यश का शिकंजा (व्यंग्यात्मक उपन्यास) : यशवंत कोठारी

Yash Ka Shikanja (Hindi Satirical Novel) : Yashvant Kothari

1

संपूर्ण कालोनी में नीरवता, रात्रि का द्वितीय प्रहर।

राजधानी की पॉश कॉलोनी के इस बंगले में से आती आवाजें चारों ओर छाई नीरवता को भंग कर रही थीं। कभी-कभी दूर कहीं पर किसी कुत्ते के भौंकने से इस शांति को आघात पहुँच रहा था।

एक बड़े कमरे में पाँच व्यक्ति थे। केंद्रीय सरकार के वरिष्ठ मंत्री श्री रानाडे, उनके अपने पत्र के संपादक-मित्र आयंगार, रानाडे के विश्वासपात्र सचिव एस. सिंग और उद्योगपति सेठ रामलाल।

सेठ रामलाल अपनी बढ़ती तोंद और चढ़ती उम्र को सँभालने के लिए एक महिला को हमेशा अपने साथ रखते थे, और आज वे राजधानी की सुंदरतम कालॅगर्ल शशि को साथ लाए थे।

कमरे में शराब और सिगरेट की बदबू फैल रही थी। रानाडे ने कीमती शराब का घूँट भरा, शशि की ओर देखा और अपने सचिव को बाहर जाने का इशारा किया।

सचिव के चले जाने के बाद उन्होंने कहा -

"बड़ी मुसीबत हो गई है भाई! प्रधानमंत्री तो अड़ गए हैं - अब क्या होगा? सेठजी, तुम्हारा लाइसेन्स भी मुश्किल है..."

"तो मेरा क्या होगा?"सेठ रामलाल परेशान होने लगे...।

पहलू बदल कर रानाडे ने कहा -

होना जाना क्या है? हमने गांधी की समाधि पर कसम खाई थी, नहीं तो इस सरकार को कभी का गिरा देते! कोई सूरजकुंड जा रहा है, तो कोई वहाँ से आ रहा है। कोई दोहरी सदस्यता से परेशान हो रहा है तो कोई अपने पुत्र की रंगीनियों में डूब रहा है। यहाँ हर कोई दूसरे की पगड़ी को अपने पैरों में देखना चाहता है।"

"लेकिन इन सब छिछली राजनीति का हश्र क्या होगा?"आयंगार ने सिगरेट का धुआँ ऊपर उछालते हुए पत्रकारिता का बघार लगाया।

"देखो भाई, साफ बात है..."रानाडे कुछ देर रुके और धवल चाँदनी बिछे सोफे पर पसर गए। शशि ने उनके हाथ में जाम पकड़ाया। उन्होंने एक घूँट लिया। आँखें मूँदीं, अपनी सफाचट खोपड़ी पर हाथ फेरा। दीवार पर टँगे गांधीजी के चित्र को मन-ही-मन प्रणाम किया और कहने लगे -

"अगर मुझे हटाने की साजिश जारी रही, तो मैं कहे देता हूँ, किसी को नहीं बख्शूँगा - एक-एक को देख लूँगा...!"

आयंगार, तुम कल अपने अखबार में, सत्ताधारी पार्टी में फूट पर एक तेज-तर्रार संपादकीय लिख दो!"

"लगे हाथ यह भी लिख देना कि शीध्र ही कुछ असंतुष्ट सांसद, एक अलग पार्टी की घोषणा करनेवाले हैं।"

"लेकिन इससे समस्या का समाधान थोड़े हो जाएगा!"आयंगार ने टाँग अड़ाई।

"तुम वही करो जो मैं कहता हूँ, और आगे-आगे देखते जाओ, होता क्या है! इस बार अगर प्रधानमंत्री को नीचा नहीं दिखाया तो मेरा नाम रानाडे नहीं!"

मैं 50 वर्ष से भारतीय राजनीति में भाड़ झोंक रहा हूँ, और ये कल के लड़के मुझ पर सार्वजनिक रूप से आरोप लगाते हैं - मुझे बलात्कारी और अत्याचारी कहते हैं। अरे भाई, सभी खाओ और खाने दो। लेकिन नहीं! खाएँगे भी नहीं बौर फैला भी देंगे। लकिन मैंने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं!"रानाडे ने आवेश से कहा।

"सेठ रामलाल, तुम कल तक मुझे दस लाख रुपये दो; प्रसार-प्रचार और खरीद-बेच करना पड़ेगा।"

"तुम्हारी जो 10 करोड़ की चाँदी बाहर भेजी थी, वह पहुँच गई या नहीं!"

"जी हाँ पहुँच गई है।"सेठजी ने उत्तर दिया।

"बस तो तुम दस लाख रुपये भिजवा दो!"रानाडे ने आदेशात्मक स्वर में कहा।

इसी बीच सचिव ने आकर बताया -

"सर, पी.एम. का फोन है।"

"हाँ, हैलो, मैं रानाडे..."

"यस, उस फाइल का क्या हुआ?"

"अभी मेरे पास ही है...!"

"लेकिन मैंने आपसे कहा था, उसे जल्दी निकाल देना...!"

"मैं पार्टी के संगठन में व्यस्त रहा, सर...!"

"देखिए मिस्टर रानाडे, संगठन और चंदे की व्यवस्था का समय नहीं है यह। हमें कुछ करके दिखाना है! चुनावी वायदे पूरे नहीं हुए तो हमें भी इतिहास रद्दी की टोकरी में फेंक देगा..."पी.एम. का स्वर गूँजा।

"लेकिन इसमें मैं क्या करूँ!, ...पिछली बार मेरे चुनाव क्षेत्र में बाढ़ आई तो आपने सहायता कम कर दी।"- रानाडे बोल पड़े,"इस बार आपके चुनाव क्षेत्र में अकाल है तो फाइल पर जल्दी निर्णय आवश्यक हैं! क्या हम सभी ने इसी की कसम खाई थी?"रानाडे ने जोड़ा।

"पर यह बहस का समय नहीं है! रात काफी हो गई। तुम फाइल मुझे भिजवा दो।"- पी.एम. ने कहा और फोन रख दिया।

रानाडे ने फोन रखा। सचिव को फाइल पी.एम. के पास फौरन भेजने को कहा और शशि से एक और जाम लेकर पिया।

रानाडे के चुप हो जाने के बाद कमरे में शांति छा गई। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। सभी के चेहरे पर तनाव साफ दिखाई दे रहा था! आयंगार सिगरेट के छल्ले बनाता रहा।

सेठ रामलाल ने जाने की इजाजत माँगी, मगर रानाडे ने कोई जवाब नहीं दिया।

रानाडे ने कहा, "अच्छा तो फिर कल के अखबार में जैसा मैंने कहा वैसा आ जाना चाहिए!"

"जी, अच्छा!"- आयंगार ने हाँ-में-हाँ मिलाई।

"अब तुम जाओ!"

आयंगार के जाने के बाद रानाडे ने सेठ रामलाल को आँखों का इशारा किया। सेठजी समझ गए।

"अच्छा शशि, तुम यहीं ठहरो, मैं चलता हूँ।"

इससे पहले शशि कुछ कह सके, सेठजी बाहर जा कर अपनी कार में बैठकर चल पड़े।

कमरे में रानाडे और शशि बचे रहे। वही हुआ जो ऐसे अवसरों पर होता आया है। कुछ दिनों बाद शशि के नाम से एक बड़ी कंपनी के शेयर खरीदे गए।

संसद-भवन से एक लंबी केडीलाक बाहर निकली और तेजी से आगे बढ़ गई। इस कार के पीछे तीन-चार अन्य कारें भी तेजी से चल पड़ी। लंबी केडीलाक कार के अंदर केंद्रीय सरकार के वरिष्ठ मंत्री रानाडे, और उसके पीछे वाली कारों में उनके अनुयायी थे। सभी केंद्रीय मंत्रिमंडल की मीटिंग से वाक आउट करके आ रहे थे।

रानाडे के आवास पर आज बड़ी गहमा-गहमी है। लान में इधर-उधर झुंड बनाकर लोग बैठे हैं, बतिया रहे हैं। आनेवाली कारों की लंबाई से आनेवाले की हैसियत नापी जा रही है।

रानाडे के दोनों सचिव और मिस असरानी तेजी से इधर से उधर भाग-दौड़ कर रहे हैं।

मनसुखानी की अँगुलियाँ टाइपराइटर पर मशीन की तरह दौड़ रही हैं। पास के कमरे में टेलिप्रिंटर तेजी के साथ कागज और कागजों पर समाचार उगल रहा था।

ड्राइंग रूम के बाहर वाले कमरे में पत्र-प्रतिनिधि बैठे थे। उससे आगे कुछ विशिप्ट व्यक्ति एक कमरे में रानाडे का इंतजार कर रहे थे। अचानक बाहर हल्ला हुआ -

"रानाडे आ गए।"दोनों सचिव उधर दौड़ पड़े। कार में से रानाडे को सहारा देकर उतारकर अंदरवाले कमरे में ले जाया गया। अंदर के मंत्रणा-कक्ष में रानाडे और उनके अनुयायी बैठे और वार्ताक्रम प्रारभ हुआ -

"अगर कुमारस्वामी को तोड़ा जा सके तो हमारी स्थिति ठीक हो सकती है।"रामेश्वर दयाल ने कहा।

"तुम यह क्यों भूल जाते हो, कि इससे उत्तर में हमारी शक्ति कम हो जाएगी।"-रानाडे बोले।

"तो फिर क्या किया जाए?"रामेश्वर ने चिंतातुर हो कर कहा।

"प्रधानमंत्री तो बिलकुल भी झुकना नहीं चाहते..."

"एस. सिंग, तुम जरा उन सांसदों की सूची बनाओ जो हमारे साथ है, और सभी को फोन पर सूचित कर दो - मीटिंग शाम को होगी।"

"जी अच्छा!"एस. सिंग दौड़कर मनसुखानी के पास आया। फटाफट सूची टाइप हुई और रानाडे को दी गई।

सूची पर एक नजर डालकर रानाडे बोले, "कुल 120 एम.पी. मेरे साथ हैं। उत्तर के राज्यों में मेरे तीन मुख्यमंत्री हैं, इन्हें भी बुलवा लो।"

"अब समय आ गया है कि खुला संघर्ष कर लिया जाए!"- रानाडे बोले।

"रामेश्वर, तुम शाम की मीटिंग की तैयारियाँ करो। उसके तुरंत बाद ही एक पत्रकार-सम्मेलन होगा!"रामेश्वर चल दिए।

"सर, बिहार में मंत्री हरिहर नाथ मिलना चाहते हैं!"

"अभी मैं किसी से नहीं मिलूँगा! पत्रकारों से भी कह दो - शाम की मीटिंग के बाद आएँ।"

"जी, अच्छा!"सचिव चला गया।

रानाडे उठकर अंदर वाले कमरे में विश्राम हेतु चल दिए। यह कमरा काफी अंदर था, किसी को अंदर आने की इजाजत न थी। बहुत कम लोग जानते थे कि कमरे में क्या रहस्य है। वास्तव में कमरा रानाडे की ऐशगाह था।

रानाडे डनलप के नरम गद्दे पर लेट गए। मगर चित्त अशांत था। तृष्णा की भी अजीब हालत है - वे लेटे-लेटे सोचने लगे - कहाँ तो गांधी और उनके सपनों का भारत, आचार्य नरेंद्रदेव का समाजवाद और कहाँ हम जो केवल राजनीतिक उठापटक पर ही जिंदा हैं। कोई तुलना ही नहीं है।

उन्हें अपना अतीत सताने लगा - गरीब माँ-बाप की इकलौती संतान, देश के एक गरीब गाँव में जन्मा बालक रानाडे। पाँच वर्ष का हुआ, माँ चल बसी। बीमारी और बेकारी ने कुछ समय बाद बाप को भी लील लिया। सेठों ने जमीन हड़प ली। मौसी ने पाला पोसा। तभी से रानाडे ने राजनीति में आने की ठानी। शिक्षा-दीक्षा पूरी नहीं हो पाई, लेकिन भाषण कला में जमते गए। तहसील से जिला, जिला से प्रांत और प्रांत से राजधानी तक की लंबी दूरी रानाडे ने पार की है। कई पटकियाँ खाईं, कई खिलाईं - लेकिन बढ़ते चले गए। उन्हें स्वयं आज आश्चर्य होता है - वे कहाँ थे, कहाँ आ गए! हर रात वे सुहाग रात की तरह मनाते है। उनका विचार है, मानसिक शांति और प्रफुल्लता हेतु यह आवश्यक है!

विचारों के इस महासमुद्र में अचानक एक धुँधली आकृति उन्हें दिखाई देने लगी। धीरे-धीरे आकृति साफ होती गई। इसी के साथ उन्हें कमरे में एक अजीब सन्नाटा और रहस्यपूर्ण आवाजें सुनाई पड़ने लगीं। आकृति उनके पलंग के पास आकर खड़ी हो गई, वे डर गए। चीखना चाहते थे, लेकिन चीख नहीं निकली।

यह आकृति अकसर उन्हें अकेले में परेशान करती है, वे कुछ नहीं कर सकते। ओझाओं, ज्योतिषियों, तांत्रिकों, हड़भोपों - सभी से वे ताबीज, गंडा, डोरे लेकर देख चुके, कुछ नहीं होता।

आकृति उनकी पुत्रवधू कमला की है, जो बरसों पूर्व उनकी हविस का शिकार होकर आत्महत्या कर चुकी है। उनका पुत्र पागल होकर किसी नदी में डूब मरा। कहने वाले अभी तक कुछ-न-कुछ कहते रहते हैं। रानाडे ने इस डर से बचने के लिए नींद की गोलियाँ खाईं और सो गए।

लंबे समय बाद रानाडे को आज की सुबह इतनी ताजी ओर सुहावनी लग रही थी। रात की खुमारी धीरे-धीरे उतर रही थी टेबल पर देश-विदेश के प्रमुख अखबार थे। वे सुर्खियों को टटोल टटोलकर परख रहे थे।

आयंगार ने सत्ताधारी पक्ष पर तीखा आक्रमण किया था। सर्वव्याप्त असंतोष के लिए उसने प्रधानमंत्री को दोषी ठहराया था; लेकिन प्रधानमंत्री के अखबारों ने देश में व्याप्त अराजकता, हिंसा, लूटपाट और हरिजनों को जिंदा जला दिए जाने का सेहरा रानाडे के सर पर बाँधने की कोशिश की थी।

अचानक सचिव ने आकर ध्यान भंग किया -

"सर, अपने क्षेत्र से विधायक हरनाथ आए हैं।"

हरनाथ रानाडे के विश्वासपात्र विधायक थे। वे क्षेत्र की हर छोटी-बड़ी घटना की जानकारी रानाडे को देते रहते थे। और रानाडे इस हेतु कुछ कार्य करवा देते थे।

"प्रणाम महाराज", और हरनाथ उनके चरणें में झुक गए। हरनाथ अकेले नहीं थे, उनके साथ ही एक किशोरी बाला थी।

रानाडे ने उसी की ओर मुखातिब होकर पूछा -

"कहो, क्या बात है?"

"सर, ...ऐसा है..."और बेचारी किशोरी कुछ बोल न सकी। रानाडे ने हरनाथ पर दृष्टि फेंकी; हरनाथ कहने लगे -

"सर, इसके साथ घोर अन्याय हुआ है! ये आपके क्षेत्र की सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इनका स्थानांतरण अन्यत्र कर दिया गया। बेचारी बड़ी दुखी हैं। घर पर बीमार माँ है, और कोई नहीं। आपको पिता-तुल्य मानकर आई हैं, इनकी मदद करें!"

"अच्छा, तो आप वापस स्थानांतरण चाहती हैं। लेकिन यह विभाग तो मेरे पास नहीं है। और संबंधित मंत्री मेरे गुट के भी नहीं हैं।"

किशोरी का चेहरा रुआँसा हो गया। रानाडे समझ गए। उन्होंने उसकी पीठ पर हाथ फेरा और कहा, "खैर, तुम निराश मत हो ओ! अभी तो आराम करो, फिर जैसा होगा वैसा करेंगे!"

किशोरी ने पैर छुए और हरनाथ के साथ चली गई।

उसे एक स्थानीय होटल के कमरे में ठहरा दिया गया।

दूसरी रात को होटल के उस कमरे में फोन आया -

"तुम अभी रानाडे के यहाँ चली आओ। तुम्हारा काम हो जाएगा!"

