अदीठ (कहानी) : विजयदान देथा 'बिज्‍जी'

Adeeth (Hindi Story) : Vijaydan Detha 'Bijji'

किसी को एहसास हो, चाहे न हो; आँख और कान के परे सच्चाई तो अपना खेल खेलती ही है । जानते हुए भी किस मुश्किल से विश्वास होता है कि सूरज के तप-तेज की ओट में रात दुबकी रहती है और रात की काली यवनिका के पीछे सूरज !

प्रीत के प्रत्यक्ष आख्यान तो बहुतेरे लिखे गये न कोई सीमा, न कोई अन्त, मगर अजाने अदीठ प्रेम की वार्ता तो संयोग से मेरे ही हाथ लगी। बातपोशी के सिरमौर सुदर्शन ने मोद-उछाह से दूसरी बातें तो मुझे काफी लिखाईं, पर बार-बार उकसाने के बावजूद भी उसने कभी जाने-अनजाने यह अपना गोपनीय संस्मरण नहीं सुनाया। टालमटोल के बहाने टरका देता । आसानी से पकड़ में आने वाला वह बन्दा नहीं। पुख्ता तौर पर जानता हूँ कि यह किस्सा बाँचने पर वह मुझसे काफी नाराज होगा, पर लेखक की कलम किसी का भी लिहाज - संकोच नहीं रखती, इस मर्म को भी वह मुझसे ज्यादा जानता है । कुछ दिन तक रूठा रहे, तो रहे ।

तो क्या तिलवाली नर्स के द्वारा मुझे इस भेद का पता लगा ?

बेर खाने से मतलब है या बोरटी से ?

बोरटी की पड़ताल छोड़िए; काँटे चुभेंगे। उजले निर्मल चित्त से यह कथा बाँचिए। मुझे लिखने से जितना आनन्द नहीं मिला, उतना आपको बाँचने से मिलेगा। इसमें कोई खामी हो तो मैं उलाहना मंजूर करने के लिए तैयार हूँ, निःशंक उलाहना दीजिए । अक्ल तो सुदर्शन में यों ही जरूरत से ज्यादा है, फिर भी अक्ल दाढ़ की कसक से राम जाने अक्ल बढ़ी या नहीं, मगर दर्द या पीड़ा में कोई कसर नहीं थी । अन्तस् की तमाम सुध-बुध दाढ़ के इर्द-गिर्द इकट्ठी हो गई। कभी सोता, कभी उठता और कभी विभिन्न पोथियों के पन्ने टटोलता, पर छटपटाते मन के लिए कोई भी उपाय कारगर साबित नहीं हुआ। जस-तस दाँत भींचकर सारी रात बहादुरी का इजहार करता रहा, मगर ढलते अँधेरे तक एकदम पस्त हो गया। यदि दाँत के बदले दूसरा कैसा भी दर्द होता तो कुछ भी परवाह नहीं करता, लेकिन दाढ़ की यह कसक तो कैसा भी शूरवीर बर्दाश्त नहीं कर सकता। फिर उसकी तो बिसात ही क्या, वह केवल बुद्धिजीवी है, अपने जमाने के चलन का बुद्धिजीवी । फिर भी आइन्स्टीन की सापेक्षता इस पीड़ा के माध्यम से इस बार जैसी समझ में आयी, वैसी बार-बार पढ़ने पर भी पल्ले नहीं पड़ी । ऐसा महसूस हुआ कि मानो आइन्स्टीन के रूप में उसने स्वयं इस सिद्धान्त की खोज की हो।

अगाढ़ ऊँघ के सहारे चुटकियों में ढलने वाली रात लम्बी-ही-लम्बी पसर गयी, जैसे ढलना बिसर गयी हो। रात के झिलमिल उजास में कई युग के युग उथल गये, पर कलमुँही रात का अन्त नहीं आया । वक्त के सीने में ऐसा सुदृढ़ खूँटा गाड़ने वाला यह गुरु कौन है ? प्रतिक्षण चुपचाप उड़ने वाला समय इस तरह पंगु कैसे हो गया? चाँद की जगमग चाँदनी ऐसी म्लान, कुरूप व घिनौनी होती है क्या? तारे-तारे में मवाद की चमकती कसक झबझब कर रही थी । आज ही अच्छी तरह पता चला कि चिड़ियों की चक चक, कौवे की काँव-काँव से कम कर्कश नहीं होती। और यह उच्छृंखल सूरज जो बड़ी मुश्किल से एक रात मुँह छिपाए रहता था, सो आज हजार-हजार जुड़वाँ रातों तक कहाँ भ गया? नित्यकर्मी सूरज की ऐसी अविश्वसनीय प्रतिष्ठा तो नहीं जानी थी ! कहीं दक्षिणी ध्रुव वाली लम्बी- लरक छह माही रात इधर तो नहीं फिसल गयी? अक्ल की उधेड़बुन भी उसके सुख से कम नहीं होती। अक्ल दाढ़ के सतर्क करने पर सुदर्शन को कैसी-कैसी अनहोनी बातें उपजने लगीं। समझ नहीं पड़ता कि यह यी अक्ल का दर्द है या नयी दाढ़ का ? दाढ़ के अकिंचन अंकुर से जब ऐसी कसक तिलमिलाती है तब प्रसव की वेदना का तो पार ही क्या? यह औरत ही है जो यह वेदना बर्दाश्त कर लेती है ! धन्य है उसकी वज्र छाती को ! फिर भी लिजलिजा मर्द उसे अबला मानता है । यदि औरत के बदले मुछन्दर मर्द को प्रसव का सामना करना पड़ता तो नौ महीने की बात तो दरकिनार, नौ बरस ही उसका पीछा नहीं छूटता। यह तो औरत का ही चमत्कार है कि वह नये इनसान को अपनी सुकोमल पंखुड़ियों से जन्म देती है !

काफी देर तक पोथी बाँचे बिना सुदर्शन को नींद ही नहीं आती थी । अक्षरों की अनगिनत सीढ़ी-दर-सीढ़ी उतरकर रिमझिम नींद उसकी आँखों में ऐसा पड़ाव डालती, जैसे साथ छोड़ना ही नहीं चाहती हो। लेकिन आज जिस किसी पोथी का आसरा झेलता वह अनघड़ पत्थर की तरह लगती। अक्ल दाढ़ की छटपटाहट के मारे न लाओत्से से मन बहला, न कन्फ्यूशस, न वेद, न उपनिषद्, न ज़ेन, न सांख्य, न पंचतन्त्र, न कालिदास, न भवभूति, न शेक्सपियर, न गेटे, न होमर, न शिलर, न नीत्शे, न चेखोव, न कबीर, न रवि बाबू, न शरत् बाबू, न ज्वाइग और न कजान-जाकिस से । न दॉस्तोयेवस्की से कुछ सहारा मिला, न विक्टर ह्यूगो न बालजक और न गोर्की से ही कुछ गरज सरी । आस लगाकर एक-एक पोथी से शरण माँगता और परेशान होकर वापस वहीं छिटका देता । नयी दाढ़ की कसक चटकाती अक्ल ने किसी की तिनके जितनी भी परवाह नहीं की । वह तो केवल अपनी ही पीड़ा में खोई हुई थी । अक्ल के दरियाव सुदर्शन ने खूब मगजमारी की, पर पीड़ा के मारे उसकी कुछ भी दाल नहीं गली । कि सहसा उसकी हारी- थकी नजर फिर अलमारी की पोथियाँ टटोलती एक कत्थई पोथी पर अटकी । सुनहरी चित्रकारी के आकर्षण ने उसकी आँखों में उन्माद पैदा किया या अन्ना करेनिना की विशुद्ध प्रीत ने। जैसी अन्ना की अपूर्व छवि वैसा ही इस पोथी का विलक्षण प्रभाव । दो-दो रूप का सम्मिश्रण शायद कुछ करिश्मा कर दिखाए! पितामह तोलस्तोय की विलक्षण दाढ़ी अन्ना के बहाने तुष्ठमान हो जाए तो हो जाए। अन्ना के जादुई प्रभाव की तो बानगी ही न्यारी है! यदि शुरुआत में ही यह उपाय सूझ पड़ता तो सारी रात तकलीफ क्यों उठानी पड़ती ? अचानक दाढ़ की पीड़ा को क्षणभर के लिए भुलाकर सुदर्शन की आँखों के सामने किट्टी के प्रसव का दृश्य चित्रित हो उठा। कसकती टीस पर मानो किसी अमोघ बूटी ने अचिन्त्य प्रभाव उत्पन्न किया हो । पोथी का पन्ना - पन्ना सुपरिचित था । दूसरे प्रयास में प्रसव से पीड़ित किट्टी उसकी चेतना में टसकती महसूस हुई । लेविन की परेशानी का पार नहीं था । कभी किट्टी के करीब आता तो कभी दूर खिसक जाता । दूर रहने पर छटपटाती अर्द्धांगिनी के पास जाने को मन तड़पता । और प्रत्यक्ष सामना होते ही उसका हौसला लड़खड़ाकर दूर खिसक जाता । किट्टी, पति को सान्त्वना देने की खातिर जबरदस्ती मुस्कराती, मगर मुस्कराहट का पहले जैसा तेज ही कहाँ रहा? चसमस चीस के मारे उसकी चेतना ऐंठने लग जाती । विक्षिप्त लेविन कभी दूर, कभी पास। कभी पास तो कभी दूर! कभी कोई बहाना, कभी कोई मुगालता !

हे ईश्वर ! रति के आनन्द का आखिर यह अंजाम हुआ ! ऐसा पता होता तो किट्टी की छाया के पास तक नहीं फटकता । आनन्द की उस सर्वोपरि समाधि में यह पीड़ा कहाँ दबी हुई थी ? आनन्द में गलबहियाँ और विपदा के समय दूर? अपने-आपको ऐसा कृतघ्न तो नहीं समझा था ! पर पीड़ा की जकड़ में छटपटाती किट्टी की पुतलियों में दुत्कार के बदले गाढ़ी प्रीत नजर आयी तुम पुरुष इस पीड़ा के आनन्द को क्या जानो?

डॉक्टर को बुलाने की जल्दबाजी में लेविन मानो पाँखों के सहारे दरवाजे तक उड़ता गया हो। पर डॉक्टर तो अभी तक सो रहा था ! ऐसी आपद् की घड़ी में हरामी को नींद आयी तो क्योंकर आयी ? ऐसी खुदगर्ज दुनिया पर वज्रपात भी तो नहीं होता ! आलसी डॉक्टर पर लेविन का गुस्सा भीतर-ही-भीतर उबल रहा था। उसकी ढील का एक-एक पल उसे बरस जितना लम्बा लगा । किट्टी की प्रसव पीड़ा के अलावा उसके लिए दुनिया में किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं था। बेहद अचरज की बात कि लेविन की परेशानी के फलस्वरूप स्वयं सुदर्शन की खातिर दाढ़ की कसक विस्मृत हो गई । किट्टी के प्रसव की पीड़ा में अक्ल दाढ़ की टीस गहरी - ही गहरी उतर गई। समझ नहीं पड़ता कि वह प्रसव किट्टी को हुआ या तोलस्तोय को या लेविन को । कहीं खुद-ब-खुद सुदर्शन ही उस टक सेज पर तो नहीं सो गया? लेविन की आँखों के सामने सारी दुनिया धू-धू सुलग रही थी कि अकस्मात् उसके कानों में जच्चा रानी का प्रसव खिलने की भनक सुनाई पड़ी। आखिर चूहे की नाईं लाल-लाल बच्चे पर नजर पड़ते ही लेविन के दिल में गुस्सा भड़क उठा - कें कें करने वाली इस बालिश्त भर की लोथ को उनके आनन्द में खलल डालने का क्या अधिकार था ? आखिर क्यों, क्यों उस अनहद आनन्द को इस पीड़ा में तब्दील होना पड़ा । पिता को जबरदस्त झुंझलाहट हुई । पर किट्टी के समझाने से, मुस्कराने से उसकी खीज निथर गई । किन्तु किट्टी को आराम मिलते ही सुदर्शन के सूजे हुए मसूड़े में फिर वैसी ही टीस उठने लगी । वह फिर शुरुआत से किट्टी के प्रसव की उपचारी पंक्तियाँ पढ़ने लगा । किट्टी के प्रसव का जादुई चमत्कार कि वह फिर अपनी पीड़ा को नितांत बिसर गया। लेविन से तो बहुत दिनों बाद उसका ब्याह हुआ था। पहले वह ब्रोन्स्की से प्रेम करती थी। वियोग में बड़ी खतरनाक बीमारी का भी सामना करना पड़ा। हाँ, ब्रोन्स्की को भी एक बार दाँतों की ऐसी ही पीड़ा जगी थी। सुदर्शन ने झटपट पन्ने टटोलकर उन पंक्तियों को पढ़ना शुरू किया। मगर ब्रोन्स्की के दाँतों की कसक का यह करिश्मा ही कहाँ था जो वह अपनी पीड़ा को बिसर पाता । वह फिर किट्टी की चसमस चीसों में खो गया । केवल औरत की पीडा में ही दुनिया का दर्द समाहित है । अन्यथा अब तक सब सत्यानाश हो जाता । स्वयं चसमस पीड़ा में दुहरी होकर वह सारे संसार को आनन्द बाँटती है। केवल औरत में ही मनुष्य की माँ बनने का सामर्थ्य है। बेचारे अक्षम पिता की क्या बिसात? न कुत्ते को जोर पड़ता है और न गधे को । कोरे - मोरे बाप बनने में क्या तकलीफ है ? एकदम सीधा और सरल काम ! तो ब्याह होने पर सुदर्शन को भी बाप बनना पड़ेगा ! अन्त में घिन उपजी । उसे ऐसी नामवरी नहीं करनी । न ब्याह करेगा और न बाप बनेगा । बाप का तो सपना भी बुरा है। हाँ, अन्ना करेनिना भी तो सेर्योझा की माँ बनी थी । औरत थी, इसीलिए माँ बन सकी...!

