ज़ोहरा (कहानी) : मोहसिन ख़ान
Zohra (Story in Hindi) : Mohsin Khan
ज़ोहरा ने बुर्क़े की नक़ाब ज़रा ऊपर सरकाई तो वो चीज़ें जो उसे धुँधली-धुँधली बे-आब सी नज़र आ रही थीं, अपने वास्तविक आकारों और रंगों के साथ साफ़ नज़र आने लगीं। बड़े-बड़े से बा-रौनक पार्क ऊँची, और शानदार इमारतें जिनकी बुलन्दी पर निगाहें डालने के लिए उसे पीछे की तरफ़ झुकना पड़ता। चमकती हुई गाड़ियाँ, जिन्हें औरतें और लड़कियाँ भी चला रही थीं। एक लड़की तेज़ स्पीड से स्कूटर चलाती हुई ज़ोहरा के रिक्शे के क़रीब से इस तरह गुज़र गयी, जैसे कोई चिड़िया परों को फैलाती और समेटती हुई फ़िज़ा में गुम हो गयी हो। लड़की के ख़ूबसूरती से तराशे गये बाल कन्धों पर उस लौ की तरह फड़फड़ा रहे थे जो तेज़ हवा में चिराग़ से उड़ जाने के लिए बैचेन-सी हो जाती है। उसका दुपट्टा उसकी पुश्त पर किसी परचम की तरह लहरा रहा था। ज़ोहरा को मामू की बात याद आ गयी। वह अक्सर कहा करते, "अब पहले वाला ज़माना नहीं रहा कि लड़कियाँ चहारदीवारी में क़ैद होकर बैठ जायें, अब लड़कियाँ ज़िन्दगी की दौड़ में मर्दों के कन्धे से कन्धा मिलाकर काम कर रही हैं।"
ज़ोहरा की नज़रों के सामने ऐसी अनोखी चीज़ें भी आयीं, जो उसने पहले नहीं देखीं थी - एक स्वप्न-सा था, जिसकी निरन्तरता टूट ही नहीं रही थी। वह तो एक-एक चीज़ को ठहर-ठहर के ग़ौर से देखना चाहती थी मगर यह उसके इख़्तियार में कहाँ था।
जब रिक्शा सँकरे रास्ते से निकलकर चौड़ी सड़क पर आया तो उसने देखा - एक पार्क में ख़ूब बड़ा-सा पंखा लगा हुआ है, जिसके लम्बे-लम्बे पर आहिस्ता-आहिस्ता चक्कर काट रहे हैं। उसने नक़ाब से दोनों आँखें बाहर की ओर सुखद आश्चर्य से उस जहाज़ी पंखे को देखने लगी। फिर जमील की तरफ़ सवालिया नज़रों से देखकर ख़ुशी के उत्साह में दबे स्वर से चीख़ी।
"हाय भाई जान, इतना बड़ा पंखा!"
जमील ने ज़रा बदलकर तिरछी निगाह से उसकी तरफ़ देखा तो वह समझ गयी कि भाई जान को मेरा इस तरह चहकना अच्छा नहीं लगा। उसने नक़ाब चेहरे पर बराबर की और सहमकर बैठ गयी।
"बेवक़ूफ़..." थोड़े अन्तराल के बाद जमील ने कहा। "तुमको बोलना कब आयेगा?"
उसे जमील की डाँट पर नागवारी का अहसास ज़रूर हुआ, मगर इतना भी नहीं, जैसी कि उसकी आदत है, पुरानी तोशक के धागों की तरह एक से दूसरी और दूसरी से तीसरी बात निकालती चली जाती और तनाव से इतना भर जाती कि चादर ओढ़कर लेटने को जी चाहने लगता। वह जानती थी कि "बेवक़ूफ़" जमील का तक़ियाकलाम है। ग़ुस्से की तो बात ही और थी वह तो अक्सर छोटी-छोटी-सी बातों पर टोकते वक़्त कह दिया करते "बेवक़ूफ़।" मगर उनकी अदायगी के अन्दाज़ से उसका अर्थ बदल जाया करता था। कभी-कभी वह इस अलंकरण को किसी तीखे वाक्य में टाँक दिया करते, "तुझे कुछ नहीं आयेगा" या "तू कुछ नहीं समझेगी।" वह इस तीखे संवाद और गहरे तक आहत करने वाली भविष्यवाणी पर मुस्कुरा देती लेकिन जब थकान में डूबी होती तो ज़रा-सी कडुवाहट भी उसे देर तक बदमज़ा किये रखती।
"मैं हमेशा बेवक़ूफ़ और नासमझ रहूँगी।" उसने सोचा, "एक जवान लड़की को अपने जवान भाई से इस तरह चहककर बात नहीं करनी चाहिए और फिर यह भी कोई बात हुई। यहाँ तो न जाने कितनी चीज़ें ऐसी होंगी जिनके बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम, भाई जान मुझे इन सब चीज़ों के बारे में कहाँ तक बतायें। ये सब तो मुझे ख़ुद ही सोचना चाहिए, कि क्या बातें पूछने वाली है और क्या नहीं। भाई जान मुझे कितना डाँटते रहते हैं, इसके बावजूद मैं ऐसी हरकत क्यों कर बैठती हूँ।" बस में भी वह एक नादानी कर बैठी थी।
जिस वक़्त वह खिड़की के पास बैठी बाहर के दृश्य देख रही थी बेख़याली में नक़ाब चेहरे पर से उड़कर पीछे की तरफ़ हो गयी। जमील ने शायद उसका खुला हुआ चेहरा देख लिया था। उसकी तरफ़ झुककर सख़्त लहज़े में उन्होंने कहा था।
"खिड़की के पास बैठने का बहुत शौक़ है?"
वह जमील का इशारा समझ गयी थी, इसलिए उसने जल्दी से चेहरा ढाँपकर नक़ाब का सिरा मज़बूती से थाम लिया था। लेकिन चेहरा छिपा लेने के बावजूद उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे वह तमाम मुसाफ़िरों के सामने बेपर्दा हो गयी हो। एक तो बस में वह अकेली बुरके वाली थी, जिसकी वजह से सब लोग कनखियों से उसकी तरफ़ देख रहे थे। दूसरे यह ख़याल कि "अगर भाई जान की बात किसी ने सुन ली होगी तो वह क्या सोचेगा। यही न, कि भाईजान मुझे इसी तरह डाँटते-डपटते रहते होंगे और यह कि बुर्का मैं डर के मारे ओढ़ती हूँ... मुझे इस खुली हुई खिड़की के सामने बैठना ही नहीं चाहिए था।"
खिड़की में शीशा भी नहीं था, जिसे खींच कर वह हवा को अन्दर आने से रोक देती। जमील की इस घुड़की के बाद वह देर तक दुख और शर्मिंदगी के अहसास में डूबी रही। लेकिन फिर हमेशा की तरह यह क़ैफ़ियत उसके भीतर कहीं ग़ायब हो गयी।
"इसे विण्ड टरबाइन कहते हैं..." जमील ने कहा।
"...इससे बिजली बनती है।"
उसने कनखियों से जमील को देखा, "भाई जान ने अब, इतनी देर के बाद जवाब दिया। अगर वह पहले ही बता देते तो क्या हो जाता। भला पंखे से बिजली कैसे बनती होगी। पहले तो बिजली से पंखा चलता था और अब पंखे से बिजली बनेगी - अल्लाह मियाँ ने भी क्या-क्या चीज़ें बनायी हैं। उसका कारख़ाना बहुत बड़ा है।"
उसे अब्बा की बात याद आ गयी।
एक शानदार इमारत के माथे पर बड़ी-सी रंगीन तस्वीर झूमर की तरह टँगी हुई थी। तस्वीर के नीचे अंग्रेज़ी में कुछ लिखा हुआ था, "शायद यह सिनेमा हॉल है।"