रानाडे की कोठी पर रात को सर्वस्व लुटाकर किशोरी, वापस आते समय होटल जाने के बजाय आत्महत्या कर गई। दूसरे दिन अखबारों ने बड़ा हल्ला मचाया। लेकिन कुछ नहीं हुआ। अखबारों को विज्ञापन और संबंधित पत्रकारों को प्लाट बाँट दिए गए धीरे-धीरे सब ठीक हो गया।

2

प्रधानमंत्री आवास। बड़ा विचित्र और अनोखा व्यक्तित्व है प्रधानमंत्री का धीर, गंभीर! ऐसा लगता है, जैसे विचारों और समस्याओं के महासमुद्र में डूबे हैं। उम्र लगभग 75 वर्ष, शुभ्र-धवल वस्त्रों में, धोती की लांग सँभालने के साथ-साथ देश और पार्टी की बागडोर सँभालने में भी निपुण।

कार्यालय की अंडाकार मेज के पीछे रिवाल्विंग कुर्सी पर बैठे हैं, फाइलों का अंबार और टेलीफोनों की कतार। लाल, सफेद, काला और पीला-चार फोन। एक इंटरकॉम, कई तरह के बटन, कमरे में देश के महापुरुषों के चित्र।

आज राव साहब गंभीर ज्यादा ही हैं। सुबह से ही वे पार्टी के आवश्यक कार्य में व्यस्त हैं। उनके स्वयं के क्षेत्र में भयंकर सूखा था, लोग पानी की एक-एक बूँद के लिए तरस रहे थे। आदिवासी पत्तियाँ और जड़ें चबा-चबाकर अपना समय निकाल रहे थे। उड़ती हुई खबरें भूख से मरने की भी आई थीं, लेकिन राव साहब ने उसे विरोधियों की चाल कहकर टाल दिया था। उनके अनुसार -

"यह गंदी राजनीति से प्रेरित है। मेरे चरित्र-हनन का प्रयास किया जा रहा है।"

फिर भी राव साहब अपने क्षेत्र के प्रति उदासीन हैं, ऐसी बात नहीं। परसों ही वहाँ का हवाई सर्वेक्षण करके आए है। कल ही अफसरों को फोन पर नए आदेश दिए हैं। संबंधित मंत्रालयों के मंत्रियों को भी आगाह किया है। एक कनिष्ठ मंत्री की ड्यूटी अपने ही क्षेत्र के जिला-मुख्यालय पर लगा दी है। लेकिन यह रानाडे..."साला समझता क्या है, अपने आपको - 120 एम.पी. क्या हैं, इसके पास, अपने आपको खुदा समझता है!"

उन्होंने फोन पर आदेश दिया -

"सी.बी.आई. के प्रमुख को बुलाओ!"

थोड़ी देर बाद सी.बी.आई. प्रमुख ने एड़ियाँ बजाकर सेल्यूट किया।

राव साहब ने सिर के हलके इशारे से अभिवादन स्वीकार किया और बैठने का इशारा किया -

"आपका विभाग ठीक चल रहा है?"

"जी हाँ..."

"कोई राजनैतिक दबाव तो नहीं है?"

"जी नहीं!"

"देखिए, मै। चाहता हूँ कि सभी जगह कानून और व्यवस्था मजबूती से कायम की जाए ओर बिना किसी दबाव के सब कार्य करें। ...अगर कोई परेशानी हो तो सीधे मुझे बताएँ!" राव साहब बोले।

"जी, अभी तो कोई नहीं" - चीफ बोले।

"उस होटल-कांड की - जिसमें एक किशोरी की मृत्यु हो गई थी, कौन जाँच कर रहा है...?"

"वो, केस तो फाइल हो गया, सर!"

"क्यों? क्यों फाइल हो गया?"

"दैट वाज ए केस ऑफ सुसाइड!"

"सुसाइड? हाउ कैन यू से? क्या तुमसे पूछकर लड़की ने आत्महत्या की, या तुम्हें कोई सपना आया?"

सी.बी.आई. प्रमुख बगलें झाँकने लगे उन्हें ऐसी उम्मीद नहीं थी, लेकिन अब क्या हो सकता है!

"वेल मैन, किसी ईमानदार अफसर को वापस वह केस दो और पूरी तहकीकात कराओ! मुझे शक है, इस हत्याकांड में कुछ विशेष लोगों का हाथ है।"

"ओ.के. सर!"

"और देखो, जिस एस.पी. को लगाओ, उसे कह देना-पूरी रिपोर्ट मैं स्वयं देखूँगा!"

"जी, बेहतर!"

"जाइए!"

प्रमुख ने बाहर आकर पसीना पोंछा।

रात्रि का प्रथम प्रहर, राव साहब के अध्ययन-कक्ष में टेबल-ट्यूब का प्रकाश। राव साहब कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण और गोपनीय फाइलों के अध्ययन में व्यस्त हैं।

सचिव ने आकर बताया, "एस.पी. इंटेलीजेन्स मिलने आए हैं। राव साहब के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान आई और उन्होंने एस.पी. को भेजने को कहा। एस.पी. का अभिवादन स्वीकार कर कहने लगे -

"कब से इंटेलीजेन्स में हो?"

"सर, दस वर्ष से!"

"अभी तक तुम ऊपर नहीं बढ़े?"

"..."

"खैर, जो केस तुम्हें दिया गया है, वह बहुत महत्वपूर्ण है। पिछले कुछ समय से राजधानी में मासूम लड़कियों से बलात्कार और हत्या की वारदातें बढ़ गई हैं, ...होटल-कांड के केस का अध्ययन किया आपने?"

"जी हाँ ...दैट इज ए केस ऑफ सुसाइड।"

"दैट इज ए केस ऑफ सुसाइड" - कितनी आसानी से बोल गए तुम! लेकिन होटल के बाहर जो कार खड़ी थी, उसमें पड़ोसी राज्य के एक भूतपूर्व मंत्री हरनाथ थे?"

"जी, हाँ..."

"वे वहाँ क्या कर रहे थे?"राव साहब ने पूछा।

"..."

"देखो"अब राव साहब ने उन्हें आत्मीयता से समझाया -

"ऐसे केसेज की गुत्थी सुलझाने में बुद्धि ओर धैर्य चाहिए। पूरे केस की स्टडी करो और देखो कि वास्तव में क्या हुआ!"

"जी...!"

"ओ.के.!" राव साहब ने कहा और एस.पी. बाहर आ गए। सचिव ने आकर बताया, "सर, अमेरिकन राजदूत मिलना चाहते हैं।"

इधर राव साहब की शारीरिक, मानसिक और राजनीतिक शक्ति में निरंतर कमी आई है। शारीरिक रूप से वे काफी अशक्त हो गए है। सभी राजरोग उन्हें घेरे हुए हैं। मधुमेह, ब्लड-प्रेसर, हृदय रोग के अलावा यदा-कदा उन्हें वृक्क से संबंधित शिकायतें भी रहती हैं, लेकिन उन्होंने हमेशा देश और पार्टी को शरीर से उपर समझा है। यही कारण है, इस स्थिति में भी देश की बागडोर वे बूढ़े घोड़े की तरह सँभालते चले आ रहे हैं। मानसिक रूप से भी वे अपने आपको अब ज्यादा सक्षम नहीं पाते है। विरोधियों ने निरंतर अपनी शक्ति का विकास किया है, और इसी कारण राव साहब राजनीति के अखाड़े के अनुभवी खिलाड़ी होते हुए भी अपनी शक्ति को कमजोर होता देख रहे हैं।

विराधी पक्ष के कई प्रमुख नेताओं पर उन्होंने समय-असमय कई उपकार किए हैं। कोटा, परमिट, लाइसेन्स, विदेश-यात्राएँ अक्सर वे बाँटते रहते हैं। अपने दरबार से किसी विपक्षी को खाली हाथ नहीं जाने देते। लेकिन फिर भी अब वो बात नहीं रही। धीरे-धीरे उनके चारों ओर एक जमघट एकत्रित हो गया, जो केवल स्वयं अपना हित-चिंतन कर सकता है। स्थिति दिनोंदिन बिगड़ने लगी। राव साहब चाहकर भी इन लोगों से नहीं बच सकते।

उन्होंने रानाडे को मंत्रिमंडल से हटाने की सोची, लेकिन उसके बाद उत्पन्न होने वाली स्थिति का ध्यान आते ही उन्हें अपनी कुर्सी डोलती नजर आती और वे चुप रह जाते। इस बार उन्होंने रानाडे की जड़ें ही खोखली करने का निश्चय किया। तीन राज्यों में रानाडे के मुख्यमंत्री थे। सबसे पहले उन्होंने इन तीनों राज्यों में अपने विश्वस्त अनुचर भेजने का तय किया, ताकि वहाँ राजनैतिक अस्थिरता उत्पन्न की जा सके। अगर इस कार्य में वे सफल हो जाते हैं तो फिर रानाडे की जड़ों में मट्ठा डाला जा सकेगा, और किसी बहाने से वे रानाडे को मंत्रिमंडल से हटा देंगे।

फोन करके उन्होंने अपनी विश्वस्त माया को बुलवाया और उसे पूरी योजना समझाने लगे -

"देखो माया, अब स्थिति धीरे-धीरे बिगड़ रही है। सीमाओं पर अशांति है, केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता है... और रानाडे मान नहीं रहे हैं।"

"येन-केन-प्रकारेण हमें रानाडे को डाउन करना ही है! राजधानी के होटल-कांड की मैंने नए सिरे से जाँच के आदेश दिए है। रानाडे के खिलाफ एक आयोग बैठाने की भी बात सोच रहा हूँ। लेकिन इस बीच तुम उन प्रदेशों में जाओ, जहाँ रानाडे के मुख्यमंत्री है, और किसी भी तरह वहाँ की सरकार गिराओ। जो भी संभव हो सके करो और सफल होकर आओ।"

"देखिए, तीन में से दो प्रदेशों की सरकारें तो कभी भी गिराई जा सकती हैं, क्योंकि वहाँ पर रानाडे समर्थकों का बहुमत ज्यादा नहीं है। तीसरे प्रदेश हेतु ज्यादा मेहनत होगी!"

"कोई बात नहीं, हमें सब कुछ करना है! ...अब तुम जाओ और कार्य शुरू करो, साथ में कुछ अनुचर और ले जाओ।"

"ठीक है!"

किसी प्रांत की राजधानी में मायादेवी श्रीवास्तव का पदार्पण बहुत बड़ी घटना मानी जाती है। मुख्यमंत्री जानते हैं कि केंद्र में मायाजी का आना क्या मायने रखता है, और इसी कारण उनके आगमन को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। जब से पता चला कि मायादेवी आ रही हैं, मुख्यमंत्री भयभीत हैं। उन्होंने मायादेवी के स्वागत-सत्कार की जोरदार तैयारियाँ कीं।

एअर-कंडीशंड डिब्बे से उतरते ही अपने स्वागत में मुख्यमंत्री ही नहीं, पूरे मंत्रिमंडल को देखकर वे खुश हुई, लेकिन उन्हें तो अपना काम करना था! विधानसभा बंद थी। वर्तमान मुख्यमंत्री के पास 110 विधायक थे और विपक्ष में 90। मायाजी को 10-15 विधायक तोड़कर विपक्ष में मिलाने थे।

सुबह और रात में, हर समय उन्होंने काम किया। उन्होंने नोटों की थैलियाँ खोल दीं।

उधर मुख्यमंत्री और उसके चहेते मंत्रियों ने भी डटकर मुकाबला किया। लेकिन कुछ हरिजन विधायकों को मायाजी तोड़ने में सफल हो गईं। एक विधायक को उप-मुख्यमंत्री पद का लालच दिया गया।

दूसरे दिन अखबारों में प्रमुख समाचार था -

"वर्तमान सरकार अल्पमत में।"

"सरकार का इस्तीफा!"

"नए मंत्रिमंडल का गठन शीघ्र।"

मायाजी का काम समाप्त हो गया था। वे और उनके सचिव अगले प्रदेश की राजधानी हेतु उड़ चलें; और मायाजी जब एक सप्ताह के बाद ही वापस राव साहब से मिलीं, तो राव साहब उनके कार्य से बहुत खुश थे, और इस खुशी में उन्होंने वह रात माया जी के नाम कर दी।

3

वे तीनों राजधानी के एक साधारण दारू के ठेके से पीकर निकल रहे थे।

एक भूतपूर्व मंत्री और वर्तमान विधायक हरनाथ थे, दूसरे एक पत्रकार थे राम मनोहर और तीसरे सज्जन व्यापारी।

"यार, इस देश का क्या होगा?" हरनाथ ने नशे में हाँक लगाई।

"होना जाना क्या है - जैसा चल रहा है, चलता रहेगा!" व्यापारी ने बनिया-बुद्धि दर्शाई।

"देखो प्यारे, इस देश का भविष्य जनता के हाथों में पूर्णरूप से सुरक्षित है। लोकतंत्र सुरक्षित है, अतः हमें चिंता की जरूरत नहीं है। आप और मेरे-जैसे पढ़े-लिखे गँवारों से ज्यादा बुद्धिमान है इस देश का अनपढ़ मतदाता, जो सही समय पर सही कदम उठाकर सरकार को चेतावनी दे देता है।"

"तुम तो यार, भाषण देने लगे! नेता मैं हूँ या तुम हो?"हरनाथ ने जोड़ा।

"देखो हरनाथ, अगर सरकारें ऐसे ही गिरती रहीं तो फिर मध्यावधि चुनाव होंगे और तुम्हारा वापस मंत्री बनने का सपना अधूरा रह जाएगा। अतः अगर कुछ कर सकते हो तो अभी कर लो। कल का भरोसा मत करो!" राम मनोहर ने अपना ज्ञान दर्शाया।

"राजनीति और पत्रकारिता में बहुत अंतर है बच्चे, फ्रूफ उठाने से छपाई नहीं हो जाती। देखो, अभी तो होटल-कांड भी चल रहा है। मैं प्रदेश का पावरफुल एम.एल.ए. हूँ, और इसी कारण मुख्यमंत्री ने भी प्रधानमंत्री को कहा है कि मुझे इस केस में फँसा दिया जाए। इधर रानाडे की नाव में छेद होता जा रहा है!"

"तो तुम क्या कर रहे हो?"

"करूँगा, समय आने पर सब कुछ करूँगा! अभी तो तुम नशे को जमाने का इंतजाम कराओ।"

तीनों ने मिलकर एक बोतल और पी, और फिर चल पड़े।

"देखो, अगर केंद्र से रानाडे हटते हैं तो हम तीनों ही नुकसान में रहेंगे।"

"राम मनोहर, तुम्हारे अखबार का कोटा मिल गया?"

"कहाँ यार!"

"तो तुम कल रानाडे से, मेरा नाम लेकर मिलो। और देखो, अपने अखबार में होटल-कांड को आत्महत्या का मामला लिख दो। बाकी मैं देख लूँगा।" हरनाथ बोले।

एस.पी. वर्मा के जीवन में पहला मौका नहीं था यह, जब उपर के आदेशों के अनुसार रपट को बदलना पड़ता है। वे ऐसे कार्यो में माहिर है और इसी कारण चीफ ने जान-बूझकर उन्हें इस काम में लगाया है।

"दूध का दूध और पानी का पानी" - करने के लिए वर्मा ने पूरी फाइल पढ़ी और कल सुबह हेतु कुछ बिंदु नोट किए।

"होटल के बाहर जो कार खड़ी थी, उसमें हरनाथ थे। उनके बयानों को नोट करना।"

"लड़की की पास्टमार्टम-रिपोर्ट पर एक डॅाक्टर के हस्ताक्षर नहीं - इसको चेक करना।"

"होटल के मैनेजर के बयान लेना।"

"कार का ड्राइवर आज तक लापता है, क्यों?"

