यह गली बिकाऊ नहीं (उपन्यास) : ना. पार्थसारथी

Yeh Gali Bikau Nahin (Novel) : Na. Parthasarathy

'यह गली बिकाऊ नहीं' साहित्य अकादेमी पुरस्कार-प्राप्त तमिल उपन्यास है। इसके अनुवादक रा. वीलिनाथन हैं ।

यह गली बिकाऊ नहीं : पन्द्रह

तीन, दो और एक गिन-गिनकर आखिर वह दिन भी आ ही गया। दोपहर को एक बजे उड़ान थी। सिंगापुर जाने वाले एयर इण्डिया के बोइंग विमान में यात्रा का प्रबंध हुआ था। अब्दुल्ला ने आग्रह किया था कि पहले पिनांग में ही नाटक प्रदर्शन होना चाहिए। इसलिए सिंगापुर में उतरने के बाद, उन तीनों को हवाई जहाज बदलकर पिनांग जाना था। उन्हें लिवा ले जाने के लिए स्वयं अब्दुल्ला 'सिंगापुर हवाई अड्डे पर उपस्थित होनेवाले थे ।

यात्रा के दिन गोपाल बहुत-बहुत खुश था। माधवी. और मुत्तुकुमरन् से किसी प्रकार की तकरार या तनाव न बढ़ाकर सलीके से पेश आ रहा था। बँगले में आने-जानेवालों का तांता लगा हुआ था। पोर्टिको और बगीचे में जगह न होने से अनेक छोटी-बड़ी कारें बोग रोड में ही खड़ी की गयी थीं।

'जिल जिल' और दूसरे पत्रकार फोटो खींचते अधा नहीं रहे थे। आने-जानेवालों में से किसी को भी गोपाल ने अपनी आँखों से बचने नहीं दिया और हाध मिलाकर विदा ली ! सिने-निर्माता, सह-कलाकार और मित्र-वृन्द बड़ी-बड़ी मालाएँ पहनाकर गोपाल को विदा कर रहे थे और फिर वापस जा रहे थे। पूरे हाल में फर्श पर गुलाब की पंखुरियाँ ऐसी बिखरी थीं, भानो खलिहान में धान की मणियाँ सुखायी गयी हों। एक कोने में गुलदस्तों का अंबार-सा लगा था।

पौने बारह बजे हवाई अड्डे के लिए वहाँ से रवाना हुए तो गोपाल की कार में कुछ फ़िल्म-निर्माता और सहयोगी कलाकार भी चढ़ गये थे। इसलिए मुत्तुकुमरन् और माधवी को एक अलग कार में अकेले चलता पड़ा।

मीनम्बाक्कम में भी कई लोग माला पहनाने आये थे। दर्शकों की अपार भीड़ थी। मुचकुमरन के लिए यह पहला हवाई सफर था। अतः हर बात में उसकी जिज्ञासा बढ़ रही थी।

बिदा देनेवालों की भीड़ गोपाल पर जैसे छायी हुई थी। उनमें से बहुतों को माधवी भी जानती थी! उनसे बात करने और विदा होने के लिए वह गोपाल के पास चली जाती तो वहाँ मुत्तुकुमरन् अकेला रह जाता । इसलिए वह मुत्तुकुमरन् के पास ही खड़ी रही। बीच-बीच में गोपाल उसका नाम लेकर पुकारता और कुछ कहता तो वह जाकर उत्तर देती और वापस आकर मुत्तुकुमरन के पास खड़ी हो जाती।

माधवी को यह अपना कर्तव्य-सा लगा कि वह इस तड़क-भड़क और चहल- पहल बाले माहौल में मुत्तुकुमरन् को अकेला और अनजाना-सा महसूस नहीं होने दे। क्योंकि वह उसकी मानसिकसा से परिचित थी। साथ ही, उसे इस बात की भी आशंका थी कि उसे हमेशा मुत्तुकुमरन के पास देखकर कहीं गोपाल बुरा न मान “जाये। पर उसने उसकी कोई परवाह नहीं की।

'कस्टम्स' की औपचारिकता पूरी करके जब वे विदेश जानेवाले यात्रियों की "लाउंज' में पहुँचे तो मुत्तुकुमरन ने माधवी को छेड़ा, "तुम तो नाटक की नायिका हो और गोपाल नायक । तुम दोनों का जाना जरूरी है। मेरी समझ में नहीं आता कि तुम दोनों के बीच तीसरे व्यक्ति की हैसियत से किस खुशी में सिंगापुर आ रहा हूँ ?"

माधवी ने एक-दो क्षण इसका कोई उत्तर नहीं दिया। हँसकर टाल गयी। कुछ क्षणों के बाद उसके कानों में मुंह ले जाकर बोली, “गोपाल नाटक के कथा- नायक हैं। पर कथानायिका के असली कथानायक तो आप ही हैं !"

यह सुनकर मुत्तुकुमरन के होंठ खिल उठे। उसी समय गोपाल उनके पास आया और पूछा, "उस्ताद के कानों में कौन-सा लतीफ़ा डाल रही हो?"

"कुछ नहीं ! इनकी यह पहली हवाई यात्रा है !"

"हाँ-हाँ ! यह 'माइडेन फ़लाइट'-पहली उड़ान है ! पर लगाकर उड़ेंगे !"

गोपाल आज बेहद खुश था। बोला, "हमें अपनी धाक का ऐसा डंका पिटवाना चाहिए कि मलेशिया भर में इसी बात की चर्चा होती रहे कि वहाँ के लोगों ने ऐसा बढ़िया नाटक आज तक नहीं देखा!"

सिंगापुर जानेवाला एयर-इण्डिया 'बोइंग' विमान बंबई से उड़ता हुआ बड़ी भव्यता के साथ उतरा। ऊँची आवाज भरते हुए उस विमान के उतरने का दृश्य मुत्तुकुमरन् बड़े उत्साह और विस्मय से देख रहा था। उस-जैसे देहाती कवि के लिए ये सब बिल्कुल नये अनुभव' थे । इनसे उसे गर्व अनुभव हो रहा था ।

माधवी भी उस दिन खूब सज-धजकर आयी थी। मुत्तुकुमरन्। को बार-बार यह भ्रम होने लगा कि वह किसी अपरिचित लड़की को देख रहा है । अपना भ्रम दूर करने के बहाने बार-बार उसे देखकर वह पुलकित हो रहा था। थोड़ी देर में इस हवाई जहाज़ के यात्री अन्दर आकर बैठने के लिए बुलाये गये।

माधवी, मुत्तुकुमरन और गोपाल हवाई जहाज की ओर बड़े । हवाई जहाज के अन्दर घुसते ही भीनी-भीनी खुशबू हवा में और मीठी-मीठी स्वर-लहरी कानों में तैरने लगी। मुत्तुकुमरन्, माधवी और गोपाल की सीटें एक ही कतार में एक-के- बाद एक थीं। माधवी बीच में बैठी । मुत्तुकृमरन् इस ओर बैठा और गोपाल उसः ओर।

जब जहाज गंभीर ध्वनि के साथ उड़ने लगा तो जमीन से ऊपर उड़ने का उत्साह तीनों के मन में भर उठा। 'आ हा ! ज़मीन से ऊपर उड़ने में कितना. आनन्द है!'

हवाई जहाज़ के ऊपर और ऊपर उड़ने पर गोपाल ने 'ह्विस्की मँगाकर पी। मुत्तुकुमरन और माधवी ने 'आरेंज जूस'। तीनों ‘एकॉनमी क्लास के थानी थे। अतः गोपाल ने 'ह्विस्की के लिए पैसा भी दिया।

मुत्तुकुमरन् को लगा कि हवाई जहाज के अन्दर एक छोटी-सी दुनिया ही चल रही हैं । गौर से न देखने पर लगा कि इतनी तीनमति से चलनेवाला जहाज भीतर जैसा का तैसा खड़ा है। इस नये अनुभव के सुख में बहते हुए मुत्तुकुमरन् को.माधवी या गोपाल से बातें करने का ख्याल ही नहीं आया ।

हवाई जहाज के अन्दरवाले 'माइक ने प्रसारित किया कि अब हम निकोवार द्वीपों के ऊपर से उड़ रहे हैं। नीचे नारियल के पेड़ और खपरैल घर वाले छोटे- छोटे बिदुओं के रूप में-धुंधली-सी जमीन पर पड़े दिखायी पड़ी।

जिस एम्बार्केशन कार्ड के बँटने पर माधवी ने उनपर हस्ताक्षर करके 'होस्टेस' को वापस सौंप दिया। दोपहर का भोजन हवाई जहाज पर ही बाँटा गया।

गोपाल ने खाने के बाद फिर 'ह्विस्की' मँगाकर पी ।

हवाई जहाज़ के नब्बे से अधिक यात्रियों को-परिचारिकाओं ने कितनी फुर्ती से खाना परोसा? किलती मीठी आवाज में यात्रियों के कानों के पास अपने होंठों को ले जाकर उनकी फरमाइशों के बारे में पूछताछ की? मुत्तुकुमरन् यह तमाशा देखकर विस्मय में पड़ गया !

हवाई जहाज में हल्की ठंडक और 'यू-डी-कोलोन' की खुशबू तिर रही थी। मुत्तुकमर ने इस बारे में पूछा तो गोपाल ने कहा कि हर 'उड़ान' के पहले 'एयर क्राफ्ट' के अन्दर खुशबू 'स्प्रे की जाती है ।

नीचे बहुमंजिली इमारतें, समुद्र पर तैरनेवाले जहाज़ आदि दीख पड़े। सिंगापुर का स्थानीय समय सूचित किया गया--भारत और सिंगापुर के समय में लगभग दो घंटे से अधिक का फ़र्क था। यात्रियों ने तुरन्त अपनी-अपनी घड़ियाँ मिला लीं।

हवाई जहाज़ सिंगापुर के हवाई अड्डे पर उतरा। भीनम्बाक्कम से चलते हुए माधवी ने मुत्तुकुमरन् की जिस तरह से बाँधने में मदद की थी, वैसी ही मदद जहाज़ से उतरते वक्त भी 'सीट बेल्ट' खोलने में की।

हवाई अड्डे के "रन-वे' में छोटे-बड़े कई हवाई जहाजों को खड़े पाकर मुत्तुकुमरन् एकदम विस्मय में पड़ गया। अपने प्रिय कलाकारों को देखने के लिए हवाई अड्डे के बाहर-भीतर और बालकनियों में खचाखच भीड़ भरी थी। अब्दुल्ला ने आगे बढ़कर सबका स्वागत किया। मालाओं के पहाड़ ही लग गये। हवाई अड्डे के 'लाउंज में ही माधवी और गोपाल ने टेलिविजन के लिए “इन्टरव्यू' दिया । उत्सुक भीड़ 'ऑटोग्राफ' के लिए जैसे उमड़ पड़ी।

मुत्तुकुमरन् के नाम-यश या आगमन का अधिक विज्ञापन नहीं किया गया था। अत: माधवी और गोपाल के इर्द-गिर्द ही स्वागत की रौनक थी; मालाओं का 'अंबार लगा था।

मुत्कुमरन ने इसका बुरा नहीं माना। उसने दुनिया के सामने अपना ढिंढोरा ही कहाँ पीटा था कि उसका भी ठाठ-बाट से स्वागत हो ! सिने-सितारों की हैसियत पर पहुँचनेवालों का जो 'ग्लैमर होता है, वह मुत्तुकुमरन जैसे कलाकारों को आसानी से कहाँ से मिलेगा? अभी-अभी तो वह मद्रास आया है और गोपाल की मेहरबानी से एक नाटककार बनने का उपक्रम कर रहा है। जो अपने देश में ही नसीब नहीं, वह सम्मान दूसरे देशों में क्यों कर मिलेगा? मुत्तुकुमरन् को अपनी . इस हैसियत का खूब पता था। फिर भी, लोगों ने उसके सुदर्शन व्यक्तित्व को यों देखा, मानो किसी कलाकार को देख रहे हों। इसपर वह दिल-हो-दिल में खुश हो रहा था। अब्दुल्ला जिस तरह माधवी और गोपाल से पेश आये, वैसे मुत्तुकुमरन के साथ पेश नहीं आये। हो सकता है, इसके मूल में मद्रास में उनके साथ हुई घटनाएँ हों। माधवी से भुत्तुकुमरन् ने कहा, “मुझे डर लग रहा है कि भीड़ में मैं कहीं खो न जाऊँ और तुम लोग भी इस चहल-पहल में मुझे भूल न जाओ। फिर मैं इस नये देश में क्या कर पाऊँगा?"

"वैसा कुछ नहीं होगा। मेरी आँखें चोरी-छिपे लेकिन हमेशा आपकी निगरानी कर रही हैं !"

"जब सबकी आँखें तुम्हारी ओर लगी हैं, तब तुम मुझे कहाँ से देख पाओगी?"

"मैं तो देख पा रही हूँ। पाओगी का सवाल ही नहीं उठता। न जाने आपने मुझपर कौन-सा टोना-टोटका कर दिया कि मैं आपके सिवा और किसी को देख ही नहीं पा रही !"

माधवी की बात सुनकर वह फूला न समाया।

सिंगापुर के हवाई अड्डे के 'लाउंज' में पौन घंटा बिताने के बाद, वे एक-दूसरे ह्वाई जहाज पर पिनांग के लिए रवाना हुए। पिनांग जानेवाले 'मलेशियन एयरवेज़' के हवाई जहाज पर अब्दुल्ला और गोपाल केबिन के पासवाली अगली सीट पर अकेले बैठकर बातें करने लग गये। उनके चार सीट पीछे मुत्तुकुमरन् और माधवी भी साथ बैठकर बातें करने लगे । जहाज पर कोई विशेष भीड़ नहीं थी।

माधवी बड़े प्यार से बोली, "जहाँ देखो, इस देश में, हरियाली-ही-हरियाली नज़र आती है ! यह जगह सचमुच बहुत अच्छी है !"

"हाँ, यह देश ही क्यों ? इस देश में तुम भी इतनी प्यारी लग रही हो कि बिलकुल परी-सी लगती हो !

"आम तो खुशामद कर रहे हैं।"

"तभी तो कुछ मिलेगा?"

सचमुच, माधवी का दाहिना हाथ उसकी पीठ के पीछे से माला की तरह बढ़ा और उसका दाहिना कंधा सहलाने लगा। "बड़ा सुख मिल रहा है !"

"यह हवाई जहाज़ है। आपका 'आउट हाउस' नहीं। अपनी मर्जी यहाँ नहीं चल सकती "तुम्हारी बातों से तो ऐसा लगता है कि जब कभी तुम 'आउट हाउस में भायीं, मैंने अपनी मर्जी पूरी कर ली !"

"सोबा ! तोबा ! इसमें मेरी मर्जी भी शामिल हैं, मेरे राजा !" माधवी ने उसके कानों में फुसफुसाया।

मुत्तकुमरन् ने उससे पूछा, "जो समुद्री जहाज़ से चले थे, वे आज पिनांग पहुँच गये होंगे न?"

"नहीं, कल सवेरे ही पहुँचेंगे । कल उनका पूरा रेस्ट' है। पहले हम तीनों का प्रोग्राम है-'साइट सीइंग' का ! पहला नाटक परसों है।"

"कहाँ-कहाँ नाटक खेलने का आयोजन हुआ है ?"

"पहले के चार दिन पिनांग में नाटक का मंचन है । बाद के दो दिन ईप्पो में हैं। उसके बाद एक हफ्ते के लिए क्वालालम्पुर में है। बाद के दो दिनों में फिर 'साइट सीइंग', रेडियो और टेलिविज़न के लिए साक्षात्कार बगैरह हैं। अंतिम सप्ताह सिंगापुर में नाटक है। फिर वहीं से मद्रास के लिए हवाई उड़ान है।"

माधवी ने उसे पूरा कार्य-क्रम बता दिया। मुत्तुकुमरन् को उसके साथ बातें करते रहने का जी हुआ तो बोला, "आज तुम्हारे होंठ इतने लाल क्यों हैं ?"

"बोलो न!"

"इसलिए कि आपसे मुझे बड़ा प्यार है !"

"गुस्से में भी औरतों के होंठ लाल हो जाते हैं न ?"

"हाँ हाँ ! हो जाते हैं। थोड़ी देर पहले सिंगापुर के हवाई अड्डे पर आप जैसे महान व्यक्ति का स्वागत न कर, हम जैसे नाचीज़ खिलाड़ियों का जब अब्दुल्ला ने दौड़-दौड़कर और सिर पर उठाकर स्वागत किया था, तब मुझे इस दुनिया पर बड़ा गुस्सा आ रहा था।"

"तुम्हें गुस्सा आया होगा; पर मुझे नहीं। मेरा दिल तो उस वक्त बल्लियों उछलने लगा था। हाँ, मुझे इस बात से अवश्य गर्व ही हो रहा था कि मेरी माधवी का कितना मान-सम्मान हो रहा है। उतनी बड़ी भीड़ में, महल जैसे हवाई अड्डे के 'लाउंज' में, हाथों में भारी-भरकम फूलों की मालाएँ लिये हुए तुम तितली की तरह खड़ी थी और मेरा दिल बुलबुल की तरह फुदक रहा था !"

"अगल-बग़ल में न जाने कौन खड़े थे ! और मेरा दिल तड़प रहा था कि आप खड़े हों तो कितना अच्छा रहे ?"

"हाँ, मुझे इसका पता है ! क्योंकि अब हम दो दिल नहीं, एक-दिल हैं !"

"आपके मुंह से यह सब सुनते हुए बड़ी खुशी हो रही है ! जैसे वसिष्ठ के मुंह से ब्रह्मर्षि सुनना ।”

"क्या कहती हो. "आपके मुंह से आख़िर निकल गया न कि हम दोनों एक हैं !"

मुत्तुकुमरन् के मन में आया कि बातें बंदकर माधवी को आलिंगन में भरकर तुम?" एक हो जाये।

इसी वक्त गोपाल और अब्दुल्ला वहाँ आये ।

"माधवी ! अब्दुल्ला साहब तुमसे कुछ कहना चाहते हैं। जरा उस तरफ़ अगली 'सीट' पर चली जाओ न !” गोपाल ने आँखें मटकाकर कहा तो माधवी की आँखें आप-ही-आप मुत्तुकुमरन पर ठहर गयीं।

"माफ़ करना उस्ताद !" गोपाल ने मुत्तकुमरन् से ही प्रार्थना की, मानो उसकी धरोहर को एक पल के लिए माँग रहा हो । मुत्तुकुमरन् को आश्चर्य हो रहा था कि वह उससे क्यों अनुमति चाह रहा है ? साथ ही, उसका आँखें मटकाकर माधवी को बुलाने पर क्रोध भी आ रहा था।

गोपाल के कहने पर भी, माधवी मुत्तुकुमरन को देखती हुई यों बैठी रही कि बिना उसकी अनुमति के, उठने का नाम नहीं लेगी।

अब्दुल्ला का चेहरा कठोर हो गया। वह भारी आवाज में अंग्रेज़ी में चीखे, "हू इज ही टु ऑर्डर हर ? ह्वाय आर यू अननेसेसरिली आस्किग हिम् ?"

"जाओ ! अंग्रेजी में वह कुछ चिल्ला रहा है ।" मुत्तुकुमरन ने माधवी के कानों में कहा।"

अगले क्षण माधवी ने जो किया, उसे देखकर मुत्तुकुमरन् को ही विस्मय होने लगा।

"आप जाइए ! मैं थोड़ी देर में वहाँ आती हूँ ! इनसे जो बातें हो रही थीं, उन्हें पूरा करके आऊँगी !"-माधवी ने अब्दुल्ला को वहीं से उत्तर दिया।

गोपाल का चेहरा कटु और कठोर हो गया । दोनों 'केबिन' की ओर बढ़े और पहली कतार की अपनी सीटों पर गये तो मुत्तुकुमरन् बोला, "हो आओ नः ! बिदेश आकर व्यर्थ की बला मोल क्यों ले रही हो ?"

माधवी के होंठ फड़क उठे। बोली, "मैं चली गयी होती । पर उसने अंग्रेजी में क्या कहा, मालूम?"

"कहो तो सही।"

"आपके बारे में गोपाल से उसने कहा कि इसे हुक्म देनेवाला यह कौन होता है ? उससे जाकर क्यों पूछते हो?"

