1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल

1984 (Novel in Hindi) : George Orwell

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-पहला भाग-1

वह अप्रैल का एक साफ़ सर्द दिन था। घड़ी में तेरह का गजर खड़का था। बदचलन हवाओं को गच्चा देने की फिराक में अपनी ठोढ़ी को छाती में धंसाए विंस्टन स्मिथ काफ़ी तेज़ी से काँच के दरवाज़ों के पार विक्टरी मैंशन्स में दाखिल हुआ। फिर भी धूल का एक भँवरदार झोंका वह रोक नहीं पाया, जो उसके साथ ही भीतर घुस आया था।

भीतर का प्रवेश गलियारा उबले हुए करमकल्ले और पुराने चीथड़ों से बनी किसी कालीन की मिली-जुली गंध से भभक रहा था। गलियारे के एक तरफ़ दीवार पर एक रंगीन पोस्टर टँका हुआ था। इतना बड़ा पोस्टर आम तौर पर कोई भीतर की दीवार पर तो नहीं सजाता। पोस्टर पर एक बड़ा-सा चेहरा बना था, जिसकी चौड़ाई एक मीटर से ज़्यादा रही होगी। कोई पैंतालीस साल के आसपास के आदमी का चेहरा रहा होगा वह। बिलकुल घनी-काली मूंछों वाला एक कठोर मर्दाना चेहरा। विंस्टन सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ा। लिफ़्ट की ओर जाने का कोई फायदा नहीं था। आम तौर पर वह बन्द ही रहती थी। अच्छे से अच्छे दिनों में भी। आजकल तो वैसे भी दिन के वक़्त बिजली कटी ही रहती है क्योंकि नफ़रत सप्ताह की तैयारी चल रही है। कमख़र्ची अभियान इन्हीं तैयारियों का हिस्सा है। फ़्लैट सातवें माले पर था। उनतालीस साल के विंस्टन को टखने के ऊपर की नसों में अल्सर था। इसीलिए वह बीच-बीच में सुस्ताते हुए धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा था। हर माले पर लिफ़्ट के ठीक सामने वाली दीवार पर लगे पोस्टर से विशाल चेहरे वाला आदमी उसे घूर रहा था। कुछ तस्वीरें बड़ी रहस्यमय होती हैं, जो चलतेफिरते आपका लगातार पीछा करती रहती हैं। यह उन्हीं में से एक थी। इसके नीचे लिखा था : मोटा भाई देख रहा है!

फ़्लैट के भीतर से एक महिला की मधुर आवाज़ आ रही थी। वह कुछ आँकड़े गिनवा रही थी जिसका लेना-देना कच्चे लोहे के उत्पादन से था। आवाज़ धातु के बने एक लम्बे और धुंधले काँचनुमा कोटर से आ रही थी जो दाहिनी दीवार का हिस्सा था। वह एक टेलिस्क्रीन था दीवार में धंसा एक छोटा सा परदा। विंस्टन ने उसका एक स्विच दबाया। आवाज़ थोड़ी कम हुई, हालाँकि शब्द अब भी साफ़ सुनाई दे रहे थे। इस मशीन की आवाज़ को धीमा तो किया जा सकता था, लेकिन इसे पूरी तरह बन्द करने का कोई तरीक़ा नहीं था। वह खिड़की की तरफ़ बढ़ा। छोटे क़द की उसकी कृशकाय देह पार्टी की नीली वर्दी में और तुच्छ जान पड़ती थी। उसके बाल ठीक-ठाक सुनहरे थे और चेहरा जैसे पैदाइशी गुलाबी, लेकिन खुरदरे साबुन, भोथरे उस्तरे और जाती ठंड से मिल-जुलकर चेहरे की उसकी चमड़ी सख़्त हो चली थी।

खिड़की बन्द थी, लेकिन बाहर देखने पर समझ आता था कि ठंड है। नीचे सड़क पर हवा के झोंकों से धूल का गुबार उठ रहा था। उसमें काग़ज़ की चिंदियाँ गोल-गोल चक्कर लगा रही थीं। ऊपर सूरज चमक रहा था, आकाश गाढ़ा नीला था, फिर भी किसी चीज़ में कहीं कोई रंगत नहीं दिखती थी। सिवाय उन पोस्टरों के, जो हर जगह चिपके हुए थे। जिधर नज़र जाती, काली मूंछों वाला वही चेहरा पोस्टरों में से झाँकता दिखता था। खिड़की के ठीक सामने वाले मकान पर भी यही पोस्टर लगा था। नीचे लिखा था, मोटा भाई देख रहा है! उसकी गहरी आँखें वास्तव में विंस्टन की आँखों में ही घूर रही थीं। ऐसा ही एक फटा हुआ पोस्टर नीचे सड़क पर पड़ा हवा में फड़फड़ा रहा था। उसकी फड़फड़ाहट में एक शब्द बार-बार दिखकर गायब हो जा रहा था : INGSOC 1 तभी दूर दिख रही छतों के बीच एक हेलिकॉप्टर हौले से नीचे उतरा। कुछ देर उसने वहाँ चक्कर काटा, फिर तेज़ी से घूमकर वापस उड़ गया। वह पुलिस का गश्ती दल था जो लोगों के घरों के भीतर खिड़कियों से झाँक रहा था। इन गश्ती दलों का कोई ख़ास मतलब नहीं था। यहाँ सिर्फ विचार पुलिस ख़ास मायने रखती थी।

विंस्टन के पीछे परदे से आ रही आवाज़ अब भी कच्चे लोहे के बारे में कुछ बड़बड़ा रही थी कि कैसे नौवीं तीन-वर्षीय योजना को ज़रूरत से ज़्यादा पूरा किया जा चुका है। यह परदा एक साथ सूचनाएँ लेता भी था और देता भी था। विंस्टन अगर फुसफुसाहट से थोड़ी-सी भी ऊँची आवाज़ निकालता, तो परदा उसे पकड़ सकता था। बशर्ते वह उसकी पहँच में हो। उसे सिर्फ़ सुना नहीं, देखा भी जा सकता है। परदा कब आपको देख रहा है और कब नहीं, यह पता करने का कोई तरीक़ा नहीं था। विचार पुलिस किसी पर कैसे और कितनी निगरानी रखती है इस बारे में केवल अटकलें ही लगाई जा सकती थीं। हो सकता है वह सभी पर हर वक़्त लगातार अपनी निगाह रखती हो, लेकिन एक बात तो तय थी कि वह जब चाहे आपको देख और सुन सकती थी। इसीलिए यहाँ यह मानकर जीना होता था कि आपसे निकली कोई भी ध्वनि सुनी जा रही है और उजाले में की गई किसी भी हरकत को देखा जा रहा है। केवल अँधेरा ही आपको निगरानी से बचा सकता था। ऐसे ही जीने की आदत डालनी होती थी। फिर धीरे-धीरे यह जीने का हिस्सा बन जाता था।

विंस्टन परदे की ओर पीठ करके ही खड़ा रहा। वह जानता था कि पीछे से भी निगरानी रखी जा रही है, फिर भी उसे लगा कि यह शायद थोड़ा सुरक्षित हो। उसका दफ़्तर यहाँ से क़रीब एक किलोमीटर दूर सत्य मंत्रालय में था। दूर से ही उसकी सफ़ेद इमारत उस धुंधले भूभाग में विशालकाय दिखाई देती थी। विंस्टन उसे थोड़ा हिकारत से देखता था। यह लंदन थाएयरस्ट्रिप वन का प्रमुख शहर और ओशियनिया के प्रान्तों में तीसरा सबसे ज़्यादा आबादी वाला शहर। उसने दिमाग पर ज़ोर डालकर बचपन को याद करने की कोशिश की क्या लंदन हमेशा से ऐसा ही था? क्या ऐसे ही गलियारों के बीच हमेशा से यहाँ 19वीं सदी के ये सड़ते-गलते मकान होते थे? लकड़ी की दीवारों, कार्डबोर्ड की खिड़कियों और कच्चे लोहे की छत वाले मकान? जिनके चारों ओर चारदीवारी पर बेतरतीब बगीचे फैले हों? जहाँ बम गिरा था क्या वह जगह भी पहले थी? वहीं, जहाँ अब प्लास्टर की धूल हवा में उड़ती फिरती है और मलबे के ढेर पर घास उग आई है! और वे जगहें जिन्हें बमबारी ने बिलकुल सफाचट कर डाला है? जहाँ मुर्गी के दड़बों की तरह लकड़ी के मकानों की एक रिहाइश आबाद है? कोई फायदा नहीं याद करने से! उसे बचपन का कुछ भी याद नहीं आ रहा था। सिवाय कुछ चमकदार झाँकियों के, जिनका न कोई ख़ास अर्थ था न कोई साफ़ सन्दर्भ।

वहाँ से दूर दिख रही तमाम चीज़ों में सत्य मंत्रालय एकदम अलग-सा दिखता था। वह एक विशाल पिरामिड जैसा ढाँचा था जिसकी सफ़ेद कंक्रीट सी दमकती अट्टालिकाएँ एक के ऊपर एक हवा में 300 मीटर तक ऊँची चली गई थीं। विंस्टन जहाँ खड़ा था, वहाँ से खूबसूरत सफ़ेद अक्षरों में लिखे पार्टी के तीन नारे बिलकुल साफ़ पढ़ने में आ रहे थे:

युद्ध, शान्ति है
आज़ादी, गुलामी है
अज्ञान, ताक़त है

कहते हैं कि सत्य मंत्रालय की ज़मीन से ऊपर खड़ी इमारत में 3000 कमरे थे और तक़रीबन उतने ही कमरे ज़मीन के नीचे थे। उसके जैसी दिखने वाली, उसके आकार की पूरे लंदन में केवल तीन ही इमारतें थीं। ये तीनों मिलकर आसपास के दृश्य को इतना बौना कर देती थीं कि विक्टरी मैंशन्स की छत से चारों एक साथ नज़र आती थीं। इन्हीं में सरकार के चार मंत्रालय थे। इनमें सरकार की समूची मशीनरी बँटी हुई थी। पहला था सत्य मंत्रालय, जिसका लेना-देना समाचार, मनोरंजन, शिक्षा और ललित कलाओं से था। दूसरा था शान्ति मंत्रालय, जो युद्ध के मामले देखता था। तीसरा प्रेम मंत्रालय था जिसका काम क़ानून व्यवस्था कायम रखना था। श्री मंत्रालय आर्थिक मामलों के लिए ज़िम्मेदार था। वहाँ की नई कूटभाषा न्यूस्पीक में इनके नाम थे मिनिटू, मिनिपैक्स, मिनिलव और मिनिप्लेन्टी।

प्रेम मंत्रालय के नाम से उलट, इसका काम वास्तव में डराने वाला था। इस इमारत में एक भी खिड़की नहीं थी। विंस्टन खुद कभी इस मंत्रालय के भीतर नहीं गया था। यहाँ तक कि इसके आधे किलोमीटर के आसपास भी नहीं। जब तक कोई सरकारी काम न पड़े, इसमें घुसना नामुमकिन था। काम हो, तब भी भीतर जाने के लिए मुक्कियों में छिपी हुई मशीनगनों के साये में काँटेदार बाड़ के जालों और स्टील के दरवाज़ों को पार करना होता था। उसकी बाहरी दीवार तक जाने वाली सड़कों पर भी काली वर्दी पहने हथियारबन्द गुरिल्ला गार्ड चक्कर लगाते थे।

विंस्टन अचानक पीछे मुड़ा। अब उसके चेहरे का भाव कुछ आशावादी लग रहा था| परदे के सामने अपना चेहरा करने के पहले सलाह थी कि आपका चेहरा मुस्कुराता हुआ और आशावादी दिखना चाहिए। कमरा पार करके वह अपनी छोटी-सी रसोई में घुसा। दिन के इस पहर काम छोड़कर मंत्रालय से वापस आने के चक्कर में उसका कैंटीन का खाना छूट गया था। उसे पता था कि रसोई में भी खाने को कुछ नहीं है। बस भूरे रंग की एक ब्रेड थी, जिसे उसने कल सुबह नाश्ते के लिए छोड़ा हुआ था। उसने टाँड़ पर से एक बोतल उतारी। उसके भीतर एक रंगहीन द्रव्य था। बोतल पर एक सफ़ेद लेबल लगा था। उस पर लिखा था 'विक्टरी जिन'। काँटेदार उसकी महक अजीब तैलीय थी, जैसे चीन में चावल से बनी शराब की होती है। विंस्टन ने एक कप में उसे ढाला। खुद को किसी झटके के लिए जैसे तैयार किया। फिर दवा की खुराक समझकर सीधे हलक़ के नीचे गटक गया।

उसका चेहरा अचानक लाल हो गया। उसकी आँखों में पानी आ गया। ऐसा लगा जैसे उसने नाइट्रिक एसिड पी लिया हो। इसे गटकते ही ऐसा लगता था कि किसी ने सिर के पीछे इंडा दे मारा हो। पीने के बाद पेट में अचानक उठी जलन अगले ही पल बन्द भी हो गई। उसे बेहतर महसूस होने लगा। फिर उसने एक मुड़े-तुड़े पैकेट से एक सिगरेट निकाली जिस पर लिखा हुआ था 'विक्टरी सिगरेट'। लापरवाही में उसने सिगरेट को खड़ा पकड़ लिया जिसके चलते तंबाकू भीतर से निकलकर फ़र्श पर बिखर गई। दूसरी सिगरेट के साथ उसने सावधानी बरती। फिर लिविंग रूम में वापस जाकर वह एक छोटी-सी टेबल पर बैठ गया जो परदे के बाईं ओर थी। टेबल की दराज से उसने एक कलमदान, स्याही की एक बोतल और एक मोटी ख़ाली नोटबुक निकाली जिसका पीछे का कवर लाल था और आगे का संगमरमरी।

