ज़िद्दी (उपन्यास) : इस्मत चुग़ताई
Ziddi (Novel in Hindi ) : Ismat Chughtai
‘ज़िद्दी’ उपन्यास एक दुःखद प्रेम कहानी है जो हमारी
सामाजिक संरचना से जुड़े अनेक अहम सवालों का अपने भीतर अहाता किये हुए है।
प्रेम संबंध और सामाजिक हैसियत के अन्तर्विरोध पर गाहे-बगाहे बहुत कथा
कहानियाँ लिखा जाती रहीं हैं लेकिन ‘जिद्दी’ उपन्यास
इनसे अलग विशिष्टता रखता है।
यह उपन्यास हरिजन प्रेम का पाखण्ड करने वाले राजा साहब का पर्दाफाश भी
करता है, और साथ ही औरत पर औरत के जुल्म की दास्तान भी सुनाता है।
‘जिद्दी’ उपन्यास के केन्द्र में दो पात्र हैं-पूरन
और आशा। पूरन एक अर्द्ध-सामंतीय परिवेश में पला-बढ़ा नौजवान है जिसे बचपन
से वर्गीय श्रेष्ठता बोध का पाठ पढाया गया है। कथाकार ने पूरन के चरित्र
का विकास ठीक इसके विपरात दिशा मे किया है। उसमें तथाकथित राजसी वैभव से
मुक्त अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण की जिद है और वह एक जिद्दी की
तरह अपने आचरण को ढाल लेता है। आशा उसके खानदान खिलाई (बच्चों को खिलाने
वाली स्त्री) की बेटी है। नौकरानी आशा के लाजभरे सौन्दर्य का पूरन आसक्त
हो जाता है। वर्गीय हैसियत का अन्तर इस प्रेम की त्रासदी में बदल जाता है।
पूरन की जिद उसे मृत्यु की ओर धकेलती है। पारिवारिक दबाववश उसका विवाह
शान्ता के साथ हो जाता है और इस तरह दो स्त्रियों-आशा और शान्ता का जीवन
एक साथ उजड़ जाता है। यहीं इस्मत चुगताई स्त्री के सुखों और दुःखों को
पुरुष से अलग करके बताती है, ‘‘मगर औरत ? वो कितनी
मुख्तविफ होती है। उसका दिल हर वक्त सहमा हुआ रहता है। हँसती है तो डर के,
मुस्कराती है तो झिझक कर।’’ दोनों स्त्रियाँ इसी
नैतिक संकोच की बलि चढती हैं।
जिद्दी के रूप में पूरन के व्यक्तित्व को बड़े ही कौशल के साथ उभारा गया
है। इसके अलावा भोला की ताई, चमकी, रंजी आदि के घर के नौंकरों और
नौकरानियों की संक्षिप्त उपस्थिति भी हमें प्रभावित करती है। इस्मत अपने
बातूनीपन और विनोदप्रियता के लहजे के सहारे चरित्रों में ऐसे खूबसूरत रंग
भरती हैं कि वे सजीव हो उठते हैं एक दुःखान्त उपन्यास में भोला की ताई
जैसे हँसोड़ और चिड़चिड़े पात्र की सृष्टि कोई बड़ा कथाकार ही कर सकता है।
छोटे चरित्रों को प्रभावशाली बनाना मुश्किल काम है।
‘जिद्दी’ उपन्यास में इस्मत का उद्धत अभिव्यक्ति और
व्यंग्य का लहजा बदस्तूर देखा जा सकता है। बयान के ऐसे बहुत से ढंग और
मुहावरे उन्होंने अपने कथात्मक गद्य में सुरक्षित कर लियें हैं जो अब
देखें-सुने नहीं जाते। इस उपन्यास में ऐसी कामयाब पाठनीयता है ।
पूरन
पानी जान तोड़ कर बरस रहा था। मालूम होता था, आसमान में सूराख हो गए हैं।
सच भी है कब से तना खड़ा है, सड़ गल कर सूराख हो जाना क्या तअज्जुब ? कई
रात बरसता रहा और सुबह से बरस रहा था। जोर-जोर से गोया भर-भर समन्दर पानी
को कोई पूरी ताकत से जमीन पर पटख रहा हो। दीवारों के घर तो कभी के पानी के
तमाँचों से बेदम होकर बैठ गए। छप्पर गीली दाढ़ियों की तरह बाँसों और
बल्लियों से झूल पड़े और घर वाले पेड़ों के नीचे दुबक बैठे। मगर पानी जैसे
उनसे छेड़ कर रहा था। कोई पेड़ भी पत्थर के सायबान तो न थे, जो पानी
पत्तों को चीर फाड़ कर सरों पर न गिरता। वैसे भी जैसे कोई चुल्लू भर-भर कर
पेड़ों के भी नीचे उलीच रहा था। परनालों की वावेला से और भी होशो-हवास गुम
थे, और फिर रात आ रही थी। घटाटोप सियाही गाढ़ी होती जा रही थी। गटर तेजी
से लुढ़क रहे थे।
आशा माँ को आखिरी घूँट पानी के देने की कोशिश कर रही थी। माँ तो
जाने कब मर गई थी, पर यह नानी ही माँ-बाप सभी कुछ थी, अब नानी भी चल-चलाव
पर तुली थी, और बाप बेकार निखट्टू-सा था। एक दिन स्टेशन के पास मरा हुआ
पड़ा मिला। नानी बहुत कुछ उसे देती थी, पर अब वह भी बूढ़ी हो चली थी। बात
ये थी कि वह राजा साहब की खिलाई (बच्चों को खिलाने वाली औरत, धाय) रह चुकी थी,
और राजा साहब के बाद उनके
बेटों को भी इन्हीं सूखे-मारे घुटनों पर वही सड़ी-पुरानी लोरियाँ दी थीं
जो वह उनके बाप को दे चुकी थी। पर वह खर्राच थी और फिर कोई जागीर थोड़े ही
मिल गई थी। जेवर थोड़ा-थोड़ा करके खाया, बर्तन रखने की जरूरत ही कौन सी
थी। उम्र भर राजा साहब के यहाँ रही और बुढ़ापे में कौन सोने के थाल लगाता है।
कई साल से महल के कोने में पड़ी
सड़ रही थी। राजा साहब ने अज़राहे-हमदर्दी उसे पेंशन देकर गाँव भेज दिया।
कुछ भी था, उसे सुकून था कि वह अपने गाँव में मर रही थी। अपना गाँव कहाँ,
गाँव तो राजा का ही था।
‘‘नहीं आया, अभी नहीं आया’’ आशा
समझी, बुढ़िया
यमदूत को याद कर रही है, मगर वह पूरन के बारे में सोच रही थी। पूरन राजा
साहब का सबसे छोटा लड़का था। वह अच्छा-खासा, सात बरस का हो चुका था, तब भी
बूढ़ी अम्मा के साथ ही सोता था और हर इतवार को गाँव बड़े भाई के साथ आया
करता था। और आज तो इतवार था। बुढ़िया जाने क्यों, उसका इंतज़ार कर रही थी
और इसीलिए ठहरी हुई थी वरना इसे कायदे से तो बहुत पहले मर जाना चाहिए था।
‘‘रंजी की माँ कहाँ है। गई ?’’
बुढ़िया फिर जागी।
‘‘हाँ अम्मा ! क्या बुला लाऊं। मींह बहुत पड़ रहा है,
नहीं...पर है बड़ी...वह...ऐसे...छोड़ गई।’’
साँस घुटी जा रही थी। ‘‘क्या मींह बहुत पड़ रहा
है।’’
बुढ़िया को फ़िक्र हुई कि अब जलाई कैसे जाएगी !
‘‘हाँ, आशा सहमी हुई धोती का किनारा मरोड़ रही थी।
‘‘और जाने रंजी की माँ कहाँ मर
गई’’ न जाने रंजी
की माँ पर इतनी ममता क्यों आ रही थी। रंजी वैसे तो रंजीत, और सिंह बनियापन
छिपाने को लगाया गया था मगर कहलाते ‘अबे रंजी’ थे। और
यह
वालिदा साहिब खिरया की दुल्हन मोती की बहू और राम भरोसे की बीवी और न
मालूम कितनी जगहें बदल चुकी थीं। पर सब कमबख़्त मर-खप गए और उनमें से किसी
एक की यादगार रंजी थे। समाज में उनकी हैसियत भी थूर के दरख़्त की सी थी,
ज़्यादा कारआमद बनने का उनमें जज़्बा ही नहीं था। कमसिनी में कुछ दिनों
हीजड़ों की टोली में जा घुसे और रंजी की माँ को सारा दिन मुहल्ले वालों को
गालियाँ तक़सीम करने में गुज़र जाता। न जाने क्यों, वह बज़िद थीं कि
हीजड़ों की टोली में नहीं बल्कि नौटंकी में गया है जो छोटा-मोटा थियेटर
होता है। कुछ भी हो रंजी की निभी नहीं और वह पिट कर भाग आये और अब गाँव भर
में नग्मा सराई के लिए मशहूर थे और एकदम बाग़ियना ख़यालात कुजा हीजड़ों
में थे और कुजा अब अव्वल नंबर के गुंडों में शुमार किए जाते थे। कुछ भी था मगर वालिदा साहिबा
तो सर उठा कर चलती थीं।
बुढ़िया की बेक़रारी बेकार न गई और वह बोरा ओढ़े आन पहुँची।
‘‘कहाँ चली गईं थीं।’’ बुढ़िया
मौत के फ़रिश्ते की तरह गुर्राई।
‘‘ए ज़रा देखने गई थी। रंजी लौटा कि नहीं। लछमी की
माँ के गई थी, हरामी न जाने कहाँ मरा है जा के।’’
‘‘हूँ चाहे मैं मर जाती।’’
बुढ़िया अकेली आशा के
सामने नहीं मरना चाहती थी कि कहीं उसका दिल न हिल जाए रंजी आशा पर आशिक़
थे। बुढ़िया को पहले तो बहुत बुरा लगा। मगर फिर सर घुमा कर देखा तो कौन से
हीरे जड़े थे और यह भी बात थी कि रंजी लुच्चा होगा अपने घर का। आशा से
छेड़ करने की उसमें कभी हिम्मत न हुई, आशा बाहर भी कब जाती थी ? बुढ़िया
साँप बनी उसकी हिफ़ाज़त कर रही थी। सारा काम रंजी की माँ रिश्वत में कर
रही थी, और रंजी जब कभी आता गधे की तरह सर झुका कर बैठ जाता, बुढ़िया
राज़ी ही थी, पर अभी नहीं। अभी आशा थी ही कितनी, दो साल हुए तो उसने
बाक़ायदा धोती पहननी शुरू की वरना लहंगा पहने ज़रा-सी बच्ची लगती थी, मगर
रंजी की माँ की राय में लहंगे साड़ी से कुछ नहीं होता जब वह इतनी थीं तो
बच्चे गिर चुके थे और तीसरा वारिद होने को था।
‘‘अपनी-अपनी उठान है।’’ बड़ी बी
जब अच्छी थीं तो
उनकी हिम्मत से मरऊब होकर कहती थीं, ‘‘आशा मेरी
धान-पान
है’’ और रंजी की गैंडे जैसी मटक देख कर सहम जाती है।
रंजी बुरा भी न था। हुस्न का मुक़ाबला तो हो नहीं रहा था। ठिगना ज़रूर था
और बत्तीसी ज़रा लौटी हुई सी थी बजाय नीचे के दाँतों के ऊपर के दाँत अंदर
थे और ठोड़ीं ज़रा आगे को थी, जब हँसता था तो मालूम होता था किसी ने गला
उल्टा कर दिया है और होंठ तो दोनों एक जैसे सपाट ही थे। नाक थोड़ी नीची और
वसीअ (चौड़ी) थी मगर आँखों में रस था और बाल जैसे आजकल बड़े लोगों में जिसे देखो
गंजा होता चला जाता है पर हफ़्तों न धोने के बाइस धूल में अटे हुए।
‘‘पूरन नहीं आया।’’ रंजी के
ज़िक्र से उक्ता कर रुख़ पलटा।
‘‘ए लो वह इस पानी में आएंगे, बड़े आदमी किसी के भी
ना होते सच तो यह है।’’
बुढ़िया में दम होता तो वह इतना लड़ती कि रंजी की माँ पस्त हो जाती। अंधी
कहीं की कोढ़न ! और जो वह जो हर इतवार आता था तो क्या उसे दिखाई न देता
था। आते ही वह अचार की हंडिया टटोलता और उम्दा घी की फ़रमाइश करता। उम्दा
घी और लड़ाई के ज़माने में, भला किधर से आए न जाए। ये लड़ाई में घी का
क्या ख़र्च है ? तोपों में भर-भर कर मारते होंगे। भला घासलेट क्यों नहीं
भरते ? आदमी तो खाए घासलेट और तोपें। और फिर उन्हें नाश्ता कराने में तो
हल्कान हो ही जाती।
‘‘मम्मी मेरा तोस’’, निर्मल
चिल्लाता सूखा मारा इंसान।
‘‘और मेरा दूध’’, दूध पी-पी कर
शीला कचौरी हो गई।
और सब से छोटा भैया हलक के आख़िरी कोने से चिंघाड़ मारता,
‘‘बीच में भाभी कुश्ती लड़ती।’’
