वो (कहानी) : डॉ. पद्मावती
Vo (Hindi Story) : Dr. Padmavathi
'ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात पूर्ण मुदच्यते' . . .
(उपनिषदों में परम सत्व ब्रह्म पूर्ण माना गया है और कहते है कि आत्मा परमात्मा का ही अंश है। यदि परमात्मा पूर्ण स्वरूप है तो पूर्ण का अंश आत्मा भी पूर्ण ही मानी जा सकती है। और अगर आत्मा पूर्ण है तो . . . पूर्ण को तृप्ति क्या अतृप्ति क्या . . .?
आगे पढ़िए . . . कहानी . . . )
पच्चीसवीं मंज़िल की ऊँचाई से समुद्र का नज़ारा काफ़ी साफ़ और ख़ूबसूरत हुआ करता है। जहाँ तक नज़र जाती वहाँ तक फैला हुआ सीमारहित जल प्रपंच . . . ऊपर खुले साफ़ आकाश में ढलता लाल सूरज . . .। दूर क्षितिज में दोनों का मिलन . . . आकाश और समुद्र जैसे एक दूसरे से मिल गए हों . . . समर्पण और पूर्णता का आभास। तभी शायद सीमाएँ अवरोध लगने लगती हैं . . . दृश्य जगत में भी और विचारों में भी . . . एक दायरा सा या बंदिश सी। और . . . दायरे . . . दायरे तो घुटन पैदा करते हैं . . . इसीलिए कहते हैं कि सागर के पास मन . . . विचार, सब शांत हो जाते हैं . . . सब उथल-पुथल समाप्त हो जाती है . . . मन समाधिस्थ हो जाता है . . . शांत . . . निस्पृह . . .!
“दीदी . . . कॉफ़ी . . .” प्रतिमा की तंद्रा टूटी। भाप नथुनों को लगते ही अजीब सी ताज़गी आ गई। कांता बाई ने गरम कॉफ़ी का प्याला थमाया . . . अपने लिए स्टूल खींच लिया।
“क्या सोच रही हो दीदी . . . पता है आपको बिल्डिंग नम्बर दो की बात? बहुत अन्याय है दीदी। घोर कलजुग।”
“क्यों क्या हुआ?”
“तुम्हें तो कुछ ख़बर नहीं रहती दीदी। तुम कहीं आती-जाती तो हो नहीं न इसलिए। है तो बात एक साल पुरानी, पर लगता है कि कल की ही घटना हो। पार्क के सामने की बिल्डिंग के बीसवें माले पर तीसरे घर में ’वो’ अवन्ती रानी है न, उसकी कहानी। मेरी ननद है न बिमला, वहीं उनके घर काम करती थी। बहुत भली थी अवन्ती रानी . . . बहुत भली . . . उसका पति महेश्वर बीमा कम्पनी का एजेंट था और एक ही बेटा . . . सिरजन . . .। हाँ शायद सिरजन नाम था . . . पता है दीदी क्या हुआ?” और फिर शुरू हो गया कांता का अनथक वृत्तांत। न तो उसकी कहानी थकती थी और न कांता बाई। जब से इस घर में आई थी, पूरा घर सँभाले हुई थी। बातूनी पर ईमानदार। उसके द्वारा दी गई मोहल्ले की जानकारी लगभग प्रामाणिक ही होती थी। हाँ कभी कभी अपनी ओर से थोड़ा तड़का अवश्य लगा लेती थी कांता बाई रोचकता के लिए।
“मोक्ष धाम” कई गगनचुम्बी इमारतों की गेटेड कम्यूनिटी . . . शहर का सबसे नामी आलीशान समुदाय . . . हर इमारत में कम से कम पच्चीस मंज़िलें थी। काफ़ी भीड़-भाड़ की जगह थी। और यही कारण था कि कहानियों की कमी नहीं थी कांता बाई के पास। भरपूर मनोरंजन का पिटारा थी वो क्योंकि उसका पूरा परिवार ही यहीं इन्हीं इमारतों में किसी न किसी के घर पर काम में लगा हुआ था। तो हर बिल्डिंग की खोज ख़बर उसके पास होना जायज़ था।
प्रतिमा ने सर कुर्सी पर टिका लिया और आँखें बंद कर ली। कांता की कहानी निर्बाध चलती रही।
“क्या दीदी आप तो सो गईं और देखो मेरी कहानी पूरी भी हो गई। आपने कुछ सुना भी कि मैं योंही बोलती रही दीदी?”
“सब सुना। जा। तू लाइट जला दे। अँधेरा होने को आया है।”
कांता बाई उठी, बालकनी की बत्ती जलाई और स्टूल को एक ओर सरका कर नीचे ज़मीन पर ही टाँगें फैलाकर आराम से पसर गई। बत्ती के जलते ही पूरी बालकनी रोशनी ने नहा गई।
“देखो तो दीदी, सामने की सड़क कितनी सूनी लग रही है। दिन ढलते ही यह सड़क कैसी सूनी हो जाती है . . .। लोग घूमने पार्क में जाते हैं। यहाँ नहीं आते। पता नहीं क्यों?” कांता क्षण भर को रुकी . . . “दीदी . . . सुनो . . . मेरा मन तो डरता है इस सड़क को देखकर . . . कितनी सूनी है . . . आप भी न . . . देर रात यहाँ नहीं जाया करो।”
सचमुच वीरान लग रही थी वह सड़क। यह सड़क इसी समुदाय का ही हिस्सा थी . . . उसके पिछवाड़े की परिसीमा . . . ठीक इस के पार समुद्र का बैकवॉटरस था . . . नहरनुमा जल प्रवाह जहाँ सवेरे तो कई सफ़ेद दूधिया सारस पानी पर अपना भोजन ढूँढ़ते दिख जाते थे। काफ़ी सुंदर होता था सुबह का नज़ारा . . .! हाँ शाम को यह जगह सूनी हो जाती थी। इस समुदाय और समुद्र के बीच मुश्किल से दो किलोमीटर का फ़ासला था। बीच में कोई अवरोध भी नहीं था इसीलिए चौबीसों घंटे तेज़ समुद्री हवा साँय-साँय करती बहती रहती थीं। इतनी तेज़ जैसे अपने साथ सब कुछ उड़ा ले जाएगी। सुबह लोग इस सड़क पर टहलने आते थे अपने कुत्तों के साथ पर अँधेरा पड़ते यह जगह सुनसान हो जाती थी . . . एक दम वीरान और डरावनी। कोई इक्का-दुक्का आदमी ही दिखता था इस तरफ़ क्योंकि कम्यूनिटी में तो कई पार्क थे . . . कुछ महिलाओं के लिए . . . कुछ विशेष खेलने के लिए . . . कुछ बच्चों के लिए ख़ास . . . कुछ जगह तो बड़े-बूढ़ों ने अपने लिए जैसे आरक्षित ही कर ली थी। शाम होते ही अड्डा जम जाता था। हाँ! पर इस सड़क पर चहल-पहल बिल्कुल नहीं होती थी इसीलिए प्रतिमा को यह सड़क विशेष भाती थी। अकेले घूमना ही उसकी आदत बन गया था . . . एकांत शांत वातावरण में वह रात को निकलती और देर समय तक चलती रहती थी। सड़क के एक छोर पर गोरखा तैनात रहता था। एक घंटा चलती तो काफ़ी थक जाती थी और थकने के बाद नींद भी अच्छी आ जाती थी।
“क्यों? क्या ख़राबी है इस सड़क में?” प्रतिमा कान्ता बाई की अनावश्यक दख़लंदाज़ी से चिढ़ गई। आजकल वह उसे हर बात में उसे टोक देती थी।
“न दीदी। देर रात अकेले सुनसान जगहों पर घूमा नहीं करते। आज तो बिल्कुल मत जाना। आज पूनम है . . . पता नहीं कब कोई छाया पीछे पड़ जाए।”
