ये भी एक ज़िंदगी (उपन्यास) : एस.भाग्यम शर्मा

Yeh Bhi Ek Zindagi (Hindi Novel) : S Bhagyam Sharma

अध्याय 1

तमिलनाडु से महादेव और उनकी पत्नी पार्वती महाराष्ट्र के होशंगाबाद शहर में नौकरी के लिए आए । हिंदी ना जानने के कारण उन्हें बहुत परेशानी हुई । पार्वती अड़ोसी-पड़ोसी से बातें कैसे करें? भाषा की समस्या। पार्वती अकेली कैसे रहेगी? टूरिंग जॉब भी थी अतः पार्वती की छोटी बहन लाली को उनके साथ भेज दिया।

महादेव जी अक्सर टूर पर ही रहते अतः दोनों बहनें ही साथ रहती थी। बाहर ठेले वाला कुछ बेचता तो छोटी बहन लाली जाकर क्या बोल रहा है और क्या चीज है देख कर आती और अपनी बहन को बताती तो उस चीज का नाम लिखकर अपनी भाषा में और हिंदी में लिख लेती। इस तरह पार्वती ने हिंदी सीखने की कोशिश की। अब जब वह प्रेग्नेंट हुई तब पीहर गई। वहां उसने दो महीने के लिए हिंदी सीखने की कक्षा में प्रवेश लिया। होशियार तो वह बहुत थी अत: बहुत जल्दी सीख गई। अब उनके एक लड़की हो गई। अब तो महादेव जी का तबादला नागपुर हो गया। नागपुर बड़ी जगह थी अब उन्हें हिंदी भी काफी आ गई थी। उन्हें बहुत परेशानी नहीं हुई। फिर दो लड़कें और हो गया। इस साधारण परिवार में आर्थिक परेशानियां हुई। पति एक्स्ट्रा काम करके परेशानियों का हल खोज लिया। तीनों बच्चे पढ़ते थे।

उनके बच्चें अच्छे स्कूल में पढ़ते थे। पार्वती और महादेव जी की लड़की ही मैं हूं।

हमारे परिवार में लड़कियां कम होती थी मेरी बुआ एक लड़की थी उनके चार भाई थे। मेरी नानी भी इकलौती थी। इसलिए मैं बड़े लाड प्यार से पली। पिताजी की बहुत लाडली थी। मेरी मां बड़ी स्ट्रिक्ट थी।

मां ने एक बात कह दी तो कह दी उसे सब को मानना पड़ता। ऐसा ही चल रहा था। मुझे और मेरे भाइयों को लगता ऐसे ही सब लोग रहते होंगे। जो अम्मा ने कह दिया वह पत्थर की लकीर थी।

मैं बचपन से ही कुछ डरपोक और दब्बू किस्म की थी। स्कूल में भी दबी-दबी रहती थी। घर में दोनों भाई मुझ पर रोब झाड़ते थे। अम्मा से तो वैसे ही डर लगता था। नागपुर में जब बारिश होती थी तो लाल-लाल कीड़े गुच्छे के गुच्छे इकट्ठा होते थे। मैं उससे बहुत डरती थी। मेरे साथ प्रभा नाम की एक लड़की स्कूल से घर तक साथ आती थी। स्कूल से घर पैदल आने में आधा घंटा लगता था। पूरे रास्ते वह मुझे तंग करती उन कीड़ों को मेरे ऊपर डालती। मेरे बहुत मना करने पर भी वह नहीं मानती। मेरे पास एक सेफ्टीपिन था उसे डराने के लिए मैंने जो से दिखाया। पता नहीं गलती से उसके खरोंच लग गई। वह तमाशा मचाने लगी। मैंने बहुत माफी मांगी पर वह ना मानी मेरी अम्मा को आकर बता दिया। मेरी अम्मा मेरी बात सुने बिना ही उसके सामने मुझे दो चांटे कसके लगाए। मुझे अंदर ही अंदर बहुत पीड़ा हुई। पर अम्मा से हम बहुत डरते थे कुछ कह नहीं सकते थे। उसकी गलती हो तो मुझे बताने का मौका ही नहीं मिला। पहले ही मैं डरपोक और ज्यादा डरने लगी।

मेरी अम्मा बहुत महत्वकांक्षी थी बहुत होशियार भी थी। जो ठान लेती थी उसे करके ही मानती थी।

उस जमाने में वे साइकिल चलाती थी। हमें साइकिल पर बिठाकर ले जाती थी। वह निडर और दबंग थी। पता नहीं मैं कैसे दब्बू रही।

मैं दब्बू लड़की बनकर ही जी रही थी। मेरी मां पूर्ण आत्मविश्वास अपनी बात में अडिंग और एक होशियार महिला थी।

पर पता नहीं क्यों मैं उनसे दबी-दबी ही रही। मुझमें आत्मविश्वास की कमी तो थी ही मुझे लगता मैं मां के सामने कुछ नहीं हूं। पता नहीं ऐसा क्यों था। मेरी उनसे कोई बराबरी तो थी नहीं। भाई लोग तो मुझे हमेशा चिढ़ाते थे बुद्धू है ! दब्बू है ! मूर्ख है ! उनके मजाक को भी मैं सीरियस ले लेती थी । एक दिन मैं अपने हाथों का बनी हुई मोती की माला पहन कर स्कूल गई। सब ने पूछा किसने बनाया। मैंने कहा मैंने बनाया है रंग बिरंगी मोतियों से बना हुआ था। उसने कहा तू बड़ी अक्लमंद है। मैं तो खुश थी। घर आई मैंने यह बात बताई तो मेरा बड़ा भाई बोला "आ... खुश हो रही है मंद मतलब क्या होता है मंदबुद्धि.. समझी।" मुझे बड़ा बुरा लगा। मैं रोने लगी।

हमारी पड़ोस की एक आंटी आई बोली "अरे तू तो बहुत होशियार है इतनी सुंदर माला बनाई हमें भी बना दे।" ऐसे मेरे भाई मुझे परेशान करते थे । मैं इसे समझ नहीं पाती।

ऐसे ही दिन गुजरते जा रहे थे। मां मुझे गर्मियों की छुट्टियों में घर पर ही तमिल सिखाती थी। बहुत गुस्सा आता था। छुट्टियों में भी दिन में सोने नहीं देती थी ।

खैर जिंदगी के दिन ऐसे ही गुजरते रहे। होशियार-बुद्धू, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े सभी के दिन गुजरते ही हैं। मेरे भी गुजरते गए।

मैंने जैसे बताया मैं पढ़ने में होशियार थी तो मां ने मुझे डबल प्रमोशन दिला दिया। अतः उन्होंने मुझे चौथी के बाद पांचवी दो महीने गर्मी की छुट्टियों में घर पर ही पढा कर मुझे दूसरे स्कूल के छठी कक्षा में एडमिशन दिला दिया।

एक साल बचा लया। चौथी कक्षा से एकदम से छठी में पहुंच गई। वही गर्मी की छुट्टियों में ट्यूशन पढ़ाया। जुलाई में एक स्कूल में एग्जाम दिलवाया और मैं पास हो गई। मुझे छठी कक्षा में प्रवेश दिला दिया।

पढ़ने के बारे में तो भाई लोग कुछ कह न सके। पर मेरी अंग्रेजी कमजोर थी। उस पर हंसी उड़ाते थे। हमारे पापा मुझे अंग्रेजी पढ़ाते थे। मेरे पापा भी मेरी हंसी उड़ाते। वे कहते "मेरी बेटी कभी इंग्लिश नहीं बोलेगी अंग्रेजी बोले उसे इंग्लिश बोलने से डर लगता है।"यह मुझे अपनी बेज्जती लगती। पर पापा से क्या कहूं? जब उन्हें पता चलता इसे बुरा लगा तो वह कहने लगते "अरे बेटा इसमें बुरा मानने की कौन सी बात है तुम्हें तो राष्ट्रभाषा अच्छी लगती है। तुम ऐसे क्यों नहीं कहती हो? गर्व की बात है ये कहना चाहिए।"हमारे घर में सारे घरवाले हाजिर जवाब थे। मैं सोच कर जवाब देती थी और घबरा भी जाती थी। मेरी इस कमी का भाई लोग बहुत फायदा उठाते थे । भाई लोग आपस में हंसी-मज़ाक करते और ज़ोर ज़ोर से हँसते तो मुझे लगता क्या बात है पूछने पर वे कहते “तू तो ट्यूबलाइट है देर से समझ में आएगा ।”

अध्याय 2

एक दिन हमारे पिताजी भाइयों को बुला कर कुछ कह रहे थे और मेरे जाते ही चुप हो गए। मुझे तो यह बात बुरी लगी। मैं रोने लगी। पिताजी को मेरा रोना बिल्कुल पसंद नहीं। वे समझाने लगे "रेणुका तुम बहुत सीधी हो। तुम मेरी प्यारी बेटी हो मैं जानता हूं। आज कोई सज्जन आने वाले हैं। मैं उनसे मिलना नहीं चाहता। मैं इन्हें कह रहा था वह आए तो ‘मैं घर पर नहीं हूं कह देना।’ "पर रेणुका तुम तो सीधेपन में कह देती हमारे पापा ने ऐसा कहा है कि वह घर पर नहीं हैं ।"अब इसमें तुम्हारी गलती नहीं है तुम बहुत सीधी हो।"

मेरे घरवालों को मेरी बहुत फिक्र थी। आए दिन मेरे पापा कहते हैं "मेरे बेटों की तो कोई समस्या नहीं है सब संसार रुपी भवसागर पार लगा लेंगे । मुझे तो मेरी बेटी रेणुका की चिंता है। यह तो बहुत सीधी है। इसका क्या होगा?"

यह बातें मुझे बड़ी विचित्र लगती। इनमें क्या है जो मुझमें नहीं है? मैं समझ नहीं पाती!

1957 में नागपुर महाराष्ट्र में चला गया। मध्य प्रदेश बन गया ‌जिसकी राजधानी नेहरू जी ने भोपाल को बनाया । भोपाल में इतनी जगह नहीं थी की सारे सरकारी कर्मचारियों के रहने की समस्या हुई तो कुछ ऑफिसों को थोड़े समय के लिए ग्वालियर को हेड क्वार्टर बनाया गया। महादेव जी का परिवार ग्वालियर आ गया था।

पता नहीं कैसे-कैसे मैं भी आठवीं कक्षा में पहुंच गई।

आठवीं कक्षा में मैं बहुत बीमार रहीं और मुझे टाइफाइड हो गया ।

फिर अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। 15 दिन में जाकर बुखार उतरा। पर दूध ही दूध देते थे। दूध मुझे पचता नहीं था। डॉक्टरों की समझ में नहीं आ रही थी। हफ्ता ऐसे ही निकल गया। खाने को कुछ नहीं देते थे। एक दिन पड़ोस के पलंग पर जो लड़की थी उसकी दादी उससे मिलने आई। मेरी अम्मा से पूछा "आपकी लड़की रेणुका को क्या हो गया। यह तो ठीक दिख रही है?"

