व्यभिचारिणी पत्नी (फ्रेंच कहानी) : अल्बैर कामू
Vyabhicharini Patni (French Story in Hindi) : Albert Camus
एक दुबली-पतली-सी मक्खी, कुछ देर से बस में चक्कर लगा रही थी, हालाँकि काँच बन्द थे। धृष्ट, वह बिना शोर किए आ रही थी, जा रही थी, एक थकी हुई उड़ान में। जानीन की दृष्टि से ओझल हुई, कि अगले क्षण उसने उसे अपने पति के निश्चल हाथ पर उतरते देखा। मौसम ठंडा था। वह, धूल-भरे हर हवा के झोंके के साथ जो बस के शीशों पर कर्कश आवाज़ के साथ लग रहे थे, काँप रही थी। जाड़ों की मुबह के क्वचित् प्रकाश में, टीन की चद्दरों और धुरियों के तीक्ष्ण शोर में गाड़ी चल रही थी, रुक रही थी, मुश्किल से कोई दूरी तय करते हुए। जानीन ने अपने पति की तरफ देखा। सफेद होते हुए बालों के गुच्छे उसके सँकरे भाल पर नीचे को लटक रहे थे। उसकी नाक चौड़ी थी और मुँह बड़ा बेढब। मारसल एक कुपित वन-देवता लग रहा था। रास्ते के हर गड्ढे पर लगता था कि वह उसकी तरफ उछल रहा है। फिर वह अपने वज़नी धड़ को अपनी फैली हुई टाँगों पर धम-से गिर जाने दे रहा था, स्थिर दृष्टि के साथ, फिर से निष्क्रिय और बेखबर। सिर्फ उसके बिना बालों वाले मोटे-मोटे हाथ कमीज़ में से बाहर को कलाइयों तक निकली हुई फ्लालैन की बाँहों में कुछ काम करते नज़र आ रहे थे। उन्होंने घुटनों के बीच में रखा हुआ एक कैनवस का छोटा-सा सूटकेस इतना कसके पकड़ा हुआ था कि लगता था उन्हें मक्खी का बार-बार रुककर उड़ना बिलकुल पता नहीं लग रहा है।
अचानक एक तेज़ हवा का क्रन्दन स्पष्टत: सुनाई दिया और बस के चारों तरफ फैला हुआ खनिजी कोहरा और मोटा हो गया। शीशों पर बालू ऐसे लग रही थी जैसे कई अप्रत्यक्ष हाथ उसे उठा-उठा कर शीशे पर मार रहे हों। मक्खी ने एक काँपता हुआ पंख हिलाया, अपने पैर हिलाए, और उड़ गई। बस कुछ धीरे चलने लगी, जैसे रुकनेवाली हो। फिर हवा कुछ शान्त हुई-सी लगी, कोहरा कुछ साफ हो गया और बस ने फिर से गति पकड़ ली। धूल में डूबे हुए भू-दृश्य के बीच-बीच की खुली जगह में से प्रकाश चमक रहा था। दो या तीन सूखे हुए, सफेद-से खजूर के पेड़, जो कि किसी धातु में से कटे हुए जैसे दिख रहे थे, शीशे की तरफ झपटे और अगले क्षण अदृश्य हो गए।
“कितना सुन्दर है!” मारसल ने कहा।
बस अरबी लोगों से भरी हुई थी जो अपने लबादों में लिपटे हुए सोने का बहाना कर रहे थे। उनमें से कुछ ने अपने पैर बेंच पर समेटे हुए थे, और गाड़ी के हिलने से औरों से ज़्यादा हिल रहे थे। उनकी खामोशी और भावशून्यता जानीन को दूभर लगने लगी। उसे लगा जैसे वह बहुत दिनों से इस गूँगे अनुरक्षक-दल के साथ सफर कर रही है। यद्यपि बस सुबह अरुणोदय पर ही रेलवे स्टेशन से रवाना हुई थी, और पिछले दो घंटों से, सुबह की ठंड में पथरीले, सुनसान मैदान में—जो कम-से-कम शुरू-शुरू में लगता था कि लालिमा-युक्त क्षितिज तक फैल रहा है—आगे चल रही थी। लेकिन तेज़ हवा चल पड़ी थी और वह धीरे-धीरे उस अनन्त विस्तृति को अपने अन्दर खींच ले गई। इस क्षण के बाद से मुसाफिरों को कुछ नहीं दिखा, एक के बाद एक वे सब चुप हो गए और एक तरह की निद्रा-रहित रात में चुपचाप बस में बैठे रहे, बीच-बीच में रिसकर अन्दर आए हुए धूलकणों से तंग होकर अपनी आँखें व होंठ पोंछ लेते थे।
“जानीन!” वह अपने पति की आवाज़ सुनकर चौंक पड़ी। एक बार उसने फिर सोचा, वह नाम उसके लिए कितना बेतुका था, जबकि वह लम्बी थी, सुडौल थी। मारसल जानना चाहता था, वह नमूनों का बक्सा कहाँ गया। जानीन ने अपने पैरों से बेंच के नीचे की खाली जगह को टटोला। उसके पैर किसी चीज़ से टकराए, जो उसे लगा, बक्सा होगा। वह बिना साँस फूले झुक नहीं सकती थी। वैसे कॉलेज में जिमनास्टिक में वह प्रथम आती थी, उसकी श्वास असीमित थी। क्या इतना समय गुज़र गया इस बात को? पच्चीस वर्ष! पच्चीस वर्ष कुछ भी नहीं थे, क्योंकि उसे लग रहा था जैसे यह कल की ही बात हो, जब वह एक स्वतंत्र जीवन और विवाह के बीच दुविधा में पड़ी थी, कल ही वह दुख से उस दिन की कल्पना कर रही थी जब वह अकेले वृद्ध होगी। वह अकेली नहीं थी, और यह कानून पढ़नेवाला विद्यार्थी जो कभी उससे दूर होना नहीं चाहता था, अब उसके बिलकुल समीप था। उसने आखिर में उसे स्वीकार कर लिया था, यद्यपि कद का वह छोटा था, उसे उसका वह अत्यल्प और लोलुपता से हँसना, और उसकी बाहर को निकली हुई आँखें बिलकुल पसन्द नहीं थीं। लेकिन उसे जीवन के प्रति उसकी निर्भीकता बहुत प्रिय थी, जो कि यहाँ रह रहे सभी फ्रांसीसी पुरुषों में समान रूप से विद्यमान थी। किसी आदमी या घटना का उसकी अपेक्षाओं से कम पड़ जाने पर उसका विकल पराजय से भर जाना भी उसे बहुत भाता था। सबसे ज़्यादा उसे पसन्द था किसी के द्वारा चाहा जाना। उसने उसे अपने सतत ध्यान से निमग्न कर दिया था। उसे निरन्तर यह अनुभव करवाकर कि वह उसके लिए जी रही है, उसने उसे वास्तव में जीने का अहसास करवाया। नहीं, वह अकेली नहीं है।
बस बार-बार हॉर्न बजाते हुए अप्रकट अड़चनों के बीच से अपना रास्ता काटते हुए आगे बढ़ रही थी। लेकिन बस के अन्दर कोई हिल भी नहीं रहा था। अचानक जानीन को लगा जैसे कोई उसे घूर रहा हो, और उसने मुड़कर आइल के दूसरी तरफ उस बेंच की तरफ देखा जो उसकी बेंच से मिलती थी। यह कोई अरबी नहीं था और उसे बड़ा ताज्जुब हुआ कि उसने उसे पहले नहीं देखा। उसने फ्रांस की सहारा में स्थित मैत्री सेना की वर्दी पहनी हुई थी और अपने जुआवो1 जैसे धूप से काले हुए, सियार के जैसे लम्बे और नुकीले चेहरे पर फौजी टोपी लगा रखी थी। वह उसे अपनी तीक्ष्ण आँखों से टकटकी लगाकर, एक तरह की नाराजगी से परखे जा रहा था। वह एकदम सकुचाकर लाल हो गई और थोड़ी-सी अपने पति की तरफ खिसक गई जो अभी तक बाहर का कोहरा और हवा निहार रहा था। वह अपने ही कोट में और सिमट गई। किन्तु