‘‘देखो मम्मी ये मेरा पापड़ खा
गई’’, निर्मल मिनमिनाता।
‘‘ले अपना पापड़...मंगते’’, शीला
पापड़ मुँह पर मार देती।
‘‘देखो मम्मी’’, निर्मल फ़र्याद
करता है।
‘‘सूखे टिड्डे।’’
‘‘मोटी भैंस।’’
‘‘तुम सूखे टिड्डे हवा में एक दिन उड़
जाओगे।’’
‘‘और तू मोटी कुप्पा एक दिन ठपाक से फट जाएगी
बस।’’
‘‘किनया..अलन।’’ निर्मल और शीला
एक दूसरे का खूब
मुँह नोचते और निहायत मुहब्बत से काढ़ी हुई फ्राक पर दूध छलक जाता। और
निर्मल का तोस उसकी कोहनी में चिपक जाता-तब भाभी चिंघाड़ती।
क्या अंधेर है निर्मल के बच्चे। यह चटापट निर्मल की रानों पर थप्पड़ मारती
और शीला की कमर में धमोके लगाती। और जो उसी असना (बीच, दरमियान) में कहीं पूरन आ जाता तो
बस भोंचाल का मजा आ जाता। वह आते ही निर्मल के अछू लगवा देता और शीला की
तोंद में उँगलियाँ टहलाता और भैया के मोटे-मोटे गाल इतने मसलता के ख़ून
झलक आता।
‘‘हट वहाँ से आया बड़ा।’’ भाभी
छोटे-छोटे हाथों
से पूरन को धकेलती। ‘‘ले के मेरे बच्चे के गाल लाल हो
गए।’’ मगर पूरन उसे और भींचता और वह
हँसता। ‘‘देख लो भाभी हंस रहा
है।’’
‘‘है न बेहया।’’
‘‘हाँ बिल्कुल अपनी माँ की
तरह।’’ पूरन उसे हवा में उछालता और साथ-साथ भाभी का
जी उछलता।
‘‘हाय पूरन...मेरा बच्चा...’’वह
साँस रोक लेती और
जब पूरन उसे लिटा कर उसका मुँह दिखाता तो भैया हँसता ही होता, और अगर आशा
कोई चीज़ लेकर आती या कोई काम करती होती तो पूरन कह उठता-
‘‘चलता दुकान भी चलती और फिर जब सब खा पी चुकते तो
दूसरा धंधा इख़्तियार किया जाता है।’’
वही बड़ों का ख़्वान्चा लगाया, दिन भर चख-चख कर ही खत्म कर लिया। सिगरेट,
बीड़ी की दुकान दोस्त यार फूँक गए। जेब के दाम भी गये।
हाँ जो रंजी किसी करम का हो जाए तो बुरा नहीं।
‘‘देखा जाएगा अम्मा, पहले अच्छी तो हो
जाओ।’’
बुढ़िया को अच्छे होने से कोई दिलचस्पी ही न थी और होगी भी तो मौत की
सख़्त जल्दी थी। और जब आशा को सिसकता छोड़कर बुढ़िया चल दी तो पूरन की
फ़रमाइश धरी रह गयी।
रंजी की माँ इतनी चीख़ी कि आशा भी सहम कर चुप हो गई। ऐसे सोग करने वाले भी
कौन थे, पेड़ सूख गया तो पत्तियाँ भी इधर-उधर बिखर गईं। आशा जिंदगी के नए
रास्ते पर चलने के लिए पूरन की मोटर में राजा साहब के यहाँ चल दी। रास्ते
भर वह कोने में दुबकी आँसू पोंछती रही। पूरन को उसकी तरफ़ देखने की हिम्मत
भी न हुई कि कहीं वह और न रोने लगे।
मगर जब आशा महल में पहुँची तो उसका धड़कता हुआ कलेजा ज़रा के ज़रा थम गया।
राजा साहब ने मुहब्बत से हाथ फेरा और माता जी ने पास बैठा लिया। मगर भाभी।
भाभी ने तो कलेजे से लगा लिया। कम उम्री में ग़म और वह भी बूढ़ी नानी का।
ज़रा से दिनों में ख़त्म हो गया और साथ की दूसरी नौकरानियों, कामकाज और
भाभी के बच्चों की मुहब्बत में और भी कुछ ज़्यादा न रहा, और आशा एक सीधी
पुरसुकून ज़िंदगी गुज़ारने लगी।
भाभी
आशा के न कोई भाई था न बहन। फिर भाभी का तो सवाल ही क्या था। मगर वह जब
कभी घर की चंचल और ख़ुशमिज़ाज बहू को देखती उसका दिल मुहब्बत से लरज़
उठता। भाभी का क़द मुन्ना-सा गुड़िया जैसा था, और वैसे ही छोटे-छोटे
कमज़ोर हाथ, मगर वह शरीर कितनी थी और क़हक़हे कैसे गूंजते थे जैसे चाँदी
के मोती आपस में टकरा रहे हों। वह किसी तरह भी तो तीन बच्चों की माँ नहीं
मालूम होती थी। निर्मल से थोड़ी ही बड़ी तो लगती थी और निर्मल भी जब पैदा
हो गया था तभी भाभी को सीधे पल्ले की साड़ी भी पहननी न आई थी, और शीला
भैंस की भैंस ! फूल जैसी माँ की कितनी फूली कुप्पा बेटी थी इतना खाती थी
कि माँ तो तीन दिन में न खा सकती और सबसे छोटा भैया तो बस ग़ज़ब था, हाँ
वह ज़रा भाभी का बेटा लगता था क्योंकि उस पर ही वह फ़िदा थी।
यह बेतुके
बच्चे और पति महाराज तो बस बृद्ध का मुजस्समा (प्रतिमा) थे। जितना बीवी हँसती उतना
ही वक़्त वह चुप रहते। किसी बनिए की परछाई पड़ गई थी बस सिवाय गाँव की
देखभाल के और कुछ नहीं बस मुस्कुरा देते थे और भाभी ? हर वक़्त तीतरी की
तरह उड़ती फिरती। उसके पति महाराज के मिजाज में जमीन और आसमान का फर्क़
था। मगर ऐसे ही सुकून से निभ रही थी जैसे जमीन आसमान की निभ रही है उनकी
बला से बीवी छोटी, कम उम्र और ज़िद्दी थी वह सास का कहना बस कुछ ऐसा ही
मानती, ज़रा-सी बात पर रूठ जाती, मुँह फुलाकर घंटों रोती, देवर से शिकायत
कर देती, यहाँ तक कि ससुर की लाड़ली होने की वजह से सास की शिकायत ससुर से
भी हो जाती वह थी भी तो उनसे उम्र में छोटी। हाँ और देवर से तो हर वक़्त
उसकी लड़ाई होती, शादी हो कर आई तो पहला प्यार देवर से शुरू हुआ और पहली लड़ाई भी
उससे हुई और उसने शर्म करना तो किसी से सीखा ही नहीं।
सुबह ही सुबह यह रंगीन भाभी उठ बैठती और बच्चों पर सफ़ाई का हुक्म सादिर
कर देती। हाँ तोपें ही हुईं, सुर्ख़ अंगारा जैसे दहानों की तोपें ! ज़रा
बोलो आग उगलने लगें ये गोरे ! लो ये घी के ज़िक्र पर गोरे कहाँ से आन
टपके।
हाँ तो पूरन हर इतवार आता था। आज बूढ़ी खिलाई को उसका इंतज़ार था, तो मींह
बरसने पर तुल पड़ा।
‘‘वाह तुझे क्या मालूम आएगा वह ज़रूर। ज़रा देख तो
कहीं...।’’
‘‘ए है कहीं भी नहीं आया।’’
रंजी की माँ उठने के डर से मारे जल्दी से बात टालने लगी।
‘‘कुछ खाया भी ? क्या हाल हो गया
है...।’’
उसने चाहा बुढ़िया को मौत की याद दिला कर धमकाये। इंतजार की चंद घड़ियाँ
ही गुजरीं थीं कि राजा साहब के मोटर की आवाज़ आई। बुढ़िया में जैसे थोड़ी
देर के लिए दम आ गया, वह मोटर की आवाज़ को ख़ूब पहचानती थी। मोटरे आतीं ही
कब थीं गाँव में, और ज़रा-सी देर में पूरन सड़े-भुसे पलंग पर मुहब्बत से
बुढ़िया के पास बैठ गया।
‘‘अम्मा यहाँ ठीक इलाज नहीं हो रहा है तुम्हें लेने
आया हूँ।’’
बुढ़िया तो जाने को तैयार थी, मगर कोई पूरन से भी ज़बरदस्त उसे तेजी से
घसीट रहा था।
‘‘अब तो परमात्मा के चरनों में चली
बेटा...।’’
‘‘कैसी बातें करती हो, और तुम तो कहती थी कि पूरन की
बहू
लाऊँगी, उसका बेटा खिलाऊँगी और फिर अब परमात्मा से छुट्टी लेकर आऊँगी, बस
आज ही चलो वहाँ तुम्हारा इलाज यूँ हो जाएगा।’’ पूरन
ने चुटकी
बजा कर कहा।
‘‘अब मेरा इलाज दुनिया के किसी डाक्टर से न होगा,
मेरी बात सुन।’’
‘‘नहीं अम्मा तुम...
‘‘सुन मेरे लाल ! आशा मेरी...मेरी बच्ची, मैंने इसे
बड़ा
खिलाया है, बड़ी प्यारी बच्ची है, उसे राजा साहब के चरणों में पहुँचा
देना, उसे दुःख न देना-...मेरी... और कहीं अच्छा लड़का ढूँढ़ कर उसका
ब्याह कर देना, अब उसके दुनिया में तुम्हीं लोग हो।
पूरन मौत के आसार भी न पहचानता था। ‘‘तुम ख़ुद ही
चलो।’’
‘‘मैं...मैं तो जाऊँगी, मगर..रंजी ढंग का
होता।’’
‘‘रंजी दुकान करने की सोच रहा है, बनिए ने वादा किया
है। रंजी की वालिदा बोली, दो दिन में चल निकलेगी।’’
हालांकि रंजी कई दुकानें कर चुके थे मगर जितने दिन माल...
‘‘भाभी आशा अपनी नौकर तो नहीं, वह काम क्यों करती है
?’’
‘‘काम क्या हम नहीं करते।’’
‘‘बड़ा काम करती हो, बच्चों को पीटना और इसके सिवा
तुम्हारे लिए क्या काम है मगर आशा कोई नौकर है।’’
‘‘काम करने से कोई नौकर नहीं हो जाता और फिर आशा को
ब्याह कर
जाना है, वहाँ क्या नौकर लगे होंगे। ग़रीब घर की
लड़की।’’
‘‘क्यों ग़रीब घर की लड़की से क्या होता है, वह ग़रीब
घर क्यों ब्याह कर जाएगी।’’
‘‘ग़रीब घर नहीं ब्याह कर जाएगी तो पूरन सिंह जी, तुम
कहीं से
उसके लिए शहज़ादा ढूँढ़ लाना।’’ वह ऐसे ज़ोर से कहती
कि सभी
तो सुन लें और पूरन डर जाता।
‘‘मैं ये थोड़े ही कहता हूँ भाभी, तुम तो चीख़ने लगती
हो, न
जाने तुम्हारा गला क्यों इतना चौड़ा है।’’ पूरन नीची
आवाज़ से
कहता और भाभी का बदला भैया ग़रीब के गालों और शीला की तोंद से लेता।
छोटे भैया
बड़ी बुढ़ियाँ कहती हैं तय्या मिर्चें ज़्यादा खा लो तो पेट में जो बच्चा
होता है वह बिल्कुल तेज़ मिर्च पैदा होता है। जब पूरन पैदा होने की था तो
शायद बड़ी बहूजी ने मिर्चें चाबीं थीं, बस उसे तो किसी कल क़रार ही नहीं
था जब तक कॉलेज में रहा ख़ैर। छुट्टियों में तूफ़ान आता था मगर अब तो वह
दो साल से घर पर ही किसी मुक़ाबले के इम्तिहान की तैयारी कर रहा था। यह
ख़ब्त भले-चंगे को न जाने कहाँ से हो गया था, घर की जायदाद इतनी थी कि बैठ
कर सात पीढ़ियाँ मज़े से खातीं मगर कॉलेजों में लड़कों के दिमाग़ गाँव से
घबरा जाते हैं दरअसल क़सूर अपने गाँव का है, वहाँ है ही क्या सिवाये
मालगुजारी के, जिसमें किसी का दिल लगे। बेवक़ूफ़ गधों से बदतर इंसान,
मैले, बदहंगम (कुरुप) टूटे-टेढ़े झोपड़ें, सड़ांधी पगडंडियाँ गन्दे नाले और उपलों
की भयानक क़तारे नीममुर्दा मवेशी और मलगुजे बच्चे, भला क्या दिल लगे ?
हाँ तो पूरन की बोटी-बोटी बेकल थी सारा दिन वह भाभी से उलझता बच्चों को
छेड़ता, छोकरियों से मज़ाक़ करता और चुपके-चुपके बड़े भैया पर जुमले कसा
करता।
‘‘भाभी ! सुनते हैं कि भाई साहब जब दुनिया में तशरीफ़
ला रहे थे तो काली बिल्ली रास्ता काट गई, बस देख लो।’’
‘‘हू...नहीं तो तुम्हारी तरह...हाथ ही टूटेंगे। मेरी
बच्ची का पेट क्या पत्थर का बना है कि सुबह से चुटकियाँ ले रहे हो।
‘‘तुम्हें तो अपने बच्चों की पड़ी रहती है, बच्चों के
बाप की नहीं।’’
‘‘भई बच्चे कौन मना करता है हर साल। मगर पति महाराज
सुबह से पड़े खाता टटोल रहे हैं...’