ज्यों-ज्यों वर्माजी केस में उतरते गए, त्यों-त्यों उन्हें मजा आने लगा - अगर इस बार चीफ और पी.एम. की नजर में चढ़ जाऊँ तो सब ठीक हो जाए।

लेकिन रानाडे और हरनाथ कच्चे खिलाड़ी नहीं थे। दूसरे दिन एक सड़क-दुर्घटना में एक ट्रक ने एस.पी. वर्मा की जीप को कुचल दिया। वर्मा की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गई।

इस दुर्घटना पर सबसे पहला शोक-संदेश रानाडे का ही आया।

"श्री वर्मा एक कर्तव्य-परायण और जागरुक अधिकारी थे। उनके असामयिक निधन से मुझे दुख हुआ है। परमात्मा उनकी आत्मा को शांति दे!"

अखबारों ने राजधानी में बिगड़ती हुई कानून और व्यवस्था पर लंबे-चौड़े लेख सचित्र छापे। कुछ ने सरकार की निंदा की। आयंगार ने पूरा दोष संबंधित मंत्रालय पर थोप दिया जो पी.एम. के पास था।

पी.एम. इस अचानक वार से बौखला तो गए, लेकिन उन्होंने धैर्य नहीं खोया। वापस चीफ को बुलाकर किसी व्यक्ति को लगाने को कहा। इस बार इस बात का ध्यान रखा गया कि बात खुले नहीं, और गुपचुप सब तय किया गया।

इस कार्य से निपटकर पी.एम. अपनी स्टडी रूप में आए। आज उनका चित्त अशांत था। गीता उठाई और पढ़ने लगे।

अनाश्रिताः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्नचाक्रियः।।

मन नहीं लगा, उन्हें याद आया -

ना दैन्यं न च पलायनम्...

- युद्ध में न तो दीनता दिखाओ और न ही पलायन करो। आज उनकी स्थिति भी ऐसी ही हो रही है, लेकिन वे दीनता नहीं दिखाना चाहते। गीता से मन उचटा तो आज उन्हें रवि बाबू की - "चित्त जेथा भय शून्य" ...याद आई, वे उसे ही गुनगुनाने लगे।

लेकिन कहाँ, आज न निर्भयता है और न न्याय। वे परेशान हो उठे।

अभी पूरी तरह सवेरा नहीं हुआ है। मौसम साफ है। उषाकालीन प्रकाश चारों तरफ फैलना शुरू ही हुआ है। मंद-मंद समीर बह रहा है। राजधानी में ऐसी सुबहें अधिक नहीं आतीं।

राव साहब आज जल्दी उठ लिए। विशाल कोठी के हरे-भरे लॉन में वे एक खादी की शाल डाले धीरे-गंभीर चाल से टहल रहे थे। उनके साथ उनके विश्वास-पात्र मदनजी चल रहे थे। पिछले दिन की पूरी राजनीतिक गतिविधियों से राव साहब को अवगत कराने की जिम्मेदारी है मदनजी की, और उन्होंने इस कार्य में कभी कोई ढील नहीं आने दी। राजधानी के किस कोने में कब कौन-कितने एम.पी. के साथ गुप्तगू कर रहा है, उनका अगला कदम क्या होगा, और इस अगले की काट क्या होगी, तुरूप का इक्का कब और कैसे चलना चाहिए। मदनजी ने राव साहब का साथ बरसों निभाया है, नमक खाया है, और अपनी बात को सही ढंग से प्रस्तुत करना हैं। एस.पी. वर्मा की मौत को लेकर वे कह रहे थे-

"देखो, अपने रानाडे ने किस सफाई से सब काम कर दिया! साँप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।"

"हाँ, इस बार वे सफल हो ही गए!"

उस दिन रानाडे के यहाँ मीटिंग में तीनों भूतपूर्व मुख्यमंत्री और करीब 100 एम.पी. थे, सभी मिलकर नई पार्टी बनाने की बात कर रहे थे।

"हूँ..." राव साहब कुछ नहीं बोले।

"तीनों मुख्यमंत्री तो रानाडे पर दबाव डाल रहे हैं कि वे भी सत्ता से अलग हो जाएँ।"

"तो कौन मना करता है!"

"लेकिन रानाडे नहीं निकलेंगे! वे चाहते हैं कि सरकार को गिराकर फिर अलग हों।"

"जब जहाज डूबता है तो चूहे पहले भागते हैं। और क्या समाचार है?"

विश्वेश्वर दयाल ने भी अपने सर्मथकों की मीटिंग का आयोजन किया है -

"कितने लोग थे?"

"राज्यमंत्री सुराणा और मनसुखानी थे।"

"हूँ" - राव साहब इस बार भी चुप रहें वे शांत मन टहलने लगे। मदनजी से रहा नहीं जा रहा था। आज राव साहब की चुप्पी उन्हें बहुत रहस्यमय लग रही थी। पता नहीं कब क्या हो जाए।

"अच्छा, अब तुम चलो!" उन्होंने मदनजी को जाने का इशारा किया।

मदनजी के जाने के बाद उन्होंने फोन कर मनसुखानी और सुराणा को बुलवाया। अपने चेंबर में बैठ कर वे मनसुखानी और राज्यमंत्री सुराणा का इंतजार करने लगे। गृह-मंत्रालय से उन्होंने इन मंत्रियों के खिलाफ की गई जाँच की फाइलें भी मँगवा लीं। उन्हें ही उलट-पलटकर देख रहे थे वे। दोनों मंत्री आए। बैठे।

"कल आप विश्वेश्वर दयाल के यहाँ मीटिंग में थे?"

सुराणा हकलाने लगे। मनसुखानी का पानी उतर गया।

"जी, हाँ..."

"तो क्या आप उनके साथ हैं?"

"ऐसी तो कोई बात नहीं।"

"तो फिर?"

"बात ऐसी है कि सुराणा ने कूटनीति का सहारा लिया - मुझे यह विभाग पसंद नहीं है।"

"तो आपको मुझसे मिलना चाहिए था। विश्वेश्वर दयाल इसमें क्या करेंगे!"

"..."

"खैर बोलो, क्या चाहते हो?"

"गृह मंत्रालय।" सुराणा ने सीधी बात की।

राव साहब क्षण भर को झिझके फिर उबल पड़े।

"तुम्हारे काम तो ऐसे है कि जेल भेजा जाए, और तुम गृह मंत्रालय चाहते हो। ये देखो तुम्हारी फाइलें!"

"फाइलों में क्या रखा है, साहब! मेरे साथ 60 एम.पी. हैं। बोलिए, क्या फैसला है?" राव साहब के चेहरे पर परेशानी के चिह्न उभर आए - "और मनसुखानी तुम क्या चाहते हो?"

"अपने को तो आप उद्योग में लगा दीजिए।"

"हूँ, अच्छा हो जाएगा!"

अगले दिन समाचार-पत्रों में हेड लाइन थी -

"केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेर-बदल"

"गृह विभाग सुराणा को।"

"उद्योग मंत्रालय में मनसुखानी..."

देर रात को राष्ट्रपति ने आदेश प्रसारित कर इस फेर-बदल की पुप्टि कर दी।

4

 

केंद्रीय मंत्रिमंडल की विशेष बैठक चल रही थी। कुछ राज्यों की विधान सभाओं और लोकसभा हेतु कुछ उपचुनावों पर विचार होना है।

प्रधानमंत्री राव साहब और रानाडे के समर्थकों में सीधी तथा तीखी झड़पें होने की संभावना को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री ने ये मीटिंग बुलाई है। उन्होंने अपने प्रारंभिक भाषण में, देश में व्याप्त अकाल और बाढ़ की ओर अपने साथियों का ध्यान खींचा। बढ़ती महँगाई, लूटपाट, आगजनी, हत्याएँ, बलात्कार, आरंक्षण के पक्ष और विपक्ष में देश के हर कोने में रोज होनेवाले आंदोलन, विदेशों में देश की गिरती हुई प्रतिष्ठा, बढ़ती मुद्रास्फीति आदि सभी प्रश्नों को बिना लाग-लपेट के उन्होंने कहा।

मूल प्रश्न पर आते हुए उन्होंने निकट भविष्य में राज्य विधान-सभाओं के चुनाव की बागडोर अपने विश्वस्त अनुचर मदनजी को सौंपने का तय किया और लोकसभा उपचुनावों की बागडोर रानाडे को सौंपी।

रानाडे कहाँ मानने वाले थे -

"अगर विधान-सभा चुनावों में उम्मीदवारों का चयन सही नहीं हुआ तो उसका प्रभाव लोकसभा पर भी पड़ेगा, सत्ताधारी पक्ष हार जाएगा!"

"देखो, सभी कार्य एक साथ एक आदमी नहीं कर सकता। सत्ता का विकेंद्रीकरण आवश्यक है!" राव साहब रानाडे के इस वार को झेल गए।

आप और मैं, यहाँ दिल्ली में बैठकर देश के आंतरिक मामलों पर विचार तो कर सकते है, लेकिन गाँवों, झोंपड़ियों और ढाणियों में क्या हो रहा है - यह जानना भी आवश्यक है। और इस बार उम्मीदवारों का चयन ताल्लुका, तहसील और पंचायतों के आधार पर होगा।"

इस बार रानाडे फिर उलझ पड़े -

"तो फिर आप ये चुनाव नहीं जीत पाएँगे।"

"चुनाव ढाणियों में नहीं, मैदानों में लड़े और जीते जाते हैं।" मुस्कराते हुए राव साहब के चेहरे पर शिकन तक नहीं आई, उन्होंने वैसे ही हुए कहा -

"जैसे भी हो, हमें सत्ताधारी पक्ष की लाज बचानी है।

"सत्ता की द्रौपदी पर सभी, कौरव और पांडव एक होकर लगे हुए है।" रानाडे फिर फुफकारे।

"आपने पिछले मास ही हमारे गुट के मुख्यमंत्रियों को गद्दी से उतार दिया।"

"कोई किसी को नहीं उतारता भाई! सब कर्मों का फल है। अगर उन लोगों को जाना था तो वे गए!" राव साहब अभी भी शांत ही थे।

"नहीं! आपने जान-बूझकर मेरा पक्ष कमजोर किया है। आप क्या मुझे बच्चा समझते हैं!" रानाडे फिर गुर्राए।

"देखो रानाडे" - अब उनके के चेहरे पर क्रोध की एक हल्की-सी छाया आई, "क्या मैं नहीं जानता कि एस.पी. वर्मा की मृत्यु कैसे हुई या होटल-कांड में कौन लोग दोषी हैं!"

"अगर आप जानते हैं तो कार्यवाही कीजिए। हम कब मना करते हैं!" इधर रानाडे के समर्थकों ने हो-हल्ला मचाना शुरू कर दिया।

मीटिंग अधूरी छोड़नी पड़ी।

कुछ समय बाद उम्मीदवारों के चयन पर फिर बहस हुई। इस बार पी.एम. के उम्मीदवार खड़े हुए, वहाँ रानाडे ने दिग्गजों को खड़ा करने की सिफारिश की। जहाँ रानाडे के उम्मीदवार थे, वहाँ पी.एम. ने दिग्गज लोगों को खड़ा किया।

पिछले चुनावों में विरोधी दल के नेता के रूप में रामास्वामी जीतकर आ गए थे, लेकिन इनके अधिकांश सहयोगी इस चुनाव की वैतरणी को पार नहीं कर सके, और वे सभी अपने क्षेत्रों में प्रेत-काया बन विचरण करने लगे।

रामास्वामी वैसे तो मद्रास के हैं, लेकिन हिंदी ठीक-ठाक बोलने लगे हैं, इसी कारण अपने आपको राष्ट्रीय स्तर का नेता मानने लगे। जेाड़-तोड़ करके उन्होने दिल्ली में अपने खास लोगों को खास ओहदे दिला दिए। वैसे भी सचिवालय पर अंग्रेजी का आधिपत्य होने के कारण रामास्वामी को कभी कोई दिक्कत नहीं आई। नॉर्थ ऐवेन्यू के छोटे फ्लैट को छोड़कर रामास्वामी केबिनेट दर्जे की एक कोठी को सुशोभित करने लगे।

कई विरोधी दलों में से एम.पी. को तोड़-ताड़कर उन्होंने अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। गहरे काले रंग का चश्मा और उसी रंग के सूट में जब वे लोकसभा में विपक्ष की ओर से सरकार की बखिया उधेड़ना शुरू करते, तो कनिष्ठ मंत्री सदन का भार झेलने में असमर्थ रहते। अधिकांश मंत्री इस काल में सदन से बाहर चले जाते। आँकड़ों, तथ्यों और घटनाओं का पैना विश्लेपण करने में कुशल रामास्वामी सभी मंत्रालयों के क्रियाकलाप पर तीखे प्रहार करते। अक्सर राव साहब स्वयं उनकी जिज्ञासाओं को शांत करते और रामास्वामी चुप्पी साध जाते। सांयकाल राव साहब उनको कोठी पर बुलाते, बतियाते, सार्वजनिक मसलों पर गंभीर मंत्रणाओं का जाल रचते, और अंत में रामास्वामी कुछ समय के लिए विदेश चले जाते या अपने भतीजे-भानजे के नाम पर किसी नई फैक्ट्री का लाइसेन्स लेकर आते।

इन दिनों भी स्थिति बिगड़ रही थी। रामास्वामी होटल-कांड और राजधानी में व्याप्त हिंसा और मारपीट की घटनाओं पर बहस की माँग कर रहे थे। विपक्ष के सदस्य उनके समर्थन में थे। लेकिन सत्ताधारी पक्ष और विशेषकर रानाडे के साथी इसका विरोध कर रहे थे। अगर बहस हो तो सब गुड़-गोबर होने का अंदेशा था।

रामास्वामी ने वर्मा की रहस्यमय मृत्यु की जाँच की माँग की।

सत्ताधारी पक्ष इसे भी नकारना चाहता था। लेकिन बहस का सूत्र राव साहब ने अपने हाथ में ले लिया -

"मुझे अफसोस है कि एक कर्तव्य-परायण और ईमानदार अफसर का ऐसा दुखद अंत हुआ। हमने केस सी.बी.आई. के वरिष्ठ अधिकारी को दे दिया है। रिपोर्ट आने पर सदन को इसकी सूचना दे दी जाएगी, और अगर आवश्यक हुआ तो दोषी व्यक्तियों पर मुकदमें चलाए जाएँगे।"

"लेकिन क्या वर्मा होटल-कांड की जाँच करने के कारण मारे गए?"

"नहीं, इस केस का होटल-कांड से संबंध जोड़ना उचित नहीं होगा।" - रानाडे के एक समर्थक बीच में ही बोल पड़े।

राव साहब ने उन्हें इशारे से मना किया और कहने लगे -

"जब तक जाँच की रिपोर्ट नहीं आ जाती, हमें किसी प्रकार की अटकलबाजी नहीं करनी चाहिए। हमें रिपोर्ट आने तक इंतजार करना ही पड़ेगा!" रामास्वामी इस बार कुछ न कह सके। उनके साथी भी चुप्पी लगा गए। बहस अधूरी, हवा में लटक गई।

आज अर्से बाद रामास्वामी को रानाडे का फोन मिला। किसी गुप्त मंत्रणा हेतु।

सायँकाल के भोजन पर रानाडे और रामास्वामी साथ-साथ थे।

रानाडे उन्हें अपनी योजना समझा रहे थे -

"देश की स्थिति बिगड़ रही है। घेराव, हड़ताल, तोड़फोड़, अराजकता की स्थिति है।"

"चारों तरफ अजीब माहौल हो गया है। लगता है, कानून और व्यवस्था नाम की कोई चीज ही नहीं है! हर रोज अखबारों में ऐसे समाचार आते हैं कि बस मत पूछो!"

"विश्वविद्यालय बंद है। मुनाफाखोर, तस्कर सक्रिय हैं। विद्यार्थी आंदोलन कर रहे हैं।

"किसान रैलियाँ निकाल रहें हैं। मजदूरों ने कारखानों में काम करना बंद कर दिया है। सैकड़ों मिलों में तालाबंदी है..."

"हालात दक्षिण में भी खराब है... रामास्वामी ने कहा - "तेलंगाना विवाद तो कहीं भाषा की लड़ाई।"

"ऐसी स्थिति में यदि हम मिल जाएँ तो राव साहब का पत्ता काट सकते हैं।"

"सो कैसे?" - रामास्वामी की आँखों में चमक आई। देखो, मेरे सौ एम.पी. हैं, तुम्हारे पास पचास-साठ है; अगर अपन मिलकर नई पार्टी की घोषणा कर दें तो यह अल्पमत की सरकार हो जाएगी - गिरेगी और राष्ट्रपति आपको बुलाएँगे। आप सरकार बना लेना।" रानाडे कुटिलता से मुस्कराया। रामास्वामी इस दाँव को समझ नहीं पाए। लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी का सपना उन्होंने अवश्य देखा था। अगर यह सब संभव हो तो क्या कहने! उन्होंने बात को तोलने की गरज से पूछा -

"आपका क्या होगा?"