उफ़ ! अब कहीं इस अहदी सूरज को उगने का मौका मिला ! आखिर चिर सौभाग्यवती रजनी को भी प्रसव हुआ । किट्टी की तरह वह भी अब तक छटपटा रही थी । साँवली रात को सूरज जैसा बेटा नसीब हुआ । गोल - मटोल । तप- तेज का पुंज । उजाले का सुनहरा थाल आया, सूरज भी रजनी की सुकोमल पंखुड़ियों से बाहर आया। सारे संसार में जगमग उजास - ही - उजास । कैसे विचित्र तप-तेज का सिरमौर है, यह बाल गोपाल । प्रसव की पीड़ा के बिना यह प्रकाश कहाँ...?

हे राम, जब मसूड़े की सूजन में नयी दाढ़ के अकिंचन अंकुर से ऐसी असह्य टीस उठती है तो प्रसव की पीड़ा का कितना क्या दर्द होता होगा ? सुदर्शन बार-बार इस अपूर्व बात पर विचार करने लगा ।

दर्द सुदर्शन को है, कोई डॉक्टर को तो नहीं। तब वह अस्पताल आने की क्यों जल्दबाजी करेगा? जिसे दर्द हो, वही सहे । चीरा लगने पर शायद दाढ़ के साथ-साथ अक्ल को भी बाहर आने का बहाना मिल जाए ! चाहे कितना बुरा-भला हो, अस्पताल के आसरे बगैर नहीं चल सकता ! मौत आने पर मरना अवश्यम्भावी है, उसी प्रकार बीमार होने पर शिक्षित व जागरूक व्यक्तियों के लिए अस्पताल पहुँचना जरूरी है ।

तोलस्तोय की पोथी के जोश-जोश में गाल पर चौलड़ा रूमाल दबाकर वह अस्पताल पहुँचा - अन्ना करेनिना को सहलाता हुआ, टटोलता हुआ। बार-बार तोल. तोय की विलक्षण छवि निहारता हुआ । शायद उसकी चमत्कारी दाढ़ी में पैठने से कसकती पीड़ा को कुछ शान्ति मिल जाए, कोई अमोलक मोती हाथ लग जाए। प्रसव की पीड़ा को ध्यान में रखकर ही शायद जनाने अस्पताल में इसी मंशा से दाँतों की पीड़ा के निमित्त भी एक अलहदा कमरे की गुंजाइश निकालनी पड़ी। एक बार फिर आर-पार नजर गड़ाकर सुदर्शन तोलस्तोय की दाढ़ी व आधे-अधूरे बालों को निहारने में डूब गया। मनुष्यों की दुनिया पर दाढ़ी वालों का ही समूचा आलम है - डार्विन का, मार्क्स का, फ्रायड, लेनिन, तोलस्तोय और रवि बाबू का । होचीमिन का -छोटी हुई तो क्या, थी तो दाढ़ी ही । फिर जोर से टीस उठी। यदि कई दिन तक यह दर्द नहीं मिटा तो? डॉक्टरों के प्रपंच से भी कोई उपचार नहीं हुआ तो ? इस बार यह दर्द नहीं मिटा तो? डॉक्टरों के प्रपंच से भी कोई उपचार नहीं हुआ तो ? इस बार यह दर्द मिटने पर वह भी जरूर दाढ़ी रखेगा। आलम का डंका बजे, न बजे, दाढ़ी वाले दिव्य पुरुषों की नकल करने में क्या बुराई है ? पर एक बार यह नागडसी पीड़ा मिटे तो सही! इस तकलीफदेह पीड़ा को इसी नाजुक जगह पर अपनी हैवानियत का प्रदर्शन करना था ! किसी दूसरी जगह कैसा भी दर्द होने से न तो उसकी कुछ परवाह करता और न अस्पताल की ओर मुँह करता । दाँत का दर्द बेहद असह्य होता है । इसके सामने सारे दर्द नगण्य हैं। सचमुच, स्वस्थ काया से श्रेष्ठ, अन्य कोई सुख नहीं ! सुख का भोग करने वाली काया ही जब छटपटाने लगे, तब सुख का स्वाद क्योंकर चखा जा सकता है? केवल काया निरोगी रहनी चाहिए। दूसरे सुख बरसें तो अच्छी बात, न बरसे तो अच्छी बात ! अक्ल दाढ़ की टीस उठते ही स्वस्थ सानन्द काया का माहात्म्य कैसा जल्दी समझ में आया ! वास्तव में अक्ल को कुछ धार लगी तो है ! मगर अक्ल के परिष्कार की खातिर दर्द क्यों जरूरी है ? बगैर दर्द अक्ल बढ़ती तो क्या कसर रह जाती? तोलस्तोय तो शायद ही अस्वस्थ हुआ हो । बड़ा जतन रखता था काया का काया है, तो सब कुछ है! मुर्दा या तो गहरी कब्र में दफन होता है या चिता में जलता है। पर एक बात निश्चित है कि मुर्दे को किसी तरह की पीड़ा नहीं होती । न अक्ल दाढ़ की और न सरदर्द की । कहीं से भी काटो, छूओ, कैसे ही जलाओ ! योग साधने पर शायद पीड़ा का एहसास ही न हो! जीवित काया को यदि पीड़ा का एहसास न हो तो और क्या चाहिए! इस बार अक्ल दाढ़ से सटने पर अवश्य योग सीखेगा...।

कमरे के सामने थटाथट भीड़ की आस थी, मगर कहाँ एक बच्चा तक नजर नहीं आता। केवल एक अधबूढ़ फरासिन खादी के मैले-कुचैले मसौते से पोचा लगा रही थी। तो क्या सुदर्शन के अलावा किसी के भी दाँतों या मसूड़ों में दर्द नहीं हुआ? अच्छा ही है, जल्द ही फारिग हो जाएगा ! समय की इफरात के कारण डॉक्टर ध्यान से देखेगा। जल्दी आने का तो कोई मुकाबला ही नहीं ! भला, गर्जवान को धीरज कैसे हो सकता है? हाँ, ब्रोन्स्की का प्यार कोख में पूरा पसरते ही अन्ना को प्रसव के समय यह अन्देशा हो गया था कि वह शायद ही बचे! पर दाढ़ की कसक से प्राणों की जोखिम तो क्या होगी ? प्रसव की तो पीड़ा ही अनूठी है ! बच्चा फँसने पर मौत की मनमानी टलना मुश्किल है। अन्ना करेनिना को भी कैसा भयंकर डर लगा था ? प्यार के उन्माद की अपेक्षा मौत का डर बड़ा होता है !

“बाबूजी, पाँव थोड़े ऊपर लीजिए।”

सुदर्शन कुछ चौंका। अन्ना की प्रीत वाला प्रसव दूर हटाकर सामने देखा । फरासिन बाल्टी में मसौता निचोड़ती बोली, “बहुत जल्दी आ गये ? दाँत का दर्द ऐसा ही होता है ! चैन ही नहीं पड़ता !”

सुदर्शन ने पाँव ऊँचे लिए तो वह अदेर काम में मगन हो गई। मानो पोचा लगाने से बेहतर दूसरा कोई काम नहीं है ! चिपचिपी मैली ठौर पोचा लग से ही तो चमकती है ! किरमची पोथी की सुनहरी चित्रकारी से नजर मिलते ही सुदर्शन को ध्यान बँधा कि गीले मसौते से फर्श पर पोचा लगता है तो ज्ञान की पोथियों से अक्ल पर पोचा लगता है ! क्या अन्ना की तरह इस फरासिन ने पति के अलावा किसी और से प्रेम नहीं किया? जरूर किया होगा ! दुनिया की तमाम औरतों के पवित्र अन्त में अन्ना छिपी रहती है। पति तो केवल घर का संरक्षक है । सन्तान का अधिकारी है । वंश का परिचालक है। मगर घर-परिवार से स्वतन्त्र अन्य प्रीत के अलावा औरत के रूप-यौवन का वर्चस्व ही क्या है ? उफ़-दाढ़ की टीस के मारे सोचने का सारा क्रम ही टूट जाता है ! दाँत भींचकर फरासिन से पूछा, “डॉक्टर साहब कब आएँगे?”

“डॉक्टर साहब?” वह मुस्कराकर कहने लगी, “इतनी जल्दरी डॉक्टर साहब कहाँ ? वे तो समय पर ही आएँगे - आठ बजे । तब तक पोथी से मन बहलाइए । अभी तो सात ही नहीं बजे । "

सुदर्शन ने चाबी के खिलौने की तरह हाथ उठाकर घड़ी देखी - सात बजने में चार मिनट बाकी थे ।

“क्यों, बिल्कुल ठीक बताया मैंने ?”

“हाँ, वाकई अभी तो सात ही नहीं बजे।” सुदर्शन के बोलने का लहजा कुछ ऐसा था मानो उसे घड़ी की अपेक्षा फरासिन की बात पर ज्यादा एतबार हो !

“बाबूजी, घड़ियों के भरोसे समय का पता नहीं चलता ।” बाल्टी के गाढ़े पानी में मसौता डालकर दोनों हाथ सामने करती कहने लगी, “मेरे तो हाथ ही घड़ी की सुइयाँ हैं! काम करने के साथ-साथ ही एक-एक पल का पता चलता है । ये घड़ियों के पिंजर तो निठल्ले लोगों का मन बहलाव है! हम मजूर तो समय के साथ कदम मिलाकर चलते हैं। क्या समझे? मेरी सीख मानो तो पोथियों के कचरे में ज्ञान टटोलना बेकार है! जितना ही गन्दा काम करोगे, उतना ही ज्ञान फलेगा! काम से छूत रखने पर कपड़े तो जरूर सफेद - झक्क रहते हैं, मगर अक्ल दिन-ब-दिन मैली होने लगती है ! क्या समझे?"

सुदर्शन को पहली मर्तबा सफेद पैंट की खातिर शर्म महसूस हुई, जैसे उसके द्वारा जाने-अनजाने बड़ा दुष्कर्म हो गया हो ! झेंप मिटाने के लिए धीरे से बोला, “इतनी जल्दी नहीं आता तो ऐसी अमोलक सीख कब मिलती...?"

“ अमोलक सीख !” फरासिन खिल-खिल हँसते बोली, “ऐसी बातें तो मेरे भण्डार में भरपूर भरी हैं! आप सुनते-सुनते थक जाएँगे । भगवान ने मुँह में जीभ दी है तो लिक- लिक करने के लिए थोड़े ही दी? क्या समझे? "

पोचे के सर्वोत्तम काम की तुलना में उसे अपनी बकवास भद्दी लगी तो वह तुरन्त होठ सीकर पोचा लगाने में रुँध गई । न हँसी, न मुस्कराई और न सुदर्शन की तरफ वापस मुँह फिराकर देखा । सुदर्शन उसकी पीठ बाँचता रहा और वह अत्यधिक उत्साह से अपना काम सलटाकर पास के कमरे में घुस गई ।

सूजे हुए मसूड़े पर जीभ का परस भी नहीं सुहाया । सर में सन्नाटा कौंध गया। जोधपुर जैसे बड़े शहर में अब तक दाँतों का अस्पताल भी अलग से नहीं बना ! कैसी विकट जरूरत है? आँख, कान और गले से भी ज्यादा ! दाँतों के प्रताप से ही तो काया में उजाला है ! जिस दिन किसी बड़े नेता के दाँतों में टीस उठेगी, उसी दिन अलग अस्पताल की नींव लग जाएगी ! ईश्वर करे बड़े-बड़े नेताओं के रोज एक्सीडेण्ट हों, रोज नयी-नयी बीमारियाँ हों - अपने-आप चौड़ी सड़कें बन जाएँगी ! उम्दा अस्पताल खुल जाएँगे! चार लाख आदमियों के मुँह में कम-से-कम साढ़े तीन लाख बत्तीसी है । कोई-न-कोई दाँत तो दुखता ही होगा । पर फिलहाल तो इस जनाने अस्पताल में केवल एक कमरे से ही काम चल रहा है। डॉक्टर हीरानन्द अडवानी दोनों अस्पताल सँभालते हैं । ग्यारह बजे तक उम्मेद अस्पताल और एक बजे तक गाँधी अस्पताल । केवल अस्पताल का नाम बदलने मात्र से जनता का दुःख-दर्द नहीं मिटेगा ! ये नेतागण अपने दाँतों से खाना चबाते हैं या अक्ल चबाते हैं? वास्तव में अक्ल की कमी तो इन लोगों में है । प्रतिवर्ष नयी अक्ल दाढ़ आनी चाहिए ! केवल एक सूने कोने में काली तख्ती लिखने से किसकी क्या गर्ज पूरी होगी? कितने प्रतिशत लोग पढ़ना जानते हैं? फिर कैसे पता चले कि किस अस्पताल... कितने बजे पहुँचना है ?...चक्कर लगाने से कुछ-न-कुछ कसरत तो होगी ही! जूतों की बिक्री बढ़ेगी! अनुभव की पूँजी जुड़ेगी! इस देश में समय की तिनके जितनी भी कद्र नहीं है। जब खुलेआम मनुष्य की हत्या कुत्ते से भी बदतर समझी जाती हो, तब ये तुच्छ दाँत हैं किस गिनती में ? बत्तीस की जगह इकतीस तीस या पच्चीस ही सही । नाक, आँख और कान की तरह एक-दो होते तो कुछ कद्र भी होती । दाँत निकालने पर या दाँत भींचने से किसी को कुछ खतरा महसूस नहीं होगा और खतरे बगैर कौन किसकी परवाह करता है... ?