“कान्ता बाई . . . तुम भी कैसी बातें करती हो? कोई छाया-वाया नहीं होती। डर तो जिंदों से लगता है, छाया से क्या डरना? और पूनम का चाँद! आज तो मैं अवश्य जाऊँगी। मुझे नहीं विश्वास तुम्हारी इन बेसिरपैर की बातों का। मत टोका करो मुझे। मत डराया करो,” प्रतिमा आजकल बहुत जल्दी ग़ुस्सा जाती थी। स्वभाव बहुत चिढ़्चिडा हो गया था। बड़ी ज़िद्दी हो गई थी। वही करती थी जिसके लिए उसे टोका जाए।
“अब जाओ भी यहाँ से . . . और सुनो रात को अपने लिए कुछ बना लेना। मुझे भूख नहीं। अभी दोपहर का ही भारी लग रहा है। मुझे कुछ नहीं खाना है,” इस वक़्त कांता बाई का उपदेश सुनना उसे बहुत बुरा लगा था।
“ठीक है दीदी। अभी ऐसा ही लगेगा . . . फिर भूख लगेगी रात को . . . हल्का सा बना देती हूँ . . . मन करे तो खा लेना,” कान्ता बाई उठी और बर्तन लेकर रसोई में चली गई।
राजेश अग्रवाल एक बड़ी गार्मेंट्स कम्पनी का मालिक था। राजेश से विवाह करके प्रतिमा ख़ुश थी। विवाह से पहले वह साहित्य की प्रवक्ता थी। उसे अपनी नौकरी से बेहद लगाव था। साहित्य . . . उस का मनपसंद विषय। विवाह के दो साल हुए थे। वह अभी बच्चा नहीं चाहती थी लेकिन राजेश के परिवार को पोता चाहिए था और राजेश ने भी उस पर अप्रत्यक्ष रूप से दबाव डालना शुरू कर दिया था। उसकी ख़ुशी के लिए प्रतिमा को झुकना पड़ा। अवि गर्भ में आ गया था। महीने बीतते गए और प्रसव के बाद प्रतिमा को अपनी नौकरी छोडनी ही पड़ी। इस का उसे बहुत दुख था लेकिन अवि की प्यारी सी नन्ही सी मुस्कुराहटों ने उस दर्द को भुला दिया। वह सब भूलकर केवल माँ बन गई। उस समय राजेश का व्यवसाय संघर्ष के दौर से गुज़र रहा था तो अवि की सारी ज़िम्मेवारी भी प्रतिमा पर ही आ गई थी। उसका सारा ध्यान अब अवि में सिमट कर रह गया था। अब वह ही उसकी पूरी दुनिया बन चुका था। फिर धीरे-धीरे अवि बड़ा होने लगा। राजेश को समय लगा अपना व्यवसाय जमाने में . . .। फिर जब जड़ें जमनी शुरू हुई तो शाखाएँ भी बढ़ने लगी . . . समृद्धि आने लगी . . . राजेश की इच्छा थी कि अवि को विदेश भेजकर पढ़ाया जाए। लेकिन प्रतिमा अपने बेटे से दूर नहीं रह सकती थी। घर में इस विषय को लेकर काफ़ी झगड़ा हुआ था।
“वैसे यहाँ क्या कमी है राजेश? फिर मैं अवि के बिना कैसे रह पाऊँगी।” प्रतिमा दिन-रात उससे मिन्नतें करती . . . मनाने का प्रयत्न करती रही लेकिन . . . लेकिन उसकी एक न चली बाप बेटे के सामने। अवि भी मचल रहा था विदेश में पढ़ने के लिए सो उसे फिर झुकना पड़ा। वह मन मसोस कर रह गई। और एक दिन . . . एक दिन अवि विदेश चला गया। प्रतिमा बहुत रोई थी। अवि के बिना जीना मुश्किल हो गया था। समय लगा था उसे सामान्य होने में . . . उसने बड़ी मुश्किल से अपने को सँभाला था। वह फिर से काम करना चाहती थी लेकिन अब तो राजेश का व्यवसाय काफ़ी फैल गया था और वह नहीं चाहता था कि उसकी पत्नी नौकरी करे। जब भी उससे वह अपने दोबारा काम करने की बात कहती वह झट से मना कर देता और उलटे उसे ही समझाने लगता, “प्रतिमा क्या कमी है तुम्हें बताओ . . .? बँगला नौकर गाड़ियाँ . . . फिर तुम नौकरी करोगी? लेकिन क्यों? घर बैठो और आराम करो।”
“नहीं राजेश मैं घर में बोर हो जाती हूँ। प्लीज़ मुझे मत रोको। अब कौन है यहाँ? अवि वहाँ चला गया है और तुम . . . तुम तो हमेशा कभी इस छोर तो कभी उस छोर . . . घूमते रहते हो। मेरा भी सोचो न।”
प्रतिमा कहती रही लेकिन वह मानने को तैयार नहीं हुआ। आख़िर प्रतिमा हार गई। एक ओर अवि का बिछोह और दूसरी ओर अकेलापन। उसने अपना मन मार लिया। सब से अपने आपको अलग कर लिया। अब वह घंटों कमरे में बंद रहने लगी। साहित्य से नाता टूट गया था। अब तो वह न पढ़ना चाहती थी और न काम करना। सजना सँवरना भी लगभग छूट ही गया था। अब उसने शिकायत करना भी छोड़ दिया। वह मानसिक रूप से बीमार हो रही थी। अपने चारों ओर उसने एक दायरा बना लिया था जिसमें वह क़ैद हो गई थी। उन दायरों में वह किसी को प्रवेश नहीं करने देती थी और स्वयं भी नहीं निकलना चाहती थी। पागलपन हदें पार कर रहा था . . . उसे मतिभ्रम होने लगा था। सच सहने की ताक़त नहीं रही थी। वह कल्पना में जीने लगी थी। जब कभी पागलपन के दौरे पड़ते तब वह दीवारों से बातें करने लगती। राजेश बहुत चिंतित रहने लगा था। उसने उपचार करवाने का प्रयत्न भी किया था लेकिन प्रतिमा इस विषय में बात करते ही उत्तेजित हो जाती थी चिल्ला-चिल्लाकर घर सर पर उठा लेती थी। उसकी हर कोशिश नाकाम हो रही थी। राजेश अपने आप को प्रतिमा का दोषी मानने लगा था इसी लिए उसने इस कम्यूनिटी में अपार्टमेन्ट ख़रीदा था यह सोचकर कि प्रतिमा यहाँ रहेगी तो लोगों से मिलेगी . . . नए मित्र बनाएगी . . . घूमेगी-फिरेगी तो सामान्य हो जाएगी। लेकिन वह हुआ नहीं था जो सोचा था। प्रतिमा तो और भी कट गई थी। बस इस पिछवाड़े की सड़क पर अकेले घूमना ही उसे पसंद था . . . ’वो’ भी शाम ढले या रात को जब कोई नहीं होता था तब . . . सबसे अलग . . . सबसे दूर . . . एकांत . . . निर्जन यह सड़क उसके जीवन की ही तरह . . . सूनी . . . साँय-साँय करती हुई . . . उसकी प्रिय जगह बन गई थी। राजेश अब उस पर किसी प्रकार की पाबंदी नहीं लगाना चाहता था क्योंकि परिणाम वह भुगत रहा था। उसे भली-भाँति अंदाज़ा था कि जिस तरह प्रतिमा अपने आप को प्रताड़ित कर रही है, इसका परिणाम घातक हो सकता है। वह अपने को अनकिए अपराध की सज़ा दे रही थी।
रात के आठ बज चुके थे। चाँद निकल आया था। प्रतिमा गुमसुम सी बैठी बड़ी देर तक चाँद को निहारती रही। समय हो रहा था . . . टहलने जाना था। कपड़े बदलने वह अलमारी की ओर गई। फिर कुछ सोचकर रुक गई। लगा . . . क्या ख़राबी है इन कपड़ों में जो पहने हुए हैं . . . ठीक ही तो हैं। अनमने ढंग से वह मुड़ी। उलझे बाल गूँथे। चोटी बनाई और चप्पल पहन कर निकल पड़ी।
