व्यक्ति, चित्रकार, कलमकार : खलील जिब्रान (जीवनी) : बलराम अग्रवाल

Vyakti Chitrakar Kalamkar : Khalil Gibran (Biography in Hindi) : Balram Agarwal

जन्म-पूर्व की परिस्थितियाँ

भ्रष्ट हो चुकी राजनीतिक परिस्थितियों से त्रस्त लोगों का जिब्रान के जन्म से सैकड़ों वर्ष पहले सीरिया और लेबनान छोड़कर भागने का सिलसिला शुरू हो चुका था। उनमें से कुछ मिस्र में जा बसे, कुछ अमेरिका में तो कुछ यूरोप में। वे, जो न तो भाग-निकलने का सौभाग्य पा सके और न देश-निकाले की सज़ा का, उन्हें सुल्तान के खिलाफ विद्रोह करने के दण्ड-स्वरूप शहर के मुख्य चौराहे पर फाँसी पर लटका दिया गया ताकि बाकी बलवाई उन्हें देखकर सबक ले सकें। जिब्रान के जन्म से लगभग 350 वर्ष पहले, सन 1537 के शुरू में तुर्की ने सीरिया पर विजय पा ली थी। लेबनान की पहाड़ियाँ तुर्क-सेना के लिए अगम थीं। इसलिए उन्होंने लेबनान के पहाड़ी इलाकों को छोड़कर बन्दरगाहों और मैदानी इलाकों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। पहाड़ी इलाकों और उनके जिद्दी बाशिन्दों को इस शर्त के साथ कि वे वहाँ रहने के एवज़ में सुल्तान के खजाने में कर का भुगतान करते रहेंगे, तुर्कों ने स्वयं द्वारा नियुक्त एक पर्यवेक्षक की निगरानी में उन्हें स्वयं उनके शासकों के अधीन छोड़ दिया था।

जिब्रान के जन्म से लगभग सौ साल पहले, सन 1789 में हुई फ्रांस-क्रांति का परिणाम यह रहा कि फ्रांस से कैथोलिक पादरियों का सफाया हो गया। इनमें से बहुत-से पादरियों को लेबनान में शरण मिल गई।

तुर्की का शुमार किसी समय दुनिया के महाशक्तिशाली देशों में किया जाता था। पूरा अरब, उत्तरी अफ्रीका और यूरोप का बड़ा हिस्सा इसके अधीन था। कानून के अनुसार सुल्तान सारे साम्राज्य का मालिक था। साम्राज्य के समस्त खनिज स्रोतों पर उस अकेले का आधिपत्य होता था। वह अपनी मर्जी से जिसे, जब, जितनी चाहे जागीरें बख्श कर उपकृत कर सकता था। इस छूट ने साम्राज्य को जागीरदारी प्रथा की ओर धकेल दिया। सुल्तान वादे तो खूब करता था, लेकिन जनता की आर्थिक मदद बिल्कुल नहीं करता था। उसके मुँहलगे दलाल राज्यभर से खूबसूरत लड़कियों को उठा-उठाकर महल में सप्लाई करने के धन्धे में लगे रहते थे। जो लड़की सुल्तान को पसन्द न आती, वह वज़ीर या उससे छोटे ओहदे वालों का निवाला बनती। वह अगर उनको भी नापसन्द होती या किसी को भी खुश करने में असफल रहती तो हाथ-पाँव बाँधकर गहरे समुद्र में दफन कर दी जाती थी।

साम्राज्य के लिए कर वसूलने वाले लोग राज्य-कर्मचारी नहीं होते थे। इस काम को ठेकेदार सम्पन्न करते थे। प्रति व्यक्ति आय का दस प्रतिशत कर देना होता था लेकिन ताकत के बल पर ठेकेदार इससे कहीं ज्यादा कर वसूल करते थे। खेत में खड़ी फसल का मूल्य उसके वास्तविक बाज़ार-मूल्य से कहीं अधिक आँक कर उस पर कर निर्धारित किया जाता था; कोई किसान अगर आकलन से पहले फसल काट लेता तो उस पर फसल चोरी का मुकदमा चलता था। कर अदा न करने के दण्डस्वरूप ठेकेदार लोगों के घरों से अक्सर आम जरूरत की चीजें उठा ले जाते थे। अपने नागरिकों को लेशमात्र भी सुविधा दिए बिना तुर्की उन दिनों दुनिया का सर्वाधिक कर वसूलने वाला देश था।

इस सबने जिब्रान की जिन्दगी को कितना प्रभावित किया?

जिब्रान के जन्म से 14 वर्ष पहले साम्राज्ञी यूजीनी और उसके सम्राट पति नेपोलियन तृतीय के जहाज ने पोर्ट सईद नामक बन्दरगाह पर लंगर डाला। ऐन उस वक्त जब सम्राट, नवाब और उच्चाधिकारी नाच-गाने का आनन्द ले रहे थे; कारवाँ में शामिल भारत, अरब, सीरिया, लेबनान, तुर्की, यहाँ तक कि मिस्र मूल के भी लोगों के सफाए का बिगुल बज उठा। लाखों लोग जो घोड़े और ऊँट खरीदने-बेचने का कारोबार करते थे, सराय चलाते थे, सामूहिक यात्राओं का इंतजाम करते थे, जो पूरब और यूरोप के बीच व्यापार की कड़ी थे, बरबाद हो गए। ‘इस घर को आग लग गई घर के चिराग़ से’ जैसा माहौल था। अरबी मुहावरे का प्रयोग करें तो यों समझ लीजिए कि ‘कमर पर लदे भूसे ने ही ऊँट की कमर तोड़कर रख दी थी’। कहा जाता है कि अरब संसार आज तक भी उस विपदा के बाद सँभल नहीं सका है। कितने ही सीरियाई और लेबनानी अफ्रीका की शरण में चले गए। कितनों ही ने बेरूत में जहाज को किनारे लगा दिया। आस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका, न्यूयॉर्क या बोस्टन — कितने ही लोग अनिच्छापूर्वक वहाँ बस गए जहाँ उनका जहाज जा खड़ा हुआ।

भूगोल और इतिहास के बारे में जिब्रान का ज्ञान अपने शहर या स्कूली किताबों तक सीमित नहीं था। मध्य-पूर्व के स्थानों, घटनाओं, रिवाज़ों और इतिहास के उनके वर्णन को पढ़ने से पता चलता है कि इन स्थानों की उन्होंने यात्रा की थी। बारह वर्ष की उम्र में वे अमेरिका आ गए थे। दो वर्ष तक बोस्टन में पढ़ने के बाद अपनी आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए वे लेबनान वापस चले गए। गर्मी की छुट्टियों में पिता ने उन्हें पूरा लेबनान, सीरिया और फिलिस्तीन घुमाया। चार साल तक अरबी पढ़ने के बाद उच्चशिक्षा के लिए वे ग्रीस, रोम, स्पेन और पेरिस गए। दो साल पेरिस में पढ़ाई करके वे बोस्टन लौट गए। जिब्रान जहाँ-जहाँ घूमे उनमें नजारथ, बैथ्लेहम, येरूशलम, ताहिरा, त्रिपोली, बालबेक, दमिश्क, अलिप्पो और पाल्मिरा प्रमुख हैं। दुनिया के नक्शे पर इन स्थानों की हैसियत कुछेक बिन्दुओं से अधिक नहीं है, लेकिन ये वे स्थान हैं जिन्होंने जिब्रान के विचारों को, लेखन को और दार्शनिकता को उच्च आयाम प्रदान किए। बालबेक गोरों का दुनियाभर में सबसे बड़ा धार्मिक केन्द्र है। दमिश्क को दुनिया का सबसे पुराना बसा नगर माना जाता है। इस्लाम के स्वर्णकाल की वह राजधानी था जबकि यूरोप अभी ‘डार्क एज़’(अनभिज्ञता) में ही था। दमिश्क की गलियों और मस्जिदों में घूमते हुए जिब्रान ने अरब के महान लोगों के चित्रों को वहाँ से नदारद पाया। इसका कारण इस्लाम में ‘चित्र’ प्रदर्शन का प्रतिबन्धित होना था। सोलह साल का होते-होते जिब्रान ने अरब दार्शनिकों और कवियों का गहरा अध्ययन कर लिया था। ताहिरा और सूडान जिबान के जन्मस्थान के आसपास ही थे। ग्रीस की सभ्यता यहीं से पनपी।

प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा

जिब्रान खलील जिब्रान बिन मिखाइल बिन साद — पारम्परिक रूप से खलील जिब्रान का यही पूरा नाम है। उनका जन्म तुर्क वंश (यह वंश 13वीं शताब्दी से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध में अपने समापन तक वहाँ काबिज रहा) द्वारा शासित ओटोमन सीरिया में माउंट लेबनान मुत्सरीफात के बिशेरी(वर्तमान रिपब्लिक ऑफ लेबनान) नामक स्थान में हुआ था। ‘खलील जिब्रान : हिज़ लाइफ एंड वर्ल्ड’ के लेखकद्वय जीन जिब्रान और खलील जिब्रान ने लिखा है — ‘खलील जिब्रान ने एक बार कहा था कि मेरी जन्मतिथि का ठीक-ठीक पता नहीं है। दरअसल लेबनान के बिशेरी-जैसे पिछड़े हुए गाँव में उन दिनों जीना और मरना मौसम के या बाकी दूसरे मौकों के आने-जाने जैसा ही सामान्य था। किसी लिखित प्रमाण की बजाय लोग याददाश्त के आधार पर ही जन्मतिथि बताते थे।’ आधिकारिक जन्मतिथि को लेकर जो उहापोह मची हुई थी, उसका निराकरण खलील जिब्रान ने अपनी लेबनानी मित्र मे ज़ैदी को लिखे एक पत्र में किया है। उन्होंने लिखा है — “… एक वाक़या तुम्हें बताता हूँ मैं, और तुम्हें इस पर हँसी आएगी। ‘नसीब आरिदा’ ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’ के लेखों को संग्रहीत करके एक पुस्तक संपादित करना चाहता था। ‘माय बर्थडे’ शीर्षक लेख के साथ वह निश्चित जन्मतिथि देना चाहता था। मैं क्योंकि उन दिनों न्यूयॉर्क में नहीं था, उसने खुद ही मेरी जन्मतिथि को खँगालना शुरू कर दिया। वह एक जुनूनी आदमी है, लगा रहा और उसने ‘कानून-अल-अव्वल 6’ को ‘जनवरी 6’ में अनूदित कर दिया। इस तरह उसने मेरी ज़िन्दगी को क़रीबन एक साल कम कर दिया और मेरे जन्म की असल तारीख को एक माह आगे खिसका दिया। बस, ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’ के प्रकाशन से लेकर आज तक मैं हर साल दो जन्मदिन मना रहा हूँ… ” (अरबी में कानून-अल-अव्वल का मतलब है — दिसम्बर माह; जनवरी को ‘कानू्न-अल-थानी ’ कहा जाता है। इस स्पष्टीकरण के आधार पर खलील जिब्रान की सही जन्मतिथि 6 दिसम्बर 1883 सिद्ध होती है।)

खलील जिब्रान की माँ का नाम कामिला रहामी था। उनके जन्म के समय कामिला की उम्र 30 वर्ष थी। वह उनके तीसरे पति की पहली सन्तान थे। उनके जन्म के बाद कामिला के दो कन्याएँ और उत्पन्न हुईं — 1885 में मरियाना तथा 1887 में सुलताना। बादशाही को दिए जाने वाले हिसाब से कर के गबन की एक शिकायत के मामले में 1891 में जिब्रान के पिता को, उनकी सारी चल-अचल सम्पत्ति ज़ब्त करके, जेल में डाल दिया गया था। जिन्दगी में आए इस अचानक तूफान ने कामिला को हिलाकर रख दिया। उससे भी अधिक भयावह दुर्घटना यह हुई कि उनका नाम गाँव के ही एक व्यक्ति यूसुफ गीगी के साथ जोड़ा जाने लगा। गाँवभर में बदनामी से आहत होकर उन्होंने एक दिन जिब्रान को गोद में बैठाकर रोते हुए कहा था — ‘अब लोगों की जुबान बन्द करने का बेहतर तरीका यही है कि दुनियादारी छोड़कर मैं नन बन जाऊँ।’

स्थानीय समाज की दृष्टि में पतित और आर्थिक बदहाली से त्रस्त कामिला के सामने दो ही रास्ते थे — पहला यह कि वह हजारों दीन-हीन औरतों की तरह बिशेरी में ही सड़ती रहे और दूसरा यह कि वह अनिश्चित भविष्य का खतरा उठाकर अपने चचेरे भाई के पास अमेरिका चली जाय। यद्यपि तीन साल बाद 1894 में ही जिब्रान के पिता की रिहाई हो गई थी तथापि भुखमरी और अपमान से त्रस्त कामिला ने अमेरिका में जा बसने का निश्चय किया। अपने शराबी, जुआरी और गुस्सैल पति, जिब्रान के पिता को लेबनान में ही छोड़कर 25 जून 1895 को वह अपने पूर्व-पति हाना रहामी की सन्तान, बुतरस पीटर को जो उम्र में खलील से छह साल बड़ा था, खलील को व उनकी दो छोटी बहनों मरियाना और सुलताना को साथ लेकर अपने चचेरे भाई के पास बोस्टन चली गईं। वहाँ पर कामिला ने घर-घर जाकर छोटा-मोटा सामान बेचने वाली सेल्स गर्ल किस्म का काम करके परिवार को पालना शुरू कर दिया। बाद में, मामा की मदद से पीटर भी वहाँ पर किराने का व्यापार करने लगा। मरियाना और सुलताना भी उसके काम में हाथ बँटातीं जिससे परिवार का खर्च ठीक-ठाक चलने लगा।

जिब्रान जन्मजात कलाकार थे। उनको शैशवकाल से ही चित्रकला से प्यार था। विभिन्न आकृतियाँ उनके मस्तिष्क में जैसे हर समय आकार लेती रहती थीं और बाहर आने को उन्हें बेचैन किए रहती थीं। वे कागज़ ढूँढ़ने लगते। अगर उन्हें घर में कोई कागज़ नहीं मिलता था तो वह घर के बाहर निकल जाते और ताज़ी बर्फ़ पर बैठकर घंटों विभिन्न आकृतियाँ बनाते रहते। तीन साल की उम्र में वह अपने कपड़े उतार डालते और पहाड़ों को झकझोर देने वाले तूफान में भाग जाते। कागज़ की किल्लत को चित्रकारी के अपने जुनून के आड़े आते देख उससे निपटने का उन्होंने एक नायाब तरीका सोचा। चार साल की उम्र में उन्होंने इस उम्मीद में कि आगामी गर्मियों में उन्हें काग़ज़ की भरपूर फसल मिल जाएगी, जमीन में छेद करके उनमें कागज़ के छोटे-छोटे टुकड़े बो दिए थे। पाँच साल की उम्र में उन्हें घर का एक कोना मिल गया था जिसमें उन्होंने साफ-सुथरे पत्थरों, चट्टानी-टुकड़ों, छल्लों, पौधों और रंगीन पेंसिलों को रखकर एक बेहतरीन दुकान खोल ली थी। अगर काग़ज़ नहीं मिल पाता तो वे दीवारों पर चित्र बनाकर अपनी ख्वाहिश पूरी करते। छह साल की उम्र में उनकी माँ ने लियोनार्दो द विंची की कुछ पुरानी पेंटिंग्स से उनका परिचय करा दिया था।

पारिवारिक गरीबी और रहने का निश्चित ठौर-ठिकाना न होने के कारण 12 वर्ष की उम्र तक जिब्रान स्कूल नहीं जा सके। उनकी स्कूली शिक्षा 30 सितम्बर 1895 को शुरू हुई। प्रवासी बच्चों की शिक्षा के लिए खुले बोस्टन के क्विंसी स्कूल में उन्हें प्रवेश दिलाया गया जहाँ वह 22 सितम्बर 1897 तक पढ़े।

कहा यह जाता है कि स्कूल-प्रवेश के समय अध्यापिका द्वारा उनके नाम के हिज्जे ग़लत लिखे जाने के कारण खलील को अंग्रेजी में ‘Khalil’ के स्थान पर ‘Kahlil’ तथा जिब्रान को ‘Jibran’ के स्थान पर ‘Gibran’ लिखा जाता है, परन्तु ये हिज्जे शब्दों के लेबनानी उच्चारण के अनुरूप लिखे गये हो सकते हैं क्योंकि कामिला रहामी के हिज्जे भी ‘Kamle Rahmeh’ लिखे जाते हैं और इसी तरह अन्य नामों के भी। सचाई यह है कि स्कूल में उनका नाम जिब्रान खलील जिब्रान (Gibran Khalil Gibran) लिखाया गया था जिसमें अरबी परम्परा के अनुरूप प्रथम जिब्रान उनका नाम था, मध्यम खलील उनके पिता का तथा अन्तिम जिब्रान उनके दादा अथवा कुल का। इस नाम को छोटा करने तथा Khalil को Kahlil हिज्जे देकर अमेरिकी लुक देने का करिश्मा समाजसेविका जेसी फ्रीमोंट बीयले (Jessie Fremont Beale) ने किया था। जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही उनसे मिले स्नेह एवं अमूल्य सहयोग के कृतज्ञताज्ञापन स्वरूप तथा उनकी भावना को सम्मान देते हुए ही जिब्रान ने अपने लेखकीय नाम के हिज्जे यही बरकरार रखे।

हुआ यों कि क्विंसी स्कूल में पढ़ते हुए जिब्रान ने चित्रों के माध्यम से अपनी अध्यापिका फ्लोरेंस पीअर्स (Florence Pierce) का ध्यान आकृष्ट किया। उन्हें इस लेबनानी लड़के में भावी चित्रकार नजर आया और 1896 में उन्होंने समाजसेविका जेसी फ्रीमोंट बियले से उनकी कला की प्रशंसा की। बियले ने यह पूछते हुए कि क्या वह उस बच्चे की कुछ मदद कर सकते हैं, अपने मित्र फ्रेडरिक हॉलैंड डे को पत्र लिखा। डे एक धनी व्यक्ति थे तथा चित्रकार बच्चों के बड़े मददगार थे। वह अपने समय के विशिष्ट चित्रकार और फोटोग्राफर थे। उन्होंने जिब्रान को, उसकी दोनों छोटी बहनों को, सौतेले भाई पीटर और माँ को अपनी प्रतीकात्मक अर्द्ध-काम सौंदर्यपरक ‘फाइन आर्ट’ फोटोग्राफी के मॉडल के तौर पर इस्तेमाल करना और आर्थिक मदद देना शुरू कर दिया।

जिब्रान को उन्होंने बेल्जियन प्रतीकवादी मौरिस मेटरलिंक (Maurice Maeterlinck) के लेखन से परिचित कराया। उन्नीसवीं सदी के राल्फ वाल्डो इमर्सन (Ralph Waldo Emerson), वॉल्ट व्हिटमैन (Walt Whitman), जॉन कीट्स (John Keats) और पर्सी बाइस शैली (Percy Bysshe Shelley) जैसे कवियों और सदी के अन्य अनेक फ्रांसीसी, अमेरिकी और अन्तर्राष्ट्रीय कवियों व दार्शनिकों की रचनाओं से परिचित कराया।

जिब्रान को उन्होंने ग्रीक संस्कृति, विश्व साहित्य, समकालीन लेखन और फोटोग्राफी से परिचित कराया। डे ने जिब्रान के हृदय में दबे उस आत्मविश्वास को जगाया जो विदेश-प्रवास और गरीबी के बोझ तले दब-कुचल कर सो-सा गया था। आश्चर्य नहीं कि जिब्रान ने तेजी से विकास किया और डे को कभी निराश नहीं किया। इस तरह उन्होंने बहुत कम उम्र में अपनी प्रतिभा के बल पर बोस्टेनियन चित्रकारों के बीच सम्मानजनक जगह बना ली थी।