"उसने तो कुछ ग़लत नहीं कहा । ठीक ही तो. कहा उसके होंठ आरक्त पुष्प बनकर फड़कने लगे । आँखों में आँसू भर आये। दोनों का भेद यद्यपि मुत्तुकुमरन् ने कौतुक के लिए किया था, फिर भी माधवी उसे बर्दाश्त नहीं कर सकी।

अब्दुल्ला के पास नहीं जाऊँगी, नहीं जाऊँगी।" कहकर फड़कते होंठों वह हाथ बांधे बैठ गयी।

हवाई जहाज किसी अड्डे पर उतरा। नीचे ज़मीन पर 'कोत्तपारु एयरपोर्ट' लिखा हुआ दिखायी दिया। मालूम हुआ कि वह जहाज़ कोत्तपार, कुवान्तान, क्वालालम्पुर, ईप्पो आदि जगहों में उतरने के बाद अन्त में पिनांग को जाएगा।

धीरे-धीरे अँधेरा छा रहा था। शाम के झुटपुटे में वह हवाई अड्डा और चारों ओर के हरे-भरे पर्वत-प्रदेश बहुत सुन्दर दिखायी दिये ।

जहाँ देखो, मरकत की हरीतिमा छायी थी । पहाड़ों पर रबर के बगीचे ऐसे दिखायी दे रहे थे, मानो 'कलिंग' करके केश कुन्तल-से बनवाये गये हों। केले और रम्बुत्तान के पेड़ झुंड-के-झुंड खड़े थे। वहाँ को पर्वतस्थली वनस्थली जैसी थी।

रम्वुत्तान, डोरियान जैसे मलेशियाई फलों के बारे में स्वदेश में ही मुत्तुकुमरन् ने चेट्टिनाडु के एक मित्र के मुंह से सुन रखा था।

एक मलाय स्त्री, जो उस हवाई जहाज की होस्टस बी, हाथ में लिये केबिन से निकलकर आखिरी सिरे तक आती-जाती रही । उसका डील-डौल ऐसा था कि पीठ और छाती का फ़र्क ही मालूम नहीं पड़ता था। लेकिन उसकी आँखें ऐसी सुन्दर थीं, मानो सफ़ेद मखमल पर काले जामुन लुढ़क गये हों।

हवाई जहाज़ उस अड्डे से रवाना हुआ तो सिर्फ गोपाल उनके पास आया और बोला, "माधवी ! तुम्हारा वर्ताव अगर तुम्हें ठीक लगे तो ठीक है।"

माधवी ने आँखें पोंछी और सीट की बेल्ट खोलकर उठी। इस बार मुत्तुकूमरन् से कुछ कहे और उसका मुंह देखे बिना अब्दुल्ला की सीट की ओर बढ़ी। मुत्तुकुमरन् अपने को अकेला महसूस न करे—इस विचार से गोपाल माधवी. की सीट पर बैठकर उससे बातें करने लगा।

"बात यह है उस्ताद ! अब्दुल्ला जरा शौकीन किस्म का आदमी है। काफ़ी बड़ा रईस। एक तारिका के पास बैठने-बोलने को लालायित है। औरतों का दीवाना भी है। उसके पास बैठकर जरा देर बातचीत करने में क्या बुराई है ? उसी की 'कांट्रेक्ट' पर ही तो हम इस देश में आये हैं। ये बातें माधवी की समझ में नहीं आतीं। ऐसा तो नहीं कि वह बिलकुल नहीं समझती । वह बड़ी होशियार है और अक्लमंद भी । आँखों के इशारे समझनेवाली है। वैसे उस्ताद तुम्हारे आने के बाद वह एकदम बदल गयी है। जिद पकड़ लेना, गुस्सा उतारना, उदासीनता बरतनान जाने क्या-क्या बदलाव आ गये?"

"यह सब मेरी ही वजह से आये हैं न?"

"ऐसा कैसे कहूँ ? फिर तुम्हारे गुस्से का कौन सामना करे?"

"तो फिर किस मतलब से तुमने यह बताया गोपाल ?"

मुत्तुकुमरन् की आवाज को ऊँचा पड़ते देखकर गोपाल दिल-ही-दिल में डर गया। मुत्तुकुसरन् आग उगलते हुए बोला-"औरत औरत है। कोई व्यापार की

चीज़ नहीं। उसकी इज्जत का ख्याल रखना चाहिए। तुम्हारा यह काम मुझे

कलाकार का काम नहीं लगता। ऐसे काम करनेवाले तो दूसरे होते हैं । मुझे इतना तो जरूर पता चल गया है कि अब तुम पहले के नाटक कंपनीवाले गोपाल नहीं ! अब्दुल्ला या ऐरा-गैर कोई तुम्हारी कद्र करे तो इसलिए करे कि तुम एक कला- कार हो। इसलिए नहीं कि तुम्हारे साथ चार-पाँच लड़कियाँ हैं, जो तुम्हारे इशारे पर चल सकती हैं। क्या तुम ऐसी ही कद्र की खोज में हो ? बड़े अफ़सोस की बात है।"

इस गहमा-गहमी के बीच, दोनों को इस बात का खयाल नहीं रहा कि हबाई जहाज कहाँ-कहाँ उतरा और फिर उड़ान भरता रहा ।

जंब हवाई जहाज क्वालालम्पुर के सुबाङ इन्टरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरा तो अब्दुल्ला ने आकर कहा, "यहाँ कुछ लोग माला पहनाने आये होंगे। ज़रा आइए । लाउंज तक हो आयें।"

गोपाल गया। माधवी संकोचवश खड़ी रही। मुत्तुकुमरन् तो अपने आसन से उठा ही नहीं। वह माधवी से बोला, "मैं नहीं आता। मेरे लिए कोई माला नहीं लाया होगा । तुम हो आओ!"

"तो मैं भी नहीं जाती।"

अब्दुल्ला ने फिर हवाई जहाज़ के अन्दर आकर अनुरोध किया, "डोंट क्रिएट ए सीन हियर, प्लीज़ डू कम ।"

माधवी उनके पीछे चली। उसने भी तो सिर्फ माधवी को ही बुलाया था।

अब्दुल्ला ने मुत्तुकुमरन् की ओर तो आँखें उठाकर देखा तक नहीं। क्वालालम्पुर में आये हुए लोगों की मान-मर्यादा और गुलदस्ते स्वीकार कर गोपाल, अब्दुल्ला और माधवी-तीनों हवाई जहाज पर चढ़ आये। "अरे रे ! उस्ताद नीचे उतरकर नहीं आये क्या?" गोपाल ने ऐसी नकली हमदर्दी-सी जतायी, मानो मुत्तुकुमरन् के. हवाई जहाज़ के अंदर ही ठहर जाने की बात का उसे अभी- अभी पता चला हो । मुत्तुकुमरन ने उसका कोई उत्तर नहीं दिया।

हवाई जहाज फिर उड़ान भरने लगा तो पहले की तरह अब्दुल्ला और गोपाल अगली पंक्ति में बैठकर बातें करने चले गये। माधवी भी मुत्तुकुमरन के पास आकर, पहले जहाँ बैठी थी, वहीं बैठ गयी और रूमाल से मुंह ढक लिया, मानो बहुत थक गयी हो।

थोड़ी देर वे दोनों एक-दूसरे से कुछ नहीं बोले। अचानक किसी के सिसकने की आवाज़ आयी तो मुत्तुकुमरन ने आसपास की सीटों की ओर मुड़कर देखाः । आगे-पीछे की ही नहीं, अगल-बगल की सीटें भी खाली थीं। उसके मन में कुछ सन्देह हुआ तो उसने माधवी के चेहरे पर से रूमाल हटाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया । माधवी ने वह हाथ रोक लिया। लेकिन फिर उसने जबरदस्ती रूमाल खींच लिया तो देखा कि माधवी आँसू बहाती हुई सिसक रही है।

"यह क्या कर रही हो ? यहाँ आकर जगहँसाई करने पर तुली हो?"

"मेरा दिल खौल रहा है !"

"क्यों? क्या हुआ?"

"उस उल्लू के पट्ठे को इतना भी लिहाज़ नहीं रहा कि आपको भी बुला ले !"

"वह कौन होता है, मुझे बुलानेवाला ?" पूछते हुए उसने रूमाल से उसकी आँखें पोंछी और बड़े प्यार से उसके सिर के बाल सहलाये। "मेरा इसी क्षण मर जाने को जी कर रहा है। क्योंकि इस क्षण में आप मुझपर प्रेम बरसा रहे हैं। अगले क्षण कौन जाने, आपका गुस्सा उभारने का कोई ग़लत काम हो जाये ! इससे अच्छा तो प्यार के क्षणों में ही मर जाना है न।"

"सुनो! पागल की तरह बको मत ! और कोई दूसरी बातें करो हाँ, अब्दुल्ला के पास गयी थी न तुम ! वह क्या बोल-बक रहा था?

"कुछ नहीं, बेहूदी बातें बकता रहा। दस मिनट से भी ज्यादा देर तक उसकी बकवास सुननी पड़ी। कह रहा था कि 'आइ एम ए मैन ऑफ़ फैशन्स अंड फ़ैन्सीज़!"

"इसका क्या मतलब?"

माधवी ने मतलब भी बता दिया और इसके साथ ही, मुत्तुकुमरन भी बोलना बंद कर किसी सोच में पड़ गया।

हवाई जहाज़ ईप्पो में उतरा। वहां भी माला पहनाने के लिए कई प्रशंसक तैयार खड़े थे। सिर्फ गोपाल ही अब्दुल्ला के साथ उतरकर गया । माधवी सिर-दर्द का बहाना बनाकर इस सिर-दर्द से बच गयी।

यह गली बिकाऊ नहीं : सोलह

इप्पो के हवाई अड्डे पर अब्दुल्ला के साथ उतरा हुआ गोपाल वापस विमान के अन्दर लौट आया। उसने माधवी को बुलाया, “माधवी ! तुम एक मिनट आकर अपना मुंह तो दिखा आओ। अरे; आजकल सिर्फ मर्द जाए तो कौन रसिक कद्र करने को तैयार होता है ? पूछता है, आपकी मंडली में कोई अभिनेत्री नहीं है ?"

"मैं नहीं आती ! मुझे बड़ा सिर-दर्द हो रहा है।"

"प्लीज ! बहुत-से लोग हाथों में माला लिये खड़े हैं !"

माधवी असमंजस में पड़कर मुत्तुकुमरन को यों देखती रही मानो वह बाहर जाने या न जाने की अनुमति मांग रही हो।

"हो आओ न ! माला के साथ आये सज्जनों को निराश न करो !" मुत्तुकुमरन् ने आदेश दिया।

माधवी अनिच्छा से उठकर गयी । मुत्तुकुमरन् ने काँच के झरोखे से बाहर की भीड़ को देखा। चार-पाँच मिनट में दोनों-माधवी और अब्दुल्ला जहाज पर लौट आये।

जहाज फिर उड़ने लगा। पलक झपकते-न-झपकते पिनांग आ गया। पिनांग के हवाई अड्डे में भी दर्शकों की भीड़ उमड़ी पड़ी थी। बड़े ठाठ-बाट से उनका स्वागत हुआ । माधवी और गोपाल ने सबको मुत्तुकुमरन् का परिचय दिया। अब्दुल्ला ने जैसे उसकी परवाह ही नहीं की। मुत्तुकुमरन ने भी अब्दुल्ला की परवाह कहाँ की ? फिर भी उसे इस बात का दुख अवश्य हो रहा था कि अब्दुल्ला अपने देश में आये हुए मेहमान कलाकारों का मेज़बान होकर भी उदासीनता वरत रहा है।

हवाई अड्डे से पिनांग के शहर में जाते हुए काफ़ी अँधेरा हो चला था। उस रात अब्दुल्ला ने 'पिनांग हिल' के अपने बंगले पर उन्हें ठहराने की व्यवस्था की थी। इसलिए हवाई अड्डे से निकली कारें सीधे पिनांग हिल जाने वाली रेल गाड़ी पकड़ने के लिए स्टेशन पर आ रुकीं । उस छोटी-सी रेलगाड़ी को सीधे पहाड़ पर चढ़ते देखकर उन्हें बड़े उत्साह का अनुभव हो रहा था। उस रेल के डिब्बे में माधवी और मुत्तुकुमरन् पास-पास बैठे थे। नीचे मुड़कर देखा तो रेलवे स्टेशन और नगर के कुछ इलाकों की बत्तियाँ उस धुंधलके में-~~ रोशनी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनकर झिलमिला रही थीं।

पहाड़ी पर चढ़ने पर अब्दुल्ला के बँगले की ओर जानेवाले रास्ते से नीचे देखने पर समुद्र और पिनांय के बंदरगाह दीख पड़े। पिनांग से पिरै और पिर से पिनांग आने-जानेवाली फेरी-सर्विस की रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं। शहर की रंग- बिरंगी बत्तियों और नियान साइन दृश्यों से आँखें आनंद से चमक रही थीं। पिनांग के हिल पार्क में थोड़ी देर बैठे रहने के बाद, वे अब्दुल्ला के बँगले में गये । अब्दुल्ला का बँगला पहाड़ी के शिखर पर बनी फिर भी शांत बस्ती में स्थित था । बँगले की ऊपरी मंजिल पर हरेक को अलग-अलग और सुविधाजनक कमरे दिये गये।

रात के भोजन के बाद हॉल में बैठे बातें करते हुए अब्दुल्ला ने कहा, 'मिस्टर गोपाल ! 'कॉकटेल मिक्स' करने में इस मलेशियन 'एट्रयिट्स' भर में मैं 'एक्स्पर्ट' माना जाता हूँ । अनेक प्रांतों के सुलतान अपना जन्म-दिन मनाते हुए 'कॉकटेल 'मिक्स' करने के लिए मुझे विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं।"

“वह सौभाग्य मेहरबानी करके हमें भी प्रदान करें।"-गोपाल ने उनसे अनुनय किया ! माधवी और मुत्तुकूमरन् ने मुह नहीं खोला तो अब्दुल्ला ने अपनी बात जारी रखी, “आप जो कह रहे हैं, ठीक है । पर माधवी जी कुछ बोलती नहीं !

इस प्रॉबिन्स बेलसली से कितने ही करोड़पति मेरे हाथ का 'कॉकटेल' सेवन करने के लिए लगभग रोज़ ही यहाँ आते रहते हैं। न जाने क्यों, माधवीजी मुंह नहीं खोल रहीं ?"

"उसे इसकी आदत नहीं ! मेरे ख्याल में, उस्ताद तो साथ देंगे"-गोपाल ने मुत्तुकुमरन की ओर इशारा किया। पर अब्दुल्ला तो माधवी के पीछे ही पड़े हुए थे।

"सो कैसे ? इतने दिनों से माधवीजी फिल्म-जगत् में काम कर रही हैं। यह सुनते हुए यकीन नहीं होता है कि अभी आदत नहीं पड़ी ?"

माधवी ने इसका भी कोई उत्तर नहीं दिया। इस बीच अब्दुल्ला का नौकर 'कॉकटेल' बनाने के लिए तरह-तरह की शराब की बोतलें और प्याले मेज़ पर रख गया। विभिन्न चमकीले रंगों में, विभिन्न आकारों वाली वे बोतलें और प्यालियाँ इतनी सुन्दर थीं कि उन्हें चूमने को जी करता था। सुनहरी रेखाओं से बेल-बूटे कढ़ी प्यालियों पर से आँखें हटाना असंभव- सा था।

अब्दुल्ला उठे और मेज के पास जाकर कॉकटेल मिक्स करने लगे। गोपाल भी उठा और माधवी के पास जाकर बोला, "प्लीज! कीप कंपनी! आज एक दिन के लिए मेरी बात मानो। अब्दुल्ला का दिल न तोड़ो !" गोपाल अपनी बातों पर जितना अड़ा था, उससे रत्ती भर भी माधवी की जिद कम नहीं थी। अब्दुल्ला तो बात-बात पर माधवी का ही नाम संकीर्तन करते जा रहे थे। गोपाल अब्दुल्ला का दिल रखना चाहता था। पर माधवी हा ठाने हुए थी। गोपाल को उसके हठ पर क्रोध आ रहा था। असल में क्रोध उसके हठ पर भी नहीं, उस हछ को हवा देनेवाले व्यक्ति पर था ! मुत्तुकुमरन् जैसे आत्माभिमानी और हठी व्यक्ति की संगति में आने पर ही तो वह इतना बदल गयी थी ! मुत्तुकुमरन् जैसा मर्द उसके जीवन में नहीं आया होता तो माधवी झक मारकर उसकी बातें मानती चली जाती; उंगलियों पर नाचती-फिरती। इसीलिए गोपाल का क्रोध माधवी पर न जाकर मुत्तुकुमरन् पर गया। वह मन-ही-मन भुनभुनाया कि इस पापी कलमुहे. उस्ताद की वजह से ही तो माधवी में मानाभिमान और रोष का भाव इस तरह सवार है।

गोपाल को लगा कि माधवी के एक इशारे पर अब्दुल्ला जैसा व्यक्ति अपनी दौलत का सारा खजाना लुटा देगा। अब्दुल्ला की हर बात और हर नज़र पर जिद- भरी हवस का रंग चढ़ा हुआ था । बात जो भी हो, वह यही पूछते नजर आते कि माधवी जी भी आ रही हैं न? माधवीजी क्या कहती हैं? माधवी जी क्या चाहती हैं? लेकिन माधवी कुछ ऐसी निकली कि किसी को आँख उठाकर देखना हो या किसी पर मुस्कान फेरनी हो तो वह मुत्तुकुमरन् की आज्ञा चाहेगी। हो, बिना उसकी आज्ञा के माधवी लता का अब एक पत्ता भी नहीं हिलता।

गोपाल ने देखा कि ऐन मौका हाथ से निकला जा रहा है। उसे इस बात की पहले आशा नहीं थी कि वातावरण कुछ इस तरह करवट लेगा। उसे इस बात की तनिक बू तक लगी होती तो मुत्तुकुमरन् को इस सफ़र में साथ लाया ही नहीं होता।

शुरू में ही मुझे मना कर देना चाहिए था। मैंने बड़ी भूल कर दी ! अब पछताने से क्या फ़ायदा?' गोपाल विचारों में खो गया।

'कॉकटेल-मिक्स' करके, एक में चार गिलास उठाये जब अब्दुल्ला ने मुड़कर देखा तो पाया कि वहाँ गोपाल के सिवा कोई तीसरा नहीं था।

"वे कहाँ हैं ? मैंने तो चार गिलास मिला लिये हैं।"

"न जाने, कहाँ नीचे उतर गये ! शायद टहलने गये हों।"

"आप जरा जोर डालते तो बे रुक जाते, मिस्टर गोपाल ! वह नाटककार बड़ा ढीठ है और हमेशा उसी के पीछे लगा रहता है। उसे एक गिलास देकर दो चूंट पिला देते तो माधवी आप ही वश में आ जाती।"

गोपाल ने कोई उत्तर नहीं दिया। अब्दुल्ला बोलते चले गये--- "ऐसे 'ट्रिपों में ऐसे झक्की आदमी हों तो 'ट्रिप' का मजा ही किरकिरा हो जाता है । कंपनी देने के लिए आदमी चाहिए न कि बिगाड़ने के लिए। ऐसे ढीठ और सरफिरों को तरजीह देना ठीक नहीं।"

"क्या करें? सगुन के डर से बिल्ली को गोद में लाने जैसी बात हो गयी ! इस मनहूस को साथ लाने के पाप का फल भुगतना ही पड़ेगा ।"

दोनों आमने-सामने बैठकर 'कॉकटेल' में डूब गये।

बातों की दिशा बंदलकर गोपाल ने पिनांग शहर की सुन्दरता और स्वच्छता पर विस्मय प्रकट किया।

"इसकी वजह क्या है, मालूम है ? इस शहर को संवारने का काम अंग्रेजों ने किया है। वे इसे 'जॉर्ज टाउन' मानते हैं।"

"हमारे तमिळ भाइयों के अलावा यहाँ और कौन बसे हुए हैं ?" "चीनी हैं । सेनयीन नाम से मेरे एक दोस्त हैं। उनके घर हम कल 'लंच के लिए जा रहे हैं। बड़े भारी टिम्बर मर्चेन्ट हैं वे। हांगकांग में भी उनका 'बिजनस' चलता है। बड़े मिलनसार आदमी हैं।"

"हमारे नाटकों में सिर्फ तमिळ दर्शक आते हैं या चीनी और मलेशियन आदि भी आते हैं ?"

"सब आते हैं। पर नाटकों में विशेष रुचि लेनेवाले तो तमिळ ही अधिक हैं। नांच या 'ओरियंटल डान्स' जैसा कुछ हो तो चीनी और मलेशियन अधिक तादाद में आते हैं। आपका नाम तो सिने-संसार में भी काफी फैला है, इसलिए अच्छी कमाई होगी । पिनांग की ही बात लीजिए तो पहले के दो दिनों तक खेले जानेवाले नाटक तो अभी से हाउसफुल' हो गये हैं।"

"अच्छा ! दूसरे शहरों के इंतजाम कैसे होंगे?"