"हां इसको टाइफाइड था ठीक हो गया था पर इसको दस्त हो रहे हैं। डॉक्टर कहते हैं जब तक ठीक नहीं होगा हम छुट्टी नहीं देंगे।" उसने पूछा "इसको क्या देते हो ?"

"सिर्फ दूध।"

"इसीलिए तो ऐसा हो रहा है? आप इसे साबूदाने की खीर दे दो। यह लड़की ठीक हो जाएगी।"

अम्मा को बात समझ में आ गई और उन्होंने मुझे साबूदाने की खीर खिलाई। मैं दूसरे दिन ही ठीक हो गई। जो बात डॉक्टरों की समझ में नहीं आई। एक दादी मां ने बता दी। इस तरह मुझे अस्पताल से छुट्टी मिली। 15 दिन का आराम बताया। डेढ़ महीने स्कूल नहीं गई थी। खैर स्कूल का एग्जाम दिया नवीं कक्षा पास हो गई। दसवीं में आ गई। यह बातें 1959 की थी। 1960 में मैंने बोर्ड का एग्जाम दिया देते ही हम भोपाल आ गए। रिजल्ट आया नहीं था। डेढ़ महीने बाद एक दिन एक पत्र आया। वह हमारे पड़ोस के डॉक्टर का था उन्होंने लिखा "कांग्रेचुलेशन्स रेणुका यू आर गेटिंग इन सेकंड डिविजन"। बात मेरे समझ में नहीं आई। मम्मी पापा ने भी सोचा क्या बात है?

उसके दो दिन बाद ही रिजल्ट अखबार में आया। मैं 58% से सेकंड डिवीजन पास हुई थी। मेरे घरवाले खुश हो गए थे क्योंकि नवीं में तो मैं स्कूल जा ही नहीं पाई थी। उस जमाने में ट्यूशन इतने होते भी नहीं थे और हमारी हैसियत भी नहीं थी। अपने आप जो पढ़ा सो पढ़ा।

मेरे भैया बड़े खुश हो गए। भैया इंजीनियरिंग कॉलेज में थे। घर का खर्चा मुश्किल से चल रहा था अब भैया की पढ़ाई कैसे हो? सब परेशान थे मेरा अच्छा रिजल्ट आने पर उन लोगों की उम्मीद जग गई थी। इससे नौकरी कराएंगे ताकि घर की माली हालत सुधरे और भैया की पढ़ाई ठीक से हो सके। उसे ऊपर वाले की कृपा से मुझे दो महीने के अंदर ही सरकारी नौकरी मिल गई।

ऑफिस भी घर के बिल्कुल सामने था । वेतन मुझे हाथ में मात्र 93 रुपये मिलते थे। उसको वैसा का वैसा घर लाकर अम्मा को दे देती। दोपहर को चाय पीने घर आ जाती। पैदल जाती नया पैसा खर्चा नहीं था। मेरी अम्मा ने अपने हाथों से मोतियों का बनाया हुआ एक छोटा पर्स मुझे दे रखा था। महीने के शुरू में उसने वह एक-दो रुपये के खुल्ले डाल देती थी। महीने के आखिर में उसे सब्जी लेने के लिए ले लेती थी क्योंकि महीने के आखिर में सब्जी लेने के पैसे नहीं बचते थे। उस समय मेरी उम्र सिर्फ 17 साल की थी।

पर मेरी अम्मा को फिकर हुई कि रेणुका को सीना-पिरोना नहीं आता सिखाना पड़ेगा। घर के कामकाज तो पहले ही सिखा चुकी थी। अब क्या करें। उनकी किस्मत बड़ी अच्छी थी या मेरी खराब समझो। शाम के समय 7:00 बजे से 9:00 बजे तक सिलाई की क्लास लगती थी उसमें और भी क्लासेस चलती थी। पर अम्मा तो मुझे सिलाई सिखाना चाहती थी ना! उन्होंने मुझे उस कक्षा में डाल दिया।

ऑफिस से आती खाना खाती और तुरंत सिलाई सीखने चली जाती। पैरों की मशीन थी। सिलाई के साथ कढाई भी मुझे सीखना था। उसके फायदे तो मुझे बाद में पता चला। पर उस समय तो मुझे बहुत बुरा लगता। सारे दिन क्या लगा रखा है! पर अम्मा से डर के मारे कुछ कह न पाती।

इस तरह मैंने सिलाई भी सीख लिया। कशीदाकारी भी सीख ली।

अब भैया भी अपनी पढ़ाई पूरी करके इंजीनियर बन गए थे।

मेरी अम्मा को अब चैन नहीं था। वह मुझे अपने पीहर ले गई। मुझे एक महीने की छुट्टी दिलाई।

वहां मेरी नानी अम्मा से चार कदम आगे थी। उन्होंने कहा अब तुम रेणुका की शादी कर दो। मेरी अम्मा ने कहा पैसे तो है नहीं। "अरे अपने गहने डाल दे। बाकी रुपयों की जहां तक बात है उधार ले लेंगे।" मेरी अम्मा ने पिताजी को पत्र लिखा। उन्होंने कहा तुम देख लो अभी क्या जल्दी है?

पर नानी ने ऐसी पट्टी पढ़ाई की मां के समझ में आ गई। मां ने दूसरा पत्र पापा को लिख दिया। उन दिनों फोन तो होते नहीं थे। मोबाइल का तो सवाल ही नहीं। पापा ने एक पत्र और लिखा। इसमें उन्होंने लिखा था कि रेणुका की शादी की कोई जल्दी नहीं है। तुम रेणुका को लेकर वापस आ जाओ । वह पत्र अम्मा को मिला नहीं और हमारी नानी ने जो लड़का देख रखा था उससे मेरी सगाई करने का मन बना लिया।

अध्याय 3

उस जमाने में लड़का-लड़की दिखाने का रिवाज था। उस रिवाज के मुताबिक लड़के वाले मुझे देखने आ रहें थे।

मेरी नानी मुझे कुएं के पास पिछवाड़े में ले जाकर बार-बार समझाने लगी "देख रेणुका लड़के को देखकर तुम मना मत कर देना। तुम्हें पता हैं रेणुका वह कोने वाले घर की लड़की सीमा ने एक लड़के को देखकर मना कर दिया था और आज तक उसकी शादी नहीं हुई। ममता को तो तुम जानती ही हो रेणुका उसने भी लड़का काला है इसलिए मना कर दिया उसे उसके बाद और भी बुरा मिला।”

मैं सिर्फ साढ़े अट्ठारह साल की मुझे इतना ज्ञान नहीं था। वैसे भी मैंने बताया मैं दब्बू और डरपोक किस्म की लड़की थी। मेरी मां मुझे बहुत दबा कर रखती थी‌। नानी से मुझे डरना तो था ही। पापा भी पास में नहीं थे। किसी से क्या कहती! अंदर ही अंदर मैं डरी हुई थी।

लड़का देखने-दिखाने का समय आ गया।

भगवान की दया से मैं दिखने दिखाने में ठीक-ठाक ही थी तो मना करने का सवाल नहीं। पर वह लड़का मुझे अच्छा नहीं लगा। पर मेरी हिम्मत कहां उसे मना कर दूं?

नानी ने पहले ही पट्टी पढ़ा रखी थी मना नहीं करोगी। साहसी तो मैं थी ही नहीं!

अब क्या हो एक भारतीय लड़की को जिस के पल्ले में बांध दो फिर उसे चुपचाप उसके पीछे गाय जैसे चलना होता था। अब भी कोई विशेष अंतर तो नहीं आया है । फिर भी लड़कियां अब हिम्मती हो गई है । होना भी चाहिए ।

मेरी अम्मा ने यह तो कहा था कि मेरे पिताजी को आने दो। पर नानी तो उनसे भी तेज थी और बोल्ड भी। उन्होंने कहा कि "कुछ नहीं होता है हम तो सगाई कर देते हैं। शुभ कार्य में सोचना नहीं चाहिए।" और नानी ने सगाई करवा दी।

पापा का पत्र दो दिन बाद आ गया। तुम शादी-ब्याह की बातों को छोड़कर यहां आ जाओ। अभी रेणुका की शादी की कोई जल्दी नहीं है।

पत्र आते घर में हंगामा हुआ। खैर यहां से दूसरा पत्र अम्मा ने लिख दिया। "यहां तो सगाई हो चुकी है अब शादी की तैयारी करनी है एक महीने के अंदर ही शादी होगी।" यह तो मिलिट्री ऑर्डर था। पर उस समय हमारे घरवालों के समझ में नहीं आई या ना समझने का नाटक कर रहे थे । यह बात मुझे बाद में समझ आई। यह मुझे फँसाने का षड्यंत्र रचा गया था ।

पापा सीधे-सादे उनके चंगुल में फंस गए । मरता क्या न करता। शादी की तैयारियां होने लगी। उन लोगों की मांग बढ़ने लगी। फिर भी नानी वहीं रिश्ता करने पर अड़ी रही। जहां-जहां से उधार लेने की सोची थी सब ने मना कर दिया।

इस बीच एक गुमनाम पत्र आ गया ।

उसमें लिखा था "आपने जिस लड़के के साथ अपनी लड़की की सगाई करी है वह हॉर्ट का पेशेंट है। डॉक्टर ने उसको शादी करने के लिए मना किया है। आपकी लड़की की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।"

इस पत्र को देखकर घर में हंगामा हो गया। लड़के वालों के पास पत्र को ले जाकर दिखाया । "अरे यह तो हमारे किसी दुश्मन की कारस्तानी है । मेरा बेटा तो फुटबॉल का प्लेयर है। हमारे फैमिली के डॉक्टर से पूछ लो।" पापा सीधे-सादे अड़ोसी-पड़ोसी से पूछा सब ने कहा नहीं लड़का बहुत अच्छा है। डॉक्टर ने भी कह दिया लड़के को कोई बीमारी नहीं है । लड़का एकदम तंदरुस्थ है । पापा ने सोचा चलो एक समस्या और हल हो गई। जहां-जहां पर रिशतेदारों से कर्ज मिलने की पापा को उम्मीद थी वहाँ उन्हें निराशा ही हाथ लगी ।

अब पैसे की समस्या तो मुंह बाए खड़ी थी। खैर मेरी नानी ने ज्यादा ब्याज के दर पर व्यवस्था कर दी। "दामाद जी आप भोपाल जाकर रुपये भेज देना। वहां तो इतंजाम हो ही जाएगा । यहां तो ब्याज दर महंगा ही होगा।"

खैर इन सब बातों के होते हुए मेरे मन की बात को किसी ने नहीं पूछी। मैं दोनों तरफ से परेशान थी। एक तरफ पापा पैसों के लिए परेशान हो रहे हैं और दूसरी तरफ लड़के को हार्ट पेशेंट बता दिया था । इसके अलावा पैसों की मांग भी कर रहे हैं। मन बहुत ही व्यथित था। मेरे मन में कोई खुशी नहीं थी। बाल-विवाह होता तो समझ नहीं होती है। मिठाई और गहने की खुशी होती है। यह तो ऐसा भी नहीं था। यह कैसी अनोखी शादी थी!