1897 में जिब्रान ने अपनी अरबी भाषा की पढ़ाई को पूरा करने के लिए वापस लेबनान जाने का मन बनाया। बेटे की रुचि और तीव्रबुद्धि को देखते हुए कामिला ने उसकी बात मान ली और बेरूत जाने की सहमति दे दी। 1897 में जिब्रान को लेबनान के मेरोनाइट बिशप जोसेफ डेब्स द्वारा संस्थापित स्कूल मदरसात अल-हिकम: (Madarasat Al-Hikameh) में प्रवेश दिलाया गया। वहाँ वे पाँच साल तक देवदारों के साए में रहे और पढ़ाई के साथ-साथ चित्रकला के अपने जन्मजात गुण को सँवारते रहे। कक्षा में पढ़ाने के दौरान एक बार फादर फ्रांसिस मंसूर ने उनके हाथ में एक कागज़ देखा। उन्होंने उनसे वह ले लिया। देखा — जिब्रान ने उस पर एक नग्न लड़की की तस्वीर बनाई हुई थी जो पादरी के सामने घुटनों के बल बैठी थी। फादर मंसूर ने ‘बदमाश लड़का’ कहते हुए जिब्रान के कान खींचे और स्कूल से नाम काट देने की धमकी तक दे डाली। यहाँ रहते हुए अपने मित्र यूसुफ अल-हवाइक (Yuossef Al-Huwayyik) के साथ मिलकर एक पत्रिका ‘अल-मनर:’ (आकाशदीप) शुरू की। उसे संपादित करने के साथ-साथ वह चित्रों से भी सजाते थे।

डे की मदद से सन 1898 में मात्र 15 वर्ष की आयु में जिब्रान द्वारा बनाए गए चित्र पुस्तकों के कवर-पृष्ठ पर छपने शुरू हो गए थे।

1899 में वे बोस्टन लौट आए थे। फिर एक अमेरिकी परिवार के दुभाषिए के तौर पर 1902 में पुन: लेबनान लौट गए। परन्तु कुछ ही समय बाद सुलताना के गम्भीर रूप से बीमार हो जाने की खबर पाकर उन्हें बोस्टन लौट आना पड़ा। अप्रैल 1902 में सुलताना की मृत्यु हो गई।

यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि 1902 के प्रारम्भ में बेहतर आमदनी की तलाश में उनका भाई पीटर क्यूबा चला गया था। उस दौरान किराने की दुकान सँभालने का जिम्मा जिब्रान के कंधों पर आ पड़ा। सुलताना की मौत के सदमे से उबरने तथा घर का खर्च चलाने के लिए दुकान सँभालने की जिम्मेदारी ने उन्हें रचनात्मक कार्यों से अलग-थलग कर दिया। इस कठिन काल में डे और जोसेफिन ने बोस्टन में होने वाली कला-प्रदर्शनियों और मीटिंग्स में बुला-बुलाकर उन्हें मानसिक तनाव से बाहर निकालने की लगातार कोशिश की। शर्मीलापन छोड़कर उन्होंने उन्हें घर के मौत और बीमारी से भरे वातावरण से बाहर निकलने को प्रेरित किया। कुछ ही महीनों में पीटर जानलेवा बीमारी लेकर क्यूबा से बोस्टन लौट आया। 12 मार्च 1903 को उसका निधन हो गया। उसी वर्ष जून में उनकी माँ कामिला भी देह त्याग गईं। इससे वह पूरी तरह टूट गए। मरियाना भी टी.बी. की चपेट में आ गई थी। परिवार में दो ही व्यक्ति बचे थे जो गहरे आर्थिक और मानसिक संकट की स्थिति में पड़ गए थे। सम्भवत: घोर आर्थिक बदहाली, हताशा और निराशा के क्षणों में ही ये पंक्तियाँ लिखी गई होंगी जो उनके 1932 में प्रकाशित संग्रह ‘सैंड एंड फोम’ में संग्रहीत हैं —

(1) मुझे शेर का निवाला बना दे हे ईश्वर! या फिर एक खरगोश मेरे पेट के लिए दे दे।
(2) नहीं, हम व्यर्थ ही नहीं जिये। ऊँची-ऊँची इमारतें हमारी हड्डियों से ही बनी हैं।

परिवार में एक के बाद एक तीन मौत हो जाने और रचनात्मक कार्यों से पूरी तरह विलग होने से टूट चुके जिब्रान की मानसिक स्थिति को भाँपकर उसकी छोटी बहन मरियाना ने किराने की दुकान को बेच दिया और उन्हें प्रेरित किया कि घर-खर्च की चिन्ता छोड़कर वे अपने-आप को पूरी तरह अरबी और अंग्रेजी लेखन झोंक दें। रचनात्मकता और जीवन-यापन के दोराहे पर खड़े जिब्रान ने मरियाना की बात मान ली और इस दोहरी-तिहरी जिम्मेदारी को ही अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया।

चित्र प्रदर्शनियाँ

कवयित्री मित्र जोसेफिन प्रिस्टन पीबॉडी (Josephine Preston Peabody) ने चित्रों की प्रदर्शनी लगाने में उनकी मदद प्रारम्भ की। 1903 में उसने वेस्ले कॉलेज में उनके चित्रों की प्रदर्शनी का इंतजाम किया। जनवरी 1904 में डे ने अपने स्टुडियो में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगाई। उनके चित्रों की एक-और प्रदर्शनी कैम्ब्रिज स्कूल में लगी। इन सब में चारकोल से बनाए उनके काव्यपरक एवं प्रतीकात्मक चित्र बोस्टन के कला-समुदाय को चौंकाने वाले थे। फरवरी 1904 में जोसेफिन और डे ने उनकी मुलाकात एक प्रगतिशील प्राध्यापिका मेरी एलिजाबेथ हस्कल (Mary Elizabeth Haskell) से कराई। 1904 की प्रदर्शनी के बाद डे के हार्कोर्ट स्टुडियो में दुर्भाग्य से आग लग गई और जिब्रान का समूचा प्रारम्भिक कला-कर्म भस्म हो गया।

अपने चित्रों और पेंटिंग्स की एक प्रदर्शनी जिब्रान ने दिसंबर 1914 में मोंटरोस गैलरी, न्यूयॉर्क में, दो चित्र प्रदर्शनियाँ 1917 में नोडलर एंड कंपनी गैलरी, न्यूयॉर्क तथा डॉल एंड रिचर्ड्स गैलरी, बोस्टन में लगाईं। उनके चित्रों का एक संग्रह ‘ट्वेंटी ड्रॉइंग्स’ अलफ्रेड ए॰ नोफ ने 1919 में प्रकाशित किया। जनवरी 1922 में, प्रदर्शन हेतु उनके चित्र वूमैन्स सिटी क्लब, बोस्टन में रखे गये।

कला की उच्च शिक्षा

कला की शिक्षा के लिए जिब्रान 1 जुलाई 1908 को बोस्टन से पेरिस गए। पेरिस में अपने कला अध्ययन के दौरान उन्होंने मिस्र, इटली और स्पेन की यात्राएँ कीं। उसी दौरान (1909-10) उन्होंने ‘द एजिज़ ऑव वूमन’ शीर्षक चित्र-श्रृंखला बनाई तथा ऑगस्टे रोडिन (1910) का एक पोर्ट्रेट बनाया। वहाँ वह फ्रांस के ईश्वरवादी कवि व चित्रकार विलियम ब्लेक (1757-1857) की रचनाओं से बहुत प्रभावित हुए। 1910 में पेरिस में ही वह अमीन रिहानी (Ameen Rihani) और अपने पूर्व लेबनानी मित्र यूसुफ हवाइक के सम्पर्क में आए जिनके साथ मिलकर उन्होंने अरब संसार के सांस्कृतिक उत्थान के लिए योजनाएँ बनाईं। जून 1909 में वहीं उन्हें पिता के देहांत का समाचार मिला। पढ़ाई पूरी करके 31जुलाई 1910 को वे अमेरिका लौटे। उनके और मेरी के बीच यह विमर्श हुआ कि बृहत्तर कला-समाज से जुड़ने के मद्देनज़र जिब्रान को बोस्टन छोड़कर स्टुडियो के लिए न्यूयॉर्क में जगह देखनी चाहिए। बोस्टन में उनकी अनपढ़ और अविवाहित बहन मरियाना की देखभाल मेरी कर लेगी। अन्तत: 1912 में उन्होंने न्यूयॉर्क में अपना स्टुडियो ‘द हरमिटेज़’ (The Hermitage) खोल लिया।

अरब रचनाकारों को एकजुट करने का प्रयास

अप्रैल 1920 में उन्होंने "अल-राबिता: अल-क़लामिया" नाम से एक संस्था का गठन अरब लेखकों को एकजुट करने की दृष्टि से किया था। जिब्रान उसके अध्यक्ष बने तथा मिखाइल नियामी सचिव। इस संस्था ने अब्द अल-मसीह हद्दाद के संपादन में एक साहित्यिक और राजनीतिक जर्नल ‘अल-साइह’ भी प्रकाशित किया। जिब्रान के जीवित रहने तक यह संस्था सुचारु रूप से चलती रही। कहीं-कहीं इसका नाम ‘अरीबिता:’ भी मिलता है। मिखाइल नियामी (1889-1988), इलिया अबू मादी (1889-1957), नसीब आरिदा (1887-1946), नादरा हद्दाद (1881-1950) और इल्यास अबू सबाका (1903-47) सरीखे उस समय के जाने-माने अनेक अरब लेखक इस संस्था से जुड़े थे।

लेखन व प्रकाशन

जिब्रान की पहली पुस्तक 1905 में प्रकाशित हुई, जो अरबी में थी — ‘नुब्था-फि-फन अल-मुसिका’। वह संगीत पर केन्द्रित थी। उन्होंने लेबनान के अरबी अखबार ‘अल मुहाजिर’ में ‘टीअर्स एंड लाफ्टर्स’ शीर्षक से कॉलम लिखना शुरू किया था जिसने उनकी पुस्तक ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’ की भूमिका तैयार की। जिब्रान ने प्रेम, सचाई, सुन्दरता, मृत्यु, अच्छाई और बुराई पर केन्द्रित कुछ अरबी कविताएँ भी समाचार पत्रों में प्रकाशित करानी शुरू कीं। 1906 में उनकी दूसरी अरबी पुस्तक आई — ‘अराइस अल-मुरुज’(अंग्रेजी अनुवाद ‘द निम्फ्स ऑव द वैली’) जिसमें ‘मार्था’, ‘युहाना द मैड’ तथा ‘डस्ट ऑव एजिज़ एंड इटर्नल फायर’ शीर्षक तीन कहानियाँ थीं। इनमें वेश्यावृत्ति, धार्मिक दबाव व अंधविश्वास तथा दिखावटी प्रेम को विषय बनाया गया था। उनकी रचनाओं में प्रयुक्त कटाक्ष, यथार्थवादिता, मध्यवर्गीय चिन्ताएँ तथा राजशाही के खिलाफ स्वर ने पारम्परिक अरबी लेखन को धुँधला कर दिया। जिब्रान की तीसरी अरबी पुस्तक ‘अल-अरवा: अल-मुत्मर्रिदा:’ (अंग्रेजी अनुवाद ‘स्प्रिट्स रिबेलिअस’) मार्च 1908 में आई। पहली बार जिब्रान ने इसमें पेन व इंक से बनाया अपना एक सेल्फ-पोर्ट्रेट भी लगाया था। इस पुस्तक में ‘अल-मुहाजिर’ में प्रकाशित उनके लेखों पर आधारित चार रचनाएँ थीं। इसमें विवाहित स्त्री का अपने पति से अलगाव, आज़ादी के लिए विद्रोह का आह्वान, अनचाहे विवाह से पलायन कर दुल्हन का मौत को गले लगाना तथा 19वीं सदी के लेबनानी शासकों की क्रूरताओं को विषय बनाया गया था। चर्च की ओर से इन रचनाओं की भरपूर निन्दा की गई।

अरबी में प्रकाशित होने वाली उनकी अन्य पुस्तकें हैं — अल-अजनिहा अल-मुतकस्सिरा(अंग्रेजी अनुवाद ‘ब्रोकन विंग्स’, 1912), दम’अ व इब्तिसम’अ(अंग्रेजी अनुवाद ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’, 1914), अल-मवाकिब (अंग्रेजी अनुवाद ‘द प्रोसेशन्स’, 1919), अल-अवासिफ (अंग्रेजी अनुवाद ‘द टेम्पेस्ट्स’ अथवा ‘द स्टॉर्म’, 1920। यह उनकी पूर्व-प्रकाशित रचनाओं का संकलन है।), इरम, धात अल-इमाद(1921; क़ुरान के 89:7 में वर्णित एक लुप्त अरबी शहर पर आधारित एकांकी, अंग्रेजी अनुवाद ‘इरम, द सिटी ऑव लोफ्टी पिलर्स’; यह सीक्रेट्स ऑव द हार्ट में प्रकाशित है), अल-बदाइ वाल-तराइफ (अंग्रेजी अनुवाद मार्वल्स एंड मास्टरपीसेज़ अथवा ‘द न्यू एंड द मार्वेलस’, 1923)।

अपनी पहली अंग्रेजी पुस्तक के प्रकाशन से ही जिब्रान की गिनती अमेरिका के स्तरीय साहित्यिकों में होने लगी थी। उनकी अंग़्रेजी में (मृत्युपूर्व) प्रकाशित उनकी पुस्तकें हैं — ‘द मैडमैन (1918), ट्वेंटी ड्रॉइंग्स (1919), द फोररनर (1920), द प्रोफेट (1923), सैंड एंड फोम(1926), किंगडम ऑव द इमेजिनेशन (1927), जीसस, द सन ऑव मैन(1928) तथा द अर्थ गॉड्स (1931, यह पुस्तक उनकी मृत्यु से दो सप्ताह पहले ही छपकर आई थी, जो उनके जीवन की संभवत: अंतिम कृति थी)। ‘द मैडमैन’ की रचनाओं को लेबनानी लोककथाओं पर आधारित बताया जाता है। इसमें संग्रहीत रचनाओं में से ग्यारह की मूल प्रतियाँ प्रिस्टन लाइब्रेरी के ‘दुर्लभ पुस्तकें तथा विशेष संग्रह’ विभाग के विलियम एच. शेहादी खलील जिब्रान संग्रहालय के तहत सुरक्षित हैं। ‘द फोररनर’ में नैतिक कथाएँ और काव्य कथाएँ हैं। सभी का आधार सूफी मत प्रतीत होता है। इसकी 24 में से 7 की मूल प्रतियाँ उपर्युक्त लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं। ‘द प्रोफेट’ का प्रकाशन पूर्व नाम ‘द काउंसल्स’ था। यह जिब्रान की सर्वाधिक चर्चित कृति है। यह न तो पूरी तरह दार्शनिक कृति है और न पूरी तरह साहित्यिक। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सैनिकों में बाँटने के लिए इसका अतिरिक्त संस्करण छापा गया था। 1961 में इसकी 1,11,000 प्रतियाँ बिकी थीं। इसके प्रकाशक अलफ्रेड ए॰ नोफ के अनुसार, सन 2000 तक ‘द प्रोफेट’ की एक करोड़ से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी थीं। इसकी 26 में से 19 रचनाओं की मूल प्रतियाँ प्रिस्टन लाइब्रेरी में सुरक्षित हैं।

‘सैंड एंड फोम’ (1926) में सूक्तियों व बौद्धिक वाक्-चातुर्य की लघुकाय रचनाएँ संग्रहीत हैं। आलोचकों का आरोप है कि इसकी बहुत-सी सूक्तियाँ बहाउल्ला-जैसे पूर्व अरब चिन्तकों द्वारा कही जा चुकी थीं। बावजूद इसके यह एक लोकप्रिय कृति है। इनके अतिरिक्त तीन पुस्तकें उनकी मृत्यु के उपरांत प्रकाशित हुईं — द वांडरर (1932) (इसमें बोधकथाएँ, नीतिकथाएँ और सूक्तियाँ हैं। इस कृति को जिब्रान ने अपनी मृत्यु से मात्र 3 सप्ताह पूर्व अन्तिम रूप दिया था। इसकी मूल पांडुलिपि को इसके प्रकाशन के उपरांत बारबरा यंग द्वारा नष्ट कर दिया बताया जाता है। इस कृति में पंचतंत्र की कथाओं की भाँति मेढक, कुत्ते, पेड़, चिड़ियाँ, जल-धाराएँ, घास और तिनके, यहाँ तक कि छाया भी मनुष्यों की तरह बोलती-बतियाती है)द गार्डन ऑव द प्रोफेट (1923, इस पुस्तक को जिब्रान की मृत्यु के बाद बारबरा यंग द्वारा पूरा किया गया था।) तथा लज़ारस एंड हिज़ बिलविड (नाटक, 1933)।

गद्य एवं काव्यपरक भाव कथाएँ, नीति कथाएँ और सूक्तियाँ

खलील जिब्रान मुख्यत: भाववादी चिंतक, कवि और कथाकार हैं। अगर गहराई से देखा जाए तो उनकी रचनाओं का केन्द्रीय प्रभाव पारम्परिक दृष्टान्तपरक, उपदेशपरक और अध्यात्मपरक कथा-रचनाओं से काफी अलग महसूस होता है। ऐसा लगता है कि उनकी रचनाओं के रूप में जो ‘गीता’ हम पढ़ रहे हैं, उसमें व्याप्त विचार और संदेश हमारे दैनिक जीवन को छू रहे हैं। वे हमें चमत्कृत या भ्रमित नहीं करते, बल्कि प्रभावित करते हैं, अपने पक्ष में हमारा समर्थन प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाएँ सर्वग्राह्य एवं सार्वकालिक हैं। उनके संग्रहों ‘द मैडमैन’ (प्रथम प्रकाशन 1918, अंग्रेजी में), ‘द फोररनर’ (प्रथम प्रकाशन 1920, अंग्रेजी में), ‘सैंड एण्ड फोम’ (प्रथम प्रकाशन 1926, अंग्रेजी में), ‘द वाण्डरर’ (प्रथम प्रकाशन मृत्योपरांत 1932, अंग्रेजी में) तथा ‘टीअर्स एण्ड लाफ्टर’ (प्रथम प्रकाशन : 1946, अंग्रेजी में; अरबी भाषा से अंग्रेजी में यह अनुवाद सम्भवत: ए॰ आर॰ फेरिस (A.R.Ferris) ने किया था। जिब्रान की कु्छ काव्यपरक और गद्यपरक रचनाओं का एक संकलन अरबी भाषा में ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’ नाम से सन 1914 में प्रकाशित हुआ था। इसका एक अनुवाद सन 1950 में एच.एम. नहमद (H.M.Nahmad) ने किया था जो न्यूयॉर्क से प्रकाशित हुआ था तथा 1950 में ही एक अनुवाद अल्फ्रेड ए॰ नोफ (Alfred A. Knopf) ने भी किया था) में समुचित संख्या में कथापरक लघु-रचनाएँ मिलती हैं।

