यह गली बिकाऊ नहीं (उपन्यास) : ना. पार्थसारथी

Yeh Gali Bikau Nahin (Novel) : Na. Parthasarathy

'यह गली बिकाऊ नहीं' साहित्य अकादेमी पुरस्कार-प्राप्त तमिल उपन्यास है। इसके अनुवादक रा. वीलिनाथन हैं ।

यह गली बिकाऊ नहीं : एक

मद्रास आने पर उसके जीवन में परिवर्तन अवश्यंभावी हो गया था। कंदस्वामी वाद्दार की 'गानामृत नटन विनोद नाटक सभा' के लिए गीत और संवाद लिखते हुए या समय-समय पर मंच पर पात्राभिनय करते हुए उसके जीवन में न तो इतनी गति थी और न ही प्रकाश। मदुरै और मद्रास के जीवन में जो इतना उतार-चढ़ाव है, इसका क्या कारण है? कारण की तह में पहुँचने पर ऐसा लगता है कि अधिक प्रकाश वाले स्थान में छोटा जीवन भी बृहदाकार दीखता है और कम प्रकाश वाले स्थान में बड़ा जीवन भी क्षुद्र और धुँधला हो जाता है।

क्या प्रकाश मात्र जीवन है?––इस प्रश्न का कोई प्रयोजन नहीं है। मद्रास में सूर्य का प्रकाश मात्र जीवन-यापन के लिए पर्याप्त नहीं है। मनुष्य को स्वयं प्रकाश फैलाना पड़ता है और अपने चारों ओर प्रकाश-पुंज बुनना पड़ता है। अपने कृत्रिम प्रकाश के सामने सूर्य के प्रकाश को फीका भी बनाना पड़ता है।

मदुरै कंदस्वामी वाधार के गानामृत नटन विनोद नाटक सभा में रहते हुए उसका पूरा नाम मुत्तु कुमार स्वामी पावलर था। नाटक सभा के टूटने पर अकाल-पीड़ितों की तरह मद्रास के कल, जगत् की शरण लेनी पड़ी तो उसे अपने जीवन की सुविधाओं में ही नहीं, अपने नाम में भी काट-छाँट करनी पड़ी। सचमुच, अपने बड़े नाम को काटकर छोटा करना पड़ा।

'मुत्तुकुमरन्'––वह संक्षिप्त नाम उसे और उसके साथियों को उपयुक्त लगा। चेत्तूर और शिवगिरि जैसे जमींदारों की शरण में जीने वाले उसके पूर्वजों को अपने 'अकट विकट चक्र चंड प्रचंड आदि केशव पावलर' जैसे लंबे नामों को छोड़ने या छोटा करने में, हो सकता है कि संकोच हुआ हो। लेकिन वह इस सदी में उपस्थित था इसलिए वैसा नहीं कर सका। बाय्स कंपनी के बंद होने पर दस महीने तक पाठ्य पुस्तके तैयार करने वाली एक कंपनी में प्रूफ़ रीडर का काम करता रहा। उससे तंग आकर नाटक प्रसूत सिने-संसार में प्रवेश पाने के विचार से मद्रास को चल पड़ा।

मदुरै से मद्रास को रवाना होते समय उसके साथ कुछ सुविधाएँ भी थीं और कुछ असुविधाएँ भी। असुविधाएँ निम्न प्रकार थीं––

––मद्रास के लिए वह नया था। चापलूसी करने की आदत नहीं थी। उसके पास किसी के नाम न कोई परिचय-पत्र था और न कोई सिफ़ारिशी चिट्ठी। हाथ की। कुल पूँजी थी, सिर्फ सैतालीस रुपये। कला के जगत् में अत्यंत आवश्यक समझी जाने वाली योग्यता भी उसमें नहीं थी। और वह किसी दल विशेष का सदस्य या पक्षपाती भी नहीं था।

सुविधाएं भी थीं―

वह अभी विवाह-बंधन में नहीं बँधा था। इसका यह मतलब नहीं कि उसे शादी या लड़की से नफ़रत थी। असली बात गह थी कि उन दिनों नाटक कंपनी में काम करने वालों का मान-सम्मान करने या लड़की ब्याहने को कोई तैयार नहीं था। कंघी किये हुए काले घुँँघराले बाल, होंठों में सदाबहार मुस्कान, सुन्दर नाक-नकश, कद-काठी का भरा पूरा-उसे कोई एक बार देख ले तो बार-बार देखने को जी करे और सुमधुर कंठ-सब कुछ था।

एळुंबूर रेलवे स्टेशन में उसके उतरते ही मूसलाधार वर्षा होने लगी। इसका कोई यह गलत हिसाब न लगाए कि दक्षिण से आने वाले कवि के स्वागत में आकाश अपनी भूमिका निभा रहा है। यह, दिसंबर महीने का पिछला पखवारा था! हर साल की तरह प्रकृति अपना नियम निभा रही थी। दिसंबर में ही क्यों, किसी भी महीने में मद्रास के लिए ऐसी बारिश की कोई जरूरत नहीं थी।

ऐसी वर्षा में, मद्रास में कोई चीज़ बिकती नहीं। सिनेमा-थियेटर में भीड़ कम हो जाती है। झोंपड़-पट्टियाँ पानी में डूब जाती हैं। सुन्दर लड़कियों को डरते-डरते सड़कों पर पाँव रखना पड़ता है कि चमकदार साड़ियों में कहीं कीचड़ न उछल जाये। पान की दुकानों से लेकर साड़ियों की दूकानों तक व्यापार ठप्प हो जाता हैं। विस्मृति में छतरियाँ खो जाती हैं। अध्यापकों और सरकारी नुमाइन्दों के जूते फट जाते हैं। टैक्सी वाले कहीं भी जाने को इनकार करते हैं। इस तरह पानी से डरने वाले मद्रास शहर के लिए बारिश की क्या जरूरत है भला!

लेकिन मुत्तुकुमरन् को पानी में नहाने वाला ऐसा मद्रास बड़ा सुन्दर लगा। मद्रास नगरी उसको कल्पना में ऐसी उभर आयी, मानो कोई सुन्दरी नहाने के बाद भीगे कपड़ों में लजाती खड़ी हो। धुआँधार मेघों के आच्छादन में इमारतें, सड़कें और पेड़ धुँँधले-से नज़र आये।

मुत्तुकुमरन् पानी में अधिक भीगे बिना, एळुंबूर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने वाली एक सराय में टिक गया और वहीं अपने ठहरने की व्यवस्था की।

एक लड़का, जो पहले उसके साथ 'नाटक सभा' में स्त्री की भूमिका करता था, वह मद्रास में अब मशहूर सिने-अभिनेता हो गया था। अपने 'गोपालस्वामी नाम को छोटा करके उसने 'गोपाल' रख लिया था। उसने नहा-धोकर कपड़े बदले और कॉफ़ी पीने के बाद सोचा कि उसे फ़ोन करे।

उस लॉज में सभी कमरों में फ़ोन की सुविधा नहीं थी। सिर्फ रिसेप्शन में फ़ोन था। अपने कामों से निपटकर जब वह रिसेप्शन में आया, तब घड़ी ग्यारह बजा रही थी।

टेलिफ़ोन डाइरेक्टरी में उसने अभिनेता गोपाल का नंबर ढूँढ़ा। पर वह मिल ही नहीं रहा था। आखिर लाचार होकर रिसेप्शन में बैठे व्यक्ति से गोपाल का नंबर पूछी।

उसके तमिळ में पूछे गये प्रश्न का उन्होंने अंग्रेजी में उत्तर दिया। मद्रास में उसे यह एक अजीब तजुर्बा यह हुआ कि तमिळ में प्रश्न करने वाले अंग्रेजी में उत्तर पा रहे हैं और अंग्रेजी में प्रश्न करने वालों को तमिळ के सिवा दुसरी किसी भाषा में उत्तर देने वाले नहीं मिल रहे हैं। उनके उत्तर से उसे इतना ज्ञात हुआ कि गोपाल का नाम टेलिफ़ोन डाइरेक्टरी में 'लिस्ट' नहीं किया गया होगा। कुछ क्षणों के बाद टेलिफोन पर ही पूछ-ताछ कर उन्होंने गोपाल का नंबर बताया। मद्रास में क़दम रखते-न-रखते मुत्तुकुमरन् ने यह महसूस किया कि हर पल उसे अपने को बदलना पड़ रहा है। उसे तो समय को अपने मुताबिक बदलने की आदत पड़ गयी थी। यहाँ तो अपने को समय के अनुसार बदलना पड़ रहा है। अपनी आदत से उबर पाना उसे जरा कटिन लग रहा था। उसने जिसका नाम लेकर नंबर पूछा था, उसके नाम ने रिसेप्शनिस्ट पर जादू-सा कर दिया और मुत्तुकुमरन् के प्रति भी तनिक आदर भाव दिखाने को बाध्य कर दिया।

फ़ोन पर अभिनेता गोपाल नहीं मिला। पर इतना ज्ञात हुआ कि वह किसी शूटिंग के लिए बंगलोर गया है। दोपहर को तीन बजे की हवाई उड़ान से लौट रहा है। मुत्तुकुमरन् की छुटपन की दोस्ती की बात अनमने ढंग से सुनने के बाद उस छोर से उत्तर आया कि साढ़े चार बजे आइये, मुलाकात हो सकती है।

उसी क्षण उसे उस उत्तर के अनुसार अपने को बदलना पड़ा। उस उत्तर को अपने अनुरूप बदले तो कैसे बदले? वह जाये तो कहाँ जाए? वर्षा भी रुकने का नाम नहीं ले रही थी। दोपहर के भोजन के बाद उसने अच्छी तरह सोने का निश्चय किया। रात की रेल-यात्रा में उसने जो नींद खोयी थी, उसे पुनः प्राप्त करने की तीन इच्छा हुई। लेकिन इस नये शहर में, नये कमरे में जल्दी से नींद आयेगी क्या? उसने बक्सा खोलकर किताबें निकालीं।

दो निघंटु, एक छंद शास्र, चार-पाँँच कविता की किताबें―ये ही उसके पेशे की पूँजी थीं। मृत्तुकुमरन् इधर किताब के पन्ने उलट रहा था कि उधर सामने के कमरे से एक युवती किवाड़ पर ताला लगाकर कहीं बाहर जाने को तैयार हो रही थीं। मुत्तुकुमरन् ने उसके पृष्ठ भाग का सौंदर्य देखा तो ठगा-सा रह गया। पतली सुनहरी कमर, बनी-सँवरी पीठ, नीली साड़ी―सब एक से बढ़कर एक थीं।

"उमड़ घुमड़कर आयी बदरिया

कैंसी चमचम चमकी बिजुरिया!
आयी सज-धज के रे जोगिनिया ।
सुन्दर रूप लगाये अगिनिया।"

'कनक लता-सी कामिनी, काहे को कटि छीन ?' पूछने वाले आलम कवि बनने की कोशिश में मुत्तुकुमरन् निघंटु उलटने-पलटने लगा। प्रास-अनुप्रास तो मिल गये । नाटक कंपनी में काम करते हुए जब चाहो, जैसा चाहो, निघंटु की मदद से वह अनायास फटाफट गीत रच लेता था । पर आज न जाने क्यों, उसका मन उचाट-सा हुआ जा रहा था। बार-बार उसके मन में यही विचार सिर उठा रहा था कि मैं जीविका की खोज में मद्रास आ तो गया, पर जीवन चले कैसे ? इसलिए गीत रचने का उत्साह नहीं रहा।

लेकिन उस युवती की मनमोहिनी मूरत उसके लिए मीठी खुराक़ बन गयी और वह उसके रसास्वादन में लगा रहा । पर बीच-बीच में उसका मन मंदुरै और दिण्डु- क्कळ की ओर निकल भागा। इसलिए कि वहाँ ऐसी सुघड़ लड़कियाँ उसके देखने में नहीं आयीं। इसकी क्या वजह हो सकती है ? वजह ढूँढ़ते हुए उसके मन में यह विचार आया कि खान-पान के बारे में शहर की लड़कियाँ जितनी सतर्क रहती हैं, उतनी देहाती लड़कियाँ नहीं। नगर की लड़कियाँ बन-ठनकर अपने को दर्शाने और दूसरों को आकर्षित करने में जितनी रुचि दिखाती हैं, वह देहाती लड़कियों में या तो नहीं है या वैसी सुविधा नहीं है। मद्रास में एक माँ को भी अपने को चार-पाँच बच्चों की मां कहने के गौरव से बढ़कर अपने को एक युवती जताने का ध्यान ही अधिक है । देहात की वह दशा नहीं है। एक स्त्री को माँ मानते हुए मन में विकार उत्पन्न नहीं होता ! युवती मानते हुए तो मन में विकार की संभावना ही अधिक है । गभिणी स्त्रियों को जहाँ भी देखें, जिस सूरत में भी देखें, काम- भावना कभी सिर नहीं उठाती।

इस तरह की ख्याम-खयाली और दिन के भोजन के बाद सोने का उपक्रम करते हुए भी वह सो नहीं सका । इसलिए लॉज के पास के म्यूजियम, आर्ट गैलरी, केनिमारा पुस्तकालय आदि देख आने के विचार से बह निकल पड़ा। वर्षा अब जरा थमकर बूंदा-बूंदी का रूप धारण कर चुकी थी । पेन्थियन रोड पर चलते हुए उसे कुछेक गर्भिणी स्त्रियाँ दीख पड़ी तो उसे दोपहर का वह विचार ताज़ा हो आया। उनमें से एकाध का चेहरा देखने पर उसे लगा कि मद्रास भोग-भूमि है। कुछेक के चेहरे तो यह बता रहे थे, मद्रास यातना-भूमि है । कुछ स्थान सुन्दर और कृत्रिम से दीख पड़े तो कुछ स्थान. भद्दे, घृणित और बेबसी और तकलीफ़ से भरे। इसलिए वह मद्रास के सच्चे स्वरूप या उसके सामान्य चरित्र का पता नहीं पा सका।

म्यूजियम थियेटर की गोलाकार छोटी सुन्दर इमारत और आर्ट-गैलरी की मुगलकालीन शोभा देखकर वह दंग रह गया । म्यूजियम को देखने में उसे पूरा एक घंटा लगा । मद्रास में कदम रखते ही उसे जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, पग-पग पर उन्हीं से उलझना पड़ा। उसके हर प्रश्न का उत्तर अंग्रेजी ही में मिला। तमिळ में उत्तर देने वाले तो रिक्शेवाले और टैक्सी ड्राइवर ही थे। उनकी तमिळ भी उसकी समझ में जल्दी नहीं आयी । मदुरै में बड़े-छोटे लड़कों के साथ भी आदरसूचक संबोधन ही सुनने को मिलता था। मद्रास में तो बड़े-बूढ़ों के साथ भी 'तू तू, मैं मैं' ही चलती थी । मुत्तकुमरन् अंग्रेजी जानता ही नहीं था। और मद्रास की तमिळ तो विभिन्न भाषाओं की मिली-जुली खिचड़ी थी।

बारिश के कारण म्युजियम, पुस्तकालय या आर्ट गैलरी में विशेष भीड़ नहीं थी। सब कुछ देखकर जब वह बाहर निकला तो फिर से पानी बरसना शुरू हो गया था। चूंकि टेलिफोन डाइरेक्टरी पर गोपाल का पता नहीं था, होटल के रिसेप्शनिस्ट से पूछ-ताछ कर जो पता उसे मिला था, उसे ही एक छोटे-से कागज़ पर लिखकर अपनी जेब में रख लिया था। वह पुर्जा भी पानी में जरा भीग गया था। कुछ क्षण तक सोचता रहा कि इस बारिश में गोपाल के घर कैसे जाये ? पास के व्यक्ति से समय पूछा तो उन्होंने बताया कि पौने चार बजे हैं। साढ़े चार बजे गोपाल के घर पर पहुंचना था। उसे लगा कि इसी घड़ी चल देना अच्छा होगा। यदि बस में जाये तो जगह के बारे में पूछकर उतरने में दिक्कत होगी। हो सकता है, बस स्टैण्ड से गोपाल के घर तक पानी में भीगते हुए चलना पड़े। उसे इस बात का तो पता नहीं कि गोपाल का घर बस स्टैण्ड के निकट होगा या दूर।

काफ़ी सोच-विचार कर, वह इस नतीजे पर पहुँचा कि टैक्सी करके जाना ही अच्छा है । साथ ही, अपनी माली हालत को मद्दे नज़र रखते हुए उसे यह चिन्ता भी सवार हुई कि टैक्सी में जाना कहाँ तक उचित है ? अगले क्षण उसे एक दूसरी चिन्ता भी सताने लगी कि अगर टैक्सी में नहीं पहुंच पाया तो वह आज गोपाल से मिल नहीं पाएगा। फिर तो अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ेगा । अतः चाहे कुछ भी हो, आज ही गोपाल से मिल लेना होगा।

इस निष्कर्ष पर पहुँचकर, वह टैक्सी पकड़ने के लिए पानी में भीगता हुआ पेन्थियन रोड के प्लेटफार्म तक आया। बारिश की वजह से खाली टैक्सियाँ दिखायी ही नहीं दे रही थीं। दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद, एक टैक्सी मिली। उसमें सवार होते ही 'मीटर लगाते हुए टैक्सी पूछा, "किधर?"

मुत्तुकुमरन् ने जेब का कागज़'. निकालकर देखा और बोला, “गोपाल, बोग रोड, मांबळम।"

टैक्सी की रफ्तार तेज करते हुए ड्राइवर ने उत्सुकता से पूछा, "कौन-से गोपाल ? सिने स्टार ? क्या आप उन्हें जानते हैं ?"