शायद अन्ना की आत्महत्या की त्रासदी से अक्ल दाढ़ का दर्द कुछ विस्मृत हो जाए? जब तोलस्तोय जैसे दिव्य महापुरुष के अन्तस् में भी अन्ना की हत्या करते समय दया माया उत्पन्न नहीं हुई, तब इन म्लेच्छ नेताओं से आस रखना बेकार है ! पर अन्ना करेनिना की मृत्यु को कोई हत्यारा ही हत्या माने तो माने ! अन्यथा वह हत्या तो लाख-लाख जन्म और युगानुयुग जीवन से कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है ! अन्ना करेनिना की सृष्टि के दौरान उस विश्वपितामह के विशाल अन्तस् में असह्य वेदना की ज्वाल उठी होगी और उस ज्वाल को शान्त करने का उपाय था-अन्ना करेनिना की अपूर्व सृष्टि ! अन्ना के बहाने तोलस्तोय के हाथों उस समय समूची दुनिया के दुःख, सन्ताप और क्लेश का सफाया हो गया होगा ! पति से विमुख होकर ब्रोन्स्की से प्रेम करने वाली महामाया अन्ना तो जैसे तोलस्तोय की काया से ही अवतरी हो ! विश्वपितामह की कोख से जन्म लेते ही वह जोध - जवान और चिर सुन्दर हो गई ! समय की अनुकम्पा के भरोसे अन्ना का रूप - यौवन नहीं था । न वह काल की गोद में जन्मी और न काल के फन्दे से उसकी देह छूटी। अन्ना तो ब्रह्मा के समान तोलस्तोय की देह से फूटी थी ! और धर्मराज की तरह रेल की पटरी पर अपने ही हाथों अपना गला चिगद डाला - मानो मौत, जीवन से ज्यादा जरूरी हो! सुदर्शन को ऐसा महसूस हुआ कि अन्ना के अन्तकाल की वेला दुनिया की समस्त करुणा, ममता और स्नेह तोलस्तोय के अन्तर्मन में घूमर ले रहे होंगे। समूचे संसार से हिंसा, क्रूरता और हैवानियत का नामोनिशान उठ गया होगा! हिंसा पर अहिंसा की वह पहली और अन्तिम जीत थी ! रेल की पटरी पर अन्ना के रूप-यौवन और उसकी प्रीत का गला रौंदने वाले हाथों में तीन लोक के वात्सल्य का सन्निवेश हो गया होगा! रोम-रोम में करुणा का संचार हो गया होगा ! प्रत्यक्ष जन्म लिए बिना ही अन्ना तोलस्तोय के अक्षरों में अमर हो गई ! मनुष्यों की दुनिया में क्षण-क्षण छटपटाती आत्मा उस हत्या के बहाने सदा के लिए मुक्त हो गई ! तोलस्तोय की लाडेसर बेटी अन्ना तमाम हतभागी औरतों की चिरसन्तप्त आत्मा थी ! आत्महत्या के बहाने इस गलीज दुनिया का परित्याग करने के अलावा उसकी मुक्ति का कोई दूसरा उपाय नहीं था !

"यह औरतों की बेंच है... ।”

सुदर्शन ने गर्दन उठाकर ऊपर देखा - सफेद-बुर्राक वेश में ठसी हुई एक नर्स सामने खड़ी है। गोरी - निछोर । बाएँ गाल पर काला तिल । काफी बड़ा । गुलाबी रंग की छवि दूनी निखर आई ! हड़बड़ाकर उठ बैठा । नर्स से चार अंगुल लम्बा। पहली मर्तबा उसे अपने कद का इतना मोद हुआ ! नर्स की चंचल दृष्टि, कत्थई पोथी की स्वर्णिम चित्रकारी में गड़ी हुई । खुशी के स्वर में होठ मुलमुलाते बोली, “अन्ना करेनिना! वाह, कैसा बढ़िया संस्करण है? अन्ना की अनिन्द्य छ के अनुरूप !”

छवि तो नर्स की भी कम सुन्दर नहीं थी ! जैसा निर्मल वेश, वैसा ही सुहाना स्वर ! सुदर्शन की विचित्र आँखों में नर्स का स्वर भी उजला प्रतीत हुआ ! मझला कद। समूची देह मानो गुलाब की आभा के साँचे में ढली हो ! भौंरों को तो सचमुच ही नर्स के बालों का रंग फला है ! भौंहें भी घनी व काली भमंक । हिरणी - सी लम्बी साँवली आँखें, ज्योति की खातिर नहीं, बल्कि दूसरों के लिए देखने के निमित्त बनी हों ! पतले होठ । चमकती सुघड़ बत्तीसी । गुलाबी, नहीं-नहीं, तर गुलाबी मसूड़े । इन दाँतों में तो शायद ही किसी तरह की पीड़ा हुई हो ! गर्दन पतली और काफी लम्बी । घुँघराले बालों पर कलफ लगा सफेद मुकुट ! मानो अलंघ्य उड़ान भरती बगुली, अन्ना करेनिना की छवि निहारने की उमंग में अवतरित हुई हो !

तोलस्तोय की पोथी के बहाने, पोथी बाँचने वाले का हुलिया परखना भी जरूरी था । पतली छरहरी काठी, पोथियों के अक्षरों से काफी सुँती हुई ! रंग न गोरा और न साँवला । बाल अत्यधिक गहर घुमेर और घने । काफी घुँघराले । सर बड़ा व गोल-मटोल। तीखी नाक, जैसे बुद्धि ने सर की बजाय नाक का आवास कबूल किया हो ! हलके फीरोजी रंग का कुरता । बाँहें चढ़ी हुईं। सफेद पैण्ट । कुरता पैण्ट से बाहर । पाँवों में गोरक्षक नीले जूते ।

“ अन्ना के बिछोह की खातिर माफी चाहती हूँ ! औरतों की बेंच छोड़कर किसी दूसरी बेंच पर बैठिए और उससे चाहे जितनी प्रीत करिए, मेरी मनाही नहीं है !” सुदर्शन को वाकई पुख्ता तौर पर पता नहीं चला कि उस समय नर्स दाँतों के सहारे हँसी थी या तिल के सहारे ... !

“अनजाने भूल हो गयी, माफ कीजिएगा ।"

“ अनजानी भूल के लिए माफी माँगने की जरूरत नहीं, पर जानकर भूल की है तो माफी मुश्किल से ही मिलेगी...!”

नर्स का स्वभाव ही ऐसा था कि सुदर्शन के लिए खास रियायत बरती, बात ठीक तरह समझ में नहीं आई । वह तो इस तरह निःशंक बातें करने लगी, जैसे बरसों पुरानी पहचान हो !

“एक बात पूछूं- अपने-आपको अलक्सेई करेनिन की एवजी में समझ रहे हो या काउण्ट ब्रोन्स्की की जगह ?” और बिना पूछे ही उसके हाथ से पोथी लेकर इधर-उधर पन्ने टटोलने लगी।

शायद तोलस्तोय की पोथी के उछाह में ऐसी अद्भुत आत्मीयता दरसा रही है ! ऐसी नर्सों के माहात्म्य से ही अस्पताल की मर्यादा है ! आधी बीमारी तो उनकी सुहानी बोली सुनकर ही ठीक हो जाती है ! नर्स के निःशंक सवाल का वापस वैसा ही निःशंक जवाब दिया । “अभी तो शादी ही कहाँ हुई, इसलिए ब्रोन्स्की बनने के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं ।"

“मगर अन्ना की प्रीत के उन्माद में, रेलगाड़ी के चक्कर मारे तो कट-मरने की जोखम काफी है! पूरी सावचेती रखना!”

“ सावचेती रखने पर अन्ना की प्रीत कहाँ ? जोखम तो उठानी ही पड़ेगी।”

“बाप रे...!” अचरज और झुंझलाहट के स्वर में बोली, “सारी पोथी का सत्यानाश कर डाला ! मार लकीरें - ही लकीरें । निशान ही निशान । लाल, पीले, हरे और न जाने क्या- क्या? तोलस्तोय के छूटे हुए मर्म को पूरा करने की मंशा है क्या?"

नर्स ने पोथी वापस सामने की तो उसे लेनी ही पड़ी । “यह मुगालता मुझे सपने में भी नहीं है। अपनी औकात अच्छी तरह पहचानता हूँ । बुड्ढे के तो नाखून की भी होड़ नहीं कर सकता ! मुझे ऐसा पागल समझा है क्या...?”

“पागलपन की क्या बात ? सर तो तोलस्तोय से भी बड़ा है !"

“कोरी-मोरी खोपड़ी से क्या होता है, अन्दर वैसी अक्ल भी तो चाहिए ।" “हाँ, अक्ल की बात दुरुस्त है ! न मोल मिलती है, न उधार !” मुस्कराहट के साथ यह सुन्दर मन्त्र सुनाकर नर्स कमरे में घुस गई। सुदर्शन को एक क्षण के लिए ऐसा लगा कि जैसे वह स्वयं अपने-आप ही से अदीठ हो गया हो ! मगर नर्स के अदीठ होने पर भी उसकी मुस्कराहट लोप कहाँ हुई ? क्या देह से सर्वथा अलग थी वह मुस्कराहट...?

खड़े रहने की शक्ति थोड़ी डगमगाने लगी तो वह दूसरी बेंच पर बैठ गया । अभी तक कोई नया मरीज नहीं आया था । या तो दाँतों में अक्सर दर्द होता ही नहीं या लोग-बाग उनकी खास परवाह नहीं करते। तब सुदर्शन के लिए ही यह कैसा दुर्योग घटित हुआ? दुर्योग ! दुर्योग क्योंकर ? यदि अक्ल दाढ़ की यह कसक नहीं उठती तो इस सुहानी नर्स से सपने में भी मुलाकात कब होती ? इस अस्पताल में वह पहला मरीज तो है नहीं! कई आते हैं- अनगिनत । ज्यादा खूबसूरत । अच्छी हैसियत वाले। फिर उसमें ऐसी क्या खासियत है? अलबत्ता अन्ना करेनिना वाली खासियत निराली है? या तो यहाँ सत्यकथा, माया, सारिका, धर्मयुग या गुलशन नन्दा - ज्यादा ही हुआ तो भगवान रजनीश की तलछट ! और यों नर्सों के स्वभाव ही इस साँचे में ढले होते हैं! मरीजों के साथ सद्व्यवहार करती हैं। हँसती-मुस्कराती हैं । निःशंक बातचीत करती हैं । मगर यह नर्स झुण्ड से एकदम अलग है। श्रेष्ठतम लेखकों की पोथियाँ पढ़ने का इसे अत्यधिक उछाह है। अन्ना करेनिना तो जैसे मुँह जबानी याद हो । अन्ना के समय क्या नर्सों का ऐसा ही सफेद वेश था ? अन्ना को भी शायद तिल वाली ऐसी दो-तीन नर्सों से काम पड़ा होगा! प्रसवकाल की आपद् घड़ी के दौरान ! ब्रोन्स्की ने अपने हाथ से अपनी देह पर पिस्तौल चलाई तब । नर्स के गुलाबी गाल पर यह तिल नहीं होता तो यह कैसी लगती? इस पीड़ा के वरदान स्वरूप चार-पाँच दफा यहाँ आना पड़ा तो अच्छा-खासा सम्पर्क हो जाएगा ! नित्य नयी चुनिन्दा पोथी लाएगा । ना - ना, यह नर्स अत्यन्त बुद्धिमान है । अन्दरूनी नीयत का उसे अविलम्ब पता चल जाएगा। फिर ऐसे दुराव की जरूरत ही क्या है? भला इससे अधिक मांगलिक पोथी और क्या हो सकती है? इसके प्रताप से ही इतनी देर तक बातचीत हुई ! अन्ना तो अन्ना ही है! तोलस्तोय के हाथों सृष्टि हो गयी सो हो गयी !

