यथार्थवाद और छायावाद (निबन्ध) : जयशंकर प्रसाद
Yatharthvad Aur Chhayavad (Nibandh) : Jaishankar Prasad
हिन्दी के वर्तमान युग की दो प्रधान प्रवृत्तियाँ हैं जिन्हें यथार्थवाद और छायावाद कहते हैं। साहित्य के पुनरुद्धार काल में श्री हरिश्चन्द्र ने प्राचीन नाट्य रसानुभूति का महत्व फिर से प्रतिष्ठित किया और साहित्य की भाव-धारा को वेदना तथा आनन्द में नये ढंग से प्रयुक्त किया। नाटकों में "चन्द्रावली" में प्रेम रहस्य की उज्ज्वल नीलमणि वाली रस परम्परा स्पष्ट थी और साथ ही "सत्य हरिश्चन्द्र" में प्राचीन फल योग की आनन्दमयी पूर्णता थी, किन्तु "नील देवी" और "भारत दुर्दशा" इत्यादि में राष्ट्रीय अभावमयी वेदना भी अभिव्यक्त हुई।
श्री हरिश्चन्द्र में राष्ट्रीय वेदना के साथ ही जीवन के यथार्थ रूप का भी चित्रण आरम्भ किया था। "प्रेम योगिनी" हिन्दी में इस ढंग का पहला प्रयास है और देखी तुमरी कासी वाली कविता को भी मैं इसी श्रेणी का समझता हूँ। प्रतीक विधान चाहे दुर्बल रहा हो, परन्तु जीवन की अभिव्यक्ति का प्रयत्न हिन्दी में इस समय प्रारम्भ हुआ था। वेदना और यथार्थवाद का स्वरूप धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा। अव्यवस्थावाले युग में देव-व्याज से मानवीय भाव का वर्णन करने की जो परम्परा थी, उस से भिन्न सीधे-सीधे मनुष्य के अभाव और उस की परिस्थिति का चित्रण भी हिन्दी में उसी समय आरम्भ हुआ। राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है वाला सिद्धान्त कुछ निर्बल हो चला। इसी का फल है कि पिछले काल में सुधारक कृष्ण, राधा तथा रामचन्द्र का चित्रण वर्तमान युग के अनुकूल हुआ। यद्यपि हिन्दी में पौराणिक युग की भी पुनरावृत्ति हुई और साहित्य की समृद्धि के लिए उत्सुक लेखकों ने नवीन आदर्शों से भी उसे सजाना आरम्भ किया, किन्तु श्री हरिश्चन्द्र का आरम्भ किया हुआ यथार्थवाद भी पल्लवित होता रहा।
यथार्थवाद की विशेषताओं में प्रधान है लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात। उस में स्वभावतः दुःख की प्रधानता और वेदना की अनुभूति आवश्यक है। लघुता से मेरा तात्पर्य है साहित्य के माने हुए सिद्धान्त के अनुसार महत्ता के काल्पनिक चित्रण से अतिरिक्त व्यक्तिगत जीवन के दुःख और प्रभावों का वास्तविक उल्लेख। भारत के तरुण आर्य्य संघ में सांस्कृतिक नवीनता का आन्दोलन करने वाला दल उपस्थित हो गया था। वह पौराणिक युग के पुरुषों के चरित्र को अपनी प्राचीन महत्ता का प्रदर्शन मात्र समझने लगा। दैवी शक्ति से तथा महत्व से हट कर अपनी क्षुद्रता तथा मानवता में विश्वास होना, संकीर्ण संस्कारों के प्रति द्वेष होना स्वाभाविक था। इस रुचि के प्रत्यावर्तन को श्री हरिश्चन्द्र की युगवाणी में प्रकट होने का अवसर मिला। इस का सूत्रपात उसी दिन हुआ जब गवर्नमेण्ट से प्रेरित राजा शिवप्रसाद ने सरकारी ढंग की भाषा का समर्थन किया और भारतेन्दुजी को उन का विरोध करना पड़ा। उन्हीं दिनों हिन्दी और बङ्गला के दो महाकवियों में परिचय भी हुआ। श्री हरिश्चन्द्र और श्री हेमचन्द्र ने हिन्दी और बँगला में आदान-प्रदान किया। हेमचन्द्र ने बहुत सी हिन्दी की प्राचीन कविताओं का अनुवाद किया और हरिश्चन्द्र ने "विद्या सुन्दर" आदि का अनुवाद किया।