'हां' में जवाब देकर वह. फिर कहीं रुक नहीं पाया। बचपन में ही वायस कंपनी में सम्मिलित होने से लेकर गोपाल के मद्रास में आकर सिने-अभिनेता बनने की सारी कहानी छेड़ दी। उसकी इन लंबी बातों से ड्राइवर को यह अनुमान हो गया कि यह आदमी सिर्फ बाहर का ही नहीं, पूरी तरह गवार भी है।

एक खूबसूरत से बगीचे के बीच स्थित गोपाल के बंगले के फाटक पर पहुँचते ही गोरखे ने टैक्सी रोक दी। वह गोरखे से क्या और कैसे कहे कि पानी में भीगे बगैर फ्लैट के अंदर जा सके---मुत्तुकुमरन् इस बात पर विचार कर ही रहा था कि टैक्सी ड्राइवर ने आगे का काम सँभाल दिया ।

"तुम्हारे मालिक के लंगोटियाँ यार हैं ये..." ड्राइवर के मुख से इतना सुनना था कि 'बड़ा साहब बचपन 'दोस्त ?' पूछते हुए गोरखे ने तन कर एक लम्बा-सा सलाम ठोंका और टैक्सी को अन्दर जाने दिया । अपने को अधिक बुद्धिमान समझने वाले लोग जिस काम को करने में माथा-पच्ची के सिवा कुछ नहीं कर पाते, उसे कम अक्ल होने पर भी समयोचित ज्ञान रखनेवाले बड़ी आसानी से कर जाते हैं । एक टैक्सी ड्राइवर ने इस बात का नमूना पेश कर दिया तो मुत्तुकुमरन् मन-ही-मन उसे दाद देने लगा।

टैक्सी 'पोर्टिको' में जा रुकी तो मुत्तुकुमरन् 'मीटर' के पैसे देकर और बांकी के चिल्लर लेकर बड़े सोध-संकोच के साथ सीढ़ियां चढ़ा । 'हाल' में प्रवेश करते ही, गोपाल की एक आदमकद तस्वीर ने उसका स्वागत किया। उसमें गोपाल शिकारी के भेष में एक मरे हुए शेर के सिर पर पैर रखे, हाथ में बंदूक ताने खड़ा था।

बनियान और लुंगी पहने अधेड़ उम्र का एक आदमी अंदर से आया और मुत्तुकुमरन् से पूछा, “क्या काम है ? किससे मिलना है ?” मुत्तुकुमरन् से परिचय सुनकर उसे रिसेप्शन हाल में ले गया और एक आसन पर बिठाकर चला गया ! उस 'हाल' में कई सुन्दर लड़कियाँ बैठी हुई थीं, जो होटल में दिखी लड़की से भी अधिक सुन्दर लगीं। उसने देखा कि वे सब इसे टकटकी लगाये देख रही हैं । उस कमरे पर दाखिल होने पर मुत्तुकुमरन् को लगा कि वह घुप्प अंधेरे से चकाचौंध पैदा करनेवाले प्रकाश में आ गया है। वहाँ ऐसे कुछ नवयुवक भी थे जो . पाक्ल-सूरत में अभिनेता लगते थे। थोड़ी देर उनके बीच हो रही बातों पर ध्यान देने पर उसे पता चला कि गोपाल स्वयं एक नाटक कंपनी शुरू करने वाला है। उसमें काम करने के लिए अभिनेता-अभिनेत्रियों के चुनाव के लिए उस दिन शाम को पाँच बजे 'इन्टरव्यू' होनेवाली है । और वह 'इन्टरव्यू स्वयं गोपाल लेगा और चुनेगा।

वहाँ बैठी लड़कियों पर प्रकट या अप्रकट रूप से बार-बार नजर फेरने की अपनी लालसा को वह दबा नहीं पाया। हो सकता है कि उनकी आँखें भी उसी की तरह तरस रही हों। वहाँ बैठे हुए युवकों को देखने पर उसे इस बात का पक्का विश्वास हो गया कि वह इन सबमें ज्यादा खूबसूरत है । असल में उसका यह गर्व स्वाभाविक भी था। पहले तो वह साधारण ढंग से दुबका हुआ था। अब पैर पर पैर रखकर आराम से बैठ गया। ऊँची आवाज़ में बोलती लड़कियाँ उसे देखते ही दबी आवाज़ में आराम से बोलने लग गयीं । कुछ तो उसके सामने अपने को शर्मीली जताने के लिए शशरमाने का अभिनय करने लगीं। 'अंदर से पकने पर फल बाहर से रंग पकड़ते हैं । शायद लड़कियों की भी यही प्रकृति है।'—इस तरह मुत्तुकुमरन् की कल्पना सुगबुगायी उसके आने के बाद यद्यपि उनकी खिलखिलाहट थम गयीं, पर होंठों में मुस्कराहटें तैरती रहीं और बातें जारी रहीं। यह देखकर मुत्तुकुमरन को यों लगा कि वे उसके लिए आधी हँसी सुरक्षितं रखे हुई हैं।

उसमें से कुछेक के होंठ सुन्दर थे : कुछेक के नेत्र सुन्दर थे। कुछेक की उंगलियाँ मुलायम लगीं। कुछेक नाक-नक्शा से अच्छी थीं । कुछेक की सुन्दरता ऐसे विभाजन की सीमा में ही नहीं आयीं ।

लड़कियां, जिससे अपनी मुस्कान, दृष्टि या बात आदि छिपाना चाहती हैं, उसे विशेष रूप से जताने के लिए भी कोई चीज़ होती है-दुराव-छुपाव का यही रहस्यार्थ होता है।

लुंगी-बनियान वाला रिसेप्शन हाल में फिर आया तो सबका ध्यान उसकी ओर गया।

यह गली बिकाऊ नहीं : दो

"बारिश की वजह से बंगलोर का प्लेन आधा घंटा लेट है। इसलिए मालिक के आने में आधा घंटा और लगेगा!"

सबके चेहरे जैसे उस बिलम्ब-सूचना से खिल गये । उसके जाने के थोड़ी देर बाद लुंगी-बनियान पहने दूसरा व्यक्ति आया, जिसके कंधे पर मैला-सा अंगोछा था। उसके हाथ में एक बड़ा ट्रे था, जिसमें कॉफ़ी के दस-बारह गरमागरम प्याले थे। सबको कॉफ़ी मिली।

कॉफ़ी पीने के बाद एक युवती हिम्मत करके उठी और मुत्तुकुमरन् की बगल में मा बैठी । चंदन की खुशबू से उसकी देह महक रही थी। उसने पूछा, "क्या आप भी 'ट्रप' में सम्मिलित होने के लिए आये हैं ?" मुत्तुकुमरन् उसकी स्वर-माधुरी में इतना खो गया था कि प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया उसने पूछा, "आपने क्या कहा ?"

उसने हँसते हुए अपना सवाल दुहराया।

"गोपाल को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। तब वह उन दिनों मेरे साथ बायस कंपनी में स्त्री की भूमिका किया करता था। मैं तो बस यों ही उससे मिलने चला आया!" उसने देखा कि हाल में बैठे हुए सभी लोगों का ध्यान उन्हीं दोनों की तरफ़ लगा हुआ है । उसे यह भी लगा कि सभी लड़कियाँ उसके पास बैठी हुई लड़की को ईर्ष्या की दृष्टि से देख रही हैं।

पास बैठी हुई लड़की ने पूछा, "क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ ?"

"मुत्तुकुमरन् !" "बड़ा प्यारा नाम है !"

"तो किसी से प्यार हो गया' के बदले आप 'नाम से प्यार हो गया' गा सकती हैं ?"

उसका चेहरा लाल हो गया । होंठों में मुस्कान लुका-छिपी-सी खेलने लगी। "मेरा मतलब है"

"मेरा भी मतलब है । क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ ?" माधवी!"

"आपका नाम भी तो बड़ा प्यारा है।"

माधवी के होठों में फिर से वहीं मुसकान खेल पायीं।

पोटिको में एक कार के बड़ी तेजी से आकर रुकाने की आवाज़ हुई । दरवाजे के खुलने और बंद होने की आवाज़ भी आयी।

वह उससे विदा लेकर अपनी पुरानी जगह पर चली गयी। हाल में असाधारण- सी चुप्पी फैल गयी। मुत्तुकुमरन् को यह समझते देर नहीं लगी कि गोपाल आ गया है।

हवाई अड्डे से आने वाले गोपाल को अंदर जाकर हाथ-मुँह धोने और कपड़े बदलने में दस मिनट लग गये। उन दस मिनटों में हाल में बैठा हुआ कोई किसी से कुछ नहीं बोला। सबकी आँखें एक ही तरफ़ लगी हुई थीं। सबने इस बात का ख्याल रखा था कि किस मुद्रा में गोपाल का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। एकदम मौन छाया हुआ था। तो भी हरेक व्यक्ति आनेवाले पल के अनुरूप अपने तन-मन को बदलने का उपक्रम कर रहा था। 'क्या बोलें, कैसे बोलें, कैसे हँसे, कैसे हाथ जोड़ें ?" हर कोई बारीकी से मन ही मन इस बात का भी रिहर्सल कर रहा था। भरे-पूरे दरबार में राजा के प्रवेश के इंतजार में जैसी शांति विराजेगी, वह 'हाल उसका नमूना पेश कर रहा था।

'हाल' का यह हाल देखकर मुत्तुकुमरन के मन में यह द्वंद्व मचा कि गोपाल जैसे मित्र से मिलने के लिए क्या मुझे भी ऐसी बनावटी मुद्रा ओड़नी पड़ेगी? नहीं, मित्र-मिलन में ऐसा आदर-भाव दर्शाने या उतावली दिखाने की कोई जरूरत नहीं।

वह इस नतीजे पर पहुंचा कि पहले मैं उसका व्यवहार देखूगा । बाद को उसके मुताबिक अपना तरीका अख्तियार करूँगा।

नाट्य कंपनी में काम करते हुए जिन दिनों नाटक नहीं होते थे, दोनों-वह और ' गोपाल---रात को सिनेमा देखने चले जाते थे। आधी रात के बाद लौटकर एक ही चटाई पर सोते थे।

उन पुरानी रातों की याद आते ही, मुत्तुकुमरन् को यह शंका हुई कि क्या गोपाल अभी भी उतना ही धनिष्ठ, आत्मीय और मिलनसार होगा!

पैसा मनुष्य और मनुष्य के बीच स्तर-भेद पैदा कर देता है । उसके साथ नाम- यश, रोब-दाब आदि मिल जाएँ तो यह खाई और बढ़ जाती है। यह भेद-भाव को शिखर पर चढ़ाता है और कुछ को गड्ढे में गिरा देता है । क्या शिखर पर खड़ा व्यक्ति गड्ढे में पड़े लोगों को कहीं बराबरी की दृष्टि से देखेगा?

भूकंप में समतल भूमि जैसे ऊँची हो जाती है और ऊँची भूमि नीचे दब जाती है, वैसे ही धन-दौलत का भूकंप आने पर कुछ चोटियाँ उग आती हैं । उन चोटियों की वजह से उनके आसपास की भूमि घाटियों में बदल जाती हैं । घाटियां बनायी नहीं जातीं । चोटियों के बनने पर, समतल भूमि भी घाटियों का-सा भ्रम पैदा करती हैं, बस !

चोटी और घाटी का स्वरूप चित्रण करते हुए उसका कवित्वसंपन्न स्वाभिमानी हृदय यह मानने को हिचका कि गोपाल चोटी पर है और वह घाटी में ।

धान के खेत में जैसे घास सिर उठाती है, वैसे कवित्व से पूर्ण उर्वर मनोभूमि में गर्व का सिर उठाना स्वाभाविक है। गर्व के दो प्रकार होते हैं। सुरम्य और कुरम्य । कवि हृदय में उत्पन्न होनेवाला गर्व सुरम्य होता है-

गुलाब की लाली सुरम्य और आँखों को आराम देनेवाली होती हैं । कनेर की लाली तो आँखों में चुभती है । सुकवि का गर्व गुलाब की लाली के समान होता है और कवित्वशून्य का गर्व कनेर पुष्प का-सा होता है।

मुत्तुकुमरन् के हृदय में यही सुरम्य गर्व विराजमान था। इसलिए वह अपने. मित्र गोपाल को अपने से भिन्न और अपने से बढ़कर ऊँचाई में रहनेवाला मानने: को तैयार नहीं था । अपनी बड़ाई को भूलना या घटाना भी उसे स्वीकार नहीं था।

वहाँ का वातावरण-~~-यानी वह 'हाल', उसका चमकता संगमरमर का फर्श, उस पर सुन्दर कालीन, करीने से लगे सोफे, उनपर सुन्दर परियों-सी बैठी युवतियाँ उनकी बहुरंगी वेश-भूषा और शरीर पर लगे इत्र की महक-यह सब मिलकर, उसके अंदर सोये हुए सुरम्य गर्व को उजागर करनेवाला ही सिद्ध हुआ। कली के अंदर संपुटित सुगंध की भाँति हो जाने पर भी न मिलनेवाली उसकी गर्व-माधुरी विद्यमान थी।

गोपाल अभी हाल में नहीं आया था। पर किसी भी क्षण आने की संभावना थी। मुत्तुकुमरन् के मन में रह-रहकर गोपाल के विषय में पुरानी स्मृतियाँ लहरा रही थीं।

उन दिनों में, जब कभी कथानायक की भूमिका निभानेवाला गोपाल अपना पाट खेल नहीं पाता था, तब मुत्तुकुमरन् वह भूमिका स्वयं करता था। स्त्री के वेश में गोपाल कृत्रिम लज्जा दर्शाते हुए उसके सामने आ खड़ा होता था । उस गोपाल के साथ इस गोपाल की, जिसके आने की राह सारा हाल चुप बैठा तक रहा था, उसका मन काल्पनिक तुलना करने की कोशिश कर रहा था।

उन दिनों वेश में न होने पर भी वह लजाता-सकुचाता ही उसके सामने पेश आता था । यही नहीं, पति-परायणा पत्नी की भाँति आज्ञा पालन में भी कोई कसर नहीं रखता था।

"अगर तुम सचमुच औरत होते तो इस मुत्तुकुमार वाधार ही से शादी कर सकते थे !" नाटक सभा के मालिक नायुडू 'ग्रीन रूम' में आकर कभी-कभी गोपाल की खिल्ली भी उड़ाते थे।

वह स्त्री की भूमिका में सुन्दरियों से सुन्दर दीखता था। बिना देश के साधारण हालत में रहते हुए दोनों के बीच ऐसी ही नोंक-झोंक चलती थी-

"देवी ! क्या आज रात को हम चल-चित्र देखने चलें ?" मुत्तुकुमरन् पूछता।

"नाथ ! जैसी आपकी इच्छा ! "गोपाल उत्तर देता ।

'अरे ! उन सारी बातों को सोचने से अब क्या फ़ायदा? यह तो भूखे आदमी का, किसी पुरानी दावतं की याद करने जैसा हुआ !' अंतर्मन ने मुत्तुकुमरन को टोका ।

किसी अजीब ‘सेंट' की महक पहले ही गोपाल के आने की सूचना दे गयी और बाद में रेशमी कुरता और पाजामा पहने गोपाल आया। उपस्थित सभी लोगों पर उसकी सरसरी नज़र पड़ी। युवतियों ने लंजाते हुए और मुस्कराते हुए हाथ जोड़े। युवकों ने प्रसन्नवदन होकर हाथ जोड़े । केबल मुत्तुकुमरन ही ऐसा था, जो गंभीर मुद्रा में पैर पर पैर धरे बैठा रहा। गोपाल के हाथ जोड़ने के पहले, वह उठने या हाथ जोड़ने को तैयार नहीं था। गोपाल की नजर उस पर पड़ी तो उसका चेहरा आश्चर्य से खिल उठा।

"कौन, मुत्तुकुमार वाधार ? अरे, यह क्या ? बिना किसी सूचना के आकर तुमने तो आश्चर्य में डाल दिया ?"

मुत्तुकुमरन की बाँ, खिल गयीं । उसे इस बात की खुशी हुई कि गोपाल के व्यवहार में कहीं कोई फ़र्क नहीं है।

"अच्छी तरह तो हो, गोपाल ? सूरत-शकल बदल गयी! मोटे भी हो गये हो ! अब तुम स्त्री की भूमिका करोंगे तो औरत-जात को बड़ी फजीहत होगी।"

"धाते न आते आपने ताना मारना शुरू कर दिया !" "अच्छा तो फिर क्या कहूँ, अभिनेता सम्राट ?".

"छोडो यार ! इन लोगों को इन्टरव्यू के लिए बुलाया था ! वह पूरा कर लूँ या कल आने को कहूँ ? जैसा तुम कहोगे, वैसा करूँगा।"

"अरे नहीं, ये लोग बड़ी देर से बैठे हैं । इनके काम से निबट लो । मुझे कोई जल्दी नहीं है ! " मुत्तुकुमरन ने कहा।

"अच्छा, तुम कब आये और कहाँ ठहरे हो ?' "हमारी बात बाद को होगी। पहले इन लोगों से मिल लो !"

मुत्तुकुमरन की इस मेहरबानी का एहसान जताते हुए मछली की तरह आँखों वाली कई युवतियाँ इस तरह देखने लगीं मानो उसे निगल ही जाएँगी एक साथ सभी युवतियों को आकर्षित करने से उसका हृदय गर्व से और भी भर उठा।

नाटक मंडली के लिए अभिनेता-अभिनेत्रियों का चुनाब शुरू हुआ। मुत्तुकुमरन जरा दूर से सोफे पर बैठकर 'इन्टरव्यू' का तमाशा देखने लगा। पाश्चात्य देशों की तरह यद्यपि गोपाल ने उनके वक्षस्थल, कटि प्रदेश और लंबाई-मोटाई की नाप नहीं ली; लेकिन अपनी लोलुप दृष्टि से इन्हें नाप रहा था । कुछ अति सुन्दर लड़किय को विभिन्न कोणों में खड़ाकर गोपाल मजे लूट रहा था, मानो किसी विशेष अभिनय के लिए उन्हें 'पोज' देने के लिए कह रहा हो । वे लड़कियाँ भी बिना किसी आनाकानी के, उसकी आज्ञा का पालन कर रही थीं। मर्दो की इन्टरव्यू में कुछ अधिक समय नहीं लगा। कुछ सवाल-जवाब में मर्दो की इन्टरव्यू खत्म हो गयी। . डाक से सूचना देने का आश्वासन देकर उसने सबको विदा किया। फिर मुत्तुकुमरन् के पास जाकर ऐसी मर्यादा से बैठा, जैसे कोई सुशीला पत्नी पति के पास जाकर बैठती हो।

"क्यों, गोपाल ! तुम सचमुच नाटक कंपनी चलाने वाले हो या इस बहाने इन लड़कियों के चेहरे-मोहरे देखने का ढोंग रच रहे हो ? कहीं इस बात का बदला तो नहीं ले रहे कि उन दिनों स्त्री का पार्ट करने के लिए लड़कियाँ तैयार नहीं होती थीं और उनका 'पार्ट' तुमको अदा करना पड़ता था !"

"तब का नखरा, अब भी ज्यों का त्यों तुम में मौजूद है गुरु ..! अच्छा, अभी तक तुमने यह नहीं बताया कि तुम कहाँ ठहरे हो ?"

मुत्तुकुमरन् ने एल्डंबूर के उस लॉज का नाम बताया, जिसमें वह ठहरा हुआ था।

"मैं अपने ड्राइवर को भेजकर, लॉज का हिसाब चुकता कर तुम्हारा बोरिया- बिस्तर यहीं लाने को कहता हूँ। यहाँ एक. 'आउट हाउस' है। वहाँ ठहर सकोगे न?"

"हाँ, एक शर्त पर !"

"कौन-सी?"

"नाथ ! जैसी आपकी इच्छा-यह वाक्य- एक बार स्त्रियों की-सी आवाज़ में गोपाल ड्राइवर को कहो तो मैं मान जाऊँगा।"

गोपाल ने बोलने का उपक्रम किया । लेकिन कंठ ने साथ नहीं दिया तो बीच ही में रुक गया।

"अरे गोपाल !तुम्हारी तो आवाज मुटिया गयी।"

"आवाज ही क्यों, मैं भी तो मोटा हो गया हूँ"~-कहते हुए बुलाने बाहर गया। उसका पीछा करते हुए मुत्तुकुमरन् बोला, "कमरे को अच्छी तरह से देखभाल कर मेरी सारी सम्पत्ति ले आने को कहना ! निघंटु, छंद-शास्त्र आदि वहीं पड़े हैं। कुछ छूट न पाये !"

"चिंता छोड़ो, यार ! सारी चीजें सही सलामत आ जाएँगी !"

"लॉज का भाड़ा भी तो देना है।"

"क्या तुम्हीं को देना है ? मैं चुका दूंगा तो क्या हर्ज है ?"

मुत्तुकुमरन् ने कोई उत्तर नहीं दिया । गोपाल का ड्राइवर छोटी कार लेकर ए@बूर गया। उसे, भेजकर गोपाल लौटा और मुत्तुकुमरन् से बड़े प्यार से बोला, "बहुत दिनों के बाद आये हो । हमें आज साथ-साथ डिनर खाना चाहिये। बोलो, रात को क्या-क्या बनाने को कहूँ ? तकल्लुफ़ मत करो!"

"दाल की चटनी, मेंथी का सांबार, आम का अचार..."

"छि: ! लगता है कि अगले जन्म में भी तुम वायस् कंपनी की उस चालू 'मेनु' को नहीं भूलोगे । नायुडु हमें ऐसा परहेज़ी खाना खिलाता रहा कि कहीं मनुष्य के स्वाभाविक गुण–प्रेम, शोक, वीरता आदि हममें उत्पन्न न हो जायें।"

"वह खाना खाने पर ही तो तुम नायुडु के खिलाफ आवाज उठा नहीं पाये कि हमें अच्छा खाना खिलाओ।"

"अच्छा, तो इसीलिए उसने हमें ऐसा खाना खिलाया था!".

"तो फिर किसलिए? उसने इस बात का बड़ा ख्याल रखा कि उसका खाना खाकर उसके विरुद्ध झंडा उठाने की ताकत हममें न आ जाए. !"