‘‘भाभी मैं कहता हूँ कभी तो हँसते ही होंगे भाई साहब।
कभी अकेले में तो...।’’
‘‘ऐसी जूती मारूँगी पाजी....।’’
अकेले में हँसने के ख़याल से ही भाभी लाल पड़ जाती।
बड़े भाई ही नहीं क्या वह नौकरों को छोड़ देता था ? चमकी को तो बाक़ायदा
चपतें लगाता। शेव करते में साबुन उसके मुँह पर मल देता, उसकी चुटिया पाये
से बाँध देता। वह तो ख़ैर जवान छोकरी थी और खिल भी जाती थी छेड़छाड़ से
मगर भोला की ताई का और उसका भला क्या जोड़ था वह ग़रीब टूटे-फूटे
काट-कबाड़ की तरह कोने में पड़ी रहती थी ढंग से सूझता भी न था, जाड़ों में
तो ख़ैर पुराना स्वेटर या कोट पहन लेती होगी। मगर चिलचिलाती गर्मी में तो
उसके कुर्ते ही फांस लगते थे। दालान में धूप भी आ जाती थी और कोठरी में
घमस बला की, इसलिए वह टूटा हुआ पंखा लिए दालान में ही ऊँघा करती। पूरन
उसके पास जा बैठता।
‘‘ऐ भोला की ताई ये जवानी क्यों खाक़ में मिला रही
हो।’’
बुढ़िया सिर्फ घिन्ना कर देखती और मुँह फेर लेती कि शायद बेरुख़ी से बात
टल जाए।
‘‘मैं कितना कहता हूँ तुमसे कि...भई अभी उम्र ही क्या
है।’’
‘‘अरे हट इधर-मैं क्यों...।’’
‘‘यही तो तुम्हारी निठुराई मुझे पसन्द नहीं, मैं कहता
हूँ।’’
‘‘क्या कहता है ?’’ भोला की ताई
की आवाज़ बुड्ढे मुरदुवे जैसी थी।
‘‘अरे ! यही कहता हूँ..कि...कि तुम कुर्ता क्यों नहीं
पहनती
हो’’, वह कोई क़ाबिले-एतिराज़ बात न पाकर ही कहता।
बुढ़िया चटाई से डटी रहती पर जवान छोकरियाँ यह सुनकर शर्म से गड़ जातीं।
भाभी भी बात टालने को दूसरी तरफ़ मुतवज्जा हो जाती जैसे उसने सुना ही
नहीं।
‘‘अरे क्या पहनूँ’’, अब बुढ़िया
फ़लसफ़ा छाँटती।
‘‘क्यों नहीं पहनो कहो तो मैं ला दूँ दो-चार पोलके
?’’
‘‘चल पोलकों के सगे।’’ बुढ़िया
की बदमिज़ाजी कम न
होती। कितना कहता हूँ, ‘‘भोला की ताई की मेंहदी लगाया
करो,
सुरमा काजल’’। छोकरियाँ हँसती और भोला की ताई
मोटी-मोटी
गालियाँ बड़बड़ाती।
‘‘यह तो चुड़ैलें तुमसे जलती हैं भोला की
ताई’’ और वह आहिस्ता-आहिस्ता उसके पास खिसकता।
‘‘अरे क्यों मुझ पर चढ़ा चला आए है, उधर हट
बेटा।’’
‘‘मुझे बेटा कहती है ?’’ पूरन
संजीदगी से बुरा मानता।
‘‘हाँ भैया ज़रा गर्मी है उधर
बैठ।’’
‘‘अरे भैया कहती हो मुझे ?’’
पूरन और भी बिगड़ता।
‘‘बेटा न कहूँ, भैया न कहूँ तो क्या ख़सम कहूँ तुझे
?’’ और बुढ़िया मोटी मोठ मुग़ल्ला ज़ात सुनाती।
‘‘मैं तो कहता हूँ फेरे करा लो मुझसे। क्या होगी
तुम्हारी उम्र ?’’
‘‘अरे क्यों शामत आई है तेरी,
‘‘हरामी’ ’’, बुढ़िया
भर्रायी हुई आवाज़ से गुर्रायी।
‘‘भोला की ताई जब गालियाँ देती हो तो बस जी चाहता है
कि मुँह चूम लूँ वाह...वाह।’’
और फिर गालियों को ग़ैर मुआस्सिर (निष्प्रभावी) पाकर भोला की ताई मारने पर तुल जाती।
लौंडियाँ, बांदियाँ लपेट में आ जातीं और वह उन सबको नंगी-नंगी बातें
कहतीं। यहाँ तक कि पूरन भी झेंप कर भाग खड़ा होता।
बुढ़िया बड़ी बहूजी के पास फ़रियाद लेकर जाती तो छोटी बहू उल्टा छेड़ने
लगती।
‘‘अरे भोला की ताई कर लो न ऐसा क्या बुरा है ये
लड़का।’’
मगर भोला की ताई कुछ ऐसी बातें कहती कि छोटी बहू सुनने से पहले ही दूसरे
कमरे में चली जाती।
चमकी
चमकी उस गाँव की थी, जहाँ आशा की नानी मरी थी उसे सब चमकी इसलिए कहते थे कि गाँव की हर तीसरी लड़की का नाम चमकी ही रखते हैं। आप कानी, खुरी, भुजंगा लड़की को देख कर यही सोचेंगे कि इसका नाम ज़रूर कल्लो या रद्दोह वगैरा होगा लेकिन वह चमकी निकलेगा मगर चमकी थी भी चमकी उसकी आँखें चमकतीं थी, गाल चमकते थे और बाल तो लोहे के पालिश किए तारो की तरह चमकते थे, उसकी कमर भी चमकती थी और हाथ भी चमका करते। जब वह नाचती तो तारे भी नाचने लगते, आवाज़ भी ऊँची और पतली थी। आशा जैसी मुन्नी ऐसी कमज़ोर और शर्मीली न थी कि सुनो तो जी चाहे सो जाओ उसकी आवाज़ पर तो सोते सपने जाग पड़ते थे जब बाहर जाती तो दरबान चपरासी और अर्दली सब गुनगुना उठते और धोबी तक की बाजुओं में बल आ जाता और आवाज़ ऊँची हो जाती मगर वह बाहर निकलती तो चितवनें चढ़ी नाक फड़कती और होंठ सुकड़े, वह पैसे के चार-चार भी नहीं पूछती थी, यहाँ तक कि मुंशी जी जो ख़ासा एफ़ ए. पास थे जब घूमी-घूमी आँखों से उसे देखते तो एक झटके के साथ मुड़ जाती। हाँ पूरन के घूसे-खाकर जब उसकी कमर में मीठा-मीठा दर्द उठता तो खिल जाती। वह था भी तो कितना बेढंगा, बीरा तो उसका काम कर ही न सकता। सारे तो कपड़े चर जाते और फिर भला नौकर कौन उसकी चीजें संभाल सकता था। एक कपड़ा निकालना होता तो वह सारी अलमारी उलीट कर फेंक देता। एक जूता पहनता और चार उठाकर दूर पटकता और किताबें तो ताश के पत्तों की तरह फेंट कर रख देता, आइने की मेज़ पर जैसे कोई गुस्ल कर रहा हो सब भीगा हुआ और जगह-जगह साबुन फिरा कर चमकी साफ करती तो उल्टी चुटकियाँ और घुसे इनाम में मिलते।
वह सुबह ही सुबह एक मशगूल दरोगा की तरह उसके कमरे का इंतज़ाम शुरू कर देती और बला से कोई काम हो या न हो आशा कुमारी का हाथ बँटाने को पूरियाँ बेला करती और वह ताजे-ताजे फूल गुलदानों में लगा कर पूरन का कमरा गुलज़ार कर देती। पहले तो ये छोकरियाँ इंजन गाड़ी के आगे आकर लेट जातीं हैं और फिर जब कुचल जाती हैं तो हाय-तोबा मचाती हैं। बदनामी, बेइज़्ज़ती और दुनिया लुटने की धमकियाँ ले बैठती हैं, और अपना ऐब ग़रीब समाज के सर थोपतीं हैं। ख़ुदा की शान है फिर भी दुनिया उन्हीं के साथ मातम में शरीक हो जाती हैं तो चमकी भी जान-जान कर इंजन के आगे पसर जाती थी। वह तो इंजन ही कुछ बे आग-पानी का था कि यूँ ही सीटियाँ देता, धुआँ उड़ाता, पटरी बदल कर आगे निकल जाता था-खैर जो गरजते हैं कभी-न-कभी बरस ही रहते हैं। दूसरी नौकरानियों को उसका यह ढलाना एक आँख न भाता, जले-कटे जुमले चलते रहते।
चुहिया से बिल्ली भी तो खेलती है, चुहिया ऐंठ जाती है कि वह उससे लाड़ कर रही है।
लता का दिमाग़ बड़ा फलसफ़याना था और थी भी छः बच्चों की माँ। "अरी घिस-घिस किए जाती है याद ही करेगी। राजा लोगों के बेटे का क्या ठिकाना।" भोला की ताई चमकी की रक़ीब तो न थी।
आशा सुनती तो कुछ न समझती, पर वह पूरन से वैसे ही डरती थी, उसे याद था कि एक दिन जब वह शीला की फ्राक पर मशीन चला रही थी पूरन आन जमा और लगा बातें बनाने।
"हर वक़्त का काम, मैं कहता हूँ आशा ज़रा मेरा भी कोई काम करो।"
"क्या काम है आपका।" आशा मशीन पर झुक गई।
"मेरे काम हज़ारों! यही कि मेरे सब बटन धोबन तोड़ लाती है गरीबान चाक फिरता हूँ।"
"कौन-सा बटन टूट रहा है सारे तो टांक दिए", चमकी बिगड़ी।
"तुझसे कौन कह रहा है?...मैं तो कहता हूँ आशा आज तक तुमने मेरा भी कोई काम किया और तुम! इतना काम भी क्यों करो, कोई किसी की नौकर हो?"
“सभी काम करते हैं, मुफ्त की रोटियाँ कौन तोड़ता है।"
चमकी चाहती थी कि कोई उसकी सुने मगर पूरन आशा के पास ही खड़ा रहा।
"इतना काम करती है, इतनी दुबली-पतली लड़की, मैं माता जी से कहूँगा इतना तो काम न लें...और..."
"नहीं...मैं...मुझे काम करना अच्छा लगता है।"
"कुछ नहीं और कोई क्यों नहीं करता। यह चमकी इतनी भैंस की भैंस हो रही है यह क्यों नहीं सीती।"
हालाँकि चमकी बराबर भाभी जी की साड़ी टांक रही थी। आशा उसकी भड़की हुई आँखें देख कर काँप गई।
"बस जी हटाओ सीना", पूरन ने कपड़ा खींचा।
“जी नहीं", आशा का जी चाहा कि मशीन में घुस जाए।
"मैं कहता हूँ मत सिओ न।"
शीला कहीं बाहर जा रही है, जल्दी है।
"कुछ जल्दी नहीं, अच्छा तो लो सिओ", और पूरन ने मशीन की सूई के आगे उँगली रख दी।
"ओ न, ये कैंची मारी पीटी।" चमकी ने ज़ोर से कैंची पटखी। आशा उछल पड़ी और चमकी दरवाज़ा धड़धड़ाती चल दी।
"ये चुडैल क्यों गुस्से होती है। आशा तुम्हारे कैंची लगी तो नहीं। मैं अभी ठीक करता हूँ भूतनी को।"
"छोटे भैया अगर आप यूँ ही हमारे सर पर सवार रहे तो काम हो चुका।" लता चमकी की शिकस्त (हार) से दिल ही दिल में खिली जा रही थी।
"अरी लता बड़ी बदमिज़ाज है, तू क्यों चिढ़ती है तुझसे तो मैं बोल भी नहीं रहा।
"बस, बस भैया हमसे यह...वाह कोई बात है, जाते हो कि..."
“अगर तुम बजाये यहाँ छोकरियों के साथ वक़्त गँवाने के, बाहर आन -बैठते तो क्या अच्छा होता।"
- भैया दरवाजे में खड़े थे, पूरन खिसियाना होकर सिगरेट बुझाने लगा।
"दो घंटे से सेठ टीकाराम बैठे दिमाग चाटा किए...कुछ काम न करने दिया। तुम होते तो मैं जरा दफ्तर चला जाता।".
"भैया मेरे सर में तो इतनी ताक़त है नहीं कि टीकाराम जी की बकवास बर्दाश्त करूँ।" पूरन मुँह बनाने लगा।
"कुछ भी हो बहरहाल तुम बाहर जाकर बैठो।"
“अच्छा हुआ डांट पड़ी अब ठीक हुए।" लता मुस्कुराई दरवाज़े पर चमकी से टक्कर हुई वह भिन्नाई हुई निकली। पूरन की चुटकी भरी पसली में सारा मैल धुल गया। चमकी चमक रही थी, गुस्से से नहीं।
फूल
खाने का कमरा...बरामदा, भाभी जी...बड़े भैया और...हम? आशा ने गुलदान गिनते-गिनते चौंक कर पीछे देखा। पूरन दियासलाई चबा रहे थे।
"मेरे कमरे में तो फूल भी नहीं लगाए जाते।"
"लगाती तो है चमकी..."