जाति में जो धार्मिक और साम्प्रदायिक परिवर्तनों के स्तर आवरण स्वरूप बन जाते हैं, उन्हें हटा कर अपनी प्राचीन वास्तविकता को खोजने की चेष्टा भी साहित्य में तथ्यवाद की सहायता करती है। फलतः आरम्भिक साहसपूर्ण और विचित्रता से भरी आख्यायिकाओं के स्थान पर―जिन की घटनाएं राजकुमारों से ही सम्बद्ध होती थीं—मनुष्य के वास्तविक जीवन का साधारण चित्रण आरम्भ होता है। भारत के लिए उस समय दोनों ही वास्तविक थे—यहाँ के दरिद्र जनसाधारण और महाशक्तिशाली नरपति। किन्तु जनसाधारण और उन की लघुता के वास्तविक होने का एक रहस्य है। भारतीय नरेशों की उपस्थिति भारत के साम्राज्य को बचा नहीं सकी। फलतः उन की वास्तविक सत्ता में अविश्वास होना सकारण था। धार्मिक प्रवचनों ने पतन में और विवेकदम्भपूर्ण आडम्बरों ने अपराधों में कोई रुकावट नहीं डाली। तब राजसत्ता कृत्रिम और धार्मिक महत्व व्यर्थ हो गया और साधारण मनुष्य जिसे पहले लोग अकिंचन समझते थे वही क्षुद्रता में महान् दिखलाई पड़ने लगा। उस व्यापक दुःख संवलित मानवता को स्पर्श करने वाला साहित्य यथार्थवादी बन जाता है। इस यथार्थवादिता में अभाव, पतन और वेदना के अंश प्रचुरता से होते हैं।
आरम्भ में जिस आधार पर साहित्यिक न्याय की स्थापना होती है—जिसमें राम की तरह आचरण करने के लिए कहा जाता है, रावण की तरह नहीं—उस में रावण की पराजय निश्चित है। साहित्य में ऐसे प्रतिद्वंद्वी पात्र का पतन आदर्शवाद के स्तम्भ में किया जाता है, परन्तु यथार्थवादियों के यहाँ कदाचित् यह भी माना जाता है कि मनुष्य में दुर्बलताएँ होती ही हैं। और वास्तविक चित्रों में पतन का भी उल्लेख आवश्यक है। और फिर पतन के मुख्य कारण क्षुद्रता और निन्दनीयता भी―जो सामाजिक रूढ़ियों के द्वारा निर्धारित रहती हैं―अपनी सत्ता बना कर दूसरे रूप में अवतरित होती हैं। वास्तव में कर्म, जिन के सम्बन्ध में देश, काल और पात्र के अनुसार यह कहा जा सकता है कि वे सम्पूर्ण रूप से न तो भले हैं और न बुरे हैं, कभी समाज के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं कभी त्याज्य होते हैं। दुरुपयोग से मानवता के प्रतिकूल होने पर अपराध कहे जाने वाले कर्मों से जिस युग के लेखक समझौता कराने का प्रयत्न करते हैं, वे ऐसे कर्मों के प्रति सहानुभूति प्रगट करते हैं। व्यक्ति की दुर्बलता के कारण की खोज में व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक अवस्था और सामाजिक रूढ़ियों को पकड़ा जाता है। और इस विषमता को ढूँढ़ने पर वेदना ही प्रमुख हो कर सामने आती है। साहित्यिक न्याय की व्यावहारिकता में वह सन्दिग्ध होता है। तथ्यवादी पतन और स्खलन भी मूल्य जानता है। और वह मूल्य है, स्त्री नारी है और पुरुष नर है; इन का परस्पर केवल यही सम्बन्ध है।
वेदना से प्रेरित हो कर जन साधारण के अभाव और उन की वास्तविक स्थिति तक पहुँचने का प्रयत्न यथार्थवादी साहित्य करता है। इस दशा में प्रायः सिद्धान्त बन जाता है कि हमारे दुःख और कष्टों के कारण प्रचलित नियम और प्राचीन सामाजिक रूढ़ियाँ हैं। फिर तो अपराधों के मनोवैज्ञानिक विवेचन के द्वारा यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न होता है कि वे सब समाज के कृत्रिम पाप हैं। अपराधियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न कर सामाजिक परिवर्तन के सुधार का आरम्भ साहित्य में होने लगता है। इस प्रेरणा में आत्मनिरीक्षण और शुद्धि का प्रयत्न