उसने उस फ्रांसीसी सैनिक की तरफ फिर से देखा—लम्बा और दुबला-पतला, अपने बदन से चिपके हुए कोट में इतना पतला लग रहा था जैसे कि किसी सूखे और भुरभुरे पदार्थ का बना हो, बालू और हड्डियों का एक मिश्रण। तभी उसने अपने सामने बैठे हुए अरबी लोगों के पतले हाथ और झुलसे हुए चेहरे देखे, और उसने देखा कि अपने इतने बड़े-बड़े लबादों के बावजूद वे उन बेंचों पर बड़े खुलकर बैठे हुए थे, जहाँ वह और उसका पति मुश्किल से फँस पाए थे। उसने अपने कोट के किनारे अपनी तरफ खींच लिये। हालाँकि, वह इतनी मोटी नहीं थी, बल्कि लम्बी और सुडौल थी, गुदगुदी और काम्य-पुरुषों के अपनी तरफ देखने के तरीके से वह इसे अच्छी तरह महसूस करती थी—अपने शिशु तुल्य चेहरे, शोख और सुव्यक्त आँखें लिये हुए, उस विशाल शरीर के विपरीत, जो वह जानती थी कि मन्दोत्साह और आरामपसन्द है।
नहीं, कुछ भी उसकी आशाओं के अनुकूल नहीं हुआ था। जब मारसल ने उसे अपने दौरे पर साथ ले जाना चाहा था, उसने मना कर दिया था। वह काफी दिनों से इस सफर की तैयारी कर रहा था, वस्तुत: लड़ाई के खत्म होने के बाद से ही, जब से कि कारोबार सामान्य हुआ। लड़ाई से पहले, कपड़ों के छोटे-से व्यवसाय से, जो उसने अपनी कानून की शिक्षा छोड़ देने पर अपने माता-पिता से सँभाला था, उनका रहन-सहन बुरे से कुछ अच्छा हो गया था। समुद्र-तट पर युवावस्था के वर्ष खुश हो सकते थे। लेकिन उसे ज़्यादा शारीरिक प्रयास पसन्द नहीं था, और बहुत शीघ्र उसने जानीन को समुद्र के किनारे ले जाना छोड़ दिया था। उनकी छोटी-सी कार सिर्फ इतवार को उन्हें घुमाने के लिए शहर से बाहर निकलती थी। बाकी समय में, वह अपनी आधे स्वदेशी, आधे विदेशी तोरणों की छाया में रंग-बिरंगे कपड़ों की दुकान ज़्यादा पसन्द करता था। वे लोग उस दुकान के ऊपर अरबी परदे और बार-बैस2 ‘फर्नीचर से सजे तीन कमरों में रहते थे। उनके बच्चे नहीं हुए थे। अधखुले दरवाज़े के आधे-से अँधियारे में बहुत-से साल गुज़र गए थे। गर्मी का मौसम, समुद्र का किनारा, साथ-साथ घूमना, अब तो आकाश भी उसे बहुत दूर लगता था। मारसल को अपने कारोबार के अलावा और किसी चीज़ में रुचि नहीं थी। जानीन को लगता था, उसने मारसल का सच्चा शौक खोज लिया है, जो था पैसा; और उसे यह अच्छा नहीं लगता था, बिना यह अच्छी तरह समझे कि क्यों? आखिरकार इससे उसे फायदा ही था। वह कंजूस नहीं था; बल्कि बहुत उदार, खासतौर से उसके साथ। ‘अगर मुझे कुछ हो गया’, वह कहा करता था, ‘तो भी तुम्हारा घर चलता रहेगा।’ और, सचमुच में, आकस्मिक आवश्यकताओं के लिए व्यवस्था करना बहुत ज़रूरी है। लेकिन बाकी चीज़ों की, जिनकी बिलकुल ज़रूरत नहीं होती, कहाँ व्यवस्था करे? इस बारे में, समय-समय पर वह बहुत परेशान होती थी। इस दौरान वह मारसल को हिसाब-किताब रखने में मदद कर दिया करती थी और कभी-कभी उसकी जगह दुकान पर बैठ जाया करती थी। सबसे ज़्यादा मुश्किल होती थी गर्मियों में, जबकि गर्मी से उतना ही दम घुटने लगता था जितना कि ऊबने के हलके अहसास से।
अचानक, भरी गर्मियों में लड़ाई, मारसल का सेना में बुलाया जाना, फिर निकाल दिया जाना, कपड़ों का अभाव, कारोबार बन्द हो जाना, रास्ते गर्म और निर्जन। अगर अव उसे कुछ हो जाता तो जानीन का कोई इन्तज़ाम न था। इसीलिए जबसे बाज़ार में कपड़े आए थे, मारसल ऊपरी पठारों के, और दक्षिण के शहरों में जाकर बिना किसी बिचौलिए की मदद के अरबी व्यापारियों को खुद माल बेचना चाहता था। वह उसे साथ ले जाना चाहता था। वह जानती थी कि जाना-आना बहुत मुश्किल है, उसे साँस लेने में दिक्कत हो रही थी। उसकी इच्छा घर में ठहरने की थी। लेकिन मारसल ने ज़िद की थी और जानीन ने मान लिया था, क्योंकि मना करने के लिए बहुत अन्तर्बल की ज़रूरत होती। इस प्रकार ये लोग वहाँ थे और, सचमुच में, जैसी उसने कल्पना की थी, उसके सदृश्य वहाँ कुछ भी न था। उसे गर्मी का भय था, मक्खियों के झुंडों का, गन्दे सौंफ की शराब की बदबू से भरे होटलों का। उसने ठंड के बारे में नहीं सोचा था, न तीखी-तेज़ हवाओं के बारे में, न इन अर्द्ध-ध्रुवीय बर्फ के कूड़े-कचरे से भरे पठारों के बारे में। उसने खजूर के वृक्षों और नरम बालू का भी सपना देखा था। अब वह देख रही थी कि मरुधर यह सब नहीं था, किन्तु सिर्फ पत्थर-ही-पत्थर, चारों तरफ, आकाश में भी सिर्फ वही भुरभुरी और ठंडी पत्थरों की धूल, जैसे कि ज़मीन में जहाँ पत्थरों के बीच नील के सूखे पौधे उग रहे थे।
बस अचानक रुक गई। ड्राइवर ने उस भाषा में चिल्लाकर—जो वह पूरी ज़िन्दगी सुनती रही, लेकिन बिना समझे—कुछ कहा।
“क्या बात है?” मारसल ने पूछा। इस बार ड्राइवर ने, फ्रांसीसी भाषा में कहा कि कारब्यूरेटर में बालू फँस गई होगी, और मारसल ने फिर एक बार इस देश को कोसा। ड्राइवर तबीयत से हँसा और बोला कि यह कोई खास बात नहीं थी, और कि वह अभी कारब्यूरेटर साफ कर देगा और फिर सब चल पड़ेंगे। उसने दरवाज़ा खोला, ठंडी हवा एकदम अन्दर आई और बालू के हज़ारों कण उनके चेहरों पर बड़े वेग से टकराए। सारे अरबी लोगों ने अपने चेहरे, अपने लबादों में छुपा लिये और अपने आप में सिमटकर बैठ गए। “दरवाज़ा बन्द करो,” मारसल ज़ोर से चिल्लाया। ड्राइवर हँसते-हँसते दरवाज़े तक आया।
उसने आराम से डैशबोर्ड3 में से कुछ औजार निकाले। फिर कोहरे में बहुत छोटा दिखता हुआ, बस के सामने की तरफ बिना दरवाज़ा बन्द किए दुबारा गायब हो गया। मारसल ने आह भरी। “ये पक्की बात है कि इसने ज़िन्दगी में कभी गाड़ी की मशीन देखी भी नहीं होगी।”
“छोड़ो भी!” जानीन ने कहा। सहसा वह चौंक पड़ा। सड़क के किनारे मेंड़ पर बस के बहुत निकट, कपड़ों से ढकी हुई कुछ आकृतियाँ निश्चल खड़ी थीं। उनके लबादों के हुडों के नीचे और वायल की अनगिनत तहों के पीछे, सिर्फ उनकी आँखें दिख रही थीं। एकदम चुप, पता नहीं कहाँ से आकर वे मुसाफिरों को देख रहे थे। “गड़रिये,” मारसल ने कहा।