"जो भी हो, उसका खाना खाकर ही तो हम जीते रहे। एक या दो दिन नहीं; बारह सालों से भी अधिक ! दाल की चटनी, मेंथी का सांबार, आम का अचार"

उस तरह वहाँ बारह साल बिताने पर ही तो हम आज यहाँ इस स्थिति तक "सो तो ठीक है । मैं अभी उसे भूला नहीं हूँ ! अच्छी तरह याद है।"

गोपाल के मुंह से यह सुनते हुए मुत्तुकुमरन् ने उसके चेहरे का भाव पढ़ा। मुत्तकुमरन् ने यह जानना चाहा कि उसकी आँखों में कैसी चमक झिलमिला रही है। कृतज्ञता और पुरानी स्मृतियों पर ही बात कितनी देर चल सकती है ? बात का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए कोई विशेष विषय न रह जाने के कारण दोनों के बीच थोड़ी देर के लिए मौन छाया रहा।

उस मौन के बीच गोपाल उठकर अंदर गया और रसोई के लिए 'मेनु' बताकर आया।

"हॉल' के पास के कमरे में किसी ने रेडियो लगाया। 'मधुर गीत' कार्यक्रम के प्रारंभ के पहले यह सूचना प्रसारित हुई कि यह आकाशवाणी केंद्र के कलाकारों की प्रस्तुति है, मानो वे अनादि अनाम तत्व के अभिन्न अंग हैं। जिनका कोई अपना अस्तित्व नहीं है।

"जानते हो, यार? हमारे बायस् कंपनी में 'कायात कातकम् (उन दिनों के नाटक का प्रसिद्ध गीत) गाकर जो कृष्णप्प भागवतर वाहवाही लूट रहे थे, वे अब आकाशवाणी केंद्र के कलाकार हो गये हैं।"

लगता है कि आकाशवाणी उन कलाकारों के लिए अब, 'कष्ट निवारण केंद्र हो गयी है, जो कि किसी ज़माने में रियासतों, मठालयों और नाटक कंपनियों के आश्रय पर जीते थे।"

"मैं भी एक नाटक कंपनी शुरू करनेवाला हूँ। मुझ पर निर्भर रहनेवालों को खाना-कपड़ा देने के लिए कुछ-न-कुछ करना चाहिए न?"

"अब भी जो 'इन्टरव्यू' हुई थी, उसी के लिए न?"

"हाँ, इस ऐन मौके पर 'उस्ताद' का मद्रास आना बड़े भाग्य की बात है, मानो भगवान प्रसन्न होकर स्वयं भक्त के यहाँ पधारे हों!"

"सो तो ठीक है। लेकिन नाटक कंपनी का नाम क्या रख रहे हो?" "तुम्हीं कोई अच्छा-सा नाम सुझाओ न !"

"क्यों 'ऐया' को याने द्राविड़ कळकम् के संस्थापक पेरियार ई० के० रामस्वामी नायकर को बुलाकर नामकरण नहीं करते?"

"हाय ! वह तो हमारे बस की बात नहीं । बच्चे के नामकरण के लिए भी उन्होंने अपनी फ़ीस बढ़ा दी है।"

"भगवान का नाम आ सकता है न?"

“जहाँ तक हो सके, विवेक (पहुत्तरितु) की कसौटी पर खरा उतरे तो अच्छा रहे।"

"क्यों ? मद्रास में उसी 'लेबल' पर तुम्हारी ज़िन्दगी चलती है क्या ?"

"मज़ाक छोड़ो, यार !"

‘पहुत्तरितु चेम्मल' की उपाधि जो दी है. !"

"यह बात छोड़ो, यार ! कोई अच्छा-सा नाम ढूंढो ।"

"गोपाल नाटक मंडली' नाम रख दो। आज के ज़माने में ईश-वन्दना नहीं चलती । क्योंकि हर कोई अपने को ही देवता मानने लग गया है । आईने में अपनी ही सूरत को हाथ जोड़ता है।"

"मेरे नाम पर 'गोपाल नाटक मंडली' नाम रखना मुझे मंजूर है । पर एक बात सेनटरी से पूछनी पड़ेगी कि आयकर विभाग से कोई टंटा तो उठ खड़ा नहीं होगा। सच पूछो तो आयकर विभाग के उत्पातों से बचने के लिए ही मैं नाटक मंडली खोलने की बात सोच रहा हूँ। खोलने पर अगर यह लफड़ा घटने के बदले बढ़ जाए तो क्या फायदा?"

"फिर तो यह कहो कि किसी महान कला के पीछे इतनी कलाहीन या घटिया बातों पर भी सोच-विचार करना पड़ता है !"

"कला-वला की बात छोड़ो, यार ! मैं तो यह कहूँगा कि होम करते कहीं हाथ न जल जाये-इस बात का ख्याल करना ही बड़ी कला है !"

"अरे, गोपाल ! मैं तो अभी-अभी ये नयी-नयी बातें सुन ही रहा हूँ !"

करोड़पतियों और अभिनेताओं का सिरमौर हो जाने से गोपाल को मुत्तुकुमरन् की इतनी अंतरंग और लंगोटिया यारी खटकी। उसकी जबान से वह अपने प्रति आदरसूचक बातें सुनना चाहता था । पर उससे कहे तो कैसे कहे ? मुत्तुकुमरन् के गर्व, आत्माभिमान और हठ से वह परिचित था। इसलिए उसे हिम्मत नहीं हुई। मन-ही-मन कुढ़ने के सिवा वह और कुछ नहीं कर सका। मुत्तुकुमरन् के साथ स्त्री की भूमिका करते हुए ‘नाथ ! जैसी आपकी इच्छा !' वाली स्थिति ही अब भी जारी रही । लाख कोशिश करने पर भी उस भ्रम से वह अपने को छुड़ा नहीं पाया ! सामने पैर पर पैर रखे आत्माभिमान और कवि के स्वाभाविक दर्प के साथ गंभीरता से बैठे मुत्तुकुमरन् के सामने करोड़पति गोपाल रत्ती भर भी अपना रोब नहीं जमा पाया।

ड्राइवर ने आकर सूचना दी कि वह लॉज के कमरे को खाली करके लॉज से सामान ले लाया है।

"ले जाकर 'आउट हाउस' में रखो। छोकरे नायर से कहो कि 'आउट हाउस' के बाथरूम में तौलिया-साबुन' आदि रखे और इनके आराम का सारा बंदोबस्त करें।" ड्राइवर हामी भरकर चला तो गोपाल ने उसे फिर से बुलाया, मानो कोई बात याद आ गयी हो।

"सुनो ! 'आउट हाउस' में गरम पानी की कोई व्यवस्था नहीं हो तो 'होम नीड्स' को फोन कर फ़ौरन एक 'गीज़र' लगाने को कहो !" "अभी फ़ोन किये देता हूँ, सर !"

ड्राइबर के जाने के बाद गोपाल ने बात जारी रखी। "उस्ताद ! अपने पहले नाटक के लिए तुम्हें ही कथा-संवाद, गीत आदि सब कुछ रचना होगा ?"

"मुझे ? क्या कह रहे हो यार ? मद्रास में तो कितने ही बड़े-बड़े मशहूर नाटककार हैं। मुझे तो यहां कोई जानता तक नहीं । मेरे नाम से कुछ फ़ायदा या प्रचार नहीं होगा। ऐसी हालत में मुझसे लिखवाना चाहते हो?" -गोपाल के मन की बात ताड़ने के लिए मुत्तुकुमरन् ने पूछा।

"वह जिम्मा मुझ पर छोड़ दो। तुम चाहे जो भी लिखो-नाम-धाम दिलाना मेरा काम है !"-गोपाल ने कहा ।

"तो...? इसका भी कोई मतलब है ?" मुत्तुकुमरन ने सन्देह के साथ पूछा।

यह गली बिकाऊ नहीं : तीन

"बस, तुम लिखो उस्ताद ! बाकी सब कुछ मैं देख लूँगा । 'अभिनेता सम्राट गोपाल द्वारा अभिनीत नवरस नाटक' एक लाइन का यह विज्ञापन काफ़ी है: 'हाउस फुल' हो जायेगा । सिनेमा में जो नाम कमाया है, नाटक में उसी का इस्तेमाल करना चाहिए । यही आजकल की 'टेकनिक' है ।

"याने कोई ऐरा-गौरा, नत्थू-खैरा भी लिखे तो भी तुम्हारे नाम से नाटक चमक उठेगा।" तुम यही कहना चाहते हो न?

"और क्या?"

"तो फिर मैं नहीं लिखूगा !"

मुत्तुकुमरन् की आवाज में सरूती थी। उसके चेहरे से हैंसी गायब हो गयी। "क्यों, क्या बात है ?"

"तुम कहते हो कि हद दर्जे की चीज्ञ को भी अपने 'लेबल' पर अच्छे दामों बेच सकते हो और मेरा कहना है कि मैं अपनी अच्छी चीज़ को भी 'सस्ते लेबल' पर नहीं बेचूंगा ।"

यह सुनकर गोपाल भौंचक रह गया। मानो मुँह पर जोर का तमांचा पड़ा हो । यही बात अगर किसी दूसरे ने कही होती तो उसके गाल पर थप्पड़ लगाकर वह 'गेट आउट' चिल्लाया होता । लेकिन मुत्तुकुमरन् के सामने वह आज्ञाकारिणी पत्नी की भांति दब गया। थोड़ी देर तक वह तिलमिलाता रहा कि दोस्त को क्या जवाब दे ! न तो वह गुस्सा उतार सका और न कोई चिकनी-चुपड़ी बात ही कर पाया। उसके भाग्य से मुत्तुकुमरन् ही होंठों पर मुस्कान भरते हुए कहने लगा, "फ़िक्र न करो, गोपाल ! मैंने तुम्हारे अहंकार की थाह लेने के लिए ही ऐसी बातें की। मैं तुम्हारे लिए नाटक लिखूगा । लेकिन वह तुम्हारे अभिनय से बढ़कर मेरी लेखनी का ही नाम रोशन करेगा।"

"उससे क्या? तुम्हारी बड़ाई में मेरा भी तो हिस्सा होगा!"

"पहला नाटक-सामाजिक हो या ऐतिहासिक ?" मूत्तु ने बात बदली।

"ऐतिहासिक ही होगा। राजेन्द्र चोलन या सुन्दर पांडियन में कोई भी हो । पर हां, बीच-बीच में ऐसे चुटीले संवाद जरूर हों, जिन्हें सुनकर दर्शक तालियां पीटें । नाटक का राजा चाहे जो भी हो, उसके मुंह से कभी-कभी ऐसे संवाद बुलबाना चाहिए कि हमारे महाराज, कामराज, नारियों के मन मोहनेवाले रामचंद्रन, दाताओं के दाता करुणानिधि, युवकों के युवक पेरियार, भाइयों के भाई अपणा..."

"वह नहीं होगा।"

"क्यों ? क्यों नहीं होगा?"

"राजराजचोलन के जमाने में तो ये सब नहीं थे। इसलिए । ..." "मैंने सोचा कि 'मास अपील' होगा !"

"मास अपील' के नाम पर ऊल-जुलूल लिखना मुझसे नहीं होगा।"

"तो क्या लिखोगे? कैसे लिखोगे?"

"मैं नाटक को नाटक की तरह ही लिलूँगा, बस !"

"वह लोकप्रिय कैसे होगा?"

"नाटक की सफलता नाटक-लेखन और मंचन पर निर्भर है न कि बेहूदे संवादों पर !"

"जैसी आपकी इच्छा ! तुम ठहरे उस्ताद । इसलिए मेरी नहीं सुनोगे !"

"किस पात्र की कौन भूमिका निभायेगा ? कितने सीन होंगे? कितने गाने होंगे -इन सबका जिम्मा मुझपर छोड़ दो। नाटक सफल नहीं हुआ तो मेरा नाम मुत्तुकुमरन नहीं !"

"ठीक है “अब चलो, खाने को चलें।"

भोजन के बाद भी दोनों थोड़ी देर तक बातें करते रहे उसके बाद गोपाल ने अपनी अलमारी खोलकर, उसमें रखी रंग-बिरंगी बोतलों में से दो बोतलें और गिलास निकाल ली।

"इसकी आदत पड़ गई उस्ताद ?"

"नाटककारों और संगीतकारों के सामने यह सवाल शोभा ही नहीं देता।"

"आओ, इधर बैठो” कहते हुए भोपाल ने मेज पर बोतल, गिलास और 'ओपनर' रखे । उसके बाद उनकी बातों की दिशा बदली। शाम की 'इन्टरव्यू में आयी हुई लड़कियों पर वे खुलकर बड़ी स्वतंत्रता से विचार-विमर्श करने लगे। उधर बोतलें खाली होती जा रही थी और इधर शालीनता भी रीतती चली जा रही थी। 'तनिपाडल तिर१' जैसी पुरानी पुस्तकों से कुछ अश्लील कविताएँ सुनाकर मुत्तुकुमरन् भी श्लेष के सहारे उनको भद्दी व्याख्या करने लग गया। समय बीतते पता न चला।

बाय्स कंपनी में काम करते हुए भी उनके बीच ऐसी कविताएँ और बातें हुआ करती थीं। लेकिन तब की और अब की बातों में बड़ा फ़र्क था। बाय्स कंपनी में न तो नशे-पानी की ऐसी व्यवस्था थी और न खुलकर बात करने की सहूलियत । लुक-छिपकर डरते-डरते बातें करनी होती थीं । बाय्स कंपनी ऐसी बंजर भूमि थी, जहाँ लड़कियों की भनक तक नहीं पड़ती थी। अब तो वह बात नहीं थी।

आधी रात के बाद, मुत्तुकुमरन् लड़खड़ाते पैरों 'आउट हाउस' की ओर बढ़ा तो एक नायर छोकरे ने उसे सहारा देकर बिस्तर पर ले जाकर लिटाया ।

"मैं टेलिफोन की 'की-बोर्ड के पास सोऊँगा । जरूरत पड़े तो फ़ोन पर बुला लीजिएगा!" यह कहकर, बिस्तर के पास के 'फोन एक्स्टेंशन' दिखाकर वह चला गया । मुत्तुकुमरन् को उसकी आवाज़ बड़ी धीमी सुनाई दी और टेलीफ़ोन भी धुंधला-सा दीख पड़ा। उसके अंग ऐसे शिथिल पड़ गये थे, मानो कहीं मार-पीट में चूर-चूर हो गये हों । आँखों में नींद भर आयी थी।

उसी समय टेलीफ़ोन की घंटी बजी। मानो सपने से उठकर उसने अँधेरे में कुछ टटोला । टेलिफ़ोन नहीं मिल रहा था। सिरहाने की 'स्विच' दबाकर बत्ती जलायी और टेलिफोन का चोंगा उठाया। दूसरे छोर से एक नारी कंठ की सहमी- सहमी और शरमीली-सी आवाज आ रही थी-"हलो, मुझे पहचानते हैं आप?" यद्यपि वह आवाज पहचानी-सी लगी तो भी उस आलम में वह ठीक-ठीक पहचान नहीं पाया । इसलिए वह उत्तर देते हुए हिचक रहा था।

नारी-कंठ ने बात जारी रखी. मैं 'माधवी'."इंटरव्यू के पहले   मापसे बातें हुई थीं। याद है ?"

"हां...तुम ...?"

नशे में उसने 'तुम' कह दिया तो क्या बुरा किया ? एक हमउम्र युवती से 'आप' कहकर बात करे तो क्या इससे उसकी जवानी और दोस्ती की अवहेलना नहीं होती ? अब तक पी हुई शराब को और भी तीखी करती हुई, उस लड़की की मधु- मधुर कंठ-ध्वनि उसके कानों में शहद उड़ेल रही थी!

"माफ़ कीजिये । आप..." अपने को होश में वापस लाते हुए अपने संबोधन में वह संशोधन करने लगा तो दूसरी ओर से उसकी प्यार भरी आवाज़ आयी, "जैसे आपने पहले बुलाया, वैसे ही बुलाइये । वही मुझे पसन्द है !" उसकी नजाकत और बात करने के तौर-तरीके पर मुत्तुकुमरन् कुछ इस तरह खिल उठा मानो बैठे ही बैठे उसे बलात् नारी-आलिंगन का सुख मिल गया हो। "इस घड़ी कहाँ से बोल रही हो ? और तुम्हें यह कैसे पता चला कि मैं इस वक्त इस 'आउट हाउस' में मिलूंगा !"

"वहाँ, गोपालजी के घर में टेलिफ़ोन पर जो लड़का है, उसे मैं जानती हूँ!" "यह जानकर ही यदि इस बेवक्त में कोई लड़की इस तरह फ़ोन पर बात करे तो लोग क्या समझे?"

"जो चाहें, समझें । चूंकि मैं बर्दाश्त नहीं कर सकी; इसीलिए आपको बुलाया ! इसमें कोई गलती है ?"

इस अंतिम वाक्य में, जो प्रश्न था, वह उसे गुड़-सा मीठा लगा। सुननेवाले को तो यह नशे के नशे से भी बढ़कर बड़ा नशा लगा। उसे लगा कि संसार में सबसे पहले मधु का स्रोत नारी-कंठ और अधरों से ही बहा होगा। ऐसी मधुमती माधवी से बात करने का सौभाग्य पाकर मुत्तुकुमरन् अपने को बड़ा धन्य समझने लगा। तनिक होश में आकर उसने सोचा कि इस तरह माधवी के फ़ोन करने का क्या कारण हो सकता है ? लेकिन कारण को पीछे ढकेलकर बही उसके अंतःपटल पर आ खड़ी हो गयी। एक क्षण के लिए उसके मन में यह संदेह-सा हुआ कि उसके . फोन करने के पीछे शायद यह आशय हो कि मुझसे दोस्ती बढ़ाकर मेरी सिफ़ारिश और मेहरबानी से गोपाल की नाटक मंडली में प्रमुख स्थान पाया जा सकता है। किन्तु अगले ही क्षण उसी के मन ने उस भ्रम को मिटाकर कहा कि बात वह नहीं, शायद उसके दिल में तुम्हें प्रवेश मिल गया है। उसके फोन करने के पीछे इसी प्रेम-भावना का हाथ है।

उस रात को वह मीठे सपनों में खोया रहा । सोकर उठा तो लगा कि पौ कुछ पहले ही फट गयी है. और सूरज में. बड़ी उतावली दिखा दी है । असल में 'बेड- कॉफ़ो' के साथ, नायर छोकरे के जगाने के बाद ही वह उठा था। कुल्ला करने के बाद जब उसने गरम कॉफ़ी पी तो मन में उत्साह और उल्लास भर गया 'आउट हाउस' के बरामदे पर आकर सामले के बगीचे पर नज़र दौड़ायी तो उसकी आँखों के सामने बड़ा ही मनोरम दृश्य उपस्थित था। ओस कणों में नहायी हरी घास की फर्श झिलमिला रही थी। उस हरीतिमा में लाल गोटे की तरह गुलाब खिले थे। एक और पारिजात का पेड़ था, जिसके फूल हरी घास पर चौक पूर रहे थे। कहीं से रेडियो में 'नन्नु पालिम्ब' मोहन राग का गीत हवा में तिरता आ रहा था।

सामने का बगीचा, प्रातःकाल की खूनक और गीत की माधुर स्वर-लहरी- ये तीनों मिलकर मुत्तुकुमरन् को आह्लादित कर रहे थे। उस आह्लाद में उसे माधवी का स्मरण हो आया। पिछली रात को टेलिफ़ोन में बेवक्त गूंजती आवाज़ भी याद हो आयी।

कुछ लोगों के गाने पर ही संगीत की रचना होती है जबकि कुछ लोगों के बोलने पर भी संगीत बन जाता है। माधवी की बोली में वही जादू था। माधवी के कंठ में शायद कोयल बैठी थी। कोयल जैसे अंतराल दे-देकर कूकती है, वैसे ही वह बोल रही थी। मुत्तूकुमरन् को उसकी स्वर-माधुरी की तारीफ़ में एक गीत. रचने की कविता लिखने की इच्छा हुई।

"सुख बयार का, स्नेह मधु का,

जिसने पाया हो सुमधुर कंठ

उसकी वाणी में गीत घुला

जैसे मंच पर गीत का गान

मन में भी गूंजे वैसी तान

उससे भी सूक्ष्म है एक संगीत

जो अनहद नाद कहाता है;

कोई डूब के ही सुन पाता है।"

इस आशय का एक गीत रचकर उसने मन-ही-मन गुनगुनाया। कहीं वह छन्दो बद्ध था और कहीं शिथिल । फिर भी उसे इस बात का संतोष था कि यह उच्च आशय का था।

इस तरह मुत्तुकुमरन् बरामदे में खड़ा होकर बगीचे की सुषमा देख रहा था और माधवी की स्वर-माधुरी का रस ले रहा था कि गोपाल 'नाइट गाउन' में ही मुत्तुकुमरन् से मिलने 'आउट हाउस' में आ गया ।

"अच्छी नींद तो आयी, यार ?"

"हाँ, बड़े मजे की नींद सोया !"

"अच्छा, अब मैं तुमसे एक बात पूछने आया हूँ !"

"क्या ?"