"क्वालालम्पुर, ईप्यो, मलाया, सिंगापुर-सभी जगहों में प्रोग्राम अच्छा ही रहेगा। सभी शहरों में आपके चाहनेवाले वड़ी तादाद में हैं।"

गोपाल 'कॉकटेल' का दूसरा प्याला भी गटक गया। अब्दुल्ला ने नौकर को बुलाकर माधवी और मुत्नुकुमरन् के बारे में पूछताछ की । पिनांग हिल पर अब्दुल्ला के बँगले के पास ही एक पार्क था। नौकर ने कहा कि दोनों उसी ओर गये होंगे। गोपाल जरा ज्यादा ही थक गया था। नशा भी चढ़ रहा था। इसलिए लड़खड़ाते पैरों अपने कमरे में गया और बिस्तर पर गिर गया।

अब्दुल्ला नाइट गाउन पहनकर हाथ में पाइप लिये आये और द्वार पर कमरे के अन्दर सोफ़ा लगवाकर बैठ गये। उनके मुख से पाइप का गोलाकार धुआँ सिर पर गुम्बद-सा बनाता और मिटाता जा रहा था ।

उनके मन से माधवी की याद मिटी ही नहीं। सच पूछा जाएं तो नशे-पर-नशा चढ़ा था । पिनांग शहर में ही उनका एक बैंगला था। उसमें घर के लोग रहते थे। इसीलिए वे 'हिल' वाले बँगले पर आये थे। उन्हें इस बात की तकलीफ़ हो रही थी कि यहाँ आकर भी हम माधवी को वश में नहीं कर पाये। अब वे इसी ताक में उसके लौटने की राह पर बैठे थे कि कोई-न-कोई व्यूह बनाकर किसी-न-किसी तरह, माधवी को वश में कर लें।

द्वार के बाहर कोहरा धुएँ की तरह छाया हुआ था। धीरे-धीरे सरदी भी बढ़ने लग गयी थी।

नीचे समुद्र में उस पार से पिनांग द्वीप को जोड़नेवाले फेरी बोट आते 'साइरन बजा रहे थे। उनकी मंद-मंद ध्वनि कानों में सुनायी दे रही थी। उस पार के, पिरै की बत्तियाँ धुंधली दिखायी दे रही थीं। समुद्र के जल में प्रकाश में धुली-मिली छाया लहरा रही थी।

बड़ी लम्बी प्रतीक्षा के बाद माधवी और मुत्तुकुमरन् हाथ-में-हाथ लिये आ पहुँचे। सामने अब्दुल्ला को बैठे देखकर दोनों के हाथ अलग हो गये। ऐसा लगा कि अपनी प्राकृतिक घनिष्ठता को अस्वाभाविक ढंग से काटकर दोनों एक-दूसरे से विलग होकर आ रहे हैं।

माधवी के जूड़े में पिनांग हिल पार्क में खिले सफेद रंग के गुलाबों में से एक, दो पत्तों सहित तोड़कर खोसा हुआ था। अब्दुल्ला ने जब यह देखा तो उन्हें याद आया कि यहाँ से जाते हुए उसके बालों पर कोई फूल न था। उन्होंने मुत्तुकुमरन् पर ईर्ष्या भरी तिरछी दृष्टि यों फेरी, मानो कोई हाथी झुकी आँखों से नीचे देखता हो।

"एकाएक कहाँ गुम हो गये? कॉकटेल मिक्स करके देखा तो तुम दोनों अचानक गायब हो गये थे। पार्क गये थे क्या?"

"हाँ, ये जरा टहलने को साथ बुला रहे थे तो चल पड़े।" माधवी ने जान- बूझकर 'ये' पर ज़ोर देकर कहा ।

मुत्तुकुमरन् तो उनके सामने ठहरना नहीं चाहता था ।वह तेजी से डग भरता हाल में चला गया।

माधवी को रोकने के विचार से अब्दुल्ला ने बात जारी की-"पार्क जाने की बात कही होती तो हम भी आये होते।"

"आप और गोपाल साहब कॉकटेल में काफी गहरे डूबे थे; इसलिए साथ आयेंगे या नहीं आयेंगे-सोचकर हम चले गये।"

"कहा होता तो किसी को साथ भेजा होता।"

"जब लेखक साथ रहे तो और किसी को व्यर्थ में साथ करने की क्या जरूरत थी?"

"आपको कोई अच्छी 'सेंट' चाहिए तो कहिये ! मेरे पास बढ़िया-से-बढ़िया सेंट हैं ।" उनकी बातों में इन की बु नहीं; वासना की बू थी। माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसके मन की जानकर मन-ही-मन में हँस पड़ी।

"चानल नंबर फ़ाइव, चादरा, इवनिंग इन पेरिस-जो चाहिए, कहिए। दूंगा। मुझे मालूम हैं, गोपाल साहब ने बताया है कि आपको सुगंधित चीजें बहुत पसंद हैं।"

"जी नहीं ! अब मुझे किसी की कोई जरूरत नहीं। जरूरत पड़ी तो अवश्य मांग लूंगी; जरा भी संकोच नहीं करूंगी।" माधवी ने कहा। उसका जी अब्दुल्ला की बातों और दृष्टि से बचकर भागने का कर रहा था।

वह जल्दी-से-जल्दी अपने कमरे में जाकर सोना चाहती थी। अब्दुल्ला तो मानो उससे गिड़गिड़ाने ही लग गये, “थोड़ी देर बैठो न माधवी ! अभी से ही नींद आ गयी है क्या ?"

"हाँ, सवेरे मिल लेंगे! गुड नाइट !" कहकर माधवी अपने कमरे में गयी और छिटकनी लगाकर उसने चैन की सांस ली।

सबेरे उठकर 'ब्रेक फास्ट' से निवृत्त होकर वे सब पिनरंग हिल से नीचे उतर पड़े। उसी दिन, मद्रास से जहाज पर चले कलाकार, कर्मचारी और सीन-सेटिंग जैसे नाटक के सामान पिनांग के बंदरगाह के किनारे लगनेवाले थे। उन्हें लिवा लाने के लिए उन्हें जाना था। पिनांग हिल से लौटने के बाद से अब्दुल्ला मुत्तुकुमरन् की बड़ी उपेक्षा करने खामखाह नफ़रत का जहर उगलने लग गये थे। और गोपाल उनका विरोध मोल लेना नहीं चाहता था। इसलिए देखकर भी अनदेखा कर चुप्पी साध गया।

माधवी बड़े धर्म-संकट में पड़ गयी । उसकी वेदना और ग्लानि का पारावार नहीं रहा। उसे यह समझने में कोई कठिनाई नहीं कि अब्दुल्ला मुत्तुकुमरन् की इतनी उपेक्षा क्यों कर रहा है और उसपर घृणा की आग क्यों उगल रहा है ?

मुत्तुकुमरन् और गोपाल' भी इस बात को खूब ताड़ चुके थे। गोपाल न तो अब्दुल्ला का विरोध-भाजन बनना चाहता था और न मुत्तुकुमरन का । पर अन्दर- ही अन्दर वह भी मुत्तुकुमरन् पर उमड़-घुमड़ रहा था।

माधवी यद्यपि सबसे हँसती-बोलती थी, लेकिन मन ही मन गोपाल और अब्दुल्ला पर आग-बबूला हो रही थी।

मुत्तुकुमरन् के विचार तो यों दौड़ने लगे थे कि दोस्त की बात मानकर मैंने पहला गलत काम यह किया कि इस यात्रा में सम्मिलित होने की सम्मति दे दी। अदरख के व्यापारी का जहाज़ के व्यापार से क्या सरोकार ? पर हाँ, सिर्फ मित्र की बात मानकर मैं कहाँ आया? माधवी का साथ ही इसके पीछे बलवती रहा है ? वस्तुतः मूल कारण की तह में जाने पर माधवी का नया और सच्चा प्रेम ही उभर आता है। नहीं तो इस विलायती यात्रा के लिए मैं राजी ही क्यों होता?

इस सिलसिले में उसका ध्यान एक दूसरी ओर भी गया।

मद्रास में पहले-पहल जब वह अब्दुल्ला से मिला था, तभी अब्दुल्ला और उसके बीच मनोमालिन्य का बीज पड़ गया था। कितने ही कटु प्रसंगों ने खाद बनकर उसके पनपने में हाथ बँटाया । अब तो धृणा और उपेक्षा की हद हो गयी है !

पिनांग की धरती पर आकर मुत्तुकुमरन ने विचार किया तो मुत्तुकुमरन को पता चला कि पहले घटी घटनाओं और अब घट रही घटनाओं के बीच सम्बन्ध है। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उसी मूल घृणा से यह घृणा पैदा हुई होगी और उन उपेक्षाओं से इन उपेक्षाओं को उत्तेजना मिली होगी।

दूसरे कलाकारों को बंदरगाह से लाने के लिए जब चलने लगे, तब अब्दुल्ला या गोपाल ने मुत्तुकुमरन् की इस तरह उपेक्षा की कि न तो उसे साथ चलने को बुलाया और न साथ न आने को कहा। पर माधवी को साथ चलने को बार-बार बुला रहे थे।

माधवी को लगा कि अब्दुल्ला और गोपाल दोनों मिलकर मुतुकुमरन् की अवज्ञा और उपेक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं। वह यह भी जानती थी कि मुत्तुंकुमरन् का आत्माभिमान जग जाये और रोष फूट जाये तो ये दोनों उसके सामने टिक नहीं सकेंगे। लेकिन मुत्तुकुमरन् को, अपने स्वभाव के विरुद्ध, संयम और शांति बरतते देखकर उसे आश्चर्य हुआ। नयी जगह पर, जहाँ बातचीत तक करने के लिए भी कोई नहीं, मुत्तुकुमरन् को अकेले छोड़कर, जहाज से आनेवाले कलाकारों को लिवा लाने के लिए वह नहीं जाना चाहती थी। उसने सिर-दर्द का बहाना कर इनकार कर दिया । अब्दुल्ला और गोपाल ने कितना ही कहा। पर उसने सुना नहीं। आखिर उन दोनों को लाचार होकर माधवी के बिना बंदरगाह जाना पड़ा। घर में केवल माधवी और मुत्तुकुमरन् रह गये थे। उस एकांत में माधवी की समझ में नहीं आया कि वार्तालाप कैसे शुरू करे, कहाँ से शुरू करे और किन शब्दों से करे? दोनों के बीच थोड़ी देर मौन छाया रहा ।

"मेरे ही कारण आपको ये सारे कष्ट सहने पड़ रहे हैं ! मुझे भी नहीं आना चाहिए था और आपको भी लाकर व्यर्थ कष्ट में डालना नहीं चाहिए था !"

मुत्तुकुमरन् ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह किसी गहरे सोच में पड़ा था । उस का हर पल का वह मौन माधवी को संकट में डाल रहा था ! आखिर वह मौन तोड़कर बोला, "कष्ट-वष्ट कुछ नहीं । मुझे कष्ट देनेवाला कोई मनुष्य अभी पैदा नहीं हुआ। लेकिन तुम जैसी एक युवती से प्रेम करके, वह सच्चा प्रेम अखंड होकर, जब विपक्ष से वापस मिलता है, तब मुझे अपने मानाभिमान, रोष-तोष, कोप-ताप सबको दिल-ही-दिल में रखना पड़ता है। प्रेम की ख़ातिर इतने बड़े-बड़े अधि- कारों को त्यागना पड़ेगा-आज ही मैं समझ पा रहा हूँ। यही बात मुझे आश्चर्य में डाल रही है।".

"इस मामले में अब्दुल्ला घोर असभ्य और जंगली निकलेगा-इसका मुझे ख्याल तक नहीं आया।"

"तुम्हें ख्याल नहीं आया तो उसके लिए दूसरा कोई क्या करे? असभ्यता ही आज पचहत्तर प्रतिशत लोगों में घर किये हुए है। सभ्यता तो एक ओढ़नी मात्र है। जब चाहे. मनुष्य निकालकर ओढ़ लेता है, बस !"-~-मुत्तुकुमरन् ने विरक्ति से उत्तर दिया।

जहाज पर आनेवालों ने आवास पर पहुँचकर दोपहर तक विश्राम किया। तीसरे पहर को, सब अलग-अलग कारों पर सवार होकर पिनांग नगर का पर्यटन करने चल पड़े । सभी सहस्र बुद्ध का पगोडा, साँपों का मन्दिर, पिनांग के पर्वत- प्रदेश और समुद्र-तट की सैर को गये।

माधवी मन-ही-मन डर रही थी कि पिछली रात और सुबह की अवज्ञा और उपेक्षा का ख्याल करके, मुत्तुकुमरल धूमने आने से कहीं इनकार कर दे तो क्या हो ? लेकिन वह वैसी कोई ज़िद न पकड़कर शांतचित्त से चलने को तैयार हो गया तो उसे आश्चर्य हुआ।

वे जहाँ-जहाँ गये, कलाकारों को देखने के लिए लोगों की बड़ी भीड़ लग गयी। ऑटोग्राफ़ और फोटोग्राफ़ के लिए लोग पिल पड़े।

सहल बुद्ध का पगोडा पहाड़ पर एक अटारी जैसा खड़ा था। उस पहाड़ के चारों ओर जिधर देखो, बुद्ध मन्दिर थे। सारा मन्दिर परिसर अगर बत्तियों की महक उठा था। कहीं-कहीं लाठी और मूसल जैसी दानवाकार अगर- बत्तियाँ लगी थीं।

फोटो खिचवाने और चित्र चाहनेवालों को चित्र बेचने के लिए चीनी 'विक्रेतागण बड़ी फुर्ती से दौड़-दौड़कर ग्राहक खोज रहे थे।

मदुरै के नये मंडप की दुकानों की भाँति और पलनि के पहाड़ पर चढ़ने की पगडंडी की भाँति, बुद्ध-मन्दिर जानेवाली सीढ़ियों में भी दोनों तरफ़ चीनियों की 'घनी दुकानें थीं। खिलौनों से लेकर तरह-तरह के उपयोगी और केवल सजावटी सामान उन दुकानों में बिक रहे थे। वे चीनियों की मेहनत और कारीगरी का उत्तम नमूना पेश करते थे।

सहस्र बुद्ध के पगोडे की सीढ़ियां चढ़ते हुए एक जगह पर माधवी की साँस चढ़ गयी । उसके पीछे सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुत्तुकुनरन् ने देखा कि वह लड़खड़ा रही है तो उसने लपककर हाथों का सहारा दिया।

"कहीं गिरकर मर हो न जाना ! तुम्हारे लिए मैं जो साधना कर रहा हूँ, उसका क्या होगा ?" उसने उसकी कमर को जोर से भींचते हुए उसके कानों में कहा तो माधवी पर मधुवर्षा-सी हुई।

"मरूँ ? वह भी आपके साथ रहते हुए ? ना बाबा, ना !" यह कहते हुए माधवी के मुख पर जो मुस्कान खिली, वह अमरत्व की बेल बो गयी ! उस मुस्कान को फिर से देखने का उसका मन लालायित हो उठा। इस एक मुस्कान के लिए, उसे 'लगा कि अब्दुल्ला की अवज्ञा, गोपाल की उपेक्षा आदि सभी कुछ सहे जा सकते हैं।

सहस्र बुद्ध पगोडे से वे सीधे साँपों के मन्दिर में गए। उस मन्दिर के किवाड़ों 'पर, झरोखों के सीखचों पर, जहाँ देखो वहाँ हरे-हरे साँप रेंग रहे थे। बरामदे पर रखे गमलों पर, ग्रोटन्स के पौधों पर और छत की बुजियों पर भी सांप लटक रहे थे। पहले ही से परिचित व्यक्ति तो निडर होकर आते-जाते रहते थे। पर नवागंतुक तो डर रहे थे। कुछ हिम्मतकर लोग उन साँपों को हाथों में लिये या गले में माला की तरह पहने हुए 'फ़ोटो' के लिए 'पोज' भी दे रहे थे। ऐसे चित्र उतारने के लिए कुछ चीनी वहां पहले से ही मौजूद थे। वे पर्यटकों से कह रहेथे कि आप अपना स्थायी पता और रुपये दे जायें तो फोटो आपको खोजते हुए आपके घर आ जायेंगे।

गोपाल उर के मारे मन्दिर के बाहर ही रह गया। माधवी भी क्रम डरपोक नहीं थी। पर मुत्नुकुमरन् धैर्य के साथ अंदर चला गया तो वह भी उसका पीछा किये बिना नहीं रह सकी।

"हमारे इर्द-गिर्द मँडराने बालों में कितने ही ऐसे हैं, जो इन विषधर नागों से कम क्रूर नहीं हैं। जब हम उनसे ही नहीं डरते तो इन बेचारे बेजुबान प्राणियों से क्यों डरें?"-मुत्तुकुमरन् ने पूछा।

"किसी आदत की वजह से इस मन्दिर में लागातार साँप आते रहते हैं। यदि लोग उन्हें न सतायें तो वे भी नहीं काटते।" मार्ग-दर्शक के रूप में अब्दुल्ला द्वारा भेजे हुए आदमी ने कहा।

साँपों के मन्दिर से वे पिनांग नगर की बीथियों से चलकर एक बुद्ध मन्दिर में गए । शयनासन में बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा उस मन्दिर में थी । एक पहाड़ी पर चढ़ते हुए उन्होंने रास्ते में एक पुराना हिन्दु मन्दिर भी देखा।

पहाड़ पर एक जगह कारें खड़ी करके मार्ग-दर्शक ने उन्हें डोरियान, रम्बुत्तान, जैसे फल खरीदकर चखने को दिए। डोरियान फल की बू से माधवी को उबकायी आयी। मुत्तुकुमरन् ने तो उस फल की फाँक खाकर कहा कि उसका स्वाद मधु- मधुर है । माधवी भी नाक पकड़कर उस फल के पिलपिले गूदे को एक झटके में निगल गयी। डोरियान कटहल की फाँक से भी सफ़ेद और सख़्त था। पर वह बहुत मीठा था। भगवान ने न जाने क्यों, उस मीठे और जायकेदार फल में ऐसी बदबू भर रखी थी!

वे पहाड़ी सड़कों से गुजरते हुए पिनांग द्वीप की सभी दिशाओं में हो आए। गोपाल यद्यपि उनके साथ गया, फिर भी अपनी हैसियत और बड़ाई की धाक जमाने के लिए उनसे दूर ही रहा। किसी से ज्यादा मिला-जुला नहीं। सिर्फ़ उसके उपयोग के वास्ते अब्दुल्ला ने एक 'कॅडिलक्' स्पेशल कस्टम की कार का प्रबंध कर रखा था। सभी जगहों में वही कार आगे-आगे गयी और बाकी सब कारें पीछे- पीछे।

यह गली बिकाऊ नहीं : सत्रह

दूसरे दिन शाम को, उनकी मंडली के प्रथम नाटक का मंचन होना था। इसलिए उस दिन सबेरे वे लोग कहीं बाहर नहीं गए। दोपहर को गोपाल अपने कुछ साथियों के साथ, मंच की व्यवस्था, सीन-सेटिंग के प्रबन्ध आदि का निरीक्षण करने के लिए थियेटर हाल तक हो आया ।

उस दिन दोपहर का भोजन अब्दुल्ला के एक मित्र सेन ई नाम के चीनी दोस्त के यहाँ था। किसी-न-किसी बहाने अब्दुल्ला माधवी के इर्द-गिर्द यों मँडराते रहे, फूल के इर्द-गिर्द भौंरा । उधर मुत्तुकुमरन् सदैव माधवी के साथ रहकर उनके लिए विघ्न बना फिर रहा था। दिन पर दिन उसके प्रति नफरत बढ़ती जा रही थी। मुत्तुकुमरन् कुछ ऐसा प्रतिद्वन्द्वी निकला कि अब्दुल्ला को माधवी के पास 'फटकने या बोलने-चालने नहीं देता था।

प्रथम दिन का नाटक बड़ा सफल रहा । उस रात को अब्दुल्ला और मुत्तुकुमरन् में आमने-सामने ही फिर झड़प हो गयी। अच्छी रकम वसूल हो जाने और दर्शकों की भरी-पूरी भीड़ हो जाने के कारण गोपाल पर अब्दुल्ला की बड़ी धाक जम गयी कि इन्हीं की बदौलत यह सबकुछ हुआ है।

नाटक पूरा होते-होते रात के ग्यारह बज गए थे। नाटक के अंत में, सबको 'मंच पर बुलाकर माला पहनाकर अब्दुल्ला ने सम्मान किया। पर जान-बूझकर 'मुत्तुकुमरन् को छोड़ दिया। यद्यपि मुत्तुकुमरन को भूलने जैसी कोई बात नहीं थी, फिर भी उन्होंने ऐसा अभिनय किया कि उस समय जैसे उसका स्मरण ही नहीं रहा । गोपाल को इसकी याद थी। पर वह यों चुप रह गया, मानो अब्दुल्ला के कामों में दखल देने से डरता हो । पर माधवी के क्षोभ का कोई पारावार नहीं था । उसे लगा कि ये सभी मिलकर कोई साजिश कर रहे हैं।

नाटक के बाद, पिनांग के एक धनी-मानी व्यक्ति के यहाँ उनके रात के भोजन का प्रबन्ध था। उन्हें ले जाने के लिए मेजबान स्वयं आये थे।

मंच पर हुए उस अनादर से क्षुब्ध माधवी ने अपनी एक सह-अभिनेत्री के द्वारा मुत्तुकुमरन् को 'ग्रीन रूम' आने के लिए कहला भेजा। वह भी केरल की तरफ को ही थी।

नीचे, मंच के नीचे खड़े मुत्तुकुमरन् के पास आकर उसने कहा कि माधवी ने चुलाया है । वह अनसुना-सा खड़ा रहा तो वह बोली, "क्या मैं जाऊँ ?"