नर्स के अचिन्त्य सुझाव की मर्यादा रखने की खातिर वह फिर पोथी बाँचने में तल्लीन हो गया। रेल में ब्रोन्स्की की माँ के साथ अन्ना मास्को आई । माँ की मुलाकात के शुभ संयोग से प्लेटफार्म पर ही अन्ना और व्रोन्स्की का प्रथम मिलन हुआ । चार आँखों की बिजली कौंधते ही एक-दूसरे की छवि अन्त में उतर गई ! तोलतोय के धैर्य व संयम का कोई पार था भला ? छियासठ पन्नों तक अन्ना के नाम की भनक तक नहीं पड़ने दी । शायद स्वयं तोलस्तोय को इस बात का कोई एहसास ही नहीं था कि नशे में धुत चौकीदार का रेल से एक्सीडेण्ट, अन्ना की आत्महत्या का निमित्त बनेगा ! सुदर्शन पन्ने टटोलने लगा । सात सौ निन्यानवें पृष्ठ तक पहुँचते-पहुँचते रेल के चक्के को उसने अपना जीवन अर्पित कर दिया। तोलस्तोय की चेतना के परे ही वह काण्ड घटित हुआ और लेखक ने अपनी नजरों से जो देखा उसे चित्रित कर डाला, जैसे सम्पूर्ण दृश्य का वह मौन साक्षी हो ! तत्कालीन समय का समूचा रूस अन्ना करेनिना के अक्षरों में मीनाकशी की तरह हमेशा के लिए जड़ गया। मुश्किल से चिट्टू अँगुली का पौर टिके जितनी नयी दाढ़ की पीड़ा है, पर सारे शरीर में बेचैनी फैल गयी; उसी तरह अन्ना की प्रीत के आलोड़न में सारे रूस की घुटन साकार हो उठी! मानो अन्ना करेनिना रूस की विराट काया का मात्र एक मसूड़ा हो ! अलग होते हुए भी अविच्छिन्न और अविच्छिन्न होते हुए भी अलग! सचमुच, यह नयी दाढ़ तो निस्सन्देह अक्ल की ही है । अन्यथा सुदर्शन को पहले ऐसी सूक्ष्म बातें सूझती ही कब थीं ! जन्म की पीड़ा तो होती ही है, चाहे प्रसव की हो, चाहे अक्ल दाढ़ की ! पीड़ा सहे बगैर सन्तान के जन्म का आनन्द नहीं लिया जा सकता !

पहली मुलाकात में प्रीत का योग तो सधे उसी से सधता है। ब्रोन्स्की के पहले अन्ना कितने महानुभावों से मिली होगी और व्रोन्स्की ने भी न जाने कितनी सुन्दर महिलाओं से भेंट की होगी । किट्टी के साथ स्केटिंग करते समय स्वच्छन्द क्रीड़ाएँ तो काफी हुईं, किन्तु प्रेम तो अन्ना के साथ ही हुआ । देखें समय की बगिया में नर्स की मुलाकात कैसे फूल खिलाती है? कैसी, क्या युक्ति करने पर अगले समय की लीला पहले दिख जाए ? धीरे-धीरे खिसकता समय बमचकरी की तरह तीव्र गति से घूमे तो सब कुछ पता चल जाए । मगर समय के आर-पार देखने के लिए मनुष्य, आँखें होते हुए भी निपट अन्धा है ! समय की बेड़ी के साथ मनुष्य की दृष्टि आबद्ध है । दाढ़ की यह असह्य पीड़ा जरूर निःशेष होगी, पर आज उसकी सान्त्वना से आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। यह तो समय के अधीन, शान्ति मिलेगी तभी मिलेगी। इसी तरह नर्स की यह विचित्र मुलाकात, कल, परसों या तरसों, समय के साथ किस ढलान उतरेगी, जिसका आज सुराग नहीं लग सकता। लेकिन एक बात असन्दिग्ध रूप से सही है कि इससे अधिक सुन्दर लड़कियों से मिलने पर भी उसके अन्त में ऐसी हलचल कभी नहीं हुई । नर्स का भेद नर्स जाने। दाढ़ की पीड़ा का यह परिणाम तो नहीं जाना था। अन्ना की प्रीत के जादुई प्रभाव से वह भी क्योंकर अछूती रह सकती है? काला तिल, दाँतों की मुस्कान और यह सुन्दर छवि जिस तरह स्पष्ट दिखती है, उसी तरह उसके अन्तस् की निबिड़ छवि क्यों नहीं दिखती ? ऐसी अद्भुत दीठ के लिए मनुष्य पूर्णतया वंचित है। राम जाने इस अभाव की अब पूर्ति होगी? सुदर्शन या नर्स की मृत्यु के बाद पूर्ति हो तो वह किस काम की? पर अन्ना करेनिना के पाठ का ऐसा माहात्म्य तो नही सोचा था ? जितना अधिक पाठ करेगा, उतना ही ज्यादा कल्याण होगा । वह ठेठ प्रारम्भ से इस पवित्र पोथी को बाँचने लगा-हेप्पी फेमिलीज आर ऑल एलाइक; एवरी अनहेप्पी फेमिली इज अनहेप्पी इन इट्स ऑन वे ।

इतनी देर बाद बरामदे में काफी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी । उसके पास भी उसी बेंच पर आजू-बाजू दो-दो आदमी जम गये थे । औरतों वाली बेंच भी आधी भर गयी थी । पोथी से नजर हटाकर उसने सबके चेहरों का सरसरी तौर पर निरीक्षण किया। नाक की शिकन और दाँतों के कसाव से साफ-साफ पता चल रहा था कि टीस की असह्य पीड़ा सबके प्राण सोख रही है । इस शिक्षाप्रद नजारे से सुदर्शन के मन में दाढ़ के अलावा एक-दूसरी अचिन्त्य पीड़ा कसक उठी कि यह नर्स केवल दाँत - दाढ़ का दर्द ही पहचानती है या इसे अन्तस् की दूसरी पीड़ाओं का भी कुछ ज्ञान है... ?

आज तो बिल्कुल आठ बजे ही आठ बजेंगे। अभी तो पाँच मिनट की देर है । यदि पाँच मिनट पहले आठ बज जाएँ तो कौन-सा प्रलय मच जाएगा ? मनुष्य की जरूरत के अनुसार ही समय को उद्दाम वेग से दौड़ना चाहिए। सर पर वज्रपात हो तब भी आलसी समय की वही धीमी चाल और ब्याह की अपूर्व रात भी वही आदिम और अन्तिम चाल । समय के आगे मनुष्य के प्रपंच की कोई गति नहीं है !

सुदर्शन ने फिर अन्ना करेनिना के अक्षरों में दृष्टि गड़ा दी। अन्ना की भावज डौली ने नौ बरस के सुदृढ़ व घनिष्ठ गृहस्थ जीवन के बावजूद अपने पति को बच्चों की फ्रांसीसी अभिभाविका के साथ रंगरेलियाँ करते देखा तो उसकी समूची देह, समूचा मन कसैला हो गया। गृहस्थ के किस अदीठ सुख की खातिर उसने अपने रूप-यौवन की बलि दी ? किसलिए अपनी कंचन काया को धूल में मिलाया ? छली स्वभाव के इस गृहस्वामी का मुँह देखना भी पाप है । फिर क्या उपाय करे ? क्या निस्तार खोजे ? इस घर के आँगन में तो अब साँस लेना भी कठिन है !

" सुनिए, अपना नम्बर तो ले लीजिए।”

अन्ना की भावज डौली को उसकी छटपटाहट के बीच छोड़कर सुदर्शन ने लोह की जाली के बीच खड़ी नर्स की तरफ देखा और जिज्ञासा भरे स्वर में पूछा, “हें - नम्बर ?”

“हाँ-हाँ, नम्बर !” इस बार काले तिल की बजाय वह दाँतों के सहारे ही मुस्कराई थी।

" मगर किसलिए?"

“ ओह ! यह भी पता नहीं?” अत्यधिक आश्चर्य के साथ नम्बर देने के लिए उसने हाथ सामने किया, तभी अविलम्ब तीन उतावले हाथ नर्स के सामने फैल गए। सुदर्शन उसी तरह अन्ना करेनिना को थामे गुमसुम बैठा रहा । धवल उफान में आप्लावित नर्स की छाती की ओर हाथ पसारते उसे कुछ संकोच हुआ । उसके मुँह की ओर देखकर एक बार तो नर्स उन याचक हाथों में नम्बर थमा के लिए दुविधा में पड़ गई। फिर भी दो नम्बर तो उन उतावले हाथों में देने के लिए उसे बाध्य होना ही पड़ा। फिर तीसरा नम्बर सुदर्शन के सामने करती मान काले तिल की अलौकिक वाणी में बोली हो, “अन्ना की प्रीत से यहाँ काम नहीं चलेगा, यह नम्बर लीजिए।”

सुदर्शन के संकोची दुविधाजनक हाथ ने तब भी अन्ना करेनिना नहीं छोड़ी तो अँगुलियाँ नचाता एक और हाथ फिर उसके सामने आ गया। नर्स चिढ़ते हुए बोली, “ठहरो, भिखारी की तरह हाथ फैलाते शर्म नहीं आती? ये सबसे पहले आये हैं। मुझसे भी पहले, सात बजे !”

उतावले हाथ वाले बन्दे की जीभ भी उतावली थी । बोला, “ये तो रात से ही यहाँ डेरा - डण्डा जमाए पड़े हैं, इससे क्या होता है? सामने फैले हाथ में नम्बर देने पड़ेंगे। नर्सों को पक्षपात करना शोभा नहीं देता... !”

नर्स दुत्कार भरी दृष्टि से उसकी ओर देखकर आगे बढ़ी और अन्ना करेनिना की पोथी पर नम्बर वाला टिकला धर दिया। तत्पश्चात् पाँच-सात नम्बर तुरत-फुरत इस तरह बाँटे जैसे भीख बाँट रही हो !

टिकले पर अंक बाँचते ही सुदर्शन को पता चल गया कि उसका तीसरा नम्बर है। मगर समझाने वाले मौका मिलते ही अपने स्वभाव को दरसाए बिना नहीं मानते। समझाने का स्वाद पिण्ड खजूर से कम मीठा नहीं होता । तब पास बैठा सिन्धी यह मुफ्त का स्वर्ण अवसर कब चूकने वाला था ! पहुँचे हुए ज्ञानी के गम्भीर स्वर में समझाने लगा, “अपनी बारी के अनुसार ही अन्दर जाने के लिए नम्बर का कायदा है। बाकी कहीं नहीं, इसी दाँतों वाले कमरे का यह ढर्रा है । दो साल पहले एक उजड्ड मरीज ने बेहद तकरार की तो डॉक्टर आडवानी को परेशान होकर यह कायदा चलाना पड़ा । नम्बर मिलने के बाद सुख-शान्ति ! जो देर से आये उसका देर में इलाज, जो जल्दी आये उसका जल्द इलाज । यही तो होना चाहिए। नहीं तो नम्बर के बिना कितना झंझट होता है? मनुष्य के लिए गुर्राना क्या अच्छी बात है... ? "

अन्दर बैठी नर्स ने नये मरीजों का तकाजा सुना तो उसने बाहर आकर फिर नम्बर बाँट दिए। ध्यानमग्न होकर सिन्धी की बात सुनने वाले युवक की ओर देखकर तनिक व्यंग्य से कहा, “ब्रोन्स्की की तरह, अन्ना से मन फट गया लगता है?"

सुदर्शन झेंप मिटाने की नीयत से सफाई देते बोला, “नहीं-नहीं, नयी दाढ़ की टीस के मारे अभी तो किट्टी की स्केटिंग में खोया था !”

"ओह, व्रोन्स्की की जगह लेविन बनने के लिए मन ललचा रहा है? गुलाब का फूल तो जो चाहे वही तोड़ लेता है। मगर आकाश का चाँद किसी के भी हाथ नहीं लगता ।”

यह चुनौती उछालकर नर्स मुँह मस्कोरती हुई लोह की जाली के पीछे अदृश्य हो गयी, जैसे धरती का चाँद काले पर्दे की ओट में छिप गया हो !

नम्बर हाथ लगते ही तीन-चार सिन्धी औरतें आश्वस्त होकर औरतों की बेंच पर बैठ गईं। नर्स के आने से पहले सुदर्शन जिस जगह बैठा था, उसी जगह दस वर्ष की एक बाला दाँतों की पीड़ा के मारे छटपटा रही थी । रोने से बच्चे की सुन्दरता बढ़ती है, जवान की घटती है - चो औरत हो, चाहे पुरुष । उसकी माँ आँसू पोंछकर गाल सहलाती, सान्त्वना देने की खूब कोशिश करती मगर बेटी के हठीले आँसू बिल्कुल नहीं थमे । माँ की ममता से दाँतों की पीड़ा कहीं ज्यादा थी। बच्चे के उन्मुक्त आँसू किसी का अंकुश नहीं मानते। माँ से बेटी की शक्ल कितनी मिलती थी? दोनों का स्वभाव भी मिलता-जुलता होगा? यदि माँ के दातों में पीड़ा होती तो क्या वह भी इस कदर रोती ? आँसू बहाती ? आँखों के अमोलक मोती या तो बेटी की कसूमल फ्रॉक में अटक जाते या नीचे फर्श पर बिखर जाते । सामने देखने की हिम्मत नहीं होती। केवल छह-सात बरस की देर है, रोने वाली यही बच्ची किसी से प्रेम करेगी। मुस्कराएगी। हँसेगी। शादी होने पर प्रसव की पीड़ा से कराहेगी। इसी तरह छटपटाएगी ।

“डॉक्टर सा'ब आ गए। डॉक्टर सा'ब आ गए ।” पूरे बरामदे में फुसफुसाहट व्याप्त हो गई। सुदर्शन ने घड़ी देखी - डॉक्टर साहब के आये बगैर आठ क्योंकर बजते ? घड़ी की सुइयाँ तो जैसे उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही हों ! पर डॉक्टर साहब तो नीची गर्दन किए अपनी तेज चाल से आते दिखे तब तक कमरे में ओझल हो गए। प्रतीक्षा का उफान नीचे बैठ गया । किन्तु रोती बच्ची के आँसू नहीं थमे । वह और अधिक छटपटाने लगी। डॉक्टर का डर भी पीड़ा से कम नहीं होता !