"कल आयी हुई लड़कियों में से तुम किसे सबसे ज्यादा पसन्द करते हो?".

"क्यों, क्या मेरी शादी उससे कराना चाहते हो?"

"नहीं ! मैं अपनी नाटक मंडली का उद्घाटन जल्दी से जल्दी करना चाहता हो?"

हूँ। पहले नाटक का मंचन भी उसी समय कर देना है। उसके लिए सेलेक्शन' वगैरह. जल्दी हो जाए तो अच्छा रहेगा न ?"

."हाँ, कर लो!"

"करने के पहले तुम्हारी भी सलाह चाहता हूँ !"

"इस विषय में मैं 'अभिनेता सम्राट' को सलाह क्या दूं ?"

"यह कैसा मज़ाक है ?"

"मजाक नहीं, सच्ची बात है।"

.."इन्टरव्यू के लिए जो दो युवक आये थे, मैंने उन दोनों को लेने का निश्चय कर लिया है। क्योंकि वे दोनों संगीत नाटक अकादेमी के सेक्रेटरी चक्रपाणि की सिफ़ारिश लेकर आये थे!"

"अच्छा! ले लो। फिर...?"

"आयी हुई लड़कियों में..."

"सभी सुन्दर हैं !"

"ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह माधवी ही कद-काठी से नाक-नश से तराशी हुई बहुत सुन्दर युवती थी !"

"अच्छा!"

"उसे 'पर्मानेंट हीरोइन' बना लेना है !"

"नाटक के ही लिए न?"

"उस्ताद ! तुम्हारा मज़ाक मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता ! रहने भी दो !"

"अच्छा रहने दिया ! आगे बोलो!" मुत्तुकुमरन् ने कहा।

गोपाल बोला, "आयी हुई लड़कियों में से कुछेक को नाटक के उपपात्रों के लिए लेना चाहता हूँ !"

. “यानी ऐतिहासिक कहानी हो तो सखी और बाँदी; सामाजिक कहानी हो तो कॉलेज की सहेली, पड़ोस की लड़की-~-यही न ? जरूर-जरूरत पड़ेगी ! समय- समय पर जीवन-साथी के बतौर भी काम आ सकती है !"

मजाक बर्दाश्त न कर सका तो गोपाल ने चुप्पी साध ली और मुत्तुकुमरन् पर पनी दृष्टि फेंकी । मुत्तुकुसरन् ने तत्काल बात बदलकर हँसते हुए पूछा, 'गोपाल नाटक मंडली नाम रखने से पहले, तुम कह रहे थे कि सेक्रेटरी से मिलकर आय- कर आदि के विषय में कुछ पूछना है । पूछ लिया क्या ?"

गोपाल ने कहा, "सुबह ही सेक्रेटरी को फोन कर मालूम भी कर चुका। हम गोपाल नाटक मंडली नाम रख सकते हैं । सेक्रेटरी की सलाह के बाद ही तुम्हारे पास आया हूँ !"

"अच्छा, बोलो ! आगे क्या करना है ?"

"इस 'आउट हाउस में सभी सुविधाएं हैं। यहाँ बैठकर जल्द-से-जल्द उस्ताद को नाटक लिखकर तैयार कर देना है, बस । अगर किसी चीज़ की जरूरत हो तो नायर छोकरे को आवाज़ दो । उत्तर के सुपर स्टार दिलीप कुमार जब यहाँ आये थे, उनके ठहरने के लिए ही यह 'आउट हाउस' खासकर बनवाया था। उनके बाद यहाँ ठहरने वाले पहले आदमी तुम्ही हो !"

"तुम्हारा ख्याल यही है न कि उस्ताद की इससे बड़ी अवहेलना नहीं की जा सकती!"

"इसमें अवहेलना कैसी?"

"दिलीप कुमार एक अभिनेता है लेकिन मैं तो एक गर्वीला कवि हूं। उनके ठहरने से मैं इसको तीर्थ-स्थान नहीं मान सकता। तुम मानना चाहो तो मानो । मैं तो यह चाहता हूँ कि जहाँ मैं ठहरता हूँ, उसे दूसरे लोग तीर्थ मानें !"

"जैसी तुम्हारी मर्जी ! पर जल्दी नाटक लिख दो, बस !" "मेरी पांडुलिपि को अच्छी तरह कोई टाइप करके देनेवाला मिले तो सही..."

"हाँ : याद आया। कल की 'इंटरव्यू में उसी माधवी नाम की लड़की ने कहा था कि वह टाइप करना भी जानती है । उसी से कह दूँगा कि वह 'टाइप' कर दे। 'टाइप करते-करते उसे संवाद भी याद हो जाएंगे।"

"बड़ा अच्छा विचार है । इस तरह कोई कथा नायिका ही साथ रहकर 'हेल्प' करे तो मैं भी नाटक जल्दी लिख डालूंगा।"

'कल ही एक नये 'टाइप राइटर' के लिए ऑर्डर दे देता हूँ !"

"जैसे तुम एक-एक चीज़ का 'आर्डर' देकर भगा लेते हो, वैसे मैं अपनी कल्पना को 'ऑर्डर' देकर तो नहीं मँगा सकता । वह तो धीरे-धीरे ही उभर करआयेगी!

"मैं कोई जल्दी नहीं करता। इतना ही कहा कि नाटक जरा जल्दी तैयार हो जाए तो अच्छा रहेगा। चाय, कॉफी, ओवल--जो चाहो, फोन पर मँगा लो !"

"सिर्फ चाय, कॉफ़ी या ओवल ही मिलेगी ?"

"जो चाहो में 'वह' भी शामिल है !"

"फिर तो तुम मुझे उमर खैयाम बना दोगे?"

"अच्छा, मुझे देरी हो रही है । दस बजे काल शीट' है !" कहकर गोपाल चला गया।

मुत्तुकुमरन ने 'आउट हाउस' के बरामदे से देखा की सूरज की रोशनी में हरी घास और निखर उठी है। और गुलाब की लाली माधवी के अधरों की याद दिला रही है । अंदर फ़ोन की घंटी बजी तो उसने फुर्ती से जाकर 'रिसीवर' उठाया।

"मैं माधवी बोल रही हूँ !"

"बोलो, क्या बात है "

"अभी 'सर' ने फोन पर बताया था..."

"सर माने...?"

.."अभिनेता सम्राट ! मैं कल से स्क्रिप्ट 'टाइम करने के लिए आ जाऊँगी । मेरे आने की बात सुनकर आप खुश हैं न ?"

"आने पर ही खुश हूँगा।"

दूसरे छोर से हँसी की खिलखिलाहट सुनायी दी।

"टाइप करने के लिए तुम आओगी, गोपाल के. मुँह से यह सुनकर मैंने उसे क्या कहा, मालूम है ?"

"क्या कहा ?"

"सुनकर तुम खुश होगी ! कहा कि जब कथा-नायिका साथ रहकर 'हेल्प' करेगी तो मैं नाटक जल्दी लिख डालूँगा।"

"यह सुनकर मेरे दिल पर क्या बीत रही है, यह आप जानते हैं ?"

"सुनाओ तो जानूँ !"

"कल वहाँ आने पर ही बताऊँगी !" वह चुटकी लेकर बोली। उधर से फ़ोन रखने की आवाज आयी तो मुत्तुकुमरन् रिसीवर रखकर मुड़ा। द्वार पर हाथ में एक लिफ़ाफ़ा लिये छोकरा नायर खड़ा था ।

"क्या है, इधर लाओ!" मुत्तुकुमरन् के कहने पर वह अंदर आया और लिफ़ाफ़ा देकर चला गया।

लिफ़ाफ़ा भारी और बंद था । ऊपर मुत्तुकुमरन् का नाम लिखा था । मुत्तुकुमरन ने बड़ी फुर्ती से उसे खोला तो उसमें से दस रुपये के नये-नये नोटों के साथ काग़ज़ का एक छोटा-सा पुर्जा भी निकला।

मुत्तुकुमरन ने पढ़ने के लिए पुर्जा निकाला तो उसमें दो ही चार पंक्तियाँ लिखी हुई थीं। नीचे गोपाल के हस्ताक्षर थे। मुत्तुकुमरन ने एक बार, दो बार नहीं, कई वार उसे पढ़ा । उसके मन में एक साथ कई विचार आये। मुत्तुकुमरन ने इस बात का पता लगाने का प्रयत्न किया कि गोपाल उसे अपना घनिष्ठ मित्र मानकर प्यार से पेश आता है या जीविका की खोज में शहर की शरण लेने वाले व्यक्ति के साथ नौकर-मालिक का-सा व्यवहार करता है ? मुत्तुकुमरन्' ने पहले यह समझा कि पैसे के साथ आये हुए उस पत्र के सहारे गोपाल का मन आँक लेगा। पर यह उतना आसान नहीं था। सोचने-विचारने पर उसे ऐसा ही लग रहा था कि पत्र बड़े स्नेह और प्यार के साथ ही लिखा हुआ है।

यह गली बिकाऊ नहीं : चार

'प्रिय मुत्तुकुमरन्

बुरा न मानना। साथ के रुपयों को अपनी जेब-खर्च के लिए रखता । आवश्य- कता पड़ने पर, मैं शहर में रहूँ या न रहूँ, खर्च के लिए पैसों की जरूरत पड़े तो इस नये शहर में तुम किससे मांगोगे और कैसे मांगोगे ? तुम्हें तकलीफ़ न हो—इसी सद्भावना से इसे मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ !"

इतना लिखकर गोपाल ने अपना दस्तखत भी किया था।

उस पुर्जे को पढ़ने और उत्त रुपयों को देखने पर मुत्तुकुमरन् असमंजस में पड़ गया कि अपने मित्र के इस कृत्य पर गुस्सा जताए या स्नेह ? अपनी माली हालत जताने के लिए उसने इस तरह पैसा भेजा है. एक ओर यह विचार उठकर उसका गुस्साबढ़ाता तो दूसरी ओर दूसरा विचार हावी हो जाता नहीं । बेचारा तुम्हारा इतना ख्याल रखता है ताकि पैसे की तंगी से तुम जरा-सी भी तकलीफ़ में न पड़ जाओ।

'ठहरले को जगह, खाने को भाजन और लिखने की सुविधा--इन सारी व्यवस्थाओं के बाद मुझे पैसे की क्या ज़रूरत पड़ेगी ? पैसा बयों न लौटा दिया जाये ?'-इस विचार को त्रियान्वित करते हुए भी उसका जी हिचका । ऐसा करने पर मित्र के दिल को चोट पहुंचे तो क्या हो ?

उसने उस लिफ़ाफ़े को रुपयों की गड्डी और उस पुर्जे को, दराज में इस तरह घुसेड़ दिया, मानो कोई बेकार का बण्डल हो।

उस विचार को दूर ढकेलकर उसने अपना जी नाटक रचना की ओर लगाया। मद्रास जैसे बड़े महानगर में गोपाल जैसे सुप्रसिद्ध अभिनेता द्वारा खेले जानेवाला नाटक का प्रणेता होकर नाम-यश लूटने का उसे अच्छा-खासा मौका हाथ लगा है। इससे ख ब फ़ायदा उठाना है--इस निर्णय तक पहुँचने पर उसके मन में यह बात आयी कि मदुरै कन्दस्वामी नायुडु की सभा के लिए लिखे हुए बाल विनोद नाटकों और अब गोपाल के लिए लिखे जानेवाले नाटक में कौन-सा मौलिक भेद होना चाहिए। ताकि तकनीक, रूप-विधान, संवाद, घटना- खला, हास्य आदि हरेक पहलू तथा स्थान और काल की दृष्टि से भी नाटक विश्वसनीय लगे।

वार-बार उसका ध्यान नाटक-लेखन के विषय में जिस तरह सोचने लगा था, उसका कारण यह नहीं कि उसे नाटक, संवाद या गीत लिखना नहीं आता था। इस कला में तो वह निपुण और सिद्धहस्त था ही। उसे एक नये संसार में अपनी कला का प्रदर्शन कर कामयाबी हासिल करनी थी। इतने सोच-विचार, असमंजस और संकोच के पीछे यही विचार घर किये हुए था।

मद्रास में कदम रखते-न-रखते, उसने यह आशा नहीं की थी कि उसके मित्र के द्वारा ही उसे ऐसा एक मौका मिलेगा। इस मौके का फायदा उठाकर सफल कदम रखने की ओर उसका ध्यान एकाग्र हुआ । वह मन-ही-मन उस पर योजनाओं की इमारत खड़ी करने लगा।

सबेरे नौ बजे छोकरा नायर इडली और कॉफी ले आया और बोला, "सर, आपका नाश्ता तैयार है।"

"साहब हैं या स्टूडियो चले गये?" मुत्तुकुमरन् "अभी नहीं गये । दस मिनट में जाएँगे !" उत्तर में लड़के ने यह भी जोड़ा कि साहब का हुक्म है कि आपकी हर जरूरत का ख्याल रखा जाये।

मुत्तुकुमरन् नाश्ता कर कॉफी पी रहा था कि टेलिफ़ोन की घंटी बजी।

बँगले से गोपाल बोल रहा था।

"मैं स्टूडियो जा रहा हूँ उस्ताद ! जो चाहो, लड़के से कहकर निस्संकोच मँगा लो ! बाद को स्टूडियो से फोन करूंगा। नाटक जरा जल्दी तैयार हो जाए तो अच्छा!"

"सो तो ठीक है लेकिन लिफ़ाफ़े में जो कुछ भेजा हैं, समझ में नहीं आता कि उसका क्या मतलब है. ! क्या तुम मुझे यह दिखाना चाहते हो कि वह तुम्हारे पास बहुत अधिक पैसा है ?"

"नहीं-नहीं, ऐसा मत कहो । यों ही जेब-खर्च के लिए रखना अपने पास !" "कोरा काग़ज़ हो तो उसपर कविता लिखी जा सकती है। यह तो छपे हुए रुपयों का नोट है ! यह मेरे किस काम का ?"

मुत्तुकुमरन् की बात सुनकर दूसरी ओर से गोपाल खिलखिलाकर हँस पड़ा और बातें पूरी कर शूटिंग के लिए चल पड़ा।

मुत्तुकुमरन् के अहंकार से परिचित होने के कारण ही गोपाल ने लिहाज़ की दृष्टि से भी स्टूडियो देखने या शूटिंग देखने को उसे नहीं बुलाया । वह यह भी जानता था कि बाहर से पहली बार मद्रास आनेवाले लोग स्टूडियो देखने के प्रति जितना उत्साह दिखाते हैं, उतना मुत्तुकुमरन् नहीं दिखायेगा।

दोपहर के बारह बजने के पहले माधवी ने चार-पाँच बार, बात बेबात पर मुत्तुकुमरन् को फ़ोन कर दिया था।

मदुरै रहते हुए मुत्तुकुमरन् इस बात से वाकिफ नहीं था कि टेलीफ़ोन इतना सुविधाजनक और आवश्यक साधन है । आधुनिक जीवन में मद्रास जैसे शहर में अब उसे भली-भाँति पता चल गया कि यह कितना जरूरी साधन है। जीवन की रफ्तार में भी मदुरै और मद्रास के बीच बड़ा फ़र्क था।

पगडंडी पर चलने का आदी, एकाएक कारों और लारियों से खचाखच भरे महानगरके चौराहे पर आ जाए तो जैसे लड़खड़ा जाएगा वैसे ही उसे अपने को सँभालना पड़ रहा था। आमने-सामने बातें करते हुए जो स्वाभाविक बोली बोली जाती है, रोष या हँसी-खुशी प्रकट की जाती है, टेलीफ़ोन में उसे वैसी बात करना नहीं आया । तस्वीर खिंचवाते हुए जो कृत्रिमता आ जाती है, टेलिफ़ोन में बातें करते हुए भी वैसी ही कृत्रिमता आ जाती थी। लेकिन गोपाल या माधवी के बोलने में बड़ी स्वाभाविकता नजर आयी। उनकी तरह बोलने का उसका मन कर रहा था। अनेक बातों में वह गर्व से चूर था तो क्या ! मद्रास के वातावरण में कुछ बातों में उसका गर्व चूर हो रहा था।

काफी सोच-विचार के बाद भी वह यह निर्णय कर नहीं पाया कि क्या लिखा जाए ? नहाकर कपड़ा बदला और दोपहर का भोजन भी समाप्त किया।

गोपाल ने स्टूडियो से फ़ोन किया, "उस्ताद ! तीन बजे तैयार रहो । हमारे नये नाटक के संबंध में बात करने के लिए शाम को चार-साढ़े चार बजे मैंने सारे प्रेस रिपोर्टरों को बुलाया है । एक छोटी-सी चाय-पार्टी भी है। बाद में, सभी तुमसे नये नाटक के विषय में अनौपचारिक बात करेंगे। कुछ सवाल भी करेंगे। तुम्ही को जवाब देना होगा। समझे ?"

"अभी नाटक तैयार ही नहीं हुआ है। उसके पहले इन सब बातों की क्या जरूरत है ?"

"इस शहर में यह रिवाज-सा है । अग्निम प्रचार है और क्या ? गाली भी दो तो भी नाश्ता-कॉफ़ी और चाय-पान के साथ लोग सुन लेंगे !"

"धीरे-धीरे मुझे मद्रास के जीवन के लिए तैयार करना चाहते हो ! है न ?"

"हाँ, किसी न किसी दिन तैयार तो होना ही है !"

"यह सब तो एक नाटक लगता है।"

"हाँ, नाटक ही तो है !"

"कौन-कौन आएँगे?"

"सिनेमा के संवाददाता, मशहूर कथाकार, संवाद-लेखक, निर्देशक, हमारी नाटक मंडली के लिए चुने गये लोग और अभिनेता तथा अभिनेत्रियों में से भी कुछेक आएँगे !"

"मुझसे भी कुछ पूछेगे ? क्या पूछेगे ?"

"क्या पूछेगे? यही कि नाटक का कथानक क्या है, कब तैयार होगा और . कैसे तैयार होगा ? कह देना कि यह तमिळ प्रदेश के महत्त्वपूर्ण स्वर्णिम युग को चित्रित करनेवाला महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटक होगा । ऐसा नाटक तमिळ प्रदेश में ही नहीं, समूचे भारत में भी तैयार नहीं हुआ होगा !"

"सवाल और सवाल का जवाब तुम्हीं ने मुझे सिखा दिया ! है न बात सच्ची ?"

"हाँ, तुम जो भी जवाब दो, महत्त्वपूर्ण शब्द जरूर जोड़ देना, बस !"

"अच्छा, तो यह कहो कि महत्त्वपूर्ण गोपाल नाटक मंडली का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटक 'महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत होगा।"

"दिल्लगी छोड़ो ! मैं सीरियसली कह रहा हूँ।

'यहाँ तो दोनों में कोई फ़र्क मालूम नहीं होता। पता ही नहीं लग पाता कि कौन-सी बात गम्भीर है और हल्ली-फुल्की बातें भी कैसी गम्भीरता से कही जाती है।"

"अच्छा, छोड़ो उन बातों को ! तुम तैयार रहो । मैं तीन बजे आ जाता हूँ !

माधवी को भी जरा जल्दी आने के लिए फ़ोन किया है।" गोपाल ने बात पूरी की।

मुत्तुकुमरन को गोपाल पर आश्चर्य हो रहा था-- मद्रास आने पर गोपाल ने जीवन को कितनी तेजी से पढ़ा है ! ऐसी दुनिया-

दारी उसने कब सीखी और कहाँ से सीखी? इसने समयोचित ज्ञान किससे सीखा और कैसे सीखा ? समय के अनुसार सारा प्रबन्ध करने की राजनैतिक चाणक्य- वृत्ति को कला-जीवन में भी उतारना कोई ऐसा-वैसा काम नहीं है ! गोपाल इसमें सच ही बड़ा निष्णात है !

सबेरे नाटक लिखने को कहना और शाम को पत्रकारों को बुलाकर विज्ञापन के लिए रास्ता निकालना, उसे लगा कि शहरी जीवन में कामयाबी हासिल करने के

लिए यह सामर्थ्य और फुर्ती ज़रूरी है। गोपाल की कार्य-चातुरी देखकर उसने महसूस किया कि किसी योग्य कार्य को निपटाना मात्र काफी नहीं, चार जनों को बुलाकर दावत खिलाना और झख मारकर यह मनबाना भी जरूरी है कि मैंने जो किया, वही श्रेष्ठ है !