ठंडी हवा के झोंका ने चेहरे को छुआ और सुकून दे गया। देखा . . . दूर कोई इक्का-दुक्का आदमी उसी की तरह टहल रहा था। वह अभी कुछ ही दूर चली थी कि पाया सड़क तो पूरी तरह सुनसान हो चुकी थी। खंबों से रोशनी झाग की तरह सड़क पर फैली हुई थी। गोरखा कुर्सी पर पाँव ऊपर किए सिकुड़ा हुआ सा ऊँघ रहा था। वह हर रोज़ की तरह पत्थर की बेंच पर बैठ गई। उसने देखा . . . दूर अँधेरे में कोई आकृति चल रही है। उसे आश्चर्य हुआ। इतनी रात गए कौन हो सकता है?” ’वो’ आकृति धीरे-धीरे चल रही थी। उसका दिल धड़कने लगा। तसल्ली करने का मन हुआ। वह उठी और उसी ओर को चलने लगी। धीरे-धीरे। कुछ ही पलों में दोनों आमने-सामने आ गईं थी।” वो” एक सुंदर महिला थी . . . नज़रें मिलीं . . . हल्की सी औपचारिक मुस्कान के साथ। फिर . . . दोनों एक दूसरे को पार कर गईं। प्रतिमा की जान में जान आयी। वैसे वह इन बातों में विश्वास तो नहीं करती थी लेकिन कांता बाई ने डर का बीज बो दिया था। वह अब थोड़ी आश्वस्त हो गई थी सो सहज होकर चलने लगी। वापस आते वक़्त देखा ’वो’ एक बेंच पर बैठी हुईं थीं। चालीस तक की उम्र रही होगी . . . सफ़ेद सादी सी सूती सलवार कमीज़ . . . चेहरा गोल आँखें कुछ सूजी हुई चौड़ा माथा . . . उस ने इस बार एक ही नज़र में पूरा मुआयना कर लिया। वह भी उसके सामने वाली बेंच पर बैठ गई। अचानक नया चेहरा देख मन में उत्सुकता जग गई थी।
“आपको पहले तो कभी नहीं देखा?” प्रतिमा उसके चेहरे की चमक को ही देख रही थी। बड़ा प्यारा लग रहा था। कोमल . . . सौम्य। हवा के कारण उसके बाल उड़ कर गालों को छू रहे थे।
“हाँ। बिल्डिंग नंबर दो के सामने का पार्क है न . . . वहीं जाती हूँ टहलने को। आजकल वहाँ बहुत शोर होने लगा है। आए दिन कोई न कोई कार्यक्रम का शोर . . . तो अब वहाँ नहीं जाती। इसीलिए देखा . . . यहाँ तो काफ़ी शान्ति है और कोई नहीं रहता . . . तो अच्छा लगा . . . सो यहाँ चली आई। वैसे मैंने भी आपको कभी नहीं देखा वहाँ उस पार्क में। इतनी रात गए . . . आप अभी भी घूम रही हैं?” उसकी आवाज़ बहुत मीठी थी . . . होंठों पर मुस्कान . . . बड़ी प्यारी सी . . . अपनापन ओढ़े हुए।
“हाँ! आज देर हो गई। वैसे घर जल्दी जाकर करना भी क्या है? कौन है घर में जो मेरा इंतज़ार कर रहा है? आज शनिवार थोड़े ही न है जो अवि का फ़ोन आयेगा? और राजेश भी तो नहीं है यहाँ . . . फिर मैं किसके लिए जाऊँ?” प्रतिमा ने बड़े ही रूखे लहज़े में कहा लेकिन फिर तुरंत चुप हो गई। लगा जैसे कुछ ग़लत कह दिया हो। उसे अजनबी के सामने ऐसा नहीं कहना चाहिए था। क्या ज़रूरत थी ऐसे बोलने की। वह तो उसे जानती तक नहीं। फिर इतना व्यक्तिगत होने की क्या आवश्यकता थी? वह झेंप सी गई और मुँह दूसरी ओर फेर लिया। दोनों के बीच ख़ामोशी पसर गई। कुछ क्षण पश्चात ’वो’ उठी और चुपचाप चलने लगी।
नौ बजने को आए थे। सड़क पर कोने में रेत पर कुछ आवारा कुत्ते अलसाए से सोए पड़े थे। अचानक उन्होंने भौंकना शुरू कर दिया। वैसे तो पूरा दिन मोहल्ले में चुपचाप कहीं दुबके पड़े रहते थे लेकिन रात होते ही इस सड़क पर आकर अड्डा जमाते थे। अब तक तो चुप थे। इस बीच न जाने क्या हुआ . . . उठ बैठे और झगड़ना शुरू कर दिया। फिर एकाएक से सभी मिलकर सम्मिलित स्वर में आसमान की ओर मुँह उठाकर रोने लगे। प्रतिमा को ये आवाज़ें बड़ी बुरी लगती थीं। उसे बड़ी चिढ़ थी ऐसे रोने से। यहाँ अक़्सर आधी रात को इसी तरह होता . . . पहले झगड़ने की फिर रोने की डरावनी आवाज़ें . . .। आज इन्हें अपने सामने ही रोते देखकर वह तिलमिला गई। दाँत भिंच गए। उसने एक बड़ा सा पत्थर उठाया और ज़ोर से खींच कर उन पर दे मारा। वे पहले तो भागे लेकिन ढीठ कुत्ते थोड़ी दूर जाकर फिर से रोने लगे। वह परेशान हो उठी। उसे कांता बाई पर बहुत ग़ुस्सा आया। वह ही ज़िम्मेदार थी उसे डराने की। अब यहाँ ठहरना मुश्किल लग रहा था। जल्द से जल्द वह वहाँ से निकल जाना चाहती थी। वह अपनी बिल्डिंग की ओर चलने लगी। उसने मुड़कर भी न देखा। सड़क के अंतिम छोर पर जहाँ गोरखा बैठता था, वहाँ ट्रकों को प्रतिबंधित करने के लिए पाँच फुट की लंबाई पर एक आड़ा खंभा लगाया हुआ था जो रस्सी खींचने से ऊपर नीचे होता था . . . उसे पार करते ही उसकी बिल्डिंग आ जाती थी। वह तेज़ क़दमों से चलती खंबे तक पहुँच चुकी थी। वहाँ पहुँच कर उस ने कनखियों से पीछे देखा . . . ’वो’ अभी भी बेंच पर बैठी हुई थी और उस को हड़बड़ी में जाते देख रही थी। प्रतिमा को पहले उसे बिना बताए इस तरह चले आना अच्छा नहीं लगा . . . अपने शुष्क व्यवहार पर उसे क्रोध भी आया लेकिन . . . लेकिन फिर सोचा . . . “क्या जान पहचान है हमारी? अभी तो मिले थे फिर क्या औपचारिकता को निभाना? क्या ज़रूरत है? पता नहीं कल आए भी या नहीं।” वह मन ही मन कुछ अस्थिर सी हो रही थी . . . फिर भी न जाने क्यों रुकी . . . मुड़कर देखा . . . हल्के से हाथ हिलाया और अपनी बिल्डिंग की ओर निकल गई।
अगली सुबह बालकनी से सड़क का नज़ारा कुछ और ही लग रहा था। रात का सन्नाटा अब नहीं था। लोग टहल रहे थे . . . बच्चे खेल रहे थे, काफ़ी चहल-पहल थी। निर्जन और डरावनी तो वह रात को होती थी। कांता बाई कॉफ़ी लेकर उपस्थित हो गई थी एक नई कहानी के साथ।
“दीदी सुना बिल्डिंग नम्बर चार की बात . . . पता है कल क्या हुआ?” . . . कांता का बिल्डिंगोपाख्यान शुरू हो गया।
आज प्रतिमा को उसकी बातों में कोई मज़ा नहीं आ रहा था। वह तो कुछ और ही सोच रही थी। आज वह “उसी” को याद कर रही थी। मन वहीं उसकी ओर खिंचा चला जा रहा था। न भूल पा रही थी वह चेहरा। कितना प्यारा था . . . हँसमुख और ख़ुशमिज़ाज। शायद ईश्वर की विशेष कृपा रही होगी उसपर। तभी तो इतना नूर बरस रहा था उस चेहरे पर। वह अपने विचारों में खोई रही। उसकी हर बात यत्न पूर्वक याद करती रही . . . पता ही नहीं चला कब कान्ता ने कहानी ख़त्म की और कब रसोई में चली गई . . . रसोई से बर्तनों की खनखनाने की आवाज़ें आ रही थी और हर दिन की ही तरह आज भी प्रतिमा वहीं बैठी इंतज़ार करने लगी . . . दिन ढलने का . . . शाम होने का . . . और शाम से रात होने का . . . . . .