डॉक्टर साहब का भीतर घुसना हुआ और दूसरे ही क्षण नर्स आधा किवाड़ उघाड़कर बोली, “ नम्बर एक और नम्बर दो ।"

दो आदमी हड़बड़ाकर तुरन्त खड़े हुए, मानो बिजली का झटका लगा हो । नर्स के सामने खड़े होकर अन्दर जाने के लिए इस तरह आतुरता प्रकट करने लगे, जैसे अपने ही हाथों स्वयं अपना इलाज करेंगे। नर्स ने आधी पलकें उठाकर तीन नम्बर की तरफ देखा, मानो पश्चात्ताप की निगाह से स्वीकार करती हो - जानती हूँ, तुम सबसे पहले आए । मगर उतावले हाथों ने मेरा कुछ भी वश कहाँ च दिया? बेमन से दो नम्बर थमाने पड़े। पर अब देर ही क्या है? तीसरा नम्बर तुम्हारा । बस, आवाज देने के लिए अभी वापस आई !

बेचारे कान तो बोलने पर सुनते हैं, मगर मन तो वाणी से परे सुनता है, बोलता है !

सामने खड़े मरीजों की झुंझलाहट बुरी लगी तो उससे दरवाजे पर खड़ा नहीं रहा गया। पीछे के पीछे दोनों मरीज झटपट अन्दर घुस गए ।

सिन्धी लड़की का रोना और छटपटाना उसी तरह जारी था ।

सुदर्शन के हाथ में अन्ना करेनिना थमी हुई थी। दोनों की मर्यादा निबाहने के लिए दुहरी जिम्मेवारी ! पोथियों के ज्ञान की थोड़ी-बहुत प्रतिष्ठा तो होती ही है । गीता, बाइबिल और कुरान की दुहाई देने वालों की अपनी अन्तर्प्रकृति वे ही जानें, पर सुदर्शन के अपने मानस की तो पहचान ही अलग थी। अन्ना के पवित्र प्रेम और तोलस्तोय की कलम के साथ-साथ उसे अपनी मर्यादा भी तो बचानी थी। उपाय सूझने के साथ ही पुचकारती माँ के पास जाकर पूछा, “आपका नम्बर क्या है ?"

“तेरह ।” टिकले की ओर देखे बिना ही माँ ने जवाब दिया। नम्बरों का काम पुख्ता है !

“बच्ची को काफी तकलीफ है।” सुदर्शन अटकता अटकता कहने लगा, "देर से बारी आएगी। मेरा नम्बर ले लीजिए, जल्द इलाज हो जाएगा।"

“ ना ना, ऐसी कोई खास तकलीफ नहीं है।" माँ ऊपरी मन से कमजोर स्वर में इनकार करती बोली, “आपको भी तो जल्दी होगी?"

“नहीं, मुझे कोई जल्दी नहीं है। बच्ची का रोना नहीं सहा जाता ।”

सच्ची मनुहार से उसने हाथ बढ़ाया तो माँ ने अपना टिकला उसे सौंप दिया । मुस्कराहट की मौन वाणी में उसका यथायोग्य आभार माना ।

नम्बरों की अदला-बदली समझने योग्य अभी बच्ची की उम्र नहीं हुई थी। उम्र होने पर कई विचित्र बातें अपने आप ही सीख जाएगी। फिर भी इसे नये लेन-देन की वजह से उसका रोना बन्द हो गया। फ्रॉक से आँसू पोंछकर युवक के हाथ में थमी पोथी की ओर टुकुर-टुकुर देखकर पूछा, “पोथी में तस्वीरें हैं क्या?"

हामी का मीठा उत्तर सुनते ही वह माँ की गोद छोड़कर उसके पास खड़ी हो गई। सुदर्शन ने सबसे पहले उसे तोलस्तोय की तस्वीर बताईं ।

“आ...हा, यह तो दाढ़ी वाला बाबा है!” फदाफद नाचती, माँ के सामने मुँह करके बोली, “कितनी लम्बी दाढ़ी है, माँ देख तो ?”

बेटी के इस नये मन बहलाव से माँ को सचमुच बड़ी खुशी हुई। आधी रात ढलने पर रोने लगी थी, सो अब कहीं जाकर चुप हुई। तो क्या अब तक झूठा बहाना कर रही थी ?

“ इस बाबा ने ही यह मोटी पोथी लिखी है।” सुदर्शन ने तोलस्तोय की दाढ़ी पर अँगुली फिराते कहा ।

“ इस बाबा ने ?" अचरज से आँखें फाड़कर बोली, “यह पोथी तो अंग्रेजी में है! दाढ़ी वाले बाबा में इतनी समझ होती है क्या ? मेरे भाई के तो अभी मूँछें ही नहीं आयी, दनादन अंग्रेजी बोलता है, पढ़ता है ! ”

दरवाजे के पास पाँच-सात मरीजों की उतावली देख नर्स ने आधा दरवाजा खोलकर अन्दर से ही नम्बर बाँट दिए । नम्रतापूर्वक बोली, “यहाँ खड़े मत रहिए, बैठ जाइए। "

“ यह बाबा मामूली हस्ती नहीं है... । "

"साँईं बाबा जैसी हस्ती ?" माँ ने बीच ही में शंका प्रकट की ।

सुदर्शन के सर पर जैसे लट्ठ पड़ा हो। मुँह बिदकाकर बोला, “अरे नहीं, बेचारा साँईं बाबा इसके सामने मरे कि जिए। इसने तो बीसियों मोटी-मोटी पोथियाँ लिखी हैं, एक-से-एक बढ़कर !” माँ की ओर से मुँह फिराकर उसने बच्ची से कहा, “यह बाबा की बहू...! "

“हें...ऐसे बूढ़े बाबा की ऐसी जवान बहू? यह तो बेटी लगती है...!”

सुदर्शन को बरबस हँसी आ गई । कसकती दाढ़ी में और अधिक टीस उठी । तुरन्त हँसी रोककर कहने लगा, “ठेठ से ऐसा थोड़ा ही था बाबा! जवानी के दौरान बहू से ज्यादा खूबसूरत और जवान था । दाढ़ी-मूँछ तो बहुत बाद में आईं।” तत्काल ही सुदर्शन को महसूस हुआ कि वह काफी अतिरंजना कर रहा है । पर बच्चों का सत्य बड़ों से मेल नहीं खाता !

दाँतों का दर्द भूलकर कई मरीज जबरन हँसे । बेटी को हँसती देखकर माँ भी हँसी । जैसे डॉक्टर का इलाज होने के पूर्व ही उसका उपचार हो गया हो ।

“नम्बर तीन और चार !” तीन पर कुछ अधिक जोर था ।

माँ का एक कान तो कब से उधर ही लगा हुआ था। झटपट खड़ी हुई । बेटी की बाँह पकड़ उसे खींचने लगी। चार नम्बर वाला युवक ठुड्डी दबाता हुआ दरवाजे पर खड़ा हो गया।

“माँ, मैं तो तस्वीरें देखूँगी।” बेटी ने बिसूरते स्वर में हठ किया, “तू भीतर चली जा, मैं सारी तस्वीरें देखकर आऊँगी।”

“ दाँत तेरा दुख रहा है कि मेरा ?" आधी मुस्कराहट और आधी खीज के भाव से मुँह बिदकाकर माँ बेटी को कमरे की तरफ तगतगाने लगी । और बेटी पोथी वाले युवक की ओर देखकर जोर से चिल्लाई, “बा...बा...!”

नर्स का ध्यान कहीं और अटका हुआ था । उत्खनित निगाह से पोथी वाले युवक की ओर देखकर तीखे स्वर में बोली, “ नम्बर तीन, सुना नहीं ? "

लेकिन वह तो फिर भी सुनी-अनसुनी करके उसी तरह बेंच पर बैठा रहा । नर्स की आँखों के सामने टिकले पर अंकित तीन की संख्या बताकर माँ तो निश्चिन्त हो गयी, मगर नर्स के कलेजे पर जैसे टिकले का डाम लगा हो! अचरज और खीज दरसाते पूछा, “हें...यह नम्बर तुम्हें कैसे मिला? मैंने तो ... ।”

नम्बर का जोर नर्स के जोर से भारी था। नर्स देखती रही और वह चार नम्बर के साथ बेटी का हाथ पकड़कर कमरे में घुस गई। नर्स किसी से भी क्या पूछताछ करती? होठों पर उछलते कई सवाल वापस गले के भीतर फिसल गए !

माँ ने नर्स का ललाट तना हुआ देखा तो उसे खुश करने के लिए, जो बात घटित हुई, उसे अधूरे मन से पूरी बता दी। नर्स ने आधी बात सुनी और आधी बिना सुने ही समझ ली। माँ चुप हुई तब नर्स ने धीरे-से पूछा, “तुम्हें क्या नम्बर मिला था...?"

“तेरह ।” नर्स की रंगत पहचानकर माँ फिर सफाई देते कहने लगी, “मैंने तो खूब मना किया। पर वह माना ही नहीं। बेटी के आँसू देखकर उसने जबरन अपना टिकला मुझे थमा दिया । "

" तो इसमें अफसोस की बात क्या है? जल्दी ही इलाज हो जाएगा। नहीं माना तो न सही। अपनी करनी आप भुगतेगा ।"

माँ को जवाब तो बढ़िया ही सूझा था, पर राम जाने क्या सोचकर बोलते-बोलते रुक गई !

जोर-जोर से चिल्लाती बेटी का रोना बाहर साफ सुनाई दे रहा था । साथ-ही-साथ माँ का चिढ़ना और डॉक्टर का पुचकारना भी । बाहर बरामदे में नम्बरों का लगातार तकाजा भीतर सुनाई पड़ा तो नर्स के कहने पर मटिया वर्दी के फर्राश ने पूरी मुट्ठी भरकर दनादन नम्बर बाँट दिए । चाहे धूल ही बाँटो, मगर बाँटने का गुमान अपनी अहमियत प्रकट किए बिना नहीं रहता। फर्राश के चेहरे पर ऐसा हर्ष छलक रहा था कि जैसे टिकलों के बहाने मोहरों की बख्शिश कर रहा हो ! और याचक हाथों ने दूने उत्साह से टिकले क्या कबूल किए, मानो अमूल्य हीरे-मोती हाथ लगे हों !

सुदर्शन के कानों में बच्ची का जोर से चीत्कार सुनाई पड़ा। डॉक्टर का इलाज शुरू हो गया लगता है ! वह आँखें तरेरकर बन्द कमरे की तरफ देखने लगा। नादान बच्चे तो दवा और इलाज के नाम से ही बिदकते हैं । इनके लिए तो अस्पताल ही अलग होना चाहिए । तरह-तरह के झूले । पंछी - जानवरों की फुलवाड़ी। तरह-तरह के खिलौने । सन्त स्वभाव वाले नामी डॉक्टर । निर्लोभी । निर्मल... ।

माँ का हाथ पकड़कर रोती बच्ची बाहर आयी तो सुदर्शन की कल्पना का गुबार ही जकड़ गया ! लेकिन बच्ची की नजर पोथी पर पड़ी तो वह सुबकियाँ भरती जोर से बोली, “माँ, बा... बा!”

होठ खुलते ही इकट्ठा किया हुआ थूक फ्रॉक पर ढलकने लगा। माँ ने रूमाल से उसका मुँह पोंछा फ्रॉक की बहती लार पोंछी । बच्ची तो मौका मिलते ही हठ करती बोली, “माँ, बाबा की बहू... ।”

बच्ची माँ का हाथ खींचती हुई उसे सुदर्शन के पास लाई । तस्वीरें देखने के उछाह में दाँत का दर्द विस्मृत हो गया ।

कमरे के बाहर इस बार नर्स के बदले फर्राश की भारी आवाज सुनाई दी, 'नम्बर पाँच और नम्बर छह ।” कोयल और कौए की बोली में इतना भेद होता है क्या? सुदर्शन को काफी आश्चर्य हुआ !

तत्पश्चात् हर बार फर्राश आवाज देता रहा और अतिरेक उतावली में मचलते दो-दो नम्बर कमरे में दाखिल होते रहे। मरीज दाँत भींचते हुए भीतर जाते और होठ भींचते हुए बाहर आते । किसी के गाल पर हाथ दिया हुआ तो किसी के मुँह पर रूमाल धरा हुआ । नाक पर सलवटें । ललाट पर सलवटें । सारी दुनिया के लिए उनकी झुंझलाहट का कोई पार नहीं था! दाँतों की बत्तीसी में किसी भी तरह का कोई दर्द न हो, तभी मनुष्य जीवन की सार्थकता है !