जाने क्या वजह थी कि उसके कमरे का टेलिस्क्रीन अजीब जगह पर था। क़ायदे से उसे कमरे की अन्तिम दीवार पर होना चाहिए था जहाँ से वह पूरे कमरे पर नज़र रख पाता। इसके बजाय वह खिड़की वाली दीवार के ठीक सामने वाली लम्बी दीवार में लगा था। इस दीवार के एक तरफ़ एक छोटी-सी अलमारीनुमा जगह निकली हुई थी जहाँ विंस्टन अभी बैठा हुआ था। हो सकता है कि किताबों की अलमारी के लिए वह जगह रही हो। उस छिछलीसी खोह में बैठकर, पीठ को दीवार से थोड़ा सटाए हुए विंस्टन खुद को टेलिस्क्रीन से बचा पाता था। बेशक उसकी आवाज़ सुनी जा सकती थी, लेकिन इस स्थिति में उसे देखा जाना सम्भव नहीं था। दरअसल, अभी जो वह करने जा रहा था उसे करने का ख़याल कमरे के इस अजीब से भूगोल के चलते ही आया था।

इसके पीछे एक और वजह वह नोटबुक थी जो उसने अभी-अभी दराज से बाहर निकाली थी। वह बेहद खूबसूरत थी। उसके पन्ने मक्खन के जैसे चिकने थे जो समय के साथ हल्के पीले पड़ चुके थे। ऐसी नोटबुक कम से कम चालीस साल से तो नहीं ही बनी होगी। उसके हिसाब से वह उससे भी ज़्यादा पुरानी थी। शहर के एक झुग्गीनमा इलाके में किसी कबाड़ी के यहाँ उसे वह खिड़की पर पड़ी मिली थी। पता नहीं कौन सा इलाक़ा था, उसे याद नहीं पड़ता लेकिन पहली नज़र में ही विंस्टन को लगा था कि यह डायरी उसके पास होनी चाहिए। पार्टी के सदस्यों को वैसे तो आम दुकानों में जाने की मनाही थी (इसे बाज़ार से सौदा लेना कहते थे) लेकिन इस नियम का पालन बहुत कड़ाई से कोई नहीं करता था क्योंकि जूते के फीते से लेकर रेज़र की ब्लेड तक तमाम ऐसी चीजें थीं जिन्हें कहीं और से हासिल करना सम्भव नहीं था। विंस्टन ने गली में अपनी निगाह काफ़ी तेज़ी से घुमाई, फिर चुपचाप दुकान में घुसा और ढाई डॉलर में उस नोटबुक को उठा लाया। ख़रीदते वक़्त वह बिलकुल नहीं जानता था कि उसे क्यों ख़रीद रहा है। अपने ब्रीफ़केस में काफ़ी अपराधबोध के साथ उसे लेकर वह लौटा था। वह एकदम कोरी नोटबुक थी, लेकिन उसका अपने पास होना ही बड़ी बात थी।

अब वह उसी में लिखने जा रहा था। यहाँ डायरी लिखना गैरक़ानूनी तो नहीं है (वास्तव में यहाँ कुछ भी गैरक़ानूनी नहीं है क्योंकि अब कोई क़ानून ही नहीं बचा है)। फिर भी ऐसा करते हुए अगर कोई पकड़ा जाता है, तो इतना तय है कि उसे मौत की सज़ा मिलेगी या फिर कम से कम 25 साल किसी लेबर कैम्प में हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ेगी। विंस्टन ने कलमदान में निब लगाई और उसका कचरा साफ़ करने के लिए मुँह से लगाकर एक बार खींचा। क़लम अब यहाँ बीते ज़माने की बात हो चुका था। लोग दस्तख़त करने के लिए भी क़लम का इस्तेमाल नहीं करते थे। वह बड़ी मुश्किल से कहीं से एक क़लम ले आया था क्योंकि उसे लगता था कि इतने खूबसूरत मखमली पन्ने पर निब वाली क़लम से ही लिखा जाना चाहिए। पेंसिल से लिखना डायरी का अपमान होगा। वह खुद भी हाथ से लिखने का आदी नहीं था। छोटे-छोटे नोट को छोड़ दें, तो आम तौर से वहाँ लिखने के लिए श्रुतलेख की मशीन में बोलने का चलन था। ज़ाहिर है कि उससे डायरी नहीं लिखी जा सकती थी। उसने स्याही में क़लम को इबोया, फिर एक पल के लिए ठिठक गया। एक सुरसुरी-सी उसकी रीढ़ के नीचे तक दौड़ गई। पन्ने पर एक अदद निशान बनाना भी यहाँ एक मुकम्मल कार्रवाई थी। सो उसने छोटे अक्षरों में बस इतना ही लिखा:

4 अप्रैल, 1984

उसने पीठ पीछे टिका दी। अचानक उसे किसी लाचारी ने जैसे घेर लिया हो। अव्वल तो उसे इस साल के 1984 होने पर ही शक था। हाँ, उसके आगे-पीछे कुछ भले हो सकता था क्योंकि अपनी 39 साल की उम्र को लेकर तो वह पक्का था। वह मानता था कि उसकी पैदाइश 1944 या 1945 की है। फिर भी एकाध साल के भीतर किसी एक तारीख़ पर उँगली रख पाना आजकल के दौर में नामुमकिन ही था।

फिर अचानक उसके मन में एक बात और कौंधी-यह डायरी आख़िर वह किसके लिए लिख रहा है? भविष्य के लिए? उनके लिए जो पैदा नहीं हुए अभी? एक पल के लिए उसका दिमाग पन्ने पर लिखी संदिग्ध तारीख़ के इर्द-गिर्द मँडराने लगा। तभी अचानक न्यूस्पीक का एक शब्द डबलर्थिक (दोरंगापन) उसके मन में आया। पहली बार उसे इस बात का एहसास हुआ कि वह करने क्या जा रहा है। आख़िर भविष्य से संवाद कैसे कर सकता है कोई? ये तो अपने आप में अस्वाभाविक है। या तो भविष्य इस वर्तमान के जैसा ही होगा। तब उसे सुनेगा कौन? या फिर वह वर्तमान से बिलकुल अलहदा होगा! ऐसे में उसके लिखे का भविष्य में कोई अर्थ नहीं बनता है।

कुछ देर तक तो वह बौड़म की तरह कागज़ को देखता रहा। इस बीच टेलिस्क्रीन ने फ़ौजी संगीत बजाना शुरू कर दिया था। अजीब बात थी कि वह खुद को न केवल ज़ाहिर करने में असमर्थ पा रहा था, बल्कि शुरुआत में उसने क्या लिखना तय किया था यह भी भूल चुका था। पता नहीं, पिछले कितने हफ़्तों से वह इस घड़ी के लिए खुद को तैयार कर रहा था। उसके दिमाग में एक बार भी यह बात नहीं आई कि ऐसा करने के लिए साहस के अलावा भी किसी और चीज़ की ज़रूरत पड़ सकती है। उसे लगा था कि लिखना तो आसान काम है, हो ही जाएगा। बस, बरसों से खोपड़ी के भीतर चल रहे एक अन्तहीन एकालाप को कागज़ पर उतारना ही तो है। अब हालत यह थी कि सब कुछ जम-सा गया है। उधर अल्सर में अलग से खुजली शुरू हो गई जो बरदाश्त के बाहर थी। उसने खुद को खुजाने से बहुत रोका वरना खुजाते ही उसमें जलन मचने लग जाती। वक़्त बीतता जा रहा था। जिन के हल्के से सुरूर में डूबी उसकी चेतना में सामने पड़े कोरे काग़ज़, टखने के ऊपर हो रही खुजली और पीछे से आ रहे संगीत के अलावा कुछ भी नहीं था।

एक झटके में घबराकर उसने लिखना शुरू कर दिया। बगैर पूरी तरह जाने कि वह क्या करने जा रहा था। पन्ने पर ऊपर-नीचे फैलती बच्चों के जैसी उसकी लिखावट ने पहले तो बड़े अक्षरों से तौबा की, फिर उसने पूर्ण विराम लगाना भी छोड़ दिया।

4 अप्रैल, 1984 1 आखिरी रात जब मैंने फिल्म देखी। सब जंग वाली फ़िल्में थीं। एक तो बहुत अच्छी थी जिसमें शरणार्थियों से भरे एक जहाज़ को भूमध्यसागर में कहीं बम से उड़ा दिया गया था। दर्शकों को उस दृश्य में बहुत मस्ती आई थी जब एक मोटा-सा आदमी तैरकर खुद को बचा रहा था और उसके पीछे एक हेलिकॉप्टर लगा हुआ था। पहले तो वह डॉल्फिन के जैसे पानी में तैरता दिखता है। फिर हेलिकॉप्टर में बन्दूक़ की दूरबीन से वह दिखाई देता है। उसके ठीक बाद गोलियों से वह छलनी हो जाता है और उसके इर्द-गिर्द समन्दर का पानी गुलाबी और वह डूब जाता है गोया उसके शरीर में बने छेदों में पानी घुस आया हो। उसके डूबने पर दर्शक खूब ज़ोर से हँसे थे। फिर अगला दृश्य बच्चों से भरी एक लाइफबोट का है जिसके ऊपर हेलिकॉप्टर मॅडरा रहा है। उस नाव में एक अधेड़ औरत थी, शायद यहदी रही होगी जिसने अपनी बाँहों में तीन साल के एक बच्चे को ले रखा था और बच्चा डर के मारे चिल्ला रहा था और अपना सिर उसके स्तनों के बीच ऐसे छिपाए जा रहा था जैसे कि उसकी देह में ही कोई खोह बना लेगा। औरत उसे अँकवारी लेकर चुप कराने की कोशिश कर रही थी। हालाँकि डर के मारे खुद उसका चेहरा नीला पड़ गया था पर वह उसे ऐसे छिपाए जा रही थी जैसे उसे लग रहा हो कि अपनी बाँहों की ओट से ही वह बच्चे को गोलियों से बचा लेगी। तभी हेलिकॉप्टर ने उनके बीच 20 किलो का एक बम गिरा दिया, ज़बरदस्त रोशनी हुई और नाव धू-धू कर जलने लगी। फिर एक और शानदार शॉट आया जिसमें एक बच्चे की बाँह ऐसे उड़ी कि ऊपर और ऊपर और एकदम ऊपर हवा में दिखती रही। हो सकता है कि उसे किसी हेलिकॉप्टर के आगे वाले हिस्से में लगे कैमरे से शूट किया गया हो। इस दृश्य ने उन सीटों की खूब वाहवाही लूटी जहाँ पार्टी के लोग बैठे थे लेकिन जनता वाले हिस्से में एक औरत ने बखेड़ा खड़ा कर दिया और चिल्लाने लगी कि यह दृश्य बच्चों के सामने नहीं दिखाया जाना चाहिए था, ये ठीक नहीं किया गया है और बच्चों के एकदम सामने ऐसा करना ठीक नहीं है कि तब तक पुलिस वहाँ पहुँच गई और उसे बाहर निकाल फेंका। मेरे ख़याल से उसे कुछ नहीं किया गया होगा। वैसे भी जनता किसी को क्या कहती है उससे फ़र्क नहीं पड़ता और यह जनता तो ऐसे ही प्रतिक्रिया देती है और वे कभी भी....

विंस्टन रुक गया। शायद उसकी कोई नस खिंच गई थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने यह कचरा क्यों लिख मारा है। एक दिलचस्प बात हालाँकि यह हुई कि लिखते वक़्त उसके दिमाग में एक बिलकुल अलग ही घटना चलते-चलते इतनी साफ़ हो गई कि उसे लगा कि उसे इसी को लिख देना चाहिए। वास्तव में उसे अब जाकर यह अहसास हुआ कि दरअसल उसी घटना के चलते वह घर आया था और आज ही उसने डायरी लिखना शुरू करने का फैसला किया था।

कोई ग्यारह बजे के आसपास की बात है रिकॉर्ड विभाग की जहाँ विंस्टन काम करता था। हर क्यूबिकल से कुर्सियाँ निकालकर टेलिस्क्रीन के ठीक सामने हॉल के बीचोबीच सजाई जा रही थीं। दो मिनट का नफ़रत सत्र शुरू होने वाला था। विंस्टन बीच की एक क़तार में बैठा ही था कि दो लोग कमरे में अप्रत्याशित रूप से आ गए। वह उन्हें पहचानता था लेकिन कभी बात नहीं हुई थी। उनमें एक लड़की थी जो अकसर उसे गलियारे से गुज़रते हुए दिख जाती थी। वह उसका नाम नहीं जानता था; बस इतना जानता था कि वह गल्प विभाग में काम करती थी। यह भी एक अन्दाज़ा ही था क्योंकि उसने एकाध बार उसे चिकने हाथों में एक पन्ना लिये देखा था जिससे समझ आता था कि वह उपन्यास लिखने वाली मशीन पर काम करती होगी। देखने में वह एक साहसी लड़की लगती थी। कोई सत्ताईस की उम्र रही होगी, घने बाल, चित्तीदार चेहरा और किसी धावक जैसी चाल। उसने वर्दी के ऊपर सेक्स विरोधी युवा संघ का प्रतीक-गहरे लाल रंग वाला कमरबन्द कई बार घुमाकर इतना कसकर लपेटा था कि उसके नितम्ब उभर आए थे। विंस्टन को पहली नज़र में ही वह पसन्द नहीं आई थी। उसे इसका कारण भी पता था। उसकी चाल-ढाल से हॉकी के मैदान और ठंडे पानी से नहान और सामुदायिक सैर-सपाटे और एक खाली दिमाग जैसा कुछ मिला-जुला अहसास पैदा होता था। वैसे भी उसे तक़रीबन सभी औरतें नापसन्द थीं, ख़ासकर जो जवान और खूबसूरत हों। आम तौर से औरतें, और ख़ासकर जवान लड़कियाँ पार्टी की सबसे कट्टर भक्त होती थीं जिन्होंने नारों को घोलकर पी रखा था, जो जासूसी करती थीं और किसी भी अलग हरकत को सूंघकर मुखबिरी कर देती थीं। यह वाली लड़की हालाँकि उसे सबसे ज़्यादा खतरनाक मालूम पड़ती थी। एक बार गलियारे से गुज़रते वक़्त उसने ऐसे कनखियाकर देखा था कि उसकी नज़र भीतर तक गड़ गई थी और एक पल के लिए विंस्टन आतंकित हो उठा था। उसके मन में तो यह भी ख़याल आ गया था कि कहीं वह विचार पुलिस की एजेंट न हो। इसकी सम्भावना हालाँकि नहीं ही थी। फिर भी जाने क्यों जब वह आसपास होती तो उसको लेकर वह अजीब क़िस्म से असहज हो जाता, जिसमें डर के साथ-साथ एक नफ़रत का भाव भी था।