रात के आठ बज चुके थे। बहुत दिनों के बाद उसने अपने लिए हल्का गुलाबी रंग का सूट निकाला . . . बालों पर क्लिप लगाकर जूड़ा बनाया, चेहरे को आइने में संवारा . . . एक दो बार देखकर तसल्ली की और फिर कैनवस पहन कर निकल पड़ी। सड़क सुनसान तो थी लेकिन खंबों की रोशनी से सरोबार। उस ने सड़क पर आकर देखा, आज ’वो’ वहीं उसी बेंच पर बैठी हुई थी। मन में एक हिलोर सी उठी . . . शायद कल के व्यवहार का अपराध बोध था . . . वह सीधी उसके पास चल पड़ी।
“हेलो . . . कितनी देर हुई आपको आकर? टहल चुकी क्या?” प्रतिमा धीमे से बोली और ठीक सामने वाली बेंच पर बैठ गई।
“नहीं अभी आई हूँ। आपका ही इंतज़ार कर रही थी। कल तो आप अचानक चली गईं थीं?” उसने मुस्कुराकर जवाब दिया।
“हाँ। कल मन ख़राब हो गया था उन आवारा कुत्तों के कारण। मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है उनका रोना। बहुत ग़ुस्सा आता है। आज नहीं दिखाई दे रहे हैं वो। ख़ैर छोड़िए . . . हाँ कल . . . कल आपका नाम भी नहीं पूछा था . . .। मैं प्रतिमा अग्रवाल हूँ, अग्रवाल टेक्सटाइल का नाम तो सुना होगा . . . राजेश अग्रवाल मेरे पति है। एक बेटा है अविनाश . . . विदेश में रहता है . . .। सामने वाली बिल्डिंग देख रही है न, मैं वहीं रहती हूँ . . . पच्चीसवां फ़्लोर . . . मैं साहित्य पढ़ाती थी कॉलेज में . . . अवि के पैदा होने के बाद मैंने छोड़ दिया . . . ये नहीं चाहते न इसलिए . . . और आप?” प्रतिमा एक ही साँस में बोल गई।
“उसके” चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगी।
“मैं अवन्ती द्विवेदी। बिल्डिंग नम्बर दो में। यहाँ कोचिंग सेंटर में गणित की अध्यापिका थी। मैंने भी छोड़ दिया है अब पढ़ाना . . . आपकी तरह . . . लेकिन वजह कुछ और थी . . . एक बेटा है। सृजन द्विवेदी . . . बारह साल का . . . बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता है। जब से मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती है न तभी से बोर्डिंग स्कूल भेज दिया है।”
“और आपके पति?” प्रतिमा की आँखें उसके मनोभावों को पढ़ रही थी, “वैसे क्या हुआ था आपको?”
“गंभीर कुछ नहीं। ब्रेन में छोटा सा ट्यूमर हो गया था। जिसके कारण कुछ दिन अस्वस्थ थी लेकिन अब सब शांत हो गया है। मेरे पति बीमा कम्पनी में एजेंट है। महेश्वर द्विवेदी। पार्क के सामने बिल्डिंग नंबर दो की बीसवीं मंज़िल पर तीसरा अपार्टमेंट . . . मेरे जीवन का मोल।” वो कुछ कहते कहते रुक गई।
प्रतिमा को उसका वाक्य अजीब सा लगा।
“आपके जीवन का मोल? यानी? कुछ समझ नहीं आया।”
“अरे कुछ नहीं। ये बीमा कम्पनी में काम करते हैं न तो बीमारी का बीमा लिया था जिससे पैसा मिला और घर ख़रीदा। इनकी यहाँ घर लेने की बड़ी मंशा थी। मेरी पूँजी समझिए, जब मिली तब सब आसान हो गया था।” उसने बड़ी सफ़ाई से बात गोल कर दी। कुछ क्षण चुप रही और फिर उसने अचानक कहा, “महेश्वर . . . मेरे पति महेश्वर . . . संहारक शक्ति!”
“संहारक शक्ति? मैं समझी नहीं। संहारक शक्ति? यानी?”
“अरे प्रतिमा जी . . . त्रिदेव होते हैं न हमारे पुराणों में . . . ब्रह्मा . . . विष्णु . . . महेश्वर . . . ब्रह्मा सर्जक शक्ति . . . विष्णु पालक शक्ति तो महेश्वर . . . बोलिए और क्या होगा . . . संहारक शक्ति . . ., ” उसने शरारत भरी मुस्कान से कहा।
दोनों कुछ क्षण एक दूसरे को देखती रहीं . . . फिर ठहाका मार कर ज़ोर से हँस पड़ीं। उनकी हँसी सुनसान सड़क में दूर तक गूँज उठी।
वातावरण हल्का हो गया था।
“कितना समय हो गया है अवन्ती जी इस तरह खुलकर हँसते हुए। आज आपने हँसा दिया। सच। मैं सच कह रही हूँ। संहारक शक्ति, ” प्रतिमा अब भी हँस रही थी।
“हाँ प्रतिमा जी! अच्छा लग रहा है आपको इस तरह हँसते देखकर . . . दिल हल्का हो जाता है, ” दोनों धीरे-धीरे खुल रहीं थीं और अब सब सामान्य लग रहा था। प्रतिमा भी अब सहज हो गई थी और सभी शक-शुबह सभी दूर हो चुके थे।
“आप ने फिर से नौकरी नहीं ढूँढ़ी?” अवन्ती ने जान बूझकर उसे कुरेदा।
“हाँ। करना तो बहुत चाहती थी अवन्ती जी, पर इन्होंने करने नहीं दिया फिर अब तो मन भी उचट गया है। पता है मेरे छात्र मुझे बहुत चाहते थे। कहते थे, मैडम आप पढ़ाती हैं तो पूरा दिमाग़ में छप जाता है। और मैं भी कितनी तल्लीनता से उन्हें पढ़ाती थी। फिर अवि पैदा हुआ और नौकरी छूट गई तो बहुत बुरा लगा, ” प्रतिमा बिना रुके बोले जा रही थी। आज बहुत दिनों के बाद किसी से बात करना अच्छा लग रहा था उसे।
“पर प्यारा सा बेटा भी तो मिला था न आपको . . . बताइए कैसे करती आप नौकरी? कौन ध्यान रखता उसका आप से बढ़ कर? अवन्ती की बातें मरहम का काम कर रहीं थीं। उसकी आवाज़ में बहुत आत्मीयता थी जो प्रतिमा पर प्रभाव कर रही थी।
“हाँ। हाँ। अवि! बचपन में कितना गोल-मटोल था जानती हैं आप? दो क़दम चलता और फिर धड़ाम से गिर जाता था। मम्मी मम्मी कहकर लिपट जाता और रोने लगता था। किसी के पास भी नहीं जाता था . . . अपने पिता के पास भी नहीं . . . केवल मैं ही चाहिए थी उसे . . . केवल मैं . . . पता है बाद में जिम जाकर वज़न कम किया था उसने, ” प्रतिमा पेट पकड़कर हँसने लगी थी।
लेकिन अगले ही पल अकारण बुझ सी गई।
“लेकिन अवन्ती जी, अब मेरे जीवन का कोई प्रयोजन नहीं है। बेकार जी रही हूँ . . . किसी को मेरी आवश्यकता नहीं है और जब किसी को आपकी ज़रूरत नहीं होती तो जीना दूभर हो जाता है। ऐसे जीवन को ख़त्म हो जाना चाहिए . . . हाँ ख़त्म, ” प्रतिमा की आवाज़ रुँध गई। आँखें नम हो आईं।
अवन्ती कुछ क्षण चुपचाप उसे देखती रही। फिर पलटकर उसने ने एक बिल्डिंग की ओर इशारा करते हुए कहा, “देखिए न वहाँ। कितनी रंग-बिरंगी लाइटें लगा रखी हैं उस आदमी ने अपनी बालकनी में। पूरा बरामदा कभी लाल कभी नारंगी कभी पीला। कैसा लग रहा है आपको रंगों का खेल?”
