यह राजधानी (कश्मीरी कहानी) : हरिकृष्ण कौल

Yeh Rajdhani (Kashmiri Story) : Harikrishna Kaul

इतने बड़े देश की इतनी बड़ी राजधानी। और इसे धुन्ध ने पूरी तरह निगल लिया था। बस स्टॉप के शेड और उसके नीचे बसों की प्रतीक्षा करने वाले दो-चार मुसाफिरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई देता था। केवल दाईं ओर अकबर होटल का धुंधला आकार धुन्ध में से सिर बाहर निकाल कर दिख रहा था और बाईं ओर रिंग के उस पार बेकाजी काम्पलैक्स की ऊंची इमारतों तथा हयात रीजेन्सी होटल के धुंधले आकार दिखाई देते थे।

मोहन सात बजे ही बस स्टॉप पर पहुंच गया था। मगर 615 नम्बर बस कहीं नहीं थी। पिछले एक घण्टे में 512 नंबर वाली बसें और 51 नंबर वाली दो बसें आई थीं। इस ओर से भी 615 नंबर वाली बस गई थी, मगर पता नहीं उस ओर वाली बस क्यों नहीं आई थी?

एकदम गाड़ी के चलने की आवाज आई और धुंध का पर्दा चीर कर एक थ्री-व्हीलर उसके सामने प्रकट हुआ और बस-स्टॉप के निकट रुक गया। इसका इंजन चलता रहा। इंजन की आवाज बसों की प्रतीक्षा करने वाले मुसाफिरों को न्योता दे रही थी, जैसे चलना है तो चलो। हम सेवा करने के लिए हाजिर हैं।

हेड-लाइट जलाकर एक बस आई और रुकी। मोहन कठिनाई से ही उसका नंबर पढ़ पाया और बस में चढ़ने के लिए वह दौड़ा, मगर निकट पहुंचकर पता चला कि यह एक रुपया टिकट वाली डिलक्स बस है। वह शेड की शरण में लौट आया। थ्री-व्हीलर के इंजन की आवाज अब उसे अखरने लगी। गलती से उसकी नजर थ्री-व्हीलर के चालक पर पड़ी। उसे देखकर पता नहीं क्यों घबड़ाकर दूसरी ओर देखने लगा।

बस स्टॉप पर और भी दो-चार पुरुष थे और दो-एक स्त्रियां भी। इनमें से भी कोई भी एक-दूसरे के साथ बातचीत नहीं कर रहा था। सुबह तड़के उठना, नहा-धोकर और शेव बनाकर रोटी का डिब्बा लेकर बस स्टॉप पर पहुंचना और दफ्तर पहुंचने तक चुपचाप रहना, अब मोहन की आदत बन गई थी। पहले उसे इस बात में कुछ नयापन दीखता था। कुछ बड़ाई दीखती थी। कुछ एडवेंचर लगता था। जब भी वह एक-एक दो-दो वर्ष के बाद कश्मीर जाता था, वहां प्रायः अपने मित्रों से कहता रहता था-

‘तुम अभी मजे की नींद में ही सोये हो। दिल्ली में अब तक मैं नहा-धोकर दस-बारह मील दूर दफ्तर पहुंच चुका होता हूं। तुम लोगों को क्या? तुम लोग यहां बाबू टाक की भांति अपने भाग्य का खाते हो।’ मगर अब उसे यह आत्म-प्रशंसा करने या डींग मारने की बात नहीं लगती। वह बीच-बीच में अपने ऊपर हंसता भी था कि प्रतिदिन सुबह जल्दी नहा-धोकर, शेव बनाकर, घर से निकलने से उसे कौन-सी उपलब्धि प्राप्ति हुई? अब उसने कश्मीर जाना भी छोड़ दिया था! जता भी किसके पास? किसके पास जाकर डींग मारता? वहां रहा ही कौन उसका? बड़े-बूढ़े मर-खप गये थे और जो भी जवान थे वे कश्मीर से भाग गये थे।