बस के अन्दर पूर्ण शान्ति थी। सभी मुसाफिर सिर झुकाकर, लग रहा था, इन अनन्त पठारों पर निर्बाध चल रही तेज़ हवा की आवाज़ सुन रहे थे। अचानक जानीन का ध्यान सामान के करीब-करीब न होने पर गया। रेल के अन्तिम स्टेशन पर ड्राइवर ने उनका ट्रंक और कुछ पोटले ऊपर छत पर चढ़ाए थे। बस के अन्दर, सामान आने में सिर्फ गाँठदार छड़ियाँ थीं और साधारण थैले। स्पष्टत: ये दक्षिण के लोग खाली हाथ सफर करते थे।
लेकिन ड्राइवर फिर लौट आया था, अभी तक चुस्त। उसकी सिर्फ आँखें ही हँस रही थीं उन कपड़ों में से, जिनसे उसने भी अपना चेहरा ढक लिया था। उसने घोषणा की कि अब हम चलनेवाले हैं। उसने दरवाज़ा बन्द किया, हवा की आवाज़ बन्द हुई और अब शीशों के ऊपर बालू की बौछार की आवाज़ अच्छी तरह सुनाई देने लगी। इंजन घरघराया फिर बन्द हो गया। बड़ी देर तक स्टार्टर के द्वारा बुलाए जाने पर आखिर में वह आया और ड्राइवर ने गति-वर्धक यंत्र पर बार-बार पैर मारकर उसे पकड़ लिया। ज़ोर के धक्के के साथ बस फिर से रवाना हुई। गड़रियों के जीर्ण-शीर्ण समूह में से, जो अभी तक निश्चल था, एक हाथ उठा, फिर कोहरे में उनके पीछे लुप्त हो गया। तत्काल ही गाड़ी सड़क पर और ज़्यादा उछलने लगी। बुरी तरह हिलते हुए, अरबी लोग, अविराम झूले जा रहे थे। जानीन अपने आपको बहुत निद्राग्रस्त अनुभव करने लगी, तभी एक छोटा-सा पीला डिब्बा उसके सामने आ पड़ा, मीठी, चूसनेवाली गोलियों से भरा हुआ। वह शाकाल—सिपाही उसकी तरफ मुस्करा रहा था। वह हिचकिचाई, एक गोली ली और उसका शुक्रिया अदा किया। उस सिपाही ने वह डिब्बा जेब में डाला और उसके साथ ही अपनी मुस्कान भी निगल गया। इस समय वह एकदम अपने सामने सड़क पर गौर से देख रहा था। जानीन ने मुड़कर मारसल की तरफ देखा, और उसे सिर्फ उसकी गर्दन का ठोस, पीछे का हिस्सा दिखाई दिया। वह शीशों में से, टूटती मेंड़ों पर चढ़ता हुआ घना कोहरा देख रहा था।
वे लोग बहुत देर से लगातार सफर कर रहे थे और थकान के कारण बस के अन्दर किसी में जान नहीं बची थी, तभी बाहर से शोरगुल सुनाई दिया। बच्चे लबादा पहने, लट्टू की तरह घूमते हुए, कूदते तालियाँ बजाते हुए, बस के चारों तरफ दौड़ रहे थे। बस अब लम्बी-सी गली में जा रही थी, जिसके दोनों तरफ नीचे-नीचे मकान थे; हम नखलिस्तान में घुस गए थे। हवा अभी तक तेज़ थी लेकिन दीवारें बालू के उन कणों को विच्छिन्न कर रही थीं जो अब प्रकाश को रोकने में असमर्थ थे। आकाश फिर भी घिरा ही रहा। उस चीख-चिल्लाहट के बीच, ब्रेकों की घोर कर्कश ध्वनि के साथ बस एक गन्दी खिड़कियोंवाले होटल के कच्ची ईंटों से बने तोरणवृत्तों के सामने रुक गई। जानीन उतरी और गली में पहुँचकर उसे चक्कर आ गया। उसने मकानों के ऊपर एक पीली और पतली-सी मीनार देखी। उसकी बाईं तरफ, उस नखलिस्तान के पहले-पहले खजूर के पेड़ लगे हुए थे और उसका मन किया कि उनके पास चली लाए। लेकिन, हालाँकि दोपहर के बारह बजनेवाले थे, ठंड अभी काफी थी; हवा चलते ही वह काँपने लगी। वह मारसल की तरफ लौट आई, और देखा वह सिपाही उसकी तरफ आ रहा था। वह उसकी मुस्कराहट या सलूट का इन्तज़ार करती रही। वह उसकी तरफ बिना देखे आगे बढ़ गया और गायब हो गया। मारसल छत के ऊपर रखे अपने कपड़ों के ट्रंक को, एक काले झोले को उतारने की कोशिश कर रहा था। यह आसान काम नहीं था। सिर्फ अकेला ड्राइवर सामान का ध्यान रख रहा था और अब वह बस रोक चुका था, चारों तरफ लबादा पहने भागते हुए बच्चों को डाँटने के लिए बस की छत पर खड़ा था। सब तरफ से उन चेहरों से घिरी हुई, जो लगता था, सिर्फ हड्डियों और चमड़े से बने हैं, गले से निकली हुई आवाज़ों में दबकर जानीन को अचानक थकान महसूस हुई। उसने मारसल से, जो बड़ी व्यग्रता से ड्राइवर को बुलाए जा रहा था, कहा, “मैं अन्दर जा रही हूँ।”
वह होटल के अन्दर गई। उसका मालिक, एक दुबला-पतला, मितभाषी फ्रांसीसी उसके पास आया। वह उसे पहली मंज़िल पर ले गया, एक बालकनी में जहाँ से नीचे के मार्ग का दृश्य दिखता था, एक कमरे में, जहाँ लगता था लोहे का सिर्फ एक ही पलंग था, सफेद इनेमल रंग की हुई एक कुर्सी, बिना पर्देवाली कपड़े रखने की एक अलमारी और, सरकंडों के स्क्रीन की ओट में एक गुसलखाना, जिसमें हाथ धोने की चिलमची में बारीक बलुई मिट्टी की तह जमी हुई थी। जब होटल के मालिक ने दरवाज़ा बन्द कर दिया, जानीन को ठंड लगने लगी, जो ऐसा लग रहा था सफेदी की हुई उन खाली दीवारों में से आ रही हो। वह समझ नहीं पा रही थी कि कहाँ अपना बैग रखे और कहाँ खुद बैठे। लगता था खड़े-खड़े ही सोना या आराम करना पड़ेगा और दोनों ही अवस्था में ठंड से ठिठुरना पड़ेगा। वह खड़ी रही, बैग हाथ में पकड़े, छत के पास एक मोखे-से को, जो आसमान में खुलता था, एकटक देखते हुए। वह इन्तज़ार कर रही थी, लेकिन यह नहीं जानती थी कि किसका। उसे सिर्फ अपने अकेलेपन का ध्यान था, और उस शीत का, जो उसमें घर कर रहा था, और अपने हृदय के ऊपर एक भारी बोझ का। वास्तव में वह खयालों में खोई थी, गली से ऊपर आते हुए शोरगुल के प्रति, और मारसल की आवाज़ों से हुए शोर के प्रति, अपने कान करीब-करीब बन्द करके। उसके विपरीत, वह मोखे में से आते हुए, नदी के बहते पानी के उस कलकल-नाद की ओर, जो अब उसे बहुत पास लगते हुए खजूर के वृक्षों में तेज़ हवा चलने से पैदा हो रहा था, ज़्यादा सचेत थी। फिर लगा जैसे हवा काफी तेज़ हो गई हो, पानी की मन्द ध्वनि, लहरों के कल्लोल में परिणत हो गई। उसने कल्पना की—दीवार के पीछे, लम्बे और लचीले खजूर के पेड़ों का एक सागर तूफान में झाग से ढककर सफेद हो गया है। उसकी कल्पना से मिलता-जुलता वास्तविकता में कुछ भी नहीं था, लेकिन इन अप्रत्यक्ष तरंगों से उसकी थकी हुईं आँखें ताज़ा हो गई थीं। वह एकदम सीधी खड़ी थी, भारीपन से, बाँहें कुछ झुकी हुई और मुड़ी हुईं, भारी टाँगों से ठंड ऊपर को चढ़ती हुई। वह ऊँचे और नम्य खजूर वृक्षों की कल्पना करती रही और उन दिनों की, जब वह नादान बच्ची थी।
