ऐसे मत रोया करो। इस तरह रोना अपशकुन माना जाता है।" मुझे लगा, चिल्ला उहुँ, चीख-चीखकर पूछू कि यह कैसा देस है? किस दुनिया में तुम मुझे ले आए हो, जहाँ सबकुछ अपशकुन ही अपशकुन होता है? आखिर यहाँ कुछ भी शुभ होता है या नहीं? पर मैं जानती थी कि वहाँ चीखने-चिल्लाने का कोई मतलब नहीं था। जहाँ बोलनेबतियाने, रोने-बिलखने तक को अपशकुन माना जाता हो, वहाँ चीखने-चिल्लाने को कहीं पाप न माना जाता हो! ऐसे में मेरे प्रश्नों के उत्तर मिलना तो दूर, उल्टे डाँट भी मिलेगी, या फिर क्या पता, पिटाई ही कर दें!

मैं बेंच पर दोनों पाँव चढ़ाकर घुटनों के बीच सिर छिपाए अंदर-ही-अंदर अपनी किस्मत पर कलप रही थी, अपने भाग्य को कोस रही थी कि मेरा मरद सामने आकर बोला, "सुनो, घर चलने का समय हो गया है।" फिर उसने एक अधेड़ उम्र के आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, "ये मेरे बड़े भैया हैं। हमारे यहाँ की रीति के अनुसार इस मेले से बहू को लड़के का बड़ा भाई ही ले जाता है। तुम इनके साथ चले जाओ...।" उसने बहुत ही धीमे स्वर में कहा।।

"और आप?" मेरे मुँह से अनायास ही निकला। वह थोड़ा हकलाया और फिर किंचित् मुसकराकर बोला, “घबराओ नहीं, मैं भी पीछे से आऊँगा; साथ चलने का रिवाज नहीं है, अपशकुन माना जाता है।" मैं बँधी हुई गाय की तरह खामोश होकर उस व्यक्ति के पीछे एक और अनजान रास्ते पर चल पड़ी।

करीब दो घंटे पैदल चलकर एक गाँव में पहुँची। इस बीच मैं कितनी ही बार पलटपलटकर अपने मरद को देख चुकी थी, पर उसका कहीं अता-पता नहीं था। वह नया घर पक्का था और साफ-सुथरा भी। लेकिन वहाँ भी मानो वीरानी छाई हुई थी। मेरा स्वागत करनेवाला कोई नहीं था। मैं पसीने से लथ-पथ हो गई थी। शाम घिर चुकी थी और अँधियारा अपना साम्राज्य फैलाने लगा था, लेकिन वातावरण में अभी भी गरमी की उमस थी। वह अधेड़ भररास्ता मुझसे एक शब्द भी नहीं बोला। उसके द्वारा दरवाजा खटखटाने पर एक नौजवान ने दरवाजा खोला। मुझ पर नजर पड़ते ही वह उलटे पाँव भीतर की ओर भागा। मैं कुछ समझती, उसके पहले उसके साथ और दो आदमी दौड़कर सामने आ गए। अब तक मैं उस अधेड़ के इशारे पर उसी जगह पड़ी एक खाट पर सकुचाते हुए बैठ चुकी थी। पहली बार उस अधेड़ ने मुँह खोला, "ये लोग मेरे छोटे भाई हैं।" उसने उन तीनों की ओर संकेत किया। वे तीनों मुसकुराकर रह गए। मेरे मरद ने अपने भाइयों के बारे में कुछ नहीं बताया और न ही मैंने पूछा था। मैंने चोर निगाहों से इधर-उधर देखा। कहीं कोई स्त्री या लड़की दिखाई नहीं दी। मैं भयभीत हो उठी। क्या पाँच मरदों के घर में मुझे अकेले रहना होगा? किंतु मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था।

उसके तीनों भाई दूसरे कमरे में जाकर खुसर-पुसर करने लगे थे। मेरे मरद के न आने से मेरी विकलता बढ़ती जा रही थी। मैंने हिम्मत जुटाकर पूछ लिया, "ऊ कब आएँगे?"