दोपहर के दो बजे से पौने तीन बजे तक वह बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। नींद नहीं आयी। छोकरा नायर जो अखबार छोड़ गया था, उसे पढ़ने में वह समय बीत गया।

तीन बजे के आस-पास उठकर उसने हाथ-मुँह धोया और कपड़ा बदलकर तैयार हो गया। किसी ने कमरे के दरवाजे पर धीमी-सी दस्तक दी।

मृत्तकृमरन ने किवाड़ खोला तो वेले की भीनी महक ने उसे सहलाया। माधवी आयी थी, खूब सज-धजकर । होंठों पर लिपस्टिक लगाकर शायद हल्के से उन्हें पोंछ भी लिया था।

मुत्तुकुमरन् ने मुस्कराहट के साथ उसका स्वागत किया, "मैंने समझा कि तुम्हीं होगी।"

"कैसे?"

"किवाड़ पर लगी हल्की दस्तक से ही, जिसको ध्वनि तबले से भी मीठी थी।" "चूड़ियों की झनकार भी सुन पड़ी होगी।"

हाँ कहें या ना—मुत्तुकुमरन् एक क्षण रुका और उसे निराश न करने का निर्णय कर बोला, "हाँ, हाँ! सुन पड़ी थी।"

"कहते हैं कि स्त्रियों की चूड़ियों की झनकार सुनकर कवियों की कल्पना उमगती है। आपको कोई कल्पना नहीं सूझी क्या ?" . इस ढीठ प्रश्न से मुत्तुकुमरन् तनिक अकचका गया और संभलकर बोला, "जब स्वयं कविता ही प्रत्यक्ष हो गयी तो कल्पना की क्या ज़रूरत है माधवी ?"

माधवी उसे आँखों आँखों में देखकर मुस्करायी। अपने साज-शृगार से वह धन-मोहिनी की तरह उसका मन मोह रही थी। मुत्तुकुमरन् भी उसे कुछ इस तरह देख रहा था, मानो आँखों से ही पी जाएगा।

"क्या देख रहे हैं ?"

"देख रहा हूँ कि हमारी कथा-नायिका कैसी है।"

यह सुनकर उसका गुलाबी चेहरा लाल हो गया। द्वार पर किसी के वखारने की आवाज़ आयी। दोनों ने मुड़कर देखा तो गोपाल सिता खड़ा था।

"क्या मैं अंदर आ सकता हूँ।"

"पूछतें क्या हो ? आओ ना !"

"बात यह है कि तुम दोनों बड़ी प्रसन्न मुद्रा में कुछ बातें कर रहे हो ! पता नहीं, इसमें तीसरा भी सम्मिलित हो सकता है कि नहीं। या कि यह दोनों तक ही सीमित है ?"

"दो के बदले तीन ! इसमें क्या फ़र्क पड़ता है ?"

"एक चीज़ में फ़र्क पड़ता है।"

"किसमें?"

"प्रेमियों के वार्तालाप में !"

गोपाल की इस बात को माधवी कहीं बुरा न मान जाए, यह देखने के लिए मुत्तुकुमरन् ने धीरे-धीरे उसके चेहरे को ताका 1 वह हँस रही थी-शरारत भरी हँसी ! लगा कि गोपाल की बात पर वह मन-ही-मन खुश हो रही थी।

गोपाल तो अविवाहित था ही, माधवी भी अविवाहिता धी और स्वयं मुत्तुकुमरन् भी अविवाहित था : तीनों खुल्लमखुल्ला बड़े धैर्य के साथ प्रेम भरी बातें कर रहे थे. प्रेम का नाता जोड़ना चाहते थे। असम्भव को सम्भव बना रहा था, मद्रास का यह कला जगत ! मुत्तुकुमरन् को लगा कि माना सचमुच बहुत आगे बढ़ गया है। पर उसके अनुकूल अपने को ढालने की वह जुर्रत नहीं कर पा रहा था। उसे सब कुछ सपना-सा-लगा।

साढ़े तीन बजे वह, गोपाल और माधवी तीनों बाहर बगीचे में आये । वहाँ चाय-पार्टी के लिए भेजें और कुर्सियाँ लगी थीं । मेजों पर सफेद मेजपोश बिछ थे। उनपर फूलदान और गिलास कलापूर्ण ढंग से बड़े करीने से रखे हुए थे।

एक-एक कर लोग आने लगे । गोपाल ने मुत्तुकुमरन को उनसे परिचय कराया । माधवी मुत्तुकुमरन् के इर्द-गिर्द हँसती-मुस्कराती खड़ी रही । महिला- मेहमान आती तो वह उन्हें लिवा लाती और मुत्तुकुमरन् से परिचय कराती थी। पार्टी में आये हुए एक संवाद-लेखक ने मुत्तुकुमरन को नीचा दिखाने के लहजे में पूछा, "यही आपका पहला नाटक है या इसके पहले भी कुछ लिखा है ?"

मुत्तुकुमरन् ने उसकी अनसुनी कर चुप्पी साधी । पर उसने बड़ी बेपरवाही से अपना वही सवाल दुहराया।

मुत्तू कुमरन ने उसे टोकने के विचार से पूछा, "आपने अपना क्या नाम बताया ? .

"दीवाना !"

"अब तक कितने फिल्मों के लिए आपने संवाद लिखा है ?"

'चालीसेक !"

"शायद इसीलिए जनाब यह सवाल कर रहे हैं !"

मुत्तुकुमरन् की बात से वह सकपका गया। उसके बाद वह मुत्तुकुमरन् के सवालों का डरते-डरते वैसे ही जवाब देने लगा, जैसे शिक्षक के सामने छात्र । यह देखकर माधवी पुलकित हो रही थी। मुत्तुकुमरन के अंहकार और गर्व पर वह फूली न समायी । वह उसपर जान देने को तैयार हो गयी।

चाय-पार्टी के बाद गोपाल उठा और मेहमानों को मुत्तुकुमरन् का परिचय देते हुए बोला-

"मुत्तुकुमरन् और मैं वायस् कंपनी के समय से ही अभिन्न मित्र हैं । मेरा जाना-पहचाना पहला कवि मुत्तुकुमरन ही है । उन दिनों 'बायस् कंपनी के दिनों में हम दोनों एक चटाई पर सोते रहे । मैं उसे 'उस्ताद' के नाम से पुकारता था । अब भी कई बातों में वह मेरा उस्ताद है । उसके सहयोग से मैंने यह नाटक मंडली शुरू की है । मैं यकीन दिलाता हूँ कि यह कई महत्वपूर्ण सफल नाटक प्रस्तुत कर दर्शकों के दिलों में स्थान पायेगा । इसके लिए आप लोगों का पूर्ण सहयोग और प्रेम चाहिए ,

बस !"

उसके इस परिचय-भाषण के बाद कुछ पत्रकारों ने गोपाल और मुत्तुकुमरन को एक साथ खड़ा किया और फ़्लैश फोटो खींचा।

इस प्रकार, उन्हें तस्वीरें उतारते देखकर मुत्तुकुमरन ने जरा परे खड़ी माधवी को बुलाकर उसके कानों में कहा, "लगता है, इस तरह हम दोनों को साथ खड़ाकर कोई फ़ोटो नहीं लेगा!"

"तो क्या, हम खुद ही खिचवा लेंगे !"---कहकर माधवी हँसी।

उसका यह उत्तर मुत्तुकुमरन को बहुत अच्छा लगा।

वाद को गोपाल ने मुत्तुकुमरन् से विनती की कि वह भी मेहमानों को कुछ सुनाये।

मुत्तुकुमरन् बात-बात पर मेहमानों को हँसाता हुआ बोला । दो-तीन मिनट में ... ही वे उसके वशीभूत हो गये । उसको हँसी-मजाक भरी बातों से श्रोताओं का बड़ा मनोरंजन हुआ।

"मैं मद्रास के लिए नया हूँ!"-इन शब्दों से उसका भाषण शुरू हुआ और आधे घंटे तक जारी रहा । मेहमान मंत्र-मुग्ध-से रह गये । पार्टी के अंत में माधवी ने एक गाना गाया: 'मेरी आँखों से मेरे मन में समा जाओ।'

मुत्तुकुमरन् को लगा कि वह उसी के स्वागत में ये पंक्तियाँ गा रही है। उसने पाया कि उसे गाने गाना भी अच्छी तरह आता है। मधुर स्वर में दिल को जीत लेने वाले गीत को सुनकर वह उसपर मुग्ध हो गया।

पार्टी के बाद विदा लेते हुए सब लोग पहले गोपाल और बाद को मुत्तुकुमरन् से हाथ मिलाकर विदा हुए। मुत्तुकुमरन् से विदा लेते हुए कोई भी उसके भाषण की तारीफ करना नहीं भूला। मुत्तुकुमरन को इतनी जल्दी लोगों के दिल में स्थान मिल गया, यह देखकर गोपाल फूला नहीं समाया।

सबके जाने के बाद मुत्तुकुमरन् ने माधवी से कहा, "वाह ! तुम तो बहुत खूब गाती हो ! मैं तो सुनकर अवाक रह गया !"

"गाना ही नहीं, भरत-नाट्यम् भी इसे बहुत अच्छा आता है !" गोपाल ने कहा।

यह सुनकर माधवी कुछ इस तरह झेंप गयी, मानो भरत-नाट्यम् की किसी मुद्रा में खड़ी हो।

मुत्तुकुमरन् उसकी हर अदा पर मंत्र-मुग्ध हो गया । जहाँ वह बिना किसी झिझक के बातें करते हुए सुन्दर लगती थी, शरमाती हुई भी सुन्दर लगी। गाते हुए सुन्दर थी, मौन रहते हुए भी सुन्दर थी। हाँ, हर बात पर वह सुन्दरता की पुतली थी!

"आज आपका भाषण बहुत अच्छा रहा !" माधवी भी उसकी तारीफ़ बाँधने में लगी तो मुत्तुकुमरन् ने गर्व में भरकर कहा, "मेरा भाषण हमेशा अच्छा ही होता है।"

"पर मैंने तो आज ही सुना !"

"तुम्हारे इशारे पर तो जब चाहो मैं भाषण झाड़ने को तैयार बैठा हूँ।"

वह हँसी । उसकी चमकीली दंत-पंक्तियों की आभा देखकर वह अपना आपा खो बैठा। स्त्री-सौंदर्य का ऐसा अनुपम चमत्कार उसने देखा नहीं था, केवल काव्यों के वर्णनों में ही पड़ा था।

गोपाल उसके पास आया और बोला, "नाटक अब सौ फीसदी सफल होकर रहेगा!"

"अभी से कैसे कहा जा सकता है ?"

"माये हुए लोग कह रहे हैं ! मैं कहाँ कहता हूँ ?"

"वह कैसे?"

"अगर आदमी पसंद आ गया तो समझो कि उसका सब कुछ पसंद आ गया !

आदमी पसन्द नहीं आया तो उसकी अच्छी-सी अच्छी चीज़ में भी दोष निकालना इस शहर की पुरानी आदत है उस्ताद !" -गोपाल ने कहा।

मुत्तुकुमरन् को यह बात कुछ अजीब-सी लगी। लेकिन उसपर उसने गोपाल से तर्क करना नहीं चाहा। उसी दिन शाम को गोपाल, मुत्तुकुमरन और माधवी को साथ लेकर एक अंग्रेजी फिल्म देखने गया।

थियेटर वाले को पहले ही फोन कर 'न्यूज़ रील' के लगने के बाद वे अपने लिए आरक्षित बालकनी में जा बैठे और अंतिम दृश्य खत्म होने के पहले ही उठ आये । नहीं तो भीड़ गोपाल को घेरकर खड़ी हो जाती और उसे फ़िल्म देखने ही नहीं देती। गोपाल की इस हालत पर मुत्तुकुमरन् को बड़ा ताज्जुब हुआ । सार्व- जनिक स्थानों में भी आजादी से चलने-फिरने न देनेवाली कीर्ति की यह रोशनी मुत्तुकुमरन् को ज़रा भी स्वीकार नहीं थी। मुत्तुकुमरन् उस कोति से घृणा करता था, जो मनुष्य को अपनी कैद में रखे ! पर गोपाल तो खुश नजर आ रहा था ।

मुन्नुकुम रन् ने गुस्से में भरकर पूछा, "यह कीर्ति किस काम की, जो मनुष्य को स्वेच्छा से चलने न दे ?"

गोपाल के उत्तर देने के पहले कार बँगले' पर पहुँच गयी। तीनों कार से उतरे। भोजन के उपरांत मुत्तुकुमरन् अपने 'आउट हाउस' की ओर बढ़ा।

"इन्हें पहुँचाकर आती हूँ !"-माधवी गोपाल से अनुमति लेकर मुत्तुकुमरन् के साथ चली । उस ठंडी-ठंडी रात में माधवी के साथ 'आउट हाउस' चलते हुए मुनुकुमरन् का मन उत्साह से भर गया । उसकी चूड़ियों की झनकार उसके दिल में गूंज उठी । उसको मुस्कान और खिलखिलाहट उसके हृदय को गुदगुदाने लगी। ठंडे बगीचे में रात के द्वितीय पहर में 'रात रानी' की एक लता सफ़ेद फूलों से ऐसी लदी थी, जैसे नीले आकाश में तारे बिखरे हों। उनकी भीनी-भीनी खुशबू और सर्द रात की नुनक में उसका हृदय अनुराग भरा गीत गाने लगा।

यह गली बिकाऊ नहीं : पाँच

चलते-चलते मुत्तुकुमरन् के मन में यह इच्छा लहर मार रही थी कि माधवी. से वहुत कुछ बोले। 'आउट हाउस' की सीढ़ियाँ चढ़कर कमरे में आते ही माधवी ठिठकी। उसकी मुलायम देह अगले ही क्षण मुत्तुकुमरन् के आलिंगन में थी।

"छोड़िये मुझे ! मैं तो आपसे विदा लेने आयी थी!"

"विदा इस तरह भी ली जा सकती है न ?"

उसने उसकी पकड़ से धीमे से अपने को छुड़ा लिया। लेकिन वह फौरन चल देने की जल्दी में नहीं थी । थोड़ी देर बाद वह जाने को उठ खड़ी हुई-

"तुम्हारा जाने का मन नहीं और मेरा छोड़ने का नहीं । इधर बैठो न !"

"नहीं-नहीं, साहब से कह आयी हूँ कि एक मिनट में आ जाऊँगी। शायद शक करें। मुझे जल्दी घर जाना भी है !"

मुत्तुकुमरन् ने अब चूड़ियों वाले उसके गुलाबी हाथ थाम लिये, जो मथे हुए मक्खन-से मुलायम और शीतल थे।

"तुम्हें छोड़ने का मन नहीं होता, माधवी !"

"मेरा भी नहीं होता। लेकिन..." मुत्तुकुमरन् के कानों में उसकी फुसफुसाहट ऐसी पड़ी, जिसके आगे दैवी संगीत भी मात था।

माधवी अनिच्छापूर्वक विदा लेकर चल पड़ी। सर्द रात और मुत्तुकुमरन् अकेले गये। माधवी जहाँ खड़ी थी, वहाँ से बेले की खुशबू आ रही थी। उसने उसे जब अपने आलिंगन में लिया था, तब एक-दो फूल ज़मीन पर आ गिरे थे । उसने उन्हें उठा कर सूंघा तो माधवी की याद फिर से महक उठी । खुली खिड़की से ठंडी हवा का झोंका आया तो उसने किवाड़ बंदकर परदा भी खींच लिया। कुछ देर वाद, टेलिफोन की घंटी बजी। उसने लपककर रिसीवर उठाया ।

"मैं, माधवी ! अभी घर आयी !"

"यह कहने के लिए भी फ़ोन...?"

"क्यों ? मेरा बार-बार बोलना पसन्द नहीं ?"

"मैंने ऐसा कहाँ कहा ? मुझसे लड़ने पर क्यों तुली हो ?"

"मैंने इसलिए फ़ोन किया था कि आप फ़िक्र करते होंगे कि मैं घर पहुँची कि नहीं ! और आप इसे लड़ना कहते हैं !

"मान लो कि मैं ही तुमसे लड़ना चाहता हूँ। पर इस तरह फ़ोन पर नहीं:." "फिर कैसे?"

"आमने-सामने और तुम्हारे गाल पर एक चपत लगाकर कहना है कि मेरी बात मानकर चलो !" . "खुशी से लगाइये ! मैं भी आपसे चपत खाने के लिए उत्सुक हूँ 1"

इस प्रकार उनकी बातें बड़ी देर तक जारी रहीं। किसी को बात बंद करने का मन ही नहीं हुआ। मुत्तुकुमरन् को लगा कि करने को अभी भी ढेर-सी बातें हैं और माधवी को लगा कि अब भी बातें अधूरी रह गयी हैं। फिर भी कितनी देर बातें करें? इसलिए दोनों ने फ़ोन रख दिया ।

हर्षोल्लास से पूर्ण उस शुभ घड़ी में मुत्तकुमरन ने नाटक का श्रीगणेश किया। पाड़िय राजा पर दिल लुटाने वाली एक नर्तकी की कहानी का । मन में खाका-सा खींचकर उसने लिखना शुरू किया । प्रथम दृश्य ही बढ़िया और रोचक बने वह इस कोशिश में लगा रहा । उसमें पांडिय राजा अपने अमात्य, राजकवि और परिवार के साथ नृत्य देखते हैं । नर्तकी के मुख से गवाने के लिए एक गाना भी लिखना था। कथानायिका के रूप में नर्तकी की कल्पना करते हुए उसके अंतः चक्षु के सामने माधवी ही हँसती हुई आ खड़ी होती थी। कथानायक की कल्पना तो उसने की ही नहीं। लाख कोशिश करने और मिटाने के बावजूद कथानायक के रूप में वह स्वयं अपने को ही देख पाता था।

अचानक आधी रात के बाद, पता नहीं कितने बजे होंगे-गोपाल ने उसे फ़ोन पर याद किया।

"अरे यार! यहाँ आओ त ! सोमपात्र तैयार है । जरा मस्ती छानेगे।"

"न, भाई ! अभी मैं लिख रहा हूँ। आधे में छोड़ आऊँ तो फिर म्ड नहीं बनेगा!"

"तो वहीं भेज दूं ?"

"न"न, मुझे छोड़ो..."

"जैसी तुम्हारी मर्जी"-~कहकर गोपाल ने फोन रख दिया। मुत्तुकुमरन् के मन में तो माधवी समायी हुई थी और वह कहीं गहरा नशा चढ़ा- कर लिखवा रही थी। उसकी सांसों में अब भी उसकी देह की सुगंध भरी थी। कनक छड़ी-सी उसकी काया में जी सुकुमारता थी, उसे उसके हाथ अब भी अनुभव कर रहे थे । उससे बढ़कर किसी बनावटी नशे की जरूरत उसे उस समय नहीं पड़ रही थी। उसके हृदय में ही नहीं; शिराओं में भी माधवी ही मदिरा बनकर दौड़ रही थी। वह बड़े यत्न से उसका साज-सिंगार कर, पांडिय राजा के दरबार में नृत्य का आयोजन कराकर स्वयं आनंद में डूबा हुआ था। नृत्य के समय, : पांडिय राज के प्रति नृत्यांगना को जो गाना गाना था, उसका मुखड़ा भी काफ़ी बढ़िया बन आया था।

"मेरे हृदय मंच पर कत नाचते तुम!

तुम्हारे संकेतों पर प्रिय ! नाचती मैं ।"

इस टेक पर मधु मधुर राग चुनकर उसने बहुत सुन्दर गीत रचा था । नृत्य के बोल तो लासानी बने थे। जब वह लेटने को उठा, लब रात के तीन बज रहे थे। आउट हाउस के पास, बगीचे से पारिजात पुष्पों की भीनी-भीनी महक ठंडी हवा में घुली आ रही थी। उस खुशबू को खूब गहरे खींचकर, उसने अंतर में बैठी माधवी की स्मृति को खूब नहलाया और सो गया।

दूसरे दिन सवेरे उसे पता न था कि पौ कब फटी ! उसे बिस्तर छोड़ते हुए नौ बज गये थे। आउट हाउस के बरामदे पर माधवी और गोपाल की-सी आवाज सुनाई दी। शायद माधवी आ गयी है-सोचता हुआ वह गुसलखाने पन्द्रह-बीस मिनट बाद जब वह बाहर आया तो देखा कि छोकरा नायर नाश्ता- कॉफी लिये खड़ा है।

नाश्ते के बाद थर्मस की कॉफ़ी गिलास में उड़ेलकर वह पी ही रहा था कि माधवी यह पूछती हुई आयी, "क्या मुझे कॉफ़ी नहीं मिलेगी ?"