"फिर वही चमकी...चमकी लगाती है तो क्या। सारे घर में तो फूल लगाए जाएँ और हमारे कमरे में नहीं आज शिकायत करूँगा।"
"तो लगा दूँगी आपके कमरे में भी।" और वह बचे हुए फूलों में से चुनने लगी।
“जी नहीं ये मरे हुए सफेद फूल नहीं, जैसे किसी मुर्दे पर डाले जा रहे हों ये लगाइए सुर्ख वाले।" तो फिर आशा ने वही लाल-लाल फूल पूरन के यहाँ लगा दिए। मगर उसका दिल धुकड़-पुकड़ करता रहा जैसे वह चोरी कर रही हो उसने कभी अशद (अति आवश्यक) ज़रूरी काम के बगैर पूरन के कमरे में कदम न रखा था और जो चमकी आ जाए तो।
और खाने के वक्त पूरन ने आहिस्ता से उसे फूल लगाने के शुक्रिया में नमस्ते किया। वह जल्दी से थाली लेकर भाग आई। जब दोपहर को वह बरामदे के पास से होकर अपने कमरे में जाने लगी तो जैसे किसी ने उसे ठोकर मार दी। लाल-लाल फूल मोरी के पास बिखरे पड़े थे। तेज़-तेज़ कदम उठाती वह अपनी कोठरी में चली गई।
“यही सज़ा है मेरी गुस्ताखी की," वह ज़मीन पर लेटी-लेटी अपने जी में कोसती रही जैसे कोई बड़ा वाक़या हो गया। शर्म, खुद से नफ़रत और न जाने क्या-क्या ख़यालात, उसके परेशान दिमाग़ में घूमने लगे। मुर्झा भी तो गये, न जाने कब से पड़े होंगे बेचारे। पल भी तो गए। सोचा कि एक मखसूस सीटी की आवाज़ पर वह चौंक पड़ी, वैसे तो उसे काम में इतनी फुरसत न होती कि कुछ देखे और देखा भी कब जाता था, मगर अकेली कोठरी में जहाँ कोई न जा सके वह दरज़ (छेद) में से ज़मीन पर लेट कर देखती थी। वह शरीर मुस्कुराता हुआ चेहरा गौर से देखने में कैसा है। दिन में हज़ार मर्तबा देखकर भी वह उसकी एक अदा न याद कर सकी थी। बात यह थी, वह देखती ही थी। चप्पलों में बड़े-बड़े सफेद पैर और धारीदार पाजामे का कुछ हिस्सा आकर फूलों के पास ठिठक गया जैसे ठोकर लगी। आशा ने सांस रोक ली, दो हाथ झुके और बिखरे हुए फूलों को समेट लिया। आशा की आँखें बंद हो गईं और वह जमीन से चिमट गई, जी चाहता था इसी ज़मीन में डूब जाए। उसी ने तो ये लाल-लाल फूल चुने थे। "ये किसने ताज़ा फूल फेंक दिए, मुफ़्त का बाग है न"-आवाज़ आई और चप्पलें बरामदे में चली गईं।
आशा देर तक माथा टेके ज़मीन पर लेटी रही-इसी ज़मीन ने तो फूल खिलाए हैं, लाल-लाल।
जब वह शाम को छोटे मुन्ने की गाड़ी पकड़े लौट रही थी तो पूरन ने आकर बच्चे को प्यार करना शुरू किया।
"अरे मुन्ने तेरे गाल तो जी चाहता है खा जाऊँ और तू कितना नटखट है-मुन्ने तू बड़ा चुपका बना रहता है, पर मैं जानता हूँ है तो बहुत ख़राब हर वक़्त का काम, मुझे तो हर वक़्त काम रहता है, भगवान करे ये काम तो दुनिया ही से मिट जाए। ये नहीं कि तू कभी किसी से बात भी करे। आशा चुपकी खड़ी हैंडिल घुमाती रही। बात ये है कि, तू समझता है हम बुरे हैं-हवा हैं, तुझे खा जाएँगे।
पूरन ने सर ऊपर उठा कर देखा-आशा उसकी आँखें देखकर डर गई। "तुम समझती हो कि हम शेर हैं-फाड़ खाते हैं।" अब वह बराहे-रास्त आशा ही से कह रहा था, मगर ख़िताब मुन्ने ही से था और क्या अजब अगर बोल दो तो अभी खा ही लें। आशा की परेशानी से उसे शायद रहम आ गया और फिर झुक गया।
“और मुन्ने...हमने वह फूल उठा लिए...देखो न चमकी बड़ी बुरी है, क्यों है न?...हाँ, वह तो बुरी है ही। वह फूल लाल-लाल मुन्ने के गालों जैसे...हमने अपनी दराज़ में डाल दिए हैं-सुना, हाँ और भई तुम्हें ढेर-सा काम होगा...और क्या।"
“जाइए तशरीफ़ ले जाइए, जाइए।" आशा गाड़ी बढ़ाती चलाती गई।
जब वह इन लाल-लाल फूलों की क्यारी के पास से गुज़री तो सारे फूल आहिस्ता-आहिस्ता मुस्कुरा रहे थे-आँखें बंद किए मुस्कुरा रहे थे।
होली
मौसम भी इंसान से खिलौने की तरह खेलता है। गर्मियों में जी चाहता है-बर्फ के समुन्दर में कूद पड़ें और कोई बोले तो मुँह पर मारें। घिस-घिस गर्मी, हल्का-हल्का दर्द, पंखा नहीं तो मालूम हो कोई उबाल रहा है। होले-होले पंखा चलाओ तो सर घूम जाए, तौबा! और जाड़ा-सुस्ती-नींद, ठंड-ठंड हर चीज ठंडी-दिल भी ठंडा बसंत आई और कले फूले सोई-सोई चीजें कुलबुलाई। बे-बात रग-रग में शरारत ने चुलबुलापन शुरू किया। बेचैनी ने गुदगुदाना शुरू किया और होली पर फट पड़ा पहाड़-अगर होली न आए तो यह दिल दीवाना होकर छाती फाड़ कर निकल भागे-थमा दरिया कितनी देर थमे और फिर जब बंद में दम भी हो। मगर बन्द बाँधे ही क्यों? होली के दिन तो आशा भी झूम निकली-भाभी की तो खैर, सुबह से हद-गत ही थी। रंग की डली बनी हुई थी। तीन धोतियाँ बदल चुकी थीं, और फिर भी खाल तक रंग उतर गया था, ये गुलाल में क्या तासीर होती है, क्या कोई कीमयावी जुज्व (रासायनिक तत्त्व) ऐसा भी होता है जो शराब का असर रखता है, जितना मलो उतना ही इंसान पर भूत सवार हो जाता है।
आज तो बड़े भैया भी न बचे थे। भाभी के बाद आशा ने इन्हीं की गत बनाई। भर-भर बाल्टी वह इन्हीं पर डालती थी, और गुलाल भी थोपा और खुद क्या फुर्ती से साँप की तरह पिघल जाती और इधर पूरन ने मैदाने-हश्र बरपा कर रखा था। जब भाभी औंधी लेट गई तो वह भोला की ताई पर फैल पड़ा।
“अरे मुंडे! तेरा मेरा क्या मेल।" वह मर्दाना आवाज़ में गुर्रायी।
“अरे भोला की ताई, तेरे सिवा किससे हो सकता है। देखो गये जनम में तुम ज़रूर मेरी थी, जभी तो।"
झुलसे हुए बालों में अभ्रक और गुलाल ने गुलज़ार खिला दिए और फिर भोला की ताई की पुरमानी दक़ीक़ गालियाँ।
“अरे पूरन ज़रा इसे आशा को ले।" बड़े भैया अपना पीछा छुड़ाने को बोले। “अब इसे भुगतो तो जानू...डाल...अरे डाल।"
लोग चारों तरफ़ से आशा को शै देने लगे, और वह सटपटाई। पूरन पूरे जलाल से बढ़ता आ रहा था। पानी तो उसने गिलास भर डाल दिया, गुलाल का हाथ रुक गया। उसके मुँह पर रंग न होता तो कोई देखता कहकशाँ (आकाशगंगा) की बहार।
पूरन क्यों चूकता। उसने तो उसे बेदम कर दिया। कीचड़, फिसलन, नाक, मुँह आँखों में रंग की बदलियाँ छायी हुई और आशा का घबराया हुआ दिल। पैर जो फिसला तो बरामदे से नीचे।
"मारे डालेगा। पूरने के बच्चे।" भाभी चील की तरह झपटी।
"देखो तो कैसा सूजा है।" भाभी प्यार से आशा का पैर सेंकती जाती थी और पूरन को सलवाते सुना रही थीं। “आपे में थोड़े रहता है।"
"अरे भाभी, अब छोड़ो भी। पूरन आकर पास ही बैठ गया और रुई सेंक-सेंक कर भाभी को देने लगा।
"शर्म नहीं आती...ये नहीं देखते-देव के देव और ये ज़रा-सी छोकरी. ..महेश से खेलता तब बताता वह तुझे।" भाभी अपने भैया महेश को बस जाने क्या समझे थी।
“मगर भाभी कोई लड़कों से भी होली खेलता होगा। महेश से क्यों खेलता।"
"तो फिर तुझे इस कमज़ोर नन्ही पर ही बस चलाना आता है।
"मैं बताऊँ भाभी।" भाभी गौर से सुनने लगी। "ये करो कि एक छुरी लो और गर्दन पर चला दो-समझीं।"
"हाय राम!...मगर..."
"मैं...मैं...मैं न..." कोई रोया और भाभी झपटीं। पूरन रुई सेंकता रहा।
"खूब डाँट पड़वाने की तरकीब निकाली।" वह रुई आशा के पैर पर रखने लगा। आशा ने रुई लेनी चाहिए।
"मैं सेंक दूं, फिर भाभी से डाँट डलवाओगी।"
मगर आशा ने दोनों हाथों से पैर छिपा लिया।
"अब अच्छा हो गया। खूब, इतनी जल्दी अच्छा भी हो गया।"
"हाँ आशा ने जल्दी से फैसला किया।
"मैं कहता हूँ!...भई...", वह लाचार हो गया।
"देखो, फिर मैं कह दूँगा भाभी से।" वह डराने लगा।
"क्या कह देंगे।" आशा परेशान हो गई...कितने बहुत से चोर थे उसके दिल में।
“यही मैं कह दूँगा...फ़ौरन कह दूँगा। आशा डर कर ताज्जुब से उसका चेहरा तकने लगी। “हाँ अब ठीक है।" वह उसका पैर सेंकने लगा।
“देखो बात ये हुई...ये बात हुई।" वह आशा को बातों में लगा रहा था। आशा सांस रोके ऐसे सुन रही थी गोया अब उसने कोई अहम राज़ खोला और अब खोला।
“सुनो मैं यह कह दूँगा। मेरा मतलब है अगर तुम पैर ठीक से न सेंकती तब...कह देता।"
"क्या?" “आशा मुझसे नफरत करती है।"
भाभी आ गई और आशा घबरा-घबरा कर उँगलियों से पैर मसलने लगी। चोट कैसी दुखती हुई थी। नफ़रत! नफ़रत तो आशा ने किसी से करना सीखी ही न थी-और पूरन से वह...नफ़रत।
आँख मिचौली
पूरन ऐसा बच्चा तो न था जितना बक़ौल भाभी बनता था। उसे लाड में हमेशा बच्चा ही समझा गया, और फिर चुलबुलापन तबीयत का बच्चा बनाए रखता था। जहाँ उसे मौका मिला और नौकरों के घर के बच्चों के साथ मिल कर ऊधम मचाना शुरू कर दी। मैले, सड़े बच्चे नंगे-नंगे पैर कुर्सियों गद्दों पर चढ़ जाते वह ऊधम मचती कि भाभी का सिर घूम जाता और डंडा लेकर सारे बच्चों पर पिल पड़ती।
दो रोज बाद कमला जी अपने मैके आ रहीं थीं। भाभी ननद की खातिर सारा घर झाड़े फेंक रही थी। कई दिन से पूरन के लिए घर तो मुसीबत हो गया था, जिधर देखो झाड़ पोंछ, दम उलट गया। उसके खुद के कमरे पर भाभी का राज था। ननद के साथ ननदोई भी आ रहे थे और माता जी का घबराहट के मारे बुरा हाल था, बड़े जागीरदार थे, और फिर समधियाना, क्या अजब और समधियाना बढ़ जाए, कमला की छोटी ननद शान्ता कुंआरी थी, और पूरन भी अब जवान हो गया था।
पूरन बच्चों के साथ न जाने किस वक़्त ड्राइंग रूम में घुस आया और शुरू हो गई आँख मिचौली। जब आशा शामते-आमाल से कमरा दुरुस्त करने आई तो गदर बरपा था।
"बाहर जाइए! कमरा साफ होगा।" उसने कारोबारी लहजे में कहा।
“अब ये कमरा साफ होने लगा।"
“जी हाँ।" उसने आहिस्ता से कहा और कुर्सियाँ हटाने लगी।
“जी नहीं...! नहीं होगा। सारे कमरे साफ़ ही हुए चले जा रहे हैंवाह...! हम यहाँ खेल रहे हैं, आओ तुम भी खेलो आशा!"