‘पागल’ खलील जिब्रान की अति उच्च-स्तरीय लघुकथा है। इस कथा की शुरुआत जिब्रान ने यों की है — ‘आप मुझसे पूछते हैं कि मैं पागल कैसे हुआ? हुआ यों कि … एक सुबह मैं गहरी नींद से जाग उठा। मैंने देखा कि मेरे सभी मुखौटे चोरी हो गए हैं… ’ इसमें रेखांकित करने वाली बात यह है कि मुखौटों के चोरी हो जाने का पता आदमी को वस्तुत: तभी लग पाता है जब वो गहरी नींद से जाग जाने की स्थिति में पहुँच गया हो। लेकिन यह उसको ज्ञान प्राप्त हो जाने की स्थिति नहीं है। नींद से जाग जाने भर से मुखौटों के प्रति उसका मोह समाप्त नहीं हो जाता। सांसारिकता से छुटकारा पा जाना इतना आसान नहीं है। कुछ लोग ऐसे आदमी को देखकर उसका उपहास उड़ाते हैं तो कुछ मारे डर के घर में घुस जाते हैं। उसे लगता है कि मुखौटों के साथ वह सुरक्षित भी था और सम्मानित भी। अत: वह उन्हें पुन: प्राप्त करने के लिए दौड़ लगाता है। लेकिन इसी दौरान ‘जब मैं बाजार में पहुँचा तो अपने घर की छत पर खड़ा एक नौजवान चिल्लाया — वह पागल है! उसकी झलक पाने के लिए मैंने ऊपर की ओर देखा। सूर्य की किरणों ने उस दिन पहली बार मुखौटाविहीन मेरे नंगे चेहरे को चूमा। मेरी आत्मा सूरज के प्रति प्रेम से दमक उठी। मुखौटों का खयाल मेरे जेहन से जाता रहा; और मैं विक्षिप्त-सा चिल्लाया — ‘सुखी रहो, सुखी रहो मेरे मुखौटे चुराने वालो।’ … इस तरह मैं पागल बन गया।’ तात्पर्य यह कि सांसारिकों की नजर में वह आदमी, जो मुखौटों से विहीन है, सूर्य के प्रेम से जिसकी आत्मा दमक रही है — पागल है। खलील जिब्रान कहते हैं कि ‘अपने इस पागलपन में ही मैंने आजादी और सुरक्षा पाई हैं।’

खलील जिब्रान की लघुकथा ‘ईश्वर’ भी ‘पागल’ जैसी ऊँचाई वाली रचना है। ईश्वर को द्वैत-भाव नापसंद है। वह ‘मैं’ और ‘आप’ के भाव को नहीं जानता। बहुत-से लोग स्वयं को आस्तिक घोषित करते हुए जीवन बिता देते हैं जबकि वास्तव में वे नहीं जानते कि ‘आस्तिक’ का वास्तविक अर्थ क्या है? सच्चाई यह है कि इसके वास्तविक अर्थ से अनजान लोगों की बात ईश्वर तक नहीं पहुँच पाती। ईश्वर उनके समीप से कभी तूफान की तरह गुजर जाता है तो कभी पंख फड़फड़ाते पक्षियों की तरह और कभी वह पहाड़ों पर छाई धुंध की तरह पास से निकल जाता है। हृदय से जब तक द्वैत समाप्त नहीं होगा और ‘अस्ति एक:’ अर्थात एकत्व की भावना का उदय नहीं होगा, तब तक ईश्वर का सान्निध्य, उसका प्रेम नसीब नहीं होगा। अद्वैत की स्थिति में पहुँचने पर होता यह है कि ‘जब मैं पहाड़ से नीचे उतरकर घाटियों और मैदानों में आया, ईश्वर को वहाँ मौजूद पाया।’ असलियत यह है कि ‘तू’ व ‘तेरा’ और ‘मैं’ व ‘मेरा’ के भाव को मिटा चुका व्यक्ति किसी पहाड़ (यहाँ यह अहं का प्रतीक है) पर टिक ही नहीं सकता, वह उतरकर नीचे आएगा ही; और वहाँ हर जगह उसे ईश्वर मौजूद मिलेगा।

उनकी एक अत्यंत प्रसिद्ध लघुकथा है — ‘पवित्र नगर’। वहाँ का हर निवासी ईश्वरीय शिलालेख का अनुसरण कर रहा है। लेकिन शिलालेखों या कहें कि पवित्र पुस्तकों का जड़ अनुसरण मात्र मनुष्य को ईश्वर का सच्चा अनुयायी बना सकता है? इस सवाल का जवाब देते हुए अकबर इलाहाबादी कहते हैं —

दिल मेरा जिस से बहलता कोई ऐसा न मिला।
बुत के बन्दे तो मिले अल्लाह का बन्दा न मिला॥

निपट मूर्ख हो या बुद्धिमान, हर मनुष्य दो अवस्थाओं से हर पल गुजरता है — सुप्त और जाग्रत। उसके कुछ विचार उसकी सुप्तावस्था को प्रकट करते हैं तो कुछ जाग्रतावस्था को। ‘सोना-जागना’ के माध्यम से खलील जिब्रान ने मनुष्य की इन दोनों अवस्थाओं का चित्रण माँ और बेटी, दो महिलाओं के माध्यम से किया है। भौतिक भोग-विलास की क्रियाओं में रुकावट से उत्पन्न रोष — इन रुकावटों के कारण-रूप अपने निकट से निकट और प्रिय से प्रिय व्यक्ति को भी रास्ते से हटा देने का मन बना लेता है। अपनी ही बेटी के बारे में माँ सोचती है कि — ‘काश! मैंने तुझे जन्मते ही मार दिया होता।’ और बेटी यह कि — ‘काश! तू मर गई होती।’ इस तरह के विध्वंसकारी सोच को खलील जिब्रान ने सुप्तावस्था की सोच माना है। जागने पर माँ बेटी पर प्यार उँड़ेलती है और बेटी माँ को आदर देती है यानी कि प्यार और आदर जाग्रतावस्था में ही सम्भव हैं।

बाज़ और नन्हीं चिड़िया अबाबील के माध्यम से जिब्रान ने यह स्थापित करने का यत्न किया है कि सभी मनुष्य एक ही कुल के हैं। कोई भी स्वयं को राजा और दूसरे को प्रजा (यानी स्वयं द्वारा शासित और स्वयं से कमजोर) कहने का अधिकारी नहीं है। कोई ताकतवर अगर किसी कमजोर को हेय दृष्टि से देखता है तो कमज़ोर द्वारा बुद्धिमत्ता और साहस के बल पर अपनी तुलना में कहीं अधिक ताकतवर पर भी पार पाया जा सकता है, उसके अहं को चूर किया जा सकता है। इस सत्य का चित्रण ‘ बेचारा बाज़’ में बखूबी हुआ है।

अपने ग्रंथ ‘नाट्यदर्पणम्’ में लेखकद्वय रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने व्यवस्था दी है कि —

कवित्वबन्ध्या: क्लिश्यन्ते सुखाकर्तुं जगन्ति ये।
नेत्रे निमील्य विद्वांसस्तेऽधिरोहन्ति पर्वतम्॥1/12॥

अर्थात् कविताशक्ति से रहित जो विद्वान अपनी कोरी विद्या के आधार पर जगत को प्रसन्न करने का कष्ट उठाते हैं, वे मानो आँखें मींचकर पर्वत पर चढ़ने का यत्न करते हैं अर्थात उनका यह प्रयास अविवेकपूर्ण है। खलील जिब्रान ने अपनी लघुकथा ‘विद्वान और कवि’ में जैसे इसी सूत्र को काव्य-कथात्मक प्रस्तुति दी है। अकबर इलाहाबादी ने इसी बात को अपने एक शेर में यों कहा है —

गुल के ख्व़ाहाँ तो नज़र आए बहुत इत्रफ़रोश।
तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा न मिला॥

(ख्व़ाहाँ=चाहने वाले ; इत्रफ़रोश=इत्र बेचने वाले ; तालिब-ए-ज़मज़म-ए-बुलबुल-ए-शैदा=फूलों पर न्योछावर होने वाली बुलबुल के नग्मों को चाहने वाला)

लघुकथा ‘कागज़ का बयान’ अहं में डूबे ऐसे ‘व्हाइट-ड्रेस्ड’ सम्भ्रान्तों की कथा है जो अपने आसपास के परिवेश को निहायत तुच्छ और स्वयं को श्रेष्ठ मानते हैं। ऐसे व्यक्तियों का हश्र आखिरकार क्या होता है? खलील जिब्रान बेहद तीखा व्यंग्य प्रस्तुत करते हैं — ‘स्याही से भरी दवात ने कागज की बात सुनी। मन-ही-मन वह अपने कालेपन पर हँसी। उसके बाद उसने कागज के नज़दीक जाने की कभी जरूरत नहीं समझी। बहुरंगी पेंसिलों ने भी कागज की बात सुनी। वे भी कभी उसके नज़दीक नहीं गईं।’ परिणाम क्या हुआ? खलील जिब्रान चोट करते हैं — ‘बर्फ-सा सफेद कागज़ ज़िन्दगीभर बेदाग़ और पावन ही बना रहा… शुद्ध, पवित्र… और कोरा!’

जीवन का सच्चा सुख बच्चे जैसा निर्मल और निश्छल बने रहने में है। पैगम्बर शरीअ को बच्चा पार्क में मिलता है। वह अपनी आया को झाँसा देकर मुक्त भ्रमण का आनन्द लेने को निकल पड़ा है, लेकिन वह जानता है कि आया से वह अधिक समय तक अपने-आप को छिपाकर नहीं रख सकता है। यहाँ ध्यान देने कि बात यह है कि आया द्वारा खोज लिए जाने की चेतना सिर्फ उन्हीं लोगों में सम्भव है जिन्होंने बच्चे-जैसा मन पाया है और जो ‘जानबूझकर गुम होने का सुख’ लूटना जानते हैं। अपने अन्तर में छिपे बच्चे से बात करने की कला को जो लोग नहीं जानते, ‘सिद्ध और बच्चा’ के अन्तर्भाव तक पहुँचना उनके बूते से बाहर की बात है।

यह शायद अनायास नहीं है कि अनेक लोग ‘सूली चढ़ने पर’ में व्यक्त सवालों के लगभग ज्यों के त्यों भोक्ता हैं। ‘तुम अपने किस पाप का प्रायश्चित करना चाहते हो?’, ‘तुमने किसलिए अपनी बलि देने का निश्चय किया?’, ‘देखो, वह कैसा मुस्करा रहा है! सूली पर चढ़ने के कष्ट को क्या कोई इतनी आसानी से भूल सकता है?’जैसे कितने ही सवालों से उन्हें लगभग रोजाना ही टकराना पड़ता है। लेकिन क्या यह भी अनायास ही है कि इन सवालों के उनकी ओर से दिए जा सकने वाले हर जवाब को खलील जिब्रान ने दे डाला है! क्या इसका यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि खलील जिब्रान ऐसे जड़ प्रश्नकर्त्ताओं द्वारा हमारी तुलना में कहीं अधिक आहत किए जा चुके थे। ‘समंदर अपना-अपना’ में कूप-मंडूकता को समुद्र तक विस्तृत करके बताया गया है। गरज यह कि बुद्धि अगर संकुचित है तो समुद्र भी एक कुआँ ही है। ‘वज्रपात’ भी संकुचित मानसिकता को दर्शाने वाली ही रचना है। वस्तुत: तो हर पूजा-स्थल और तथाकथित धर्माचार्य, दोनों पर ही वज्रपात होना तय है, क्योंकि ये दोनों ही उस परम सत्ता के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते जिस पर विश्वास दिलाने के लिए ये बने होते हैं। मनुष्य के जीवन में परिवार के प्रति दायित्व-निर्वाह की भावना उसे शक्ति और सामर्थ्य दोनों प्रदान करती है। दायित्व-निर्वाह जैसी भावना से हीन व्यक्ति तैरने के तमाम कौशल से परिचित होने के बावजूद भी डूबने की स्थिति में पहुँच जाता है। दायित्व-निर्वाह की सकारात्मक भावना को खलील जिब्रान ने ‘सोने की बेल्ट’ शीर्षक लघुकथा में नाटकीय प्रभाव के योग से चित्रित किया है।

‘निर्द्वंद्व मूषक’ तथा ‘बेचारा बाज़’ सूझ और साहस की अत्यन्त रोचक लघुकथाएँ हैं। लघुकथा ‘दर्प-राग’ वचस्य अन्यत् मनस्य अन्यत् जैसे मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत की अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण है। ‘छोटा तिनका, बड़ा तिनका’ तथा ‘छोटी चींटी, बड़ी चींटी’ लघुकथाएँ लगभग समान जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करती कथाएँ हैं। ये दो मनोवैज्ञानिक तथ्यों को उजागर करती हैं। एक तो यह कि सृष्टि का कोई भी जीव अपने परिवेश से अतिरिक्त विषय की कल्पना नहीं कर सकता यानी तिनका सिर्फ तिनके की कल्पना कर सकता है और चींटी सिर्फ चींटी की; और दूसरा यह कि धरती पर केवल मनुष्य है जो अगर चाहे तो अपने अज्ञान और अहंकार को जानने-पहचानने की सामर्थ्य रखता है, अन्यथा तुच्छ से तुच्छ प्राणी भी अज्ञान और अहंकार के दुष्चक्र में फँसा है।

खास अन्दाज़ में झुककर चलते ऐसे अनेक लोग अक्सर ही संपर्क में आते हैं जिनको देखते ही लगता है कि — यह आदमी ‘विद्वत्ता’ का बोझ अपने ‘सिर और कन्धों पर’ लादे घूम रहा है। दूसरों की ओर सामान्यत: ये लोग कनखियों से ही देख पाते हैं क्योंकि गरदन पूरी तरह दाएँ-बाएँ घूम नहीं पाती है। औसत आदमी को अपनी विद्वत्ता के आतंक से ये खदेड़े रखते हैं और उससे आत्मिक आनन्द प्राप्त करते हैं। ये बीमार मानसिकता के लोग हैं जो सोचने लगते हैं कि ‘डराकर भगाने का मज़ा ही कुछ-और है… ।’ ऐसे विद्वानों के लिए जिब्रान ने ‘काग-भगोड़ा’ विशेषण का प्रयोग किया है।

लघुकथा ‘तानाशाह की बेटी’ के सम्बन्ध में 11वीं शताब्दी के जैन महाकवि रामचन्द्र-गुणचन्द्र विरचित ‘जिन स्तोत्र’ का यह श्लोक ध्यातव्य है —

स्वतंत्रो देव! भूयासं सारमेयोऽपि वर्त्मनि।
मा स्म भूवं परायत्तस्त्रिलोकस्यापि नायक:॥

अर्थात हे देव! मैं स्वतंत्र रहूँ, भले ही गली का कुत्ता बनकर रहूँ। पराधीन होकर मैं तीनों लोकों का राजा भी नहीं बनना चाहता हूँ।

खलील जिब्रान की प्रत्येक लघुकथा में किसी-न-किसी दार्शनिक सूत्र की प्रस्तुति देखने को मिलती है। उनकी विशेषता यह भी है कि एक ही सूत्र अथवा सिद्धांत पर अनेक लघुकथाएँ गढ़कर उन्होंने उस सूत्र को संप्रेषीय बनाने का भरसक यत्न किया है। उनकी लघुकथाओं में प्रयुक्त सभी सूत्र जीवन की सात्विक गहराई से नि:सृत हैं। आधे-अधूरे ज्ञान को ही विद्वत्ता की पराकाष्ठा मान लेने वाले लोगों पर खलील जिब्रान ने अनेक लघुकथाएँ लिखी हैं। उनकी लघुकथा ‘चतुर कुत्ता’ का दीर्घकाय बिल्ला और कुत्ता, दोनों ही ऐसी मानसिकता के सजीव उदाहरण हैं। सामाजिकों में मुख्यत: दो प्रकार की प्रवृत्तियों के लोग पाए जाते हैं — एक वे, जिनके मन में भौतिक वस्तुओं के प्रति मोह है और दूसरे वे, जो उनके त्याग में विश्वास रखते हैं। मोह को दर्शन में शैतान का प्रमुख अस्त्र माना गया है। इसके द्वारा वह प्राणियों के मन में लोभ तथा मस्तिष्क में क्रोध का संचार करता है। लघुकथा ‘कथा कटोरे की’ में इन दोनों ही प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं।

अन्धी आस्था पाप भी है और अपराध भी; लेकिन पूर्वग्रहप्रेरित और कारणविहीन अनास्था पाप व अपराध दोनों है। सच्चा ‘महात्मा’ वह नहीं जो अपने आचरण पर पर्दा डाले रखकर लोगों को भ्रमित करता है; बल्कि सच्चा महात्मा वह है जो पश्चात्ताप की ज्वाला में जल रहे अपराध-वृत्ति वाले लोगों को जीने का सुरमय रास्ता दिखाता है, उन्हें गाना सिखा देता है; ऐसा गाना जिसे सुनकर स्वयं उससे त्रसित घाटियाँ खुशी से भर उठें। हर व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का काम आसान और कम दायित्व वाला लगता है। फरिश्ते भी इस सामान्य मानवीय कमजोरी से बच नहीं पाए हैं। अपनी लघुकथा ‘ मुश्किल काम’ में खलील जिब्रान इस सत्य के साथ-साथ एक और सत्य पर से पर्दा उठाते हैं, वह यह कि तुलनात्मक दृष्टि से देवदूत भी किसी पापी पर निगाह रखने की अपेक्षा किसी संत पर निगाह रखने के काम को अधिक कठिन मानते हैं।

भारत को ‘ओसन ऑव टेल्स’ (Ocean of Tales) कहा जाता है। जिब्रान की लघुकथा ‘अंधेर नगरी’ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा सन 1881में लिखित नाटक ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ की ज्यों की त्यों संक्षिप्त प्रस्तुति प्रतीत होती है। इस जैसी दृष्टांत-कथाओं की भारत में वैसे भी कोई कमी नहीं है। विश्व कथा साहित्य में भी ये अनगिनत मिल जाएँगी। गाइ द मोपासां के पास भी हैं और अन्य अनेकों के पास भी।

‘बाज़ार’ व्यावहारिक स्तर की उत्कृष्ट कथा है। कथा के प्रारम्भ में लगता है कि ‘माले-मुफ़्त दिले-बेरहम’ वाली कहावत को लोग झुठला चुके हैं, बहुत स्वाभिमानी हो गए हैं। यह भी लगता है कि बाग का मालिक अपनी अमीरी का रुतबा लोगों पर जमाने के लिए बाग से उतरे अनारों को चाँदी के थाल में सजाकर घर के बाहर रखता है। वह अनारों को मुफ़्त में उठा ले जाने का विज्ञापन तो लिखकर रख देता है, लेकिन उन्हें ससम्मान बाँटने के लिए स्वयं वहाँ उपस्थित नहीं रहता। खलील जिब्रान का उद्देश्य परन्तु यहीं तक सीमित नहीं है। वे बाग-मालिक की नहीं, बल्कि सामान्य-जन की सोच और व्यवहार के इस बिन्दु की ओर इंगित करना चाहते हैं कि लोगों को दरअसल अच्छी और कीमती चीजों की पहचान नहीं है। पहचान न होने के अनेक कारण होते हैं। एक तो यह कि सम्बन्धित विषय या वस्तु में व्यक्ति की गति ही न हो, जैसा कि ‘पारखी’ में उन्होंने दिखाया है। दूसरा यह कि उनकी गति वस्तुत: कहीं हो ही नहीं, वे केवल विज्ञापन की भाषा ही समझते हों। ‘बाज़ार’ का स्थापत्य यही है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि आज का बहु-संख्यक वर्ग इस दूसरी श्रेणी का ही है। सामान्य-जन को बाज़ार अपनी ओर कैसे उन्मुख करता है, वह कौन-सी भाषा पहचानता है और उसे कैसे साधा जाता है, इस यथार्थ का उद्घाटन खलील जिब्रान ने अपनी इस लघुकथा में बेहद खूबसूरती से किया है।