आज उसके हाथ में रोटी का डिब्बा नहीं था, क्योंकि उसे इस समय दफ्तर नहीं जाना था। कल शाम को शर्मा जी के घर पर उसे सरला का टेलीफोन आया था। वे तीनों व्यक्ति कल ही कलकत्ता से पहुंचे थे और अहमदाबाद जाने से पहले वे उसके परिवार के साथ, विशेषकर बच्चों के साथ, एकाध दिन गुजारना चाहते थे। फिलहाल वे अपने किसी मित्र के यहां बी।एन। 21, बसंत विहार में रुके हुए थे। फोन पर बात करते हुए ही मोहन का हृदय प्रफुल्लित हुआ था कि वह सरला से चार-साढ़े चार वर्ष के पश्चात् मिलेगा। बबलू और डबलू खुशी से झूम उठे थे कि जिप्सी, सरला आंटी की सुनहरी बालों वाली बेबी, जिसकी उन्होंने केवल एक रंगीन फोटो ही देखी थी, कल उनके घर आ जायेगी। मगर उसकी पत्नी परेशान थी कि ननद की कोई बात नहीं, मगर ननदोई को कहां बिठायेगी और सुलायेगी? उनके पाास केवल एक कमरा था और उसी के साथ एक बालकनी, जिसे उन्होंने बांस के चिक-पर्दों से घेर कर रसोई में परिवर्तित किया था। इतना ही नहीं शौचालय, जिसका फ्लश काम नहीं करता था, और गुसलखाना, जिसका शावर टूटा हुआ था, उनका पड़ोसियों के साथ साझा था। वह इसलिए परेशान नहीं थी कि प्रमोद एक बड़ा अफसर था। बड़ा अफसर होने पर भी अगर उनकी ही जात-बिरादरी का होता तो फिर वह जैसे-तैसे एक कमरे में गुजारा कर लेते। उसको बेड पर सुला लेते और शेष सबके लिये फर्श पर ही बिस्तरा बिछा देते...

मोहन के घर के सामने जो चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों के सरकारी क्वार्टर थे, उनकी छतों पर धूप पड़ने लगी थी और राजधानी के मुखड़े से धुंध का पर्दा अब हटने लगा था। अब बड़ी सड़क और उससे मिलने वाली छोटी-छोटी सड़कें, दूध का डीपो और उसके सामने बर्तन हाथ में लिये हुए लोगों की एक लंबी कतार साफ दिखाई देने लगी थी। अकबर होटल की ओर से आखिर दो 610 नंबर वाली बसें आईं। उसके अलावा बाकी सारे मुसाफिर इन बसों में चढ़ गये। वह बस स्टॉप पर अकेला रह गया। हां, थ्री ह्वीलर वाला भी वहीं रुका हुआ उसकी ओर देख रहा था और चुप रह कर भी उसे ह्वीलर पर सवार होने का न्योता दे रहा था। मगर कुछ समय बीत जाने के बाद उसे तसल्ली हो गई और वह भी यह स्टॉप छोड़कर आगे की ओर बढ़ गया। शायद उसे विश्वास हो गया था कि जो व्यक्ति एक रुपये वाली बस में नहीं चढ़ा, वह थ्री ह्वीलर से कैसे जा सकता है।

सुबह धुंध होने के बावजूद भी हवा में गर्मी आ गई थी और बस का डण्डा, जिसे पकड ़कर वह खड़ा था, उसे ठण्डा नहीं लग रहा था। उसके निकट जो व्यक्ति सीट पर बैठा था वह रेलवे स्टेशन से ही बस में चढ़ा होगा, क्योंकि उसके पास एक अटैची थी और एक कंबल भी। वह शायद अपनी मंजिल के निकट पहुंचने वाला था, इसीलिये शायद उठ-उठकर सड़कों के मोड़ों, इमारतों और इमारतों के साइन-बोर्डों को पहचानने की कोशिश में था।