ज़ोहरा ने सोचा। इमारत के बाहर एक तरफ़ मर्द लाइनों में खड़े थे। दूसरी तरफ़ औरतें - जब रिक्शा इस इमारत के क़रीब से गुज़रा तो उसने उस बड़ी-सी रंगीन तस्वीर को ध्यान से देखने की कोशिश की। तसवीर स्पष्ट भी न हो सकी थी कि उसने मुँह फेर लिया। स्याह नक़ाब के पीछे उसका चेहरा सुर्ख़ हो गया। इससे पहले उसने सिर्फ़ एकबार ऐसी तस्वीर देखी थी। वह जमील का बिस्तर तह कर रही थी, जैसे ही उसने तक़िया उठाया, एक तस्वीर ज़मीन पर गिर गयी। तस्वीर देखकर उसका दिल कितनी ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा था। उसने काँपते हाथों से तस्वीर तक़िये के नीचे रख दी थी और उलटा-सीधा बिस्तर तहा कर उलटे पाँव कमरे से निकल भागी थी। इस घटना के बाद वह कई दिनों तक जमील से आँखें चुराती रही। जैसे वह तस्वीर जमील के नहीं बल्कि ख़ुद उसके तक़िये से बरामद हुई हो।
"यह इतना बड़ा-सा फ़ोटो चौराहे पर किसलिए लगाया गया होगा।" उसने सोचा।
"जब चौराहे पर ऐसा फ़ोटो लगा हुआ है तो सिनेमा हॉल के अन्दर जो फ़िल्म दिखायी जाती होगी, वह कैसी होती होगी। कौन देखता होगा, यह सब। उसने चोर आँखों से जमील की तरफ़ देखने की कोशिश की। जमील उस वक़्त किसी और तरफ़ देख रहे थे। अगर रिक्शा इतनी तेज़ी से आगे न बढ़ जाता तब भी वह इस फ़ोटो को न देखती। भला मैं क्यों देखने लगी, ऐसी बेहूदा फोटुओं को।"
जब अज़रा दूसरी बार ससुराल से लौटी थी तो उसने ज़ोहरा से बताया था कि एक ऐसी भी फ़िल्म होती है, जिसमें कुछ नहीं छिपाया जाता, सबकुछ दिखला दिया जाता है।
"क्या तुमने वह फ़िल्म देखी है।" ज़ोहरा ने अज़रा से पूछा था।
"हाँ - क्यों नहीं, कई बार देखी है।"
अज़रा ने इतनी आसानी से बता दिया था, जैसे कोई बात ही न हो, जैसे कह रही हो। "हाँ मैं आइना देखती हूँ।"
फिर अज़रा फ़िल्म के बारे में सबकुछ खोलकर बताने लगी, मगर ज़ोहरा ताब न ला सकी। अज़रा से हाथ छुड़ाकर मुँह छिपाती और लपकती-झपकती कमरे में चली गयी। उस क्षण उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था और शरीर का एक-एक अंग जैसे उसे लज्जा में गहरे डुबो देने के लिए बैचेन हो गया था।
ज़ोहरा को अज़रा की बात पूरी सच नहीं मालूम होती। वह सोचती - अज़रा अपनी बातों को लच्छेदार बनाने के लिए ऐसी बातें भी कह जाती है जो शायद किसी के गुमान में भी न हो। ज़ोहरा का जहन इन बातों को क़ुबूल तो न करता पर उसके अचेतन में एक अचीन्ही-सी कसक बाक़ी रह जाती जो धीरे-धीरे अकुलाहट या इच्छा का आकार ले लेती।
कलेजे में उबाल-सा उठा। उसने नक़ाब मुँह में ठूँसकर साँस रोक लिया। जमील के पास बैठकर और इतनी भीड़ से गुज़रते हुए खाँसना उसे अच्छा नहीं लगा। मगर वह साँस कब तक रोके रहती, यह उसके बस में कहाँ था। खाँसी आ ही गयी। गले से कलेजे तक ज़हर फैल गया। सुबह फजिर की नमाज़ के लिए जब उसने ठण्डे पानी से वजू किया था तो खाँसी का एक लम्बा दौरा पड़ा था। फिर देर तक खाँसने के बाद उसने थूका तो चिड़िया की कलेजी जैसी कोई लाल गाढ़ी चीज़ ज़मीन से चिमट गयी थी। उसने पूरे थूक को ही मिट्टी के नीचे दबा दिया था और बिस्तर पर पड़कर देर तक हाँफती रही थी। अम्माँ ने सलाम फेरकर उसे आवाज़ दी तो वह जल्दी से उठ गयी थी ताकि अम्माँ उसकी क़ैफ़ियत भाँप न लें।
"अम्माँ ने कितनी जल्दी रवाना कर दिया था, सुबह-सुबह चली जाओ वरना चहल-पहल शुरू हो जायेगी और जो भी मिलेगा वह यही पूछेगा - बहन को कहाँ लिए जा रहे हो। जैसे बहन न हुई, चिकवे की बकरी हो गयी।"
बाद में वह किसी चीज़ को ग़ौर से देख ही न सकी, खाँसी के दौरान उसने जिन चीज़ों की झलकियाँ देखीं, वो धुँधली और थरथराती हुई मालूम हुईं।
"ख़ैर अगर वापसी पर अँधेरा न हो गया तो इन्हें दुबारा देख लेंगे।" उसने सोचा।
रिक्शा एक मोड़ पर रुक गया। यह एक साफ़-सुथरा इलाक़ा था। यहाँ ख़ामोशी थी, मगर गाँव की-सी ख़ामोशी नहीं। बल्कि एक शालीन मौन। खुला-खुला-सा बँगला, पोर्टिको में खड़ी हुई क़ीमती गाड़ियाँ, सुर्ख़ लिबास पहने हुए गुलमोहर के दरख़्त - जैसे ये सबकुछ इसी ख़ामोशी की व्यवस्था के लिए था। ज़रा दूर पर एक ऊँची इमारत थी, बहुत ऊँची इमारत। उसने सिर उठाकर उस बुलन्द व बाला इमारत को उसके समूचेपन को देखने की कोशिश की। "उफ़, इतनी ऊँची।" उसने सुखद आश्चर्य से सोचा, "इसकी आखि़री मंज़िल पर जाकर कितनी दूर तलक देखा जा सकता होगा।" मगर, वह विस्मित हुई, "इस पर लोग किस तरह चढ़ते होंगे, क्या उन्हें डर भी नहीं लगता होगा। बारिशें होती हैं, नहीं।" फिर कुछ क्षणों के बाद उसने सोचा, "कब तक खड़ी रहेगी, एक न एक दिन तो गिर ही जायेगी।"
जमील ने रिक्शेवाले को पैसे दिये, फिर एक क्षण उसे देखा और कहा,
"अब उतरोगी या रिक्शे पर बैठी ही रहोगी"। वह धम से कूद पड़ी। बुर्का पैरों में उलझ गया। रिक्शे का हुड न पकड़ लेती तो मुँह के बल गिर जाती। जमील तिरछी निगाह से उसको देखते हुए उस इमारत में दाखि़ल हो गये, जो किसी बड़े डॉक्टर की क्लीनिक थी, बरामदे की सीढ़ियों पर एहतियात के साथ क़दम रखती हुई, वह भी क्लीनिक में दाखि़ल हुई।
"यहाँ बैठ जाओ।" जमील ने एक ख़ाली कुर्सी की तरफ़ इशारा किया। वह कहना मानने वाले बच्चों की तरह जल्दी से बैठ गयी ताकि रिक्शे पर जो ग़लती हो गयी थी, उसकी पूख्रत हो जाये। जमील ने अन्दर जाकर कम्पाउण्डर से कोई बात की फिर उससे यह कहकर बाहर चले गये कि अभी आता हूँ। उसने लम्बी साँस ली और कुर्सी की टेक लगा ली।