ध्वनि-प्रदूषण आज एक दुरूह सामाजिक समस्या है। विश्व के अधिकांश राष्ट्रों की सरकारें इससे मुक्ति के उपायों के रूप में अनेक कानून अपनी-अपनी संसदों से पारित करा चुकी हैं। लेकिन हम हैं कि सुधार का नाम ही नहीं ले रहे। जिम्मेदार नागरिक होने का तमगा बरकरार रखने को शान्त वातावरण में भी शोर मचाए जा रहे हैं कि ध्वनि-प्रदूषण न फैलाएँ — ‘ताकि शान्ति बनी रहे’ परन्तु दिल है कि शोर किए बिना मानता ही नहीं। नींद है कि शान्त वातावरण में आने का नाम ही नहीं लेती। शोर उतपन्न करने वाले अवयव चिन्तित हैं कि आदमी उनके कारण चैन से सो नहीं पा रहा है, लेकिन आदमी परेशान है कि सब ओर शान्ति क्यों है? ‘मेढक’ एक बहुआयामी कथा है। इसमें मेढकी के मुँह से कहलवाए गए सांकेतिक संवादों द्वारा खलील जिब्रान ने ध्वनि-प्रदूषण के विरुद्ध हो रहे उपायों के खलनायकों पर करारा व्यंग्य किया है।

खलील का मानना है कि : ‘आदमी का आकलन उसके जन्मने या मरने से नहीं होता; न ही इससे कि अमुक स्थान पर वह लम्बे समय तक रहा है। आदमी अपने आने को जन्म के समय रोने और जाने को मृत्यु से घबराने के द्वारा दर्ज करता है।’ मनुष्य के कर्म ही उसकी सुकीर्ति या अपकीर्ति को तय करते हैं; और उन्हीं के साथ वह न सिर्फ जीवित रहते बल्कि जीवन के बाद भी लोगों के बीच अपनी उपस्थिति बनाए रहता है। ‘ लेडी रूथ’ के माध्यम से खलील जिब्रान ने इस तथ्य का कि कीर्ति या अपकीर्ति किस तरह सामाजिकों के बीच विद्यमान रहती है, बहुत सधा हुआ चित्र प्रस्तुत किया है।

ख्वाहिशें इतनी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले — ‘दाने अनार के’ में अनार के दानों की परस्पर बातचीत के माध्यम से जिब्रान ने बहुसंख्यक-सामाजिकों के बीच चलती रहने वाली निरुद्देश्य चिल्ल-पों का चित्रण किया है। उनका मानना है कि मनुष्य का संख्या में अधिक, रूप में सुर्ख, शरीरिक-दृष्टि से मजबूत, लेकिन कमजोर इरादों वाला होने की तुलना में संख्या में कम, दिखने में पीला और कमजोर लेकिन इरादों की दृष्टि से आशावादी होना बेहतर है।

शिशु-हृदय कितना निर्मल, निष्कपट और स्पष्टभाषी होता है — इस तथ्य को ‘इस दुनिया में’ लघुकथा के माध्यम से जाना जा सकता है। कितने कष्ट की बात है कि शैशव छूट जाने के बाद वही शिशु अपनी सारी निर्मलता, निष्कपटता और स्पष्टवादिता को भूल चुका होता है।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे। ‘लेन-देन’ में निष्णात लोग दूसरों की हालत सुधारने के अनगिनत फारमूले तो बता सकते हैं, सुईभर भी उनकी मदद नहीं कर सकते। अगर गम्भीरता से देखा जाए तो ‘अंततोगत्वा’ भी लेन-देन में निष्णात लोगों में व्याप्त लालच और विवेकहीनता की स्थिति को ही दर्शाती है। जमाखोर और सूदखोर को वस्तुत: अपने द्वारा संरक्षित वस्तु के प्रति इतना अधिक मोह हो जाता है कि राज्य का गवर्नर, बिशप, यहाँ तक कि राजा भी उसे इस योग्य नहीं लगता कि उनका स्वागत वह अपने भण्डार में जमा शराब से कर सके। अतिथि की तुलना में उसे भण्डार में जमा शराब अधिक मूल्यवान महसूस होती है। लेकिन उसकी मृत्यु के उपरान्त वही अमूल्य शराब उन लोगों में बाँट दी जाती है, शराब की गुणवत्ता जिनके लिए कोई अर्थ नहीं रखती थी।

दुनिया में सबसे ज्यादा दयनीय आदमी वह है अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जानता और सबसे ज्यादा सम्माननीय वह है जो अपनी क्षमताओं से, अपनी सीमाओं से परिचित है। खलील जिब्रान की ‘अहं विखंडन’ में इस तथ्य को बहुत खूबसूरती से दर्शाया गया है।

‘दार्शनिक और मोची’ में बताया गया है कि जो व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के जूते में अपना पैर डालने को अपमानजनक स्थिति मानता है अर्थात दूसरे की परम्परा से, कार्य एवं चिन्तन शैली से अपना साम्य बैठाने में असहजता महसूस करता है, वह सच्चा दार्शनिक नहीं हो सकता।

लघुकथा ‘साम्राज्य’ ईशान नामक नगर है। ईशान को भारतीय वास्तुशास्त्र में शक्ति और उत्थान का कोण माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से भी इसका अलग महत्व है। पंचमुखी भगवान शिव के एक शीश का नाम ईशान है। जिब्रान की इस कथा में वह प्रतीक रूप में आया हो सकता है।

प्रतीक योजनाएँ

अपनी रचनाओं में जिब्रान ने अन्य भी कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जिन्होंने पारम्परिक अरब साहित्य की शुष्कता और स्थापित जड़ता पर प्रहार किया। उदाहरणार्थ — प्रेम, शक्ति और न्याय। उनके द्वारा प्रयुक्त प्रतीक हृदय और आत्मिक अनुभूति की गहराई से उद्भूत हैं। जैसे कि पिंजरा (क्रूर और अमानवीय तरीके से लोगों को गुलाम बनाए रखने का प्रतीक), जंगल (सुरक्षित स्थान, आज़ादी, पुनर्नवीनीकरण और अमरता का प्रतीक), आँधी या तूफान (विध्वंस और पुनरुत्पत्ति का प्रतीक), धुंध (अलौकिकता और असीमता अथवा अल्पज्ञेय तत्व का प्रतीक), बच्चे (धारणा और विश्वास का प्रतीक), नदी (मानव जीवन की दिशा का प्रतीक), समुद्र (उच्चतर ‘स्व’ अथवा महान आत्मा का प्रतीक), चिड़िया (आत्मा द्वारा दिव्यता की खोज का प्रतीक), दर्पण (मौन एवं आत्म-साक्षात्कार का प्रतीक), रात (अबोधता व सुप्तावस्था का प्रतीक), सूर्योदय (आत्मिक जाग्रति का प्रतीक)।

भारतीय दर्शन का प्रभाव

जिब्रान की अधिकतर रचनाएँ भारतीय दर्शन के अत्यंत निकट प्रतीत होती हैं। अत: भारतीय दर्शन में जिब्रान की रुचि की बात करना असंगत न होगा। जिब्रान पर भारतीय दर्शन के प्रभाव को इंद्राणी दत्ता चौधरी ने तीन खंडों में विभाजित करके देखा है — (1) जिब्रान के जीवन-संदर्भों में, (2) निकटवर्ती मित्रों को लिखे उनके पत्रों में, तथा (3) उनकी अंग्रेजी रचनाओं में इंगित ‘द्वंद्व’ में।

प्रथमत: जीवन-संदर्भ के बारे में : अमेरिकी आलोचक मारियो कोज़ा (Mario Kozah) का यह बयान ध्यातव्य है — “… आरिदा (Aridah) ने अपने जर्नल के सितम्बर 1916 अंक के लिए जिब्रान से उनका आत्मकथ्य माँगा और उसे ज्यों का त्यों प्रकाशित किया : ‘जिब्रान का जन्म वर्ष 1883 में लेबनान के बिशेरी में (जैसे कहा जाए कि भारत के बम्बई में) हुआ… ’ ” यह निश्चय ही आश्चर्य की बात है कि जिब्रान ने भारत के बम्बई (अब मुंबई) में पैदा होने की बात क्यों की, वह भी ऐसे जर्नल में जो मुख्यत: ‘अरबी’ बोलने वालों के बीच जाता था? अमेरिका में उन्हें ‘सुप्रसिद्ध भारतीय कवि’ के रूप में प्रस्तुत किया जाता था। कोज़ा आगे लिखते हैं : “मेरी हस्कल ने अपने संस्मरण में लिखा है — जिब्रान पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। बातचीत के दौरान वह अपने पूर्वजन्मों को तथा उनके पाप-पुण्यों को गिनाते थे… उनका विश्वास था कि अपने एक पूर्वजन्म में वह भारत में पैदा हुए थे।” अपनी पुस्तक ‘खलील जिब्रान : मैन एंड पोयट’ में जो जेनकिन्स (Joe Jenkins) और सुहैल बुशरई (Suheil Bushrui) ने लिखा है कि जिब्रान ने अपने अनेक मित्रों को यह बता रखा था कि उनका जन्म भारत के एक शाही परिवार में हुआ था और उनके दादा शेर पालते थे।

द्वितीयत: पत्रों को लेते हैं; विशेषत: मेरी हस्कल और मे ज़ैदी को लिखे पत्रों को। अपने एक दैनिक जर्नल में मेरी ने लिखा : ‘जिब्रान ने अपने ‘पूर्वजन्मों और पापों’ को गिनाया — ‘दो बार सीरिया में — अत्यल्प जीवन; एक बार इटली में — 25 वर्ष की आयु तक; ग्रीस में — 22 वर्ष की आयु तक; इजिप्ट में — अति वृद्धावस्था तक छह या सात बार चेल्दिया में; एक बार भारत में और एक बार फारस में। सभी जगह मानव-रूप में जन्मा।’

तृतीयत: — रचनाओं में व्यक्त ‘द्वंद्व’। जोसेफ पीटर गुसाइयन (Joseph Peter Ghougassian) जैसे आलोचकों ने इस पर काफी प्रकाश डाला है। उन्होंने अनेक रचनाओं में प्रयुक्त ‘पुनर्जन्म और निर्वाण’ संबंधी जिब्रान की धारणाओं को उद्धृत किया है। अपने पीएच.डी. शोधग्रंथ ‘एन अरब एक्सपेट्रिएट इन अमेरिका: खलील इन अमेरिकन सेटिंग’ में सुहैल हाना ने जिब्रान की ‘द प्रोफेट’ और वॉल्ट व्हिटमैन की ‘सांग ऑव मायसेल्फ’ में समानता दर्शाते हुए सिद्ध किया है कि दोनों ही कवि उपनिषदों से प्रभावित थे। इस संबंध में सर्वोत्कृष्ट विवेचन सुहैल बुशरई की रचना ‘खलील जिब्रान ऑव लेबनान’ में मिलता है जिसमें उन्होंने जिब्रान के प्रोफेट अलमुस्तफा और भगवद्गीता के श्रीकृष्ण के बीच समानता को दर्शाया है। उनका कहना है कि किसी सिद्ध-कवि में अनंत आकाश की ओर जाती चिड़िया का प्रतिरूपण करके जिब्रान हिंदू उपनिषदों में व्यक्त अनंतवाद का संदेश देते हैं।

रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट एवं उनका प्रभाव

बहुत कम लोग जानते है कि जिब्रान अनेक बार गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिले। 16 दिसंबर 1916 को लिखे एक पत्र में उन्होंने मेरी हस्कल को बताया — “मैं टैगोर से मिला। उनको देखना और उनके साथ रहना रोमांचित करता है। उनकी वाणी ने मेरे भीतर बेचैनी भर दी।” 3 जनवरी 1917 के पत्र में उन्होंने लिखा — “… वह भारतीय अपने देश का समूचा सौंदर्य और आकर्षण अपने में समेटे है। टैगोर ईश्वर की पूर्ण कृति हैं।” टैगोर से एक अन्य मुलाकात के बाद 12 जनवरी 1917 के पत्र में उन्होंने मेरी को लिखा कि पढ़ने के लिए उसे वह ‘कुछ और बोधकथाएँ’ भेज रहे हैं। उन्होंने लिखा कि ‘ईश्वर पर लिखी कविता मेरे समूचे अहसास और चिंतन को व्यक्त करती है।’ जिब्रान की अनेक अवधारणाएँ टैगोर के चिंतन से मेल खाती हैं।

18 दिसंबर 1920 के अपने जर्नल में मेरी ने खलील के हवाले से लिखा था — “… एक डिनर पार्टी में टैगोर से बातचीत की। जानती हो, टैगोर ने अमेरिका को पूँजी पर खड़ा दृष्टिहीन देश कहा… ” सुहैल बुशरई ने लिखा है — ‘अमेरिका के बारे में टैगोर के इस कथन से जिब्रान सहमत नहीं थे। लेकिन कुछ ही माह बाद उन्होंने शिकायत की कि ‘अमेरिका पूँजीखोर बन गया है’। इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि ‘द मैडमैन’ की एक समीक्षा में लिखा गया था कि ‘… द मैडमैन में संकलित काव्यकथाएँ टैगोर के लंबे उत्प्रेरक गीतिकाव्य की याद दिलाती हैं।’’ टैगोर ने 1912-13, 1916-17, 1920-21, 1929 और 1930 में अमेरिका की यात्राएँ कीं। इन यात्राओं की बदौलत अनेक अमेरिकी भारतीय चिंतन और संस्कृति से तथा उसके आधुनिक परिप्रेक्ष्य से परिचित हुए। स्टीफन हे (Stephen Hay) ने लिखा है कि टैगोर की उक्त यात्राओं के दौरान दिए गये उनके व्याख्यान उपनिषदों, वेदों, गीता और बुद्ध-सिद्धांतों पर आधारित हैं तथा ‘साधना’ नामक पुस्तक में संकलित हैं।

अन्य प्रभाव

जिब्रान की सूक्तियाँ, भावकथाएँ और बोधकथाएँ भारतीय दर्शन के साथ-साथ सूफी बुद्धि-चातुर्य के भी बहुत निकट ठहरती हैं। सूफी अरब-कवि जलाल अल-दीन रूमी (Jalal al-Din Rumi) का भी प्रभाव उन पर पड़ा। भारतीय दर्शन के अतिरिक्त उनके लेखन पर जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे (Friedrich Nietzsche) तथा मनोवैज्ञानिक कार्ल गुस्ताव यंग (Carl Gustav Jung) के विचारों का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। वे बहाई दर्शन से भी प्रभावित थे। 19 अप्रैल 1912 को जिब्रान ने बहाई संप्रदाय के संस्थापक बहाउल्ला के सुपुत्र और संप्रदाय के तत्कालीन ‘मास्टर’ अब्दुल-बहा का चित्र अपने स्टुडियो में बैठाकर पेंसिल व चारकोल से स्कैच किया था। उस अनुभव को अपने एक पत्र द्वारा उन्होंने मेरी के साथ इन शब्दों में साझा किया — ‘अब्दुल-बहा की उपस्थिति में मैंने अदृश्य को देखा और अपने खालीपन को पूरा भरा पाया।’

स्वभाव से जिब्रान नम्र, मौनप्रिय, भावुक, अच्छे श्रोता, स्त्री अधिकारों के पक्षधर और सकारात्मक आध्यात्मिक मार्गदर्शक थे। नि:संदेह, उनके लेखन व चित्रण में मुस्लिम दर्शन की परिपक्वता का, सूफी, बहाई, हिन्दू और बुद्ध दर्शन में व्यक्त आध्यात्मिकता का, जीसस व मुहम्मद की प्राचीन शिक्षाओं का तथा ब्लेक, नीत्ज़े, कीट्स, यीट्स, व्हिटमैन, इमर्सन और अपने समय के अन्य अनेक चित्रकारों व आधुनिक चिंतकों के रोमांचक सौंदर्य का संगम मिलता है।

जिब्रान के जीवन में महिलाएँ

जिब्रान के जीवनीकार इस बात पर एकमत हैं कि उनके जीवन में अनेक महिलाएँ आईं। उनका नाम अपनी उम्र से अधिक की अनेक महिलाओं के साथ जुड़ता रहा। उनमें उनकी चित्रकार व लेखक साथी, मित्र और प्रशंसक सभी शामिल थीं। उदाहरण के लिए, फ्रेडरिक हॉलैंड डे की गर्लफ्रैंड लुइस गाइनी (Louise Guiney, 1861-1920); अरबी पोशाक में जिब्रान का एक पोर्ट्रेट जार्जिया के सावन्नाह म्यूजियम में लगा है, उसे बनाने वाली आर्टिस्ट लीला कैबट पेरी (Lilla Cabot Perry, 1848-1933); कितने ही कलाकारों को यूरोप भेजने वाली अद्भुत फोटोग्राफर सारा कोट्स सीअर्स (Sarah Choates Sears, 1858-1935); अधिकांश जीवन फ्रांस में बिताने वाली अमेरिकी लेखिका गर्ट्यूड स्टेन (Gertrude Stein,1874-1946); अमेरिकी समाजवादी नाट्य-लेखिका चार्ल टेलर (Charlotte Teller) तथा अन्य अनेका। उनके निकटतम मित्र मिखाइल नियामी (Mikhail Naimy) ने उनकी जीवनी लिखी। पाठकों ने उसका गर्मजोशी से स्वागत नहीं किया क्योंकि उसमें जिब्रान की छवि को सूफी-हृदय के साथ-साथ औरतखोर और शराबखोर बताकर धूमिल किया गया था।

जहाँ तक महिलाओं का संबंध है, माँ कामिला रहामी, बहनों मरियाना व सुलताना के अलावा उनमें उनकी अनेक चित्रकार व लेखक साथी, मित्र और प्रशंसक सभी शामिल थीं। इनमें से कुछ के साथ उनका भावनात्मक और शारीरिक दोनों तरह का रिश्ता रहा हो सकता है लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता कि वह ‘औरतखोर’ थे। वस्तुत: तो वह अपने समय में चिंतन, कला और लेखन के उस उच्च शिखर पर थे जिस पर रहते हुए ‘गिरी हुई हरकत’ करने का अर्थ था — अमेरिकी और अरबी — कला व साहित्य के दोनों ही क्षेत्रों में अपनी छवि पर कालिख पोत डालना। ब्रेक्स का कहना है कि ‘जिब्रान बचपन से ही अपनी महिला मित्रों में प्रेमिका के बजाय माँ की छवि तलाशते थे। यह उनकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकता थी।’ मेरी हस्कल ने लिखा है — ‘जिब्रान ने कितनी ही बार मुझे खींचकर खुद से सटाया। हमने परस्पर कभी सहवास नहीं किया। सहवास के बिना ही उसने मुझे भरपूर आनन्द और प्रेम से सराबोर किया। उसके स्पर्श में संपूर्णता थी। वह ऐसे चूमता था जैसे अपनी बाँहों में भरकर ईश्वर किसी बच्चे को चूमता है।… वह अपना बना लेने, आत्मा को जीत लेने वाले व्यक्तित्व का स्वामी था। उसमें बच्चों-जैसी सरलता, राजाओं-जैसी भव्यता और लौ-जैसी ऊर्ध्वता थी।’ इसी प्रकार एक और क्षण को याद करते हुए मेरी ने लिखा है: ‘हताशा और उदासी के पलों में एक बार मैं जिब्रान के सामने निर्वस्त्र हो गई। जिब्रान ने भर-निगाह नीचे से ऊपर तक मेरे बदन को निहारा और गहरे विश्वास के साथ कहा — तुम अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी हो। उसने बेतहाशा मेरी छातियों को चूमा, लेकिन सहवास नहीं किया। हमारा मानना था कि शारीरिक सहवास संबंधों को दुरूह बना देता है।’

विलियम ब्लेक का कहना था कि ‘सेक्स ऊर्जा का ही एक रूप है।’ जिब्रान ने उस ऊर्जा को बरबाद होने से बचाया और उसके प्रवाह को कविता और कला की ओर मोड़ दिया। इस रहस्य का उद्घाटन स्वयं जिब्रान ने मेरी के सामने किया था।