"हाँ...हाँ...", बच्चे चिपट गये।
"हाँ भई ये भी खेलेंगी, दाई बनेंगी।"
"नहीं...मैं नहीं खेलती-नहीं भई मैं नहीं।" मगर पूरन ने उसे पकड़ कर कुर्सी पर बैठा दिया।
"हाँ, भई अब शुरू करो, हम चोर", और वह ज़मीन पर फसकड़ा मारकर बैठ गया।
"लो भई ईमानदारी से आँख मींचो।" उसने आशा के घुटने पर माथा टेक दिया।
“जी नहीं... भाभी ने कहा है।"
"कुछ नहीं कहा है...हाँ मींचो...जल्दी-जल्दी और वह उसकी साड़ी के आँचल से अपनी आँखें बाँधने लगा।
"भई चाचा बेईमानी, की नहीं।" निर्मल व्यापारी का बेटा था न।
“अरे ये तुम्हारी आशा जी-जी बेईमानी कर रही हैं, देखो ईमानदारी से मींचो...यूँ...ऐसे हाँ।" आशा के दोनों हाथ पूरन ने अपनी आँखों पर रख लिए। आशा के हवास गायब, उखड़ी-उखड़ी भागने पर तैयार, मगर बच्चे छुप गए और खेल शुरू भी हो गया।
"देखो भई यह बेईमानी है।" आशा ने हाथ छुड़ाना चाहा।
"हाँ, खा जाता हूँ मैं। आखिर तुम मझसे इतना डरती क्यों हो, तम्हारा डर निकाल कर छोडूंगा। समझी आशा देवी! सुनो मैंने कभी तुम्हें दुःख पहुँचाया है, जो तुम मुझे देखते ही घबरा जाती हो? आशा आख़िर क्यों भैया से खूब बोलती हो। भाभी से घुल-घुल कर बातें होती हैं, भोला की ताई तक से हँस-हँस कर दोस्ती की जाती है, एक मैं ही हूँ, बोलो।"
वह आँखें खोले आँख मिचौली के कवानीन तोड़ रहा था, मगर आशा की बुरी हालत थी।
"छोटे भैया! देखिए, अच्छा मैं फिर कमरा साफ कर लूँगी, आप खेल लीजिए।"
"मैं खेल रहा हूँ, पूरन की आँखें बड़े भैया से भी ज्यादा संजीदा थी...तुम्हें मैं हर वक़्त ही खेलता नज़र आता हूँ। ये सब खेल है ज़िन्दगी...मेरी जिन्दगी...मेरी...मेरी तमाम बातें...ये सब खेल हैं? तुम इसे खेल समझती हो आशा।"
"मैं तुम से खेल रहा हूँ?...तुम्हें कैसे यक़ीन दिलाऊँ आशा।"
“छोटे!" कोई बच्चा पुकारा।
"कि ये खेल...मैं खेल नहीं रहा हूँ आशा...सुनो! मैं...मैं" वह परेशान हो कर निर्मल बोला।
"अरे भई छोटे!!" ज़रा बेचैन हो कर निर्मल बोला।
सोफे के नीचे झुके-झुके उसकी गर्दन दुःख गई थी।
"तुम...खेल न समझो! परमात्मा के लिए, कोई मैं बच्चा हूँ, सुनो आशा तुम अगर मुझसे नफरत करती हो तो ठीक बात है, बिल्कुल ठीक अब मैं समझ गया तुम मुझसे नफ़रत करती हो।"
आशा बेकली से सिर झुकाए बैठी थी, उसने बमुश्किल पूरन की तरफ़ देखा...वह कोई बच्ची न थी, बल्कि बदकिस्मती से वह बच्चा न थी, वह खूब समझ रही थी, आज से नहीं, न जाने कितने दिन से, उसका रुआँ-रुआँ समझ रहा था।
"भाभी आती होंगी।" उसने उसका सिर हटाना चाहा।
"चाचा...भई छोटे...हम नहीं खेलते, शीला बड़बड़ाई कहीं कोने में से।
"बस मेरी बात का जवाब दो, तुम्हें मुझसे नफ़रत है।"
आशा को थोड़ी देर तक सिर उठाने की हिम्मत न हुई और फिर वह अपनी आँखें तो उठाते ही काँप रही थी, मगर उसने हिम्मत की न जाने कैसे, बस सिर उठाकर उसने पूरन की आँखों में अपना जवाब डाल दिया और फिर उसका चेहरा दोनों हाथों पर झुक गया।
“आशा" भाभी की आवाज़ आई...पूरन जैसे सकते में बैठा खूब पकड़ने की कोशिश कर रहा था। संजीदगी जो ज़रा देर पहले उसके चेहरे को नीम मुर्दा बनाए थी, यकलख्त (एक पल में) काफूर हो गई, एक सैकिंड को वह रुका और फिर 'छूटे' मसर्रत और जज़्बात का चश्मा-सा बह निकला और वह बच्चों में उलझ गया। आशा जैसे कुछ बिखरी हुई चीज़ समेटने अंगीठी के पास झुक गई, वह डर के मारे आँखें मींचे हुए जल्दी-जल्दी कालीन पर टटोल रही थी उसका जी चाहता था ज़मीं में उतरती चली जाए, और ठीक उसके कलेजे में छुप जाए।
"ये क्या हो रहा है?" भाभी ने बमुश्किल चीख-पुकार में चिल्ला कर पूछा।
"आँख मिचौली...भाभी...!" पूरन ने मस्त शराबी की तरह झूम कर कहा, “आओ तुम भी खेलो।"
"चूल्हे में जाए आँख मिचौली, आशा ये कमरा साफ़ हो रहा है?"
"बात ये है भाभी कि हम आँख मिचौली खेल रहे थे और...आशा जी दाई बनी थी।"
“हाँ...और...भाभी दाई बनेंगी।" वह भाभी को गोद में उठा कर घूमने लगा।
“हाय पूरन...अरे पूरन...छोड़ मुझे।" भाभी के गुदगुदियाँ इतनी हुई कि वह बच्चों को डाँटना भूलभाल अपनी जान छुड़ाने लगी।
देवरानी
देवर जितना चटपटा लफ्ज़ है उतना ही देवरानी सूखा-सूखा। जब तक देवरानी नहीं आती, भाभी ही घर की रानी होती है और देवर जी की दिलचस्पी का मर्कज़! इधर आई देवरानी उधर चला देवर। अब वह हर बात आकर भाभी ही के कान में नहीं कहता बल्कि चुपके-चुपके अपनी रानी से भाभी की शिकायतें सुन-सुन कर ज़हरीला कांटा बनता जाता है, वही भाभी जिसे देखे बिना खाना कड़वा लगे, जिसे रुलाने में मज़ा मिले और रूठने पर गले में बाँहें डालने को मिलें जब रानी आ जाती है तो 'नमस्ते भाभी जी' रह जाती है।
"भाभी तब तो दो हो जाएँगे, वह तेरी गत बनाएँगे कि याद ही करेगी।" भाभी के शादी के ज़िक्र पर बोला।
"ऊँह! दो हो जाएँ कि चार हो जाएँ, तुम भी सदा पिटोगे और वह भी।"
"और भाभी तुम उसे मारोगी-जी न दुःखेगा तुम्हारा।"
"शरारत करेगी तो पिटेगी ही।"
"और जो वह बहुत भोली भाली हुई तब?" पूरन ने आशा को उचटती हुई निगाहों से देखा जो मुन्ने को लिए घास पर ज़रा दूर बैठी थी।
“भगवान न करे जो तेरी बहू भोली हो, चबा डालेगा तू फिर उसे।"
"अरे भाभी...तोबा-तोबा...कोई मैं कुत्ता हूँ, वाह क्या समझ लिया है लोगों ने मुझे?"
"बस हम तो कोई सुंदर-सी ढूँढ रहे हैं।" "ढूँढ़ रही हो...वाह कब तक ढूँढ़ोगी? जब बूढ़ा हो जाऊँगा तब ढूँढ़ चुकोगी।"
"है तो भई एक नज़र में...एक सुन्दर है कि क्या बताएँ।"
“सच भाभी? और मेरी भी नज़र में एक बहुत सुंदर-सी है।"
आशा जल्दी से मुन्ने के सिर की आड़ लेने लगी। बहाना मिलता तो वह कभी की भाग गई होती।
“भला कहाँ होती तुम्हारी नज़र में? चल झूठे! पूरन तूने देखा है...कमला की ननद को।"
"कमला की ननद को तो नहीं-हाँ...कमल देखा है।"
"वह आशा की आँखें ढूँढ़ने लगा, मगर वह ऐसे घास को घूर रही थी गोया इसमें कहीं घुसने के लिए सुराख तलाश कर रही हो।
"क्या शांता भी आ रही है?" बड़े भैयाजी बोले-जो ज़रा हट कर आराम कुर्सी में लेटे अख़बार पढ़ रहे थे।
"नहीं-आ तो नहीं रही है-पर तुमने देखा है उसे।"
"हाँ, छोटी-सी को देखा था-एफ.ए. में पढ़ती है शायद ?"
"और क्या?" भाभी मुन्ने को संभालने लगीं, जो आशा के पास से रेंग आया था, और वह कुछ खोई-सी भागने का बहाना ढूँढ़ रही थी, वह उठने ही वाली थी कि भाभी बोली।"
“आशा इसे ले बला को...।" आशा लेने लगी मगर मुन्ना अकड़ गया, और पूरन पर चढ़ आया।
"देखो भाभी कितना ही मारता हूँ मगर बड़ा ही ढीठ है, हँसता ही रहता है ?"
"तुमने ही कर दिया ढीठ इसे।" “भई, भाभी अपनी देवरानी तो तुम मुन्ने की शक्ल की ढूँढ़ कर लाना।" आज देवरानी के ज़िक्र में पूरन को चाट का मज़ा आ रहा था। “ओ हो...क्या मिसाल दी है, इस बन्दर की शक्ल की।"
“अच्छा तो, फिर अपनी शक्ल की लाना...मुन्नी-सी, दुबली-पतली...ये क्या बात है कि भाभी तुम्हारे चुगद जैसे भाई तो हैं और बहिन एक भी नहीं।"
"भाभी अपनी नन्ही-सी बहिन को याद करने लगी जो चेचक में मर गई वरना उससे अच्छी देवरानी कौन हो सकती थी और वह उसका ज़िक्र करने लगी कि कैसे घुटनियों वह चलती थी, और तुतलाती और उससे लड़ती थी।
"ऐ है! भाभी भला इतनी-सी तोतली बीवी किस काम की।"
"अई, तो क्या वह अब भी तोतली ही होती, निर्मल से चार साल बड़ी थी, खासी बारह तेरह की होती।
"ऊँ हूँ ये बात नहीं पसंद आई, भई ये आख़िर बड़े भैया में क्या लाल जड़े हैं कि उनकी बीवी इतनी अच्छी, भैया हर बात में अव्वल रहते हैं। दुनिया में पहले आप आएँ और पहले ही से इतनी अच्छी बीवी झपट ली, आखिर मैं क्यों पहले पैदा न हुआ।
“चल पगले।" भाभी शर्मा गई और बड़े भैया भी बीवी की तारीफे-हुस्न से झेंप कर मुस्कुराने लगे, ये पूरन हमेशा ऐसे ही बका करता था।
“अरे!" पूरन अपने क़लम का दर्दनाक हश्र देख कर तड़प गया। भैया ने न जाने कब उसकी जेब से निकाल कर उससे ज़मीन खोदनी शुरू की और अब जो उसमें से सियाही निकल रही थी वह मजे से मुँह बना-बना कर पी रहा था।
“ए हे...जभी मैं कहूँ कैसा चुपका पीठ किए बैठा है।"
"पाजी कहीं के!" पूरन ने उसके गाल नोचे और उसकी मोटी-मोटी टांगे पकड़ कर घसीट लिया।
“ए वाह चल मेरे बच्चे को छोड़।"
“आज भाभी इसे मार डालूँगा...इक्कीस रुपए का क़लम था मेरा।"
"चलो तुम इसके अब्बा का कलम ले लेना, इनके पास दो हैं।"
हम किसी के अब्बा-वब्बा का कलम नहीं लेंगे, आज इसकी बोटियाँ करूँगा।" पूरन ने उसे घुटनों पर बैठा लिया..."क्यों अरे शैतान," उस शैतान ने एक तमाचा दिया सियाही भरे हाथ का।
और भाभी हँसी के मारे घास पर ओंधी हो गई।
"हँसती क्या हो...अब तुम देखती जाओ मैं क्या करता हूँ इसके साथ।" उसने बच्चे को उठाकर हवा में उछालना शुरू किया, और फिर उल्टा लटका कर टाँगे पकड़ कर झुलाने लगा।
"हाय पूरन...मेरा भैया...ऊई...उसकी आंते लौट जाएँगी, हाय मेरा बच्चा" भाभी रोने को तैयार थी। मगर मुन्ना नीली सियाही लिथड़े हुए मुँह से हँसे जा रहा था और जब भाभी उसे लेने लगी तो पूरन के कंधे से लिपट गया।
“भई बड़ा पक्का है?" उसके बाप बोले।
"यूँ न मानेगा"। पूरन ने उसका कल्ला पकड़ कर खींचा। तब ज़रा वह बिसूरा।
भाभी चीखी और आशा मुन्ने को छीन ले गई।
"ठहर जा, पूरन याद रखियो तेरे बच्चों की भी यही गत न बनाई हो तो नाम नहीं बल्कि उससे भी ज्यादा।"
"अजी होश में, मेरे बच्चे मुफ्त के थोड़ी होंगे।"
“और क्या मेरे मुफ़्त के हैं।"
"न होंगे, मोल लाई होगी, मगर मेरे बच्चों को तुम नहीं मार सकती।"
"क्यों जी क्यों नहीं और तुम मारो।"
"नहीं मार सकतीं बचा लेंगे।" कोई बचा ही लेगा, जब तुम्हारे बच्चे बचा लिए जा सकते हैं तो हमारे क्यों न कोई बचाएगा।
"अरे तेरे बच्चों को मुझसे कोई नहीं बचा सकता। तूने मेरे बच्चों को ऐसा-ऐसा मारा है कि बस।"
“वाह भई ये खूब! हमारे भैया बचा लेंगे, और कोई बचा लेगा, आशा बचा लेंगी...क्यों आशा।" आशा जल्दी से मुन्ने के जूते की धुंडी टटोलने लगी।
हाट