खैर साउथ में तीन दिन की शादी होती है इस जमाने में भी। ऐसे ही तीन दिन बरात ठहरी। नानी ने बड़े दिल से खर्च किया। वाह-वाही जो लूटनी थी ना! "मुफ्त का चंदन घिस मेरे नंदन" वाली बात थी।

मेरा मन बहुत खिन्न था। पर मैं कुछ कर नहीं सकती थी।

ससुराल की आर्थिक स्थिति बहुत कमजोर थी। ससुर जी बड़े ओहदे पर थे। मेरी सास उनकी दूसरी पत्नी थी। पहली पत्नी मर चुकी थी। पहली वाली के दो लड़के थे। वे सेटल थे। मेरी सास की दो लड़कियां और एक लड़का था। लड़कियां शादीशुदा संपन्न घरों में थी। ससुर जी के देहांत के बाद सास एकदम अकेली हो गई। सबसे छोटा लड़का वह मां के प्यार में बिगड़ा हुआ था। सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी तो थी पर बड़े शहरों में किराए के मकान में रहते हुए तीन जनों का गुजारा बहुत मुश्किल था। मेरी सास संपन्नता में रहीं हुई थी उसका हाथ खुला हुआ था। पर क्या कर सकते हैं जितनी लंबी चादर उतना लंबा ही पैर फैलावो।

पति श्रवण कुमार जैसे एक्टिंग करता था। वहां के रीति-रिवाज, नियम-कायदे, संस्कार, बिल्कुल अलग थे । मैं एकल परिवार में पली-बडी थी । मैंने पहले ही कह दिया मैं डरपोक सीधी डब्बू किस्म की लड़की थी। लोगों की दुअर्थी बातों का अर्थ नहीं समझ सकती थी। लोगों ने मेरे भोलेपन का फायदा उठाया। सामने के घर में ही ननंद रहती थी। उसका भी अपना दखल अंदाजी बड़ा अखरता था। वैसे तो स्वभाव की अच्छी थी। उसका पति हमेशा चाहता ससुराल वाले उसकी जी हुजूरी करें।

खैर मैं उस वातावरण में रह रही थी। एक त्यौहार आया। उसमें उन लोगों को बहुत कुछ पाने की उम्मीद थी । मेरे पिताजी ने रुपए भेज दिए थे। वह रुपए उन लोगों को कम लगे तो पति मुकेश ने उसे वापस भेज दिया।

घरवालों की अनुमति के बिना मैं पत्र नहीं लिख सकती थी यदि लिखू तो उन्हें दिखाना अनिवार्य था । पत्र को वे लोग ही पोस्ट  करते थे । इस तरह मुझे कोई आजादी नहीं थी। मन बहुत ही खिन्न था।

इसके अलावा चूल्हे पर खाना बनता। मुझे बनाने में दिक्कत होती थी। मेरा मजाक बनाया जाता।

अध्याय 4

मेरे पीहर में नल लगे हुए थे। गवर्नमेंट क्वार्टर्स थे। बाथरूम, रसोई और चौक सब में अलग-अलग नल। यहां पर नहाने के लिए नमकीन पानी कुंए से खींच कर भरना पड़ता था। ताजा पानी पीने के लिए हेंडपंप को हाथ से चलाकर पानी निकालना पड़ता था। बहुत ताकत लगती थी। ऐसे काम मैंने कभी किया नहीं था। मैं चुप रहती कुछ नहीं बोलती मां-बाप को भी कह नहीं सकती। ऐसे ही दिन गुजर रहे थे। मुझसे कुछ गलती हो जाती तो सासू मां पति से शिकायत करती तो वह कहते जो चप्पल पैर के लिए ठीक नहीं उसे फेंक देना चाहिए। यह कोई मुहावरा होगा पर मेरे समझ से बाहर था। बार-बार कहने के बाद मेरे समझ में आया।

शादी के छ: महीने हो गए थे तो मेरी मां ने हमें बुलाया। बड़े नखरे के साथ मैं पति के साथ पीहर गई। मैं काफी कमजोर हो गई थी। मुझे देख कर अम्मा और अप्पा को बहुत बुरा लगा। पर वे मुझसे कुछ नहीं बोले। पतिदेव ने अपना चेहरा फूला ही रखा था। मेरे घरवालों ने मुझसे पूछा रेणुका क्यों क्या बात हुई? इसका जवाब में क्या देती! मुझे स्वयं पता नहीं! शायद उन्हें लगा जैसा उनका आवभगत होनी चाहिए जिसकी उन्हें उम्मीद थी वह नहीं हुआ ‌। जबकि मेरे मम्मी पापा ने अपनी हैसियत से ज्यादा ही किया था। इन लोगों की हैसियत से भी ज्यादा किया था। खैर मुझे पीहर में ही थोड़े दिन रहने के लिए छोड़ कर चले गए।

एक महीना हो गया मुझे बुलवाया नहीं? मम्मी पापा परेशान क्या बात होगी? मुझे पता था मेरे ना होने से उनका आर्थिक संतुलन थोड़ा ठीक हो जाएगा यही सोचकर नहीं बुलाया होगा? पर इस बात को एक लड़की अपने मुंह से कैसे कह सकती?

एक दिन मेरी मम्मी ने कहा “रेणुका, तुम मुझे आना है ऐसा पत्र दामाद को लिख दो ।” मुझे यह बात बिल्कुल स्वीकार नहीं थी। अफसोस मरता क्या न करता। पत्र लिखना पड़ा। पतिदेव ने मेरे पिता को पत्र लिखकर कहा कि “मुझे वहां से गाड़ी में बैठा दें तो मैं यहां स्टेशन आकर ले जाऊंगा ।”

खैर यह समस्या भी हल हो गई। फिर जिंदगी अपने ढंग से चलने लगी। उसमें भी रोडा आ गया। पतिदेव के चिकन पॉक्स हो गया। उस समय तो मुझे क्वॉरेंटाइन पता नहीं था। क्वॉरेंटाइन में पतिदेव चले गए। एक ही कमरा उसमें पतिदेव। मैं और मेरी सास रात को तो रसोई में सो जाते पर पूरा दोपहर कहां रहती एक बड़ी समस्या! कभी कुएं के पास कभी बरामदे में कभी पीछे आंगन में ऐसे ही 20 दिन तक समय बिताया। अब कोरोना आया तो क्वॉरेंटाइन क्या होता है मुझे पता था। खैर समय सब का मरहम है। मैं भी थोड़ी-थोड़ी एडजस्ट हो गई। सब ठीक-ठाक चल रहा था। मेरी जिंदगी ऐसे ही है ऐसा मैंने सोच लिया था। अपने आप को इसके अनुकूल डाल भी लिया था।

दिवाली का पर्व आया। बड़े उत्साह से सब कुछ मिठाइयां वगैरह बनी। दक्षिण में नरक-चतुर्थी को ही दिवाली मनाते हैं। असुर के मरने के कारण खुशी में सुबह 3-4 बजे उठकर सब लोग तेल मालिश कर नहाते हैं। अपनी हैसियत के अनुसार सब नए कपड़े पहनते हैं। बच्चों से लेकर बूढ़े तक वहां नए कपड़े पहनने का  रिवाज है। हम लोग भी सुबह जल्दी उठ गए। नहा धो लिए। भगवान को भोग लगा रहे थे। इतने में किसी के गिरने और चिल्लाने की आवाज आई। मेरे पतिदेव भागकर कुएं के पास गए। वहां पर मकान मालिक गिरे पड़े थे। मेरे पति भी उन्हें उठाने गए तो वे भी वहीं गिर गए। मैंने सोचा क्या हो गया? मैं उन्हें उठाने गई पर मुझे उनके पास तक पहुंचने नहीं दिया करंट बुरी तरह से लगने लगा! मैं जोर-जोर से चिल्लाई करंट-करंट मेन स्विच बंद करो! मेरी आवाज सुनकर लोग दौड़कर आए। मेन स्विच ऑफ किया। लोगों ने दोनों को उठाया। मकान मालिक तो सही थे। मेरे पतिदेव नहीं उठ पाए। डॉक्टर को बुलाया उन्होंने 'ही इज नो मोर' कह दिया। हंगामा हो गया। सामने जो ननंद के घर वाले रहते थे वे भी दिवाली पर अपने गांव चले गए। मैं और मेरी सास ही रह गए। त्यौहार का दिन! पर क्या कर सकते थे। पूरे मोहल्ले वालों ने दीया नहीं जलाया ना पटाखे फोड़े। पर इन सबसे मेरा क्या मेरी जिंदगी सूनी हो गई थी मुझ पर पहाड़ टूट पड़ा था। जिंदगी का सही मायना भी समझ नहीं पाई थी। एक सीधी-सादी अकेली लड़की हो तो लोग तरह-तरह की बातें करेंगे। इसकी किस्मत खोटी हैं। रेलगाड़ी से ही मां-बाप आ सकते थे। उन्हें आने में दो दिन लगे। तीसरे दिन वे पहुंचे। फिर तो बहुत सारे रिश्तेदार आ गए। तरह-तरह की बातें होती रही। पति के ऑफिस वाले भी आए। उन्होंने हमारे पिताजी से कहा "हम आपकी बेटी को नौकरी दे देंगे।" सरकारी नौकरी थी। इस बीच मम्मी पापा जान चुके थे इसे अकेली छोड़ नहीं सकते। हम साथ ही ले जाएंगे। न बीमा के रुपए मिले ना किसी चीज का सब कुछ मां के नाम से करा रखा था। ना उन्होंने कोई चीज मुझे दी। मेरे पिता ने कहा हमें कुछ नहीं चाहिए "रेणुका तुम हमारे पास हो हमारे लिए बहुत है।"

मेरी मां मेरे लिए बहुत ही परेशान हुई। "बार-बार कहती मेरी लड़की सदा ऐसी रहेगी क्या? उसने तो दुनिया में कुछ भी नहीं देखा? यह तो मेरी इकलौती लड़की है?"

मेरे पापा ने कहा "वह कैसे रहेगी यह तो तुम पर निर्भर है।"

मेरी मां ने बड़े आश्चर्य से उनकी ओर देखा "क्या कह रहे हो?"

"यह तो हम पर निर्भर है हम उसे कैसा देखना चाहते हैं ? तुम सोच लो यह मेरी कुंवारी लड़की है! इसे पढ़ाना है लिखाना है और अच्छी जगह शादी करना है।" वे आगे बोले "जो गलती हमने पहले कर दी उसको सुधारना है? भगवान ने हमें सुधारने का मौका दिया ऐसा सोचो। सब कुछ हमारी सोच पर निर्भर है जैसा हमारी सोच होगी वैसे ही हमारे कार्य होंगे।"

"इस समाज का क्या होगा ?"