हाथ-मुँह धोने के बाद वे लोग नीचे खाने के कमरे में गए। खाली दीवारों पर किसी ने गुलाबी और बैंजनी मुरब्बे में डुबोकर ऊँट और खजूर के पेड़ बना दिए थे। मेहराबदार खिड़कियों में से बहुत कम रोशनी अन्दर आ रही थी। मारसल होटल के मैनेजर से व्यापारियों के बारे में बात कर रहा था। फिर एक अधेड़ अरब ने, जिसने कि अपने कोट पर एक फौज़ी तमगा लगा रखा था, उन्हें खाना दिया। मारसल विचारों में डूबा हुआ था और उसने अपनी ब्रेड के टुकड़े-टुकड़े कर लिये थे। उसने अपनी पत्नी को वह पानी पीने से रोक दिया—“यह उबाला हुआ नहीं है, मदिरा ले लो।” जानीन को यह अच्छा नहीं लग रहा था, क्योंकि मदिरा से उसे नींद आने लगती थी। और फिर वहाँ की भोजन-सूची में सूअर का गोश्त था। “कुरान में ये खाना निषिद्ध है।” “लेकिन कुरान को यह नहीं मालूम था कि भली प्रकार पकाए हुए सूअर के गोश्त से कोई रोग नहीं होता। हम लोग जानते हैं खाना बनाना। तुम क्या सोच रही हो?” जानीन कुछ नहीं सोच रही थी, या हो सकता है, रसोइयों की मुल्लाओं पर इस विजय के बारे में सोच रही हो। लेकिन उसे जल्दी करनी पड़ी। वे लोग अगले दिन सुबह, दक्षिण की ही तरफ फिर जानेवाले थे—दोपहर में सब खास-खास व्यापारियों से मिलना ज़रूरी था। मारसल ने उस अधेड़ अरब को जल्दी से कॉफी लाने के लिए कहा। उसने सिर हिलाकर, बिना मुस्कराए, बात सुनी और धीरे-धीरे चला गया। “सुबह के वक्त आहिस्ते से, शाम को ज़्यादा जल्दी नहीं,” मारसल ने हँसते-हँसते कहा। कॉफी आते ही खत्म हो गई। उन लोगों ने उसे पीने में मुश्किल से ही कुछ समय लगाया होगा, और फिर वे बाहर ठंडी और धूल-भरी गली में निकल गए। मारसल ने एक युवा अरब को ट्रंक उठाने के लिए आवाज़ दी, लेकिन सिद्धान्तत: पैसों के बारे में पूछा। उसकी धारणा जो उसने जानीन को एक बार और बतलाई थी, इस अस्पष्ट सिद्धान्त पर आधारित थी कि ये लोग हमेशा ज़रूरत से दुगुना माँगते हैं, जिससे कि उन्हें चौथाई हिस्सा मिल सके। जानीन, अनमनी-सी दोनों कुलियों के पीछे चलने लगी। उसने अपने बड़े कोट के नीचे एक ऊनी वस्त्र पहन लिया था, वह कम जगह लेना चाहती थी। सूअर का गोश्त चाहे अच्छी तरह पका हुआ था, और वह थोड़ी-सी मदिरा भी जो उसने पी थी, उसमें कुछ आलस भर रहे थे।
वे लोग एक छोटे-से सार्वजनिक उद्यान के किनारे चल रहे थे, जिसमें बुरादेवाले पेड़ लग रहे थे। रास्ते में अरबी लोग मिले अपने लबादों में लिपटे हुए, जो लगता था उन्हें देख नहीं पा रहे हैं लेकिन रास्ता दे देते थे। चाहे उन्होंने फटे कपड़े ही पहने थे, जानीन ने उनमें वह गर्व देखा जो उसके शहर के अरबों में नहीं मिलता था। जानीन ट्रंक के पीछे-पीछे चले जा रही थी, जो भीड़ में उसके लिए रास्ता बना रहा था। वे गेरुई मिट्टी के बने एक परकोटे के दरवाज़े से निकलकर एक छोटे-से चौक में पहुँचे जहाँ वही खनिज-पदार्थवाले वृक्ष लगे हुए थे, और दूसरी तरफ किनारे-किनारे तोरण और दुकानें थीं। लेकिन वे उसी चौक में, एक तोप के गोले की शक्ल में बने हुए चिन्ह के सामने रुक गए जोकि नीले चाक के रंग से रँगा हुआ था। उसके अन्दर एक अकेले कमरे में, जोकि अन्दर खुलनेवाले दरवाज़े की रोशनी से रोशन था, लकड़ी के एक चमकदार तख्ते के पीछे एक बड़ी उमर का अरब आदमी खड़ा था, जिनकी मूँछें सफेद थीं। वह उस समय केतली ऊपर-नीचे कर-करके चाय डाल रहा था, तीन छोटे-छोटे बहुरंगे गिलासों में। इससे पहले कि उस दुकान के अँधेरे में वे कुछ और देख पाते, पोदीने की चाय की ताजा खुशबू ने मारसल और जानीन का देहरी पर ही स्वागत किया। मारसल ने प्रवेश-द्वार—और उसमें लटके काँसे की केतली, प्याले, ट्रे आदि और पोस्टकार्ड वगैरह की माला—को मुश्किल से लाँघा ही था कि अपने आपको काउंटर के एकदम सामने पाया। जानीन प्रवेश-द्वार में ही खड़ी रही। वह थोड़ी-सी हट गई जिससे कि रोशनी न रुके। इसी समय उसने देखा अँधेरे में, उस वृद्ध व्यापारी के पीछे दो अरब, जो उन्हें देखकर मुस्करा रहे थे, भरी हुई बोरियों पर बैठे हैं, जो दुकान के अन्दर के हिस्से में बड़ी संख्या में रखी थीं। लाल और काले कालीन, कशीदे की हुई लटकन जो दीवार पर लगी हुई थी, ज़मीन पर सुगन्धित बीजों से भरी सदूकें और बोरियाँ फैली हुई थीं। काउंटर पर चमकती हुई पीतल की एक तराजू और पुरानी नाप के एक डंडे के पास, जिसके आँकड़े मिट चुके थे। मीठी रोटियाँ चिनी हुई थीं जिनमें से एक अपने मोटे-नीले कागज़ में से निकाल ली गई थी और ऊपर से काटी हुई थी। ऊन और मसालों की खुशबू, जो वहाँ फैली हुई थी, चाय की खुशबू के बाद आई, जब उस वृद्ध व्यापारी ने केतली काउंटर पर रखकर उन्हें सलाम अर्ज़ की।
मारसल बहुत जल्दी बोल रहा था, उस धीमी आवाज़ में जो वह व्यावसायिक बातचीत के दौरान उपयोग करता था। फिर उसने ट्रंक खोला, ऊन के और रेशमी रूमाल दिखाए, उस वृद्ध व्यापारी के सामने अपना माल निकालने के लिए, तराजू और गज सरका दिए। वह उत्तेजित हो रहा था, आवाज़ ऊँची कर रहा था, अजीब ढंग से हँस रहा था, वह उस महिला की तरह कर रहा था जो किसी पर गहरा प्रभाव डालना चाह रही हो, लेकिन जिसे अपने आप में विश्वास न हो। अब वह अपने हाथ फैलाकर खरीदने और बेचने का भाव व्यक्त कर रहा था। उस वृद्ध ने सिर हिलाया और चाय की ट्रे पीछे खड़े उन दोनों अरबों की तरफ बढ़ा दी और चन्द शब्दों में कुछ कहा, जिससे मारसल निरुत्साह हुआ-सा दिखा। उसने अपना माल समेटा और ट्रंक में भर लिया फिर माथे पर से बिना आया पसीना पोंछा। उसने कुली को आवाज़ दी और तोरणों की ओर चल पड़ा। पहली दुकान में, हालाँकि व्यापारी ने पहले वही सातवें आसमान से बात की, लेकिन बाद में वे लोग कुछ खुश दिखाई देने लगे। “ये लोग अपने आपको खुदा समझते हैं,” मारसल ने कहा, “लेकिन उन्हें भी आगे बेचना है। ज़िन्दगी सभी के लिए सख्त है।”