दूसरे शख्स का नाम था ओ'ब्रायन। वह पार्टी के भीतरी हलके में कार्यवाहक क़तार का सदस्य था और किसी ऐसे अहम ओहदे पर था जिसके बारे में विंस्टन केवल दूर से ही अन्दाज़ा लगा सकता था। इसीलिए काली वर्दी वाले पार्टी कार्यवाहक को कमरे में घुसता देख कर्सियों पर बैठे लोगों के बीच एक पल के लिए हलचल मच गई। ओ'ब्रायन भारी देह वाला एक हट्टा कट्टा शख्स था। उसकी गरदन मोटी थी। उसका चेहरा खुरदरा, कठोर और मज़ाहिया था। उसकी मौजूदगी डराने वाली होती थी लेकिन उसके हाव-भाव में एक आकर्षण भी था। अपनी नाक पर वह अपना चश्मा जाने किस तरकीब से टिकाए रखता था। यह अदा उसे थोड़ा शान्त और सभ्य बनाती थी, हालाँकि ऐसा कहना भी पूरी तरह से सही नहीं होगा। पता नहीं इस तरीके से किसी ने अब तक सोचा होगा या नहीं, लेकिन उसकी यह मुद्रा अठारहवीं सदी के उस कुलीन की छवि गढ़ती थी जो आपको नसवार की डिबिया पकड़ा रहा हो। इतने बरसों में विंस्टन ने ओ'ब्रायन को कोई दर्जन भर बार तो देखा ही होगा। उसे उसकी ओर एक खिंचाव-सा महसूस होता था। सिर्फ इसलिए नहीं कि ओ'ब्रायन की पहलवानी, देहयष्टि और उसके शहराती तौर-तरीकों के बीच एक दूरी थी। इसके पीछे उसकी एक गुप्त धारणा थी। धारणा भी क्या, महज़ एक उम्मीद थी कि ओ'ब्रायन राजनीतिक रूप से उतना निष्ठावान नहीं है। उसके चेहरे में ही कुछ ऐसा था जो इसका आभास देता था। वह अनिष्ठा जैसी कोई चीज़ भी नहीं थी, बल्कि चेहरे से उसकी समझदारी झलकती थी। चाहे जो हो, उसकी छवि एक ऐसे शख्स की थी जिससे आप बात कर सकते हैं, बशर्ते टेलिस्क्रीन से नज़र चुराकर उसे अकेले में पकड़ सकें। अपनी इस धारणा को जाँचने की विंस्टन ने कभी कोई कोशिश नहीं की थी। करता भी कैसे, कोई तरीक़ा ही नहीं था। ठीक उसी पल ओ'ब्रायन ने अपनी कलाई घड़ी को देखा। ग्यारह बजने ही वाले थे। उसने दो मिनट का नफ़रत सत्र समाप्त होने तक रिकॉर्ड विभाग में ही रुकना तय किया और विंस्टन वाली कतार में उसके बग़ल की एक कुर्सी छोड़कर बैठ गया। दोनों के बीच में एक छोटे क़द की धूसर बालों वाली महिला थी जो दफ़्तर में विंस्टन के बगल वाले क्यूबिकल में बैठती थी। उसके ठीक पीछे घने बालों वाली लड़की बैठी थी।

अगले ही पल कमरे के दूसरे छोर पर लगे टेलिस्क्रीन से घरघराती हुई भयावह आवाज़ में एक भाषण शुरू हो गया। ऐसा लगा जैसे कोई दैत्याकार मशीन कल-पुर्जी को तेल पिलाए बिना चालू कर दी गई हो। यह आवाज़ ज़बरदस्त खीज पैदा करने वाली थी, जैसे किसी ने गरदन के पीछे उगे रोएँ को रगड़ दिया हो। नफ़रत की शुरुआत हो चुकी थी।

हमेशा की तरह परदे पर जनता के दुश्मन इमैनुएल गोल्डस्टीन का चेहरा चमका। दर्शकों के बीच यहाँ-वहाँ कानाफूसी होने लगी। धूसर बालों वाली छोटी महिला डर और नफ़रत के मारे किकियाने लगी। गोल्डस्टीन एक भ्रष्ट और धोखेबाज़ इनसान था वह एक ज़माने में (कब, यह किसी को याद नहीं) पार्टी के अहम नेताओं में शुमार किया जाता था, तक़रीबन मोटा भाई के रसूख वाला, लेकिन बाद में वह क्रान्ति-विरोधी हरकतों में लिप्त हो गया जिसके चलते उसे मौत की सज़ा सुना दी गई। उसके बाद से ही वह फ़रार चल रहा है। दो मिनट की नफ़रत में वैसे तो हर दिन कुछ न कुछ अलग दिखाया जाता था लेकिन गोल्डस्टीन रोज़ ही परदे पर केन्द्रीय भूमिका में मौजूद रहता था। उसे सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता था। उसने पार्टी की निष्ठा के साथ सबसे पहली नाफरमानी की थी। इसके बाद पार्टी के ख़िलाफ़ जितने भी अपराध हुए, जितनी भी बगावतें हुईं और विश्वासघात हुए, वे सब उसी के सिखाए का नतीजा था। माना जाता था कि वह अब भी ज़िन्दा है और कहीं बैठकर साज़िशें रच रहा है शायद समन्दर पार अपने विदेशी आकाओं के पैसे के बल पर। ऐसी भी अफ़वाह थी कि वह ओशियनिया में ही छिपा बैठा है।

विंस्टन की छाती जकड़ गई थी। गोल्डस्टीन की शक्ल देखते ही उसके भीतर भावनाओं का दर्दनाक सैलाब उमड़ आता था। गुच्छानुमा और बेतरतीब सफ़ेद बालों का आभामंडल लिये एक कमज़ोर यहूदी चेहरा और उस पर छोटी-सी बकरदाढ़ी वह एक चतुर सुजान चेहरा था जो जाने किस कारण से स्वाभाविक रूप से कुत्सित जान पड़ता था। ऊपर से एक क़िस्म की विक्षिप्तता का भाव देती लम्बी-पतली नाक, जिसके एक सिरे पर चश्मा विराजमान था। कुल मिलाकर वह भेड़नमा दिखता था और उसकी आवाज़ भी भेड़ जैसी ही थी। गोल्डस्टीन हमेशा की तरह पार्टी के सिद्धान्तों के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रहा था। उसका भाषण इतना अतिरंजित और कुत्सित था कि कोई बच्चा भी इसे पकड़ सकता था। इसके बावजूद वह इतना प्रभावी था कि सुनने वाला इस आशंका से भर जाए कि उससे कम समझदार श्रोता कहीं इसके झाँसे में न आ जाए। वह मोटा भाई को गाली दे रहा था, पार्टी की तानाशाही की धज्जियाँ उड़ा रहा था, यूरेशिया के साथ तत्काल अमन बहाली की माँग कर रहा था। वह बोलने और लिखने की आज़ादी, प्रेस की आज़ादी, संगठन की आज़ादी, विचारों की आज़ादी की माँग कर रहा था। वह पागल की तरह चिल्ला रहा था कि क्रान्ति के साथ विश्वासघात हुआ है और इतनी तेज़ी में इतने ज़्यादा शब्दों का इस्तेमाल अपने भाषण में कर रहा था गोया पार्टी के वक्ताओं दवारा आदतन दिए जाने वाले सम्बोधनों की कोई पैरोडी हो। वह न्यूस्पीक के शब्दों का इस्तेमाल कर रहा था और इतना ज़्यादा कर रहा था जितना अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में पार्टी के लोग भी नहीं करते। इसीलिए कोई उसके आकर्षक वाग्जाल में फँसकर कहीं उसकी हक़ीक़त से चूक न जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए उसके भाषण के समानान्तर टेलिस्क्रीन पर उसके सिर के ठीक पीछे यूरेशियाई फ़ौज की क़तारें मार्च कर रही थीं। एक के बाद एक क़तारबद्ध सपाट एशियाई चेहरे वाले ठोस और हृष्ट-पुष्ट सिपाही, जो मार्च करते हुए स्क्रीन पर आते और गायब हो जाते। फिर उनके पीछे ठीक उन्हीं के जैसों की कतारें आतीं और यह सिलसिला चलता जाता। गोल्डस्टीन की भेड़ जैसी आवाज़ में फ़ौजी बूटों की उदास करतल ध्वनि पार्श्व-संगीत का काम कर रही थी।

नफ़रत सत्र को अभी शुरू हुए तीस सेकंड भी नहीं हुआ था कि कमरे में आधे से ज्यादा लोग उन्माद में अनियंत्रित तरीके से चीखने-चिल्लाने लगे। सामने स्क्रीन पर वह भेड़नुमा आत्मतुष्ट चेहरा और उसके पीछे यूरेशियाई फ़ौज की भीषण ताक़त को एक साथ बरदाश्त कर पाना सम्भव नहीं था :

गोल्डस्टीन का चेहरा ही नहीं बल्कि महज़ उसका विचार तक अपने आप भय और आक्रोश को जन्म दे देता था। यूरेशिया और ईस्टेशिया से भी ज़्यादा और स्थायी नफ़रत का पात्र गोल्डस्टीन था और ऐसा तब से है जब से ओशियनिया इन दोनों शक्तियों में से किसी एक के साथ जंग में रहा है। एक के साथ जंग में होने का मतलब दूसरे के साथ आम तौर से शान्ति है। सबसे अजीब बात यह थी कि गोल्डस्टीन को वैसे तो यहाँ हर रोज़ ही किसी न किसी मंच, टेलिस्क्रीन, अख़बारों, किताबों में हज़ारों बार नफ़रत और लानत भेजी जाती थी; उसके सिद्धान्तों की सरेआम निंदा की जाती, उनका मज़ाक़ उड़ाया जाता और कचरा कहकर खारिज किया जाता था; इसके बावजूद उसके प्रभाव में कभी भी कोई कमी नहीं आती थी। हमेशा ही कोई नया रंगरूट उसकी चाल में फँसने को तैयार रहता था। एक दिन भी नहीं बीतता जब उसके निर्देशों पर काम करने वाले जासूसों और गुप्तचरों को विचार पुलिस बेनकाब न करती हो। वह एक बहुत बड़ी गुप्त फ़ौज का कमांडर था। यह ऐसे षड्यंत्रकारियों का भूमिगत तंत्र था जो राजसत्ता को उखाड़ फेंकने की ख़्वाहिश रखते थे। इस नेटवर्क को ब्रदरहुड के नाम से जाना जाता था। दबी जुबान में तो गोल्डस्टीन की लिखी एक ऐसी किताब की भी चर्चा थी जिसमें उसके तमाम पाखंडों का संकलन था और जो गोपनीय तरीके से यहाँ-वहाँ घूमती रहती थी। इस किताब का कोई नाम नहीं था। लोग इसे केवल किताब कहते थे। ये सब बातें हालाँकि अफ़वाहों में ही मौजूद थीं और इसी से लोगों का इसका पता भी लगता था। वैसे भी अगर किसी सन्दर्भ की ज़रूरत न हो तो पार्टी का एक आम सदस्य ब्रदरहुड और किताब जैसे विषय का ज़िक्र तक नहीं करता था।