मोहन ने फैसला किया कि वह भी उस ओर से 615 नंबर वाली बस से सीधे स्टेशन चला जायेगा और वहां से अहमदाबाद के लिये दो टिकटें ले आयेगा...कल जब सरला ने उसे फोन पर कह दिया कि उनको वापिस जाने के लिये रिजर्वेशन नहीं मिल रहा है, उसने उसे तसल्ली देने के लिए वैसे ही कहा था, ‘चिंता की कोई बात नहीं है। देखो भगवान क्या करता है।’ मगर सरला ने उसकी इस बात को आश्वासन समझ लिया था। उसने कह दिया था कि उसके द्वारा यह काम हो सकता है। उसको इतने वर्ष दिल्ली में रहते हो गये और अपने परिचय से वह कुछ भी कर सकता है। यह तो उसके लिये लानत की बात होगी अगर वह यह मामूली-सा काम भी नहीं कर सकता। मगर यह समस्या वह कैसे सुलझाता? वह सोच नहीं सका। आखिर उसे याद आया कि

लोधी कालोनी में, जहां वह दो वर्ष पहले रहता था, उसके पड़ोसी एक भटनागर साहब थे। वे रेलभवन में नौकरी करते थे। मोहन रात के दस बजे लोधी कालोनी पहुंचा। भटनागर साहब घर में ही मिले। उन्होंने कहा कि वे स्वयं कुछ नहीं कर सकते। हां, उसे परामर्श दिया कि वह अहमदाबाद के लिये वेटिंग लिस्ट के ही दो टिकटें खरीदे। भटनागर साहब बड़ौदा हाउस में अपने किसी परिचित, एन।के। गोयल को टेलीफोन करेंगे तो गोयल उसे हेडक्वार्टर के कोटे में से रिजर्वेशन करायेगा। भटनागर साहब ने मोहन को जाने से पहले एक रेलवे रिजर्वेशन फार्म भी दे दिया और उसे परामर्श दे दिया कि उसे वह भर कर एक साथ ले जाये।

सफदरजंग ऐन्क्लेव का पहला स्टॉप आ गया। स्टेशन से आया हुआ व्यक्ति एकदम खड़ा हुआ। मोहन ने उसे निकालने के लिए आगे से रास्ता छोड़ा और स्वयं उसकी सीट की पीठ को पकड़ा जिससे कोई दूसरा व्यक्ति इस पर कब्जा न कर सके। मगर उस व्यक्ति को शीघ्र ही पता चला कि उसे उस स्टॉप पर नहीं उतरना है। वह दुबारा इत्मीनान से उसी सीट पर बैठ गया। मोहन ने सीट की पीठ पर से अपना हाथ उठा लिया।

‘...यह एन। के। गोयल बड़ौदा हाउस में किस पदवी पर होगा? मोहन सोचने लगा। शायद वह भी भटनागर और स्वयं उसी की तरह क्लर्क होगा। पता नहीं वह हेड-क्वार्टर कोटे से उसकी बहिन और बहनोई के लिए बर्थ दिला सकता है कि नहीं? मगर साथ ही उसे विचार आया कि रसूखवाला होने के लिए बड़ी पदवी पर आसीन होना आवश्यक नहीं है। रसूख एक कला है। यह कला वही जानता है जो भाग्यशाली हो। उसे बाबू टाक की याद आई। वे दोनों स्कूल में एक साथ पढ़ते थे। बाबू टाक को कोई न कोई अध्यापक रोज पीटता। किंतु उस पर कोई असर नहीं होता। गांठ वाली लकड़ी को कुल्हाड़ी से भी काटना कठिन है, लाठी की बात ही नहीं। बड़ी मुश्किल से उसने हाईस्कूल की परीक्षा पास कर ली। हाई क्लास सेकेण्ड डिवीजन में बी।ए। की परीक्षा उत्तीर्ण करके और दिल्ली आ जाने से पहले जब मोहन ग्राम-सुधार के कार्यालय में नौकरी पर लग गया, बाबू टाक वहां पहले से ही काम करता था। कार्यालय में निदेशक, मोहन को प्रायः डांटते थे और कागजों पर हस्ताक्षर कराने के लिए उनके कमरे में डरते-डरते जाता था। वही निदेशक महोदय बाबू टाक से मशविरा लिया करते थे।’