क्लीनिक में ज़्यादातर औरतें, लड़कियाँ और बच्चे बैठे थे। उनमें से कुछ के सिमटे हुए शरीर, मुर्झाये चेहरे और स्याह गढ्ढों से झाँकती हुई बेचमक आँखें उनकी बीमारी का संकेत कर रही थीं। लेकिन कुछ की बीमारी प्रकट नहीं हो रही थी। एक तन्दुरुस्त औरत जो शायद किसी मरीज़ को लेकर आयी थी, मुँह पर रूमाल रखे इस तरह बैठी हुई थी जैसे ज़रा-सी असावधानी से बीमारी उसके मुँह में दाखि़ल हो जायेगी। किनारे की कुख्रसयों पर बैठे दो मर्द अख़बार पढ़ रहे थे। दो-तीन बरामदे में टहल रहे थे।
"औरतें एक जगह चैन से बैठी रह सकती हैं, मगर मर्द नहीं बैठे रह पाते - कितनी गर्मी है।" उसने सोचा। माथे और कनपटियों पर पसीना जमा होकर चींटियों की तरह रेंगता हुआ गरदन की तरफ़ आता और गरदन में लिपटे हुए दुपट्टे में जज़्ब हो जाता। उसने नक़ाब से पसीना पोछा, तो उसका जी बुरा हो गया।
"नक़ाब में कैसी बू आ रही है। बुर्का बहुत दिनों से धुला भी नहीं। आखि़र कोई कहाँ तक धोये, क्या-क्या करे। वैसे ही रोज़ इतना काम होता है, मैं थककर चूर हो जाती हूँ। अम्माँ बेचारी मेरा कितना हाथ बटाती हैं, जब से मेरी बीमारी ज़ाहिर हुई है, कोई ऐसा काम नहीं करने देतीं, जिससे तकलीफ़ बढ़ जाये। वज़न तो उठाने ही नहीं देतीं। मैंने सिल उठायी नहीं कि वह आँखें फाड़ के चीख़ी - आखि़र तुम चाहती क्या हो, ऐसा रोग और इतनी बड़ी सिल - जाड़ों भर अम्माँ ने मुझे बरतन नहीं धोने दिये। इसीलिए तो हाथों की जिल्द पहले से कुछ अच्छी हो गयी है। मगर उनकी सख़्ती और पीलापन दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है।" उसने हाथ नक़ाब के अन्दर करके ग़ौर किया - छिपकली के पेट की सी पीली-पीली उँगलियाँ उसे अच्छी नहीं लगीं।
"जब अज़रा की शादी हुई थी और उसके हाथों में मेंहदी लगी थी तो उसके गदराये हुए हाथों की उँगलियाँ कितनी अच्छी लग रही थीं। जो भी लड़की आती उसके हाथ अवश्य देखती। अब उसने नाख़ून बढ़ा लिये हैं और तरह-तरह की नेल पालिश लगाये रहती है। मैं नाख़ून बढ़ा लूँ तो मेरे घर में कोई मेरे हाथ का पानी भी न पिये। नाख़ून तो ख़ैर बढ़ाना भी नहीं चाहिए। खाया-पिया सब हराम। अज़रा तो आटा तक गूँधती है और सबलोग उसकी पकाई हुई रोटी खाते हैं। उसकी तो ख़ैर बात ही दूसरी है। वह तो पता नहीं क्या-क्या करती है। शादी से पहले भी तो वह कितनी आज़ादी से रहती थी। जो मन चाहता पहनती, ओढ़ती, जिसके घर जाना चाहती, चली जाती। उन बातों पर हँसती रहती, जिन पर नहीं हँसना चाहिए। मगर उसके घर में उसे कोई कुछ नहीं कहता। आदिल से उसकी कितनी लड़ाइयाँ होती थीं। मगर वह हार नहीं मानती थी। अपनी बात मनवाकर ही छोड़ती। शादी के बाद थोड़ा-सा बदल गयी है मगर अब भी घर आती है तो कोई न कोई हंगामा खड़ा कर देती है।"
और एक उसका घर है कि जैसे घर न हुआ मदरसा हो गया। ज़रा-सी ग़लती हुई नहीं कि डाँट पड़ी। किसी तरफ़ से अम्माँ की आवाज़ आती।
"ज़ोहरा दुपट्टा ठीक करो।"
कभी अब्बा प्यार भरे लहज़े में कहते।
"बेटी इतनी ज़ोर-ज़ोर से न बोला करो, आवाज़ का पर्दा भी ज़रूरी है।"
कभी जमील झुँझलाते।
"बेवक़ूफ़ - तुझे समझ कब आयेगी।"
नाराज़गी किसी से हो ग़ुस्सा उस पर उतर रहा है। ज़ोहरा क्या बीमार बिल्ली थी कि जिसके पास से गुज़री वह दूर-दूर, फिट-फिट करने लगा। अब्बा तो ख़ैर अपनी व्यस्तताओं और ज़िम्मेदारियों में अक्सर उसे भूल जाते मगर जमील तो जैसे उसकी निगरानी के लिए ही पैदा हुए थे।
"यहाँ क्यों खड़ी हो - इतनी तेज़-तेज़ क्यों चलती हो - दरवाज़े पर क़दम न रख देना - बेवक़ूफ़।"
जबसे जमील को नौकरी मिल गयी थी, वह सुबह शहर चले जाते और रात गये लौटते। इस दरम्यान उसे एक इत्मीनान का सा अहसास रहता।
मगर कुछ दिनों बाद अदील पर-पुर्जे निकालने लगा। वही जमील की सी खासियतें उसमें पैदा होती जा रही थीं। हालाँकि अदील ज़ोहरा से दो बरस छोटा था। लेकिन वह उस पर हावी रहता। अदील की बेजा बातों पर वह अक्सर उससे उलझ बैठती मगर जीत न पाती। अब्बा तो ख़ैर उसकी हिमायत करते मगर अम्माँ अदील की हाँ में हाँ मिलाती।
"ठीक ही तो कहता है, लड़की जात को सख़्ती में नहीं रखा जायेगा तो छुट्टे साँड़-सी मारी फिरेगी। शकीला को देखो, ज़्यादा ढील का क्या नतीजा निकला। घर वाले आँखों पर पट्टियाँ बाँधकर बैठ सकते हैं, पर ससुराल वालों को क्या पड़ी थी कि वो ग़लत-सही सब बरदाश्त करते। और सच पूछो तो कोई जान-बूझकर मक्खी नहीं निगलता। अब मायके में एक बच्ची के साथ पड़ी सड़ रही है।"
"और सुरैया बाजी" वह सोचती - "सुरैया बाजी के माँ-बाप ने तो उन्हें बहुत सख्तियों में रखा। वह तो कभी बे बाजनूं नहीं नाचीं। ससुराल में सबकी ख़ूब खि़दमतें की। हूँ से हूँ नहीं की, फिर सुरैया बाजी मैके में पड़ी क्यों सड़ रही हैं, पहले सुरैया बाजी कितनी अच्छी लगती थीं, जैसे अल्लाह मियाँ ने उन्हें अपने हाथ से बनाया हो। जब हँसती थीं तो लगता था, जैसे उजाला हो गया हो। और अब हँसती हैं तो लगता है जैसे रो रही हों।"
"बेचारी सुरैया बाजी - और हाँ, उसे ख़याल आया - यहाँ मक्खियाँ तो दिखलायी नहीं दे रही हैं। अच्छा ही है, जो नहीं है। कमबख़्त होतीं तो बैठना दूभर कर देती। शहर में होती भी कम हैं, पता नहीं क्यों, यहाँ गन्दगी जो नहीं होती। मच्छर भी नहीं होते होंगे। या होते ही होंगे, यहाँ रहने वाले ही जानें। यह लेयो!"