“घटिया। वाहियात। रंग आँखों में चुभ रहे हैं। बिल्कुल बकवास। यह भी कोई पसंद है? बिल्कुल बेकार, ” प्रतिमा का मुँह बिगड़ गया।
“अरे! क्या हुआ? आप तो बिगड़ गईं। यही बात मुस्कुराकर भी कही जा सकती है प्रतिमा जी . . . इतना ग़ुस्सा क्यों?”
“इसमें मुस्कुराने की क्या बात है? मुझे ऐसी बदलती फ़ितरत वाले लोग पसंद नहीं। जो रंगों में स्थिरता नहीं देखना चाहते वे दिमाग़ में भी अस्थिर ही होंगे। मुझे ऐसे लोग बिल्कुल पसंद नहीं, ” प्रतिमा का हर वाक्य अपने को सही साबित करने के यत्न में ही निकल रहा था।
“ओफ़्फ़ो आप नाराज़ हो गईं। आप सही हैं प्रतिमा जी . . . बिल्कुल सच कहा आपने। मुस्कुराइए प्रतिमा जी मुस्कुराइए। और फिर वह आपका घर नहीं है। है न।”
“क्या आप मानती है कि मैं ठीक बोल रही हूँ . . . मैं सही हूँ न? . . . हर कोई समझता है कि मैं ही ग़लत हूँ, ” प्रतिमा ने उसके चेहरे पर नज़रें टिका दीं उत्तर की प्रतीक्षा में।
“हाँ! बिल्कुल सही। आप सही हैं।”
“क्या आप बिन बात हमेशा यूँ ही मुस्कुराती रहती हैं?”
“हाँ बिल्कुल। ख़ुश रहना मेरी आदत है और फिर परेशान यहाँ कौन नहीं?” अवन्ती उठकर चलने लगी। प्रतिमा भी उसके साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलने लगी।
“मुझे लगता है कोई मुझे समझता ही नहीं। मैं आपकी तरह बिन बात मुस्कुरा भी नहीं सकती। जब मन उदास हो तो मुस्कुराहट कैसे आ सकती है?”
“सच मानिए प्रतिमा जी मुस्कुराना ही तो जीवन है। वरना लोग तो सुख सुविधाओं के रहते भी रोनी सूरत बनाए जीते रहते हैं। जीवन रुकता नहीं है। हम रोएँ या मुस्कुराएँ, रात होती है, दिन होता है। समय नहीं रुकता। तो फिर क्यों न मुसकुरा कर ही इसे बिताएँ। और फिर मुस्कुराने की वजह क्या आवश्यक है? उन नाचती हुई रोशनियों को देखिए बस . . . हँसी आ जाएगी। इतना विश्लेषण ही क्यों। इतना मत सोचा करिए। दिमाग़ पर बोझ मत लीजिए। बस सहज हो जाइए। सब आसान बन जाएगा न जाने फिर यह क्षण हो न हो? जीवन रहे या न रहे किसे मालूम?” उसका चेहरा अभी भी खिल रहा था।
“आप को समझना कठिन है। आप आशावादी है या निराशावादी? कभी कहती हैं . . . मुस्कुराइए और कभी जीवन समाप्त होने की बात करती हैं, ” उसे उसकी बातों में रस आ रहा था। वह उसे सुनना चाह रही थी। लग रहा था कि वो बोलती रहे और प्रतिमा सुनती रहे।
“हाँ प्रतिमा जी . . . पता है कहते है कि जीवन हमारे कर्मों का फल है, कर्म भोगने के लिए ही हम यहाँ जन्म लेते हैं और मेरे हिसाब से जो ज़िन्दा है वह भाग्यवान है। आप जो कह रही हैं वह एकदम सच है . . . लेकिन बस एक जगह आपसे चूक हो गई . . . जानतीं हैं . . . हर जीवन का प्रयोजन होता है और जब प्रयोजन समाप्त हो जाता है तो जीवन ख़त्म हो जाता है लेकिन जब तक जीवन है जीना चाहिए। हम किसी को दोष ही क्यों दे अपने कर्मों के लिए? हम हमेशा अपनी ख़ुशी के लिए दूसरों पर क्यों आश्रित बने रहते हैं। जो चीज़ बाहर ढूँढ़ रहे हैं, वह तो अंदर ही तो है और सोचिए जीवन ख़त्म करने का अधिकार हमें किसने दिया? यह ईश्वर का क्षेत्र है। आप तो अध्यापिका है . . . किसी दूसरे के क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश तो अपराध होता है . . . आप तो इसे अच्छी तरह जानती हैं . . . है न”?
“यानि?” प्रतिमा उसके बहाव में बहती जा रही थी। दिल को सुकून मिल रहा था। तनाव धीरे-धीरे ख़त्म हो रहा था।
“यानि जीवन भाग्यशालियों को ही मिलता है। देखिए न इस छोटे से पौधे को, ” अवन्ती एक जगह पर चलते चलते रुक गई . . .। सड़क पर बिखरी रेत में पत्थर पर उगी एक छोटी सी कोंपल को देखकर उसने कहा, “कितनी प्रतिकूलता में भी यह जी आया है देखिए . . . पता नहीं कल रहे या उखड़ जाए लेकिन जब तक है, हरहरा रहा है। झूम रहा है। है न। तो जब यह नन्ही सी जान मुस्कुराकर जी सकती है तो हम क्यों नहीं मुस्कुराते हुए जिएँ? बताइए न। जीना एक कला है और मुस्कुराते जीना वरदान।”
“हाँ! आप ठीक कहती हैं। मैंने हार मान ली। वैसे आप की बातें बहुत मीठी हैं . . . दिल को सहलाने वाली . . . मुझे आपसे हारना स्वीकार है, ” प्रतिमा ने हथियार डाल दिए।” मैं तो थक गई। आज चार चक्कर पूरे हो गए पता ही नहीं चला। आप नहीं थकीं?”