होने पर भी व्यक्ति के पीड़न, कष्ट और अपराधों से समाज को परिचित कराने का प्रयत्न भी होता है और यह सब व्यक्ति वैचित्र्य से प्रभावित हो कर पल्लवित होता है। स्त्रियों के सम्बन्ध में नारीत्व की दृष्टि ही प्रमुख हो कर, मातृत्व से उत्पन्न हुए सब सम्बन्धों का तुच्छ कर देती है। वर्तमान युग की ऐसी प्रवृत्ति है। जब मानसिक विश्लेषण के इस नग्न रूप में मनुष्यता पहुँच जाती है तब उन्हीं सामाजिक बन्धनों की बाधा घातक समझ पड़ती है और इन बन्धनों को कृत्रिम और अवास्तविक माना जाने लगता है। यथार्थवाद क्षुद्रों का ही नहीं अपितु महानों का भी है। वस्तुतः यथार्थवाद का मूल भाव है वेदना। जब सामूहिक चेतना छिन्न-भिन्न हो कर पीड़ित होने लगती है तब वेदना की विवृति आवश्यक हो जाती है। कुछ लोग कहते हैं साहित्यकार को आदर्शवादी होना ही चाहिए और सिद्धान्त से ही आदर्शवादी धार्मिक प्रवचनकर्ता बन जाता है। वह समाज को कैसा होना चाहिए यही आदेश करता है। और यथार्थवादी सिद्धान्त से ही इतिहासकार से अधिक कुछ नहीं ठहरता। क्योंकि यथार्थवाद इतिहास की सम्पत्ति है। वह चित्रित करता है कि समाज कैसा है या था। किन्तु साहित्यकार न तो इतिहास-कर्ता है और न धर्मशास्त्र-प्रणेता। इन दोनों के कर्तव्य स्वतंत्र हैं। साहित्य इन दोनों की कमी को पूरा करने का काम करता है। साहित्य समाज की वास्तविक स्थिति क्या है इस को दिखाते हुए भी उस में आदर्शवाद का सामञ्जस्य स्थिर करता है। दुःख दग्ध जगत और आनन्दपूर्ण स्वर्ग का एकीकरण साहित्य है। इसीलिए असत्य अघटित घटना पर कल्पना की वाणी महत्पूर्ण स्थान देती है, जो निजी सौन्दर्य्य के कारण सत्य पद पर प्रतिष्ठित होती है। उस में विश्वमंगल की भावना ओतप्रोत रहती है।
सांंस्कृतिक केन्द्रों में जिस विकास का आभास दिखलाई पड़ता है वह महत्व और लघुत्व दोनों सीमान्तों के बीच की वस्तु है। साहित्य की आत्मानुभूति यदि उस स्वात्म अभिव्यक्ति, अभेद और साधारणीकरण का संकेत कर सके तो वास्तविकता का स्वरूप प्रकट हो सकता है। हिन्दी में इस प्रवृत्ति का मुख्य वाहन गद्य साहित्य ही बना।
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कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुन्दरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया। रीतिकालीन प्रचलित परम्परा से—जिस में बाह्म वर्णन की प्रधानता थी—इस ढंग की कविताओं में भिन्न प्रकार के भावों की नये ढंग से अभिव्यक्कि हुई। ये नवीन भाव आन्तरिक स्पर्श से पुलकित थे। आभ्यन्तर सूक्ष्म भावों की प्रेरणा बाह्म स्थूल आकार में भी कुछ विचित्रता उत्पन्न करती है। सूक्ष्म आभ्यन्तर भावों के व्यवहार में प्रचलित पद्ययोजना असफल रही। उन के लिए नवीन शैली, नया वाक्यविन्यास आवश्यक था। हिन्दी में नवीन शब्दों की भंगिमा स्पृहणीय आभ्यन्तर वर्णन के लिए प्रयुक्त होने लगी। शब्द विन्यास में ऐसा पानी चढ़ा कि उस में एक तड़प उत्पन्न कर के सूक्ष्म अभिव्यक्ति का प्रयास किया गया। भवभूति के शब्दों के अनुसार―
ध्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोपि हेतुः
न खलु बहिरूपाधीन प्रीतयः संश्रयन्ते।