जानीन बिना कुछ बोले पीछे चलती जा रही थी। हवा अब करीब-करीब रुक गई थी। आसमान टुकड़ों में दिखने लगा था। एक ठंडी, चमकदार रोशनी उन नीले, गहरे सूराखों में से आने लगी जो बादलों को चीरकर बन गए थे। अब वे चौक पीछे छोड़ चुके थे। वे सँकरी गलियों में, कच्ची दीवारों के सहारे चल रहे थे, जिस पर दिसम्बर के सड़े हुए गुलाब लटक रहे थे, या बीच-बीच में कोई सूखा और कीड़ोंवाला अनार। मिट्टी की खुशबू, कॉफी की, लकड़ी का धुआँ, पत्थर की गन्ध, बकरियों की खुशबू इस इलाके में परिव्याप्त थी। दुकानें, दीवारों को ही गहरी करके बनाई हुई एक-दूसरे से दूर-दूर थीं; जानीन को अपनी टाँगें अब भारी लगने लगीं। लेकिन उसका पति अब धीरे-धीरे प्रसन्नमुख होता जा रहा था, अब उसका माल बिकना शुरू हो गया था और वह अब स्नेहपूर्ण हो गया था, जानीन को प्यार से बुलाने लगा था, कह रहा था, उनका सफर एकदम बेकार तो नहीं गया। “हाँ, और क्या” जानीन ने कहा, “सीधे इन्हीं लोगों से बात करना हमेशा अच्छा रहता है।”
वे लोग एक और रास्ते से बाज़ार के बीच में पहुँचे। खासी दोपहर हो चली थी, आसमान अब करीब-करीब खुल गया था। वे लोग वहाँ रुक गए। मारसल अपने हाथ मलने लगा, वह उनके सामने रखे ट्रंक को बड़े प्यार से देख रहा था। “देखो,” जानीन ने कहा! उस चौक के दूसरे कोने से एक लम्बा अरव आ रहा था, पतला, शक्तिमान, एक आसमानी लबादे में आवृत्त, पीले-मुलायम चमड़े के जूते पहने हुए, हाथों में दस्ताने पहने हुए और धूप में तपे हुए व शुकवत् चेहरे को गर्व से ऊपर उठाए हुए। वह उन फ्रांसीसी सैनिकों से जो देशीय मामलों के अधिकारी थे और जिन्हें जानीन जब-तब प्रशंसा से देखा करती थी, सिर्फ अपने शैश4 से अलग पहचाना जा सकता था, जिसे उसने पहन रखा था। वह समान गति से उनकी तरफ आ रहा था, लेकिन धीरे-धीरे अपने दस्ताने उतारते हुए, उनके समूह से परे, कहीं दूर देखता हुआ प्रतीत हो रहा था। “ये देखो,” मारसल ने कन्धे उचकाते हुए कहा, “उनमें से एक, जो अपने आपको जनरल समझे हुए है।” हाँ, वैसे तो यहाँ सभी में दम्भ था, लेकिन यह कुछ ज़्यादा ही दिखा रहा था। यद्यपि चौक उनके चारों तरफ खाली पड़ा था, वह सीधा ट्रंक की तरफ बढ़ रहा था, बिना उसे देखे, बिना उन लोगों की तरफ देखे। फिर वह दूरी जो उन्हें अलग किए हुए थी, जल्दी से कम हो गई, और अरब उनके निकट आ गया। तब एकदम मारसल ने सन्दूक का हैंडल पकड़कर उसे पीछे खींच लिया। वह अरब ऐसे सीधा निकल गया जैसे कुछ देखा ही न हो और उसी सम गीत से चहारदीवारी की ओर अग्रसर होता रहा। जानीन ने अपने पति की तरफ देखा, वह नतशीर्ष दिख रहा था। “ये लोग समझते हैं, अब कुछ भी कर सकते हैं,” उसने कहा। जानीन ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। उसे इस अरब का यह बुद्धिहीन अहंकार बहुत बुरा लग रहा था और वह अचानक विक्षुब्ध हो गई। वह वहाँ से चले जाना चाहती थी, उसका ध्यान उसके फ्लैट में था। होटल में उस ठिठुरते कमरे में लौटने का खयाल उसे बहुत निरुत्साहित कर रहा था। अचानक उसे ध्यान आया कि मैनेजर ने उसे किले की छत पर जाने की सलाह दी थी, जहाँ से मरुस्थल अच्छी तरह देखा जा सकता था। उसने यह मारसल को बताया और यह भी कि वे ट्रंक होटल में छोड़ सकते है। लेकिन वह थका हुआ था और खाने से पहले कुछ सो लेना चाहता था। “चलो न,” जानीन ने कहा। अचानक मारसल ने उसे बड़े ध्यान से देखा। “ठीक है मेरी रानी!” उसने कहा।
वह होटल के सामने गली में, उसका इन्तज़ार करने लगी। सफेद कपड़े पहने हुए लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। उनमें एक भी महिला नहीं दिख रही थी और जानीन को लगा इतने सारे पुरुष एक जगह उसने पहले कभी नहीं देखे थे! हालाँकि उनमें से एक भी उसकी तरफ नहीं देख रहा था। फिर भी उनमें से कुछ, बिना यह ज़ाहिर करते हुए कि उसे देख रहे हैं, धीरे-धीरे उसकी तरफ वह पतला और धूप से तपा हुआ चेहरा घुमाते थे, जो जानीन की निगाह में उन सबका एक-सा लगता था, उस बसवाले फ्रांसीसी सैनिक का जैसा, या दस्ताने पहने हुए अरब का जैसा, वो चेहरा जो एक साथ ही चालाक भी था और अभिमानी भी। उस विदेशी महिला की तरफ वे मुड़-मुड़कर देख रहे थे, लेकिन उसे नहीं देख पा रहे थे। तब धीरे-से, चुपचाप उसके चारों तरफ चक्कर लगा लेते थे। उसके टखने सूजे हुए थे। उसकी बेचैनी, और वहाँ से चले जाने की ज़रूरत बढ़ गई थी। “मैं यहाँ क्यों आई?” लेकिन तब तक मारसल वापस नीचे आ गया था।
जब वे किले की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, दोपहर के पाँच बजे थे। हवा चलनी एकदम बन्द हो गई थी। आसमान बिलकुल साफ, अब एक हलके नीले रंग का हो गया था। ठंड और खुश्क हो गई थी, और उनके गालों में लग रही थी। सीढ़ियों के बीच में एक वृद्ध अरब ने, जो दीवार के सहारे खड़ा हुआ था, उनसे पूछा—अगर उन्हें संदर्शन की ज़रूरत है, लेकिन अपनी जगह से हिला नहीं, जैसे कि उसे उनके मना करने का पहले से ही पता हो। काफी समतल चौकियों के बावजूद सीढ़ियाँ बहुत लम्बी और सीधी थीं। वे जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जा रहे थे, अन्तरिक्ष और विस्तृत होता जा रहा था और वे ऐसे प्रकाश में ऊपर उठ गए जो लगातार बढ़ता जा रहा था, ठंडा और सूखा होता जा रहा था, और जहाँ मरु-उद्यान की हर आवाज़ एक सुस्पष्ट निर्मलता के साथ उनके पास पहुँच रही थी। ज्योतिर्मय हवा उनके चारों तरफ दोलायमान हो रही थी, ऐसे प्रदोलन के साथ जोकि उनकी प्रगति के साथ-साथ बढ़ता जा रहा था, जैसे कि उनके चढ़ने से प्रकाश के क्रिस्टल में विस्तृत होती हुई एक ध्वनि-तरंग उद्भूत हो रही हो। और जब वे छत पर पहुँचे, उनकी दृष्टि, अचानक खजूर के पेड़ों के समूह से परे, विशाल क्षितिज में खो गई। जानीन को ऐसा लगा जैसे सम्पूर्ण आकाश एक अकेले लघु और तीक्ष्ण स्वर से गूँज रहा हो और जिसका अनुनाद उसके चारों तरफ रिक्त स्थान को भर रहा हो, फिर अचानक शान्त हो गया हो—उसे उस अपरिमित विस्तरण के समक्ष एकदम निस्तब्ध छोड़ देने के लिए।