आशा को राजा साहब के यहाँ आए साल होने को आया। गाँव क्यों जाती और कौन बुलाता। मगर गाँव में हाट लग रही थी, और ऐसे वक़्त में रंजी की माँ को आशा भी याद आ गई। कर्ज़-उधार करके रंजी ने नया जोड़ा बनाया, माँ-बेटे राजा साहब के यहाँ पहुँचे। आशा अकेली जाने में ज़रा डगमगा रही थी कि रंजी की माँ ने चमकी को भी साथ ले लिया और छोटा-सा काफिला चला। रंजी की माँ खासा चल सकती थी, मगर वह रास्ते ही में किसी से गप्पें मारते रह गई और रंजी, आशा और चमकी को ले कर चले। हाट की शान, रास्ते की धकापेल और भीड़भाड़ ही से मालूम हो रही थी, इसके अलावा रंग-बिरंगी चुन्दरियों, पगड़ियों और टोपियों के सैकड़ों खिलौने वाले कागज़ के पंखे और चिड़िया लंबे से बांस में लटकाये लपके चले जा रहे थे, गज़क और चाट के खोमचे और तेल की मिठाइयाँ मए मक्खियों की भुनकार के, रंगीन चुटलों वाले और मोतियों की कंठियों वाले सौदागर भी हाट की तरफ बढ़े चले जा रहे थे और साथ-साथ सैकड़ों लावारिस गधे, दखनी गायें, कटखने कुत्ते भी तुन्दही से हाट की रौनक अफजाई को भीड़ में मिले हुए थे और हाट में तो मालूम होता था, दो रोज़ के लिए जन्नत नीचे उतर आई है। अलावा बांस और कागज़ से बनी हुई ताज़ियानुमा दुकानों के ज़मीन पर हज़ारों बेशकीमती अशया रुल रही थी। जापानी खिलौने, मिट्टी की मूर्तियाँ, रबड़ के गुब्बारे और सीटियों के पहिए जिन्हें बजा-बजा कर फरोख्त करने वाले आए, हवास गुम किए दे रहे, उनके अलावा भालू और बंदर, पाँच पैर की गाय, दूसरे के बछड़े का लाशा, आदमी के मुँह जैसी लोमड़ी अजीबो-गरीब करतब दिखाने वाला मदारी और बंदरों से भी ज़्यादा फुर्ती से बाँसों पर उचकने वाले। और रंजी बिल्कुल अग्रेज़ी चाल से दोनों लड़कियों को सैर करा रहे थे। आलुओं की चाट, दही बड़े और तिल पापड़ी वाला दिला चुके थे। काकरेजी किनारे का साफा उनके सियाह रंग पर फूटा निकल रहा था और धारीदार पीली कमीज़ का दामन हवा की शरारतों से तड़प कर उनकी बारीक धोती में झलकते हुए गुलाबी जाँधिए का हुस्न भड़का रही थी। नए चारख़ाने के मोजे, सुर्ख रबड़ की मदद से बालोंदार पिंडलियों पर फब रहे थे, और फिर गिलट की बड़ी-बड़ी अंगूठियाँ और सुर्ख जापानी रेशम के रूमाल तो दिल खींच लेता था। कई बार मेहतरानी ने आँखें भी मटकाई, रूपा की बेवा बहू शर्मायी और दो चार या दोस्तों ने गालियाँ गुनगुनाईं। मगर रंजी उस वक़्त बहुत ऊँची सोसाइटी में थे। वो आँखें घुमाते नीचे का आगे को निकला हुआ चौखटा समेटे आगे बढ़े गए।
आशा नानी की जिंदगी में हाट तो हाट कभी नुक्कड़ की दुकान से पैसे का तेल लेने भी न गई। तरह-तरह की चीजें, अजीब-अजीब इंसान, नए-नए खेल-तमाशे देख कर उसे चलना भी याद न रहा। वो हर सामने वाले से टकरा जाती और हर पीछे आने वाला उसको मुँह के बल धकेल देता और इस धक्का पेल में वो लाल घोड़ी पर हैट लगाए पूरन को देख कर तो सचमुच औंधी हो गई न जाने क्यों उसका दिल चाहा कि कहीं छुप जाए मगर पूरन जमींदारी की शान में अकड़ते आगे निकल गए और उसकी जान में जान आई।
लेकिन ज़रा-सी देर के बाद जब वो ख़रबूजे के बीजों की पहुंचियों का मोल कर रही थी, तो पूरन बिल्कुल ही करीब आ जाते। उन्होंने शायद उसे देख लिया! मगर देख लेते तो उनके दाँत क्यों छिपे रहते। और ये दोनों बहुओं के बीच में बैठी कैसी पहुंचियाँ छोड़-छोड़ वो जल्दी से आगे बढ़ गई। मगर लाल, घोड़ी कहीं भीड़ से रुकती थी। वो जब कठपुतली का तमाशा देख रही थी, तब रंग-बिरंगे चुटले सुना रही थी जब, और फिर जब वो सोडा पी रही थी, और गजब तो जब वो रंजी के हाथ से चांदी का वरक का पेंडा लेने में हील-ओ-हुज्जत कर रही थी, घोड़ी सर पर सवार हो गई और सवार? सवार तो घोड़ी पर सवार ही था। हाँ उसकी भवें और टेढ़ी हो गईं और चेहरा भभक उठा। आशा की उँगलियों से पेड़ा छूट पड़ा और जमीन पर मुँह खोल कर फैल गया। खैर दूसरा सही। कोई वाकई में चांदी का वर्क थोड़ी था। गिलट वगैरह का होगा। और सोने पर सुहागा कि ये चमकी न जाने किधर चमक गई! अभी तो खड़ी लछमी को चूड़ियाँ गिना रही थी और एकदम फुर से उड़ गयी।
"अब घर चलो, चमकी कहाँ है।" आशा ने एक नामालूम ख़ौफ़ को छुपा कर कहा।
"अभी से...अभी तो दिन पड़ा है।" हालाँकि मशरिक साँवली हो चली थी। मगर रंजी सूरमा की तरह सीना ताने चल रहे थे। आज बेतरह उन पर रंग चढ़ा हुआ था। पान पर पान पीसे जा रहे थे और बंडलों बीड़ियाँ भस्म कर डाली थीं। पर उनकी चाल मस्ताना और बीड़ियों का धुआँ गहरा होता जा रहा था।
"चमकी कहाँ चली गयी, मुझसे कहा तक नहीं।" "लछमी वगैरा के संग होगी, चलो कुश्ती देखोगी।"
"नहीं!" आशा जल्दी से सर हिला कर बोली। भला कोई कुश्ती भी देखने की चीज़ है नंगे गोश्त के ढमे धूल में लोट रहे हैं। आसपास खड़े हुए गुंडे गालियों के साथ नई-नई भयानक तरकीबें बता रहे हैं। आशा को ख़याल से ही फुरेरी आ गई। वो दूर से ही स्याह भट पहलवानों की नंगी रानें देखकर लरज गई।
"तो चलो शर्बत पिएँ, चमकी मिल जाएगी. तम डरती क्यों हो।" रंजी ज़रा और पास चलने लगे।
शर्बत की दुकान पर आशा के और भी आए हवास जाते रहे। शर्बत पीने वाले डरावने अंदाज़ में कुछ खड़े और कुछ ज़मीन पर लौट रहे थे। एक ग्रामोफोन अपनी पूरी रफ्तार से काँए-काँए कोई रिकार्ड बजा रहा था जैसे ही ये दोनों पास पहुँचे उन्होंने बेतुकी बातें बकनी शुरू की। गंदली और बलगम के रंग की पीली-पीली आँखें अजीब-अजीब इशारे करने लगीं और फिर शरारत की मीठी-मीठी सड़ांध, बीड़ियों का धुआँ और गलीज़ फिकरे, आशा का जी मतलाने लगा।
“यहाँ से चलो" वो रोनी आवाज़ में बोली। उसने लाल घोड़ी और उसके लाल आँखों वाले सवार को भी देख लिया था।
"बस अभी चलो, चलो।" वो एक तरफ़ चलने लगी।
"उधर कहाँ, आओ मैं चलता तो हूँ।" रंजी आशा से डरता भी था दूसरे लोगों के फ़िकरे उसे और बौखलाए दे रहे थे। तीसरे लाल पगड़ी वाले सिपाही की आँखे बड़ी देर से उस पुरमअनी अंदाज से घूर रही थीं।
"तुम ज़रा यहाँ ठहरो मैं अभी चमकी को लाता हूँ।" रंजी थोड़ी देर ज़रा हवास दुरुस्त करने के लिए अलग चल दिया वरना वो खूब जानता था कि चमकी खुद ही मिलना चाहे तो मिलेगी। आशा टट्टी का सहारा ले कर दिल को सँभालने लगी।
"हूँ तो ये मजे हैं।" आशा ने चौंक कर उधर देखा और अगर वो जल्दी से न हट जाती, लाल घोड़ी ज़रूर उसे दल के रख देती।
“ये तुम्हारे साथ बदमाश कौन है।" शराफ़त और रक़ाबत (प्रतिद्वंद्विता का भाव) का जोड़ तो नहीं फिर भी पूरन कभी दो दफ़ा एक बात पर गौर कब करता था।
“रंजी", आशा ने टट्टी के तिनके कुरेदते हुए कहा।
"नजी, नाम तो बहुत प्यारा है, मुझे नहीं मालूम था कि शर्बत से भी दिलचस्पी है।" आशा ने शर्बत की तरफ़ आँख भी कब उठाई और वो शर्बत था कम्बख्त कुत्ते की कै जैसी तो बू थी।
"तुम्हें अकेले आने की किसने इजाजत दी।"
"चमकी आई है।"
"मगर तुम आई ही क्यों, और फिर इस तरह बीड़े चबाते और ताड़ी पीते । तुम्हें शर्म नहीं आती।" पूरन ने जी संभाल कर कहा वरना मालूम तो ये होता था। जैसे बस चले तो उस हंटर से उसकी खाल उधेड़ दे। जो वो टट्टी के बाँसों पर ताव खा-खा कर मार रहा था। काश वो आशा की खाल हंटर से नोच डालता। मगर ऐसे तो न बोलता। उसे जवाब भी देना न आया।
"तुम्हारा जी चाहे जो करो, मगर याद रखो सब जानते हैं कि तुम हमारे घर की नौकर हो, बदनामी तो पिताजी की होगी।" आशा को हैरत हो रही थी, कि पूरन इतने गन्दे अल्फ़ाज़ भी जानता है। हाँ वो उसकी नौकर थी। नौकर ही तो थी, उसका जी चाहा टट्टी के खुरदरे तिनकों से अपने हाथ छील कर खून बना ले और कलेजा फाड़ कर रोए वैसे ही कलेजे पर इतनी देर से पत्थर रखा हुआ था।
"और बनती कितनी भोली थीं, अगर कोई ज़रा-सी बात पूछे तो ऐसे लरज जाए गोया है बड़ी भोली बच्ची। मुझे नहीं मालूम था।" पूरन चबा-चबा कर उसके मुँह पर सख्त-सख्त कंकर जैसे मार रहा था। और वो और भी डर रही थी, घोड़ी बेचैनी से पैर और हंटर बांस पर सड़ाक-सड़ाक चीख़ रहा था।
घोड़ी एकदम से तड़पी, पूरन ने अपना सारा ज़ोर लगा कर उसकी पसलियों में अपनी ऐड़ियाँ घुसा दीं। वो ज़ोर से छींकी और आशा को पिस जाने से बाल-बाल बचता छोड़ कर आगे बढ़ गई। घोड़ी भी उसके जन्म में थूक रही थी।
मगर उसके लिए ज्यादा देर खड़े रहना दूभर हो गया। हर फिर कर चंद गुंडे उसके पास से खाँसते गुज़र गए और फिर रसीले गीत झाड़ने शुरू किए। आशा डर के भागी। दो-एक ज़रा दूर खड़े आहिस्ता-आहिस्ता रानें खुजा कर मीठी-मीठी नज़रों से देख रहे थे और करीब-करीब सब उस पर आशिक हो चुके थे। वो सख्त मुहय्युर (आश्चर्यचकित) थी कि इतनी जल्दी से वो किस तरह इस कदर तुन्दही से आशिक हो सके होंगे। वो वहाँ से हटकर बीचों-बीच में खंभे के पास खड़ी हो कर चारों तरफ़ परेशान आँखों से घूरने लगी।
ज़रा ही दूर पर उसने देखा चमकी सहेलियों के हुजूम में शर्मा-शर्मा कर घोड़ी के बाँके सवार से बोल रही थी। जिसकी आँखें तो हैट के नीचे थीं, मगर होंठ शरारत से फड़क रहे थे।
“आतिशबाजी नहीं देखोगी?" चमकी ने आशा की चलो, चलो पर हैरत से कहा। "वाह आतिशबाज़ी का सारा मज़ा है। आज छोटे भैया भी हैं, देखा तूने? ऐसे बुरे हैं?" चमकी ने हँसी रोक कर मुँह सिकोड़ा, "लेके सभी के सामने कहने लगे, चमकी घोड़े पर बैठेगी। थक गई होगी। हुँह।"
चमकी को आतिशबाज़ी अच्छी तरह सुझाई भी न दी। उसके सीने में खुद आतिशबाजी-सी छूट रही थी। हमारी जिंदगी के वाकियात भी किस कदर आतिशबाजी से मिलते-जुलते होते हैं।
वो अनार-सा छूटा जगमग करता हुआ बगूला-सा उठा और रुआं-रुआ चमक उठा और फिर वो तारीकी। वो फुलझड़ी छूटी। रूह की गहराइयाँ तक कौंद उठीं और फिर अँधेरा घुप्प! और फिर जिंदगी कैसी फीकी-फीकी लगती है। जैसे बारूद जल जाने के बाद अनार का ख़ाली मिट्टी का खाला मिट्टी का खोल या फुलझड़ी का तार।
नफरत
जब हाट से थकी हारी आशा अपनी कोठरी में पहुँची तो उसका बदन पके फोड़े की तरह दुख रहा था। जब उसने पैरों के छालों पर से मिट्टी हटाने के लिए पानी डाला। तो दुख के मारे नसें अकड़ गईं और पसीना आ गया। मगर उनसे ज़्यादा बड़े-बड़े आँवले उसके दिल और दिमाग़ में पड़ गए थे। उसका जी चाहता था कि सब सो जाएँ तो वो खूब तकिए में मुँह घोंट कर रोए। जब्त की वजह से कनपटियाँ फटी जा रही थीं। और भवों में दुखन थी। बदन तो था ही। आखिर उसका दिल क्यों इस कदर कमज़ोर था। नानी उसे सत्यानासी कहा करती थी। मगर इसमें उसका क्या कसूर था। उसे तो कुछ दुनिया में आने की ऐसी जल्दी भी न थी, ये तो उसकी कमसिन माँ थी। जो कहीं फिसल-फिसला गई होगी। और वो क़ब्ल-अज़-वक़्त दुनिया में गई।
खाने पर उसने देखा कि पूरन ने न तो भाभी को छेड़ा न बच्चों की चुटकियाँ लीं, और न ही बात बे-बात कहकहे लगाए।
“ऐ हे आज तो बड़े चुपके बैठे हैं।" भाभी ने कहा। मगर पूरन न जाने क्या देख रहा था। भाभी ने शरारत से चमचा भर नमक उसके शोरबे की रकाबी में डाल दिया और उसका कांधा हिलाया।
“अरे क्या सो रहे हो, क्या सारी रात तुम्हारे लिए खाना लगा रहेगा।" पूरन जल्दी-जल्दी शोरबा पीने लगा।
"अच्छा भाभी मेरी भी कभी बारी आएगी।" पूरन सबके हँसने से आज खिसियाना हो गया। चमकी ने दूसरी रकाबी रख दी और वो जल्दी से शोरबा पीने का बहाना करने लगा। मगर आज मामला बेढब था। पूरन ने न तो खाया ही, और न ही बोला। आशा जब उसकी दिलपसन्द भुनी हुई दाल लाई तो बोला, मुझे नहीं चाहिए। उसने पहले लेना चाहा फिर आशा का मुँह देखकर जैसे चिढ़ गया और चमकी की थाली में से पापड़ चबाने लगा। आशा सहम कर जल्दी से दूर हट गई।
"क्यों जी, तुमने मेरी आशा को कैसे डांटा? ऐसे बोलते हैं? किसी इंसान से।" भाभी बोली।
"मैं भला कौन होता हूँ आपकी आशा को डाँटने वाला। भूख न हो तो क्या करूँ?"