"समाज ? समाज को तो हम लोगों ने बनाया है। हम से ही समाज बनता है। हम जैसे चाहें वैसे कर लें। हममें हिम्मत होनी चाहिए" खैर अब बिल्कुल चुप रहो यहां कोई बात मत करो।

यह सब बातें मेरे समझ में नहीं आई।

अपने कपड़े आदि को समेट कर मम्मी पापा ने जो दिया था उसे लेकर तेरह दिन के कार्यक्रम के संपन्न होते ही हम लोग रवाना हुए।

अध्याय 5

वहां मुझे रखने वाला भी कोई नहीं था। पर सासु मां ने मुझे पत्र लिखने के लिए कहा। ननद ने भी आते रहने को कहा। सब दिखावा मात्र था।

खैर मुझे भोपाल ले आए । जितनी मुंह उतनी बातें। सारे मिलने जुलने वाले पूछने आ गए। मैं किसी के सामने गई नहीं। सब अम्मा से कुरेद-कुरेद कर पूछ रहे थे। अम्मा बहुत परेशान हो गई। मुझे तो सोने के लिए कह दिया । मैं तो चादर ओढ़ कर लेटी रही।

एक हमारे खास पहचान की औरत थी उसने राय दी "रेणुका को डॉक्टर बनाओ।" मेरी अम्मा ने कहा "ये तो साइंस स्टूडेंट नहीं है?"

"तो क्या हो गया ? दो साल साइंस पढ़ लेगी ?"

सुनकर मुझे भी बहुत अच्छा लगा । मुझे साइंस पढ़ने की बहुत इच्छा थी। पर पापा बोले "हमें यह सोचना चाहिए कि कुछ आमदनी भी होनी चाहिए ।"

उसके बाद मैंने सोच लिया मैं जो कुछ करूंगी अपने पैर पर खड़े होकर ही करूंगी।

मेरी सरकारी नौकरी रिजाइन करने से चली गई थी। फिर उन्होंने एडवर्टाइजमेंट किया। तब मैंने अप्लाई कर दिया। इंटरव्यू हुआ और मेरा सिलेक्शन हो गया। इन सब में सिर्फ दो महीने का ही समय लगा।

दो महीने बाद ही मैंने नौकरी ज्वाइन कर ली। मैंने इंटरमीडिएट की तैयारी शुरू कर दी। सुबह 10:00 से 5:30 ऑफिस आते-आते 6:30 बज जाते। सुबह 9:30 बजे घर से निकल जाती। गर्मी के दिनों में तो थक कर चूर हो जाती। फिर पढ़ने की इच्छा नहीं करती ‌। मैं रात में 9:00 बजे सो जाती। सुबह 3:30 बजे उठकर पढ़ाई करती। अंग्रेजी में मुझे प्रॉब्लम आती तो पिताजी मुझे पढ़ाते थे। बाकी तो सब अपने आप कर लेती। इंटरमीडिएट में अच्छे नंबरों से पास हो गई। अब बी.ए. सेकंड ईयर में एडमिशन लेना था। अरविंद कॉलेज मॉर्निंग कॉलेज था। सभी जॉब करने वाले उसमें पढ़ते थे। सुबह 7:00 बजे से 10:00 बजे तक क्लास लगती थी। उसी में मैंने एडमिशन ले लिया। 10:00 बजे सीधे बस से ऑफिस पहुंच जाती थी। इस तरह बी.ए पास किया। अब एम.ए इकोनॉमिक्स के लिए गवर्नमेंट कॉलेज में ज्वाइन किया। वहां भी मॉर्निंग क्लासेस लगती थी। 7:00 से 10:00 यह भी अच्छा रहा। दिन बीतते गए। मैंने अपने आप को पढ़ाई में और ऑफिस के कामों में लगा लिया था।

मेरे अम्मा पापा को मेरी हमेशा चिंता रहती थी ‌। उन्होंने सोचा इसकी शादी करनी चाहिए। कुछ लोग भोपाल में ही मुझसे शादी करने के  लिए उत्सुक थे। मेरे पापा मम्मी यही चाहते भी थे कि मैं वहीं भोपाल में रहूं। परंतु जब मम्मी ने मुझसे पूछा तो मैंने मना कर दिया। मेरी मम्मी कहने लगी "रेणुका जिंदगी बहुत बड़ी है। यदि शादी नहीं करोगी अकेले कैसे रहोगी हम तो चले जाएंगे पीछे तुम्हें कौन देखेगा?"

पहले से तो मैं सतर्क हो गई थी । कुछ समझने भी लगी थी ।

"शादी तो तुम्हें करनी है। यह जो अपने आप मांग कर तुम्हें लेने को तैयार हैं वही हो जाए तो ज्यादा अच्छा ‌‌।"

"नहीं मम्मी यह आदमी छोटी पोस्ट पर है ? पहले ही मैं आर्थिक संकट बहुत झेल चुकी हूं। अब मैं और झेलना नहीं चाहती।"

"हम रेणुका तुम्हें सब कुछ दे देंगे, किसी चीज की तुम्हें कमी नहीं होने देंगे। फिर तुम भी तो नौकरी करोगी दोनों मिलकर अच्छा कमा लोगे।"

"नहीं मां मैं शादी के बाद नौकरी नहीं करूंगी। मैं शादी करूंगी तो किसी ऑफिसर से जो संपन्न हो। ऐसा नहीं मिले तो मुझे कोई जरूरत नहीं।"

"जैसी तुम्हारी इच्छा। हम ऐसा ही तुम्हारे लिए देखेंगे।"

पता नहीं जब होना होता है तो  कैसे न कैसे हो ही जाता है। हमारे पड़ोस में एक औरत रहती थी। उसके रिश्तेदार इंदौर में थे। उन्होंने एक रिश्ता पक्का किया था। शादी की तारीख पक्की हो चुकी थी परंतु उसकी मां राजस्थान देने के लिए राजी नहीं थी। उन्होंने कहा "बहुत अच्छा लड़का है हमने देखा है हमारी मां तो राजी नहीं है आप ही उससे अपनी लड़की का रिश्ता कर दो।"

"मेरी लड़की कहती है ऑफिसर होना चाहिए ?"

"अजी वह लड़का मुकेश तो बड़ा ऑफिसर है ! इसीलिए मेरे भाई ने उससे पक्की की थी पर अम्मा की जिद्द है राजस्थान में नहीं दूंगी इतनी दूर! लड़की को देखना चाहूं तो देख नहीं सकूंगी! अब क्या करें।"

अम्मा ने यह बात पापा से बताई। पापा तो बहुत सीधे थे। उन्होंने डायरेक्ट लड़के मुकेश को ही पत्र लिख दिया। मुकेश उस समय उदयपुर सरकारी काम से आया हुआ था। उसने सोचा उदयपुर से भोपाल पास पड़ेगा और वह मिलने भोपाल आ गए। उस समय हमारे पापा टूर पर गए हुए थे। मम्मी और भैया से बात हुई। मुझसे भी बात हुई। मुकेश देखने में एकदम हैंडसम लंबे चौड़े ऊपर से ऑफिसर! मेरी तमन्ना तो पूरी हो गई। उसके बाद पापा ने सोचा मैं अचानक मुकेश को देखने जाऊं तो ठीक रहेगा। बिना बोले देखने पहुंच गए। वहां मुकेश गायब थे कहीं चले गए। पापा परेशान हुए परंतु स्टाफ के आदमियों ने उन्हें ठहराया। बड़ी आवभगत की। उन लोगों ने कहा "मुकेश साहब आज ही बाहर गए हैं ! परसो आ जाएंगे। आप आराम से रहिए।"

मरता क्या न करता पापा चुपचाप वहां इंतजार करते रहे।

तीसरे दिन मुकेश जी बैलगाड़ी में बैठ कर आए। क्योंकि वहां एक ही बस चलती थी उसे छोड़ दो तो दूसरी बस दूसरे ही दिन मिलती थी। स्टाफ के लोगों ने उन्हें बताया आपसे मिलने कोई आया है। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उस जमाने में मोबाइल तो क्या फोन भी नहीं होते थे । क्या कर सकते थे। खैर पापा जब वहां रहे तो लोगों से पूछा "इनकी शादी हो गई क्या?" उन्होंने कहा हो गई होगी? इनकी पत्नी यहाँ नहीं रहती शायद गांव में रहती होगी?"

पापा ने सोचा देखो इन्हें तो पता ही नहीं कि उनकी शादी नहीं हुई है! कैसी विचित्र बात है। पापा को ऐसा नहीं लगा कि उनके गांव में जाकर मुझे पूछ-ताछ करनी चाहिए।

मुकेश जी से पूछा उन्होंने कहा "मेरे बाबूजी ने एक जगह मेरी सगाई की थी। मेरे होने वाले ससुर जी ने मुझसे कहा मेरे घर आओ मैं तुम्हें जीवन कैसे जीना चाहिए सिखाऊंगा।"

"अब मैं यह कैसे मान सकता हूं ? आप बताइए। मैंने जाने से मना कर दिया ।"

"फिर ?"

"फिर क्या ? बाबूजी भी नाराज हो गए। होने वाले ससुर जी भी। मैंने तो मना ही कर दिया मैं वहां शादी करूंगा ही नहीं। बाबू जी ने कह दिया, अब मैं तेरी शादी करूंगा ही नहीं।” “मैंने सोचा मैं किसी बंदिश में नहीं रहूंगा। यदि कोई अच्छी लड़की मिल जाए तो मैं अपने आप शादी कर लूंगा । क्यों साहब बात ठीक है ना?" मुकेश ने बोला ।

"बिल्कुल सही।"

पापा जी को लड़का बड़ा पसंद आ गया। सही बात बोलता है। सोच बिल्कुल सही है। हमारी बेटी के लिए एक ऐसा ही लड़का चाहिए। उन्हें तो ऐसा लगा उनकी मन की मुराद पूरी हो गई है।

अध्याय 6

घर में आकर बताया घर वाले भी बड़े खुश हो गए। लड़का मुकेश स्वतंत्र विचारों का है। लड़की यहां पर खुश रहेगी।

मुकेश को कह दिया हम सब तैयार हैं। मुकेश ने भी कह दिया मैं तैयार हूं। मैं एम.ए. फाइनल में थी। जवान लड़की के मन में लड्डू तो फूटते ही हैं।

पापा मम्मी को लगा हम बेकार में इतने परेशान हो रहे थे हमें तो बहुत बढ़िया लड़का मिल गया।

लड़के मुकेश को बुलवाया गया। आ जाइए शादी पक्का-वक्का कर देते हैं। मुकेश जी पधार तो गए। पर कोई भी बात सीधे तरह से कह नहीं रहे थे। कह रहे थे इसे M.A. फाइनल कर लेने दो, फिर करेंगे। हमारे बीच में समझौता करने वाले एक डॉक्टर दंपत्ति बीच में थे। उन्होंने भी कहा M.A. तो कर ही लेगी। मुकेश जी बोले "जरूर क्यों नहीं शादी M.A. के बाद ही होगी। अभी सिर्फ पक्का कर दीजिएगा ।"