वास्तव में उसकी दृष्टि पूर्व से पश्चिम तक धीरे-धीरे स्थानान्तरित हुई, बिना एक भी बाधा का सामना किए, एक परिपूर्ण वृत्त के किनारे-किनारे। उसकी आँखों के नीचे, अरबी शहर की नीली और सफेद छतें एक-दूसरे को आच्छादित कर रही थीं, जिन पर जगह-जगह धूप में सूखती हुई लाल मिर्च गहरे लाल दाग की तरह दिखती थीं। एक भी व्यक्ति नहीं दिख रहा था, लेकिन अन्दर के आँगन से, कॉफी भुनने की महक के साथ-साथ हँसने की आवाज़ें, कूटने की अग्राह्य आवाज़ें ऊपर उठ रही थीं। कुछ दूरी पर, चार असमान चौकोर हिस्सों में, मिट्टी की दीवारों से बँटे हुए खजूर के पेड़ों के उपवन के शिखर पर चलती हुई पवन सरसरा रही थी, जोकि ऊपर छत पर बिलकुल महसूस नहीं हो रही थी। कुछ और दूरी पर, क्षितिज के निकट शुरू होता था गेरुए और भूरे रंग का प्रांत पत्थरों का, जहाँ जीवन का कोई निशान मात्र भी न था। नखलिस्तान से कुछ ही दूरी पर, बरसाती नाले के पास, पश्चिम की तरफ, खजूर के उपवन के किनारे, बड़े-बड़े काले तम्बू दिख रहे थे। चारों तरफ, निश्चल साँडनियों का एक झुंड, इतनी दूर से एकदम छोटा दिख रहा था, भूरी ज़मीन के ऊपर काले अक्षर बना रहा था, जिनका उद्वाचन करना ज़रूरी था। मरुस्थल के ऊपर नीरवता इसी तरह व्याप्त थी, जैसे अन्तरिक्ष।
जानीन, अपने पूरे बदन को मुँडेर के सहारे लगाए, अवाक् खड़ी रही, अपने आपको उस शून्य से वियुक्त करने में असमर्थ जो उसके सामने खुल गया था। उसके समीप मारसल अधीर हो रहा था। उसे ठंड लग रही थी और वह नीचे जाना चाह रहा था। यहाँ आखिर देखने को क्या था? लेकिन जानीन अपनी आँखें क्षितिज से हटा नहीं पा रही थी। वहाँ, और दक्षिण दिशा में, उस स्थान पर जहाँ आकाश और पृथ्वी एक स्पष्ट रेखा में मिल रहे थे, वहीं, उसे लगा अचानक, कोई चीज़ उसकी प्रतीक्षा कर रही है जिसके प्रति वह अब तक अनभिज्ञ थी, लेकिन जिसकी कमी वह हर पल महसूस करती थी। बढ़ती हुई दोपहर में दीप्ति धीरे-धीरे फैल रही थी, पारदर्शी से वह अब जलसदृश हो चली थी। साथ-ही-साथ, एक औरत के हृदय में, जो वहाँ सिर्फ इत्तिफाक़ से पहुँच गई थी, एक गाँठ जो वर्षों ने, आदत ने, और उकताहट ने बाँध दी थी, धीरे-धीरे ढीली हो रही थी। वह बंजारों के डेरे को देख रही थी। उसने उन आदमियों को जो वहाँ रहते थे, कभी देखा तक नहीं था। उन काले तम्बुओं में कोई किसी तरह की हलचल नहीं थी। वह सिर्फ उनके बारे में सोच रही थी, जिनके अस्तित्व के बारे में वह उस दिन से पहले मुश्किल से ही अवगत थी। बेघर-बार, संसार से विमुक्त, वे मुट्ठी-भर लोग भटक रहे थे उस विशाल क्षेत्र में, जो वह अपनी आँखों से देख पा रही थी, और जो और भी विशाल अन्तरिक्ष का सिर्फ एक नामालूम अंश था, जिसका वृत्ताकार विस्तार, दक्षिण की ओर सैकड़ों किलोमीटर दूर जाकर खत्म होता था, वहाँ, जहाँ से कि प्रथम नदी अरण्य को अन्तत: सींचती थी। हमेशा से इस असीमित ज़मीन के सूखे भू-भाग पर, हड्डियों तक सूखे हुए, कुछ लोग बड़े कष्ट से अविराम चलते रहते थे, जिनके पास होता कुछ भी न था लेकिन किसी की सेवा नहीं करते थे, एक अनोखे साम्राज्य के दुखी और स्वतंत्र हाकिम। जानीन नहीं जानती थी कि क्यों यह विचार उसे एक इतनी मीठी और व्यापक पीड़ा से भर रहा है, कि उसकी आँखें बन्द हो गईं। वह सिर्फ इतना जानती थी कि यह राज्य चिरकाल से उसे प्रतिज्ञात था और, फिर भी कभी उसे नहीं मिल पाएगा, दुबारा कभी नहीं, सिवाय सम्भवत: इस क्षणभंगुर पल-भर के लिए, जब उसने अपनी आँखें उस अचानक अचल हुए आकाश पर और उसकी स्थिर ज्योति के प्रवाह पर खोलीं, जबकि वे आवाज़ें जो उस अरबी शहर से आ रही थीं, सहसा शान्त हो गईं। उसे लगा कि जैसे संसार का कालचक्र अब रुकने जा रहा है और जैसे कि इस क्षण के बाद से न कोई वृद्ध होगा, न मरेगा। सभी स्थानों में, उस क्षण से, जीवन-क्रम स्थगित हो गया था—सिवाय उसके हृदय के जहाँ, उसी समय, कोई दर्द और विस्मय से रो रहा था।
लेकिन दीप्ति गतिमान हो गई। सूर्य, स्पष्ट और तापरहित पश्चिम दिशा की तरफ छिपने लगा जो कुछ सिन्दूरी हो गई थी, जबकि एक भूरी लहर पूर्व में अभिव्यक्त हुई, उस विशाल विस्तृति में धीरे-धीरे बिखरने के लिए तैयार। एक पहला कुत्ता चिल्लाया और उसकी दूरस्थ चिल्लाहट हवा में ऊपर उठी, जो अब और ठंडी हो गई थी। जानीन ने अब देखा कि उसके दाँत बज रहे हैं। “हम मर रहे हैं,” मारसल ने कहा, “तुम बेवकूफ हो। चलो वापस चलें।” लेकिन उसने जानीन का हाथ बड़े बेढंगेपने से पकड़ा। इस समय विनेय, वह मुँडेर की तरफ से मुड़ी और उसके पीछे-पीछे चल पड़ी। सीढ़ियों में निश्चल खड़े वृद्ध अरब ने उन्हें शहर की तरफ जाते देखा। वह बिना किसी की तरफ देखे चल रही थी, एक गहन और अप्रत्याशित थकान से दबी हुई, किसी तरह अपने बदन को सरका रही थी, जिसका भार अब उसे असहनीय लग रहा था। उसका आत्मोत्कर्ष अब खत्म हो चुका था। इस समय वह अपने आपको बहुत ज़्यादा लम्बा महसूस कर रही थी, बहुत स्थूल और अत्यधिक सफेद उस दुनिया के लिए जिसमें वह अभी-अभी प्रविष्ट हुई थी। एक शिशु, कोई युवा लड़की, रूखा आदमी, लुका-छिपा सियार ही सिर्फ वे प्राणी थे जो चुपचाप उस ज़मीन पर कदम रख सकते थे। वहाँ अब के बाद वह क्या कर सकेगी, सिवाय अपने आपको धकेलने के, नींद तक, मृत्यु तक?