“तो वादा कीजिए हमारे अगली बार मिलने तक ही सही, उलटे–सीधे सवालों से आप ख़ुद को परेशान न करेंगी और इसी तरह मुस्कुराने का अभ्यास करती रहेंगी . . . धीरे-धीरे यह आपकी आदत बन जाएगी और सभी प्रश्नों का हल मिल जाएगा। वैसे ज़िन्दगी इतनी भी मुश्किल नहीं है प्रतिमा जी, बस जीकर देखिए। आप भाग्यशाली हैं।”
प्रतिमा चुप सी उसे देखे जा रही थी। मन शांत हो गया था। विचार रुक गए थे। उसने स्वीकृति में हल्के से सिर हिलाया।
“नौ बज गए। मेरे पति तो शहर से बाहर हैं और घर भी सामने है। इसीलिए देर भी हो तो कुछ नहीं। जल्दी नींद नहीं आती इसीलिए घूम लेती हूँ। अभी निकल जाऊँगी। लेकिन आप के घर में कोई कुछ नहीं कहता? आप देर रात घूम रही हैं?”
“नहीं। मेरे पति भी अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहते हैं और कभी तो बहुत रात भी हो जाती है। बेटा भी यहाँ नहीं है सो कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता।”
“फिर भी। क्या आपको डर नहीं लगता?” प्रतिमा ने सुनसान सड़क को देख कर कहा।
“किससे? यहाँ तो कोई नहीं है तो डर कैसा?”
“भूत-प्रेतों से।”
“हा . . . हा . . . आप मानती हो? विश्वास करती हैं?”
“नहीं . . . बिल्कुल नहीं। इसीलिए इतनी रात गए भी यहाँ हूँ, ” प्रतिमा ने ज़ोर देकर कहा। उसकी आवाज़ स्थिर थी।
“तो फ़िर कल क्यों चली गई थीं?”
“बताया था न कुत्तों की रोने की आवाज़ . . . बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। मन बैचेन हो जाता है। बस।”
कुछ क्षण दोनों चुप हो गईं थीं। निःशब्द। ख़ामोशी। दोनों विचारमग्न। प्रतिमा धीरे से उठी।
“आप और ठहरेंगी?”
“हाँ कुछ देर . . . बस फिर निकलती हूँ। शुभ रात्रि।”
“जल्दी निकल जाइएगा। और देर नहीं। देर रात सुनसान जगहों पर घूमना ठीक नहीं . . . मैं मानती तो नहीं . . . लेकिन फिर भी . . . क्या पता कोई छाया आ जाए। शुभ रात्रि!” प्रतिमा कुछ पल उसके होंठों पर थिरकती प्यारी सी मुस्कान देखती रही। फिर हल्के से हाथ हिलाया और चल दी।
***
अगले कुछ दिनों में आती जाती बारिश की झड़ी लग गई थी। आज कई दिनों बाद धूप निखर कर आई थी। प्रतिमा घर पर ही थी। बहुत दिनों बाद वह अपनी क़ैद से बाहर निकली थी। सुबह से उसने अपने आप को व्यस्त कर लिया था। अलमारी के सभी कपड़ों को ठीक किया गया था। सभी पुस्तकें क़रीने से सजाईं गई। अवि की सब चीज़ें धूल झाड़ कर अलमारी में सँभाल कर रखीं गईं। राजेश के कोट भी निकाल कर धूप खाने रख दिए। और फिर कब से छूटा हुआ अपना एमब्रोइड्री का काम पूरा करने बैठ गई। कांता बाई बीच-बीच में रसोई से झाँक-झाँक कर उसे इस तरह से काम करते देख रही थी। हमेशा चुपचाप गुमसुम उदास सी बैठने वाली मालकिन आज अकारण चहक रही थी।
धीरे-धीरे उसके व्यवहार में बहुत कुछ बदल रहा था। वह सामान्य हो रही थी। अब किसी बात पर उसे ग़ुस्सा नहीं आता था। और कभी आदत वश ग़ुस्सा आता . . . तो अवन्ती की बात याद आ जाती और न चाहते हुए भी होंठों पर मुस्कुराहट तैर आती। मन अकारण प्रफुल्लित रहने लगा था। उसने ही तो मंत्र दिया था मुस्कुराने का . . . आसान बनने का . . . सहज बनने का . . . और यह मुस्कुराना आदत बन जाने का भरोसा भी दिया था। शायद यही मंत्र काम कर गया था। अवन्ती ने तो एक दो दिनों में ही जादू कर दिया था प्रतिमा पर। प्रतिमा उसके प्रभाव में तैरती जा रही थी। हमेशा सोचती . . . “एक दो मुलाक़ातों में ही कभी रिश्ते कितने गहरे बन जाते हैं! सच! रिश्ता समय की दीर्घता की माँग कभी नहीं करता। कभी कभी उम्र भर साथ रहकर भी हम अजनबी बने रहते हैं और कभी कुछ पलों में ही मन के तार जुड़ जाते हैं। अवन्ती भी उसके जीवन में छा गई थी। उसका मुस्कुराता चेहरा कितना भला लगता था, ऊर्जा और शक्ति देता हुआ। प्रतिमा अपने आपको भी वैसा बनाने की कोशिश कर रही थी . . . उसकी ऊब खीज उदासी अवसाद घुटन सब धीर-धीरे कम हो रहे थे। कभी कभी तो वह कमरे का दरवाज़ा बंद कर लेती और घंटों आइने के सामने खड़े होकर सोच में डूबी अपना मुस्कुराता हुआ चेहरा देखती रहती। मन ही मन विचार चलते “कितनी पागल थी मैं . . . न जाने क्यों मैं ने तो जीना ही छोड़ दिया था। बदला तो अब भी कुछ नहीं . . . बस . . . मन बदल लिया तो सब कुछ बदल गया।” अपना मुसकुराता चेहरा कितना सुंदर लगने लगा था। न जाने क्या खिंचाव था अवन्ती में . . . प्रतिमा खिंचती जा रही थी। अबकी बार वह उसके सामने अपना बदला रूप लेकर जाना चाहती थी।
अगले कुछ दिन व्यस्तता में गुज़रे। आज दस दिन हो गए थे। अवन्ती नहीं दिखीं थी। प्रतिमा रोज़ जाती, केवल उससे मिलने के लिए . . . उसकी बातें सुनने के लिए . . . उसकी प्यारी सी मुस्कान देखने के लिए। लेकिन अवन्ती नहीं आई। प्रतिमा घूम लेती . . . चक्कर पूरे हो जाते और क़दम उसी पौधे के रुक जाते . . . उसे कुछ पल देखती रहती . . . पास बैठती . . . सहलाती और ख़ुश होती। वह हरा भरा बड़ा हो रहा था। उखड़ा नहीं था . . . जड़े मज़बूत हो रही थी . . . अब तो एक कली भी आ गई थी। प्रतिमा को उसका जीवन अब अनमोल लगने लगा था।
अगले दिन प्रतिमा ने निश्चय किया कर लिया कि वह जाकर उससे मिल आयेगी। दस दिन हो गए। मन में विचार हलचल मचाने लगे थे . . . “क्या हुआ होगा? शायद कहीं घूमने गए होंगे। इतनी आत्मीयता दिखा रही थी तो आकर बता तो सकती थी . . . घर का पता दिया था न . . . हाँ फ़ोन नंबर न लिया था और न दिया था . . .। रोज़ मिलते जो थे . . . फिर ज़रूरत ही नहीं लगी। लेकिन फिर मन न माना . . . “क्या सोचेगी? बिन बुलाए मेहमान की तरह धमक जाऊँ तो क्या अच्छा लगेगा। कुछ दिन और इंतज़ार कर लेते है। फिर चलूँगी।” प्रतिमा ने आज फिर मन को रोक लिया।
***
पूरे एक सप्ताह बाद राजेश घर आये थे। प्रतिमा काफ़ी ख़ुश थी। राजेश भी बदली हुई प्रतिमा को देख रहा था। न ग़ुस्सा, खीज। हमेशा रूठी और उदास सी दिखने वाली प्रतिमा बड़ी शांत और बड़े प्यार से पेश आ रही थी। राजेश को बहुत अच्छा लग रहा था। वह कुछ चकित तो हुआ था . . . कारण भी जानने की कोशिश की थी लेकिन प्रतिमा सफ़ाई से टाल गई थी। उसने कांता बाई से भी जानने की कोशिश की कि प्रतिमा कैसे अचानक बदल गई पर वह भी निरुत्तर थी। जो भी कुछ हुआ था, अच्छा ही हुआ था। वह तो ख़ुद भी यही चाहता था कि प्रतिमा अपने आप को सँभाले। मन लगाए और ख़ुश रहे। अब तक प्रतिमा ने राजेश को अवन्ती के बारे में कुछ नहीं बताया था। वह चाहती थी कि एक दिन उसे घर पर बुलाएगी और सबको बड़ा सरप्राइज़ देगी।