मम्मी मेरी अड़ गई। "शादी अभी करनी है तो हम सगाई करेंगे वरना सगाई भी हम बाद में ही करेंगे । इतने दिनों तक शादी को रोकना ठीक नहीं ।"

मुकेश जी अपनी जिद्द पर अड़े हुए थे। रात काफी देर तक बहस हुई। आखिर मेरी मां ने कहा हम यहां शादी नहीं करेंगे। यह आदमी एक डिसिजन भी ले नहीं सकता वह आगे क्या करेगा? मेरी मां तो तेजतर्रार और होशियार भी थी । अम्मा ने डिसिजन ले लिया यहां नहीं करना। रात को सब सो गए।

सुबह जब उठे तो मुकेश जी बोले "माता जी मैं तैयार हूं।" फिर चारों तरफ खुशी का वातावरण हो गया और शगुन के एक सौं एक रुपये देकर रोका हो गया। शादी की डेट 30 नवंबर को फिक्स हो गई।

उनको वापस जाने के लिए ट्रेन कब-कब है पूछने के लिए बड़े भैया को स्टेशन भेजा।

"भैया बोला दोपहर को 12:00 बजे ट्रेन है।"

"खाना खिलाकर मुकेश जी को रवाना कर दिया।"

मुकेश जी स्टेशन पहुंचे तो पता चला ट्रेन दिन के नहीं रात के 12:00 बजे हैं। अब मुकेश को सारा दिन स्टेशन पर ही गुजारना  पड़ा । मुकेश जी रात के 12:00 बजे ट्रेन में बैठे। मन ही मन सोच रहे थे कि इस लड़के ने ऐसा क्यों किया? हमें तो यह बात बताई नहीं। यह बात तो शादी के बाद पता चली। जब मुझसे पूछा "तुम्हारे भाई ने ऐसे क्यों किया?" तब मुझे पता चला ।

"मेरा भाई ऐसे करने वाले में से तो नहीं है परंतु सीधा है दिन के या रात के 12:00 बजे ध्यान नहीं दिया यह उसकी गलती थी।"

मेरी मां को बहुत चिंता हुई कि क्या होगा कैसे होगा जो होगा ठीक होगा क्या? मुकेश ठीक रहेगा क्या ? कोई धोखा तो नहीं होगा ?

हमारे पिताजी तो मुकेश शर्मा जी की तारीफ करते न अगाते थे।

शादी तो सिंपल ढंग से करनी थी। खास परिवार के दो-तीन मित्रों को बुला लिया था। ताकि गवाही दे सकें ।

दूल्हे मुकेश जी ने कहा था मेरे बाबूजी तो नहीं आएंगे। पर मेरा छोटा भाई किशन और एक-दो लोग आ जाएंगे। पर ऐन वक्त पर सिर्फ दूल्हा मुकेश ही आया। ऐन वक्त पर कर भी क्या सकते थे। अम्मा तो बहुत परेशान हुई । मेरे पापा ने ज्यादा चिंता नहीं की । मन में उठे संशय को दूर न कर पाने पर भी  शादी कर दी। भगवान के ऊपर भार डाल दिया। भगवान जो करेगा भला करेगा। ऐसा सोच लिया ।

बहुत ही साधारण ढंग से शादी कर दी गई। मेरी मां मेरे लिए बहुत सारे गहने चांदी के बर्तन सब देने लगी। तो उनके मित्रों ने कहा "अभी ज्यादा मत दो एक बार जाकर आने दो फिर देना।"

फिर भी बहुत कुछ दे दिया। दूसरे दिन तो नहीं तीसरे दिन मैं और मुकेश जी गंतव्य स्थान की ओर रवाना हो गए।

ना बारात, न लोग, ना रिश्तेदार बड़ा ही अजीब सा माहौल था ! पता नहीं मेरे मां-बाप ने भी कैसे मुझे भेज दिया! अभी सोचो तो मुझे आश्चर्य होता है। उस समय मैं डरी नहीं पता नहीं क्यों? जब जो होना होता है शायद इसी को कहते हैं होनी को कोई टाल नहीं सकता!

सीधी गाड़ी तो थी नहीं तीन चार जगह गाड़ी बदलकर जयपुर पहुंचे। जयपुर से छोटे गांव में पहुंचना था।

रास्ते में पति मुकेश फरमाते हैं "वहां सबसे यह मत कहना अभी शादी हुई है। यू कह देना पहले से शादी हुई है।"

"ऐसा क्यों ?" ऐसा क्यों ।

"इनकम टैक्स ज्यादा लगता है ना इसीलिए मैंने सबसे कहा हुआ है कि मैं शादीशुदा हूं।" मुझे तो ऐसा लगा मेरे सिर पर किसी ने हथौड़ा मार दिया हो।

इनकम टैक्स के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानती थी। वह उसे सच साबित कर रहे थे। अब सीधी सादी लड़की मैं भी उसे सही मान लिया।

वहां गई तो मेरी बड़ी आवभगत हुई। चपरासी ने खाना बनाया। वहां लाइट भी नहीं थी। बहुत बड़ा पुराना महल था। सर्दी का मौसम जल्दी ही अंधेरा हो जाता था । हम शाम को 6:00 बजे पहुंचे अंधेरा हो गया था। मुझे तो भूत बंगला लगा। डरते-डरते सीढ़ियां चढ़ी।

ऊपर के मंजिल में रहने का मकान था। इतने विशाल कमरे जिसमें हमारा पूरा घर समा जाएं। खाना खाकर सो गए।

सवेरे उठ कर देखा तो एक पोस्टकार्ड पड़ा था। मैं उत्सुकता वश उसे उठाकर पढ़ने लगी‌।

प्रिय बेटा,

यहां राजी खुशी है। वहां तुम ठीक होगे। अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना। तुमने शादी की बात लिखी थी। खुशी की बात है तुम शादी कर लो। कोई चिंता मत करो। अभी एक नया कानून पास हुआ है। सरकारी कर्मचारी भी एक बीवी होते हुए दूसरी शादी कर सकता है। तुम कोई चिंता मत करो। मुसलमान भी तो कई बीबी रख सकते हैं। मेरा सिर चकराने लगा। "यह क्या लिखा है?" मैंने पूछा।

"मेरी शादी हो गई थी । क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आया । मेरा दिमाग खराब हो गया।"

24 साल की लड़की क्या करती। फोन की सुविधा तो उस जमाने में था ही नहीं। इस गांव से चिट्ठी लिखो तो वह कब पहुंचेगा पता नहीं। पोस्ट तो मैं कर नहीं सकती ? किसी को देना पड़ेगा। क्या करूं? घर वालों को कैसे बताऊं? बताना चाहिए क्या? नहीं बताना चाहिए? यह किस दुविधा में मैं पड़ गई?

चपरासी ने आकर बताया "आपसे मिलने कोई आया है।"

उस अनजान औरत से मैं क्या कहती? उसका आदर सत्कार किया। चपरासी चाय बनाकर लेकर आया। मैंने अपनी लाई हुई मिठाइयां उन्हें दी।

अध्याय 7

"आप आ गई हमें बहुत अच्छा लगा। अब आप गांव में मत जाना यही रहना हम लोगों को अच्छा लगेगा ।"

क्या जवाब दूं सोचूं इससे पहले पति मुकेश बोले "अजी यह पढ़ रही है ना? अभी थोड़े दिन में चली जाएगी। एग्जाम देकर आ जाएगी। गांव में भी तो रहना पड़ेगा।"

मैं बेवकूफ जैसे हंस दी।

यह क्या हो रहा है? मेरे तो कुछ भी समझ में नहीं आया।

मैंने पहुंचने की कुशलता का पत्र मम्मी-पापा को भेज दिया था । इससे ज्यादा मैं और क्या करती। मुझे लगा कब मैं भोपाल जाऊं और सब कुछ मां को बता दूं। ऐसा सोच रही थी कि उनका पत्र आया, 'हम लोग मामा जी के लड़के की शादी दिल्ली में हो रही है उसके लिए मैं और पापा जा रहे हैं। जिस दिन तुम आ रही हो उसी दिन हमारी भी गाड़ी हैं और समय भी दोनों का एक ही है । तुम्हें देखने की बड़ी इच्छा है पर क्या करें तुम्हारी गाड़ी आने का समय और हमारी गाड़ी के रवाना होने का समय एक ही है शायद हम तुमसे मिल नहीं पाए। हम घर पर नहीं है तो क्या? तुम्हारे भैया-भाभी, छोटा भाई सब लोग हैं। हम दो दिन में आ जाएंगे चिंता मत करना।'

मुझे तो ऐसा लगा आसमान मेरे सर पर गिर पड़ा हो। मैं जाने की इतनी उत्सुकता में हूं यह सब बातें मैं बताऊं कि मैं क्या करूं? यहां तो यह लोग जा रहे हैं? मन बहुत ही खिन्न हुआ। किसी से कुछ कह नहीं सकती। कभी कोई मिलने आ जाता कभी कोई।

दिसंबर की छुट्टियां थी स्टाफ पूरा चला गया। सिर्फ एक दो फैमिली वाले रह गए थे। एक जैन परिवार मुकेश जी से बोला "यहाँ पास में एक जैन मंदिर हैं जो बहुत सुंदर है माता जी को दर्शन करा लाते हैं।"

वहां पर सभी मुझे माताजी कहते थे। एक बुजुर्ग से चपरासी मुझे माता जी कहता था। मुझे बड़ा अजीब लगा। मुकेश जी से कहा तो वे बोले "वह तुम्हारी रेस्पेक्ट करता है। इसीलिए माताजी बोलता है। तुम्हें बुरा मानने की क्या बात है। तुम्हारे दक्षिण में तो कुंवारी लड़की को भी अम्मा कहते हैं?"

"वह अलग बात है वहां सभी के नाम के पीछे अम्मा लगाते हैं। यहां तो ऐसा नहीं होता।" "ज्यादा बहस करने की जरूरत नहीं है। कह दिया रिस्पेक्ट करते हैं"

मैं चुप तो हो गई पर मन व्यतीत हुआ।

अब भोपाल पहुंच गए। मां और रिश्तेदार जो दिल्ली जाने के लिए खड़े थे उनकी गाड़ी लेट थी अतः मुझे देखने हमारे प्लेटफार्म पर आ गए। मेरा दिल भर आया। आंखों से आंसू बहने लगे। सब लोग कहने लगे "अरे क्या हो गया दो दिन में तो हम आ जाएंगे? "अब रोना-धोना नहीं चलेगा। अब तो ससुराल में ही रहना पड़ेगा। अम्मा के पास कब तक रहोगी?"

