यक्ष और युधिष्ठिर (कहानी) : विष्णु प्रभाकर
Yaksha Aur Yudhisthira : Vishnu Prabhakar
पाँचों पांडव वनवास की अवधि पूरी होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक दिन एक हिरण के पीछे भागते-भागते वे बहुत थक गए। हिरण कहीं गायब हो गया और प्यास के मारे पाँचों के प्राणों पर आ बनी। बड़े भाई की आज्ञा पाकर नकुल एक पेड़ पर चढ़े और देखा—कुछ दूर पर पानी के पास उगनेवाले कुछ पौधे दिखाई दे रहे हैं। वहाँ कुछ बगुले भी बैठे हैं।
बस, नीचे उतरकर वह उसी ओर चल दिए। लेकिन बहुत देर हो जाने पर भी वापस नहीं लौटे। तब चिंतित होकर युधिष्ठिर ने सहदेव को भेजा। सहदेव भी बहुत देर तक नहीं लौटे तो अर्जुन को भेजा। लेकिन अर्जुन भी नहीं लौटे। बाट जोहते-जोहते युधिष्ठिर व्याकुल हो उठे। उन्होंने भीमसेन से कहा, ‘‘देखो तो, वे सब कहाँ रह गए?’’
लेकिन भीमसेन भी लौटकर नहीं आए। अब तो युधिष्ठिर स्वयं उसी ओर चल पड़े। बड़ी दूर जाने पर वह एक तालाब के पास पहुँचे। देखते क्या हैं—उनके चारों भाई वहाँ मरे पड़े हैं। उनका हृदय असह्य शोक से तिलमिला उठा। वे विलाप करने लगे। विलाप करते-करते उन्होंने बड़े ध्यान से भाइयों के शरीर को देखा। कोई घाव नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, ऐसा लगता है जैसे थककर सो गए हों। कहीं आस-पास कोई शत्रु भी तो नहीं। अवश्य दुर्योधन ने इस पानी में विष मिला दियाहै।
यह सोचकर वे तालाब की ओर बढ़े। तभी सहसा किसी ने पुकारकर कहा, ‘‘सावधान! तुम्हारे भाइयों ने मेरी बात नहीं मानी, तुम भी अगर ऐसा ही करोगे तो उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। यह तालाब मेरा है। पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, फिर पानी पीओ।’’
धर्मात्मा युधिष्ठिर समझ गए कि यह यक्ष है। बोले, ‘‘अच्छी बात है। मैं आपके प्रश्नों का उत्तर दूँगा। पूछिए!’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘सूर्य किसकी आज्ञा से प्रतिदिन उगता है?’’
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ‘‘ब्रह्म अर्थात् परमात्मा की आज्ञा से।’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘मनुष्य का साथ सदा कौन देता है?’’
युधिष्ठिर बोले, ‘‘धैर्य।’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘धरती से भारी चीज क्या है?’’
युधिष्ठिर बोले, ‘‘संतान को कोख में धारण करनेवाली माता।’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘आकाश से भी ऊँचा कौन है?’’
युधिष्ठिर बोले, ‘‘पिता।’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘हवा से भी तेज कौन चलता है?’’
युधिष्ठिर बोले, ‘‘मन।’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘सुख क्या है?’’
युधिष्ठिर बोले, ‘‘जो शील और सच्चरित्रता पर आधारित है, वही सुख है।’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘वह क्या है, जिसके खो जाने से दुःख नहीं होता?’’
युधिष्ठिर बोले, ‘‘क्रोध।’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘वह क्या है, जिसको खोकर मनुष्य धनी हो जाता है?’’
युधिष्ठिर बोले, ‘‘लालच।’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘युधिष्ठिर, अच्छी तरह सोचकर बताओ कि ब्राह्मण का होना किस बात पर निर्भर है—जन्म पर, विद्या पर या शील पर?’’
युधिष्ठिर बोला, ‘‘शील पर। शील के बिना कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता। चारों वेदों का जिसने ज्ञान प्राप्त कर लिया है लेकिन उसका चरित्र भ्रष्ट है तो वह ब्राह्मण नहीं है, नीच है।’’
इस प्रकार यक्ष ने और भी प्रश्न किए। लेकिन युधिष्ठिर बिना किसी हिचक के सबके ठीक-ठीक उत्तर देते चले गए। अंत में यक्ष बोला, ‘‘धर्मराज युधिष्ठिर, मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम्हारे चार भाइयों में से एक को जिला सकता हूँ। बोलो, किसको जिलाऊँ?’’
युधिष्ठिर ने एक क्षण सोचा, फिर कहा, ‘‘जिसका रंग साँवला है और आँखें कमल के समान हैं। जिसकी छाती विशाल है और भुजाएँ लंबी-लंबी हैं, वही मेरा भाई नकुल आपकी कृपा से जीवित हो उठे!’’
युधिष्ठिर अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाए थे कि यक्ष उनके सामने प्रकट हो गया। बोला, ‘‘युधिष्ठिर, मैंने तो सुना है कि जिसके शरीर में दस हजार हाथियों का बल है, उस भीमसेन को तुम सबसे अधिक प्यार करते हो। फिर उसको छोड़कर तुमने नकुल को जिलाना क्यों ठीक समझा? कम-से-कम अर्जुन को ही जिलाने की बात कहते। वह तुम्हारी बार-बार रक्षा करता रहा है। अपने इन दो रण-बाँकुरे भाइयों के सामने तुम नकुल को क्यों इतना चाहते हो?’’
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ‘‘यक्षराज! मनुष्य की रक्षा न तो भीम करता है, न अर्जुन करता है; धर्म ही मनुष्य की रक्षा करता है। धर्म ही मनुष्य का नाश करता है। मैं नकुल को क्यों चाहता हूँ—यह बड़ी सीधी सी बात है। मेरे पिता की दो पत्नियाँ थीं, कुंती का पुत्र मैं जीवित हूँ। माद्री का भी एक पुत्र जीवित रहना चाहिए। नकुल उन्हीं का पुत्र है। आपकी कृपा से वही जीवित हो!’’
गद्गद होकर यक्ष ने कहा, ‘‘मेरे प्यारे पुत्र, तुम पक्षपात से रहित हो। तुम्हारे चारों ही भाई जीवित हो उठें!’’
स्वयं धर्मराज यक्ष का रूप धारण करके आए थे। इससे पहले हिरण का रूप भी उन्होंने ही धारण किया था। वह अपने पुत्र युधिष्ठिर की परीक्षा लेना चाहते थे। उनके इन गुणों पर मुग्ध होकर उन्होंने उन्हें छाती से लगा लिया और कहा, ‘‘तुम्हारे वनवास की अवधि पूरी होने वाली है। अज्ञातवास का समय भी तुम सफलता से पूरा कर लोगे, तुम्हें कोई पहचान नहीं सकेगा।’’
यह कहकर धर्मराज चले गए और पाँचों पांडव भी प्रसन्न होकर अपने स्थान पर लौट आए।