"अरे भाई, हम तो तुम्हारे सहारे पड़े रहेंगे। अब मेरी पटरी राव साहब से नहीं बैठ सकती। इस कारण कह रहा हूँ।"

"कुछ कर गुजरेा! हम एक विशाल रैली का आयोजन कर रहे हैं। दस लाख लोग आएँगे; तुम चाहो तो उसी रैली में घोषणा कर दो।"

"नहीं! इतना जल्दी तो संभव नहीं होगा; मुझे मित्रों से भी पूछना होगा।"

"खैर, बाद में बता देना।"

दोनों मुस्कराते हुए बाहर आए। रामास्वामी कार में बैठे और चल दिए।

रानाडे बेडरूम में गए। गोली खाई, सचिव को मिस मनसुखानी को भेजने को कहा और सो रहे।

5

लोकसभा के उपचुनाव निकट से निकटतर आ रहे थे। सत्तधारी पक्ष में निरंतर बढ़ती फूट, गुटों की राजनीति और सबसे उपर राव साहब की कम होती शक्ति। रानाडे लंबे समय से ऐसे ही किसी मौके की तलाश में थे। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं! वे इस अवसर का भरपूर फायदा उठाना चाहते थे।

अपने विश्वस्त सहयोगियों - रामेश्वर दयाल, सेठ रामलाल और कुछ अन्य नेताओं को लेकर वे विश्राम हेतु राजधानी के पास के पर्यटक-स्थल में भूमिगत हो गए। विचार-विमर्श चलने लगा।

"शायद अब यह सरकार ज्यादा समय नहीं चलेगी।" - रामेश्वर दयाल बोल पड़े।

"सवाल सरकार के चलने या रुकने का नहीं है, सवाल हम सबके सामूहिक हित का है।"

"सेठजी, सुनाइए आपका काम कैसा चल रहा है?"

"आपकी कृपा है, साहब! जब से पिछला लाइसेन्स मिला है, मैं बहुत व्यस्त हो गया हूँ। पड़ोसी राज्य में एक बड़ा उद्योग अमरीकी तकनीकी सहायता से लगाने वाला हूँ। अभी कल ही अमरिकी डेलीगेशन को साइट दिखाई थी।"

"तो अड़चन क्या है?"

"हुजूर, स्थानीय सरकार जमीन का मुआवजा बहुत ज्यादा माँग रही है। कुछ असामाजिक तत्वों ने स्थानीय निवासियों को उल्टा-सीधा सिखा दिया है। वे लोग आंदोलन पर उतारू हैं।"

"हूँ...।" रानाडे ने खामोशी साध ली। कुछ समय बाद बोले -

"तुमने पहले क्यों नहीं बताया? सेक्रेटरी, जरा मुख्यमंत्री को फोन करके पूछो।"

"हाँ सर, सी.एम. ने कहा है - वे आज रात को राजधानी ही आ रहे हैं, वहीं बात हो जाएगी।"

सेठजी, आप पार्टी-फंड में दस लाख रुपये दीजिए; इसके एवज में सरकार आपकी कंपनी के चालीस प्रतिशत शेयर तथा उत्पादित माल का पचास प्रतिशत भाग खरीदेगी। इस आशय का समझौता उद्योग मंत्री से मिलकर कर लें।"

"जी, ठीक है..."

"और सुनो"- रानाडे ने कहा, "राजधानी में जाकर यह समाचार प्रसारित कराओ कि कुछ विशेष कारणों से रानाडे यहाँ आ गए हैं, और शीघ्र ही नया गुल खिलने वाला है।"

"अभी मैं आयंगार को फोन करके यह काम करा देता हूँ।"

इधर राजधानी में रानाडे के समर्थकों और राव साहब के बीच तेज-तर्रार वार्ताएँ हुई। राव साहब परेशान हो गए - क्या करें, कुछ समझ में नहीं आता।

मदनजी और कुछ अन्य वरिष्ठ विश्वासपात्र मंत्रियों के साथ वे अपने कार्यालय में बैठे हैं।

"क्या करें? रानाडे रूठकर कोप-भवन में बैठे हैं।"

"इधर संसद का सत्र शीघ्र होने वाला है।"

"उपचुनाव भी नजदीक हैं।"

"ऐसे नाजुक मौके पर रानाडे का यह व्यवहार ठीक नहीं है; लेकिन क्या करें।"

"दल की ओर से अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए" - मदन जी के इस सुझाव पर कोई सहमत नहीं हुआ। अनुशासनात्मक कार्यवाही का मतलब दल का विघटन। दल का विघटन याने सत्ताच्युत होना! गांधी, नेहरू के अनुयायी सत्ता कैसे छोड़ सकते थे।

अतः यह तय हुआ कि मदनजी और एक वरिष्ठ मंत्री पर्यटक विश्राम-स्थल तक जाएँ और रानाडे से बात करें।

मदनजी को आते देखकर रानाडे समझ गए, जरूर कोई विशेष समाचार या संधि-संदेश लेकर आए हैं। रानाडे को मदनजी ने समझाना शुरू किया -

"दल का विघटन रोका जाना चाहिए। गांधी की समाधि पर ली गई शपथ को याद करो, कदमकुआँ के संत को याद करो; यह समय ऐसा नहीं है। उपचुनाव, संसद-सत्र सर पर है...।"

"लेकिन हम भी कब तक झुके रहेंगे। राव साहब तो अड़ गए हैं - ये नहीं होगा, वो नहीं होगा। तुम चले जाओ। रानाडे यह सब सुनने का आदी नहीं है।"

"ठीक है, भाई" - मदनजी फिर भी शांत रहे, "हमें मिल-बैठकर कुछ तो हल निकालना ही होगा। पहले सुराणा और मनसुखानी अड़ गए, अब तुम। सरकार है या कोई पुराना ट्रक, जो जब चाहे, जहाँ चाहे रुक जाए!"

"आखिर इस सबमें आप हमसे क्या चाहते हैं?"

अब मदनजी सीधी सौदेबाजी पर आ गए। राव साहब ने उन्हें इस कार्य हेतु अधिकृत भी किया था।

"चलिए, आप उप-प्रधानमंत्री हो जाइए!"

"क्या यह प्रस्ताव राव साहब का है?"

"आप ऐसा ही समझिए। राव साहब को मनाने की जिम्मेदारी मेरी!"

"और वह होटल-कांड?"

"चलिए, उस पर भी धूल डालते हैं।"

"और कुछ?"

टेलिफोन पर यह समाचार राव साहब को दिया गया। रानाडे राजधानी वापस आए।

राष्ट्रपति भवन से रानाडे को उप-प्रधानमंत्री बनाए जाने की विज्ञप्ति जारी की गई। अंतर्मन में राव साहब इस सौदेबाजी से सुखी नहीं थे। सत्ता के ताबूत में सिर्फ कुछ कीलें और ठुक गईं।

रानाडे-समर्थक नए जोश-खरोश के साथ अपने पाँव मजबूत करने लगे। हरनाथ, सेठरामलाल, शशि, एस. सिंह - सभी खुश थे।

उस दिन रानाडे की कोठी पर खुशियाँ मनाई गईं। और राजधानी के गँवार देखते रह गए।

6

अभी सुबह हुई है। सुरज ने धूप के कुछ टुकड़े राव साहब की खिड़की से अंदर फेंके। राव साहब को बुरा लगा - यह हिम्मत किसने की है। जब आँखें पूरी खुलीं, खुमारी कम हुई तो धूप को देखकर चुप्पी साध गए। समझ गए, इस धूप का वे कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

प्रातःकालीन अखबार, जरूरी रिपोर्टें उनके पास पहुँचाई गईं। चाय की चुस्कियों के साथ उन्होंने पारायण शुरू किया। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, ये सब क्या हो रहा है? उन्हें रानाडे को उपप्रधानमंत्री बनाना पड़ा। सुराणा और मनसुखानी को वरिष्ठ विभाग देने पड़े। ऐसा क्यों और कब तक...?

आखिर क्यों? क्या वे इतने शक्तिहीन हो गए? राज्यों में सरकारें गिराई जा रही हैं। दल में किसी भी समय विभाजन हो सकता है। तमाम प्रयासों के बावजूद वे शायद दलीय विघटन को नहीं रोक सकेंगे...।

प्रदेशों में अकाल और भूख से लोगों के मरने के समाचार हैं। खुद उनके ही क्षेत्र में लगभग 100 लोग भूख से मर गए। एक विदेशी समाचार-एजेन्सी के अनुसार, आदिवासियों में और ज्यादा लोगों के मरने के समाचार हैं।

विदेशों से लगातार दबाव आ रहा है, विदेशों से आयातित सामान निरंतर कम आ रहा है। पेट्रोलियम और कच्चा तेल निर्यातक देशों की सरकारों के दबाव के कारण केंद्रीय सरकार और राव साहब परेशान हैं।

इधर विद्यार्थियों ने देशव्यापी आंदोलन छेड़ दिया - "डिग्री नहीं, रेाजगार चाहिए।"

"नारे नहीं, रोटी चाहिए।"

कुछ विरोधी दलों के नेता भी इन छात्रों के साथ थे। रामास्वामी ने तो खुलकर इन छात्रों का साथ देना शुरू कर दिया। विश्वविद्यालयों में घिनौनी राजनीति के कारण कुलपतियों ने इस्तीफा दे दिया। कुछ विश्वविद्यालयों को पूरे सत्र के लिए बंद करना पड़ा।

छात्रों और युवा वर्ग के लोगों की बन आई। पुलिस-आंदोलन के कारण पुलिस से सरकार और जनता दोनों का भरोसा उठ गया।

अब हर काम में लोग छात्रों की मदद लेते। राशन नहीं मिला - छात्रों ने जिलाधीश को घेर लिया। ऐसी घटनाएँ आम हो गईं। राह चलते डाके, नकबजनी, बलात्कार आदि की घटनाएँ होने लगीं। भ्रष्टाचार तेजी से पनपने लगा। इससे क्रुद्ध होकर छात्रों और युवा संगठनों ने भ्रष्ट व्यक्तियों का सिर मुँड़ा कर नागरिक अभिनंदन करना शुरू किया। ऐसा लगता ही नहीं कि कानून और व्यवस्था नाम की कोई चीज है।

समाज में तरह-तरह के प्रतिप्ठित और नैतिक दृष्टि से उच्च वर्ग के लोगों ने अपने संगठन बनाने शुरू कर दिए।

अगर कहीं छात्रों और युवा वर्ग पर लाठी चार्ज, अश्रुगैस या गोली-प्रहार होता तो सामूहिक निंदा होने लगती। सरकार की भर्त्सना की जाने लगती।

राव साहब सोच-सोचकर परेशान होने लगे। पसीने को पोंछा, कूलर ऑन किया और पसर गए।

अजीब स्थिति हो गई थी। एक भ्रष्टाचारी को राज्यस्तरीय पुरस्कार और एक हत्यारे को अलंकरण दे दिया गया। इस बात को लेकर बड़ा बखेड़ा मचाया गया। बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों ने निराश होकर सरकार का साथ छोड़ने की ठानी। मगर इस सरकार से वे भी कुछ करा सकने में असमर्थ रहे।

सरकारी तौर पर रोज घोषणा होती - "स्थिति सामान्य है" - "सब कुछ ठीक है" -"महँगाई पर काबू पा लिया जाएगा" - "गरीबी दस वर्ष में और बेरोजगारी बीस वर्ष में मिटा दी जाएगी।" लेकिन आश्वासनों की सरकार लड़खड़ाने लगी। पैबंद लगे कपड़े की तरह अब सरकार दिखाई देने लगी थी।

राव साहब ने चारों तरफ देखा - कहीं से कोई प्रकाश की किरण नहीं आ रही है। वे भी क्या करें! सत्ता है तो उसे भोगें।

अपने साथियों के साथ विचार-विमर्श करने पर भी वे किसी निष्कर्प पर नहीं पहुँच पाते। एक विश्वविद्यालय ने एक सजायाफ्ता व्यक्ति को डी.लिट्. दे दी - सुन-सुनकर राव साहब की परेशानियाँ और ज्यादा बढ़तीं। सभी राजरोग उन्हें वैसे भी परेशान रखते।

कई बार सोचते - अब सब छोड़ दें; लेकिन इतना आसान है क्या छोड़ना!

ये सत्ता, ये मद, ये आनंद फिर कहाँ! खाओ और खाने दो"की राजनीति में भी वे पिछड़ रहे थे।

रोज कोई-न-कोई नया सिरदर्द उनकी जान को लगा रहता। कल ही विरोधी दल के नेता रामास्वामी के नेतृत्व में छात्रों ने प्रदर्शन किया। उन्होंने राष्ट्रपति को ज्ञापन दिया -

"संसद सदस्य क्या कर रहे हैं?"

"हमें सफेद हाथी नहीं, सेवक चाहिए।"

अपने क्षेत्र में राव साहब काफी समय से नहीं जा पाए थे, इसलिए विरोधियों ने पोस्टर बँटवाए थे। एक पोस्टर पर लिखा था -

"इस क्षेत्र के एम.पी. पिछले 4 वर्षों से लापता हैं। रंग गेहुँआ, उम्र 75 वर्ष, सफेद कपड़े और टोपी लगाते हैं, लंबाई 5 फीट 8 इंच, मधुमेह और रक्तचाप के रोगी हैं। लानेवाले या पता बताने वाले को उचित इनाम दिया जाएगा।

- जनता"

इस पोस्टर को पढ़कर राव साहब के आग लग गई; लेकिन क्या कर सकते थे! खून का घूँट पीकर रह गए।

"एक वोट क्या दे दिया, मुझे अपने बाप का नौकर समझते हैं, स्साले!"

"और भी तो कई काम हैं।"

"यहाँ विदेशी डेलीगेशनों से मिलूँ या पार्टी-संगठन सँभालूँ, या क्षेत्र में मर रही जनता से मिलूँ। एक बार हेलीकॉप्टर से देख आया। और क्या कर सकता हूँ! मरने वालों के साथ तो मरा नहीं जा सकता! ओर फिर अमर कौन है? आज नहीं तो कल, सभी मरेंगे! मेरे राज्य में नहीं तो किसी ओर के राज्य में मरेंगे। फिर दुखी होकर भी क्या होगा? लेकिन नहीं, फेटे-साफेवाले मोटी बुद्धि के छोटे लोगों की समझ में ये सब बातें कहाँ आती हैं! झट से पोस्टर छापा और चिपका दिया! अरे उस क्षेत्र में बाँध, नहर, बिजली, सड़क किसने लगवाई? सब भूल गए!"

"हूँ..."

उनका आत्मालाप भंग हुआ, सचिव ने आकर कहा -

"सर, ईरानी डेलीगेशन के आने का समय हो गया है..."