बाह्म उपाधि से हट कर आन्तरहेतु की ओर कवि कर्म प्रेरित हुआ। इस नये प्रकार की अभिव्यक्ति के लिए जिन शब्दों की योजना हुई, हिन्दी में पहले वे कम समझे जाते थे। किन्तु शब्दों में भिन्न प्रयोग से एक स्वतन्त्र अर्थ उत्पन्न करने की शक्ति है। समीप के शब्द भी उस शब्द विशेष का नवीन अर्थ द्योतन करने में सहायक होते हैं। भाषा के निर्माण में शब्दों के इस व्यवहार का बहुत हाथ होता है। अर्थ बोध व्यवहार पर निर्भर करता है, शब्द-शास्त्र में पर्यायवाची तथा अनेकार्थवाची शब्द इस के प्रमाण हैं। इसी अर्थ चमत्कार का महात्म्य है कि कवि की वाणी में अभिधा से विलक्षण अर्थ साहित्य में मान्य हुए। ध्वनिकार ने इसी पर कहा है—
प्रतीयमानं पुनरन्यदेववस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्।
अभिव्यक्ति का यह निराला ढंग अपना स्वतन्त्र लावण्य रखता है। इस के लिए प्राचीनों ने कहा है―
मुक्ताफलेषुच्छायायास्तश्वात्यमिवान्तरा
प्रतिभाति यदङ्गेषु तल्लावण्यमिहोच्यते।
मोती के भीतर छाया की जैसी तरलता होती है वैसी ही कान्ति की तरलता अङ्ग में लावण्य कही जाती है। इस लावण्य को संस्कृत साहित्य में छाया और विच्छित्ति के द्वारा कुछ लोगों ने निरूपित किया था। कुन्तक ने वक्रोक्तिजीवित में कहा है―
प्रतिभा प्रथमोद्भेद समये यत्र वक्रता
शब्दाभिधेययोरन्तः स्फुरतीव विभाव्यते।
शब्द और अर्थ की यह स्वाभाविक वक्रता विच्छित्ति, छाया और कान्ति का सृजन करती है। इस वैचित्र्य का सृजन करना विदग्ध कवि का ही काम है। वैदग्ध्य भंगी भणिति में शब्द की वक्रता और अर्थ की वक्रता लोकोत्तीर्ण रूप से अवस्थित होती है। (शब्दस्यहि वक्रता अभिधेयस्य च वक्रता लोकोतीर्णेन रूपेणावस्थानम्—लोचन २०८) कुन्तक के मत में ऐसी भणिति शास्त्रादि प्रसिद्ध
शब्दार्थोपनिबन्ध व्यतिरेकी होती है। यह रम्यच्छायान्तरस्पर्शी वक्रता वर्ण से लेकर प्रबन्ध तक में होती है। कुन्तक के शब्दों में यह उज्ज्वलाच्छायातिशय रमणीयता (१३३) वक्रता की उद्भासिनी है।
परस्परस्य शोभायै बहवः पतिताः क्वचित्।
प्रकाराजनयन्त्येतां चित्रच्छायामनोहराम्॥॥३४॥
२ उन्मेष व॰ जी॰।
कभी-कभी स्वानुभव संवेदनीय वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए सर्वनामादिकों का सुन्दर प्रयोग इस छायामयी वक्रता का कारण होता है—वे आँखें कुछ कहती हैं।
अथवा—
निद्रानिमीलितदृशो मद मन्थराया
नाप्यर्थवन्तिनचयानि निरर्थकानि।
अद्यापि मे वरतनोर्मधुराणि तस्या-
स्तान्यक्षराणि हृदये किमपिध्वनन्ति।
किन्तु ध्वनिकार ने इस का प्रयोग ध्वनि के भीतर सुन्दरता से किया।
यस्त्वलक्ष्यक्रमो व्यङ्गयो ध्वनिवर्ण पदादिषु।
वाक्ये संघटनायां च समबन्धेपि दीप्यते॥
यह ध्वनि प्रबन्ध, वाक्य, पद और वर्ण में दीप्त होती है। केवल अपनी भंगिमा के कारण 'वे आँखें' में 'वे' एक विचित्र तड़प उत्पन्न कर सकता है। आनन्द वर्धन के शब्दों में―
मुख्या महाकवि गिरामलंकृति भृतामपि
प्रतीयमानच्छायैषाभृषालज्जैव योषिता॥३-३८॥
कवि की वाणी में यह प्रतीयमान छाया युवती के लज्जा भूषण की तरह होती है। ध्यान रहे कि यह साधारण अलंकार जो पहन लिया जाता है वह नहीं है, किन्तु यौवन के भीतर रमणी सुलभ श्री की बहिन ही है, घूँँघट वाली लज्जा नहीं। संस्कृत साहित्य में यह प्रतीयमान छाया अपने लिए अभिव्यक्ति के अनेक साधन उत्पन्न कर चुकी है। अभिनवगुप्त ने लोचन में एक स्थान पर लिखा है। परां दुर्लभां छायां आत्मारूपतां यान्ति।