मेरी व्यथा तो मैं ही जानती थी। खैर मैं घर आ गई। घर में सब थे। मम्मी पापा नहीं थे पर मुझे घर सूना लग रहा था। सबसे मैं क्या कहती? सब लोग बहुत खुश थे। भाभी ने सोचा होगा चलो यह अपने ससुराल चली गई तो मुझे भी आराम हो जाए मेरा ही राज होगा। पता नहीं दो दिन कैसे मैंने निकाले यह तो मैं ही जानती हूं।

जब अम्मा के आने का हुआ मैं तो बहुत खुश हुई अब मैं अपने मन की बात उन्हें बताऊंगी! अरे पर ये क्या? उनके साथ तो रिश्तेदारों का एक बड़ा झुंड ही आ गया। सब लोग दामाद की तारीफ करने लगे। मेरी मम्मी-पापा की भी बहुत तारीफ की "तुमने बहुत अच्छा काम किया लड़की की शादी कर दी। अच्छा सा दामाद मिल गया। बहुत-बहुत बधाई हो।" उनकी बातों को सुन सुनकर मेरा दिल घबरा रहा था। पर मैं मौन थी। मुझे लगा ये लोग कब जाएंगे?

खैर वह दिन भी आया वे लोग चले गए। मेरी अम्मा जब एकांत में थी तब मैंने बताया। यह आदमी तो शादीशुदा है। वे दंग रह गई। पर मुझसे बोली "तुम किसी से कुछ ना कहना।"

उनकी पापा से बात हुई। उन्होंने भी कहा "चुप रहो। जो हो गया सो हो गया। जो बिंध गया वह मोती है । अब कुछ नहीं हो सकता। तुम्हारे भाईयों को भी या किसी को भी यह बात मत कहना। भाइयों से कहोगी तो तुम्हारी इज्जत ही कम होगी और तुम्हारे पति की भी वे लोग इज्जत नहीं करेंगे?"

क्या यह एक तरह से ऑनर-किलर नहीं था। किसी की आत्मा और दिल का ऑनर किलर तो था ही पर उस समय मैं समझ नहीं पाई। बहुत ही सीधी-सादी सोचने की शक्ति मुझमें नहीं थी। जो मम्मी पापा कह रहे हैं वही सही है यही बात मेरे समझ में आती थी। खैर जिसका कोई नहीं होता उसका ऊपर वाला होता है। इस बात पर तो मुझे विश्वास था। अब भी इस बात पर विश्वास करती हूं।

मैं परीक्षा की तैयारी करने में लग गई। इन चार-पांच महीनों में पति मुकेश जी दो तीन बार बीच में आए।

मजाल है मेरे घर वालों ने उनसे कुछ पूछा हो। उन्होंने तो ऐसा दिखाया ही नहीं जैसे कुछ हुआ है। सब सही है ऐसे ही वे मुकेश जी का आदर-सत्कार कर रहे थे। उन्होंने भी मुझसे कुछ नहीं पूछा मैंने भी कुछ नहीं कहा। क्या आजकल की लड़कियां ऐसी चुप रह सकती है?

जून के महीने में परीक्षा तो खत्म हो गई । मेरा वाइवा रह गया था । उसकी तारीख का पता नहीं चला। खैर वाइवा भी हो गया। पति मुकेश जी आए अब उनके साथ मुझे जाना था। मुझे आगे की जिंदगी के बारे में कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

मैं जयपुर आ गई। स्टाफ के एक दो जने पड़ोस में थे। उनका आना जाना रहता है। पर वे मेरे पति का बहुत आदर करते थे। और मेरे पति मुकेश भी बड़े गंभीर स्वभाव के थे। बहुत ही विद्वान थे। उन्होंने कई किताबें लिखी थी। इन सब बातों ने मुझे उनकी ओर आकर्षित किया। मुझे फ़ूहड़ और छिछोरे आदमी वैसे भी अच्छे नहीं लगते थे। इसीलिए उनके प्रति मेरे मन में एक आदर भावना आ गई थी। यह अच्छी बात थी। जो समझौता करने में काम आई।

जयपुर आते ही पता चला हमारा मकान बन रहा है। दो कमरे बना रहे थे। प्लाट तो बड़ा था पर इस समय सिर्फ दो कमरे बन रहे थे। उसकी देखभाल करने के लिए मेरे ससुर जी जयपुर आ गए थे। एक किराए के मकान में हम रहते थे। ससुर जी पढ़े लिखे विद्वान थे। सरकारी नौकरी से रिटायर हुए थे। गांव के होने के बावजूद भी वे बड़ी ऊंची सोच के और खुले दिमाग के व्यक्ति थे। वे आर्य समाजी थे। मेरे ससुर जी के बहुत सारे मंदिर थे जिसे उन्होंने स्कूल के लिए दान दे दिया था। उन मंदिरों में अब स्कूल चलता है। वह मुझे देखकर बड़े प्रसन्न हुए।

उन्हें मैं तरह-तरह के दक्षिण के व्यंजन बना कर खिलाती। वे बड़े खुश होते। मुझसे तो कुछ नहीं कहते अड़ोस-पड़ोस की औरतों से कहते "बहुत नरम-नरम चीजें बना कर खिलाती है जो बड़ा स्वादिष्ट होता हैं । वह बड़ी बहुत होशियार है। मेरे दांत नहीं हैं अत: नरम चीजों को खाने में बहुत आसानी होती है ।"

औरतें बताती तो मुझे भी अच्छा लगता।

अध्याय 8

शाम को मेरे पति आते तो वे जो मकान बन रहा है उसे देखने जाते। वही जंगल भी था। सुनसान था। मुझे लोटा साथ में लेकर आने को कहते। मुझे उसको उठाकर लाना अच्छा नहीं लगता मैं थैले में रख कर ले जाती। अब मेरे ससुर जी पड़ोस की औरतों से कहते "मेरा बेटा खाने की चीजें लाता है उसे मेरी बहू थैले में ले जाकर जहां मकान बन रहा है वहां खाते है। मुझे नहीं देती।”

जब उन लोगों ने यह बात मुझे कही तो मैंने उन्हें बताया "मैं थैले में लोटा लेकर जाती हूं। मुझे लौटे को पकड़कर ले जाना अच्छा नहीं लगता। मैं तो चॉकलेट भी लाती हूं उन्हें देती हूं।"

क्या करें बुजुर्ग आदमियों को वहम होता रहता है। गांव के आदमियों को तो ज्यादा ही ऐसा लगता था।

आज अच्छा मुहूर्त का दिन है ऐसा कह के मेरे नंदेऊ जी ने मकान का मुहूर्त और कर दिया। बाहर का गेट नहीं लगा। लैट्रिन नहीं बनी। मुहूर्त होने पर गांव से पद्रह आदमी आ गए। उन लोगों ने मेरे पति को सलाह दी इसी मकान में रहो। मेरे पतिदेव ने उनकी सलाह मान ली। वे  सब गांव के लोग थे बाहर जंगल में निमटने जाते। मेरी तो शामत आ गई। मैं कभी गांव में रही नहीं। मुझे बहुत रोना आया। मैंने पिताजी को लेटर लिखा। हमें लैट्रिन के लिए बाहर जंगल में जाना पड़ता है। गर्मी के दिन है डर लगता है। मेरे पिताजी ने कहा "जयपुर तो बड़ा शहर है। मैंने देखा हुआ है। वहां लैट्रिन कैसे नहीं है?"

इतने में मेरी तबीयत खराब हो गई। डॉक्टर ने बेड रेस्ट के लिए कह दिया। यहां पर बेड रेस्ट कैसे हो सकता था। लैट्रिन के लिए तो जंगल में जाना पड़ता। बाहर बाउंड्री वॉल के पास नल था वहां से पानी भरकर लाना पड़ता था। मेरे तो कुछ समझ में नहीं आया।

इनके ऑफिस में जब कुछ लोगों को पता चला तो एक कश्मीरी ने अपनी पत्नी से बात की। उनकी पत्नी बहुत समझदार थी। वह मुझे देखने आई। उन्होंने मेरे पति से बात की। वे मुझे हॉस्पिटल ले गई। वहां मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई। मुझे एडमिट कर लिया गया। वहां उस कश्मीरी जी की पत्नी मुझे खाना लाकर देती थी। बड़े शरीफ लोग थे। डॉक्टर को जब सब बातें पता चली उन्होंने मेरे पति से कहा "आप अपनी पत्नी को उनके पीहर भेज दीजिएगा। यहां वे ठीक नहीं हो सकती।" मेरे पति को भी बात समझ में आ गई और मुझे पीहर छोड़ आए। खैर मैं 6 महीने भोपाल में रही। वहां भी कुछ दिन घर में हैं कुछ दिन हॉस्पिटल में रहना पड़ा । ऐसा करते-करते मेरी बेटी भी हो गई।

बिटिया जब 40 दिन की हो तब पति मुकेश मुझे लेने आए। मैं उनके साथ जयपुर आ गई। गर्मी की छुट्टियां में मेरे देवर के बच्चे आ गए। उनका जो बड़ा लड़का था वह बड़ों जैसी बात करता था। उसने कहा ताऊ जी की पहले एक शादी हुई थी। वह गांव में रहना नहीं चाहती थी तो बड़े ताऊजी जो घर पर थे उन्होंने ताई जी को पीहर ही छोड़ कर आ गए। ताऊजी की छुटपन में शादी हो गई थी। ताऊ जी पढ़ते थे। मैंने पूछा "तेरे ताऊ जी ने कुछ नहीं कहा?"

"उन्हें तो पता ही नहीं था। घर आए तो पता चला। वे कुछ बोलते नहीं थे। वे वापस कॉलेज चले गए।"

मुझे एक दूसरा जबरदस्त सदमा लगा । बेटी गोद में। नौकरी भी छोड़ चुकी थी मैं। क्या करूं कुछ समझ में नहीं आया। मैं तो सोच कर आई थी मुझे नौकरी करनी नहीं। पर इन सदमों को बर्दाश्त करके कैसे रहूं! क्या करूं! किससे कहूं....

वह लड़का फिर बोला "मेरे पिताजी की भी तो दो शादी हुई है। पहली मर गई थी। फिर दूसरी शादी की।"

अब मेरा गुस्सा परवान चढ़ गया था। पति तो घर पर थे नहीं मैंने ससुर जी से पूछा "क्या आपके घर सब की 10-10 शादियां होती है?"

"नहीं ऐसी बात नहीं।"

"फिर कैसी बात है? आपकी कितनी शादी हुई?"

"मेरी तो एक ही हुई।"

"आपके बेटों की?"

“उनकी शादियाँ परिस्थिति वश हुई।”

"आपके बेटे की दो शादियां हो चुकी है। और दोनों जिंदा है। अभी पता चला है कि वह गांव में अपने पीहर में रहती है। दूसरी का अता-पता नहीं। वे आ गई तो मेरा क्या होगा?"

"क्या बात करती हो वे नहीं आयेगी ?"