“कौन? अच्छा, वो। अभी थोड़ी देर में आ जाएगा। जाओ, तुम पहले नहा लो।" उसने सपाट सा जवाब दिया। नहा-धो लेने के बाद मुझे एक कमरे के कोने में कुलदेवी को प्रणाम कराया गया। उस आदमी के साथ-साथ उसके भाइयों ने भी कुलदेवी को प्रणाम किया। उसके बाद मुझे एक कमरे में आराम करने को कह चारों दूसरे कमरे में चले गए।

जैसे-जैसे रात गहराने लगी, मेरी विकलता बढ़ती जाने लगी। मेरे पति का अभी तक कहीं कोई पता नहीं था। ...और वह पल आ गया, जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। वह आदमी रात को मेरे कमरे में आया और अंदर से दरवाजा बंद कर दिया। मैं बुरी तरह घबरा उठी। मैंने भयभीत होकर पूछा, "दरवाजा काहे बंद कर रहे हैं? ऊ आए कि नहीं?" और उसने जो बताया, उस पर विश्वास कर पाना लगभग असंभव था, पर सच्चाई यही थी। वास्तव में जिसके साथ मेरा विवाह हुआ था, जिसे अपना पति समझती थी, जिसके साथ जीवन गुजारने के लिए इतनी दूर दूसरे देस में आई थी, वह सब धोखा था। उस युवक से विवाह धोखा था, उसका मेरा पति होना धोखा था, उसके तथाकथित पिता का मेरा ससुर होना धोखा था, नवविवाहितों के सम्मान में लगनेवाला मेला धोखा था और उस धोखे की दुनिया में मैं ऐसी फँस चुकी थी, जहाँ से निकल पाना मेरे वश में नहीं था।

आप समझ सकते हैं कि मेरी क्या हालत हुई होगी! उस आदमी ने जो शब्द कहे, शब्द नहीं थे, ऐसे जहर बुझे तीर थे, जिन्होंने सीधे मेरी छाती में फँसकर मेरे हृदय को विदीर्ण कर दिया था।

“मैं सही कह रहा हूँ, मैं ही तुम्हारा पति हूँ।"

मैं बुका फाड़कर रो पड़ी। उसकी बातों पर अब भी विश्वास नहीं कर पा रही थी। किस पर विश्वास करती? कैसे निर्णय करती कि जिसके साथ मेरी शादी हुई थी। वह सच था, उसका पिता बोल रहा था, वह सही था या अब जो यह आदमी बोल रहा था, वह सच था? मैं इस कदर विक्षिप्त सी हो गई, सुध-बुध खो बैठी कि भगवान् से विनती कर पाने की स्थिति में भी नहीं थी कि वे मेरे सिर पर आसमान गिरा दें या धरती ही फाड़ दें और उसमें समा जाऊँ।

मेरी दशा पर उसे जरा भी दया नहीं आई। उसने न मेरे मन को देखा और न दिल का ध्यान किया। मेरी उसी लाचार, कारुणिक एवं दयनीय दशा में उसने बलात् मेरी देह को रौंद डाला; एक नहीं, कई बार मेरी हड्डियों को तोड़ डाला। मैं जितना चीख सकती थी, चीखी, चिल्लाई; लेकिन मेरी चीख-पुकार को किसी ने नहीं सुना। यहाँ तक कि उस घर की दीवारों, ईटों, दरवाजों, खिड़कियों ने भी अपने कान बंद कर लिये।

दूसरी रात तो और भी भयानक थी, और भी काली, जिसने मेरी जिंदगी को ही कालिख बनाकर रख दिया। उस रात दूसरा भाई आया और उसने भी अपने को मेरा पति बताया। मैं तो अपना सारा बुद्धि-विवेक खो बैठी थी। कुछ सोच-समझ पाने की स्थिति में नहीं थी। पिंजरे में बंद उस परिंदे की क्या हालत हो सकती है, जिसके सामने जो भी आता है, कहता है कि वही असली शिकारी है। उसे ही मेरा शिकार करने का अधिकार है। फिर वह उसके पंखों को निर्दयतापूर्वक नोंचता है, डैनों को क्रूरतापूर्वक तोड़ता-मरोड़ता है और अधमरा करके तड़पता हुआ छोड़ जाता है। इससे अच्छा तो यही न होता कि एक बार मेरी जान ही ले ली जाती!