आज पंद्रह दिन हो गए थे। हर दिन प्रतिमा जाने का प्रोग्राम बनाती और फिर ठहर जाती। हिम्मत नहीं हो रही थी। अंत में हार कर मन ने निर्णय लिया . . . “चलो चलकर देखा जाए . . . हुआ क्या है?” ठान लिया कि अब वह और कुछ नहीं सोचेगी . . . मिल ही आएगी। उसका मन घबरा रहा था . . . क्या पता तबीयत ही ठीक न हो। और भला उसका घर जाकर मिलना अवन्ती को क्यों ख़राब लगेगा बल्कि वह तो ख़ुश होगी उसे देखकर। मिल कर आ जाऊँगी। क्या पता तबीयत अचानक बिगड़ गई हो। और उस तक ख़बर पहुँचे तो भी कैसे? उसके घरवाले तो उसे जानते ही नहीं है अभी।
अगर ऐसा ही हुआ हो तो कुछ दिन बाद जब भी मिलेगी तो अवश्य शिकायत करेगी . . . कि "प्रतिमा जी मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, मैं नहीं आई, पर आप तो एक बार आ सकती थीं? एक बार भी मिलने नहीं आईं?” फिर मैं क्या मुँह दिखाऊँगी? कितना बुरा लगेगा? इसी उधेड़बुन में प्रतिमा कब उनकी बिल्डिंग तक पहुँच गई पता ही नहीं चला।
शाम के पाँच बज रहे थे। धूप अभी भी थी। पार्क के सामने ही बिल्डिंग थी। बिल्डिंग नंबर दो। लिफ़्ट में घुसकर उसने बीस नंबर का बटन दबाया। दरवाज़ा खुलते ही लंबी कोरीडोर में उसकी नज़रें तीन नंबर अपार्टमेंट के दरवाज़े को ढूँढ़ने लगी। घर के बाहर दीवाल पर नेमप्लेट लगी हुई थी, "अवन्ती निवास।” उसके होंठों पर मुस्कान तैर गई। उसने उँगलियों से नेमप्लेट को छुआ। सोचा दरवाज़ा खोलते ही कितना आश्चर्य होगा अवन्ती जी को। मैं भी . . . लेकिन . . . मुँह बनाऊँगी ग़ुस्से से। उन्हें नापसंद है न मेरा ग़ुस्सा तो उन्हें पता तो चले कि मैं कितनी बैचेन थी उनसे मिलने को। प्रतिमा ने अपने आप को सहज किया और बेल दबाई। आज दरवाज़ा खुलने की देरी भी असहनीय लग रही थी। दरवाज़ा खुला लेकिन एक अजनबी चेहरा सामने आया।
“जी किससे मिलना है आपको?”
प्रतिमा सकपका गई, फिर से नेमप्लेट पढ़ा कि कही ग़लत पते पर तो नहीं आ गई।
“देखिए यह अवन्ती जी का घर ही है न . . .?”
“आइए। आइए। आप बिल्कुल सही जगह पर आईं हैं। वैसे मैंने आपको पहले कभी नहीं देखा।” उसने प्रतिमा को सोफ़े पर बैठने का इशारा किया। प्रतिमा को तसल्ली हुई कि सब कुछ ठीक ही है और अवन्ती शायद अंदर होगी . . . अभी उसकी आवाज़ सुन दौड़ी चली आएँगी . . .
“दरअसल मैं कई दिनों से आना चाह रही थी लेकिन . . .।”
“आपने अच्छा किया,” उसने बीच में ही टोक कर कहा, “आप आतीं तो घर पर ताला मिलता। पन्द्रह दिन हम घर पर नहीं थे . . . काशी गए हुए थे। मेरा मायका है वहाँ और अवन्ती दीदी की बरसी भी थी न इसीलिए।”
प्रतिमा को ज़ोर का धक्का लगा। कानों पर विश्वास नहीं आया। नहीं नहीं . . . क्या कहा इसने . . .। क्या सुना? यह औरत क्या बोल रही है . . . पागल तो नहीं हो गई है यह? होश में तो है? या नाम सुनने में मुझसे ग़लती तो नहीं हुई? लेकिन इतने में उसकी निगाहें सामने दीवार पर टँगी अवन्ती की बड़ी सी तस्वीर पर जा टिकीं जिस पर ताज़ा फूलों की माला चढ़ी हुई थी। प्रतिमा हड़बड़ाकर सोफ़े से उठ गई। उसे आँखों पर विश्वास नहीं आया। वह कुछ समझ पाने की स्थिति में नहीं थी। सब कुछ नाटक लग रहा था। यह कैसे हो सकता था? उसे लगा जैसे वह कोई बुरा सपना देख रही है। अभी आँख खुल जाएगी और सब सामान्य हो जाएगा। पाँव काँप रहे थे। दिल की धड़कन तेज़ हो गई थी। बदन पसीने से तर-बतर हो रहा था। तभी कानों पर आवाज़ पड़ी . . .
“पिछले साल जब दीदी की मृत्यु हुई थी न, तब ये विधिपूर्वक संस्कार नहीं कर पाए थे। और फिर घर भी नया ख़रीदा था। पंडित ने साफ़ कह दिया था कि नये घर में केवल शुभ कार्य ही करना चाहिए। फिर क्या करते। फिर एक महीने के अंदर तो मैं भी आ गई थी। मेरे आने के बाद जानती हैं लोगों ने बातें बनाना भी शुरू कर दिया था कि महेश्वर जी दुलहन ले आए पर बड़ी का क्रिया-कर्म भी नहीं किया। अब लोगों का मुँह भी बंद करना था तो इस साल हम काशी गए। अनुष्ठान किया, ब्राह्मणों को भोज दिया तब जाकर इन्हें शान्ति मिली। और देखिए न कहते हैं कि मरे का संस्कार ठीक तरह से न करें तो आत्मा तृप्त नहीं होती। सब निपटाकर हम दो दिन पहले ही वापस आए हैं। आप बैठिए न . . . वहाँ ही खड़ी हैं . . .। आइए न . . . मैं आपके लिए चाय बनाती हूँ। वैसे क्या नाम बताया आपने? मैं राशि द्विवेदी हूँ . . . महेश्वर जी की दूसरी पत्नी।”
प्रतिमा की आँखोंं के सामने अँधेरा छा रहा था। उसका मानसिक सन्तुलन बुरी तरह बिगड़ चुका था। जो दिख रहा था उसका अस्तित्व संदेहात्मक था और जो सुनाई दे रहा था मन उस पर विश्वास नहीं कर रहा था। बुद्धि और शरीर दोनों साथ नहीं दे रहे थे।
“प्रातिमा . . . प्रतिमा अग्रवाल . . . मैं . . . मैं चाय नहीं पीऊँगी। मुझे घर जाना है . . . घर . . .,” प्रतिमा काँपते क़दमों से दरवाज़े की ओर मुड़ी।
“अरे प्रतिमा जी रुकिए . . . क्या हुआ? आप इतनी परेशान क्यों हो गई? आपकी तबीयत तो ठीक है? क्या हुआ? . . . चलिए . . . कोई बात नहीं . . . कुछ देर आराम कर ले तो अच्छा होगा।”
“नहीं मैं चली जाऊँगी,” प्रतिमा की आवाज़ लड़खड़ा रही थी।
“यह मिठाई तो लेकर जाइए। दीदी का प्रसाद है शायद आप के लिए ही एक डिब्बा रह गया था। दीदी तृप्त हो जाएगी,” राशि जल्दी से उठी टेबुल पर रखा मिठाई का डिब्बा प्रतिमा की हथेली पर धर दिया।
प्रतिमा चेतना शून्य बाहर की ओर चल दी। अंदर लावा फट रहा था। सर घूम रहा था। क़दम ठीक नहीं पड़ रहे थे। इसी घबराहट में दरवाज़े पर वह महेश्वर जी से टकरा गई जो तभी अंदर आ रहे थे। गिरते-गिरते बची। उसने अपने आप को सँभाला और तेज़ी से लिफ़्ट की ओर चली।
लिफ़्ट बंद थी। वह बटन दबाना भी भूल गई थी। वहीं बुत सी खड़ी रह गई। तभी महेश्वर जी की आवाज़ सुनाई दी, ”कौन थी ’वो’?”