उसके बाद मेरी क्या गत हुई होगी आप सोच सकते हैं। कई बार कोई दरवाजा खटखटाता तो मुझे लगता उनमें से कोई आ गई है। डर के मारे मैं कांपने लगती। फिर पता चलता कोई और है। किसी भी अनजान औरत को देखकर मुझे ऐसा लगता शायद वही आई है। क्या मुझसे लड़ेंगी? मैं उसे क्या जवाब दूंगी? मुझे इसके अलावा कुछ सूझता नहीं था।

इन विचित्र परिस्थितियों के बीच में मैं फिर से प्रेगनेंट हो गई। कुछ सोचूं समझूं इसका मौका ही मुझे नहीं मिला। घरवालों से भी कुछ नहीं कहा। फिर मेरी डिलीवरी कौन कराता। मुझे फिर पीहर ही जाना पड़ा। मेरा मन बहुत दुखी था। पर किसी से कुछ कहने की इच्छा नहीं हुई। अबकी डिलीवरी भी सिजेरियन हुई। सारे टांके पक गए। जब मन ठीक नहीं हो तब सब कुछ गलत ही होता है। पर यह बातें किससे कहती ? कैसे कहती? दो बच्चों को लेकर क्या पीहर में रहती? बेशर्माई की भी एक हद होती है।

40 दिन होते ही मां के साथ जयपुर आ गई। दोनों बच्चों को संभालना बहुत मुश्किल था। इसी तरह एक साल निकाल दिया। उसके बाद मुझे लगा मुझे अपने पैरों पर खड़े होना है। पति के रिटायरमेंट में केवल 8 साल बाकी थे। इनको देखकर उम्र का अंदाजा नहीं लगता था। मुझे तो वह भी अब ही पता चला। किसे दोष देती? यह सब मेरे तकदीर का ही दोष है।

मनुष्य संसार में कितने तरह के हैं जिसका आप अंदाजा भी नहीं लगा सकते। आप ऐसे लोगों से नहीं मिले तो आपको पता ही नहीं कि ऐसा भी होता है। यह समझने में आपको समय लगेगा।

एक दिन इनके ऑफिस वाले मिले उन लोगों को मुझे देखने से ऐसा लगता था कि मैं नौकरी करती हूं। तो उन्होंने देखते ही पूछा "मैडम आप नौकरी करती हैं? कहां करती हैं?" तुरंत मेरे पति का जवाब होता "अजी कहां ? बच्चे हैं घर गृहस्थी का काम है। उसे संभाले तो बहुत है।" मैं तो उन्हें आश्चर्य से देखती रहती। कुछ जवाब दे ही नहीं पाती। यह बातें तो थी ही आज सोचे तो बड़ा आश्चर्य होता है।

मुकेश जी खाने-पीने के शौकीन नहीं थे। सीधा-सादा खाना ही पसंद था। बिना नमक के सब्जी भी दे देते तो चुपचाप खा कर चले जाते । कभी कुछ नहीं कहते। जब मैं खाने बैठती तब पता चलता कि सब्जी में नमक नहीं है। ऑफिस से आने पर मैं पूछती आपने बताया नहीं सब्जी में नमक नहीं था। हां पता तो लगा पर मैं बोला नहीं। इन सब बातों से मैं बहुत प्रभावित हो गई थी। हमारे घर में पिताजी और भैया ऐसा होने पर हंगामा मचा देते। तब मुझे लगता मुकेश जी को तो सात खून माफ कर देना चाहिए ।

अध्याय 9

किसी की चुगली करना या बुराई करना उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था। आप किसी के बारे में बोलो तो भी कह देंगे अरे हमें किसी से क्या लेना देना। तुम अपना काम करो।

कोई आकर घंटों बैठकर उनसे बातें करता। उसके जाने के बाद मैं पूछती क्या कह रहा था? तो उनका जवाब होता "मैंने तो सुना ही नहीं। पता नहीं क्या बक रहा था। फालतू बातों पर मैं ध्यान नहीं देता।"

ऐसी बहुत सारी खूबियां मुकेश जी में थी। जिससे मैं उनकी ओर आकर्षित होती चली गई।

मुझे तो अफसर की चाह थी वह मुझे मिल चुका था। उसके लिए मुझे बहुत कुछ चुकाना पड़ा। राजस्थान यूनिवर्सिटी से एडल्ट एजुकेशन में B-ed किया। मुझे नौकरी तो बड़ी अच्छी मिली। जीप वगैरह भी मिली पर रात को जाना पड़ता यह कैसे संभव होता? बच्चे छोटे थे। पति का ट्रांसफर दूर हो गया था। मैं बच्चों को अकेले कैसे छोड़कर जाती? मैंने ज्वाइन नहीं किया।

फिर से टीचर ट्रेनिंग (B.ed) किया। एक साल दो-दो बच्चों को रखकर फिर कठोर परिश्रम किया। नौकरी बहुत मिली पर बाहर मिली। गवर्नमेंट की नौकरी थी पर मैंने नहीं किया। यहां बच्चों को कौन देखता। मैंने एक प्राइवेट स्कूल में ज्वाइन कर लिया।

बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाया। लड़की चौथी में थी लड़का तीसरी में तभी मुकेश जी रिटायर हो गए।

मकान अपना था अतः हमेशा किराएदार रखा। ज्यादातर किराएदार अच्छे ही थे।

पहले मुझे अपनी चिंता थी अब बच्चों की भी चिंता होने लगी । बच्चे अच्छी तरह पढ़ें, सेटिल हो, उनकी नौकरियां लगे और उनकी शादी हो इसकी चिंता मुझे खाए जा रही थी।

इसी बीच पति के आंख का ऑपरेशन हुआ। वह खराब हो गया। वे दो महीने हॉस्पिटल में रहे ‌।

बेटी बहुत होशियार थी। एम.ए में पहुंच गई थी। एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज में भाग लेती थी। उसका टीवी में रेडियो में दोनों में न्यूज़ रीडर में भी सिलेक्शन हो गया था । उसका रेडियो आर्टिस्ट और टीवी आर्टिस्ट में भी सिलेक्शन हो गया। कॉलेज में, टीवी में और रेडियो में नाटक करती थी। ऑल राउंडर थी। पढ़ने में भी बहुत होशियार। हिंदी, अंग्रेजी दोनों में होशियार थी। जयपुर में ही एक परिवार में जो बहुत पारंपरिक परिवार था बेटी को लेने को तैयार थे। लड़का गोरमेंट में लेक्चरर था। पारंपरिक और पिछड़ा परिवार तो था पर मुझे लगा लड़का इतना होशियार है और जयपुर में गवर्नमेंट कॉलेज नहीं है बाहर ही बाहर रहेगा फॉरवर्ड हो जाएगा। मेरे पति तैयार नहीं थे। उनके मन में शंकाए थी पर मुझे कुछ नहीं लगा। क्योंकि अभी भी मैं सीधी-सादी ऐसी की ऐसी थी। इतने धक्के खाने के बाद भी मुझे अक्ल नहीं आई। लड़का एकदम हैंडसम, गोरा चिट्टा था। गोल्ड मेडलिस्ट। अंग्रेजी मीडियम में पढ़ा हुआ यह तो मुझे चाहिए था क्योंकि बेटी भी अंग्रेजी मीडियम की पढ़ी हुई थी। मुझे तो लगा सब सही है। उन लोगों ने कहा एक महीने के अंदर ही शादी करनी है। मेरे पतिदेव को यह बात पसंद नहीं आई। शादी करनी है तो जल्दी कर दो। उन्होंने कहा हम एम.ए पूरा करने देंगे।

मुझे भी उसकी शादी की बड़ी चिंता हो रही थी। पति ने तो जल्दबाजी करने को मना किया। पर मुझे लगा पति की उम्र हो रही है वैसे ही वे कुछ नहीं करते कैसी बिटिया की शादी होगी? मैंने अपने घर वालों को भी कहा था। यहां वहां भी कहती रहती थी। अपने आप ही आकर कोई लड़की मांग रहा है क्यों नहीं करना चाहिए।

चलो शादी की मैंने ही जिंद्द की। पहले तो लड़की ने हां कह दी बाद में जब सगाई हो चुकी और शादी की तैयारियां हो रही थी तब बेटी ने मना किया। तब मैंने कहा ऐसा कैसे हो सकता है। और कुछ समझ में भी नहीं आया और शादी भी हो गई। वे बड़े पुरातन्त्री और पारंपरिक लोग थे। जबकि मैं राजस्थान के परंपराओं से बिल्कुल वाकिफ नहीं थी। मेरे पतिदेव को यह परंपराएं बिल्कुल पसंद नहीं थी। इसीलिए मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। लड़की की शादी इस तरह पारंपरिक परिवार में करने के पहले सोचना चाहिए पर यहां पर भी मैंने गलती की। जिसका खामियाजा ना केवल मुझे बल्कि बेटी को भी बहुत भुगतना पड़ा और अभी भी भुगत रही है। उसकी वजह से मैं दुखी हूं पर सहना तो उस बच्ची को ही पड़ रहा है ना।

इसी तरह सब निपटा ही था कि मेरे पति का एक्सीडेंट हो गया। एक्सीडेंट भी बहुत बुरी तरह हुआ चार महीने अस्पताल में रहना पड़ा। मैं भी अस्पताल में ही कमरा लेकर रही। मैं हॉस्पिटल के कमरे में ही खाना बनाती और बेटा वहीं आकर खाना खाता। पर बेटी को इनफॉर्म करने के बावजूद उसे पता नहीं चला। आप समझ ही गए होंगे होशियार पाठक को इशारा ही काफी है। दिन और रात परेशान हुई बेटी को पता ही नहीं चला । ससुर जी देखने आए उन्हें कहा उन्होंने बड़ी मुश्किल से दो दिन के लिए बेटी को भेजा। शादी के बाद बेटी के सभी कार्यक्रमों में बंदिश लग गई। वह वहां रह ही ना पाई। क्या करें क्या ना करें समझ में नहीं आया। जब लड़की गर्भवती हुई तो घरवालों का कहना था कि लड़का ही होना चाहिए । हमारे परिवार में लड़कियां नहीं होती । मेरी बेटी बड़ी फिक्र करने लगी और मुझे भी बहुत फिक्र हो गई ।

भगवान की दया से बेटा ही हो गया। बेटी वहां जाने को तैयार नहीं। फिर किसी तरह से समझा कर बेटी को एक तरह से जबरदस्ती भेजा। बेटी ने एक शर्त रखी मैं सर्विस करूंगी। उसकी शर्त मंजूर कर ली गई। उसने सर्विस तो की पर आर्थिक स्वतंत्रता उसे नहीं मिली। यह भारतीय नारियों की तो क्या मेरे ख्याल से पूरे संसार में ही ऐसा हो रहा है। कहीं ज्यादा कहीं कम। जहां सोच अच्छी है वहां तो ठीक है जहां नहीं है वहाँ वही हाल।

इस बीच बेटी के एक बच्चा और हो गया। मुझे बहुत चिंता हुई। चिंता करने से क्या होता है। प्रॉब्लम सॉल्व नहीं होती।

समय के साथ बहुत कुछ बदला बहुत कुछ खराब भी हुआ पर क्या कर सकते है......