उसे हँसी आ गयी। एक मक्खी फ़र्श पर बैठी हाथ मल रही थी। एक आदमी ज़रा-ज़रा देर के बाद अख़बार के पन्ने पलटता और कनखियों से उसकी तरफ़ देखने लगता। उसे बड़ी नफ़रत महसूस होती। "अब इसकी तरफ़ देखूँगी भी नहीं।" उसने सोचा।
"जब कोई मर्द इस तरह घूर के देखता है तो जी चाहता है, उसकी आँखें फोड़ दूँ। पता नहीं भाईजान कहाँ गये, यहाँ इतनी गर्मी में बैठकर करते भी क्या।" किसी पेड़ के नीचे खड़े सिगरेट पी रहे होंगे। अब वह सिगरेट बहुत पीने लगे हैं। बहुत दिन पहले जब भाईजान छिप-छिपकर सिगरेट पीते थे और मैं उनके कमरे में जाती थी, तो वहाँ अजीब-सी बिसान्द-सी आती रहती थी। फिर एक दिन उनका बिस्तर तहाते वक़्त उनके तक़िया के नीचे सिगरेट की डिबिया मिली थी। मैंने उसे सूँघा था तो कैसा जी मतलाने लगा था। उस दिन मैं समझ गयी थी कि उनके कमरे में बिसान्द-सी क्यों बसी रहती है। अज़रा मुझसे भाई जान के बारे में पूछा करती थी। कमरे में क्या करते हैं, सिगरेट पीते हैं या नहीं, उनकी बक्स में तुमको कभी किसी लड़की की फ़ोटो तो नहीं मिली। शुरू में उसे सबकुछ बता दिया करती थी, मगर बाद में जब अम्माँ ने सख़्ती से मना कर दिया कि घर की कोई बात अज़रा को मत बताया करो तबसे मैं उसके सवालों पर या तो चिढ़ जाती या ग़लत-सलत जवाब दे दिया करती। मगर अज़रा को पता नहीं कैसे वे सारी बातें जैसे अपनेआप मालूम हो जातीं, जो मुझे भी मालूम नहीं होती थीं। बहुत दिनों तक तो मैं यह अन्दाज़ ही नहीं कर सकी कि वह भाईजान के बारे में क्यों पूछा करती है। मगर धीरे-धीरे बातें समझ में आ गयी। फिर भाईजान भी बदलने लगे। पहले अज़रा घर आती तो उन्हें जैसे ख़बर ही नहीं होती थी। अपने काम में लगे रहते थे। मगर बाद में यह हुआ कि इधर अज़रा घर में आयी नहीं कि भाईजान को प्यास लगने लगी। वह अपने कमरे से निकलते, घड़ौची के पास जाकर कटोरे में पानी उड़ेलते। पानी कटोरे से छलककर ज़मीन पर ज़रूर गिरता और घड़े में ऐसी आवाज़ पैदा होती, जैसे टूट गया हो। अम्माँ बावर्चीख़ाने में जल-भुन रही होतीं। वहीं से चीख़तीं - "घर में एक कोरा घड़ा बचा है, उसे भी तोड़ डालो।" भाईजान को तो जैसे कुछ सुनायी ही नहीं देता। वह कटोरा लबों से लगाते और पलकां को ख़ूब ऊपर उठाकर अज़रा को देखते। उस वक़्त वह ज़रा-सा पानी पीते और छलकाते ज़्यादा। फिर बचा हुआ पानी छपाक से ज़मीन पर फेंककर कटोरे को घड़े पर औंधा कर ख़ूब गहरी साँस लेते। जैसे ज़्यादा पानी पी गये हां। फिर भाईजान कमरे में जाते वक़्त अज़रा को ख़ूब डूबकर देखते। अज़रा भी चोर निगाहों से उन्हें देखती। मैं अनजान बनकर इधर-उधर देखने लगती। फिर अम्माँ की आवाज़ आती - "कहाँ मर गयी ज़ोहरा।" मैं दौड़ती हुए अम्माँ के पास जाती। अम्माँ मुझे घूरकर देखती और कहतीं - "अब तुमको दुनिया जहान की कोई ख़बर है कि नहीं।" मैं जल्दी कोई काम करने लगती, फिर अम्माँ दबी ज़बान से पूछतीं - "अज़रा क्या पूछ रही थी?" "कुछ भी नहीं", मैं जवाब देती। "फिर वही कुछ भी नहीं"। वह दाँत पीसकर हलक़ से आवाज़ निकालतीं, "इतनी देर से मुँह से मुँह जोडे़ ख़ामोश बैठी थीं?" फिर हमेशा की तरह कहती, "ख़बरदार जो उससे कोई बात बताई, जलते चिमटे से ज़बान खींच लूँगी।"
अम्माँ भी ख़ूब हैं। भला मेरे घर में ऐसे कौन से ख़ज़ाने छिपे हुए हैं, जिनके बारे में मैं अज़रा से बता देती और ऐसे कौन से राज थे जिनके खुल जाने से तूफ़ान आ जाता हो। हाँ अब जो मेरे सीने में एक राज पल रहा है, वह तो किसी के बताये बग़ैर भी एक न एक दिन खुल ही जायेगा।
कुछ देर के बाद जमील वापस आ गये। उनके चेहरे पर परेशानी के आसार थे। जैसे वह किसी तकलीफ़ में मुब्तला हों। पीछे हाथ बाँधे वह कुछ देर तक टहलते रहे फिर ज़ोहरा से ज़रा एक फ़ासले पर बैठ गये। "भाईजान मेरे बराबर वाली कुर्सी पर भी तो बैठ सकते थे।" उसने सोचा।
"अज़रा की शादी के बाद भाई जान ज़्यादा बुझे-बुझे रहने लगे हैं।"
अब क्लीनिक में चन्द मरीज़ रह गये थे। ज़ोहरा को जिसकी शक्ल से नफ़रत-सी हो गयी थी, वह आदमी जा चुका था और वह औरत भी जा चुकी थी जिसकी जम्पर के दामन पर रेशम की कढ़ाई का ख़ूबसूरत डिज़ाइन बना हुआ था। ज़ोहरा ने उस डिज़ाइन को मुख़्तलिफ कोणों से देखा था, मगर फ़ासले की वजह से वह समझ नहीं सकी थी कि डिज़ाइन मशीन से बनाया गया था या हाथ से।
"ख़ैर", उसने सोचा "घर जा के वैसा ही डिज़ाइन बनाऊँगी ज़रूर।"
एक लम्बी जम्हाई से उसकी कनपटियाँ चिटख-सी गयीं और दर्द की लहरें जबड़े को चीरती-फाड़ती गुज़र गयीं।
"तौबा है, यहाँ बैठे-बैठे तो जैसे पूरी उम्र ही बीत जायेगी। कैसा जी घबड़ा रहा है। सुबह से कुछ खाया भी तो नहीं - एक प्याली चाय के साथ आधी चपाती खाकर चल पड़ी थी। यह भी नहीं कि भाईजान कोई चीज़ ले ही आयें और कहें कि तुमको भूख लग रही होगी। बाहर हवा चल रही थी। ऊँचे और घने पेड़ों की शाखाएँ इस तरह झूम रही थीं जैसे उन्हें ख़ूब ज़ोर की हँसी आ रही हो।"
"यह गुलमोहर के पेड़ हैं।" उसने सोचा। "कितने ढेर सारे फूल लगे हैं इनमें और एक पेड़ मेरे घर में लगा हुआ है। गुड़हल का पेड़ - कमबख़्त में फूल हैं न पत्तियाँ। लुण्ड मुण्ड। दिन रात सड़े हुए गुड़हल टपकते रहते हैं - कव्वे और मैनाएँ हगती रहती हैं।"
मोहल्ले के लड़कों को भी कहीं और ठिकाना नहीं मिलता। जब नज़र उठाओ दीवारों पर उबकते-फाँदते दिखलायी देते हैं। जब तेज़-तेज़ हवाएँ चलती हैं तब कच्चे गुलहड़ आ-आ के कैसे बदन से लगते हैं जैसे किसी ने चुटकी ले ली हो। अब्बा को जब गुड़हल लगता है वह बिलबिला जाते हैं और सिर ऊपर उठाकर कहते हैं जी भरके कर लो हरामीपन। बहुत जल्द तुम्हारा नामोनिशान मिटा दूँगा। अब्बा की इस बात पर सब कैसे मुँह छिपा-छिपाकर हँसते हैं।
उसने नक़ाब से पेशानी का पसीना पोंछा और चेहरे पर लटकती हुई बालों की लट ऊपर करते हुए सोचा "मेरे बाल कितने खुश्क और सख़्त हो गये हैं। सख्रदयों में तो अम्माँ नहाने नहीं देती थीं। अब गख्रमयाँ आ गयी हैं, रोज़ नहाया करूँगी। किस कद्र घुटन है।" उसका जी चाहा बुर्क़ा उतारकर किनारे रख दे और पंखे के नीचे फ़र्श पर बैठकर ख़ूब लम्बी-लम्बी साँस ले। इतनी लम्बी कि फेफड़े हवा से भर जायें। कभी-कभी इस बुर्क़े से बहुत उलझन होने लगती है। जैसे कोई सज़ा भुगत रही हूँ। जब अज़रा की शादी हो गयी तो उसने बुर्क़ा उतार के सात तहों में रख दिया और अब ऐसी दनदनाती फिरती है, जैसे कभी बुर्क़ा ओढ़ा ही न हो, इस गली से उस गली। उस गली से इस गली। कोई उसको टोकता भी नहीं। टोके तो अपनी बहू-बेटियां की नस्लें गिनवाये। कोई मुझसे कहे कि बुर्का उतार दो तो मैं कभी न उतारूँ। बदन के उभारों को सबके सामने उछालती फिरूँ - "तौबा है।" मुझे तो सोचकर ही शर्म आती है।
अब के कम्पाउण्डर ने नाम पुकारा तो ज़ोहरा के सामने बैठा हुआ एक नौजवान चौंककर कम्पाउण्डर की तरफ़ देखने लगा। दूसरा आदमी उठकर अन्दर चला गया। नौजवान कुर्सी की पुश्त पर सिर टेककर फिर ऊँघने लगा। अब वहाँ जमील और ज़ोहरा के अलावा टी.बी. का रोगी यही नौजवान बचे रह गये थे जो इन्तज़ार की शिद्दत से और सूखता जा रहा था।
"अगर भाईजान क़रीब न बैठे होते तो ज़रा देर के लिए नक़ाब ऊपर कर लेते। कुछ तो मुँह में हवा लगती। ऐसे सूखे-सड़े मर्दों के सामने नक़ाब पलट देने में क्या हर्ज़। एक बार मामू ने कहा था - "अब बुर्क़े का रिवाज़ ख़त्म होता जा रहा है। भई मैंने तो अपनी किसी बेटी को बुर्क़ा नहीं ओढ़वाया, और अब कौन ओढ़ाता है। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। लड़कियाँ नौकरियाँ कर रही हैं, पुलिस और फ़ौज में भर्ती हो रही हैं और एक आप लोग हैं अपनी लड़कियों को बुर्क़ों में लपेटे बैठे हैं।"
"अजी हाँ - नौकरियाँ कर रही हैं, पुलिस और फ़ौज में भर्ती हो रही हैं। और क्या-क्या कर रही हैं, कुछ यह भी ख़बर है आपको?" अब्बा ने चिढ़कर जवाब दिया।
"आप लोग तो हमेशा बुरे पहलू पर ही नज़र रखते हैं।" मामू ने कहा।
"हाँ - हाँ ठीक है, हम लोग जो बेहतर समझते हैं, वही करते हैं, आप अपनी बेटियों का बुर्का उतरवाइये या नंगा नचाइये, मेरी बेटी जिस तरह रह रही है, उसी तरह रहेगी।"
अब्बा ने ख़ूब ग़ुस्से से मामू को देखते हुए कहा।
"मैं अपनी बेटियों को नंगी नचाता हूँ..."