"अच्छा, उन्हें बाहर बिठाओ, मैं अभी आता हूँ।"

ईरानी डेलीगेशन से बात कर उन्होंने कुछ विदेशी संवाददाताओं को इंटरव्यू दिया।

इस कार्य से निपटकर राव साहब ने कुछ प्रमुख विरोधी नेताओं, कुछ विरोधी मंत्रियों की सूची बनाई और इंटेलीजेन्स विभग को इन लोगों की फाइलें तैयार करने को कहा।

"हर गुप्तचर के पीछे एक और गुप्तचर लगा दो, ताकि रपट साफ और सच्ची आए।"

राव साहब अब कुछ संतोष से आराम करने लगे।

7

स्वामी असुरानंद के आश्रम को राजधानी में लाने और जमाने में रानाडे का विशेष योगदान रहा है। एक प्रांतीय कस्बे में रानाडे साधारण कार्यकर्ता थे, और असुरानंद ने नई-नई अपनी दुकान लगाई थी। लेकिन अजीब विलक्षण व्यक्तित्व था स्वामी असुरानंद का, लंबा-छरहरा व्यक्तित्व, विशाल भुजाएँ, उन्नत ललाट और भारी शोणित नयन। उपर से लंबी केशराशि और दाढ़ी। दूर से ही किसी सिद्ध पुरूप का भ्रम हो जाता। और इस भ्रम को उनकी वाक्पटुता बनाए रखती। रानाडे को उन्होंने अपनी तिकड़म से विधानसभा का टिकट दिला दिया, विपक्ष में जान-बूझकर एक कमजोर उम्मीदवार खड़ा किया गया। रानाडे का विस्तार मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक कर लिया। यदा-कदा वे लोग उनके आश्रम में पधारते और आश्रम तथा वहाँ की बालाओं को कृतार्थ करते। अपने बढ़ते प्रभाव के कारण ही स्वामी असुरानंद ने रानाडे को तीन वर्षों में ही उपमंत्री बनवा दिया। समय का चक्र चलता रहा। असुरानंद और रानाडे की मित्रता बढ़ती गई। रानाडे ने अपने विभाग की ओर से आश्रम हेतु योग की कक्षाएँ खुलवाई। योग सीखने हेतु प्रत्येक जिले में योग-केंद्र स्थापित कराए। इन केंद्रों का प्रांतीय संचालक स्वामी असुरानंद को बनाया गया।

धीरे-धीरे रानाडे ने असुरानंद की और असुरानंद ने रानाडे की महत्ता को स्वीकार कर लिया, और एक उपचुनाव की गाड़ी में बैठाकर रानाडे को असुरानंद राजधानी पहुँचा आए।

लगे हाथ वे भी राजधानी आ गए। देर सवेर यहीं आना था।

अब असुरानंद ने अपने पूरे पंख पसारे और घेरे में प्रधानमंत्री, विदेशी राजदूतों और अन्य संस्थाओं को लिया।

राजधानी में विदेश से जो भी आता, उसे भारतीय दर्शन, योग और संबंधित क्रियाओं हेतु असुरानंद का आश्रम दिखाया जाता।

आश्रम की छटा ही निराली होती। सर्वत्र हरी दूब, प्रकृति की शुद्ध हवा, वातानुकूलित कमरे और योग्य आंग्ल भाषा प्रवीणाएँ, जो देशी-विदेशी साहबों को मोह लेतीं। असुरानंद ने आश्रम के लिए एक बड़ी बिल्डिंग खड़ी कर ली; सरकारी, गैर-सरकारी और विदेशी पैसा ले लिया और अच्छी तरह से जम गए।

अपने प्रभाव से स्वामी असुरानंद ने शीघ्र ही रानाडे को मंत्री बनवा दिया। रानाडे ने संसद में अक्सर आश्रम पर होनेवाली बहसों और चर्चाओं के अवसर पर स्वामीजी को बचाया है।

रात्री के आठ बजे हैं। रानाडे ने अपनी कार का मुँह स्वामीजी के आश्रम की ओर किया।

उनकी कार को आता देख द्वारपाल अदब से हटा। एक बाला ने तेजी से आगे बढ़कर कार का दरवाजा खोला और रानाडे को बाहर निकलने में मदद दी। एक अन्य बाला ने अंदर जाकर स्वामीजी को ध्यानावस्था में ही सूचित किया। स्वामीजी ने ध्यान भंग कर उन्हें भीतर ही लाने को कहा। रानाडे कई गलियारे, छोटे-बड़े कमरे पार करके एक बड़े हॉल में दाखिल हुए। वहाँ से एक छोटे, वातानुकूलित, साउंडप्रूफ कमरे में गए। स्वामीजी ने स्वागत किया -

"बधाई! स्वागत!! अब तो आप उपप्रधानमंत्री हो।"

रानाडे ने चरण स्पर्श कर कृतज्ञता ज्ञापित की -

"सब आपका आशीर्वाद है, प्रभू! ...आपकी सलाह से ही सब कुछ संपन्न हुआ है।"

"वो तो ठीक है, लेकिन अब आगे क्या प्रोग्राम है?"

"आप सुझाइए! हम तो अनुयायी हैं।"

"अब तुम शक्ति और संगठन का पुनर्गठन करो ताकि यथासमय तुम अंतिम सीढ़ी चढ़ सको।" स्वामी बोले, "याद रखो रानाडे, सत्ता केवल ताकत से आती है। गीता में भगवान कृप्ण ने, रामायण में राम ने, सभी ने सत्ता को बाहुबल से ही माना है।"

"जी हाँ..."

"अच्छा बोलो, क्या लोगे? आज बहुत दिनों बाद तुम आए हो, तुम्हारा स्वागत तो होना ही चाहिए?"

"कुछ भी चलेगा - विदेशी शराब और सुंदरी।" रानाडे बोले।

"वो तो खैर है ही! हम तुम्हारी आदतें जानते हैं।" और स्वामी तथा रानाडे ने सम्मिलित ठहाका लगाया।

"इस बार विदेश से शानदार ब्लू फिल्म आई है; कहो तो दिखाएँ।"

"नेकी और पूछ-पूछ? अवश्य? स्वामीजी ने एक बटन दबाया और पर्दे पर फिल्म चलने लगी। आठ मिलीमीटर की फिल्म के दृश्यों को देखकर रानाडे की तबियत खुश हो गई। फिल्म की समाप्ति पर रानाडे बोले -

"हाँ, विपक्ष के नेता रामास्वामी यहाँ आए थे?"

"पिछले शनिवार रात यहीं रुके, और जैसा तुमने कहा था, उनके फोटो फिल्म वगैरा बनवा लिए हैं। कहो तो दिखाएँ!"

"नहीं, फिर कभी देख लेंगे।"

"हाँ भाई, वह अनुदान की रकम अभी तक नहीं मिली।"

"कितनी थी?"

"पचास लाख।"

"ठीक है, मैं कल ही संबंधित विभाग को आदेश दे दूँगा। वैसे भी वित्त-वर्ष समाप्ति पर है।"

"अच्छा तो फिर तय रहा!" स्वामीजी मुस्कराए, "तुम कमरा नं. 12 में आराम करो। वहाँ सब व्यवस्था हो जाएगी।"

रानाडे चल पड़े।

जब से रामास्वामी को अनुचरों ने यह बताया कि स्वामी असुरानंद ने उनके भी फोटो प्राप्त कर लिए हैं, तब से वे कसमसा रहे थे; लेकिन करें क्या? एक दो बार स्वामी से फोन पर बात करने की कोशिश की तो स्वामी असुरानंद मिले नहीं।

रामास्वामी किसी मौके की तलाश में थे, ताकि आश्रम और असुरानंद के खिलाफ बवंडर फैलाया जा सके।

अचानक आज उसे एक आइडिया सूझा। उसने कु. बाला को इस कार्य हेतु तैयार कर लिया, और एक प्रेस-कॉन्फरेंस में स्वामी असुरानंद द्वारा बाला से किए गए कथित बलात्कार की एक काल्पनिक कहानी गढ़कर सुना दी।

दूसरे दिन रानाडे के विपक्षी अखबारों ने नमक-मिर्च लगाकर बाला और स्वामी तथा आश्रम के विवरण फोटो सहित छापे। कुछ अखबारों ने राजधानी में व्याप्त सेक्स के व्यापार पर संपादकीय भी लिख दिए। वास्तव में बाला कुछ समय तक आश्रम में काम भी कर चुकी थी। अतः घटना को सत्य बनते ज्यादा देर नहीं लगी।

रानाडे इस आक्षेप से बौखला गए। लेकिन स्वामी असुरानंद वैसे ही शांत रहे, उन्हें कोई दुख या ग्लानि नहीं हुई। शांत मन से उन्होंने अपने ध्यान-कक्ष में ध्यान का आयोजन किया।

लंबे समय तक वे समाधिस्थ रहे। आश्रम का कार्य उन्होंने यथावत चालू रखा। पुलिस और प्रेस को उन्होंने सभी प्रकार का सहयोग दिया; लेकिन पुलिस कोई सुराग नहीं पा सकी, लौट गई। आश्रम में जो कुछ भी अनुचित था, सभी रात को ही हटा दिया गया था। इस कारण स्वामी निश्चित थे।

शाम हुई, रात हुई। आश्रम में आज उदासी अवश्य थी, लेकिन कार्य सब चल रहे थे।

वीरानी के इस माहौल में स्वामी असुरानंद ने अपने कुछ अनुचरों को गोपनीय आदेश दिए। दूसरे दिन अखबारों में सुर्खियाँ थीं -

"रामास्वामी की कोठी के बाहर बाला की रहस्यपूर्ण मृत्यु।"

"मृत्यु से पूर्व बाला ने असुरानंद को निर्दोष साबित कर दिया था।"

रामास्वामी इस घटना से बेहोश-से हो गए। आश्रम और स्वामी असुरानंद पूर्ववत जमे रहे।

8

राजधानी में राजनीतिक गतिविधियाँ तेजी से चल रही थीं। अपने-अपने खेमों में, अपने-अपने गुटों में सभी अपने-अपने ढंग से शतरंज की चालें खेल रहे थे। आज शतरंज के प्यादे भी अपनी शान दिखा रहे थे। जब से रानाडे उप-प्रधानमंत्री बन गए, उनकी ही सत्ताधारी पार्टी का एक गुट, जो उनके खिलाफ था, बहुत ज्यादा परेशान था। इधर इस गुट के नेताओं ने मिलकर सुराणा और मनसुखानी को अपनी ओर कर लिया था। अब सत्ताधारी पक्ष में अलग से सभी गुटों की पहचान बन गई थी।

रानाडे तथा उनका गुट सबसे शक्तिशाली था, बहुत से महत्वपूर्ण विभाग इस गुट के पास थे। दूसरा शक्तिशाली गुट सुराणा व उन असंतुष्टों का था, जो सत्ता में तो थे, लेकिन महत्वाकांक्षी बहुत अधिक थे। राव साहब ऊपरी तौर पर पार्टी में एकता दिखा रहे थे। संवाददाताओं, अखबारों, विदेशी संवाद-एजेन्सियों को अक्सर यही कहते कि पार्टी में कोई मतभेद नहीं है, सब कुछ सामान्य और ठीक चल रहा है लेकिन पार्टी की आंतरिक स्थिति विस्फोटक थी। लोकसभा उप-चुनावों के निकट आ जाने के बाद भी पार्टी की ओर से कोई सामूहिक प्रयास नहीं किए जा रहे थे। जिन्हें टिकट मिला था, वे पार्टी-फंड से अधिक-से-अधिक रुपया प्राप्त करने के चक्कर में थे।

प्राप्त रुपयों से ही चुनाव लड़ा जाना था, अतः रानाडे और उसके साथियों का महत्व और भी ज्यादा बढ़ गया। जो रैली उन लोगों ने पिछले दिनों आयोजित की थी, उसकी सफलता से उनके हौसले और भी ज्यादा बुलंद हो गए थे। इस रैली में आस-पास के राज्यों से लगभग दस लाख व्यक्तियों ने भाग लिया। गैर-सरकारी आँकड़ों के अनुसार लगभग एक करोड़ रुपयों का व्यय किया गया। इस अपव्यय के कारण राव साहब दुखी थे, लेकिन क्या करते! अब उनकी पकड़ पार्टी और सरकार दोनों से ही छूटती जा रही थी। ऐसे अवसर पर राव साहब ने केबिनेट की मीटिंग का आयोजन अपने निवास स्थल पर किया।

अपने प्रारंभिक भाषण में राव साहब ने रानाडे को उप-प्रधानमंत्री बनाए जाने की पुष्टि करते हुए उनको कार्यो की प्रशंसा की, लेकिन बीच में सुराणा व मनसुखानी ने दखल दिया -

"क्या इस नियुक्ति के पीछे किसी विदेशी शक्ति का हाथ है?"

"तो फिर एक उप-प्रधानमंत्री हमारे गुट का भी हो, ताकि संतुलन बराबर रहे।

"ऐसा कैसे हो सकता है!"

"क्यों नहीं हो सकता?"जब एक उप-प्रधानमंत्री हो सकता है तो दो भी हो सकते हैं। पार्टी को विघटन से बचाने के लिए यह आवश्यक भी है।"मनसुखानी ने सुराणा की बात पर बल दिया।

राव साहब के बोलने से पहले ही रानाडे कहने लगे -

"देखिए, इस तरह सरकारें नहीं चलती। क्या आप चाहते हैं कि सभी को बारी-बारी से प्रधानमंत्री या उप-प्रधानमंत्री बना दिया जाए। यह संभव नहीं है।"

"क्यों संभव नहीं है? आप विश्रामस्थल में भूमिगत हो गए, जब वापस आए तो उप-प्रधानमंत्री थे।"

"अगर ऐसा नहीं हुआ, मनसुखानी ने कहा, "तो हमारे गुट के सभी सदस्य त्यागपत्र दे देंगे।" इस बात से सभी चुप्पी साध गए।

राव साहब ने वापस बात छेड़ी।

"बात-बात पर इस्तीफे और सत्ता से अलग हो जाने की बातें मैं पिछले काफी समय से सुन रहा हूँ; लेकिन कोई अलग नहीं होता, हर कोई अपनी महत्वाकांक्षा की एक और सीढ़ी चढ़ जाना चाहता है। ताकि वे भी जब हटें तो शायद सत्ता के सर्वोच्च शिखर से हटें।"

राव साहब के कथ्य में सत्य था, अतः सभी सिर झुकाकर सुनने लगे; कोई भी बोलने की स्थिति में नहीं था।

"तो फिर क्या किया जाए?"राव साहब शायद फैसला करना चाहते थे।

"अगर मेरे हटने से बात बन सकती हो, तो मैं हट जाऊँ।"

"नहीं-नहीं, आपके हटते ही तो पार्टी डूब जाएगी!"रानाडे ने जोर से कहा।

रानाडे की बात को कैसे इनकार करते राव साहब, अतः जमे रहे।

"अगर रानाडे चाहें तो एक उप-प्रधानमंत्री का पद और बना दें..."

"मुझे क्या एतराज हो सकता है!" रानाडे ने निराश भाव से कहा। सायँकाल राष्ट्रपति भवन से एक विज्ञप्ति जारी हुई, जिसमें सुराणा को भी उप-प्रधानमंत्री बनाने का समाचार था।

आज सुराणा के समर्थक खुश थे। उनकी कोठी पर अंदर के कमरे में वार्तालाप जारी था -

"अपने से पहले ही गलती हो गई!" सुराणा कह रहे थे, "अगर उस वक्त प्रधानमंत्री के चुनाव में खड़ा हो सकता तो आज मैं ही प्रधानमंत्री होता!"

"हाँ, ये तो है!" मनसुखानी बोले।

"खैर, देर आयद दुरुस्त आयद!" सुराणा ने पाँव सोफे पर पसारे और आँखें मूँद लीं।

"अब विधान सभा चुनावों में अपने गुट को जितवाना है, ताकि राज्यों में शक्ति का विकास होता रहे।"

"हाँ, इसके लिए कुछ कदम उठाने चाहिए।" मनसुखानी बोले।

"तो आप बताइए क्या करें?"

"करना क्या है, हमें चुनाव-फंड में से ज्यादा पैसा अपने उम्मीदवारों को दिलाना है। चंदा भी उन्हें ज्यादा मिलना चाहिए, ताकि वे अधिक विश्वास के साथ चुनाव लड़ सकें और जीतकर आ सकें।"

"लेकिन चंदे और चुनाव-फंड पर तो रानाडे का कब्जा है।" हरिसिंह बोल पड़े।

"वो तो ठीक है! लेकिन पार्टी में फंड कम ही है। जो अपने उद्योगपति और कंपनियाँ हैं, उनसे कहकर सीधा पैसा ले लो।"

"वो कैसे?" मनसुखानी बोले।

"अरे भाई, वैसे भी चुनाव के बाद कम-से-कम तीन राज्यों में अपने ग्रुप की सरकार होगी - यह बात उद्योगपतियों को अभी से समझा दो, और क्या!"