जिब्रान के जीवन, पेंटिंग्स और लेखन का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन करके 1973 में ‘जिब्रान खलील जिब्रान : फि दिरासा तहलिलिया तरकीबिया’ शीर्षक से अरबी में पुस्तक लिखने वाले प्रो॰ ग़ाज़ी ब्रेक्स ने लिखा कि ‘उन दिनों, जब मिशलीन जिब्रान को छोड़कर चली गई, वे मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत आहत हुए। उन्होंने इस बारे में मेरी को पत्र लिखा कि इस ‘प्यास’ को मैं ‘सिर्फ काम, काम, काम’ में खुद को डुबोए रखकर बुझा रहा हूँ।

यहाँ उनके जीवन, कला और लेखन को प्रभावित करने वाली, उन्हें सकारात्मक दिशा देने में मदद करती रहने वाली तथा उनकी जीवनधारा को औपचारिक-अनौपचारिक रूप से प्रभावित करने वाली उनकी कुछ महिला-मित्रों, प्रशंसको, सहयोगियों का संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है:

कामिला रहामी

जिब्रान के जीवन में सबसे महत्वपूर्ण महिला नि:संदेह उनकी माँ ‘कामिला’ थीं। उनका जन्म बिशेरी में 1864 में हुआ था। वह अपने पिता की सबसे छोटी संतान थी। कामिला का विवाह अपने चचेरे भाई हाना ‘अब्द अल सलाम रहामी’ के साथ हुआ था। जैसा कि उन दिनों अधिकतर लेबनानी करते थे, विवाह के बाद हाना रोज़ी-रोटी की तलाश में अपनी पत्नी के साथ ब्राजील चला गया। लेकिन कुछ ही समय बाद वह वहाँ बीमार पड़ गया और नन्हे शिशु बुतरस (पीटर) को कामिला की गोद में छोड़कर स्वर्ग सिधार गया। कामिला बच्चे को लेकर पुन: अपने पिता स्टीफन रहामी के घर लौट आईं। स्टीफन रहामी मेरोनाइट पादरी थे। उन्होंने कामिला का दूसरा विवाह कर दिया, लेकिन वह पति भी अधिक दिन जीवित न रह सका।

कामिला बहुत कम पढ़ी महिला थीं क्योंकि उस ज़माने में, वह भी गाँव में, लड़कियों को अधिक पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझा जाता था। लेकिन वह बेहद समझदार थीं तथा अरबी और फ्रांसीसी भाषा धाराप्रवाह बोलती थीं। उनका कंठ बहुत मधुर था और वे चर्च में धार्मिक भजन बड़ी तन्मयता से गाती थीं। जिब्रान का पिता बनने का सौभाग्य जिस आदमी को मिला उसने उस वक्त, जब विधवा कामिला अपने पिता के बगीचे में कोई गीत गुनगुना रही थीं, उनके गाने को सुना और दिल दे बैठा। उसने कामिला से विवाह का प्रस्ताव उनके घर भिजवाया। यह प्रस्ताव मान लिया गया। उसके पिता यानी खलील के दादा भी एक जाने-माने मेरोनाइट पादरी थे। बहुत सम्भव है कि कामिला के पिता इसलिए भी उनके बेटे के साथ अपनी बेटी का विवाह करने के प्रस्ताव पर आसानी से सहमत हो गए हों। वह परिवार यों भी काफी धनी था। जिब्रान का पिता बादशाह के लिए रिआया से कर वसूल करने का ठेका लेता था और खाली समय में भेड़ों की खरीद-फरोख्त का व्यापार भी चलाता था। इसी ग़लतफ़हमी में जिब्रान के कुछ जीवनीकारों ने उनके पिता को ‘गड़रिया’ भी लिख दिया है जो गलत है।

खलील जिब्रान के मन में अपनी माँ के लिए असीम लगाव था। अपनी पुस्तक ‘द ब्रोकन विंग्स’ में उन्होंने लिखा है: “इस जीवन में माँ सब-कुछ है। दु:ख के दिनों में वह सांत्वना का बोल है, शोक के समय में आशा है और कमजोर पलों में ताकत।”

अप्रैल 1902 में छोटी बेटी सुलताना के देहांत के बाद, पहले ही टी.बी. से ग्रस्त कामिला पर भी बीमारी ने अपना ज़ोर दिखाया। फरवरी 1903 में उन्हें अपना ऑपरेशन कराना पड़ा, लेकिन वे स्वस्थ नहीं हो पाईं। उसी वर्ष जून में मरियाना और जिब्रान को अकेला छोड़कर वे स्वर्ग सिधार गईं।

मरियाना उर्फ़ मेरी

मरियाना (Marianna) जिब्रान की छोटी बहिन थी और सुलताना की बड़ी। इस बारे में कि उसके भाई को लेबनान और यूरोप भेजा जाए या नहीं, लड़की होने के नाते उससे पूछने की जरूरत नहीं समझी गई। लेकिन केवल दो साल के अन्तराल में जब माँ, बहिन और घर चलाने वाला भाई पीटर टी.बी. से चल बसे, तब मरियाना ने अपने भाई खलील को, जिसकी साहित्यिक रचनाएँ अरब-संसार को जगाने का और ओटोमन राजवंश में सनसनी फैलाने का काम कर रही थीं, तथा खुद को अकेला पाया तथापि उसने समझदारी और साहस से काम लिया और अपने बड़े भाई की अभिभावक बन गई। मरियाना ने महसूस किया कि साहित्यिक महानता और धन-सम्पत्ति अक्सर एक-साथ नहीं मिलतीं और मिलती भी हैं तो जीवन के अन्तिम पड़ाव में। जिब्रान की शिक्षा अरबी में हुई थी। इसलिए उनकी रचनाओं और पुस्तकों से घर चलाने लायक आमदनी तब तक प्रारम्भ नहीं हुई थी।

अकेले रह जाने के बाद, मरियाना ने अपने भाई को ऐसा कोई भी काम नहीं करने दिया जो उसे अपने साहित्यिक और कलापरक रुचि को छोड़कर करना पड़े। अपना और भाई का खर्चा चलाने के लिए उसने सिलाई और बुनाई जैसे छोटे कार्य करने प्रारम्भ किए। उसने भाई को प्रेरित किया कि जब तब उसके पास प्रदर्शनी लगाने योग्य पेंटिंग्स न हो जायँ, वह चित्र बनाता रहे। मरियाना के पास उसकी प्रदर्शनी का आयोजन कराने लायक भी रकम नहीं थी। लेकिन जिब्रान ने उन दिनों बोस्टन में रहने वाली एक लेबनानी महिला से बीस डॉलर उधार लेकर चित्र-प्रदर्शनी लगाई। उक्त महिला ताउम्र जिब्रान के उस उधारनामे को अपनी सबसे बड़ी पूँजी मानती रही।

जिब्रान की शिक्षा पर खर्च की गई रकम सूद समेत वापस मिली; न केवल साहित्य-जगत व शेष समाज को बल्कि धन की शक्ल में उनकी बहन मरियाना को भी। शेष समाज को इस रूप में कि उक्त धन से मरियाना ने लेबनान स्थित मठ ‘मार सरकिस’ को खरीदकर उसे जिब्रान की कलाकृतियों व साहित्य आदि के प्रेमियों व शोधार्थियों तथा पर्यटकों के लिए ‘जिब्रान म्यूज़ियम’ में तब्दील कर दिया। एक अनुमान के मुताबिक 1944-45 में जिब्रान की कलाकृतियों और किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी की सालाना रकम लगभग डेढ़ मिलियन डॉलर थी जो उसके गृह-नगर बिशेरी को भेज दी जाती थी। यद्यपि अपनी बहन मारियाना के जीवन-यापन हेतु उसका भाई अच्छी-खासी रकम छोड़ गया था। फिर भी, अन्तिम वर्षों तक वह मेरी हस्कल की तरह नर्सिंग होम में अपनी सेवाएँ देती रही। 1968 में उसका निधन हो गया। बारबरा यंग से मरियाना का रिश्ता हमेशा मधुर रहा। बारबरा ने अपनी पुस्तक ‘द मैन फ्रॉम लेबनान’ मरियाना को ही समर्पित की।

सुलताना

सुलताना (Sultana) जिब्रान की सबसे छोटी बहन थी। उम्र में वह उनसे चार साल छोटी थी। उसका जन्म सन 1887 में हुआ था। लेबनान के पारम्परिक विचारधारा वाले परिवारों में उन दिनों लड़कियों की स्कूली शिक्षा को महत्वहीन समझा जाता था। दूसरे, यह परिवार अपने पोषण की समस्या से जूझ रहा था। इसलिए न तो जिब्रान की बहन मरियाना ने कभी स्कूल का मुँह देखा और न ही सुलताना ने। लेबनान में अपनी पढ़ाई पूरी करके जिब्रान बोस्टन चले आए थे। तत्पश्चात 1902 में एक अमेरिकी परिवार के गाइड और दुभाषिए के रूप में वे पुन: लेबनान गए। परन्तु सुलताना के गम्भीर रूप से बीमार हो जाने की खबर पाकर वह टूर उन्हें अधूरा ही छोड़कर वापस आना पड़ा। उसे टी.बी. हुई थी। 4 अप्रैल 1902 में मात्र 14 वर्ष की उम्र में सुलताना का निधन हो गया। खलील जिब्रान के परिवार में टी.बी. से एक के बाद एक तीन मौतें जल्दी-जल्दी हुईं जिनमें सुलताना पहली थी।

सलमा करामी

अपने पहले प्यार को केन्द्र में रखकर जिब्रान ने अरबी में एक उपन्यास लिखा है। इतनी गहराई से उक्त क्षणों का अंकन कोई अन्य लेखक नहीं कर पाया। जिब्रान के कुछ जीवनीकारों का मानना है कि बेरूत में अध्ययन के दौरान जिब्रान को एक लेबनानी युवती से प्रेम हो गया था जिसका नाम सलमा करामी (Selma Karameh) था।

जिब्रान की उम्र अठारह वर्ष थी जब प्रेम ने अपनी जादुई छुअन से उनकी आँखें खोलीं और यह चमत्कार करने वाली पहली युवती सलमा करामी थी। यह करिश्मा पढ़ाई के दिनों में तब हुआ जब गर्मी की छुट्टियाँ बिताने के लिए जिब्रान अपने पिता के पास बिशेरी आए थे।

इस प्यार की गहराई का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिब्रान ‘मार सरकिस’ मठ को खरीदकर बाकी ज़िन्दगी वहीं बिताने पर आमादा थे क्योंकि सलमा वहीं एक बार उन्हें मिली थी। अनुमान है कि सलमा करामी एक विवहित महिला थी। पहले प्रसव के दौरान उसकी मृत्यु हो गई थी। इस तरह जिब्रान के पहले प्यार का दु:खद अन्त हो गया। ‘द ब्रोकन विंग्स’ में जिब्रान ने सलमा को प्रस्तुत किया है जो एक आध्यात्मिक जीवनी तथा उनकी अपनी प्रेम-कहानी है। अपने प्रथम संस्करण से ही यह अरबी भाषा की सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तक रही है।

हाला अल-दहेर

जिब्रान के आधिकारिक जीवनीकार और पड़ोसी दावा करते हैं कि जिब्रान की पहली प्रेमिका का नाम हाला अल-दहेर (Hala Al-Daher) था और प्रेम की वह कहानी बेरूत में नहीं, बिशेरी में घटित हुई।

जिब्रान गर्मी की छुट्टियाँ बिशेरी जाकर बिताते थे। पिता ने एक बार किसी बात पर उनकी पिटाई कर दी थी इसलिए वह उसी मकान में रुकने के बजाय अपनी एक आंटी के यहाँ रुकना पसंद करते थे।

बिशेरी में ही जिब्रान के एक स्कूल-अध्यापक सलीम अल-दहेर भी रहते थे जो बहुत धनी थे। जिब्रान ने प्रभावित करने के लिए उनके घर जाना शुरू कर दिया। किसी घरेलू कार्यक्रम में सलीम ने जिब्रान को भी वेंकट हाल में बुलाया जहाँ उनकी मुलाकत सलीम की 15 वर्षीया बेटी हाला से हुई। हाला उनके साथ बातचीत से बहुत प्रभावित हुई और अक्सर मिलने लगी।

1899 की छुट्टियों में, जिब्रान जब दोबारा गाँव आए, हाला के भाई इसकंदर अल-दहेर को दोनों के बीच प्रेमालाप का पता चल गया। उसने ‘टैक्स इकट्ठा करने वाले एक ओछे आदमी के बेटे के साथ’ अपनी बहन के मिलने पर पाबंदी लगा दी। लेकिन हाला की बहन सैदी (Saideh) ने गाँव के जंगल में ‘मार सरकिस’ मठ के निकट उनकी मुलाकतें कराने का इंतजाम कर दिया।

स्कूल जाने से पूर्व अपनी अंतिम मुलाकत के समय जिब्रान ने हाला को अपने बालों की एक लट, घूमने की अपनी छड़ी तथा सेंट की एक शीशी दी जिसे उन्होंने अपने आँसुओं से भरा था।

कुछ सप्ताह बाद, जिब्रान ने हाला से उनके साथ भाग चलने का प्रस्ताव रखा जिसे उसने मना कर दिया। हाला ने उनसे कहा — ‘अगर आप पेड़ से कच्चा फल तोड़ते हो तो फल और पेड़ दोनों का नुकसान करते हो। पका हुआ फल खुद ब खुद डाल से टपक जाता है।’

फ्रांसीसी दार्शनिक ला रोश्फूकौड (La Rochefoucaud) ने कहा है कि — ‘आग धीमी हो तो हवा का हल्का-सा झोंका भी उसे बुझा देता है; लेकिन वह अगर तेज हो तो हवा पाकर और तेज़ भड़कती है।’ प्रेम की इस असफलता रूपी आँधी में जिब्रान के अन्तस में विराजमान कलाकार और कथाकार को उस आग-सा ही भड़का डाला।

सुलताना ताबित

सलमा करामी की कहानी को बहुत से लोग एक 22 वर्षीया लेबनानी विधवा सुलताना ताबित (Sultana Tabit) से भी जोड़ते हैं। वह भी उन्हें पढ़ाई के दौरान ही मिली थी। जिब्रान ने मेरी को भी इस बरे में बताया था। सुलताना के साथ जिब्रान ने किताबों और कविताओं का खूब लेन-देन किया। लेकिन लोक-लाज के डर से सुलताना जिब्रान के साथ अधिक आगे नहीं बढ़ पाई और अपने-आप में सिमटकर रह गई।

1899 के असफल प्रेम की उन स्मृतियों को जिब्रान ने 1912 में प्रकाशित अपनी अरबी पुस्तक अल-अजनि: आह अल-मुतकस्सिरा में लिखा जिसका अंग्रेजी अनुवाद 1957 में ‘द ब्रोकन विंग्स’ नाम से प्रकाशित हुआ। ‘द ब्रोकन विंग्स’ को स्वयं जिब्रान ने एक आध्यात्मिक जीवनी कहा है। इसकी नायिका सलमा करामी वस्तुत: सुलताना ताबित की प्रतिनिधि है।

जोसेफिन पीबॅडी

लेबनानी लेखक सलीम मुजाइस ने ‘लेटर्स ऑव खलील जिब्रान टु जोसेफिन पीबॅडी’ पुस्तक प्रकाशित कराई है। यह अरबी में है। इसमें जिब्रान के 82 पत्रों और जोसेफिन की डायरी ‘साइकिक’ को तारीख दर तारीख शामिल किया गया है। इस तरह आप दो प्रेमियों के उद्गार बिना किसी बाहरी टीका-टिप्पणी के पढ़ते चले जाते हैं। जिब्रान पर केन्द्रित जोसेफिन की कविताओं को भी इसमें दैनिक डायरी के तौर पर शामिल किया गया है। यहाँ तक कि जोसेफिन से संबंधित जिब्रान के काम पर की गई तत्कालीन टिप्पणियाँ भी इसमें शामिल हैं। यह दुर्भाग्य ही है कि जिब्रान को लिखे गए जोसेफिन के पत्र अप्राप्य हैं। बहरहाल, जिब्रान द्वारा लिखे गये पत्रों को जोसेफिन ने सँभालकर रखा।

1898 में जिब्रान जब बोस्टन से लेबनान गए, तब तीसरे ही महीने अनपेक्षित रूप से उन्हें जोसेफिन का पत्र मिला जिसमें कहा गया था कि — मि. डे ने मुझे अपने पास रखी आपके बहुत-सी पेंटिंग्स और ड्राइंग्स दिखाईं। आपके बारे में बहुत-सी बातें हमारे बीच हुईं। आपके काम को देखकर मैं पूरे दिन रोमांचित रही क्योंकि उनके माध्यम से आपको समझ पा रही हूँ। मुझे लगता है कि आपकी आत्मा एक सुंदर सृष्टि में वास करती है। सौभाग्यशाली लोग ही अपनी कला में सौंदर्य की सृष्टि करने में सक्षम हो पाते हैं। अपनी रोज़ी को दूसरों के साथ बाँटकर वे पूर्ण सुख का अनुभव करते हैं। मैं भीड़भाड़ वाले शहर के एक शोरभरे इलाके में रहती हूँ। अपने-आप को मैं ऐसे बच्चे-जैसा पाती हूँ जो ‘स्व’ की तलाश में भटक रहा है। क्या तुमने कभी बियाबान देखा है? मैं समझती हूँ कि तुम चुप्पी को सुन सकते हो। अपनी खबर देते रहना, मैं अपने बारे में लिखती रहूँगी।

जिब्रान ने 3 फरवरी 1899 को लेबनान से उत्तर दिया — ‘ओ, कितना खुश हुआ मैं? कितना प्रसन्न? इतना कि मेरी कलम की जुबान उस प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं ढूँढ़ पा रही है। अपनी भावना के शब्दों को अंग्रेजी में सोचते हुए मुझे परेशानी होती है। मुझे अपने विचार अंग्रेजी में व्यक्त करना नहीं आता। मुझे लगता है कि आपसे कहने को मेरे पास ऐसा बहुत-कुछ है जो आपकी दोस्ती को मेरे दिल में बरकरार रखे। मेरे दिल में आपके लिए हमेशा असीम धरती और सागरों से भी ऊपर प्यार कायम रहेगा। आपका खयाल हमेशा मेरे दिल के पास रहेगा और हमारे बीच कभी दूरी नहीं रहेगी। आपने अपने खत में लिखा है कि ‘मैं अच्छी चीजों का खयाल रखती हूँ’ और कुछ मामलों में मैं बिल्कुल कैमरे की तरह हूँ तथा मेरा हृदय (फोटो लेने वाली) प्लेट है। मि. डे की प्रदर्शनी में आपसे बातचीत को मैं कभी भूल नहीं सकता। मैंने उनसे पूछा था — ‘काली पोशाक वाली महिला कौन है?’ उन्होंने कहा — ‘वह युवा कवयित्री मिस पीबॅडी हैं और उनकी बहन एक आर्टिस्ट है… ’ ‘क्या कभी अँधेरे सुनसान कमरे में बैठकर बारिश के शांतिप्रद संगीत को आपने सुना है?… इस खत के साथ याददाश्त के तौर पर मैं छोटा-सा एक चित्र भेज रहा हूँ।’