सफदरजंग एन्क्लेव का दूसरा स्टॉप और बस रुक गई। स्टेशन से आये हुए व्यक्ति ने अपनी सीट खाली कर दी। अटैची और कम्बल उठाकर अगले दरवाजे से बस से नीचे उतर गया। मोहन ने फुर्ती से उसकी जगह घेरने की कोशिश की। मगर उसके बैठने से पूर्व ही किसी और व्यक्ति ने पीछे से ही उस सीट पर अपना थैला रख दिया। मोहन के दिल को ठेस-सी पहुंची। मगर ज्यों ही थैले वाला सीट पर बैठने के लिए पहुंचा, उसने स्वयं ही अलग खड़े होकर उसको स्थान दे दिया। वषरें इस राजधानी में रहकर उसने एक बस के छूट जाने पर बिना क्षोभ के दूसरी बस की प्रतीक्षा करना और इस तरह अनेक अवसर खोकर दूसरे अवसर की आशा पर जीवित रहना सीखा था।
जिप्सी मोहन की गोदी में बिल्ली की तरह चिपक कर बैठी थी।

‘इस तरह यह किसी के पास नहीं जाती।’ सरला नेल कटर की रेती से अपने नाखून की पालिश को खरोंच रही थी। उसने बांहें खोलकर जिप्सी को अपनी ओर आने के लिए बुलाया। जिप्सी इंकार करके मोहन के साथ और भी चिपक गई। वह थोड़ा हंसा और बहिन से कहने लगा, ‘दूर-दूर रहने से खून का रिश्ता चाहे कितना ही सूख जाये, मगर समय आने पर यह खौल उठे बिना नहीं रहता।’

सामने लाल, नीले, पीले लकड़ी के बड़े मनकों की मालाओं का एक पर्दा लटक रहा था। सरला उठी और उस पर्दे से फ्रिज में से मिठाई का एक डिब्बा निकालकर मोहन के पास आई।
‘अच्छा जी, फिर भी इससे एक टुकड़ा उठाइये। यह हम कलकत्ते से ही लाये हैं। कलकत्ते की चमचम में अपना अलग ही स्वाद है।’

मोहन ने मिठाई का एक टुकड़ा मुंह में डाल दिया। हाथ में उसे कुछ चिकनाहट-सी महसूस हुई। जेब में से रूमाल निकालने लगा, मगर उससे पहले ही सरला साफ धुला रूमाल लेकर आई। मोहन ने इससे हाथ पोंछे।

‘बहुत देर से यह आपकी गोद में है। कहीं यह तुम्हारे कपड़े गीले न करे?’ सरला ने जिप्सी को मोहन की गोद में से उठा लिया और उसे लेकर दार्र्ईं ओर के दरवाजे से बाहर चली गई।

मोहन ने चारों ओर नजर डाली। मालाओं के पर्दे के उस पार डाइनिंग रूम था और इस ओर बड़ा ड्राइंग रूम। ड्राइंग रूम के उस भाग में जहां वह बैठा था। सोफा, सेण्ट्रल टेबुल, साइड टेबुल, फूलदान, रैक, बुक शेल्फ, पीतल की बनी चमचमाती हुई नटराज की मूर्ति, काले पत्थर में मां दुर्गा की मूर्ति, जिसमें मछली जैसी लंबी और बड़ी-बड़ी आंखें उभरी हुई दिखाई देती थीं, किसी बंगाली चित्रकार की एक ऑयल पेंटिंग इत्यादि। दूसरी ओर सोफों के स्थान पर दीवान बिछे थे, जिन पर हरी गिलाफों में लिपटे फोम के गद्दे थे। इसी भाग में कलर टी।वी।, वी।सी।आर। स्टिरियो और उसके स्पीकर, दीवारों पर तिनकों की बनी चार कोनों वाली चटाइयों से टंगे थे। जगह काफी खुली थी। सामान बहुत था। सामान से जगह सजी हुई थी। और जगह की वजह से सामान भी सुंदर लगता था। सीता खन्ना का घर देखिये। उसके पास भी सामान कम न था। मगर दो छोटे कमरों में ठूंस कर रहने के कारण उस सामान की शक्ल ही कुछ भिन्न थी। मोहन जी को अपने आप पर हंसी आई। देखो, कौन उसे इस समय याद आई? सीता खन्ना उसकी पड़ोसन थी। उसका पति भी था, मगर वह कौन था और क्या करता था, किसी को पता नहीं था। अपने-अपने बच्चों और पतियों को क्रमशः स्कूलों और दफ्तरों में भेजकर कॉलोनी की महिलायें उसके घर वीडियो पर फिल्में देखने के लिए जाती थीं। पिछले कुछ दिनों से शीला भी वहां आने लगी थी। एक दिन सारी कॉलोनी में यह बात आग की तरह फैल गई कि सीता खन्ना को पुलिस ने सीटा एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया।