उसने सिर हिलाकर 'हाँ' का इशारा किया तो वह चली गयी। थोड़ी देर की मुहलत देकर वह 'ग्रीन रूम' में गया तो माधबी ने उसके निकट आकर भरे-गले से कहा, "यहाँ का यह अन्याय मैं नहीं सह सकती। हमें दावत में नहीं जाना चाहिए।"

"स्वाभिमान अलग है और ओछापन अलग है। उनकी तरह हमें ओछा व्यवहार नहीं करना चाहिए । माधवी, ऐसी बातों में मैं बड़ा स्वाभिमानी आदमी हूँ। कोई भी सच्चा कलाकार स्वाभिमानी ही होता है। लेकिन वह आत्मसम्मान सार्थक होना चाहिए। न कि घटिया क्रोध । नये देश में, नये शहर में हम आए हैं। हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि हमारा बड़प्पन बना रहे और बढ़ता रहे !"

"यह तो ठीक है ! पर दूसरे लोग हमारे साथ बड़प्पन का व्यवहार कहाँ करते ? ओछों का-सा घटिया व्यवहार नहीं कर रहे ?"

"परवाह नहीं ! हमें अपने बड़प्पन के व्यवहार से च्युत नहीं होना चाहिए !"

इसके बाद माधवी ने कोई दलील नहीं दी। उस रात के भोज में वे दोनों सम्मिलित हुए।

भोज एकदम पाश्चात्य तरीके का था। बड़े-बड़े कॉस्मापालिटन्स को आमंत्रित किया गया था। कुछ मलायी, चीनी, फिरंगी और अमेरिकन अपने-अपने कुटुंब के साथ आए थे।

भोज के उपरांत , एक दूसरे हाल में आए हुए औरत-मर्द हाथ में हाथ लिये 'डान्स' करने लगे। मुत्तुकुमरन और माधवी एक ओर लगी कुर्सियों पर बैठकर बातें करने लगे । गोपाल भी एक चीनी युवती के साथ नाच रहा था । उस समय अब्दुल्ला ने माधवी के पास आकर अपने साथ 'डान्स' करने के लिए बुलाया।

“एक्स्क्यूज मी, सर ! मैं इनके साथ बातें कर रही हूँ।" माधबी ने सादर जवाब दिया। पर अब्दुल्ला ने नहीं छोड़ा। लगा कि उन्होंने अपनी हवस पूरी करने के लिए ही इस भोज का इन्तजाम किया है। उसके पास बैठकर बातें करने वाले मुत्तुकुमरन्' को नाचीज़ समझकर वे माधबी के सामने दाँत निपोरकर गिड़डिडाने लगे। मुत्तुकुमरन्, जहाँ तक संभव हुआ, उनके बीच में नाहक पड़ना या जवाब देना नहीं चाहता था । पर बात जब हद से बाहर हो गयी तो वह चुप्पी साधे बैठा, नहीं रह सका । अपने उन्माद में एक बार अब्दुल्ला अपने को काबू में नहीं रख सके और जोश में भरकर माधवी का हाथ पकड़ कर खींचने लग गये।

"अनिच्छा प्रकट कर रही युवती का हाथ पकड़कर खींचना ही यहाँ की सभ्यता है क्या ?" उसने पहले-पहल अपना मुंह खोला । यह सुनकर अब्दुल्ला तैश में आकर आँखें तरेरते हुए उस पर पिल पड़े--"शट अप। आई एम नाट टॉकिंग विद् यूं।"

माधवी तो अब उनसे और घृणा करने लगी। इसके बाद ही गोपाल उसके पास दौड़ा भाया और अब्दुल्ला की वकालत करते हुए बोला, "इतने सारे रुपये खर्च करके इन्होंने हमें बुलाया है। हमारे स्वदेश लौटने तक ये हमारे लिए बहुत कुछ करना चाहते हैं। उनका दिल क्यों तोड़ रही हो?"

"नहीं, मैं किसी के कहने पर नहीं नाच सकती !"

माधवी के इस इनकार के पीछे गोपाल ने मुत्तुकुमरन् का ही हाथ पाया । उसे लगा कि मुत्तुकुमरन् पास नहीं रहता तो माधवी के मुख से इनकार के इतने कड़े शब्द नहीं निकलते । इसलिए वह चोट खाए हुए बाध की तरह दहाड़कर बोला,. "इस तरह तुम्हें डरते देखकर लगता है कि तुमने सिल पर पैर रखकर अरुंधती निहारते हुए उस्ताद का हाथ पकड़ा है और शास्त्रोक्त विवाह किया है। ऐसी शादी करनेवालियां भी यो पुरुष से उरती नहीं दीखती!'

मुत्तुकुमरन् पास ही खड़ा था । वह दोनों की बातें सुन रहा था । पर वह उनकी . बातों में नहीं पड़ा।माधवी गोपाल की बात सुनकर आक्रोश से भर गयी और बोली, "छिः ! आप भी कोई मर्द हैं ? एक औरत के सामने ऐसी बातें करते आपको शरम नहीं आती?"

माधवी के मुख से ऐसी अप्रत्याशित बात सुनकर गोपाल सकपका गया । आज तक माधवी ने उसके प्रति इतने कड़े और मर्यादा से बाहर के शब्दों का प्रयोग नहीं किया था। यह उसके पिछले दिनों का अनुभव था। पर आज...? जितने भी कड़े शब्दों का इस्तेमाल संभव था, उतना कर दिया गया।

वह माधवी, जो उसके हुक्म सिर-आँखों पर बजा लाती थी, आज रोष- तोष, मान-अभिमान से भरकर नागिन की तरह बिफर उठी थी। इसका क्या कारण है ? जब कारण का मूल समझ में आ गया तो गोपाल का सारा क्रोध मुत्तुकुमरन् पर निकला । उसने पूछा-"क्यों उस्ताद ? यह सब क्या तुम्हारी लगायी है ?"

"इसीलिए तो मैंने कहा था कि मैं तुम लोगों के साथ नहीं आऊँगा!" मुत्तुकुमरन ने गोपाल की बातों का उत्तर दिया तो माधवी को उसपर गुस्सा चढ़ आया।

"इसका क्या मतलब ? यही न कि आपके साथ आने पर मैं मान-अभिमान और रोब दाब से रहती हूँ और आपके न आने पर आवारा होकर फिरती ?" माधवी आग-बबूला होकर मुत्तुकुमरन् ही पर बरस पड़ी। उन दोनों में 'मनमुटाब होते देखकर गोपाल वहाँ से खिसक गया। माधवी ने मुत्तुकुमरन को भी नहीं छोड़ा । कड़े शब्दों में टोका-"जब आप ही बेमुरव्वती की बातें करने लगे तो फिर मेरा आसरा ही कौन ? इस से दूसरे तो फ़ायदा उठाने की ही सोचेंगे।"

"मैंने कौन-सी बेमुरव्वती की बात कर दी कि तुम इस तरह चिल्लाती हो ? वह मुझपर उँगली उठा रहा है कि ये सब तुम्हारे काम हैं, ये सब तुम्हारे काम हैं ! मैंने पूछा कि फिर मुझे क्यों बुला लाये ? इसमें न जाने मेरा दोष क्या है कि तुम नाहक मुझपर गुस्सा उतार रही हो !"

"आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नहीं आते तो मैं अपनी मर्जी से आवारा घूमती-फिरती ! इसीलिए मैंने"

"वे लोग अभी भी तुम्हारे बारे में वैसा ही समझ रहे हैं।"

“समझें तो समझे ! उसकी मुझे कोई चिंता नहीं। आप मुझे तो सही समझे-इतना ही मैं चाहती हूँ। आप भी मुझे गलत समझने लगेंगे तो मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा !"

"इतने दिनों से बर्दाश्त ही तो करती रही हो ! एकाएक तुम्हारे व्यवहार में परिवर्तन देखकर वह हैरान है !" मुत्तुकुमरन् को अपनी ही यह बात पसंद नहीं आयी तो उसने उससे कुछ भी बोलना बन्द कर सिर झुका लिया।

भोज के बाद, अपने आवास लौटते हुए भी वे आपस में नहीं बोले । गोपाल और अब्दुल्ला-दोनों ने एक-दूसरे की तरफ़ से शायद मुँह ही फेर लिया। इधर इन दोनों ने भी अपने आपसे मुँह फेर लिया।

उसके बाद, नाटक वाले तीनों दिन ऐसे ही बीते कि गोपाल की माधवी से, माधवी की मुत्तुकुमरन् से व्यवहार में सहजता ही नहीं आयी। छ: बजे नाटक- मंडली के साथ, कारों में थियेटर जाते, ग्रीन रूम में जाकर 'मेकअप' करते और मंच पर आकर नाटक खेलते । फिर गुमसुम आवास को लौट आते थे।

गोपाल ने अब्दुल्ला की हविस पूरी करने का एक दूसरा रास्ता निकाल दिया। उसकी मंडली में 'उदय रेखा' नाम की छरहरे बदन की एक सुन्दरी श्री। उसे अब्दुल्ला के साथ लगा दिया ताकि वह उसके साथ अकेली कार में जाये और उसके दिल को बहलाने के सामान संजोये । वह स्त्री-साहस में निपुण थी और अब्दुल्ला को खुश कर टैप रिकार्डर, ट्रांजिस्टर, जापानी नाईलेक्स की साड़ियाँ, नेकलेस, अंगूठी, घड़ी वगैरह कितनी ही चीजें अपने लिए झटक लायी।

पहले दिन के अनुभव के बाद, मुत्तुकुनरन् ने नाटक-थियेटर में जाना ही छोड़ दिया और शाम का वक्त अपने ही कमरे में गुजारना शुरू कर दिया। अकेले में रहते हुए वह कुछेक कविताएं भी रच सका। खाली समय में वह मळाया से निकलनेवाले दो-तीन तमिळ के दैनिक पत्रों को लेकर बैठ जाता । भाग्य से यहाँ के दैनिक अधिक पृष्ठों वाले होते थे और उसे समय काटने में मदद देते थे। दोपहर के वक्त मंडली के कुछ कलाकार उससे बातें करने के लिए भी पास आ जाते थे। दूसरे या तीसरे दिन एक उप-अभिनेता मुत्तुकुमरन् से ही यह सवाल कर बैठा, "क्यों साहब, आपने नाटक में आना ही क्यों बंद कर दिया ? आपमें और गोपाल साहब में कोई अनबन तो नहीं ?"

मुत्तुकुमरन ने लीप-पोतकर उत्तर दिया, “एक दिन देखना काफ़ी नहीं हैं क्या? हमारा नाटक हमारी मंडली खेलती है ! रोज-रोज देखने की क्या जरूरत है ?". "ऐसे कैसे कह सकते हैं, साहब ? नाटक सिनेमा की तरह नहीं है। एक बार 'कैमरे' में भरकर चालू कर दें तो फ़िल्म जैसे चलती ही रहेगी। नाटक की बात दूसरी है। वह प्राणदायिनी कला है । बार-बार खेलते हुए भी हर बार निखर उठती है, चमक उठती है ! अभिनय, गीत-सब कुछ शान पर चढ़कर आनंद की गंगा बहा देते हैं।'

"बिलकुल ठीक फरमाया तुमने ।”

"अब आप ही देखिए! कल आप नहीं आये। परसों आये थे। जिस दिन आपने आकर देखा था, उस दिन माधवीजी का अभिनय बड़ा शानदार और जानदार रहा। कल आप नहीं आये तो थोड़ा ‘डल' रहा । उनके अभिनय में वह उत्साह नहीं रहा और बह जान नहीं रही !"

मेरी बड़ाई करने के ख्याल से ही ऐसा कह रहे हो। वैसी कोई बात नहीं होगी। माधवी स्वभाव से ही समर्थ कलाकार है। वह जब भी अभिनय करे और जहाँ भी करे, अपना स्तर बनाये रखेगी।"

"आप चाहे जितना उनका पलड़ा भारी करें, कर लें लेकिन मैं नहीं मानूंगा। मैं गौर से देखकर बता रहा हूँ। सच पूछिए तो अपने अनुभव से भी बता रहा हूँ। अपने प्रियजनों को दर्शकों की गैलरी में बैठे पाकर अभिनेता ऐसा निहाल हो जाता है, मानो कोई संजीवनी मिल गयी हो। एक बार की बात है, विरुदुनगर में मारियम्मन का मेला था। मैं नाटक खेलने अपनी पहले की मंडली के साथ गया हुआ था। वहीं मेरा जनम हुआ था। मेरी बुआ की वेटी-वही मेरी मंगेतर थी- जाटक देखने आयी थी। लच मानिए, उस दिन मैंने बहुत अच्छा अभिनय किया था।"

"अच्छा ! उससे तुम्हारी मुहब्बत रही होगी?"

"अब आप आये रास्ते पर? बही बात माधवी की..."

कहते-कहते वह रुक गया । इसलिए कि मुत्तुकुमरन् की दृष्टि पर उसकी दृष्टि पड़ते ही उसकी सिट्टी-पिट्टी भूल गयी।

उस अभिनेता की बातों की सच्चाई उसे भी मान्य थी। पर माधवी के साथ, अपने प्रेम को वह जग-जाहिर होने नहीं देना चाहता था। उसे भली-भाँति मालूम था कि उसकी अनुपस्थिति में माधवी का अभिनय फीका और बे-जान हो जायेगा । इतना सबकुछ जानते हुए, माधवी का उत्साह बढ़ाने के लिए ही सही, वह पिनांग के नाटकों में सम्मिलित नहीं हुआ।

पिनांग में, अंतिम नाटक के मंचन की समाप्ति के बाद नाटक-मंडली के लोग अकेले या गोष्ठी में खरीदारी के लिए बाजार गये। वहाँ सामान सस्ते बिकते थे । 'फ्री पोर्ट' होने से पिनांग के बाजारों में तरह-तरह की कलाई घड़ियाँ, टेरिलिन, रेयान, टेरिकाट, सिल्क, रेडियो जैसे बहुत सारे नथे-नये सामान पहाड़-से लगे थे। गोपाल ने अब्दुल्ला से पेशगी लेकर अपनी मंडली के हर स्त्री-पुरुष को सौ-सौ मलेशियन रुपये दिये। मुत्तुकुमरन् और माधवी को ढाई सौ के हिसाब से पाँच सौ रुपये एक लिफ़ाफ़े में रखकर माधवी के हाथ में दे दिये । सीधे मुत्तुकुमरन् से मिलने और उसके हाथ रुपये देने को उसे डर लग रहा था। माधवी ने भी हिचकते हुए ही वे रुपये लिये।

"एक बात उनसे भी कह दीजिए । मैं उनकी अनुमति के बिना यह राशि लूंगी तो शायद वे नाराज हो जायेंगे !"

माधवीं के मुख से इधर हिचकते-हिचकते बात फूटी और उधर गोपाल के मुख से काफी कड़क भरी आवाज़ फटी-"वे कौन होते हैं तुम्हारे ? नाम लेकर भुत्तुकुमरन् क्यों नहीं कहती?"

माधवी ने इसका कोई जवाब नहीं दिया । गोपाल आग उगलती आँखों से उसे देखकर चला गया। लेकिन उसने सख्ती का चाहे जैसा व्यवहार किया, वह मुत्तुकुमरन् के पास जाते-जाते नरम हो गया। पिछले तीन दिनों से उन दोनों के बीच जो मौन छाया था, जो वैमनस्य धर किये हुए था, उसे तोड़ने के प्रयत्न में वह फिर बोला, "सभी 'शॉपिंग' को जा रहे हैं। हम पिनांग छोड़कर आज रात को ही रवाना हो रहे हैं । तुम भी जाकर कुछ खरीदना चाहो तो खरीद लो । माधवी के हाथ तुम्हारे लिए भी रुपये दे दिये हैं। चाहो तो कार भी ले जाओ। दोनों साथ ही जाकर खरीदारी कर आओ। बाद को चलते समय 'टाइम' नहीं रहेगा!"

"......."

"यह क्या ? तुम सुनते ही नहीं ! क्या तुम्हारे ख्याल से मैं बेकार ही बके जा रहा हूँ?"

"जो कहना है, सो कह दिया न ?"

"मुझे क्या ? तुम्हारी खातिर ही कहा !"

"माना तुम यह दिखाना चाहते हो कि मेरा तुम बहुत ख्याल करते हो?"

"इस तरह ताना न मारो, उस्ताद ! मुझसे सहा नहीं जाता !"

"तो क्या करोगे ?"

"अच्छा, अब तुमसे आगे बोलना ठीक नहीं लगता है. गुस्सा पीकर बैठे हो।" इतना कहकर गोपाल वहाँ से खिसक गया।

उसके जाने के थोड़ी देर बाद माधवी आयी। उसमें मुत्तुकुमरन् का आमना- सामना करने का साहस नहीं था। इसलिए वह कहीं दूर देखती हुई खड़ी रही। उसके हाथ में गोपाल का दिया हुआ रुपयों वाला लिफ़ाफ़ा था। वह बोली- "रुपया दिया है.'"शॉपिंग' में जाना है तो खर्च के लिए"

"किसके खर्च के लिए..."

"आपके और मेरे.." वह सहमी हुई थी।

"तुमने अपने लिए लिया, यह तो ठीक है । पर मेरे लिए कैसे ले लिया?"

"मैंने नहीं लिया ! उन्हींने दिया।"

"दिया है तो रख लो ! मुझे कहीं खरीदारी-वरीदारी के लिए नहीं जाना।" "जाना तो मुझे भी नहीं हैं।"

"छि:-छिः ! ऐसा न कहो! जाओ, जो चाहो, खरीद लो! उदयरेखा को देखो, दो दिनों से नाइलान, नाईलैक्स वगैरह पहनकर बनी-उनी फिर रही हैं । उससे कम की चीज़ तुम क्यों पहनो ? तुम तो हीरोइन' ठहरी !"

"ऐसी बातें आपके मुंह से शोभा देती हैं क्या ? मेरे बारे में आपका जी इतना खट्टा हो गया है कि उदयरेखा की और मुझे एक तराजू पर तोल रहे हैं !"

"यहाँ किसी का जी नहीं बिगड़ा। अपना-अपना मन तोलकर देखें तो पता चले।"

"पता क्या चलेगा?"

"दो-तीन दिनों से कैसा सलूक कर रही हो?"

"...'यही सवाल आपसे भी तो दुहराया जा सकता है"-कहती हुई माधवी उसके पास गयी और बड़े धीमे स्वर में गिड़गिड़ाती-सी फुसफुसायी, ताकि सिर्फ उसी के कानों में सुनायी दे-"देखिए, आप नाहक अपना दिल न दुखाइये। मैं अब कभी भी आपके साथ विश्वासघात नहीं करूंगी ! इस जगह तो मैं अबला हूँ। आप भी साथ न रहें तो मेरा कोई सहारा नहीं !"

"शक्तिहीन की शरण में जाने से क्या फायदा ?"

"यदि आप में शक्ति नहीं तो इस दुनिया में और किसी में नहीं है । व्यर्थ में बार-बार मेरी परीक्षा न लीजिए !"

"तो फिर तीन दिनों से मेरे साथ बोली क्यों नहीं ?"

"आप क्यों नहीं बोले ?"

"मैं स्वभाव से ही क्रोधी प्राणी हूँ और मर्द हूँ "यह जानकर ही मैं खुद आकर आपसे हाथ जोड़ रही हूँ !"

"तुम बड़ी होशियार हो !"

"वह होशियारी भी आपकी बदौलत ही नसीब हुई है !"

मुत्तुकुमरन के चेहरे से रूखी नाराज़गी की परत उतर गयी और उसकी जगह मुस्कान ने ले ली । उसे पास खींचकर सीने से लगा लिया। माधवी उसके कानों में बोली, "द्वार खुला है ।"

"हा-हाँ ! जाकर बंद कर आओ। कहीं अब्दुल्ला ने देख लिया तो जलेगा-भुनेगा कि मैं ख़ाक मालदार हूँ। मुझे यह माल नहीं मिला। और जो पैसे-पैसे का मोहताज है, माल उसके पैरों पर लोट रहा है।"

"नहीं, मेरे लिए तो आप ही राजा हैं !"

"बस, कहने भर को ही ऐसा कहती हो । लेकिन जब कथानायिका बनकर मंच पर उत्तरती हो तो और किसी राजा की रानी बन जाती हो।"

"देखिए, अभी भी आप बाज नहीं आये। इसी डर से मैं आपसे बार-बार विनती करती रहती हूँ कि मंच पर मुझे किसी के साथ नाटक खेलते हुए. या घनिष्ठता बढ़ाते हुए देखकर मुझपर नाराज न हो जाइए । फिर वही पुरानी चक्की आप बार-बार पीस रहे हैं। इससे ज्यादा मैं क्या कर सकती हूँ ! सच मानिए, मंच पर भी मैं आप ही को कथानायक का पार्ट अदा करते हुए देखना चाहती हूँ। आप कथानायक बनकर मंच पर आ गये तो अच्छे-से-अच्छे कलाकारों का भी कलेजा मुँह को आ जायेगा !"

"बस, बस ! ज्यादा तलुवे न सहलाओ!"

"अब तलुबे सहलाकर साधने योग्य कोई काम बाकी नहीं रह गया !"

"बस, बस! बको मत ! हमें यहाँ किसी दूकान में जाना नहीं है। सारी 'शॉपिंग' वापसी में हम सिंगापुर में कर लेंगे !"