बरामदे में प्रतीक्षारत मरीजों की केवल एक ही आकांक्षा थी - कब लोह की जाली का पट खुले और कब फर्राश की आवाज सुनाई दे !

इस बार कोयल की बोली का अमृत बरसा, “ नम्बर तेरह और चौदह । " नर्स ने जानकर ही पीठ फिराए आवाज दी। दो दूसरे ही उतावले मरीज सामने आए। एक बार फिर कुछ जोर से आवाज दी तो तेरह नम्बर वाले अधबूढ़ मनुष्य ने नर्स की आँखों के सामने टिकले का प्रमाण बताते कहा, “पोथी वाले एक भले आदमी ने बेटी को रोते देखा तो अपना नम्बर मुझे सौंप दिया। दुनिया में नेक इनसानों की कमी थोड़े ही है ! "

अब कहीं बाप के कन्धे का सहारा लिए बेटी नर्स को दिखलाई पड़ी। इतनी बड़ी होकर भी बुरी तरह सुबकियाँ भर रही थी। कोई नेक इनसान भलाई करे तो वह मना करने वाली कौन होती है? मगर भले आदमी को लड़कियों के अलावा दूसरे मरीजों की भलाई क्यों नहीं सूझती ? अपनी-अपनी समझ और अपनी-अपनी सूझ ! लेकिन अस्पताल के अनुशासन में बँधी नर्स की समझ और सूझ कुछ भी काम नहीं आयी, उसे तो अपना फर्ज निबाहना था। रजिस्टर में दोनों मरीजों का ब्योरा लिखा । लड़की का नाम था - मोहिनी उम्र अट्ठारह साल । दूसरे मरीज का नाम था - खेमचन्द ! उम्र बयालीस ।

मोहिनी, केवल नाममात्र की ही मोहिनी थी । चेहरे में कोई खास दम नहीं था। सुबकियाँ भरती और भी भद्दी लग रही थी। रोने से दर्द तो कम होने से रहा! उलटा जवानी का खम बिखरने लगता है । खाली पर्ची पर आड़ी-टेढ़ी लकीरों का जाल बुनती नर्स होठों - ही- होठों में बड़बड़ाई, “ अपनी मर्जी से नम्बर बदले तो मैं क्या करूँ...?"

“क्या कहा ? " मोहिनी के बाप ने तिल में आँखें गड़ाकर अचरज से पूछा ।

“ओह... मैं पूछ रही थी कि तुम्हें... तुम्हें क्या नम्बर मिला?”

"बाईस।"

"बाईस !”

“हाँ, बाईस मना करते-करते भी जबरन थमा दिया। आदमी तो भला ही दिखता है। मगर आजकल के पढ़े-लिखे छैलों की मंशा तो भगवान भी नहीं जानते । बहनजी, जमाना ऐसा बुरा है कि अपनी छाया तक का भरोसा नहीं करना चाहिए। सब समझता हूँ, मगर बेटी की सुबकियों के आगे झुकना पड़ा। मुझे तो सफेद-सफेद सब दूध ही नजर आता है, फिर उसका करम-धरम वो जाने...!”

फर्राश को किसी दूसरे काम में रुँधा देख, डॉक्टर आडवानी ने नर्स से कहा, “ माचिस ।"

अच्छी तरह सुनने के बावजूद भी न जाने क्यों नर्स को कुछ ख़याल नहीं रहा ! माचिस के बदले रूई सामने करती धीरे से बोली, “लीजिए।”

डॉक्टर ने बाएं पैर से मशीन का खटका दबाया। खर्र खरे की आवाज करती मशीन चालू हुई। काम करते-करते ही उन्होंने सर हिलाकर कहा, “रूई नहीं, माचिस !”

नर्स भीतर-ही-भीतर इस कदर फड़फड़ाई मानो चोरी करते रंगे हाथों पकड़ी गयी हो ! घबराहट को नियन्त्रित करके तुरन्त डॉक्टर के सधे हाथ में माचिस थमाई। नर्स को अपने-आप से ऐसा डर कभी नहीं लगा, जैसे पहली बार नया परिचय हुआ हो! बड़ी मुश्किल से पहचान सकी...!

कुछ देर बाद वह अपनी चेतना के परे ही नव साक्षर की भाँति मन-ही-मन जोड़ - बाकी करने लगी। तेरह में नौ जुड़ें तो बाईस ! बाईस में से तेरह गये-पीछे बचे - नौ, नौ! तो नौ मरीज और बाकी हैं ! आज राम जाने क्यों डॉक्टर साहब इतना वक्त लगा रहे हैं? डेढ़ा । दूना। भला, मोहिनी की खातिर तीन दफा मशीन चलाने की क्या जरूरत थी ? बेचारे खेमचन्द की रोनी सूरत पर देरी की झुंझलाहट साफ नजर आ रही है। अपने आप से परेशान होकर घड़ी देखी - पौने नौ बजने वाले हैं। पैंतालीस मिनट में तेरह मरीज सलटे तो नौ जनों में पच्चीस मिनट या आधा घण्टा लगेगा। शायद कुछ अधिक समय ही लगे। ऐसा सीधा - सरल हिसाब उसने कभी नहीं किया। आज बच्चे की तरह जोड़ बाकी के झंझट में कैसे फँसी ? ज्यों-ज्यों इस हिसाब से बचने की कोशिश करती, त्यों-त्यों उसके जाल में अधिक फँसती गई ! समय की बचत के लिए सहसा एक उपाय सूझा। डॉक्टर के पास जाकर विनम्रता से बोली, “इनका ट्रीटमेण्ट मैं शुरू कर दूँ...? "

काफी समय से उनके पास काम करती नर्स पर उन्हें पूरा भरोसा था, मगर आज स्वयं आगे बढ़कर इतनी दिलचस्पी क्यों दिखाई ? डॉक्टर की स्वीकृति के साथ ही वह मुस्कराती बोली, “खेमचन्दजी, आप इस कुर्सी पर आइए । ”

मरीज के दिल में कुछ आशंका नजर आयी तो डॉक्टर ने कहा, “आप कतई चिन्ता न करें, मुझसे ज्यादा होशियार है। केवल डॉक्टरी का ठप्पा ही नहीं लगा । "

मरीज का मन बड़ी मुश्किल से आश्वस्त होता है । तुरन्त दूसरा बहाना नहीं सूझा तो उसे विवश होकर कुर्सी पर बैठना पड़ा।

“डरिए नहीं, दाँत नहीं उखाडूंगी। नया दाँत पैदा करना हाथ में नहीं है तो आसानी से निकालना क्यों...?” खेमचन्द के कानों में मिश्री के मिठास जैसा स्वाद उतरा। घड़ी दो घड़ी यह बोली, सुनने मात्र से ही दाँत का दर्द ठीक हो जाता । कर्कशा घरवाली ऐसी गले पड़ी की आठों पहर बात-बेबात गुर्राती रहती है! इस कारण शरीर के रोम-रोम में बीमारी फैल गई।

अँगुलियाँ - कैसी नरम-नरम और गुलाबी ! मखमल की तरह ! नर्स की तेज-तर्रार दृष्टि पुरुषों का अन्तस् बाँचने के लिए काफी पारंगत थी ! जवान हो चाहे बूढ़ा, अमीर या गरीब, शिक्षित या गँवार, बदसूरत या खूबसूरत, परिचित या अपरिचित - सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। ओजरी सहित समूचा शरीर ही जैसे गन्दगी से आविष्टित हो ! बदबू तो आएगी ही! मगर यह तो रोजमर्रा की रामायण है ! कब तक कोई परेशान हो ! जानकर अनजान बनना ही इसका एकमात्र उपचार है!

तो - मोहिनी और खेमचन्द का नाम याद हुआ, उसी तरह रजिस्टर में ब्योरा टीपने से उसका नाम भी याद हो जाएगा ! उम्र तो बराबर ही मालूम पड़ती है; उससे एक बरस बेशी या एक बरस कम ! पूछने पर सही पता लग जाएगा । किसी की उम्र पूछने की जिज्ञासा के निमित्त नर्स के मन में पहली मर्तबा संकोच का बुदबुदा उठा। ज्यादा संकोच भी किस काम का? जैसे अपने ही सामने अपने मन को पक्का कर लेना चाहती हो... हाँ-हाँ, उसका इलाज वह स्वयं अपने हाथों से करेगी ! डॉक्टर साहब से कई बार गफलत हुई हैं! मगर नर्स को डॉक्टर की गलती पकड़ने का अधिकार नहीं है !

डॉक्टर का इशारा मिलते ही उतावले फर्राश ने जाली का पट उघाड़कर हाँक लगाई, “ नम्बर पन्द्रह और सोलह ।”

दूसरे ही क्षण दो मरीज फाटक से अन्दर आए। कितनी जल्दबाजी है! धीरज तो इन भले आदमियों के पास होकर ही नहीं फटका ! और एक वो हजरत - अन्ना की प्रीत में बौराया हुआ ! नम्बर पर नम्बर बदल रहा है! शायद अब तो सुध-बुध ठिकाने आयी होगी! पीड़ा से परेशान होकर कितना जल्दी आया ! फरासिन से भी पहले-सूरज की अगवानी करता हुआ ! रातभर करवटें बदली होंगी! तब दाता का यह गुमान क्या भाव पड़ेगा? अपने साथ भी किसी को इस तरह अत्याचार करने का क्या अधिकार है! परोपकार की भावना में सच्चाई का पुट अधिक होता है या नामावरी का उछाह ? लेकिन उसने तो अपनी जैसी-तैसी समझ के अनुसार भलाई की ऐसी बानगी नहीं देखी ! ऐसी अकिंचन व नगण्य बात किसे नजर आती है ? अपनी जलन के आगे दूसरों के दावानल की किसे आँच लगती है... ?

“ नम्बर दीजिए, नम्बर ।” बरामदे में अधीर मरीजों का तकाजा भिनभिना रहा था। नर्स के कानों में जैसे बर्रों का छत्ता छिड़ गया हो ! नाक व ललाट में खीज की सलवटें तानकर उसने क्षणभर के लिए जाली के कपाट की ओर देखा और फर्राश को मुस्कराकर संकेत किया। उसने लपककर पूरी मुट्ठी भरी और बीड़ी का आखिरी कश खींचता हुआ कमरे से बाहर निकल गया। उसके लिए कुछ भी नयी या अनहोनी बात नहीं थी । साँस लेती मशीन के लिए न तो कुछ पुराना होता है और न कुछ नया ही! हर बार भीतर के दो मरीजों का उपचार होते ही वह बेझिझक बाहर जाकर अगले दो नम्बरों की हाँक लगा देता । जैसे सर्कस का प्रशिक्षित बन्दर अपने करतब दिखा रहा हो ! खटका दबाते ही मशीन चालू हो जाती । और मशीन के साथ ही डॉक्टर के हाथ, पाँव और आँखें काम में मुस्तैद ! मनुष्य के प्रपंच की यह कैसी विडम्बना कि वह मशीनों को मनुष्य की गद्दी सौंपना चाहता है और मनुष्य को यन्त्र के साँचे में ढालना चाहता है ! मशीन के साँचे में ढलने वाली नर्स के पुरजों में आज पहली बार झनझनाहट मची! बरस बीत गये, अपने-आप की सार-सँभाल किए ! और आज पड़ताल की तो अन्तस् का अप्रत्याशित बदलाव देखकर उसका दिल दहल उठा ! यन्त्र के समान काम करने वाले मनुष्य जीवन की रंचमात्र भी सार्थकता नहीं है !

एक-एक मरीज के फारिग होने पर नर्स के दिल से मानो कोई असह्य बोझ उतर रहा हो ! हर बार वह डॉक्टर से पहले अपने मरीज को सलटा देती ! उन्नीस नम्बर के फारिग होते ही उसे अपना स्वप्न साकार होता नजर आया ! अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखेगी, नाम पूछेगी, उपचार करेगी! मगर इस बार बाहर जाकर हाँक लगाने में उसे संकोच हुआ तो उसने फर्राश को सहमते स्वर में आदेश कर दिया।

“ नम्बर इक्कीस और बाईस। "

दो की बजाय मानो हजार-हजार आँखों से वह दरवाजे की तरफ देखने लगी ! पर ये तो दोनों ही मरीज दूसरे हैं! आँखें न होतीं तो अच्छा था ! पूरा का पूरा कमरा किसी विस्फोट के धमाके से उछल गया हो ! ट्यूब लाइटें बिखरकर चकना चूर हो जाएँगी! मशीनों के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे ! सब कुछ उछल गया ! ध्वस्त हो गया! डॉक्टर की ओर मुँह फिराकर उसने जोर से आँखें बन्द कर लीं। कुछ देर बाद डरते-डरते आँखें खोलीं तो कमरा ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ चारों तरफ घूम रहा था! बड़ी मुश्किल से सामान्य मनःस्थिति हुई ! अपने-आप से लड़ना बहुत मुश्किल है!

“सिस्टर ?"