"हाँ, उनसे सीधा पैसा हमें मिल सकता है।"

"लेकिन सभा उप-चुनाव भी आ रहे है।"

"इसमें हमें कुछ नहीं करना है। जिन्हें टिकट मिला है, वे रानाडे या राव साहब के आदमी हैं, जीतें या हारें!" सुराणा बोले।

"अगर हार जाते हैं तो रानाडे की बदनामी ज्यादा होगी, क्येंकि वे ही इस चुनाव के प्रभारी हैं। हमें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है।"

9

अभी सुबह हुई है। अखबारों के हॉकरों और दूधवालों की साइकिलों की घंटियाँ सुनाई दे रही है। राजधानी के हॉकर आवाज लगा रहे हैं -

"उप-चुनाव-क्षेत्र में हरिजनों को जिंदा जलाया गया।"

"पुलिस देखती रही।"

"कई औरतों की हत्या।"

"बलात्कार और बर्बरता का घृणास्पद कारनामा।"

एक के बाद एक हॉकर इसी प्रकार की आवाजें लगाते चले जा रहे हैं।

संवाद-समितियों के मार्फत जो पूरे समाचार आए, वे इस प्रकार थे -

"गाँव मोलेला में चार हरिजनों को तीन रोज पूर्व जिंदा जला दिया गया। कुछ हरिजनों ने थाने में जाकर रपट लिखाई तो पुलिस ने उन्हें मार-पीटकर भगा दिया।"

इस समाचार का आना था कि सत्ताधारी पक्ष और अफसरों में खलबली मच गई। तत्काल प्रधानमंत्री राव साहब ने क्षेत्र के जिलाधीश से वायरलेस पर सीधे बातें की।

"स्थिति कैसी हैं?"

"सर, पूरी तरह नियंत्रण है।"

"तुम लोगों ने पहले कदम क्यों नहीं उठाया?"

"सर, कुछ पता ही नहीं चल पाया।"

"और देखो, दोषी आदमियों को अविलंब गिरफ्तार कर लो।"

"जी हाँ..."

"किसी प्रकार की ढील की जरूरत नहीं है। ...हाँ, क्या नाम था उस लड़की का, जिसकी हत्या कर दी गई?"

"जी भूरी..."

"अच्छा उसके माँ-बाप...?"

"उन्हें भी मार डाला गया।"

"और आप सभी देखते रहे? शेमफुल, हम स्वयं आकर देखेंगे।"

"जी अच्छा!"

जब से इस घटना का पता चला है, आसपास के गाँवों, ढाणियों और खेड़ों में आतंक का साम्राज छा गया है। पुलिस वैसे भी कुछ नहीं करती, लेकिन दिन-दहाड़े झोंपडी को आग लगाकर जिंदा जला दिए जाने की घटना ने तो लोगों की सोचने-समझने की शक्ति ही छीन ली और भूरी...

हे भगवान, एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार ऐसी मौत दुश्मन को भी न मिले! लेकिन महत्व बढ़ गया इस उपचुनाव के कारण। नहीं तो इस देश में ऐसी घटनाओं की ओर कोई ध्यान नहीं देता। विरोधियों ने गाँव के अंदर ही, जली हुई झोंपड़ी की राख पर टूटा टेबल रखकर मीटिंग का आयोजन कर दिया। नेता जो राजधानी से आए थे, कहने लगे -

"मैं आपको बता दूँ, कानून और व्यवस्था इस सरकार के बस का काम नहीं। पुलिस बेकार है, नाकारा और आंदोलन में व्यस्त हैं। जिस देश की पुलिस रक्षा करने के बजाय भक्षण करने लग जाए, वहाँ ऐसा ही होता है!"

"मैं आप से यह कहना चाहता हूँ कि आप सरकार के भरोसे मत रहिए। कल भूरी मरी, आज कोई और मरेगा, और आप लोग इसी प्रकार हैरान, परेशान होते रहेंगे। सरकारी नेता और वोट लेनेवाले राजधानी चले गए, और आप को इन हैवानों के भरोसे छोड़ गए। मैं तो कहता हूँ कि पुलिस सबसे अधिक संगठित गुंडों का महकमा है। ये सब चोर और सुअर हैं।"

"अबे, उसको गाली देने से क्या होगा!" भीड़ में से आवाज आई। नेता ने अपना पसीना पोंछा, आवाज की तरफ हाथ फैलाकर कहने लगे -

"कुछ नहीं होगा, मैं जानता हूँ, कुछ नहीं होगा! लेकिन भूरी की मौत से क्या हम सबको कोई सबक नहीं लेना चाहिए?"

"हमारी भी माँ हैं, बहनें हैं; क्या उन्हें भी जिंदा जला दिया जाना चाहिए? मैं पूछता हूँ, कहाँ हैं वे सरकारी अफसर और कानून-कायदे? क्या गरीब की इज्जत नहीं होती?"

"आप लोग शायद नहीं जानते, सभी अफसर और बड़े नेता राजधानी में बैठकर इस घटना पर लीपापोती कर रहे हैं, ताकि चुनाव में इसका बुरा असर नहीं पड़े।"

वे तनिक रुके, फिर लहजा बदलकर कहने लगे -

"शीघ्र ही सत्ताधारी पक्ष के लोग यहाँ आएँगे। आप उनसे कहिए - हमें आश्वासन नहीं, हत्यारा चाहिए। जब तक हत्यारे पकड़े नहीं जाएँगे, हम चुनाव नहीं होने देंगे! ...मैं संसद में आपकी आवाज को बुलंद करूँगा।"

वे बैठ गए। सभा में शांति थी, अब स्थानीय नेताओं ने इस घटना पर दुख प्रकट किया। सभा समाप्त हुई।

इस छोटे-से गाँव की किस्मत में इतना सौभाग्य शायद गलती से लिख दिया गया। बनास नदी के तट पर यह गाँव, कुल दो हजार की आबादी। कुछ अहीर, कुछ हरिजन, कुछ कुम्हार; सभी श्रमजीवी। बेचारे मुश्किल से अपना पेट पालते थे। कुम्हार लोग मिलकर मुर्तियाँ बनाते। टेराकोटा की ये मुर्तियाँ विश्व-प्रसिद्ध तो थीं, लेकिन बेचारे कुम्हारों को इसका मोल क्या पता! यदाकदा कोई विदेशी आता, इनके चित्र खींचकर ले जाता, और ये गरीब, इसी में खुश। कुछ बिचौलिए इनसे सामान खरीदते और बढ़िया मुनाफे पे बेच देते।

गाँव में एक मात्र पढ़ा-लिखा था हरिया कुम्हार, जो शहर से बारहवीं कक्षा में फेल होकर गाँव आ गया था। हादसे के दिन वह गाँव में ही था। रात का समय था। हरिजन टोला में से वह गुजर रहा था, अचानक उसे कुछ खुसर-पुसर सुनाई दी, फिर एक लड़की की चीख, और थोड़ी देर बाद पूरे टोले में आग लगा दी गई। हरिया बेचारा भागा, और घर में अपने बापू और माँ को बताया -

"अरे देखो, वठे कई बेइरियो सब झोपड़ा बलरिया है। राख बेईग्या!"

"अरे दौड़ो-दौड़ो।"

आसपास के कुछ लोग दौड़े, लेकिन तब तक सब कुछ स्वाहा हो गया था। तब से ही हरिया कुछ उदास-सा हरिजन टोला की ओर देखता रहता। उस दिन विरोधी पक्ष की मीटिंग में भी वही बोला था; लेकिन बोलने से क्या होता!

गाँव के पटवारी, मास्टर और थाने को इसकी सूचना दी गई, लेकिन कुछ नहीं हुआ। तब हरिया ने शहर जाकर अखबार वालों से संपर्क साधा। ऐसी चटपटी खबर और उपचुनाव! अखबारवाले लपके आए। अपने फोटो-कैमरों और टेपरिकार्डरों से लैस होकर जब वे लोग गाँव में उतरे, तो गाँव में नया डर व्याप गया।

ये तो बाद में हरिया ने उन्हें समझाया, तब गाँववालों ने अखबारवालों को कुछ दबे-दबे शब्दों में बताया।

कुछ ही दिनों में देश के सभी अखबारों में समाचार आ गए। साप्ताहिकों ओर मासिकों ने भी अपना धर्म निभाया। प्रांतीय दैनिक समाचार-पत्रों के संपादकों ने संपादकीय लिख मारे, और अब बारी आई, विरोधी दलों की। एक दल फेरी लगाकर वापस जाता तो दूसरा फेरी लगाने को तैयार!

अफसरों, मंत्रियों, और नेताओं की चरण-रज स्वतंत्रता के बाद पहली बार इस गाँव में पड़ने लगी।

छोटा गाँव इनके आतिथ्य के भार से दबा जा रहा था। गाँव के लोगों की समझ में नहीं आ रहा था कि ये सब क्या और क्यों हो रहा है?

उस दिन विरोधी पक्ष की मीटिंग समाप्त होने पर गाँव के बुजुर्ग उदाबा के घर के बाहर गाँव के लोग इकट्ठे होकर आग तापने और बतियाने लगे -

"का रे खूमा, यो सब कईं वैइरियो? जीने देखो सोई धोवत्यों पकड़ने अठे आइरियों! "अबे मूँ कई बताउँ बा! मने तो यूँ लागे के अणारी धोवती री लांग अबे खुलवा वारी है।"

"हाँ, यूइज दीखे। नी तो आज तक कोई नी आयो!"

"हो, अबे आपाँ देख रिया हाँ!"खूमा ने आग की ओर पाँव किए और तापने लगा। उदा ने आकाश की ओर देखा - कोई तारा टूटकर गिर गया।

"देख, वो आकाश में देख, कोई तारो टूटो है। अबे, जरूर कई न कई वेगा!"

"वेई तो वेई, अबे आपा कईं कर सकाँ!"

खूमा और उदा चुप हो रहे।

नाथू बेचारा दिन भर के परिश्रम से क्लांत था, लेकिन फिर भी बोल पड़ा -

"अणी भूरी ने कणी मारी। बापड़ी बारा तेरा साल रीजही।"

"कई केइ सका! कई-कई वेजा। अबे तो कई भरोसो इस नीरयो। मूँ भी अबे तो चुपचाप देखूँ।" खूमा ने कहा। उदा फिर भी उदास ही रहा। खूमा ने चिलम सुलगाकर कश खींचा और चिलम उदा की ओर कर दी।

"अबे थारी कई मरजी है? पुलिस आवेगा, आपाणा ब्यान लगा..."

"ब्यान-ब्यान लेगा ओर कई वेगा। भूरी तो पाछी आवेगानी!"

"पण अबे ब्यान कुण देगा।" खूमा ने धुआँ उगलते हुए कहा।

"अबे कंडी मोत आई जो ब्यान देगा, वे कई आपाने छोड़ देगा। आपाने ब्यान का झगड़ा में नी पड़नो।"

हरिया भी आकर बैठ गया था, कहने लगा -

"ब्यान तो देणा पडसी! आपाइस अगर ब्याण नी दांगा, तो फेर हत्यारों कूकर पकड़ाएगा?"

"अरे भाया, थू टाबर है, मत बच में पड! अणि राज-काज में मूँ पूरो डूबग्यो हूँ। खूमा ने बुजुर्गाना अंदाज में कहा।

"मारी पूरी दस बीगा जमीन ये खाई गया, माँ सब कई नी कर सक्या। सब सूअर, चोर ने बइमान हे।"

"जवार लाल के मरेया पाछो कोइ गत रो आदमी नी बच्यो है। ये तो गिद्ध है गिद्ध, जो आपाणी लास रो माँस भी नोच-नोचने खावेगा। ...आज भूरी री लास खावेगा, काले मारी और परसूँ थारी लास खावेगा!"

"पण काका" हरिया फिर बोला, "आपाँने अन्याय के खिलाफ आवाज तो उठाणी पड़सी। जो आज हरिजनाँ के लारे ब्यो, वो ने अगर सजा कराई दो तो ठीक रहे।"

"थूँ नी समझेगा!" उदा ने उसे टोका - "आपणे अठे गरीबी सब सूँ मोटो दोस है, और वणीरी सजा आपा सब भुगत रया है।"

"तो थाँ सब ब्यान नी दोगा?"

"हाँ, माणी मरजी तो कोई नी। ये तो ब्यान लेई ने पराजाई, पछे आपाँने रैणो तो अठेइज पड़ेगा।"

"तो पछे ठीक है। मूँ तो ब्याण दूँगा!"

"जसी थारी मरजी!"हरिया चल दिया। उदा, खूमा भी अपने-अपने घर चले गए।

जब से यह खौफनाक हादसा हुआ है, गाँव के लोग रात को बाहर नहीं निकलते, अपनी-अपनी झोंपड़ियों में आंतकित-से पड़े रहते हैं।

इधर रात-दिन मंत्रियों, अफसरों और नेताओं की गाड़ियों की आवाजाही के कारण परेशानियाँ और भी बढ़ गईं।

स्थानीय नेता और उपचुनाव के उम्मीदवारों ने तो अपना डेरा ही यहाँ डाल दिया, ताकि हर छोटी-बड़ी घटना का ध्यान रहे। कुछ पत्रकार भी किसी मसालेदार समाचार के इंतजार में यदाकदा इधर आ जाते। गाँव के शांत और सामान्य जनजीवन में एक तूफान -सा आ गया था, लेकिन गाँव वालों को इससे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ था। मक्का की रोटी और कच्चा कांदा-प्याज खानेवालों को किसी ने भी यह नहीं कहा कि अब गेहूँ की रोटी और सब्जी खाओ!

विरेाधी पक्ष की मीटिंग की पूरी रिपोर्ट मदन जी ने अपने अनुचरों से प्राप्त कर ली थी। वे राव साहब की कोठी पर यही सब बताने को इतने सवेरे आए हैं। अभी राव साहब टहलने को लान में आए ही हैं कि मदनजी ने दंडवत कर रपट सुनाने का अभियान प्रारंभ किया -

"विरोधी पक्ष के नेता रामास्वामी ने बहुत अच्छा भाषण दिया। ...ऐसी मीटिंग मैंने बरसों से नहीं देखी।"

"तुम स्वयं गए थे वहाँ?"

"जी हाँ! अगर रामास्वामी की मीटिंग का असर हा गया तो आपके प्रत्याशी के जीतने का कोई आधार नजर नहीं आता। लोगों में इस घटना को लेकर बड़ा रोष है; पूरा क्षेत्र ही एक होकर विरोध में जा रहा है। पूरे लोक-सभा क्षेत्र में घूमा हूँ मैं, सभी जगह सरकार के लिए केवल गालियाँ हैं।"

"हूँ...!" राव साहब कुछ नहीं बोले।

"तुम गाँव के बारे में कुछ बताओ।" - अचानक राव साहब कहने लगे।

"छोटा-सा गाँव है, और झगड़े की जड़ थी भूरी। कुछ लोगों का कहना है कि हरिया कुम्हार और हरिजन भूरी में कुछ प्यार-व्यार था, और इसी कारण कुम्हारों ने हरिजनों को जला दिया।"

"अच्छा...! रामास्वामी ने वहाँ क्या कहा?"

"मैं आपकी आवाज संसद में उठाऊँगा। मैं ये करूँगा, वो करूँगा। हमें भूरी के हत्यारे को पकड़ना है, आदि-आदि।"

"हूँ...!" फिर एक लंबी चुप्पी। राव साहब की यही आदत थी जो मदनजी को पसंद नहीं है; लेकिन क्या करें, कुछ तो सहना ही पड़ता है!

"अब विपक्षियों ने जिला मुख्यालय पर धरना देना शुरू कर दिया है। उन्होंने इस घटना को लेकर "प्रदेश बंद" का आयोजन भी कर दिया है...!"

"हूँ...!"

"अगर ये सफल हो गए, तो यह सीट तो आपके हाथ से गई समझिए!"

"ऐसा नहीं होगा! एक काम करो, वहाँ पर ऐलान कर दो कि राव साहब स्वयं आएँगे और उनके दुख-दर्द सुनेंगे।"

"हाँ, अगर आप जाएँ तो हवा बदल सकती है।"

"और देखो, विरोधियों को विरोध प्रकट करने दो। लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह बहुत आवश्यक है। सभी अधिकारियों को आदेश दे दो कि ताकत का इस्तेमाल नहीं करें।"

"जी अच्छा!"

"अच्छा, अब जाओ!"

राव साहब ने अपने सचिव को बुलवाया, "हम मोलेला जाएँगे, प्रोग्राम बनाओ! और सुनो, एक विशेष प्रेस-कॉन्फ्रेन्स बुलाओ।"

"जी..."