अब बेटे की नौकरी लग गई थी। मुझे बेटे की शादी की कोई चिंता नहीं थी। बेटा छोटा ही था। पता नहीं मेरे पतिदेव को बेटे की शादी की बड़ी चिंता थी। वे लगातार कोशिश में लग गए। बहुत सी लड़कियां आई पर पति चाहते थे बहू गवर्नमेंट सर्वेंट वाली होनी चाहिए। बेटा प्राइवेट नौकरी में हैं तो कम से कम एक जना गवर्नमेंट नौकरी में हो। चांस की बात है ऐसी ही एक शिक्षिका मिल गई। पति को उनकी सारी बातें पसंद आ गई। और जल्दी में वह शादी हो गई। यह लोग भी पारंपरिक थे परंतु बहू अपने को बहुत मॉडर्न मानती थी। सिर्फ मानती थी, थी नहीं। मेरी तो इकलौती बहू थी मैं उसे बहुत चाहने लगी। मैंने बेटी का प्रेम भी उसी पर उड़ेला। जी जान से उसे चाहने लगी। मैंने कभी किसी काम के लिए उसे नहीं कहा। ना मैंने कभी कोई उम्मीद की। पर मैंने सम्मान की इज्जत जरूर की। क्या चाही हुई सभी चीजें मिलती है? ना मिली, ना मिलनी थी ।

अध्याय 10

मेरी बहू ने एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया। बहुत ही प्यारी बच्ची। मेरी जान उसमें रखी थी। वह भी मुझे दादी-दादी कहकर मुझ पर जान देती थी। अच्छी होशियार बच्ची थी। मूलधन से ब्याज प्यारा होता है। मुझे भी बहुत प्यारी लगती थी ।

खैर इन सबके बीच में मेरे पति फिर बीमार हो गए। मेरे पति के पेट में एक बहुत बड़ी गांठ हो गई।

टेस्ट में पता चला गांठ बहुत बड़ी है। एक टेस्ट में सही रिपोर्ट आई एक में कैंसर का डाउट हुआ। इतनी बड़ी गांठ थी कि पसलियों को तोड़कर गांठ को निकालनी पड़ी थी। खैर ऑपरेशन बहुत बढ़िया हो गया ‌। बिल्कुल सही हो गए। हमने कहा चलो अच्छा हुआ। टेस्ट के लिए भेजा वहां भी रिपोर्ट सही आई।

इस बीच मैं भी रिटायर हो गई। उस समय रिटायरमेंट की उम्र 58 वर्ष की थी।

मेरे पति के फिर से पेट में दर्द होने लगा। डॉक्टर को दिखाया। सोनोग्राफी की वही पर दूसरी गांठ हो गई। डॉक्टरों ने अब ऑपरेशन करने से मना कर दिया। 78 की उम्र हो गई है अब ऑपरेशन नहीं हो सकता। ऑपरेशन करने के बाद हो सकता है तबीयत और खराब हो जाए। अभी तो चल फिर रहे हैं बाद में चलना फिरना मुश्किल हो जाए फिर आप क्या करेंगी। मुझे भी बात सही लगी। पर मेरे हस्बैंड चाहते थे कि उनका ऑपरेशन हो।

कई डॉक्टर को दिखाया। ज्यादातर डॉक्टरों ने ऑपरेशन के लिए मना किया। एक डॉक्टर ने कहा "मैं कर दूंगा।" वह डॉक्टर हमारे पहचान के थे। उन्होंने कहा मैं ऑपरेशन की फीस भी नहीं लूंगा। ऑपरेशन थिएटर का खर्चा दे देना। बात तो पैसे की नहीं थी। बात सुरक्षा की थी। मेरे पति जिद्द करने लगे कि उन्हीं से ऑपरेशन करा लूंगा।

ऑपरेशन की सारी तैयारियां हो चुकी थी दूसरे दिन हॉस्पिटल जाना था पहले दिन एक सज्जन हमारे घर आए। उन्होंने कहा "इस डॉक्टर से मत करावो। यह अच्छा डॉक्टर नहीं। मेरा केस बिगाड़ दिया था।" तब दूसरे डॉक्टर के पास गए। मैंने कहा "वह डॉक्टर तो ऑपरेशन करने को तैयार था। पर हम नहीं करवाना चाह रहे। आप ही कर दो।" फिर वह डॉक्टर भी तैयार हो गए। अस्पताल में एडमिट कर दिया गया। ऑपरेशन के पहले एक सोनोग्राफी हुई। तो पता चला पैंक्रियास के ऊपर ही गांठ है। उसे छेड़ना ठीक नहीं है। लौट के बुद्धू घर को आए। हम भी घर आ गए। कैंसर की गांठ थी। कोई दवाई करा नहीं सकते थे। उस समय इतनी सुविधा नहीं थी। उम्र ज्यादा थी। अब तो मैंने देखा 90 साल के आदमी का भी ऑपरेशन हो जाता है। पता नहीं डॉक्टर ने उस समय 78 को ज्यादा बता दिया। यह तो मेरे समझ के बाहर की बात थी।

जितनी सेवा कर सकते थे मैंने किया। अकेले ने बहुत संभाला। इस बीच बहू के एक और बच्चा हो गया। बेटा भी बिजी हो गया। उसकी अपनी फैमिली हो गई।

खैर जीवन-मरण किसी के हाथ में नहीं है। उन्हें जाना था चले गए। उसको कोई रोक नहीं सकता था। मैं इस दुख को सहन न कर पाई। एक तो जाने का गम दूसरा दूसरों का साथ न देने का गम। साथ ना दे कोई बात नहीं कुचरनी तो ना करें। यह सहन शक्ति के बाहर की बात थी।

मेरे बेटे और मेरे पति की सोच में बहुत अंतर है। बेटा आर्थिक मामलों में ही उलझा रहता था। उसमें आगे सोचने समझने की क्षमता ही नहीं थी। ऐसे लोगों को आप समझा भी नहीं सकते। उन्हें लगेगा आपको समझ ही नहीं है। समझदारी का ठेका उन्होंने लिया है। जो वे कहते हैं वही ठीक है। उसके कई विकल्प हो सकते हैं ऐसा भी वे नहीं सोच सकते। यह उनकी सोच के दायरे से अलग है। इसलिए बुरा मानने की कोई बात नहीं।

एक मां जो होती है उसके लिए चाहे दो हो या चार हो सब बराबर होते हैं। लड़की हो या लड़का उसके लिए समान है। हां यह जरूर है लड़का हमेशा साथ रहता है लड़की कभी-कभी आती है। उसके लिए कुछ देने की इच्छा होती है। क्या यह पाप है? क्या यह गलती है? इसका मतलब लड़की को ज्यादा चाहते हैं?

इन बातों का आप क्या जवाब दोगे? मां की दो आंखें होती है वह एक को भी नहीं फोड़ सकती। बच्चे इस बात को नहीं समझते।

भड़काने वाले भड़का कर चले जाते हैं। भडकने वाले और भड़क जाते हैं‌। यह किसका कसूर है?

अब इन बातों पर मैं ध्यान नहीं देती। मैं अपने आप में मस्त रहती हूं परंतु कुछ लोग आपसे सहानुभूति रखने के नाम से ऐसी बातें पूछ पूछ कर आपको दुखी कर देते हैं। ऐसे लोगों को मैं साफ कह देती हूं आप ऐसी बातें मुझसे ना किया करें। यदि करनी है तो मुझसे बात ना करें। क्योंकि इससे मेरा दिल बड़ा दुखी हो जाता है।

जो होता है हमसे पूछ कर नहीं होता। कौन कैसा होगा आपको इसका अंदाज भी नहीं होता। आप अपने तरह से सोच सकते हो ऐसा होना चाहिए वैसा होना चाहिए। जो हो रहा है वह अलग ही है। उसको सहन करने के लिए आपको शक्ति चाहिए। यदि शक्ति नहीं है तो कोई क्या करें। सब परिस्थितियां विपरीत हो गई।

सबने यही समझाया जो भी परिस्थिति है उसका सामना करो चुप रहो जवाब ना दो। देखते जाओ क्या होता है। देखती रही समय एकदम विपरीत हो गया।

खाली दिमाग रह-रह कर इन्हीं बातों में उलझता गया। इसी बीच कुछ करने की सोची। पर इस मकड़जाल से निकलूं तभी ना? कैसे निकलूं? निकलना चाहूं तो और फंसती जाऊं!

अकेले बैठकर आंसू बहाती और कुछ-कुछ लिखने लगी। पहले से पढ़ती तो बहुत थी पर लिखा कभी नहीं। आकाशवाणी के लिए प्रोग्राम देते समय कुछ लिख देती थी। बस सिर्फ इतना ही। फिर अब जो मेरे मन में उमड़-घुमड़ कर आ रहे विचारों को ही मैं लिखने लगी। एक दिन एक सहेली आई "क्या लिख रही हो?" पूछा। मैंने कहा “मन में जो आया है वह लिख रही हूं।"

“ऐसे लिखने से क्या फायदा? इसे कहीं भेजो।"

"कहां भेजूं?"

"अखबार में भेजो।"

मुझे लगा इसे कौन छापेगा?

उसके कहने पर मैंने भेज दिया। यह कैसा आश्चर्य वह छप गया! अब मुझ में बहुत सारा उत्साह और जोश आ गया। मैं लिखती चली गई। विभिन्न अखबारों में भेजती चली गई। सब में छपने लगे। इस से मुझे प्रेरणा मिली। पहले बच्चों की कहानियां लिखने लगी। लेख लिखने लगी। लोगों का इंटरव्यू लेने लगी। रेसिपी लिखने लगी। दक्षिण के त्यौहार राजस्थान के त्योहारों की तुलना करके लिखने लगी। लोगों को बहुत अच्छा लगा। दक्षिण की संस्कृति के बारे में लोग जानने लगे। फिर अनुवाद भी करने लगी। तमिल से हिंदी में कहानियों का अनुवाद करने लगी। उससे काफी ख्याति मिली। मुझे बहुत से अवार्ड मिले सम्मान मिला। लोग मुझे जानने लगे पहचानने लगे। इस बुढ़ापे में मुझे और क्या चाहिए? मैंने सोचा नहीं था मुझे इतना कुछ मिलेगा। इसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी।

मेरे पतिदेव को मेरा तमिल बोलना भी पसंद नहीं था। अब तो मैं तमिल से अनुवाद कर रही हूं। इस तमिल ने ही मुझे पहचान दिलाई। समय-समय की बात है। मेरी ज़िंदगी कहाँ से कहाँ पहुँच गई । मैं तो सोच भी नहीं सकती । शायद ये भी एक ज़िंदगी है ।

 

समाप्त

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