नर्स ने मुड़कर देखा। अमोलक सिंघवी के होठों पर मुस्कान छलकती नजर आयी तो उसे भी जबरदस्ती मुस्कराना पड़ा! बेइन्तहा सुन्दर । छह फुट लम्बा । मोतिया रंग। फीरोजी आँखें । नर्स हड़बड़ी में उठकर पास आयी तो वह और ज्यादा लम्बा महसूस हुआ ! अमोलक सिंघवी ने विम्रतापूर्वक पूछा, “तो फिर शाम को कालाने चलना या यहीं हॉस्टल में गोठ रखनी ? मेरे ख़याल से तो कायलाना ही ठीक रहेगा।"

“आप जानें। मगर अमोलक बाबू, मुझे इस जिम्मेवारी से छुटकारा दीजिए। मैं अपनी ही जिम्मेवारी ओढ़ लूँ तो काफी है! सबसे पूछताछ करके हैरान हो गई। कोई कुछ कहती है, कोई कुछ अड़ंगा लगाती है। दो बजे हॉस्टल में आकर आप खुद रू-ब-रू दरियाफ्त कर लें। अच्छा हुआ कि आप ऐन वक्त पर आ गये, वरना मैं फोन करने वाली थी । "

“आप वहीं मिलेंगी?"

"और कहाँ ? दूसरी ठौर ही कौन-सी है? कबूतर को कुआँ और नर्स को हॉस्टल...!"

चार वर्ष पहले नगरसेठ हीराचन्द सिंघवी ने नर्सों के लिए एक शानदार हॉस्टल बनवाया । दिल का दौरा तो भयंकर ही था, मगर नर्सों की लाजवाब तीमारदारी के फलस्वरूप वे देवलोक जाते-जाते बच गए ! बच्चों के प्रबल भाग्य से उन्हें फिर मृत्युलोक का निवास कबूल करना पड़ा; अन्यथा उन्होंने तो अन्तिम रूप से कूच करने की तैयारी कर ली थी ! सानन्द और पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर हवेली पहुँचे तो सबसे पहले प्रिंसिपल को फोन किया कि नर्सों की सेवा - बन्दगी के प्रतिदान - स्वरूप वे यथाशक्ति हॉस्टल बनवाना चाहते हैं । यथाशक्ति भरपूर थी, इसलिए कुछ ही महीनों में हॉस्टल धड़ल्ले से सम्पूर्ण हो गया । छठे महीने तो गाजे-बाजे के साथ प्रतिष्ठा भी हो गई। चार साल से अधिक समय गुजर चुका, लेकिन उस रात के खाने का स्वाद लोग आज भी नहीं भूले हैं। तब से सेठजी का सर भी वापस नहीं दुखा । जैसा दातार बाप, वैसा ही सपूत बेटा। हर साल पिताश्री की वर्षगाँठ के मांगलिक अवसर पर सभी नर्सों को गोठ देता है। इस बार कायलाने गोठ देने की इच्छा हुई । लेकिन नर्सों के जितने माथे, उतने ही मत! अभी सिस्टर के पास अन्तिम निर्णय की जानकारी प्राप्त करने के लिए आया। कहने के लिए पिता के पुनर्जीवन का माकूल बहाना तो है ही, मगर नर्सों की संगति से बेटे को अनहद खुशी भी प्राप्त हो जाए तो नुकसान क्या है? इस सिस्टर को तो ब्याह के लिए भी तीन बार पूछा, मगर वह किसी भी तरह राजी नहीं हुई ! फिर भी अमोलक सिंघवी के दिल में कोई दरार नहीं पड़ी दूरी का आकर्षण भी कुछ कम नहीं होता ! दो-एक डॉक्टरों ने भी साँवले तिल से प्रेरित होकर अपने मन का अगम भेद उजागर किया पर उसके रूखे मरुस्थल में किसी के लिए कोई भेद नहीं था, तब क्या उजागर करती ? उसकी अस्वीकृति में भी वैसी ही मुस्कान घुली रहती ! उसी पाषाण हृदय में आज यह कैसा सुकोमल अंकुर प्रस्फुटित हुआ? अब तक वह सहेलियों की समझ पर हँसती थी ! उनका मखौल उड़ाती थी ! अब वे तानाकशी करेंगी ! इतने बरस अपने ही भीतर का सर्वांग उससे क्योंकर अगोचर रहा? बाहर की छाया तो स्पष्ट दिखलाई पड़ती है, पर भीतर की छाया तो आज पहली बार दृष्टिगोचर हुई, जिसने अन्तस् का सब कुछ आच्छादित कर रखा है। पता नहीं अपने आप से हारी या जीती ? कहीं सात समन्दर पार अन्ना की आत्मा तो उसकी रग-रग में नहीं बस गयी? कुछ ही देर पहले फीरोजी कुरते वाले युवक से किस तरह निःशंक बातचीत की थी, पर अब तो जाली के बाहर झाँकने की शक्ति ही पस्त हो गई ! पुरुषों से मिलने में कैसी झिझक ? कैसा संकोच ? वह सबसे अधिक निडर थी, उन्मुक्त थी जिस मर्म से अब तक कोई वास्ता नहीं पड़ा, उसी ने उसके रोम-रोम को जकड़ लिया ! कहाँ तो वह अब तक एक चिड़िया की तरह निर्विकार चहकती थी और कहाँ एक अपरिचित मरीज की झाँकी के लिए जाली के पट की ओर देखना भी दूभर हो गया ? मानो रक्त के बदले रग-रग में स्वयं लज्जा ही प्रवाहित होने लगी हो ... !

बाईस नम्बर के प्रमाणस्वरूप, प्रीतम की उस छवि के बदले, एक बूढ़े बिश्नोई का उपचार करते समय मानो नर्स के मन में साही दुबक गयी हो, “सफेद पैण्ट, फीरोजी कुरता, आधी बाँहें चढ़ी हुईं, अत्यधिक काले और घुँघराले केश, हाथ में तोलतोय की अन्ना करेनिना । कत्थई रंग पर स्वर्णिम चित्रकारी !' न उसका नाम जानती है और न धाम ! उसकी ठौर - सालूराम बिश्नोई | उम्र चौवन बरस । सफेद धोती, सफेद चोला । सफेद बाल और सफेद ही दाढ़ी। हाथ में तारों के बन्द लगी लाठी । नीचे के बाएँ जबड़े की अन्तिम दाढ़ तीन दिन से कसक रही है । न दिन को चैन और न रात को । क्षणभर के लिए भी आँख नहीं लगी । राम जाने उसके किस दाँत में दर्द है? कब से? हाँ... हाँ, नयी दाढ़ के दर्द की बात बताई तो थी ! तो हजरत के अक्ल दाढ़ आ रही है ! अक्ल का नमूना तो सामने ही है ! पर साथ-ही-साथ मेरी अक्ल क्यों मारी गयी? पोथी की चर्चा नहीं करके नयी दाढ़ के दर्द का हाल पूछती तो अच्छा रहता । फिर भी ... फिर भी ऐसे घनघोर संघर्ष के बावजूद नर्स ने सालूराम बिश्नोई का सधे हाथ से इलाज किया। बूढ़े को रंचमात्र भी तकलीफ नहीं होने दी ।

अकस्मात् निबिड़ अन्तस् की गहराई से एक प्रश्न कौंधा - बाईस नम्बर का टिकला उसके.... उसके हाथ से कबूल किया इसलिए? मरीज दूसरा हुआ तो क्या, नम्बर तो वही है! ऊँ..हुँ... कोरे - मोरे नम्बर का लिहाज नहीं रखा जाता । महत्त्व तो केवल नाम और सूरत का ही है। सूरत... ? जागृत मन अदेर फुफकार उठा-नर्स को मरीज की सूरत से क्या सरोकार ? उसे तो केवल बीमारी से ही वास्ता रखना चाहिए ! ना ना, अकिंचन टिकले की क्या बिसात कि जिसके लिए उसने पक्षपात किया। वह तो सभी मरीजों के साथ ऐसा ही अकृत्रिम बरताव करती है। नर्सों के लिए कौन करीब और कौन दूर ? पिछले पखवाड़े में कदाचित् तीसरी बार या चौथी बार अन्ना करेनिना को उछाह से बाँची। जितनी बार बाँची उतनी ही बार नयी लगी। कई अगम भेद उजागर हुए और होते रहेंगे। जिसकी सीमा कभी नहीं आएगी ! हॉस्टल में जाते ही फिर से बाँचेगी। यदि किसी तरह यह सर्वोत्तम संस्करण उसके हाथ लग जाए तो और क्या चाहिए? केवल तोलस्तोय की पोथी से उत्प्रेरित होकर उससे आत्मीयता प्रकट की, अन्यथा प्रेम या प्रीत का तो वह रास्ता ही नहीं जानती ! बात और बात का नाम ! कैसे निराधार जंजाल में फँस गयी? कभी-कभार दाँतों की टीस के समान, विशेषतया औरतों के अन्त में अजाने ही यह दारुण दर्द उठता है, उसका अधिक ख़याल नहीं रखना चाहिए !

बाबा कुर्सी छोड़कर उठने लगा तो नर्स ने अबोध बच्ची की तरह अपने होठों पर पवित्र मुस्कान छितराकर पूछा, “क्यों बाबा, तकलीफ तो नहीं हुई?"

"बेटी, तेरा राम भला करे।" सर पर साफा धरकर बाबा कहने लगा, "तेरे हाथ का ऐसा हुनर कि एक बार तो झपकी आ गयी ! तीन दिन का जागरण था, दर्द के मारे पलक ही नहीं झपी । तेरी सूरत पर नजर पड़ते ही मुझे भरोसा हो गया। आसीस दूँ, जितनी थोड़ी है । "

"बुजुर्गों की तो आसीस ही चाहिए। "

बाबा लाठी सँभालकर बाहर जाने लगा तो नर्स की समूची देह में झनझनाहट फैल गयी - एड़ी से चोटी तक या चोटी से एड़ी तक, ठीक पता नहीं चला ! हड़बड़ाहट में उसका पीछा करते धीरे से पूछा, “बाबा, तुम्हें क्या नम्बर मिला था ... ?”

अनपढ़ बाबा गजब का वहमी था। तीन या चार मरीजों को टिकला बताकर नम्बर पूछा । ताजिन्दगी नहीं भूल सकता। और यों याद रखने के लिए अन्य मसाला ही क्या है? मुड़कर देखा तो नर्स का साँवला तिल चमकता नजर आया। उसमें आँखें गड़ाकर बोला, 'उनचालीस ।'

नर्स के दिल में टीस उठी या दाढ़ में...? एक गहरा निःश्वास छोड़ते फिर पूछा, “उनचालीस ?”

“हाँ, बिटिया हाँ - उनचालीस ! अनपढ़ तो जरूर हूँ, मगर गाफिल नहीं । तीन-चार मोतबिरों को पूछा।”

बाबा जमाने की ठोकरें खाया हुआ था। नर्स को कुछ दुविधाजनक स्थिति में देखा तो धीर - गम्भीर स्वर में कहने लगा, “बेटी, एक बात के लिए सावधान किए देता हूँ, याद रखना। यह सफेदी हाट-बाजार में मोल नहीं मिलती। बहुत तपने पर जवानी की कालिख पर सफेद रंग चढ़ा है ! नंगे सिर वाले दोगलों का कोई भरोसा नहीं, कब किसके साथ छल कर बैठें ? ये तो बहन के भी सगे नहीं होते ! फिर परायी का क्या लिहाज रखेंगे? इन्हें दाँतों का इलाज थोड़े ही करवाना है । कोई-न-कोई बहाना चाहिए। आँखें सेंकने की नीयत नहीं होती तो अपना नम्बर थोड़े ही बदलता ! मैं तो जमाने की रग-रग जानता हूँ, पर तू इन लफंगों की नाड़ी नहीं पहचानती । इन्हें जवानी का बुखार है तेज बुखार ! जब किसी अस्पताल में इसकी दवा ही नहीं है तो यहाँ क्यों चक्कर लगाते हैं? तू क्या जानती नहीं? काले नाग का भरोसा कर लेना, लेकिन काले माथे का नहीं ! मेरा यह मन्त्र याद रखोगी तो कभी गड्ढे में नहीं गिरोगी !”

पर इस तरह गड्ढे में गिरना ही तो उबरना है ! और हाँ, नर्स की खातिर यह तथ्य समझना शेष है कि काला नाग ज्यादा घातक होता है या सफेद नाग? अबोध नर्स तो अनुभवी बाबा की बातें सुनकर सतर्क होने की बजाय सकते में आ गयी ! यदि शुरुआत में ऐसे काले मन का पता होता तो ना-ना नर्स का यह धर्म नहीं है ! उसे तो दुश्मन का भी माकूल इलाज करना चाहिए। अपना कर्म, सर्वोपरि धर्म । मगर बाबा का काला मुँह होने पर ही उसका मन शान्त हुआ । खौलते गुस्से पर क्योंकर नियन्त्रण रखा, वही जाने ।

“ तीन, तेरह, बाईस और उनचालीस ! " इस चढ़ती उम्र की कगार पर यह कैसी अप्रत्याशित और अनहोनी गिनती गले पड़ी? ज्यों-ज्यों नर्स इन्हें भूलने की चेष्टा करती, त्यों-त्यों ये हठीले अंक उसके गले में झन्नाट मचाने लगे !