मैंने उस दूसरे भाई से हाथ जोड़कर कहा, "कृपया, आप मुझ पर इतनी दया कीजिए कि मेरी जान ले लीजिए, मेरे प्राण हर लीजिए, अब मैं बिल्कुल जीना नहीं चाहती।"

उसने थोड़ी नरमी से कहा, "देखो, मैं तुम्हारी मनोदशा समझ सकता हूँ। तुमको जिस तरह यहाँ लाया गया, वह गलत है। किंतु क्या करें, हमारी भी मजबूरी है, यहाँ तुमको कोई तकलीफ नहीं होगी...।"

अब उस मरद जात को कैसे समझाती कि मुझे जो तकलीफ उठानी पड़ रही थी, एक स्त्री के लिए उससे बड़ी तकलीफ हो ही नहीं सकती।

फिर एक-एक कर चारों ने मेरी देह को रौंदना शुरू किया यानी मैं चार-चार मरदों की पत्नी एक साथ थी। सोचकर ही उबकाई आती थी।

पहली रात मेरे पूछने पर मझले ने बताया था, "इसमें बुराई कुछ भी नहीं है। बताया न, कि हमारे इलाके की परंपरा है। मेरी माँ ने भी यही किया था। सभी औरतें ऐसा ही करती हैं।"

हे भगवान्! ये कैसी परंपरा है! परंपरा है कि किसी का अभिशाप, कि लोग यहाँ कुत्तेकुत्तियों की तरह व्यवहार करते हैं! इन्हें शर्म भी नहीं आती! किस मिट्टी के बने हुए हैं यहाँ के मरद? हमारे गाँव में ऐसा होने पर सभी भाई आपस में लड़-कटकर मर जाते। क्या यहाँ के मरदों को अपनी पत्नियों की इज्जत का जरा भी खयाल नहीं होता कि अपने भाइयों को भी सौंप देते हैं? कितने निर्दय होते हैं ये मरद!

कुछ पल सोचने के पश्चात् मैंने पूछा, "ये कैसी परंपरा है? आप लोगों को एक ही स्त्री को बारी-बारी से अपनी वासना का शिकार बनाने में शर्म नहीं आती? सभी मरद अपनी-अपनी शादी क्यों नहीं कर लेते? क्या सबको शादी न करने की भी कोई परंपरा है या ऐसा करना भी अपशकुन होता है?"

'मैंने बताया न, कि हमारे गाँवों में लड़कियाँ नहीं मिलती हैं। ऐसे में सभी पुरुषों के लिए दूसरे राज्यों से लड़कियाँ लाना निहायत ही कठिन काम है और दूसरी बात है कि इसमें घर टूटने का भी डर रहता है।"

"घर टूटने का डर रहता है, मतलब?"

"मतलब, एक घर में एक ही औरत रहने से भाइयों के बीच एकता बनी रहती है। आपसी मतभेद नहीं होने से भाइयों में प्यार बना रहता है तो घर में फूट भी नहीं होती।"

मैं एक ऐसी जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त थी, जिसके बारे में सपने में भी नहीं सोचा था। वहाँ से भाग भी नहीं सकती थी, भागकर कहाँ जाती? मुझे तो यह भी पता नहीं था कि मैं दुनिया के किस हिस्से में हूँ!

परिस्थितियों से कोई कब तक और कहाँ तक भाग सकता है या बच सकता है? कुदरत ने प्राणियों को परिस्थितियों के अनुकूल स्वयं को बनाने यानी उनके साथ सामंजस्य स्थापित करने की अद्भुत क्षमता प्रदान की है। ऐसा न होता तो शायद जिंदगी और अधिक कठिन होती। संभवतः भगवान् को मानवों के जीवन में जटिल से जटिलतर परिस्थितियाँ आने का पूर्व ज्ञान था। इसीलिए उन्होंने उनमें ऐसे गुण भर दिए ताकि परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल सकें। वैसे यदि भगवान् का साक्षात्कार हो जाता तो मैं यह प्रश्न जरूर करती कि जब वे सर्वज्ञाता हैं, सर्वशक्तिमान हैं, सभी जड़-चेतन के नियामक, संचालक एवं पालक हैं, तो फिर उन्होंने मनुष्य के जीवन में इतनी जटिलताएँ क्यों भर दी हैं? अनुकूल के साथ प्रतिकूल परिस्थितियाँ बनाने की क्या जरूरत थी?