"माफ कीजिएगा!" और वो थोड़ी देर बाद चला गया।
"तुमने कुछ भी तो न खाया पूरन।" भाभी फिक्रमंद हो गई।
“कुछ तबीयत ठीक नहीं है" वो सीधा कमरे में गया। दूसरे रोज़ इत्तफ़ाक कहिए या कुछ लू वगैरा लग गई। पूरन को वो ज़ोर का बुखार चढ़ा कि बिल्कुल कई दिन बेहोश रहा। बुखार उतरता भी न था। ज़रा कम होता तो बदमिजाजी सवार हो जाती। आशा को तो कमरे में जाते डर लगता था लेकिन न जाने कौन-सी ताकत उसको पकड़-पकड़ कर खींचती थी। और वो बार-बार काम के बहाने से दरवाजे तक ही हो आती, रात अच्छी न कटी और भाभी थक कर चूर हो गई। आशा जो दरवाजे के पास से गुज़री तो उसने उसे बुलाया।
“आशा मेरी गुड़िया...ज़रा यहाँ बैठ जा। मैं अभी आई। बैठे-बैठे जी उलट गया और वो बे-पैर चली गई। आशा ख़ामोश स्टूल पर बैठ गई। आज कई दिन बाद उसने पूरन को गौर से देखा, वो कितना बड़ा लग रहा था। बिल्कुल राजा साहब की शक्ल। दो दिन के बाद बुखार ने ज़द कर दिया था। और होंठों में कितनी तल्खी थी। बाल भी उलझे पड़े थे। आशा का जी चाहा कोई उनका छल्ला-छल्ला सुलझा दे और उनकी थकी हुई कनपटियों पर कोई प्यार से उँगलियाँ फेरे। शायद सोते में भी रूह इंसान की देखभाल करती है। आशा की आँखों ने पूरन को जगा दिया। उसने दो एक बार आँखें झपकाई और फिर आशा को देखने लगा। ऐसे कि आशा कुछ परेशान हो गई। बुखार ने उसका दिमाग़ ज़रा परेशान कर दिया था। और ज़रा बहक गया था। एकदम से उन आँखों में कई दिन की गायब रोशनी उभर आई और होंठ शौक से खुल गए।
“आशा...", वो कोहनी के सहारे उठा। आशा जल्दी से खड़ी हो गई। उसकी समझ में न आया कि क्या करे। पूरन थोड़ी देर तक उसे देखता रहा कि एकदम उसकी नज़र उसकी चूड़ियों पर गई जो उसने रंजी को आशा को देते देखी थीं और वो कंठी सफेद मोतियों की और चुटला, एकदम से जैसे किसी ने कोहनी का सहारा खींच लिया और वो तकिए पर गिर पड़ा। आशा ने जल्दी से उसका सर ठीक करना चाहा मगर जैसे उस पर भूत सवार था।
"ऊँह रहने दो...ये सब कहाँ चले गए।" वो परेशानी से चारों तरफ़ सर घुमाने लगा।
"क्या बुला लाऊँ भाभी जी को...", आशा दरवाज़े की तरफ मुड़ने लगी।
"भगवान आखिर ये सब कहाँ चले गए, क्या सब मर गए, चमकी कहाँ गई।"
'भाभी जी थक गई थीं और चमकी...को बुला लाऊँ!"
"भाभी थक गई...मगर तुम्हें क्यों तकलीफ दी गई, क्या कोई और घर में नहीं", पूरन तअन से बोला।
“ओह...कितनी प्यास है...ओह अंधेरा," पूरन घबरा-घबरा कर सर पटखने लगा और आशा कभी पानी पर लपकी और कभी सोचा भाभी को बुला लाए। इसलिए कुछ न कर सकी। किस कदर बेवकूफ हो गई थी। हो क्या गई थी वो थी ही पागल।
“वो...मेरा दम घुटा...अँधेरा...ये पर्दे हटाओ।" शाम होने में अभी देर थी मगर कमरे में ज़रा अँधेरा हो चला था। ऐसा कि दिखाई न दे मगर पर्दे हटाने लगी। उसके हाथ और भी काँपने लगे। जब उसने देखा कि पूरन उसे बराबर घूर रहा है।
जब वो उसके पास का पर्दा हटाने लगी। तो उसे बिल्कुल उसके सिरहाने झुकना पड़ा और पूरन की आँखों से बचने के लिए वो झुक गई पर्दा हटा कर वो भाभी को बुलाने चली लेकिन उसने देखा कि पूरन आँखें बंद किए थे। इसलिए वो बैठ गई। पूरन ने थोड़ी देर बाद आँखें खोली तो वो जल्दी से खड़ी हो गई।
"भाभी जी को बुला लाऊँ?" वो खुद ही बोली।
"हूँ आपका दिल घबरा रहा है, तो जाइए चली जाइए। रहने दो मुझे। मगर ये चमकी कहाँ गई। जो भाभी ने तुम्हें यहाँ फँसा दिया। मगर तुम चली जाओ।"
"चमकी थक गई थी। वो भी सो गई है ज़रा। मैं..."
आशा पूरन के सख्त अल्फ़ाज़ सुन कर न जाने कैसे आँसू पिए बैठी थी।
"चमकी सो गई। भाभी थक गईं...तुम थक गई जाओ यहाँ से, मुझे किसी की ज़रूरत नहीं...जाओ..." अब आँसू बहने लगे।
"हूँ, ये अब रोया जा रहा है। मैंने आखि र तुम्हें कहा ही क्या। तुम्हें कोई कह क्या सकता है। जाओ जहाँ जी चाहे जा सकती हो।"
"आप...ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं...मैंने...”
"मैं...कब क्या कर रहा हूँ। अब फिर जा कर भैया से शिकायत कर देना कि मैंने तुम्हें रंजी के साथ घूमने पर डाँटा। हुँह! जैसे मुझे कुछ...मुझे क्या।"
“मैंने कब शिकायत की छोटे भैया?"
“अब झूठ भी बोलने लगीं? तुमने भैया से नहीं कहा कि मैं तुमसे खफा हूँ। जी मैं क्यों होता ख़फ़ा...मुझे क्या ग़र्ज़। जी हाँ। जैसे..."
“मैंने शिकायत नहीं की, बड़े भैया पूछने लगे। क्या पूरन तुझसे खफा है...तो...तो मैंने कहा नहीं, तो इस पर वो बोले कि फिर वो क्यों...क्यों...ऐसा" आशा की समझ में न आया कि क्या कहे।
"खैर तो तुमने शिकायत न की...फिर भी तुम्हें बुरा तो लगा कि मैंने तो फिर से ज़रा सख्ती से कुछ कहा। मुझे नहीं कहना चाहिए था। उम्मीद की कि...माफ़ फ़रमाएँगी।"
वो बड़े ही तअन से बोला। मगर अब उसे ज़्यादा गुस्सा न था।
“मुझे तो नहीं लगा।" उसने हिम्मत की।
"बेशक न लगा होगा। क्यों मेरा बीच में बकवास करना अच्छा लगता ...मैं कौन...तुम रंजी से मिलो... आख़िर दहल दूँ तो ये बेवकूफी है, तुम्हें हक़ है तुम चाहे जिसे चाहो। पूरन मुस्कुराया।"
"आप...आप बहुत बुरे हैं," आशा फूट कर रो पड़ी।
"सुना है तुम्हारी शादी रंजी से तय हो गई थी। मेरी ग़लती थी आशा। मैं बहुत बेवकूफ हूँ। देखो ना तुम्हें बे बात डाँट दिया। तुम्हें रंजी पसंद है?"
आशा ने पूरन को ऐसी नज़रों से देखा कि वो हँस पड़ा।
"और आपको आपकी चमकी!" वो दबी ज़बान से सिसकियों को दबा कर बोली।
"चमकी...अरे...मेरी चमकी...कौन कहता है? हश्त," वो उठने लगा।
"किसने तुमसे कहा। बेवकूफ हो तुम।"
"जी हाँ...मैं क्या जानती नहीं हूँ,” वो बच्चों की तरह बोली।
“मगर...ये कहा किसने कि चमकी।"
“और आपसे किसने कहा। रंजी!"
“आशा?" पूरन गौर से उसे देखने लगा। जिसका मुँह रोने से फूला हुआ था।
"आशा...मैं बहुत ही बुरा हूँ। मेरी आशा..." वो खड़ा हो गया।
"लेट लाइए।" वो उसे धकेलने लगी।
“आशा में कितना जल्दबाज़ हूँ। कितना बुरा..." वो उसे दोनों हाथों से पकड़े था। कुछ कमज़ोरी और कुछ जज़्बात का गल्बा पूरन लड़खड़ाने लगा।
"अरे!" भैया ने उसे दोनों हाथों में ले लिया। “ये क्या वाहियात है आशा?"
आशा क्या करती?
"भैया मैं...आप लोग भी किस क़द्र अक्लमंद हैं। भला मुझ जैसा शरीर बीमार और आशा बेचारी के सुपुर्द कर दिया। भला वो मुझे रोक सकती है... मैं।"
"तुमने रोका भी नहीं। मुझी को बुला लिया होता।" भाभी बोली।
"अरे भाभी..मैं मानता कब हूँ। वो तो बेचारी लाख रोकती रही, मगर ...हाँ भाभी पानी..." वो निढाल हो गया। सारे घर में एक गुल पड़ गया, लेकिन आशा इल्ज़ाम से बरी हो गई। जब डाक्टर ने कहा, "कुछ नहीं! बुखार उतर रहा था इसलिए घबराहट शुरू हो गई और अगर आराम-ओ-सुकून मिला तो चंद रोज में ठीक हो जाएगा।"
इसके बाद से पूरन वो मसखरा मरीज़ बन गया कि उसे दो रोज़ पलंग पर लेटना दुश्वार हो गया। सब उसके कमरे में हों। यहाँ तक कि भोला की ताई भी और उन सब में आशा भी आ जाती, जिससे आँखों ही आँखों में पूरन हज़ारों मुआफ़ियाँ माँग चुका था।
“भोला की ताई, तुम अगर मुझसे एक दफ़ा गुस्से हो जाओ तो क्या कभी मानोगी भी नहीं।"
"चल उधर दीवाने।"
"नहीं सच कहता हूँ...कभी तुम्हें कुछ कह उठता हूँ तो क्या गाँठ बाँध लेती हो?"