सत्र का दूसरा मिनट शुरू होते ही नफ़रत उन्माद में बदल गया। लोग अपनी-अपनी जगहों पर उछलने लगे और ऐसे चिल्लाने लगे मानो स्क्रीन से आ रही आवाज़ पर काबू पाना चाह रहे हों। धूसर बालों वाली छोटी महिला का चेहरा चमकदार गुलाबी हो चुका था और उसके होंठ पानी से बाहर निकाली गई किसी तड़पती हुई मछली की तरह खुल और बन्द हो रहे थे। खुद ओ'ब्रायन का भारी-भरकम चेहरा भी तमतमा चुका था। वह अपनी कुर्सी पर एकदम तनकर बैठा था लेकिन उसकी धौंकनी ऐसी चल रही थी जैसे किसी आती हुई लहर के थपेड़े को झेलता हुआ खड़ा हो। विंस्टन के पीछे बैठी गहरे बालों वाली लड़की चिल्ला रही थी सूअर के बच्चे! सूअर के बच्चे! चिल्लाते हुए उसने न्यूस्पीक का एक मोटा-सा शब्दकोश उठाकर स्क्रीन पर दे मारा। किताब स्क्रीन पर गोल्डस्टीन की नाक से टकराकर वापस उछल गई। गोल्डस्टीन मुसलसल बोलता रहा। विंस्टन को एक पल अचानक इस बात का बोध हुआ कि दूसरों के साथ वह भी चिल्ला रहा था और अपनी कुर्सी की छड़ पर अपनी एड़ी पीट रहा था। दो मिनट की नफ़रत का सबसे भयावह आयाम यही था, कि आप न चाहते हुए भी अनजाने में इसका हिस्सा बन जाते थे। इसमें शामिल होने की अनिवार्यता उतनी खतरनाक नहीं थी, औरों के साथ शामिल होने से खुद को रोक पाने की असम्भाव्यता ज़्यादा डरावनी थी। आप तटस्थ रहने का चाहे कितना ही नाटक क्यों न कर लें, तीस सेकंड के बाद सब बेकार हो जाता था। ऐसा लगता था गोया सभी के भीतर सामने वाले की हत्या करने, उसे प्रताड़ना देने, किसी हथौड़े से उसका मुंह कूच देने और बदला लेने के एक घिनौने उन्माद का करंट दौड़ गया हो। ऐसे में आदमी खुद को पागल न होने देने की इच्छाशक्ति के खिलाफ़ चला जाता है। फिर जो आक्रोश महसूस होता था, वह अमूर्त किस्म का था जिसकी कोई दिशा नहीं थी। इसे किसी एक विषय से दूसरे विषय की ओर बड़ी आसानी से मोड़ा जा सकता था। जैसे लोहे में टाँका लगाने वाली मशीन की लौ को। लिहाज़ा अगले ही पल विंस्टन की नफ़रत गोल्डस्टीन से हटकर मोटा भाई, पार्टी और विचार पुलिस की तरफ़ मुड़ गई। ऐसे ही मौक़ों पर उसे स्क्रीन पर मौजूद उपहास के पात्र उस अकेले विधर्मी से सहानुभूति हो आती थी, जो झूठ से बनी इस दुनिया में सच और विवेक का इकलौता रहनुमा था। और ठीक अगले ही पल वह अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों के जैसा हो जाता था। उसे गोल्डस्टीन के बारे में बतलाया गया सब कुछ सच लगने लगता था। इस पल में मोटा भाई के ख़िलाफ़ उसके मन में बैठी गुप्त नफ़रत सराहना में बदल जाती थी। फिर उसके मन में मोटा भाई की एक भव्य और अमर संरक्षक की सी छवि बन उठती जो एशिया के गिरोहों के ख़िलाफ़ चट्टान की मानिंद तनकर खड़ा है जबकि गोल्डस्टीन अपनी समूची निस्सहायता, अकेलेपन और अपने होने को लेकर तमाम सन्देहों के बावजूद उस अय्यार जैसा लगने लग जाता था जो महज़ अपनी आवाज़ के दम पर इस सभ्यता को तोड़ने की क़ाबिलियत रखता हो।

अपनी नफ़रत को सायास इधर से उधर मोड़ने के लिए कोई हिंसक कार्रवाई करना भी मुमकिन था। ठीक वैसे ही जैसे किसी दुःस्वप्न में आदमी हिंसक तरीके से तकिये से एक झटके में अपना सिर खींच लेता है। कुछ इसी तरकीब से विंस्टन ने अपनी नफ़रत को स्क्रीन से हटाकर अपने पीछे खड़ी गहरे बालों वाली लड़की पर केन्द्रित कर दिया। उसके दिमाग में अजीबोगरीब कल्पनाएँ उमड़ने लगीं। जैसे, वह उसे रबड़ के डंडे से इतना पीटेगा कि उसकी मौत हो जाएगी। वह उसे नंगा करके किसी खुंटे से बाँध देगा और संत सेबास्टियन की तरह तीरों से उसकी देह छलनी कर देगा। वह उसे फंसाकर अपने प्रेमपाश में फाँस लेगा और ऐन मौके पर उसकी गरदन काट देगा। इसी दौरान उसे यह बात कहीं बेहतर समझ में आई कि वह उससे इतनी नफ़रत क्यों करता है। इसलिए क्योंकि वह जवान और खूबसूरत होने के बावजूद सेक्स के लायक नहीं थी। वह उसके साथ सोना चाहता था लेकिन बाँहों में भरे जाने को अपनी ओर खींचती उसकी सुडौल लचीली कमर ऐसा करने से रोकती थी क्योंकि उसके इर्द-गिर्द यौन-शुचिता का एक घिनौना प्रतीक बँधा हुआ था।

नफ़रत चरम पर पहँच चुकी थी। गोल्डस्टीन अब एकदम भेड़ की आवाज़ में बोल रहा था। एक पल के लिए तो उसका चेहरा भी भेड़ जैसा हो गया। फिर वह भेड़नुमा चेहरा एक यूरेशियाई सिपाही के चेहरे में घुलने लगा जो अपनी मशीनगन तड़तड़ाते हुए बेहद डरावने तरीके से आगे की ओर बढ़ता चला आता था और आकार में बड़ा होता जाता था। ऐसा लगा कि वह परदे को फाड़कर बाहर निकल आएगा। इस डर से पहली कतार में बैठे लोग वास्तव में अपनी-अपनी कुर्सियों पर पीछे की ओर हो गए। ठीक इसी मौके पर वह डरावनी छवि मोटा भाई के चेहरे में तब्दील हो गई और सबको थोड़ी राहत की साँस आई। काले बाल, काली मूंछे, ताकतवर और एक रहस्यमय क़िस्म की निश्चलता से भरा हुआ ऐसा विशाल चेहरा जो तक़रीबन पूरी स्क्रीन को घेरे ले रहा था। मोटा भाई ने क्या कहा, किसी ने नहीं सुना। उत्साह भरने वाले महज़ कुछेक शब्द थे, जैसे किसी जंग की शोरगुल के बीच सिपाहियों से कहे जाते हैं। जिन्हें अलग-अलग समझ पाना मुश्किल होता है लेकिन कुल मिलाकर उसका कहा ही आप में आत्मविश्वास भर देता है। धीरे-धीरे मोटा भाई का चेहरा परदे में घुलता गया और उसकी जगह बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे पार्टी के तीन नारों ने ले ली :

युद्ध, शान्ति है
आज़ादी, गुलामी है
अज्ञान, ताक़त है

इसके बावजूद ऐसा लगा कि मोटा भाई का चेहरा कई सेकंड तक स्क्रीन पर मौजूद था। जो असर उस चेहरे ने सबकी आँखों में छोड़ा था उससे मुक्त हो पाना इतना आसान नहीं था। धूसर बालों वाली छोटी महिला अपने आगे वाली कुर्सी पर उचककर परदे की ओर अपनी दोनों बाँहें फैलाए कुछ बुदबुदा रही थी, जो सुनने में 'हे दाता' जैसा कुछ लग रहा था। फिर उसने अपनी दोनों हथेलियों में अपने चेहरे को छिपा लिया, जैसे प्रार्थना करते हैं। वह प्रार्थना ही कर रही थी।

बिलकुल इसी वक़्त पूरा सभागार एक धीमी और गहरी लय में डूब गया। किसी मंत्र की तरह सभी ने समवेत स्वर में बोलना शुरू किया-मोटा भाई! मोटा भाई! बहुत धीरे-धीरे वे इसका उच्चार करते रहे। पहले शब्द के बाद वे थोड़ा ठहरते, फिर दूसरा शब्द बोलते। इसकी पृष्ठभूमि में फ़र्श पर पंजे चटकने और टमटम की अजीब सी आवाज़ आती रही। कोई तीस सेकंड तक यह सब चला होगा। अत्यधिक भावनात्मक पलों में अकसर यही टेक होती थी जिसे लोग दुहराते थे। एक मायने में यह मोटा भाई की ताक़त और ज्ञान के प्रति श्रद्धाभाव ही है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा यह खुद को भुलवाने और सम्मोहित करने का एक कृत्य है जहाँ लयबद्ध शब्दों के सामूहिक दुहराव में चेतना को विसर्जित कर दिया जाता है। विंस्टन को लगा कि उसकी आँतें ठंडी पड़ चुकी हैं। दो मिनट की नफ़रत के दौरान वह खुद को उस उन्माद का हिस्सा बनने से रोक नहीं पाया था, लेकिन यह मोटा भाई!...मोटा भाई! का अमानवीय मंत्रोच्चार उसे हमेशा ही भय से भर देता था। इससे बचना भी सम्भव नहीं था। दूसरों के साथ उसने भी यही किया। अपनी भावनाओं को छिपाना, अपने चेहरे के हाव-भाव को नियंत्रित करना, बिलकुल दूसरों की नक़ल करना, यह सब तो अपने आप हो ही जाता था लेकिन बीच में एकाध सेकंड का वक़्त मिलता था। इसी दौरान उसकी नज़र ने शायद उसे धोखा दे दिया। और इस पल में कुछ ऐसा हुआ जो बहुत बड़ी बात है, बशर्ते वैसा हुआ रहा हो।

उसकी नज़र ओ'ब्रायन की नज़र से लड़ गई। ओ'ब्रायन खड़ा हुआ था। उसने अपने चश्मे उतार दिए थे और इस वक़्त वह अपने ख़ास अन्दाज़ में नाक पर चश्मा वापस चढ़ा रहा था। इसी बीच सेकंड के कुछेक हिस्से में दोनों की आँखें मिलीं और इतनी ही देर में विंस्टन जान गया जी हाँ, बाक़ायदे जान गया कि ओ'ब्रायन भी उसी की तरह सोच रहा था। और यह सन्देश बिना चुके उधर पहँच भी गया। ऐसा लगा जैसे दोनों की खोपड़ी खुल गई हो और आँखों के रास्ते उनके विचार एक-दूसरे तक आ-जा रहे हों। उसे लगा कि ओ'ब्रायन उससे कह रहा है, “मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम्हें इस वक़्त कैसा लग रहा है। तुम्हारी नाफरमानी, तुम्हारी नफ़रत, हिकारत, सबके बारे में मैं जानता हूँ। लेकिन निश्चिंत रहो, मैं तुम्हारे साथ हूँ।" और इसी के साथ वह अदृश्य तार टूट गया। ओ'ब्रायन का चेहरा फिर से रहस्यमय हो गया, दूसरों के जैसे।

कुल इतना ही हुआ था। विंस्टन पक्का नहीं था कि ऐसा कुछ हुआ भी है या नहीं। ऐसी घटनाओं का ओर-छोर तो होता नहीं है। इस सबसे बस यह विश्वास उसके भीतर कायम रहा, या कहें एक उम्मीद, कि उसके साथ बाक़ी लोग भी पार्टी के दुश्मन ही हैं। हो सकता है कि पार्टी के ख़िलाफ़ भूमिगत षड़यंत्र की अफ़वाहें सच ही हों-कौन जाने कि ब्रदरहुड नाम का वाक़ई कुछ हो। वैसे भी जिस तरह से लगातार गिरफ़्तारियाँ, गवाहियाँ और हत्याएँ सामने आ रही हैं यह मानना तो असम्भव है कि ब्रदरहुड केवल एक मिथक होगा। कुछ दिन उसे लगता था कि वह है, फिर कभी लगता था कि नहीं है।

कोई सबूत तो था नहीं उसके होने का, बस कुछ सरसरी छवियाँ थीं जिनका कुछ भी अर्थ हो सकता था और कुछ नहीं भी। जैसे, सुनी-सुनाई कानाफूसी, शौचालय की दीवारों पर उकेरे गए धुंधले शब्द। एक बार तो उसने देखा कि दो अजनबी जब मिले तो उनके हाथ की अजीबोगरीब मुद्रा भी ऐसी लगी जैसे कोई कूट संकेत हो। सब अटकलबाज़ी ही थी। हो सकता है कि सब उसकी कल्पना की उपज हो। यही सब सोचते हुए वह ओ'ब्रायन की ओर देखे बगैर अपने क्यूबिकल में चला गया। उस पल भर के सम्पर्क को आगे बढ़ाने का ख़याल उसके दिमाग में नहीं आया। उसने अगर ऐसा करने का कुछ सोचा भी होता तो यह बहुत ख़तरनाक हो सकता था, जिसका उसे अन्दाज़ा तक नहीं होता। बस सेकंड भर की बात थी जब दोनों की आँख लड़ी थी और कहानी ख़त्म। फिर भी ज़िन्दगी यहाँ जिस तरह के एकान्त में कैद है, उस लिहाज़ से यह घटना याद रखे जाने लायक़ तो थी।

विंस्टन ने पीठ सीधी की और डकार मारी। खाली पेट में पड़ी जिन का असर था।

उसकी आँखें दोबारा पन्ने पर जम गईं। उसने पाया कि इस बीच सोचते हुए वह अनजाने में लगातार लिख भी रहा था, जैसे यह अपने आप हो गया हो। लिखाई हालाँकि पहले की चिड़िया की टाँग जैसी नहीं थी। उसकी क़लम ने उस चिकने पन्ने पर बड़े-बड़े साफ़-सुथरे अक्षरों में लिख मारा था:

मोटा भाई मुर्दाबाद
मोटा भाई मुर्दाबाद
मोटा भाई मुर्दाबाद
मोटा भाई मुर्दाबाद
मोटा भाई मुर्दाबाद

आधा पन्ना इसी से भर गया था।

एक पल के लिए वह घबरा उठा। ऐसे शब्द लिखना वैसे तो नोटबुक खोलने जितना ही ख़तरनाक था, कोई ज़्यादा नहीं, फिर भी उसे लगा कि इस पन्ने को फाड़ दिया जाए और लिखने का कार्यक्रम ही स्थगित कर दिया जाए।

उसने ऐसा नहीं किया। वह जानता था कि यह बेकार है। वह डायरी में मोटा भाई मुर्दाबाद लिखे या न लिखे, दोनों से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह आगे भी लिखता रहे या लिखना बन्द कर दे, इन दोनों में भी कोई अन्तर नहीं है। विचार पुलिस के लिए ये सारी कार्रवाइयाँ एक सी ही हैं। उसने अनिवार्यत: वह अपराध कर दिया था जिसके दायरे में बाक़ी सारे अपराध आते थे| वह लिखना शुरू नहीं करता तब भी अपराध तो हो ही चुका था। ऐसा सोचने का अपराध। वे इसे वैचारिक अपराध कहते थे। वैचारिक अपराध को आप हमेशा के लिए नहीं छिपा सकते। हो सकता है कुछ समय गच्चा देने में कामयाब हो जाएँ, कुछ साल तक भी, लेकिन आज नहीं तो कल वे आपको पकड़ ही लेंगे।

ऐसा अकसर रात में होता था। सारी गिरफ़्तारियाँ रात के अंधेरे में होती थीं। एक झटके में आपको नींद से जगाया जाता, कोई कठोर हाथ आपका कन्धा झिंझोड़ रहा होता, आपकी आँखों पर रोशनी डाली जाती और आपका बिस्तर सख़्त चेहरों से चौतरफा घिरा मिलता। ज़्यादातर ऐसे मामलों में कोई सुनवाई नहीं होती थी, न तो गिरफ़्तारी को ही रिपोर्ट किया जाता था। लोग बस मुँहअँधेरे गायब कर दिए जाते थे। फिर आपका नाम हर रजिस्टर से मिटा दिया जाता। आपने कभी भी कुछ भी किया हो, उस सबका रिकॉर्ड साफ़ कर दिया जाता। आप इस दुनिया में थे भी, इसका निशान मिटा दिया जाता और आप भुला दिए जाते। एक तरह से कहें तो आपके वजूद को ही नकार दिया जाता था, एकदम जड़ से साफ़। इसे वे भाप बनना कहते हैं।

ऐसा सोचते ही उसे देह में मिर्गी जैसी जकड़न महसूस हुई। फिर काफ़ी तेज़ी से उसने ख़राब लिखाई में लिखना शुरू किया :

वे मुझे गोली मार देंगे तो मार दें वे मेरी गरदन में पीछे से गोली मार देंगे तो मार दें मोटा भाई मुर्दाबाद वे हमेशा गरदन के पीछे ही गोली मारते हैं मार दें मोटा भाई मुर्दाबाद...