सरला जिप्सी को लेकर वापिस आई। अबकी बार उसने उसे मामा जी की गोद में नहीं डाला। उसे थपकियां देकर सुलाने लगी।
‘प्रमोद आया नहीं।’ मोहन जी ने जम्हाई ली।
‘मुझे लगता है, वे बाहर ही लंच भी लेंगे।’
‘फिर तुम यह क्या रही हो? चलो चलें। वहीं खाना खा लेना-’
‘जी नहीं, मुझे भूख नहीं है। कल रात हमने देर में पीजा खाया था। अभी तक पेट भरा हुआ लगता है।’

उसने कनॉट प्लेस, साऊथ एक्सटेंशन और दूसरे कई स्थानों पर होटलों और रेस्तराओं के सामने इसी पीजा के विज्ञापन और बैनर देखे थे। उसने सोचा कि सरला से पूछ ले कि यह पीजा होता क्या है? कैसा होता है? पता नहीं क्यों उसे यह प्रश्न पूछना उचित न लगा। उसने बात बदल दी-
‘यह बताओ, प्रमोद का मित्र यहां अकेले रहता है?’
‘जी नहीं, उसकी पत्नी मिसेज दास गुप्ता यहां लेडी श्रीराम कालिज में इतिहास पढ़ाती हैं। आपके आने से पहले ही वह कालिज के लिए चली गईं। उनकी गाड़ी आज ये दोनों ले गये थे। इसीलिए उसे थोड़ा जल्दी निकालना पड़ा।’
मोहन ने घड़ी देखी। दस अभी बजे नहीं थे।
‘क्या मुझे यहां एक जामवार शाल मिल जायेगी?’ सरला ने एकदम पूछ लिया।
‘क्यों नहीं मिलेगा? मगर इसका विचार तुम्हें एकदम कैसे आया?’

‘कलकत्ता में मुझे किसी पार्टी में एक मिसेज तिक्कू मिलीं। वह पुरानी कश्मीरन हैं। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘क्या तुम्हारे पास जामवार शाल नहीं है? फिर तुम कैसी कश्मीरन हो?’

‘खैर यहां कनॉट प्लेस, इरविन रोड या पृथ्वीराज रोड के कश्मीर एम्पोरियम में अवश्य उपलब्ध होगा। हमारी कॉलोनी में एक कश्मीरी शालवाला आता है। वह कुछ सस्ता भी देगा।’
‘इस बार मैं खरीद नहीं सकती।’ सरला ने कहा ‘इस महीने हमारा सारा वेतन आयकर में कट जायेगा।’

मोहन कुछ मायूस-सा हो गया। उसे अपनी बहिन पर दया आई। एक तो कलकत्ता जाने पर इनके काफी पैसे खर्च हुए होंगे और फिर इसी महीने इनका सारा वेतन इन्कम टैक्स में कट जायेगा। कितना ही बड़ा पद क्यों न हो या कितना भी अधिक वेतन हो, मगर एक बेचारा मुलजिम दरअसल ठन-ठन गोपाल ही होता है...

जिप्सी को नींद आ गई और सरला उसे भीतर सुलाने के लिए ले गई। कुछ देर के पश्चात् जब वह लौटी, मोहन ने जेब में रेलवे आरक्षण का फार्म निकाला और उन पर दोनों पति-पत्नी के नाम लिखने लगा। लिखा-

‘मिस्टर प्रमोद गंगोली, पुरुष, 30 वर्ष’ फिर लिखा ‘मिसिज सरला’। सरला लिखकर थोड़ी देर के लिए उसका हाथ रुक गया। मगर फिर उसके साथ ‘गंगोली’ लिखना पड़ा-‘मिसिज सरला गंगोली, स्त्री, आयु 26 वर्ष।’ ये दोनों नाम लिखकर उसने सरला से पूछा।
‘अच्छा, किस दिन के लिए आप लोगों को रिजर्वेशन चाहिए?’