जिब्रान की मेरी हस्कल से बढ़ती निकटता से रुष्ट होकर जोसेफिन ने 1906 में लायोनल मार्क्स (Lionel Marx) से विवाह कर लिया। कच्ची उम्र के उस प्रेम का इस प्रकार अंत हो गया और जोसेफिन जिब्रान के एक असफल प्रेम की पात्रा बनकर रह गई। दोनों के बीच 1908 तक खतो-किताबत चला। बहुत-से खत बेतारीख हैं। बहुत-से खत नाराज़गी के दौर में जोसेफिन ने फाड़कर फेंक दिए हो सकते हैं। तत्पश्चात् ‘द मास्क ऑव द बर्ड’ देखने आने से पहले 1914 तक जोसेफिन जिब्रान से नहीं मिली। इसी फरवरी माह में जोसेफिन ने जिब्रान को चाय पर आमंत्रित किया और अपने बच्चों की फोटो-अलबम दिखाई। उन्होंने मिसेज फोर्ड में और एडविन रोबिन्सन में डिनर भी किए। उस मुलाकात के बाद जिब्रान ने मेरी हस्कल को लिखा था — ‘वह इस दुनिया की नहीं, कैम्ब्रिज की महसूस होती है। जोसेफिन बिल्कुल नहीं बदली : अभी भी वैसे ही कपड़े पहनती है।’

जिब्रान की पहली चित्र-प्रदर्शनी आयोजित करने वाली जोसेफिन थी। उसी ने सर्वप्रथम जिब्रान के चित्रों की तुलना अपने समय के महान चित्रकार विलियम ब्लेक के चित्रों से की। जिब्रान की कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद सबसे पहले उसी ने किया। जिब्रान पर कविता सबसे पहले उसने लिखी। जिब्रान के चित्रों और पेंटिंग्स में उतरने वाली वह पहली महिला थी। जिब्रान ने डे के हाथों उसे अपनी एक पेंटिंग ‘टु द डीयर अननोन जोसेफिन पीबॅडी’(अजनबी प्रिय जोसेफिन पीबॉडी को) लिखकर भेंट की थी। जोसेफिन जिब्रान का पहला सच्चा प्यार और कल्पना थी। जोसेफिन ही थी जिसने जिब्रान को प्रेम, पीड़ा, व्यथा, हताशा और उल्लास का अनुभव कराया।

1902 में अपनी छोटी बहन सुलताना की मृत्यु के बाद खलील बहुत दु:खी थे। उसी दौरान उन्हें कला कर्म छोड़कर घरेलू व्यवसाय भी सँभालना पड़ा था। तब जोसेफिन ने बोस्टेनियन कला समाज से जोड़े रखने में उनकी असीम मदद की थी। धीरे-धीरे उसने जिब्रान के दिल में अपनी जगह मजबूत कर ली। उसके आने से जिब्रान ने जीवन में बदलाव महसूस किया। जोसेफिन जिब्रान की सांस्कृतिक विद्वत्ता व पृष्ठभूमि के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के चित्रों से सजे उनके पत्रों और बातचीत के मृदुल तरीके से बहुत प्रभावित थी। जोसेफिन की देखभाल ने जिब्रान का दु:ख-दर्द कम करने तथा कैरियर को सँभालने में काफी मदद की।

जोसेफिन का जन्म 1874 में हुआ था। 14 वर्ष की उम्र में ही उसकी कविताएँ पत्रिकाओं में प्रकाशित होनी प्रारम्भ हो गई थीं। उसकी पहली पुस्तक ‘ओल्ड ग्रीक फोक स्टोरीज टोल्ड अन्यू’ (पुरानी ग्रीक लोककथाएँ नए अंदाज़ में, 1897) थी। उसके बाद कविता संग्रह ‘वेफेअरर्स’ (1898) आया। सन 1900 में जोसेफिन का एकांकी ‘फोर्च्यून एंड मैन्ज़ आईज़’ तथा 1901 में काव्य-नाटक ‘मार्लो’ प्रकाशित हुआ। सन 1903 तक उसने वेलेसले में अध्यापन किया।

विवाह के बाद वह जर्मनी चली गई जहाँ उसका पति एक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था। बाद में वे बोस्टन लौट आए। 1907 में जोसेफिन का काव्य-नाटक ‘द विंग्स’ प्रकाशित हुआ और उसी साल उसने पहली बच्ची एलिसन को जन्म दिया। जुलाई 1907 में उसके बालगीतों का संग्रह ‘बुक ऑव द लिटिल पास्ट’ आया। 1909 में उसका नाटक ‘द पाइड पाइपर’ आया जिसने लगभग 300 प्रतियोगियों के बीच ‘स्टार्टफोर्ड सम्मान’ जीता। 1911 में जोसेफिन की पुस्तक ‘द सिंगिंग मैन’ आई। उसमें उसने 1900 के आसपास लिखी अपनी कविता ‘द प्रोफेट’ को भी शामिल किया था जिसमें उसने जिब्रान के बचपन की कल्पना की थी। 1913 में जोसेफिन ने यूरोप, ग्रीस, फिलिस्तीन और सीरिया की यात्राएँ कीं। वापस आने पर उसने ‘द वुल्फ ऑव गुब्बायो’ नामक पुस्तक प्रकाशित कराई। उसकी कविताओं की एक पुस्तक ‘हार्वेस्ट मून’ भी आई।

1918 में जोसेफिन का नाटक ‘द कमेलिअन’ और 1922 में ‘पोर्ट्रेट ऑव मिसेज डब्ल्यू’ आया।

दिसम्बर 1902 से जनवरी 1904 के बीच लिखित जोसेफिन की डायरी ‘साइकिक’ में जिब्रान पर 51 पेज लिखे गये हैं। उसकी मृत्यु 1922 में हुई। उसको श्रद्धांजलिस्वरूप लिखे अपने एक अरबी लेख (अंग्रेजी रूपांतर ‘अ शिप इन द फोग’) में जिब्रान ने लिखा — “सफेद परिधान वाले इस सफेद सैनिक-जुलूस के ऊपर वह काल की चुप्पी और असीम की जिज्ञासा के बीच सफेद फूलों-सी मँडराती है।”

बारबरा यंग

खलील जिब्रान के जीवन में बारबरा यंग (Barbara Young) का साथ अन्तिम सात वर्षों में रहा। इस दौरान वह उनकी पहली शिष्या रही जिसने उनकी प्रशंसापरक जीवनी ‘द मैन फ्रॉम लेबनान’ लिखी।

“जिब्रान ने अगर कभी कोई कविता न लिखी होती या कोई भी पेंटिंग न बनाई होती तो भी काल के सीने पर उनके मात्र हस्ताक्षर ही अमिट होते। उन्होंने अपनी चेतनशक्ति से अपने युग की चेतना को झकझोर कर रख दिया है। जिसकी आत्मिकउपस्थिति अभूतपूर्व और अमिट है — वह जिब्रान है।” बारबरा ने लिखा।

1923 में बारबरा ने ‘द प्रोफेट’ का एक पाठ सुना। उसे सुनकर जिब्रान को उसने अपने प्रशंसापरक मनोभाव लिखे। जवाब में उसे जिब्रान का गरिमापूर्ण पत्र मिला जिसमें उन्होंने उसे ‘कविता पर बात करने और पेंटिंग्स देखने आने’ का न्योता दिया था।

“मैं,” उसने लिखा, “ओल्ड वेस्ट टेन्थ स्ट्रीट की पुरानी इमारत में गई। चौथे माले तक सीढ़ियाँ चढ़ीं। वहाँ उसने ऐसे मुस्कराते हुए मेरा स्वागत किया गोया हम बहुत-पुराने दोस्त हों।”

कद में बारबरा जिब्रान से ऊँची थीं, गोरी थीं और आकर्षक देह्यष्टि की स्वामिनी थीं। उसका परिवार इंग्लैंड के डिवोन स्थित बिडेफोर्ड से ताल्लुक रखता था। वह अंग्रेजी अध्यापिका थीं। वह किताबों की एक दुकान भी चलाती थीं और उक्त चौथे माले तक सीढ़ियाँ चढ़ने के उपरान्त जब तक जीवित रहीं, जिब्रान के बारे में लेक्चर देती रहीं। जिब्रान के देहांत के बाद उसने जिब्रान पर अपनी अपूर्ण पुस्तक ‘गार्डन ऑफ द प्रोफेट’ को तरतीब दी और प्रकाशित कराया।

बारबरा यंग और दूसरे जीवनीकारों ने जिब्रान के बारे में लिखा है कि वह दुबले-पतले, पाँच फुट चार इंच ऊँचे मँझोले कद के व्यक्ति थे। उनकी मोटी-मोटी उनींदी-सी भूरी आँखें देर में झपकती थीं। बाल अखरोट के रंग वाले थे। मूँछें इतनी घनी थीं कि दोनों होंठों को ढँके रखती थीं। उनका शरीर गठीला और पकड़ मजबूत थी।

जिब्रान के देहावसान के समय बारबरा अस्पताल में उनके निकट ही थीं। उनकी मृत्यु के तुरन्त बाद उसने जिब्रान के स्टुडियो से, जहाँ वह अठारह साल तक रहे थे, कीमती पेंटिंग्स और दूसरी चीजें काबू में ले लीं और उन्हें लेबनान में उसके गृह-नगर बिशेरी स्थित उनके घर भेज दिया।

भाषण के अपने दौरों के दौरान बारबरा जिब्रान की साठ से ज्यादा पेंटिंग्स जनता को दिखाती थीं। इन सब का या जिब्रान की बनाई अन्य अधूरी पेंटिंग्स का, लेखों का, पत्रों का क्या हुआ? उन्हें पाने के लिए उसे उन लोगों का पता लगाना था जिन्होंने उन्हें खरीदा, उपहार में पाया या कबाड़ में डाल रखा हो और दयालुतापूर्वक जो उन्हें वापस दे सकें। जब तक वह सारी सामग्री सामने नहीं आ जाती, जिब्रान की सम्पूर्ण जीवनी नहीं लिखी जा सकती थी। कम-से-कम बारबरा द्वारा लिखा जाने वाला अध्याय तो नहीं ही पूरा होने वाला था।

सम्पर्क के बाद सात सालों में वह सम्बन्ध कितना प्रगाढ़ हुआ? इसका उत्तर बारबरा के लेखन का आकलन करने वाले विशेषज्ञ समय-समय पर देते रहते हैं। वह जिब्रान के साथ कभी नहीं रहीं। वह न्यूयॉर्क के अपने अपार्टमेंट में रहती थीं।

“एक रविवार को,” बारबरा ने लिखा है, “जिब्रान के एक बुलावे पर मैं उसके स्टुडियो में गई। जब पहुँची, अपनी डेस्क पर बैठा वह एक कविता लिख रहा था। लिखते समय आम तौर पर वह फर्श पर घूमता रहता था और एक या दो लाइनें जमीन पर बैठकर भी लिखता था।

“उसका कविता लिखना, उठकर बार-बार घूमना शुरू कर देना जब तक जारी रहा, तब तक मैं इन्तजार करती रही। अचानक मुझे एक बात सूझी। अगली बार जैसे ही उसने घूमना शुरू किया, मैं उसकी मेज पर जा बैठी और उसकी पेंसिल उठा ली। जैसे ही वह घूमा, मुझे वहाँ बैठा पाया।

“तुम कविता सोचो, मैं लिखती हूँ।” मैंने कहा।

“ठीक, तुम और मैं एक ही कविता पर काम करने वाले दो कवि हैं।” कहकर वह रुका। फिर कुछ देर की चुप्पी के बाद बोला,“हम दोस्त हैं। मुझे तुमसे और तुम्हें मुझसे कुछ नहीं चाहिए। हम सहजीवी हैं।”

जैसे-जैसे उन्होंने साथ काम किया और जैसे-जैसे वह उसके सोचने और काम करने के तरीके के बारे में उलझती चली गई, उसने उसके बारे में एक किताब लिखने का अपना निश्चय उस पर जाहिर कर दिया। जिब्रान ने इस पर खुशी जाहिर की और “उसके बाद वह उसे अपने बचपन की, अपनी माँ और परिवार की तथा जीवन की कुछ विशेष घटनाएँ भी बताने लगा।

‘सैंड एंड फोम’ में जिब्रान ने एक सूक्ति लिखी है — “एक-दूसरे को हम तब तक नहीं समझ सकते जब तक कि आपसी बातचीत को सात शब्दों में न समेट दें।” शायद यही विचार रहा होगा कि एक दिन जिब्रान ने बारबरा से पूछा, “मान लो तुम्हें यह कहा जाय कि सिवा सात शब्दों के तुम सारे शब्द भूल जाओ। तब वे सात शब्द, जिन्हें तुम याद रखना चाहोगी, कौन-से होंगे?”

“मैं सिर्फ पाँच ही गिना सकी,” बारबरा ने लिखा है, “ईश्वर, जीवन, प्रेम, सुन्दरता, पृथ्वी… और… और,” और फिर जिब्रान से पूछा, “दूसरे कौन-से शब्द वह चुनेगा?” जिब्रान ने कहा,“सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण शब्द हैं — तुम और मैं… इन दो के अलावा किसी अन्य की आवश्यकता नहीं है।” उसके बाद उसने ये सात शब्द चुने — तुम, मैं, त्याग, ईश्वर, प्रेम, सुन्दरता, पृथ्वी।

“स्टूडियो में जिब्रान को सलीका पसन्द था।” बारबरा ने लिखा है, “विशेषत: उस वक्त, जब वह मनोरंजन कर रहा हो या खाना खा रहा हो। एक शाम जिब्रान ने कहा कि — पूरब में पूरे कुनबे के लोगों का एक ही बड़े बर्तन में खाना खाने का चलन है। आज शाम अपन क्यों न एक ही कटोरे में सूप पिएँ!” हमने वैसा ही किया। जिब्रान ने एक काल्पनिक लाइन सूप में खींचकर कहा, “उधर का आधा सूप तुम्हारा है और इधर का आधा मेरा। देखो, हममें से कोई भी दूसरे के हिस्से का सूप न पी ले!” उसके बाद उसने जोर का ठहाका लगाया और अपने हिस्से का सूप पीते हुए हर बार हँसा।

एक अन्य अध्याय में बारबरा ने लिखा है : “एक शाम, जब हम ‘सी एंड फोम’ पर काम कर रहे थे, अपने लिए इस्तेमाल की जाने वाली कुर्सी पर न बैठकर मैंने फर्श पर कुशन डाले और उन पर बैठ गई। उस पल मैंने सोचने की प्रक्रिया के साथ अनौपचारिक हो जाने का अभूतपूर्व रोमांच महसूस किया। मैंने कहा — “मुझे लगता है कि मैं जाने कितनी बार इस तरह तुमसे सटकर बैठती रही हूँ, जब कि इससे पहले कभी भी नहीं बैठी!” जिब्रान ने कहा, “हजार साल पहले हम ऐसे बैठते थे और हजारों साल तक ऐसे ही बैठा करेंगे।”

“और ‘जीसस, द सन ऑव मैन’ रचने के दौरान जब-तब कुछ अजीब घटनाएँ मैंने महसूस करनी शुरू कीं। मैंने कहा — ‘यह तो एकदम जीती-जागती-सी बातें हैं। लगता है कि मैं खुद वहाँ थी।’ वह लगभग चीखकर बोला, ‘तुम वहाँ थीं! और मैं भी!’ ”

मूल अरबी से जिब्रान की अनेक पुस्तकों का अंग्रेजी में रूपान्तर करने वाले जोसेफ शीबान ने एक स्थान पर लिखा है : “जिब्रान के देहावसान के दो साल बाद बारबरा की मुलाकात इन पंक्तियों के लेखक से क्लीवलैंड शहर में हो गई। उसने मुझसे पूछा — “अरबी सीखने में कितना समय लग सकता है?” मैंने उससे कहा कि “जिब्रान की किसी भी किताब का अनुवाद करने के लिए अरबी भाषा के सांस्कृतिक पक्ष की जानकारी जरूरी है जिसमें कई साल लग सकते हैं, केवल बोलना सीखना है तो अलग बात है। कुल मिलाकर अरबी एक कठिन भाषा है।”

बारबरा यंग ने अपनी पुस्तक में लिखा है : “एक बार कुछ महिलाएँ जिब्रान से मिलने आईं। उन्होंने उससे पूछा : अभी तक शादी क्यों नहीं की? वह बोला : देखो… यह कुछ यों है कि… अगर मेरी पत्नी होती, और मैं कोई कविता लिख रहा होता या पेंटिंग बना रहा होता, तो कई-कई दिनों तक मुझे उसके होने का याद तक न रहता। और आप तो जानती ही हैं कि कोई भी अच्छी महिला इस तरह के पति के साथ लम्बे समय तक रहना नहीं चाहेगी।”

उनमें से एक महिला ने, जो मुस्कराकर दिए हुए उसके इस जवाब से सन्तुष्ट नहीं थी, उसके जख्म को और कुरेदा, “लेकिन, क्या आपको कभी किसी से प्यार नहीं हुआ?” बड़ी मुश्किल से अपने-आप पर काबू पाते हुए उसने जवाब दिया : “मैं एक ऐसी बात आपको बताऊँगा जिसे आप नहीं जानतीं। धरती पर सबसे अधिक कामुक सर्जक, कवि, शिल्पकार, चित्रकार, संगीतकार… आदि-आदि ही हैं और सृष्टि के आरम्भ से यह क्रम चल रहा है। काम उनमें एक सुन्दर और अनुपम उपहार है। काम सदैव सुन्दर और लज्जाशील है।”

सम्भवत: इसी प्रसंग को जिब्रान ने ‘The Hermit and The Beasts’ का रूप दिया है जो उनके देहांत के उपरांत सन 1932 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘द वाण्डरर’ में संग्रहीत हुई।

मिशलीन

बोस्टन में जिब्रान एमिली मिशेल (Emilie Michel) नामक एक अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक युवती के सम्पर्क में रहे जिसे प्यार से ‘मिशलीन’ (Micheline) पुकारा जाता था। एक जीवनीकार ने लिखा है कि मिशलीन ने पेरिस तक जिब्रान का पीछा नहीं छोड़ा। वह उनसे विवाह करने की जिद करती रही; लेकिन जब उन्होंने मना कर दिया तो वह हमेशा के लिए उनकी ज़िन्दगी से गायब हो गई। इस संबंध में दो प्रमाण प्रस्तुत किए जाते हैं — पहला यह कि पेरिस जाने से पहले जिब्रान ने उसकी पेंटिंग बनाई थी; और दूसरा यह कि अपनी एक पुस्तक उन्होंने मिशलीन को समर्पित की थी।

लेकिन कई जीवनीकार इस कहानी को विश्वसनीय नहीं मानते। इसका कारण जिब्रान और मिशलीन के बीच किसी पत्रात्मक प्रमाण का प्राप्त न होना भी है। खलील जिब्रान साहित्य के एक अमेरिकी शोधकर्ता जोसेफ शीबान अनेक स्रोत तलाशने के उपरान्त जिब्रान के जीवन में मिशलीन नाम की किसी युवती के अस्तित्व को नकारते हुए लिखते हैं — “पेरिस में जिब्रान अपने एक जिगरी लेबनानी दोस्त यूसुफ हवाइक के साथ काम करते थे। यूसुफ ने उन दो वर्षों के संग-साथ पर एक पुस्तक लिखी है। उन्होंने जिब्रान का एक पोर्ट्रेट भी बनाया था जो बहु-प्रचलित और बहु-प्रशंसित है। दोनों दोस्त एक ही अपार्टमेंट में नहीं रहते थे लेकिन मिलते रोजाना थे। पैसा बचाने की नीयत से अक्सर वे एक ही मॉडल को किराए पर लेकर काम चलाते थे। हवाइक ने उन लड़कियों का, जिनसे वे मिले और उन रेस्टोरेंट का, जहाँ वे खाना खाते थे, जिक्र किया है। उसने एक रूसी लड़की ओल्गा और दूसरी रोसिना का तथा एक बहुत खूबसूरत इटेलियन लड़की का भी जिक्र किया है जिन्हें मॉडलिंग हेतु उन्होंने किराए पर लिया। लेकिन हवाइक ने मिशलीन का कहीं भी जिक्र नहीं किया है।”