मामू की आवाज़ हलक़ में फँस गयी।
"और नहीं तो क्या..." भाई जान को भी ग़ुस्सा आ गया।
"...आप कौन होते हैं, हमारे मामलात में दखल देने वाले?"
"जमील तुम ख़ामोश रहो", अम्माँ ने माथे पर हाथ रखते हुए कहा।
"क्यों ख़ामोश रहूँ।" भाई जान ने ज़ोर से कहा तो अम्माँ ख़ामोश हो गयी। वह कभी भाई जान से ज़बान नहीं लड़ाती कि जवान लड़कों से ज़बान लड़ाना अपनी इज़्ज़त ख़ाक में मिलाना है। मामू चुपचाप चले गये। वह दिन और आज का दिन उन्होंने हमारे घर में क़दम नहीं रखा। अब की ईद में नहीं आये। अम्माँ ने जाकर माफ़ी तलक माँगी मगर वह यही कहते रहे - अपनी बेटियों को नंगा नचाने वाले शरीफ़ घरानों में नहीं जाया करते। जब मामू घर आते थे तो कितना अच्छा लगता था।
कम्पाउण्डर ने ज़ोहरा का नाम पुकारा तो उसके दिल में धड़कन तेज़ हो गयी और जिस्म थरथराने लगा। जैसे अक्सर नींद में चौंककर थरथराने लगता था और दिल की धड़कन तेज़ हो जाया करती थी। पसीजे हुए पैंरों में सैण्डिल जमाती हुई वह जमील के साथ डॉक्टर के चैम्बर में गयी।
"भाईजान बैठ जायें तो मैं भी बैठूँ।" उसने सोचा।
"बैठिये..." डॉक्टर ने कुर्सी की तरफ़ इशारा करते हुए बहुत नरम लहज़े में कहा। वह कुर्सी पर बैठ गयी। डॉक्टर के क़रीब एक ख़ूबसूरत लड़की बैठी थी। लड़की का चेहरा-मोहरा डॉक्टर से काफ़ी मिलता था। दोनों ने सवालिया नज़रों से उसकी तरफ़ देखा।
"नक़ाब ऊपर कर लो..." जमील ने कहा। उसने नक़ाब हटा दी।
"जी..." डॉक्टर ने जमील की तरफ़ देखते हुए कहा। जमील ने उसकी बीमारी के बारे में कुछ बातें अपने तौर पर बतायीं, लेकिन कुछ बातें ऐसी थीं, जो वह नहीं जानते थे, मसलन सीने में किस तरह का दर्द होता है, किस वक़्त ज़्यादा दर्द होता है, रात को नींद कितनी देर में आती है, आती भी है या नहीं। सुबह से शाम तक ख़ून के कितने थक्के नाली में बह जाते हैं, खाने का मज़ा कैसा होता है और... बहुत-सी बातें जो दूसरा नहीं बता सकता था, सिवाये उसके जो ख़ुद इस रोग की चपेट में हो।
"अब यही देखो..." उसने सोचा "...भाई जान बता रहे हैं मगर बीमारी को डेढ़ साल हो गये।
"आप बताइये" डॉक्टर ने ज़ोहरा से कहा।
"अब मैं भाई जान के सामने कैसे बताऊँ," वह उलझन में पड़ गयी।
"हाँ-हाँ कहिये," डॉक्टर ने तसल्ली दी।
वह ख़ुद को सँभालकर, उखड़े लहज़े में हाल बताने लगी। कुछ ऐसी क़ैफ़ियतें थीं, जिन्हें वह ख़ुद नहीं बता पा रही थी।
हाल सुनने के बाद डॉक्टर उसके पास आकर जाँच करने लगा। उसकी असिस्टेण्ट भी पास आ गयी। जाँच के दौरान असिस्टेण्ट लड़की को डॉक्टर अंग्रेज़ी में कुछ बताता जा रहा था। "आपके घर में किसी को टी.बी. है", डॉक्टर ने जमील से पूछा।
"जी नहीं", जमील ने जवाब दिया।
"फैमिली में किसी और को..."
"नहीं किसी को भी नहीं।"
"ई लेयो, भाई जान को याद ही नहीं..." ज़ोहरा को ख़याल आया।
"...दादी को शायद टी.बी. ही तो थी, तभी तो दिन-रात खाँसती रहतीं और सूखकर काँटा हो गयी थीं।"
"इससे पहले किसी को दिखाया था," डॉक्टर ने पूछा।
"जी हाँ..." जमील ने जवाब दिया। "...क़स्बे के सरकारी अस्पताल में कुछ दिन इलाज हुआ था।"
डॉक्टर ने सहायक लड़की की तरफ़ देखा, फिर दोनों के होंठों पर मज़ाक़ उड़ाने जैसी मुस्कुराहट फैल गयी। "जब केस बिगड़ जाता है तब आप लोग पेशेण्ट को लेकर शहर की तरफ़ भागते हैं..." डॉक्टर ने नाराज़गी भरे लहज़े में कहा।
"...फिलहाल कुछ दवाएँ लिख रहा हूँ, ये खिलाइये, एक्सरे और ब्लड टेस्ट की रिपोर्ट लेकर एक हफ़्ते के बाद आइएगा। इनको लाने की ज़रूरत नहीं।"
"डॉक्टर साहब यह परहेज नहीं करतीं।" वह शर्मा गयी।
डॉक्टर ने सरसरी नज़रों से ज़ोहरा को देखते हुए कहा,
"परहेज नहीं करतीं तो मत कीजिए, मगर दवा ज़रूर खाइये,... दवा तो खा लेंगी।"
"जी" उसने सिर को जुम्बिश दी।
"परहेज भी कर लीजिये तो जल्दी ठीक हो जाइयेगा।" फिर डॉक्टर बहुत नर्मी से परहेज के बारे में बताने लगा। डॉक्टर का उस अन्दाज़ में बातें करना और हिदायतें देना उसे बहुत अच्छा लगा। जैसे वह बातें न कर रहा हो, लोरी दे रहा हो।
"यह बिल्कुल मामू जान की तरह बातें कर रहा है"। उसे मामू जान याद आ गये।
क्लीनिक से निकलने के बाद जमील ठिठककर रुक गये।
"तुम बाहर चलो मैं आता हूँ।" उन्होंने ज़ोहरा से कहा और अन्दर चले गये। वह बाहर आकर गुलमोहर के फूल देखने लगी। सुर्ख़ फूलों से लदी हुई गुलमोहर की शाखें तेज़ हवा से उसी तरह झूम रही थीं।
कुछ देर के बाद जमील बाहर आ गये। उसने सवालिया नज़रों से उनकी तरफ़ देखा। जमील का चेहरा किसी गहरी चिन्ता से बोझल था। लगता है कि डॉक्टर ने उसकी बीमारी के बारे में कोई ऐसी बात इन्हें बता दी है।
क्लीनिक से पैथालॉजी जाते वक़्त एक फ़िक्र में उलझी रही। बस यही एक ख़याल कि डॉक्टर ने पता नहीं, भाईजान से क्या बताया होगा। आखि़र कुछ देर के बाद उसने पूछ ही लिया।
"डॉक्टर साहब क्या कह रहे थे।"
"कुछ नहीं" जमील ने इत्मीनान के साथ जवाब दिया।
"...कहेगा क्या - एक्सरे और ख़ून की रिपोर्ट देखने के बाद ही कुछ बता सकेगा। अब एक हफ़्ते के बाद फिर आना पड़ेगा।" जमील ने अपने से बात करने जैसे अन्दाज़ में कहा।
वह जमील के जवाब से सन्तुष्ट नहीं हुई। हमेशा की तरह एक ख़याल उसे देर तक परेशान करता रहा। जब कम्पाउण्डर ने उसकी उँगली में सुई चिभोई तो चिन्ता की अनुभूति तकलीफ़ की तह में उतर गयी। उसने उँगली पर नज़र डाली। कम्पाउण्डर उसकी उँगली से इस तरह ख़ून निचोड़ने की कोशिश कर रहा था, जैसे भूखी बकरी के थन से दूध दुह रहा हो। उसने मुँह फेर लिया। जमील सहारा न देते तो वह चकराकर गिर जाती। ख़ून देने के बाद वह कुर्सी पर बैठ गयी। जमील ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर स्प्रिट लगायी। जमील के हाथों के अचीन्हे से स्पर्श ने उसके तन में झुरझुरी-सी पैदा कर दी। "मैं लगा लूँगी" उसने कहा। जमील ने स्प्रिट में भीगी हुई रूई उसे दे दी। वह आहिस्ता-आहिस्ता उँगली पर स्प्रिट लगाने लगी।