“प्रतिमा नाम बताया था कह रही थी दीदी की दोस्त है . . .।”
“कितनी बार कहा है तुम्हें अजनबी को घर में मत आने दिया करो,” महेश्वर ने प्रतिमा को सुनाने के लिए जानबूझकर चिल्लाकर कहा। वह जानता था कि प्रतिमा अभी भी लिफ़्ट के पास खड़ी है। . . . “अवन्ती की कोई दोस्त नहीं थी। मैं तो नहीं जानता कि प्रतिमा नाम की कोई थी। ख़बरदार आगे से किसी को घर में बिठाया तो . . .।”
लिफ़्ट का दरवाज़ा खुला। कोई उतरा था, प्रतिमा तेज़ी से अंदर चली गई। पसीने से हाथ में डिब्बे का ऊपरी काग़ज़ भीग चुका था। साँस इतनी तेज़ चल रही थी कि दिल हलक़ से निकल कर बाहर आ जाए।
लिफ़्ट रुकी और वह बाहर तो आ गई लेकिन अब वह अपने घर का रास्ता भी भूल गई थी। समझ नहीं आ रहा था कि उसकी बिल्डिंग किस ओर है। दिमाग़ पूरी तरह से सुन्न हो चुका था। हड़बड़ाहट में वह उलटी दिशा में पार्क की ओर ही चलने लगी।
“दीदी . . . यहाँ कहाँ जा रही हो? और यहाँ क्या करने आई थीं? किससे मिलने?” अचानक किसी की जानी-पहचानी आवाज़ सुन प्रतिमा मुड़ी। कांता बाई थी . . . अपनी ननद के साथ खड़ी हुई।
“कांता . . . कांता . . . प्लीज़। मुझे घर ले चल . . . प्लीज़ . . . मुझे घर जाना है,” प्रतिमा दहाड़ मार कर रो पड़ी।
“हाँ दीदी हाँ। चुप हो जाओ दीदी चुप हो जाओ। ले जाऊँगी। पर दीदी तुम यहाँ आई कैसे और क्यों?” कांता प्रतिमा की हालत देख कर डर गई थी।
“वो . . . वो . . . बीस मंज़िल . . . अवन्ती जी . . . महेश्वर जी . . . बीमा एजेंट,” प्रतिमा कुछ ठीक से बोल भी न पा रही थी।
“क्या . . . क्या कह रही हो दीदी?” कांता का मुँह खुला का खुला रह गया, “उस दिन मैंने तुम्हें सब बताया तो था और तुमने सुना भी था तो फिर कैसे तुम उससे मिलने चली आई?”
कांता की ननद ठुड्डी पर हाथ रखकर प्रतिमा को ऐसे देख रही थी जैसे उसने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो।
“उस पापी से, उस से तुम्हारा क्या काम? दुष्ट कहीं का . . . पत्नी को खा गया . . . उससे मिलने तुम क्यों आई भौजी? मैं तो उसी के घर काम करती थी . . . सिर में फोड़ा हुआ . . . डॉक्टर बोला . . . आपरेशन करने को . . . लेकिन यह दुष्ट बीमा लिया था न पत्नी पर . . . रोज़ इंतज़ार करता था कब मरे तो पैसा मिले और घर ख़रीदे . . . दवा दारू भी बंद कर दी नीच ने . . . बड़ी तड़प-तड़प कर जान निकली बेचारी की . . . बड़ी भली थी . . . मेरी कितनी मदद करती थी . . . किसी को दुखी न देख सकती थी . . . बड़ी देवी आत्मा थी . . . क्रिया कर्म भी नहीं किया दुष्ट ने . . . एक महीने के अंदर शादी कर ली . . . दुलहन ले आया . . . कमीना . . . अब बड़ा धार्मिक बनता है . . . मुझे भी बुलाकर मिठाई दी . . . मैंने तो उसके मुँह पर फेंक दी . . . सज़ा देगा . . . भगवान ज़रूर सज़ा देगा . . . देखना . . . यह भी तड़पेगा उसी की तरह . . . देखना हाँ . . . आप भी मत खाना भौजी . . . मिठाई फेंक दे भौजी,” कांता की ननद सिसकती हुई वह बार-बार आँखें पोंछ रही थी।
प्रतिमा के कानों में सीटीयाँ बजने लगी। चक्कर आ रहे थे। धरती घूम रही थी। अब और कुछ सुनने की हिम्मत ही नहीं रही। कई सवाल पागल किए जा रहे थे . . . “वो कौन थी . . .। कौन थी वो? अगर वो अवन्ती नहीं थी तो क्या यह सब मेरी कल्पना थी . . .? ऐसा कैसे हो सकता है। नहीं . . . नहीं . . .। वो अवन्ती ही थी।” वह पागलों की तरह इधर-उधर देखने लगी। हाथ का डिब्बा कब का नीचे गिर चुका था और गली के कुत्ते दुम हिलाते हुए मिठाई खा रहे थे। वह बुत बनी देख रही थी। अचानक कानों में ज़ोर-ज़ोर के ठहाके सुनाई देने लगे . . .
“महेश्वर . . . संहारक शक्ति . . . पापी . . . क़ातिल . . . ख़ूनी . . .। चली जाओ प्रतिमा . . . चली जाओ . . . फिर यहाँ कभी मत आना।”
प्रतिमा बुरी तरह से हाँफने लगी . . . साँस उखड़ रही थी . . . उसने दोनों हथेलियों से अपने कान बंद कर लिए . . . बस वह वहाँ से निकल जाना चाहती थी . . . चली जाना चाहती थी अपने राजेश के पास . . .। लेकिन मन था जो चीख-चीख कर कह रहा था, “अगर अवन्ती थी ही नहीं तो ’वो’ कौन सी शक्ति थी जिसने तुम्हें पुनः जीवित कर दिया . . . कल्पना . . . मतिभ्रम . . .? और अगर ’वो’ अवन्ती की आत्मा ही थी तो क्या अब वह तृप्त हो गई है? हाँ? . . . तो कैसे? उस पापी महेश्वर के अनुष्ठान से या मेरे पुनर्जन्म से . . .?”