-उसकी प्यार-भरी और आत्मीयतापूर्ण बातें सुनकर मुत्तुकुमरन ने फ्लास्क को उलट कर देखा । उसमें कॉफ़ी नहीं थी। उसके हाथ के गिलास में, उसके पीने के बाद, एक-दो बूंट ही बाकी थी !

"लो, पीओ।" शरारती हँसी हँसते हुए उसके आगे बढ़ाया ।

"मैंने भी तो यही चाहा था!" कहकर उसने उसके हाथ से कॉफ़ी लेकर पी ली।

माधवी की यह सहजता मुत्तकुमरन को बहुत पसंद आयी। साथ ही, उसे इस बात का गर्व भी हो रहा था कि उसने माधवी का मन जीत लिया है। सवा दस बजे नायर लड़का एक खाकी पोशाक वाले के साथ अन्दर आया, जो नया टाइपराइटर लेकर आया था। उसके जाने के बाद माधवी ने मशीन में नया फीता लगाते हुए कहा, "स्क्रिप्ट दीजिये तो मैं टाइप करना शुरू कर दूँ !"

तभी स्टूडियो की ओर रवाना होते हुए गोपाल आया और खुश होकर बोला, "टाइपराइटर तैयार ! तुम्हारी कथा-नायिका तैयार ! अपना नाटक जल्दी तैयार कर दो, मेरे यार !"

"पलला दृश्य ही बहुत अच्छा बन पड़ा है । नाटक की सफलता की निशानी है यह।"

"शाबाश ! जल्दी लिखो । अब मैं स्टूडियो जा रहा हूँ । जाते हुए मैं यह बताने आया था कि शाम को मिलेंगे !" कहकर गोपाल माधवी की ओर मुड़ा और बोला, . "वन प्लस टू, या श्री कॉपी निकालो। बाद में ज़रूरत पड़ी तो और निकाल लेंगे ! इनके नाटक का जल्दी तैयार होना, तुम्हारे प्रोत्साहन पर निर्भर है।"

माधवी ने मुस्कुराते हुए ऐसा सिर हिलाया, मानो अपनी ओर से कोई कसर नहीं उठा रखेगी।

मुत्तुकुमरन् ने जितना कुछ लिखा था, उसे टाइप करने के लिए माधवी के हाथ दे दिया। माधबी पांडुलिपि को उलटते हुए उसकी लिखाई की तारीफ़ करने लगी, "आपके अक्षर तो मोती की तरह सुन्दर हैं।"

"सुन्दर क्यों नहीं होंगे ? बचपन में कितने यत्न से लिखना सीखा है, मालूम है ?" -मुत्तु कुमरन् आत्माभिनान से बोला । "आपका यह आत्माभिमान भी मुझे बहुत पसंद है !"—माधवी ने एक और टाँका लगाया।

"दुनिया में केवल कष्ट भोगने के लिए पैदा होनेवाले आखिरी कवि तक के लिए अपना कहने को कुछ है तो वह उसका आत्माभिमान ही है !"

"कई लोगों में आत्माभिमान होता है। पर वह विरलों को ही शोभा देता हैं।"

"कुलभूषण, विद्याभूषण की तरह यशोभूषण भी होता है !"

"यशोभूषण ! बड़ा प्यारा शब्द है। यश जिसका भूषण है-यही इसका मतलब है न?"

दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यश जिसका भूषण बनकर स्वयं यशस्वी होता है ।" मुत्तुकुमरन् ने अपना पांडित्य दर्शाया ।

माधवी ने एक बार उसकी पांडुलिपि को बड़े गौर से पढ़ा और मुत्तुकुमरन की प्रशंसा करती हुई बोली, "बहुत बढ़िया बना है । नर्तकी के मुख से गवाने के लिए जो गाना लिखा गया है वह तो और बढ़िया है।"

"वह गाना अपने मधुर कंठ से एक बार गाओ तो कान भरकर सुनूं"

"अब मैं गाने लगूं तो आपका आधा घंटा व्यर्थ जाएगा। आपके काम में बाधा पड़ेगी!"

"तुम्हारा गाना सुनने से बढ़कर बड़ा काम और क्या हो सकता है भला?"

माधवी कंठ साफ़ कर गाने लगी:--

"मेरे हृदय मंच पर कत नाच्ने तुम !

तुम्हारे संकेतों पर प्रिय 'नाचती मैं।"

मुत्तुकुमरन् के कानों में मानो मधु प्रवाहित होने लगा। उक्त गीत ने वहाँ ऐसा वातावरण खड़ा कर दिया कि मुत्तुकमरन् माधवी को कथा-नायिका और अपने को कथा-नायक-सा अनुभव करने लगा। उसके शब्द माधवी के कंठ में घुलकर अमृत बहाने लगे तो वह मंत्र-मुग्ध-सा हो गया ! माधवी ने गीत पूरा किया तो लगा कि अमृत-वर्षा थम गयी।

गीत बन्द होने पर ही मुत्तुकुमरन ने दौड़कर गुलदस्ते की तरह माधवी को अपनी बाँहों में भर लिया। उसने भी उसे रोका नहीं। उसके आलिंगन में वह असीम सुख का अनुभव कर रही थी।

दोनों ने दोपहर का खाना आउट हाउस में ही मंगाकर खाया। मेज पर पत्ता बिनकर माधवी ने भोजन परोसा।

"तुम्हारे इस तरह परोसने को किसीने देख लिया तो क्या समझेगा?" "ऐसा किसलिए पूछ रहे हैं ?"

"इसलिए कि हम दोनों को इतनी जल्दी एक होते हुए देखकर, देखनेवाले ताज्जुब और डाह नहीं करेंगे?"

"करें तो करें ! पर मेरे खयाल में ऐसा लगता है कि इस तरह मिलने और एक होने के लिए दुनिया के हर किसी कोने में हर जमाने में-कोई--कोई औरत-मर्द अवश्य उपस्थित रहते हैं।"

"सो तो ठीक है। पर मुझे देखते ही तुम्हारे मन में इतना प्यार क्यों हो आया?"

"यह प्रश्न बड़ा क्रूर और अहंकारपूर्ण हैं। किसी तरह यहाँ आकर, राजा की तरह पैर पर पैर धरे बैठे रहे और मुझे मोह लिया ! अब अनजान बनकर पूछते हैं कि क्यों? वाह रे वाह!"

"अच्छा, तो तुम मुझपर यह आरोप लगाती हो कि मैंने तुम्हें मोह लिया !"

"सिर्फ मुझे नहीं ! पहले गंभीर चाल से अन्दर आकर, फिर पैर पर पैर बढ़ा- कर राजा की भाँति बैठे और कमरे में उपस्थित सभी लोगों को आपने मोह लिया ! लेकिन मुझे छोड़कर आपके पास आने की किसी दुसरी को हिम्मत नहीं पड़ी। और बातें करते हुए मैं ही क्यों, सभी डर रही थीं। सिर्फ मैं ही हिम्मत करके आपके पास आयी और मोह-पाश में बंध गयी !"

"अरे, यह बात है ! इसका मुझे पहले ही पता होता तो तुम्हें अच्छी तरह टोह लेता। इतनी हिम्मत है तुम्हारी?"

"हाँ, क्यों नहीं ! आप जैसे हिम्मतवरों को पाने के लिए थोड़ी-बहुत हिम्मत से काम लेना ही पड़ता है !"

"अच्छा, छोड़ो उन बातों को । लड़का तो एक ही पत्तल लाया है । अब तुम कैसे खाओगी ? एक और पत्ता लाने को कहूँ या इसी टिफ़िन कैरियर में ही जा लोगी?"

"मेरे खयाल में आपने एक ही पत्ता लाने को कहा होगा!"

"नहीं-नहीं ! नाहक मुझपर दोष न थोपो।"

"क्या किया जाए ? इसी पत्ते पर खा लूंगी। सुबह कॉफ़ी पिलाते हुए भी आपने यही किया था। दूसरों को गुलाम बनाकर ही तो आपका अहम् तुष्ट होता "ऐसी बात न कहो माधवी ! मैंने तुम्हें अपने हृदय में सौन्दर्य की रानी बना- कर बैठाया है। तुम अपने को गुलाम बताती हो । तुम्हीं कहो, दासी कहीं रानी बन सकती है ?"

"आपने मुझे रानी का पद दिया है। इसीसे प्रमाणित होता है कि दासी भी रानी बन सकती है।"

बातें करते हुए माधवी ने बड़े प्रेम से उसे खिलाया और उसके खाने के बाद, उसी पत्ते पर स्वयं भी खाया। माधवी की प्रेमभरी श्रद्धा के सामने मुत्तुकुमरन् का अहंकार ढहता-सा लगा। माधवी महान् हो गयी और मुत्तुकुमरन् का जी छोटा।

खाना पूरा होने पर, छोकरा नायर बरतन ले गया। माधवी टाइप करने बैठी।

"इन उँगलियों से तुम वीणा के तारों पर कोई रसीला राग छेड़ती रहती तो मैं सुनता ही रहता । तुम्हारी ये कोमल उँगलियाँ जो विशेष कर वीणा-वादन के लिए बनी-सी मालूम होती हैं, टाइप के अक्षरों पर दौड़ते देखकर, इस मशीन के सौभाग्य को सराहने का मन होता है, माधवी !"

"पता नहीं, आप क्या चाहते हैं ? मेरी तारीफ़ करते हैं या खिल्ली उड़ाना चाहते हैं ? आप यही कहना चाहते हैं न कि मेरा वीणा-वादन टंकन जैसा होगा ! टाइप करने की तरह वीणा बजाऊँ तो वीणा के तार टूट जाएँगे । वीणावादन की तरह टाइप करूं तो अक्षर काग़ज पर पड़ेंगे ही नहीं !"

"तुम्हें तो दोनों काम अच्छे आते हैं !" मुत्तुकुमरन् ने कहा। मुत्तुकुमरन् के मन में यह इच्छा हुई कि शाम को माधवी को साथ लेकर समुद्र-तट या बाजार की तरफ़ निकला जाये तो अच्छा हो । उसे लगा कि उसके प्रेम में घुलकर नाटक तैयार किया जाए तो यह और बढ़िया बनेगा। पहला दृश्य पूरा कर, दूसरे दृश्य का भी कुछ अंश वह लिख चुका था। उसने सोचा कि मैं रात को बाक़ी लिख दूं तो सबेरे आकर टाइप करने में उसे सुविधा होगी।

तीन बजे के करीब लड़का दोनों के लिए नाश्ता लेकर भाया।

"कहीं जरा बाहर घूमने जाने की इच्छा होती है । क्या तुम भी साथ चलोगी, माधवी?"

"एक शर्त माने तो..."

"कौन-सी शर्त है ? बताओ तो पहले !"

"समुद्र-तट पर जाकर थोड़ी देर सैर करते रहेंगे। लेकिन लौटते हुए रात का खाना आपको मेरे घर में खाना होगा ! यदि बोलें तो अभी माँ को फ़ोन कर दूं?"

"तुम्हारा घर कहाँ है ?"

"लाइड्स रोड पर ! अपना नहीं, किराये का घर है । एक बंगले का आउट हाउस 1 मैं अपनी मां के साथ वहीं रहती हूँ !"

"गोपाल को नहीं बुलाओगी ?"

"वे नहीं आयेंगे !"

"क्यों?"

"मेरा घर बहुत छोटा है ! किसी दूसरे के बंगले का आउट हाउस। इसके अलावा मैं उनकी नाटक-मंडली में मासिक वेतन पानेवाली आर्टिस्ट हूँ। फिर उनकी हैसियत की समस्या भी तो है। उन्हें मालूम हो गया तो शायद आपको भी मना कर दें।"

"उसके लिए किसी दूसरे आदमी पर रोब जमाये तो अच्छा । मैं किसी की बात पर सिर झुकानेवाला आदमी नहीं । इस बोग रोड के नुक्कड़ पर चाय की एक छोटी-सी दुकान है न? वहाँ भी बुलाओ तो भी खुशी से आने को मैं तैयार हैं।"

माधवी का चेहरा कृतज्ञता से खिल उठा।

मैं खाने पर ज़रूर आऊँगा ! मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है । अपनी माँ को फ़ोन कर दो!"

"जरा ठहरिये ! पहले छोकरे तायर से कहकर बाहर जाने के लिए कार तो निकलवा लूं"

"कोई जरूरत नहीं माधवी ! गोपाल को कार में नहीं, टैक्सी या बस में चला जाय।

"ऐसा करेंगे तो वे नाराज हो जाएँगे। हम कार ले जायेंगे तो वे बुरा नहीं मानेंगे। उन्होंने जाते हुए मुझसे कहा था कि कहीं जाना हो तो ड्राइवर से कहकर छोटी कार ले जाओ!"

"उसकी कार अगर तुम्हारे द्वार पर खड़ी हो तो हो सकता है कि उसका 'स्टेटस' गिर जाय !"

"कुछ नहीं होगा !" कहकर माधवी ने नायर को फोन पर बुलाया और मलयालम में कुछ बोली।

थोड़ी देर में आउट हाउस के द्वार पर एक छोटी 'फ़ियट' कार आ खड़ी हुई। चलते हुए माधवी से मुत्तुकुमरन ने पूछा, "केरल में तुम्हारा कौन-सा गाँव है।"

"मावेलीकर!"

कार पर जाते हुए माधवी ने पहले अपने घर जाने को कहा, ताकि माँ को समुद्र-तट पर जाने की सूचना दे दी जाय।

जन्म से मलयाली होने पर भी माधवी की तमिळ में कोई फ़र्क नज़र नहीं आया। टाइप भी वह अच्छा कर लेती थी। तमिळ को मलयालम या तेलुगु की तरह बोलनेवाली कुछेक अभिनेत्रियों को मुत्तुकुम रन् स्वयं जानता था। माधवी तो हर बात में अपवाद थी । यह कैसे ? मुत्तुकुमरन् को आश्चर्य हो रहा था ।

यह गली बिकाऊ नहीं : छह

एक बड़े बँगले के बगीचे में दाहिने छोर पर, जो 'आउट हाउस' था, माधवी मुत्तुकुमरन् को उसमें ले गयी। घर की बैठक, दालान, रसोई. घर-सब-के-सब बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे थे। बैठक के एक कोने में टेलिफोन रखा हुआ था । घर में माधवी की मां और नौकरानी के सिवा और कोई नहीं था। माधवी ने माँ का मुत्तुकुमरन् से परिचय कराया। माधवी की माँ अधेड़ उम्र की थीं । उनके कानों में मलयाली बालियाँ डोल रही थीं। वह ज़रीदार किनारे वाली धोती-बालरामपुरम नेरियल मुंडु-पहने हुई थीं। बहुत मना करने पर भी कॉफी पिलाये बगैर उन्होंने उन्हें नहीं छोड़ा । मुत्तुकुमरन्' ने तो यहाँ तक कहा था कि हम तो रात का खाना यहीं खाना चाहते हैं ! आप तो कॉफी पिलाकर छुटकारा पाना चाहती हैं ।

चक्कै (कटल), वरुवल् (चिप्स) के साथ कॉफ़ी पिलाकर 'बीच भेजते हुए उसने ताकीद भी की थी कि साढ़े आठ बजे तक भोजन करने आ जाना।

माधवी ने जाते हुए कहा, "एलियंड्स बीच पर भीड़ कम होगी। वहीं जायेंगे।"

पर मुत्तुकुमरन् ने ठीक उसका उल्टा विचार प्रकट किया- "भीड़ से डरने और भीड़ को देखकर भागने के लिए हम दोनों में कोई गोपाल जैसे मशहूर तो नहीं।"

"मेरे कहने का मतलब वह नहीं । मैंने तो बैठकर बातें करने के लिए सहूलियत देखी!"

"जहाँ जाओ, सहूलियत आप ही आप मिल जायेगी। इस सर्दी में कौन समुद्र- तट तक आयेगा?" मुत्तकुमरन ने कहा ।

कार को सड़क पर खड़ी कर दोनों समुद्र की रेत पर पैदल चले । दिसंबर की सर्दी और शाम के झुटपुटे में 'एलियड्स बीच' पर भीड़ ही नहीं थी। एक कोने में एक विदेशी परिवार वैठकर बातें कर रहा था। उनके बच्चे रंग-रंग की गेंदें उछाल-खेल रहे थे।

मुत्तुकुमरन् और माधवी एक साफ़ जगह चुनकर जा बैठे । समुद्र और आकाश सारे वातावरण को रमणीक बना रहे थे।

एकाएक मुत्तुकुमरन् ने माधवी से एक प्रश्न किया, "मावेलिकरै से मद्रास आने और कला के इस क्षेत्र में सम्मिलित होने की क्या आवश्यकता पड़ी और वह भी क्यों और कैसे?

इस तरह अचानक उसके सवाल करने की क्या वजह हो सकती है ----यह जानने की इच्छा से या स्वाभाविक संकोच से माधवी ने उसकी ओर देखा।

"यों ही जिज्ञासा हुई ! न चाहो तो मत बताना।"

"भैया भरी जवानी में मर गया तो हम माँ-बेटी मद्रास चली आयीं । फ़िल्मों के लिए 'एक्स्ट्रा' की भरती करनेवाले एक दलाल ने हमें स्टूडियो तक पहुँचा दिया। वहीं गोपाल साहब से मेरा परिचय हुआ "परिचय हुआ!"

माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया । उसके मन की परेशानी चेहरे पर फूटी । मुत्तु को अपने प्रश्न पर जोर देने की हिम्मत नहीं पड़ी। थोड़ी देर दोनों मौन रहे । फिर माधवी मौन तोड़कर बोली, "इस लाइन में मुझे जो कुछ तरक्की और सुविधा मिली हैं, उसके मूल में उन्हीं का हाथ है।"

"गाँव में तुम्हारा और कोई नहीं है क्या?"

"बाप का साया पहले ही उठ चुका था और जब भाई भी चल बसा तो हम मां-बेटी ही सब कुछ थे !" कहते-कहते उसका कंठ-स्वर सँध गया ।

मुसुकुमरन् को उसकी स्थिति समझते देर नहीं लगी। भरी जवानी में कमाऊ भाई के निधन हो जाने से पेट की चिंता में माँ-बेटी मद्रास आयी हैं । सौंदर्य, शारीरिक गठन, कठ-स्वर आदि से मलयाली होने पर भी साफ़-सुथरी तमिळ बोलने की योग्यता के चलते इसे तमिळ कला-जगत् में स्थान मिला है । इस सुन्दरी माधवी को मद्रास आने और कला-जगत् में प्रवेश पाने तक न जाने क्या-क्या दुख भोगने पड़े होंगे ! यह पूछने का विचार मन में आते हुए भी उसने कुछ पूछा नहीं। हो सकता है, इससे उसके दिल को ठेस पहुंचे और इस प्रकार के असमंजस में डाल दे कि सदा- बहार-सा खिला उसका चेहरा ही न मुरझा जाए । इसलिए बातचीत की दिशा मोड़ने के उद्देश्य से उसने अपने प्रस्तावित नाटक की बात उठायीं । इसे माधवी ने बड़े उत्साह से सुना और अंत में हँसते हुए कहा, "इस नाटक में आप ही कथानायक होकर मेरे साथ अभिनय करें तो बड़ा अच्छा हो !"

वह हँसकर बोला, “नाटक तो इसीलिए तैयार किया जा रहा कि गोपाल कथानायक की भूमिका अदा करे । जड़ को ही हिला दें तो फिर काम कैसे चलेगा?"

“सो तो ठीक है ! पर मेरा जी चाहता है कि आप मेरे साथ अभिनय करें। इसमें गलत क्या है ?"