माधवी ने मुत्तुकुमरन् की यह बात मान ली। उसी समय दोनों ने यह भी प्रतिज्ञा की कि अब्दुल्ला और गोपाल चाहे जितना भी रूखा व्यवहार करें, हमें विचलित नहीं होना चाहिए। लेकिन उसी दिन शाम को ईप्पो चलते हुए तलवार की धार से गुजरना पड़ा।

नाटक के थोक ठेकेदार अब्दुल्ला ने अपने साथ ईप्पो चलने के लिए गोपाल और माधवी के लिए वायुयान का प्रबंध करके बाकी सभी के लिए कारों की व्यवस्था कर दी। इससे मुत्तुकुमरन् को कार में जाने वालों में सम्मिलित होना पड़ा।

चलने के थोड़ी देर पहले ही माधवी को इस बात का पता चला । उसने गोपाल के पास जाकर बड़े धैर्य से कहा, "मैं भी कार ही में आ रही हूँ। आप और अब्दुल्ला 'प्लेन' पर आइये।"

"नहीं ! ईप्पो वाले हमारे स्वागत के लिए 'एयरपोर्ट' आये होंगे।"

"आये हों तो क्या? आप तो जा रहे हैं न ?"

"जो भी हो, तुम्हें 'प्लेन' में ही चलना चाहिए !

"मैं कार में ही आऊँगी।”

"यह भी क्या ज़िद है ?"

"हाँ, ज़िद ही सही।"

"उस्ताद को प्लेन का टिकट नहीं दिया गया- इसीलिए यह हंगामा कर रही हो?"

"आप चाहे तो वैसा ही मानिए । मैं तो उन्हीं के साथ कार में ईप्पो आऊँगी।"

"यह उस्ताद कोई आसमान से अचानक तुम्हारे सामने नहीं टपक पड़ा ! मेरे ही कारण तुम्हारी उससे दोस्ती है !"

"कौन इनकार करता है ? उससे क्या ?"

"बढ़-बढ़कर बातें करती हो ? तुम्हारा मुँह बहुत खुल गया है !"

"नयी जगह में हमारे हाथ बँधे हैं। मैं कुछ नहीं कर पा रहा। अगर मद्रास होता तो गधी कहीं की ! हट जा मेरे सामने से' कहकर गरदनी देकर निकालता और तुम्हारी जगह किसी दूसरी हीरोइन को एक रात में पढ़ा-सुनाकर मंच पर खड़ा कर देता।"

"ऐसा करने की नौबत आये तो वह भी कर लीजिए ! पर हाँ, पहले अपने मुंह की थूक गटक लीजिए।"

यह सुनकर गोपाल हैरान रह गया.। इसके पहले माधवी के मुख से ऐसी करारी चोट खाने का मौका ही नहीं आया था। 'मुत्तुकुमरन का सहारा पाकर माधवी लता इतराने लगी है। अब इससे टकराना ठीक नहीं है--सोचकर गोपाल ने उसका पीछा छोड़ दिया । आखिर अब्दुल्ला, गोपाल और उदयरेखा हवाई जहाज से ही गये । माधवी मुत्तुकुमरन और मंडलीवालों के साथ कार में आयी।

माधवी का दिल दुखाने के विचार से उसके नाम से आरक्षित हवाई जहाज के टिकट पर ही उदयरेखा का नाम चढ़वाकर बे उसे हवाई जहाज़ से ले गये। पर माधवी ने इस बात का ख्याल तक नहीं किया कि वे किसे हवाई जहाज़ पर ले जा रहे हैं।

लेकिन दूसरे दिन सवेरे उदयरेखा ही सबके सामने यह ढिंढोरा पीटे जा रही थी कि अब्दुल्ला के साथ वह पिनांग से हवाई जहाज पर आयी थी । वह चाहती थी कि उसकी बढ़ी हुई हैसियत का मंडलीवालों को पता चल जाये। इस स्थिति में, शायद उसकी यह धारणा रही हो कि इससे मंडलीवालों पर उसका रोब-दाब जम जायेगा।

यह गली बिकाऊ नहीं : अठारह

ईप्पो में पहले दिन के नाटक की टिकट बिक्री काफ़ी अच्छी रही। दूसरे दिन भी वसूल में कोई कमी नहीं थी। फिर भी अब्दुल्ला की गोपाल से यह शिकायत थी कि पितांग का-सा वसूली ईप्पो में नहीं है । नाटक के दूसरे दिन तेज़ बरसात हो जाने से, गोपाल के हिसाब से वसूल में वह तेजी नहीं रही।

ईप्पो में रहते हुए दोनों दिन दोपहर के वक्त उन्होंने दर्शनीय स्थलों को देख लिया। नाटक-मंडली का अगला पड़ाव क्वालालम्पुर था । बीच में एक दिन आराम के लिए रह गया था।

अब्दुल्ला, उदयरेखा और गोपाल ने 'कैमरान हाईलैंड्स' नाम के पहाड़ी आरामगाह तक हो आना चाहा। लेकिन उस एक दिन के लिए सारी नाटक-मंडली को वे ले जाने को तैयार नहीं थे।

"तुम चाहो तो आ सकती हो !" गोपाल ने सिर्फ माधवी से कहा ।

"मैं नहीं आती !" माधवी ने संक्षेप में उत्तर देकर उससे पिंड छुड़ाना चाहा । लेकिन गोपाल ने यों ही नहीं छोड़ा। बोला, "उदयरेखा को भेजने के बाद भी, अब्दुल्ला तुम्हारी ही याद में घुले जा रहे हैं।"

"उसके लिए मैं क्या करूँ ? मैंने कह दिया कि मैं कैमरान हाईलैंड्स' नहीं आती। उसके बाद भी आप वही बात दुहरा रहे हैं। मेरे पास इसके सिवा दूसरा कोई जवाब नहीं है।"

"बात यह है कि अब्दुल्ला करोड़पति हैं। उनका दिल आ गया तो वह पाँवों पर करोड़ों रुपये लाकर उड़ेल देंगे।"

"जहाँ चाहे, उड़ेलें!"

"तुम बेकार ही बदल रही हो।"

"हाँ, बदल गयी ! आप समझ गये हों तो ठीक है।"

"उस्ताद ने तुमपर कौन-सा टोटका कर दिया है कि तुम उसपर इस तरह फिदा हो गयी हो।"

उसके कमरे में आकर गोपाल का लम्बी देर तक बातें करना माधवी को नहीं भाया। उसके मुंह से बू आ रही थी कि वह पीकर आया है। इधर वह उसे विदा करने की कोशिश में थी और उधर वह हिलने का नाम नहीं लेता था । बातें करते- करते गोपाल में अचानक एक हैवानी जोश पैदा हुआ और उसने झपटकर माधवी को अपनी बाँहों में कसने का प्रयत्न किया। माधवी को इस बात की आशा नहीं थी। अपने हाथों से पूरी तरह उसे झटकते हुए उसने उसे धक्का दिया और किवाड़ खोल- कर कमरे से बाहर भागी और सीधे मुत्तुकुमरन के कमरे में जाकर किवाड़ खट- खटाया । मुत्तुकुमरन ने किवाड़ खोला तो उसने माधवी को बड़ी परेशानी की हालत में देखा । उसने हैरानी से पूछा, "बात क्या है ? इस तरह क्यों काँप रही हो?"

"अन्दर आकर बताती हूँ।" कहकर वह उसके साथ अन्दर आ गयी।

किवाड़ पर चिटकनी लगाकर मुत्तुकुमरन् अन्दर आया और उससे बैठने को कहा । माधवी ने पीने को पानी मांगा। वह उठकर सुराही से पानी ले आया। माधवी ने पानी पीकर तनिक आश्वस्त होने के बाद, सारी बातें सुनायीं।

सब कुछ सुनने के बाद मुत्तुकुमरन ने ठंडी आहें भरीं। थोड़ी देर तक उसकी समझ में नहीं आया कि उसकी बातों का क्या जवाब दे? वह एकाएक फूट-फूटकर रोने लगी। यह देखकर उसका कलेजा मुंह को आ गया। उसके पास जाकर, उसके रेशम जैसे काले बाल सहलाते हुए उसने उसे अपने बाहु-पाश में भर लिया। उसमें माधवी ने सुरक्षा का अनुभव किया । लम्बे मौन के बाद वह उससे बोला :

"समाज का हर क्षेत्र आज एक लम्बी गली में बदल गया है। उनमें से कुछेक गलियों पर चलनेवालों के लिए रोशनी ज्यादा और सुरक्षा कम हो गयी है। समाज की अंधेरी गलियों के मुकाबले रोशन गलियों में अधिक चोरी-डाके पड़ते हैं । सच- मुच, प्रकाश तले ही अँधेरे का वास हैं। कला-जगत् नाम की गली जो रात-दिन रोशनी से जगमगाती है, कीर्ति की रोशनी, सुविधाओं की रोशनी आदि वहाँ कई रोशनियाँ हैं। पर वहाँ भी सच्चे हृदयों और ऊँचे विचारों का तनिक भी प्रकाश नहीं। उस गली की अंधी रोशनी में, न जाने कितनों के शारीरिक और मानसिक सौंदर्य को चुपचाप और गुमराह कर बलि के लिए बाध्य किया जा रहा है।"

"कहते हैं कि मद्रास जाने पर मुझ जैसी गधी को गरदनी देकर बाहर निकाल देंगे।"

"कौन ? गोपाल?"

"हाँ ! मैंने प्लेन में ईप्पो आने से इनकार कर दिया था न । उसके लिए ही चीख रहे थे।"

"कला एक लड़की के पेट और सुख-सुभीते का जितना ख्याल करती है, उतना उसके तन-मन की पवित्रता का ख्याल नहीं करती। यह कैसी विडंबना है।"

वह इसका कोई उत्तर नहीं दे सको । उसे देखने की भी हिम्मत उसमें नहीं रही । मुँह नीचा कर जमीन देखने लगी।

उदयरेखा के साथ अब्दुल्ला और गोपाल कैमरान हाईलैंड्स चले गये । यह तय हुना था कि उनके वहाँ से लौटने के बाद सब ईप्पो से क्वालालम्पुर चलेंगे। उस दिन माधवी और मुत्तुकुमरन् एक-दूसरे सह-अभिनेता को साथ लेकर, एक टैक्सी करके ईप्पो और ईप्पो के आस-पास के चुंग, चुंगे-चिप्पुट, कंधार आदि दर्शनीय स्थलों का परिदर्शन कर आये । चुंग चिप्पुट में सहकारिता की महिमा पर आधारित रबर का बगीचा और महात्मा गांधी के नाम पर संचालित गाँधी पाठ- शाला--दोनों ही उन दर्शनीय स्थलों में अविस्मरणीय थे। सड़क के दोनों ओर पर्वतीय स्थल ऐसा अनुपम दृश्य उपस्थित करते थे, मानो मोम की बत्तियाँ पिघल कर सुन्दर बेलबूटों का चित्रण करती हों। सभी स्थानों से धूम-धामकर वे साढ़े सात बजे के करीब लौट गये। लेकिन कैमरान हाईलैंड्स जानेवालों को लौटने में रात के दो बजे से भी अधिक बीत गये।

दूसरे दिन बड़े सवेरे गोपाल, अब्दुल्ला और उदयरेखा--तीनों हवाई जहाज से और बाकी सारे सदस्य कार से क्वालालम्पुर को चल पड़े। सीन-सेटिंग आदि को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए अब्दुल्ला ने लॉरी की व्यवस्था करवा दी थी। अतः वे नियमित रूप से ठीक समय पर उन जगहों पर पहुँच जाया करती थी।

माधवी के विचार से अब्दुल्ला उदयरेखा को इसीलिए हवाई जहाज पर ले जा रहा था ताकि उसके बहकावे में आकर माधवी भी उसके रास्ते आ जायेगी । उसे बेचारे अब्दुल्ला पर तरस आ रहा था । उसने मुत्तुकुमरन से कहा, "किसी कोने में अबतक पड़ी उदयरेखा के भाग्य में मलेशिया आने पर कैसा भोग लिखा है, देखिये !"

. "क्यों, उसके भाग्य पर तुम्हें ईर्ष्या हो रही है क्या?"

"छिः ! कैसी बातें करते हैं आप? मैंने इस संयोग की बात कही तो इसका यह मतलब नहीं कि मुझे उस पर ईर्ष्या हो रही है। उसी के आने से तो मैं बच पायी । इसका मुझे उसका आभार मानना चाहिए।"

"नहीं तो!"

"......"

माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया ।

मुत्तुकुमरन् ने भी महसूस किया कि उसके प्रति ऐसी कड़ी बातें मुंह में नहीं लाना चाहिए। जब कभी वह उसके साथ इस तरह पेश आता तो वह चुप्पी साध लेती थी। उसे उसपर बड़ा तरल हो आया। निहत्थे और निर्बल विपक्षी पर हथियार चलाकर अपना शौर्य दिखाने-जैसा लगा।

क्वालालम्पुर में उसे और माधवी को अप्रत्याशित रूप से एक सुयोग हाथ लगा। अब्दुल्ला, उदयरेखा और गोपाल के लिए 'मेरीलिन होटल' नाम के शान- दार होटल में ठहरने की व्यवस्था की गयी। बाकी लोगों के लिए एक दूसरी जगह पर 'स्ट्रेथिट्स होटल' नाम का साधारण-सा होटल चुना गया । व्यवस्था करने के पहले गोपाल ने माधवी से कहा, "तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो हमारे साथ 'मेरी-- लिन होटल में ठहर सकती हो। लेकिन उस्ताद के लिए वहाँ कोई बंदोबस्त नहीं हो सकता।"

"कोई जरूरत नहीं । मैं यहाँ नहीं ठहरूँगी । वहीं ठहरूँगी, जहाँ वे ठहरे हैं।" माधवी ने दो-टूक जवाब दे दिया।

ऊँचे-ऊँचे मकान, और स्थान-स्थान पर लगे चीनी, मलेशियन और अंग्रेज़ी अक्षरों में चमाचम चमकते नियान साइन और उनकी रोशनी से जगमगाते बोर्ड पंग-पग पर यह बता रहे थे कि वे बिलकुल एक नये देश में आये हैं। सड़कें साफ़- सुथरी और रौनक भरी थीं। वहाँ किस्म-किस्म की छोटी-बड़ी नयी-नयी कारों की भरमार-सी थी । भद्रास में उनका नमूना भी शायद ही देखने को मिले। चीनी कौन हैं और कोन मलायी-शुरू-शुरू में उनका फ़र्क करना भी बड़ा मुश्किल लगा।

जिस दिन वे वहाँ पहुँचे थे, उसके दूसरे दिन वहाँ के एक तमिळ दैनिक में गोपाल से एक साक्षात्कार छपा था। उसमें एक प्रश्न यह पूछा गया था, "आप यहाँ जो नाटक खेलनेवाले हैं-'प्रेम एक नर्तकी का', उसके बारे में अपने मलाया- वासी तमिळ भाइयों को बतायेंगे कि उसका बीजांकुर कैसे पड़ा?"

"मलायाधासी तमिळ भाइयों को ध्यान में रखकर ही इस नाटक की पूरी योजना मैंने स्वयं बनायी है। इसकी सफलता को मैं अपनी सफलता मानूंगा।" उस सवाल का गोपाल ने यों जवाब दिया था।

उसे पढ़कर माधवी और मुत्तुकुमरन् को बड़ा गुस्सा आया । माधवी ने अपने मन की यों रखी, "औपचारिकता-निर्वाह के लिए ही सही, नाटककार के रूप में उसने आपका नाम तक नहीं लिया। ऐसा उत्तर देते हुए वह कितना मदान्ध है ?"

"तुम्हारा कहना गलत है, माधवी ! उसमें मद-वद कुछ नहीं। वह स्वभाव से ही बड़ा कायर है । बस, ऊपरी तौर पर बड़ा धीर-वीर होने का नाटक करता है । मेरे ख्याल से यह भेंट दूसरे ढंग से हुई होगी। पत्रकारों को अब्दुल्ला ने ही मेरीलिन बुलाया होगा । भेंट में वे भी साथ रहे हैं । इसका सबूत चाहिये तो यह चित्र देखो ! एक ओर गोपाल, बीच में उदयरेखा और दूसरी ओर अब्दुल्ला खड़े हैं । अब्दुल्ला के डर से उसने मेरा या तुम्हारा नाम नहीं लिया होगा। अगर लिया भी होगा तो अब्दुल्ला ने मना कर दिया होगा।"

"हो सकता है कि आपका कथन ठीक हो । पर यह सरासर अन्याय है । नाटक लिखने और इसे निर्देशित करने का पूरा भार तो केवल आपका रहा है। आपको भूलना बड़ा पाप है । वह उन्हें यों ही नहीं छोड़ेगा।"

"दुनिया में पाप-पुण्य देखनेवाले आज कौन हैं ?" विरक्त स्वर में मुत्तुकुमरन् ने कहा।

वे जिस स्ट्रेयिट्स होटल में ठहरे थे, वहाँ चीनी और कांटिनेंटल भोजन की ही व्यवस्था थी। इसलिए सुबह के जलपान और दोपहर के भोजन के लिए अंबांग स्ट्रीट के एक हिन्दुस्तानी होटलवाले के यहाँ प्रबन्ध किया गया था। कॉफ़ी, कोल्ड ड्रिक्स और आइस-क्रीम आदि का इंतजाम उन्होंने अपने ही होटल में करवा लिया था।

जिस दिन वे यहाँ ठहरने आये थे, उस दिन रात को वे कहीं बाहर नहीं गये। दूसरे दिन सवेरे वे महामारियम्पन के मंदिर और दसगिरि हो आये । दसगिरि में, संयोग से रुद्रपति रेड्डियार नाम के एक व्यापारी मिले, जो कई साल पहले मदुरै में डबल रोटी का व्यापार करते थे। दोनों ने एक-दूसरे को देखते ही पहचान लिया। उन्होंने कहा कि यहाँ पेट्टा लिंग जया में मैंने एक डबल रोटी की दुकान खोल रखी है और हर दूसरे वर्ष छ: महीनों के लिए स्वदेशा हो आता हूँ।

नये देश में अप्रत्याशित रूप से एक परिचित व्यक्ति से मिलकर मुत्तुकुमरन् बहुत खुश हुआ। उसने माधबी का उनसे परिचय कराया और मद्रास में आकर गोपाल की नाटक-मंडली में सम्मिलित होने की बात भी बतायी।

"सिनेमा के लिए भी कुछ लिखना शुरू कर दो ! फ़िल्मों से ही मुट्ठी गरम होती है।" सब' की तरह रैड्डियार के मुँह से भी वही बात सुनकर मुत्तुकुमरन् को हँसी आयी। उसने कहा, "सिनेमा भी दूर कहाँ है ? उसे भी मुट्ठी में करके छोड़ेंगे।"

"अच्छा ! कल दोपहर को तुम दोनों हमारे घर में भोजन करने आ जाओ। पेट्टालिंग जया-यह पता याद रखो । हाँ, तुमने यह नहीं बताया कि ठहरे हुए हो?"

"स्ट्रेयिट्स होटल में । नाश्ता और भोजन अंबाग स्ट्रीट से आ जाते हैं।"

"हमारे ही घर में आकर ठहर जाओ न ।' उहोंने आग्रह किया। "यह संभव नहीं होगा। क्योंकि हम नाटक-मंडली के दूसरे लोगों के साथ दोनों कहाँ ठहरे हुए हैं। उन्हें छोड़कर आना ठीक नहीं । वे भी हमें नहीं छोड़ेंगे।"

"अच्छा ! स्ट्रेयिट्स होटल को मैं कल दोपहर को गाड़ी भेज दूंगा।" कहकर रुद्रप्प रेड्डियरर विदा हुए।

उनके जाने के बाद उनके बारे में मुत्तुकुमरन् ने माधवी को बताया कि उससे उनका परिचय कब हुआ और कैसे हुआ तथा उनमें क्या-क्या खूबियाँ हैं।

दसगिरि से जब वे होटल को लौट आये, तब गोपाल भी अप्रत्याशित रूप से वहाँ आया था।

'कहो, उस्ताद ! इस होटल की सुख-सुविधाएँ कैसी हैं ? किसी चीज़ की जरूरत हो तो बताओ ! मैं तो किसी दूसरी जगह ठहर गया हूँ, इसलिए अपनी तकलीफ़ों को छिपाये न रखो।" गोपाल यों बोल रहा था, मानो किसी ट्रेड यूनियन के लीडर से कारखाने का कोई मालिक शिकायतें पूछना हो।

सच्चे प्रेम से कोसों दूर और औपचारिक ढंग से पूछी जानेवाली इन बातों को मुत्तुकुमरन ने जरा भी महत्व नहीं दिया और चुप्पी साधे रहा।

उसके जाने के 'बाद, माधवी ने मुत्तुकुमरन् से कहा, "देख लिया न, पूछ-ताछ करने का तौर-तरीका ! बातें दिल से नहीं, होंठों से फूट रही थीं।"

"छोड़ो, उसकी बातों को ! उसे शायद यह डर लग गया होगा कि हम उसके बारे में कैसी बातें कर रहे हैं । उसी डर से वह एक बार हमें देख जाने के लिए आया होगा।"

"उदयरेखा तो इस तरफ़ एकदम आयी ही नहीं। अब्दुल्ला के साथ ही चिपककर रह गयी।

"कैसे आती ? अब्दुल्ला छोड़े, तब न ?"