लेकिन सत्य यह है कि मिशलीन नाम की युवती जिब्रान के जीवन में न केवल आई, बल्कि उसने सकारात्मक भूमिका भी अदा की। वह मेरी हस्कल के स्कूल में फ्रेंच भाषा की अध्यापिका थी और मेरी की दोस्त भी थी। मिशलीन को जिब्रान की पहली ‘मॉडल’ बनने का सौभाग्य प्राप्त था। दोनों के बीच गहरा प्यार हो गया। मिशलीन ने जिब्रान को फ्रांस चलने के लिए उकसाया और हर संभव सहायता देने का वादा भी किया। उसी को केन्द्र में रखकर जिब्रान ने एक कविता ‘द बिलविड’ लिखी जिसमें उन्होंने पहले चुम्बन की व्याख्या की।

मेरी एलिजाबेथ हस्कल

“ग़ज़ब का चेहरा… जानती हो सौंदर्य के दर्शन मुझे तुममें होते हैं। पता है, अपने चित्रों में बार-बार जिस चेहरे का उपयोग मैं करता हूँ वह हू-ब-हू तुम्हारा न होकर भी तुम्हारा होता है… जिसे मैं चित्रित और पेंट करना चाहता हूँ, वह चेहरा… गहराई और कामनाभरी वे आँखें तुम्हारे पास हैं। यही वह चेहरा है जिसके माध्यम से मैं अभिव्यक्त हो सकता हूँ।”

8 नवम्बर, 1908 को लिखे अपने एक पत्र में जिब्रान ने मेरी को लिखा था — अकादमी के प्रोफेसर्स कहते हैं — “मॉडल को उतनी खूबसूरत मत चित्रित करो, जितनी वह नहीं है।” और मेरा मन फुसफुसाया — “ओ, काश मैं उसे केवल उतनी सुंदर बना पाता जितनी कि वास्तव में वह है।”

जिब्रान ने 3 मार्च 1904 को बोस्टन के डे’ज़ स्टुडियो में अपनी पेंटिंग्स की पहली प्रदर्शनी लगाई थी। वहीं पर उनकी मुलाकात उम्र में दस साल बड़ी वहाँ की मार्लबोरो स्ट्रीट स्थित गर्ल्स केम्ब्रिज स्कूल की मालकिन व प्राध्यापिका मेरी एलिजाबेथ हस्कल (Mary Elizabeth Haskell) से हुई। वह मुलाकात जिब्रान के फोटोग्राफर मित्र फ्रेडरिक हॉलैंड डे ने कराई थी या जोसेफिन ने, इस बारे में विचारकों के अलग-अलग मत हैं। कुछ का कहना है कि डे ने तो कुछ का कहना है कि जोसेफिन ने। जो भी हो, आगामी 25 वर्ष तक उनकी दोस्ती निर्बाध चलती रही। मई 1926 में मेरी ने एक धनी दक्षिण अमेरिकी भूस्वामी जेकब फ्लोरेंस मिनिस (Jacob Florance Minis) से विवाह कर लिया और मेरी एलिज़ाबेथ हस्कल के स्थान पर मेरी हस्कल मिनिस नाम से जानी जाने लगीं। टेलफेअर म्यूजियम को, जो खलील जिब्रान के कलाकर्म का अमेरिका में सबसे बड़ा संग्रहालय है, मेरी ने अपने संग्रह से निकालकर उनकी 100 से अधिक पेंटिंग्स उपहार में दीं। जिब्रान के जीवन में मेरी हस्कल के आगमन ने उनके लेखकीय जीवन पर सकारात्मक प्रभाव डाला। मेरी मजबूत इच्छा-शक्ति वाली, आत्मनिर्भर, शिक्षित व ‘स्त्री स्वातंत्र्य आंदोलन’ की सक्रिय नेत्री थीं। जोसेफिन पीबॅडी की रोमांटिक प्रकृति से वह एकदम अलग थीं। यह मेरी ही थीं जिन्होंने जिब्रान को अंग्रेजी लेखन की ओर प्रेरित किया। उन्होंने जिब्रान से कहा कि अंग्रेजी में नया लिखने की बजाय वह अपने अरबी लेखन को ही अंग्रेजी में अनूदित करें। जिब्रान के अनुवाद को संपादित करके चमकाने का काम भी मेरी ने ही किया। जिब्रान के मन्तव्यों को समझने के लिए मेरी ने अरबी भी सीखी। जिब्रान के एक जीवनीकार ने यह भी लिखा है कि जिब्रान अपनी हर पुस्तक की पांडुलिपि को प्रकाशन हेतु भेजने से पहले मेरी को अवश्य दिखाया करते थे। अपनी पुस्तक ‘द ब्रोकन विंग्स’ तथा ‘टीअर्स एंड लाफ्टर’ के समर्पण पृष्ठ पर जिब्रान ने लिखा है —

To M.E.H.

I present this book — first breeze in the tempest of my life — to that noble spirit who walks with the tempest and loves with the breeze.

KAHLIL GIBRAN

M.E.H. मेरी एलिजाबेथ हस्कल के प्रथम-अक्षर हैं। इनके अतिरिक्त उनकी कुछ अन्य रचनाओं पर भी ‘Dedicated to M.E.H.’ लिखा मिलता है। जैसे कि, उनकी रचना ‘द ब्यूटी ऑव डैथ’ भी M.E.H. को ही समर्पित है।

मेरी ड्राइंग़्स दिखाने और बोस्टन-समाज में घुल-मिल जाने के अवसर देने की दृष्टि से अपनी कक्षाओं में जिब्रान को आमन्त्रित करती रहती थी। वह उनके कलात्मक विकास में निरन्तर रुचि लेती थीं। पेंटिंग्स पर बातचीत के लिए कक्षा में बुलाए जाने पर जिब्रान को वह हर बार पारिश्रमिक भी देती थीं। मेरी ने ही अपने खर्चे पर जिब्रान को ड्राइंग की उच्च शिक्षा हेतु पेरिस के फ्रेंच आर्टिस्टिक स्कूल ऑव एकेडेमी जूलियन भेजा था।

दिसम्बर 1910 में मेरी ने एक दैनिक जर्नल शुरू किया जिसमें वह जिब्रान के जीवन से जुड़ी अपनी स्मृतियों व पत्रांशों को प्रकाशित करती थीं। यह जर्नल 17 वर्ष 6 माह तक लगातार छ्पा। उसी वर्ष जिब्रान ने मेरी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा जिसे मेरी ने उम्र में दस साल का लम्बा अन्तर कहकर ठुकरा दिया। मेरी नि:संदेह इतनी कम उम्र के पुरुष से विवाह करने से डर गई थी। इस प्रसंग को आधार बनाकर जिब्रान ने ‘सेवेन्टी’ शीर्षक से कथारूप दिया है जो ‘द वाण्डरर’ में संग्रहीत है। लेकिन इस घटना के बाद भी दोनों की दोस्ती बरकरार रही। दोनों के विवाह में एक रोड़ा ‘धन’ भी था। मेरी जिब्रान की आर्थिक मददगार थी और जिब्रान को डर था कि यह बात उनके वैवाहिक सम्बन्ध पर विपरीत असर डालने वाली सिद्ध हो सकती है। इस मसले पर उनमें अक्सर तकरार भी हो जाती थी।

जून 1914 से सितम्बर 1923 तक प्रकाशित पुस्तकों द मैडमैन (1918), द फोररनर (1920) तथा द प्रोफेट (1923) के बारे में जिब्रान ने मेरी से हर संभव मदद प्राप्त की। जीवन के अन्तिम वर्ष मेरी ने नर्सिंग होम्स में सेवा करते हुए बिताए। 1964 में मेरी का निधन हो गया।

मेरी खूरी

जिब्रान एस्टेट के एक प्रशासक दावे के साथ कहते थे कि जिस धनी औरत ने जिब्रान को आर्थिक मदद दी उसका नाम मेरी खूरी (Mary Khoury) था। एस्टेट के उक्त प्रशासक मेरी खूरी के निजी फिजीशियन थे। उन्होंने उनके अपार्टमेंट में जिब्रान द्वारा बनाई अनेक पेंटिंग्स और मूर्तियाँ देखी थीं जिनमें से एक पर जिब्रान ने अरबी में लिखा था — ‘किसी व्यक्ति को शराबी मत कहो। हो सकता है कि वह शराब पीने से भी ज्यादा गंभीर किसी दर्द भूलने की कोशिश कर रहा हो।’ डॉक्टर ने आगे कहा कि मेरी खूरी के पास जिब्रान द्वारा उसे लिखे अनेक पत्र मौजूद थे। उन पत्रों की सत्यता की जाँच एक स्वतंत्र लेबनानी पत्रकार ने भी की थी। मेरी खूरी उन सभी पत्रों को प्रकाशित कराने के बारे में सहमत हो गई थीं। उन्होंने वे सभी पत्र अपने एक मित्र को संपादन के लिए दे दिए थे। लेकिन दुर्भाग्यवश, संपादित करके उन पत्रों को वापस मेरी को लौटाने से पूर्व ही मित्र की व कुछ ही समय बाद मेरी की भी मृत्यु हो गई। इस तरह वे पत्र और वे पेंटिंग्स गुमनामी के अँधेरे में खो गये। जोसेफ शीबान ने लिखा है कि ‘मैंने उक्त पत्रकार से पूछा कि वे पत्र व्यवसाय-संबंधी थे या प्रेम-पत्र थे?’ उसने जवाब दिया — ‘वे प्रेम-पत्र थे।’

मेरी खूरी कहा करती थीं — अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिनों की अनेक शामें जिब्रान ने उसके अपार्टमेंट में बिताई थीं।

कुल मिलाकर मेरी खूरी के बारे में रहस्य बरकरार है।

जूलियट थॉम्प्सन

1912 का वसंत आते-आते जिब्रान की कलाकृतियों को देखने न्यूयॉर्क की जानी-मानी हस्तियाँ उनके स्टुडियो में आने लगी थीं। उनमें चित्रकार आदिल वॉटसन, मूर्ति-शिल्पकार रोनाल्ड हिन्टन पेरी और कलाओं को प्रोन्नत करने वाले मार्जरी मोर्टन भी शामिल थे। वे सब खलील की कलाकृतियों के मुक्त प्रशंसक बन गए थे। उन्हीं में एक थीं जूलियट थॉम्प्सन (Juliet Thompson), स्नेह से लोग जिन्हें ‘जूलिया’ पुकारते थे। जूलियट का कहना था कि ‘खलील की कृतियाँ उसके हृदय को रुला देती हैं’। ऐसी प्रतिभाशालिनी महिला के मुख से, जिसे एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति थॉमस वुडरोव विल्सन (Thomas Woodrow Wilson) का पोर्ट्रेट पेंट करने का सम्मान मिल चुका था, प्रशंसात्मक शब्द सुनकर खलील का खुश होना स्वाभाविक था।

वर्जीनियाई मूल की जूलियट विश्वप्रसिद्ध ईरानी कवि एवं दार्शनिक उमर खैयाम की कृति ‘रुबाइयात’ के अंग्रेजी अनुवादक एडवर्ड फिट्ज़ेराल्ड की रिश्तेदार थी। जूलियट का निवास खलील के स्टुडियो के निकट ही था। उसका करिश्माई व्यक्तित्व सभी उम्र के लोगों को उसके निवास — 48, वेस्ट टेन्थ स्ट्रीट — पर खींच लाता था। उसके पिता राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन के निकट मित्र थे। अपनी खूबसूरती, आकर्षण और कलात्मक उपहारों की बदौलत जूलियट भी व्हाइट हाउस में दाखिला पा गई थी। जूलियट बहाई सम्प्रदाय की अनुयायी थी। खलील भी उक्त समुदाय से काफी प्रभावित थे। जूलियट ने खलील को बहाई सम्प्रदाय के संस्थापक बहाउल्ला की कुछ कृतियाँ भी पढ़ने को दी थीं। इत्तफाक से तत्कालीन बहाई गुरु अब्दुल बहा (बहाई जिन्हें ‘मास्टर’ कहते थे) उसी अप्रैल में न्यूयॉर्क आने वाले थे। जूलियट ने खलील को उनकी एक पेंटिंग बनाने की राय दी।

खलील के लिए यह बेहद सम्मानजनक राय थी। उन्होंने जूलियट से अब्दुल बहा के साथ मीटिंग कराने की बात की और मेरी को लिखा : ‘मैं अब्दुल बहा का चित्र बनाऊँगा। उनका चित्र बनाना मेरी सीरीज़ के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना कि रोडन का चित्र बनाना।’( साहित्य, कला, चिकित्सा व दर्शन आदि से जुड़ी हस्तियों को लेकर जिब्रान उन दिनों ‘टेम्पल ऑव आर्ट्स’ नाम से चित्र श्रृंखला बना रहे थे जिसके अन्तर्गत उन्होंने फ्रांसीसी शिल्पकार आगस्टस रोडन, फ्रांसीसी सिने-तारिका सारा बर्नहार्ट, आयरिश कवि डब्ल्यू॰ डी॰ यीट्स तथा अमेरिकी पत्रकार व राजनीतिज्ञ चार्ल्स एडवर्ड रसेल जैसी हस्तियों के पोर्ट्रेट रू-ब-रू बैठकर बनाए थे। ) मेरी ने जवाब दिया: ‘तुम ज़रूर उनका पोर्ट्रेट बनाओगे। वे तुम्हारी इस सीरीज़ के और तुम्हारे महत्व को समझेंगे और उतने ही खुश होंगे जितने तुम हो।’

अब्दुल बहा के साथ खलील की तीन बैठकें हुईं। उन्होंने उनका चित्र बनाया जिसे देखकर बहा ने अरबी में कहा — ‘अच्छा काम वही कर सकते हैं, जो दिल से काम करते हैं। तुम्हारे अन्दर अल्लाह की ताकत है।’

बाद के वर्षों में जूलियट ने खलील की पेंटिंग्स को ‘अलौकिक और काव्यपरक’ बताया। उसने कहा कि ईसा का पोर्ट्रेट ‘जीसस, द सन ऑव मैन’ बनाते समय खलील ने उससे कहा था कि बहाई धर्मगुरु के साथ मीटिंग्स ने उसके इस काम पर सकारात्मक प्रभाव डाला है।

गर्ट्यूड बेरी

मिखाइल नियामी ने खलील पर लिखी अपनी पुस्तक में लिखा है कि 1908 में यानी 23 वर्ष की उम्र में जिब्रान की मुलाकात एक 26 वर्षीय आयरिश युवती मिस गर्ट्यूड बेरी (Ms. Gertrude Barrie) से हुई। वह एक प्रोटेस्टेंट ईसाई थी और पियानो बजाती थी। वह जिब्रान के पड़ोस में रहती थी। जिब्रान से उसकी मुलाकात एक जानकार सलीम सरकिस के माध्यम से हुई। वह छोटे कद की आकर्षक महिला थी। मेरी हस्कल और मिशलीन के बीच दोराहे पर खड़े जिब्रान बहुत जल्द बेरी के मोहजाल में फँस गए। 1908 तक उनका मिलना-जुलना निर्बाध रूप से चला। उसके बाद कभी-कभार तक सीमित हो गया। बहरहाल, 16 वर्षों तक दोनों के बीच तब तक मेल-मिलाप बना रहा जब तक कि उसने विवाह न कर लिया। बेरी द्वारा इटेलियन वायलिन वादक हेक्टर बेज़िनेलो (Hector Bazzinello) से विवाह कर लेने के उपरांत जिब्रान से मिलने का उसका सिलसिला खत्म हो गया।

उनके संबंधों के साक्ष्य के रूप में पत्रादि कुछ उपलब्ध न होने के कारण अनेक जीवनीकार मिखाइल की इस बात को सत्य नहीं मानते हैं।

हेनरीटा ब्रेकेनरिज़ बॉटन

1926 में विवाहोपरांत मेरी हस्कल द्वारा सहयोग से हाथ खीच लेने के बाद जिब्रान को कार्य-संपादन में परेशानी महसूस होने लगी। अत: उन्होंने हेनरीटा ब्रेकेनरिज़ (Henrietta Breckenridge Boughton) नाम की एक युवती को अपनी सचिव के तौर पर नियुक्त कर लिया। हेनरीटा ने जिब्रान के साथ उनके अन्तिम सात वर्षों तक निरन्तर कार्य किया। उसने उनके लेखन और पेंटिंग्स संबंधी सभी कामों को मुस्तैदी से सँभाला। वह उनकी पांडुलिपियों का संपादन भी करती थी। यहाँ तक कि हॉस्पिटल में मृत्यु के समय भी जिब्रान के निकट उनकी बहन मरियाना तथा मित्र मेरी के साथ वह उपस्थित थी। हेनरीटा ही थी जिसने जिब्रान की मिखाइल नियामी द्वारा स्थापित जिब्रान की ‘औरतखोर’ छवि को सप्रयास तोड़कर उन्हें ‘दार्शनिक कवि’ की छवि में प्रतिस्थापित किया। जिब्रान की बहन मरियाना और मेरी भी उसके काम में हाथ बँटाती थीं। जिब्रान के जीवनीकारों का मानना है कि वस्तुत: ‘बारबरा यंग’ हेनरीटा का ही लेखकीय नाम है।

आना जनसन

1930 में, जिब्रान जब शारीरिक बीमारी से बेहाल थे, उनका आत्मविश्वास भी डगमगा गया था। वह पूरी तरह पराश्रित हो गए थे। उस काल में न्यूयॉर्क की उस इमारत के, जिसमें वह रहते थे, केअरटेकर की पत्नी आना जॉनसन (Anna Johansen) ने निश्छल भाव से दिन-रात उनकी सेवा की।

मे ज़ैदी

दोस्ती का सबसे अजीब सिलसिला एक लेबनानी महिला पत्रकार मे ज़ैदी (May Ziadeh) के साथ चला। प्रकाशित होने वाली अपनी हर पुस्तक की पहली प्रति जिब्रान समीक्षा के लिए मे ज़ैदी को भेजते थे। मे का जन्म फिलिस्तीन में हुआ था और वह कॉन्वेंट शिक्षित थी। जिब्रान की तरह ही वह धाराप्रवाह, अंग्रेजी और फ्रेंच बोलती थी। 1908 में वह काहिरा चली गई थी जहाँ से उसके पिता ने एक समाचारपत्र शुरू किया था। 1911 में आइसिस कोपिया (Isis Copia) उपनाम से उसकी कविताओं का एक संग्रह भी आया था। वह मिस्र के एक पत्र ‘अल हिलाल’ में उन पुस्तकों की निष्पक्ष समीक्षा लिखती थीं। साथ ही जिब्रान को एक विशेष पत्र द्वारा सूचित भी करती थीं और समीक्षा से अलग भी उनकी पुस्तक पर विचार-विमर्श करती थीं। लेखन के स्तर पर उन दोनों के बीच मतान्तर रहता था और खलील मे ज़ैदी की व्यापक बुद्धिमत्ता व स्पष्टवादिता की खुलकर प्रशंसा किया करते थे। मे ज़ैदी ने खलील जिब्रान की पुस्तक ‘टिअर्स एंड लाफ्टर्स’ को बेहद बचकाना काम बताया था जिसका उत्तर देते हुए जिब्रान ने उन्हें लिखा था — ‘मुझे तुम्हें यह बताने में तनिक भी संकोच नहीं है कि यह कृति विश्वयुद्ध से पहले की है। उस समय मैंने तुम्हें उसकी एक प्रति भेजी थी लेकिन वह तुम्हें मिली या नहीं, इसकी सूचना आज तक तुमसे नहीं मिली। ‘टिअर्स एंड लाफ्टर्स’ में संग्रहीत सभी रचनाएँ मेरी प्रारम्भिक रचनाएँ हैं जिन्हें अब से 16 वर्ष पहले मैंने ‘अलमुहाजिर’ के लिए धारावाहिक लिखा था। नसीब आरिदा (अल्लाह उसे माफ करे) उन लोगों में से एक था जिन्होंने उन तमाम रचनाओं को इकट्ठा किया। उनमें उसने मेरी दो रचनाएँ और जोड़ीं जो मेरे पेरिस निवास के दौरान लिखी गई थीं और एक पुस्तक में संग्रहीत भी थीं। अपने बचपन में और किशोरावस्था में ‘टिअर्स एंड लाफ्टर्स’ की रचनाओं से पहले मैंने काफी गद्य और काव्य लिखा है। इतना, कि कई पुस्तकें तैयार हो जाएँ। लेकिन मैंने कभी भी उन्हें प्रकाशित कराने का अपराध नहीं किया और न आगे ही कभी करूँगा।’

लगभग 35 वर्षों तक दोनों के बीच मात्र पत्र-मित्रता रही और वे कभी भी एक-दूसरे से नहीं मिले। इस मित्रता का खुलासा जिब्रान की मृत्यु के बाद मे ज़ैदी द्वारा जारी जिब्रान के पत्रों से हुआ। उनमें से दो पत्र अथवा उनके अंश निम्न प्रकार हैं:

(पहला पत्र)

नवम्बर 1, 1920

प्रिय मे,

आत्मा, ज़िन्दगी में कुछ नहीं देखती सिवा उसे बचाने के जो स्वयं उसमें निहित है। यह अपने निजी क्षणों के अलावा किसी और में यक़ीन भी नहीं करती। और जब यह किसी अनुभव से गुजरती है तो प्राप्त अनुभूति इसका अपना हिस्सा बन जाती है। पिछले साल मैंने एक बात का अनुभव किया; यह कि मैंने एक राज़ को छिपाने की कोशिश की, लेकिन मैं उसे छिपा नहीं सका। मैंने उसे अपनी एक ऐसी दोस्त के सामने खोल दिया जिससे आम तौर पर मैं अपनी कोई भी बात नहीं छिपाता हूँ; क्योंकि मुझे लगने लगता है कि मैं पेट की बात को किसी के आगे उगल देने की गहरी जरूरत में हूँ। लेकिन उस राज़ को जानकर उसने पता है मुझसे क्या कहा? कुछ भी सोचे-समझे बिना वह बोली — “यह तरंगित कर देने वाला गीत है।” सोचो, कि अपने बच्चे को गोद में लिए जा रही माँ से अगर कोई यह कह दे कि जिसे वह गोद में उठाकर लिये जा रही है, वह लकड़ी का एक पुतला है, तो क्या जवाब उसे मिलेगा और उस माँ के दिल पर क्या गुजरेगी?