बहरहाल, मैं मान चुकी थी कि कम-से-कम इस जीवन में तो इस नरक से मुक्ति मिलनेवाली नहीं है। अतः धीरे-धीरे उस विषम परिस्थिति के साथ तालमेल बैठाने का प्रयत्न करने लगी। फिर वह दिन भी आया, जो किसी भी स्त्री के जीवन का अहम् बिंदु होता है। उसी से उसके जीवन की सार्थकता समझी जाती है; उसके स्त्री होने का सबूत माना जाता है। उस अदृष्ट नन्ही जान की साँसों के साथ अपनी साँसें मिलाने लगी थी, उसकी हरकतों को महसूस कर खुश होने लगी थी। इस अनुभूति से अपनी पीड़ा की मारकता धीरे-धीरे भूलने लगी थी। चारों, जो सभी मेरे पति होने का दावा करते थे और वैसा ही व्यवहार करते थे, मेरा अतिरिक्त खयाल रखने लगे थे। मझला तो कुछ ज्यादा ही परवाह करता था। यही कारण था कि मैं भी उससे वे सारी बातें खुलकर कह पाती थी, जो औरों से नहीं कह पाती।

लेकिन इस सुख की अनुभूति की पूर्णाहुति ऐसी भयानक और हृदयविदारक हुई, जो मेरी कल्पना से परे थी। मेरे द्वारा उसे जन्म देने के तुरंत बाद दाई मुँह लटकाकर बाहर निकल गई। मैं तो प्रथम बार अनुभूत उस प्रसव पीड़ा से अर्धचेतन-सी हो गई थी। उसी अवस्था में अस्पष्ट सी आवाज मेरे कानों में आई, "क्या हुआ काकी?"

"अपशकुन।"

उसके आगे मैं कुछ सुन न सकी। कुछ देर बाद वह दाई अंदर आई और उस नवजात बच्ची को नहलाने के बहाने ले गई। वह बच्ची फिर कभी वापस नहीं आई। मैं बहुत रोई, चीखपुकार मचाई, मेरे बच्चे को वापस ला देने के लिए गिड़गिड़ाई, परंतु कोई फायदा नहीं। मुझे बताया गया कि वह बच्ची मृत पैदा हुई थी।

मुझे उनकी बातों पर जरा भी विश्वास नहीं हो रहा था। अर्धचेतनावस्था में ही मैंने उस बच्ची के रोने की आवाज सुनी थी। फिर मृत पैदा होने की बात पर कैसे विश्वास करती? लेकिन उन चारों भाइयों के समवेत स्वर के समक्ष मेरी आवाज दब गई।

मेरी आवाज अवश्य दबा दी गई थी, पर उसकी तपिश बाकी थी। हर पल मेरे जेहन में यह सवाल उठता रहता था कि क्या सचमुच मैंने मृत बच्चे को जन्म दिया था? अगर यह सच भी
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खातिर बच्चियों को मार दिया जाता है। विचित्र बात है कि यहाँ के मर्द, लड़कियों की तलाश में दूसरे प्रदेशों के दूर-दराज गाँवों में नजर गड़ाए रहते हैं। जहाँ से दलाल उन्हें विभिन्न तरह के प्रलोभन देकर लाते हैं और ये मर्द उन लड़कियों को उन दलालों से खरीद लेते हैं, मानो वे मानव नहीं, जानवर हों! इसका मतलब इन मर्दो को घर सँभालने के लिए, खानदान बढ़ाने के लिए और देह की अग्नि शांत करने के लिए औरत तो चाहिए, पर अपने यहाँ उन्हें पलने-बढ़ने नहीं देते।