सुनकर माधवी हँस पड़ी। मुत्तुकुमरत् ने अपनी बात जारी रखी-"अब्दुल्ला उसे छोड़ेगा नहीं। और वह भी कौन-सा मह लेकर हमें देखने आयेगी? शरम नहीं लगती होगी उसे ?"

"इसमें शरम की क्या बात है ? गोपाल के पास आने से पहले, वह हैदराबाद में जैसी थी, वैसी ही अब भी है।"

"नाहक़ दूसरों को दोष न दो। बेचारी पर दोष मढ़ना ठीक नहीं। मेरे ख्याल से पहले-पहल कोई लफंगा-लुच्चा ही उसे इस लाइन में खींचकर लाया होगा। पेट की भूख भला-बुरा नहीं पहचानती! सच पूछो माधवी तो मुझे ऐसे लोगों से हम- दर्दी ही होती है।"

उसने उदयरेखा के बारे में बोलता वहीं से बन्द कर दिया। और थोड़ी देर तक उसकी बातें करती रहती तो उसे डर था कि अंततः वह बात उसी पर केन्द्रित हो जाएगी। मुत्तुकुमरन् ने अपनी बातों के दौरान इस बात पर जोर दिया था कि मेरे ख्याल से पहले-पहल कोई लफंगा-लुच्चा ही उसे इस लाइन में खींच लाया होगा ! माधवी ने कभी मुत्तुकुमरन् से बातें करते हुए कहा था कि मुझे इस लाइन में लातेवाले गोपाल ही हैं । इस पर तुरन्त भुत्तुकुमरन् ने उसपर ज़हर उगलते हुए कुरेदा था कि लाइन माने क्या होता है ? इस बात के साथ ही, उसे पिछली बात की याद हो आयी। ठीक उसी तरह आज मुत्तुकुमरन् ने 'लाइन' शब्द का इस्तेमाल किया था। उसने यों ही उस शब्द का इस्तेमाल किया था या किसी गूढार्थ से उसका इस्तेमाल किया था. यह समझ न पाने से वह दिल ही दिल में कुढ़ गयी । इस हालत में जब उदय रेखा के चरित्र को लेकर बात बढ़ी तो उसे डर लगने लगा था कि सौमनस्य और शांति से युक्त वातावरण में कहीं खलल न पड़े।

'क्वालालम्पुर में नाटक के प्रथम प्रदर्शन में अच्छी-खासी वसूली हुई । अब्दुल्ला बता रहे थे कि हर दिन के नाटक के लिए 'हैवी बुकिंग' है । दूसरे दिन दोपहर को रुद्रपति रेड्डियार की कार स्ट्रेयिड्स होटल में आयी और मुत्तुकुमरन और माधवी को दावत के लिए ले गयी।

रुद्रपति रेड्डियार जिस पेट्टालिंग जया. इलाके में रहते थे, वहाँ एक नयी कॉलोनी बसी हुई थी, जिसमें एक से बढ़कर एक नये मकान बने हुए थे। रुद्रपति रेड्डियार के ड्राइवर ने कहा कि क्वालालम्पुर भर में यह बिल्कुल नया बेजोड़ “एक्सटेन्शन' हैं । मलाया आकर रुद्रपति रेड्डियार बड़े धनी-मानी व्यक्ति हो गए 'थे। उनके यहाँ उच्च-स्तरीय पांडिय-शैली का शाकाहारी स्वादिष्ट भोजन पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए।

भोजन के बाद रेड्डियार की तरफ से भेंट के तौर पर माधवी को सोने की एक "चन और मुत्तुकुमरन को एक बढ़िया 'सीको' की घड़ी उपहार में मिली । पान- सुपारी की तश्तरी में रखकर सोने की वह 'चेन' रेड्डियार ने माधवी के सामने बढ़ायी तो वह सोच में पड़ गयी कि उसे ले या न ले ? मुत्तुकृमरन् क्या समझेगा ?

मुत्तुकुमरन के मन की जानने के लिए, उसने आँखों से जिज्ञासा व्यक्त की। मुत्तुकुमरन ने उसके मन के भय पढ़कर हँसते हुए कहा-"ले लो ! रेड्डियारजी तो हमारे भैया हैं। इनमें और हममें फ़र्क नहीं मानना चाहिए !"

माधवी ने चेन रख लिया। रेड्डियार ने अपने हाथों से मुत्तुकुमरन् के हाथ में घड़ी बाँधी।

"भगवान की कृपा से समुद्र पार इस देश में आकर हम काफ़ी खुशहाल हैं ।

खुशहाली में हमें अपनों को नहीं भूलना चाहिए !"-- रेड्डियार ने कहा।

"माधवी ! यह न समझना कि रेड्डियार अभी ऐसे हैं । मदुरै में रहते हुए भी हम दोनों बड़े दोस्त थे । कविराज के कुटुंब में पैदा होने से मेरे प्रति इनका अपार प्रेम हैं। उन दिनों ये हमारी नाटक मंडली के नायुडु के दाहिने हाथ रहे थे।

"तो ये गोपाल जी को भी अच्छी तरह जानते होंगे !"

"हाँ, जानता हूँ ! लेकिन वे अब आसमान पर चढ़े हुए हैं । इस देश के बहुत बड़े जौहरी अब्दुल्ला के 'गेस्ट' बने हुए हैं। पता नहीं, हम जैसों को वे कितना मानेंगे और सराहेंगे । फिर वे मेरीलिन होटल में ठहरे हुए हैं। मुझे मेरीलिन होटल जाते हुए ही डर लगता है। वहाँ 'दरबान से लेकर वेटर तक' अंग्रेजी में बातें करते हैं। अंग्रेजी से मेरा छत्तीस का वास्ता है ! न तो बोलना आता है और न समझना !"

"यानी कि आप मेरे जैसे हैं ! मुत्तुकुमरन् ने कहा। "यह कोई बड़ी बात नहीं; आदत पड़ने पर आप ही आप यह समझ आ जाती है।"

"बात वह नहीं । एक दफे की बात है। मुझे अपने व्यापार के सिलसिले में हांगकांग जाना था। प्लेन का टिकट खरीदने के लिए मैं मेरी लिन गया था। बी० ए० ओ० सी० कंपनी का दफ्तर मेरीलिन के 'ग्राउंड फ्लोर पर है। वहां रिसेप्शन में एक चीनी युवती थी। वह अंग्रेज़ी चुहियाने लगी तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैं थोड़ी बहुत मलय और चीनी भाषा जानता हूँ । धैर्य से चीनी में बोला तो वह लड़की भी हँसती हुए चीनी में बोली। मैं टिकट लेकर आ गया । मैं मानता हूँ कि अंग्रेजी जानना ज़रूरी है। पर न जाननेवालों से जब कोई ज़बरदस्ती उस जुबान में बोलकर' संकट में डालता है तो बड़ा दुख होता है !"

"माधवी को वह संकट नहीं है, रेड्डियार जी ! उसे अंग्रेजी, मलयालम, तमिल आदि अच्छी तरह से बोलना भी आता है और लिखना भी आता है।"

"हाँ, केरल में तो सभी अंग्रेजी पढ़े-लिखे होंगे !"

रेड्डियार से विदा लेते हुए दोपहर के साढ़े तीन बज गए। शाम के नाश्ता- कॉफ़ी के बाद ही वे पेट्टालिंग जया से रवाना हुए। चलते समय रेड्डियार ने बड़ी आत्मीयता से कहा था 'देखो, मुत्तुकुमरन् ! जबतक यहाँ रहते हो, मुझसे जो भी मदद चाहो निस्संकोच ले सकते हो। बाहर आने-जाने के लिए कार की जरूरत पड़े तो फोन करना !"

उनके इस प्रेम-भाव से मुत्तुकुमरन् विस्मय और आनन्द. से विभोर हो गया । जब वे स्ट्रायिट्स होटल में वापस पहुँचे तो दिल को हिला देनेवाली एक ख़बर मिली।

उस दिन दोपहर के वक्त भी गोपाल ने बेहद पी रखी थी। वह बाथ रूम जाते हुए फिसल पड़ा था। घुटने में हल्का-सा फेक्चर हो गया था। इसलिए उसे अस्पताल में भरती किया गया था। मंडली के दूसरे सभी कलाकार उसे देखने के लाल गए हुए थे। सारा समाचार स्ट्रेयिट्स होटल के स्वागत कक्ष में ही मिल गया था।

रिसेप्शनिस्ट से सारी बातों का पता लगाकर, गोपाल किस प्राइवेट नसिंग होम में में भरती है, वहाँ का पता-ठिकाना लेकर दोनों रेड्डियार की ही कार में उस अस्पताल को चल पड़े।

नर्सिंग होम माऊंटबेटन रोड पर था। जब वे वहां पहुंचे, तब मंडली के अन्य ‘कलाकार और कर्मचारी झुंड के झुंड लौट रहे थे। उस दिन शाम को नाटक हो कि न हो वे सब इसी अधेड़बुन में पड़े थे। वे आपस में यही कहते हुए सुनायी दे रहे थे कि गोपाल के पैर में 'फ्रेक्चर' हो जाने से उस दिन का ही नहीं, दूसरे दिनों के नाटक भी रद्द कर दिये जायेंगे। साथ ही टिकट खिड़की पर खासी वसूली होने और बाद के टिकटों की बिक्री तथा थियेटर के किराये पर लेने से अब अब्दुल्ला फ़िक्र में पड़े थे कि नाटकों का मंचन रद्द किये जाने पर उसे बहुत धाटा उठाना पड़ेगा !

गोपाल के पैर पर मरहम और पट्टी लगाकर उसे बिस्तर पर लिटा दिया गया था । नींद की गोली देने से वह गहरी नींद में था।

"छोटा-सा फ्रेक्चर है ! एक हफ्ते में ठीक हो जायेगा । फ़िक्र की कोई बात नहीं है !" डॉक्टर अब्दुल्ला को बता रहे थे। अब्दुल्ला और उदयरेखा चिंतित खड़े थे।

"इसने सारा गुड़-गोबर कर दिया ! ईप्यो में ही मुझे भारी घाटा उठाना पड़ा है। मैंने सोचा कि क्यालालम्पुर में उसे 'मेक अप' कर लेंगे। सातों दिन की हैवीं बुकिंग है यहाँ !" अब्दुल्ला ने रुआंसा होकर माधवी से कहा ।

चोट खाए हुए पर बिना किसी हमदर्दी के, उसका इस तरह बकना माधवी और मुत्तुकुमरन् को अच्छा ही नहीं लगा । मुत्तुकुमरन् को तो गुस्सा ही आ गया। "अपने पैसों का रोना क्यों रोते हो? नाटक मुख्य है। उसकी फ़िक्र तुम न करो। ठीक समय पर मंचन शुरू होगा। छः बजे थियेटर में आ जाना । अब जाओ !" मुत्तुकुमरन् ने धीर-गंभीर शब्दों में कहा ।

"वह कैसे होगा भला?" अब्दुल्ला ने शंका प्रकट की।

"अपना रोना-धोना बन्द करों । नाटक होगा, जरूर होगा। तुम सीधे थियेटर आ जाना ! पर इस बात का ख्याल रखना कि आज शाम के किसी भी अखबार में यह छाने न पावे कि गोपाल का पैर जख्मी हो गया है !" मुत्तुकुमरन् ने ऊँचे स्वर में कहा तो अब्दुल्ला की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी।

माधवी समझ गयी कि मुत्तु कुमरन् की क्या योजना है ? उसे इस बात की खुशी हो रही थी कि अब मुत्तुकुमरन् कथानायक की भूमिका करने वाला है। मुत्तुकुमरन् इस बात से खुश हो रहा था कि माधवी के साथ भूमिका करने का उसे सुयोग मिल रहा है।

माधवी उसकी समयोचित बुद्धि और धैर्य से स्थिति पर नियंत्रण की सामर्थ्य की कायल हो गयी । ऐसी ही धीरता की वजह से वह उसके प्रति आकर्षित हुई थी और धीरे-धीरे अपना हृदय हार बैठी थी।

यह गली बिकाऊ नहीं : उन्नीस

उस दिन नाटक के पहले मुत्तुकुमरन् ने जल्दी-जल्दी संवाद और दृश्यों के क्रम को उलट-पलटकर देखा । संवाद उसके थे; निर्देशन उसका था। दर्शकों की गैलरी में बैठकर उसने कुछेक बार सबकुछ देखा भी था । अत: सारे दृश्य उसे याद थे। इसके अलावा स्वयं कवि भी था। परिस्थितियों के अनुसार, नये संवाद गढ़कर वह मंच पर बोल भी सकता था। एक ओर उसे अपने ऊपर विश्वास था और दूसरी ओर माधवी पर ! अच्छी अभिनेत्री होने से उसे विश्वास था कि वह अपनी ओर से कोई कोर-कसर उठा नहीं रखेगी।

अब्दुल्ला को सबसे बड़ा डर था कि कहीं दर्शकों को इस बात का पता न लग जाए कि गोपाल भूमिका नहीं कर रहा है, तो क्या हो? वे सिर्फ गुल-गपाड़ा ही नहीं मचायेंगे; कुर्सी उठाकर मारेंगे! यह डर एक ओर तो दूसरी ओर यह विश्वास भी था कि मुत्तुकुमरन् गोपाल से भी कहीं अधिक खूबसूरत है और दर्शकों को बाँधे रखने की क्षमता उसके गंभीर व्यक्तित्व में है।

मुत्तुकुमरन् के आत्म-विश्वास ने अविश्वास को स्थान ही नहीं दिया । वह निश्चित होकर नायक की भूमिका करने को तैयार हो गया। दर्शकों को इस बात .. का भान तक नहीं हुआ था कि गोपाल पीकर बाथरूम में गिर पड़ा है और उसके पैर की हड्डी खिसक गयी है। अतः बे बड़ी शांति से परदा उठने की राह देख रहे थे. । अब्दुल्ला इस बात को लेकर बहुत चिंतित थे कि मुत्तुकुमरन की गोपाल जैसी 'स्टार वैल्यू' नहीं है । गोपाल ने क्वालालम्पुर में पहले दिन के नाटक में भाग लेकर अपनी और अपनी भूमिका की धाक जमा रखी थी। इसलिए हो सकता है कि दर्शक गोपाल और मुत्तुकुमरन के बीच फ़र्क ढूंढ़ निकालें । अब्दुल्ला का यह शक नाटक प्रारंभ होने ही तक था!

नाटक शुरू होने के बाद दर्शकों का ध्यान इस बात की ओर बँटा ही नहीं। परदा उठते ही मुत्तुकुमरन् मंच पर इस तरह अवतीर्ण हुआ मानो कामदेव ही राजा का वेश धारणकर सभा में विराज रहे हों। पिछले दिन इस दृश्य में गोपाल के प्रवेश पर जैसी तालियां बजीं, उससे कई गुना ज्यादा मुत्तुकुमरन के प्रवेश पर गड़गड़ाती रहीं । माधवी का सौंदर्य पिछली शाम के मुकाबले और भी निखर उठा था। चमकदार जिल्द वाली अरबी घोड़ी जैसी स्फूर्ति के साथ वह मंच पर उतरी।

"मेरे हृदय मंच पर कंत नाचते तुम।
तुम्हारे संकेतों पर प्रिय, नाचती मैं।"

इस गीत पर उसने अप्रतिम नृत्य उपस्थित कर खूब वाह-वाही लूटी। मुत्तुकुमरन मेरे साथ भूमिका में है। इस विचार से माधवी और माधवी मेरे साथ भूमिका कर रही है-इस विचार से मुत्तुकुमरत्-दोनों स्वस्थ प्रतियोगिता से अपनी भूमिका निभाने लगे तो हर दृश्य में ऐसी करतल ध्वनि हुई कि पूरी दर्शक दीर्धा ही थरथरा उठी। उस दिन का नाटक अत्यन्त सफल रहा । सह्योगी कला- कारों और स्वयं अब्दुल्ला ने बात-बात पर मुत्तुकुमरन की तारीफ की।

"इसमें तारीफ़ करने की क्या बात है ? मैंने अपना कर्तव्य निबाहा, बस ! ढेर- सारा पैसा खर्च करके आपने हमें बुलाया और डर रहे थे कि कहीं बाटा उठाना न पड़ जाये। आपका भय दूर करने और अपने मित्र का मान रखने के लिए मुझे जो कुछ करना चाहिए था, मैंने किया !" मुत्तुकुमरन् बड़ी ही सहजता से उसे उत्तर दिया।

दूसरे दिन सवेरे वहाँ के दैनिक समाचार-पत्रों में पैर फिसलने से गोपाल के गिर जाने और हड्डी टूट जाने की खबर और पिछली शाम के नाटक में गोपाल की जगह नाटककार मुत्तुकुमरन को सफल भूमिका की खबरें साथ-साथ छपी थीं ।

सवेरे-सवेरे मुत्तुकुमरन् और माधवी गोपाल को देखने अस्पताल गए। "ठीक समय पर हाथ बंटाकर तुमने मेरी मान-रक्षा की है। इसके लिए मैं तुम्हारा बहुत आभार मानता हूँ !" कहकर गोपाल ने हाथ जोड़े।

"फिर तो यह भी कहो कि तुम मेरे ही भरोसे बोतल पर बोतल चढ़ाकर नशे में डूबे रहे कि समय पर तुम्हारी जाती हुई इज्जत को मैं किसी तरह बचा दूंगा। वाह रे वाह ! भाग्य से अखबारवालों ने तुम्हारी धज्जियाँ नहीं उड़ायी ! इतना ही लिखा कि तुम स्नानागर में फिसल कर गिर गये । बात की तह में जाकर क्यों गिरे, कैसे गिरे' का विवरण भी दिया होता तो जग-हँसाई. ही होती !" भुत्तुकुमरन् ने गोपाल को आड़े हाथों लिया ।

... "उस्ताद ! मानता हूँ कि मैंने बड़ी गलती की ! मेरी अक्ल मारी गयी थी। अब सोचने से क्या फ़ायदा? पीने के पहले ही सोचना चाहिए था ! मेरी अक्ल तब ठिकाने नहीं थी।"

"तुम्हारी अक्ल कब ठिकाने रही है. ? बोलो ! खैर, छोड़ो उन बातों को ! अब तबीयत कैसी हैं ? कल रात को अच्छी नींद आयी या नहीं ?'

"खूब अच्छी तरह सोया था । सवेरे उठने पर नाटक की याद आयी। फिर सोच लिया कि 'न्सल' हुआ होगा। अच्छा हुआ कि तुमने बचा दिया। अखबार पढ़ने पर सबकुछ मालूम हुआ। अब्दुल्ला ने भी आकर बताया कि तुम्हारा अभिनय मुझसे भी कहीं अधिक अच्छा रहा। "

'छिः ! छि: ! वैसा कुछ नहीं। बगर ग़लती के किमी तरह निभा दिया, बस !"

"यह तुम्हारी उदारता है। तुम बात छिपाते हो। अब्दुल्ला कह रहे थे कि तालियाँ ऐसी बजती रहीं कि रुकने का नाम नहीं लेती थीं। अखबारवालों ने भी तुम्हारी बड़ी तारीफ़ की है।”

"कोई हजार कहे गोपाल ! तुम तो अभिनय के लिए ही पैदा हुए हो ! तुम जैसा कोई काम करे तो कैसे करे?"

"अब ज्यादा न बोलिए। मरीज को आराम करना चाहिए !" नर्स ने आकर टोका तो वे उससे विदा लेकर चल पड़े।

मुत्तुकुमरन् और माधत्री के 'स्ट्रेथिट्स होटल' में आने के तुरंत बाद रेड्डियार के पास से फोन आया-..

"कल मैं भी नाटक देखने आया था । तुम्हें नायक के वेश में देखकर मुझे शक हुआ। जल्दी विश्वास नहीं आया । पर आज अखबार देखने पर मेरा सन्देह दूर हो गया । तुम्हारा अभिनय बहुत बढ़िया था । यों ही नहीं कहता । तुमने सचमुच कमाल कर दिया ! हाँ, अब गोपाल की तबीयत कैसी है ? क्या मैं आकर देख सकता हूँ?"