"नहीं, मैं तुम्हारी बात की गहराई में जाकर, और जोर देकर कहना चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ अभिनय मात्र करना चाहती हो, जबकि मैं तो तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ"-कहते-कहते' मुत्तुकुमरन् भावावेश में बह गया और उसने उसकी फूल-जैसी कलाई को अपने हाथ में ले लिया। माधवी की देह में ऐसी फुरहरी-सी दौड़ी । वह मानो उसी क्षण, उसी जगह, उसकी इच्छा पर अपना तन- मन वारने को तैयार हो गयी हो। उसकी भोली-सी चुप्पी और मोहक हँसी में मुत्तुकुमरन् अपना दिल खो गया।

बहुत रात गये तक वे समुद्र-तट पर बैठे रहे।

"खाना ठंडा हो जायेगा, अब चलें!" माधवी ने याद दिलाया तो मुत्तुकुमरन् ने शरारत भरी हँसी के साथ कहा-"यहाँ तो नवरस भोजन परसा है जबकि वहाँ तो षड्रस भोजन ही मिलेगा !"

"संवाद-लेखन के मुकाबले आपकी बातचीत ही अधिक अच्छी है।" "वह कला है ; यह जीवन है। कला से बढ़कर जीवन अधिक सुन्दर और स्वाभाविक होता है !"

बातें करते हुए दोनों वापस लौटे।

माधवी के घर में रात का भोजन मलयाली ढंग से तैयार हुमा था ! नारियल के तेल की महक आ रही थीं। कमरे में फैली चंदन-बत्ती की सुरभि, माधवी की वेणी में लगे बेले. की खुशबू और फिर रसोई की सुगंध ने मिलकर विवाह-गृह का- सा वातावरण पैदा कर दिया था।

डाइनिंग टेबुल सादे किन्तु सुरुचिपूर्ण ढंग से सजी थी। माधवी की माँ ने यह कहकर दोनों को खाने की मेज़ पर बैठा दिया कि खाना वही परोसेंगी।

इधर माधवी की मां परोस रही थीं और उधर मुत्तुकुमरन् आसपास गे चित्रों पर नजर दौड़ा रहा था । एक चित्र ठीक वहाँ लगा था जहाँ आँख उठाते उसपर दृष्टि पड़े बिना नहीं रह सकती । उस चित्र में अभिनेता गोपाल और माधवी हँसते हुए खड़े थे 1 यह किसी चल-चिन का 'स्टिल' था। उसपर मुत्तुकुमरन् की नजर को बार-बार जाने देखकर माधवी असमंजस में पड़ गयी । वह नाहक किसी सन्देह में नहीं पड़ जाए-इस विचार से माधवी ने कहा, "मणप्पेण (वधू) नामक एक सामाजिक फ़िल्म में मैंने नायिका की सहेली की भूमिका की थी। यह उसी का एक दृश्य है, जिसमें गोपाल जी मुझसे मिलकर बात करते हैं।"

"अच्छा ! उस दिन इन्टरव्यू के दौरान मैंने यह समझा था कि तुममें और गोपाल में कोई परिचय नहीं है। सबकी तरह तुम भी नयी-नयी आयी हो ! तुम तो बताती रही कि तुम्हारे मद्रास आने पर, उनकी मदद से ही तुम तरक्की कर सकी।"

"नाटक-मंडली की अभिनेत्रियों की गोष्ठी में यद्यपि उन्होंने पहले ही मुझे चुनने का निर्णय कर लिया था, फिर भी नियमानुसार मुझे भी ‘इण्टरव्यू' में सम्मिलित होने को कहा था। इसलिए मैं भी उस इन्टरव्यू में अपरिचित-सी बन- कर शामिल हुई थी!"

"लेकिन. सहसा मेरे पास आकर, बहुत दिनों की परिचित की तरह बड़े स्वाभाविक ढंग से बातें करती रही !"

उसने उत्तर बातों से नहीं, मुस्कुराहट से दिया।

भोजन बड़ा ही स्वादिष्ट और सुगंधित बना था। पुलिचेरि, एरिचेरि, बक्कै प्रथमन् (कटहल से बनी खीर), अवियल् आदि विशिष्ट मलयाली व्यंजन परोसे गये। बीच-बीच में माधवी कुछ कहती तो उत्तर देने के लिए मुत्तुकुमरन् सिर उठाता। सिर उठाते ही वह चिन उसकी आँखों से जा टकराता। माधवी ने इसे ताड़ लिया।

उस एक चित्र के सिवा, बाकी सारे चित्र देवी-देवताओं के थे। गुरुवायूरप्पन, पळनि मुरुगन, वेंकटाचलपति आदि के चिन्न थे। उनमें यही एक चित्र उसकी आँखों में खटकता था। माधवी ने उसके दो-तीन मिनट पहले ही भोजन समाप्त कर लिया । इसलिए उसकी अनुमति से हाथ धोने उठ गयी।

उसके बाद हाथ धोकर आनेवाले मुत्तुकुमरन को उस अथिति-कक्ष में एक आश्चर्य देखने को मिला । वह चित्र, जिसमें गोपाल और माधवी हँसते हुए खड़े थे, वहाँ नजर नहीं आया । भुत्तुकुमरन ने अनुमान से जान लिया कि माधवी ने चित्र को वहाँ से हटा दिया है। वह बिना कुछ बोले, मन-ही-मन खुश थी और मुस्कुराती खड़ी थी। मुत्तुकुमरन ने पूछा, "उस चिन को वहाँ से क्यों दिया?"

"लगा कि आपको पसन्द नहीं है। इसलिए।"

"मेरी हर पसन्द और नापसन्द का ख्याल रखना कहाँ तक संभव है ?"

"संभव-असंभव की बात छोड़िए। मैं तो आपको नापसन्द आनेवाली चीज़ों से भरसक दूर रखना. वाहती हूँ ।"वह फलों और पान-सुपारी से भरी तश्तरियाँ उसके आगे रखती हुई बोली । उसे लगा कि माधवी के अकूत प्रेम को संजोने के लिए उसका दिल बड़ा छोटा है । उसने देखा कि माधवी घड़ी-घड़ी उससे अकारण ही शर्मिन्दा हो रही है। वह चलने लगा तो माधवी उसे मावळम तक पहुँचाने को तैयार हो गयी । पर उसने मना करते हुए कहा, "तुम आओगी तो फिर गोपाल की 'लौटना होगा । ड्राइबर को नाहत दुबारा परेशान होना पड़ेगा !"

"आपको पहुँचाकर वापस आने से दिल को तसल्ली होगी !"

"रात के वक्त तुम बेकार तकलीफ़ उठाओगी। सवेरे तो हम मिलने ही वाले हैं।"

"अच्छा तो फिर आपकी मरजी, मैं नहीं आती!"

मुत्तुकूमरन् ने माधवी की माँ से विदा ली। वह तो स्नेहमयी दृष्टि से देख रही थीं।

माधवी ने द्वार तक आकर विदा किया। रात के साढ़े नौ बज रहे थे । कार के रवाना होने के पहले, दरवाजे की ओट में माधवी मुत्तकुमरम् के कानों में फुसफुसायी-

"हमारे समुद्र-तट की सैर की बात वहाँ किसीसे मत कहियेगा।"

जानते हुए भी अनजान बनकर, मुत्तुकुमरन् ने पूछा, "वहाँ-माने कहाँ ?"

उसके जवाब देने के पहले कार चल पड़ी।

मुत्तुकुमरन् को माधवी का उस तरह कहना पसन्द नहीं आया । गोपाल को मालूम हो भी गया तो क्या हो जायेगा? माधवी गोपाल से इतना क्यों डरती है ? इस सवाल का जवाब उसी के मन ने दिया, 'बिना किसी कारण के, माधवी इतनी सावधानी नहीं बरतती। हाँ, गोपाल उसके जीवन का मार्ग-दर्शक रहा है। उसके प्रति आदर भाव और भय को गलत नहीं कहा जा सकता।'

तर्क-वितर्क के बावजूद, उसके मन को इसका समाधान नहीं मिला कि चलते समय, कानों में आकर इतनी घबराहट के साथ उन शब्दों को कहने की क्या जरूरत थी?

जब वह बँगले पर पहुंचा, तब गोपाल घर में नहीं था । मालूम हुआ कि वह अल्जीरिया से आयी हुई किसी कला-मंडली का नृत्य देखने अण्णामलै मन्ड्रम गया हुआ है। मुत्तुकुमरन् को इतनी जल्दी नींद भी नहीं आयी। उसने सोचा कि कम-से-कम एक घंटा लिखकर सोने जाये।

लिखना शुरू करने से पहले, उसने जो कुछ लिख रखा था, एक बार पड़ा। माधवी उसकी पांडुलिपि की टंकन-लिपि तैयार कर छोड़ गयी थी। इसलिए उसे पढ़ने में बड़ी सहूलियत हुई। उसको शुरू से आदत थी कि पहले के लिखे हुए अंशों को बार-बार पढ़े और तब आगे के अंश लिखे।

वह लिखते हुए यह सोचता हुआ लिख रहा था कि अण्णामल मन्ड्रम से लौटने पर गोपाल उसे फोन पर बुला भी सकता है। लेकिन लिखकर सोने जाने तक पता नहीं चला कि गोपाल लौटा कि नहीं।

मवेरे उठकर मुत्तुकुमरन् कॉफ़ी पी रहा था कि गोपाल वहाँ आया। "कहो, उस्ताद ! सुना कि कल शाम को बहुत धूम-फिर कर आये ! एलियड्स बीच, फिर दावत ! एकाएक एकदम व्यस्त...।"

गोपाल के बोलने के तरीके और हँसने के ढंग में तनिक व्यंग्य नजर आया तो मुत्तुकुमरन् एक-दो क्षण के लिए बिना कोई उत्तर दिये चुप रहा!

"तुम्हीं से पूछ रहा हूँ! माधवी से घंटों बातें कर सकते हो, पर मेरे साथ बोलने का मन नहीं करता क्या ? जवाब क्यों नहीं देते ?"

इस दूसरे सवाल में मुत्तुकुमरन को भौर भी तीखा व्यंग्य नजर आया। उसके सवाल में यह ध्वनि सुन पड़ी कि बिना कहे और बिना पूछे तुम लोगों को बाहर धूमने जाने की हिम्मत कहाँ से आयी ?

आगे चुप्पी साधना उचित नहीं, इस नतीजे पर पहुंचकर मुत्तुकुमरन् ने किसने कहा तुम्हें ? यों ही जरा बाहर घूम आने का जी किया तो हो आये, कहा, बस!"

बात यहीं पूरी नहीं हुई, वह जारी रही।

"सो तो ठीक है ! तुम्हारे या माधवी के न कहने से मुझे पता नहीं चलता-- यही सोचा था न तुमने?"

"पता चल भी गया तो फिर अब क्या करोगे ? सिर उड़ा दोगे?"

"ऐसा करूं तो मेरे सिर पर बत आयेगी !"

यद्यपि दोनों ऊपर से खेल-तमाशे की बात कर रहे थे, पर दोनों के दिल में कोई चीज़ रड़क रही थी, काँटे की तरह, जिसे दिल की दिल ही में रखकर दोनों नाज-नखरे से काम ले रहे थे।

मुत्तुकुमरन के विचार से गोपाल ने अपणामले मन्ड्रम से रात को लौटने पर या सबेरे उठने पर ड्राइवर से पूछकर यह सब जान लिया होगा। फिर भी गोपाल के मुंह से उसने यह जानने का प्रयत्न नहीं किया कि उसने यह कैसे जाना?

गोपाल ने बात बदलते हुए पूछा, "नाटक किस स्थिति में है और कितने पन्ने लिखे जा चुके हैं !"

बिना कोई उत्तर दिये, मुत्तुकुमरन् ने मेज की ओर इशारा किया, जिस पर उसकी पांडुलिपि और माधवी की टंकिल लिपि रखी हुई थी। गोपाल उठाकर इधर-उधर से पढ़ने लगा। पढ़ते हुए बीच-बीच में वह अपनी राय भी देने लगा।

"लगता है. नाटक के मंचन में काफ़ी खर्च करना पड़ेगा। दरबार आदि के अनेक दृश्य बनाने होंगे। अभी से शुरू करें, तभी ये सब वक्त पर पूरे होंगे। 'कास्टयूम्स्' का खर्च, अलग से होगा।"

मुत्तुकुमरन ने उसकी राय काटने या मानने की कोशिश नहीं की। बस, चुपचाप सुनता रहा।

थोड़ी देर बातें करके गोपाल चला गया। बातों के बीच गोपाल ने नाटक की तारीफ़ करते हुए कहा था कि शुरू सचमुच ही बढ़िया और सुन्दर बना है। मुत्तु- कुमरन् को उसकी तारीफ़ गहरी नहीं, सतही लगी।

उस समय उसके दिल को कोई दूसरा विषय कुरेद रहा था। अपने घर आकर ठहरे हुए मेहमान के विषय में, अपने यहाँ पगार पानेवाले कार ड्राइवर से यह पूछने वाला मालिक, कि वे कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं, किससे मिलते हैं और क्या बात करते हैं, कितना संस्कारी होगा?' ऐसी पूछ-ताछ का शिकार बननेवाले मेहमान के प्रति ड्राइवर क्या आदर भाव दिखायेगा ? उसके दिल में ऐसे ही विचार दौड़ रहे थे। हो सकता है कि गोपाल ने रात को या सवेरे माधवी ही को फोन कर पूछ लिया होगा।" यह विचार तो आया । लेकिन फिर लौट गया कि यह सम्भव नहीं है। क्योंकि माधवी ने स्वयं इस विषय में मुत्तुकुमरन् को आगाह कर भेजा था। इस सूरत में गोपाल के सवालों का उत्तर उसने टाल-मटोल करते ही दिया होगा।

गोपाल एकाएक मुत्तुकुमरन के लिए कोई अनबूझ पहेली हो गया था।

मुझे अपने खर्चों के लिए कोई कष्ट न हो----इस उद्देश्य से हजार रुपये भेजने- वाला दोस्त एक छोटी-सी बात के लिए इतने रूखे व्यवहार पर क्यों उतर आया है ? मुझे बाहर धूमने जाने का, या माधवी को मुझे अपने घर खाते को बुलाने का अधिकार नहीं है क्या ? इसके लिए यह क्यों इतना उद्विग्न हो उठा है ? इतनी तूल क्यों देता है ? शायद इसे यह वहम हो गया है कि माधवी ने मुझसे ऐसी कुछ बातें कही होंगी, जिन्हें अपने विषय में बह रहस्य समझता हो। क्या उस सन्देह का आमने-सामने निराकरण न कर पाने की वजह से ही वह इस तरह धुमा-फिराकर पूछ रहा है ? ---इस तरह मुत्तुकुमरन् के दिल में विचारों पर विचार उठ रहे थे।

सुबह का नाश्ता आने के पहले नहा-धो लेने के विचार से बह स्नानागार में घुसा । ब्रश करते, नहाते, शरीर पर साबुन लगाते, गोपाल के सवालों ने उसका साथ नहीं छोड़ा।

'शवर' बंदकर, शरीर पोंछकर, बाथरूम से ड्रेसिंग रूम में आया तो कमरे के बाहर उसे टंकनध्वनि और चूड़ियों की झनकार सुनायी दी। उसने समझ लिया कि माधवी आ गयी है । उसके आने की राह देखे विना और उसके लिए ठहरे बिना, आते ही माधवी ने टाइप करना शुरू कर दिया तो उसे लगा कि दाल में कुछ काला ज़रूर है।

कपड़े बदलकर वह बाहर आया तो उसने देखा कि माधवी गुमसुम बैठी हैं । उसके बाहर आने पर उसने टाइप करना बंद नहीं किया, न ही कुछ बोली। चुप- चाप टाइप किये जा रही थी। मुत्तुकुमरन् समझ गया कि गोपाल ने माधवी से भी बातें की हैं । अन्यथा माधवी में यह कृत्रिम गंभीरता नहीं आती। पास जाकर उसके टाइप किये हुए काग़ज़ उसने उठाये । तब भी बिना बोले माधवी टाइप करने में लगी रही।

"माधवी ! नाराज हो क्या? कुछ बोलती क्यों नहीं ! क्या आज मौन व्रत है ?" माधवी का मौन-भंग करने के लिए उसने बात छेड़ी।

टाइप करना बंदकर वह उसकी ओर मुड़ी और जैसे अचानक फट पड़ी, "मैंने आपको कितना आगाह किया था, लेकिन आपने सारी बातें गोपालजी से कह दी। यह मुझे क़तई पसन्द नहीं है !"

माधवी के संदेह और क्रोध का कारण अब मुत्तुकुमरन् की समझ में आ गया। पर उसका एक काम पसन्द नहीं आया। उसने कितनी जल्दी उसके बारे में अपनी धारणा बदल ली और सारी बातें उगल दीं। गुस्से में उसकी भौंहें तन गयीं और आँखें लाल हो गयीं!

यह गली बिकाऊ नहीं : सात

मुत्तुकुमरन् के विचार यही था कि स्त्रियों की बुद्धि पीठ-पीछे होती है । आखिर उसके विषय में माधवी के मन में संदेह क्यों उठा? इसका कारण एक हद तक वह जानता था । उसके मन में आया कि अपने प्रत्युत्तर से करारी चोट करे।

"तुम जैसे कायरों का काम है यह । मैं क्यों ऐसा करूँगा?"

माधवी ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी उँगलियों ने टाइप करना बंद कर दिया। वह चुपचाप सिर झुकाये वैसी ही बैठी रही। उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा । जब वह उसका मौन बर्दाश्त नहीं कर पाया तो तनिक ठंडा होकर बोला, "बताओ तो सही कि क्या हुआ?"

माधवी ने कहा, "अभी आप ने जो कुछ कहा, उसे दुहराइये तो सुनूं !" "मैंने क्या कहा ? कुछ गलत तो नहीं कहा !" "बात क्यों छिपाते हैं ? क्या आपने यह नहीं कहा कि तुम जैसे कायरों का काम है वह !".

"हाँ ! कल रात को तुम्हारे घर से चलले हुए मेरे कानों में तुमने जो कुछ कहा, वह मुझे कतई पसन्द नहीं है।"

"मैंने क्या बुरा कह दिया?"

"तुमने किसी के डर के मारे ही कहा था न कि समुद्र-तट की सैर की बात .. वहां न कहिएगा!"

"डर और सावधानी में फ़र्क होता है !"

"तुम इन दोनों का फ़र्क मुझे समझा रही हो?"

"जल्दबाजों और तुनुकमिजाजों को कितना भी समझाओ वे समझेंगे नहीं !"

मुत्तुकुमरन् बातचीत के इस रूखे दौर से उकताकर बोला, "बात-बात पर झगड़नेवाले बूढ़े मियां-बीवी की तरह हम कब तक लड़ते रहेंगे?"

यह उदाहरण सुनकर माधवी का गुस्सा काफूर हो गया और वह खिलखिला- कर हँस पड़ी। मुत्तुकुमरन् कुर्सी पर बैठी उसके कंधों पर हाथ रखकर झुकने को हुआ तो माधवी बोली, "चुप भी रहिए, जनाब ! काम करनेवालों से खिलवाड़ ठीक नहीं!"

"यह भी तो काम ही है !"

"पर गोपाल जी ने इस काम के लिए हमें यहाँ नहीं बिठाया ! फटाफट लिखिये ! नाटक जल्दी तैयार करना है। नाटक के प्रथम मंचन में अध्यक्षता के लिए मिनिस्टर से 'डेट' ले लिया गया है !"

"इसके लिए मैं क्या करूँ?"

"यही कि जल्दी लिख डालिए। बाद में अध्यक्षता करने के लिए मंत्री जी नहीं मिलेंगे !"

"इतनी जल्दी ही पड़ी थी तो मंत्री जी से ही नाटक लिखवा लेना चाहिए था।"

"नहीं ! बात यह है कि आज सवेरे आते ही उन्होंने कहा कि इधर-उधर घूमना छोड़कर पहले नाटक लिखवा लो । मंत्री महोदय से अध्यक्षता करने के लिए 'डेट' ले लिया है।"

"ओहो ! तुम यह समझकर मुझ पर नाराज हुई होगी कि 'बीच' पर जाने की बात मैंने ही गोपाल को बतायी होगी ! आज सुबह उठते ही वह मेरे पास आया और हमारे 'बीच' पर हो आने की बात छेड़ी तो मैंने क्या समझा, मालूम ? मेरा शक तो तुम्हीं परं गया कि तुम्हीं ने गोपाल को फोन किया होगा। असल में उसने ड्राइवर से पूछ-ताछ कर यह सब मालूम किया है।"

"वे बातें जाने दीजिए । अपना काम कीजिये !"