इस दुर्लभ छाया का संस्कृत काव्योत्कर्ष काल में अधिक महत्व था। आवश्यकता इस में शाब्दिक प्रयोगों की भी थी, किन्तु आन्तर अर्थ वैचित्र्य को प्रकट करना भी इन का प्रधान लक्ष्य था। इस तरह की अभिव्यक्ति के उदाहरण संस्कृत में प्रचुर हैं। उन्हों ने उपमाओं में भी आन्तर सारुप्य खोजने का प्रयत्न किया था।
निरहकार मृगाङ्क, पृथ्वी गतयौवना, संवेदन मिवाम्बरं, मेघ के लिए जनपद बधू लोचनैः पीयमानः या कामदेव के कुसुम शर के लिए विश्वसनीयमायुधं ये सब प्रयोग वाह्य सादृश्य से अधिक आन्तर सादृश्य को प्रगट करने वाले हैं। और भी
आर्द्रं ज्वलति ज्योतिरहमस्मि, मधुनक्त मुतोषसि मधुमत् पार्थिवं रजः इत्यादि श्रुतियों में इस प्रकार की अभिव्यंजनाएं बहुत मिलती हैं। प्राचीनों ने भी प्रकृति की चिरनिःशब्दता का अनुभव किया था―
शुचि शीतल चन्द्रिकाप्लुता श्चिर निःशब्द मनोहर दिशाः
प्रशमस्य मनोभवस्य वा हृदि तस्याप्यथ हेतुतां ययुः॥
इन अभिव्यक्तियों में जो छाया की स्निग्धता है, सरलता है, यह विचित्र है। अलङ्कार के भीतर आने पर भी ये उन से कुछ अधिक हैं। कदाचित् ऐसे प्रयोगों के आधार पर जिन अलङ्कारों का निर्माण होता था, उन्हीं के लिए आनन्दवर्धन ने कहा है―
तेऽलंकाराःपरांछायां यान्तिध्वन्धयंगतां गतः। (२―२९)
प्राचीन साहित्य में यह छायावाद अपना स्थान बना चुका है। हिन्दी में जब इस तरह के प्रयोग आरम्भ हुए तो कुछ लोग चौंके सही, परन्तु विरोध करने पर भी अभिव्यक्ति के इस ढंग को ग्रहण करना पड़ा। कहना न होगा कि ये अनुभूतिमय आत्मस्पर्श काव्य जगत् के लिए अत्यन्त आवश्यक थे। काकु या श्लेष की तरह यह सीधी वक्रोक्ति भी न थी। वाह्य से हट कर काव्य की प्रवृत्ति आन्तर की ओर चल पड़ी थी।
जब वहति विकलं कायोन गुञ्चति चेतनाम् की विवशता वेदना को चैतन्य के साथ चिरबन्धन में बाँध देती है, तब वह आत्मस्पर्श की अनुभूति, सूक्ष्म आन्तर भाव को व्यक्त करने में समर्थ होती है। ऐसा छायावाद किसी भाषा के लिए शाप नहीं हो सकता। भाषा अपने सांस्कृतिक सुधारों के साथ इस पद की ओर अग्रसर होती है, उच्चतम साहित्य का स्वागत करने के लिए। हिन्दी ने आरम्भ के छायावाद में अपनी भारतीय साहित्यिकता का ही अनुसरण किया है। कुन्तक के शब्दों में अतिकान्त प्रसिद्व व्यवहार सरणि करने के कारण कुछ लोग इस छायावाद में अस्पष्टवाद का भी रंग देख पाते हैं। हो सकता है कि जहाँँ कवि ने अनुभूति का पूर्णतादात्म्य नहीं कर पाया हो वहाँ अभिव्यक्ति विशृंखल हो गयी हो, शब्दों का चुनाव ठीक न हुआ हो, हृदय से उमका स्पर्श न हो कर मस्तिष्क से ही मेल हो गया हो, परन्तु सिद्धान्त में ऐसा रूप छायावाद का ठीक नहीं कि जो कुल अस्पष्ट, छाया मात्र हो, वास्तविकता का स्पर्श न हो, वही छायावाद है। हाँ, मूल में यह रहस्यवाद भी नहीं है। प्रकृति विश्वात्मा की छाया या प्रतिविम्ब है। इसलिए प्रकृति को काव्यगत व्यवहार में ले आ कर छायावाद की सृष्टि होती है, यह सिद्धान्त भी भ्रामक है। यद्यपि प्रकृति का आलम्बन, स्वानुभूति का प्रकृति से तादात्म्य नवीन काव्य धारा में होने लगा है, किन्तु प्रकृति से सम्बन्ध रखने वाली कविता को ही छायावाद नहीं कहा जा सकता है।
छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकला, सौन्दर्यभय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायाबाद की विशेषतायें हैं। अपने भीतर से मोती के पानी की तरह आन्तर स्पर्श कर के भाव समर्पण करनेवाली अभिव्यक्ति छाया कान्तिमयी होती है।