बिना काशी - करवत लिए ही उसे ऐसा महसूस हुआ कि उसकी देह, उसके मन और उसकी आत्मा के दो टूक हो गये हैं! एक टुकड़ा उसे दुत्कारता - छिः छिः, इन अकिंचन टिकलों की खातिर इतनी परेशानी, इतना मन्थन इतना द्वन्द्व ! समझ का लवलेश ही नहीं ! दूसरा टुकड़ा उसे प्रोत्साहित करता कि संसार में छोटा-बड़ा कुछ नहीं होता । छोटा सो ही बड़ा, बड़ा सो ही छोटा ! जिस ईश्वर के नाम का इतना आतंक है, उसका तो कोई रूप ही नहीं है! बीज कितना छोटा होता है। और पहाड़ कितना बड़ा ! किन्तु पहाड़ नहीं बढ़ता, बीज बढ़ता है। कैसी भी अपूर्व दानवीरता की पर्तें छीलने पर अन्त में सड़ी गन्दगी ही शेष रह जाती है ! धर्मार्थ की दृष्टि से संस्थापित ये मन्दिर, ये धर्मशालाएँ, ये अस्पताल और ये विद्यालय इत्यादि सब कुछ काले धन की उज्ज्वल नामवरी है ! कहाँ ये पवित्रतम अमूल्य टिकले - तीन, तेरह, बाईस और उनचालीस - और कहाँ ये तुच्छ बिड़ला मन्दिर !

द्वैत टुकड़ों के बीच परस्पर अचीता महाभारत छिड़ गया। फिर भी एक मर्तबा केवल एक मर्तबा लोह की जाली का पट उघाड़कर प्रीतम को देखने की हिम्मत नहीं हुई ! और उधर उसे न जाने अन्ना करेनिना के किस मर्म की तलाश है? उसके किस अनुराग की आकांक्षा है? यह कैसी विडम्बना है? यह कैसी तान्त्रिक मूर्च्छा है? प्रत्यक्ष झाँकी की बात तो दूर, यदि सपने में भी झलक मिल गयी तो वह थर-थर काँपने लगेगी ! पर कुछ ही देर बाद कमरे में अवतीर्ण होने पर, आँखें बन्द करके उसकी मोहिनी सूरत क्योंकर ओझल की जा सकेगी ? डॉक्टर या नर्स के प्रति आस्था रखने पर मरीज का इलाज भी बखुशी करना पड़ता है। यह तो नर्स का धर्म है। पावन कर्तव्य है । पर वह बावरा तथागत अन्दर तो आये...!

तटस्थ फर्राश कभी धीरे तो कभी जोर से हाँक लगाता और अपनी बारी पर दो-दो मरीज भीतर जाने के लिए व्याकुल हो उठते ।

" तैंतीस और चौंतीस । "

मगर आज तो डॉक्टर आडवानी न जाने किस सनक या किस खुशी में जरूरत से ज्यादा समय लगा रहे हैं? खैर, अब तो केवल पाँच नम्बर ही बाकी हैं। उसे अन्दर आना ही पड़ेगा ! बरामदे व कमरे के बीच लोह की जाली का पट खुलते ही उसकी झाँकी मिलेगी - पीताम्बर ! बाँसुरी ! मोर मुकुट ! ना-ना - सफेद पैण्ट ! फीरोजी कुरता । कत्थई पोथी । स्वर्णिम चित्रकारी । तोलस्तोय की अमर धिया...लाडेसर अन्ना करेनिना, न जन्म के बहाने पैदा हुई और न मृत्यु के बहाने मरेगी...!

अकस्मात् नर्स के कानों में कड़कती गाज उतरी, “सिस्टर, ग्यारह बजने वाले हैं। बचे हुए नम्बर इकट्ठे कर लो ! जल्दी !”

मौत की दग्ध-पुकार ऐसी ही होती होगी! कौन जाने?

अचीती मुस्कान 'की ओट में धधकते अन्तस् की आग छिपाकर नर्स ने कहा, “डॉक्टर साहब, अब तो केवल ... केवल पाँच-सात नम्बर ही बाकी हैं। "

हाथों के साथ-साथ डॉक्टर मानो मुस्कराहट को भी स्वच्छ करने का प्रयास कर रहा हो ! उसी लहजे में बोला, “पहले घड़ी में समय तो देखो ! इतनी देरी तो कभी नहीं हुई !”

मरी घड़ियों के कल-पुरजों की टिक-टिक से भला समय कब नियन्त्रित हो सकता है? मगर नासमझ मनुष्य तो समय की बजाय घड़ियों का ही अध भरोसा करता है...!

डॉक्टर का अनुभव गहरा था। हाथ पोंछते पोंछते ही कहने लगा, “जिन्हें ज्यादा दर्द होता है, वे सात बजे से पहले आ धमकते हैं! इतनी देर से आने वाले, शाम को फिर आ जाएँ तो क्या तकलीफ है? इलाज के साथ-साथ घूमना भी हो जाएगा।"

नर्स तो नारी थी ! उसकी देह में औरत का कलेजा था। दरवाजे की तरफ बढ़ने की बिल्कुल ही शक्ति नहीं रही। मगर फर्राश की मर्दानी देह में मर्द का कलेजा था ! मरीजों ने काफी आरजू-मिन्नत की, तेवर भी दिखाए, पर उसने तो जस-तस बचे हुए नम्बर इकट्ठे कर लिए! मेज के पास खड़े होकर इस कदर जोर से पटके, मानो शेष मरीजों का यही माकूल इलाज हो ! मानवीय शरीर की समूची शक्ति एवं चेतना कानों में केन्द्रित करने पर भी नर्स को अन्ना करेनिना वाले युवक की वाणी सुनाई नहीं पड़ी! आँखों की तरह अभागे कान भी प्यासे रह गए ! पीड़ा या दर्द के लिए केवल अक्ल दाढ़ की ही इजारेदारी नहीं है ! बिना टीस की पीड़ा और भी ज्यादा घनीभूत होती है - एकदम असहनीय ... !

किसी अदीठ...अदीठ स्वप्न से नियन्त्रित होकर नर्स मेज के करीब पहुँची । उनचालीस नम्बर का मैला टिकला हाथ में लेकर सूनी सूनी निगाहों से न जाने क्या निहारने लगी? मगर एक बात निश्चित है कि उस समय सूरज को भी टिकले के भाग्य से ईर्ष्या हुई होगी! देवों के देव, सूर्य भगवान में अक्ल का इतना प्रकाश हुए बगैर अनन्त निबिड़ अन्धकार क्योंकर नष्ट हो पाता... ?

जाने क्या सोचकर जाली का पट उघाड़ते समय डॉक्टर ने पीछे मुड़कर नर्स की तरफ रहस्यमयी निगाह से देखा । “ अरे ! इन टिकलों में क्या खोज रही हो? तुम्हें भी तो समय पर पहुँचना है। तबीयत कुछ खराब है क्या ? "

“नहीं तो....।" फिर थोड़ा मुस्कराकर बोली, “मेरी तबीयत हमेशा दुरुस्त रहती है...। आप चलिए, अभी हाथ-मुँह धोकर आई !”

सचमुच, नर्स के होठों पर धुली हुई स्वच्छ मुस्कान चमक रही थी ! मगर कभी-कभार औरतें आँसू नहीं बहाकर होठों से मुस्कराती हैं! एक जानकारी और भी... कि वैसी मुस्कान की लौ भीषण आग से भी अधिक उत्तप्त होती है! लेकिन उसे देखने के लिए वैसी ही दृष्टि चाहिए! आँखों की अपनी पुतलियों के जोर पर यह लौ नजर नहीं आती!

टप टप की टापों के सहारे ताँगा गुड़क रहा था। नर्स को कुछ ऐसा विवेकशून्य आभास हुआ, जैसे घोड़े की बजाय वह स्वयं ताँगे में जुती हुई हो ! अपने-आपको कुरेदकर न जाने क्या तलब कर रही थी, वही जाने ?

सहसा फीरोजी कुरते वाले युवक से उसकी नजर बिंध गई ! आँखों के सामने चितकबरी अँधियारी पुत गई ! सफेद व काले चकत्तों में सर्वत्र एक ही छवि झलकने लगी–सफेद पैण्ट । काले- स्याह घुँघराले बाल। एक हाथ में अन्ना करेनिना थमी हुई। दूसरा हाथ गाल पर सड़क की बाईं तरफ धीरे-धीरे चल रहा है । निपट अन्धी होने पर भी यह नजारा तो उसे स्पष्ट दिखाई दे जाता ! यह तो उसकी देह का ही दूसरा टुकड़ा है...!

सबसे पहले आया और बिना इलाज चुपचाप अपनी राह चल पड़ा! किसकी गलती है ? न उसकी, न नर्स की नर्स को तो उसकी टीस का पूरा-पूरा इल्म है, मगर उसे नर्स की अन्तर्वेदना का कुछ आभास है कि नहीं ? पूछे बगैर कैसे पता चले ? कौन पूछे ? क्यों पूछे? न वह नर्स का नाम जानता है और न नर्स उसका नाम जानती है! खुद-ब-खुद तो अपना नाम जानते ही होंगे! अपने-आपसे तो अपना परिचय होगा ही ! कहीं दिशाभ्रमित होकर स्वयं अपने-आपसे दूर तो नहीं चले गये? फिर भी अपना नाम जानने की भूल तो क्या पड़ेगी? नर्स को ऐसा महसूस हुआ कि इतने बरस की उम्र तो केवल एक भ्रान्ति थी ! सचमुच, उसका जन्म तो आज ही हुआ... और वह जन्म के साथ ही पूर्ण रूप से जवान हो गयी...!

शाम को वापस आएगा कि नहीं...?

सुदर्शन ने पलकें उठाकर देखा... ताँगे में वही नर्स बैठी है। सफेद-बुर्राक वेश । मोहिनी मूरत । तिल की झाँकी लेने के लिए मन तो खूब ही व्यग्र हुआ, पर नितान्त हताशा ही हाथ लगी ! हाँ, था तो बाएँ गाल पर ही, निश्चित बाएँ गाल पर ही !

टपटप की आक्रामक टापों से प्रतिपल दूरी बढ़ रही थी। वह पैदल था और नर्स ताँगे में थी। ना, ना, नर्स पैदल थी और वह ताँगे में था...!

“ तीन, तेरह, बाईस और उनचालीस...!”

" क्या कहा बहनजी ?” ताँगे वाले ने पीछे मुड़कर पूछा।

नर्स की गुलाबी सूरत पर लज्जा की एक और झाँई पुत गई। झिझक के साथ ही अविलम्ब बात सँवारी, “ मैं... मैं पूछ रही थी कि तुम्हारा नाम क्या है... ?”

“इस्माइल ।”

किसका नाम जानना था और किसका जान लिया...?

"इस्माइल, ताँगा और तेज नहीं चल सकता क्या ?”

“क्यों नहीं चल सकता ? अभी लीजिए।” चाबुक के दो-एक सटीड़ उड़ने पर ताँगा काफी तेजी से गुड़कने लगा। उस तेजी का चश्मदीद गवाह था सुदर्शन । उसके कानों में टापों की टपाटप भी बढ़ने लगी। मगर वह तो अपनी चाल से, उसी तरह एक-एक कदम आगे चल रहा था ।

नर्स के होठ फिर खुले - “ तीन, तेरह, बाईस और उनचालीस । अन्ना करेनिना । लेव तोलस्तोय ।" मानो कोई अमोघ मन्त्र सार रही हो ! मगर इस बार घोड़ों की तेज टापों और ताँगे की खड़खड़ाहट के बीच उस मन्त्र की भनक ताँगेवाले को सुनाई नहीं दी ।

दूरी काफी बढ़ गई। और प्रतिपल बढ़ती ही जा रही थी। फिर भी काली सड़क की बाईं तरफ चलता फीरोजी कुरते वाला युवक नर्स को साफ नजर आ रहा था। अन्ना करेनिना की पोथी के लिए मन में जबरदस्त हूक जगी, मगर एकटक आँखें गड़ाने पर भी झाँकी नहीं मिली ! अन्ना करेनिना की स्वर्णिम छवि कुछ देर पहले ही उसकी आँखों के सामने अवतरित हुई और देखते-देखते वापस ओझल हो गयी !

चलते-चलते वह सहसा नीम की छाया तले क्यों रुक गया? हाथ गाल के नीचे उसी तरह टिका हुआ था । कदाचित् दाढ़ का दर्द बढ़ गया लगता है? और जोर से फुसफुसाई - “ तीन, तेरह, बाईस और उनचालीस !” ऐसा बेतुका अण्ट- शण्ट पहाड़ा आज दिन तक किसी औरत ने कण्ठस्थ नहीं किया होगा ! न जाने क्या सोचकर उसने मुँह फिरा लिया। तत्पश्चात् घोड़े की तनी हुई कनौती के बीच एकटक देखती रही ! अनन्त विस्तृत आकाश का उसके अतिरिक्त कहीं कोई अस्तित्व नहीं था! घोड़े से जुता ताँगा टपाटप की क्रमबद्ध आवाज करता हुआ प्रतिपल 'गुड़क रहा था । और टपटप की उद्घोषणा करती हुई दूरी बढ़ रही थी... निरन्तर बढ़ रही थी। किन्तु बेहद आश्चर्य की बात कि हठात् एक दूसरे से ओझल होते ही दोनों को एक साथ ऐसी भ्रान्ति हुई कि वे अविच्छिन्न आत्मीयता में लीन हो गये हैं!

1 सितम्बर, 1995

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