आनन-फानन में प्रधानमंत्री-निवास पर पत्र प्रतिनिधियों की भीड़ इकट्ठी हो गई। प्रधानमंत्री आए और कहने लगे -

"जो कुछ मोलेला में घटित हुआ, वो तो आप सभी को मालूम ही है। मैंने घटना की न्यायिक जाँच के आदेश दे दिए हैं। मैं कानून और व्यवस्था को सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहा हूँ। मैं स्वयं इस गाँव में जाकर दुखी और संतप्त लोगों से मिलूँगा, उनके बीच बैठूँगा, ताकि वस्तुस्थिति से वाकिफ हो सकूँ..."

"कुछ लोगों का कहना है कि भूरी की मौत में सत्ताधारियों का हाथ है।" - एक संवाददाता ने पूछा।

"बकवास है। उस गाँव में हम लोगों का क्या काम!"

"नहीं, कुछ स्थानीय नेता; जिनकी पहुँच उच्च पदासीनों तक है, इसके लिए जिम्मेदार बताए जाते हैं।" - एक संवाददाता जो मोलेला जाकर आया था, कहने लगा।

"नहीं, ऐसा नहीं हुआ! तुम लोग उलटे-सीधे वक्तव्य छापकर जनता को गुमराह करते हो।"

"तो क्या भूरी की मौत स्वाभाविक तरिके से हुई?"

"अभी मैं कुछ नहीं कहूँगा। जाँच की रपट आने दो। ...अच्छा!"

यह कह प्रधानमंत्री तेजी से अंदर चले गए। पत्र-प्रतिनिधि और विदेशी संवाददाताओं ने प्रधानमंत्री के साथ जाने के इरादे से अपने प्रोग्राम बनाए।

प्रधानमंत्री का काफिला तेजी से धूल उड़ाता हुआ मोलेला गाँव की ओर बढ़ रहा था।

गाँव के नजदीक आकर उन्होंने सामने से आते हुए एक अर्धनग्न ग्रामीण को देखकर गाड़ी रोकने का इशारा किया। तुरंत पूरा काफिला रुक गया।

उन्होंने ग्रामीण को पास बुलाया। ग्रामीण हक्का-बक्का, डरते-डरते उनके पास आया-

"खमा अन्नदाता, घणी खम्मा! जै रामजी की!"

"जै रामजी की!" राव साहब ने कहा, "कहो भाई, ठीक तो हो?"

"हाँ, हुजूर!"

"देखो, तुम्हारे शरीर पर कपड़ा नहीं है; तुम यह कमीज पहन लो!" यह कहकर राव साहब ने अपनी कमीज उतारी और ग्रामीण को दे दी। बेचारा ग्रामीण असमंजस में पड़ गया - क्या करे क्या न करे!

स्थानीय नेता जोशी ने कहा, "अरे, ले लो! हुजूर मेहरबान है साले!" और ग्रामीण ने कृतकृत्य होकर कमीज पहन ली। साथ वाली बच्ची को राव साहब ने पुचकारा और ब्रेड के टुकड़े खाने को दिए। बच्ची ने कभी ब्रेड देखी नहीं थी; समझ न पाई कि इसका क्या करे।

इस बार भी स्थानीय नेता ने उबारा -

"खा ले... खा ले... खाने की है!"

"अच्छी है।"

ग्रामीण और उसकी पुत्री अपने रास्ते चल दिए।

राव साहब ने नई कमीज पहनी और काफिला आगे चला।

कुछ समाचार पत्रों ने राव साहब की दानशीलता का ऐसा चित्र खींचा कि स्वयं कर्ण भी शर्मा गया।

10

राव साहब के स्वागत में स्थानीय नेता और अफसर बिछे जा रहे थे। गाँव से काफी दूर ही उन लोगों ने तोरण द्वार बनवाए थे। जगह-जगह राजस्थानी वेश-भूषा में लड़कियों ने मंगल-गान गाए। स्त्रियों ने आरती उतारी। राव साहब फूल-मालाओं से लदे-लदे डाक-बंगले तक पहुँचे। बिना विश्राम किए वे सीधे उस स्थल के लिए पैदल ही चल पड़े, जहाँ भूरी और उसके माँ-बाप को जिंदा जला दिया गया था।

तेज धूप थी। राव साहब पैदल सबसे आगे गाँव की गलियों से गुजर रहे थे; साथ में अनेक छुटभैये और अफसर। बेचारों को पैदल चलना पड़ रहा था। मन-ही-मन वे सभी इसे बूढ़े की सनक समझ रहे थे।

"साला खुद भी मरेगा और हमें भी मारेगा!"

"अरे, इसका क्या है - आज मरा कल दूसरा दिन! हमें तो जिंदगी गुजारनी है।"

"लेकिन क्या करें! नौकरी है।"

"तो चलो पैदल! ...सब कपड़े खराब हो गए।"

तेजी से चलते हुए राव साहब पास की हरिजन की झोंपड़ी पर पहुँचे -

"जै रामजी की, काका!"

भीतर से आतंकित, आशंकित बूढ़ा बाहर आया।

"भूरी और उसके माँ-बाप यहीं रहते थे?"

"जी, अन्नदाता!"

"आपके रिश्तेदार थे?"

"हाँ हुजूर, वे मारा काका रा बेटा हा।"

"अच्छा... मुझे बहुत दुख हुआ है।" राव साहब वहीं जमीन पे बूढ़े को लेकर बैठ गए। बूढ़ा रोने लगा। और आश्चर्य के साथ सभी ने देखा, राव साहब भी उसके साथ-साथ रोने लगे। उन्होंने बूढ़े को सांत्वना दी और कहने लगे -

"काका, अब क्या हो सकता है! लेकिन मैं इस मिट्टी की कसम खाता हूँ..." राव साहब ने पास पड़ी उठा ली" कि भूरी के हत्यारे को जरूर दंड दूँगा।"

बूढ़ा ये सब देख-सुनकर कृतकृत्य हो रहा था। राव साहब ने आसपास के घरों में झाँका। एक जगह पानी पिया, कुछ और बातें कीं, और अपने काफिले को लेकर वापस लौट आए।

सायँकाल उसी स्थल पर राव साहब ने मीटिंग का आयोजन करवाया। स्थानीय नेताओं के बोलने के बाद राव साहब उठ खड़े हुए -

"माताओ, बहना ओर भाइयो!

आप पर बड़ा भारी दुख आ पड़ा है। मुझे मालूम है कि हमारी गलती या लापरवाही के कारण ऐसा हुआ। मैं आप सभी से इसकी माफी माँगता हूँ। क्षमा करें!" अब राव साहब असली बिंदु की ओर अग्रसर हुए -

"भूरी की मौत और उसके माँ-बाप को जिंदा जला दिए जाने की खबर सुनते ही मैं यहाँ दौड़ा चला आया। मैंने अपने सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए। अफसर नहीं माने। मैंने कह दिया - मैं पहले यहाँ आऊँगा, और आया। मैं मानता हूँ कि मेरे इस तरह यहाँ आ जाने से भी भूरी के हत्यारों की पकड़ हो जाएगी, ऐसा नहीं है; लेकिन मुझे बताया गया कि आप लोग आंतकित है, भयभीत हैं; बयान नहीं देना चाहते। मैं कहता हूँ आप निर्भय रहिए, निर्भय बनिए। पहले वाले अकर्मण्य पुलिस अफसरों को हटाकर नए योग्य अफसरों को लगाया गया है। ये लोग आपके जान-माल की पूरी रक्षा करेंगे..."

"इस मक्खनबाजी से क्या होगा? हम चुनाव नहीं होने देंगे!" भीड़ में से आवाज आई। एक डी.आई.जी. और कई अन्य लोग उधर दौड़े। राव साहब ने उन्हें डाँटा।

"नहीं, आप लोग यहीं ठहरिए!"

उन्होंने भीड़ की ओर मुखातिब होकर कहा -

"ठीक है, आप में रोष है - होना चाहिए! अभी आप लोग उत्तेजित हैं। लेकिन थोड़े ठंडे दिमाग से सोचिए। क्या इस कांड का सीधा संबंध लोकसभा चुनाव से है? नहीं...

"लेकिन फिर भी अगर आप लोग नहीं चाहते तो चुनाव नहीं होंगे। हम चुनावों को स्थगित कर देंगे...

"अब आप ये सोचिए, भूरी की हत्या किसने की, और उसको पकड़वाने में आप क्या मदद दे सकते है। अगर आप लोग सहयोग करें तो, हम तीन दिन में भूरी के हत्यारों का पता लगा लें...

"अब मैं एक दूसरी बात आपसे कहना चाहूँगा। मुझे बताया गया कि ऋण-योजना में इस गाँव को अभी तक कुछ नहीं मिला...

"जब तक राज्य-सरकार और इसके अधिकारी कुछ प्रबंध करें, मैं अपने कोष से पचास-हजार रुपये इस कार्य हे्तु देता हूँ!" समर्थकों ने जोर से तालियाँ बजाई। जब तालियों की आवाज कुछ कम हुई तो राव साहब फिर बोले -

"भूरी के निकटतम रिश्तेदार काका को मैं पाँच हजार रुपये का अनुदान देता हूँ। ये रुपया वापस नहीं लिया जाएगा।"

राव साहब रुके नहीं, बोलते चले गए, मैं जानता हूँ कि पिछले दिनों विरोधी दलों ने यहाँ पर सभाएँ कीं, धरने दिए, रैलियाँ निकालीं। लेकिन एक बात आप भी याद रखिए, धरनों और रैलियों से समस्याओं का हल नहीं निकलता। समस्याओं को क्रियान्वित करना पड़ता है...।

"विरोधियों के पास केवल एक काम है, सरकार की आलोचना करना। लेकिन आलोचना से क्या होता है! हमने पिछले वर्षों में जो कार्य किए हैं, वे हमारी प्रगति के प्रमाण हैं।

"मैं आपसे फिर निवेदन करता हूँ कि आप भूरी के हत्यारों को पकड़ने में हमारी मदद करें। साथ ही आपको आज से ही ऋण-योजना का लाभ मिलना भी शुरू हो जाएगा।"

राव साहब ने मीटिंग में ही कुछ गरीबों को अपने हाथ से ऋण-योजना के कागज और रुपये बाँटे। तलियों की गड़गड़ाहट और कैमरों की चकाचौध के बीच ग्रामीणों का दुख पता नहीं कहाँ खो गया। मीटिंग की समाप्ति के बाद राव साहब एक बार फिर गाँव के लोगों से मिले, बतियाए और शहर की ओर चल पड़े।

दूसरे दिन सभी प्रमुख अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर राव साहब ग्रामीणों को ऋण वितरित कर रहे थे। समर्थक अखबारों ने सभा की सफलता को बढ़ा-चढ़ाकर बताया और विपक्षी अखबार चुप्पी साध गए थे। इन समाचारों से विरोधी दलों के नेताओं का प्रभाव और हवा जो गाँव में बनी थी, सब साफ हो गई। विपक्षी राव साहब के इस चोंचले को नहीं समझ पाए।

राव साहब की कोठी के लॉन में राव साहब और मदनजी विचरण कर रहे हैं। राव साहब शांत और गंभीर, मदनजी वाचाल -

"कमाल कर दिया साहब आपने! विपक्षियों को वो धोबीपाट मारा है कि आपका जवाब नहीं! गाँव का बच्चा-बच्चा आपके गुण गा रहा है। हरेक की जबान पर केवल आपका नाम है।

"हूँ...!"

"इस ऋण-योजना ने तो गजब ढा दिया! लगभग सभी परिवारों को ऋण मिल गया। हर एक ने कोई-न-कोई धंधा शुरू कर दिया..."

"होना भी चाहिए। गरीबों का उदय होगा, तभी तो सभी का उदय होगा!"

"सर, एक बात है - गाँव में आपके जाने से तो पूरा माहौल ही बदल गया। अब विपक्षी दलों के लोग तो उधर जाने में भी कतराते हैं।"

"हाँ, हो सकता है! लेकिन तुम ये बताओ कि पूरे क्षेत्र की हालत कैसी है?"

"बिलकुल फस्ट किलास सर! अब ये उपचुनाव तो आपकी जेब में आया समझिए।"

"और वहाँ के गाँववाले बयान के लिए तैयार हुए या नहीं?"

"हो जाएँगे! ऋण-योजना में परोक्ष रूप से ऐसी शर्त लगा देने पर सब ठीक हो जाएगा।"

"अच्छा अब तुम जाओ!"

राव साहब अंदर आए। कुछ जरूरी फाइलें निपटाई, गोली खाई और सो रहे।

उदा बा के झोंपड़े के बाहर फिर रात के समय गाँव के बड़े-बूढ़ों ने इकट्ठा होना शुरू किया। राव साहब के गाँव से वापस चले जाने के बाद यह तीसरा दिन था। कुछ परिवारों को ऋण मिल गया था। मिले चेक को भुनाने में गाँव के लोगों को दिक्कत हो रही थी। कुछ गाँववालों को शहर आकर तहसील से रुपया ले जाने को कहा गया था।

"कारे खुमाण, थने कतरा रिप्या मिल्या?"

"काका, अंगोठों तो मैं एक हजार रिप्या पे लगायो, पण काट-कुट ने मने आठ सौ रिप्याइजदीदा।"

"अरे, भागता चोर री लँगोटी भली!"

"हाँ काका, जो आया वोई पाया!"

"अबे थू अणा रिप्या रो कई करेगा?" उदा ने सवाल उछाला।

"कई करूँगा? अरे अबे क्यूँ पूछो हो, वो रिप्या तो वणी दन वाण्या रा आदमी लेइग्या। वो नराइ दनाउ माँगतो हो। मारे पाँ तो अबे कई नी बच्चो। थोड़ा-घणा रिप्या रो धान लायो। अकाल रो वकत है। खावा ने तो छावे!"

"हाँ खूमा, या बात तो है। मारी भी हालत असीज है।" उदा बोला।

"थारी-मारी न सबकी हालत असी है! ये राव साहब तो अणी वास्त रिप्या बाँट गया कि आपांरो ध्यान भूरी पू हट जावे।"पता नहीं कहाँ से हरिया कुम्हार आ गया और उसने उपरोक्त बात कही।

"अरे छोरा, जो मर ग्यी वा तो ग्यी। आंपा सारी उमर रोवां तो भी कई नी वेई सके। देख्यो वंडो काको राव साहब रा कत्या गुण गाई रयो।"

"हाँ, पाँच हजार रिप्या रो मरहम वंडा जखम पे लाग गयो है।"- हरिया ने कहा।

"अणी वास्तेईज तो केउं कि आंपा सब अबे कईं कर सकाँ!" खुमा ने कहा। फिर उसने चिलम सुलगाई, सब पीने लगे।

रात धीरे-धीरे गहराने लगी और गाँव को अपनी गिरफत में लेने लगी।

11

राव साहब की मीटिंग और उसकी सफलता का जो खाका राष्ट्रीय, प्रांतीय व स्थानीय अखबारों ने खींचा था, उसे पढ़ सुनकर विरोधी दल के नेताओं के पैरों के नीचे से जमीन निकल गई। कहाँ तो वे सोच रहे थे कि यह उपचुनाव भूरी बाई की कृपा से अब उनकी जेब में हैं; लेकिन राव साहब ने पूरा पासा ही पलट दिया।

विपक्षी दलों के संयुक्त उम्मीदवार दोषी ने फिर राजधानी में अपने आकाओं के द्वार खटखटाए। रामास्वामी और उसके मित्र दोषी के साथ विचार करने लगे।

"हाँ तो दोषी, राव साहब ने गाँववालों में पैसा बाँट दिया?"

"हाँ, बाँटा तो अनुदान है, लेकिन उन्होंने गाँववालों के पास बैठकर उनसे बात की। एक के घर पानी पिया। इन बातों से काफी फरक पड़ा है।"- दोषी बोले।

"तो क्या पूरे क्षेत्र में इसकी चर्चा है?"

"हाँ और क्या! अखबारों, रेडियो, टेलीविजन की मदद से इन बातों का ऐसा प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, जैसे राव साहब बड़े देवता आदमी हैं और उन्होंने पूरे क्षेत्र का उद्धार कर दिया।"

"अच्छा..."

"और तो और, एक निर्दलीय उम्मीदवार भी राव साहब के उम्मीदवार जोशी के समर्थन में बैठ गया।"

"अरे यह तो गजब हो गया!" रामास्वामी के मित्र ने कहा।

"अरे साहब, गजब तो तब होगा, जब मेरी जमानत भी नहीं बचेगी!"