वस्तुत: वह अपने आपको रेस्तराँ तक ले गई, उस पति के साथ जो अचानक एकदम चुप हो गया था, या अपनी थकान व्यक्त कर रहा था, जबकि वह खुद निर्बलता से उस जुकाम से संघर्ष कर रही थी जिसकी वजह से उसे बुखार चढ़ रहा था। उसने किसी तरह अपने आपको अपने पलंग तक धकेला, जहाँ मारसल भी शीघ्र उसके पास आ गया और बिना एक शब्द कहे, बिना कुछ पूछे, बत्ती बन्द करके तत्काल सो गया। कमरा बर्फ बना हुआ था। जानीन को ठंड बढ़ती हुई लगी, उसका बुखार भी तेज़ हो गया था। उसे साँस लेने में परेशानी हो रही थी, उसका रक्त बदन में दौड़ रहा था, बिना उसे कोई ताप दिए, उसके अन्दर एक तरह का भय घर करने लगा। उसने करवट ली, लोहे का पुराना पलंग उसके भार से चरमराया। नहीं, वह बीमार पड़ना नहीं चाहती थी। उसके पति को नींद आ चुकी थी, उसे भी सो जाना चाहिए, यह आवश्यक था। शहर की दबी हुई आवाज़ें खिड़की की दरार में से उस तक पहुँच रही थीं। मूरी कॉफी-हाउस के पुराने फोनोग्राफ, धुनें मिनिमना रहे थे जो उसे थोड़ी-बहुत समझ में आ रही थीं, जिसकी आवाज़ें उस तक धीरे-धीरे हिलती हुई एक भीड़ के ऊपर होकर पहुँच रही थीं। सोना ज़रूरी था। लेकिन वह काले तम्बू गिन रही थी; उसकी पलकों के पीछे निश्चल ऊँट चरागाह में घूम रहे थे; उसके अन्दर एक गहन अकेलापन विचलित हो रहा था। हाँ, वह यहाँ क्यों आई थी? इसी प्रश्न पर उसे नींद आ गई।
थोड़ी देर बाद वह उठ गई। उसके आसपास निस्तब्धता एकदम परिपूर्ण थी। लेकिन शहर की सरहद पर कर्कश कुत्ते नीरव रात्रि में भौंक रहे थे। जानीन को कँपकँपी आई। उसने फिर एक करवट ली, अपने बदन से सटे अपने पति का मज़बूत कन्धा अनुभव किया और, अचानक आधी नींद में, उससे चिपक गई। वह बिना उसमें डूबे हुए, नींद की सतह पर बह रही थी, इस कन्धे को एक अचेत अधीरता से पकड़े हुए, जैसे यह उसका सुरक्षित तट हो। वह बोल रही थी, लेकिन उसके मुख से कोई आवाज़ नहीं निकल रही थी। वह बोल रही थी, लेकिन शायद खुद भी मुश्किल से ही अपने आपको सुन पा रही थी। वह सिर्फ मारसल की गरमाई ही महसूस कर पा रही थी। पिछले बीस सालों से भी ज़्यादा, हर रात को, इसी तरह, उसकी गरमाई में लिपटे, वे दोनों हमेशा, चाहे बीमार हों, सफर कर रहे हों, जैसे आजकल...। आखिर वह घर में अकेली करती भी क्या? कोई बच्चा नहीं! क्या यही कमी उसे अखरती रहती थी? वह ठीक से नहीं जानती थी। वह मारसल की बात मानती थी, बस, इस बात से सन्तुष्ट कि किसी को उसकी ज़रूरत महसूस होती है। मारसल उसे और कोई खुशी नहीं देता था, सिवाय इसके कि वह अपने आपको आवश्यक महसूस करे। बेशक वह उसे प्यार नहीं करता था। प्यार का, चाहे घृणास्पद भी हो, यह चिड़चिड़ा रुख नहीं होता। लेकिन कौन-सा है उसका रुख? ये लोग रात के अँधेरे में प्यार करते हैं, बिना एक-दूसरे को देखे, स्पर्श से। क्या कोई और प्यार भी है सिवाय तिमिर के प्यार के, जो दिन के तेज़ प्रकाश में चिल्लाता हो? वह नहीं जानती थी, लेकिन वह यह जानती थी कि मारसल को उसकी ज़रूरत थी और उसे इस ज़रूरत की ज़रूरत थी, और इसके सहारे वह रात और दिन जीती थी, खासतौर से रात, हरेक रात, जब वह अकेले रहना नहीं चाहता था, न वृद्ध होना, न मरना, इस निर्जीव भाव के साथ जो उसके चेहरे पर आ जाता था और जिसे वह अनेक बार और पुरुषों के चेहरे पर भी देखती थी, इन पागलों का सिर्फ एक, सब ही में एक-सा भाव, जिसे वे अपनी ऊपरी बुद्धिमत्ता के नीचे छिपाए रखते हैं, जब तक वह उन्हें अति उन्मत्त करके, ज़बरदस्ती किसी औरत के शरीर पर न फेंक दें, उसमें बिना इच्छा के, वह सब भयंकरता गाड़ देने के लिए जो अकेलापन और रात्रि उनके सामने ज़ाहिर करते हैं।
मारसल ज़रा-सा हिला, जैसे कि उससे कुछ दूर होने के लिए। नहीं, वह उसे प्यार नहीं करता था, वह तो सिर्फ उससे डरता था जो वह थी ही नहीं, और उसे और मारसल को तो बहुत पहले ही एक-दूसरे से अलग होकर आखिर तक अकेले सोना चाहिए था। लेकिन हमेशा कौन अकेला सो सकता है? कुछ पुरुष ऐसा करते हैं, जिन्हें उनकी वृत्ति या बदकिस्मती ने औरों से दूर कर दिया है, और जो अब हरेक शाम उसी पलंग पर सोते हैं जिसमें कि मौत। मारसल ऐसे कभी नहीं कर सकता था। वह, खासतौर से बच्चों की तरह कमज़ोर और बेबस, जिसे कि दुख, दर्द से हमेशा डर लगता था, यथार्थ में उसके बच्चे की तरह, जिसे उसकी ज़रूरत थी, और जिसका कराहना उसी समय जानीन ने सुना। वह उसके और करीब सरक आई, अपना हाथ उसके वक्षस्थल पर रख दिया और अपने आप मुँह-ही-मुँह में उसे प्यार के उस नाम से बुलाने लगी जो कभी पहले उसी ने रखा था, और जिसे वह अब भी कभी-कभी इस्तेमाल करते थे, लेकिन बिना कभी यह सोचे कि वह उनके लिए क्या मतलब रखता है।
जानीन ने उसे अपने हृदय से आवाज़ दी। कुछ भी हो, उसे भी तो मारसल की ज़रूरत थी, उसकी शक्ति की, उसकी छोटी-छोटी सनकों की, उसे भी मरने से डर लगता था। ‘अगर मैं इस डर को कब्ज़े में कर लूँ तो खुश रहूँगी।’ तत्काल एक अजात दु:ख ने उसे आक्रान्त कर दिया। वह मारसल से दूर हट गई। नहीं, उसने किसी पर विजय नहीं पाई थी, वह खुश नहीं थी। वास्तव में वह बिना मुक्त हुए ही मरनेवाली थी। उसके दिल में बड़ी तकलीफ हो रही थी, वह एक गहन बोझे से दबी जा रही थी, जो उसे अकस्मात् ध्यान आया, वह बीस साल से ढो रही थी, और जिस पर वह अब अपना पूरा दम लगाकर काबू पाने की कोशिश कर रही थी। वह मुक्त होना चाहती थी, चाहे मारसल, चाहे बाकी और, कभी मुक्त न हुए थे। जागकर उसने बिस्तर में फैलकर अँगड़ाई ली और कान लगाकर वह आवाज़ सुनने लगी जो उसे बहुत पास से आती हुई लगी। लेकिन रात के किनारों में से, मरु-उद्यान के कुत्तों का दबा हुआ पर अश्रान्त भौंकना ही सिर्फ उस तक पहुँचा। मन्द समीर चल पड़ी थी और उसने खजूर के पेड़ों में उसके हलके सलिल-प्रवाह की ध्वनि सुनी। वह दक्षिण दिशा से आ रही थी, वहाँ से, जहाँ इस समय पुन: निश्चल नभ के नीचे मरुस्थल और निशा मिल गए थे वहाँ से, जहाँ जीवन एकदम थम गया था, जहाँ अब न कोई वृद्ध हो सकता था, न मर सकता था। फिर पवन में बहता सलिल रुक गया और उसे विश्वास नहीं हुआ कि उसने कुछ सुना भी था, सिवाय एक मूक पुकार के, जो निदान, वह अपनी इच्छा से चुप कर सकती थी या सुन सकती थी, लेकिन जिसका आशय वह कभी नहीं समझ पाएगी, अगर उसने अभी इसी समय जवाब नहीं दिया। अभी इसी समय, हाँ, कम-से-कम यह पक्का था!