कुर्सी पर पीछे होकर वह आराम से बैठ गया। उसने कलम रख दी। वह थोड़ा शर्मिन्दा महसूस कर रहा था। अचानक वह थोड़ा उत्तेजित होकर दोबारा शुरू हो गया। तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया।

वह किसी चूहे की तरह चुपचाप स्थिर रहा, इस हल्की सी उम्मीद में कि जवाब न मिलने पर जो भी होगा वह चला जाएगा। लेकिन नहीं, दरवाज़ा फिर बजा। अब देर करना और बुरा होता। उसका दिल किसी नगाड़े की तरह धड़क रहा था, लेकिन चेहरा सपाट था। उसे ऐसी मुद्रा की लम्बे समय से आदत थी। वह उठा और भारी क़दमों से दरवाज़े की ओर बढ़ा।

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-पहला भाग-2

दरवाज़े की कुंडी पर हाथ रखते ही विंस्टन ने देखा कि मेज़ पर डायरी उसने खुली छोड़ दी थी। खुले हुए पन्ने पर मोटा भाई मुर्दाबाद भरा हुआ था और इतने बड़े अक्षरों में लिखा था कि कमरे में कहीं से भी उसे पढ़ा जा सकता था। ऐसी बेवकूफ़ी की उम्मीद उसने खुद से नहीं की थी। फिर उसे अहसास हुआ कि अपनी घबराहट में भी उसने डायरी इसलिए बन्द नहीं की थी क्योंकि स्याही अभी गीली थी और चिकने कागज़ पर वह फैल जाती।

उसने एक साँस खींची और दरवाज़ा खोल दिया। तत्काल राहत का एक गरम झोंका सा उसे महसूस हुआ। बाहर एक महिला खड़ी थी जिसका चेहरा ज़र्द और संदली था, उस पर सिलवटें थीं और उसके बाल बहुत पतले थे।

"अरे, कॉमरेड," उसने थोड़ा उदास और शिकायती लहजे में कहा, “मुझे लगा था कि मैंने आपको आते सुना। जरा चलकर मेरी रसोई की सिंक देख सकते हैं क्या? सब जाम हुआ पड़ा है।"

ये मिसेज पारसन्स थीं, उसी मंज़िल पर रहने वाले एक पड़ोसी की पत्नी (पार्टी में नाम के साथ मिसेज लगाने का चलन नहीं था, हालाँकि कुछ महिलाओं के नाम के आगे लोग खुद ही लगा देते थे। यहाँ हर किसी को 'कॉमरेड' कहना होता था)। कोई तीस बरस की महिला रही होंगी वे लेकिन अपनी उम्र से ज़्यादा बड़ी दिखती थीं। उन्हें एकबारगी देखने पर ऐसा लग सकता था कि चेहरे की सिलवटों के बीच गर्द भरी है। विंस्टन उनके साथ नीचे तक गया। यहाँ टूट-फूट और मरम्मत तक़रीबन रोज़ की चिक-चिक थी। विक्टरी मैंशन्स 1930 या उसके आसपास की बनी पुरानी इमारत थी जो अब जर्जर हो चुकी थी। सीलिंग और दीवारों से पपड़ी छूटती रहती थी, तेज़ सर्दी में यहाँ पाइप फट जाती थी, बर्फबारी में छतें टपकने लगती थीं और कमख़र्ची के वास्ते अगर हीटिंग सिस्टम बन्द न किया गया हो तब भी आधी क्षमता पर ही चलता था। आप ख़ुद से मरम्मत कर लें तो ठीक वरना इन कामों के लिए पहले से तय की गई कुछ कमेटियों से मंजूरी लेनी पड़ती थी।

उनके पास जाने का मतलब था टूटी खिड़की ठीक करवाने के लिए भी दो साल तक का इन्तज़ार।

मिसेज पारसन्स ने ऐसे ही कहा, “आपको इसलिए तकलीफ़ दी क्योंकि टॉम घर पर नहीं है।"

पारसन्स दम्पती का फ़्लैट विंस्टन के फ़्लैट से बड़ा था और अजीब तरीके से गन्दा था। इसमें हर चीज़ टूटी-फूटी थी। ऐसा लगता था जैसे कोई विशाल जंगली जानवर इसे रौंदकर गया है। समूची फ़र्श पर खेल के सामान बिखरे पड़े थे हॉकी स्टिक, मुक्केबाज़ी के दस्ताने, फटी हुई फुटबॉल, खेल वाली उलटी शॉर्ट। मेज़ पर जूठे बरतनों का अम्बार और कुत्ते की चबाई हुई वर्जिश की किताबें थीं। दीवारों पर युवा संघ और जासूसों के लाल बैनर लटके थे, साथ में मोटा भाई का एक बड़े आकार का पोस्टर लगा था। वही उबले हुए करमकल्ले की परिचित गंध यहाँ भी आ रही थी, जो पूरी इमारत में मौजूद थी। किसी के पसीने की दुर्गंध से मिलकर यह और तेज़ हो जाती थी, जिसका पता घुसते ही लगता था लेकिन अभी यह कहना मुश्किल था कि पसीने की महक यहाँ क्यों नहीं आ रही थी। भीतर एक कमरे में कोई टेलिस्क्रीन से आ रहे फ़ौजी संगीत के साथ एक कंघी और टायलेट पेपर के सहारे अपनी लय बैठाने की कोशिश कर रहा था।

"बच्चे हैं," थोड़ा आशंका से दरवाज़े में झाँकते हुए मिसेज पारसन्स ने बताया। “आज वे बाहर नहीं गए हैं न, ज़ाहिर है।"

अधूरे वाक्य बोलना उनकी आदत थी। रसोई की सिंक गॅदले हरे पानी से ऊपर तक भरी पड़ी थी और करमकल्ले से भी बुरी बास मार रही थी। विंस्टन ने घुटनों के बल झुककर पाइप के एंगिल ज्वाइंट का मुआयना किया। उसे हाथ लगाना पसन्द नहीं था और झुककर बैठना भी नहीं क्योंकि इससे उसकी खाँसी उखड़ जाती थी। मिसेज पारसन्स बेचारगी में उसे देखती रहीं।

वे बोली, "टॉम घर होता तो वह तुरन्त इसे सही कर देता। उसे ऐसे काम पसन्द हैं। उसके हाथ में हनर है, टॉम के।"

पारसन्स सत्य मंत्रालय में विंस्टन के साथ काम करता था। वह एक मोटा लेकिन सक्रिय आदमी था जो हमेशा मूर्खतापूर्ण उत्साह से प्रेरित रहता था, जिस पर कोई सवाल नहीं किया जा सकता था। वह पार्टी के लिए समर्पित कोल्ह के बैलों में से एक था, पार्टी की स्थिरता विचार पुलिस से भी कहीं ज़्यादा इन पर निर्भर थी। पैंतीस साल का होते ही उसे युवा संघ से निकाल दिया गया था, लेकिन उसमें भर्ती से पहले वह अपनी वैधानिक उम्र से एक साल ज़्यादा वक़्त तक जाने कैसे गुप्तचर विभाग में बना रहा। सत्य मंत्रालय में वह किसी निचले ओहदे पर था जहाँ बहुत दिमाग की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, लेकिन खेल कमेटी सहित उन तमाम अन्य कमेटियों में वह अग्रणी स्थिति में था जो सामुदायिक यात्रा, प्रदर्शन, कमख़र्ची अभियान और स्वैच्छिक गतिविधियों का आयोजन करती थीं। पाइप खींचते हुए वह काफ़ी गर्व के साथ बतलाता था कि पिछले चार साल से बिला नागा हर शाम वह सामुदायिक केन्द्र में मौजूद रहा है। उसकी देह से उठने वाली नाक़ाबिले बरदाश्त पसीने की दुर्गंध से उसकी व्यस्तता का अन्दाज़ा लगता था। वह जहाँ भी जाता, यह गंध उसके साथ-साथ जाती और उसके चले जाने के बाद भी बनी रहती थी।

एंगल ज्वाइंट पर नट को टटोलते हुए विंस्टन ने पूछा, “आपके पास पाना है?"

“पाना," अचानक मिसेज पारसन्स बिना रीढ़ वाले किसी प्राणी की तरह दोहरी होकर बोली, “पता नहीं, देखती हूँ, शायद बच्चे...।"

तब तक बूटों की आहट आई और कन्धे से ज़ोर की आवाज़ फूटी, बच्चे बैठके में आ चुके थे। मिसेज पारसन्स पाना लेकर आ गईं। विंस्टन ने जमा हुआ पानी निकाला और खीजे मन से नाबदान में फँसा बालों का गुच्छा अपने हाथ से निकाला जिसके चलते पाइप जाम हो गया था। नलके से आते ठंडे पानी में उसने काम भर का हाथ धोया और दूसरे कमरे में चला गया।

"हाथ ऊपर!" अचानक एक बनैली आवाज़ उस पर चीख़ी।

नौ साल का कठोर सा दिखने वाला एक खूबसूरत बालक अचानक मेज़ के पीछे से उचककर प्रकट हुआ और उसे खिलौने वाली ऑटोमैटिक पिस्तौल से डराने लगा। उसकी छोटी बहन, जो उससे क़रीब दो साल छोटी रही होगी, वह भी यही कर रही थी लेकिन हाथ में रखे लकड़ी के एक टुकड़े से। दोनों ही नीली शॉर्ट, ग्रे शर्ट और लाल गुलूबन्द पहने हुए थे जो गुप्तचरों की वर्दी हुआ करती थी। विंस्टन ने हाथ तो ऊपर कर दिया, लेकिन उस लड़के की चालढाल इतनी हिंसक थी कि वह इससे थोड़ा असहज हो उठा। यह जो भी रहा हो, लेकिन बच्चों का खेल नहीं था।

“देशद्रोही कहीं के!" लड़का चीख़ा, "तुम एक विचार अपराधी हो! तुम यूरेशियाई जासूस हो! मैं तुम्हें गोली मार दूंगा, मैं तुम्हें भाप बना दूंगा, तुम्हें मैं नमक की खदानों में भेज दूंगा।"

अचानक ही दोनों बच्चे उसके इर्द-गिर्द उछलते हुए 'देशद्रोही' और 'विचार अपराधी' चिल्लाने लगे। छोटी वाली बच्ची हर क़दम पर अपने भाई की नक़ल कर रही थी। पता नहीं कैसे लेकिन यह थोड़ा डराने वाली बात थीजैसे बाघ के शावक कूद-फाँद मचा रहे हों जो जल्द ही बड़े होकर आदमखोर बन जाएँगे। लड़के की आँखों में एक सधी हुई उग्रता थी, जैसे वह विंस्टन को मारने के लिए उसे आँखों में ही तौल रहा हो और उसके भीतर यह भरोसा भी था कि वह इतना बड़ा है कि ऐसा वाक़ई कर ले जाएगा। विंस्टन ने शुक्र मनाया कि लड़के के हाथ में असली पिस्तौल नहीं थी।

मिसेज पारसन्स की पुतली विंस्टन से बच्चों की ओर और वापस विंस्टन की ओर बेचैनी में नाच रही थी। बैठके की बेहतर रोशनी में अब जाकर विंस्टन ने इस बात पर ध्यान दिया कि उनके चेहरे की सिलवटों के बीच वाक़ई धूल बैठी हुई थी।

“इतना हल्ला मचाते हैं सब," उन्होंने कहा, “ये दोनों फाँसी देखने नहीं जा पाए न, इसीलिए उदास हैं। मेरे पास समय नहीं था कि ले जा पाती और टॉम को दफ़्तर में देरी हो जाएगी।"

अपनी भारी आवाज़ में लड़का गरजा, “हम लोग फाँसी देखने क्यों नहीं जा सकते?"

