ज़िद्दी (उपन्यास) : इस्मत चुग़ताई

Ziddi (Novel in Hindi ) : Ismat Chughtai

ठोकर

जिंदगी का तो एक ही अंजाम होता है...यानी मौत! लेकिन इंसान भूलता है कि हर सुबह का अंजाम शाम, हर चैन की नींद का अंजाम बेदारी, और हर कहकहे का अंजाम ख़ामोशी होता है। तुलूए-आफ़ताब (सूर्योदय) का क्या लुत्फ होता जो गुरूब (अस्त) न होता। और हर वक़्त सूरज सर पर ही डटा खड़ा रहता। और ऐसी नींद अल्लाह न दे जिससे फिर जाग ही न सकें। मगर मोहब्बत में ठोकरें जितने ख़ुदा ने लाज़िमी समझी हैं उतनी तो अच्छी नहीं लगतीं। एक ठोकर वो होती है जिसमें रकीब साहब की झलक से दिमाग भन्ना जाता है। लेकिन ज्यों ही बादल छंटे फिर चांदनी है कभी रंजिश भी हो जाती है। लेकिन वो फुल स्टॉप की तरह जुमलों को दिलचस्प बना देती है। एक और बड़ी ठोकर है जो यार लोग जान-बूझ कर लगाते हैं। और वो होती है समाज की दौलत। इसमें अगर निकला चला गया तो खैर वरना खाई तो सामने है ही, सब ठोकरें इंसान सह जाता है पर समाज की ठोकर से तिलमिला उठता है। क्या-क्या किताबों में किस्से-कहानियों में फिल्मों में इस समाज की टाँग घसीटी। मगर समाज है कि शेर की तरह डटा हुआ है। बात ये है यहाँ समाज का तो नाम है वरना टक्कर होती है इंसान से खुद अपने प्यारे दिल के टुकड़ों से और पूरन जैसे मनचले सवार ही ठोकर न खाएँ। तो फिर क्या बड़े भैया जैसे लौट लगाने वाले खाएँगे। पूरन की चाल ढाल बोल बात ने घर-भर को चौकन्ना कर दिया। सबकी नजरें निशानेबाज़ तोपों की तरह हलक फाड़ कर दोनों की तरफ मुड़ गई। आशा की खिदमात में आए दिन तब्दीली होने लगी। अब वो बजाए नौकरानियों के माताजी की लाडली बन गई जो हर वक़्त नागन की तरह उसके गिर्द चक्कर लगाए रहती। खाने पर भी वो मुन्ने की कुर्सी के पास बाँध कर बिठा दी जाती। और पूरन की कुर्सी माताजी और राजा साहब के कलेजे में घुस गई। वो खूब इस मासूमाना चौकीदारी को समझता था। मगर न ही इतनी हिम्मत और न ही कोई मौक़ा कि कुछ तेज़ी दिखाए। फिर भी चोर-चोरी से गया हेरा फेरी से तो नहीं जा सकता। मुन्ने पर लाड जताने के बहाने माताजी के घुटने पर लेटने के हीले से वो एक नज़र आशा से मिलाने से बाज़ न आ सका। और फिर जब इंसान का मकसद ज़िंदगी ही ये हो तो गैलरी ड्राइंग रूम के पर्दो की आड़ में बाग में कहीं-न-कहीं तो शहद छुपा और मक्खियाँ सोती मिल जाती थी।

मुन्ने की सालगिरह थी और घर चमकाया जा रहा था। दीवाली भी आ रही थी और फिर कहाँ तक मक्खियाँ डंक लिए जान पर सवार रहतीं। आशा भाभी जी के कमरे में पर्दे लगा रही थी कि पूरन सिंह भी बज़ाहिर कुछ ढूँढ़ने जा पहुँचे।

"मेरा कमरा भी कोई ऐसा सजा दे।" वो कुर्सी पर पैर रख कर पास खड़ा हो गया।

"आपके कमरे में इतनी चीजें ही कहाँ हैं जो कोई सजाए," आशा अब बोला करती थी।

“हुँह..मैं बेचारा गरीब आदमी जो ठैरा," उसने भाभी के चांदी के सामान पर नज़र डाल कर कहा। “भाभी का अब्बा तो लखपति है।"

“आप क्यों निराश होते हैं। आपकी शादी हो जाएगी तो क्या पता इससे भी भारी सामान आए।"

"अहाँ..ये नहीं होने का...जो मेरी बीवी गरीब हुई तो।"

"राम न करे जो आपकी बीवी गरीब हो।"

"क्यों गरीब होना कोई ऐब है।"

"और क्या? ऐब न होता तो बड़े लोग अमीर क्यों बनते।"

“मगर मेरी बीवी तो गरीब होगी...नहीं वैसे तो बेचारी के पास सोना रुपया तो नहीं...पर रूप तो बहुत ही है।"

"ओहो..छोटै भैया तब तो क्या है...मगर हम तो जब माने जब रूप जितना रुपया भी लाए।"

“मुझे रुपया नहीं चाहिए और न रूप। मुझे तो...मुझे...", और वो हकलाने लगा। आशा पर्दे के छल्ले डोरे में पिरोती रही।

"आशा! क्या रुपया ही सब कुछ है? फर्ज़ करो मैं कंगाल हो जाऊँ। पिताजी कौड़ी न दें जैसा कि वो करेंगे ही तो...तो तुम...।"

आशा के हाथ लरज़ कर छल्लों को ज़मीन पर गिराने लगे। "बताओ आशा...जो मैं कंगाल हो जाऊँ। और रंजी..."

"भगवान करे रंजी तो मर ही जाए।" आशा ने सोचा मगर वो बात टालने को छलनी उठाने लगी।

"तो रंजी के पास रुपया हो जाए फिर तुम्हें मैं याद भी न रहूँ।"

"आपका क्या ज़िक्र है। आप क्यों कंगाल होने लगे।"

“ओह...बस फ़र्ज़ करो।"

"ऐसी बातें न करिए।" आशा ने लजाजत से कहा।

"तुम ऐसी ही उखड़ी बातें करती हो। आखिर तुम मेरी बात का जवाब क्यों गोल किए जा रही हो। बोलो।"

“क्या बोलूँ...आप जाएँगे नहीं मैच देखने, रेल का वक़्त भी चला जाएगा।"

"सुनो आशा, मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा हूँ और न इस वक़्त तुम्हारे बहाने सुनने का वक्त है। मैंने तुमसे कह दिया और कितनी दफ़ा कह दिया और अब ' मैं पिताजी से भी कह दूंगा।"

"नहीं...परमात्मा के लिए ऐसा न कीजिए।"

"क्यों? क्यों न कहूँ...आख़िर वजह...वो मेरे ब्याह का कई दफ़ा ज़िक्र कर चुके हैं।"

"तो फिर कर लीजिएगा।" आशा समझी बात टली।

“यही तो कर रहा हूँ...कह दूँगा... आशा।"

"नहीं...कुछ न कहिएगा..अगर आप..."

"हाँ क्या अगर आप? कहो ना...सुनो मैं उनसे कह दूँगा कि शादी कर - दें, मुझे रुपया नहीं चाहिए।"

"नहीं, आप ऐसा नहीं कह सकते।"

"क्यों नहीं कह सकता। कौन रोक सकता है मुझे?"

"मैं रोक सकती हूँ।"

"क्या मतलब। यानी तुम कह दोगी कि..कि..."

"हाँ", वो जल्दी से पर्दा लटकाने दूर चली गई।

"आशा ये तुम फिर मेरे साथ खेल रही हो...वजह आख़िर। वजह क्या?"

(अधूरी रचना)

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