"जाने कैसे दूं ? वह भी इतनी आसानी से ? जबकि बात यहाँ तक बढ़ चुकी है।"

"बाद में हम अकेले में बैठकर इन बातों पर विचार करेंगे। अब जिल-जिल' के संपादक कनियळकन् के साथ गोपाल बाबू यहाँ आने वाले हैं । हम सब नाटक के लिए दृश्यावली चुनने के लिए आर्टिस्ट अंगप्पन के यहाँ जा रहे हैं ?"

"गोपाल तुमसे कह गया है क्या?"

"हाँ, अभी थोड़ी देर में वह जिल-जिल के साथ आयेंगे !"

"यह जिल-जिल कौन है ? बरफ़ की कोई फैक्टरी' चलाता है क्या ?"

"नहीं ! 'जिल-जिल' नाम से फ़िल्मी पत्रिका निकालते हैं। अंगप्पन के बड़े दोस्त हैं !"

"और हमारे गोपाल इन दोनों के बड़े दोस्त हैं ! यही न?"

"हाँ ! गोपाल के इशारे पर कितने ही स्टूडियो बाले बढ़िया सीन और सेटिंग तैयार कर देने को तैयार हैं। उन सबको छोड़कर ये अंगप्पन के हाथ सिर दे रहे हैं। वह इन्हें बढ़ा चढ़ाकर तंग कर छोड़ेगा।"

"बह जाये तो जाये ! हमें जाने की क्या ज़रूरत है ?"

"हो न हो, हमें गोपाल बाबू नहीं छोड़ेंगे। साथ लेकर ही जाएँगे !' "मेरे ख़याल में तो हम दोनों को जाने की कोई जरूरत नहीं ! तुम्हारा क्या -- ख़याल है ?"

"वह कुछ अच्छा नहीं होगा ! कल की बात पर ही वे जल-भुन रहे हैं ! आज हम दोनों जाने से इनकार करें तो यह ज़ख्म पर नमक छिड़कनेवाली बात हो जाएगी। इसलिए आपको भी जाना ही चाहिए। अगर आप ह करेंगे तो भी मुझे जाना ही पड़ेगा । नाहक मनमुटाव क्यों बढ़ाएँ ?"

“मगर मैं तुम्हें रोकूँगा तो क्या करोगी?"

"समझदार होंगे तो नहीं रोकेंगे !"

"तो क्या मुझे नासमझ समझती हो?"

"नहीं ! मैं आपकी. हर बात मानने को तैयार हूँ और इस बात पर भी विश्वास करती हूँ कि मुझ पर दबाच डालते हुए मुझे मना नहीं करेंगे और मेरे प्रेम को कसौटी पर नहीं कसेंगे।"

"अच्छा ! फिर तो मैं चलता हूँ। जिल-जिल और अंगप्पन को मुझे भी देखना चाहिए न?"मुत्तुकुमरन् ने उसका मन न दुखाने के विचार से मान लिया तो माधवी ऐसी खुश हुई, मानो अपने आराध्य देवता से कोई अभीप्सित वर पा लिया हो !

"आपकी उदारता पर मुझे बड़ा गर्व होता हैं !"

"मेरी प्रतिभा किसी के आगे नहीं झुकती ! पर तुम्हारे आगे...?" कहते- कहते उसके होठों पर मुस्कान खेल गयी।

इसी समय गोपाल जिल-जिल' कनियळकन के साथ वहां आया और उसका परिचय कराते हुए बोला, "आप हैं 'जिल जिल' के सम्पादक कनियळकु और आप मुत्तुकूमरन्, मेरे बड़े प्यारे दोस्त ! हमारे लिए एक नया नाटक लिख रहे हैं।"

दिसंबर का महीना, सरदी का मौसम ! तिसपर जिल-जिल साहब दिल को ठंडक पहुँचाने पधारे हुए हैं । शायद इसीलिए तन-मन ठिठुर रहा है !" मुत्तुकुमरन् के. मुंख से यह ताना सुनकर माधवी होंठों ही होंठों में मुस्करा पड़ी।

"मुत्तुकुमरन् साहब तो बड़े विनोदी हैं ! बात-बात में हास्य का रस फूटता है !" जिल-जिल कुछ इस तरह आश्चर्य करने लगा, मानो हास्य पर प्रतिबंध लगे किसी टापू से आ रहा हो।

जिल-जिल के तन पर धोती और कुरता कुछ इस तरह शोभायमान थे, मानो वे शरीर पर नहीं, 'हंगर' पर लटक रहे हो। हाँ, वह बड़ा दुबला-पतला था ! होंठों पर पान की लाली, उँगलियों में सुलगती सिगरेट, हाथों में उससे कहीं भारी चमड़े का बैग लिये और हल्की-सी कूबड़ के साथ वह इस तरह खड़ा था—जैसे कोई प्रश्न-चिह्न !

"इसने कुरता पहना है या कुरते ने इसे पहना है ?" मुत्तुकुमरन् ने माधवी के कानों में कहा तो वह अपनी हँसी नहीं रोक सकी।

"उस्ताद कौन-सा पटाखा छोड़ रहे हैं ? भी तो मालूम हो !"

गोपाल ने पूछा तो माधवी ने किसी नाटक के हास्य की बात उठाकर बात टाल दी।

"कल आपसे मुलाकात कर मैं "जिल-जिल' में एक भेंट-वार्ता छापना चाहता हूँ। गोपाल साहब' बता रहे थे कि आप बड़े 'जीनियस' हैं।" जिल-जिल ने मुत्तुकुमरन् की खुशामद करनी शुरू कर दी।

थोड़ी देर बाद वे चारों आर्टिस्ट अंगप्पन से मिलने चल पड़े।

अंगप्पन की चित्रशाला चिंतातिरिपे में पुराने ढंग के एक मकान में थी। उसके मातहत चार-पाँच नौसिखुवे काम कर रहे थे। मकान की दीवारों पर सूई भर भी ऐसी जगह नहीं बची थी, जहाँ रंग के धब्बे न लगे हों।

भीड़ से बचने के लिए कार को उस मकान से सटकर खड़ा किया गया और चारों उतरकर अंदर चले आये।

"देखा, अंगप्पन ! तुम्हारे द्वार पर कितना बड़ा मशहूर 'ऐक्टर' लिबा लाया।

हमारे तमिल के महाकवि कवर ने मावंडूर चिंगन के बारे में एक कविता लिखी है कि उसके लोहारखाने में आकर त्रिमूर्ति तपस्या करते हैं कि वह एक अच्छी-सी कलम बना दें ताकि कोई महान् कवि उनकी स्तुति में कालजयी स्तोत्र रच दे। वैसे ही तुम पर भी यह लागू हो सकता है । आज ऐसे. ही बड़े-बड़े आदमी तुम्हारे द्वार पर आये जिल-जिल की इन बातों से लगा कि उन दोनों में कितनी घनिष्ठता है !

कानों में खोंसी हुई पेंसिल से खेलते हुए अंगप्पन ने उनका स्वागत किया।

उसके स्वागत-भाषण में बीते जमाने की कन्हैया कंपनी के स्वर्ण युग के रंगीन सुन्दर दृश्यबंधों से लेकर, चितातिरिपेटे में मिलती रही सस्ती 'काफ़ी' की तस्वीरें तक उभर आयी थीं।

"उन दिनों रामानुजुलु नायुडु की कंपनी में बलराम अय्यर नाम के एक सज्जन थे, जो स्त्री की भूमिका निबाहा करते थे। स्त्री वेश में तो वह हू-ब-हू इन देवी की तरह नजर आते । उनकी बोली में कोयल कूकती और हँसी में मोती झरते।"

अचानक अंगप्पन ने माधवी की प्रशंसा में बेतुकी तुक जोड़ी।

"हमारे गोपाल साहब भी मदुरै के एक बड़ी बाय्स कंपनी में पहले स्त्री की भूमिका ही किया करते थे !" जिल-जिल ने अपने हिस्से की तुकबंदी में भी कोई कसर नहीं रखी।

.. गोपाल को उसकी इस बात से रस नहीं आया, उल्टा गुस्सा ही आया । अपने उस गुस्से पर हास्य पोतते हुए उसने कहा, "लगता है कि जिल-जिल साहब सब कुछ भूल जाएँगे; पर मेरा स्त्री-पार्ट उन्हें नहीं भूलेंगे ! अजी, तुम्हारा दिल हमेशा स्त्रियों पर ही क्यों मँडराता रहा है ?"

माधवी और मुत्तुकुमरन् एक-दूसरे को देखकर मन-ही-मन मुस्कराये।

"मुत्तुकुमरन् साहब मशहूर कविराज की परंपरा के एक बड़े कवि हैं। अब हमारे गोराल साहब की कंपनी के लिए नाटक लिख रहे हैं। गीत-रचना में भी बड़े निपुण हैं !" जिल-जिल की करुणा की धारा भुत्तुकुमरन् पर बहने लगी तो अंगप्पन ने बात का एक छोर पकड़ लिया--"आहा ! वह जमाना अब कहाँ से लौटेगा भला ! जब किट्टप्पा मंच पर आकर 'कायात कानकम्' (पुराने समय का गाना गानें लगते तो सारी सभा झूम उठती । हाय, कैसा गला पाया था उन्होंने ! वह जमाना ही दूसरा था !'

जिल-जिल ने जो कुछ कहा था, उसका गलत अर्थ निकालकर, गायक और गीतकार का फर्क न जानते हुए, अंगप्पन ने किट्टप्पा की तारीफ़ करनी शुरू कर दी. थी। विवश होकर मुत्तुकुमरन् को उसकी बकवास सुननी पड़ी !

बात काटकर गोपाल ने अपनी ज़रूरत के दरबार, नंदन वन, राजवीथि और राजमहल जैसे दृश्यबन्धों की बात चलायी तो अंगप्पन ने अपने पास पहले ही से तैयार कुछ नये 'सोन' दिखाने शुरू किये।

गोपल ने मुत्तुकुमरन् से पूछा कि हमें कैसे-कैसे दृश्यों की जरूरत पड़ेगी? पर उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही वह अंगप्पन और जिल-जिल से इस बात में लग गया कि हमें अमुक-अमुक दृश्यों की जरूरत पड़ेगी। मुत्तुकुमरन् को उसका यह बर्ताद पसंद नहीं आया । लेकिन वह चुप्पी साधे रहा। दस मिनट के बाद, गोपाल ने मुत्तुकुमरन् की सलाह दोबारा चाही तो वह बोला, "जो-जो सीन तुम खरीदोगे, उसके अनुसार ही कहानी गढ़ लें तो बड़ा बस्छा रहेगा!"

उसकी बातों के पीछे जो तीखा व्यंग्य था, उसे समझे बिना गोपाल बोला,-

"हाँ, कभी-कभी ऐसा भी करना पड़ जाता है !"

मुसुकुमरन को गुस्सा आया । पर उसे पीकर वह चुप रह गया। गोपाल की बड़ाई करते हुए जिल-जिल ने अंगप्पन से कहा, "अंगप्पन, तुम्हें मालूम हो या न हो, हमारे गोपाल शाहम के इशारे पर कितने ही स्टूडियो वाले 'सीन-सेटिंग' तैयार कर उनके दरवाजे पर भिजवा देंगे। लेकिन हमारे गोपाल बाबू बाय्स कंपनी में काम कर चुके हैं। इसलिए चाहते हैं कि तुम जैसे नाटक-कंपनियों के लिए सीन-सेटिंग तैयार करनेवालों से ही दृश्य खरीदें।"

"हाँ-हाँ, खुशी से खरीदें ! मेरा भी नाम होगा । साथ ही, महालक्ष्मी-सी देवी जी आयी हैं। उनकी कृपा से लक्ष्मीजी की कृपा हन पर बरसेगी !" अंगप्पन बिला वजह माधवी की तारीफ़ में लगा रहा ।

"इसकी आँखों में तुम्हें छोड़कर और कोई नहीं गड़ा मुत्तुकुमरन् ने माधवी के कानों में कहा ।

थोड़ी देर में अंगप्पन के पास जितने नये-पुराने 'सीन' थे, सब देख लिये गये। सौदे की बात बली । अंगप्पन ने आये हुए अभिनेता की माली हालत और मर्यादा को मद्दे-नज़र रखकर भाव बताया। जैसे महल के 'सीन' का मूल्य महल के मूल्य से अधिक बताया, वैसे ही अन्य' सीनों के भी दाम ऊँचे बताये । - गोपाल सोच में पड़कर बोला, "मेरे ख्याल में हम इस दाम में नये सीन 'ऑर्डर' देकर बनवा सकते हैं।"

"आपकी मर्जी ! उसके लिए भी मैं तैयार हूँ!" गोपाल की योजना स्वीकार करते हुए अंगप्पन ने कहा।

नये सीन बनवाने के बारे में फिर से सौदेबाजी हुई। नये सीन बनवाने के लिए अंगप्पन ने जितना समय चाहा, वह गोपाल को मंजूर नहीं था। अतः एक बार फिर उन्हीं बने-बनाये दृश्यों पर मोल-तोल हुआ। जिल-जिल ने दोनों ओर की वकालत कर किसी तरह सौदा तय किया।

उन्हें वहाँ से चलते हुए दोपहर हो गयी थी । एक बज चुका था । जिल-जिल ने उस दिन गोपाल के साथ गोपाल के यहाँ खाना खाया । 'डाइनिंग टेबुल पर गोपाल, जिल-जिल और मुत्तुकुमरन् बैठे तो खाना परोसने को रसोइया आगे बढ़ा। उसे मना करके गोपाल ने माधवी को आदेश दिया कि भोजन वह परोसे।

मुत्तुकुमरन् को यह बात नहीं भायी। उसने चाहा कि माधवी उसके इस आदेश को नकार दे। मुत्तुकुमरन् ने देखा कि गोपाल अधिकार-लिप्सा में अन्धा होकर एक औरत से क्या-क्या काम करा रहा है ! उसी से नायिका की भूमिका, गाना गवाना, टाइप कराना. और अब खाना परोसवाना भी यह अन्धेर नहीं तो क्या है ?

मुत्तुकुमरन ने जैसा चाहा, माधवी वैसा इनकार नहीं कर सकी। वह उत्साह के साथ खाना परोसने लग गयी। माधवी की यह ताबेदारी मुत्तुकुमरन को गंवारा. नहीं हुई। उसका चेहरा उतर गया। जैसे उसकी हँसी उड़ गयी। माधवी ने खाना परोसते हुए मुत्तुकुमरन का यह मनोभाव पढ़ लिया ।

गोपाल और जिल-जिल अट्टहास करते हुए खा रहे थे । मुत्तुकुमरन् गुमसुम बैठा खा रहा था । उसका मौन देख कर जिल-जिल ने गोपाल से पूछा, "मुत्तुकुमरन् साहब, हमारी बातों में शामिल क्यों नहीं होते ?"

"वह शायद किसी कल्पना-लोक में उड़ रहे होंगे !"-गोपाल ने कहा। उन दोनों को अपने बारे में बोलते हुए देखकर भी मुत्तुकुमरन् ने मुंह नहीं खोला।

गोपाल ने हाथ धोने के लिए 'वाश बेसिन' तक हो आने की जरूरत को परे रखकर जैसे सुस्ताते हुए यह आदेश दिया कि एक मटका पानी लाओ ! मुत्तुकुमरन् ने समझा कि नायर छोकरा पानी लायेगा। पर यह क्या ? लाल रंग के एक प्लास्टिक बरतन में हाथ धोने के लिए स्वयं माधवी पानी ले आयी थी। वह डाइनिंग टेबुल के पास आकर हाथ में पानी लिये खड़ी हुई और गोपाल वहीं बैठे- बैठे बरतन में ही हाथ धोने लगा । मुत्तुकुमरन का मन क्षोभ से भर गया।

यह खातिरदारी अपने तक सीमित न रखकर गोपाल ने जिल-जिल और मुत्तुकुमरन् से कहा, "आप लोग भी इसी तरह धो डालिये।" जिल-जिल ने इनकार कर दिया। मुत्तुकुमरन् यह कहते हुए उठा कि मुझमें वाश-वेसिन तक जाने की शक्ति अब भी है !

गोपाल के अभिमान को देखकर मुत्तुकुमरन् क्रोध और क्षोभ से भर गया था। भोजन के थोड़ी देर बाद, गोपाल और जिल-जिल चल। । जाते हुए जिल-जिल कहता हुआ गया, "एक दिन आपसे मुलाक़ात के लिए फिर आऊँगा !"

मुत्तुकुमरन् ने मुंह खोलकर कुछ नहीं कहा । सिर हिलाकर विदा कर दिया। फिर आउट हाउस में जाकर अपने काम में डूब जाना चाहा। माधवी अभी नहीं आयी थी। उसे लगा कि भोजन करके आने में कोई आधा घण्टा लगेगा। उसकी प्रतीक्षा में मुत्तुकुमरन् लिखने का कोई काम कर नहीं पाया ।"

यह सोचते-सोचते कि माधवी में यह दास-बुद्धि कहाँ से आयी ? उसकी सहनशक्ति जवाब दे गयी । माधवी तो उसके लिए प्राणों से भी प्यारी थी! गुलामों की तरह वह दूसरों की सेवा करे, यह उसे गवारा नहीं हुआ।

गोपाल को तो चाहिए था कि माधवी को साथ बिठाकर खिलाये ! पर उसने यह क्या किया ? उसने उसे अपना हुक्म बजाने को बाध्य किया था ! उसकी इस महत्त्वाकांक्षा से उसे चिढ़ हो गयी । उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि गोपाल इतना क्रूर और निर्दयी निकलेगा। वह इन विचारों में लगा हुआ था कि माधवी एक हाथ में चाँदी की तश्तरी में पान-सुपारी और दूसरे में फलों की तश्तरी लिये हुए आयो।

"आपके लिए पान-सुपारी लाने अन्दर गयी थी! तब तक आप चल पड़े थे !" "जूठे बरतन उठाने वाले हाथ पान-सुपारी लायें तो मैं कैसे ग्रहण करूँ?"

"लगता है कि आप मुझपर नाराज हैं ! मैंने खाते हुए ही देख लिया था !"

"नाराज न होऊँ तो क्या करूँ ? तुम तो गोपाल से बहुत डरती हो !"

"आप मेरी स्थिति में होते तो क्या करते ? पहले सोचिए फिर बताइयेगा।"

"वह घमंड में चूर है तो चूर रहे ! मैं पूछता हूँ, तुम क्यों इतना दबती हो?

खाना परोसना तो एक बात हुई ! पर जूठे बरतन क्यों उठा लायी ?"

"मैं इस स्थिति में क्या कर सकती हूँ ?"

"कुछ नहीं कर सकती हो तो डूब मरो ! गुलाम ही दुनिया में नरक का सृजन करते हैं !"

"सच पूछिये तो मैंने अपने दिल को एक ही व्यक्ति का गुलाम बनाया है। वह भी मुझ पर गुस्सा उतारे तो मैं क्या करूं ?"

"तुमने जिस पर अपना दिल निछावर किया है, तुम्हें चाहिए कि ऐसा काम करो, जिससे उसका सिर ऊँचा हो। न कि तुम्हारे कामों से उसका सिर नीचा हो! पर तुम्हारे काम ऐसे कहाँ हैं ?"

माधवी की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला तो मुत्तुकुमरन् ने आँख उठाकर देखा। ?

माधवी की सुन्दर आँखें छल छला आयी थीं।

"तुम्हें कहने से कोई फायदा नहीं ! उस बदमाश के कान उमेठकर पूछना चाहिए कि नृत्य और गायन तो अनूठी कलाएँ हैं। उनमें पगे-लगे हाथों से तुमने जूठे बरतन कैसे उठवाये ? तुम्हारा सत्यानाश होगा ! तुम देख लेना एक दिन उसके मुँह के सामने पूछता हूँ कि नहीं ?"

मुत्तुकुमरन् जोश में भरकर चीखने को हुआ तो माधवी की मुलायम उँगलियों ने उसका मुंह बन्द कर दिया।

"दया करके ऐसा कुछ न कीजियेगा। मुझे गौरव प्रदान करने के प्रयास में, आपको अपना गौरव नहीं खोना चाहिए !" माधवी ने सिसकी भरी विनती की मुत्तुकुमरन ने सिर उठाकर देखा । माधवी के नेत्रों से मोती ढुलक रहे थे।

यह गली बिकाऊ नहीं : अध्याय (8-14)