अभी भी उछल-कूद रही लड़की ने रटना शुरू किया, “फाँसी दिखाओ, फाँसी दिखाओ।"

उस शाम पार्क में कुछ युद्ध अपराधी यूरेशियाई कैदियों को फाँसी दी जानी थी। अचानक विंस्टन को यह याद आया। महीने में क़रीब एक बार ऐसा किया जाता था। यह काफ़ी लोकप्रिय आयोजन होता था। बच्चों की ख़ास ज़िद होती थी फाँसी देखने की। विंस्टन ने मिसेज पारसन्स से विदा ली और दरवाज़े की ओर बढ़ा वह। बमुश्किल छह सीढ़ी भी नीचे नहीं उतरा होगा कि उसकी गरदन के पीछे कुछ आकर लगा और दर्द से वह तिलमिला उठा। ऐसा लगा जैसे किसी ने लोहे की तार लाल गरम करके उसके भीतर घुसा दी हो। वह पीछे मुड़ा तो देखा कि मिसेज पारसन्स अपने लड़के को खींचकर भीतर ले जा रही हैं। लड़के के हाथ में एक गुलेल थी।

घर का दरवाज़ा बन्द होते-होते लड़का भीतर से चिल्लाया, "गोल्डस्टीन!” लेकिन विंस्टन के लिए कहीं ज़्यादा हैरत का सबब उस महिला के उड़े हुए चेहरे पर बेचारगी से भरा डर का भाव था।

फ़्लैट में आते ही वह काफ़ी तेज़ी से टेलिस्क्रीन को पार करता हुआ अपनी कुर्सी पर वापस बैठ गया। अब भी वह अपनी गरदन रगड़ रहा था। टेलिस्क्रीन का संगीत बन्द हो चुका था। उसकी जगह सम्पादित किए हुए एक उत्साहजनक फ़ौजी स्वर में जलमहल के लिए लाए गए हथियारों का विवरण दिया जा रहा था, जिसे ओशियनिया और फैरो द्वीप के बीच बनाया गया था।

विंस्टन को महसूस हुआ कि ऐसे बच्चों के साथ तो वह बेचारी औरत ज़िन्दगी भर आतंक में ही रहेगी। बस एकाध साल की बात और है फिर यही बच्चे अपनी माँ पर नज़र रखेंगे कि कहीं वह नियम-क़ानून तो नहीं तोड़ रही। वैसे भी आजकल तो क़रीब-करीब सारे बच्चे भयानक ही निकल रहे हैं। सबसे बुरा तो यही हो रहा था कि गुप्तचर संस्थाओं के सहारे इन बच्चों को बहुत व्यवस्थित तरीके से छुट्टा जंगली जानवरों में तब्दील किया जा रहा था। इससे भी बुरा यह था कि इन्हें पार्टी के अनुशासन के ख़िलाफ़ बगावत करने जैसा कोई अहसास तक नहीं होता था। इसके उलट, ये पार्टी और उससे जुड़ी हर चीज़ की सराहना करते थे। गीत, प्रदर्शन, बैनर, यात्राएँ, नक़ली राइफलों के साथ ड्रिल, नारेबाज़ी, मोटा भाई की भक्ति-ये सब कुछ इन बच्चों के लिए गौरवान्वित करने वाला खेल था। उनकी तमाम उग्रताओं को बाहर की ओर निर्देशित किया जाता था राज्य के शत्रुओं के ख़िलाफ़, विदेशियों के खिलाफ़, देशद्रोहियों, विध्वंसकों और विचार अपराधियों के ख़िलाफ़| तीस साल पार के लोगों में यह बात आम पाई जाती थी कि वे सब अपने बच्चों से डरते थे। इसकी जायज वजह भी थी। हफ्ता भर नहीं बीतता कि दि टाइम्स किसी 'बाल नायक' की फ़ोटो छाप देता था ताका-झाँकी करने वाला एक ऐसा बच्चा जिसने अपने माँ-बाप को कुछ आपत्तिजनक खुसफुसाते सुना और विचार पुलिस के हवाले कर दिया।

गुलेल की चोट अब टीस नहीं दे रही थी। उसने आधे-अधूरे मन से क़लम उठाई यह सोचते हुए कि अब और क्या लिख सकता है अपनी डायरी में, फिर अचानक उसका दिमाग ओ'ब्रायन की तरफ़ चला गया और वह उसके बारे में सोचने लगा।

बरसों पहले, शायद सात बरस पहले की बात रही होगी जब उसे एक सपना आया था। सपने में वह घुप्प अँधेरे कमरे में चल रहा था। वहीं उसके बग़ल में एक आदमी था जिसने गुज़रते हुए कहा था : “हम वहाँ मिलेंगे जहाँ कोई अँधेरा नहीं होगा।" यह बात बहुत हल्के से, तक़रीबन सरसरी तौर से कही गई थी। यह एक सपाट बयान था, कोई निर्देश नहीं। ऐसा कहकर वह बिना ठहरे निकल लिया था। अजीब बात यह थी कि सपने में इन शब्दों का उसके ऊपर वैसा असर नहीं हुआ था बल्कि बाद में कहीं ज्यादा इसका महत्त्व समझ में आया। उसे फ़िलहाल याद नहीं कि उसने ओ'ब्रायन को पहली बार सपने से पहले देखा था या बाद में। यह भी याद नहीं कि ओ'ब्रायन की आवाज़ से वह पहली बार परिचित कब हुआ था। फिर भी चाहे जो हो, पहचान का एक सिरा तो मौजूद था वह ओ'ब्रायन ही था जिसकी आवाज़ सपने में अँधेरे को चीरकर उस तक पहुँची थी।

विंस्टन कभी भी आश्वस्त नहीं हो पाया कि ओ'ब्रायन उसका दोस्त है या दुश्मन। आज सुबह उससे आँख लड़ने के बावजूद वह अब तक इस बात को लेकर पक्का नहीं था। यह बात उतनी ज़रूरी भी नहीं रह गई थी अब । उनके बीच समझदारी का एक सिरा बेशक मौजूद था जो किसी लगाव या साझेदारी से कहीं ज़्यादा अहम था। उसने कहा था, "हम वहाँ मिलेंगे जहाँ कोई अँधेरा नहीं होगा।" विंस्टन नहीं जानता था कि इसका मतलब क्या है। बस इतना पता था कि किसी न किसी रूप में यह बात सच होनी है।

टेलिस्क्रीन से आ रही आवाज़ थम गई। एक स्पष्ट और सुन्दर तुरही का घोष हवा में फैले सन्नाटे को चीरता हुआ निकला और उसके पीछे एक कर्कश आवाज़ में उद्घोषणा हुई:

ध्यान दें! कृपया, ध्यान दें! मालाबार के मोर्चे से एक ताज़ा खबर आई है। दक्षिण भारत में हमारी सेना को शानदार जीत मिली है। हम जो आगे बताने जा रहे हैं उसके हिसाब से कहा जा सकता है कि यह जंग जल्द ही अपनी समाप्ति की ओर होगी, ऐसा आप सब को बताने के लिए मुझे कहा गया है। यह रही ताज़ाखबर।

बुरी ख़बर है, विंस्टन ने सोचा। और पक्का बरी ही ख़बर निकली क्योंकि यूरेशियाई फ़ौज के सफ़ाए और मारे व कैद किए गए उसके सैनिकों की भारी संख्या के खूनी विवरणों के तुरन्त बाद ही घोषणा की गई कि अगले हफ्ते से चॉकलेट का राशन तीस ग्राम से घटाकर बीस ग्राम कर दिया जाएगा। विंस्टन ने फिर डकार मारी। जिनका असर ख़त्म हो चुका था और पेट खाली महसूस हो रहा था। टेलिस्क्रीन पर तभी राष्ट्रगान बजने लगा-जीत का जश्न मनाने के लिए या चॉकलेट की कटौती को भुलवाने के लिए, पता नहीं। ‘ओशियनिया, सब तेरे लिए' पर सबको सावधान की मुद्रा में खड़ा होना होता था लेकिन विंस्टन तो अभी टेलिस्क्रीन की ज़द में नहीं था।

राष्ट्रगान के बाद हल्का संगीत बजने लगा। टेलिस्क्रीन की तरफ़ पीठ किए हुए विंस्टन टहलते हुए खिड़की के पास गया। बाहर अब भी ठंड थी और मौसम साफ़ था। कहीं किसी रॉकेट बम के फटने की आवाज़ आई और गूंजती रही। इधर बीच लंदन में हर हफ़्ते बीस-तीस लोग मारे जा रहे थे।

नीचे सड़क पर फटा हुआ पोस्टर हवा में आगे-पीछे लहरा रहा था और उस पर लिखा INGSOC रह-रह कर दिखता और छिप जाता था। अंग्रेज़ी समाजवाद के तीन पावन सिद्धान्त थे-न्यूस्पीक यानी नई भाषा, डबलस्पीक यानी दोरंगापन और अतीत की परिवर्तनीयता। उसे महसूस हुआ कि वह समन्दर की तलहटी में फैले जंगल में भटक रहा है और एक ऐसे राक्षसी जगत में गुम हो गया है जहाँ वह खुद एक राक्षस है। अतीत मर चुका था। भविष्य कल्पनातीत था। आख़िर क्या गारंटी है कि इस धरती पर जीवित एक भी मनुष्य उसके जैसा सोच रहा होगा? और यह जानने का क्या तरीक़ा है कि पार्टी की सत्ता हमेशा के लिए ऐसे ही नहीं कायम रहेगी? सत्य मंत्रालय की सफ़ेद इमारत पर लिखे तीन नारे किसी जवाब की तरह उसकी आँखों के सामने चमक गए :

युद्ध, शान्ति है
आज़ादी, गुलामी है
अज्ञान, ताक़त है

उसने अपनी जेब से एक चवन्नी निकाली। उस पर भी साफ़ अक्षरों में यही नारा खुदा हुआ था और दूसरी तरफ़ मोटा भाई का चेहरा था। उस सिक्के में से भी मोटा भाई की आँखें भेद रही थीं। सिक्कों पर, महरों पर, किताब के कवर पर, बैनरों पर, पोस्टरों पर और सिगरेट के पैकेट पर, हर जगह यह चेहरा मौजूद था। हर कहीं से इसकी आँखें आपको देखती थीं और इसकी आवाज़ आपको घेरती सी प्रतीत होती थी। जागे में, सोते हुए, खाते हुए, काम के दौरान, भीतर या बाहर, बिस्तर में या नहाते हुए इससे कहीं भी बच पाना असम्भव था। आपका अपना कहने लायक़ कछ भी नहीं था यहाँ, सिवाय आपकी खोपड़ी के भीतर कुछ घन सेंटीमीटर की जगह के।

सूरज पहलू बदल चुका था। सत्य मंत्रालय की अनगिनत खिड़कियों पर उसकी रोशनी अब नहीं पड़ रही थी। किसी क़िले में बने गुप्त सूराख़ों की तरह वे भयावह दिखती थीं। उस महाकाय पिरामिडीय ढाँचे के सामने उसका दिल सहमकर छुछुक गया। एक हज़ार रॉकेट बम भी मार दें तो इसका कुछ नहीं बिगड़ने वाला। उसे फिर जिज्ञासा हुई कि आख़िर किसके लिए वह डायरी लिख रहा है। भविष्य के लिए या अतीत के लिए या फिर किसी काल्पनिक युग के लिए। और इसके एवज में उसे मिलना क्या है? मौत नहीं, सम्पूर्ण लोप। डायरी राख कर दी जाएगी और वह खुद भाप बनकर उड़ जाएगा। उसने जो लिखा है वह केवल विचार पुलिस पढ़ पाएगी, उसे इस दुनिया से और स्मृति से हमेशा के लिए नष्ट करने से ठीक पहले। जब कागज़ के एक टुकड़े पर लिखा एक अदद लफ़्ज़ नहीं बच पा रहा, आपके अपने एक अंश तक का नामोनिशान नहीं बच पा रहा, तो आप भविष्य से कैसे कोई अपील कर पाएँगे?

टेलिस्क्रीन में चौदह का गजर खड़का। उसे दस मिनट में निकलना होगा और आधे घंटे में काम पर पहुँचना होगा।

घंटे की आवाज़ से जाने कैसे उसके भीतर कुछ हरकत हुई। अब तक वह किसी एकाकी प्रेत के जैसे सच बोले जा रहा था जिसे सुनने वाला कोई नहीं था। उसकी बुदबुदाहट में कोई बाधा नहीं पड़ी थी, निरन्तरता नहीं टूटी थी। इसका मतलब कि मामला सुनने वाले का नहीं होता। दरअसल, आप अपने विवेक को बचाए रखते हुए ही इनसानी विरासत को कायम रख सकते हैं। वह मेज़ पर लौटा, स्याही में क़लम डुबोई और लिखने लगा :

भविष्य के नाम या अतीत के नाम एक ऐसे वक़्त के नाम जब सोच आज़ाद हो, जब आदमी और आदमी का फ़र्क हो और कोई भी अकेलान हो-एक ऐसे वक्त के नाम जब सच ज़िन्दा हो और किए जा चुके को मिटा पाना सम्भव न हो:

एकरूपता के युग से, एकाकीपन के युग से, मोटा भाई के युग से, दोरंगेपन के युग से सलाम!