कम्पाउण्डर दुबारा उसके पास आया, "अन्दर आइये" उसने कहा। वह जमील के साथ दूसरे कमरे में गयी। "यह हटा दीजिये" कम्पाउण्डर ने बुर्क़े की तरफ़ इशारा किया। ज़ोहरा ने सवालिया नज़रों से कम्पाडण्डर को देखा। जमील ने उसकी क़ैफ़ियत भाँपते हुए उससे कहा।
"बुर्क़ा उतारकर मुझे दे दो, एक्सरे होगा" उसने बदहवासी के साथ बुर्क़ा उतारकर जमील की तरफ़ बढ़ा दिया।
"दुपट्टा भी दे दो।" जमील ने उसकी गरदन की तरफ़ इशारा किया। उसने पसीने से भीगा हुआ दुपट्टा गरदन से खोलकर जमील को दे दिया।
जिस वक़्त वह एक्सरे मशीन के सामने एकदम सीधी और ख़ामोश खड़ी थी, जमील दीवार पर टँगा कैलेण्डर देख रहे थे। उनके हाथ पीछे की तरफ़ थे। दुपट्टे का एक सिरा उनके हाथ से छूटकर पंखे की हवा से फ़र्श पर थरथरा रहा था। एक्सरे मशीन आप्रेटर ने गहरे तटस्थ भाव से उसके हाथ बराबर करते हुए कहा, "बस इसी तरह खड़ी रहियेगा।" उसने नज़रें झुका लीं और इस तरह शंकित हो गयी, जैसे बेरूह बदन ताबूत में रख दिया गया हो। लेकिन दिमाग़ में बातों और यादों के आने-जाने का सिलसिला चल ही रहा था।
"अम्माँ बीमारी से ज़्यादा इन बातों से घबराती हैं इसीलिए तो मामूली बीमारियों को ख़ातिर में नहीं लातीं, नानी तो इतना घबराती थीं कि कभी अस्पताल ही नहीं गयीं। बुढ़ापे में उनको कैसी-कैसी तकलीफ़ें उठानी पड़ीं। तख़्त पर बैठ रही थीं, टाँग में कील लग गयी। पूरी टाँग सड़ती चली गयी। सबने लाख कहा, "किसी डॉक्टर को दिखला दो। मगर नहीं मानीं। उल्टे मशविरा देने वालों का मुँह नोच लेतीं - तुम लोग मुझे बेग़ैरती का जामा पहनाना चाहते हो, ग़ैर मर्दुओं को टाँग दिखलाऊँ, न बाबा न, यह दिन दिखाने से पहले ख़ुदा मुझे उठा ले तो अच्छा। मामू बहुत दिनों तक हाल कह-कहकर दवा लाते रहे। मगर ठीक होना था न हुईं और एक दिन बीमारी उन्हें लेकर चली गयी। सब लोग कहते हैं कि नानी को हड्डी की टी.बी. हो गयी थी। यह हड्डी की टी.बी. कैसे हो जाती है। लोग तो यह भी कहते हैं कि औरतों के सीने में कैंसर की गिल्टियाँ पड़ जाती हैं और उनके उभार काट दिये जाते हैं। ऐ अल्लाह - हर औरत को ऐसी बीमारियों से बचाइयो।"
"साँस रोक लीजिये" एक्सरे मशीन आप्रेटर ने कहा, उसने जल्दी से साँस रोक ली।
एक्सरे के बाद जब वह जमील के साथ बाहर आयी तो जमील ने उसे कुछ उदासीन भाव से देखते हुए पूछा - "तुमने कभी सिनेमा हॉल में फ़िल्म देखी है।"
हवा का जैसे बहुत नर्म ठण्डा झांका आया और उसके पूरे जिस्म को छूकर चला गया। उसने ख़ुशी भरी हैरानी से जमील को देखा। उस वक़्त उनके होंठों पर प्यार भरी मुस्कुराहट थी। उसने आश्चर्य से सोचा, "भाईजान इस तरह पूछ रहे हैं, कब देखी। जब से हाजी अहमद चचा के यहाँ टी.वी. आया है एक आध बार थोड़ी बहुत देख ली है, वह भी छिप-छिपकर।"
"नहीं" उसने जवाब दिया।
"देखोगी?" जमील के लहज़े में बहुत नर्मी और आँखों में अजीब तरह की चमक थी।
उसे फ़िल्म देखने का कोई ऐसा शौक़ नहीं था, बस एक उत्सुकता-सी थी। हम भी देखें कि सिनेमा हॉल में फ़िल्म कैसी लगती है। उसका जी चाहा कह दे, हाँ देखूँगी। लेकिन फिर ख़याल आया, अम्माँ ने चलते वक़्त कितनी नसीहतें दी थीं, कहीं घूमने न लगना, जो देर हो जाये, फरमाइश न करने लगना और देखो - उन्होंने भाई जान से कहा था, इसे भीड़ में अकेले मत छोड़ देना, हाथ पकड़े रहना। उजाले-उजाले लौट आना रात मत करना।
"...देर हो जायेगी तो अम्माँ बहुत ख़फ़ा होंगी। भाईजान से तो शायद कुछ न कहें मगर मेरी ख़बर ले लेंगी। और अभी पहुँचकर बरतन भी तो धोने हैं। सुबह झाड़न्न् नहीं दी थी। अम्माँ को फुसर्त न मिली होगी झाड़न्न् देने की तो जाकर झाड़न्न् भी देना होगी, अगर मगरिब से पहले पहुँच गये।"
"क्या ख़याल है।" जमील ने पूछा।
"देर हो जायेगी, अम्माँ डाँटेगीं।" उसने जवाब दिया
"अम्माँ से कह देंगे, डॉक्टर के यहाँ देर हो गयी।" जमील ने मुस्कुराते हुए उसे बेफ़िक्र करना चाहा।
"ऊँहूँ..." उसने इन्कार किया।
"खै़र तुम्हारी मर्ज़ी है... अच्छा चलो किसी रेस्टोरेण्ट में बैठकर लस्सी पीते हैं।"
"खाँसी आयेगी।" उसने असहमति ज़ाहिर की।
"हूँ... यह तो है" जमील ने कहा, "फिर तुम ही बताओ क्या खाओगी।"
"आज भाईजान इतनी अपनाइयत से बात क्यों कर रहे हैं..." उसे हैरत का अहसास हुआ।
"...फ़िल्म भी दिखलाना चाहते हैं, पहले तो कभी ऐसी बात नहीं करते थे।" बहरहाल, सच तो यह है कि जमील की नर्मी और मोहब्बत ने उसके अन्दर एक ऐसी क़ैफ़ियत जगा दी थी कि जिसके बाद भूख का अहसास रह गया था, न प्यास का। नक़ाब के पीछे उसके सूखे होंठों की पपड़ियाँ चिटकीं और आँखें नम हो गयीं।
"कुछ भी नहीं खाऊँगी, बस जल्दी से घर चलिये।" उसने काँपते स्वर में कहा।
"अच्छा तो थोड़े से सेब ख़रीद लेते हैं, बस में खा लेना" जमील ने फ़ैसला देने जैसे अन्दाज़ में कहा।
उसे हँसी आ गयी। "अब मैं बस में सबसे छिपाकर सेब खाऊँगी" आज भाई जान कितने बदले-बदले नज़र आ रहे हैं।
वापसी के सफ़र में जमील ने कहा, "खिड़की की तरफ़ बैठ जाओ।"
"इधर हवा आती है" उसने कहा। हालाँकि उस वक़्त बहुत उमस थी। उसके इन्कार से जमील के चेहरे पर किसी तरह की प्रतिक्रिया प्रकट नहीं हुई। वह एक इत्मीनान के साथ खिड़की के पास बैठ गये।
"यह सेब पकड़ो।" उन्होंने पालिथिन उसकी तरफ़ बढ़ाई और सिटकनी दबाकर शीशे का फ्रेम ऊपर चढ़ा दिया - मुँहज़ोर हवा तो जैसे शीशे के उस तरफ़ तौले खड़ी थी, भर्रा मारकर अन्दर आ गयी।