"आज नहीं। कह रहे हैं कि काफ़ी 'रेस्ट' चाहिए । कल मिल आइयेगा। माउंट बेटन रोड के एक नर्सिंग हॉल में हैं।" मुत्तुकुमरन् ने रेड्डियार को उत्तर दिया ।

उसके बाद क्वालालंपुर में गोपाल की. नाटक-मंडली सात दिन ठहरी रही। सातों दिन गोपाल की जगह मुत्तुकुमरन् ने ही भूमिका निभायी। अच्छा-खासा नाम भी कमाया । तारीफ़ के पुल बँधे और पुरस्कारों के अंबार लगे । पत्र-पत्रिकाओं में मुत्तुकुमरन् की बड़ी चर्चा रही । मुत्तुकुमरन्-माधवी की बेजोड़-जोड़ी कहकर सभी अनुशंसा और संस्तुति करते रहे ।

"संवाद भूल जाने पर आप ऐसे संवाद बोलते हैं, जो लिखे हुए संवादों से भी बढ़िया बन जाते हैं !" माधवी ने कहा ।

"इसमें आश्चर्य की क्या बात है, माधवी ? सबकी तरह तुम्हारा भी आश्चर्य प्रकट करना अच्छा नहीं लगता । यह तो बेमतलब की प्रशंसा है। मैं जन्म से इसी में लगा हूँ। बाय्स कंपनी के ज़माने से आज तक । मैं यह काम नहीं कर पाता- तब तुम्हारा आश्चर्य करना उपयुक्त होता।"

"आपके लिए यह साधारण-सी बात हो सकती है। लेकिन मेरे लिए तो आपकी हर साधना बड़ी लगती है और मुझे बड़े आश्चर्य में डाल देती है। मैं अपनी यह आवत अब बदल नहीं सकती!" माधवी ने उत्तर दिया।

"चुप भी करो। तुम बड़ी पगली हो !"

पगली ही सही। पर यकीन मानिए, सारा-का-सारा पागलपन आप पर निछावर है । आप जब सिंगापुर के 'एयर पोर्ट पर उतरे, तब अकेले और अलग थलग पड़े रहे। किसी की आँखों में नहीं पड़े। यह देखकर मेरा दिल कुढ़ता रहा था। उसका फल अभी मिला है। अब्दुल्ला और गोपाल ने पिनांग में आपके दिल को कैसी-कैसी चोटें पहुँचायी थीं ! आज आप ही को उनका मान रखना पड़ रहा है, इक्जत बचानी पड़ रही है।"

"बस, बस ! बंद करो ! तुम्हारी ये बातें मुझे मिथ्याभिनान से भर देंगी।

"अच्छा ! कल अब्दुल्ला आपसे अकेले में मिलना चाहते थे, सो किसलिए?"

" 'समय पर आपने हमारी नाक रख ली। पुरानी बातें मन में न रखिए।'

कहकर उन्होंने हीरे की एक अंगूठी भी बढ़ायी। मैंने उत्तर दिया, 'साहब ! आपके लिए मैंने कुछ नहीं किया। मैंने अपने दोस्त की इज्जत रखने को अपना कर्तव्य समझा ! आप जो कुछ देना चाहते हैं, गोपाल को दीजिए ! मेरा आपसे कोई वास्ता नहीं !' इतना कहकर मैंने अंगूठी लेने से इनकार कर दिया ।"

"बहुत अच्छा किया ! सबने आपका दिल कितना दुखाया? अंग्रेजी नहीं जानने पर आपकी खिल्ली भी उडावी.!"

"कोई कुछ जाने या न जाने, मनुष्य की श्रेष्ठ भाषा तभी बोली जाती है, जब दूसरों के साथ उदारता का व्यवहार किया जाता है। अगर वह भाषा मालूम हो तो काफ़ी है। उस भाषा से अपरिचित रहनेवाला चाहे जितनी ही भाषाएँ क्यों न जाने, कोई फायदा नहीं है। दुःख के समय जहाँ आँसू की दो बूंदें टपकती हैं और सुख के समय जहाँ एक मुस्कान खिल उठती है, वही समस्त भाषाएँ जाननेवाला हृदय है। उससे बढ़कर श्रेष्ठ भाषा कोई नहीं !"

डॉक्टर का आदेश था कि गोपाल को एक हप्ता और आराम चाहिए । इससे 'मलाका. में होनेवाले नाटकों की भूमिका भी मुत्तुकुमरन के जिम्मे आयी। 'मुत्तुकुमरन् और नाटक-मंडली वाले कार ही में मलाका के लिए रवाना हुए। गोपाल की देख-रेख का भार रुद्रपति रेड्डियार के सुपुर्द किया गया।

मलाका में रुकते हुए एक दिन दोपहर को वे पोर्ट डिक्सन समद्र तट की सैर को भी निकल गये । मलाका में भी नाटकों के प्रदर्शन के लिए अच्छी-खासी वसूली हुई।

मुत्तुकुमरन् का अभिनय दिन-प्रतिदिन निखरता गया। मंडली के नामार्जन का वह एकमात्र कारण था। मलाका में नाटक पूरे होने पर, लौटते हुए रास्ते में चिरंपान में एक मित्र के यहाँ उन्हें भोज के लिए आमंत्रित किया गया। भोजन के उपरांत मेजबान के हाथों अब्दुल्ला ने मुत्तुकुमरन को वही अंगूठी दिलाने की कोशिश भी की। मुत्तुकुमरन् ने इसका उद्देश्य भांप लिया। अब्दुल्ला ने देखा कि मुतुकुमरन् उसके हाथों यह उपहार इनकार कर रहा है तो घुमा-फिराकर चिरपान के दोस्त के हाथों; उसके हाथ किसी तरह पहुँचा देने का उपक्रम किया। इस रहस्य को जानते हुए भी मुत्तुकुमरन् ने चार जनों के सामने उनका अपमान नहीं करना चाहा और चुपचाप अंगूठी ले ली । पर चिरंपान से क्वालालम्पुर लौटते ही उसने पहला काम यह किया कि उनकी अंगूठी उन्हीं को लौटा दी।

"यह लीजिए, अब्दुल्ला साहब ! आप कुछ देकर मेरा प्रेम या मेरा स्नेह खरीद नहीं सकते। मैंने आपसे किसी चीज़ की आशा कर नाटक में अभिनय नहीं किया। मुझे इस बात की भी फ़िक्र नहीं कि नाटक के इस ठेके से आपको मुनाफ़ा होता है या घाटा उठाना पड़ रहा है ! मैं अपने मित्र के साथ मलाया आया। उसे तकलीफ़ में पड़ा देखकर, उसकी मदद करना मेरा कर्तव्य था। और किसी गरज से मैंने यह काम नहीं किया । यदि मेरे कर्तव्य के बदले आप कोई उपकार करना चाहते हैं तो मेरा नहीं, गोपाल का कीजिए। चिरंपान में चार लोगों के सामने मैंने आपका अपमान करना उचित नहीं समझा। इसीलिए इसे लेने का नाटक रचा। मुझे अंग्रेजी नहीं आती; पर उदारता आती है। मैं बड़ा स्वाभिमानी हूँ। लेकिन उसके लिए दूसरों का रत्ती भर भी अपमान नहीं करूँगा। मुझे माफ़ कीजिए। किसी भी स्थिति में मुझे इसे वापस करना ही पड़ेगा।"

"मुझे बड़े संकट में डाल रहे हैं, मुत्तुकुमरन् जी आप !"

"नहीं-नहीं, यह बात नहीं !"

अब्दुल्ला ने सिर झुकाये अंगूठी वापस ली और चले गये । औरत हो या मर्द, ऐसे लोगों से वास्ता पड़ने पर, जिन्हें वे किसी भी मूल्य पर खरीद नहीं पाते, उनका सिर ऐसा ही झुक जाया करता था।

उस दिन शाम को गोपाल ने मुत्तुकुमरन को बुला भेजा। मुत्तुकुमरन माउंट बैंटन रोड जाकर उससे मिला।

"बैंठो", अपने बिस्तर के पास की कुर्सी दिखाकर गोपाल ने कहा । मुत्तुकुमरन् बैठा।

"तुमने अब्दुल्ला की दी हुई अंगूठी वापस कर दी क्या?"

"हाँ ! उन्होंने एक बार नहीं, दो-दो बार इसे देना चाहा था ! मैंने दोनों ही बार लौटा दी।"

"ऐसा क्यों किया?"

"इसलिए कि उनका और मेरा कोई संबंध नहीं है । मैं तुम्हारे साथ यहाँ आया हूँ। तुमसे नहीं हो पा रहा तो मैं तुम्हारे बदले भूमिका कर रहा हूँ। वे कौन होते हैं मेरी तारीफ़ करनेवाले या मुझे पुरस्कार देने वाले ?"

"ऐसा तुम्हें नहीं कहना चाहिए ! उस दिन अण्णामल मन्ड्रम में जब नाटक का प्रथम मंचन हुआ था, उन्होंने तुम्हें माला पहनायी । उस दिन तुमने यह कहकर उनका जी दुखाया कि किसी के हाथों माला ग्रहण करते हुए सिर झुकाना पड़ता है। इसलिए मैं इन मालाओं से नफरत करता हूँ। आज हीरे की अंगूठी लौटाकर उनका दिल दुखा रहे हो । इस तरह के व्यवहार से तुम्हारी कौन-सी बड़ाई हो जाती है ? नाहक एक बड़े आदमी का दिल दुखाने से तुम्हारे विचार से तुम्हारा कौन-सा फायदा होनेवाला है ?"

"ओ हो ! यह बात है ! कोई बड़ा मनुष्य हमारा अपमान करे तो चुप रहना चाहिए ! किसी बड़े आदमी का विरोध मोल नहीं लेना चाहिए ! तुम यही कहना चाहते हो न?'

"मान लो कि अब्दुल्ला ने तुम्हारा अपमान किया तो भी..."

"छि: ! छिः ! दुबारा ऐसी बात मुंह में न लाओ। मेरा अपमान वह क्या, उसके दादे-परदादे भी नहीं कर सकते। ऐसा समझकर, मानो मेरा बड़ा अपमान कर रहे हैं, कुछ दिलासा दे दिया, बस !"

"जो भी हो, इतना रोष तुम्हें नहीं सोहता उस्ताद !"

"वही एक चीज़ है, जो कलाकार के पास बची-खुची रहती है । उसे भी छोड़ दूं तो फिर कैसे ..?"

"अब्दुल्ला ने मेरे पास आकर कहा कि मैं किसी तरह तुम्हें उनकी वह अंगूठी लेने को बाध्य करूं।"

"वह तो मैंने उन्हीं से कह दिया कि आप जो भी देना चाहें, गोपाल को दे दीजिए। आपका और मेरा कोई सीधा संबंध नहीं। उन्होंने तुमसे नहीं कहा क्या ?" !"कहा था। कहकर वह अंगूठी मेरे हाथ दे गये हैं।"

"अच्छा!"

"तुम्हारे विचार से अब्दुल्ला की अंगूठी लेना ठीक नहीं । पर रुद्रपति रेड्डियार की घड़ी लेना ठीक है। है न सही बात?".

"रुद्रप्प रेड्डियार और अब्दुल्ला कभी एक से नहो पायेंगे। रेड्डियार आज करोड़पति हो गये हैं । पर मेरे साथ बिना किसी भेद-भाव के सलूक करते हैं । पैसे का गर्व उन्हें छू तक नहीं गया है।"

गोपाल इसका कोई जवाब नहीं दे सका । बोला, "तुमसे बात करने से कोई फायदा नहीं, ठीक है।"

मुत्तुकुमरन ने क्वालालंपुर में और दो नाटक खेले। इतने में गोपाल उठकर चलने-फिरने लगा था। दूसरे दिन का नाटक गोपाल ने भी पहली कतार में बैठकर देखा। उसके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। मुत्तुकुमरन का अभिनय देखकर उसने दांतों तले उंगली दबा ली।

नाटक खत्म होने पर गोपाल ने मुत्तुकुमरन के गले लगकर उसकी बड़ी तारीफ़ की। दूसरे दिन उन्होंने रेडियो और दूरदर्शन पर एक भेंट-वाता भी दी। उस भेंट-वार्ता में भाग लेने के लिए मुत्तकुमरन्, गोपाल और माधवी तीनों साथ गये थे । तीसरा दिन नगर-भ्रमण और दोस्तों से विदा लेने में बीता। जिस दिन वे लोग वहाँ से रवाना हुए, उस दिन मेरीलिन होटल में गोपाल की नाटक-मंडली की एक विदाई-दावत दी गयी । उसमें बोलनेवाले सभी ने मुत्तुकुमरन की बड़ी तारीफ़ की। गोपाल ने कृतज्ञता-ज्ञापन में मुतुकुमरन् की भरपूर प्रशंसा की। इस कार्य में वह अघाया नहीं। माधवी ने अपनी मंडली की तरफ़ से एक गीत गाया-'आओ, आओ ! मेरे नूरे चश्म !' प्रथम चरण गाते हुए माधवी की आँखों ने प्रथम पंक्ति में बैठे मुत्तुकुमरन को ही अपनी दृष्टि का बिन्दु बनाया।

हमेशा की तरह यह समस्या उठ खड़ी हुई कि कौन-कौन हवाई जहाज़ पर सिंगापुर जायेंगे ? मुत्तुकुमरन् और माधवी ने पहले की तरह ही इनकार कर दिया। "तो मैं भी प्लेन पर नहीं जाता। तुम लोगों के साथ कार ही में जाऊँगा !"

कहकर गोपाल ने हठ ठाना ।

पैर ठीक होने पर भी वह कुछ कमज़ोर-सा बना रहा । उसके लिए दो सौ मील से अधिक की कार-यात्रा कष्टदायक हो सकती थी। अतः मुत्तुकुमरन् ने उस पर जोर देते हुए कहा---

"इस देश और इस देश की प्राकृतिक सुषमा को देखने के विचार से हम दोनों कार में आने की बात सोच रहे हैं। इसे तुम्हें अन्यथा नहीं लेना चाहिए ! तुम्हारी हालत अब भी कार-यात्रा के लायक नहीं है । इसलिए मेरी बात मानो !” मुत्तुकुमरन् के आग्रह करने पर गोपाल मान गया ।

उदयरेखा के प्रति अब्दुल्ला का मोह अभी उतरा नहीं था और उतरने का नाम भी नहीं लेता था। अत: बे तीनों मलेशियन एयरवेंज' के हवाई जहाज पर सिंगापुर को रवाना हुए। मुत्तुकुमरन् सहित बाकी सब लोग कार द्वारा जोगूर के रास्ते सिंगापुर के लिए रवाना हुए। रुद्रपति रेड्डियार ने उनके लिए दोपहर का भोजन टिफ़िनदानों में भिजवा दिया था। रास्ते में एक जंगली नाले के किनारे कारें खड़ी कर सबने दोपहर का भोजन किया। सफ़र बड़े मजे का रहा । जोगूर का पुल पार करते हुए शाम के साढ़े छः बज गये। शाम के झुटपुटे में सिंगापुर नगर बड़ा रमणीक लग रहा था। सर्द मौसम और अंधेरे के डर से कोई अनिन्द्य सुन्दरी लुक-छिपकर चहलकदमी करें तो कैसा रहे ? सिंगापुर नगर उस समय ऐसी ही स्थिति उत्पन्न कर रहा था। उनकी कारों के, पुक्किट डिमा रोड पार कर, पेनकुलिन सड़क पर स्थित एक होटल में पहुंचते-पहुँचते गाढ़ा अँधेरा हो चला था। जहाँ देखो, आसमान से बातें करनेवाली बहुमंजिली इमारतें कतारों में खड़ी थी;:: जो गत्ते के बने हुए मॉडलों से लगीं। सिंगापुर क्वालालम्पुर से भी ज्यादा चुस्त और गतिशील लगा। कारें सड़कों पर चींटी की तरह रेंग रही थीं। पीले रंग से पुती छतवाली टैक्सियाँ बड़ी तेज गति से बढ़ रही थीं। रात के भोजन के लिए सभी चिरंगून रोड स्थित 'कोमल विलास' नामक शाकाहारी भोजनालय को गये ।

इस बार गोपाल भी उनके साथ ठहर गया। उदय रेखा और अब्दुल्ला कांटिनेंटल होटल में ठहरे। सिंगापुर के नाटकों में गोपाल ने ही भूमिका की । सिंगापुर के नाटकों में भी काफ़ी अच्छी वसूली रही। एकाएक बारिश हो जाने से अंतिम दो दिन वसूली कुछ कम रही। अब्दुल्ला के ही शब्दों में वैसे कोई नुक़सान नहीं उठाना पड़ा।

सिंगापुर में भी वे लोग कुछ जगहों में घूम आये। जैसे जुरोंग औद्योगिक बस्ती, टाइगर वाम गार्डन्स, क्वीन्स टाउन की ऊंची इमारतें वगैरह। 'टाइगर बाम' बगीचे में, चीनी पुराणों के आधार पर पत्थर-चूने से बनी आकृतियों में बहुत भयंकर दृश्य चित्रित किये गये थे। उनमें यह दर्शाया गया था कि संसार में पाप करनेवाले कैसे-कैसे दंड भोगते हैं? किसी पापी को नरक में आरे से चीरा जा रहा था। किसी के सिर में लोहे की कीलें ठोंकी जा रही थीं। किसी को आग की लपटों में नगे शरीर झोंका जा रहा था। देखनेवालों में दहशत-सी फैल जाती। मुत्तुकुमरन ने हँसते हुए कहा, "मद्रास में रहनेवाले सभी सिने कलाकारों को बुला लाकर इन दृश्यों को बार-बार दिखाना चाहिए माधवी!"

"कोई जरूरत नहीं।"

"क्यों? ऐसा क्यों कहती हो?"

"इसलिए कि ऐसी करतूतें वहाँ प्रतिदिन होती ही रहती हैं।"

यह सुनकर मुत्तुकुमरन् ठहाका मारकर हँसा। माधवी भी उसकी हँसी में शामिल हुई। मद्रास रवाना होने के दिन सवेरे ही वे 'शॉपिंग' को चले । कपड़े की दुकान में जाने पर मुत्तुकुमरन ने कहा, "मुझे भी एक साड़ी खरीदनी है! तुम्हारी मुँह-दिखाई के अवसर पर देने के लिए।"

माधवी का चेहरा लज्जा से लाल हो गया।

शाम को सिंगापुर में भी एक विदाई-पार्टी का आयोजन किया गया था। उससे निपटकर, अपनी नाटक-मंडली के जहाज द्वारा लौटने की व्यवस्था का भार अब्दुल्ला को सौंपकर गोपाल, मुत्तुकुमरन् और माधवी हवाई जहाज़ पर सवार होने के लिए हवाई अड्डे को रवाना हुए। मद्रास जानेवाला एयर इंडिया का हवाई जहाज़ आस्ट्रेलिया होता हुआ सिंगापुर आता था और सिंगापुर से मद्रात को रवाना होता था। उस रात को आस्ट्रेलिया से ही वह देर से रवाना हुआ। अब्दुल्ला, नाटक-मंडली के सदस्य और सिंगापुर के कला-रसिक देर-अबेर का ख़्याल किये बिना विदा करने के लिए हवाई अड्डे पर आये हुए थे।

हवाई ज़हाज़ के सिंगापुर से रवाना होते समय ही बड़ी देर हो गयी थी। अतः मद्रास पहुंचते-पहुँचते रात के साढ़े बारह बज गये थे। कस्टम्स फार्मेलिटी से निवृत्त होकर बाहर आने तक एक बज गया था। उस वक्त भी गोपाल और माधवी का स्वागत करने के लिए बहुत-से लोग फूल-मालाओं के साथ आये थे। उसमें लगभग आधा घंटा लग गया।

गोपाल के बँगले से कारें आयी हुई थीं। एक कार में तो सिर्फ सामान -ही-सामान भर गया। दूसरी कार में वे तीनों वहाँ से चले। घर आते-आते दो बज गये थे।

"इतनी रात गये अभी घर कैसे जाओगी भला! रात को यहीं सोकर सवेरे चली जाना!" गोपाल माधवी से बोला। लेकिन वह हिचकिचायी।

"तुम बहुत बदल गयी हो। पहले जैसी नहीं रही।" माधवी को हिचकते देखकर गोपाल ने हंसते हुए फिर कहा।

माधवी ने कोई जवाब नहीं दिया। गोपाल हँसता हुआ अन्दर चला गया।

"वह क्यों हँस रहा है?" मुत्तुकुमरन् ने माधवी से पूछा।

"उनकी निगाह में मैं बदल गयी न? इसलिए!"

"तुम घर जाओगी या यहीं ठहरोगी? देर तो बहुत हो गयी!"

ठहर सकती हूँँ। अगर आप अपने 'आउट हाउस' में किसी कोने में मुझे ठहरने की थोड़ी-सी जगह दें तो! इस बंगले में और किसी दुसरी जगह मैं नहीं ठहर सकती। यह एक भूत-बंगला है। कल सिंगापुर में आपने नरक की यातनाएँँ दिखायी थीं न! उन्हें फिर याद कीजिये तो बात समझ में आये।"

"आउट हाउस में तो एक ही खाट है! फ़र्श तो बड़ी ठंडी होगी।"

"परवाह नहीं! आप अपने चरण में शरण देकर नीचे-निरी फ़र्श पर भी जगह दें तो वही बहुत है!"