बारिश झमा-झम अनवरत बरस रही थी। और इधर दाई चाची की बात जारी थी। उन्होंने बताया, "बेटी के जन्म लेते ही तुरंत उसकी हत्या करके चुपचाप दफना दिया जाता है और लोगों से बोल दिया जाता है कि बालक पैदा हुआ था, पर मरा हुआ। गाँववाले समझ जाते हैं कि लड़की जनमी होगी, लेकिन घोषित रूप से कोई ऐसा नहीं कहता। कहा जाता है कि एक बार पता नहीं कैसे, किसी दाई की गलती की वजह से बात फैल गई कि लड़का हुआ है। जब पासपड़ोस के लोग जमा हुए तो पता चला कि वह लड़की है। उस बच्ची के पिता की इतनी थू-थू हुई कि उसने आत्महत्या कर ली। गलत सूचना के कारण लोगों ने उस दाई की भी हत्या कर दी।"

कुछ रुककर दाई चाची बोली, "मुझे शुरू में ही सख्त हिदायत दी गई थी कि किसी के घर बच्चा पैदा हो तो सबसे पहले उस घर के मर्दो को सूचित करूँ। मैं क्या करूँ, असल में तो मैं ही उन तमाम बच्चियों की हत्यारिन हूँ, क्योंकि मैं ही सूचित करती हूँ कि बच्ची ने जन्म लिया है, या अपशकुन हुआ है।" दाई चाची की आँखें भर आई-"जब इतनी बातें बता दीं तो यह भी बतला दूँ कि तुम्हारी चारों बच्चियाँ भी जीवित ही पैदा हुई थीं जिन्हें उन जल्लादों ने...।"

मेरे दिल में हाहाकार उठ रहा था, लेकिन काठ करके उनकी बातें सुने जा रही थी। उन्होंने बताया कि वे भी उन्हीं रास्तों से गुजरी हैं, जिस पर से मैं गुजर रही थी। यह जानकर थोड़ा विस्मय भी हुआ कि दाई चाची को भी मेरी ही तरह बिहार के जमुई जिले के किसी गाँव से लाया गया था। वे भी घर के सभी मर्दो द्वारा रौंदी गई थीं।

चाची ने आँसू पोंछे और एक बार मुझे पुनः हिदायत दी कि हम दोनों के बीच हुए वार्तालाप का पता किसी को चलने न पाए, वरना जलजले को आने से कोई रोक नहीं सकता।

बारिश थम चुकी थी, प्रकृति खिली-खिली नजर आ रही थी, आसमान स्वच्छ लग रहा था। लेकिन मेरे भीतर अब भी बादलों की उमड़-घुमड़ जारी थी। मेरे दिमाग में यह विचार अनायास कौंधने लगा था कि मैं भेद खोलूँ या नहीं, पर इस जलजले को एक दिन आना ही आना है। मेरा वश चलता तो उसी वक्त उस जलजले को बुला लाती।

भगजोगनी की व्यथा-कथा सुनकर डॉक्टर मेघा दुःखी हो गई। उन्होंने पूछा, “अच्छा, मान लो, तुम्हारे गर्भ में पल रहा शिशु भी लड़की हुआ तो तुम इसे कैसे बचा पाओगी?"

"यह तो पता नहीं मैडमजी, मगर हम इसको बचाना चाहते हैं। मर्दो के क्रूर हाथों इसको मरने नहीं देंगे और नइ तो राते में कहों भाग जाएँगे। सहर में जाकर भीख माँगेंगे, फुटपाथ पर सो लेंगे, पर इसको मरने नइ देंगे।" भगजोगनी ने निश्चयात्मक स्वर में कहा।

भगजोगनी शहर में डॉक्टर साहिबा की सहेली के घर खुश थी। वह सहेली और उसका पति दोनों डॉक्टर थे और इस कारण उन्हें एक काम करनेवाली की जरूरत थी। भगजोगनी की बेटी अब करीब सात साल की हो गई थी और स्कूल में पढ़ने लगी थी। इस दौरान भगजोगनी के मरदों ने उसे खोजने की बहुत कोशिश की, पर कुछ पता नहीं लग पाया।

एक दिन डॉक्टर मेघा ने कुशल-क्षेम जानने के बाद भगजोगनी से पूछा, “भागो, तुम्हें अपने देस, अपने माँ-बाबा के पास जाने का मन नहीं करता है?"

भगजोगनी ने मान लिया था कि इस जन्म में तो कम-से-कम वह अपने माँ-बाबा से अब
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साभार : वंदना टेटे