"देखो दोषी, जब ओखली में सिर दे दिया है तो मूसल से मत डरो। रामास्वामी ने कहा।

"वो तो ठीक है स्वामी साहब, लेकिन मैं तो अच्छा-भला कमा-खा रहा था, कहाँ राजनीति में फँस गया!"

"जब फँस ही गए हो तो धीरज रखो। और शांति से आगे का कार्यक्रम बनाओ।"

अब रामास्वमी आराम से पसर गए। थोड़ी देर चुप रहे और फिर कहने लगे -

"उस गाँव में किसका प्रभाव ज्यादा है?"

"एक लड़का है हरिया कुम्हार, वही कुछ पढ़ा-लिखा है; लेकिन थोड़ा सनकी है।"

"हूँ... तो क्या उसे अपने पक्ष में किया जा सकता है?"

"मुश्किल ही है! वो राजनीति से बहुत दूर रहता है।"

"दूर को तो पास लाना पड़ेगा।"

"दोषी, तुम एक काम करो - येन-केन प्रकारेण उसे अपने पक्ष में करो, और उसी से भूरी-हत्याकांड वापस उछलवाओ।"

"अच्छा, ठीक है!"

"और मुझे सूचित करो!" रामास्वामी ने कहकर दोषी को रवाना कर दिया।

अब कमरे में रामास्वामी और उसके मित्र अकेले ही रह गए।

"उस हत्याकांड का क्या हुआ?"

"कौन-सा?"

"अरे वही, जो लड़की तुम्हारी कोठी के बाहर मरी पाई गई थी।"

"कुछ नहीं यार, स्वयं स्वामी असुरानंद ने कोई केस नहीं किया।"

"मैंने भी ज्यादा मगजपच्ची नहीं की।"

"अच्छा?"

"पुलिस के पास पुख्ता सबूत तो थे नहीं, इस कारण वह भी कुछ नहीं कर सकी।"

"मैंने गृहमंत्री से भी बात कर लीं अब कुछ नहीं होगा!"

"नहीं, मैंने सोचा - यह केस तुम्हें दिक्कत करेगा।"

"नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।"

"तब तो ठीक है?"मित्र बोल पड़े।

रामास्वामी ने एक उबासी ली। दवा खाई और मित्र के साथ सुरा देवी का आनंद लेने लगे।

गाँव का पश्चिमी भाग है यह। दूर तक छोटे-छोटे खेत। कभी इनमें हरियाली लहराती है, लेकिन इस बार अकाल है। अनावृष्टि के काररण पूरा क्षेत्र अकालग्रस्त है।

पहाड़ सब नंगे हो गए है। इधर-उधर मुँह मारते जानवर और सूखे पड़े कुओं को देखकर कलेजा मुँह को आता है। ऐसे स्थान पर, खेत की मेड़ पर हरिया कुम्हार कुछ शहरी लोगों से घिरा हुआ बातें कर रहा है।

"देखो हरिया, भूरी बाई की हत्या का राज अगर नहीं खुला, तो लानत है तुम्हारी जिंदगी पर!"

"मैं अकेला क्या कर सकता हूँ?"

"अरे तुम बहुत कुछ कर सकते हो! गाँववालों को समझाओ, जिला मुख्यालय पर धरना दो, रैली करो!"

"लेकिन इन सबसे क्या होता है?"

"अरे, हम सभी विरोधी भी तो तुम्हारे साथ हैं।" - दोषी बोला, "अगर राव साहब ने कुछ पैसा बाँट दिया तो क्या तुम लोगों का जमीर ही मर गया?"

"सवाल जमीर का नहीं है। अब भूरी तो वापस आएगी नहीं, हम सभी चाहे कुछ भी कर लें!" - हरिया ने निराश भाव से कहा।

"अरे भाई, तुम बात को समझने की कोशिश क्यों नहीं करते... कल भूरी की हत्या हुई, परसों और किसी की होगी।" दोषी ने फिर उसे उखाड़ने की कोशिश की -

"अगर तुम इस गाँव के लोगों में असंतोष फैला दो, तो हम विधानसभा और लेकसभा में आवाज उठाएँगे। बिना यहाँ कुछ हुए, हम भी क्या कर सकते हैं!" क्षेत्रीय विधायक ने कूटनीति दिखाई।

"हाँ, ये बात तो है! अगर यहाँ पर कुछ हो तो हम लोग भी देर-सबेर अवाज उठा सकते हैं।" - हरिया बोला।

"रामास्वामी भी हमारे साथ हैं।"दोषी ने कहा।

"अच्छा..." हरिया शांत ही रहा।

"और सत्ताधारी पक्ष का एक गुट भी वैसे इस चुनाव के कारण राव साहब से नाराज है। हरिया, तुम चाहो तो तुम्हारी किस्मत चमक सकती है!" दोषी ने अब चारा फेंकना शुरू किया। थोड़ी देर की ना-नुच के बाद दोषी और उसके साथी हरिया को शहर ले गए, और वहाँ उसे अच्छी तरह से समझा-बुझाकर वापस गाँव छोड़ गए।

लेकिन राव साहब के अनुचर मदनजी ने ये स्कीम भी फेल कर दी। हरिया का शव गाँव के एक सूखे कुएँ में बरामद हुआ। पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया।

रामास्वामी ने हरिया की मौत की समस्त जिम्मेदारी सत्ताधारी पक्ष पर थोप दी। उन्होंने अपने प्रेस-वक्तव्य में कहा -

"इस चुनाव के नाजुक समय में, इस क्षेत्र में एक के बाद एक मौत ने गाँव वालों का मनोबल तोड़ दिया है। हरिया एक सक्रिय और समझदार कार्यकर्ता था; वह हमारे प्रत्याशी दोषी के लिए काम कर रहा था। यह एक राजनीतिक हत्या है।"

इतना ही नहीं, रामास्वामी और उसके समर्थकों ने संसद में भी बहस की माँग की। सताधारी पक्ष इस हमले से बौखला गया, लेकिन राव साहब शांत रहे; और अंत में बहस का जवाब देते हुए उन्होंने कहा -

"सभी जानते हैं, हरिया एक सनकी और मानसिक रूप से विकृत लड़का था। शहर में फेल हो जाने के बाद वह गाँव चला गया। गाँव में उसकी उल-जलूल हरकतों से गाँववाले परेशान थे। किसी सनक के कारण ही वह कुएँ में गिर गया और उसकी मृत्यु हो गई - पुलिस और पोस्टमार्टम की रपटों से यही साबित होता है।"

इतना कहने के बाद राव साहब तनिक रुके और फिर बोले -

"उपचुनाव कौन जीतता है, यह महत्वपूर्ण नहीं; लेकिन यह आरोप कि हरिया की हत्या राजनीतिक है, बिलकुल बेबुनियाद हैं!"

इसके समर्थन में राव साहब के सांसदों ने हर्षध्वनि की। रामास्वामी के समर्थकों ने वाक्आउट करना पसंद किया।

इधर विधानसभा चुनाव के परिणामों में सत्ताधारी पक्ष मात खा गया। पाँच में से तीन प्रदेशों में विरोधी दलों की सरकारें बन गईं। इसी आधार पर लोकसभा में भी उम्मीद थी। भूरी हत्या-कांड, हरिया की मौत आदि कारण उनकी और भी मदद कर रहे थे। ऐसी विकट स्थिति में राव साहब को राष्ट्रपति ने बुलवाया।

"देश की हालत दिन-दिन खराब हो रही है।" - मितभाषी राष्ट्रपति बोले।

"नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं है!"

"अल्पसंख्यकों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं।"

"..."

"विश्वविद्यालय बंद हैं। मिलें और फैक्टरियाँ बंद हैं। चारों तरफ अराजकता है। क्यों, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? ...जहाँ राष्ट्रपति शासन है, वहाँ सब ठीक चलता है। क्यों नहीं आपलोग कुछ समय के लिए राजनीति से हट जाते हैं। कुछ समय के लिए राष्ट्रपति शासन लागू कर दें, सब ठीक हो जाएगा!"

"ये कैसे हो सकता है? ऐसे कोई कारण नहीं हैं कि राष्ट्रपति शासन लागू हो। मेरी सरकार पूर्ण बहुमत में ठीक तरह से काम कर रही है।"

"तो फिर यह अराजकता क्यों?"

"इतने बड़े देश में थोड़ी-बहुत तो चलता ही है!"राव साहब ने कहा।

"नहीं, राव साहब, स्थिति ठीक नहीं है। आप कुछ कीजिए, नहीं तो मैं ही कोई कदम उठाऊँगा।" यह कहकर राष्ट्रपति अंदर चले गए।

राव साहब बाहर आए। पत्र-प्रतिनिधियों से बात नहीं की राव साहब ने, और अपनी कोठी पर आ गए।

पता नहीं किन कारणों से, राव साहब और राष्ट्रपति की भेंट की खबर रानाडे और अन्य लोगों को मिल गई। उन्होंने राव साहब को आगाह किया कि इस स्थिति में हमें तुरंत कुछ सख्त कदम उठाने चाहिए। लेकिन राव साहब इस स्थिति में नहीं थे कि कुछ करते। अपनी कोठी पर उन्होंने केबिनेट की मीटिंग बुलाई। रानाडे ने इस मीटिंग का बहिष्कार किया। मीटिंग की समाप्ति के पूर्व ही रानाडे और उनके समर्थकों ने अपना इस्तीफा भेज दिया।

राव साहब की सरकार अल्पमत में हो गई। इधर राव साहब कुछ समझें, तब तक रानाडे ने नई पार्टी गठित कर ली। और राव साहब ने अपना इस्तीफा राष्ट्रपति को भेज दिया।

राष्ट्रपति ने राव साहब का इस्तीफा मंजूर कर लिया। राजधानी में तेजी से बदलते हुए घटना-क्रम पर पूरे विश्व की आँखें लगी हुई थीं।

रानाडे और उसके समर्थकों ने एक पार्टी का गठन कर उसे विधिवत मान्यता दिला दी।

ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति ने कानूनी सलाहकारों की राय लेकर विपक्ष के नेता रामास्वामी को सरकार बनाने हेतु आमंत्रित किया। इस समाचार के प्रसारित होते ही राजनीतिक गतिविधियाँ अत्यधिक तीव्र हो गईं।

12

राष्ट्रपति भवन से जब रामास्वामी बाहर निकले तो रात्रि प्रारंभ हो चुकी थी। बाहर मंडराते प्रेस-फोटोग्राफरों और संवाददाताओं ने उन्हें घेर लिया।

मुस्कराते हुए वे उनसे बचकर निकल गए। अपनी लंबी गाड़ी में बैठकर रामास्वामी कोठी पर आए। कोठी में उनके आने से पूर्व ही यह समाचार पहुँच चुका था, अतः चारों तरफ हर्ष की लहरें हिलोरें ले रही थीं। बाहर लॉन में, सड़क पर और आगंतुकों हेतु जो कक्ष बनाए गए थे, सभी तरफ भीड़ थी। रामास्वामी अपने सचिव सहित अंदर वाले कमरे की ओर चल पड़े।

कमरे में पहुँचकर रामास्वामी ने रानाडे तथा अन्य विरोधी दलों के नेताओं को आज रात के भोज हेतु आमंत्रित किया। तेजी से सचिव ने टेलीफोन मिलाए और आनन-फानन में सभी प्रबंध होते चले गए।

आज रामास्वामी को लगा, शायद उनका बरसों का सपना पूरा होने वाला है। अगर रानाडे और कुछ अन्य दल साथ दे दें, तो वे इस बार प्रधानमंत्री का ताज पहन लेंगे।

रात्रि के भोज पर उन्होंने नेताओं से वार्तालाप प्रारंभ किया। रानाडे को लेकर वे अपने एकांत शयनागार में आए।

"बधाई!" रानाडे ने कहा, "अब तो आप ही पी.एम. होंगे!"

"अगर आपका सहयोग मिला तो।"

"ऐसी क्या बात है! मैं तो हमेशा ही आपके साथ हूँ। पहले भी मैं इस संबंध में आपसे कह चुका हूँ।

रामास्वामी कुछ देर तो चुप रहे, फिर बोले -

"तो क्या आप और आपके सभी समर्थक मेरे साथ हैं?"

"देखिए, औपचारिक रूप से हम आपके साथ तभी होंगे, जब आपके पास सरकार बनाने लायक एम.पी. हो जाएँगे।"

"लेकिन अभी तो आपने सहयोग का वादा किया था।"

"वो तो मैं कह ही रहा हूँ। लेकिन जब तक अन्य दल और एम.पी. आपको पी.एम. के रूप में स्वीकार नहीं करते, मैं अकेला कैसे सपोर्ट कर सकता हूँ!"

"इसका मतलब, आपका सपोर्ट बेकार ही है!"

"आप कुछ भी समझिए! हाँ अगर अन्य लोग आपके साथ आ गए तो हम भी आपके साथ होंगे।"

यह कहकर रानाडे ने खाली गिलास रखा और बाहर की ओर चल पड़े।

रानाडे के जाने के बाद रामास्वामी कुछ देर तक सोचते रहे, फिर वापस आकर सुराणा और मनसुखानी आदि से बातचीत करने लगे। लेकिन कोई भी सहयोग हेतु तत्काल तैयार नहीं हुआ।

रामास्वामी ने अपने समर्थक मुख्यमंत्रियों को भी राजधानी बुलवा लिया।

तीन दिन तक वे लगातार जेाड़-तोड़ करते रहे, लेकिन शायद सफलता उनके भाग्य में नहीं लिखी थी। रामास्वामी ने अपनी सरकार बना सकने की असफलता से राष्ट्रपति को अवगत करा दिया।

इस सूचना से राजनीतिक स्थिति और भी अधिक खराब हो गई। सत्ताधारी पक्ष में विघटन और ध्रुवीकरण एक साथ चलता रहा। उधर विरोधी पक्ष भी असंगठित रहा। रामास्वामी अपनी असफलता के कारण परेशान, उदास और टूटे हुए रहने लगे।

राष्ट्रपति ने सभी संभावनाओं को देखते हुए, संसद में सबसे बड़े गुट के नेता को सरकार बनाने की दावत दे दी। सत्ताधारी पक्ष में विघटन के बाद रानाडे का गुट सबसे बड़ा बन गया था।

रानाडे स्वयं राष्ट्रपति से मिलकर इस संबंध में कोशिश कर रहे थे। इस आमंत्रण से रानाडे को मन की मुराद मिल गई।

उन्होंने विरोधी दलों में से कुछ का सहयोग प्राप्त किया, कुछ खरीदा-बेचा, एक नेता को उप-प्रधानमंत्री बनाने का लालच दिया और अपनी सरकार बनाने की घोषणा कर दी।

सुराणा, मनसुखानी, हरनाथ और स्वामी असुरानंद, सभी रानाडे के मंत्रिमंडल में आ गए।

रानाडे शपथ-ग्रहण समारोह के बाद संसद के सत्र हेतु तैयारी करने लगे। इस पूरे चक्र में रानाडे का साथ बाहर से भी कुछ दलों ने दिया।

संसद सत्र के आने से कुछ समय पूर्व सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन धीरे-धीरे रानाडे के समर्थकों में असंतोष पैदा होने लगा। जिन एम.पी. को कुछ नहीं मिल पाया, वे अलग होने की धमकी देने लगे।

आखिर में संसद सत्र के दिन तक रानाडे की सरकार अल्पमत में हो गई। रानाडे इस समाचार को नहीं सह सके। उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।

राष्ट्रपति ने विरोधी दलों के नेताओं से विचार-विमर्श किया। कुछ लोगों ने सरकार बनाने का दावा भी किया। समर्थक एम.पी. की सूचियाँ भी प्रस्तुत की गईं।

लेकिन जाँच होने तक राष्ट्रपति ने शासन की बागडोर पूर्ववर्ती कैबिनेट को ही सौंप दी। तमाम जाँचों के बाद और दावों की सत्यता तथा देश की स्थिति को देखते हुए, राष्ट्रपति ने आकाशवाणी से अपने प्रसारण में कहा -

"मेरे देशवासियो!

अभी स्थिति इतनी नाजुक है कि कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कोई भी दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है।

अतः मैं मध्यावधि चुनावों की घोषणा करता हूँ। सभी दल जनता के पास से नया जनादेश लेकर आएँ, ताकि हमारा लोकतंत्र सुरक्षित रहे!"

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