वह हामी भरकर बढ़ा तो वह उसके पीछे-पीछे चलती आयी।

उनके सिंगापुर से लौटने की बात का पहले ही पता हो जाने से नायर छोकरे ने 'आउट हाउस' को झाड़-पोंछकर साफ़ कर दिया था। मटके में ताजा पानी भरकर रखा था। गद्दे-तकिये के गिलाफ़ बदलकर बिछौने ठीक-ठाक सहेज रखा था।

उनके साथ आये हुए माधवी और मुत्तुकुमरन् के अलग-अलग सूट-केसों को ड्राइवर पहले ही 'आउट हाउस' के द्वार पर छोड़ गया था। दोनों ने उन्हें उठाकर अंदर रखा।

चाहे गोपाल कुछ भी सोच ले, माधवी ने निश्चय कर लिया था कि वह आज मुत्तुकुमरन् के साथ 'आउट हाउस में रहेगी।

मुत्तुकुमरन् ने बिछावन और तकिया निकालकर माधवी को दिया और स्वयं खाट के निरे गद्दे पर लेट गया ।

माधवी वह बिछावन नीचे बिछाकर लेट गयी।

"देखिये, यहाँ तो एक ही तकिया है। मुझे तकिये की जरूरत नहीं। आप लीजिए"― माधवी थोड़ी देर बाद यह कहते हुए उठी और तकिया मुत्तकुमरन् को देने आगे बढ़ी। मुत्तुकुमरन् को तबतक हल्की-सी नींद आ लगी थी। उसी समय टेलीफ़ोन की घंटी भी बज उठी। माधवी सोचने लगी कि वह चोंगा उठाये कि नहीं! मुत्तुकुमरन् बिस्तर पर उठ बैठा। उसने चोंगा उठाया तो दूसरे सिरे से गोपाल कुछ कह रहा था।

यह गली बिकाऊ नहीं : बीस

आवाज से लगा कि गोपाल ने खब पी हुई है।

"माधवी वहाँ है या घर चली गयी?"―लड़खड़ाते स्वर में गोपाल ने पूछा। उसके सवाल का, बिना जवाब दिये, मुत्तुकुमरन् ने चोंगा माधवी के कानो में लगाया। वहीं प्रश्न वैसे ही स्वर में दुबारा उसके कानो में भी पड़ा। मुत्तुकुमरन् ने उसके चेहरे पर उग आए भावों को पड़ने का प्रयत्न किया कि उसके मन में वह पुराना भय अब भी घर किये हुए है या नहीं? उसने आँखें गड़ाकर देखते हुए पूछा, "क्या जवाब दूं? पहले भी जब हम दोनों समुद्र तट पर घूमने गये थे, तब तुमने कहा था कि इन बातों का उन्हें पता न होने पाए! उस समय तुम्हें गोपाल का डर था। क्या अब भी वह चर तुममें है या..."

"बात-बात पर पुराने जख्मों को कुरेदना छोड़िये। आज मैं किसी से किसी भी बात के लिए नहीं डरती। आप इन्हें जो भी जवाब देना चाहें, दीजिये! मुझसे न पूछिये।"

उसकी आवाज में जो निश्चय-भरा धैर्य था, वह इसे पहचान गया।

फ़ोन पर लगातार गोपाल उसी एक सवाल को रटे जा रहा था, मानो कोई मंत्र-जाप कर रहा हो। मुत्तुकुमरन् ने साफ़ और गंभीर स्वर में कहा, "हाँ! यहीं हैं!"

दूसरे छोर से झट से चोंगा नीचे पटकने की ध्वनि आयी।

"इसीलिए मैंने यह कहा था कि आप जगह दें, तभी मैं यहाँ ठहर सकती हूं।"

"जब दिल में ही जगह दे दी, तो यहाँ देने में क्या हर्जं है? और वह भी तुमने पा ही लिया।"

सिंगापुर में शॉपिंग करते हुए माधवी ने कुछ इत्र खरीदा था। साज-सिंगार कर वह जब हवाई अड्डे के लिए चली थी, वही इत्र लगाकर चली थी। अँधेरे में किसी एक वनदेवी की भाँति सुरभि बिखेरती वह उसके सामने खड़ी हुई। मुत्तुकुमरन ने टकटकी लगाकर उसे यों देखा, मानो अभी-अभी पहली बार देख रहा हो।

"लीजिए, तकिया!"

"नहीं! मुझे बहुत मुलायम तकिया चाहिए!" मुत्तुकुमरन् ने उसका सुनहरा कंधा छूते हुए ढीठ हँसी हँसा।

"हे भगवान्! मैं यह समझ रही थी कि इस घर में, कम-से-कम इस कमरे में मुझे सुरक्षा मिलेगी! पर यहाँ की हालत तो और भी बुरी है!" उसने झूठा गुस्सा उतार फेंका तो उसके होंठ मुस्करा उठे! चेहरे का वह निखार देखकर मुत्तुकुमरन् निहाल हो गया।

"जमीन बड़ी ठंडी है। हठ पकड़ोगी तो कल नाहक़ को बुखार चढ़ आयेगा!"

"तो अब मैं क्या करूँ?"

'बहुत दिनों से अभिनय करते-करते तुम भी ऊब गयी हो और मैं भी! अब हमें नया जीवन जीना है।"

मुत्तुकुमरन् ने उठकर उसके हाथ पकड़ें। वह उसके हाथ की वीणा बनकर उसपर झुक पड़ी। उसकी लंबी-चौड़ी छाती और उभरे हुए कंधे, फूल जैसे माधवी के कर-कमलों के घेरे में नहीं आये। मुत्तुकुमरन् उसके कानों में बुदबुदाया, "क्यों, कुछ बोलती क्यों नहीं?"

दुनिया की पहली औरत की भाँति उसके आगे उसकी आँखें लज्जा से अवनत हो गयीं।

"बोलती क्यों नहीं?"

माधवी ने लंबी साँस खींची। उसकी साँस-साँस प्रेम-लहरी बनकर उसके कानों में गूंज उठी।

"संसारिक्कुम् पाडिल्ला?” उसने अपनी मलयालम भाषा का ज्ञान प्रदर्शित किया तो वह अपनी हँसी नहीं रोक सकी। फूल जैसे उसके हाथ, उसके कंधे सहला रहे थे। दोनों के बीच फैला मौन मानो संतोष की सीमा छू रहा हो।

उन कंधों पर सर रखकर माधवी उस रात सुख और सुरक्षा की नींद सो पायी।

बड़े तड़के उठकर उसने वहीं स्नान किया। नयी साड़ी पहनकर वह मुत्तुकुमरन्के सामने आयी तो मुत्तुकुमरन् को लगा कि ऊषा-सुन्दरी हँसती हुई उसके सामने प्रकट हो रही हो।

उसी समय गोपाल 'नाइट गाउन' में वहाँ पर आया। माधवी पर उसकी दृष्टि गयी तो उसकी आँखों में घृणा का भाव तिर गया। उससे वह बोल नहीं पाया। उसे भी यह समझते देर नहीं लगी कि वह उसपर बहुत नाराज है। सहसा गोपाल मुत्तुकुमरन् से व्यापारिक ढंग की बातें करने लगा―

"तुमने मेरे बदले क्वालालम्पुर में आठ नाटक और मलाका में तीन नाटक― कुल मिलाकर ग्यारह नाटक खेले हैं।"

"हाँ, खेले हैं। तो क्या...?"

"बात यह है कि पैसे को लेकर भाई-भाई में भी झगड़ा हो जाता है!"

"हो सकता है कि हो! पर गोपाल, आज तुम्हें अचानक हो क्या गया?"

ग्यारह बार नाटक खेलने के लिए पंद्रह हज़ार रुपये और नाटक लिखने के लिए पाँच हज़ार रुपये—कुल मिलाकर बीस हज़ा रुपयों का एक चेक कल ही रात साइन कर रखा है। यह लो।"

मुत्तुकुमरन् पहले जरा झिझका। फिर मन-ही-मन कुछ सोचकर, बिना कुछ आपत्ति उठाये, गोपाल के हाथ से अचानक वह चेक ले लिया। दूसरे क्षण मुत्तुकुमरन् के मुंह से जो सवाल निकला, गोपाल ने उसकी आशा ही नहीं की थी।

"माधवी का क्या हिसाब है? उसे भी अभी देख कर साफ़ कर दोगे?"

"उसका हिसाव पूछनेवाले तुम कौन होते हो?" गोपाल के मुँँह से ऐसे प्रश्न की आशा मुत्तुकुमरन् ने की ही कहाँ थी?

"मैं कौन होता हूँ? मैं ही आज से उसका सब कुछ हूँ। अगले शुक्रवार को गुरुवायुर में मेरा और उसका विवाह है। अब वह तुम्हारे साथ अभिनय भी नहीं करेगी।"

"यह बात तो उसी को मुझसे कहना चाहिए, तुमको नहीं।"

"वह तुम्हारे साथ बात तक नहीं करना चाहती। इसीलिए मैं कह रहा हूँ।"

"मैंने तुम्हें अपना गहरा दोस्त समझकर इस घर में घुसने दिया।"

"मैंने इस दोस्ती के साथ कोई विश्वासघात नहीं किया।"

"अच्छा, तो फिर ऐसी बातें क्यों? एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। पांच मिनट ठहरो! माधवी का भी हिसाब साफ़ किये देता हूँ।" कहकर गोपाल ने वहीं से पर्सनल सेक्रेटरी को फोन किया। दस मिनट में वह एक 'चेक लीफ़' के साथ आया। गोपाल ने माधवी के नाम बीस हजार रुपये का एक चेक लिखकर दिया।

"पैसे तो तुमने दे दिये गोपाल! पैसे जरूर दे दिये। लेकिन एक बात याद रखना कि कभी-कभी मनुष्य की मदद रुपयों से आँकी नहीं जा सकती। इन पैसों को तुम्हारे मुँह पर दे मारने के बदले, इन्हें लेने का एक कारण भी हैं। आज इस दुनिया में रुपयों-पैसों से बढ़कर जो मान-मर्यादा है, उनकी रक्षा के लिए भी पाप में पगे इन रुपयों की बड़ी ज़रूरत पड़ती है। इसी वजह से इस रुपयों का हिसाब करके इन पर अपना हक़ जताकर ले रहा हूँ।"

गोपाल उसकी बातों पर कान न देकर वहाँ से चल दिया। मुत्तुकुमरन् ने अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर रख लिया। माधवी ने भी उसके काम में उसका हाथ बँटाया। दस-पन्द्रह मिनट में 'आउट हाउस' खाली करके उन्होंने सभी सामान बरामदे पर लाकर रख दिये।

माधवी बोली, "झगड़ा तो मेरे कारण हुआ। मुझे रात को ही घर चला जाना चाहिए था।

"फिर तुम्हारी बातों में भय सिर उठाता-सा मालूम होता है, माधवीं! ऐसा, एक झगड़ा होने के कारण ही तो मैं खुश हो रहा हूँ। लेकिन तुम, ठीक इसके उल्टे नाहक़ चिन्ता करने लग गयी हो। तुम समझती हो कि आगे भी हम इसके साथ रह सकते हैं? यों अभिनय करते रहें तो अक़्ल निश्चय ही मारी जायेगी। हमें जीना भी हैं। बिना जीवन जिये, कोई हमेशा अभिनय करता रहे तो कला कला नहीं रहेगी और उससे अच्छी कला नहीं पनपेगी। गोपाल को अपना जीवन सुधारना है और उसे नियम से जीना है तो उसे विवाह करके नियमबद्ध जीवन जीने का अभ्यास करना चाहिए। नहीं तो वह सिर्फ़ बुरा ही नहीं, बरबाद भी हो जायेगा। इसी बँगले को ही लो, यह भूत-बँगला बना हुआ है। द्वार पर चौक पूरने के लिए इस घर में कोई सुमंगला स्त्री नहीं। नौकर-चाकर, बाग-बगीचे, गाड़ी-बाड़ी, रुपये-पैसे सब कुछ हैं भी तो उनका क्या फ़ायदा? एक बच्चे की तोतली बोली भी अब तक इस बँगले में सुनायी नहीं पड़ी। लक्ष्मी भला ऐसी जगह में निवास करेगी?"

माधवी यों मौन रही, मानो उसकी सारी बातों में हामी भर रही हो। 'आउट हाउस' के द्वार पर खड़े होकर दोनों बातें कर रहे थे कि छोकरा नायर वहाँ पर आया। माधवी ने उसे एक टैक्सी लाने के लिए भेजा। टैक्सी आयी। लड़का माधवी से अकेले में कुछ बोल रहा था। उसकी आँखें छलक रही थीं।

"आपके पास पाँच रुपये हैं तो दीजिये!" कहकर माधवी ने मुत्तुकुमरन् से पाँच रुपये लिये और उस लड़के के हाथ में रख दिया। लड़के ने हाथ जोड़े। उसकी आँखें फिर भर आयी थीं।

"अगले हफ्ते पिनांग से जहाज के आ जाने पर उदयरेखा इसी आउट हाउस में आकर ठहरनेवाली है। गोपाल के मुख से लड़के ने यह बात सुनी है।"―माधवी ने बताया।

"सो तो ठीक है। अब्दुल्ला उसे पिनांग से आने दे तब न?"

सुनकर माधवी को हँसी आयी।

"छोड़ो ये भद्दी बातें। अच्छी बातें करो।" मुत्तुकुमरन् ने कहा।

दोनों टैक्सी पर बैठे। लड़का मुत्तुकुमरन् और माधवी के सामान टैक्सी पर रखकर एक ओर खड़ा हुआ। मुत्तुकुमरन् ने माधवी से पूछा, "कहाँ चलें? तुम्हें अपने घर में छोड़कर मैं एग्मोर लाज चला जाऊँ?"

"हैं, बड़े बनते हैं। लाज जाते लाज नहीं आती? मैं तो सान भी लू, लेकिन आपको सास नहीं मानेगी। बिना जिद पकड़े सीधे हमारे घर आइये।"

माधवी की ये बातें उसे बहुत पसन्द आयीं।

टैक्सी बढ़ी। टैक्सीवाले को लाइडस रोड जाने को कहकर माधवी मुत्तुकुमरन् की ओर मुड़ी। मुत्तुकुमरन् ने उससे पूछा, "और एक बात तुमसे पूछू?"

"पूछिये।"

"घर में कितनी चारपाइयाँ हैं ?"

"क्यों, दो हैं।"

"नहीं होनी चाहिए।"

"यह भी कैसी गुस्ताखी है!" होंठों पर उँगलियाँ रखकर उसने उसे डाँटने का अभिनय किया तो मुत्तुकुमरन् उसपर ऐसा रीझ गया कि उसकी हर बात में, हर हाव-भाव में अनेकों गूढ़ार्थ टपकते-से मालूम हुए। अभिधा, लक्षणा, व्यंजना, रस, छंद एवं अलंकारों से गुम्फित कविता-सी माधवी उसकी कल्पना की आँखों में उभर आयी। उसने दोनों होंठों पर उँगलियाँ रखकर डाँटने का जो अभिनय किया था; उससे उसके सत्य, शिव, सुन्दर स्वरूप को कविता में चित्र-रूप देने की इच्छा मुत्तकुमरन् के मन में उमग रही थी। पर तब तक टैक्सी माधवी के घर के द्वार पर जा खड़ी हुई थी। माधवी की माँ ने उनका सहर्ष स्वागत किया।

टैक्सी का भाड़ा चुकाते हुए मुत्तुकुमरन से टैक्सीवाले ने पूछा, "इन्होंने फिल्मों में काम किया है न?"

"हाँ, किया है। पर आगे नहीं करेंगी।" मुत्तुकुमरन् ने निर्मम उत्तर दिया।

माधवी पहले ही उतरकर घर के अंदर चली गयी थी। अंदर जाते ही मुत्तुकुमरन ने पहला काम यह किया कि माधवी से टैक्सीवाले के प्रश्न और अपने उत्तर को ज्यों-का-त्यों दुहराया।

सुनकर माधवी हँसी और बोली, “वह टैक्सी ड्राइवर आप पर जहर उगलते हुए कह गया होगा कि आपकी वजह से सिने-दुनिया को बड़ा नुकसान पहुंच गया!"

"ऐसा कभी नहीं होगा। नुकसान भरने के लिए न जाने कितनी उदयरेखायें आ धमकेंगी!"

माधवी एक बार फिर हँस पड़ी।

अगले शुक्रवार को गुरुवायुर के श्रीकृष्ण के मन्दिर में मुत्तुकुमरन् और माधवी का शुभ-विवाह सम्पन्न हुआ। न किसी रसिक के पास से बधाई का पत्र आया और न कोई प्रसिद्ध फ़िल्म-निर्माता उस विवाह को सुशोभित करने को पधारा। विवाह के उपरांत उनसे प्रणाम लेने के लिए सिर्फ़ माधवी की माँ उपस्थित थी।

उस दिन रात को वे एक टैक्सी करके मावेली करै पहुँचे। मावेली करै माधवी की जन्म-स्थली थी। फिर भी वहाँ उसके लिए कोई घर-द्वार नहीं था। वे किसी रिश्तेदार के यहाँ उस रात को ठहरे। रात के भोजन के बाद माधवी और मुत्तुकुमरन् के एकांत के लिए एक कमरा मिला तो माधवी बोली, "देखा, सभी ने मिलकर साजिश करके इस कमरे में एक ही खाट छोड़ी है।"

वह हँसा। माधवी उसके निकट गयी। उसके केश-भार में बेले के फूल गमा-गम महक रहे थे। मुत्तुकुमरन् ने उसे पास खींचकर बिठाया और उसका सिर ऐसा चूमा कि बेले की महक से उसकी नासिका भर गयी।

"माधवी! न जाने कितनी सदियाँ पहले इस बात का निर्णय हो चुका है कि किसी औरत को समाज की लम्बी सड़कों पर निडर और निस्संकोच होकर चलना है तो ऐसी एक सुरक्षित खाट से उतरकर ही वह चल सकती है। समाज की सड़कों में आज भी कई रावण निरन्तर विचरण कर रहे हैं।"

"आप अब्दुल्ला की बात कर रहे हैं?"

"अब्दुल्ला, गोपाल―सभी की। एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा होड़ लगाकर अभिनय कर रहा है।"

वह बिना कोई उत्तर दिये, उसके हृदय से लिपट गयी। उसी हृदय ने उसे ऐसा सुख दिया कि आज वह अपनी निजी खाट पर सुख की नींद ले रही हो।

मर्दों के समाज में, जब पहले रावण का जन्म हुआ, तभी इस बात का पक्का निश्चय हो गया था कि औरतों को सोने के लिए एक ऐसी ही खाट और एक ऐसे ही साथी की ज़रूरत है।

जब तक रावणों का गुट समाज में विद्यमान है, तब तक नारी समाज धूल-धूसरित गंदी गलियों में, बिना साथी के, अकेले जा कैसे सकता है? कौन जाने, समाज की वह गंदी गली कब साफ़-सुथरी होगी?

परिचय

'यह गली विकाऊ नहीं' मद्रास के व्यावसायिक रंग जगत् और फिल्मोद्योग में कला के नाम पर की जाने वाली झूठी साधना और ऐसे तथाकथित कलाकारों के खोखले मूल्यों का पर्दाफ़ाश करती है।

इस अभियान में पारम्परिक रंग कला का समर्पित और स्वाभिमानी युवा कलाकार मुत्तुकुमरन् सबसे आगे है और वह ऐसे सारे प्रलोभनों को ठुकराकर, कला की तमाम शर्तों को सामाजिकता, मानवता और नैतिकता की कसौटी पर कसकर ही नया समाज गढ़ना चाहता है। समाज के वर्तमान घिनौने स्वरूप के लिए ज़िम्मेदार लोगों से उसकी लड़ाई शुरू होती है। सिने जगत् के एक सुप्रसिद्ध 'स्टार' गोपाल के मुक़ाबिले कला-सृजन और रंग प्रस्तुति के हर क्षेत्र में, प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद वह अडिग खड़ा रहता है। मुत्तुकुमरन् समाज सेवा और कला-साधना के नाम पर कला को गन्दी गलियों में बेचने वालों से जमकर लोहा लेता है। अनन्य समर्पण और सर्जक की निष्ठा के अतिरिक्त उसके पास कुछ भी नहीं। यही शक्ति उसे समाज और कला के व्यापक और वृहत्तर संदर्भो तथा मूल्यों से जोड़ती है।

चरम उद्योग के रूप में स्थापित फ़िल्म जगत् के फ़िल्मकारों की जगमगाती दुनिया और चमचमाती राहों और कारों की गड्डमड्ड में सच्चे कलाकार भी भटक गए हैं। ऊंचे विचारवान और प्रौढ़ कला साधकों की अनुपस्थिति में सारे रंग जगत् में ऐसी सौदेबाज़ी और मक्कारी भरी लूट चल रही है कि जी घुटता है। यहाँ सब कुछ सिक्कों से खरीदा जा रहा है। कला के आधारभूत मूल्यों की चर्चा करते हुए यह आशंका व्यर्थ नहीं है कि समाज में सच्चे कला साधकों के हितों की रक्षा नहीं हो पा रही है।

मूलतः तमिल में लिखित इस उपन्यास की वृहत पृष्ठभूमि में मद्रास महानगर ही नहीं, सूदूर दक्षिण पूर्वी प्रायद्वीप के देशों―सिंगापुर, मलेशिया एवं अन्यान्य द्वीप-पुंज का सौंदर्य भी बड़ी प्रामाणिकता से चित्रित है।

साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत एवं चर्चित कथा-कृति 'समुदाय वीथि' का श्री रा. वीलिनाथन द्वारा सर्वथा प्रामाणिक और रोचक अनुवाद।

यह गली बिकाऊ नहीं : अध्याय (8-14)

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