वह आहिस्ते से उठी और चुपचाप खड़ी रही, बिस्तर के पास, अपने पति के श्वास-प्रश्वास को सुनती रही। मारसल सो रहा था। एक क्षण बाद बिस्तर की गरमाई उससे बिछुड़ गई और उसे ठंड ने ग्रस लिया। उसने धीरे-धीरे कपड़े पहने, सड़क की बत्ती की उस हल्की रोशनी में अन्दाज से ढूँढ़कर, जो सामने लगे परदों में से छनकर अन्दर आ रही थी। जूते हाथ में उठाए वह दरवाज़े तक पहुँची। वहाँ, अँधेरे में, क्षण-भर रुकी, फिर धीरे-से दरवाज़ा खोला। चटखनी ज़रा-सी घिसी। वह एकदम रुक गई। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसने कान लगाए, खामोशी से पुन: आश्वस्त हो, उसने फिर अपना हाथ ज़रा-सा घुमाया। चटखनी का घुमाव उसे अनन्त लगा। आखिर में दरवाज़ा खुला और वह आहिस्ते-से बाहर निकल गई, और उसने उसी सतर्कता से दरवाज़ा दुबारा बन्द कर दिया। फिर चौखट से अपना गाल सटा कर खड़ी रही। एक क्षण के बाद, मारसल के साँस लेने की आवाज़ उसे बहुत दूर से आती हुई प्रतीत हुई। वह एकदम घूमी, रात की बर्फीली हवा अपने चेहरे पर थमी और तेज़ी से बरामदे में दौड़ गई। होटल का फाटक बन्द था। जब तक कि उसने किसी तरह साँकल खोली, रात का चौकीदार सीढ़ियों की चोटी पर आ गया, बड़ी चकराई हुई शक्ल और उसने अरबी में कुछ कहा। “मैं अभी आ रही हूँ,” जानीन ने कहा, और वह झपटकर, अँधेरे में आगे बढ़ गई।
खजूर के पेड़ों व मकानों के ऊपर काले आसमान से लटकती तारों की लड़ियाँ सज रही थीं। वह इस समय निर्जन, किले की तरफ जाते हुए छोटे रास्ते में, भागने लगी। शीत ने, जिसे सूर्य से अब और संघर्ष नहीं करना पड़ रहा था, निशा को अपने अधीन कर लिया, बर्फीली हवा उसके फेफड़ों में लगने लगी लेकिन वह भागती रही, आधी अन्धी, अँधेरे में। उसे रास्ते की चोटी पर, किसी तरह कुछ रोशनी दिखी जो टेढ़ी होकर अब उसकी तरफ भी आ रही थी; वह रुक गई। उसे भौंरों के गूँजने-जैसी आवाज़ सुनाई दी, और उन बत्तियों के पीछे जो बढ़ती जा रही थीं, उसे विशाल लबादे दिखे, जिनके नीचे बाइसिकिल के नाजुक पहिए चमक रहे थे। वे लबादे उसे छूने हुए निकल गए उसके पीछे अँधेर में से तीन लाल बत्तियाँ कहीं में निकलीं, तत्काल गायब हो जाने के लिए। उसने फिर से किले की तरफ जानेवाला अपना रास्ता पकड़ा। सीढ़ियों के बीच में, उसके फेफड़ों में ठंडी हवा की चुभन इतनी तीक्ष्ण हो गई कि उसे रुकने का मन किया। शक्ति के आखिरी आवेग ने उसे छत पर ला पटका, मुँडेर के सहारे जो इस वक्त उसके उदर को दबा रहा था। वह हाँफ रही थी और उसे अपने चारों तरफ सबकुछ धुंधला दिखाई दे रहा था। भागने से उसमें बिलकुल गरमाई नहीं आई थी, अभी तक भी उसके सारे अंग ठंड से काँप रहे थे। लेकिन उस ठंडी हवा ने, जिसे वह झटकों के साथ अन्दर खींच रही थी, अन्दर का प्रवाह जल्द ही नियमित कर दिया। इस कम्पन के बीच एक हल्की-सी तपन भी पैदा होनी शुरू हो गई। अन्तत: उसकी आँखें खुली रात की अपरिमित विस्तृति पर।
उस एकान्तता और शान्ति को, जो जानीन को घेरे हुई थी, न कोई साँस, न आवाज़ तोड़ रही थी, सिवाय कभी-कभी उन पत्थरों की दबी हुई चटचटन के जिन्हें ठंड, घटाकर बालू बना रही थी। तथापि, एक क्षण के अन्त में, उसे लगा कि एक तरह का भारी भँवर उसके ऊपर के आसमान को घुमाए जा रहा है। ठंडी और शुष्क रात की सघनता में, हज़ारों सितारे निरन्तर निकल रहे थे और, उनकी चमकदार हिमकणिकाएँ तत्काल विलग होकर अनजाने ही, अन्तरिक्ष की तरफ फिसलनी शुरू हो गई। जानीन अपने आपको इन चंचल ज्योति बिन्दुओं पर ध्यान देने से न हटा सकी। वह उनके साथ-साथ घूमने लगी और अनेक बार उसी अचल पथभ्रमण ने धीरे-धीरे उसे अपने अस्तित्व की गहराई से मिला दिया, जहाँ शीत और इच्छा इस समय प्रतिद्वन्द्व कर रहे थे। उसके सामने, तारे गिरते जा रहे थे, एक-एक करके और फिर उस वीराने के पत्थरों के बीच बुझते जा रहे थे और प्रत्येक बार जानीन रात्रि के प्रति कुछ और खुलती जा रही थी। वह साँस लिये जा रही थी, भूलती जा रही थी ठंड को, औरों के अस्तित्व के भार को, उकताई हुई या घुटी हुई ज़िन्दगी को, जीने और मरने की लम्बी वेदना को। उन अनेक सालों बाद, जिनमें भय से बचते हुए, मूढ़ता से निरुद्देश्य वह भागती रही थी, आखिरकार अब रुक गई। तभी उसने अपने आपको होश में आता हुआ महसूस किया। उसके बदन में, जोकि अब काँप नहीं रहा था, फिर से जोश भर गया। मुँडेर को उदर से ज़ोर से दबाते हुए, अस्थिर आकाश की तरफ खिंचते हुए वह सिर्फ इन्तज़ार कर रही थी कि उसका अभी तक तेज़ गति से चनता हुआ दिल कुछ थम जाए और उसके अन्दर भी शान्ति भर जाए। नक्षत्र के आखिरी सितारों ने अपने तारकपुंजों को मरुस्थल के क्षितिज से कुछ और नीचे छोड़ दिया और एकदम निश्चल हो गया। तब, असह्य सौम्यता के साथ रात का पानी जानीन में भरना शुरू हो गया, शीत को डुबोकर, उसके अस्तित्व के अज्ञात केन्द्र में धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता गया जब तक कि उसके आहों भरे मुँह से निर्विघ्न लहरों में बाहर न गिरने लगा। एक क्षण बाद, सम्पूर्ण आकाश उसके ऊपर फैल गया, शीतल धरा पर उलटा।
जब जानीन लौटी, उसी सतर्कता से, मारसल उठा नहीं था। लेकिन जैसे ही वह बिस्तर में लेटी, वह तनिक कुनमुनाया और कुछ पल बाद अचानक उठकर बैठ गया। उसने कुछ कहा, लेकिन जानीन समझ नहीं पाई, जो भी वह कह रहा था। वह उठा, बत्ती जलाई। रोशनी उसके चेहरे पर तमाचे की तरह लगी। डगमगाता-सा वह चिलमची की तरफ गया और उस पर रखी खनिज-जल की बोतल से देर तक पानी पिया। वह चादरों के नीचे घुस ही रहा था कि एक घुटना पलंग पर टेककर हैरान, उसे देखने लगा। वह रोए चली जा रही थी, सिसकियों से, अपने आपको रोकने में असमर्थ। “कुछ नहीं हुआ, तुम सो जाओ,” वह कह रही थी, “मुझे कुछ नहीं हुआ।”
1. फ्रांस की विशेष सेना, जिसमें मूलत: अल्जीरियाई निवासी थे।
2. दुकान का नाम।
3. गाड़ी में ड्राइवर के सामनेवाला तख्ता।
4. एक अरबी शब्द, यानी बहुत पतले कपड़े का साफा।
(अनुवाद - शरद चन्द्रा)