भाई जान जिस रास्ते से गये थे उसी रास्ते से वापस आये। वही ख़ूब ऊँची इमारत - वही बड़ी-सी पार्क, गन्दी तस्वीरों वाला सिनेमा हॉल, आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ बड़ा-सा पंखा और वही सब चीज़ें जो जाते वक़्त देखी थीं। अब अगर कोई मुझसे कहे कि डॉक्टर के यहाँ अकेली चली जाओ तो मैं बड़े आराम से चली जाऊँगी। पहले बस से उतरकर रिक्शे पर बैठूँगी। रिक्शेवाले से कहूँगी - मुझे वहाँ ले चलो। कहाँ... हाँ निराला नगर।
ख़ूब ऊँची-सी इमारत के पास। फिर रास्ते में सब चीज़ों को ख़ूब ध्यान से देखती रहूँगी। अगर कोई भी चीज़ कम हो गयी या कोई नयी चीज़ नज़र आ गयी तो समझूँगी कि रिक्शेवाले की नीयत में फितूर आ गया है। शोर मचा दूँगी... फिर जब रिक्शा उस ऊँची-सी इमारत के पास पहुँच जायेगा तो दाहिने हाथ वाली गली से ज़रा दूर तक पैदल चलूँगी। भाई जान ने रिक्शेवाले से किसी और रास्ते की बात की थी। मगर वह दूर का रास्ता था। इसीलिए भाई जान उससे नहीं गये थे... मगर ये सब सोचना तो आसान है, मगर करना मुश्किल... शायद मैं न जा सकूँ।
जिस वक़्त वो लोग बस से उतरकर गाँव की तरफ़ जा रहे थे, सूरज पेड़ों की हरी शाखों में अटका हुआ था, और परिन्दे बसेरे के लिए उतरने लगे थे। परिन्दों की चहचहाहट के साथ ज़लज़ले की सी, मानूस आवाज़ फ़िज़ाँ में गूँज रही थी। उसने आँखें ऊपर कीं। दूर... आसमान की तरफ़ सुरमई धुएँ से आड़ी तिरछी पगडण्डी-सी बन गयी थी।
"चलो अच्छा हुआ जो उजाले-उजाले पहुँच गये। अम्माँ भी ख़ुश हो जायेंगी".
.. उसने सोचा, ...अब इतनी दूर तलक पैदल चलना पड़ेगा। यहाँ के रिक्शेवाले भी कमबख़्त सूरज डूबने से पहले ही चले जाते हैं। आज सारी रात पिण्डलियों में ऐंठन होगी, नींद नहीं आयेगी।
धूल से अटा हुआ, ऊँचा-नीचा रास्ता तय करने के बाद जब वह गन्दी नालियों से दामन बचाती हुई अपनी गली से गुज़र रही थी, अचानक एक मोड़ से तमीज़न बुआ नमूदार हुईं। बेनियाज़ी के साथ वही पुरानी चाल चलती हुई। तमीज़न बुआ के सिरपर बड़ा-सा थाल रखा हुआ था। थाल पर ढके हुए कामदार दुपट्टे के पल्लू उनके कन्धों पर झूल रहे थे।
तमीज़न बुआ ने थाल पर हाथों की गिरफ़्त मज़बूत की और पलकें ख़ूब ऊपर उठाकर उसकी तरफ़ देखा। अगर वह जमील के साथ न होती तब भी तमीज़न बुआ उसे पहचान लेतीं।
"सलाम तमीज़न बुआ..."
"जीती रहो।" तमीज़न बुआ ने लरजती-काँपती आवाज़ में दुआ दी फिर सवालिया नज़रों से उसको देखते हुए पूछा।
"कहाँ से आये रही हो..."
उसका कलेजा धक से हो गया। क्या जवाब दे, उलझन में पड़ गयी। जमील ज़रा आगे बढ़कर रुक गये थे। उन्होंने तिरछी निगाह से तमीज़न बुआ को देखा और तीखे लहज़े में जवाब दिया।
"काम से गये थे।"
तमीज़न बुआ हड़बड़ा गयीं, जाते-जाते उन्होंने अपने को बचाने जैसे अन्दाज़ में कहा।
"जरीना बिटिया की मँगनी का जोड़ा लिये जाये रही हूँ।" तमीज़न बुआ के आगे बढ़ जाने के बाद जमील ने तिरछी नज़र से उसकी तरफ़ देखते हुए कहा,
"सलाम करने की क्या ज़रूरत थी..."
वह सहम गयी, कुछ पछतावा-सा महसूस करते हुए उसने सोचा,
"भाईजान सही कह रहे हैं, मुझे सलाम नहीं करना चाहिए था। ख़ामोशी से आगे बढ़ जाती तो तमीज़न बुआ को शायद पता ही नहीं चल पाता कि बुर्क़े में कौन था, मगर अब तो..."
उसी वक़्त अम्माँ ने उन्हें देख लिया। इत्मीनान में डूबी हुई लम्बी साँस लेकर उन्हांने कहा, "ख़ुदा का शुक्र है, तुम लोग आ गये, वरना अँधेरा होने ही वाला था।" उसने तेज़ क़दमों से आँगन पार किया और दालान में पहुँचकर तख़्त पर ढह गयी। अम्माँ जमील के पीछे उनके कमरे में इस तरह गयीं जैसे उन्हें कोई बहुत राजदारी की बात पूछनी हो।
"अम्माँ को पहले मुझसे मेरा हाल पूछना चाहिए था, और वह पहुँच गयी भाई जान के पास। अम्माँ भी बिल्कुल हौला खब्ता है।"
इतनी दूर पैदल चलने के बाद उसकी पिण्डलियाँ फड़क रही थीं और दिल की धड़कन बढ़ गयी थी। उसने आँखें मूँछ लीं कि कुछ देर के लिए अपनेआप को भूल जाये लेकिन थकान के अहसास ने उसके जहन को बेदार कर दिया था। वह एक ज़रा आँख मूँदती कि शहर के हंगामा भरे रास्तों में देखी हुई चीज़ें और अलग-अलग तरह की आवाज़ें उसके बन्द होते पपोटों को जुदा कर देतीं।
"शहर में कितना शोर था और यहाँ कितनी ख़ामोशी है," उसने सोचा। कुछ देर के बाद अम्माँ जमील के कमरे से निकलकर हौले-हौले उसके पास आयीं, और किसी गहरे दुख में डूबी-सी तख़्त पर उसके पास बैठ गयीं।
"बुर्का तो उतार दो, बहुत गर्मी है..." अम्माँ ने कहा।
"...तुमने सुबह से कुछ खाया भी नहीं होगा।"
उसने कोई जवाब नहीं दिया, आँखें खोले ऊपर देखती रही।
"इन लोगों के साथ कहीं जाओ तो खाने-पीने को भी तरसा देते हैं, चाय बना लाऊँ या एक प्याली दूध ले लो।"
"ऊँ-हूँ..." उसने सिर को नहीं में हिलाया।
अम्माँ ने उसकी पेशानी पर अपनी ठण्डी हथेली रखी और दम साध लिया।
"हरारत हो गयी है, देखो बुखार बढ़ न जाये।... ज़िम्मेदारी का कोई अहसास ही नहीं। साहबजादे दवा लाना ही भूल गये। तुमने भी याद नहीं दिलाया, आ जाती तो आज ही से शुरू कर देती। अब कल शाम को लेके लौटेंगे, परसों सुबह से जाकर कहीं शुरू होगी... बिल्कुल वही आदतें हैं बाप की जैसी। घर में मरीज़ का दम निकल रहा हो और वह हाथ पर हाथ रखे बैठे रहेंगे।"
"अब अम्माँ दिमाग़ के कीड़े गिरा देंगी..." उसने हताश होते हुए सोचा।
"... यह ज़रा-ज़रा-सी बातों को इतना फेरती हैं, इतना फेरती हैं कि बात का बतंगड़ बना देती हैं। इसीलिए तो अब्बा और भाई जान की डाँट खाती हैं।"
मगर उस वक़्त अम्माँ शायद उसकी बीमारी की वजह से ख़ामोश हो गयीं। उन्होंने उसकी पेशानी पर पड़ी बालों की लट ऊपर की। दुपट्टे से पसीना पोंछा और पाँयती से पंखा उठाकर झलने लगीं। सुकून के अहसास से उसकी आँखें मूँद गयी। लेकिन ज़रा देर के बाद पंखे की रफ़्तार धीरे-धीरे सुस्त पड़ने लगी। उसने कनखियों से अम्माँ की तरफ़ देखा। अम्माँ की आँखें उसके चेहरे पर गड़ी हुई थीं। वह उसमें जाने क्या ढूँढ़ रही थीं। उनका चेहरा ऐसा हो गया था जैसे वह देर के बाद आग के सामने से उठी हों। आँखों के डोरे सुर्ख़ हो रहे थे और होंठ आहिस्ता-आहिस्ता थरथरा रहे थे।