वह मर चुका है, ऐसा उसने मान लिया। उसे लगा कि अब जाकर उसके विचार स्पष्ट आकार ले रहे हैं। अब जाकर उसने ठोस फ़ैसला लिया है। हर कृत्य का परिणाम उस कृत्य में ही मौजूद है। उसने लिखा :

वैचारिक अपराध का नतीजा मौत नहीं है। वैचारिक अपराध अपने आप में मौत है।

अब चूँकि उसने खुद को मरा हुआ मान लिया था तो उसके लिए जब तक सम्भव हो बचे रहना ज़रूरी था। उसके दाहिने हाथ की दो उँगलियों में स्याही लग गई थी। ऐसी ही छोटी-छोटी भूल धोखा दे जाती है। पता चला कि मंत्रालय में किसी अतिउत्साही जीव ने अपनी नाक घुसेड़ दी इसमें कोई महिला ही, जैसे धूसर बालों वाली वह छोटी-सी महिला या फिर गल्प विभाग वाली गहरे बालों वाली लड़की) और लगी पूछने कि वह लंच के दौरान क्यों लिख रहा था, पुराने क़िस्म की क़लम से क्यों लिख रहा था, क्या लिख रहा था और पता चला कि जाकर शिकायत कर दी। वह बाथरूम में गया और बड़ी सावधानी से उसने गाढ़े भूरे साबुन से स्याही को रगड़कर साफ़ कर डाला। इस काम के लिए यह साबुन बहुत उपयुक्त था क्योंकि बलुआ काग़ज़ की तरह यह आपकी चमड़ी को घिस डालता था।

डायरी को उसने दराज में वापस रख दिया। उसे छिपाने का सोचना तो बेकार ही था लेकिन कम से कम इतना तो वह जान ही सकता था कि किसी को उसका पता तो नहीं लग गया है। इसके लिए पन्ने के बीच में कोई बाल फँसाना एक ज़ाहिर कार्रवाई हो सकती थी, इसलिए उसने उजली धूल की एक छटाँक को अपनी उँगली के पोरों से उठाया और कवर के कोने में जमा दिया। अब कोई डायरी को छेड़ेगा भी तो कवर से धूल छिटक जाएगी और वह तुरन्त पकड़ में आ जाएगा।

1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-पहला भाग-3

विंस्टन अपनी माँ का सपना देख रहा था।

उसके ख़याल में वह दस-ग्यारह साल का रहा होगा जब उसकी माँ गायब हो गई थी। वे ऊँचे क़द की एक शान्त महिला थीं जिनके बाल शानदार उजले थे और जिनकी चाल बहुत मद्धिम थी। उसे याद पड़ता है कि उसके पिता साँवले रंग के, दुबली काठी के शख़्स थे जो हमेशा साफ़-सुथरे गहरे रंग के कपड़े और चश्मा पहना करते थे (विंस्टन को ख़ास तौर से उनके जूतों का बहुत पतला तल्ला याद पड़ता है)। बहुत सम्भव है कि पचास के दशक में चलाए गए महान सफाई अभियानों (Great Purge) में से एक का दोनों शिकार रहे हों।

वह जहाँ बैठा था, उससे बहुत नीचे गहराई में कहीं उसकी माँ अपनी गोद में उसकी छोटी बहन को लिए दिख रही थी। बहन की उसको बिलकुल भी याद नहीं है, सिवाय इसके कि वह एक नाजुक सी छोटी-सी बच्ची थी जो हमेशा चुप रहती थी और बड़ी-बड़ी आँखों से टकर-ट्कर देखती रहती थी। अभी दोनों ऊपर उसी को देख रही थीं। वे दोनों कहीं ज़मीन के नीचे थींशायद किसी कुएँ के तल में या किसी बहुत गहरी क़ब्र के भीतर लेकिन वे उसकी सतह से पहले ही बहुत नीचे थीं और गहराई बढ़ती जा रही थी। वह जगह नीचे चली जा रही थी। जैसे वे किसी डूबते हुए जहाज़ के सलून में हों और गहराते पानी को भेदते हुए उसे देख रही हों। सलून में अब भी कुछ हवा शेष थी। वे उसे देख सकती थीं और वह उन्हें, लेकिन वे लगातार नीचे और नीचे गहरे हरे पानी में डूबते जा रही थीं जो थोड़ी देर में उन्हें हमेशा के लिए उसकी नज़रों से ओझल कर देगा। वह बाहर हवा और रोशनी में बैठा था जबकि उन्हें मौत नीचे की ओर खींच रही थी। वे नीचे इसीलिए थीं क्योंकि वह बाहर था। दोनों इस बात को जानते थे और उसे उनके चेहरे पर यह अहसास लिखा दिख भी रहा था, लेकिन उनके चेहरे पर या दिल में इसे लेकर कोई धिक्कार-भाव नहीं था। बस इस बात का अहसास था कि उसे ज़िन्दा रखने के लिए उन्हें मरना होगा और इसे टाला नहीं जा सकता।

उसे याद नहीं कि क्या हुआ था, लेकिन अपने सपने में वह जानता था कि उसकी माँ और बहन की ज़िन्दगी उसे बचाने के लिए कुरबान हुई है। यह एक ऐसा सपना था जिसमें एक सपने की सारी छटा होने के बावजूद दरअसल वह आपकी वास्तविक ज़िन्दगी का आईना होता है जिसमें आदमी उस हक़ीक़त और ख़यालात से रूबरू होता है जिन्हें जागने के बाद भी वह अनमोल और बिलकुल नया समझता रहता है। इस मोड़ पर विंस्टन को एक बात अचानक खटकी कि आज से तीसेक साल पहले उसकी माँ की मौत जिस त्रासद और दुखद तरीके से हुई थी, वैसा आज बिलकुल भी सम्भव नहीं है। त्रासदी उस ज़माने की बात हो गई है जब प्रेम, दोस्ती, निजता जैसी चीजें हुआ करती थीं, जब परिवार के सदस्य एक-दूसरे के साथ खड़े रहते थे और इसके लिए उन्हें किसी वजह की ज़रूरत नहीं होती थी। माँ की याद ने उसका दिल चाक कर दिया क्योंकि वह उसे प्यार करते हुए मरी थी, जब वह इतना छोटा और स्वार्थी था कि बदले में उसे प्यार नहीं दे पाया था। और पता नहीं कैसे, उसे याद नहीं पड़ता कि माँ ने कर्तव्यनिष्ठा के किसी ऐसे बोध में अपना बलिदान दे दिया था जो उसके लिए बेहद निजी और अक्षुण्ण था। ऐसी चीजें आज सम्भव नहीं हैं। आज भय, नफ़रत और पीड़ा बेशक है लेकिन भावनाओं की मान-मर्यादा नहीं बची है, दुख की गहराई और जटिलता नदारद है। सैकड़ों कोस नीचे हरे पानी में लगातार डूबते हुए ऊपर देखती माँ और बहन की बड़ी-बड़ी आँखों में झाँककर उसे ये बातें समझ में आ रही थीं।

अचानक उसने खुद को एक मखमली सतह पर खड़ा पाया। गर्मियों की शाम थी। सूरज की तिरछी किरणें ज़मीन पर पड़ रही थीं। यह दृश्य तो उसने पहले भी सपने में कई बार देखा है। इतनी बार कि वह खुद पक्का नहीं है कि कहीं वास्तव में तो यहाँ वह नहीं आया था। जब भी वह जागे में इस जगह को सोचता है, तो इसे सुनहरा प्रदेश कहता है। यह एक पुरानी चरागाह थी ख़रगोशों से भरी हुई जिसके बीच से एक पगडंडी जाती थी और यहाँ-वहाँ बाँबियाँ थीं। घास के मैदान के उस पार जंगली इलाके में चौड़े पत्तों वाले एल्म के पेड़ों की टहनियाँ हवा में हौले-हौले झूम रही थीं। उसके घने पत्ते किसी औरत के बाल की तरह लहरा रहे थे। यहीं कहीं पास में, लेकिन नज़र से ओझल साफ़ पानी का एक शान्त सोता है जहाँ विलो की छाँव में नीचे मछलियाँ तैर रही हैं।

उसने देखा कि मैदान के उस पार से गहरे बालों वाली लड़की उसकी ओर चली आ रही है। ऐसा लगा कि महज़ एक झटके में उसने अपने कपड़े फाड़कर तिरस्कार से एक कोने में फेंक दिए हों। उसकी देह चिकनी और सफ़ेद थी लेकिन वह कोई चाहत पैदा नहीं करती थी। वास्तव में वह उसकी ओर ठीक से देख भी नहीं रहा था, लेकिन उस पल जिस एक चीज़ ने उसे मुग्ध कर दिया था वह थी उसकी अदा, जिससे उसने अपने कपड़े एक कोने में फेंके थे। जिस बेलौस और बिंदास तरीके से उसने ऐसा किया था उसमें गरिमा की एक ऐसी भव्यता थी जो समूची सभ्यता को, एक समूची विचार पद्धति को ख़ारिज कर सकती थी। गोया उन बाँहों की बस एक शानदार चमक ही मोटा भाई और उनकी पार्टी और उनकी विचार पुलिस को झाड़बुहार कर निस्सार कर दे। ऐसी अदा पुराने ज़माने में हुआ करती थी। विंस्टन की नींद खुली तो उसकी ज़बान पर 'शेक्सपियर' था।

टेलिस्क्रीन से कानफोड़ सीटी बज रही थी जो तीस सेकंड तक ऐसे ही बजती रही। सुबह के सवा सात बज चुके थे। यह कर्मचारियों के सोकर उठने का वक़्त था। विंस्टन ने एक झटके में अपने निर्वस्त्र शरीर को बिस्तर से अलग किया और कुर्सी पर पड़ी एक गन्दी बनियान और शॉर्ट उठाए। पार्टी के प्रचारकों को कपड़ों के लिए सालाना केवल 3000 का कूपन मिलता था जबकि एक सूट ही 600 का मिलता था। अगले तीन मिनट में हाड़तोड़ वर्जिश शुरू होने वाली थी। तभी उसे तेज़ खाँसी का दौरा पड़ गया। सोकर उठने के बाद ऐसा अकसर ही होता था। खाँसने से उसके फेफड़े ऐसे खोखले हो गए कि दोबारा उनमें साँस भरने के लिए उसे फिर से पीठ के बल लेटकर मुँह से लम्बी-लम्बी साँस लेनी पड़ी। खाँसने में ज़ोर लगाने से उसकी नसें फूल गई थीं और टखने का अल्सर दर्द देने लगा था।

कर्कश स्वर में एक महिला ने निर्देश दिया, "तीस से चालीस साल वालो, अपनी-अपनी जगह लीजिए। तीस से चालीस।" टेलिस्क्रीन के सामने विंस्टन सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया। परदे पर ट्यूनिक और जिम वाले जूते पहने एक जवान, छरहरी और मांसल महिला पहले से मौजूद थी।

उसने निर्देश दिया, “हाथ मोड़ेंगे और स्ट्रेच करेंगे। मेरे साथ दोहराएँ। एक, दो, तीन, चार! एक, दो, तीन, चार! चलिए कॉमरेड, थोड़ा और जोश से करिए। एक, दो, तीन, चार! एक, दो, तीन, चार!..."

खाँसी के दौरे ने विंस्टन के मन पर सपने का असर पूरी तरह ख़त्म नहीं होने दिया था और लयबद्ध वर्जिश ने उसको कुछ हद तक वापस बहाल करने में ही मदद की। वह यंत्रवत् अपनी बाँहें आगे-पीछे कर रहा था और चेहरे पर एक हल्के उत्साह का भाव भी बनाए हुए था जो वर्जिश के सत्र में ज़रूरी माना जाता था। इसी बीच मन ही मन वह अपने बचपन की स्मृतियों को भी याद करने की कोशिश कर रहा था जो धुंधली पड़ चुकी थीं। यह असामान्य रूप से मुश्किल काम था। पचास के दशक के बाद का सब कुछ धुंधला था। जब बाहर कोई रिकॉर्ड ही नहीं हो जिसे आप देख सकें, तो अपनी ज़िन्दगी की लकीरें भी स्पष्टता खोने लग जाती हैं। आपको वे बड़ी घटनाएँ बेशक याद रहती हैं जो शायद कभी हुई ही नहीं थीं। घटनाओं के महीन विवरण तो आपको याद रह जाते हैं लेकिन उनकी पृष्ठभूमि दिमाग से गायब रहती है। इस बीच लम्बे-लम्बे ख़ाली अन्तराल भी हैं जिनमें कुछ नहीं दिखता। उस समय तो सब कुछ एकदम अलग था। यहाँ तक कि देशों के नाम भी और दुनिया के नक्शे पर उनकी आकृतियाँ भी आज से अलहदा थीं। मसलन, उन दिनों एयरस्ट्रिप वन नाम का कोई देश नहीं होता था। केवल इंग्लैंड या ब्रिटेन कहते थे, हालाँकि लंदन तो हमेशा से लंदन ही था। इस बारे में वह आश्वस्त था।

विंस्टन को ऐसा कोई दौर याद नहीं जब उसका देश किसी जंग में न रहा हो। हाँ, बचपन में काफ़ी लम्बा वक़्त उसे याद है जो अमन-चैन का दौर था क्योंकि उसकी शुरुआती स्मृतियों में एक हवाई हमले की छवि मौजूद है जिसने सभी को चौंका दिया था। तब शायद कॉलचेस्टर में एक बम गिरा था। उसे हमले का तो कुछ ख़ास याद नहीं, लेकिन इतना याद है कि उसके पिता उसका हाथ पकड़कर किसी बहुत गहरी जगह पर खींचे ले जा रहे थे। वे बहुत तेज़ी से गोल-गोल सपीली सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे और सीढ़ियों से उतरने की आवाज़ हो रही थी और उसका पैर चलते-चलते इतना भर गया कि उन्हें बीच में ही रुककर सुस्ताना पड़ा था। उसकी माँ भी धीरे-धीरे उनके पीछे-पीछे आ रही थी। उसकी गोद में बहन थी या फिर कंबलों की गठरी, पता नहीं। वह पक्के तौर से नहीं कह सकता कि बहन तब तक पैदा हुई थी या नहीं। आखिरकार वे एक भीड़-भाड़ वाले बजबजाते इलाके में निकले। यह एक भूमिगत रेलवे स्टेशन था।