‘रेलवे रिजर्वेशन क्यों चाहिए?’ सरला ने उत्तर दिया। ‘हमने फैसला किया है कि हम जहाज से चले जायेंगे। हो सकता है वे हवाई जहाज के टिकट लेकर ही आ जाएं।’

मोहन पता नहीं क्यों दंग-सा रह गया। उसकी समझ में नहीं आया कि इन्कम टैक्स में सारे महीने के वेतन चले जाने की बात करने से क्या सरला ने वाकई अपनी परेशानी प्रकट कर ली थी या अपनी बड़ाई की डींग मारी थी। उसे लगा कि सरला सचमुच उससे बहुत दूर हो गई है। ‘गंजू’ से ‘गंगोली’ बनने से नहीं, कश्मीर से कलकत्ता या अहमदाबाद जाने से भी नहीं, बल्कि किसी दूसरी वजह से। उसे सख्त गुस्सा आया। हाथ में जो फार्म था। उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। मगर यह सोचकर कि दासगुप्त बाबू के घर के इस ड्राइंग रूम में कूड़ा नहीं गिरना चाहिए। उसने कागज के उन टुकड़ों को नीचे न फेंक कर चुपचाप अपनी जेब में रख लिया।

*****

‘तुम क्यों अकेले ही आ गये? वे लोग कहां हैं?’ शीला ने पूछा।
‘वे वहीं रह जायेंगे। केवल यहां रात को खाना खाने आ जायेंगे।’ यह कहकर मोहन ने कोट-पतलून उतारी और पाजामा पहन लिया। बेड पर चढ़कर एक कंबल ओढ़ लिया और लेट गया।
‘बिना खाये-पिये ही क्यों लेट गये? उठिए, खाना खा लीजिए।’
‘नहीं, मुझे भूख नहीं है। मैंने वहां पता नहीं क्या-क्या खाया...चमचम और...और पीजा।’
‘चमचम क्या होता है? पीजा क्या होता है?’
‘वह बाद में बता दूंगा। फिलहाल मुझे आधा घण्टा आराम करने दो।’

मगर लेट कर भी उसे चैन नहीं आया। उसे अपनी बेवकूफी का बुरी तरह से अहसास हो गया था। उसे पता चल गया था कि गणित के प्रश्न हल करने, इतिहास में प्रश्न याद रहने, सही अंग्रेजी बोलने-लिखने को ही बुद्घि नहीं कहते हैं। अक्लमन्दी बाबू टाक की है। माना कि उसे यह पता नहीं था कि अंग्रेजी में कहां सिंक का प्रयोग होता है और कहां ड्राउन का। मगर यह उसे पता था कि आदमी कैसे पार हो सकता है और कैसे डूब जायेगा। उसे पढ़ना-लिखना नहीं आता था, क्योंकि उसने इसकी ओर कभी ध्यान नहीं दिया। वह उनसे अधिक अनिवार्य कार्यों में जैसे लड़कों के साथ मित्रता बढ़ाने, लड़कियों को फंसाने, फ्लश खेलने और उसमें जीतते रहने में, अपने और गैरों को प्रसन्न रखने आदि में लगा रहता था। अगर उसने पढ़ने-लिखने की ओर भी ध्यान दिया होता तो उसमें भी मोहन को पछाड़ा होता।

उसी समय बबलू और डबलू स्कूल से आये। अपने बस्ते रखकर वे चिल्लाने लगे,
‘जिप्सी कहां है? बोलो मम्मी? वे लोग क्यों नहीं आये?’
मोहन अपने बेड से एकदम उठ खड़ा हुआ और दोनों बच्चों को उसने जोर से चांटे रसीद किये।
‘अभागे बच्चों!’ व्यर्थ में शोर मचा दिया। क्या ‘हिन्दी’ बोलते हैं? जैसे इनकी सात पीढ़ियां यहीं जन्मी हों। अभागे, न ये वहां के रहे और न यहां के’।
बच्चे और उनकी मां निस्तब्ध और अवाक् देखते रहे। मोहन ने दुबारा सिर से पैर तक कंबल ओढ़ा और लेट गया।