उसी वक़्त अदील बाल उछालता हुए एक बेफ़िक्री के साथ घर में दाखि़ल हुआ। अम्माँ को ज़ोहरा के पास इस तरह बैठा देखकर ठिठक गया और फिर धीरे चलते हुए तख़्त के पास आया।
"पानी पियोगी।" उसने पूछा।
"बहन को पानी दो," अम्मी ने रुँधे गले से कहा।
अदील जल्दी से पानी ले आया।
"बाजी पानी"
कोरे घड़े का, खारा मगर ठण्डा पानी उसने तीन बार ठहर-ठहर के पिया। ख़ाली ग्लास अदील की तरफ़ बढ़ाया, "और।"
अदील फिर उसी रफ़्तार से जाकर पानी ले आया, उसने दूसरा ग्लास भी तीन बार ठहर-ठहरकर ख़ाली कर दिया। पानी से पेट भर गया मगर प्यास नहीं बुझी। वह दोबारा लेट गयी। उसी वक़्त अब्बा खँखारते हुए आ गये। ख़ास अन्दाज़ में नपे हुए क़दम रखते हुए छतरी बन्द करते हुए उन्होंने चिन्तित होते हुए उसकी तरफ़ देखा। फिर छतरी को खूँटी में टाँगकर उसके पास आये।
वह जल्दी से उठकर बैठ गयी।
"क्या बात है," अब्बा ने पूछा।
"थक गयी है", अम्माँ ने उसी दुखी लहज़े में कहा।
"हूँ..." उन्होंने कुछ सोचा, फिर एक लम्हे बाद बोले,
"...गर्मी भी तो बहुत है, बहन चो... बारिश हो तो कुछ सुकून मिले। तू खड़ा-खड़ा मुँह क्या ताक रहा है। बहन के पंखा क्यों नहीं झल देता..." अब्बा ने अदील को हुक्म दिया।
"... ले पहले यह कमीज़ धूप में फैला दे।"
अदील ने कमीज़ धूप में फैलायी और पसीने से चिपचपाते हुए हाथों को सूँघता हुआ तख़्त के पास आया। पसीने की गन्ध से उसका जी मतलाने लगा। उसने अपनी कमीज़ के दामन से हाथ साफ़ किये और अम्मी के हाथ से पंखा लेकर जल्दी-जल्दी झलने लगा।
इस नाजबरदारी से ज़ोहरा को उलझन होने लगी। उसका जी चाहा, सब लोग उसे अकेला छोड़ दें और उससे बेनियाज़ हो जायें। उसने बुर्क़ा बदन से खसोटकर दूर फेंका। तभी अम्माँ उठकर दूसरे दालान में चली गयीं।
"अब अम्माँ दालान से निकलकर चोरों की तरह कोठरी में जायेंगी और वहाँ कपड़े निकालने के बहाने एक बक्स खोलेंगी, फिर दूसरा खोलेंगी। कोई कपड़ा निकालेंगी। उसे फैलायेंगी फिर आहिस्ता-आहिस्ता तहा कर दोबारा बक्स में रख देंगी और वह देर तक यही करती रहेंगी।"
वह जानती थी कि जब भी अम्माँ को कोई दुख सताता है तो वह दबे पाँव क़दमों से कोठरी में जाकर देर तक आँसू बहाती रहती हैं। उसने पहलू बदलकर कोठरी में देखने की कोशिश की। कोठरी के दरवाज़े का एक पट खुला हुआ था, मगर अन्दर अँधेरा था। वह अन्दर का मंज़र आँखों में भरने की कोशिश कर रही थी कि तभी सदर दरवाज़े की तरफ़ डयोढ़ी में किसी के क़दमों की आहट उभरी।
"अज़रा बाजी आ रही हैं", अदील ने कहा।
उसने चौंककर देखा। सामने अज़रा बच्चों की सी चाल चलती हुई आ रही थी, उसके होंठों पर वही जानी पहचानी मुस्कुराहट और आँखों में चमक थी। थकान और ऊब का जो अहसास उस पर हावी था, अज़रा को देखने के बाद चुस्ती और सुकून में बदल गया। वह जल्दी से उठकर बैठ गयी। अब्बा कमर में धोती बाँध के पायजामा उतार रहे थे। बैचेनी को दबा-दबाकर वह तख़्त पर से उतरी और थोड़ा मोहताज अन्दाज़ में चलती हुई अज़रा के क़रीब चली गयी। अगर अब्बा सामने न होते तो वह बच्चों की तरह दौड़कर अज़रा से लिपट जाती।
"आज मैंने तुमको याद किया और तुम आ गयीं, कब आयीं।"
उसने अज़रा को ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा। नयी डिज़ाइन के कपड़े उस पर बहुत सज रहे थे। अब उसका रंग भी तो पहले से निखर आया था।
"आज दोपहर ही को आयी हूँ। मैं उसी वक़्त तुमसे मिलने आयी थी मगर तुम मिली ही नहीं। कहाँ गयी थीं?" एक ही साँस में बोलते हुए अज़रा ने उत्सुकता ज़ाहिर की।
उसका कलेजा तो जैसे हलक़ में आकर अटक गया। अब वह अज़रा को क्या बताती। बात बनाना वह जानती न थी। वह असमंजस की क़ैफ़ियत में खड़ी थी कि अम्माँ कोठरी से निकलीं, ऐसे मौक़ों पर उनकी छठी इन्द्रिय फ़ौरन जाग जाया करती थी। वह बिल्ली की सी चाल चलती हुई उसके पास आयी और फुसफुसायी।
"सुनो ज़ोहरा।" उन्होंने रहस्य भरे अन्दाज़ में उसे देखा और दालान की तरफ़ चली गयी।
उसे अम्माँ का यह तरीक़ा पसन्द नहीं आया, "भला अज़रा के पास से इस तरह बुलाने की क्या ज़रूरत थी, वह क्या सोचेगी।"
"अज़रा बैठो मैं अभी आती हूँ।" उसने अज़रा से कहा और न चाहते हुए भी दालान में चली गयी, जहाँ अम्माँ आँखें फाड़ इस तरह खड़ी थीं, जैसे कोई हादसा होने वाला हो।
"देखो - यह बड़ी डाइन लड़की है, अपनी माँ की तरह रस्सी का साँप बना देने वाली... यह टोह लेने आयी है। तुमसे बहुत-सी बातें पूछेगी। मगर ख़बरदार जो तुमने उसको कोई बात बताई। किसी बात का जवाब मत देना, होंठ पर होंठ रखे बैठी रहना, ख़ुद ही चली जायेंगी... समझ गयी।"
अम्माँ ने उसकी तरफ़ ऐसे देखा जैसे उससे इक़रार करवा लेना चाहती हो। उनकी बातें सुनकर उसकी त्यौरियाँ ही चढ़ गयीं। लेकिन फिर उसने आँखें झुका लीं।
"और ज़रा अपना हुलिया तो ठीक करो।" अम्माँ ने कहा और बावर्चीख़ाने की तरफ़ चली गयी... कमबख़्त बैल का करना और स्याही का आना।
ज़रूर कुछ देर तक पशोपेश के आलम में खड़ी रही फिर तेज़ी से जाकर चारपाई पर लेट गयी और दुपट्टे से मुँह ढाँपकर दहाड़ें मारकर रोने लगी। कुछ देर बाद अँधेरा हो गया और मगरिब की अजान हुई। वह जल्दी से उठी और लम्बी साँस लेकर सोचा,
"आज मुझे क्या हो गया है, मगरिब की अजान हो रही है और घर में अँधेरा है... कमबख़्त मारी बिजली जाने कब आयेगी।"
वह फुर्ती से आँगन में आयी, ठिठककर सिर पर दुपट्टा डाला, उसके कोने से आँखों में बाक़ी रह जाने वाली नमी को खुश्क किया और मामूल के मुताबिक़ चिराग़ जलाने बावर्चीख़ाने की तरफ़ चली गयी।