"क्या?" भोला की ताई कुछ जो समझे।
"भोला की ताई, देखो इंसान गलती करता ही है, क्यों? कौन गलती करे?"
"तुम तो बड़ी कूढ़ दिमाग़ हो जी...भला कैसे गुज़र होगी।"
"गुजर कर अपनी माँ-बहना के संग।" “तुम भोला की ताई हुई तो मैं कौन लगा उसका?"
भोला की ताई इस कदर भयानक-सा रिश्ता बताती कि पूरन चादर में मुँह छिपा लेता।
भला ऐसा मरीज़ कितने दिन लेट सकता था?
ये थी वो नफ़रत जो पूरन के सीधे-सादे दिल में तूफान की तरह फटी और दो झकोले दे कर उसकी हड्डी-हड्डी हिला गई। मगर फिर वही। समझ में नहीं आता कि ऐसी सख्त नफरत हो कैसे जाती है। और फिर भाप की तरह गायब। दिल में ठान लिया कि बस ख़त्म क़िस्सा। बस हो चुका खेल...और वो लीजिए चिकने घड़े की तरह दो मिनट में साफ़! तौबा ये नफरत है। मोहब्बत की ही एक शरीर (नटखट, चंचल) अंगड़ाई कहो।
फिर वही शरारतें, वही भाभी का तनतना। भोला की ताई की गालियाँ और आशा की आँख मिचोलियाँ और बच्चों को छेड़ना। इंसान मोहब्बत में हर वक्त चुलबुलापन क्यों करता है। मन के साथ-साथ हाथ-पैर और आँखें क्यों मस्त हो कर नाचने लगती हैं? और हर चीज़ हँसने-हँसाने के लिए ही नज़र आती है। और संजीदगी कहाँ डूब मरती है कि ज़रा भी कल का ध्यान नहीं आता। मगर औरत? वो कितनी मुख्तलिफ़ होती है। उसका दिल हर वक्त सहमा हुआ रहता। हँसती है तो डर के, मुस्कुराती है तो झिझक कर। कदम-कदम पर उसे अपने राज़ के ही खुलने का डर लगा रहता है। क्या होगा? कैसे होगा? ये हुआ तो? वो हुआ तो?...और फिर कम्बख्त नाकिसुल अक्ल है।
आशा मुन्ने को नहलाकर उसके बालों में ब्रश कर रही थी। मगर वो था कि बेचैन फिरकी की तरह नाचे जाता था। ये डब्बा उल्टा। वो बोतल खोल डाली, ब्रश छोड़ा तो कंघा करना शुरू कर दिया। सुरमेदानी खोल कर उलट दी। आशा आजिज़ आ गई।
"ऊँह शरीर!" उसने सलाई छीन कर अलग रख दी।
"कौन मैं?", पूरन दरवाजे से मुँह बना कर बोला।
“जी नहीं ये मुन्ना कंघी नहीं करवाता।"
"मुन्ना बहुत शरीर है। तुमसे क्या डरेगा। डरपोक कहीं की। ज़रा-सी मेंढ़की से डर जाओ।" सुबह पूरन भाभी को मेंढ़क से डरा रहा था। कोई चने बराबर होगी या ज़रा बड़ी, शायद सेम के बीज जितनी। मगर भाभी सारे घर में चिंघाड़ती हुई दौड़ रही थी।
"यूँ नहीं ठीक होंगी। पूरन उसे डोरे में बाँध कर इनके गले में डाल दो, तब ठीक होगी तबीयत।" पति महाराज बजाए स्त्री रक्षा के और उसे कत्ल करने की तरकीबें बताने लगे।
"मेरा भैया पूरन । तुझे मेरी कसम", भाभी चला रही थी। भाभी को छोड़ पूरन ने वो ज़रा-सी मेंढ़की आशा पर डाल दी जो निहायत बेफ़िक्री से उसकी ग़लत देखने में मशगूल थी। और आशा सीढ़ियों पर से ऐसी लुढ़कती भागी कि बस शेर से भी तो इतना न डरती फिर जब पूरन ने यूँ ही ज़रा काग़ज़ का टुकड़ा डाल दिया तो घबरा-घबरा कर धोती का आँचल खसोटने लगी।
“खा जाती ये ज़रा-सी मेंढकी तुम्हें।"
"मुझे घिन आती है इससे।"
"मगर ये तो बताओ तुम बाग में से क्यों भागीं। तुम्हें मुझसे भी तो घिन आती है।" पूरन ने ब्रश लेकर कहा।
आशा दूसरे ब्रश से मुन्ने के बालों से खेलने लगीं।
"ये बताओ कि ये तरीका क्या है आशा देवी?" पूरन ने दूसरा ब्रश भी छीन लिया।
“मुझे काम था।"
“हाँ, बस तुम्हीं को तो काम रह गया है। दुनिया भर का।" वो दोनों हाथों से ब्रश करने लगे।
"पिताजी आ गए होंगे। आपको बुलाते होंगे।"
"हूँ! पिताजी आ गए होंगे। बुलाते होंगे। बस करने लगीं उल्टे-सीधे बहाने। तुम चाहती हो मैं चला जाऊँ यहाँ से। लो नहीं जाते कर लो कर लो हमारा कुछ।"
"भाभी जी कहेंगी ज़रा-सा काम करने को कहा तो दो घंटे लगा दिए।"
"हूँ बस सबका ख़याल है तुम्हें एक मैं ही हूँ जो कभी बात भी करूँ तो तुम्हें सौ-सौ बहाने सूझने लगते हैं। ज़रा सोचो आशा।" आशा मुन्ने को उठा कर चलने लगी।
"बस भागी।" पूरन ने उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया।
"छोड़िए...भैया भूखा है।"
"तुम्हें कौन पकड़ता है। मैं तो भैया को प्यार कर रहा हूँ वाह कोई भैया प्यार भी न करे वाह।" और वो मुन्ने को प्यार करने लगा। आशा कितना ही मुँह फेरे पूरन के बाल उसकी आँखों और गालों पर छा गए। और फिर दिल-ओ-दिमाग़ पर।
“पूरन...काश तुम्हें कभी तो फुरसत होती।" बड़े भैया की आवाज़ आई। "ज़रा मेरे साथ आओ।"
"मैं?...आया।" पूरन उनके साथ चल दिया। आशा ने ठंडी सांस भर कर मुन्ने के गाल पर मुँह रख दिया।
"मुझे ये बिल्कुल पसंद नहीं...तुम्हारी हरकतें।" भैया संजीदा थे।
"कौन?...मेरी...क्या।"
“हाँ तुम्हारी। पूरन सिंह हम अंधे नहीं हैं। ये तुम्हारा हर वक्त छोकरियों से मज़ाक़।"
“छोकरियों से मज़ाक़!"
"कौन मज़ाक करता है। बड़े भैया। मैं मज़ाक नहीं करता किसी छोकरी से। आशा। उससे मुझे हमदर्दी है वो हमारी खिलाई की औलाद है, बल्कि हमारे पिताजी की दुबा की औलाद है।"
"तुम्हें इस तरह उसके साथ बदमज़ाकी अच्छी लगती है।"
"भैया मैं...आपको धोखा हुआ...मुझे आशा से आपसे कम हमदर्दी नहीं. ..वो...मेरी...मुझे उससे प्रेम है और..."
“और...और...क्या और कुछ भी? पूरन तुम देखते हो मैंने कभी किसी नौकरानी की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा, हम सचमुच के राजा हैं और न हमारी शराफ़त इस बात को मानती है।"
"मगर मैं उससे शादी करना चाहता हूँ।"
"तुम...हा हा हा..." भैया सिर्फ ज़रूरतन हँसा करते थे।
"इसमें हँसी ठट्टे की क्या बात है, बड़े भैया।"
“यही कि तुम अब उससे शादी नहीं करोगे।"
"ये आप कैसे कह सकते हैं।"
"हम ऐसे कह सकते हैं। पूरन-हम हँसते नहीं तुम्हारी तरह हर वक़्त हमें ठी-ठी करने की फुरसत नहीं। और ये शादी का ख़याल ये भी खूब है।"
“मगर आखिर मालूम भी तो हो।" पूरन घबरा-घबरा कर अपने दामन से खेल रहा था।
“मालूम यही हो सकता है कि वो हमारी नौकरानी है। पूरन ये तुम फ़िल्म देख-देख कर शायद उस वाहियात गलतफहमी में मुलला हो गए हो। मगर तुम्हें मालूम होना चाहिए कि ज़िंदगी एक फ़िल्म नहीं। से एक हकीकत है और बड़ी ठोस हकीकत तुम बच्चे नहीं। ठहरो मेरी बात मत काटो समझे...तुम बच्चा नहीं।"
“मुझे मालूम है कि मैं बच्चा नहीं, तब ही तो मैं पूछता हूँ कि आखिर वजह क्या है कि जो मैं चाहूँ वो न कर सकूँ?" ।
"ठीक...लेकिन तुम्हें किसने ऐसे हकूक दिए जिनकी रौ से तुम्हें समाज और बुजुर्गों की दिलशिकनी का ठेका मिल गया?"
“समाज...वाह-वाह...वही पुरानी सड़ी बहस। पिताजी कितने अँधेरे खयालात के नहीं हैं।"
“यही तो तुम्हारी गलती है...यानी गलतफहमी है। पिताजी किने ही रौशन खयाल हों वो ये बात कभी गवारा नहीं करेंगे कि उनके खानदान में इस किस्म की वाहियात बात हो और फिर ये सोचो माताजी, मैं, ये बच्चे तुम्हारे मासूम भतीजे आखिर इन्होंने क्या कुसूर किया है। जो ये तुम्हारी ख्वाहिशात पर कुर्बान हो जाएँ।"
"अरे! यानी इनके कुर्बान होने का सवाल कहाँ से आन कूदा। वाह खूब!"
"क्यों नहीं...इनकी सोसायटी में क्या हैसियत हो जाएगी कि भई नौकरानी से ब्याह कर लिया। शीला को कौन शरीफ़ खानदान में ब्याह लेगा और निर्मल को कौन बेटी देगा। जब वो उनके चचा के कारनामे सुनेंगे?"
"फिटकार है ऐसी सोसायटी पर। लानत है ऐसे लोगों पर जो शीला में ये ऐब निकालें कि उसके चचा ने गरीब लड़की से शादी कर ली। इससे बेहतर है ऐसे लोगों में जाने के बजाए शीला सदा कुँवारी रहे?"
“हाँ, तुम्हारे लिए ये कह देना आसान है। तुम अपनी खुशी पूरी कर लो ख्वाह सारा खानदान मिट जाए।"
"नहीं तो...मेरा मतलब है। हम शीला की शादी ऐसे वाहियात लोगों में क्यों करें जो इस कदर अँधेरे ख़याल के हों।"
"तो फिर तुम्हारा ख़याल है कि शीला के लिए भी कोई आशा का भाई-बंद, कोई चौकीदार या अर्दली हूँढूँ", रूप सिंह जितने चुपके थे उतने बुद्धू न थे। पूरन उनके तानो के आगे कसमसा कर रह गया।
"मैं ये कब कहता हूँ। भैया आप मेरी हर बात उल्टी किए देते हैं।" वो शिकस्त खा कर बोला।
“सोच लो। तुम्हीं। तुम अक्लमंद हो। मुझसे ज्यादा ज़हीन और समझदार हो। खैर अब ज़िक्र को छोड़ो। तुम्हारी भाभी आ रही है। हम नहीं चाहते कि इस बात को बेबात फैलाएँ।"
भाभी जी अपने बच्चों की फौज लेकर आन पहुँची।
"देखना...ज़रा देखना, मुन्ना कैसे मजे से प्यार करता है।" मुन्ना ने मोटे-मोटे हाथों में माँ का चेहरा भींच कर अपनी चपटी नाक गाल पर रख दी।"
“बंदर...बड़ी जल्दी नक़ल करने लगता है।" उन्होंने होशियारी से कहा और पूरन खिसियानापन छिपाने को जल्दी से मुन्ने को सताने लगा।
"भाभी अब मैं उसे छोड़ता हूँ। उसे चाहिए कि खड़ा होना सीखे।" उसने मुन्ने को पेड़ की शाख पर खड़ा करके कहा।
"हे राम...हाय पूरन नहीं। अभी वो कितना है। जो खड़ा भी होने लगे।" “कुछ भी हो मैं नहीं जानता। इतना तो फूल रहा है। खूब खड़ा हो सकता है।"
"लो भला दस महीने का बच्चा और बनेगा। इसे आता ही नहीं खड़ा होना।" वो मुन्ने को छीनने लगी।
"मैं नहीं जानता...छोड़ता हूँ भाभी...", पूरन ने डराया।
"हाय! मेरा बच्चा...पूरन", वो मुन्ने को छीन ले गई।
"ओ हो। जैसे मैं छोड़ ही तो देता। मैं इसका दुश्मन हूँ ना।" भैया के अल्फाज़ उसे याद आ गए।