स्टेशन की फ़र्श चौकोर आकार के पत्थर के पटिये की बनी थी जिस पर चारों ओर लोग बैठे हुए थे। कुछ लोग आपस में सटकर एक के ऊपर एक बनी धातु की छड़ों पर बैठे हुए थे। विंस्टन के माता-पिता को फ़र्श पर बैठने की जगह मिल गई। उनके करीब एक बुजुर्ग और उनकी पत्नी एक छड़ पर अगल-बग़ल बैठे हुए थे। बुजुर्ग ने सुघड़ गहरा सूट पहना हुआ था और काली टोपी लगा रखी थी जिसके नीचे उनके पके हुए सफ़ेद बाल पीछे से दिख रहे थे। उनका चेहरा सुर्ख लाल था, आँखें नीली थीं और उनमें आँसू डबडबा रहे थे। उनसे जिनकी महक आ रही थी। ऐसा लगता था कि उनकी देह से पीसने की जगह जिन ही निकल रही है। कोई मौज लेते हुए यह भी कह सकता था कि उनकी आँखों में आँसू नहीं शुद्ध जिन भरी हुई है। वह हल्का पिये हुए थे, लेकिन किसी बात का असहनीय दुख ज़रूर उन्हें खाये जा रहा था। विंस्टन ने अपने सहज बाल बोध में यह अन्दाज़ा लगा लिया था कि इस बुजुर्ग के साथ कुछ ऐसा भीषण घटा है जिसे माफ़ नहीं किया जा सकता और जिसका कोई इलाज भी नहीं है। फिर विंस्टन को लगा कि उसे उनके दुख का कारण पता चल गया है। इस शख़्स के किसी प्रियजन, शायद इनकी पोती की हत्या हो गई है। रह-रह कर वे एक ही बात दुहरा रहे थे:

हमें उन पर भरोसा नहीं करना चाहिए था। मैंने चेताया था, क्यों माँ, गलत कह रहा हँ? भरोसा जताने पर यही होता है। मैं लगातार कह रहा था। उन बदमाशों पर हमें भरोसा करना ही नहीं चाहिए था। अब विंस्टन को यह याद नहीं कि वे किन बदमाशों की बात कर रहे थे जिन पर भरोसा नहीं करना चाहिए था।

दरअसल जंग उसी समय से लगातार जारी है लगातार माने वाक़ई बिना रुके हुए हालाँकि कायदे से देखें तो यह जंग वही नहीं है जो पहले थी। उसके बचपन में कई महीने तक लंदन में ही सड़क पर मारकाट होती रही थी, जिसकी कुछ छवियाँ तो उसे बिलकुल साफ़-साफ़ याद हैं। उस पूरे दौर के इतिहास को खंगालना यानी किसी ख़ास समय में कौन किसके ख़िलाफ़ जंग लड़ रहा था इसका पता लगाना तकरीबन नामुमकिन था क्योंकि न तो इसका कोई लिखित रिकॉर्ड था और न ही इसके बारे में कोई सार्वजनिक बात होती थी। जो स्थिति अभी थी, उससे अलग कुछ भी नहीं बताया गया था। फ़िलहाल 1984 में (अगर यह वाक़ई 1984 है, तब) ओशियनिया की जंग यूरेशिया से जारी है जिसमें ईस्टेशिया उसके साथ है। कभी भी किसी सार्वजनिक या निजी संवाद में यह नहीं माना गया कि तीनों शक्तियों के बीच कोई मतभेद रहा हो। जहाँ तक विंस्टन को याद है, केवल चार वर्ष पहले तक ओशियनिया की जंग ईस्टेशिया के साथ चल रही थी जिसमें यूरेशिया उसके साथ था। यह ज्ञान हालाँकि गोपनीय था क्योंकि उसकी स्मृति अभी पूरी तरह से नियंत्रित नहीं की जा सकी थी। वैसे, आधिकारिक रूप से देखें तो दुश्मन बदल चुका है इसकी बात कभी कहीं हुई ही नहीं। सरकारी संस्करण तो यही है कि जंग चूँकि ओशियनिया और यूरेशिया के बीच चल रही है इसलिए यही जंग हमेशा से चली आ रही है। मोटा सिद्धान्त यह है कि आज की तारीख़ में जो कोई भी ओशियनिया का दुश्मन निकले, शाश्वत दुश्मन उसे ही माना जाएगा इसलिए भविष्य में या अतीत में भी उसके साथ किसी तरह का कोई समझौता मुमकिन नहीं है।

कमर पर हाथ रखकर दर्द सहते हुए अपने कन्धे पीछे ले जाते हुए उसने कम से कम दस हज़ारवीं बार इस बात को महसूस किया कि ये सारी बातें एक साथ सच हो सकती हैं (माना जाता था कि कमर पर हाथ रखकर उसके अक्ष पर शरीर को गोल घुमाने की वर्जिश पीछे की मांसपेशियों के लिए बहुत फ़ायदेमन्द होती है)। ऐसा सोचना बहुत आतंकित करने वाला था। मतलब पार्टी अगर वाक़ई अतीत में घुसकर किसी घटना पर उँगली रखकर कह दे आपसे कि यह घटना तो कभी हुई ही नहीं थी, तो किसी भी तरह की प्रताड़ना या मौत से यह कहीं ज्यादा डराने वाली बात होनी चाहिए।

पार्टी का कहना था कि ओशियनिया कभी भी यूरेशिया के साथ गठजोड़ में नहीं रहा। विंस्टन स्मिथ जानता था कि बस चार साल पहले ही ओशियनिया का यूरेशिया के साथ गठजोड़ हुआ करता था लेकिन उसका यह ज्ञान वजूद में कहाँ था? केवल उसकी खोपड़ी में बसी चेतना के भीतर, जिसे वैसे भी जल्द ही ख़त्म कर दिया जाना था। और अगर बाक़ी सारे लोग पार्टी के बताए इस झूठ को स्वीकार कर लेते यदि सारे रिकॉर्ड भी यही कहानी कहते-तब यही झूठ इतिहास का हिस्सा होकर सच बन जाता। पार्टी का नारा था : 'जिसका अतीत पर नियंत्रण है वही भविष्य को भी नियंत्रित कर सकता है; जिसका वर्तमान पर नियंत्रण है वही अतीत को भी नियंत्रित कर सकता है। बावजूद इसके कि अतीत चाहे कितनी भी तब्दीली की गुंजाइश रखता हो, उसे कभी वास्तव में बदला नहीं गया था। बस इतनी सी बात थी कि आज और अभी जो सच है, वही हमेशा से सच रहते आया है और आगे भी हमेशा सच रहेगा। इसके लिए बस इतना करना था कि आप अपनी स्मृति पर लगातार विजय हासिल करते रहें यानी अपनी स्मृतियों को एक के बाद एक नियंत्रित करते जाएँ। इसे वे 'रियलिटी कंट्रोल' या वास्तविकता पर नियंत्रण कहते थे। न्यूस्पीक में इसके लिए एक शब्द था 'डबलथिंक'।

"विश्राम!" थोड़ा शालीन लहजे में महिला चीख़ी।

विंस्टन ने अपने दोनों हाथ ढीले छोड़ दिए और फेफड़ों में धीरे-धीरे हवा भरी। उसका मन अब डबलर्थिक की जटिल दुनिया में डूब गया, जहाँ एक साथ दो विरोधी बातें माननी होती थीं। मसलन, जानना और नहीं जानना; वास्तविकता का पूरा भान होने के बावजूद सतर्कतापूर्वक गढ़े गए झूठ बोलना; एक साथ दो विरोधी विचारों को पोसना जिसका मतलब कल मिलाकर सिफर हो; यह जानते हुए कि दोनों ही विचार विरोधाभासी हैं दोनों में यक़ीन करना; तर्क के ख़िलाफ़ तर्क का इस्तेमाल करना; नैतिकता की दुहाई देते हुए नैतिकता को तिलांजलि देना; यह मानना कि लोकतंत्र असम्भव चीज़ है लेकिन पार्टी लोकतंत्र की रहनुमा है; जो भुला देना ज़रूरी हो उसे भूल जाना फिर ज़रूरत पड़ने पर उसे तत्काल याद कर लेना और फिर से भूल जाना : और इन सबसे ऊपर, इसी प्रक्रिया को समूची प्रक्रिया पर लागू करना। यही इस प्रक्रिया की महीन जटिलता थी : सचेत रूप से अचेतन को प्रवृत्त करना और एक बार फिर अपने किए इस नक़ली उपाय के प्रति अचेत हो जाना। दरअसल, 'डबलर्थिक' को समझने के लिए इसमें घुसकर इसे लागू करना होता है।

परदे पर निर्देश दे रही महिला ने एक बार फिर सावधान किया, “अब आइए देखते हैं कि हममें से कौन-कौन अपने पैर के पंजे छु सकता है।" और उसने बड़े उत्साह में कहा, "नितंबों को ऊपर उठाते हुए नीचे झुकिए! कॉमरेड प्लीज़...एक दो! एक दो!..."

विंस्टन को यह व्यायाम पसन्द नहीं था। इससे जो दर्द उसकी एड़ी में उठता था वह ऊपर कमर तक पहुँच जाता था और अकसर उसे इसके अन्त में खाँसी का दौरा पड़ जाता था। इसके अलावा इस दौरान उसे सोचने से जो हल्का सा सुख मिलता वह भी चला जाता था। यही इस बार भी हुआ था। उसके दिमाग में यह बात चल रही थी कि कैसे अतीत को न केवल बदल दिया गया था बल्कि पूरी तरह नष्ट कर दिया गया था। सोचिए, कि यदि बेहद ज़ाहिर सी किसी बात का भी कोई रिकॉर्ड आपकी स्मृति के बाहर मौजूद ही नहीं हो तो आप उस तथ्य को स्थापित कैसे कर सकेंगे। उसने याद करने की कोशिश की कि पहली बार उसने मोटा भाई के बारे में कब सुना था। शायद साठ के दशक में, लेकिन पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। पार्टी का इतिहास तो कहता है कि उसके आरम्भिक दिनों से ही मोटा भाई क्रान्ति का संरक्षक और सर्वमान्य नेता था। उसकी वीरगाथाओं का सिरा पीछे धकेलते-धकेलते चालीस और तीस के उन भव्य दशकों तक पहुँचा दिया गया था जब पूँजीवादी लोग अपनी अजूबी बेलनदार टोप पहने लंदन की सड़कों पर दमकती मोटरकारों या काँच की दीवार वाली बग्घियों में चला करते थे। यह जानने का कोई तरीक़ा नहीं था कि यह बात कितनी सच थी और कितनी गढ़ी हुई। विंस्टन को तो यह भी याद नहीं था कि पार्टी कब बनी थी। उसे पूरा भरोसा था कि सन् 1960 से पहले उसने INGSOC शब्द भी नहीं सुना था। हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि पुरानी भाषा 'ओल्डस्पीक' में जिसे 'इंग्लिश सोशलिज्म' कहते थे यह चलन में रहा हो। हर चीज़ दरअसल कहरे में घिरी हुई जान पड़ती थी। कभी किसी चीज़ पर आप भरोसे से उँगली रख भी दें तो वह पक्के तौर पर झूठ ही निकलती थी। मसलन, पार्टी की इतिहास की किताबों में यह दावा था कि एरोप्लेन का आविष्कार पार्टी ने किया था। यह बात सच नहीं थी। उसे अपने बचपन से हवाई जहाज़ की स्मृतियाँ थीं लेकिन आप ऐसा कुछ भी साबित नहीं कर सकते थे। कोई सबूत ही नहीं था। केवल एक बार ज़िन्दगी में ऐसा हुआ था कि उसे किसी ऐतिहासिक तथ्य को झुठलाए जाने का एक सटीक कागज़ी सबूत हाथ लगा था और ऐन उसी वक़्त ...

"स्मिथ!" परदे से कर्कश आवाज़ चीख़ी, “6079 स्मिथ वी! हाँ, आप ही! और नीचे झुकिए, प्लीज़! आप बेहतर कर सकते हैं। आप कोशिश नहीं कर रहे। और नीचे, हाँ! ये बेहतर है, कॉमरेड। अब विश्राम की मुद्रा में सीधे खड़े हो जाएँ सारे, और मुझे देखें।"

विंस्टन के शरीर से अचानक गरम पसीना निकलने लगा। उसके चेहरे से अब भी उसके मनोभाव का पता नहीं लगाया जा सकता था। बेचैनी बिलकुल नहीं दिखनी चाहिए। कभी असन्तोष का भाव चेहरे पर नहीं आने देना चाहिए। ज़रा सा पलक झपकी नहीं कि खेल ख़त्म। विंस्टन उसे देख रहा था। निर्देशिका ने अपने दोनों हाथ सिर के ऊपर उठाए इसे शिष्ट तरीके से किया गया कहना तो सम्भव नहीं लेकिन काफ़ी सफ़ाई के साथ उसने ऐसा किया था फिर नीचे की ओर आगे झुकते हुए अपने हाथों की उँगलियों के पोरों को उसने पंजों के नीचे दबा लिया।

“ऐसे करना है कॉमरेड आपको भी! एक बार फिर मुझे देखिएगा। मैं उनतालीस साल की हूँ और चार बच्चों की माँ हूँ। अब देखिए, कैसे करना है।" वह फिर से नीचे झुकी। “देखा आपने, मेरे घुटने नहीं मुड़े। आप चाहेंगे तो बिलकुल ऐसा कर लेंगे," ऐसा कहते हुए वह सीधी हो गई। विंस्टन ने एक झटके में शरीर को मोड़ा और घुटने बिना मोड़े ही अपने पंजे को छू लिया। महिला ने प्रोत्साहन के स्वर में कहा, “पैंतालीस साल से कम का कोई भी आदमी अपने पंजे छू सकता है। लड़ाई के मोर्चे पर जाने का हमारा सौभाग्य नहीं है तो क्या हुआ, हम खुद को फिट तो रख ही सकते हैं। मालाबार के मोर्चे पर हमारे साथियों को याद करिए! और जलमहल में हमारे नाविकों को! सोचिए कि उन्हें किन चीज़ों से गुज़रना पड़ता होगा। और एक बार फिर से कोशिश कीजिए। ये बेहतर है कॉमरेड, पहले से कहीं बेहतर!" इतने बरसों में विंस्टन ऐसा पहली बार कर पाया था।

  • 1984 (उपन्यास) : जॉर्ज ऑर्वेल-पहला भाग-अध्याय 4-6
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