कई महीने बीत गए और उसके शब्द (‘तरंगित कर देने वाला गीत’) आज भी मेरे कानों में गूँज रहे हैं; लेकिन मेरी उस दोस्त को इतने-भर से ही तसल्ली नहीं हुई। उसने मुझ पर नजर रखना शुरू कर दिया और मेरी जुबान से निकलने वाले एक-एक शब्द की भर्त्सना करने में जुट गई। वह हर बात मुझसे छिपाने लगी; यहाँ तक कि मैं जब भी उसे छूने की कोशिश करता, वह अपने नाखून से मेरे हाथ को खरोंच देती। उसकी इन हरकतों से मैं लगातार हताश होता गया। मे, हताशा दिल में उठने वाले प्यार के तूफान को ठंडा कर देती है। प्रेम एक मौन आकर्षण है। यही वज़ह है कि कुछ ही समय पहले मैं तुम्हारे सामने बैठा था, एक भी शब्द बोले बिना अपलक तुम्हें निहारता हुआ; तुम पर कुछ भी लिखने की तमन्ना से विहीन; क्योंकि मेरा दिल कहता है — ‘यह मेरी औकात से बाहर है।’

हर शिशिर के अन्तस् में एक वसंत लहलहा रहा होता है और प्रत्येक रात के घूँघट के पीछे सूर्योदय का मुस्कराता चेहरा होता है। मेरी हताशा भी अब आशा में तब्दील हो चुकी है।

जिब्रान

(दूसरा पत्र)

(मे ने जिब्रान से एक बार उनके लिखने, खाने और उनकी तमाम दिनचर्या के बारे में सवाल पूछे थे। उसने उनसे उनके घर और ऑफिस के बारे में तथा उन सारे कामों के बारे में जानकारी चाही थी जो वे करते थे। उसके कुछ प्रश्नों के उत्तर जिब्रान ने निम्न पत्र में दिए थे। प्रस्तुत हैं उस पत्र के कुछ अंश।)

1920

… तुम्हारे सवाल कितने शानदार हैं मे! और इनके जवाब देते हुए मुझे बड़ा मज़ा आ रहा है। आज धूम्रपान दिवस है; सुबह से अब तक मैं पहले ही दस लाख सिगरेटें फूँक चुका हूँ। धूम्रपान मेरी आदत नहीं बल्कि आनन्द का दाता है। कभी-कभी मैं एक भी सिगरेट पिए बिना हफ्तों गुजार देता हूँ। मैंने दस लाख सिगरेटें सुलगा चुकने की बात कही। इस सब की जिम्मेदार सिर्फ तुम हो। अगर मैं इस घाटी में होता, तो अपनी कसम खाकर कहता हूँ, मैं कभी भी लौटकर नहीं…

और इस बारे में कि — ‘आज मैंने कैसा सूट पहन रखा है?’ रिवाज़ कुछ ऐसा है कि आदमी को दो सूट एक-साथ पहनने होते हैं। उनमें से एक, जुलाहे द्वारा बुना और दर्जी द्वारा सिया गया होता है और दूसरा, हाड़-मांस-लहू से बना। लेकिन आज मैं अलग-अलग रंग की बुंदकियों वाली एक लम्बी-चौड़ी पोशाक पहने हुए हूँ। यह किसी दरवेश द्वारा पहने जाने वाले चोगे-जैसी है। जब मैं वापस अपने देश जाऊँगा तब यह कुछ नहीं पहनूँगा बल्कि पुराने चलन की देसी पोशाक ही पहनूँगा।

… जहाँ तक मेरे ऑफिस की बात है, यह इस समय तक भी बिना छत-ओ-दीवार है; लेकिन बालू वाले सागर और मलय-गंध वाले सागर, दोनों ही, आज भी वैसे ही हैं जैसे वे कल थे — बहुत-सी लहरों से युक्त गहरे और तटहीन। नाव, जिनमें बैठकर मैं इन सागरों में तैरता हूँ, बिना पतवार की है। क्या तुम मेरी नाव को पतवार दे सकोगी?

पुस्तक ‘टुवर्ड्स गॉड’ छापेखाने में अटक गयी है और इसके सबसे अच्छे चित्र ‘द फोररनर’ में हैं, जिसे दो हफ्ते पहले मैंने तुम्हें भेजा था।

(उसके कुछ सवालों के जवाब देने के बाद खलील ने प्रतीकात्मक रूप से अपने बारे में लिखा।)

उस आदमी के बारे में, जिसे ईश्वर ने दो औरतों के बीच जकड़ रखा हो, तुम्हें क्या बताऊँ? उनमें से एक औरत उसके सपनों को जागरूकता में बदलती है और दूसरी, उसकी जागरूकता को सपनों में। उस इन्सान के बारे में, जिसे ईश्वर ने दो रोशनियों के बीच रख दिया हो, क्या कहूँ? वह दु:खी है या सुखी? क्या इस दुनिया में वह एक अजूबा है? मुझे नहीं मालूम। लेकिन मैं तुमसे यह जरूर जानना चाहूँगा कि क्या इस इन्सान के, जिसकी बोली को इस सृष्टि में कोई नहीं बोलता, अजनबी ही बने रहने की तुम हिमायती हो? मैं नहीं जानता। लेकिन मैं तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम इस इन्सान से उसकी जुबान में, जिसे तुम औरों की तुलना में बेहतर समझ सकती हो, बात करना चाहोगी? इस दुनिया में अनेक लोग ऐसे हैं जो मेरी आत्मा की आवाज़ को नहीं समझते हैं; और इस दुनिया में बहुत-से लोग ऐसे भी हैं तो तुम्हारी आत्मा की आवाज़ को नहीं समझते। मे, मैं उन लोगों में से एक हूँ, जिनके जीवन पर अनेक दोस्त और हितैषी क़ुर्बान हैं। लेकिन मुझे बताओ, कि उन संवेदनशील दोस्तों में से कोई एक भी ऐसा है जिससे हम यह कह सकें कि — “केवल एक दिन के लिए मेरी पीड़ाओं को अपने कन्धों पर ले लो।” क्या कोई आदमी है जो जानता हो कि हमारे गीतों के पीछे एक गीत ऐसा भी है जिसे बोलकर नहीं गाया जा सकता या तारों की झंकार से सुनाया नहीं जा सकता? क्या कोई है जो हमारी पीड़ा में आनन्द और आनन्द में पीड़ा देखता है?

… तुम्हें याद है मे, तुमने ब्यूनस आयर्स के एक पत्रकार के बारे में मुझे बताया था जिसने, हर पत्रकार की तरह, तुम्हारा फोटो तुमसे माँगा था। कई बार मैं उस पत्रकार के अनुरोध के बारे सोच चुका हूँ और हर बार अपने-आप से यही कहता हूँ कि — “मैं पत्रकार नहीं हूँ, इसलिए मैं वह चीज़ नहीं माँग सकता जिसे वे माँग सकते हैं। नहीं, मैं पत्रकार नहीं हूँ। अगर मैं किसी पत्र या पत्रिका का मालिक या संपादक होता तो बिना किसी संकोच के और बिना किसी घबराहट के, बड़े ही सीधे-सादे ढंग से लड़कियों से उनका फोटो भेजने को कह सकता था। लेकिन नहीं, मैं पत्रकार नहीं हूँ। क्या करना चाहिए?”

जिब्रान

मे ज़ैदी को लिखे उपर्युक्त दूसरे पत्र में जिब्रान ने अपने देश लौटने पर पारम्परिक पोशाक पहनकर रहने की बात लिखी है। लेकिन वेशभूषा को पारम्परिक रखने-सम्बन्धी उनके विचार रूढ़ न होकर क्रान्तिकारी हैं। इस तथ्य को एक समाचार-पत्र में प्रतिक्रियास्वरूप ‘द फैज़ एंड द इन्डिपेंडेंस’ शीर्षक से प्रकाशित उनके निम्न पत्र को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है :

हाल ही में मैंने एक फ्रांसीसी स्टीमर पर सवार जनसमूह के खिलाफ एक ऐसे विद्वान की रचना पढ़ी, जिन्होंने उनके साथ सीरिया से मिस्र तक की यात्रा की थी। उनका आरोप था कि उन्होंने उस वक्त, जब वे अपनी मेज़ पर खाना खा रहे थे, उनकी फैज़ (झब्बेदार लाल तुर्की टोपी) उतरवा दी, या कहिए कि उतरवाने का प्रयास किया।

हम सभी जानते हैं कि पश्चिमी सभ्यता में दोपहर का भोजन नंगे सिर करने का अनुकरणीय चलन है। विद्वान महोदय के विरोध ने… पुरातन प्रतीक, जो उनकी दृष्टि में रोजाना श्रृंगार की वस्तु था, को सुदृढ़ता प्रदान करने के प्रयास ने मुझे आश्चर्य में डाल दिया। मुझे इससे ऐसा धक्का लगा जैसा कि एक हिन्दू राजकुमार द्वारा ‘मिलान’ के एक ऑपेरा में मिलने का मेरा निमन्त्रण अस्वीकार कर देने पर मुझे लगा था। उसने मुझसे कहा — “यदि तुम मुझे दान्ते द्वारा व्यक्त साक्षात ‘नरक’ देखने को आमन्त्रित करते तो मैं खुशी से तुम्हारा निमन्त्रण स्वीकार करता, किन्तु ऑपेरा नहीं। मैं किसी ऐसी जगह, जहाँ मुझे अपना साफा उतारने और हुक्का बाहर रखने को बाध्य होना पड़े, नहीं जा सकता।”

मुझे प्रसन्नता होती है, यदि कोई पुरातनपंथी अपनी रीतियों और परम्पराओं से लेशमात्र भी लगाव रखता है; तथापि कुछ कड़वे सच हैं जिन पर विचार करना चाहिए।

यदि हमारे विद्वान दोस्त, जो यूरोपियन नौका पर टोपी उतारने की बात से क्रुद्ध हो गए, विचार करते कि यह आदर्श शीश-परिधान एक यूरोपियन फैक्ट्री में ही बना है तो उसे सिर पर से उतार फेंकने में वह तनिक भी दिक्कत महसूस न करते।

ऐसी आत्मनिर्भरता और आत्मदृढ़ता को भली प्रकार स्वीकार किया जा सकता है, यदि हमारे अपने उद्यम (इण्डस्ट्री) और अपनी संस्कृति हो। विद्वान महोदय को शायद याद हो कि उनके सीरियाई पूर्वज सीरियाई हाथों द्वारा काते, बुने और सिले कपड़े पहनकर सीरियाई नौकाओं द्वारा मिस्र को जाते थे। अच्छा होता कि वह भी अपने देश में बने कपड़े पहनते और सीरियाइयों द्वारा बनाई और चलाई जाने वाली नौका में ही सफर करते।

हमारे विद्वान दोस्त के साथ परेशानी यह है कि उन्होंने कारण का नहीं, परिणाम का विरोध किया है। यह उन घोर पुरातनपंथियों की बात है जो सिर्फ छोटी और तुच्छ बातों के बारे में, जो उन्होंने पश्चिम से ही ली हैं, डींग हाँकते हैं।

अपने विद्वान दोस्त से, और उस सारी कौम से जो टोपी पहनती है, मैं कहता हूँ — अपनी टोपियों को अपनी कार्यशालाओं में तैयार करें। उसके बाद तय करें कि नौका में सफर के दौरान, या पर्वतारोहण के समय, या किसी गुफा में जाते समय उसका क्या करना है?

ईश्वर साक्षी है कि मैंने किसी अवसर-विशेष पर टोपी उतारने या पहनने को लेकर बहस शुरू करने के लिए इसे नहीं लिखा है। ठिठुरते आदमी के सिर पर टोपी की अभिव्यंजना से यह इतर है।

निधन

जिब्रान बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। पूरी दुनिया उन्हें एक स्तरीय कवि, कथाकार, चित्रकार, मूर्ति-शिल्पकार, लेखक, दार्शनिक, विज़ुअल आर्टिस्ट और धर्म के अध्येता के रूप में जानती है। लीवर और गुर्दों की कार्यक्षमता नष्ट हो जाने के कारण 10 अप्रैल 1931 को 48 वर्ष 3 माह 4 दिन की अल्पायु में अमेरिका के न्यूयॉर्क स्थित सेंट विंसेंट्स हॉस्पीटल में उनका निधन हो गया। उन्होंने 16 पुस्तकों की रचना की जिनका अनुवाद संसार की 30 से अधिक अनेक भाषाओं में हो चुका है।

अन्तिम इच्छा

जिब्रान की अंतिम इच्छा थी कि निधन के बाद उनके शव को उनकी मातृभूमि लेबनान में दफनाया जाए तथा उनका समूचा कलाकर्म किसी संग्रहालय में रखकर जनता को सौंप दिया जाय। 1930 में उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था — “मेरे निधन के बाद मेरे स्टुडियो की किताबें, कला का सामान आदि सब-कुछ श्रीमती मेरी हस्कल मिनिस को दे दिया जाय जो इस समय 24, गेस्टन स्ट्रीट वेस्ट, सावन्नाह, जॉर्जिया में रहती हैं। मेरी इच्छा है कि ये सारी चीज़ें वे सुरक्षापूर्वक मेरे गृहनगर पहुँचा दें। मैं समझता हूँ कि यह कर सकने में वह सक्षम हैं।”

खलील जिब्रान के अन्तिम पत्रों में उनकी इच्छा “मध्य पूर्व, लेबनान, बिशेरी मार सरकिस जाने जैसी बातें पढ़ने को मिलती हैं। वह “प्रकृति के बीच नया जीवन जीने; गेहूँ की सुनहरी बालियों, हरे-भरे मैदानों, चरागाहों की ओर भेड़ों को हाँकने, झरनों के दहाड़ने और सूरज की किरणों से चमचमाते कोहरे” को देखने के सपने देखते थे।

वस्तुत: 1926 में ही उन्होंने बिशेरी के ‘मार सरकिस’ मठ को खरीदने और जीवन के शेष दिन वहीं बिताने की योजना बना ली थी। क़दीशा घाटी में स्थित यह मठ 16वीं सदी में स्थापित हुआ था। वह मठ वस्तुत: सागर किनारे की एक ढलवाँ पहाड़ी को काटकर बनाया गया था और रहने के लिए बेहद सुरक्षित था। पुराने जमाने में इस तक किसी रस्सी या सीढ़ी के सहारे ही पहुँचा जा सकता था। आगन्तुकों की सुविधा के लिए वहाँ एक फुटपाथ बनाकर रास्ते को अब सुगम बना दिया गया है। जीवनभर जहाँ रहने के सपने देखते रहे, निधन के बाद ही जिब्रान वहाँ पहुँच पाए।

जिब्रान म्यूजियम की स्थापना

जिब्रान के निधन के उपरान्त उनकी मित्र मेरी हस्कल और बहन मरियाना ने बिशेरी स्थित ‘मार सरकिस’ मठ को खरीदा। तदुपरांत 22 अगस्त 1931 को जिब्रान के अवशेष वहाँ लाकर दफन किए एवं खूबसूरत मकबरा बनवाया। यह स्थान बेरूत से 120 कि॰मी॰ दूर है। जिब्रान के मित्रों और प्रशंसकों के संयुक्त प्रयासों से 10 जुलाई 1934 को लेबनान के शासनादेश संख्या 1618 के अनुरूप एक अव्यावसायिक संस्था ‘जिब्रान नेशनल कमेटी’ का गठन किया गया। खलील जिब्रान के साहित्यिक और कलात्मक धरोहर के कॉपीराइट अधिकार इस संस्था के पास हैं।

सन 1975 में ‘जिब्रान नेशनल कमेटी’ ने मठ को जिब्रान के कार्यों के अध्ययन की दृष्टि से ‘जिब्रान म्यूजियम’ में तब्दील कर दिया। उनके गृहनगर बिशेरी में स्थापित ‘जिब्रान म्यूजियम’ में जिब्रान की 440 मूल पेंटिंग्स और चित्र, उनकी लाइब्रेरी, निजी उपयोग की वस्तुएँ तथा हस्तलिखित पांडुलिपियाँ सार्वजनिक दर्शन हेतु रखी हैं। ये सब वस्तुएँ 1932 में न्यूयॉर्क से लाकर यहाँ रखी गई थीं। इनका प्रबंधन भी ‘जिब्रान नेशनल कमेटी’ के हाथों में है।

अमेरिकी कांग्रेस द्वारा सम्मान

जिब्रान की विश्वख्याति को देखते हुए अमेरिकी कांग्रेस ने 19 अक्टूबर 1984 को एक प्रस्ताव पारित किया। इसके परिणामस्वरूप मेसाचुसेट्स एवेन्यू में, वॉशिंगटन डी॰सी॰ स्थित ब्रिटिश दूतावास के ठीक सामने खलील जिब्रान मेमोरियल गार्डन की स्थापना हुई। तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज एच.डब्ल्यू. बुश ने मेमोरियल गार्डन को भाईचारे में विश्वास, निरीहों के प्रति दयाभाव तथा इन सबसे ऊपर शान्ति-स्थापना हेतु जिब्रान के जुनून की संज्ञा देते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दी थी तथा 24 मई 1991 को इसे सामान्य जनता को अर्पित किया था।

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